Download App

चुनाव हारने के बाद

‘मैं ने पहले ही कहा था, चुनाव मत लड़ो, मत लड़ो, लेकिन आप मानते कहां हैं. आप ने तो सलाह नहीं मानने की कसम खा रखी है. 5 लाख रुपए पानी में बह गए. रुपया कीमती होता जा रहा है. भले ही डौलर के मुकाबले उस की साख गिरतीबढ़ती जा रही है. इसे देश का वित्तमंत्री जाने. हमारे लिए तो रुपए की
साख बनी हुई है. इतने रुपयों में बेटी के लिए अच्छेखासे गहने आ जाते.

ऊपर छत पर गुड्डा के लिए एक कमरा निकल आता. उस की पढ़ाई के लिए अलग से व्यवस्था होती. बाउंड्रीवाल की मरम्मत हो जाती. अबतब गिरने को है. चीन की दीवार तो है नहीं जो राष्ट्रीय धरोहर बन जाए. एक नई कार आ कर दरवाजे पर खड़ी हो जाती. पुरानी की बिदाई कर देते. ऐसा कुछ नहीं हो सका. आप के ऊपर चुनाव लड़ने का भूत सवार था. भभूत लगा कर बन गए दीवाने. इज्जत गई सो अलग. 5 लाख में 5 हजार भी नहीं बटोर सके. पूरा घरपरिवार हलकान रहा सो अलग.’ इतना कह कर वह शांत नहीं हुई. कौलबेल की घंटी बजी. वह दरवाजे की ओर बढ़ चली. दूध वाला आया था. मुझे राहत मिली. अब कुछ बोलने की मेरी पारी थी.

मैं ने बचाव की मुद्रा में कहा, ‘5 हजार में 55 कम थे. इस से क्या फर्क पड़ता है. चुनाव लड़ कर हमारी इज्जत बढ़ी है. हमारे लोकतंत्र को 65 वर्ष पूरे हो गए. 1952 से लगातार चुनाव हो रहे हैं. हमारे और तुम्हारे खानदान को मिला कर, मैं पहला व्यक्ति हूं जिस ने चुनाव लड़ा. खानदान में पहली

ये भी पढ़ें- मन्नत वाले बाबा

बार चुनाव लड़ने का मजा कुछ और ही है. मेरा नाम तो सुर्खियों में है. हारे हुए और जीते हुए उम्मीदवार के बीच मेरी चर्चा लगातार हो रही है. यह भी एक बड़ी उपलब्धि है. तमाम अखबारों में मेरा जिक्र है. वरना हारे हुए कैंडिटेट को पूछता कौन है. वह तो हारते ही रद्दी की टोकरी में चला जाता है.’
पत्नी ध्यान से सुनती रही. मेरी बात खत्म होते ही वह खिलखिला कर हंसी. फिर सीरियस हो कर बोली, ‘हारने वाले की इतनी चर्चा क्यों है?’

मैं ने कहा, ‘जीतने वाला सिर्फ 1500 वोटों से जीता. हर चक्र में आगेपीछे का खेल चलता रहा. उम्मीदवारों के हृदय की धड़कन कमज्यादा होती रही. पीएम इन वेटिंग का जादू भी नहीं चला. 1000 वोट नोटा में चले गए. इस प्रकार मेरे वोट निर्णायक सिद्ध हुए. कोई कहता है मैं ने हारने वाले के वोट काटे. मैं चुनाव नहीं लड़ता तो हारने वाले को जीत मिलती. उस की जीत भी गई और मंत्री बनने की लालसा अधूरी रह गई. लालबत्ती का सुख दरवाजे तक आ कर लौट गया. जीतने वाला प्रत्याशी तो मेरा मुंह मीठा कर गया. अब समझीं, मेरी भूमिका कैसे निर्णायक रही. इसीलिए अखबारों की चर्चा में मैं बराबर बना हुआ हूं. मुझे मिले वोटों ने कमाल किया है, कमाल.’

पत्नी मेरे तर्कों से संतुष्ट नहीं हुई. चेहरे पर गुस्से के हावभाव दिख रहे थे. तुनक कर बोली, ‘आग लगे आप की ऐसी भूमिका और चर्चा को. जिस के लिए 5 लाख गंवाने पड़े. लाख दो लाख चले जाते तो कोई और बात होती. कमरतोड़ महंगाई के जमाने में इतनी बड़ी रकम खर्च कर अखबारों में बने रहना मुझे पसंद नहीं आया. मेरे भाइयों को बुलवा लिया. वे दोनों अपनाअपना कारोबार छोड़ कर दौड़े चले आए. पिताजी भी दामाद की मदद के लिए आ धमके. मैं कहती रह गई. आप की तबीयत ठीक नहीं. लेकिन मेरी कहां चलती है. कहने लगे, दामाद चुनाव लड़ रहा है. मैं यहां कैसे रह सकता हूं. दुनिया क्या कहेगी. जितना बन पड़ेगा, मदद करूंगा. मेरी सेहत अभी जनसंपर्क के लायक बनी हुई है.

‘दौड़धूप के बाद बीमार पड़ गए. अब मैं उन की सेवाचाकरी में हूं. आप को अखबारों की सुर्खियों से फुरसत नहीं,’ भड़ास निकालने के बाद पत्नी स्थिर हुई. आहिस्ते से बोली, ‘हमारे पास बेईमानी की कमाई तो है नहीं. मुझे तो रातदिन 5 लाख के सपने आते हैं. अभी भले लोगों के चुनाव लड़ने का समय नहीं आया है. मेरी समझ में तो यह भी नहीं आता कि अखबारी चर्चा से आप को क्या फायदा होने वाला है?’
मैं ने शतरंज के माहिर खिलाड़ी की तरह राजा को मात देने वाली मुद्रा में कहा, ‘अखबारी चर्चा के फायदे इतनी आसानी से समझ में आने वाले नहीं हैं. यह दूर की कौड़ी है. चुनाव लड़ने से मुझे जो लोकप्रियता मिली है, वह तो 20 साल से दुकानदारी करते हुए भी नहीं मिली. अभी तक मैं महल्ले का था. अब पूरा शहर जान गया है. यह जानपहचान मेरे कारोबार में काम आएगी. हो सकता है, इसी पहचान के सहारे मैं अपनी दुकानदारी बढ़ा सकूं. अब तो यह तय हो चुका है कि मैं खास दम रखता हूं. तभी तो कहावत बनी है, ‘दमादम मस्त कलंदर.’ मेरी हैसियत पांचहजारी तो हो चुकी है. तुम्हें मालूम है, आज कई ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने अपनी राजनीति पार्षद बन कर शुरू की. कोई पार्षद से मेयर बना, कोई विधायक बना, फिर मंत्री और एक दिन मुख्यमंत्री. शायद मेरी किस्मत में भी ऐसा ही योग हो.’

पत्नी बड़े ही मनोयोग से सुन रही थी. उसे सुनाने के लिए यह अनुकूल समय था.

मैं ने आगे कहा, ‘1 साल बाद नगर पालिका के चुनाव होने वाले हैं. संभव है, कोई पार्टी टिकट दे कर मुझे अपना उम्मीदवार बना दे. सफर की शुरुआत ऐसे ही होती है. गुमनाम उम्मीदवार चुनाव जीत रहा है. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के चुनाव में तहलका मचा दिया है. शायद राजनीति में ईमानदारी का सिक्का चलन में लौट आया है. समझ लो, मेरे लिए यह चुनाव आने वाले कल की तैयारी थी,’ इतना कह कर मैं पत्नी की प्रतिक्रिया जानने को उत्सुक हो उठा.

पत्नी जवाब देने के लिए अपने भीतर से तैयार बैठी थी. वह तुरंत बोली, ‘आप ने तो भाषण देने की अभी से अच्छी प्रैक्टिस कर ली है. मुझे सुनने की प्रैक्टिस करनी होगी. तभी बात बनेगी. आप के विचार अच्छे हैं. अच्छे लोगों को घर से बाहर निकल कर राजनीति में आना चाहिए. लेकिन राजनीति में बेईमानी का बोलबाला जरूरत से ज्यादा है. झूठ पर सच का मुलम्मा चढ़ाया जाता है. तब आप अपनी ईमानदारी के बल पर, कैसे आगे बढ़ोगे और टिके रहोगे, यही तो यक्ष प्रश्न है.’

ये भी पढ़ें- लौट जाओ अमला

इतना कह कर पत्नी मुसकराए बिना नहीं रह सकी.
मैं तुरंत मुसकरा नहीं सका. अपनी ईमानदारी पर हमला होते देख रहा था.
मुझे कबीरदास याद आए, जिन्होंने सैकड़ों साल पहले कहा था :
कबिरा कलियुग कठिन है,
साधु न मानै कोय.
कामी, क्रोधी मसखरा,
तिन को आदर होय.
समय अभी भी नहीं बदला है.

हाय! हाय! हम कहां से लाएं दस्तावेज

(एनआरसी, सीएए और एनपीआर से संकट में किन्नर समाज) 

दिल्ली में शंकर रोड की लालबत्ती पर जब कारें रुकती हैं, एक किन्नर कारों के शीशे खटका कर पैसा मांगता दिखता है. साड़ी-बिन्दी-चूड़ी में वह किन्नर हमेशा उसी चौराहे पर दिखता है. हर बार जब तक ट्रेफिक सिग्नल लाल रहता है, वह चार-छह गाड़ियों से पन्द्रह-बीस रुपया इकट्ठा कर ही लेता है और बदले में देने वाले के सिर पर हाथ फेर कर खुश रहने का आशीर्वाद देता है.

उस रोज मैंने अपनी गाड़ी सड़क किनारे पार्क के पास रोक दी. हरी बत्ती होते ही चौराहे का ट्रैफिक चल पड़ा और वह किन्नर अपनी साड़ी संभालता जल्दी से फुटपाथ पर चढ़ गया. मैंने गाड़ी से बाहर आकर इशारे से उसे बुलाया तो कुछ खास मिलने की हसरत में वह लपकता हुआ चला आया. मैंने पचास का नोट पर्स से निकाल कर उसके हाथ पर रख दिया. वह खुशी-खुशी मेरे सिर पर हाथ फेर कर बोला – खुश रहो, जोड़ी बनी रहे….

मैंने पूछा, ‘क्या नाम है?’

‘मुन्नी…’

‘दिन भर में कितना कमा लेती हो?’

‘यही सौ-दो सौ…’

‘कहां रहती हो?’

‘बड़े पार्क के कोने पर …’

‘इस चौराहे पर हमेशा तुम ही दिखती हो, कोई और नहीं…?’

‘यह मेरा इलाका, इसीलिए मैं ही दिखती… हमारे में इलाके बंटे हैं… दूसरा नहीं आता मेरे में…’

‘पढ़ी-लिखी हो?’

‘नहीं…’

‘एनआरसी और सीएए के बारे में सुना हैे?’

‘नहीं… क्या है ये?’

‘सरकार सबूत मांगने वाली है तुम्हारे हिन्दुस्तानी होने का… दस्तावेज मांगेगी… मां-बाप का पता ठिकाना मांगेगी… तब रहने देगी यहां… कुछ है तुम्हारे पास?’

‘सबूत…?’ आश्चर्य से उसकी आंखें चौड़ी हो गयीं. ‘मेरे पास कोई सबूत नहीं है… मां-बाप की तो शक्ल ही नहीं देखी…’

‘दिल्ली की ही हो?’

‘अब कहां पैदा हुए यह तो नहीं जानते… अपने गुरूभाई के साथ रहते हैं यहां… वह भी मेरे जैसा है…. अगले चौराहे पर भीख मांगता है…’

‘उसको तो पता होगा… सबूत होगा…’

‘नहीं… उसके पास भी कोई सबूत नहीं… कीड़े पड़े सरकार को जो हमसे सबूत मांगे… हाय, हाय, हम कहां से लाएंगे कोई सबूत…?’

