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धराशायी होते पुल : क्या लोगों की जान इतनी सस्ती?

घर से निकलते वक्त अकसर मन में रहता है कि कहीं कोई दुर्घटना न हो जाए. दुर्घटना से मतलब चोरीचकारी या छोटेमोटे हादसे से होता है. परंतु कोई सपने में भी नहीं सोच सकता कि उन के पैरोंतले की जमीन फट जाएगी या सिर के ऊपर की छत उन पर ढह जाएगी.

ऐसे कितने ही लोग हैं जिन्होंने 2-2 सैकंड के अंतराल में जिंदगी और मौत को करीब से देखा है. ऐसे कितने ही लोग हैं जिन के स्कूल के लिए निकले बच्चे घर वापस आए ही नहीं. कुसूर किस का है? वाहन चलाने वालों को नहीं पता होता कि जिस पर वे गाड़ी चलाने वाले हैं वह ही धराशायी हो जाएगा और न ही उन सवारियों को, जो सैकंड्स में मौत के मुंह में चले जाते है.

सार्वजनिक जगहों पर गिरने वाले पुल व फ्लाईओवर बड़ी मात्रा में लोगों की मौत का कारण बनते हैं. इन में घायल होने वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं होती. किसी का हाथ नहीं रहता तो किसी का पैर, किसी की रीढ़ की हड्डी टूट जाती है तो किसी को महीनों अस्पताल के बैड पर काटने पड़ते हैं.

पिछले 2 सालों में भारत में केवल पुलों और फ्लाईओवरों के गिरने से 93 मौतें हुई हैं जबकि घायलों की संख्या अनगिनत है. मुंबईगोवा हाईवे पुल, मजेरहाट पुल, कोलकाता विवेकानंद फ्लाईओवर, भुवनेश्वर फ्लाईओवर और अब मुंबई ओवरब्रिज कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं जिन के असमय गिरने से ढेरों मासूमों ने अपनी जान गंवाई. इन पुलों का इस तरह गिरना कोई आम बात नहीं है, यह प्रशासन, संबंधित विभाग, बीएमसी, भ्रष्टाचार और राजनीति का परिणाम है जिस में आम जनता बुरी तरह पिस रही है.

मुंबईगोवा हाईवे पुल

मुंबईगोवा हाईवे पर बना पुल 2 अगस्त, 2016 की रात पानी में बह गया. पुल सावित्री नदी पर स्थित था, जिस पर वाहनों का आनाजाना आम था. पुल 100 वर्र्ष पुराना था और अंगरेजों के शासन के दौरान बनाया गया था. पुल के साथ ही एक और पुल था जो अधिक पुराना नहीं था और वह टस से मस तक नहीं हुआ. यह पुल पुराना जरूर था पर एक महीने पहले जांच के बाद इसे पूरी तरह से सुरक्षित बताया गया था. पुल के ढहने से उस पर चल रहीं 2 बसें भी नदी के बहाव में बह गईं. और लगभग 22 यात्री लापता हो गए.

पुल के बहने पर उप मुख्यमंत्री अजीत पवार ने कहा, ‘पुल ब्रिटिश राज में बना था जिस का अर्थ है कि 100 सालों से अधिक पुराना था, इस के बावजूद एक अफसर ने मई में यह प्रमाणित किया था कि पुल ट्रैफिक के लिए बिलकुल ठीक है. उस अफसर के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 के तहत केस

दर्ज होना चाहिए, साथ ही, पीडब्लूडी मिनिस्टर चंद्रकांत पाटिल के खिलाफ भी केस दर्ज होना चाहिए.’

एक एनसीपी कार्यकर्ता का कहना था कि मौसम विभाग की चेतावनी के बाद भी कोई कदम क्यों नहीं उठाया गया, राज्य सरकार ही इस त्रासदी की जिम्मेदार है. मामले पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने पुल के बह जाने का कारण महाभूलेश्वर में हुई बारिश से सावित्री नदी का बढ़ा जलस्तर बताया.

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कोलकाता मजेरहाट पुल

कोलकाता में 6 वर्षों के भीतर धराशायी होने वाला यह तीसरा पुल था. पुल 50 साल पुराना था. इस की मरम्मत का काम चल रहा था. पिछले वर्ष 4 सितंबर की शाम 4 बजे गिरे इस पुल के नीचे दब कर 3 लोगों की जान गई और 25 घायल हुए. दुर्घटना के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने चीफ सैक्रेटरी मोलोए कुमार डे को एक इंवैस्टिगेशन कमेटी बनाने का फरमान दिया. मरम्मत का काम लापरवाही से हो रहा था, तारकोल की भारी परतें बिछाई जा रही थीं जिस से पुल पर वजन बढ़ गया और  पुल धराशायी हो गया. इंवैस्टिगेशन से पता चला कि पुल के गिरने का कारण उस पर पड़ा भारी मलबा और उस की बुरी देखरेख थी.

अंधेरी पुल

भारी बारिश और तूफान ने 1971 के बने अंधेरी गोखले ओवरब्रिज को धराशायी कर दिया. आश्चर्य की बात तो यह थी कि इस ब्रिज के गिरने से एक महीने पहले ही उस का सरकारी औडिट पास किया गया था. ब्रिज का एक भाग, जो एसवी रोड पर बना था व अंधेरी ईस्ट और अंधेरी वैस्ट को आपस में जोड़ता था, टूट कर जमीन पर गिर गया. हादसा 3 जुलाई, 2018 को सुबह 7:30 बजे हुआ और उस समय कोई ट्रेन उस के नीचे से नहीं गुजर रही थी. हादसे से अनगिनत बिजली और नैटवर्क की तारें चकनाचूर हो गईं और लोगों को दूसरे नुकसान भी झेलने पड़े.

हादसे में 5 लोग घायल हुए और उन में से 2 लोगों की हालत अत्यधिक गंभीर थी. महाराष्ट्र सरकार की ओर से मृतकों को 5 लाख रुपए और घायलों को 50 हजार रुपए का मुआवजा दिया गया.

दुर्घटना के बाद दोषारोपण शुरू हुआ और बीएमसी, रेल मंत्रालय और मुंबई रेलवे विभाग घेरे में आए.

विवेकानंद अंडरकंस्ट्रक्शन फ्लाईओवर

31 मार्च, 2016 के दिन 150 मीटर पर बन रहा विवेकानंद रोड फ्लाईओवर, जोकि कोलकाता के गिरीश पार्क के करीब बन रहा था, टूट कर नीचे गिर गया. पुल के नीचे मरने वालों की संख्या 50 से ऊपर थी और घायलों की

संख्या 80. पुल को बनाने का काम आईवीआरसीएल नामक कंस्ट्रक्शन फर्म को मिला था. फ्लाईओवर निर्माण का कार्य 2008 में शुरू होना था, परंतु काम टलतेटलते 2016 आ गया. फ्लाईओवर गिरने से एक दिन पहले ही उस पर कंकड़ों की परत बिछाई गईर् थी जिस पर काम कर रहे मजदूरों ने यह कहा था कि उन परतों में से आवाजें आ रही थीं.

12:40 बजे ब्रिज का स्टील स्पैन टूट कर नीचे गिर गया जिस के नीचे पैदल यात्री और कई वाहन कुचल गए. फ्लाईओवर के मलबे से 90 से ज्यादा लोगों को बाहर निकाला गया. किसी का पैर कुचल गया तो कहीं से पानी के लिए कोई हाथ नजर आ रहा था. कंपनी आईवीआरसीएल पर धारा 302 के तहत कत्ल का मुकदमा दर्ज कराया गया. कंपनी द्वारा इस हादसे को ऐक्सिडैंट बताया जा रहा था.

अनुभवी कंस्ट्रकशन प्रोफैशनल बिरांची नारायण आचार्य के अनुसार, ब्रिज के गिरने का प्रमुख कारण सपोर्ट स्पैन का अनस्टैबल होना था.

मुंबई फुट ओवरब्रिज

मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के पास बने फुट ओवरब्रिज के अचानक गिरने से 6 लोगों की मौत और लगभग 34 लोग घायल हुए. इस हादसे ने प्रशासन की लापरवाही को एक बार फिर उजागर कर दिया. फुट ओवरब्रिज 14 मार्च, 2019 की शाम गिरा जब पीक आवर होने के कारण भीड़ ज्यादा थी. ब्रिज बहुत ही पुराना नहीं था और कुछ दिनों पहले ही इस की मरम्मत की गईर् थी.

रेलवे के डीआरएम डी के शर्मा के अनुसार, ‘‘फुट ओवरब्रिज की देखरेख का काम बीएमसी का था तथा उसी की लापरवाही का परिणाम है कि ब्रिज टूट गया.’’ बीएमसी अधिकारियों के खिलाफ धारा 304 ( लापरवाही से मौत) के तहत मामला दर्ज किया गया है.

प्रशासन और पुल

मुंबई ओवरब्रिज का गिरना प्रशासन और कौंट्रैक्टरों के बीच होने वाली घूसखोरी का ताजा उदाहरण है. इन पुलों के गिरने में सरकारी दफ्तरों में रोटी तोड़ने वाले अफसरों का भी बहुत बड़ा हाथ है, साथ ही, कलैक्टर और जांच अधिकारी भी इन पुलों के धराशायी होने के जिम्मेदार हैं.

किसी भी नए फ्लाईओवर या पुल के निर्माण का जिम्मा कौंटै्रक्टर पर होता है. सब से पहले उसे राज्यमंत्री की मंजूरी की आवश्यकता होती है. राज्यमंत्री किसी अयोग्य को भी पैसे ले कर कौन्ट्रैक्ट दे दें तो किसी को कानोंकान खबर नहीं होती. कौंटै्रक्टर उस के बाद प्रोजैक्ट कार्य शुरू करता है और उस के लिए बताए जाने वाले दाम से कम की सामग्री खरीदता है. लोकल सामग्री का अर्थ है बेकार क्वालिटी. और बेकार क्वालिटी ही इन पुलों की मरम्मत का कारण बनती है. एक के बाद एक मरम्मत से पीडब्लूडी, आईएएस और विभिन्न स्तरों पर विराजमान अफसरों की जेबें भरती रहती हैं. इन सभी की लापरवाही और भ्रष्टाचार ही है जो लोगों की जिंदगियों के साथ खिलवाड़ करता है.

सत्ताधारियों की बात करें तो कोलकाता में पिछले 6 सालों में 3 पुल गिरे हैं और इन तीनों पुलों के टूटने के समय तृणमूल कांग्रेस की सरकार थी. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा विवेकानंद फ्लाईओवर के गिरने के बाद भी यही कहा गया था कि जांच अच्छी तरह की जाएगी और गुनाहगारों को सजा दी जाएगी. कौंट्रेक्टर कंपनी आईवीआरसीएल के कई अफसरों को जेल भी भेजा गया. परंतु ममता बनर्जी ने खुद को इस का जिम्मेदार नहीं ठहराया, जबकि उन्होंने ही सालों से अटके फ्लाईओवर निर्माण को 18 महीने में खत्म करने के निर्देश दिए थे. 165 करोड़ रुपए के बजट में बन रहा यह फ्लाईओवर पूरा होने से पहले ही धराशायी हो गया. बावजूद इस के कि नया फ्लाईओवर बनने से पहले गिर गया, दूसरे पुलों के विषय में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए. परिणामस्वरूप, 2 वर्षों बाद ही मजेरहाट पुल भी धराशायी हो गया.

अब मुंबई में गिरे फुट ओवरब्रिज को ले कर भी इसी तरह के दोषारोपण शुरू हो गए हैं. जहां एक तरफ दोष भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना को दिया जा रहा है वहीं राजनेता इस का दोष इंजीनियर पर थोप रहे हैं. विपक्ष का कहना तो यह भी है कि यदि सरकार 600 करोड़ में सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा बना सकती है तो क्या पुलों की ठीक तरह से मरम्मत नहीं करा सकती.

लोगों की प्रतिक्रिया

जहां एक तरफ पुलवामा अटैक पर लोगों ने रैलियां निकालीं, ट्विटर और फेसबुक पर पोस्ट कर के हैशटैग पुलवामा ट्रैंडिंग कर दिया, वहीं दूसरी तरफ ये त्रासदियां नजरअंदाज क्यों? देश के जवान शहीद हुए जिस का दुख सभी को है और रहेगा मगर क्या आम लोगों की जान जान नहीं है? सरकार और प्रशासन विदेश से तो अच्छी मुठभेड़ कर रहे हैं मगर अपने ही गृहयुद्धों से निबटने का कार्य क्यों नहीं? भ्रष्टाचार धीरेधीरे देश को छलनी

कर रहा है और यह सरकार कुछ अधिकारियों को ही सलाखों के पीछे कर रही है, उन से पैसे खाने वालों को नहीं. कहां 400 साल पुरानी इमारतें आज भी सिर उठा कर खड़ी हुई हैं और कहां ये पुल और फ्लाईओवर हैं जो एकएक कर मिट्टी में मिलते जा रहे हैं. न देश के पास पत्थर और सीमेंट की कमी है और न ही इंजीनियरों की. कमी है तो सजगता और जिम्मेदारी की.

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अगर हमारे देश की सरकार गुहार लगाने पर ही जागती है, अगर सरकार की आंखें मोमबत्ती जलाने पर ही देख सकती हैं तो इन त्रासदियों में लोग ऐसा करने से पीछे कैसे रह जाते हैं? शहीदों की मौत पर बच्चाबच्चा शोक मना रहा था पर इन मासूमों के लिए क्या केवल मुआवजा ही काफी है?

देश में हर दिन लोग एक जगह से दूसरी जगह सफर करते हैं, कभी पुलों के ऊपर से तो कभी नीचे से, यदि सरकार से उठने की गुहार नहीं लगाई गई तो शायद कुछ महीनों के अंतराल में फिर किसी त्रासदी की खबर सुनने को मिले.

आसमान की ओर

आहिस्ताआहिस्ता हमारा खून निकालने वालों का कद बढ़ता जा रहा था और हम छोटे होते जा रहे थे. हमारी अवस्था गुलामों जैसी होती जा रही थी, फिर भी उम्मीद की एक किरण हमें जिंदा रखे हुई थी.

मेरी यात्रा लगातार जारी है. मैं शायद किसी बस में हूं. मुझे यों प्रतीत हो रहा है. बस के भीतर बैठने की सीटें नहीं हैं. सब लोग नीचे ही बस के तले पर बैठे हैं. कुछ लोग इसी तल पर लेटे हैं. बस से बाहर जाने का कोई भी मार्ग अभी तक मुझे दिखाई नहीं दिया है और न ही किसी और कोे.

बस की दीवारों में छोटेछोटे छेद हैं, जिन में से रोशनी कभीकभी छन कर भीतर आ जाती है. जब रोशनी उन छिद्रों से बस के भीतर आती है तो उस से रोशनी की लंबीलंबी लकीरें बन जाती हैं. मेरे सहित सब लोग उसे पकड़ने की भरसक कोशिश करते हैं, लेकिन नाकाम हो जाते हैं. कोईर् भी उन को पकड़ नहीं पाया है. बहुत देर से कई लोग इस तरह की कोशिश कर चुके हैं.

बस को कौन चला रहा है, इस बात का भी अभी तक किसी को पता नहीं है. मैं कभीकभार बस के भीतर घूम लेता हूं, लेकिन यह खत्म होने को ही नहीं आती है. शायद यह बहुत लंबी है. मैं थकहार कर फिर वहीं आ बैठता हूं जहां से मैं उठ कर गया था. मेरी तरह और भी बहुत सारे लोग इस बस में घूमघूम कर फिर से वहीं आ बैठते हैं जहां से वे उठ कर जाते हैं.

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यह एक बस है और यह कई सदियों से ऐसे ही चल रही है. सच बताऊं तो, पता मुझे भी पूरी तरह से नहीं है. मैं कई बार यह समझने की कोशिश करता हूं कि यह बस है या फिर कुछ और. लेकिन सच का पता नहीं चल रहा है. अजीब किस्म का रहस्य है, जिस का पता नहीं चल रहा है.

कभीकभार कुछ लोग आते हैं और हमारा खून निकाल कर ले जाते हैं. पूछने पर कुछ नहीं बताते. जब कभी गुस्सा कर लें, तो फिर बहुत एहसान से बताते हैं कि वे लोग इस बस को चला रहे हैं. इस बस को चलाने के लिए उन को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, इस का तो उन लोगों को ही पता है. पूछें तो कहते हैं कि यह बस उन के अपने खून से चल रही है.

