मैं और मेरी कार, हम दोनों के बीच एक अजीब सा बेतार का बंधन है. पढ़ कर चौंकिए मत, मैं अपने पूरे होशोहवास के साथ यह बात कह रही हूं. यों तो मैं ने कार चलाना सीखा था 16 वर्ष की उम्र में पर न वह कार मेरी थी और न ही उस से मेरा कोई रिश्ता जुड़ा. यह रिश्ता तो जुड़ा मेरी अपनी कार से, जो मेरी थी, बिलकुल मेरी अपनी, प्यारी सी, छोटी सी, मेरा सब कहना मानने वाली. जहां कहो चल देगी, न कोई सवाल, न कोई तर्क और न ही कोई बहाना.

तेज चलने को कहो तो तेज चल पड़ेगी और अगर धीरे चलना चाहो तो मन की बात बिना कहे ही सम झ लेगी, एक अच्छे साथी की तरह. उसे जब कोई दुखतकलीफ हो तो अंदर की बात किसी न किसी तरह बता ही देती है, फिर चाहे नौनवर्बल भाषा बोले या फिर शोर मचा कर अपने दिल की बात सम झाए. कुल मिला कर सार यह है कि मैं और मेरी कार एकदूसरे की भाषा अच्छी तरह सम झने लगे और जैसेजैसे समय निकलता गया, हमारे बीच अंडरस्टैंडिंग बढ़ती गई.

इस अंडरस्टैंडिंग का आलम किस हद तक बढ़ गया, इस का एहसास मु झे तब हुआ जब बडे़ साहबजादे ने अपनी पहली तनख्वाह से मेरी गाड़ी में एक म्यूजिक सिस्टम लगवा दिया और कहा, ‘‘मम्मी, अब जरा एक टैस्ट ड्राइव कर के आओ और मजा देखो.’’

मैं ने जैसे ही गाड़ी स्टार्ट की और स्टीरियो का स्विच औन किया, गाना बजने लगा, ‘‘तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अनजाना, तू ने नहीं जाना, मैं ने नहीं जाना...’’

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