लालबत्ती होते ही वह पल्लू संभालते ताली पीटते फिर चौराहे पर रुकती कारों की तरफ भागा. पेट की आग बुझाने के लिए इस तरह चौराहों पर भीख मांगते देश भर में मुन्नी जैसे लाखों किन्नर हैं, जो इसी देश के नागरिक हैं, इसी मिट्टी में पैदा हुए हैं, उनके पुरखे भी सदियों से भारत-भूमि पर रहते आये हैं, मगर इनके पास अपनी आइडेंटिटी प्रूफ करने का कोई दस्तावेज नहीं है. इनको तो पैदा होते ही मां-बाप ने बदनामी के डर से घर से बाहर फेंक  दिया. इनको नहीं मालूम कि ये कब और कहां पैदा हुए. इनका घर कहां है. इनके मां-बाप कौन हैं. ये भारत के नागरिक हैं यह साबित करने के लिए इनके पास कोई दस्तावेज नहीं है. कोई राशन कार्ड, वोटर कार्ड, आधार कार्ड, बर्थ सर्टिफिकेट, ड्राइविंग लाइसेंस, रेजिडेंस एड्रेस प्रूफ कुछ भी नहीं है, फिर भी हैं तो वे भारत के नागरिक ही. जिस मिट्टी में जन्में हैं उसी मिट्टी में मिलना चाहते हैं. कुत्ते-बिल्ली भी मरते दम तक अपना इलाका नहीं छोड़ते, उन्हें पकड़ कर कहीं और डाल आएं तो ढूंढते-ढूंढते वापस आ जाते हैं, फिर ये तो इन्सान हैं, अपनी जमीन से उखड़ कर कहां जाएंगे, कैसे जिएंगे, लेकिन मोदी सरकार को कागज चाहिए, नागरिकता सिद्ध करने वाले कागज. कागज न दिखाए तो वह गरीब, असहाय, निरीह, निरक्षर जनता के पैरों के नीचे से जमीन खींच लेगी. अमित शाह डंके की चोट पर कहते हैं कि एनआरसी होकर रहेगा, सीएए आकर रहेगा.

ये भी पढ़ें- सार्वजनिक पोस्टर पर विवाद, कोर्ट और सरकार आमने-सामने 

असम में एनआरसी हुआ और 2000 किन्नरों से उनकी नागरिकता का अधिकार छीन लिया गया. असम में तैयार नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) में ट्रांसजेंडर समुदाय के दो हजार से ज्यादा लोगों के नाम दस्तावेजों की कमी के चलते  एनआरसी में शामिल नहीं हुआ. इन लोगों को न तो इनके मां-बाप का कुछ पता है, न घर का. इनके परिवारों ने तो इनके जन्म लेते ही इनसे नाता तोड़ लिया है, फिर कहां से लाएंगे ये अपने घर-परिवार का सबूत, अपने जन्म का सबूत, अपने हिन्दुस्तानी होने का सबूत?

असम देश का पहला राज्य है, जहां सीटिजन रजिस्टर लागू किया गया है. असम की पहली ट्रांसजेंडर जज स्वाती विधान बरुआ ने केन्द्र सरकार के इस क्रूर और अन्यायपूर्ण कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर स्वाति विधान बरुआ की याचिका में कहा गया है कि एनआरसी में ‘अन्य’ का कॉलम नहीं दिया गया है. इसका मतलब साफ है कि ट्रांसजेंडर को पुरुष या महिला के रूप में अपना जेंडर बताना होगा, जो कि सम्भव नहीं है. इसके अलावा ज्यादातर ट्रांसजेंडर ऐसे हैं जिन्हें उनके घर वालों ने पैदा होते ही छोड़ दिया है और उनके पास 1971 से पहले का कोई दस्तावेज नहीं है, जो कि एनआरसी के लिए जरूरी बताया गया है.

बरुआ के मुुताबिक ट्रांसजेंडर समुदाय में मतदान की संख्या भी इसलिए कम रहती है क्योंकि इन लोगों के पास वोटर आईडी कार्ड तक नहीं हैं. ये देश के नागरिक होते हुए भी अपने मत का प्रयोग नहीं कर सकते हैं. वहीं सरकार द्वारा वोटर आईडी में जेंडर ऑप्शन भी नहीं बदले गये हैं. बरुआ ने कहा ‘मैं खुद थर्ड जेंडर ऑप्शन के तहत मतदान करना चाहती थी, लेकिन ऐसा नहीं कर सकी. मुझ पर पुरुष श्रेणी के तहत मताधिकार का इस्तेमाल करने का दबाव बनाया गया. मैंने मुख्य चुनाव अधिकारी से भी संपर्क किया ताकि जेंडर सम्बन्धी मेरे कागजात सही हो जाएं, लेकिन मुझसे चुनाव के बाद आने के लिए कहा गया.’

जज स्वाति विधान बरुआ की याचिका पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने असम में अंतिम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से लगभग दो हजार ट्रांसजेंडरों को बाहर करने के केन्द्र और राज्य सरकार के फैसले पर दोनों सरकारों से जवाब मांगा है. मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे, न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायाधीश सूर्यकांत की पीठ ने ट्रांसजेंडर जज स्वाती विधान बरुआ द्वारा दायर जनहित याचिका पर केन्द्र और राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है.

गौरतलब है कि असम में एनआरसी की आखिरी लिस्ट पिछले साल अगस्त में आयी थी. इससे करीब 19 लाख लोगों को बाहर कर दिया गया था, जिसमें 2000 ट्रांसजेंडर भी हैं. अब इन तमाम लोगों की उम्मीदें सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई पर टिकी हैं. जज स्वाति विधान बरुआ आल असम ट्रांसजेंडर एसोसिएशन (एएटीए) की संस्थापक भी हैं और असम की पहली ट्रांसजेंडर जज भी, वह कहती हैं, ‘एनआरसी से बाहर होने की वजह से ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों में आतंक पैदा हो गया है. यह लोग अब इस डर से सड़कों पर नहीं निकल रहे हैं कि कहीं सरकारी अधिकारी उनको पकड़ कर विदेशी घोषित करते हुए डिटेंशन सेंटर में ना भेज दें. बीते 31 अगस्त को एनआरसी की अंतिम सूची प्रकाशित होने के बाद ट्रंसजेंडर समुदाय के लोग पकड़े जाने के डर से पत्रकारों से भी बातचीत नहीं कर रहे हैं. यह लोग बेहद आतंकित हैं.’

बरुआ आगे कहती हैं, ‘भीख मांगना ही आज इस तबके के लोगों का प्रमुख पेशा है, लेकिन अब डर की वजह से जब यह लोग सड़कों पर नहीं निकल रहे हैं तो इनके भूखों मरने की नौबत आ गयी है. जो लोग नाचना-गाना जानते हैं, वह महज शादी-ब्याह या बच्चे होने पर ही वहां नाच-गा कर बख्शीश वसूल रहे हैं.’ जज स्वाति आक्रोशित हैं और आरोप लगाती हैं कि किन्नर समुदाय के लोगों को पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस और दूसरे कागजात मुहैया कराने की जिम्मेदारी राज्य सामाजिक कल्याण बोर्ड की थी, लेकिन उसने अब तक इस दिशा में कोई पहल नहीं की है.

एसोसिएशन के दस्तावेजों के मुताबिक राज्य में वर्ष 2011 में जहां ट्रांसजेंडरों की तादाद 11,374 थी, वहीं अब यह बढ़ कर 20 हजार तक पहुंच गयी है, लेकिन महज दो सौ ट्रांसजेंडरों के ही अपने घरवालों से संपर्क है, बाकियों को अपने घर-परिवार का कुछ पता नहीं है.

राजधानी गुवाहाटी निवासी एक ट्रांसजेंडर जोआना कहती हैं, ‘मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूं कि परिवार के साथ मेरे रिश्ते कायम हैं, इसलिए एनआरसी की सुनवाई के दौरान नागरिकता सम्बन्धी दस्तावेज पेश करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन जिन लोगों के घरवालों ने उनसे नाता तोड़ लिया है, या पैदा होते ही उन्हें सड़क के किनारे फेंक दिया, या जिन्हें किन्नर समुदाय के लोग अपने साथ ले गये, उनके लिए तो अपनी नागरिकता साबित कर पाना असम्भव है.

भारतीय समाज, कानून और थर्ड जेंडर

भारत भौगोलिक रूप से एक विशाल देश है. क्षेत्रफल के हिसाब से भारत विश्व में सातवें स्थान पर है, जबकि जनसंख्या के आधार पर भारत का विश्व में दूसरा स्थान है. भारत की जनसंख्या सन् 2011 की जनगणना के अनुसार 121 करोड़ है. इसमें पुरुषों की संख्या 62,37,24,248 और महिलाओं की संख्या 58,64,69,174 है. भारत में लिंगानुपात 943 है अर्थात 1000 पुरुषों पर 943 महिलाएं हैं.

सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 79.80 प्रतिशत हिन्दू, 14.23 प्रतिशत मुस्लिम, 2.3 प्रतिशत ईसाई, 1.72 प्रतिशत सिख, 0.70 प्रतिशत बौद्ध, 0.37 प्रतिशत जैन और 0.66 प्रतिशत अन्य निवास करते हैं. भारतीय सामाजिक संरचना में एक वर्ग और है जिसे किन्नरों के नाम से जाना जाता है, जो सामाजिक असमानता या भेदभाव से सर्वाधिक पीड़ित है. इसे तृतीय लिंग या थर्ड जेंडर के तहत रखा गया है. इस लिंग के साथ असमानता समाज में चरम पर है. किन्नरों के साथ समाज का कोई भी वर्ग समानता का व्यवहार नहीं करता है. लैंगिक भिन्नता का पता चलने के बाद उन्हें घर, परिवार, स्कूल, कॉलेज, कार्य स्थल आदि सभी जगहों पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

देश में हिन्दू धर्म की प्रमुखता होने के बावजूद देश का कोई एक राष्ट्रीय धर्म नहीं है. संविधान में भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया है. भारतीय संविधान में देश में निवास करने वाले सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये गये हैं. भारतीय संविधान की प्रस्तावना कहती है कि –

‘हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.’

भारतीय संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद-12 से लेकर 35 तक यहां के नागरिकों के मूल अधिकारों के बारे में बताया गया है. अनुच्छेद-14 से लेकर 18 तक में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है अर्थात धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के विभेद को रोका गया है. अनुच्छेद-19 से लेकर 22 तक नागरिकों की स्वतन्त्रता के बारे में है. अनुच्छेद 23 व 24 के अन्तर्गत शोषण के विरुद्ध मूल अधिकार दिये गये हैं. इसके अतिरिक्त समाज में समानता लाने के लिए संविधान के भाग 4 में राज्यों को कर्तव्य करने के निर्देश दिये गये हैं.

ये भी पढ़ें- मध्य प्रदेश – हनुमान भक्त जीतेगा या राम भक्त ?

अन्तरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर सभी को समानता का अधिकार प्राप्त होने के बावजूद लैंगिक आधार पर समाज में विभिन्नता, भेदभाव, शोषण, तिरस्कार का बोलबाला है और इससे सबसे ज्यादा प्रताड़ित किन्नर हैं.

किन्नरों का पुरातन इतिहास

किन्नर समुदाय को – हिजड़ा, अरावानिस, कोठी, जोगप्पा, शिव-शक्ति, मंगलामुखी जैसे अनेक नामों से जाना जाता है. अप्रैल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इस समुदाय को तृतीय लिंग (थर्ड जेंडर) कह कर सम्बोधित किया है. भारतीय समाज में पुरातन काल से लिंगों का निर्धारण कठोर रूप से दो ही रूपों में हुआ है – महिला और पुरुष, किन्तु समाज में एक और वर्ग हमेशा से देखने को मिलता है, जिनके लिंग का निर्धारण निश्चित नहीं होता. ‘किन्नर’ शब्द ऐसे व्यक्तियों के लिए प्रयोग होता है जो निर्धारित लिंग (स्त्री या पुरुष) से असंगति दिखाते हैं. जिनकी शारीरिक विशेषताएं निर्धारित लिंगों से भिन्न होती है या जिनकी शारीरिक विशेषताओं के निर्धारण में असमंजस की स्थिति होती है. इन्हें ‘हिजड़ा’ भी कहा जाता है.