‘‘लेकिन खून तो आप लोग हमारा ले रहे हो?’’ हम में से कोई बोलता है.

‘‘तुम्हारा खून तो हम कभीकभार लेते हैं, बस तो हम अपने खून से ही चलाते हैं.’’

फिर जब हम अपनी ओर देखते हैं तो हम तो नुचेसिकुड़े से कमजोर से हैं और वे हट्टेकट्टे, हृष्टपुष्ट जवान. समझ कुछ भी नहीं आता है. हर समय हम लोग परेशान रहते हैं. उन की पूंछें सदैव ऊपर आसमान की तरफ तनी हुई रहती हैं और हमारी जमीन पर लटकी रहती हैं, जैसे कि इन में हड्डी ही न हो. खून लेने आने वाले लोग कुछ देर बाद बदल जाते हैं. बहुत ही एहसान से वे हमारा खून ले कर जाते हैं जैसे कि वे लोग हम पर बहुत दया कर रहे हों. हम भी इस डर से खून दे देते हैं कि कहीं हमारी बस रुक ही न जाए. पसोपेश वाली स्थिति है कि यह बस है या फिर कुछ और, और यह हमें कहां ले जा रही है.

बस चलाने वाले पूछने पर गुस्सा करते हैं, कहते हैं, ‘‘आप लोग चुप रहो, आराम से बैठो, आप को कुछ नहीं पता है. आप, बस, हमें अपना खून दो.’’

कुछ देर बाद खून लेने वाले फिर बदल जाते हैं. यह भी समझ नहीं आता कि पहले वाले लोग कहां गए. पूछने पर कोई जवाब नहीं देते हैं. बारबार पूछने पर कहते हैं, ‘‘वे पहले वाले लोग सारा का सारा खून खुद ही डकार गए हैं, खून वाली सारी टंकी खाली है. अब हम क्या करें, हमें खून चाहिए, वरना बस नहीं चलेगी.’’

हम फिर अपना हाथ खून देने के लिए उन के आगे कर देते हैं. फिर बस चलती रहती है. फिर बस की दीवारों के छेदों से रोशनी की लकीरें अंदर तक पहुंचती हैं. फिर से हम लोग उन को पकड़ने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन वे किसी के भी हाथ नहीं आतीं. सब थकहार कर फिर वहीं बैठ जाते हैं. कुछ दिनों पहले उड़ती हुई एक अफवाह आईर् थी कि बस को चलाने वाले कुछ लोग हमारे से लिए खून में से ज्यादा खून तो खुद ही पी जाते हैं और बाकी जो बच जाता है उसे बस की टंकी में डाल देते हैं. और कई बार तो वे लोग बस के पुर्जे तक खा जाते हैं.

यह तो गनीमत है कि बस के जो पुर्जे कम हो जाते हैं, वे कुछ दिनों बाद खुदबखुद ही पनप उठते हैं. बस में सफर करने वाले सब लोग भोलेभाले, ईमानदार और साफ दिल के हैं. कभीकभी वे लोग इस तरह की बातें सुन कर निराश हो जाते हैं. लेकिन कुछ समय बाद वे लोग फिर अपनेआप ही ठीक हो जाते हैं. यही आम आदमी की विशेषता है. वैसे इस के अलावा उन के पास और कोई चारा भी नहीं है. और फिर जब उन का खून ले लिया जाता है तो वे फिर अपनेआप शांत हो जाते हैं.

बस बहुत समय से ऐसे ही चल रही है. कहां जा रही है, क्यों जा रही है, यह रहस्य है जो किसी को पता नही है. कभीकभार खून लेने वाले ही कह जाते हैं कि –

‘‘बस स्वर्ग जा रही है’’

‘‘परंतु इतनी देर…’’ हम में से कोई कहता है.

‘‘धैर्य रखो, रास्ता बहुत लंबा और मुश्किल है, समय तो लगता ही है,’’ वे कहते हैं.

हम लोग फिर उन की बातें सुन कर चुप हो जाते हैं. हम यह सोचते हैं कि ये चालाक व समझदार लोग हैं, ठीक ही कहते होंगे. देखेंभालें तो न बस का चालक दिखता है, न ही कोई इंजन और न ही कोई टैंक. खून किस टंकी में पड़ता है, कहां जाता है, यह भी पता नहीं चलता है. सभी रहस्यमयी विचारों में उलझे रहते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले की बात है. कुछ लोग हमारा खून लेने के लिए आए थे. वे लोग नएनए ही लग रहे थे. वे बहुत जोशीले थे. वे बहुत ही चालाकी से बातें कर रहे थे. वे पूरे वातावरण में एक अलग तरह का उत्साह भर रहे थे. वे बहुत प्यार से हमारा खून ले रहे थे. सब ने उन की बातें सुन कर उन को बहुत ही प्यार व सम्मान सहित अपना खून दिया.

वे लोग सब को यह भरोसा दिला रहे थे कि हम लोग बहुत जल्दी स्वर्ग पहुंच जाएंगे. सब उन की बातें सुनसुन कर बहुत खुश हो रहे थे. कितनी देर से दबेकुचले हम लोग भी आखिरकार स्वर्ग को जा रहे हैं, यह सोचसोच कर बहुत खुशी हो रही थी. सब लोग मारे खुशी के उन की जयजयकार कर रहे थे.

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कुछ दिनों बाद फिर वे लोग हमारा खून लेने के लिए आए. ये पहले से कुछ जल्दी आ गए थे. उन्होंने फिर हमारे भीतर जोश भरा. हमें फिर सब्जबाग दिखाए. हमारी बांछें खिल उठीं. हम फिर मुसकराए. उन की बातों में बहुत उत्साह व जोश था. उन की बातें सुनसुन कर हमारे भीतर भी जोश आ गया. चारों ओर फिर उन की जयजयकार होने लगी. जोश ही जोश में उन्होंने हमारा खून निकालने वाले टीके निकाल लिए और हमारा खून निकालना शुरू कर दिया.

सब ने बहुत खुशीखुशी अपना खून दिया. परंतु इस बार हमारा खून निकालने वाले टीके पहले से कुछ बड़े थे. लेकिन हमारे भीतर जोश इतना भर गया था कि हमें सब पता होते हुए भी बुरा न लगा. कुछ अजीब तो लगा परंतु ज्यादा बुरा न लगा. थोड़ा सा बुरा लगा लेकिन यह तो होना ही है, ठीक है, अब बस को चलाने के लिए हमें भी तो कुछ करना ही है. सब की आस्था बस के ठीक रहने और उस के स्वर्ग तक पहुंचने की है. बस, इसी जोश और जज्बे के चलते हर कोई अपना सबकुछ न्योछावर करने को तैयार बैठा है.

अजीब बात तब हुई जब वे लोग फिर हमारे पास आए और हम से हमारी थोड़ीथोड़ी टांगों की मांग करने लगे. मतलब कि उन को हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े चाहिए थे. सब ने उन की इस मांग पर आपत्ति की. कोई भी उन को अपनी टांगें देने को तैयार नहीं था. उन को हमारी टांगें क्यों चाहिए, इस बात का किसी के पास कोई जवाब न था.

आखिर उन में से एक ने बताया कि वे लोग हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े ले कर बस में लगाएंगे ताकि बस तेजी से स्वर्ग की ओर जा सके. मेरे साथसाथ सब को बहुत बुरा लगा. सब ने फिर विरोध किया. कोई अपनी टांगों के टुकड़े देने को तैयार न था. आखिर वे लोग जोरजबरदस्ती पर उतर आए और हमारी टांगों के छोटेछोट टुकड़े उतार कर ले गए. हमारे सब के कद छोटे हो गए. आहिस्ताआहिस्ता यह परंपरा बन गई.

अब जब वे लोग हमारा खून लेने के लिए आते हैं तो वे हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर ले जाते हैं. पूछने पर कहते कि बस को बहुत सारी टांगों की जरूरत है. उस में लगा रहे हैं. परंतु अजीब बात तो यह है कि हम बस में लगी अपनी टांगें देख नहीं पाते हैं क्योंकि बस में से बाहर जाने को हमारे लिए कोईर् रास्ता ही नहीं है. बस को चलाने वाले कैसे बाहर जाते हैं, हमें इस का भी कोई पता नहीं है.

हमें कभीकभी अपनी अवस्था गुलामों जैसी लगती है. लेकिन जब हम उन खून लेने वाले लोगों की बातें सुनते हैं तो हमें लगता है कि हम लोग ही सबकुछ हैं, लेकिन कई बार लगता है कि हम लोग कुछ भी नहीं है. यह भी बहुत अजीब तरह का एहसास है.

एक और अजीब बात है कि हमारे कद तो छोटे होते जा रहे हैं और हमारा खून लेने वालों के कद बड़े. हम लोग सूखते जा रहे हैं और वे लोग ताकतवर होते जा रहे हैं. हमारी पूंछें तो जमीन पर लटकती जा रही हैं और उन की तनती जा रही हैं.

अजीब बात है कि हम लोगों को लगता है कि हमारी पूंछ में कोई हड्डी ही नहीं. बस चलाने वाले अकसर यह कहते है कि वे लोग बस में हमारी टांगें लगा कर उस को रेलगाड़ी बना देंगे और अगर आप का ऐसा ही सहयोग रहा तो एक दिन रेलगाड़ी को हवाईजहाज बना देंगे. उन की बातों में बहुत ही जोश है और बहुत ही उत्साह. सब लोग उन की ऐसी बातें सुन कर बहुत ही उत्साह में आ जाते हैं. सब को उन की बातें सुन कर ऐसा लगता है कि ये लोग एक न एक दिन उन को स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. हमारी बस को रेलगाड़ी और रेलगाड़ी को एक न एक दिन हवाईजहाज जरूर बना देंगे.

इसी विश्वास के साथ हम लोग हर बार उन की मांग के अनुसार उन को खून देने के लिए अपनेआप को उन के सम्मुख कर देते हैं. अपनी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर दे देते हैं, चाहे आहिस्ताआहिस्ता हमारा खून निकालने वाले टीकों के आकार बढ़ते जा रहे हों. हमारे कद छोटे होते जा रहे हैं और उन के बड़े. उन की पूंछें आसमान की ओर तनी जा रही हैं और हमारी जमीन पर लटकती जा रही हैं. लेकिन हम तो यही सोच कर अपना सबकुछ समर्पित करते जा रहे हैं कि एक न एक दिन ये लोग हमें स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. लेकिन हमारे नौजवान उन की आसमान की ओर तनी पूछें देख कर अकसर दांत पीसते नजर आते हैं.   यह भी खूब रही राम अपने कंजूस दोस्त श्याम को कथा सुनाने ले गया. दोनों जब वहां पहुंचे तो देखा कि चारों तरफ पंडाल रंगबिरंगे कपड़ों से सजा हुआ था. फूलमाला पहने कथावाचक लोगों को दानपुण्य की महिमा बता रहे थे. कहने का मतलब पूरी कथा में दानपुण्य की महिमा बताई गई थी. वापस आने के बाद राम ने पूछा, ‘‘अब तुम्हारा क्या विचार है दान देने के बारे में?’’

श्याम ने कहा, ‘‘भाई, मैं तो धन्य हो गया आज की कथा सुन कर. सोच रहा हूं, मैं भी दान मांगना शुरू कर दूं.’’ यह सुनते ही राम की बोलती बंद हो गई.

मेरा बेटा 9 महीने का था. दिसंबर का महीना होने की वजह से कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. एक दिन रात को करीब 3 बजे मेरे बेटे ने सोते समय पोटी कर दी. दांत निकल रहे थे, इसलिए पोटी पतली होने की वजह से उस के पैर भी गंदे हो गए थे.

पानी एकदम बर्फ की तरह ठंडा होेने की वजह से मैं ने बराबर में दूसरे बिस्तर पर सो रहे अपने पति को उठाया कि थोड़ा पानी गरम कर दें. जिस से मैं बेटे की पोटी साफ कर सकूं और उसे ठंड न लगे. किंतु मेरी बहुत कोशिश के बावजूद मेरे पति उठने को तैयार नहीं हुए. करवट बदल कर दूसरी तरफ मुंह कर के लिहाफ में दुबक कर सो गए.

मजबूर हो कर मैं ने बर्फ जैसे पानी से ही अपने बेटे की पोटी को साफ किया. पानी इतना ठंडा था कि मेरा बेटा बुरी तरह रो रहा था. मेरी भी उंगलियां ठंडे पानी की वजह से गली जा रही थीं. किंतु मेरे पतिदेव अब भी लिहाफ से मुंह ढक कर सो रहे थे. मैं ने जैसेतैसे बेटे को कपड़े से पोंछ कर सुखाया और लिहाफ में गरम कर के सुला दिया.

किंतु मेरी आंखों में नींद बिलकुल नहीं थी. मुझे पति पर गुस्सा आ रहा था कि उन के पानी न गरम करने की वजह से मुझे अपने बेटे को ठंडे पानी से साफ करना पड़ा और उसे परेशानी हुई.

अचानक मैं उठी और वही बर्फ जैसा पानी बालटी में ले आई. फिर गहरी नींद में सो रहे अपने पति के ऊपर उलट दिया. अब गुस्सा होने की बारी उन की थी. उन्होंने उठ कर एक जोर का चांटा मेरे गाल पर जड़ दिया. किंतु, फिर भी मैं उन को गीला करने के बाद अपने लिहाफ में चैन से सो गई.

आज उस घटना को 18 वर्ष बीत चुके, किंतु अब भी उस घटना को याद कर के हम लोग हंस पड़ते हैं.

खुशियों के पल- भाग 2

अजनबी होते हुए भी कभीकभी किसी के साथ ऐसी आत्मीयता बढ़ जाती है मानो बरसों से जानते हैं. विशाल और नीरजा कुछ इसी तरह मिले और साथ बढ़ता गया.

वे अब 5-7 दिनों पर लाइब्रेरी जाते. उन का लाइब्रेरी जाने का समय साढ़े 4 बजे होता. किताब जमा करते व नई किताब लेते 5 बज जाते.

5 बजे नीरजा अपना सामान समेट लेती. फिर वे अकसर ही बाहर कौफी पीने चले जाते. अब नीरजा उन से खूब खुल कर बात करती थी. वे भी उसे चिढ़ा देते थे. जब वे चिढ़ाते तो वह झूठे गुस्से में मुंह फुला लेती. फिर वे उसे मनाते. उस की सुंदरता के पुल बांधते. वह खिलखिला कर हंस देती. वह उन्हें अपना स्मार्ट बौयफ्रैंड कहती. वे अकसर कहते, उन की उम्र उस के बौयफ्रैंड बनने की नहीं है, तब वह नाराज हो जाती. वह कहती, यह बात दोबारा नहीं कहना. उम्र से क्या होता है. उस के स्मार्ट बौयफ्रैंड जैसा स्मार्ट कोई और हो तो बताएं.

उस ने कई बार साफ कहा था कि वे उसे बहुत अच्छे लगते हैं. वह अकसर ही उन के कंधे पर अपना सिर टिका कर आंखें मूंद लेती थी. वे मना करते, कहते, ‘लोग देख रहे हैं.’ तो वह कहती, ‘देखने दो. मुझे अच्छा लगता है.’

वे एक हाथ से ड्राइविंग करते व दूसरे हाथ से उस के बालों को हलकेहलके सहलाते रहते. उन्होंने एकाध बार उसे कोई गिफ्ट दिलाने की कोशिश की थी, पर उस ने सख्ती से मना कर दिया था. वह कहती थी, ‘‘कौफी, पैस्ट्री पकौड़ा तक ठीक है पर गिफ्ट वगैरह नो, बिग नो.’’

उन को भी शिद्दत से लगता था कि वे नीरजा के प्यार में आकंठ डूब चुके थे. जब भी उस से मिल कर आते, बेचैन हो जाते. 5-7 दिनों का इंतजार उन के लिए मुश्किल हो जाता था. पर रोज तो वे जा नहीं सकते थे. पर

यह कैसा प्यार था. अगर यह लगाव था तो यह कैसा लगाव था, भई. उन की उम्र 24 साल की लड़की से प्यार करने की नहीं थी. पत्नी थी, बेटे थे, बहुएं थीं, पोती भी थी.

प्यार तो कोई बंधन नहीं मानता. उम्र का भी नहीं शायद. पर समाज तो था. सामाजिक स्थिति तो थी. उन का एक कदम उन की सामाजिक स्थिति को खत्म कर सकता था. वे परिपक्व थे, जानते थे.

