(एनआरसी, सीएए और एनपीआर से संकट में किन्नर समाज) 

दिल्ली में शंकर रोड की लालबत्ती पर जब कारें रुकती हैं, एक किन्नर कारों के शीशे खटका कर पैसा मांगता दिखता है. साड़ी-बिन्दी-चूड़ी में वह किन्नर हमेशा उसी चौराहे पर दिखता है. हर बार जब तक ट्रेफिक सिग्नल लाल रहता है, वह चार-छह गाड़ियों से पन्द्रह-बीस रुपया इकट्ठा कर ही लेता है और बदले में देने वाले के सिर पर हाथ फेर कर खुश रहने का आशीर्वाद देता है.

उस रोज मैंने अपनी गाड़ी सड़क किनारे पार्क के पास रोक दी. हरी बत्ती होते ही चौराहे का ट्रैफिक चल पड़ा और वह किन्नर अपनी साड़ी संभालता जल्दी से फुटपाथ पर चढ़ गया. मैंने गाड़ी से बाहर आकर इशारे से उसे बुलाया तो कुछ खास मिलने की हसरत में वह लपकता हुआ चला आया. मैंने पचास का नोट पर्स से निकाल कर उसके हाथ पर रख दिया. वह खुशी-खुशी मेरे सिर पर हाथ फेर कर बोला - खुश रहो, जोड़ी बनी रहे....

मैंने पूछा, ‘क्या नाम है?’

‘मुन्नी...’

‘दिन भर में कितना कमा लेती हो?’

‘यही सौ-दो सौ...’

‘कहां रहती हो?’

‘बड़े पार्क के कोने पर ...’

‘इस चौराहे पर हमेशा तुम ही दिखती हो, कोई और नहीं...?’

‘यह मेरा इलाका, इसीलिए मैं ही दिखती... हमारे में इलाके बंटे हैं... दूसरा नहीं आता मेरे में...’

‘पढ़ी-लिखी हो?’

‘नहीं...’

‘एनआरसी और सीएए के बारे में सुना हैे?’

‘नहीं... क्या है ये?’

‘सरकार सबूत मांगने वाली है तुम्हारे हिन्दुस्तानी होने का... दस्तावेज मांगेगी... मां-बाप का पता ठिकाना मांगेगी... तब रहने देगी यहां... कुछ है तुम्हारे पास?’

‘सबूत...?’ आश्चर्य से उसकी आंखें चौड़ी हो गयीं. ‘मेरे पास कोई सबूत नहीं है... मां-बाप की तो शक्ल ही नहीं देखी...’

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