हिजड़ा उर्दू का शब्द है जो कि अरब मूल के शब्द ‘हिज्र’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘एक कबीले को छोड़ना’. इस शब्द-व्याख्या से ही स्पष्ट है कि सदियों पहले भी ऐसे बच्चों को परिवार खुद से अलग कर देता था. उसकी पहचान छीन लेता था. उन्हें समाज से बेदखल कर देता था.

किन्नरों की वास्तविक स्थिति की व्याख्या करने से पहले प्राचीन काल से चली आ रही उनकी स्थिति को समझना आवश्यक है. किन्नर मनुष्य जाति का हिस्सा हमेशा से रहे हैं. किन्नर समुदाय का अस्तित्व ई.पू. 9वीं शताब्दी से लिपिबद्ध है. हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा वैदिक संस्कृति सभी में तीन लिंगों की बात होती है. वैदिक काल (1500-500 ईसा पूर्व) में तीन लिंगों की चर्चा की गयी है – पुरुष प्रकृति, महिला प्रकृति तथा तृतीय प्रकृति. प्राचीन भारतीय कानून, चिकित्सा विज्ञान, भाषा शास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र में भी तृतीय लिंग के बारे में चर्चा है. पुराणों में भी तीन लिंग बताये गये हैं – गन्धर्व, अप्सरा और किन्नर.  महाभारत में भी किन्नरों का उल्लेख मिलता है. अज्ञातवास के दौरान अर्जुन भी एक शाप के कारण साल भर किन्नर वृहन्नला के रूप में रहे थे. वहीं शिखंडी को भी किन्नर ही माना जाता है, जिसने महाभारत के युद्ध में पांडव सेना की ओर से लड़ाई लड़ी थी और जिसकी ओट लेकर अर्जुन ने भीष्म पितामह पर बाण चलाये थे. शिखंडी ही एक तरह से भीष्म की मृत्यु का कारण बना था.

मनुस्मृति (200 बीसी-200 एडी) में तृतीय लिंग की जैविक उत्पत्ति की व्याख्या कुछ इस प्रकार है – ‘पुरुष बीज के अधिक मात्रा में होने से नर शिशु बनता है. स्त्री बीज के अधिक मात्रा में होने से मादा शिशु बनता है और यदि दोनों बीजों की मात्रा बराबर रहती है तो तृतीय लिंग शिशु बनता है या नर-मादा जुड़वां बच्चे होते हैं.’

मुगल काल में समृद्ध थे किन्नर

मुगल काल में किन्नर समुदाय को विशिष्ट स्थान प्राप्त था. उनका राज-दरबार में काफी हस्तक्षेप रहता था. वह कुशल सलाहकार, प्रशासक तथा हरम के संरक्षक के पद पर तैनात थे. मुगल सल्तनत में इनकी वफादारी के लिए शासकों द्वारा इन्हें धन और जमीनें प्रदान की जाती थीं. ये लोग इज्जत के साथ समाज में जीवन बिताते थे, किन्तु ब्रिटिश काल की शुरुआत में किन्नर समुदाय को अनेकों राज्यों से अपनी सुरक्षा के लिए सहायता लेनी पड़ी थी. ब्रिटिश कानूनों ने इनसे जमीन के अधिकार छीन लिये थे. चूंकि इनका जैविक अधिकार खून के रिश्ते पर आधारित नहीं था, इस कारण किन्नरों के जीवन पर संकट आ गया. वे सड़क पर आ गये और भूखों मरने लगे. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे यह समुदाय अपराध में लिप्त होने लगा. चोरी, डकैती, अपहरण, उगाही इनका पेशा हो गया. इसकी रोकथाम के लिए सन् 1871 में ‘क्रिमिनल ट्राइब एक्ट’ लाया गया. इसमें सभी किन्नर समुदाय को शामिल किया गया और उनके लिए सजा का प्रावधान किया गया. हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1952 में यह कानून खत्म कर दिया गया.

वर्तमान हालात

सन् 2011 की जनगणना के आंकड़े दर्शाते हैं कि देश में करीब 19 लाख किन्नर जनसंख्या है, जो कि कुल जनसंख्या का 0.15 प्रतिशत है. यह समुदाय आज भी सामाजिक बहिष्कार का शिकार है. जो आश्रय स्थल, रोजगार, स्वास्थ्य सुविधाएं सामान्यता सभी को मिल जाती हैं, इस समुदाय को हासिल नहीं हो पाती है. किन्नर समुदाय सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन, आर्थिक, राजनीतिक और निर्णय लेने की प्रक्रिया से दूर है. वह अपने परिवार और समाज से बहिष्कृत है. समाज के अन्य लोग इनसे दूरी बरतते हैं, इनसे बातचीत नहीं करते. इनको देखकर एक प्रकार की उपेक्षा और तिरस्कार व्यक्त करते हैं. ये वर्ग हिंसा का भी शिकार है. इन पर पुलिस का कहर आये-दिन टूटता है. इनमें से ज्यादातर अशिक्षित है और स्वास्थ्य सेवाओं तक भी उसकी बहुत सीमित पहुंच है. तमाम सरकार अस्पतालों में स्त्री और पुरुषों को देखने के लिए अलग-अलग व्यवस्था है, उनके लिए अलग वार्ड और अलग डॉक्टर भी हैं, जो उनकी समस्याओं को मनोवैज्ञानिक और संवेदनशीलता के लिहाज से देखते-समझते हैं, मगर किन्नरों के लिए देश के किसी अस्पताल में न तो अलग डॉक्टर हैं, न अलग वार्ड है और न ही मनोवैज्ञानिक और संवेदनशीलता के तहत उनका इलाज होता है. अक्सर इन्हें पुरुष डॉक्टर के पास भेज दिया जाता है, या पुरुष वार्ड में भर्ती किया जाता है. देश की सरकारें इस वर्ग के प्रति कितनी निर्मम रही हैं, यह इन बातों से ही साफ हो जाता है. इनकी शिक्षा के लिए कोई विशेष व्यवस्था सरकारी स्कूलों में नहीं है. यदि कोई किन्नर बच्चा स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए आता है, तो अन्य बच्चों और यहां तक कि टीचर्स और स्टाफ द्वारा उससे भेदभाव बरता जाता है, उनका मजाक उड़ाया जाता है, उन्हें मारापीटा जाता है. यही वजहें हैं कि अधिकांश किन्नर बच्चे दहशत में स्कूल जाना बंद कर देते हैं और अशिक्षित रह जाते हैं.

ये भी पढ़ें- मध्य प्रदेश की सियासत में आया भूचाल, कांग्रेसी विधायक डंग ने दिया इस्तीफा

नीड़ से उजड़े

आमतौर पर भारतीय समाज में यदि कोई नर शिशु अपनी अपेक्षित लैंगिक भूमिका से विपरीत आचरण करने लगता है, स्त्रियों के समान कपड़े पहनना, व्यवहार करना, बोलना  शुरू कर देता है तो परिवार वाले उसकी हालत को समझे बगैर उसे मारने-पीटने, डांटने या धमकी देने लगते हैं. कुछ परिवार तो समाज के मूल्यों के विपरीत लैंगिक आचरण के चलते अपने बच्चे को सभी अधिकारों से बेदखल कर देते हैं या उनका पूर्णतया त्याग कर देते हैं.

अधिकांश लोगों का मानना है कि घर में किन्नर बच्चा पैदा होने से परिवार को सामाजिक अपमान का सामना करना पड़ता है. ऐसे बच्चे के कारण लोग उनका मजाक बनाते हैं. ऐसे बच्चे के विवाह के अवसर भी न के बराबर होते हैं. ऐसा बच्चा उनका वंश भी आगे नहीं बढ़ा सकता, इन तमाम कारणों को देखते हुए परिवार अपने किन्नर बच्चे को कहीं दूर छोड़ आता है, अथवा किन्नर समुदाय स्वयं ऐसे बच्चे को अपने साथ ले जाता है. परिवार भी बदनामी के डर से किन्नर बच्चे को उन्हीं को सौंप देते हैं. किन्नर उस बच्चे को अपनी बस्ती में लाकर उसका पालन-पोषण अपने ढंग से करते हैं और आजीविका चलाने के लिए उसे नाचना गाना सिखाते हैं. बच्चे को कभी नहीं बताया जाता है कि वह किस परिवार में पैदा हुआ या उसके माता-पिता कौन हैं, उसका धर्म क्या है, उसकी जाति क्या है आदि, आदि.

कुछ किन्नर बच्चे, जिन्हें उनके माता-पिता जन्म लेते ही अपने से अलग नहीं कर पाते, वह अन्य भाई-बहनों के साथ बड़े होते हुए माता-पिता द्वारा किये जाने वाले भेदभाव को देखकर आहत होते हैं. वे इस भेदभावपूर्ण व्यवहार को सहन नहीं कर पाते या अपने परिवार के लिए लज्जा का कारण न बनें इसलिए स्वयं ही घर को छोड़कर भाग जाते हैं. कम उम्र में घर छोड़ देने के कारण ये अशिक्षित रह जाते हैं, परिणामस्वरूप नौकरी पाने में या आजीविका चलाने में इन्हें कठिनाई आती है. साथ ही इनके पास अपनी आइडेंटिटी प्रूव करने का कोई पुर्जा नहीं होता है.

पहचान का संकट

कम उम्र में घर छोड़ देने के कारण किन्नर समुदाय के सामने पैसों की कमी की गम्भीर समस्या हमेशा बनी रहती है. शिक्षित न होने के कारण नौकरियां भी नहीं कर पाते और समाज के कुछ लोग किन्नर समुदाय का होने के कारण जानबूझकर इन्हें नौकरी पर नहीं रखते हैं. वे इन पर भरोसा नहीं कर पाते. इनके व्यवहार को उपेक्षा और संदेह की दृष्टि से देखते हैं. किन्नरों के पास स्वयं का रोजगार शुरू करने के लिए पैसा नहीं होता और बिना आइडेंटिटी प्रूफ के सरकार की तरफ से भी वह कोई सहायता प्राप्त नहीं कर पाते. आवश्यक प्रमाण पत्र जैसे – पहचान पत्र, आय प्रमाण पत्र, निवास स्थान पत्र, बैंक खाता, आधार कार्ड, पासपोर्ट इत्यादि न होने से नौकरी-रोजगार से दूर इस समुदाय के अधिकांश लोग भीख मांगने, नाचने गाने या वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर हैं.

आज देश का अधिकांश किन्नर समुदाय गरीब बस्तियों, तंग गलियों में अपना जीवनयापन कर रहा है. जहां मकानों में हवा तक आने-जाने की जगह नहीं है. समाज में हाशिये पर खड़े ये रोजाना किसी न किसी के हाथों प्रताड़ित, अपमानित और तिरस्कृत होते हैं. जनता और लोकतांत्रित तरीके से चुनी गयी सरकारों की उदासीनता और भेदभाव के कारण ये दरिद्रता, भीख मांगने व अपराध के दलदल में फंसते जा रहे हैं.

किन्नरों की प्रमुख समस्या ही ‘पहचान का संकट’ है. किन्नरों की पहचान ही अस्पष्ट है. अत: इन लोगों को आगे भी इसी से जुड़ी हुई समस्याओं का सामना करना पड़ता है. जैसे बच्चा गोद लेने में या उत्तराधिकार की समस्या. कोई दस्तावेज न होने के कारण न तो यह कोई बच्चा गोद ले सकते हैं और न ही घर-जमीन आदि खरीद सकते हैं.

मानव अधिकार दिवस हर साल आता है और चला जाता है. मानव अधिकार के सक्रिय कार्यकर्ता पुलिस हिरासत में होने वाले उत्पीड़न के बारे में चर्चा करते हैं, वे बच्चों और महिलाओं के विरुद्ध होने वाले दुर्व्यवहार, बच्चों की तस्करी आदि के बारे में डिबेट करते हैं, लेकिन किन्नर समुदाय के अधिकारों के बारे में कभी कोई चर्चा नहीं होती है.