देखतेदेखते 3 महीने और गुजर गए. लाइब्रेरी का इंटरव्यू हो गया. अभिमन्यू ने इंटरव्यू संभाल लिया था. पर अपौइंटमैंट फंस गया. किसी ने कोर्ट केस कर दिया था. नीरजा के साथसाथ वे भी बहुत दुखी हुए. पर क्या किया जा सकता था. इंतजार करना था.

उस दिन वे कई दिनों बाद लाइब्रेरी गए थे. शायद 15 दिनों बाद. नीरजा इश्यू व डिपौजिट काउंटर पर बैठी थी. पर शायद उस की तबीयत ठीक नहीं थी, चेहरा कुम्हलाया हुआ था. अपना काम खत्म करतेकरते भी उसे 6 बज गए थे. वे कुरसी पर बैठे किताब पढ़ते रहे. 6 बजे वह अपना बैग ले करआ गई. उन्होंने सवालिया निगाहों से उसे देखा.

‘‘काम अधिक था,’’ उस ने धीरेधीरे कहा, ‘‘तबीयत भी ठीक नहीं लग रही थी. इसीलिए देरी हो गई, चलिए.’’

दोनों बाहर आ गए.‘‘चलो, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’’

‘‘नहीं, मुझे कौफी पीनी है.’’

‘‘श्योर, आर यू औलराइट?’’

‘‘बिलकुल. गाड़ी बढ़ाओ मिस्टर विशाल, लोग देख रहे हैं.’’

रास्तेभर वह अपना सिर उन के कंधों पर टिकाए आंखें मूंदे चुपचाप बैठी रही. हां, हूं के अलावा कोई बात नहीं की. अंबर कैफे आ गया. वेटर आ गया. तब उस ने सिर उठाया व आंखें खोलीं.

‘‘क्या लोगी, कोल्ड या हौट कौफी?’’

‘‘हौट कौफी, तुम्हारे जैसी हौट.’’

उन्होंने हौट कौफी व प्याज के पकौड़ों का और्डर दिया.‘‘अगली बार हम यहां नहीं आएंगे,’’ नीरजा ने कहा.

‘‘हां, अगली बार हम एल चाइको में चलेंगे. आराम से बैठ कर चाइनीज खाएंगे.’’

‘‘तुम अपनी बीवी से डरते हो न?’’ अचानक उस ने कहा.

‘‘वैसे तो कौन नहीं डरता. पर, मेरी बीवी ऐसी नहीं है.’’

‘‘वो तो मैं जानती हूं. वह तुम्हें खूब खुश रखती होगी. अच्छा एक बात बताओ, अगर तुम 20 साल बाद पैदा हुए होते तो?’’

‘‘तो मेरी उम्र 90 साल होती अगर मैं जिंदा होता तो.’’

‘‘नहींनहीं, अगर मैं 20 साल पहले पैदा हुई होती तो?’’

‘‘तो तुम्हारी उम्र 54 साल की होती.’’

‘‘अरे नहीं यार, उम्र का सही कौम्बिनेशन मिलाओ न.’’

‘‘मतलब, अगर हम दोनों एकाध साल के अंतर से पैदा हुए होते तो क्या होेता, यही न?’’

‘‘हां, हां. मेरा यही मतलब था. तो क्या होता?’’

‘‘होता क्या, तब हमारी मुलाकात लाइब्रेरी में नहीं होती. शायद हौस्पिटल में हो जाती.’’

वह खिलखिला कर हंस पड़ी, पर हंस न पाई. उस ने अपना पेट कस कर पकड़ लिया जैसे दर्द हो रहा हो.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, तुम्हें क्या हुआ है नीरजा?’’

‘‘कुछ नहीं. थोड़ा फीवर है. कमजोरी लग रही है?’’

‘‘चलो, आज मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं,’’ उन्होंने इशारे से वेटर को बुलाया. आज नीरजा कौफी भी आधा कप ही पी पाई थी. पकौड़े तो छुए भी न थे. लड़का बरतन ले गया.

‘‘नहीं, मैं आप को घर नहीं ले जा सकती,’’ उस ने सख्ती से कहा, ‘‘आगे ले लीजिए, अगले चौराहे से मैं औटो ले लूंगी.’’

उन्होंने बहस नहीं की व गाड़ी आगे बढ़ा ली. आगे एक पार्क का पिछला हिस्सा था जो ऊंची बाउंड्री से घिरा हुआ था. वहां कुछ अंधेरा था.

‘‘उस पेड़ के पास गाड़ी रोकिए न, प्लीज.’’

उन्होंने पार्क के पीछे स्थित पेड़ के पास गाड़ी रोक दी. वह एकटक उन के चेहरे की तरफ देख रही थी.

‘‘क्या हुआ,’’ उन्होंने धीरे से पूछा.

वह कुछ न बोली. सिर्फ उन के चेहरे पर देखती रही.

‘‘आर यू औलराइट, तुम ठीक तो हो न.’’

‘‘यू वांट टू किस मी,’’ उस ने अचानक कहा.

‘‘व्हाट?’’ उन का चेहरा भक से उड़ गया, ‘‘व्हाट रबिश यू आर टौकिंग?’’

‘‘आई नो. यू वांट टू. क्या मुझे किस करना चाहते हो?’’

‘‘नो, नैवर, हाऊ कैन यू…’’

‘‘बट, आईर् वांट टू,’’ उस ने घूम कर अपनी दोनों बांहें उन के गले में डाल दीं व अपने होंठ उन के होंठों पर रख दिए.

‘‘किस मी, किस मी, प्लीज, होल्ड मी.’’

उस ने उन्हें जोर से पकड़ रखा था. उन के हाथ अपनेआप उस की पीठ पर पहुंच गए. नीरजा ने उन का एक लंबा सा किस लिया. गाड़ी के अंदर अंधेरा था पर इंजन स्टार्ट था.

गाड़ी के बैक पर ठकठक खटखटाने की आवाज आई.

‘‘कौन है अंदर, बाहर निकलो.’’

नीरजा छिटक कर उन से अलग हो गई. उन्होंने घूम कर पीछे देखा. एक पुलिसवाला अपने डंडे से बैक पोर्शन खटखटा रहा था, ‘‘बाहर निकलो.’’

उन्होंने तुरंत गाड़ी बढ़ा दी व स्पीड ले ली. पुलिसवाला पीछे चिल्लाता ही रह गया. चौराहा पार हो गया.

‘‘यह तुम ने क्या किया?’’ आगे आ कर उन्होंने कहा, ‘‘अभी तो हम शायद बच गए. पर कितनी बड़ी मुसीबत हो जाती हम दोनों के लिए.’’

‘‘आप मैनेज कर लेते. आप पावरफुल हैं. पर आप को अच्छा नहीं लगा क्या. मुझे तो बड़ा अच्छा लगा.’’

‘‘मुझे भी अच्छा लगा, नीरजा,’’ वे यह कहने से अपने को न रोक सके, ‘‘यू आर रियली ब्यूटीफुल.’’

नीरजा के चेहरे पर बड़ी प्यारी सी मुसकराहट आई.‘‘बस, इस चौराहे पर रोक लीजिए. मैं यहीं से औटो कर लूंगी.’’

‘‘पर…’’

‘‘रोकिए न प्लीज.’’

उन्होंने गाड़ी रोक ली. नीरजा तुरंत उतर गई. ‘‘फिर मिलते हैं,’’ कहते हुए उस ने दरवाजा बंद किया व सामने ही खड़े औटो में जा बैठी. औटो आगे बढ़ गया. उन्होंने भी गाड़ी घर की तरफ घुमा ली.

अगले 10 दिनों तक उन की लाइब्रेरी जाने की हिम्मत नहीं हुई. फिर उन का एक बाहर का प्रोग्राम बन गया. उन के कार्यकाल के समय में हुई 2 अनियमितताओं की जांच चल रही थी. यह जांच उन के खिलाफ नहीं थी पर जांच अधिकारी ने उन्हें विटनैस बनाया था. जांच का कार्य मुंबई में हो रहा था. सो, उन्हें 15 दिनों के लिए मुंबई जाना था. जाने से पहले उन्हें एक बार लाइब्रेरी जाना था. किताबें वापस करनी थीं वरना देर हो जाती.

वे लाइब्रेरी पहुंचे पर नीरजा नहीं आई थी. वे निराश हो गए व किताबें वापस कर के चले आए. फिर वे मुंबई चले गए. दोनों जांच कमेटियों में अपना विटनैस का काम खत्म करने में उन्हें 20 दिन लग गए. आने के दूसरे दिन ही शाम को 4 बजे लाइब्रेरी पहुंचे.

आज भी नीरजा वहां नहीं थी. वे परेशान हो गए. उस दिन ही उस की तबीयत ठीक नहीं थी. दोएक लोगों से पूछताछ की, पर कुछ पता न चला. तब वे सीधे लाइब्रेरियन के पास पहुंच गए.

‘‘एक्सक्यूज मी,’’ उन्होंने पूछा, ‘‘मुझे आप की नीरजा नाम की ट्रेनी से कुछ काम था. मुझे पता चला है कि वह आज नहीं आई है, वह छुट्टी पर है. क्या आप बता सकती हैं कि वह कब तक छुट्टी पर है?’’

लाइब्रेरियन ने उन्हें ध्यान से देखा, ‘‘आप नीरजा के क्या लगते हैं? किस रिलेशन में हैं?’’

‘‘नहीं, रिलेशन में तो नहीं हूं पर दे आर वेल नोन टू मी.’’

‘‘आप कैसे परिचित हैं, आप को नीरजा से क्या काम है?’’

‘‘दरअसल, नीरजा ने ही अपने एक पर्सनल काम के लिए मुझ से कहा था. उसी की जानकारी उसे देनी है. नीरजा कहां है और कैसी है, मैडम?’’

‘‘नीरजा इज नौट वैल. वह बीमार है. करीब 20 दिनों से वह छुट्टी पर है. उस की एप्लीकेशन आई थी.’’

‘‘क्या, 20 दिनों से छुट्टी पर है. तब तो सीरियस बात लगती है. क्या आप ने उसे देखा है?’’

‘‘नहीं, मैं तो नहीं गई थी. पर स्टाफ  के लोग गए थे. शी इज रियली सीरियसली सिक.’’

‘‘क्या आप मुझे उस के घर का ऐड्रैस दे सकती हैं, प्लीज,’’ वे बेचैन हो गए.

‘‘मुझे मालूम नहीं है. आप औफिस से ले लें. मैं स्लिप लिख देती हूं.’’

उन्होंने स्लिप लिख कर दे दी. उन का धन्यवाद कर के वे औफिस में गए व नीरजा का पता ले लिया. हाउस नंबर 144, मीरापट्टी रोड. उन्होंने बाहर आ कर गाड़ी दौड़ा दी. मीरापट्टी रोड ज्यादा दूर नहीं थी. वे एड्रैस पर पहुंच गए. उसी के बगल में पार्किंग की जगह मिल गई. उन्होंने गाड़ी वहीं खड़ी कर दी. घर ढूंढ़ते हुए 2-3 लोगों से पूछना पड़ा. आखिरकार वे पहुंच गए. वह एक मंजिला मकान था. मकान साधारण था. उन्होंने कुंडी खटखटाई.

एक उम्रदराज महिला ने दरवाजा खोला.

‘‘कहिए?’’ उन्होंने पूछा, ‘‘किस से मिलना है?’’

‘‘जी, क्या नीरजाजी का यही मकान है?’’

‘‘जी हां, यही मकान है, कहिए?’’

‘‘दरअसल मुझे उन से मिलना है.’’

‘‘उस की तबीयत ठीक नहीं है. आप कौन हैं?’’

‘‘जी, मैं लाइब्रेरी से आया हूं. उन की तबीयत के बारे में ही जानने आया हूं.’’

‘‘आइए, अंदर आ जाइए.’’

अंदर का कमरा ड्राइंगरूम था. कमरा बड़ा नहीं था. फर्नीचर थोड़े से ही थे पर ढंग से लगे थे. वे एक कुरसी पर बैठ गए. महिला को चलने में परेशानी हो रही थी. उन महिला ने दरवाजा खुला रहने दिया, पर परदा खींच दिया. फिर आ कर दूसरी कुरसी पर बैठ गईं.

‘‘मैं नीरजा की मां हूं. नीरजा का भाई दवा लाने गया है.’’

‘‘अब कैसा हाल है नीरजा का?’’

‘‘हालत ठीक नहीं है. लाइब्रेरी से सुमनजी आईर् थीं. तब तो नीरजा ने उन से बात भी की थी. अब वह सो रही है. सुमन ने तो उस के बारे में बताया ही होगा.’’

‘‘मैं बाहर गया हुआ था. आज ही लौटा, तो लाइब्रेरियन मैडम ने नीरजा के बारे में बताया. मैं ने सोचा, मैं भी नीरजा को देख आऊं. क्या हुआ है नीरजा को?’’

‘‘नीरजा को कैंसर है, ब्लडकैंसर.’’

‘‘क्या?’’ उन का सिर घूम गया. उन्हें लगा कि जैसे पूरा कमरा घूम रहा है, ‘‘पा…पानी…पानी मिलेगा क्या?’’

नीरजा की मां ने उन्हें पानी दिया. पानी पी कर वे जरा संभले.

‘‘क्या कह रही हैं आप, कैंसर क्या ऐसे होता है. अभी कुछ दिनों पहले ही तो मैं उन से मिला था. एकदम ठीकठाक थीं. कहीं कोई गलती तो नहीं हुई है?’’

‘‘गलती कैसी साहब. इस का पता तो 6 महीने पहले ही चल गया था. कितना रुपया इस के इलाज में खर्चा हो गया. अब तो यही लगता है कि किसी तरह से इसे आराम मिले. बड़ी तकलीफ है इसे. नींद की गोली दे कर सुलाया जाता है,’’ वे रो पड़ीं.

‘‘डाक्टर क्या कह रहा है?’’

‘‘अब डाक्टर कुछ नहीं कह रहे हैं. कहते हैं कभी भी कुछ भी हो सकता है.’’

‘पर इस में तो बोनमैरो वगैरह…

‘‘हो चुका है. 2 बार हुआ है. तभी तो लाइब्रेरी वालों ने मदद की थी. अब नहीं हो सकता है.’’

नीरजा की मां चुप हो गईं. वे भी चुप रहे. उन की समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या कहें. आखिर वे बोले, ‘‘क्या मैं एक बार नीरजा को देख सकता हूं? मैं उसे बिलकुल भी डिस्टर्ब नहीं करूंगा.’’

2 लमहे वे उन्हें देखती रहीं, फिर बोलीं, ‘‘आइए.’’

वे उन्हें ले कर अंदर के कमरे में गईं. उन का जी धक से रह गया. सीने तक चादर ओढ़े नीरजा सो रही थी. पर यह जैसे वह वाली नीरजा नहीं थी. उस का गोरा गुलाबी चेहरा सांवला लग रहा था. चादर से निकले उस के हाथ स्किनी लग रहे थे. माथा उभरा हुआ व काफी चौड़ा लग रहा था.

‘‘बहुत कमजोर हो गई है साहब.’’ उस की मां ने फुसफुसा कर कहा. वे ज्यादा देर तक खड़े न रह सके, बाहर आ गए. पर्स निकाल कर देखा. करीब 10 हजार रुपए थे. निकाल कर नीरजा की मां की तरफ बढ़ाए. उन्होंने सवालिया निगाहों से उन्हें देखा.

‘‘लाइब्रेरी से हैं. मैं कल सुबह फिर आऊंगा. तब और रुपयों का इंतजाम हो जाएगा. सरकारी मदद है. उस का अच्छे से अच्छा इलाज होगा. वह बच जाएगी. अब मैं चलता हूं, कल फिर आऊंगा,’’ वे किसी तरह से अपनेआप को जब्त किए रहे.

बाहर निकल कर किस तरह से वे अपनी कार तक पहुंचे, उन्हें नहीं मालूम. कार में बैठते ही स्टियरिंग पर सिर टिका कर वे बेआवाज फफक पड़े. उन की नीरजा खो गई थी. इन बीते दिनों की उन की गैरहाजिरी ने उन से उन की नीरजा छीन ली थी. पर वे ऐसे हार नहीं मानेंगे. शहर के बड़े से बड़े डाक्टर को ला कर खड़ा कर देंगे. वे नीरजा को ऐसे नहीं मरने देंगे. डाक्टर मित्रा शहर के सब से बड़े कैंसर स्पैशलिस्ट हैं. उन को ले कर आएंगे. कोई तो रास्ता होगा, कोई तो रास्ता निकलेगा.

उन्होंने झटके से सिर उठाया व आंसुओं को पोंछ डाला. दूसरे दिन वे पहले बैंक गए, 50 हजार रुपए निकाले. फिर वे डाक्टर मित्रा के पास खुद गए. उन्होंने दिन में एक बजे विजिट का वादा किया. उस के बाद वे 144, मीरा?पट्टी रोड चले गए.

घर पर ताला लटक रहा था. वे सन्न रह गए. अगलबगल से पता करने पर पता चला कि सब नीरजा को ले कर ज्यूड हौस्पिटल गए हुए हैं. वे बदहवास गाड़ी चला कर ज्यूड हौस्पिटल पहुंचे. काउंटर पर पता चला नीरजा आईसीयू में है. आईसीयू के बाहर ही नीरजा की मां बैठी धीरेधीरे रो रही थीं. उन की बगल में ही एक 13-14 वर्ष का नीरजा की शक्ल जैसा लड़का बैठा था. वह नीरजा का भाई होगा. वे जा कर नीरजा की मां की बगल में खड़े हो गए. उन्हें देखते ही नीरजा की मां जोर से रो पड़ीं.

‘‘आप के जाने के बाद जब नीरजा जागी तो मैं ने उसे बताया कि विशाल आए थे. आप का नाम सुनते ही जैसे वह खिल गई, मुसकराई भी थी. मुझे लगा कि वह कुछ ठीक हो रही है. पर उस के बाद उस की तबीयत बिगड़ गई. थोड़ीथोड़ी देर में 2 उलटियां हुईं. उलटी में खून था साहब. बगल के डाक्टर प्रकाश को मेरा बेटा बुला लाया. नीरजा बेहोश हो गई थी. उन्होंने उसे तुरंत अस्पताल ले जाने को कहा. उन्होंने ही एंबुलैंस भी बुला दिया. यहां डाक्टरों ने जवाब दे दिया है.’’

तभी अंदर से नर्स आई, ‘‘यहां मिस्टर विशाल कौन हैं?’’

‘‘जी, मैं हूं,’’ उन्होंने कहा.

‘‘पेशेंट को होश आ गया है. बट शी इज वैरी क्रिटिकल ऐंड वीक. कई बार आप का नाम ले चुकी है. आइए, पर ज्यादा बात नहीं कीजिएगा. शी विल नौट होल्ड. आइए, इधर से आ जाइए.’’

वे आईसीयू के अंदर आ गए. नर्स उन्हें नीरजा के बैड तक ले गई. नीरजा गले तक सफेद चादर ओढ़े लेटी थी. उस की हिरनी जैसी बड़ीबड़ी आंखें पूरी खुली थीं. उन्हें देखते ही उस के होंठों पर मुसकराइट व आंखों में चमक आ गई. नर्स ने अपने होेंठों पर उंगली रख कर उन्हें इशारा किया.

‘‘हैलो स्मार्टी,’’ उस ने चादर से अपना हाथ निकाल कर उन का हाथ पकड़ लिया. उस की आवाज साफ थी, ‘‘बड़ी देर कर दी आतेआते?’’

वे खड़े, उसे चुपचाप देखते रहे.

‘‘मुझ से बेहद नाराज हैं न मेरे दोस्त. इसीलिए न कि मैं ने पहले क्यों नहीं बताया. पर अगर मैं पहले बता देती तो मुझे मेरा स्मार्टी बौयफ्रैंड शायद नहीं मिलता. सही है न.’’

इतना बोलने में ही उस के माथे पर पसीने की एकदो बूंदें आ गईं. उन्होंने पास पड़ा स्टूल खींच लिया व उस के पास ही बैठ गए, जिस से उसे बोलने में जोर न लगाना पड़े.

‘‘नहीं,’’ मैं तुम से नाराज नहीं हूं,’’ उन्होंने धीरे से कहा, ‘‘पर मैं तुम से बहुतबहुत नाराज हूं. अगर तुम समय से मुझे बता देतीं तो मैं हिंदुस्तान के बडे़ से बड़े डाक्टर से तुम्हारा इलाज करा कर तुम्हें बचा लेता.’’

‘‘नहीं विशाल, मैं जानती थी इस का कोई इलाज नहीं था. आप नाराज मत होइए, मैं जानती हूं मैं आप को

मना लूंगी माई डियर फ्रैंड. पर मुझे आप से माफी मांगनी है, मुझे माफ कर दीजिए प्लीज.’’

‘‘पर किसलिए? तुम किसलिए माफी मांग रही हो नीरजा?’’

‘‘मैं जीना चाहती थी. इसलिए मेरे पास जितना भी वक्त था मैं उसे जीना चाहती थी. खुशीखुशी जीना चाहतीथी. इसीलिए मैं ने आप का कुछ चुरा लिया था.’’

‘‘चुरा लिया था, पर तुम ने मेरा क्या चुरा लिया था?’’

‘‘मैं ने आप के शांत जीवन से अपने लिए कुछ खुशियों के पल चुरा लिए थे, मिस्टर विशाल. आप के पूरे जीवन के लिए एक बड़ा सा शून्य छोड़ दिया है. आई एम सौरी सर. मुझे माफ कर दीजिए सर.’’

‘‘माफी की कोई बात है ही नहीं नीरजा, क्योंकि मैं कभी भी तुम से नाराज हो ही नहीं सकता. अब मैं समझ गया. मेरी नीरजा बहुतबहुत बहादुर है, वैरी ब्रेव.’’

‘‘इसीलिए मैं आप को अपने घर नहीं ले जा सकती थी. अगर आप मम्मी से मिलते, तो मम्मी आप को सबकुछ सचसच बता देतीं. अच्छा, एक बात बताइए?’’

‘‘पूछो नीरजा, कुछ भी पूछो?’’

‘‘मैं ने बीसियों बार आप को माई स्मार्ट बौयफ्रैंड कहा है. कहा है न, बताइए?’’

‘‘बिलकुल कहा है.’’

‘‘पर आप ने एक बार भी मुझे माई गर्लफ्रैंड नहीं कहा है. कहा है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो कहिए न प्लीज. मैं सुन रही हूं. मैं इस पल को भी जीना चाहती हूं.’’

उन्होंने उस की हथेली अपने हाथों में ले ली व भरे गले से कहा, ‘‘दिस इज फैक्ट नीरजा. यू आर माई

स्वीट लिटिल गर्लफ्रैंड ऐंड आई लव यू वैरीवैरी मच.’’उस ने उन की हथेली को चूम लिया.

नीरजा की आंखें मुंदने लगीं. जबान लड़खड़ाने लगी. नर्स जो नर्सिंग काउंटर से देख रही थी, तुरंत आई.‘‘आप प्लीज तुरंत बाहर जाइए. सिस्टर डाक्टर को कौल करो, अर्जेंट.’’

वे धीरेधीरे बाहर आ कर किनारे पड़ी बैंच पर बैठ गए.

डाक्टर मित्रा के आने की नौबत नहीं आने पाई. उस के पहले ही नीरजा ने आखिरी सांस ले ली.

नीरजा का जिस्म पहले घर लाया गया. वे अंतिम संस्कार तक रुके. गाड़ी घर की तरफ मोड़ते समय उन के कानों में नीरजा के आखिरी शब्द गूंजते रहे, ‘मैं ने आप के शांत जीवन से अपने लिए खुशियों के कुछ पल चुरा लिए हैं.’

‘तुम ने मेरे जीवन में शून्य नहीं छोड़ा है नीरजा,’ वे बुदबुदा पड़े, ‘मेरे जीवन के किसी खाली कोने में अपनी मुसकराहटों व खिलखिलाहटों के रंग भी भरे हैं. मैं तुम्हें माफ नहीं कर सकता, कभी नहीं.

5 टिप्स:  होममेड ब्लीच से पाएं सौफ्ट एंड ग्लोइंग स्किन

स्किन को ब्यूटीफुल और ग्लोइंग बनाने के लिए न जाने हम कितने प्रौडक्ट और पार्लर पर पैसा खर्च करते हैं. पर फिर भी हम नेचुरल ग्लोइंग स्किन नहीं पा पाते. हर कोई चाहता है कि घर बैठ हुए और बिना पैसे खर्च किए हमारी स्किन सुंदर हो लेकिन ऐसा नही होता. पर आज हम आपको यह बताएंगे कि नेचुरल टिप्स से कैसे घर बैठे ब्लीच करके स्किन को ग्लोइंग बनाएं. आइए जानते है ब्लीच की कुछ होममेड टिप्स के बारे में…

1. संतरे का छिलका है फायदेमंद

orange peel

संतरे के छिलकों में पाए जाने वाले साइट्रिक एसिड के कारण इसमें नेचुरल ब्लीच के गुण होते हैं. संतरों के छिलकों को धूप सुखाकर पाउडर बनाएं. इसके बाद पाउडर में एक चम्मच दूध, शहद, संतरे का रस मिलाकर चेहरे पर लगाएं.

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2. टमाटर के गूदे का करें इस्तेमाल

eatables for prevention from cancer

टमाटर का गूदा निकालें और एक चम्मच नींबू के रस और गुलाब जल में मिलाएं. इसके बाद चेहरे पर लगाकर सूखने तक रुकें. इसके सूखने के बाद चेहरा धो लें.

3. खीरे और नींबू का रस होगा फायदेमंद

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खीरे और नींबू से आप घर में ब्लीच तैयार कर सकते हैं. एक चम्मच खीरे के रस और एक चम्मच नींबू के रस को मिलाएं. इसके बाद चेहरे पर लगाएं.

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4. नेचुरल ब्लीच है आलू का रस

vegetables to avoid in acidity

आलू के रस को आप नेचुरल ब्लीच के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं. आलू के रस को चेहरे पर लगाकर कुछ देर के लिए छोड़ दें और फिर ठंडे पानी से चेहरा धो लें.

5. स्किन के लिए अच्छा है पपीता

 

papaya

पपीते से बना ब्लीच चेहरे के लिए बहुत अच्छा होता है. आप एक चौथाई कप पके पपीते के गूदे को निकालकर इसमें एक चम्मच नींबू का रस मिलाएं. इस पेस्ट को चेहरे पर लगाएं और सूखने पर चेहरा धो लें.

6. नेचुरल ब्लीच का काम करता है दही

easy tongue cleaning tips

दही आपकी स्किन के लिए नेचुरल ब्लीच का काम करता है. दही के ब्लीच के लिए कुछ करना नहीं पड़ता है. इसके लिए आप चेहरे पर दही लगाकर कुछ देर के लिए छोड़ दे और इसके बाद पानी से धो लें.

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कोशिश ही कामयाबी की पहली सीढ़ी है : राजीव चिलाका

कार्टून सीरियल/एनीमेशन  सीरियल ‘‘छोटा भीम’’ हो या ‘छोटा भीम’ फ्रेंचाइजी की फिल्में हो, ये सब राजीव चिलाका के दिमाग की ही उपज है. वही इसके क्रिएटिव डायरेक्टर व क्रिएटर हैं. पूर्व राष्ट्रपति व वैज्ञानिक स्व.अब्दुल कलाम आजाद के साथ काम कर चुके मशहूर वैज्ञानिक मधुसूदन राव के बेटे राजीव चिलाका के दिमाग में बचपन से ही  उनके पिता ने जो एनीमेशन का कीड़ा भरा था. उसी का परिणाम है कि राजीव चिलाका ने ‘मास्टर इन कम्प्यूटर साइंस’ की डिग्री लेने के बाद अमेरिका में एनीमेशन बनाना सीखा और फिर भारत आकर इस इंडस्ट्री को खड़ा करने का काम किया. ‘टर्नर’ चैनल पर एनीमेशन सीरियल ‘‘छोटा भीम’’ के सफल होने के कई वर्ष बाद 2012 में राजीव चिलाका ने पहली एनीमेशन फिल्म ‘छोटा भीम’ बनायी थीं. अब इस फ्रेंचाइजी की छठी फिल्म ‘‘छोटा भीमः कुंगफू धमाका’ लेकर आए हैं. दस मई को थिएटरों में पहुंची यह पहली भारतीय थ्री डी एनीमेशन फिल्म है.

‘‘छोटा भीम’’ सीरियल की सफलता ने आपकी उम्मीदों को पर लगा दिए?

मैं स्पष्ट कर दूं कि टीवी सीरियल के रूप में जब ‘छोटा भीम’ टीवी पर आया तो रातों रात कोई हंगामा नहीं हुआ. धीरे धीरे इसके दर्शक बढ़े थे. धीरे धीरे इसकी लोकप्रियता बढ़ी थी. पहले सिर्फ 13 एपीसोड ही आए थे, जब लोगों ने इसे पसंद किया, तो अगले 13 एपीसोड बने. फिर एक वक्त वह आया, जब हमें लगा कि ‘छोटा भीम’ तो बहुत लोकप्रिय हो गया है, हमें इस पर फिल्म बनानी चाहिए.तब 2012 में हमने इस पर फिल्म ‘‘छोटा भीम’’ बनायी थी. अब हम इस फ्रेंचाइजी की छठी फिल्म ‘‘छोटा भीम कुंगफू धमाका’’ लेकर आए हैं.

यह ऐसा कोई मूवमेंट नहीं था कि रातों रात हमें सफलता मिल गयी हो. हमने धीरे धीरे स्थायी मजबूत प्रगति की. सच कहूं तो हमें उम्मीद नही थी कि हमारे इस एनीमेशन सीरीज या फिल्म को लोग इतना पसंद करेंगे. अमूमन हमने देखा हैं कि एनीमेशन सीरियल शुरु होता है, 3 से 4 चार साल बाद बंद हो जाता है. पूरे विश्व में यदि हम देखें, तो बामुश्किल दस ऐसे एनीमेशन सीरियल मिलेंगे, जो दस साल से अधिक समय प्रसारित हुए होंगे. जिस सीरियल ने दस साल पार कर लिया, वह तो पूरी जिंदगी के लिए हो जाता है. अब हमें यकीन हैं कि हमारा भीम आजीवन चलेगा.

जल्द ही वापसी करेंगी दया बेन

फिल्म ‘छोटा भीम कुंगफू धमाका’’ थ्री डी फिल्म है. तो भीम को ‘ टू डी’ से ‘थ्री डी’ करते समय क्या बदलाव करने पड़े?

जब भीम ‘2 डी’ से ‘3 डी’ में आएगा,  तो कैसे इक्जक्यूट होगा? हमारे लिए यह सोचने का विषय था. ‘3 डी’ में यदि भीम किक मारेगा, तो धोती में कैसे मारेगा? काफी सोचने के बाद दिमाग में आया कि भीम के कौस्ट्यूम में बदलाव किया जाए. तो उसके कौस्ट्यूम को बदला. किक मारते समय उसके छोटे कद के पैर धोती में छिप जाते थे, तो थ्रीडी में उसका प्रभाव नहीं आ रहा था. तब हमने उसकी उम्र और उसके पैरों की लंबाई बढ़ायी. अब थ्री डी में भीम लड़ाई करते समय विश्वसनीय लगता है. मेरे हिसाब से हमारी पहली थ्री डी फिल्म‘ ‘छोटा भीम कुंगफू धमाका’’ बहुत सही समय पर सिनेमाघरों में आ रही है.

फिल्म का नाम ‘‘छोटा भीम कुंगफू धमाका’’ क्यों? क्या मार्शल आर्ट का मसला है?

आपने एकदम सही पकड़ा. हमें लगा कि ‘कुंगफू मार्शल आर्ट’ बच्चों को बहुत अच्छा लगता है, इसलिए हमने इस फिल्म को कुंगफू मार्शल आर्ट पर गढ़ा है. हमें लगा कि कुंगफू के साथ कुछ अच्छा सा नाम देना चाहिए. काफी सोचने के बाद हमें युनिवर्सल नाम मिला ‘धमाका’. इसलिए इसका नाम रखा ‘कुंगफू धमाका. ’हमारी फिल्म की कहानी में बच्चे कुंगफू टूर्नामेंट में हिस्सा लेने के लिए चीन जाते हैं, तो कहानी वहां से शुरु होती है.

फिल्म की कहानी क्या है?

कहानी में बच्चे कुंगफू टुर्नामेंट में हिस्सा लेने चाइना जाते हैं पर टूर्नामेंट खत्म होने से पहले ही चाइना की प्रिंसेस का अपहरण हो जाता है. पर तब तक भीम की पूरी टीम से उसकी दोस्ती हो चुकी होती है, इसलिए भीम की पूरी टीम उस प्रिंसेंस को बचाने के लिए चली जाती है. वह उस प्रिंसेस को छुड़ाकर लाते हैं. तो इसमें टूर्नामेंट खत्म होने की बजाए उस बच्ची की जान बचाने की जो यात्रा है, वह महत्वपूर्ण है.

इस फिल्म में एक्शन बहुत होगा?

इसमें एक्शन, इमोशन, कौमेडी और एंडवेचर्स भी है.

क्या एक्शन प्रधान फिल्म होने की वजह से आपने इसे थ्री डी में बनाना ज्यादा उपयुक्त समझा?

कुछ हद तक असली वजह तो दर्शकों को कुछ नया देने का प्रयास है. इन दिनों बच्चें होम थिएटर या मोबाइल या टीवी पर फिल्में देखते रहते हैं. उन्हें थिएटर तक लाने के लिए भी तो कुछ नया करने के हिसाब से इसे ‘थ्री डी’ में बनाया.

फिल्म ‘‘छोटा भीम कुंगफू धमाका’’ मनोरंजन के अलावा बच्चों को कोई सीख देगी?

इसमें हमने हर सीख बहुत साधारण तरीके से दी है. पहली सीख यह है कि हर बच्चे को अपने दोस्त के साथ हमेशा खड़े रहना चाहिए. दूसरी सीख है कि एकता में ही ताकत है. हम एकजुट होकर हर संकट का मुकाबला कर सफलता पूर्वक जीत हासिल कर सकते हैं. तीसरी सीख है कि आपको हमेशा अपनी फ्रेंडशिप के लिए लड़ना चाहिए. चौथी सीख है कि कामयाबी के लिए कोशिश करना बहुत जरूरी है. जब तक आप प्रयास नहीं करेंगे, एक कदम आगे नहीं बढाएंगे, तब तक कामयाबी कैसे मिलेगी. हमारी फिल्म हर बच्चे से यही कहती है कि आप कोशिश करो, सफलता मिलेगी. यूं कहें कि कोशिश ही कामयाबी की पहली सीढ़ी है.

फिल्म में कितने गाने हैं?

फिल्म में तीन गाने हैं. एक गाना ‘दलेर मेंहदी’ ने गाया हैं जो कि बौलीवुड स्टाइल का है. इसे हमने फिल्म के अंत में रखा है. दूसरे  गाने को सुनिधि चैहान ने गाया हैं. तीसरे गाने को एनेमेटेड करेक्टर के साथ दलेर मेंहदी ने गाया है. ऐसा प्रयोग पहली बार हमने भारत में किया है.

कार्टून फिल्मों के लिए भी इमोशन जरूरी होते हैं, उसके लिए क्या करते हैं?

देखिए, कहानी में इमोशन पर कहानी लिखते समय से ही काम शुरू हो जाता है. स्क्रिप्ट के समय भी उसमें इमोशन डालने होते हैं. फिर एनीमेशन यानीकि विज्युलाइज करते समय इमोशन डाल देते हैं.जब हम कोई किरदार विकसित करते हैं या उसका एनीमेशन तैयार करते हैं, तो हम यह देखते हैं कि हम उसके साथ जुड़ रहे हैं या नहीं. यदि परदे पर भीम हार रहा है, तो दर्शकों को लगना चाहिए कि क्यों जीत रहा है और हार रहा है, तो भी लगना चाहिए क्यों हार रहा है. इन सारे इमोशन के साथ बच्चों का जुड़ाव जरूरी है. तभी वह एनीमेशन वास्तविक होती है. आखिरकार हमारे किरदार तो मानवीय होते हैं. वह गिरेंगे, तो उन्हें दर्द होगा. यह सब हमारे एनेमेटेड किरदार में रखते हैं. हमारे किरादारों की एक यात्रा होती है. हमारा भीम हर बार जीतता ही नही है, कई बार हारता भी है. इसके अलावा यदि भीम ने लड़ाई लड़ी और जीत गया, तो उसके दोस्तों का क्या होगा? किसी ने भीम को मारा, तो उसके दोस्तों का रिएक्शन क्या होगा? यह सब कुछ आपको बहुत नैच्युरल नजर आएगा.

एनीमेशन फिल्म में संगीत की कितनी उपयोगिता है?

बहुत ज्यादा जरूरी है. एनीमेशन फिल्मों में संगीत के माध्यम से ही हम इमोशन पैदा करते हैं. जो फीलिंग मिसिंग होती है, वह भीसंगीत से उभर कर आ जाती है. फिर डबिंग आर्टिस्ट इन किरदारों को अपनी आवाज देकर खुशी, गम आदि के इमोशन भरते हैं.

सुष्मिता सेन के घर गूंजेगी शहनाई

आपका दावा है कि आपने काफी रिसर्च किया. पर रिसर्च के दौरान आपने बच्चों से बात की?

बच्चों से बातचीत के बिना रिसर्च अधूरा रहता. हमारी लंबी चौड़ी टीम ने रिसर्च किया. मैंने अपने स्तर पर किया. मैं आपको एक वाकया बताता हूं. मैंने ‘छोटा भीम’ का एक एपीसोड बनाया और अपनी कौलोनी के सारे बच्चों को इकट्ठा करके दिखाया. मैंने देखा कि सारे लड़के बहुत खुश थे कि भीम ने क्या कमाल किया है. पर लड़कियां नाराज थीं. उनमें मेरी भतीजी भी थी. मैंने अपनी भतीजी से पूछा क्या माजरा है? तो पता चला कि लड़कियों को यह नागवार लगा कि सब कुछ भीम कर रहा है,छुटकी नहीं. मेरी भतीजी ने कहा, ‘आपने यह कैसे सोच लिया कि छुटकी भीम से कमजोर है? क्या मैं किसी लड़के से कम हूं?’ तो मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ. फिर मैने सभी लड़कियों से राय ली. एक ने कहा कि छुटकी को लड़कों के साथ खेलना चाहिए. दूसरी ने कहा कि छुटकी को कालिया को पीटना चाहिए. एक ने कहा कि छुटकी को स्किीपिंग करना चाहिए. एक ने कहा कि भीम ताकत लगाए, सब कुछ करें, लेकिन आइडिया छुटकी की होनी चाहिए. मैंने इन सारी बातों को दिमाग में रखा और धीरे धीरे इन सारी बातों को ‘छोटा भीम’ के अगले एपहसोड में पिरोया. अब छोटा भीम सीरियल हो या फिल्म भीम के बाद छुटकी ही सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण किरदार है. भीम की ही तरह छुटकी भी बच्चों में लोकप्रिय है.

भाजपा के पूर्वांचल फतह में कितना सहायक होंगे राजन तिवारी

राजनीति से अपराधी करण को खत्म करने का दावा करने वाली भाजपा ने पूर्वांचल में माफिया राजन तिवारी को चुनाव के बीच पार्टी में शामिल करके अपने ही दावे पर सवालिया निशान लगा दिया है. राजन तिवारी को भाजपा में शामिल होने से पार्टी की अंदरूनी राजनीति भी प्रभावित होगी.

भाजपा के लिये पूर्वांचल की राह सबसे कठिन है. लोकसभा चुनाव में छठे और सातवें चरण के चुनाव में 27 सीटों पर चुनाव है. यहां वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनाव लड़ रहे हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की गोरखपुर की प्रतिष्ठित सीट है. जहां से भोजपुरी अभिनेता रवि किशन प्रत्याशी हैं. भाजपा को अपना जनाधार बचाने के लिये माफिया राजन तिवारी को चुनाव के बीच भाजपा में शामिल करना पड़ा. पूर्वांचल में ठाकुर और ब्राहमण माफियाओं के बीच दुश्मनी पुरानी कहानी है. राजन तिवारी के शामिल होने से एक बार फिर से राजनीति के अपराधीकरण की चर्चा ने जोर पकड़ लिया है.

चुनाव ने खोली शौचालय की पोल

90 के दशक में अपराध की दुनिया में श्रीप्रकाश शुक्ल का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं था. यूपी पुलिस को सिर्फ इस माफिया गैंग से निपटने के लिए स्पेशल टास्क फोर्स यानि एसटीएफ बनानी पड़ी थी. इस गैंग पर उस समय के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की सुपारी लेने का आरोप लगा था. इस श्री प्रकाश के गैंग में राजन तिवारी नाम का एक सदस्य भी था. श्रीप्रकाश  गैंग के करीब करीब सभी बदमाश एकएक कर के पुलिस मुठभेड़ में मारे गए लेकिन राजन तिवारी खुद को बचाकर अपना राजनीतिक सफर शुरू किया. राजन ने बिहार विधान सभा चुनावों से अपना सफर तय किया.

अपराध से राजनीति:

2019 के लोकसभा चुनाव में राजन तिवारी भाजपा में शामिल हो गए हैं. उत्तर प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री गोपाल जी टंडन ने उनको भाजपा में शमिल करा लिया. गोपाल टंडन के पिता लाल जी टंडन बिहार के राज्यपाल हैं. राजन तिवारी के भाजपा में शामिल होने का बहुत प्रचार नहीं किया गया. इसकी वजह भाजपा की आंतरिक और जातीय राजनीति को माना जा रहा है. उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में माफियाओं के बीच भी जातीय द्वंद लंबे समय से चलता रहा है. ठाकुर और ब्राहमण वर्ग में आपसी टकराव माफियाओं में भी चलता रहता है.

नक्सलवाद की पृष्ठभूमि

वीरेंद्र शाही और हरिशंकर तिवारी के बीच यह लंबा सघर्ष चला था. वीरेन्द्र की हत्या के बाद श्रीप्रकाश शुक्ला गैंग यहा प्रभावी रहा. उस समय भाजपा के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की हत्या की सुपारी की चर्चा आने के बाद श्रीप्रकाश शुक्ला को मारने के लिये उत्तर प्रदेश सरकार को एसटीएसफ बनानी पडी. श्रीप्रकाश के मारे जाने के बाद भी माफियों के बीच जातीय संघर्ष चलता रहा. गोरखपुर में गोरखनाथ पीठ के प्रभावी होने के बाद इस परंपरा पर रोक लगी. अब जबकि गोरखनाथ पीठ के महंत योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री है तब श्रीप्रकाश गैंग के राजन तिवारी को भाजपा में शामिल किया जाना बड़ी घटना मानी जा रही है.

श्री प्रकाश गैंग चर्चा में:

राजन तिवारी का नाम पहली बार चर्चा में तब आया था जब गोरखपुर के बाहुबली वीरेंद्र प्रताप शाही पर श्रीप्रकाश ने जानलेवा हमला किया था. 4 अक्टूबर 1996 को शाही जब अपने कार्यालय से घर जा रहे थे तब कैंट इलाके में उनकी कार पर बदमाशों ने जमकर फायरिंग की थी. इस हमले में शाही की जांघ में गोली भी लगी थी. गनर मारा गया लेकिन शाही बच गए थे.  इस हमले में श्री प्रकाश के साथ राजन तिवारी को भी अभियुक्त बनाया गया.

इसके बाद तो राजन और श्रीप्रकाश का नाम कई बड़ी वारदातों में सामने आया. यूपी में एके 47 राइफल और 9 एम् एम् पिस्टल का चलन भी इसी गैंग की देन थी. राजन तिवारी पर सबसे बड़ा आरोप तब लगा जब बिहार के बाहुबली नेता बृज बिहारी प्रसाद पर पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में जानलेवा हमला हुआ. बृज बिहारी पर हमला बिहार के ही दूसरे बाहुबली भुटकुन शुक्ल के इशारे पर हुआ था.

बृज बिहारी की हत्या में श्रीप्रकाश शुक्ल, राजन तिवारी, मुन्ना शुक्ला, सूरजभान, मंटू तिवारी का नाम आया. बिहार के माफिया सूरजभान ने ही श्रीप्रकाश और राजन तिवारी की मुलाकात करवाई थी. भुटकन तब अपने भाई की हत्या का बदला बृज बिहारी से लेना चाहता था. मगर बृज बिहारी के खौफ की वजह से उसे बिहार में शूटर नहीं मिल रहे थे. ऐसे में श्रीप्रकाश ने बृज बिहारी की सुपारी ली और इस घटना को अंजाम दिया. गोरखपुर में रेलवे के ठेके पर कब्जे को ले कर हुए विवेक सिंह हत्याकांड में ही श्रीप्रकाश और सूरजभान एक गुट में शामिल थे. इस केस में सीबीआई कोर्ट से आजीवन कारावास की सजा तो हुयी मगर 2014 में बिहार हाईकोर्ट ने सबूतों के अभाव में सभी आरोपियों को बरी कर दिया. इसी साल वीरेंद्र शाही की हत्या के आरोप में भी राजन बरी हो गए.

इसलिए केजरीवाल के साथ नहीं अग्रवाल समाज

कैसे खत्म होगा राजनीति से अपराधीकरण:

बृजबिहारी प्रसाद की हत्या में जेल जाने से पहले ही राजन ने राजनीति का रास्ता चुन लिया. उस वक्त बिहार की राजनीति में बाहुबलियों का बोलबाला बढ़ा हुआ था. बिहार में राजन दो बार विधायक भी रहे. राजन को उत्तर प्रदेश में अपनी राजनीतिक पकड बनानी थी. इस वजह से वह उत्तर प्रदेश में अपना सियासी रास्ता बनाने की कोशिश में लग गए. भाजपा की सदस्यता लेने वाले राजन तिवारी मूल रूप से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के सोहगौरा गांव के रहने वाले हैं. उनका बचपन इसी गांव में बीता मगर पढ़ाई गोरखपुर शहर में हुई. पूर्वी उत्तर प्रदेश में किसी मजबूत ब्राह्मण नेता की तलाश में जुटी भाजपा ने फिलहाल राजन तिवारी पर अपनी उम्मीदें टिका दी हैं. भाजपा ने लोकसभा चुनाव में अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिये राजन तिवारी को बीच चुनाव में पार्टी में शामिल किया गया.

राजन तिवारी की रणनीति उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं. भाजपा इस बहाने पूर्वांचल की राजनीति में ब्राहमण को महत्व देकर अपना जनाधार बढ़ाना चाहती है. राजन तिवारी के भाजपा में शामिल होने के बाद एक सवाल उठ रहा है कि योगी आदित्यनाथ और राजन तिवारी को एक ही पार्टी में रहना बताता है कि भाजपा में आपसी सियासत गरम हो रही है.

जानें कैसे बनाएं तंदूरी आलू

आज हम आपको तंदूरी आलू की रेसिपी बताने जा रहे हैं, जिसमें मसालें डालकर शैलो फ्राई किया जाता है. इसे बनाना बेहद आसान है, आलू की इस बेहतरीन रेसिपी को आप प्याज और सौंठ की चटनी के साथ सर्व कर सकती हैं.

सामग्री

आलू(1 किग्रा)

देसी घी (आवश्यकतानुसार)

आमचुर (1/2 टी स्पून)

काला नमक (1/2 टी स्पून)

लाल मिर्च पाउडर (1/2 टी स्पून)

नमक (1 टी स्पून)

पीली मिर्च पाउडर (1 टी स्पून)

आलू कुर्मा रेसिपी

चाट मसाला (1 टी स्पून)

सौंठ चटनी (4 टेबल स्पून)

टमाटर (150 ग्राम)

प्याज (150 ग्राम)

मिर्च (30 ग्राम)

धनिया (30 ग्राम)

बनाने की वि​धि

आलुओं को छिलके सहित आधा पकने तक उबाल लें.

आलुओं का छिलका उतार लें.

आलुओं को सीख में लगाकर तेल लगा लें.

इन्हें तंदूर में हल्के ब्राउन होने तक पकाएं.

आलुओं को ठंडा होने दें और इन्हें हथेलियों के बीच में रख कर दबाएं, इसे फ्लैटन कर लें, क्रश न करें.

पालक की भुर्जी रेसिपी

एक पैन में घी गर्म करें और आलुओ को ​क्रिस्पी और गोल्डन ब्राउन होने तक फ्राई करें.

आमचुर, नमक, काला नमक, लाल मिर्च पाउडर और पीली मिर्च पाउडर मिलाकर एक मिक्सचर बना लें.

ड्राई मसाला डालकर आलुओं को भून लें और इसे प्लेट में लगा लें.

आलुओं को सौंठ की चटनी, कटा प्याज, टमाटर, हरी मिर्च और हरा धनिया डालें और इसे गर्मागर्म सर्व करें.

बालू पर पड़ी लकीर

पंडित ओंकारनाथ और मौलाना करीमुद्दीन जब भी आमनेसामने होते तो एकदूसरे पर कटाक्ष करने से बाज न आते पर हालात ने एक दिन कुछ ऐसा कर दिखाया कि वे सारे गिलेशिकवे भूल कर एकदूसरे के गले लग गए. पढि़ए रेणुका पालित की एक हृदयस्पर्शी कहानी.

मैं अपने घर  के बरामदे में बैठा पढ़ने का मन बना रहा था, पर वहां शांति कहां थी. हमेशा की तरह हमारे पड़ोसी पंडित ओंकारनाथ और मौलाना करीमुद्दीन की जोरजोर से झगड़ने की आवाजें आ रही थीं. वह उन का तकरीबन रोज का नियम था. दोनों छोटी से छोटी बात पर भी लड़तेझगड़ते रहते थे, ‘‘देखो, मियां करीम, मैं तुम्हें आखिरी बार मना करता हूं, खबरदार जो मेरी कुरसी पर बैठे.’’

‘‘अमां पंडित, बैठने भर से क्या तुम्हारी कुरसी गल गई. बड़े आए मुझे धमकी देने, हूं.’’

‘नहाते तो हैं नहीं महीनों से और चले आते हैं कुरसी पर बैठने,’ पंडितजी ने बड़बड़ाते हुए अपनी कुरसी उठाई और अंदर रखने चले गए.

मुझे यह देख कर आश्चर्य होता था कि मौलाना और पंडित में हमेशा खींचातानी होती रहती थी, पर उन की बेगमों की उन में कोई भागीदारी नहीं थी. मानो दोनों अपनेअपने शौहरों को खब्ती या सनकी समझती थीं. अचार, मंगोड़ी से ले कर कसीदा, कढ़ाई तक में दोनों बेगमों का साझा था.

पंडित की बेटी गीता जब ससुराल से आती, तब सामान दहलीज पर रखते ही झट मौलाना की बेटी शाहिदा और बेटे रागिब से मिलने चली जाती. मौलाना भी गीता को देख कर बेहद खुश होते. घंटों पास बैठा कर ससुराल के हालचाल पूछते रहते. उन्हें चिढ़ थी तो सिर्फ  पंडित से.

कटाक्षों का सिलसिला यों ही अनवरत जारी रहता. पिछले दिन ही मौलाना का लड़का रागिब जब सब्जियां लाने बाजार जा रहा था, तब पंडिताइन ने पुकार कर कहा, ‘‘बेटे रागिब, बाजार जा रहा है न. जरा मेरा भी थैला लेता जा. दोचार गोभियां और एक पाव टमाटर लेते आना.’’

‘‘अच्छा चचीजान, जल्दी से पैसे दे दीजिए.’’

पंडित और मौलाना अपनेअपने बरामदे में कुरसियां डाले बैठे थे. भला ऐसे सुनहरे मौके पर मौलाना कटाक्ष करने से क्यों चूकते. छूटते ही उन्होंने व्यंग्यबाण चलाए, ‘‘बेटे रागिब, दोनों थैले अलग- अलग हाथों में पकड़ कर लाना, नहीं तो पंडित की सब्जियां नापाक हो जाएंगी.’’

मुसकराते हुए उन्होंने कनखियों से पंडित की ओर देखा और पान की एक गिलौरी गाल में दबा ली.

जब पंडित ने इत्मीनान कर लिया कि रागिब थोड़ी दूर निकल गया है, तब ताव दिखाते हुए बोले, ‘‘अरे, रख दे मेरे थैले. मेरे हाथपांव अभी सलामत हैं. मुझे किसी का एहसान नहीं लेना. पंडिताइन की बुद्धि जाने कहां घास चरने चली गई है. खुद चली जाती या मुझे ही कह देती.’’

भुनभुनाते हुए पंडित दूसरी ओर मुंह फेर कर बैठ जाते.

यों ही नोकझोंक चलती रहती पर एक दिन ऐसी गरम हवा चली कि सारी नोकझोंक गंभीरता में तबदील हो गई.

शहर शांत था, पर वह शांति किसी तूफान के आने से पूर्व जैसी भयानक थी. अब न पंडिताइन रागिब को सब्जियां लाने को आवाज देती, न ही मौलाना आ कर पंडित की कुरसी पर बैठते. एक अदृश्य दीवार दोनों घरों के मध्य उठ गई थी, जिस पर दहशत और अविश्वास का प्लास्टर दोनों ओर के लोग थोपते जा रहे थे. रिश्तेदार अपनी ‘बहुमूल्य राय’ दे जाते, ‘‘देखो मियां, माहौल ठीक नहीं है. यह महल्ला छोड़ कर कुछ दिन हमारे साथ रहो.’’

परंतु कुछ ऐसे भी घर थे जहां अविश्वास की परत अभी उतनी मोटी नहीं थी. इन दोनों परिवारों को भी अपना घर छोड़ना मंजूर नहीं था.

‘‘गीता के बापू, सो गए क्या?’’

‘‘नहीं सोया हूं,’’ पंडित खाट पर करवट बदलते हुए बोले.

‘‘मेरे मन में बड़ी चिंता होती है.’’

‘‘तुम क्यों चिंता में प्राण दिए दे रही हो. ख्वाहमख्वाह नींद खराब कर दी, हूंहं,’’ और पंडित बड़बड़ाते हुए बेफिक्री से करवट बदल कर सो गए.

पर एक रात ऐसा ही हुआ जिस की आशंका मन के किसी कोने में दबी हुई थी. दंगाई (जिन की न कोई जाति होती है, न धर्म) जोरजोर से पंडित का दरवाजा खटखटा रहे थे, ‘‘पंडितजी, बाहर आइए.’’

पंडित के दरवाजा खोलते ही लोग चीखते हुए पूछने लगे, ‘‘कहां छिपाया है आप ने मौलाना के परिवार को?’’

‘‘मैं…मैं ने छिपाया है, मौलाना को? अरे, मेरा तो उन से रोज ही झगड़ा होता है. नहीं विश्वास हो तो देख लो मेरा घर,’’ पंडित ने दरवाजे से हटते हुए कहा.

अभी दंगाइयों में इस बात पर बहस चल ही रही थी कि पंडित के घर की तलाशी ली जाए या नहीं कि शहर के दूसरे छोर से बच्चों और स्त्रियों की चीखपुकार सुनाई पड़ी. रात के सन्नाटे में वह हंगामा और भी भयावह प्रतीत हो रहा था. दरिंदे अपना खतरनाक खेल खेलने में मशगूल थे. बलवाइयों ने पंडित के घर की चिंता छोड़ दी और वे दूसरे दंगाइयों से निबटने के लिए नारे लगाते हुए तेजी से कोलाहल की दिशा की ओर झपट पड़े.

दंगाइयों के जाते ही पंडित ने दरवाजा बंद किया. तेजी से सीटी बजाते हुए एक ओर चले. वह कमरा जिसे पंडिताइन फालतू सामान और लकडि़यां रखने के काम में लाती थी, अब मौलाना के परिवार के लिए शरणस्थली था. सभी भयभीत कबूतरों जैसे सिमटे थे. बस, सुनाई पड़ रही थी तो अपनी सांसों की आवाजें.

पंडित ने कमरे में पहुंचते ही मौलाना को जोर से अंक में भींच कर गले लगा लिया. आंखों से अविरल बह रहे आंसुओं ने खामोशी के बावजूद सबकुछ कह दिया. मौलाना स्वयं भी हिचकियां लेते जाते और पंडित के गले लगे हुए सिर्फ ‘भाईजान, भाईजान’ कहते जा रहे थे.

गरम हवा शांत हो कर फिर बयार बहने लगी थी. सबकुछ सामान्य हो चला था. न तो किसी को किसी से कोई गिला था, न शिकवा. एक संतुष्टि मुझे भी हुई, अब मेरा महल्ला शांत रहेगा. पढ़ने के उपयुक्त वातावरण पर मेरा यह चिंतन मिथ्या ही साबित हुआ.

सुबह होते ही पंडित और मौलाना ने अखाड़े में अपनी जोरआजमाइश शुरू कर दी थी.

‘‘तुम ने मेरे दरवाजे की पीठ पर फिर थूक दिया, मौलाना, ’’ पंडित गरज रहे थे.

‘‘अरे, मैं क्यों थूकने लगा. तुझे तो लड़ने का बहाना चाहिए.’’

‘‘क्या कहा, मैं झगड़ालू हूं.’’

‘‘मैं तो गीता बिटिया के कारण तेरे घर आता हूं, वरना तेरीमेरी कैसी दोस्ती.’’

शिकायतों और इलजामों का कथोपकथन तब तक जारी रहा जब तक दोनों थक नहीं गए.

मैं ने सोचा, ‘यह समुद्र की लहरों द्वारा बालू पर खींची गई वह लकीर है, जो क्षण भर में ही मिट जाती है. समुद्र के किनारों ने लहरों के अनेक थपेड़ों को झेला है पर आखिर में तो वे समतल ही हो जाते हैं.’

सलाहकार

बचपन से ही शुचिता के मन में अंधविश्वास की जड़ें जमा दी थीं उस की दादी ने और युवा होतेहोते ये जड़ें और गहरी हो गई थीं, जिस का फायदा उठाया उस के अपनों ने. पढि़ए कुमुद भटनागर की दिल को झकझोरती कहानी.

छा त्रछात्राओं का प्रिय शगल हर एक अध्यापक- अध्यापिका को कोई नाम देना होता है और चाहे अध्यापक हों या प्राध्यापक, सब जानबूझ कर इस तथ्य से अनजान बने रहते हैं, शायद इसलिए कि अपने जमाने में उन्होंने भी अपने गुरुजनों को अनेक हास्यास्पद नामों से अलंकृत किया होगा.

ऋतिका इस का अपवाद थीं. वह अंगरेजी साहित्य की प्रवक्ता ही नहीं होस्टल की वार्डन भी थीं, लेकिन न तो लड़कियों ने खुद उन्हें कोई नाम दिया और न ही किसी को उन के खिलाफ बोलने देती थीं. मिलनसार, आधुनिक और संवेदनशील ऋतिका का लड़कियों से कहना था :

‘‘देखो भई, होस्टल के कायदे- कानून मैं ने नहीं बनाए हैं, लेकिन मुझे इस होस्टल में रह कर पीएच.डी. करने की सुविधा इसलिए मिली है कि मैं किसी को उन नियमों का उल्लंघन न करने दूं. मैं नहीं समझती कि आप में से कोई भी लड़की होस्टल के कायदेकानून तोड़ कर मुझे इस सुविधा से वंचित करेगी.’’

इस आत्मीयता भरी चेतावनी के बाद भला कौन लड़की मैडम को परेशान करती?  वैसे लड़कियों की किसी भी उचित मांग का ऋतिका विरोध नहीं करती थीं. खाना बेस्वाद होने पर वह स्वयं कह देती थीं, ‘‘काश, मुझ में होस्टल की मैनेजिंग कमेटी के सदस्यों को दावत पर बुला कर यह खाना खिलाने की हिम्मत होती.’’

लड़कियां शिकायत करने के बजाय हंसने लगतीं.

ऋतिका मैडम का व्यवहार सभी लड़कियों के साथ सहृदय था. किसी के बीमार होने पर वह रात भर जाग कर उस की देखभाल करती थीं. पढ़ाई में कोई दिक्कत होने पर अपना विषय न होते हुए भी वह यथासंभव सहायता कर देती थीं, लेकिन अगर कभी कोई लड़की व्यक्तिगत समस्या ले कर उन के पास जाती थी तो बजाय समस्या सुनने या कोई हल सुझाने के वह बड़ी बेरुखी से मना कर देती थीं. लड़कियों को उन की बेरुखी उन के स्वभाव के अनुरूप तो नहीं लगती थी फिर भी किसी ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया.

मनोविज्ञान की छात्रा श्रेया ने कुछ दिनों में ही यह अटकल लगा ली कि ऊपर से सामान्य लगने वाली ऋतिका मैम, भीतर से बुरी तरह घायल थीं और जिंदगी को सजा समझ कर जी रही थीं. मगर उन से पूछने का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि अगर उस का प्रश्न सुन कर ऋतिका मैडम जरा सी भी उदास हो गईं तो सब लड़कियां उन का होस्टल में रहना मुश्किल कर देंगी.

एम.ए. की छात्रा होने के कारण श्रेया अन्य लड़कियों से उम्र में बड़ी और ऋतिका मैडम से कुछ ही छोटी थी, सो प्राय: हमउम्र होने के कारण दोनों में दोस्ती हो गई और दोनों एक ही कमरे में रहने लगीं.

एक दिन एक पत्रिका द्वारा आयोजित निबंध लेखन प्रतियोगिता में भाग ले रही छात्रा रश्मि उन के कमरे में आई.

‘‘मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं हिंदी में निबंध लिखूं या अंगरेजी में?’’

‘‘लिखना तो उसी भाषा में चाहिए जिस में तुम सुंदरता से अपने भाव व्यक्त कर सको,’’ श्रेया बोली.

‘‘दोनों में ही कर सकती हूं.’’

‘‘इस की दोनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ है,’’ ऋतिका मैडम के स्वर में सराहना थी जिसे सुन कर रश्मि का उत्साहित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘इस प्रतियोगिता में मैं प्रथम पुरस्कार जीतना चाहती हूं, सो आप सलाह दें मैडम, कौन सी भाषा में लिखना अधिक प्रभावशाली रहेगा?’’ रश्मि ने ऋतिका से मनुहार की.

‘‘तुम्हारी शिक्षिका होने के नाते बस, इतना ही कह सकती हूं कि तुम अच्छी अंगरेजी लिखती हो और सलाह तो मैं किसी को देती नहीं,’’ ऋतिका मैडम ने इतनी रुखाई से कहा कि रश्मि सहम कर चली गई.

‘‘जब आप को पता है कि उस की अंगरेजी औसत से बेहतर है, तो उसे उसी भाषा में लिखने को कहना था क्योंकि अंगरेजी में जीत की संभावना अधिक है,’’ श्रेया बोली.

‘‘इतनी समझ रश्मि को भी है.’’

‘‘फिर भी बेचारी आश्वस्त होने आप के पास आई थी और आप ने दुत्कार दिया,’’ श्रेया के स्वर में भर्त्सना थी, ‘‘मैडम, आप से सलाह मांगना तो सांड को लाल कपड़ा दिखाना है.’’

ऋतिका ने अपनी हंसी रोकने का असफल प्रयास किया, जिस से प्रभावित हो कर श्रेया पूछे बगैर न रह सकी :

‘‘आखिर आप सलाह देने से इतना चिढ़ती क्यों हैं?’’

‘‘चिढ़ती नहीं श्रेया, डरती हूं,’’ ऋतिका मैडम आह भर कर बोलीं, ‘‘मेरी सलाह से एकसाथ कई जीवन बरबाद हो चुके हैं.’’

‘‘किसी आतंकवादी गिरोह की आप सदस्या रह चुकी हैं?’’ श्रेया ने उन की ओर कृत्रिम अविश्वास से देखा.

ऋतिका ने गहरी सांस ली, ‘‘असामाजिक तत्त्व ही नहीं शुभचिंतक भी जिंदगियां तबाह कर सकते हैं, श्रेया.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘बड़ी लंबी कहानी है.’’

‘‘मैडम, आज पढ़ाई यहीं बंद करते हैं. कल रविवार को कहीं घूमने न जा कर पढ़ाई कर लेंगे,’’ कह कर श्रेया उठी और उस ने कमरे का दरवाजा बंद किया, बत्ती बुझा कर बोली, ‘‘अब आप शुरू हो जाओ. कहानी सुनाने से आप का दिल हलका हो जाएगा और मेरी जिज्ञासा शांत.’’

‘‘मेरा दिल तो कभी हलका नहीं होगा मगर चलो, तुम्हारी जिज्ञासा शांत कर देती हूं.

‘‘शुचिता मेरी स्कूल की सहपाठी थी. जब वह 7वीं में पढ़ती थी तो उस के डाक्टर मातापिता उसे दादी के पास छोड़ कर मस्कट चले गए थे. जब भी वह उन्हें याद करती, दादी प्रार्थना करने को कहतीं या उसे दिलासा देने को राह चलते ज्योतिषियों से कहलवा देती थीं कि उस के मातापिता जल्दी आएंगे.

‘‘मस्कट कोई खास दूर तो था नहीं, सो दादी से शुचि की उदासी के बारे में सुन कर अकसर उस के मातापिता में से कोई न कोई बेटी से मिलने आता रहता था. इस तरह शुचि भाग्य और भविष्यवक्ताओं पर विश्वास करने लगी. विदेश से लौटने पर उस के आधुनिक मातापिता ने शुचि को बहुत समझाया मगर उस की अंधविश्वास के प्रति आस्था नहीं डिगी.

‘‘रजत शुचि का पड़ोसी और मेरे पापा के दोस्त का बेटा था, सो एकदूसरे के घर आतेजाते मालूम नहीं कब हमें प्यार हो गया, लेकिन यह हम दोनों को अच्छी तरह मालूम था कि सही समय पर हमारे मातापिता सहर्ष हमारी शादी कर देंगे, मगर अभी से इश्क में पड़ना गवारा नहीं करेंगे. लेकिन मिले बगैर भी नहीं रहा जाता था, सो मैं पढ़ने के बहाने शुचि के घर जाने लगी. शुचि के मातापिता नर्सिंग होम में व्यस्त रहते थे इसलिए रजत बेखटके वहां आ जाता था. जिंदगी मजे में गुजर रही थी. मैं शुचि से कहा करती थी कि प्यार जिंदगी की अनमोल शै है और उसे भी प्यार करना चाहिए. तब उस का जवाब होता था, ‘करूंगी मगर शादी के बाद.’

‘‘ ‘उस में वह मजा नहीं आएगा जो छिपछिप कर प्यार करने में आता है.’

‘‘‘न आए, मगर जब मैं अपने मम्मीपापा को यह वचन दे चुकी हूं कि मैं शादी उन की पसंद के डाक्टर लड़के से करूंगी, जो उन का नर्सिंग होम संभाल सके तो फिर मैं किसी और से प्यार कैसे कर सकती हूं?’

‘‘असल में शुचि के मातापिता उसे डाक्टर बनाना चाहते थे लेकिन शुचि की रुचि संगीत साधना में थी, सो दामाद डाक्टर पर समझौता हुआ था. हम सब बी.ए. फाइनल में थे कि रजत का चचेरा भाई जतिन एम.बी.ए. करने वहां आया और रजत के घर पर ही रहने लगा.

‘‘एक रोज शुचिता पर नजर पड़ते ही जतिन उस पर मोहित हो गया और रजत के पीछे पड़ गया कि वह उस की दोस्ती शुचिता से करवाए. रजत के असलियत बताने का उस पर कोई असर नहीं हुआ. मालूम नहीं जतिन को कैसे पता चल गया कि रजत मुझ से मिलने शुचिता के घर आता है. उस ने रजत को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया कि या तो वह उस की दोस्ती शुचिता के साथ करवाए नहीं तो वह हमारे मातापिता को सब बता देगा.

‘‘इस से बचने की मुझे एक तरकीब समझ में आई कि शुचिता के अंधविश्वास का फायदा उठा कर उस का चक्कर जतिन के साथ चला दिया जाए. रजत के रंगकर्मी दोस्त सुधाकर को मैं ने अपने और शुचिता के बारे में सबकुछ अच्छी तरह समझा दिया. एक रोज जब मैं और शुचिता कालिज से घर लौट रहे थे तो साधु के वेष में सुधाकर हम से टकरा गया और मेरी ओर देख कर बोला कि मैं चोरी से अपने प्रेमी से मिलने जा रही हूं. उस के बाद उस ने मेरे और रजत के बारे में वह सब कहना शुरू कर दिया जो हम दोनों के अलावा शुचिता को ही मालूम था, सो शुचिता का प्रभावित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘शुचिता ने साधु बाबा से अपने घर चलने को कहा. वहां जा कर सुधाकर ने भविष्यवाणी कर दी कि शीघ्र ही शुचिता के जीवन में भी उस के सपनों का राजकुमार प्रवेश करेगा. सुधाकर ने शुचिता को आश्वस्त कर दिया कि वह कितना भी चाहे प्रेमपाश से बच नहीं सकेगी क्योंकि यह तो उस के माथे पर लिखा है. उस ने यह भी बताया कि वह कहां और कैसे अपने प्रेमी से मिलेगी.

‘‘शुचिता के यह पूछने पर कि उस की शादी उस व्यक्ति से होगी या नहीं, सुधाकर सिटपिटा गया, क्योंकि इस बारे में तो हम ने उसे कुछ बताया ही नहीं था, सो टालने के लिए बोला कि फिलहाल उस की क्षमता केवल शुचिता के जीवन में प्यार की बहार देखने तक ही सीमित है. वैसे जब प्यार होगा तो विवाह भी होगा ही. सच्चे प्यार के आगे मांबाप को झुकना ही पड़ता है.

‘‘उस के बाद जैसे सुधाकर ने बताया था उसी तरह जतिन धीरेधीरे उस के जीवन में आ गया. शुचिता का खयाल था कि जब साधु बाबा की कही सभी बातें सही निकली हैं तो मांबाप के मानने वाली बात भी ठीक ही निकलेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जतिन ने यहां तक कहा कि उसे उन का एक भी पैसा नहीं चाहिए…वे लोग चाहें तो किसी गरीब बच्चे को गोद ले कर उसे डाक्टर बना कर अपना नर्सिंग होम उसे दे दें. शुचिता ने भी जतिन की बात का अनुमोदन किया. शुचिता के मातापिता को मेरी और अपनी बेटी की गहरी दोस्ती के बारे में मालूम था, सो एक रोज वह दोनों हमारे घर आए.

‘‘‘देखो ऋतिका, शुचि हमारी इकलौती बेटी है. हम ने रातदिन मेहनत कर के जो इतना बढि़या नर्सिंग होम बनाया है या दौलत कमाई है इसीलिए कि हमारी बेटी हमेशा राजकुमारियों की तरह रहे. जतिन अच्छा लड़का है लेकिन उस की एक बंधीबधाई तनख्वाह रहेगी. वह एक डाक्टर जितना पैसा कभी नहीं कमा पाएगा और फिर हमारे इतनी लगन से बनाए नर्सिंग होम का क्या होगा? अपनी बेटी के रहते हम किसी दूसरे को कैसे गोद ले कर उसे सब सौंप दें? हम ने शुचि के लिए डाक्टर लड़का देखा हुआ है जो हर तरह से उस के उपयुक्त है और उस के साथ वह बहुत खुश रहेगी. तुम भी उसे जानती हो.’

‘‘ ‘कौन है, अंकल?’

‘‘‘तुम्हारा भाई कुणाल. उस के अमेरिका से एम.एस. कर के लौटते ही दोनों की शादी कर देंगे.’

‘‘ ‘मैं ठगी सी रह गई. शुचिता मेरी भाभी बन कर हमेशा मेरे पास रहे इस से अच्छा और क्या होगा? जतिन तो आस्ट्रेलिया जाने को कटिबद्ध था.

‘‘ ‘आप ने यह बात छिपाई क्यों?’ मैं ने पूछा, ‘क्या पता भैया ने वहीं कोई और पसंद कर ली हो.’

‘‘ ‘उसे वहां इतनी फुरसत ही कहां है? और फिर मैं ने कुणाल और तुम्हारे मम्मीपापा को साफ बता दिया था कि मैं कुणाल को अमेरिका जाने में जो इतनी मदद कर रहा हूं उस की वजह क्या है. उन सब ने तभी रिश्ता मंजूर कर लिया था. तुम्हें बता कर क्या ढिंढोरा पीटना था?’

‘‘अब मैं उन्हें कैसे बताती कि मुझे न बताने से क्या अनर्थ हुआ है. तभी मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी. शुचिता के जिस अंधविश्वास का सहारा ले कर मैं ने उस का और जतिन का चक्कर चलवाया था, एक बार फिर उसी अंधविश्वास का सहारा ले कर उस चक्कर को खत्म भी कर सकती थी लेकिन अब यह इतना आसान नहीं था. रजत कभी भी मेरी मदद करने को तैयार नहीं होता और अकेली मैं कहां साधु बाबा को खोजती फिरती? मैं ने शुचिता की मम्मी को सलाह दी कि वह शुचि के अंधविश्वास का फायदा क्यों नहीं उठातीं? उन्हें सलाह पसंद आई. कुछ रोज के बाद उन्होंने शुचिता से कहा कि वह उस की और जतिन की शादी करने को तैयार हैं मगर पहले दोनों की जन्मपत्री मिलवानी होगी. अगर कुछ गड़बड़ हुई तो ग्रह शांति की पूजा करा देंगे.

‘‘अंधविश्वासी शुचिता तुरंत मान गई. उस ने जबरदस्ती जतिन से उस की जन्मपत्री मंगवाई. मातापिता ने एक जानेमाने पंडित को शुचिता के सामने ही दोनों कुंडलियां दिखाईं. पंडितजी देखते ही ‘त्राहिमाम् त्राहिमाम्’ करने लगे.

‘‘‘इस कन्या से विवाह करने के कुछ ही समय बाद वर की मृत्यु हो जाएगी. कन्या के ग्रह वर पर भारी पड़ रहे हैं.’

‘‘ ‘उन्हें हलके यानी शांत करने का कोई उपाय जरूर होगा पंडितजी. वह बताइए न,’ शुचिता की मम्मी ने कहा.

‘‘ ‘ऐसे दुर्लभ उपाय जबानी तो याद होते नहीं, कई पोथियां देखनी होंगी.’

‘‘‘तो देखिए न, पंडितजी, और खर्च की कोई फिक्र मत कीजिए. अपनी बिटिया की खुशी के लिए आप जो पूजा या दान कहेंगे हम करेंगे.’

‘‘‘मगर पूजा से अमंगल टल जाएगा न पंडितजी?’ शुचिता ने पूछा.

‘‘‘शास्त्रों में तो यही लिखा है. नियति में लिखा बदलने का दावा मैं नहीं करता,’ पंडितजी टालने के स्वर में बोले.

‘‘ ‘ऐसा है बेटी. जैसे डाक्टर अपने इलाज की शतप्रतिशत गारंटी नहीं लेते वैसे ही यह पंडित लोग अपनी पूजा की गारंटी लेने से हिचकते हैं,’ शुचिता के पापा हंसे.

‘‘उस के बाद शुचिता ने कुछ और नहीं पूछा. अगली सुबह उस के कमरे से उस की लाश मिली. शुचिता ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उस ने अपने अंतिम पत्र में लिखा था कि पंडितजी की बात से साफ जाहिर है कि उस की जिंदगी में जतिन का साथ नहीं लिखा है, वह जतिन से बेहद प्यार करती है. उस के बगैर जीने की कल्पना नहीं कर सकती और न ही उस का अहित चाहती है, सो आत्महत्या के सिवा उस के पास कोई और विकल्प नहीं है.

‘‘शुचिता की आत्महत्या के लिए उस के मातापिता स्वयं को अपराधी मानते हैं, मगर असली दोषी तो मैं हूं जिस की सलाह पर पहले एक नकली ज्योतिषी ने शुचिता का जतिन से प्रेम करवाया और मेरी सलाह से ही उस प्रेम संबंध को तोड़ने के लिए फिर एक झूठे ज्योतिषी का सहारा लिया गया.

‘‘शुचिता के मातापिता और उस से अथाह प्यार करने वाला जतिन तो जिंदा लाश बन ही चुके हैं. मगर मेरे कुणाल भैया, जो बचपन से शुचिता से मूक प्यार करते थे और जिस के कारण ही वह बजाय इंजीनियर बनने के डाक्टर बने थे, बुरी तरह टूट गए हैं और भारत लौटने से कतरा रहे हैं इसलिए मेरे मातापिता भी बहुत मायूस हैं. यही नहीं मेरे इस तरह क्षुब्ध रहने से रजत भी बेहद दुखी हैं. तुम ही बताओ श्रेया, इतना अनर्थ कर के, इतने लोगों को संत्रास दे कर मैं कैसे खुश रह सकती हूं या सलाहकार बनने की जुर्रत कर सकती हूं?’’

सबक के बाद

प्रयाग को अपनी निजी जिंदगी में किसी का दखल पसंद नहीं था. यहां तक कि पत्नी तक उस की किसी गैरजिम्मेदाराना हरकत पर आपत्ति नहीं कर सकती थी.

मे  ज पर फाइलें बिखरी पड़ी थीं और वह सामने लगे शीशे को देख रहे थे. आने वाले समय की तसवीरें एकएक कर उन के आगे साकार होने लगीं. झुकी हुई कमर, कांपते हुए हाथपांव. वह जहां भी जाते हैं, उपेक्षा के ही शिकार होते हैं. हर कोई उन की ओर से मुंह फेर लेता है. ऐसे में उन्हें नानी के कहे शब्द याद आ गए, ‘अरे पगले, यों आकाश में नहीं उड़ा करते. पखेरू भी तो अपना घोंसला धरती पर ही बनाया करते हैं.’

तनाव से उन का माथा फटा जा रहा था. उसी मनोदशा में वह सीट से उठे और सोफे पर जा धंसे. दोनों हाथों से माथा पकड़े हुए वह चिंतन में डूबने लगे. उन के आगे सचाई परत दर परत खुलने लगी. उन्होंने कभी भी तो अपने से बड़ों की बातें नहीं मानी. उन के आगे वह अपनी ही गाते रहे. सिर उठा कर उन्होंने घड़ी की ओर देखा तो 1 बज रहा था. चपरासी ने अंदर आ कर पूछा, ‘‘सर, लंच में आप क्या लेंगे?’’

‘‘आज रहने दो,’’ उन्होंने मना करते हुए कहा, ‘‘बस, एक कौफी ला दो.’’

‘‘जी, सर,’’ चपरासी बाहर चल दिया.

लोगों की झोली खुशियों से कैसे भरती है? वह इसी पर सोचने लगे. परसों ही तो उन के पास छगनलाल एक फाइल ले कर आए थे. उन्होंने पूछा था, ‘‘कहिए छगन बाबू, कैसे हैं?’’

‘‘बस, साहब,’’ छगनलाल हंस दिए थे, ‘‘आप की दुआ से सब ठीकठाक है. मैं तो जीतेजी जीवन का सही आनंद ले रहा हूं. चहकते हुए परिवार में रह रहा हूं. बहूबेटा दोनों ही घरगृहस्थी की गाड़ी खींच रहे हैं. वे तो मुझे तिनका तक नहीं तोड़ने देते. अब वही तो मेरे बुढ़ापे की लाठी हैं.’’

‘‘बहुत तकदीर वाले हो भई,’’ यह कहते हुए उन्होंने फाइल पर हस्ताक्षर कर छगनलाल को लौटा दी थी.

चपरासी सेंटर टेबल पर कौफी का मग रख गया. उसे पीते हुए वह उसी प्रकार आत्ममंथन करने लगे.

उन के सिर पर से मांबाप का साया बचपन में ही उठ गया था. वह दोनों एक सड़क दुर्घटना में मारे गए थे. तब नानाजी उन्हें अपने घर ले आए थे. उन का लालनपालन ननिहाल में ही हुआ था. उन की बड़ी बहन का विवाह भी नानाजी ने ही किया था.

नानानानी के प्यार ने उन्हें बचपन से ही उद्दंड बना दिया था. स्कूलकालिज के दिनों से ही उन के पांव खुलने लगे थे. पर उन का एक गुण, तीक्ष्ण बुद्धि का होना उन के अवगुणों पर पानी फेर देता था.

राज्य लोक सेवा आयोग में पहली ही बार में उन का चयन हो गया तो वह सचिवालय में काम करने लगे थे. अब उन के मित्रों का दायरा बढ़ने लगा था. दोस्तों के बीच रह कर भी वह अपने को अकेला ही महसूस किया करते. वह धीरेधीरे अलग ही मनोग्रंथि के शिकार होने लगे. घरबाहर हर कहीं अपनी ही जिद पर अड़े रहते.

उन के भविष्य को ले कर नानाजी चिंतित रहा करते थे. उन के लिए रिश्ते भी आने लगे थे लेकिन वह उन्हें टाल देते. एक दिन अपनी नानी के बहुत समझाने पर ही वह विवाह के लिए राजी हुए थे.

3 साल पहले वे नानानानी के साथ एक संभ्रांत परिवार की लड़की देखने गए थे. उन लोगों ने सभी का हृदय से स्वागत किया था. चायनाश्ते के समय उन्होंने लड़की की झलक देख ली थी. वह लड़की उन्हें पसंद आ गई और बहुत देर तक उन में इधरउधर की बातें होती रही थीं. उन की बड़ी बहन भी साथ थी. उस ने उन के कंधे पर हाथ रख कर पूछा था, ‘क्यों भैया, लड़की पसंद आई?’

इस पर वे मुसकरा दिए थे. वहीं बैठी लड़की की मां ने आंखें नचा कर कहा था, ‘अरे, भई, अभी दोनों का आमना- सामना ही कहां हुआ है. पसंदनापसंद की बात तो दोनों के मिलबैठ कर ही होगी न.’

इस पर वहां हंसी के ठहाके गूंज उठे थे.

ड्राइंगरूम में सभी चहक रहे थे. किचेन में भांतिभांति के व्यंजन बन रहे थे. प्रीति की मां ने वहां आ कर निवेदन किया था, ‘आप सब लोग चलिए, लंच लगा दिया गया है.’

वहां से उठ कर सभी लोग डाइनिंग रूम में चल दिए थे. वहां प्रीति और भी सजसंवर कर आई थी. प्रीति का वह रूप उन के दिल में ही उतरता चला गया था. सभी भोजन करने लगे थे. नानाजी ने उन की ओर घूम कर पूछा था, ‘क्यों रे, लड़की पसंद आई?’

‘जी, नानाजी,’ वह बोले थे, पर…

‘पर क्या?’ प्रीति के पापा चौंके थे.

‘पर लड़की को मेरे निजी जीवन में किसी प्रकार का दखल नहीं देना होगा,’ उन्होंने कहा, ‘मेरी यही एक शर्त है.’

‘प्रयाग’, नानाजी उन की ओर आंखें तरेरने लगे थे, ‘तुम्हारा इतना साहस कि बड़ों के आगे जबान खोलो. क्या हम ने तुम में यही संस्कार भरे हैं?’

नानाजी की उस प्रताड़ना पर उन्होंने गरदन झुका ली थी. प्रीति की मां ने यह कह कर वातावरण को सहज बनाने का प्रयत्न किया था कि अच्छा ही हुआ जो लड़के ने पहले ही अपने मन की बात कह डाली.

‘वैसे प्रयागजी’, प्रीति के पापा सिर खुजलाने लगे थे, ‘मैं आप के निजी जीवन की थ्योरी नहीं समझ पाया.’

‘मैं घर से बाहर क्या करूं, क्या न करूं,’ उन्होंने स्पष्ट किया था, ‘यह इस पर किसी भी प्रकार की टोकाटाकी नहीं करेंगी.’

‘अरे,’ प्रीति के पापा ने जोर का ठहाका लगाया था, ‘लो भई, आप की यह निजता बनी रहेगी.’

रिश्ता पक्का हो चला था. 6 महीने बाद धूमधाम से उन का विवाह हो गया था. विवाह के तुरंत बाद ही वे दोनों नैनीताल हनीमून पर चल दिए थे. सप्ताह भर वे वहां खूब सैरसपाटा करते रहे थे. दोनों ही तो एकदूसरे में डूबते चले गए थे. वहां उन्होंने नैनी झील में जी भर कर बोटिंग की थी.

‘क्योंजी,’ बोटिंग करते हुए प्रीति ने उन से पूछा था, ‘उस दिन मैं आप की फिलौस्फी नहीं समझ पाई थी. जब आप मुझे देखने आए थे तो अपने निजी जीवन की बात कही थी न.’

‘हां,’ उन्होंने कहा था, ‘मैं कहां जाऊंगा, क्या करूंगा, इस पर तुम्हारी ओर से किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होगी. मैं औरतमर्द में अंतर माना करता हूं.’

‘अरे,’ प्रीति भौचक रह गई थी. वह गला साफ  करते हुए बोली, ‘आज के युग में जहां नरनारी की समता की दुहाई दी जाती है, वहां आप के ये दकियानूसी विचार…’

‘मैं ने कहा न,’ उन्होंने पत्नी की बात बीच में काट दी थी, ‘तुम किसी भी रूप में मेरे साथ वैचारिक बलात्कार नहीं करोगी और न ही मैं तुम्हें अपने ऊपर हावी होने दूंगा.’

तभी फोन की घंटी बजी और उन्होंने आ कर रिसीवर उठा लिया, ‘‘यस.’’

‘‘सर, लंच के बाद आप डिक्टेशन देने की बात कह रहे थे,’’ उधर से उन की पी.ए. कनु ने उन्हें याद दिलाया.

‘‘अरे हां,’’ वह घड़ी देखने लगे. 2 बज चुके थे. अगले ही क्षण उन्होंने कहा, ‘‘चली आओ, मुझे एक जरूरी डिक्टेशन देना है.’’

इतना कह कर वह कल्पना के संसार में विचरने लगे कि उन की पी.ए. कनुप्रिया कमरे में आएगी. उस के शरीर की गंध से कमरा महक उठेगा. ऐसे में वह सुलगने लगेंगे…तभी चौखट पर कनु आ खड़ी हुई. वह मुसकरा दिए, ‘‘आओ, चली आओ.’’

कनु सामने की कुरसी पर बैठ गई. वह उस के आगे चारा डालने लगे, ‘‘कनु, आज तुम सच में एक संपूर्ण नारी लग रही हो.’’

कनु हतप्रभ रह गई. बौस के मुंह से वह अपनी तारीफ सुन कर अंदर ही अंदर घबरा उठी. उस ने नोट बुक खोल ली और नोटबुक पर नजर गड़ाए हुए बोली, ‘‘मैं समझी नहीं, सर.’’

‘‘अरे भई, कालिज के दिनों में मैं ने काव्यशास्त्र के पीरियड में नायिका भेद के लक्षण पढे़ थे. तुम्हें देख कर वे सारे लक्षण आज मुझे याद आ रहे हैं. तुम पद्मिनी हो…तुम्हारे आने से मेरा यह कमरा ही नहीं, दिल भी महकने लगा है.’’

‘‘काम की बात कीजिए न सर,’’ कनु गंभीर हो आई. उस ने कहा, ‘‘आप मुझे एक जरूरी डिक्टेशन देने जा रहे थे.’’

‘‘सौरी कनु, मुझे पता न था कि तुम… मैं तो सचाई उगल रहा था.’’

‘‘आप को सब पता है, सर,’’ कनु कहती ही गई, ‘‘आप अपनी आदत से बाज आ जाइए. प्रीति मैडम में ऐसी क्या कमी थी, जो आप ने उन्हें निर्वासित जीवन जीने के लिए विवश किया?’’

अपनी स्टेनो के मुंह से पत्नी का नाम सुन कर प्रयाग को जबरदस्त मानसिक झटका लगा. कनु तो उन्हें नंगा ही कर डालेगी. उन की सारी प्राइवेसी न जाने कब से दफ्तर में लीक होती आ रही है…यानी सभी जानते हैं कि उन के अत्याचारों से तंग आ कर ही उन की पत्नी मायके में बैठी हुई है. कनु के प्रश्न से निरुत्तर हो वह अपने गरीबान में झांकने लगे, तो अतीत फिर उन के सामने साकार होने लगा.

नैनीताल से आ कर वह नानाजी से अलग एक किराए का फ्लैट ले कर रहने लगे थे. नानाजी ने उन्हें बहुत समझाया था लेकिन उन्होंने उन की एक भी नहीं सुनी थी. फ्लैट में आ कर वह अपने आदेशनिर्देशों से प्रीति का जीना ही हराम करने लगे थे.

‘रात की रोटियां क्यों बच गईं?’

‘तुम तार पर कपडे़ डालती हुई इधरउधर क्यों झांकती हो?’

‘तुम्हें लोग क्यों देखते हैं?’

आएदिन वह पत्नी पर इस तरह के प्रश्नों की झड़ी सी लगा दिया करते थे.

उस फ्लैट में प्रीति उन के साथ भीगी बिल्ली बन कर रहने लगी थी. जबतब उसे उन की शर्त याद आ जाया करती. पति के उन अत्याचारों से आहत हो वह आत्मघाती प्रवृत्ति की ओर बढ़ने लगी थी. एक बार तो वह मरतीमरती ही बची थी.

उन की आवारगी अब और भी जलवे दिखलाने लगी थी. एक दिन वह किसी युवती को फ्लैट में ले आए थे. प्रीति कसमसा कर ही रह गई थी. उन्होंने उस युवती का परिचय दिया था, ‘यह सुनंदा है. हम लोग कभी एक साथ ही पढ़ा करते थे.’

विवाह के दूसरे साल उन के यहां एक बच्चा आ गया था लेकिन वे वैसे ही रूखे बने रहे. बच्चे के आगमन पर उन्हें कोई भी खुशी नहीं हुई थी. प्रीति उन के अत्याचारों के नीचे दबती ही गई.

‘देखिएजी,’ एक दिन प्रीति ने अपना मुंह खोल ही दिया, ‘मुझे आप प्रतिबंधों के शिंकजे से मुक्त कीजिए… नहीं तो…’

‘नहीं तो तुम मेरा क्या कर लोगी?’ उन्होंने तमक कर पूछा था.

‘अब हमारे बीच नन्हा भी आ गया है. प्रीति उन्हें समझाने लगी थी, ‘हम 2 से 3 हो आए हैं. मुझे इस गुलामी की जंजीर से मुक्त कर दें.’

‘नहीं,’ वे गुर्राए, ‘मैं अपने निश्चय से टस से मस नहीं हो सकता. मैं हमेशा अपने ही मन की करता रहूंगा.’

‘ठीक है,’ प्रीति का भी स्वाभिमान जाग गया था. उस ने कहा, ‘फिर मैं भी अपनी मनमरजी पर उतरने लगूंगी.’ प्रीति के अनुनयविनय का प्रयाग पर कुछ भी असर नहीं पड़ा तो एक दिन नन्हे को ले कर मायके चली गई. रोरो कर उस ने मां को सारी बातें बतला दीं. मां उस का सिर सहलाने लगीं, ‘धीरज रख, सब ठीक हो जाएगा बेटी.’

तब से प्रीति मायके में ही रह कर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने लगी थी. उन्होंने कभी भी उस की खोजखबर नहीं ली. उन का बेटा नन्हा भी उन्हें नहीं पिघला पाया था. उन के दोस्तों में इजाफा होता गया. बदनाम गलियों में भी वह मुंह मारने लगे थे.

एक दिन बूढ़ी हो आई नानी उन के यहां चली आई थीं. ‘क्यों रे, तेरा यह मनमौजीपन कब छूटेगा?’

‘छोड़ो भी नानी मां,’ उन्होंने बात टाल दी थी, ‘मेरे संस्कार ही ऐसे हैं. जो होगा उसे मैं झेल लूंगा.’

‘संस्कार बदले भी तो जा सकते हैं न,’ नानी का हाथ उन के कंधे पर आ गया था, ‘तू अब भी मान जा. जा कर बहू को लिवा ला. इसी में तेरा भला है.’

वह नहीं समझ पाते कि उन के साथ ऐसा क्यों हो रहा है. आज उन की पी.ए. कनु तक ने उन्हें नंगा कर देना चाहा था. ठुड्डी पर हाथ रखे हुए वह प्रीति के बारे में सोचने लगे कि उस में कोई कमी नहीं है. उन्हीं के अत्याचारों से उस बेचारी को आज निर्वासित जीवन जीना पड़ रहा है.

दफ्तर से प्रयाग सीधे ही घर चले आए. उन के पीछेपीछे दोचार उन के मित्र भी चले आए. कुछ देर तक खानेपीने का दौर चला फिर मित्र चले गए तो वह फिर से तन्हा हो गए. उस से नजात पाने के लिए उन्होंने 2-3 बडे़बडे़ पैग लिए और बिस्तर पर जा धंसे.

सुबह हुई, देर से सो कर उठे तो नहा धो कर सीधे आफिस चल दिए. दरवाजे पर खडे़ चपरासी ने निवेदन किया, ‘‘साहब, आप को मैडम याद कर रही हैं.’’

‘‘मुझे?’’ वह चौंके.

‘‘जी,’’ चपरासी बोला, ‘‘मैडम बोली थीं कि आते ही उन्हें मेरे पास भेज दे.’’

वह आशंकित होने लगे. महा- निदेशक ने उन्हें न जाने क्यों बुलवाया है? किसी प्रकार शंकित मन से वह मिसेज रूंगटा के चैंबर में चल दिए. मैडम ने तो उन्हें देखते ही उन की ओर जैसे तोप दाग दी, ‘‘क्यों, मिस्टर, आप को अपने कैरियर का खयाल नहीं है क्या?’’

‘‘ऐसी क्या बात हो आई, मैडम?’’ उन्होंने कुछ सहम कर पूछा.

‘‘यह क्या है, देखिए,’’ मिसेज रूंगटा ने उन्हें कनुप्रिया की शिकायत थमा दी, ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या? आप तो छिपेरुस्तम निकले.’’

शिकायत देख कर उन को सारा कमरा घूमता हुआ सा लगा. वह होंठों पर जीभ फिरा कर बोले, ‘‘माफ करना मैडम, यह लड़की दुश्चरित्र है.’’

‘‘दुश्चरित्र आप हैं,’’ मिसेज रूंगटा ने आंखें तरेर कर कहा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आ पा रहा है कि आप जैसे लंपट व्यक्ति इस पद पर कैसे बने हुए हैं? सुना है, आप का अपनी पत्नी के साथ भी…’’

उन की तो बोलती ही बंद हो आई. उन्होंने अपराधभाव से गरदन झुका ली. मिसेज रूंगटा ने उन्हें चेतावनी दे डाली, ‘‘आइंदा ध्यान रखें. अब आप जा सकते हैं.’’

वह उठे और चुपचाप महानिदेशक के चैंबर से निकल कर अपनी सीट पर आ कर बैठ गए. तभी उन के कमरे में कनुप्रिया चली आई और बोली,  ‘‘सर, मेरी यहां से बदली हो गई है.’’

वह कुछ बोले नहीं बल्कि चुपचाप फाइलें देखते रहे. आज वह अपने को हारे हुए जुआरी सा महसूस कर रहे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. तभी उन के पास बाबू छगनलाल चले आए. उन्होंने कहा, ‘‘माफ करना साहब, आज आप कुछ उदास से हैं.’’

‘‘बैठिए छगन बाबू,’’ वह सामान्य हो गए.

छगनलाल कुरसी पर बैठ कर बोले,  ‘‘वैसे हम लोग आफतें खुद ही मोल लिया करते हैं. लगता है कि आप भी किसी आफत में फंसे हैं?’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ वह बोले, ‘‘मेरी पी.ए. कनु ने महानिदेशक से मेरी बदसलूकी की शिकायत की है.’’

‘‘वही तो,’’ छगनलाल ने कहा, ‘‘सारे निदेशालय में यही सुगबुगाहट चल रही है.’’

‘‘अब ऐसा नहीं होगा, छगन बाबू,’’ वह बोले, ‘‘अब मैं सावधानी से रहा करूंगा.’’

‘‘रहना भी चाहिए, साहब,’’ छगनलाल बोले, ‘‘आदमी को हमेशा ही सतर्क रहना चाहिए.’’

उन्हें जीवन में पहली बार सबक मिला था. अब वह ध्यानपूर्वक अपना काम करने लगे. वह नानाजी को फोन मिलाने लगे. मिलने पर वे बोले, ‘‘नानाजी, मैं प्रयाग बोल रहा हूं.’’

‘‘बोलो बेटे,’’ उधर से कहा गया.

‘‘मैं आप के पास ही रहना चाहता हूं,’’ उन्होंने अपनी दिली इच्छा प्रकट की.

‘‘स्वागत है,’’ नानाजी ने पूछा, ‘‘कब आ रहे हो?’’

‘‘एकदो दिन में प्रीति को भी साथ ले कर आ रहा हूं.’’

‘‘फिर तो यह सोने पर सुहागा वाली बात होगी,’’ नानाजी ने चहक कर कहा, ‘‘यह तो तुम्हें बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था.’’

‘‘सौरी नानाजी,’’ प्रयाग क्षमा मांगने लगे, ‘‘अब तक मैं भटकने की राह पर था.’’

शाम को वह दफ्तर से सीधे ही ससुराल चले गए. आंगन में नन्हा खेल रहा था, उसे उन्होंने गोद में उठाया और प्यार करने लगे. कोने में खड़ी प्रीति उन्हें देखती ही रह गई. वह मुसकरा दिए, ‘‘प्रीति, आज मैं तुम्हें लेने आया हूं.’’

‘‘वह तो आप को आना ही था,’’ प्रीति हंस दी.

वह सासससुर के आगे अपने किए पर प्रायश्चित्त करने लगे. ससुर ने उन का कंधा थपथपा दिया, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, आदमी ठोकर खा कर ही तो संभलता है.’’

सुबह उन की नींद खुली तो उन्होंने अपने को तनावमुक्त पाया. प्रीति भी खुश नजर आ रही थी. चायनाश्ते के बाद उन्होंने एक टैक्सी बुला ली. प्रीति और नन्हे को बिठा कर खुद भी उन की बगल में बैठ गए. टैक्सी नानाजी के घर की ओर सड़क पर दौड़ने

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