हालांकि जब 13 मार्च 2020 की दोपहर मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूं तब तक भारतीय शेयर बाजार सुबह-सुबह तगड़ा गोता खाकर फिर से उछलने के मूड में लौट आये थे. बीएसई सुबह खुलने के समय 3600 अंक तक गिरने के बाद दोपहर बाद पिछले दिन के मुकाबले करीब 951 अंक उछल चुका था और निफ्टी में भी 282 प्वाइंट का उछाल देखा जा रहा था. लेकिन कोरोना वायरस के चलते दुनिया की अर्थव्यवस्था में जो भयावह कहर टूटा है, उससे यह क्षणिक राहत शायद मुक्ति नहीं दे पायेगी; क्योंकि कोरोना के कारण न सिर्फ पिछले एक पखवाड़े में कई बार दुनियाभर के शेयर बाजारों में बदहवासी और हड़कंप की स्थिति बनी है बल्कि अर्थव्यवस्था के दूसरे मोर्चों में भी ऐसी ही दहशतों ने आकार डेरा जमा लिया है. सवाल है इसके पीछे किसका हाथ है? क्या वाकई कोरोना वायरस का कहर इतना बड़ा संकट है कि दुनिया के दिलोदिमाग में खत्म हो जाने का भय व्याप्त हो गया है? क्या कोरोना वायरस से वाकई दुनिया के अस्तित्व पर सवालियां निशान लग गया है? ऐसा कुछ भी नहीं है. सच तो यह है कि आज की तारीख में दुनिया में इंसानी जान के लिए जिस तरह के कई दूसरे संकट हैं कोरोना वायरस का कहर उनके मुकाबले कहीं पासंग भी नहीं है.

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विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि हर साल 46 लाख से ज्यादा लोग महज वायु प्रदूषण के चलते मर जाते हैं. इसका मतलब हुआ कि वायु प्रदूषण से हर महीना करीब 3,33,400 लोगों की मौत हो जाती है. अगर इसे दिन में तब्दील करें तो हर दिन 12,777, हर घंटे 532 और हर एक मिनट में 8.87 यानी करीब 9 लोग मर जाते हैं. इसी तरह सीडीसी यानी सेंटर्स फाॅर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक हर साल सड़क दुर्घटनाओं के कारण पूरी दुनिया में 13,50,000 लोग मरते हैं, जो हर दिन औसतन 3,700 होते हैं. यह आंकड़ा भी विश्व स्वास्थ्य संगठन का है. साल 2018 में पूरी दुनिया में हुई सड़क दुर्घटनाओं में इतने लोग मरे थे. जबकि जहां तक कोरोना के कहर की बात है तो अगर अब तक के वैश्विक आंकड़ों को देखें तो पिछले डेढ़ महीने में कोरोना वायरस से पूरी दुनिया में 4800 लोगों की जान ली है और अब तक यह दुनिया के 125 देशों में फैल चुका है. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पूरी दुनिया में 1,34,768 लोग कोरोना से संक्रमित थे. भारत में अब इस वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या बढ़कर 75 हो गई और हमारे यहां पहली मौत भी हो चुकी है. सवाल है क्या इन आंकड़ों को देखते हुए जिस तरह से कोरोना को लेकर दुनिया में भगदड़ और बदहवासी का माहौल बनाया गया है, वह जायज है? हो सकता है यह सहज स्वभाविक हो. लेकिन अगर कल को पता चले कि इसके पीछे एक बड़ी साजिश थी तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

सवाल है कोरोना को लेकर आखिर यह पागलों जैसी हरकतें क्यों हो रही है? अगर भूमंडलीकरण इतना ही कमजोर और इतना की डरपोक आधार पर टिका है, तो फिर इसकी क्या जरूरत है? सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस बदहवासी को फैलाने में उस देश की सबसे बड़ी भूमिका है, जो अपने को हथियारों के मामले में ही नहीं, दवाओं और मेडिकल सुविधाओं के मामले में भी दुनिया का सबसे ताकतवर देश मानता है. उस देश के सबसे ताकतवर व्यक्ति ने इस बदहवासी को फैलाने में आग में डाले जाने वाले घी की भूमिका अदा की है. जी, हां! अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इन दिनों हाथ जोड़कर हर किसी से नमस्ते करते हुए जो तस्वीरें वायरल हो रही हैं, उनसे हम गर्वित नहीं हो सकते. क्योंकि वे नमस्ते की भारतीय शिष्टता का विस्तार नहीं कर रहे बल्कि वह एक ऐसे डरे हुए व्यक्ति की तस्वीरें हैं जो अपनी अदा से दुनिया को और ज्यादा डराने की कोशिश कर रहा है.

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अमरीकी राष्ट्रपति ने आयरलैंड के प्रधानमंत्री से मुलाकात के दौरान हाथ नहीं मिलाया. हाथ जोड़कर नमस्ते की और यह भी कहा कि मैं हाल ही मैं भारत से आया हूं, वहां भी मैंने हाथ नहीं मिलाया क्योंकि हाथ जोड़ना आसान था. हालांकि उनका इसमें स्वभाविक झूठ भी शामिल था. क्योंकि उन्हें हम सबने प्रधानमंत्री मोदी से न सिर्फ हाथ मिलाते बल्कि बार बार गले मिलते भी देखा है. बहरहाल यह महज हाथ जोड़कर व्यक्तिगत रूप से बरती गई सजगताभर नहीं है बल्कि दुनिया को डराने का एक सबसे संवेदनशील तरीका भी है. कोरोना वायरस सिर्फ व्यक्तिगत रूप से मौत के भय का ही प्रचार प्रसार नहीं कर रहा बल्कि इसने अपनी गैरजरूरी संवेदनशीलता के चलते न केवल दुनिया की अर्थव्यवस्था को महज 72 घंटों में चैपट कर दिया है बल्कि करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी पर लात मार दिया है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 31 मार्च तक के लिए स्कूलों, काॅलेजों के साथ-साथ माॅल और सिनेमाहाल बंद करके यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि जैसे वह कोरोना को लेकर कितने सजग हैं. दिल्ली में कोरोना वायरस के संक्रमण को माहमारी भी घोषित कर दी गई है. जबकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक महज 6 लोग इससे संक्रमित पाये गये थे.

इस बदहवासी में सबसे ज्यादा बेनकाब तो वह अवधारणा हुई है जिसे हम भूमंडलीकरण कहते हैं और जिसका गुणगान 90 के दशक से अब तक दुनिया के भविष्य के रूप में होता रहा है. सवाल है क्या इन्हीं दिनों के लिए भूमंडलीय एकता, साझेदारी और मेलमिलाप की कल्पना की गई थी? यह तो बर्बर युग से भी खराब आचरण है कि जरा से संकट आने पर हर देश अपने दड़बे में घुस जाए. अगर संकट के समय सबको अकेले-अकेले ही रहना है, तमाम परेशानियों को अकेले-अकेले ही सहना है तो फिर शांति के समय के लिए भूमंडलीय एकजुटता मिलजुलकर रहने की बड़ी बड़ी दुहाईयों का क्या मतलब है? क्या सिर्फ लाभ और कारोबार के लिए ही दुनियावी एकजुटता होनी चाहिए? क्या किसी संकट से निपटने के लिए इस तरह की एकजुटता की जरूरत नहीं है? कोरोना वायरस को लेकर दुनियाभर में घट रही खुद को लैंडलाक्ड करने की घटनाएं वास्तव में कोरोना द्वारा इंसान की समझ पर जड़ा गया करारा तमाचा हैं.

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