ये भी पढ़ें- झारखंड में केजरीवाल की राह पर हेमंत सोरेन: बजट में मुफ्त बिजली, मोहल्ला क्लीनिक का प्रावधान

एक अनुमान के अनुसार करीब पचास फीसदी किन्नर पूर्णत: अशिक्षित हैं. किन्नरों की सर्वाधिक संख्या मुंबई में है. जो वहां भीड़भाड़ वाली गंदी जगहों पर रहते हैं. इनकी कमाई का कोई निश्चित जरिया नहीं है. वे नाच-गा कर, भीक्षा मांग कर या वेश्यावत्ति के जरिए पैसा कमाते हैं. किन्नरों को सड़कों, चौराहों, बाजारों और समुद्र किनारे लोगों से पैसे मांगते देखा जाता है. ये दिनभर में बमुश्किल सौ-दो सौ रुपये तक कमा पाते हैं, जिनसे यह अपनी जरूरत का सामान भर खरीद सकते हैं. बहुत बड़ी तादात में किन्नर मुम्बई में तीस-चालीस सालों से रह रहे हैं, लेकिन अभी भी ज्यादातर के पास कोई पहचान पत्र, राशन कार्ड, निर्वाचन कार्ड नहीं है. इनके पास अपना घर नहीं है. ये समूहों में एक दूसरे का सहयोग करते हुए रहते हैं. तमाम शहरों के रेडलाइट एरिया में इन्हें ठौर मिलता है. भारतीय संविधान इनके अधिकारों के बारे में स्पष्ट रूप से अलग से कुछ नहीं कहता है. ऐसे में मोदी सरकार द्वारा थोपे जा रहे एनआरसी, सीएए या एनपीआर की कसौटी पर यह समुदाय दस्तावेजों के अभाव में किस तरह खरा उतरेगा? इस बात में संदेह नहीं, कि आने वाले वक्त में इस कानून के खिलाफ चल रहे देश व्यापी आन्दोलनों में यह तबका भी जल्द उतरेगा और तालियां पीट-पीट कर मोदी सरकार की भद्द उड़ाता दिखायी देगा.

ज्यादा पगार फसाद हजार

बीती 10 नवंबर को देशभर के प्रमुख अखबारों में राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड का एक छोटा सा विज्ञापन प्रकाशित हुआ था जिस में कुछ रिक्तियों के लिए आवेदनपत्र मंगाए गए हैं. यह बोर्ड भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत काम करता है.

इस विज्ञापन में 2 अहम पदों अपर निदेशक, चिकित्सा और निदेशक, गैरचिकित्सा का वेतनमान 1,23,100-2,15,800 था. पेबैंड 4 के बराबर इस पद के लिए ग्रेड पे 8,700 रुपए था. वेतन की इस सरकारी रामायण का सार इतना भर था कि डैपुटेशन यानी प्रतिनियुक्ति वाले इन पदों के लिए जो उम्मीदवार चुना जाएगा उसे लगभग 1 लाख 75 हजार रुपए पगार मिलेगी.

इतना आकर्षक और तगड़ा वेतन क्यों और काम कितना, इस बात का आकलन या तुलना किसी भी दूसरी सरकारी नौकरी से की जा सकती है कि सभी में बस मलाई ही मलाई है, जिस से जितना हो सके, चाट लो और पेटभरने के बाद चाहो तो लुढ़का भी दो.

क्या सरकार को इतना वेतन देना चाहिए, इस बात पर अलगअलग राय लोगों की हो सकती है, लेकिन इस बात पर शायद ही कोई इनकार में सिर हिलाएगा कि सरकारी नौकरी कोई भी हो, उस में पगार ज्यादा, सहूलियतें बेशुमार, मनमाफिक घूस, कम जिम्मेदारियों और उन से भी अहम बात कम काम होता है. इसलिए जहां भी सरकारी नौकरी दिखती है, लोग मधुमक्खियों की तरह टूट पड़ते हैं.

बात कहने की नहीं है, बल्कि सच भी है कि सरकारी नौकरी वाकई मुफ्त के लंगर की तरह होती है जिस में खाने का न तो कोई बिल आता है और न ही कोई रोकताटोकता है.

फायदे ही फायदे

हर कोई सरकारी नौकरी चाहता है ताकि इत्मीनान से जिंदगी गुजारी जा सके और नौकरी के बाद की जिंदगी यानी रिटायरमैंट के बाद मिलती पैंशन से बुढ़ापा भी सहूलियत से कटे.

यही वजह है कि सरकारी चपरासी या माली बनने के लिए भी पीएचडीधारक तक लाजशर्म छोड़ कतार में खड़े रहते हैं. यह देश की शिक्षा व्यवस्था की दुर्दशा या गिरता स्तर कम, बल्कि सरकारी नौकरी की मौज और लुत्फ उठाने का लालच ज्यादा है कि अगर सरकारी चपरासी, ड्राइवर या माली बनने से 30-40 हजार रुपए महीना पगार मिलती है, तो सौदा घाटे का नहीं.

देश के सभी शिक्षित युवा अगर स्वाभिमानी होते तो शायद यह नौबत न आती. लेकिन जहां शिक्षा का मकसद या पहली प्राथमिकता ही, जैसी भी हो सरकारी नौकरी हासिल करना हो, तो वहां किसी क्रांति की उम्मीद करना बेकार की बात है. हां, इस बात पर झींकने वालों को हल्ला मचाने वाले इफरात से मिल जाएंगे कि सरकारी नौकरी के लिए खूब घूस चलती है और बिना सिफारिश व दक्षिणा चढ़ाए तो आप चपरासी भी नहीं बन सकते. ऐसे में किसी परीक्षा बोर्ड के डायरैक्टर बनने या दूसरी किसी बड़ी नौकरी के लिए लोग क्या कुछ नहीं करते होंगे, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

यही लोग बेहतर जानतेसमझते हैं कि जिंदगीभर की गारंटी और काम न करने वाली सरकारी नौकरी के लिए अगर 2-4 लाख रुपए चढ़ाने भी पड़ें तो सौदा घाटे का नहीं, यह सोच कर तसल्ली कर लेंगे कि सालदोसाल नौकरी नहीं की या देर से शुरू की.

सरकारी नौकरी के फायदे किसी से छिपे नहीं हैं, जिस में पगार प्राइवेट सैक्टर के मुकाबले काफी ज्यादा है और काम न के बराबर है. घूस का प्रावधान तो हरेक सरकारी नौकरी में है ही, वहीं सहूलियतों की भरमार भी है. भविष्य सुनिश्चित करती पैंशन के अलावा चिकित्सा सुविधाएं, इफरात से मिलती छुट्टियां और हर साल कम से कम 8 फीसदी बढ़ती पगार भला किसे नहीं लुभाएगी.

इस सचाई को भोपाल के एक उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है जहां के 31 वर्षीय अविनाश ने एमटैक करने के बाद सरकारी हाईस्कूल में शिक्षक बनना पसंद किया और उस की सहपाठी व कजिन ज्योत्सना ने नामी प्राइवेट कंपनी टीसीएस में मुंबई में नौकरी की. इन दोनों का ही वेतन 40 हजार रुपए के लगभग है.

ज्योत्सना मुंबई के परेल में रहती है, नौकरी पर जाने के लिए उसे सुबह 6 बजे उठना पड़ता है और रात 8 से 10 बजे के बीच अपने फ्लैट में वापस आ पाती है, जिस का उस के हिस्से का किराया 10 हजार रुपए है. इस तरह लगभग 12 घंटे की नौकरी वह करती है और बमुश्किल 8 घंटे की नींद ले पाती है. बाकी के 4 घंटे ही उसे अपने लिए मिलते हैं, जिस से वह अपने दैनिक कामकाज निबटाती है और थोड़ाबहुत वक्त सोशल मीडिया पर गुजारती है.

उलट इस के, अविनाश घर से

25 किलोमीटर दूर सुबह 10 बजे खुलने वाले स्कूल में इत्मीनान से 12 बजे पहुंचता है और आमतौर पर 4 बजे घर के लिए चल देता है. इन 4 घंटों में कितना पढ़ाना है, यह वह खुद तय करता है, क्योंकि न तो प्रिंसिपल उस से कभी कुछ पूछता है और न ही शिक्षा विभाग का कोई अधिकारी कभी स्कूल में आता. अगर भूलेभटके कोई आ भी जाए तो चायनाश्ता कर और पंडों की तरह दक्षिणा अपनी झोली में डाल कर चलता बनता है.

ज्योत्सना और अविनाश की फोन पर अकसर बात होती है जिस में ज्योत्सना मुंबई की अपनी जिंदगी और नौकरी की दुश्वारियां बताती रहती है तो अविनाश उस की नादानी पर हंसता रहता है कि अगर वह भी उस की तरह सरकारी टीचर बनना कुबूल कर लेती तो आराम से घर में पड़ी रह कर अपने सेविंग अकाउंट में पैसा जमा कर रही होती. न तो यहां कोई टीम लीडर होता और न ही ही प्रोजैक्ट नाम की बला होती. यहां क्लाइंट विदेशों से नहीं आते, बल्कि देश के गरीब बच्चे होते हैं जो दिनभर हुड़दंग मचाते, मिडडे मील खा कर कूदतेफांदते घर लौट जाते हैं.

इन दोनों के बीच एकलौता फर्क इतना भर है कि ज्योत्सना मानती है कि उस के सामने अपार संभावनाएं हैं और अगर वह बेहतर काम का प्रदर्शन करेगी तो आज नहीं तो कल, कंपनी में ऊंचे पद पर होगी और अपनी पढ़ाई का सही इस्तेमाल करते योग्यता दिखा पाएगी, जबकि अविनाश के सामने ऐसी कोई चुनौती या लक्ष्य नहीं है. वह 6 घंटे सोशल मीडिया पर रहते टाइमपास यानी समय बरबाद करता है.

इन दिनों कौन बुद्धिमान है और कौन नादान, यह तय करने के हरेक के अपने पैमाने हो सकते हैं लेकिन व्यावहारिक तौर पर अविनाश ने बुद्धिमानीभरा रास्ता चुना था. इसी बात को दूसरे लफ्जों में कहें तो उस ने एक आसान और चुनौतीरहित जिंदगी चुनी थी जिस में कोई भागादौड़ी नहीं है, और न ही पैसों की कमी है. मम्मीपापा साथ हैं, उस के लिए हर सप्ताह एक नया रिश्ते वाला आता है. उस की खुद की कार है और नौकरी जाने की चिंता तो कतई नहीं है.

और मिलता बाजार भाव तो

अविनाश और ज्योत्सना के उदाहरण और तुलना का सरकार और बाजार से भी सीधा संबंध है. सरकार अपने कर्मचारियों को वेतन, वेतन आयोग की सिफारिशों और खुद के बनाए नियमकानूनों के तहत देती है जबकि इस रिवाज, जो अब रूढ़ी बनता जा रहा है, को बदलते वह अगर बाजार भाव से वेतन दे तो शायद ही कोई युवा सरकारी नौकरी प्राथमिकता में रखेगा.

खुद अविनाश मानता है कि प्राइवेट स्कूलों के टीचर उस से 5 गुना ज्यादा मेहनत और काम करते हैं और उन्हें उस से 5 गुना कम तनख्वाह मिलती है. यह एक शिक्षक का सही बाजार मूल्य है कि उसे प्रतिदिन 500 रुपए के लगभग दिए जाएं और काम या पढ़ाई ज्यादा से ज्यादा करवाई जाए.

हरेक सरकारी नौकरी पर यह पैमाना बराबरी से लागू होता है कि उस में काम कम और दाम ज्यादा है. घूस एक अतिरिक्त आमदनी है और सहूलियतों की भरमार है. इसीलिए सरकारी नौकरियों का आकर्षण बरकरार है. यह सब नहीं होता तो अविनाश भी किसी बड़े शहर में किसी सौफ्टवेयर कंपनी में हाड़तोड़ मेहनत कर नौकरी करते देश की तरक्की में अपना योगदान दे रहा होता.

केंद्र और राज्य सरकारों का एक बड़ा खर्च इन सफेद हाथियों को पालने का है, जिस के चलते देश की तरक्की में रोड़े पेश आते हैं. अगर वक्त पर सरकारी कर्मचारियों को तनख्वाह न मिले तो वे कामकाज ठप कर हायहाय करते सड़कों पर नारे लगाते नजर आते हैं. उलट इस के, प्राइवेट सैक्टर के कर्मचारियों को तनख्वाह देर से मिले तो भी वे अपना काम पहले की तरह करते रहते हैं. अब इसे उन की समझ कह लें, धैर्य या फिर मजबूरी, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता सिवा यह साबित होने के कि  हालात जैसे भी हों, वे काम करते हैं.

ज्यादा सरकारी वेतन एक भीषण विसंगति है, जिस का अब दूर होना जरूरी हो चला है, जिस तरह सरकार ने मजदूरों के भाव तय कर रखे हैं, अगर इसी तरह कर्मचारियों को दिहाड़ी से पगार दे तो देश से निकम्मापन दूर होते देर नहीं लगने वाली. किसी निदेशक को बजाय इतने मूल वेतन, ग्रेड पे और जीपी के, सीधे उस के काम के मुताबिक 2 हजार रुपए रोज दिए जाएं तो यह उस के साथ कोई ज्यादती नहीं होगी और न ही यह भी ज्यादती होगी कि जिस दिन वह काम पर न आए उस दिन की तनख्वाह काट ली जाए.

ज्यादा वेतन का काम के स्तर या गुणवत्ता से भी कोई संबंध नहीं है. सरकारी कालेज के एक प्रोफैसर को 7वां वेतनमान लागू होने के बाद औसतन डेढ़ लाख रुपए महीने मिल रहे हैं जबकि प्राइवेट कालेजों में उन्हीं के बराबर शिक्षित और अनुभवी प्राध्यापक 30-40 हजार रुपए में महीनेभर पढ़ा रहे हैं. यह हर कोई मानता है कि प्राइवेट कालेजों की पढ़ाई की गुणवत्ता सरकारी कालेजों से कहीं बेहतर है और वहां कक्षाएं भी नियमित लगती हैं, इसलिए छात्र ज्यादा फीस दे कर वहां पढ़ने जाना पसंद करते हैं.

ठीक उसी तरह सरकारी अस्पतालों में एक लाख रुपए महीने से ज्यादा वेतन वाले डाक्टरों के वक्त पर न आनेजाने की शिकायतें और खबरें आम हैं जिस से मरीज परेशान होते रहते हैं. उलट इस के, प्राइवेट अस्पतालों के डाक्टर या प्रैक्टिशनर्स नियमित रहते हैं जबकि उन्हें सरकारी डाक्टरों से ज्यादा आमदनी अपवादस्वरूप ही होती है.

आरक्षण कनैक्शन

तो फिर ज्यादा वेतन क्यों, जिस से दूसरी कई परेशानियां भी जुड़ी हैं. इन में सब से बड़ी और संवेदनशील जातिगत आरक्षण की है. प्राइवेट सैक्टर में आरक्षण की चर्चा तक नहीं होती. फिर विवाद उठ खड़े होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, लेकिन सरकारी नौकरियों में आरक्षण को ले कर आएदिन तरहतरह के फसाद खड़े होते रहते हैं. लोग सड़कों पर उतर कर धरनाप्रदर्शन करते हैं.

जाहिर है वहां मुफ्त के पैसे हैं जिन्हें कोई नहीं छोड़ना चाहता. सवर्ण चाहते हैं कि आरक्षण खत्म हो जिस से सारी सरकारी मलाई उन के हिस्से में ही आए. वहीं, आरक्षित वर्र्ग अपनी संवैधानिक भागीदारी छोड़ने के लिए तैयार नहीं है.

यह लड़ाई सामाजिक वैमनस्यता की कम, ब्रैड ऐंड बटर वाली ज्यादा है. अगर सरकार वेतन का तरीका बाजार के मुताबिक कर दे तो शायद ही आरक्षण कोई मुद्दा रह जाएगा.

मिशन मोहब्बत

सार्वजनिक पोस्टर पर विवाद, कोर्ट और सरकार आमने-सामने 

नागरिकता कानून के विरोध प्रदर्शन के दौरान हिंसा के आरोपियों से सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की भरपाई से संबंधित वसूली के लिये उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा सार्वजनिक स्थान पर लगाये गये पोस्टर को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार और कोर्ट आमने सामने है. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हिंसा के आरोपियों के सडको पर लगे पोस्टर के संबंध में कहा कि सडको पर किसी भी नागरिक का पोस्टर लगाना उनके सम्मान, निजता और स्वतंंत्रता के खिलाफ है. पब्लिक प्लेस पर संबंधित व्यक्ति की अनुमति के बिना फोटो या पोस्टर को लगाना गैर कानूनी है. यह निजता के अधिकार का भी उल्लघंन है.कोर्ट ने लखनऊ प्रशासन और पुलिस की दलील पर नाराजगी जताते हुये कहा कि 16 मार्च तक यह पोस्टर सडको से हट जाने चाहिये.

चीफ जस्टिस की कोर्ट में चली सुनवाई में महाअधिवक्ता राघवेन्द्र प्रताप सिंह ने अपनी दलील में कहा था कि सरकार के इस निणर्य से भविष्य में ऐसी घटनाओं पर रोक लगेगी.उन्होने यह भी कहा कि ऐसे मामलों मे कोर्ट को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये. कोर्ट ने लखनऊ के जिलाधिकारी और पुलिस कमीश्नर को मामले की सुनवाई के समय कोर्ट में उपस्थित रहने को कहा था पर वह दोनो की कोर्ट में मौजूद नहीं रहे. डीएम की जगह पर एडीएम ईस्ट और पुलिस कमीश्नर की जगह पर डीसीपी नार्थ कोर्ट में मौजूद रहे.

ये भी पढ़ें- मध्य प्रदेश – हनुमान भक्त जीतेगा या राम भक्त ?

यह माना जा रहा था कि होली की छुटटी के खत्म होने के बाद बुधवार 11 मार्च को कोर्ट के फैसले के अनुसार प्रशासन लखनऊ की सडको से कोर्ट के फैसले कि अनुसार यह पोस्टर हटाना शुरू कर देगी. 11 मार्च को सभी की निगाहे इस ओर लगी थी.पर जिला प्रशासन ने यह पोस्टर हटाने के संबंध में कोई पक्ष नहीं रखा. औफ द रिकार्ड खबरों में यह बात सामने आ रही है कि उत्तर प्रदेश सरकार हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखेगी. इस वजह से पोस्टर हटाने के संबंध में कोई कदम नहीं उठाया गया है.

सार्वजनिक स्थल पर ऐसे मामले में इससे बडा कदम 2012 के विधानसभा चुनाव के समय चुनाव आयोग के कहने पर प्रशासन ने उठाया था जब बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी की मूर्तियों को पूरे प्रदेश में विधानसभा चुनाव तक रातोरात कपडों से ढक दिया गया था. बसपा के खिलाफ कई दलों ने चुनाव आयोग से शिकायत में कहा था कि हाथी कह मूर्तियों से बसपा का चुनाव प्रचार होगा. चुनाव आचार संहिता के आरोप में हाथी की मूर्तियों को ढक दिया गया. हाई कोर्ट के निजता कानून के उल्लघन मानते हुये लखनऊ की सडको से नागरिकता विरोधी हिंसा के जिम्मेदार लोगों के पोस्टर प्रशासन के द्वारा नहीं हटाये गये.

ये भी पढ़ें- मध्य प्रदेश की सियासत में आया भूचाल, कांग्रेसी विधायक डंग ने दिया इस्तीफा   

मध्य प्रदेश – हनुमान भक्त जीतेगा या राम भक्त ?

इस मामले में जो हो गया वह ज्यादा अहम है या वह जो हो रहा है या कि फिर वो जो होना होना बाकी रह गया है , ये तीनों ही बातें एक दूसरे से कुछ इस तरह गुंथी हुई है कि इन्हें अभी अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि इस मामले को उलझाने बाले खुद ही कुछ ऐसे उलझ गए हैं कि गिट्टी अब उनसे सुलझाए नहीं सुलझ रही  .  मामला अब रहस्य रोमांच भरे सरीखे उपन्यास जैसा हो चला है जिसे तीन चौथाई पढ़ने के बाद पाठक समझ जाता है कि अब उसे अपने अंदाजे की पुष्टि भर करना है .

कहानी संक्षेप में कुछ यूं है कि मध्यप्रदेश कांग्रेस के एक दिग्गज नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ दी है और वे भाजपाई पुरोहितों के मुहूर्त का इंतजार कर रहे हैं कि आज किस चौघड़िए में उन्हें भगवा साफा पहनाया जाएगा . श्रीमंत के सामंती खिताब से नवाजे जाने बाले  सिंधिया कोई ऐरे गैरे नेता नहीं हैं वे भाजपा और जनसंघ की संस्थापक सदस्य ग्वालियर राजघराने की महारानी विजयाराजे सिंधिया के नवासे हैं , अपने जमाने के धुरंधर और लोकप्रिय कांग्रेसी नेता माधवराव सिंधिया के बेटे है और भाजपा की दो धाकड़ नेत्रियों वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे के भतीजे हैं . ज्योतिरादित्य सिंधिया के गैरमामूली होने का एक प्रमाण यह भी है कि उनके साथ कांग्रेस के 22 और विधायकों ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया है और 8 और विधायक इस्तीफा दे सकते हैं जिससे सवा साल पुरानी कांग्रेसी सरकार गिरने के कगार पर है .

ये भी पढ़ें- मध्य प्रदेश की सियासत में आया भूचाल, कांग्रेसी विधायक डंग ने दिया इस्तीफा

होली के दिन ही मध्यप्रदेश में उनके समर्थन में कितने छोटे बड़े कांग्रेसियों ने इस्तीफे दे दिये इस चिल्लर की गिनती अब बाद में होती रहेगी हालफिलहाल तो बड़े नोट यानि विधायक गिने जा रहे हैं कि कौन सा किसके बटुए में है . 4 दिन पहले तक मुख्यमंत्री कमलनाथ का बटुआ विधायकों से भरा था लेकिन अब उसमें 114 में से महज 88 विधायक बचे हैं हालांकि इनकी सियासी बाजार में कीमत धेले भर की भी नहीं रह गई है लेकिन दाद देनी पड़ेगी कारोबारी और हनुमान भक्त कमलनाथ की जो अभी तक इस बात पर अड़े हैं कि ये रु जल्द ही डालर की कीमत को पछाड़ देंगे .

कमलनाथ को जो ज्ञान अपनी जवानी में इमरजेंसी के दिनों में भी नहीं मिला होगा वह कल के छोरे ने एक झटके में मुफ्त के भाव दे दिया कि अंकल आपके गुरूर से ज्यादा अहम मेरी गैरत है , लिहाजा जै राम जी की .  मैं तो चला राम भक्तों के साथ रामायण पढ़ने आप फिर से सवा करोड़ हनुमान चालीसा का पाठ करो . राम और हनुमान में से किसमे ज्यादा दम है यह आजकल में सामने आ जाएगा .

उधर परेशान राम भक्त भी हैं जिनहोने अपने सैकड़ा भर पैदलों को पुष्पक विमान में ठूंस कर कुरुक्षेत्र के आसपास कहीं शिफ्ट कर दिया है .  कहा जा रहा है कि इनमें से कुछ ने कमलनाथ से टोकन भी ले लिया था कि संकट के वक्त में वे पाला बदल लेंगे लेकिन तब बात और थी अब खेल सिंधिया ने कुछ इस तरह बिगाड़ा है कि किसी की कुछ समझ ही नहीं आया और जब आया तब तक इस कलयुगी रामायण का उत्तरकाण्ड लिखा जाने लगा था .

पुराने जमाने के अखाड़ों में पट्ठों को पहलवान होने की डिग्री उसी वक्त दी जाती थी जब वे उस्ताद को धोबी पाट पछाड़ से चित कर देते थे .  इधर तो पट्ठा एक नहीं बल्कि दो दो गुरुओं को गोबर और खुद को गुड साबित कर दीक्षांत समारोह के लिए दूसरी यूनिवर्सिटी में चला गया . कायदे से तो उसे होली के दिन इनके माथे पर गुलाल लगाना चाहिए थी लेकिन छोरा कालिख पोत गया .  अब दोनों गुरु तिलमिला और बिलबिला रहे हैं कि यह तो खानदानी गद्दार यानि विश्वासघाती है फिर भी हम इसे देखना नहीं छोड़ेंगे . अब इन बुजुर्ग गुरुओं की मोतियाबिंदी आखो के पास देखने सिवाय गुबार और धूल के कुछ बचा ही नहीं है .  इन्हीं मिचमिचाती आखों से वे जब  सिंहासन भी जाते देख लेंगे तभी शायद उन्हें यकीन होगा कि यह द्वापर नहीं बल्कि कलयुग है जिसमें अभिमन्यु चक्रव्यूह में ही मर जाने की रस्म निभाने की मूर्खता नहीं करता  .

ये भी पढ़ें- झारखंड में केजरीवाल की राह पर हेमंत सोरेन: बजट में मुफ्त बिजली, मोहल्ला क्लीनिक का प्रावधान

दूसरे अभिशप्त गुरु जिनहोने ऋषि मुनियों की तरह ही वाणप्रस्थ की आयु में अपने से आधी उम्र की सुंदर युवती से दूसरा विवाह किया था उन  दिग्विजय सिंह का नाम भी किसी पहचान का मोहताज नहीं जिन्हे बची खुची कांग्रेस को डुबोने का श्रेय हर कोई दे रहा है .  ये गुरुजी तो इतने विद्वान और बिंदास हैं कि अस्त्र शस्त्र और मुकुट गिर जाने के बाद भी आल इस बेल  ( थ्री ईडियट फेम ) का नारा लगाते माँ भवानी को गुमराह कर रहे हैं कि जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक लड़ता रहूँगा .  आप तो बस बदस्तूर राजमहल में बैठकर तमाशा देखो और अपनी आखों पर बंधी पट्टी मत खोल लेना इसी में युवराज का भला है , जो नई उम्र के इन चंद शोहदों की सोहबत में आकर जमीनी राजनीति करते भला बुरा और उंच नीच समझने की तमीज भूल बैठे थे .

उधर युवराज बेचारे महल के किस कमरे में दीवान पर लुढ़के किस विधि से अपना गम गलत कर रहे हैं इसकी फिक्र किसी को नहीं . वे तो बेचारे यह भी सलीके से नहीं सोच पा रहे होंगे कि मित्र ने द्रोह किया या मित्र के साथ द्रोह हुआ था जो उसने गदा छोडकर धनुष बाण उठा लिया .

गुरुओं के दूसरे चेले अखाड़े में चिल्ल पों करते और चिल्लाते एक दूसरे को और ज्यादा  चिल्लाने उकसा रहे हैं मानों यह युद्ध अब चिल्लाने से ही जीता जा सकता है . एक बानर राज था बाली जिसके बारे में कहा जाता है कि वह सामने बाले का आधा बल खींच लेता था इसलिए राम ने उसे छिपकर छल पूर्वक मारा . सिंधिया दोनों गुरुओं के साथ साथ इन चेलों को भी  बलहीन कर गए हैं लेकिन छल से बचने समझदारी दिखाते सीधे रामदरबार में जाकर दंडवत हो गए . उन्होने यह तक नहीं सोचा कि आखिर वे जैसे भी हैं , हैं तो राजा और इन गंगू तेलियों के सामने बिछना उनकी शान के खिलाफ है फिर शायद उन्होने यह भी सोचा होगा कि यहाँ कौन सी आरती उतारी जा रही थी उल्टे गुरुजन तो कह रहे थे कि सड़क पर आकर जो बन पड़े सो कर ले . सोचा तो उन्होने यह भी होगा कि इन लोगों ने जब उनके पिता को भी नहीं बख्शा था तो उन्हें कैसे छोड़ देंगे लिहाजा राम की शरण में चला जाए गारंटेड उद्धार वहीं से मिलेगा .

अब इस सियासी गेंगवार का पटाक्षेप होना शेष है जिसमें यह तय होना है किसको क्या इनाम और बख्शीश दी जाएँ .

चिड़िया चुग गईं खेत: भाग-5

वह शाम भी उस ने जूली के साथ बिताई. पूरे समय जूली उस का आभार प्रकट करती रही. उस ने मनोज को कसम खिलाई कि वह भारत वापस जा कर उसे भूलेगा नहीं और हमेशा उसे फोन करेगा.

दूसरे दिन मनोज भारत के लिए वापस निकल आया. जूली ने आंखों में आंसू भर कर उसे भावभीनी विदाई दी. उस ने वादा किया कि वह जल्द से जल्द उसे पैसे वापस करेगी.

भारत वापस आने पर मनोज का हर रोज जूली से बात करने का सिलसिला जारी रहा. बातों से ही उसे पता चला कि जूली अपने घर लौट गई है और उस ने शौप खोल ली है. वह हर रोज अपने कार्य की प्रगति के बारे में उत्साह से उसे बताती, जैसे आज उस ने क्या खरीदा, उसे शौप में कैसे जमाया, लोग उस की दुकान पर आने लगे हैं, उसे उस के पैसे जल्द से जल्द चुकाने हैं इसलिए वह ज्यादा से ज्यादा मेहनत कर रही है.

इधर, दिन, हफ्ते, महीने बीत गए पर जूली ने मनोज का एक भी पैसा वापस नहीं किया. मनोज को तो भावेश, सुरेश और बाकी लोगों के पैसे वापस करने ही पड़े. दोनों अकसर उसे कहते कि उस ने धोखा खाया है. जूली ने उसे बेवकूफ बनाया है पर मनोज का मन यह मानने को तैयार नहीं होता. लेकिन आजकल वह जब भी जूली से पैसे लौटाने की बात करता, वह टालमटोल करने लगती, अपनी परेशानियां गिनाने लगती. फिर एक दिन अचानक जूली ने अपना फोन बंद कर दिया. मनोज महीनों उसे फोन लगाता रहा पर वह नंबर स्विच औफ ही आता. अब तो मनोज भी समझ गया कि उस ने धोखा खाया.

वह रातदिन जूली को गालियां देता और अपनी मूर्खता पर पछताता. ठगे जाने से वह बुरी तरह तिलमिला रहा था. उसे सब से ज्यादा जलन इस बात पर हो रही थी कि उस के दोस्त इस से बहुत कम पैसों में लड़कियों के साथ ऐश कर आए और वह इतना सारा पैसा खर्च कर के भी सूखा रह गया. बेकार की भावनात्मक सहानुभूति में पड़ कर अच्छाभला चूना लग गया.

2 साल बीत गए. जूली का अतापता नहीं था. मनोज भी उस कसक को जैसेतैसे कर के भूल गया था.

एक दिन मुंबई में उस का एक दोस्त उस से मिलने आया. दोनों औफिस में मनोज के केबिन में बैठ कर बातें कर रहे थे. बातों ही बातों में उस के दोस्त अजय ने उसे बताया कि वह हाल ही में थाईलैंड के पटाया शहर गया था. और उस के बाद अजय की कहानी सुन कर मनोज सन्न रह गया. उसे लगा कि जैसे अजय उस की ही कहानी सुना रहा है. उस की कहानी का प्रत्येक शब्द और घटना वही थी जो

2 साल पहले मनोज के साथ घटी थी.

मनोज के घाव हरे हो गए. उस ने अजय को अपनी आपबीती सुनाई. सुन कर अजय भी बुरी तरह चौंक गया. उस ने तुरंत जूली को फोन लगाया क्योंकि उस के पास उस का नया नंबर था ही. उस ने स्पीकर औन कर के जूली से बात की. जूली की आवाज सुनते ही मनोज उसे पहचान गया. उस ने अजय को इशारे से बताया कि यह वही है. अब तो अजय भी बौखला गया और मनोज का तो गुस्से से बुरा हाल हो गया. उस के अंदर लावा उबलने लगा. वह जूली को अनापशनाप बोलने लगा. पहले तो वह अचकचा गई फिर मनोज को पहचान गई. मनोज उसे गालियां देने लगा तो जूली को भी गुस्सा आ गया.

‘‘देखिए, मिस्टर मनोज, जबान संभाल कर बात करिए. आप को कोई हक नहीं बनता मुझे बुराभला बोलने का,’’ जूली तीखे स्वर में बोली.

‘‘धोखेबाज, एक तो धोखा देती हो ऊपर से तेवर दिखाती हो. उलटा चोर कोतवाल को डांटे,’’ मनोज तिलमिला कर बोला.

‘‘धोखेबाज कौन है यह अपनेआप से पूछो,’’ जूली कड़वे स्वर में बोली, ‘‘तुम मर्द लोग विदेश जा कर कम उम्र की लड़कियों के साथ रंगरलियां मनाने और ऐश करने के लिए सदा लालायित रहते हो. दूसरी लड़कियों के साथ गुलछर्रे उड़ाने को आतुर रहते हो. लड़कियों के साथ घूमने और एंजौय करने, मौजमस्ती करते समय तुम्हें एक बार भी यह खयाल नहीं आता कि तुम अपनी पत्नियों के साथ धोखा कर रहे हो. लड़कियां तुम्हें हंस कर देख लें, तुम्हारे साथ मौजमस्ती कर लें तो तुम्हें अपना जीवन सार्थक और धन्य नजर आने लगता है. बोलो, तुम्हारा अंतर्मन एक बार भी तुम्हें कचोटता नहीं है?’’

फिर थोड़ा रुक कर –

‘‘मैं ने न तुम्हारी जेब काटी न बंदूक दिखा कर तुम्हें लूटा है. पैसे तुम ने अपनी मरजी से मुझे दिए थे.’’

‘‘लेकिन तुम ने पैसे वापस करने को तो कहा था न? उस का क्या?’’ मनोज गुस्से से बोला.

‘‘हां, कहा था. नहीं कहती तो क्या एक गरीब और असहाय लड़की की सहायता बिना किसी लालच के करते तुम लोग? नहीं, कभी नहीं करते. धोखा असल में मैं ने तुम्हें नहीं दिया, तुम्हारी गलत प्रवृत्ति ने तुम्हें दिया है. सचसच बताना, पैसा देने के बाद क्या तुम्हारे मन में मेरे साथ हमबिस्तर होने की तीव्र इच्छा नहीं हो रही थी? पैसे के एवज में क्या तुम लोग मेरा शरीर नहीं चाह रहे थे. वह तो मैं पूरे समय तुम्हें शराफत का वास्ता देती रही, इसलिए बच गई. और मैं तुम्हारी मर्यादा और चरित्र की झूठी तारीफें भी इसीलिए करती रहती थी कि तुम लोग अपनी हद में रहो.’’

जूली की बातों की सचाई ने मानो उन्हें नंगा कर दिया. दोनों एकदूसरे से नजरें चुराते हुए सिर नीचा कर के बैठे रहे और जूली बोलती रही.

‘‘सच कहूं तो पुरुषों को उन की प्रवृत्ति ही धोखा देती है. नया रोमांच, नया अनुभव पाने की इच्छा ही उन्हें डुबोती है. तुम लोग अपनी पत्नियों के प्रति वफादार होते नहीं और हमें गालियां देते हो. क्या बुरा करती हूं जो तुम जैसे मर्दों से पैसा ऐंठ कर मैं आज तक अपनी इज्जत बचाती आई हूं. आज के बाद मुझे कभी फोन मत करना क्योंकि यह नंबर मैं आज ही बंद कर दूंगी. अच्छा हुआ, जो अजय को भी सच पता चल गया. गुडबाय,’’ और जूली ने फोन काट दिया.

अजय और मनोज सन्न हो कर चुप बैठे थे, जूली ने उन्हें आईना दिखा दिया था. चिडि़यां खेत चुग चुकी थीं.

चिड़िया चुग गईं खेत: भाग-4

बच्चों और सासससुर व घर की देखभाल में लीन एक आदर्श भारतीय नारी. उस की पत्नी, मां और बहू के रूप में आदर्श भारतीय नारी थी. लेकिन वह मनोज के स्वभाव के अनुकूल नहीं थी.

मनोज मस्तमौला, खिलंदड़ स्वभाव का था. वह चाहता था कि मीरा भी उस के साथ दोस्तों की महफिलों में जाए, हंसीमस्ती करे, पार्टियां मनाए, कैंडललाइट डिनर करे, परंतु मीरा को यह सब पसंद नहीं था. उस के पीछे हर समय घर या बच्चों का कोई न कोई काम लगा ही रहता था और मनोज मन मसोस कर रह जाता.

मनोज के दोस्त लड़कियों के साथ अपनी दोस्ती और मौजमस्ती के किस्से सुनाते तो मनोज का दिल भी बल्लियों उछलने लगता था. पर क्या करे, उस के तो औफिस के उस विभाग में, जहां वह काम करता था, एक भी लड़की नहीं थी.

मगर अब जूली से मिलने के बाद मनोज के मन की रंगीनियां जागने लगी थीं. आज का कैंडललाइट डिनर उस के दिल को छू गया था. पैसे को हमेशा किफायत और संभाल कर खर्च करने वाला मनोज अब दिल खोल कर पैसा खर्च कर रहा था ताकि दिल की वर्षों से अधूरी पड़ी तमन्नाएं पूरी हो जाएं.

सुबह मनोज की आंख जल्दी खुल गई. वह देर तक जूली के बारे में सोचता हुआ पलंग पर पड़ा रहा. 8 बजे भावेश और सुरेश फिर से आ धमके मसाज के लिए. आज मनोज सहर्ष तैयार हो गया. तीनों फिर पहुंचे पार्लर. जूली व्यग्रता से मनोज की राह देख रही थी. वह लपक कर उस के पास आई और हाथ पकड़ कर उसे केबिन में ले गई.

आज मसाज के समय मनोज के मन में इच्छाओं के सर्प फन उठा रहे थे. नसों का लहू बारबार आवेश से तेज हो रहा था. पर जूली मसाज करते हुए पूरे समय मनोज के सचरित्र और सभ्यता, संस्कारों के गुण गाती रही, इसलिए वह कुछ बोल नहीं पाया. अपने मन को जबरदस्ती काबू में कर के रखा. आज उन लोगों को शहर से बाहर समुद्र के किनारे पेरासीलिंग के लिए जाना था. बे्रकफास्ट कर के वे लोग निकल जाएंगे और देर शाम को वापस आएंगे. सुनते ही जूली का चेहरा उतर गया तो मनोज ने उसे आश्वासन दिया कि वह डिनर उसी के साथ करेगा.

दिनभर के कार्यकलापों में मनोज बहुत थक चुका था. वह पलंग पर पड़े रहना चाहता था लेकिन जूली से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था. गरमागरम पानी से नहा कर वह तैयार हो कर नियत समय पर नियत स्थान पर पहुंच गया. जूली वहां पहले से ही प्रतिक्षारत खड़ी थी. आज उसे देखते ही भावातिरेक में जूली ने उसे गले से लगा लिया. मनोज फड़क उठा. उस की सारी थकान दूर हो गई. देर तक वे पटाया की रंगीन चकाचौंध और मस्ती से भरी हुई सड़कों पर घूमते रहे. फिर एक रैस्टोरेंट में आ कर बैठ गए. वहां का माहौल मदहोश कर देने वाला था. डांसफ्लोर पर जोड़े एकदूसरे की बांहों में खोए हुए झूम रहे थे.

जूली ने मनोज से डांस का प्रस्ताव रखा. उसे तो मुंहमांगी मुराद मिल गई. वह झट से उठ बैठा. जूली के जवान और मस्ती में चूर शरीर के सान्निध्य में मनोज अपनी सुधबुध खो बैठा. वह इस नए अनुभव में पूरी तरह मदहोश हो गया. जूली का नशा उस पर पूरी तरह चढ़ चुका था. वह उस के जादू में गिरफ्तार हो गया.

डिनर करते समय जूली ने आंखों में आंसू भर कर फिर अपनी व्यथा सुनाई कि मातापिता की वृद्धावस्था और दवाइयों के बढ़ते खर्च के दबाव के चलते उस की मां ने कल फिर से उसे रेड जोन में जाने का आग्रह किया. कल उस की मां ने उसे बहुतकुछ उलटासीधा सुनाया कि उसे उन की जरा सी भी चिंता नहीं है, वह तो बस अपनेआप में ही मस्त है.

‘‘मैं उस गंदे धंधे में नहीं पड़ना चाहती मनोज, पर मां लगातार मुझ पर दबाव बनाती जा रही हैं. हर दूसरे दिन मुझे बुराभला कहती रहती हैं. मैं क्या करूं, इस से तो अच्छा है मैं आत्महत्या कर लूं,’’ जूली सुबकते हुए बोली.

‘‘नहींनहीं, जूली.’’ उस के हाथ पर सहानुभूति से अपना हाथ रखते हुए मनोज ने उसे सांत्वना दी, ‘‘ऐसे निराश नहीं होते. मैं जाने के पहले ऐसा इंतजाम कर जाऊंगा कि तुम्हें इस कीचड़ में न धंसना पड़े.’’

‘‘ओह मनोज, सच में. मैं ने अपने जीवन में तुम्हारे जैसा सच्चे और भले हृदय का आदमी नहीं देखा,’’ भावनाओं के अतिरेक में जूली ने मनोज का हाथ अपने दोनों हाथों से पकड़ कर चूम लिया.

उस रात होटल के कमरे में सोया मनोज सुबह होने तक इसी उधेड़बुन में पड़ा रहा कि क्या करे और क्या नहीं. एक क्षण उसे एहसास होता कि वह व्यर्थ ही जूली के चक्कर में पड़ गया है. 4 दिनों के लिए आया है, घूमेफिरे और लौट जाए. बेकार ही यह जंजाल उस ने अपने गले बांध लिया है. जिंदगी में दोबारा कभी उस से मुलाकात तो होगी नहीं, फिर इतना पैसा वह क्यों उस पर खर्च करने की सोच रहा है.

पर दूसरे ही क्षण उस का पुरुषत्व उसे धिक्कारता कि वह एक बेबस की मदद करने से कतरा रहा है. वह भी चंद पैसों के लिए. सच तो यह था कि वह गले तक जूली के आकर्षण में डूब चुका था. उस में पता नहीं ऐसा क्या था कि वह अपनेआप को जूली से तटस्थ नहीं रख पा रहा था. आखिर में उस ने यही तय किया कि वह जूली की मदद अवश्य करेगा. तब जा कर उसे नींद आई.

2 हजार डौलर मामूली रकम नहीं थी. दूसरे दिन भावेश, सुरेश और दोएक और दोस्तों के पास से इकट्ठा कर के मनोज ने ठीक 2 हजार डौलर जूली को दिए. क्षणभर को जूली हतप्रभ सी खड़ी डौलर्स को देखती रही, फिर मनोज के गले लग कर रोने लगी. उस की आंखों में खुशी के आंसू बह रहे थे. उस का स्पर्श पा कर मनोज के दिल में तरंगें उठने लगीं. मन में यह लालसा होने लगी कि काश, अब तो जूली खुश हो कर बस एक बार समर्पण कर दे. पर ऊपर से मर्यादावश वह कुछ बोल नहीं सका. अफसोस, जूली ने भी ऐसी कोई इच्छा नहीं जताई.

आगे पढ़ें- वह शाम भी उस ने जूली के साथ बिताई. पूरे समय…

चिड़िया चुग गईं खेत: भाग-3

‘‘लेकिन यहां पार्लरों में जिस तरह के लोग आते हैं तुम कब तक अपनेआप को बचा कर रख पाओगी?’’ मनोज ने पूछा.

‘‘हां, कभीकभी बहुत परेशानी में पड़ जाती हूं, बहुत डर लगता है. पर अब तक बची हुई हूं. इसीलिए जल्द से जल्द यहां से वापस जाना चाहती हूं क्योंकि आप जैसे शरीफ और सच्चे लोग हर रोज नहीं मिलते,’’ जूली ने एक बार फिर से मनोज की तारीफ की तो वह और अधिक खिल उठा.

‘‘पर तुम वापस जा कर करोगी क्या?’’ मनोज ने सवाल किया.

‘‘मैं एक गिफ्ट शौप खोलना चाहती हूं. मेरे छोटे से शहर में ज्यादा दुकानें नहीं हैं. अगर मैं शौप खोल पाई तो अपने परिवार का पालनपोषण करने के लायक अच्छा काम कर सकूंगी और फिर मुझे रेड जोन की जिल्लतभरी जिंदगी जीने की कोई जरूरत नहीं रहेगी,’’ जूली आशाभरी आवाज में बोली.

‘‘कितनी रकम की जरूरत है तुम्हें शौप खोलने के लिए?’’ मनोज के मुंह से न चाहते हुए भी जाने कैसे यह सवाल निकल गया.

‘‘2 हजार डौलर में एक अच्छी शौप गांव में खुल सकेगी,’’ जूली ने उत्साहित स्वर में जवाब दिया.

मनोज के गले में जैसे अचानक ही कुछ अटक गया. जूली उस की मनोदशा समझ कर गंभीर मगर रोंआसे स्वर में बोली, ‘‘मैं जानती हूं, यह बहुत बड़ी रकम है. और आज के युग में इतना बड़ा दिल किसी का नहीं होता कि बिना लड़की का इस्तेमाल कर के उसे एक तिनका भी दे दे. आजकल तो सब मर्द शरीर के लोलुप होते हैं. लड़की का जीभर कर इस्तेमाल किया और फिर उस के हाथ में चंद नोट पकड़ा दिए. बिना स्वार्थपूर्ति के महज इंसानियत के नाते लड़की की मदद करने वाले बड़े दिल के स्वार्थरहित सच्चे मर्द आजकल बचे ही कहां हैं.’’

जूली ने एक तीखी चुभती हुई नजर से मनोज को देखा. जूली के आक्षेप से मनोज के अंदर का मर्द तिलमिला गया. उसी क्षण उस के अहं ने सिर उठाया, ‘क्या तुम सच्चे और शरीफ मर्द नहीं हो?’

‘‘नहींनहीं, जूली, मर्दों के बारे में तुम्हारी यह धारणा सही नहीं है. सारे मर्द ऐसे शरीर लोलुप नहीं होते,’’ मनोज ने हड़बड़ा कर उत्तर दिया.

‘‘अरे जाने दीजिए, मनोजजी, मेरा तो रातदिन मर्दों से ही वास्ता पड़ता रहता है. मैं अच्छे से समझ चुकी हूं मर्दों की फितरत और नियत को,’’ जूली कड़वे स्वर में बोली.

‘‘नहीं जूली, तुम्हें मर्दों के बारे में गलत धारणा बना कर नहीं रखनी चाहिए. सारे मर्द एक जैसे नहीं होते,’’ मनोज गंभीर स्वर में बोला.

‘‘मेरा पाला तो आज तक कामुक पुरुषों से ही पड़ा है. मसाज करवाते समय ऐसीऐसी हरकतें करते हैं कि अपनेआप से ही घृणा होने लगती है,’’ जूली की आंखें छलछला आईं.

क्षणभर को मनोज को उस अनजान विदेशी लड़की से सच्ची सहानुभूति हो आई पर उस ने जल्द ही अपनेआप को संभाल लिया. कहीं सहानुभूति जताते ही यह पैसा न मांगने लगे. पर तभी मन के एक कोने में एक धिक्कार सी उठी कि उस से मसाज करवाने में बातें करने में उस के साथ रैस्टोरेंट में मिलने आने में उसे कोई एतराज नहीं है पर उस की मदद के नाम से वह कतरा रहा है. आखिर कहीं न कहीं वह एक कम उम्र खूबसूरत जवान लड़की के प्रति किसी प्रकार का तीव्र आकर्षण अपने मन में महसूस तो कर ही रहा है न.

शाम ढलने लगी थी.

‘‘अब आप कहां जाएंगे?’’ जूली उस से पूछ रही थी.

‘‘मैं सोच रहा हूं कि आज फ्री हूं तो पत्नी और बेटों के लिए कुछ शौपिंग कर लूं,’’ मनोज ने कहा, ‘‘यहां आसपास कोई मौल है क्या?’’

‘‘मौल में तो आप को सबकुछ बहुत महंगा मिलेगा. यहां से पास में ही एक लोकल मार्केट है. वहां क्वालिटी भी अच्छी मिलेगी और कीमतें भी मौल की अपेक्षा काफी कम हैं. यदि आप चाहें तो मैं आप को वहां ले जा सकती हूं. शाम को मैं फ्री हूं,’’ जूली ने प्रस्ताव रखा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. चलो, चलते हैं. अच्छा है मुझे एक खूबसूरत और अनुभवी गाइड मिल जाएगी,’’ अब की बार जूली का मन हलका करने के लिए मनोज ने उस की तारीफ कर दी. जूली का चेहरा खिल गया.

दोनों मार्केट की ओर निकल गए. मार्केट जाने वाली स्ट्रीट पर चारों ओर का वातावरण बड़ा ही उन्मुक्त था. हर ओर लड़केलड़कियां, औरतआदमी छोटेछोटे कपड़ों में एकदूसरे की कमर में हाथ डाले मस्ती में चूर दीनदुनिया से बेखबर अपने ही रंग में झूमते हुए घूम रहे थे. मनोज ने अपने जीवन में पहली बार ऐसी उन्मुक्तता देखी थी. उस का दिल यह सब रंगीनियां देख कर फड़कने लगा.

जूली उस के दिल की हालत समझ गई. उस ने मनोज की कमर में हाथ डाला और उस का हाथ अपने कंधे पर रख लिया और हंस पड़ी. फिर वह भी मनोज के साथ मस्त हो कर घूमने लगी. जूली के स्पर्श से मनोज का रोमरोम सुलगने लगा पर उस ने अपनेआप पर नियंत्रण रखा. हां, उस पर एक मीठी रूमानियत छाने लगी थी. एक लड़की के साथ इस तरह से घूमने का उस का पहला अनुभव था.

जूली ने सही कहा था. यहां पर सुंदर विदेशी वस्तुओं की भरमार थी और काफी सस्ती भी थीं. मनोज ने पत्नी और बच्चों के लिए ढेर सारी शौपिंग कर ली. जूली की आंखों में भी कुछ वस्तुओं को देख कर चमक उभर आई थी जिसे मनोज ने भांप लिया. उस ने जूली को भी वे चीजें खरीद दीं जिन्हें जूली ने बड़े उत्साह और खुशी से स्वीकार कर लिया.

उस रात मनोज ने एक रैस्टोरेंट में जूली के साथ कैंडललाइट डिनर किया. देर रात वह अपने होटल में वापस आया तब तक सब सो चुके थे. उस ने राहत की सांस ली. वरना भावेश और सुरेश व्यर्थ ही प्रश्नों की झड़ी लगा देते.

पलंग पर लेट कर भी मनोज की आंखों में नींद नहीं थी. बचपन से ही वह बौयज स्कूल और कालेज में पढ़ा था, इसलिए कभी लड़कियों से उस का संपर्क और दोस्ती नहीं रही. पढ़ाई के बाद नौकरी और फिर घर की जिम्मेदारियों के चलते मातापिता की मरजी की लड़की से शादी. यही घिसीपिटी कहानी रही उस के जीवन की. विवाह के बाद की जिंदगी भी बहुत ही आम और साधारण रही उस की. कोई नयापन नहीं, कोई रोमांच नहीं.

आगे पढ़ें- बच्चों और सासससुर व घर की देखभाल में…

चिड़िया चुग गईं खेत: भाग-2

किसी का दर्द उस से देखा नहीं जाता था, खासतौर पर लड़कियों का. मसाज का वक्त खत्म हो गया था. मनोज केबिन से निकलने के लिए कपड़े पहनने लगा. जूली का चेहरा उदास सा था, आंखें भरी हुई थीं.

‘‘पता नहीं क्यों, आप से मिलना बहुत अच्छा लगा. आप और लोगों से बहुत अलग हैं. मैं ने सुना था कि भारतीय लोग चरित्र और मन से बहुत सच्चे और अच्छे होते हैं. आज आप के रूप में देख भी लिया.’’

मनोज अपनी तारीफ सुन कर खुश हो गया.

‘‘अब आप से फिर मुलाकात कब होगी? आप पटाया में कब तक हैं?’’ जूली ने आतुर स्वर में पूछा.

‘‘अभी तो मैं 3 दिनों तक यहीं हूं. आज मीटिंग के बाद शाम को फ्री हूं,’’ मनोज ने बताया.

जूली की आंखों में चमक आ गई, ‘‘तो आज शाम को मिल सकते हो क्या?’’ उस ने आग्रहभरे स्वर में पूछा.

‘‘हां, ठीक है. शाम को 6 बजे मिलता हूं,’’ मनोज ने कहा तो जूली खुश हो गई. उस ने मनोज का मोबाइल नंबर ले लिया और अपना उसे दे दिया. जूली से विदा हो कर मनोज बाहर आ गया.

भावेश और सुरेश पहले से ही बाहर उस की राह देख रहे थे. उसे देखते ही दोनों आपस में रहस्यमय ढंग से एकदूसरे को देख कर मुसकराए.

‘‘क्यों बे, तू तो आने को तैयार नहीं था और अब सब से ज्यादा देर अंदर तू ही बैठा रहा,’’ भावेश ने उस की चुटकी ली.

‘‘क्या कर रहा था अंदर? मालिश या और कुछ?’’ सुरेश ने आंख दबाते हुए मनोज की चुटकी ली.

मनोज झेंप गया, ‘‘अरे यार, तुम लोग जैसा समझ रहे हो वैसा कुछ नहीं है.’’

‘‘हां बेटा, हम सब समझते हैं कि कैसा है,’’ दोनों ने उसे चिढ़ाया.

तीनों वापस होटल आ गए. नहाधो कर सब बे्रकफास्ट करने पहुंचे. फिर 11 बजे से मीटिंग शुरू हो गई. 2 बजे लंच के बाद फिर से मीटिंग हुई. साढ़े 4 बजे मीटिंग खत्म होने पर मनोज अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर औंधा पड़ गया. उसे कस कर नींद आ रही थी. अभी वह थोड़ी ही देर सोया होगा कि उस का मोबाइल बजने लगा.

फोन जूली का था. ‘‘क्या हुआ, आप सो रहे थे क्या? माफ कीजिएगा, मैं ने आप की नींद में खलल डाल दिया,’’ जूली क्षमायाचना करते हुए बोली.

‘‘अरे कोई बात नहीं, मैं बस उठ ही रहा था. कहो,’’ मनोज ने कोमल स्वर में कहा.

‘‘कुछ नहीं, मेरी ड्यूटी खत्म हो गई है. आप की याद आई तो सोचा फोन कर लूं,’’ मनोज के कोमल स्वर से उत्साहित हो कर जूली ने बात करनी शुरू की.

दोनों इधरउधर की बातें करने लगे. बातोंबातों में जूली ने मनोज से मिलने की और कुछ वक्त उस के साथ बिताने की इच्छा जाहिर की. कुछ देर सोचने के बाद मनोज ने 15 मिनट बाद मसाज पार्लर के बाहर मिलने का वादा किया.

15 मिनट बाद नए कपड़े पहन कर और ढेर सारा डियो लगा कर मनोज सब की नजरें बचाते हुए होटल से बाहर निकला. वह नहीं चाहता था कि उस

के साथ आए लोगों में से कोई उसे देख ले और टोके, खासतौर पर भावेश और सुरेश.

जूली पार्लर के बाहर ही खड़ी थी. मनोज को देखते ही उस का चेहरा खिल गया. दोनों पास के एक रैस्टोरेंट में जा कर बैठ गए. जूली ने मनोज के परिवार के बारे में पूछना शुरू किया.

‘‘मेरे घर में पत्नी और 2 बेटे हैं.’’

‘‘क्या करते हैं आप के बेटे? कौन सी क्लास में हैं?’’ जूली के स्वर में उत्सुकता थी.

‘‘बड़ा बेटा इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में है और छोटा बेटा प्रथम वर्ष में,’’ मनोज ने बताया.

‘‘अरे, आप तो बहुत यंग दिखते हैं. आप को देख कर लगता ही नहीं है कि आप के इतने बड़े बच्चे हैं,’’ जूली आश्चर्य से बोली, ‘‘काफी मैंटेन कर के रखा है आप ने अपनेआप को.’’

‘‘थैंक्यू सो मच,’’

मनोज का चेहरा खुशी से लाल हो गया. यह पहली बार हुआ था कि किसी लड़की ने उस की तारीफ की थी.

मनोज ने जूली की इच्छानुसार 2 कोल्ड डिं्रक और 2 बर्गर का और्डर दे दिया. फिर वह जूली से परिवार के बारे में बातें करने लगा.

‘‘तुम यहीं पटाया में रहती हो क्या?’’

‘‘नहीं, मैं बैंकौक के पास एक बहुत छोटे से शहर में रहती हूं,’’ जूली ने बताया.

‘‘फिर तुम यहां पटाया में कैसे आ गई?’’ मनोज ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘तुम्हारे घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘मेरे घर में बूढ़े मातापिता और 2 बड़े भाई हैं. यहां पटाया में मैं अपना और मातापिता का भरणपोषण करने के लिए आई हूं,’’ जूली ने खिड़की से बाहर देखते हुए बताया.

‘‘जब तुम्हारे 2 बड़े भाई भी हैं तो तुम्हें यहां इतनी दूर आने की क्या जरूरत थी?’’ मनोज ने आश्चर्य से पूछा.

एक गहरी सांस ले कर जूली ने विस्तार से बताना प्रारंभ किया, ‘‘मेरे दोनों बड़े भाई शादी कर के मातापिता से अलग हो गए हैं. वे घर में एक पैसा भी नहीं देते. यहां तक कि घर में आते भी नहीं हैं. मेरे पिता और मां दोनों जिंदगीभर दूसरों के खेतों में मजदूरी कर के अपना घर चलाते रहे. भाइयों की पढ़ाई और शादी में उन की सारी जमापूंजी खत्म हो गई. अब हमारे पास खाना खाने के भी लाले पड़ गए. पिता अब काफी बूढ़े हो गए हैं और अधिक मजदूरी नहीं कर सकते.’’

‘‘तो तुम ने वहीं कोई नौकरी क्यों नहीं कर ली?’’ मनोज ने सवाल किया.

‘‘पैसों की कमी के कारण पिताजी मुझे ज्यादा पढ़ा नहीं पाए. वहां ऐसी कोई नौकरी नहीं मिली जिस से गुजारे लायक कमा पाऊं. इसलिए मां ने 6 महीने पहले मुझे यहां पटाया भेज दिया ताकि मसाज का काम सीख कर पैसा कमा सकूं. वे तो मुझ से बुरा काम करने पर भी जोर दे रही हैं क्योंकि उस में पैसा बहुत मिलता है. पटाया में हजारों लड़कियों इसी काम में लगी हैं और सैलानियों से अच्?छाखासा पैसा ऐंठती हैं,’’ जूली ने तिक्त स्वर में कहा.

‘‘फिर तुम अब तक…?’’ मनोज ने उस के चेहरे पर एक भेदभरी नजर डालते हुए पूछा.

‘‘नहीं,मैं अभी तक वर्जिन (कुंआरी) हूं,’’ जूली ने तपाक से उत्तर दिया,

‘‘मैं किसी भी कीमत पर रेड जोन में नहीं जाना चाहती, चाहे मर ही क्यों न जाऊं. मैं इज्जत की जिंदगी गुजारना चाहती हूं.’’

आगे पढ़ें- जूली ने एक बार फिर से मनोज की तारीफ की तो वह…

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें