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परवरिश

दबंग स्वभाव की वजह से मानसी ने अपने बेटे अक्षत पर बचपन से ही कड़ा नियंत्रण रखा. जबकि सुजाता ने अपने बेटे राहुल को अनुशासन में रखा लेकिन किसी बंधन में नहीं बांधा.

मानसी दीदी की चिट्ठी मिलते ही मैं एक ही सांस में पूरी चिट्ठी पढ़ गई. चिट्ठी पढ़ कर दो बूंद आंसू मेरे गालों पर लुढ़क गए. मानसी दीदी के हिस्से में भी कभी सुख नहीं रहा. कुछ दुख उन्हें उन के हिस्से के मिले, कुछ कर्मों से और कुछ स्वभाव से. इन तीनों में से कुछ भी यदि उन का ठीक होता तो शायद उन्हें इतने दुख नहीं भुगतने पड़ते. दीदी के बारे में सोचती मैं अतीत में खो सी गई.

हम दोनों बहनें मातापिता की लाड़ली थीं. पिता ने हमें ही बेटा मान हमारे लालनपालन व शिक्षादीक्षा में कोई कमी नहीं रखी. दीदी सुंदरता में मां पर व स्वभाव से पापा पर गई थीं. वह दबंग व उग्र स्वभाव की थीं. वह दूसरे के अनुसार ढलने के बजाय दूसरे को अपने अनुसार ढालने में विश्वास रखती थीं. परिस्थितियों के अनुसार ढलने के बजाय परिस्थितियों को अपने अनुसार ढाल लेती थीं. यह उन का स्वभाव भी था और इस की उन में क्षमता भी थी.

इस के विपरीत मेरा स्वभाव मां पर व शक्लसूरत पापा पर गई थी. मैं देखने में ठीकठाक थी. शालीन व लुभावना सा व्यक्तित्व था. हर एक के साथ समझौता करने वाला लगभग शांत स्वभाव था. जब तक बहुत परेशानी न हो तब तक मैं खुश ही रहती थी. हर तरह की परिस्थिति के साथ समझौता करना जानती थी. मेरे स्वभाव में दबंगता तो नहीं थी पर मैं दब्बू स्वभाव की भी नहीं थी.

दीदी का दबंग स्वभाव सब को अपनी मुट्ठी में रखना चाहता. जो करे उन की मन की करे. जो उन को ठीक लगे वह करे. विवाह के बाद भी पति व बच्चों पर उन का ही शासन रहा. यहां तक कि सासससुर ने भी उन की ही सुनी. किसी की क्या मजाल कि कोई उन की इच्छा के विपरीत घर में कुछ कर दे.

‘दीदी, इतना मत दबाया करो सब को, बच्चों पर इतनी अधिक बंदिश रखना ठीक नहीं है…’ मैं अकसर दीदी को समझाने का प्रयास करती.

‘तू अपनी समझ अपने पास रख…जैसे तू ने खुल्ला छोड़ा हुआ है बच्चों को…मेरे दोनों बच्चे, मजाल है मेरे सामने जोर से हंस भी दें…कितने आज्ञाकारी बच्चे हैं…मेरे ही नियंत्रण का फल है…वरना इन के पापा तो इन को बिगाड़ कर रख देते,’ दीदी बडे़ गर्व से कहतीं.

‘दीदी, आप के बच्चे आज्ञाकारी नहीं बल्कि डरते हैं आप से. आज्ञा प्यार से मानें बच्चे, तब तो ठीक लेकिन यदि वे डर कर मानें, तो जिस दिन वे आत्मनिर्भर हो जाएंगे आप की सुनेंगे भी नहीं,’ मैं दलील देती तो दीदी मुझे जोर से झिड़क देतीं.

दीदी के इस दबंग रूप को अगर सकारात्मक पहलू से देखा जाए तो पूरी गृहस्थी का भार उन के ही कंधों पर था. जीजाजी अकसर बीमार रहते थे. उन्हें दिल की बीमारी थी. किसी तरह वह नौकरी कर लेते थे बस, बाकी समस्याएं दीदी के जिम्मे थीं.

दीदी हिम्मत वाली थीं. हर मुश्किल का सामना वह किसी तरह कर लेती थीं. इसीलिए जीजाजी बीमार होने के बावजूद थोड़ा जी गए, लेकिन बीमार दिल के साथ आखिर वह कितने दिन जी पाते. एक दिन परिवार को आधाअधूरा छोड़ वह इस दुनिया से कूच कर गए. दीदी की हिम्मत ने परिवार की पतवार फिर से चलानी शुरू कर दी. उन्होंने बेटी की पढ़ाई छुड़वा कर उस के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया.

‘दीदी, आमना पढ़ने में तेज है, उस की इतनी जल्दी शादी क्यों कर रही हो…उसे पढ़ने दो,’ मैं बोली.

‘तू अपनी गृहस्थी के बारे में सोच, सुजाता. मेरी बेटी मेरी जिम्मेदारी है,’ उन्होंने मुझे दोटूक जवाब दे दिया. दीदी न किसी की सुनती थीं, न किसी की मानती थीं. आमना भी बहुत रोई, गिड़गिड़ाई, बेटे ने भी बहुत कहा पर दीदी ने बी.काम. खत्म करते ही उस का विवाह कर दिया.

अपनी सफलता पर दीदी बहुत खुश थीं कि उन्होंने अकेले होते हुए भी बेटी का विवाह कर दिया और बेटी ने चूं भी नहीं की. आमना को खुश देख कर मैं ने भी अपने दिल को समझा लिया. हालांकि उस के सपनों की कोंपलों को झुलसते हुए मैं ने साफ महसूस किया था.

दीदी कभीकभी बच्चों के साथ हमारे घर रहने आ जाती थीं. उन का बेटा अक्षत इतना आज्ञाकारी था कि उन दिनों मुझे अपना राहुल कुछ ज्यादा ही बिगड़ा हुआ और उद्दंड दिखाई देता. उन दोनों मांबेटे में मैंने कभी बहस होते नहीं देखी. मांबेटे के बीच झगड़ा तो दूर की बात थी, जबकि मेरे और मेरे बेटे के बीच बिना कारण हमेशा ठनी ही रहती. मेरे बेटे को मुझ में कमी ही कमी दिखाई देती.

दीदी अकसर मुझे टोकतीं, ‘तू राहुल पर थोड़ी सख्ती रखा कर सुजाता, अभी से ऐसा लड़ता है तुझ से तो बड़ा हो कर क्या करेगा? तेरी जगह पर मैं होती तो थप्पड़ लगा देती.’

‘इतने बड़े बच्चे थप्पड़ से कहां काबू होते हैं, दीदी…किशोरावस्था से गुजर रहे हैं बच्चे इस समय, थोड़ीबहुत समस्याएं तो होती ही हैं उन के साथ इस दौर में,’ मैं दीदी से बात करते हुए बीच का रास्ता अपनाती.

‘नहीं, जैसे हम तो इस दौर से कभी गुजरे ही नहीं थे,’ दीदी तुनक कर कहतीं. मैं कैसे कहती कि मैं ने तो मां के साथ झगड़ा नहीं भी किया होगा पर तुम तो हमेशा झगड़ती थीं.

दीदी के बेटे अक्षत ने इंजीनियरिंग के बाद एम.बी.ए. किया और प्रतिष्ठित कंपनी में उसे जौब मिल गई. दीदी बहुत खुश थीं. उन को देख कर हम सभी खुश थे. अक्षत को देख कर दिल खुश हो जाता. अक्षत खूबसूरत, स्मार्ट, आज्ञाकारी, नम्र स्वभाव का प्रतिष्ठित कंपनी में कार्यरत युवक था. उसे देख कर कोई भी रश्क कर सकता था. एक से एक लड़कियों के रिश्ते उस के लिए आते. दीदी खुद ही सब जगह बात करतीं.

दीदी से कई बार कहा भी मैं ने, ‘दीदी हर किसी पर अंधा भरोसा मत किया करो…जिस ने भी रिश्ता बताया, आप सोचती हो अक्षत पसंद कर ले…बस, हां बोल दे.’

‘तो और क्या देखना है, सबकुछ तो बायोडाटा में लिखा रहता है. शक्ल अक्षत देख ही लेता है, मैं अधिक प्रपंच में नहीं पड़ती.’

आखिर दीदी ने अक्षत का रिश्ता तय कर ही दिया. अक्षत के विवाह की तैयारियां होने लगीं. विवाह हुआ, सुंदर, सलोनी सी बहू घर आई तो सभी खुश थे कि आखिर दीदी ने अपने बच्चों की लाइफ सेटल कर ही दी.

मेरा राहुल, अक्षत से डेढ़ साल ही छोटा है. उस के नौकरी पर लगते ही मैं ने भी शादी के लिए उस के दिमाग के पेंच कसने शुरू कर दिए, ‘अभी कैसे शादी कर सकता हूं मम्मी…पैसे भी तो चाहिए, इतने कम में कैसे गुजारा होगा.’ उस का जवाब सुन कर  मैं हतप्रभ रह गई. आखिर प्रतिष्ठित कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत मेरे बेटे के पास गृहस्थी बसाने के लिए पैसे कब होंगे?

नौकरी पर लग जाने के बाद भी मेरे बेटे व मुझ में किसी न किसी बात पर ठन ही जाती. जब घर आता तब आने के कुछ दिन तक और जाने के कुछ दिन पहले तक हमारे बीच में कुछ ठीक रहता. बाकी दिन किसी न किसी कारण से हम मांबेटे के बीच अनबन चलती रहती. शादी के लिए हां बोलने में भी उस ने मुझे बहुत परेशान किया.

उस के पापा ने एक दिन उसे खूब जोर की डांट लगा दी, ‘राहुल, यदि तुम अभी शादी के लिए हां नहीं बोलोगे तो तुम्हारी शादी करने की हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं, तब तुम खुद ही कर लेना…बच्चों की शादी करना मातापिता की जिम्मेदारी है और हम तुम्हारी शादी कर के अपनी जिम्मेदारी से फारिग होना चाहते हैं.’

तब जा कर उस ने मौन स्वीकृति दी और रहस्योद्घाटन किया कि उसे एक लड़की पसंद है और वह उसी से शादी करेगा. उस के रहस्योद्घाटन से बचीखुची आशा भी टूट गई. ऐसे लगा जैसे बेटे ने हम से मांबाप होने का हक भी छीन लिया. मैं ने कुछ समय तक बेटे से बात भी नहीं की. किसी तरह मौन रह कर मैं अपने दुख पीती रही और खुद को आने वाली परिस्थितियों के लिए तैयार करती रही.

दीदी की बहू को देखती तो दिल में एक हूक सी उठती. काश, राहुल ने भी लड़की ढूंढ़ने का काम मुझ पर छोड़ा होता. छांट कर खानदानी बहू ढूंढ़ती. आखिर रिश्तेदारी भी कोई चीज होती है. संबंधी भी तो अच्छे होने चाहिए. मातापिता अच्छे होते हैं तभी तो लड़की में अच्छे संस्कार आते हैं.

लेकिन जब राहुल से कहा तो तुरंत  जवाब मिल गया, ‘ये पुराने जमाने की घिसीपिटी बातें मत करो मुझ से. जिस लड़की से हम थोड़ी देर के लिए मिलते हैं उस के बारे में हम क्या जानते हैं और जिस को मैं ने पसंद किया है उसे मैं पिछले 4 साल से जानता हूं. नियोनिका अच्छी लड़की है मां और वैसे भी, परिवार और बीवी में संतुलन रखने का काम तो लड़के का है, और वह मुझे अच्छी तरह से आता है.’

दिल किया कि कहूं, तू तो मां और अपने बीच ही संतुलन नहीं रख पाया, कितनी लड़ाई करता है. अब बीवी और परिवार के बीच तू क्या संतुलन रखेगा? फिर भी उस तुनकमिजाज लड़के से ऐसी गंभीर बात सुन कर कुछ अच्छा सा लगा.

उधर, बहू के आने के बाद दीदी व्यस्त हो गईं. उन के उत्साह की कोई सीमा नहीं थी. हम सभी खुश थे. जीजाजी के जाने के बाद उदासी व गम में डूबी दीदी को जिंदगी जीने का खूबसूरत बहाना मिल गया था. लेकिन कुछ समय बाद ही उन का उत्साह कुछ कम होने लगा. फोन पर भी उन की बातें गमगीन होने लगीं. उत्साह की जगह चुप्पी व उच्छ्वासों ने ले ली. मैं बहू के बारे में कोई बात करती तो अकसर टाल जातीं. जिस बेटे की तारीफ करते दीदी की जबान नहीं थकती थी, उस के बारे में बात करने पर दीदी अकसर टाल जातीं.

मुझे कारण समझ में नहीं आ रहा था. बेटा तो दीदी का हमेशा से ही आज्ञाकारी था. बहू भी ठीक ही लगती थी. मिलना ही कितना होता था उस से. फिर भी जितना देखा चुलबुली सी लगी थी. पता नहीं दीदी को क्या दुख खाए जा रहा है. जीजाजी के जाने का दुख तो खैर अपनी जगह पर है ही. पर 2 साल हो गए हैं उन को गए हुए. दीदी कभी इतनी गमगीन नहीं दिखीं.

इन से कहा तो बोले, ‘तुम दीदी को उन के हाल पर छोड़ दो, उन का अब एक परिवार है, तुम बेकार बात में अपनी टांग मत अड़ाओ. दीदी को हमेशा अपनी मर्जी की आदत रही है. अब बहू आ गई है, बेटेबहू की अपनी जिंदगी है, हो सकता है अब उन्हें अकेलापन महसूस हो रहा हो?’

हो सकता है यही कारण हो. मैं ने अपने मन को समझा लिया, हो सकता है बहू के आने से थोड़ाबहुत अनदेखा महसूस कर रही हों. मेरे बेटे ने तो लड़की पसंद कर ही ली थी, ना की गुंजाइश ही कहां थी. मैं भी अपना मन पक्का कर शादी की तैयारियों में जुट गई. शादी की तैयारी करतेकरते उदासी का स्थान आखिर उत्साह ने ले ही लिया, मैं भी भूल गई कि बेटा अपनी मर्जी से ब्याह कर रहा है.

शादी में दीदी भी परिवार सहित आईं. दीदी की बहू में अब नई बहू का सा छुईमुईपन नहीं था. आखिर वह भी अब 1 साल के बेटे की मां बन चुकी थी. अक्षत भी पहले की तरह मां की हां में हां मिलाते नहीं दिखा, बल्कि मां से बातबात पर टोकाटाकी करता व तिरस्कार करता सा दिखा. मुझे आश्चर्य व दुख हुआ, जब बेटा ही मां से इस भाषा में बात करता है, मां की कमियां गिनाता रहता है तो बहू से क्या उम्मीद कर सकते हैं.

मुझे अपनी भी चिंता हो आई. मेरा बेटा तो हमेशा लड़ाई में ही बात करता है. अब बहू के सामने भी ऐसे ही बोलेगा तो दूसरी जाति की वह अनजानी लड़की, जिस का मैं ने इस घर में आने का विरोध भी किया था, मेरी क्या इज्जत करेगी? सासससुर को क्या मानेगी?

खैर, विवाह संपन्न हुआ और मेरे बेटेबहू हनीमून पर चले गए. दीदी 1-2 दिन रुकना भी चाह रही थीं पर अक्षत बिलकुल नहीं माना, शायद उस को अपने 1 साल के बच्चे की देखभाल की चिंता थी. मैं ने भी बहुत कहा पर अक्षत का रवैया तो हमारे प्रति भी पराया सा हो गया था.

‘दीदी, राहुल और नियोनिका हनीमून से लौट आएं तब मैं आऊंगी इस बार आप के पास…’

‘अच्छा…’ दीदी खास उत्साहित नहीं दिखीं. मेरे कुछ दिन शादी के बाद के कार्य निबटाने में बीत गए. लगभग 10 दिन बाद राहुल और नियोनिका वापस आ गए. घर आ कर भी वे अत्यधिक व्यस्त थे. आएदिन कोई न कोई उन को डिनर और लंच पर बुला लेता. उस के बाद थोडे़ दिन के लिए नियोनिका मायके चली गई और राहुल को भी मैं ने ठेलठाल कर उस के साथ भेज दिया. यही सही समय था. मैं ने इन को मुश्किल से मनाया और 2-4 दिन के लिए दीदी के पास चली गई.

अक्षत और उस की पत्नी ने मुझे खास तवज्जो नहीं दी. लगता था जैसे पहले वाला अक्षत कहीं खो गया है. दीदी अलबत्ता खुश हो गईं. इस बार मैं ने दीदी को पकड़ ही लिया.

‘दीदी, मुझे सच बताओ…क्या गम खाए जा रहा है आप को, आधी भी नहीं रह गई हो. चेहरा तो देखो अपना,’ मैं बोली.

‘कुछ नहीं…’ दीदी की आंखें भर आईं.

‘कुछ तो है, दीदी, मुझे भी नहीं बताओगी तो किसे बताओगी?’ दीदी चुप आंसू पोंछती  रहीं. मैं उन का हाथ सहलाने लगी, ‘बोलो न, दीदी.’

‘पता नहीं सुजाता, अक्षत को क्या हो गया है. बातबात पर मुझे टोकता है, मुझ पर चिल्लाता है. यों तो बात ही नहीं करता और जब बात करता है तो कड़वा ही बोलता है. बहू तो तीखी है ही, पलट कर जवाब देना उस का स्वभाव ही है…पर अक्षत भी हमेशा उस का साथ देता है. उसे मुझ में कमियां दिखाई देती हैं. कैसे दिन बिताऊं इन दोनों के साथ? मेरे सामने जोर से भी न हंसने वाला मेरा बेटा, जिस ने कभी मुझ से अलग जाने की हिम्मत नहीं की थी, आज मुझ पर अपनी बीवी के सामने इतनी जोर से चिल्लाता है कि सहन नहीं होता,’ दीदी फफकफफक कर रोने लगीं.

‘पर ऐसा क्यों करता है अक्षत?’

‘पता नहीं, पुरानीपुरानी बातें याद करकर के मुझ पर दहाड़ता रहता है. पढ़ने वाले बच्चों पर तो बंधन सभी लगाते हैं सुजाता, मैं ने क्या गलत किया?’

अक्षत का आचरण समझ में नहीं आ रहा था. बहू आखिर कितनी भी खराब क्यों न हो, तब भी क्या अक्षत का उसे समझाना जरूरी नहीं. और कम से कम अगर उस की बीवी पर नहीं चलती तो वह अपना व्यवहार तो ठीक रख सकता है मां के साथ? दीदी जो कुछ बातें बता रही थीं, लग रहा था जैसे मेरा किशोरावस्था का राहुल मेरे सामने आ खड़ा है. तब दीदी कहती थीं, ‘मैं तेरी जगह होती तो थप्पड़ लगा देती.’ क्या अब अक्षत को थप्पड़ लगा सकती हैं दीदी? क्या बहू को चुप करवा सकती हैं?

दीदी की समस्या अपनों से थी जिस में मैं कुछ नहीं कर सकती थी. अक्षत मेरी सुनने वाला भी नहीं था. फिर भी मैं ने एक बार अक्षत से बात करने की सोची. मैं   2-4 दिन वहां रही. मेरे सामने सबकुछ ठीक ही रहा. लेकिन छोटीछोटी बातों में भी मैं ने बहुत कुछ महसूस कर लिया. कच्चे पड़ते रिश्तों के धागों की तिड़कन, रिश्तों में आता ठंडापन, बहुत कुछ.

एक दिन मैं ने अक्षत को मौका देख कर पास बुलाया, ‘कुछ कहना चाहती हूं अक्षत तुम से.’

‘कहिए, मौसी…’ अक्षत ने बिना किसी लागलपेट के नितांत लापरवाही से कहा.

‘कुछ निजी सवाल करूंगी…बुरा तो नहीं मानोगे?’ मैं अंदर से थोड़ा घबरा भी रही थी कि कहीं ऐसा न हो कि होम करते हाथ जल जाएं.

‘क्या…’ अक्षत की प्रश्न भरी नजरें मेरे चेहरे पर टिक गईं. मेरी समझ में नहीं आया, कहां से बात शुरू करूं, ‘क्या कुछ ठीक नहीं चल रहा है घर में?’ मेरे मुंह से फिसल गया.

‘क्या ठीक नहीं चल रहा है…’ अक्षत की त्यौरियां चढ़ गईं.

‘अपनी मां को नहीं जानते, अक्षत, दीदी अपने जीवन की कमियों के बारे में बात भी करती हैं कभी, वह तो हमेशा ही अपनेआप को संपूर्ण दिखाना चाहती हैं.’

‘हां, चाहे उस के लिए घर वालों को कितनी भी घुटन क्यों न हो?’

‘कैसी बात करते हो अक्षत…तुम अपनी मां के बारे में बात कर रहे हो…’

‘जानता हूं, मौसी…जीवन भर मां सब पर हुक्म चलाती रहीं…अब मां चाहती हैं कि बहूबेटे की गृहस्थी भी उन के अनुसार ही चले, बहू को भी वह वैसे ही अंकुश में रखें जैसे हम सब को रखती थीं…उन की किसी के साथ बन ही नहीं सकती,’ अक्षत गुस्से में बोला.

‘अक्षत, क्या मैं दीदी को नहीं जानती, कितना संघर्ष किया है उन्होेंने जीवन में, सभी नातेरिश्ते भी निभाए, तुम्हारे पापा को भी देखा, तुम्हें उन के संघर्ष  को समझना चाहिए. यह नहीं कि बीवी ने कुछ बोला और तुम ने आंख मूंद कर विश्वास कर लिया,’ मैं हिम्मत कर के कह गई.

‘मैं इस बारे में अधिक बहस नहीं करना चाहता, मौसी, और मैं आंख मूंद कर क्यों विश्वास करूंगा? क्या मैं मां का स्वभाव नहीं जानता…’ कह कर अक्षत उठ गया.

अक्षत चला गया लेकिन मेरे दिल में एक सूनापन छोड़ गया. अक्षत का व्यवहार देख कर मैं ने राहुल और नियोनिका की तरफ से अपना मन और भी मजबूत कर लिया. कैसा बदल जाता है बेटा शादी के बाद…और मेरा बेटा तो पहले से ही बदला बदलाया है. बस, अंतर इतना है कि दीदी के साथ जीजाजी का साथ नहीं है.

‘दीदी, कुछ दिन मेरे पास रहने आ जाओ…’ मैं ने आते समय दीदी को गले लगा कर सांत्वना दी. उन के घाव पर तो मरहम भी काम नहीं कर रहा था, क्योंकि घाव अपनों ने दिए थे. परायों का मरहम क्या काम करता.

घर पहुंची तो 2 दिन घर ठीकठाक करने में लग गए. अगले दिन राहुल व नियोनिका वापस लौट आए. मैं अनायास ही राहुल के व्यवहार में अक्षत को ढूंढ़ने लग गई, लेकिन अभी तो राहुल ही बदला हुआ नजर आ रहा था. पता नहीं कितने दिन का है यह बदलाव.

मुझ से हर बात पर लड़ने और विद्रोह करने वाला राहुल, बीवी के सामने अचानक इतना आज्ञाकारी कैसे हो गया. राहुल मुझ से और अपने पापा से प्यार और इज्जत से बात करता. नियोनिका नई लड़की थी, जैसा राहुल को देखती वैसा ही करती.

मैं शाम की चाय बना रही थी. राहुल और नियोनिका लान में बैठे थे. तब तक उस के पापा लान में चले गए. एक कुर्सी खाली पड़ी थी फिर भी राहुल ने उठ कर पापा की तरफ अपनी कुर्सी बढ़ा दी. मैं अंदर से देख रही थी. चाय की ट्रे ले कर मैं बाहर आ गई. राहुल की ही तरह नियोनिका ने भी उठ कर मेरी तरफ अपनी कुर्सी बढ़ा दी. राहुल ने उठ कर मेरे हाथ से चाय की ट्रे ले ली.

कहीं अंदर तक मन भीग गया. बात बड़ी छोटी सी थी पर अपने राहुल से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं की थी. नौकरी के बाद उस में थोड़ाबहुत बदलाव आया तो था लेकिन विवाह के बाद? दीदी कहती हैं, अक्षत अब वह अक्षत नहीं रहा और इधर राहुल भी वह राहुल नहीं रहा है. बदलाव तो दोनों में आया पर एकदूसरे के विपरीत, ऐसा क्यों? तभी राहुल मुझे कंधों से पकड़ कर बिठाता हुआ बोला.

‘बहुत कर लिया मम्मी, आप ने काम…अब अपनी जिम्मेदारी नियोनिका को दो और आप तो बस, इस की मदद करो. और बैठ कर राज करो. पापा के साथ ज्यादा वक्त बिताओ, घूमने जाओ. एक समय होता है जब मातापिता बच्चों के लिए करते हैं…फिर एक समय आता है जब बच्चे मातापिता के लिए करते हैं. आप दोनों ने बहुत किया, अब हमारा समय है,’ मैं अपलक राहुल का चेहरा देखती रह गई.

राहुल ने मुझे कुर्सी पर बिठा दिया. नियोनिका ने अपने पापा और मुझे चाय का कप पकड़ा दिया. सभी बातें करते हुए चाय पी रहे थे और मैं अपनेआप में गुम सोच रही थी कि किशोरावस्था में आवश्यकता से अधिक नियंत्रण ने शायद अक्षत की आक्रामकता को, गुस्से को, मातापिता के अनुशासन के प्रति उस उम्र के स्वाभाविक विद्रोह को बाहर नहीं निकलने दिया, यहां तक कि जीजाजी भी दीदी से दबते रहे. अक्षत को दीदी से शिकायत भी हुई तो उस ने अपने अंदर दबा ली. चिंगारी अंदर दबी रही और बहू की शिकायतों ने उसे शोलों में बदल दिया और किशोरावस्था की उन मासूम सी शिकायतों को इतना कठोर रूप दे दिया.

कितना कहती थी मैं दीदी से तब कि बच्चों पर आवश्यकता से अधिक नियंत्रण ठीक नहीं है. बंधन और अनुशासन में फर्क होता है पर दीदी किसी की कहां सुनती थीं. बचपन बुनियाद है और किशोरावस्था दीवारें, जिस पर युवावस्था की छत पड़ती है और शेष जीवन जिस में इनसान हंसता या रोता है. यही कारण था शायद अक्षत के आज के इस व्यवहार का, जबकि राहुल ने उस उम्र की सारी भड़ास उसी उम्र में निकाल दी, जिस से उस के दिलोदिमाग में मातापिता के लिए कोई ग्रंथि नहीं पनपने पाई बल्कि उस ने मातापिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझा और शायद कहीं पर अपनी गलतियों को भी.

‘‘मम्मी, क्या सोच रही हैं…’’ राहुल ने मुझे हिलाया तो मेरी तंद्रा टूटी. मैं अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गई, ‘‘चलिए, हम सब रात का शो देखते हैं… और बाहर ही डिनर करेंगे,’’ नियोनिका को सब का एकसाथ जाना पसंद हो न हो पर राहुल ने यह बात पूरे आत्मविश्वास से कही. मैं ने खुशी से उस का गाल थपथपा दिया.

‘‘अरे, हम तो अपने जमाने में खूब गए पिक्चर देखने…अब तुम्हारा समय है…जाओ…मैं भी तो देखूं, कितने प्यारे लगते हैं मेरे बच्चे साथसाथ चलते हुए,’’ कह कर मैं ने उन दोनों को जबरन उठा दिया. हमारे बच्चे कार में बैठ रहे थे और हम दोनों उन को ममता भरी निगाहों से निहार रहे थे.

‘‘अपना राहुल कितना बदल गया है, है न?’’ मैं इन के पास खिंच आई.

‘‘हां…’’ यह मेरा गाल थपक कर बोले, ‘‘मैं तो तुम से पहले ही कहता था कि तुम किशोरावस्था में उस का व्यवहार देख कर भविष्य की बात मत सोचो. हमारा पालनपोषण का तरीका, हमारे दिए संस्कार उस के भविष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करेंगे. अब देखो, राहुल का अपना आत्मविश्वास ही है जिस से वह अपने तरीके से व्यवहार करता है. वह किसी दबाव में न आ कर स्वाभाविक तरीके से रहता है.

मातापिता की इज्जत करता है, इसीलिए नियोनिका को कुछ समझाना नहीं पड़ता. राहुल उस से कोई जबरदस्ती नहीं करता, लेकिन जैसा वह करता है वैसा ही नियोनिका भी करने की कोशिश करती है, वरना जब तुम्हारा बेटा ही तुम्हें आदर नहीं देगा, तुम्हारे वजूद को महत्त्व नहीं देगा तो बहू से कैसे उम्मीद कर सकते हैं. और इस की बुनियाद बहुत पहले किशोरावस्था में ही पड़ चुकी होती है. यदि उस उम्र में मातापिता की बच्चों के साथ संवाद- हीनता की स्थिति रहती है तो वही स्थिति बाद में विकट हो जाती है.’’ यह बोले तो इन की बात का विश्वास मुझे अंदर ही अंदर हो रहा था.

समस्या का अंत

अंबर प्रमोशन ले कर इंदौर चला गया. लेकिन वहां पहुंच कर उस की परेशानियां बढ़ती ही चली गईं. एक ओर बिन्नी दीदी के ससुराल से उस की बदसूरत ननद लाली से शादी का बढ़ता दबाव तो दूसरी ओर प्रेमिका रूपाली से मिलती शादी की चेतावनियां. बेचारा अंबर, करे तो क्या  करे?

तबादला हो कर इंदौर आने के बाद अंबर ने कई बार हफ्ते भर की छुट्टी लेने का प्रयास किया पर छुट्टी नहीं मिली. इस बार उस के बौस ने छुट्टी मांगते ही दे दी तो अंबर जैसे हवा में उड़ता हुआ इंदौर से ग्वालियर पहुंचा था. सुबह नाश्ता कर अंबर अपने स्कूटर पर मित्रों से भेंट करने निकल पड़ा तो पीछे से मां चिल्ला कर बोली थीं, ‘‘अरे, जल्दी लौटना. तेरी पसंद का खाना बनाऊंगी.’’

अंबर की मित्रमंडली बहुत बड़ी है और उस के सभी दोस्त उसे बहुत पसंद करते हैं. उसे देखते ही सब उछल पडे़. मित्रों ने ऐसा घेरा कि उसे रूपाली को फोन करने का भी मौका नहीं मिला. बड़ी मुश्किल से समय निकाल पाया और फिर एकांत में जा कर रूपाली को फोन किया. उस का फोन पाते ही वह भी उछल पड़ी.

‘‘अरे, अंबर तुम? इंदौर से कब आए?’’

‘‘आज सुबह ही. सुनो, तुम बैंक से छुट्टी ले लो और अपनी पुरानी जगह पर आ जाओ, वहीं बैठते हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम पहुंचो, मैं आती हूं.’’

अंबर रेस्तरां की पार्किंग में अपना स्कूटर लौक क र जैसे ही गेट पर पहुंचा उस ने देखा रूपाली आटो से उतर रही है. दूर से ही हाथ हिलाती रूपाली पास आई तो दोनों रेस्तरां के एक केबिन में जा बैठे. बैठते ही रूपाली ने प्रश्न किया, ‘‘और सुनाओ, कितनी गर्लफ्रेंड बनीं?’’

‘‘मान गए तुम को…जवाब नहीं तुम्हारा. इतने दिन कैसे रहा, तबीयत कैसी थी, मन लगा कि नहीं? यह सबकुछ पूछने के बजाय मुंह खुला भी तो गर्लफ्रेंड की खोजखबर करने के लिए. निहाल हो गया मैं तो…’’

रूपाली भी गुस्से में थी.

‘‘मैं ही कौन अच्छी थी यहां,’’ गुस्से में तमक कर रूपाली बोली, ‘‘तुम ने कितनी बार पूछा?’’

‘‘अब तुम्हें कैसे समझाऊं कि इंदौर में जिम्मेदारियों के साथसाथ काम भी बहुत है.’’

‘‘प्रमोशन पर गए हो तो दायित्व ज्यादा होगा ही. वैसे अंबर, तुम्हारे जाने के बाद अब मुझे उस शहर में सबकुछ सूनासूना लगता है.’’

‘‘मुझे भी वहां बहुत अकेलापन महसूस होता है. क्या तुम्हारा ट्रांसफर वहां नहीं हो सकता?’’

‘‘मैं कोशिश कर रही हूं. फिर भी काम बनतेबनते 3-4 महीने तो लग ही जाएंगे,’’ अचानक गंभीर हो कर रूपाली बोली.

‘‘अंबर, हंसबोल कर बहुत समय गुजार लिया. अब कहो, तुम अपनी मां से हमारी शादी के बारे में खुल कर बात करोगे या नहीं?’’

‘‘घुमाफिरा कर मैं कई बार मां से कह चुका हूं पर तुम तो जानती हो कि वह कितनी रूढि़वादी हैं. जातिपांति की बेडि़यां तोड़ने को वह कतई तैयार नहीं हैं.’’

‘‘देखो, अगर तुम अम्मां की आज्ञा न ले पाए तो मेरे लिए बस, 2 ही रास्ते हैं कि या तो सब को ठेंगा दिखा कर मैं तुम को घसीट कर अदालत ले जाऊं और वहीं शादी कर लूं, नहीं तो मेरे घर वाले जिस को भी चुनें उस के साथ फेरे ले लूं.’’

‘‘पर डार्लिंग, संतोष का फल मीठा होता है. अभी ऐसा कुछ मत करो, मैं देखता हूं. मुझे कुछ दिनों की मोहलत और दे दो.’’

‘‘तुम को तो 2 वर्ष हो गए पर आज तक देख ही नहीं पाए कुछ.’’

घूमतेफिरते 7 दिन बीत गए पर चाहते हुए भी अंबर मां से अपनी शादी की बात नहीं कर पाया. उस ने भाभी से बात भी की तो भाभी ने यह कह कर रोक दिया कि तुम्हारे  तबादले से अम्मां का मिजाज बिगड़ा बैठा है. वह फौरन समझेंगी कि ठाकुर की बेटी ने योजना बना कर तुम्हें यहां से हटाया है. इस से रहीसही उम्मीद भी हाथ से जाती रहेगी. 3-4 महीने और गुजरने दो, तब बात करेंगे. वैसे भी देवरजी, प्रेम के मजबूत बंधन इतनी जल्दी नहीं टूटते.

अंबर इंदौर लौट आया. यहां वह अपनी दीदी के घर रहता है पर दीदी की दशा देख कर उसे बड़ी दया आती है. असल में बिन्नी दीदी से उस का लगाव बचपन से है. वह अम्मां की चहेती भतीजी महीनों अपनी बूआ के पास आ कर रहती थी. बड़ा हो कर अंबर जब भी अपने मामा के घर जाता, बिन्नी दीदी उस का खूब ध्यान रखती थीं.

जीजाजी तो बहुत ही अच्छे हैं. दीदी का खयाल भी खूब रखते हैं पर उन की बस, यही कमजोरी है कि अपनी मां व बहन के सामने कुछ बोल नहीं पाते, चाहे वे उन की पत्नी पर कितना भी अत्याचार क्यों न करें.

जीजाजी के 2 भाई और भी हैं. दोनों संपन्न हैं. बडे़बड़े घर हैं दोनों के पास पर उन की पत्नियां बिन्नी दीदी की तरह मुंह बंद कर के सारे अत्याचार नहीं सहतीं. मांबेटी के मुंह खोलते ही उन को उन के स्थान पर खड़ा कर देती हैं. चूंकि बिन्नी दीदी सीधी हैं, रोतीबिलखती हैं, सब सह लेती हैं और जीजाजी भी कुछ नहीं कहते, सो दोनों मांबेटी यहीं डेरा डाले रहती हैं.

मामा ने खाली हाथ बिन्नी का ब्याह नहीं किया था. मोटा दहेज दिया था फिर भी उठतेबैठते उसे ताने और गालियां ही मिलती हैं. दोनों मांबेटी दिन भर बैठी, लेटी टीवी देखती हैं, एक गिलास पानी भी खुद ले कर नहीं पीतीं. बेचारी बिन्नी दीदी काम करतेकरते बेहाल हो जाती हैं. उस पर भी दोनों के हुक्म चलते ही रहते हैं.

बिन्नी दीदी पर अंबर जान छिड़कता है. उन की यह दशा देख वह बौखला उठता है. तब दीदी ही झगड़े के भय से उसे शांत करती हैं. दीदी पर भी उसे गुस्सा आता है कि वह बिना विरोध के सारे अत्याचार क्यों सहन करती हैं. एक दिन सिर उठा दें तो मांबेटी को अपनी जगह का पता चल जाएगा पर दीदी घर में क्लेश के भय से चुप ही रहती हैं.

दीदी की ननद अभी तक कुंआरी बैठी है. एक तो कुरूप उस पर से बनावशृंगार  में सलीके का अभाव, चटकीले कपडे़ और चेहरे की रंगाईपुताई कर के तो वह एकदम चुडै़ल ही लगती है. मोटी, नाटी, स्याह काला रंग. अंबर तो देखते ही जलभुन जाता है.

अचानक अंबर ने महसूस किया कि चुडै़ल अब कुछ ज्यादा ही उस का खयाल रखने लगी है. शाम को काम से लौटते ही चायनाश्ते के साथ खुद भी सजधज कर तैयार मिलती है. अंबर आतंकित हो उठा है क्योंकि इन सब बातों का साफ मतलब है कि वह चुडै़ल अंबर को फंसाना चाहती है.

दीदी की सास भी अपनी कर्कश आवाज को नरम कर के  ‘बेटा, बेटा’ करने लगी हैं. अंबर को खतरे की घंटी सुनाई दी. उस रात सब खाने बैठे. पनीर कोफ्ता मुंह में रखते ही जीजाजी चौंके.

‘‘वाह, यह तो तुम्हारे हाथ के कोफ्ते हैं. मां तुम रसोई में कैसे पहुंच गईं?’’

दीदी की सास ने मुंह बनाया और बोलीं, ‘‘चल हट, मैं तो कमर दर्द में पड़ी हूं. लाली ने बनाए हैं कोफ्ते.’’

‘‘अच्छा, लाली को पता है कि रसोई का दरवाजा किधर खुलता है.’’

लाली ने अदा के साथ कंधे झटके और बोली, ‘‘ओह, भइया…’’

‘‘तू क्या जानता है,’’ दीदी की सास बोलीं, ‘‘मुझ से अच्छा खाना मेरी बेटी बनाती है. इस ने तो मन लगा कर पकवान, मिठाई बनाना भी मुझ से सीखा है,’’ फिर अंबर की तरफ मुड़ कर बोलीं, ‘‘अंबर बेटा, मैं इतना काम करती थी कि सब देख कर हैरान होते थे. मेरी सास कहती थीं कि अरी, थोड़ा आराम कर ले, मरेगी क्या काम करतेकरते. अब तो कमर दर्द ने अपाहिज बना दिया है. और अपनी दीदी को देखो, इतनी सुस्त कि 10 मिनट के काम में 2 घंटे लगा देगी.’’

यह सुन कर अंबर की आत्मा जल उठी, स्वादिष्ठ कोफ्ता कड़वा हो गया.

2 दिन के लिए अंबर फिर घर गया, तो रूपाली का गुस्सा और भी बढ़ा हुआ पाया. भाभी से रूठते हुए बोला,  ‘‘भाभी, तुम कुछ नहीं कर रही हो. मां को समझाओ.’’

‘‘मांजी टेढ़ी खीर हैं भैया, फिरभी देखती हूं, बर्फ को थोड़ाथोड़ा कर के ही पिघलाना होगा. देखती हूं कब तक सफलता मिलती है.’’

अंबर खाली हाथ लौट आया था. इधर घर में दीदी की सासननदों की खातिरदारी का आतंक. वह आराम से अपने गेस्ट हाउस में रह सकता है पर मां की डांट, दीदी के आंसू, जीजाजी का आग्रह, जाए तो कैसे?

कभीकभी अंबर को लगता है कि वह यहां से भाग जाए. उस दिन ऐसे ही भारी मन से आफिस में बैठा काम कर रहा था कि मोबाइल बज उठा :

‘‘क्या कर रहे हो?’’

‘‘इस समय और क्या करूंगा, काम कर रहा हूं.’’

‘‘लंच में निकल पाओगे?’’

‘‘निकल लूंगा पर जाऊंगा कहां?’’

‘‘तुम्हारे दफ्तर के सामने, रेस्तरां है, उस में आ जाओे. मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’

‘‘रूपाली, तुम यहां… इंदौर में… कैसे?’’

‘‘मैं ने भी अपना ट्रांसफर करवा लिया है जनाब, और पिछले 1 सप्ताह से मैं यहीं हूं.’’

‘‘और मुझे नहीं बताया.’’

‘‘बता तो दिया, बाकी बातें मिलने के बाद,’’ इतना कह कर रूपाली ने फोन रख दिया.

अंबर का समय मानो काटे नहीं कट रहा था. लंच के समय उस ने आधे दिन की छुट्टी ले ली और महक रेस्तरां पहुंच गया. रूपाली दरवाजे पर खड़ी थी. दोनों कोने की एक सीट पर जा बैठे. बैरा पानी रख गया तो रूपाली ने गिलास उठाया. पानी का घूंट गले के नीचे उतार कर बोली, ‘‘और सुनाओ, क्या हाल है जनाब का.’’

‘‘अभी तक तो बेहाल था पर अब तुम्हारे आने से हाल सुधर जाएगा.’’

‘‘अंबर, तुम ने मुझे क्या समझ रखा है? मैं तमाम उम्र कुंआरी रह कर तुम को इसी तरह रिझाती रहूंगी. अब मैं अपने घर वालों को ज्यादा दिन रोक नहीं पाऊंगी. तुम हमारी शादी को गंभीरता से लो और कुछ करो.’’

‘‘रूपाली, विश्वास करो मेरा, मैं जल्दी ही कुछ करूंगा.’’

‘‘मैं तुम पर पूरा विश्वास करती हूं लेकिन मुझे लगता है तुम पर विश्वास रख कर मुझे कुंआरी ही बूढ़ी होना पड़ेगा.’’

यह सुन कर अंबर का मुंह उतर गया.

‘‘छोड़ो इन बातों को, यह बताओ, बिन्नी दीदी, बच्चे व जीजाजी कैसे हैं?’’

‘‘दीदी पर तरस आता है. सासननद ने मिल कर उन के जीवन को नरक बना दिया है. जीजाजी दुखी तो होते हैं पर बोल कुछ नहीं पाते.’’

इतने में बैरा आया और चाय के साथ पकौड़ों का आर्डर ले गया.

‘‘कुछ दिनों से घर में बड़ी अजीब सी बात हो रही है. मैं परेशान हूं.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘रूपाली, जब मैं यहां आया था तो दीदी के साथसाथ मुझे भी उस की सास के ताने मिलते थे पर अब, अचानक ही दीदी की सास मुझ पर जान छिड़कने लगी हैं.’’

‘‘समझ गई,’’ रूपाली बोली, ‘‘अरे, वह बुढि़या तुम को अपना दामाद बनाना चाहती है.’’

‘‘क्या वो भैंस…असंभव. रूपाली, मुझे तो लगता है कि मुसीबत के साथ मेरा गठबंधन हो गया है.’’

‘‘इतने परेशान क्यों हो रहे हो?’’

‘‘और क्या करूं. कितनी बार तुम को समझाया कि चलो, कोर्ट मैरिज कर लें पर तुम भी सब की आज्ञा, आशीर्वाद ले पारंपरिक विवाह कीजिद पर अड़ी हो. अभी भी मान जाओ तो मैं कल ही अर्जी लगा दूं.’’

‘‘नहीं, कागज की पत्नी बनना मुझे पसंद नहीं. पारंपरिक ढंग से विवाह, हंसीठिठोली, आशीर्वाद, इन सब का मेरे लिए बहुत मूल्य है. भले ही ऊपर से बहुत आधुनिक दिखती हूं.’’

‘‘तब मुझ से अब एक शब्द भी मत कहना. बैठी रहो मेरे इंतजार में या अपने घर वालों की पसंद से कहीं और शादी कर लो.’’

‘‘शांति…शांति…मैं ने तुम को इतना समय दिया, अब तुम भी मुझे थोड़ा समय दो.’’

अंबर घर लौटा तो उसे लगा कहीं कुछ गड़बड़ है. आज जीजाजी की तबीयत ठीक नहीं थी इसलिए वह घर में ही थे. दीदी की सास का कमरा भी उसे बंद दिखा. आज दीदी ही चायनाश्ता लाई थीं. आंखें सूजी देख कर अंबर को लगा कि वह खूब रोई हैं.

‘‘मुन्ना, चाय ले.’’

‘‘दीदी, कुछ हुआ है क्या?’’

दीदी के मुंह खोलने से पहले ही उन की सास आ गईं.

‘‘बहू, अपने भाई से बात की…’’

आज पहली बार देखा कि मां की बात को बीच में काटते हुए जीजाजी ने पत्नी की तरफ मुंह खोला था, ‘‘काम से थक कर लौटा है. दम तो लेने दो.’’

‘‘इसे कौन से पहाड़ ढोने पड़ते हैं. चाय पीतेपीते बात कर लो.’’

‘‘देखो मां, मैं पहले भी कह चुका हूं, फिर कह रहा हूं कि जिस घर से बेटी लाए हैं वहां अपनी बेटी नहीं देंगे.’’

‘‘वह सब परंपरा अब नहीं मानी जाती. फिर कौन सा यह सगा भाई है.’’

‘‘इस के घर में कोई तैयार न हुआ तो?’’

‘‘तेरी सास इस की सगी बूआ है, रिश्ते के लिए उन से दबाव डलवा.’’

जीजाजी भड़के, ‘‘बेटी के लिए मतलब? ब्याह नहीं हुआ तो क्या बिन्नी को मार डालोगी?’’

बिन्नी ने डरतेडरते कहा, ‘‘बूआ को ढेर सारा दहेज चाहिए.’’

‘‘हम से दहेज मांगा तो भतीजी मरी.’’

‘‘होश में तो हो? बिन्नी को कुछ भी हुआ तो मैं ही सब से पहले पुलिस बुलाऊंगा, उस का भाई भी यहां है.’’

मां पैर पटकती, धमकी देती अपने कमरे में चली गईं तो जीजाजी चिंतित से बोले, ‘‘अंबर, मान ही जाओ…दोनों मिल कर बिन्नी का जीवन नरक बना देंगी.’’

बिन्नी दीदी झल्ला कर बोलीं, ‘‘हरगिज नहीं, अगर लाली के साथ मेरे भाई का ब्याह हुआ तो उस का जीवन नरक बन जाएगा. मैं अपने भाई के जीवन को ऐसे बरबाद नहीं होने दूंगी. चाहे मैं मर ही क्यों न जाऊं. आप अपनी बहन को नहीं जानते हैं क्या?’’

दूसरे दिन छुट्टी के बाद अंबर फिर रूपाली से मिला और उसे पूरी बात बताई. थोड़ी देर बाद रूपाली बोली, ‘‘यार, तुम्हारी समस्या वास्तव में गंभीर हो गई है. अच्छा, तुम्हारे जीजाजी काम क्या करते हैं?’’

‘‘स्टार इंडिया में यूनिट इंचार्ज हैं.’’

‘‘वहां के जनरल मैनेजर तो मेरे जीजाजी के दोस्त हैं.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘हुआ कुछ नहीं, पर अब होगा. रोज का उन के घर आनाजाना  है. रास्ता मिल गया, अब तुम देखते जाओ.’’

अंबर, रूपाली से मिल कर घर पहुंचा तो पूरे मेकअप के साथ इठलाती, बलखाती लाली चाय, नमकीन सजा कर ले आई.

‘‘चाय लीजिए, साहब.’’

‘‘नहीं चाहिए, अभी बाहर से पी कर आ रहा हूं.’’

‘‘तो क्या हुआ? अब यहां एक प्याली मेरे हाथ की भी पी लीजिए.’’

‘‘नहीं, और नहीं चलेगी,’’ इतना कह कर वह अपने कमरे में जा कर आगे के बारे में योजना बनाने लगा.

2-3 दिन और बीत गए. इधर घर में वही तनाव, उधर रूपाली का मुंह बंद. अंबर को लगा वह पागल हो जाएगा. चौथे दिन जब घर लौटा तो फिर सन्नाटा ही मिला. दीदी का बुरा हाल था. बिस्तर में पड़ी रो रही थीं. जीजाजी सिर थामे बैठे थे, मांबेटी की कोई आवाज नहीं आ रही थी. कमरे का परदा पड़ा था. उसे देख दीदी आंसू पोंछ उठ बैठीं.

‘‘मुन्ना, फ्रेश हो ले. मैं चाय लाती हूं.’’

‘‘नहीं, दीदी, पहले बताओ क्या हुआ, जो घर में सन्नाटा पसरा है?’’

‘‘साले बाबू, भारी परेशानी आ पड़ी है. तुम तो जानते ही हो कि हमारी बिल्ंिडग निर्माण की कंपनी है. बिलासपुर के बहुत अंदर जंगली इलाके में एक नई यूनिट कंपनी ने खोली है, वहां मुझे प्रमोशन पर भेजा जा रहा है.’’

‘‘जीजाजी, प्रमोशन के साथ… यह तो खुशी की बात है. तो दीदी रो क्यों रही हैं. आप का भी चेहरा उतरा हुआ है.’’

‘‘तुम समझ नहीं रहे हो साले बाबू, वह घनघोर जंगल है. वहां शायद टेंट में रहना पडे़गा…बच्चों का स्कूल छुड़ाना पड़ेगा, नहीं तो उन को होस्टल में छोड़ना पडे़गा. तुम्हारी बिन्नी दीदी ने जिद पकड़ ली है कि मेरे पीछे वह मां व लाली के साथ अकेली नहीं रहेंगी, अब मैं क्या करूं, बताओ?’’

‘‘इतनी परेशानी है तो आप जाने से ही मना कर दें.’’

‘‘तुम उस श्रीवास्तव के बच्चे को नहीं जानते. प्रमोशन तो रोकेगा ही, हो सकता है कि डिमोशन भी कर दे, मेरा जूनियर तो जाने के लिए बिस्तर बांधे तैयार बैठा है. और ऐसा हुआ तो वह आफिसर की नजरों में आ जाएगा.’’

‘‘तो फिर आप क्या चाहते हैं?’’

‘‘मैं बिन्नी से कह रहा था कि यहां जैसा है वैसा चलता रहे और मैं अकेला ही चला जाऊं.’’

‘‘जीजाजी, आप के और भी तो 2 भाई हैं, उन के पास भी ये दोनों रह सकती हैं.’’

‘‘कौन रखेगा इन को? यह तो मैं ही हूं जो इन के अत्याचार को सहन करती हूं,’’ बिन्नी का स्वर उभरा.

‘‘न, अब मैं ने भी फैसला ले लिया है कि इन को 4-4 महीने के हिसाब से तीनों के पास रहना होगा.’’

‘‘ठीक है, पर अब क्या होगा?’’

‘‘मैं साथ चलूंगी,’’ बिन्नी दीदी बोलीं, ‘‘तंबू क्या, मैं तो इन के साथ जंगल में भी रह लूंगी.’’

रात को खाने की मेज पर दीदी की सास बड़बड़ाईं, ‘‘यह सब इस करमजली की वजह से हो रहा है. जब से इस घर में आई है नुकसान और क्लेश…चैन तो कभी मिला ही नहीं.’’

लेकिन जीजाजी ने दीदी का समर्थन किया, ‘‘मां, अब तुम बारीबारी से अपने तीनों बेटों के पास रहोगी. मेरे पास 12 महीने नहीं. बिन्नी को भी थोड़ा आराम चाहिए.’’

‘‘ठीक है, मथुरा, हरिद्वार कहीं भी जा कर रह लूंगी पर लाली का ब्याह पहले अंबर से करा दे.’’

‘‘अंबर को लाली पसंद नहीं तो कैसे करा दूं.’’

इतना सुनते ही सास ने जो तांडव करना शुरू किया तो वह आधी रात तक चलता रहा था.

दूसरे दिन मिलते ही रूपाली हंसी.

‘‘हाल कैसा है जनाब का?’’

‘‘अरे, यह क्या कर डाला तुम ने?’’

‘‘जो करना चाहिए, घर बसाना है मुझे अपना.’’

‘‘दीदी का घर उजाड़ कर?’’

‘‘उस बेचारी का घर बसा ही कब था पर अब बस जाएगा…आइसक्रीम मंगाओ.’’

‘‘जीजाजी को जाना ही पडे़गा, ऐसे में दीदी का क्या हाल करेंगी ये लोग, समझ रही हो.’’

‘‘आराम से आइसक्रीम खाओ. आज जब घर जाओगे तब सारा क्लेश ही कट चुका होगा.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘यह तो मैं नहीं जानती कि वह कैसे क्या करेंगे, पर इतना जानती हूं कि ऐसा कुछ करेंगे कि उस से हम सब का भला होगा.’’

अंबर चिढ़ कर बोला, ‘‘मुझे तो समझना पडे़गा ही क्योंकि समस्या मेरी है.’’

‘‘थोड़ा धैर्य तो रखो. मैदान में उतरते ही क्या जीत हाथ में आ जाएगी,’’ रूपाली अंबर को शांत करते हुए बोली.

घर पहुंच कर अंबर थोड़ा हैरान हुआ. वातावरण बदलाबदला सा लगा. दीदी खुश नजर आ रही थीं, तो जीजाजी बच्चों के साथ बच्चा बने ऊधम मचा रहे थे. मुंहहाथ धो कर वह निकला भी नहीं कि गरम समोसों के साथ दीदी चाय ले कर आईं.

‘‘मुन्ना, चाय ले. तेरी पसंद के काजू वाले समोसे.’’

‘‘अरे, दीदी, यह तो चौक वाली दुकान के हैं.’’

‘‘तेरे जीजाजी ले कर आए हैं तेरे लिए.’’

अंबर बात समझ नहीं पा रहा था. जीजाजी भी आ कर बैठे, उधर दीदी की सास कमरे में बड़बड़ा रही थीं.

‘‘जीजाजी, आप की ट्रांसफर वाली समस्या हल हो गई क्या?’’

‘‘समस्या तो अभी बनी हुई है पर उस का समाधान तुम्हारे हाथ में है.’’

‘‘मेरे हाथ में, वह कैसे?’’

‘‘तुम सहायता करो तो यह संकट टले.’’

‘‘ऐसी बात है तो मैं वचन देता हूं, मुझ से जो होगा मैं करूंगा.’’

‘‘पहले सुन तो लो, पहले ही वचन मत दो.’’

‘‘कहिए, मुझे क्या करना होगा?’’

‘‘ज्यादा कुछ नहीं…ब्याह करना होगा.’’

‘‘ब्याह…किस से?’’

‘‘हमारे बौस की एक मुंहबोली बहन है, वह चाहते हैं कि तुम्हारा रिश्ता उस के साथ हो जाए.’’

‘‘मैं…मेरे साथ…पर…न देखी…न भाली.’’

‘‘लड़की देखने में सुंदर है. बैंक में अच्छे पद पर है, यहां अपने जीजा के साथ रहती है. ग्वालियर से ही ट्रांसफर हो कर आई है.’’

अंबर ने चैन की सांस ली पर ऊपर से तनाव बनाए रखा.

‘‘आप के भले के लिए मैं जान भी दे सकता हूं पर जातपांत सब ठीक है न? मतलब आप अम्मां को तो जानते ही हैं न. पंडित की बेटी ही चाहिए उन को.’’

‘‘ठाकुर है.’’

‘‘तब तो…’’

‘‘तू उस की चिंता मत कर मुन्ना. तू बस, अपनी बात कह. बूआ को मैं मना लूंगी.’’

‘‘तुम्हारा भला हो तो मैं कुछ भी करने को तैयार हूं.’’

‘‘तब तो समस्या का समाधान हो ही गया.’’

‘‘पर, आप की मां तो…’’

‘‘मेरा ट्रांसफर रुका, यही बड़ी बात है. अब परसों ही भाई के घर पहुंचा रहा हूं दोनों को. 4-4 महीने तीनों के पास रहना पड़ेगा…बिन्नी ने बहुत सह लिया.’’

दूसरे दिन रूपाली से मिलते ही अंबर ने कहा, ‘‘मान गए तुम को गुरु. आज जो चाहे आर्डर दो.’’

‘‘चलो, माने तो. अपना कल्याण तो हो गया.’’

‘‘साथ ही साथ दीदी का भी भला हो गया. नरक से मुक्ति मिली, बेचारी को. 4-4 महीने के हिसाब से तीनों के पास रहेंगी उस की सासननद.’’

बालों के साथ-साथ स्किन के लिए भी फायदेमंद है आंवला

आपने सुना होगा कि आंवला हमारी हेल्थ के लिए फायदेमंद होता है. जैसे कैंसर, अल्सर और सबसे बड़ा काम वजन को कम करने में सबसे फायदेमंद होता है, लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि आंवला हमारी स्किन के लिए कैसे फायदेमंद है. जिस तरह आंवले को बालों में लगाने से बाल, काले और शाइनी हो जाते हैं, उसी तरह इसका पैक बनाकर लगाने चेहरे में निखार आ जाता है. आज हम आपको आंवले को फेस मास्क के रूप में इस्तेमाल करके आप कैसे ग्लोइंग स्किन पा सकते हैं…

1. आंवला और एवोकैडो कौम्बिनेशन करें इस्तेमाल

avocado

आंवला पाउडर को गर्म पानी में हल्‍का गाढ़ा सा घोल लें. ज्‍यादा गर्म पानी का इस्‍तेमाल न करें. इसके बाद इसमें एक एवोकैडो को मसलकर डाल दें. बाद में अच्‍छी तरह फेंट लें. इस पेस्‍ट को चेहरे पर लगाएं और 30 मिनट के बाद धो लें.

2. आंवला और पार्सेले-शहद मास्‍क करें इस्तेमाल

parsley

पार्सेले को बारीक काट लें और इसे पीसकर इसका जूस निकाल लें. इस जूस को आंवला पाउडर में मिलाकर पेस्‍ट बना लें. इस पेस्‍ट को चेहरे पर लगाएं और बाद में गुनगुने पानी से धो लें.

3. आंवला और दही का मास्‍क करें इस्तेमाल

amla and curd

आंवला का पाउडर लें और उसमें दही को मिलाकर अच्‍छे से फेंट लें. यह पेस्‍ट आपके चेहरे पर जादुई तरीके से काम करेगा. अगर आप इसमें गुलाबजल मिला देंगी तो यह टोनर की तरह काम करेगा.

4. आंवला और पपीता मास्‍क करें इस्तेमाल

papaya

पपीता, त्‍वचा को साफ रखता है, अगर आप इसे आंवला के पाउडर में मिलाकर एक पेस्‍ट तैयार कर लें और चेहरे पर 15 मिनट के लिए सप्‍ताह में दो बार लगाएं, तो चेहरे में चमक आ जाएगी.

5. आंवला और टीपैक का करें इस्तेमाल

tea pack

आंवला पाउडर को चाय की पत्‍ती के उबले पानी में घोलें और इस पेस्‍ट को अपने चेहरे पर लगाएं. इसे 15 से 20 तक लगाएं, बाद में हल्‍के गुनगुने पानी से चेहरा धो लें.

छोटा भीम कुंगफू धमाकाः हौलीवुड स्तर का एनीमेशन

रेटिंग: साढ़े तीन स्टार

निर्देशक : राजीव चिलाका

 

छोटा भीम और छुटकी, राजू, कालिया आदि के रोमांचक कारनामों को देखने की चाह रखने वालों के लिए राजीव चिलाका एक बार फिर उसकी अगली कड़ी एनीमेशन फिल्म ‘‘छोटा भीम कुंगफू धमाका’’ लेकर आ गए हैं. पहली बार इसे ‘टू डी’ की बजाय ‘थ्री डी’ में बनाने का सफल प्रयास किया है.

भारत में ढोलकपुर निवासी छोटा भीम और उसके छुटकी, राजू, जग्गू, कालिया व अन्य दोस्तों की यह कहानी इस बार चाइना पहुंच गयी है. भीम अपने सभी दोस्तों के साथ चाइनीज दोस्त मिक के निमंत्रण पर चाइना के कुंगफू टुर्नामेंट में हिस्सा लेने पहुंचता है. इसका आयोजन चाइना के महाराजा ने अपनी बेटी और प्रिंसेस किआ के जन्मदिन के अवसर पर रखा है. यहीं पर पता चलता है कि चीन के पूर्वज ड्रैगन किंग की कृपा है और ड्रैगन किंग ने किआ के पहले जन्मदिन पर आकर किआ के हाथ पर एक सुरक्षा कवच का चिन्ह अंकित किया था. यह भी पता चलता है कि मिक, प्रिंसेस का मंगेतर है. प्रतियोगिता शुरू होती है, इस प्रतियोगिता के पहले दौर में अलग अलग प्रतिस्पर्धियों के साथ राजू, छुटकी आदि लड़ते हैं. सबसे अंत में महाबली आता है. यह कई वर्षों से लगातार चैंम्पियन ट्रौफी लेकर जाता आ रहा है. इससे लड़ने के लिए कोई तैयार नहीं होता, तब भीम आगे बढ़ता है. पहले दो राउंड में तो भीम हार जाता है. पर फिर भीम को याद आता है कि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती. इस बार भीम दोगुने जोश व नई उर्जा के साथ लड़ता है और उसे दो के मुकाबले तीन अंक से हरा देता है. अंततः भीम को उस दिन विजयी घोषित किया जाता है. पर टुर्नामेंट अभी खत्म नहीं हुआ है. अभी दूसरे दिन दूसरे दौर की प्रतियोगिता होनी है ,जिसमें पहले दौर के विजेता का मुकाबला अन्य कुंगफू में माहिर प्रतिस्पर्धियों से होना है. उससे पहले मिक शाम को भीम व उनके साथियों को लेकर राज महल जाता है. जहां प्रिंसेस किआ इनसे बातें करती है और भीम के सभी साथियों के साथ प्रिंसेस किआ की दोस्ती हो जाती है. दूसरे दिन प्रतियोगिता शुरू होती है, पर तभी वहां पर महाराज का भतीजा और प्रिंसेस का चचेरा भाई जुहू पहुंच जाता है और वह प्रिंसेस किआ को अपने साथ लेकर गायब हो जाता है. पता चलता है कि कुछ साल पहले जुहू को चीन के महाराजा ने देश निकाला दे दिया था, इसलिए अब ताकत व कुछ जादुई/तिलस्मी शक्तियां हासिल करने बाद वह बदला लेने आया है. उसका मकसद पूरे चीन को खत्म करना है. इसीलिए वह किआ के माध्यम से ड्रैगन किंग को बुलाकर उनसे ज्वालांश हासिल करना चाहता है. जुहु को पता है कि इस विश्व में ज्वालांश सिर्फ एक ही इंसान के पास हो सकती है, जिसके पास ज्वालांश होगी, वही अपराजित होगा.

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महाराज अपनी बेटी किआ को वापस लाने वाले को देश की आधी संपत्ति इनाम में देने की घोणणा करते हैं. कुछ वीर योद्धा जुहू के पीछे भागते हैं. भीम व उसके साथियों को लगता है कि उनकी दोस्त प्रिंसेस किआ मुसीबत में है, तो उसकी मदद की जानी चाहिए. इसलिए भीम व उनके साथी भी जुहु के ठिकाने की तरफ बढ़ते हैं. पर जुहु के किले के अंदर प्रवेश करना नामुमकीन है, तभी एक सर्कस टीम को महल की तरफ जाने से रोककर भीम सभी को मौत देकर वह और उसके साथी सर्कस वालों की वेशभूषा पहनकर किले के अंदर किआ तक पहुंच जाते हैं. जहां जुहु से युद्ध होता है. जुहु अपनी जादुई शक्ति के बल पर भीम व उनके साथियों को अधमरा कर नदी में फेंक देता है. जुहु को लगता है कि यह सभी नदी में डूबकर मर जाएंगे. भीम को भी अहसास हो जाता है कि जुहु से लड़ना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उसके पास तो जादुई शक्तियां है. किसी तरह यह सभी नदी में डूबने से बच जाते हैं. एक बाबा इन सभी को अपने आश्रम लाकर इनका इलाज करता है, उसके पोते को भी जुहु ने बंदी बना रखा है. यह बाबा ही भीम व उसके साथियों को मार्शल आर्ट व कुंगफू के नए दांव तथा भीम को खास तरह की ट्रेनिंग व शिक्षा देता है.

उधर प्रिंसेस किआ के जन्मदिन पर एक आयोजन जुहु करता है. जहां प्रिंसेस किया ड्रैगन किंग को बुलाकर रोते हुए उनसे ज्वालांश लेकर जुहु को देती है, पर तभी भीम अपने साथियों के साथ पहुंच जाता है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंततः भीम, किआ को छुड़ाकर चाइना के राजा को सौंपता है. और कुंगफू टुर्नामेंट की ट्रौफी भी हासिल करता है.

पटकथा लेखक ने कहानी को बहुत ही सरल अंदाज में बयां करने का प्रयास किया है. बहुत कुछ तयषुदा पद्धति से ही आगे बढ़ता है. कहानी व पटकथा दर्शकों को एक सकारात्मक सीख देती है. एनीमेटेड किरदारों के साथ लोग रिलेट करते हैं. एनीमेशन क्रिएटर ने रंगो का चयन भी बहुत ही बेहतरीन किया है.

कुंगफू की तकनिक की बारीकियों पर बहुत ज्यादा जोर न दिए जाने के बावजूद तमाम दृष्य बहुत अच्छे ढंग से डिजाइन किए गए हैं. हर फ्रेम रंगीन और आकर्षक है. जिन कलाकारों ने डबिंग की है, उनकी आवाज चरित्रों के एक्षन के साथ एकदम मेल खाती है. एनीमेशन के साथ थ्री डी का प्रभाव अति उत्तम है.

सबसे बड़ा सच यह है कि हौलीवुड या पश्चिमी देशों की एनीमेशन फिल्मों के प्रशंसक भी ‘‘छोटा भीम कुंगफू धमाका’’के एनीमेशन को कमतर नही आक सकते. इस फिल्म का एनीमेशन हौलीवुड फिल्मों के स्तर का ही है. किंतु ‘छोटा भीम’ की पिछली फिल्मों के मुकाबले इस बार रोमांच के तत्व कुछ कम हैं. इसके अलावा फिल्म कुछ लंबी हो गयी है. इंटरवल के बाद फिल्म पर से निर्देशक व लेखक की पकड़ कमजोर नजर आती है.

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मगर कुछ कमियों के बावजूद फिल्म भावनामक स्तर पर बांधकर रखती है.फिल्म के दो संदेश बच्चों को याद रह जाते हैं. पहला प्यार व दोस्ती बिना शर्त और निःस्वार्थ भाव की बुनियाद पर होनी चाहिए. हमेशा दोस्त के साथ खड़े रहना चाहिए. दूसरा संदेश कि कोशिश ही सफलता का पहला कदम है.

फिल्म के पाष्र्व संगीत की भी तारीफ की जानी चाहिए. फिल्म के अंत में बौलीवुड स्टाइल के गाने को लेकर एक नया प्रेयोग जरुर किया गया है, मगर यह अनावश्यक लगता है.

एक घंटे 43 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘छोटा भीम:कुंग फू धमाका’’ के लेखक, निर्माता, निर्देशक और क्रिएटर राजीव चिलाका हैं.

सोशल मीडिया नहीं जमीन पर मिल रहा जवाब

सोशल मीडिया पर भले ही ‘भक्त’ कहे जाने वाले लोग ‘मोदी सरकार’ के खिलाफ कोई बात सुनने को तैयार ना हो. मोदी सरकार के खिलाफ बात करने पर गाली सुनने को मिलती हो. पर गांव देहात में मोदी सरकार के ‘कामकाज’ से लेकर उनके ‘चाय पकौड़ा‘  बिजनेस तक की खूब खिल्ली उड़ रही है. ये भी बात हो रही है कि चुनाव खत्म होने के बाद अगर मोदी सरकार बन गई तो सड़क किनारे रेहड़ी, दुकान, लगाने वालों से और ज्यादा पैसे वसूल किये जाने लगेंगे.

इनको सोशल मीडिया पर ‘ट्रोल’ होने का खतरा नहीं है. शहर में बस अड्डे के पास चुनावी चर्चा में भाजपा का प्रचार करने वाले जब वहां से आगे बढ़े तो भीड़ के रूप में खड़े लोगों ने चर्चा शुरू कर दी. ये लोग आपस में बात कर रहे थे कि ‘दाल रोटी खाने को मिल नहीं रहे. रोजी रोजगार छिन गये है.

ये लोग कहते हैं मोदी का ढोल पीटो’. जौनपुर के करीब के गांव के रहने वाले लोग मजदूरी करने शहर आते हैं. दिन में यहां काम करके बस स्टेशन के पास सोते हैं. चाय की दुकान पर चाय पीते समय लोग आपस में एक दूसरे के इलाके के हालत पता करते हैं. केराकत के रहने वाले युवक ने कहा ‘हमारे यहां सपा-बसपा और कांग्रेस की लहर सही चल रही हैं. मोदी जी के साथ तो केवल बाबू साहब लोग ही हैं’.

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इनमें से एक युवक ने कहा ‘भईया रेडियो पर तो हम हर गाने के बाद मोदी जी का प्रचार सुन रहे हैं. मोदी है तो मुमकिन है.’ दूसरा युवक थोड़ा गुस्से में बोला ‘रेडियो वाले पइसा लेते हैं. इसलिए मोदी है तो मुमकिन है का टोन बजा रहे हैं. हमारी तो दाल रोटी दिन पर दिन महंगी होती जा रही और मजदूरी घटती जा रही. इससे अच्छा तो पहले रहा कम से कम मनरेगा में गांव में ही काम तो मिल जाता था. घर पर खाना सोना मिल रहा था.

यहां तो काम के साथ लाला की गाली सुनों और सडक पर पड़े रहो सडक पर खाना बना के खा लो. हमका भी सेना में भर्ती कर ले मोदी जी तो जानें कुछ कर रहें.’

इनकी चर्चा को सुनने के लिये जरूरी था कि बीच में कोई टिप्पणी ना की जाये. ये लोग आदमी के सामने उसकी बातचीत के हिसाब से बोलने लगते थे. मोदी सरकार का प्रचार करने उनकी टीम से कुछ लोग फिर आ जाते हैं. ये लोग उनकी हां में हां मिलाने लगते हैं.

इसलिए केजरीवाल के साथ नहीं अग्रवाल समाज

एक नेता जी ने तो इनके साथ वहां चाय पी रहे 20-25 लोगों की चाय का पैसा खुद ही दे दिये. चाय पीने के बाद लोग फिर कहते है ‘भइया बहुत मौज हो गई. चुनाव खत्म होते है फिर से महंगाई बढ़ जायेगी.‘ एक युवक सड़क किनारे समतल पड़ी जमीन पर अपना बिस्तर लगाते कहता है ‘एक बात जान लो अगर मोदी जी फिर से आ गयें तो यह सड़क किनारे सोने को भी मिल रहा नहीं मिलेगा. यहां भी सोने का पैसा वसूल होने लगेगा’.

नीचता की पराकाष्ठा छू रही है राजनीति

पहली बार देश ऐसे चुनावी दौर से गुजर रहा है, जिसमें जनता से जुड़े तमाम गम्भीर मुद्दे सिरे से गायब हैं. जनता के हित की, उनके विकास की, उनके उद्धार की कोई बात नहीं हो रही है. न किसानों-मजदूरों की समस्याओं के समाधान की बात कहीं हो रही है, न देश के पढ़े-लिखे बेरोजगार युवाओं को नौकरी देने की. न महिलाओं की सुरक्षा की बात हो रही है, न ही कुपोषित और भूख से मरते बच्चों की. न बिजली, पानी, सड़कों की बात हो रही है और न ही शिक्षा, स्वास्थ और पीने के स्वच्छ पानी की. वर्ष 2014 के आम चुनाव के वक्त विकास के ढोल पीटने वाले, दो करोड़ नौकरियां हर साल देने का दावा करने वाले, राम मन्दिर बनाने का सपना दिखाने वाले, गंगा को स्वच्छ और निर्मल करने का वादा करने वाले, विदेशों में जमा कालाधन देश में वापस लाने की बातें करने वाले और मंहगाई कम करने का दावा करने वाले लोगों के मुंह से इस बार इन मुद्दों पर भूल से भी कोई बात नहीं निकल रही है. उनके सुर इस महाचुनाव में बिल्कुल बदले हुए हैं. देश गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, भ्रष्टाचार, अशिक्षा और बीमारियों से जूझ रहा है और तमाम नेता अपने चुनावी भाषणों में सिर्फ व्यक्तिगत छींटाकशी और गालीगलौच में लिप्त हैं. दूसरे राजनेताओं की बात तो छोड़िये, खुद देश का प्रधानमंत्री अपने पद की गरिमा को ताक पर रख कर एक ‘परिवार-विशेष’ के पीछे पड़ा हुआ है और एक दिवंगत प्रधानमंत्री के चरित्रहनन की निर्लज्ज कोशिशें कर रहा है. उस दिवंगत प्रधानमंत्री की, जिसे देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सुशोभित किया जा चुका है. किसी भी व्यक्ति को मृत्योपरान्त अपशब्द कहना भारत की संस्कृति कभी नहीं रही है. यह नीचता की पराकाष्ठा है. यह आज की राजनीति का बदरंग चेहरा है. यह भाजपा-मुखिया की हताशा और डर का सबूत है.

प्रतापगढ़ की रैली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का नाम लिये बिना कहा, ‘आपके (राहुल गांधी) पिताजी को आपके राज दरबारियों ने गाजे-बाजे के साथ मिस्टर क्लीन बना दिया था. देखते ही देखते भ्रष्टाचारी नम्बर वन के रूप में उनका जीवनकाल समाप्त हो गया. नामदार यह अहंकार आपको खा जाएगा.’ देश के प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति से कोई यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि वह देश के एक पूर्व और स्वर्गवासी प्रधानमंत्री की निन्दा करके उसके बेटे और उसके परिवार को आघात पहुंचाये. मोदी की यह हरकत एक शहीद और एक देश-रत्न के सम्मान में बट्टा लगाने की ओछी कोशिश ही कही जाएगी. क्या मोदी चुनाव मैदान में कांग्रेस के उठते परचम से घबराये हुए हैं? क्या उन्हें अपनी हार का डर खाये जा रहा है?

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गौरतलब है कि राफेल मुद्दे पर बुरी तरह घिरे मोदी का यह वक्तव्य उस बोफोर्स घोटाले की ओर इशारा था, जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में दिल्ली हाईकोर्ट ने स्व. राजीव गांधी को ससम्मान बरी कर दिया था और तब की सरकार ने भी इस फैसले के खिलाफ अपील नहीं करने का निर्णय लिया था. हां, जब मोदी सत्ता में आये तो बोफोर्स मामला फिर कुनमुनाने लगा, सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को लेकर जाने वाले वकील और भाजपा नेता अजय अग्रवाल ने फिर पुरानी फाइल से धूल झाड़ी और मोदी की नजरें-इनायत पाने की चाह में अदालत पहुंच गये, मगर सुप्रीम कोर्ट से उन्हें अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं मिली और कोर्ट ने उनकी अपील पर सुनवायी से ही मना कर दिया.

ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी को ‘भ्रष्टाचारी नंबर वन’ कहना न सिर्फ गलत है, बल्कि उनका वक्तव्य बेहद निन्दनीय और भर्त्सना करने योग्य है. यह सिर्फ स्व. गांधी के परिवार को आहत करने की नीयत से कही गयी बात है, जिसको बकौल मोदी ‘फैक्ट’ कहा जा रहा है. इन्हीं ‘फैक्ट्स’ में मोदी अब गांधी परिवार के निजी पलों को भी गिना रहे हैं. मसलन गांधी परिवार अपने हौलीडेज पर कहां जाता था. उनके साथ हौलीडे टूर पर कौन-कौन दोस्त होते थे. वे क्या खाते थे, क्या पहनते थे, कहां घूमते थे, आदि.

हैरत है कि लोकतन्त्र में जनता से जुड़े सवाल, उनके मुद्दे, उनकी समस्याओं को दरकिनार करके देश का प्रधानमंत्री एक पूर्व प्रधानमंत्री, जो उनकी बात का खंडन करने के लिए इस दुनिया में भी नहीं है, उनके निजी जीवन को ‘पब्लिक’ करने में मशगूल है, आखिर क्यों? देश में चारों ओर समस्याओं का अम्बार लगा है, नक्सली समस्या मुंह बाये खड़ी है, आये-दिन सेना के जवानों की टोलियां नक्सली हमलों में मारी जा रही हैं, देश भर में किसान आत्महत्या कर रहा है, लोग पीने के पानी के लिए त्राहिमाम कर रहे हैं, महिलाओं पर हिंसा और बलात्कार हो रहे हैं, गरीबी और भुखमरी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि खुद प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में एक मजबूर बाप दीपक गुप्ता ने 8 मई को अपनी तीन मासूम बच्चियों के साथ जहर खाकर आत्महत्या कर ली, और मोदी इन मुद्दों पर कोई बात ही नहीं कर रहे हैं! आखिर 19 मई को किस मुंह से वाराणसी जाएंगे प्रधानमंत्री?

2014 में सत्ता में आने की लालसा के चलते नरेन्द्र मोदी ने जनता से बड़े-बड़े वादे किये थे, मगर पांच साल गुजर गये, उनका कोई वादा वफा नहीं हुआ. ‘विकास’ और ‘अच्छे दिन’ की सारी बातें हवा हो गयीं. भ्रष्टाचारियों को जेल भेजने की बातें करने वाली मोदी-सरकार खुद राफेल घोटाले में फंस गयी है, जिसमें करोड़ों रुपयों की हेरफेर सामने है और जिससे बचने के लिए मोदी तमाम जतन कर रहे हैं. राफेल मामला सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में है और आने वाले वक्त में मोदी और उनके करीबी अनिल अम्बानी के लिए बड़ी मुसीबत बन सकता है. चुनावी दौर में राफेल मामले की सुनवाई किसी न किसी तरह लटकायी जा सके, इसी साजिश के चलते तमाम खेल हो रहे हैं. चीफ जस्टिस औफ इंडिया पर एक महिला द्वारा यौन शोषण का आरोप लगाना, राफेल मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने वाले वरिष्ठ वकीलों के खिलाफ याचिकाएं दाखिल करवाना, कोर्ट और्डर्स में निचले अधिकारियों की मिलीभगत से फेरबदल करवा देना, इन सबके पीछे सत्ता-स्तर पर रची जा रही साजिशें काम कर रही हैं, ताकि राफेल मामले की सुनवाई किसी तरह लटकी रहे. भाजपा नहीं चाहती कि राफेल मामला चुनावी दौर में जनता के बीच मुद्दा बन जाए. वह चाहती है कि राफेल पर सुनवाई से पहले ही चुनाव निपट जाए और इसीलिए जनता का ध्यान बंटाने की गरज से मोदी तीस साल पीछे जाकर राजीव गांधी और उनके परिवार की बातें खोद-खोद कर नमक-मिर्च लगाकर परोस रहे हैं. मंशा यह कि अगर किसी तरह येन-केन-प्रकारेण भाजपा की सत्ता में वापसी हो जाए तो एक बार फिर तमाम जांच और न्याय संस्थाओं की नकेल उनके हाथ में आ जाएगी और राफेल मामला भी ठंडे बस्ते में चला जाएगा.

भाजपा को सबसे ज्यादा खतरा कांग्रेस से है क्योंकि प्रियंका गांधी वाड्रा की अगुआई में चल रहे कांग्रेस के चुनाव प्रचार ने मोदी सरकार के झूठ के पुलिन्दे की बखिया उधेड़नी शुरू कर दी है और यही वजह है कि नरेन्द्र मोदी कांग्रेस पर हमलावार हैं और अपने पद की गरिमा का ख्याल किये बिना सड़कछाप भाषणबाजी पर उतर आये हैं. मोदी की बौखलाहट की दूसरी वजह यह है कि इस बार सत्ता वापसी की पूर्ण आशा खुद भाजपा नेताओं को भी नहीं है. भाजपा के वरिष्ठ नेता – सुब्रह्मणयम स्वामी और राम माधव ने तो इस पर संदेह भी जता दिया है. दरअसल अबकी बार मोदी-लहर कहीं दिखायी नहीं दे रही है. सुगबुगाहट यह है कि अगर नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा जीत के जादुई आंकड़े 271 को नहीं छू पाती है, और जोड़-तोड़ के बाद यदि सरकार बनती, तो फिर प्रधानमंत्री पद पर नितिन गडकरी बैठेंगे. ऐसे में मोदी की बौखलाहट बढ़ना लाजिमी है. वह घबराये हुए हैं. नये वादे भी नहीं सूझ रहे हैं. जनता के आगे क्या झुनझुना बजाएं? 2014 में जनता से किये वादे अगर पूरे किये होते, या उनमें से कुछेक ही पूरे कर देते, तो शायद उनकी लहर चल रही होती.

बीते पांच सालों में गौरक्षा के नाम पर कथित गौरक्षकों ने जिस तरह देश के अंदर हिंसा का तांडव किया और सैकड़ों मुसलमानों का सरेआम कत्ल किया, लव जिहाद के नाम पर जिस तरह भाजपा समर्थकों ने युवाओं का खून बहाया, जिस तरह मोदी-काल में न्याय करने वाले जजों और सच लिखने वाले पत्रकारों की हत्याएं हुर्इं, यह तमाम दाग भाजपा और मोदी के ललाट पर चमक रहे हैं. ऐसे में पढ़े-लिखे युवाओं, पिछड़ों और मुसलमानों का भाजपा से मोहभंग होना स्वाभाविक है. कांग्रेस की छवि सेक्युलर है, मगर अभी तक सिर्फ राहुल गांधी के सहारे जहां वह घुटने-घुटने चल रही थी, वहीं प्रियंका गांधी वाड्रा के सक्रिय होने के बाद वह दौड़ने के काबिल हो गयी है. प्रियंका के ‘चार्म’ ने मोदी की नींद उड़ा रखी है. यही वजह है कि जिस दिन से प्रियंका को कांगे्रस का महासचिव बनाये जाने का ऐलान हुआ, बस उसी दिन से केन्द्र सरकार के इशारों पर काम करने वाली तमाम केन्द्रीय जांच एजेंसियां सक्रिय हो गयीं.

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प्रियंका गांधी वाड्रा के कांग्रेस महासचिव की गद्दी संभाले ही उनके पति राबर्ट वाड्रा के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय की जांच शुरू हो गयी. पांच साल से सो रही जांच एजेंसी को अचानक वाड्रा की जमीनें याद आ गयीं. दरअसल वाड्रा को परेशान करके भाजपा चाहती थी कि वह किसी तरह प्रियंका गांधी को डरा सके, उनके आत्मबल को कमजोर कर सके. मगर प्रियंका न डरी, न रुकी. चुनाव का परचम हाथ में लेकर वह परिवार और पार्टी दोनों ही मोर्चों पर कमर कस कर खड़ी हो गयीं. राबर्ट को जांच एजेंसी ने अलग-अलग जगहों पर बुला कर हफ्तों लम्बी-लम्बी पूछताछ की गयी. कभी दिल्ली कार्यालय में सुबह से शाम तक बैठाये रखा गया, कभी जयपुर तलब किया गया. मगर इस लम्बी पूछताछ का नतीजा क्या निकला, यह आज तक सामने नहीं आया. शायद सिफर ही रहा हो क्योंकि ऐसी जांचें सत्ता के इशारे पर सिर्फ ‘समय-विशेष’ में विरोधियों को परेशान करने की नीयत से अंजाम दी जाती हैं.

इसी बीच पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों पर हमला हुआ. हमले के बाद मोदी ने जगह-जगह उत्तेजक बयान दिये – ‘घुस का मारेंगे’ जैसी बातों से अपनी छवि एक वीर और जांबाज नेता की बनाने की कोशिश की, ताकि युवाओं के मुख से ‘हर-हर मोदी’ के स्वर एक बार फिर सुन सकें. मगर पुलवामा हमला संदेह और सवालों में घिर गया. इंटेलिजेंस एजेंसियों की नाकामी पर सवाल उठने शुरू हो गये. मारे गये जवानों के परिजनों ने पूछ लिया कि एक कार में इतना विस्फोटक लेकर आतंकी अगर सीआरपीएफ की बस के साथ चल रहा था, तो स्थानीय पुलिस और खुफिया विभाग क्या कर रहे थे? फिर पुलवामा का बदला लेने के लिए बालाकोट में एयर स्ट्राइक हुई और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह बोले – हमने तीन सौ (यह संख्या भी भाजपा के अलग-अलग नेताओं ने अलग-अलग बतायी) आतंकियों को मार गिराया. इस पर भी सवाल उठ खड़े हुए. विदेशी एजेंसियों ने कह दिया कि बालाकोट में कोई आतंकी नहीं मारा गया. इस बीच देश के अन्दर कई जगहों पर पुलवामा के शहीदों के चित्रों के साथ मोदी चुनावी भाषण देते हुए नजर आये. जवानों की शहादत को वोट के लिए भुनाने की नीच हरकत पर वह फिर घेरे गये, निन्दा के पात्र बने. उधर अति उत्साह में उत्तर प्रदेश के अति ज्ञानी चीफ मिनिस्टर मिस्टर योगी ने गाजियाबाद में भाषण के दौरान भारतीय फौज को ‘मोदी की सेना’ बता दिया. जिस पर भाजपा की खूब लानत-मलामत हुई. योगी आदित्यनाथ की जुबान फिर भी न रुकी. सपा-बसपा गठबंधन के प्रत्याशी शफीकुर रहमान बर्क को उन्होंने बाबर का वंशज करार दे दिया. योगी के बिगड़े बोलों की वजह से चुनाव आयोग को उनके चुनाव प्रचार पर 72 घंटे का विराम तक लगाना पड़ा. यानि कुल मिला कर चुनावी मैदान मारने की भाजपा की हर जुगत फेल हुई जा रही है. हर दांव उलटा पड़ रहा है. उधर प्रियंका गांधी की चुनावी रैलियों में भीड़ उमड़ी पड़ रही है. उनके प्रति लोगों का आकर्षण, जनता से उनके सहज सवाल और उनके भाषणों का असर देख कर भाजपाईयों के सीने पर सांप लोट रहे हैं. जीत की आशा लगातार क्षीण होती जा रही है. यही वजह है कि सत्ता में वापसी की बौखलाहट में सत्ताशीर्ष से लेकर नये-नये उम्मीदवार बने भाजपाईयों तक को भी अपनी जुबान पर काबू नहीं रह गया है. क्रिया की प्रतिक्रिया भी हो रही है क्योंकि यह तो नियम है.
प्रधानमंत्री जब ‘चायवाले’ से ‘चौकीदार’ बने तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ‘चौकीदार चोर है’ के नारे लगवा दिये. चौकीदार की चोरियां भी गिना दीं. चौकीदार को गुस्सा आया उसने पलटवार किया और राहुल गांधी के पिता को ‘भ्रष्टाचारी नम्बर वन’ करार दे दिया. उसके बाद बवंडर उठ खड़ा हुआ और अब हर नेता अपमानजनक टिप्पणियों के साथ विरोधी पर पिला पड़ रहा है.

पिता पर अपमानजनक टिप्पणी से आहत प्रियंका गांधी ने भी पलटवार किया. कहा, ‘चुनाव प्रचार में बीजेपी के नेता कभी ये नहीं कहते कि उन्होंने जो वादे किये थे, वे पूरे किये या नहीं. कभी शहीदों के नाम पर वोट मांगते हैं, तो कभी मेरे परिवार के शहीद सदस्यों का अपमान करते हैं. उन्होंने मेरे शहीद पिता का अपमान किया है. यह चुनाव किसी एक परिवार के बारे में नहीं है, ये उन सभी परिवारों के बारे में हैं जिनकी उम्मीदें और आशाएं इस प्रधानमंत्री ने पूरी तरह तोड़ दी है. देश का ध्यान भटकाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन देश ने कभी अहंकार करने वाले को माफ नहीं किया है. इतिहास इसका गवाह है, महाभारत में भी जब श्रीकृष्ण दुर्योधन को समझाने गये थे तो दुर्योधन ने उन्हें ही बंदी बनाने की कोशिश की थी.’ प्रियंका ने इसी पर कविवर रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता सुनायी, ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है, हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया, डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान कुपित होकर बोले – जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हां, हां दुर्योधन! बांध मुझे.’
वहीं राहुल गांधी ने भी ट्वीट करके मोदी को ललकारा – ‘मोदीजी, लड़ाई खत्म हो चुकी है. आपके कर्म आपका इंतजार कर रहे हैं. खुद के बारे में अपनी आंतरिक सोच को मेरे पिता पर थोपना भी आपको नहीं बचा पाएगा. सप्रेम और झप्पी के साथ – राहुल.’

उधर बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी तो मोदी से इतनी खार खाये बैठी हैं कि उन्होंने प्रियंका को सलाह देते हुए कह दिया कि मोदी को ‘दुर्योधन’ नहीं बल्कि ‘जल्लाद’ कहा जाना चाहिए. उन्होंने कहा, ‘पीएम मोदी को प्रियंका गांधी ने दुर्योधन बताकर गलत किया है, उन्हें तो मोदी को जल्लाद कहना चाहिए था. वे सब जल्लाद हैं, जल्लाद. जो जज को और पत्रकार को मरवा देता है, उठवा लेता है. ऐसे आदमी का मन और विचार कैसा होगा? खूंखार होगा.’

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देश में किसी प्रधानमंत्री की इतनी बेइज्जती इससे पहले शायद ही किसी की हुई हो. अब तो मोदी कहने लगे हैं कि अपमान पीने की मुझे अब आदत हो गयी है. ममता बैनर्जी को संदेश दे रहे हैं कि – दीदी आपका थप्पड़ भी मेरे लिए आशीर्वाद जैसा है. कोई पूछे कि मोदी जी, जनता के हित में पांच साल कुछ काम कर लिया होता तो यह अपमान आखिर क्यों झेलना पड़ता?
भ्रष्टाचारी नम्बर वन, बाबर के वंशज, पप्पू की पप्पी, दुर्योधन, दुशासन, जल्लाद, निकम्मा, नामर्द, हिटलर, तुलगक, नमक हराम, औरंगजेब, अनपढ़, स्टूपिड, आतंकवादी, गधा, मौत का सौदागर, जहर की खेती, सांप, बिच्छू… इस बार के चुनाव में नेताओं के मुख से बस ऐसे ही अपशब्द फूट रहे हैं. जनता सकते में है कि यह चुनाव हो रहा है या मदारियों के बीच गालियों का कॉम्पटीशन? लोकतन्त्र का इतना बदरंग चेहरा इससे पहले इस देश ने नहीं देखा था.

घर पर ऐसे बनाएं रोस्टेड बैंगन

रोस्टेड बैंगन की रेसिपी बहुत आसान है और इसे बनाने में भी आपके ज्यादा समय नहीं लगेगा. तो चलिए झट से जानते हैं इसकी रेसिपी.

सामग्री

1 प्याज  (बारीक कटा हुआ)

3 लहसुन की कलियां ( बारीक कटा हुआ)

1 हरी मिर्च (बारीक कटा हुआ)

जैतून का तेल

1 बैंगन (रोस्टेड)

साबुत धनिया (1 टी स्पून)

लाल मिर्च पाउडर (1 टी स्पून)

नींबू (1)

हरा धनिया ( टुकड़ों में कटा हुआ)

दही (100 ग्राम)

खीरा (1)

नमक (स्वादानुसार)

कालीमिर्च (आवश्यकतानुसार)

जानें कैसे बनाएं तंदूरी आलू

बनाने की वि​धि

एक पैन को गर्म करें, इसमें 6 छोटे चम्मच जैतून का तेल, लहसुन, प्याज और हरी मिर्च डालें और इसी के साथ इसमें नमक छिड़कें.

एक रोस्टेड बैंगन लें और इसके अंदर से थोड़ा निकाल लें और इसका छिड़का उतार लें और इसे काट लें.

इस बैंगन को अब पैन में डालें और इसमें नमक और साबुत धनिया डालें.

इसे फौर्क काटे से मैश करें.

इसमें लाल मिर्च डालें और कुछ देर के लिए पकाएं.

इसमें आधा नींबू का रस डालें और इसे ठंडा होने दें.

अब एक बाउल में हरा धनिया और दही लेकर अच्छे से मिक्स करें.

इसमें अब बैंगन का मिश्रण डालकर अच्छे से मिलाएं.

एक खीरे को ​छीलकर इसके बीज निकाल लें.

खीरे की इस बोट में बैंगन की डिप भरें.

आलू कुर्मा रेसिपी

धराशायी होते पुल : क्या लोगों की जान इतनी सस्ती?

घर से निकलते वक्त अकसर मन में रहता है कि कहीं कोई दुर्घटना न हो जाए. दुर्घटना से मतलब चोरीचकारी या छोटेमोटे हादसे से होता है. परंतु कोई सपने में भी नहीं सोच सकता कि उन के पैरोंतले की जमीन फट जाएगी या सिर के ऊपर की छत उन पर ढह जाएगी.

ऐसे कितने ही लोग हैं जिन्होंने 2-2 सैकंड के अंतराल में जिंदगी और मौत को करीब से देखा है. ऐसे कितने ही लोग हैं जिन के स्कूल के लिए निकले बच्चे घर वापस आए ही नहीं. कुसूर किस का है? वाहन चलाने वालों को नहीं पता होता कि जिस पर वे गाड़ी चलाने वाले हैं वह ही धराशायी हो जाएगा और न ही उन सवारियों को, जो सैकंड्स में मौत के मुंह में चले जाते है.

सार्वजनिक जगहों पर गिरने वाले पुल व फ्लाईओवर बड़ी मात्रा में लोगों की मौत का कारण बनते हैं. इन में घायल होने वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं होती. किसी का हाथ नहीं रहता तो किसी का पैर, किसी की रीढ़ की हड्डी टूट जाती है तो किसी को महीनों अस्पताल के बैड पर काटने पड़ते हैं.

पिछले 2 सालों में भारत में केवल पुलों और फ्लाईओवरों के गिरने से 93 मौतें हुई हैं जबकि घायलों की संख्या अनगिनत है. मुंबईगोवा हाईवे पुल, मजेरहाट पुल, कोलकाता विवेकानंद फ्लाईओवर, भुवनेश्वर फ्लाईओवर और अब मुंबई ओवरब्रिज कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं जिन के असमय गिरने से ढेरों मासूमों ने अपनी जान गंवाई. इन पुलों का इस तरह गिरना कोई आम बात नहीं है, यह प्रशासन, संबंधित विभाग, बीएमसी, भ्रष्टाचार और राजनीति का परिणाम है जिस में आम जनता बुरी तरह पिस रही है.

मुंबईगोवा हाईवे पुल

मुंबईगोवा हाईवे पर बना पुल 2 अगस्त, 2016 की रात पानी में बह गया. पुल सावित्री नदी पर स्थित था, जिस पर वाहनों का आनाजाना आम था. पुल 100 वर्र्ष पुराना था और अंगरेजों के शासन के दौरान बनाया गया था. पुल के साथ ही एक और पुल था जो अधिक पुराना नहीं था और वह टस से मस तक नहीं हुआ. यह पुल पुराना जरूर था पर एक महीने पहले जांच के बाद इसे पूरी तरह से सुरक्षित बताया गया था. पुल के ढहने से उस पर चल रहीं 2 बसें भी नदी के बहाव में बह गईं. और लगभग 22 यात्री लापता हो गए.

पुल के बहने पर उप मुख्यमंत्री अजीत पवार ने कहा, ‘पुल ब्रिटिश राज में बना था जिस का अर्थ है कि 100 सालों से अधिक पुराना था, इस के बावजूद एक अफसर ने मई में यह प्रमाणित किया था कि पुल ट्रैफिक के लिए बिलकुल ठीक है. उस अफसर के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 के तहत केस

दर्ज होना चाहिए, साथ ही, पीडब्लूडी मिनिस्टर चंद्रकांत पाटिल के खिलाफ भी केस दर्ज होना चाहिए.’

एक एनसीपी कार्यकर्ता का कहना था कि मौसम विभाग की चेतावनी के बाद भी कोई कदम क्यों नहीं उठाया गया, राज्य सरकार ही इस त्रासदी की जिम्मेदार है. मामले पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने पुल के बह जाने का कारण महाभूलेश्वर में हुई बारिश से सावित्री नदी का बढ़ा जलस्तर बताया.

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कोलकाता मजेरहाट पुल

कोलकाता में 6 वर्षों के भीतर धराशायी होने वाला यह तीसरा पुल था. पुल 50 साल पुराना था. इस की मरम्मत का काम चल रहा था. पिछले वर्ष 4 सितंबर की शाम 4 बजे गिरे इस पुल के नीचे दब कर 3 लोगों की जान गई और 25 घायल हुए. दुर्घटना के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने चीफ सैक्रेटरी मोलोए कुमार डे को एक इंवैस्टिगेशन कमेटी बनाने का फरमान दिया. मरम्मत का काम लापरवाही से हो रहा था, तारकोल की भारी परतें बिछाई जा रही थीं जिस से पुल पर वजन बढ़ गया और  पुल धराशायी हो गया. इंवैस्टिगेशन से पता चला कि पुल के गिरने का कारण उस पर पड़ा भारी मलबा और उस की बुरी देखरेख थी.

अंधेरी पुल

भारी बारिश और तूफान ने 1971 के बने अंधेरी गोखले ओवरब्रिज को धराशायी कर दिया. आश्चर्य की बात तो यह थी कि इस ब्रिज के गिरने से एक महीने पहले ही उस का सरकारी औडिट पास किया गया था. ब्रिज का एक भाग, जो एसवी रोड पर बना था व अंधेरी ईस्ट और अंधेरी वैस्ट को आपस में जोड़ता था, टूट कर जमीन पर गिर गया. हादसा 3 जुलाई, 2018 को सुबह 7:30 बजे हुआ और उस समय कोई ट्रेन उस के नीचे से नहीं गुजर रही थी. हादसे से अनगिनत बिजली और नैटवर्क की तारें चकनाचूर हो गईं और लोगों को दूसरे नुकसान भी झेलने पड़े.

हादसे में 5 लोग घायल हुए और उन में से 2 लोगों की हालत अत्यधिक गंभीर थी. महाराष्ट्र सरकार की ओर से मृतकों को 5 लाख रुपए और घायलों को 50 हजार रुपए का मुआवजा दिया गया.

दुर्घटना के बाद दोषारोपण शुरू हुआ और बीएमसी, रेल मंत्रालय और मुंबई रेलवे विभाग घेरे में आए.

विवेकानंद अंडरकंस्ट्रक्शन फ्लाईओवर

31 मार्च, 2016 के दिन 150 मीटर पर बन रहा विवेकानंद रोड फ्लाईओवर, जोकि कोलकाता के गिरीश पार्क के करीब बन रहा था, टूट कर नीचे गिर गया. पुल के नीचे मरने वालों की संख्या 50 से ऊपर थी और घायलों की

संख्या 80. पुल को बनाने का काम आईवीआरसीएल नामक कंस्ट्रक्शन फर्म को मिला था. फ्लाईओवर निर्माण का कार्य 2008 में शुरू होना था, परंतु काम टलतेटलते 2016 आ गया. फ्लाईओवर गिरने से एक दिन पहले ही उस पर कंकड़ों की परत बिछाई गईर् थी जिस पर काम कर रहे मजदूरों ने यह कहा था कि उन परतों में से आवाजें आ रही थीं.

12:40 बजे ब्रिज का स्टील स्पैन टूट कर नीचे गिर गया जिस के नीचे पैदल यात्री और कई वाहन कुचल गए. फ्लाईओवर के मलबे से 90 से ज्यादा लोगों को बाहर निकाला गया. किसी का पैर कुचल गया तो कहीं से पानी के लिए कोई हाथ नजर आ रहा था. कंपनी आईवीआरसीएल पर धारा 302 के तहत कत्ल का मुकदमा दर्ज कराया गया. कंपनी द्वारा इस हादसे को ऐक्सिडैंट बताया जा रहा था.

अनुभवी कंस्ट्रकशन प्रोफैशनल बिरांची नारायण आचार्य के अनुसार, ब्रिज के गिरने का प्रमुख कारण सपोर्ट स्पैन का अनस्टैबल होना था.

मुंबई फुट ओवरब्रिज

मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के पास बने फुट ओवरब्रिज के अचानक गिरने से 6 लोगों की मौत और लगभग 34 लोग घायल हुए. इस हादसे ने प्रशासन की लापरवाही को एक बार फिर उजागर कर दिया. फुट ओवरब्रिज 14 मार्च, 2019 की शाम गिरा जब पीक आवर होने के कारण भीड़ ज्यादा थी. ब्रिज बहुत ही पुराना नहीं था और कुछ दिनों पहले ही इस की मरम्मत की गईर् थी.

रेलवे के डीआरएम डी के शर्मा के अनुसार, ‘‘फुट ओवरब्रिज की देखरेख का काम बीएमसी का था तथा उसी की लापरवाही का परिणाम है कि ब्रिज टूट गया.’’ बीएमसी अधिकारियों के खिलाफ धारा 304 ( लापरवाही से मौत) के तहत मामला दर्ज किया गया है.

प्रशासन और पुल

मुंबई ओवरब्रिज का गिरना प्रशासन और कौंट्रैक्टरों के बीच होने वाली घूसखोरी का ताजा उदाहरण है. इन पुलों के गिरने में सरकारी दफ्तरों में रोटी तोड़ने वाले अफसरों का भी बहुत बड़ा हाथ है, साथ ही, कलैक्टर और जांच अधिकारी भी इन पुलों के धराशायी होने के जिम्मेदार हैं.

किसी भी नए फ्लाईओवर या पुल के निर्माण का जिम्मा कौंटै्रक्टर पर होता है. सब से पहले उसे राज्यमंत्री की मंजूरी की आवश्यकता होती है. राज्यमंत्री किसी अयोग्य को भी पैसे ले कर कौन्ट्रैक्ट दे दें तो किसी को कानोंकान खबर नहीं होती. कौंटै्रक्टर उस के बाद प्रोजैक्ट कार्य शुरू करता है और उस के लिए बताए जाने वाले दाम से कम की सामग्री खरीदता है. लोकल सामग्री का अर्थ है बेकार क्वालिटी. और बेकार क्वालिटी ही इन पुलों की मरम्मत का कारण बनती है. एक के बाद एक मरम्मत से पीडब्लूडी, आईएएस और विभिन्न स्तरों पर विराजमान अफसरों की जेबें भरती रहती हैं. इन सभी की लापरवाही और भ्रष्टाचार ही है जो लोगों की जिंदगियों के साथ खिलवाड़ करता है.

सत्ताधारियों की बात करें तो कोलकाता में पिछले 6 सालों में 3 पुल गिरे हैं और इन तीनों पुलों के टूटने के समय तृणमूल कांग्रेस की सरकार थी. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा विवेकानंद फ्लाईओवर के गिरने के बाद भी यही कहा गया था कि जांच अच्छी तरह की जाएगी और गुनाहगारों को सजा दी जाएगी. कौंट्रेक्टर कंपनी आईवीआरसीएल के कई अफसरों को जेल भी भेजा गया. परंतु ममता बनर्जी ने खुद को इस का जिम्मेदार नहीं ठहराया, जबकि उन्होंने ही सालों से अटके फ्लाईओवर निर्माण को 18 महीने में खत्म करने के निर्देश दिए थे. 165 करोड़ रुपए के बजट में बन रहा यह फ्लाईओवर पूरा होने से पहले ही धराशायी हो गया. बावजूद इस के कि नया फ्लाईओवर बनने से पहले गिर गया, दूसरे पुलों के विषय में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए. परिणामस्वरूप, 2 वर्षों बाद ही मजेरहाट पुल भी धराशायी हो गया.

अब मुंबई में गिरे फुट ओवरब्रिज को ले कर भी इसी तरह के दोषारोपण शुरू हो गए हैं. जहां एक तरफ दोष भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना को दिया जा रहा है वहीं राजनेता इस का दोष इंजीनियर पर थोप रहे हैं. विपक्ष का कहना तो यह भी है कि यदि सरकार 600 करोड़ में सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा बना सकती है तो क्या पुलों की ठीक तरह से मरम्मत नहीं करा सकती.

लोगों की प्रतिक्रिया

जहां एक तरफ पुलवामा अटैक पर लोगों ने रैलियां निकालीं, ट्विटर और फेसबुक पर पोस्ट कर के हैशटैग पुलवामा ट्रैंडिंग कर दिया, वहीं दूसरी तरफ ये त्रासदियां नजरअंदाज क्यों? देश के जवान शहीद हुए जिस का दुख सभी को है और रहेगा मगर क्या आम लोगों की जान जान नहीं है? सरकार और प्रशासन विदेश से तो अच्छी मुठभेड़ कर रहे हैं मगर अपने ही गृहयुद्धों से निबटने का कार्य क्यों नहीं? भ्रष्टाचार धीरेधीरे देश को छलनी

कर रहा है और यह सरकार कुछ अधिकारियों को ही सलाखों के पीछे कर रही है, उन से पैसे खाने वालों को नहीं. कहां 400 साल पुरानी इमारतें आज भी सिर उठा कर खड़ी हुई हैं और कहां ये पुल और फ्लाईओवर हैं जो एकएक कर मिट्टी में मिलते जा रहे हैं. न देश के पास पत्थर और सीमेंट की कमी है और न ही इंजीनियरों की. कमी है तो सजगता और जिम्मेदारी की.

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अगर हमारे देश की सरकार गुहार लगाने पर ही जागती है, अगर सरकार की आंखें मोमबत्ती जलाने पर ही देख सकती हैं तो इन त्रासदियों में लोग ऐसा करने से पीछे कैसे रह जाते हैं? शहीदों की मौत पर बच्चाबच्चा शोक मना रहा था पर इन मासूमों के लिए क्या केवल मुआवजा ही काफी है?

देश में हर दिन लोग एक जगह से दूसरी जगह सफर करते हैं, कभी पुलों के ऊपर से तो कभी नीचे से, यदि सरकार से उठने की गुहार नहीं लगाई गई तो शायद कुछ महीनों के अंतराल में फिर किसी त्रासदी की खबर सुनने को मिले.

आसमान की ओर

आहिस्ताआहिस्ता हमारा खून निकालने वालों का कद बढ़ता जा रहा था और हम छोटे होते जा रहे थे. हमारी अवस्था गुलामों जैसी होती जा रही थी, फिर भी उम्मीद की एक किरण हमें जिंदा रखे हुई थी.

मेरी यात्रा लगातार जारी है. मैं शायद किसी बस में हूं. मुझे यों प्रतीत हो रहा है. बस के भीतर बैठने की सीटें नहीं हैं. सब लोग नीचे ही बस के तले पर बैठे हैं. कुछ लोग इसी तल पर लेटे हैं. बस से बाहर जाने का कोई भी मार्ग अभी तक मुझे दिखाई नहीं दिया है और न ही किसी और कोे.

बस की दीवारों में छोटेछोटे छेद हैं, जिन में से रोशनी कभीकभी छन कर भीतर आ जाती है. जब रोशनी उन छिद्रों से बस के भीतर आती है तो उस से रोशनी की लंबीलंबी लकीरें बन जाती हैं. मेरे सहित सब लोग उसे पकड़ने की भरसक कोशिश करते हैं, लेकिन नाकाम हो जाते हैं. कोईर् भी उन को पकड़ नहीं पाया है. बहुत देर से कई लोग इस तरह की कोशिश कर चुके हैं.

बस को कौन चला रहा है, इस बात का भी अभी तक किसी को पता नहीं है. मैं कभीकभार बस के भीतर घूम लेता हूं, लेकिन यह खत्म होने को ही नहीं आती है. शायद यह बहुत लंबी है. मैं थकहार कर फिर वहीं आ बैठता हूं जहां से मैं उठ कर गया था. मेरी तरह और भी बहुत सारे लोग इस बस में घूमघूम कर फिर से वहीं आ बैठते हैं जहां से वे उठ कर जाते हैं.

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यह एक बस है और यह कई सदियों से ऐसे ही चल रही है. सच बताऊं तो, पता मुझे भी पूरी तरह से नहीं है. मैं कई बार यह समझने की कोशिश करता हूं कि यह बस है या फिर कुछ और. लेकिन सच का पता नहीं चल रहा है. अजीब किस्म का रहस्य है, जिस का पता नहीं चल रहा है.

कभीकभार कुछ लोग आते हैं और हमारा खून निकाल कर ले जाते हैं. पूछने पर कुछ नहीं बताते. जब कभी गुस्सा कर लें, तो फिर बहुत एहसान से बताते हैं कि वे लोग इस बस को चला रहे हैं. इस बस को चलाने के लिए उन को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, इस का तो उन लोगों को ही पता है. पूछें तो कहते हैं कि यह बस उन के अपने खून से चल रही है.

‘‘लेकिन खून तो आप लोग हमारा ले रहे हो?’’ हम में से कोई बोलता है.

‘‘तुम्हारा खून तो हम कभीकभार लेते हैं, बस तो हम अपने खून से ही चलाते हैं.’’

फिर जब हम अपनी ओर देखते हैं तो हम तो नुचेसिकुड़े से कमजोर से हैं और वे हट्टेकट्टे, हृष्टपुष्ट जवान. समझ कुछ भी नहीं आता है. हर समय हम लोग परेशान रहते हैं. उन की पूंछें सदैव ऊपर आसमान की तरफ तनी हुई रहती हैं और हमारी जमीन पर लटकी रहती हैं, जैसे कि इन में हड्डी ही न हो. खून लेने आने वाले लोग कुछ देर बाद बदल जाते हैं. बहुत ही एहसान से वे हमारा खून ले कर जाते हैं जैसे कि वे लोग हम पर बहुत दया कर रहे हों. हम भी इस डर से खून दे देते हैं कि कहीं हमारी बस रुक ही न जाए. पसोपेश वाली स्थिति है कि यह बस है या फिर कुछ और, और यह हमें कहां ले जा रही है.

बस चलाने वाले पूछने पर गुस्सा करते हैं, कहते हैं, ‘‘आप लोग चुप रहो, आराम से बैठो, आप को कुछ नहीं पता है. आप, बस, हमें अपना खून दो.’’

कुछ देर बाद खून लेने वाले फिर बदल जाते हैं. यह भी समझ नहीं आता कि पहले वाले लोग कहां गए. पूछने पर कोई जवाब नहीं देते हैं. बारबार पूछने पर कहते हैं, ‘‘वे पहले वाले लोग सारा का सारा खून खुद ही डकार गए हैं, खून वाली सारी टंकी खाली है. अब हम क्या करें, हमें खून चाहिए, वरना बस नहीं चलेगी.’’

हम फिर अपना हाथ खून देने के लिए उन के आगे कर देते हैं. फिर बस चलती रहती है. फिर बस की दीवारों के छेदों से रोशनी की लकीरें अंदर तक पहुंचती हैं. फिर से हम लोग उन को पकड़ने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन वे किसी के भी हाथ नहीं आतीं. सब थकहार कर फिर वहीं बैठ जाते हैं. कुछ दिनों पहले उड़ती हुई एक अफवाह आईर् थी कि बस को चलाने वाले कुछ लोग हमारे से लिए खून में से ज्यादा खून तो खुद ही पी जाते हैं और बाकी जो बच जाता है उसे बस की टंकी में डाल देते हैं. और कई बार तो वे लोग बस के पुर्जे तक खा जाते हैं.

यह तो गनीमत है कि बस के जो पुर्जे कम हो जाते हैं, वे कुछ दिनों बाद खुदबखुद ही पनप उठते हैं. बस में सफर करने वाले सब लोग भोलेभाले, ईमानदार और साफ दिल के हैं. कभीकभी वे लोग इस तरह की बातें सुन कर निराश हो जाते हैं. लेकिन कुछ समय बाद वे लोग फिर अपनेआप ही ठीक हो जाते हैं. यही आम आदमी की विशेषता है. वैसे इस के अलावा उन के पास और कोई चारा भी नहीं है. और फिर जब उन का खून ले लिया जाता है तो वे फिर अपनेआप शांत हो जाते हैं.

बस बहुत समय से ऐसे ही चल रही है. कहां जा रही है, क्यों जा रही है, यह रहस्य है जो किसी को पता नही है. कभीकभार खून लेने वाले ही कह जाते हैं कि –

‘‘बस स्वर्ग जा रही है’’

‘‘परंतु इतनी देर…’’ हम में से कोई कहता है.

‘‘धैर्य रखो, रास्ता बहुत लंबा और मुश्किल है, समय तो लगता ही है,’’ वे कहते हैं.

हम लोग फिर उन की बातें सुन कर चुप हो जाते हैं. हम यह सोचते हैं कि ये चालाक व समझदार लोग हैं, ठीक ही कहते होंगे. देखेंभालें तो न बस का चालक दिखता है, न ही कोई इंजन और न ही कोई टैंक. खून किस टंकी में पड़ता है, कहां जाता है, यह भी पता नहीं चलता है. सभी रहस्यमयी विचारों में उलझे रहते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले की बात है. कुछ लोग हमारा खून लेने के लिए आए थे. वे लोग नएनए ही लग रहे थे. वे बहुत जोशीले थे. वे बहुत ही चालाकी से बातें कर रहे थे. वे पूरे वातावरण में एक अलग तरह का उत्साह भर रहे थे. वे बहुत प्यार से हमारा खून ले रहे थे. सब ने उन की बातें सुन कर उन को बहुत ही प्यार व सम्मान सहित अपना खून दिया.

वे लोग सब को यह भरोसा दिला रहे थे कि हम लोग बहुत जल्दी स्वर्ग पहुंच जाएंगे. सब उन की बातें सुनसुन कर बहुत खुश हो रहे थे. कितनी देर से दबेकुचले हम लोग भी आखिरकार स्वर्ग को जा रहे हैं, यह सोचसोच कर बहुत खुशी हो रही थी. सब लोग मारे खुशी के उन की जयजयकार कर रहे थे.

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कुछ दिनों बाद फिर वे लोग हमारा खून लेने के लिए आए. ये पहले से कुछ जल्दी आ गए थे. उन्होंने फिर हमारे भीतर जोश भरा. हमें फिर सब्जबाग दिखाए. हमारी बांछें खिल उठीं. हम फिर मुसकराए. उन की बातों में बहुत उत्साह व जोश था. उन की बातें सुनसुन कर हमारे भीतर भी जोश आ गया. चारों ओर फिर उन की जयजयकार होने लगी. जोश ही जोश में उन्होंने हमारा खून निकालने वाले टीके निकाल लिए और हमारा खून निकालना शुरू कर दिया.

सब ने बहुत खुशीखुशी अपना खून दिया. परंतु इस बार हमारा खून निकालने वाले टीके पहले से कुछ बड़े थे. लेकिन हमारे भीतर जोश इतना भर गया था कि हमें सब पता होते हुए भी बुरा न लगा. कुछ अजीब तो लगा परंतु ज्यादा बुरा न लगा. थोड़ा सा बुरा लगा लेकिन यह तो होना ही है, ठीक है, अब बस को चलाने के लिए हमें भी तो कुछ करना ही है. सब की आस्था बस के ठीक रहने और उस के स्वर्ग तक पहुंचने की है. बस, इसी जोश और जज्बे के चलते हर कोई अपना सबकुछ न्योछावर करने को तैयार बैठा है.

अजीब बात तब हुई जब वे लोग फिर हमारे पास आए और हम से हमारी थोड़ीथोड़ी टांगों की मांग करने लगे. मतलब कि उन को हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े चाहिए थे. सब ने उन की इस मांग पर आपत्ति की. कोई भी उन को अपनी टांगें देने को तैयार नहीं था. उन को हमारी टांगें क्यों चाहिए, इस बात का किसी के पास कोई जवाब न था.

आखिर उन में से एक ने बताया कि वे लोग हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े ले कर बस में लगाएंगे ताकि बस तेजी से स्वर्ग की ओर जा सके. मेरे साथसाथ सब को बहुत बुरा लगा. सब ने फिर विरोध किया. कोई अपनी टांगों के टुकड़े देने को तैयार न था. आखिर वे लोग जोरजबरदस्ती पर उतर आए और हमारी टांगों के छोटेछोट टुकड़े उतार कर ले गए. हमारे सब के कद छोटे हो गए. आहिस्ताआहिस्ता यह परंपरा बन गई.

अब जब वे लोग हमारा खून लेने के लिए आते हैं तो वे हमारी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर ले जाते हैं. पूछने पर कहते कि बस को बहुत सारी टांगों की जरूरत है. उस में लगा रहे हैं. परंतु अजीब बात तो यह है कि हम बस में लगी अपनी टांगें देख नहीं पाते हैं क्योंकि बस में से बाहर जाने को हमारे लिए कोईर् रास्ता ही नहीं है. बस को चलाने वाले कैसे बाहर जाते हैं, हमें इस का भी कोई पता नहीं है.

हमें कभीकभी अपनी अवस्था गुलामों जैसी लगती है. लेकिन जब हम उन खून लेने वाले लोगों की बातें सुनते हैं तो हमें लगता है कि हम लोग ही सबकुछ हैं, लेकिन कई बार लगता है कि हम लोग कुछ भी नहीं है. यह भी बहुत अजीब तरह का एहसास है.

एक और अजीब बात है कि हमारे कद तो छोटे होते जा रहे हैं और हमारा खून लेने वालों के कद बड़े. हम लोग सूखते जा रहे हैं और वे लोग ताकतवर होते जा रहे हैं. हमारी पूंछें तो जमीन पर लटकती जा रही हैं और उन की तनती जा रही हैं.

अजीब बात है कि हम लोगों को लगता है कि हमारी पूंछ में कोई हड्डी ही नहीं. बस चलाने वाले अकसर यह कहते है कि वे लोग बस में हमारी टांगें लगा कर उस को रेलगाड़ी बना देंगे और अगर आप का ऐसा ही सहयोग रहा तो एक दिन रेलगाड़ी को हवाईजहाज बना देंगे. उन की बातों में बहुत ही जोश है और बहुत ही उत्साह. सब लोग उन की ऐसी बातें सुन कर बहुत ही उत्साह में आ जाते हैं. सब को उन की बातें सुन कर ऐसा लगता है कि ये लोग एक न एक दिन उन को स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. हमारी बस को रेलगाड़ी और रेलगाड़ी को एक न एक दिन हवाईजहाज जरूर बना देंगे.

इसी विश्वास के साथ हम लोग हर बार उन की मांग के अनुसार उन को खून देने के लिए अपनेआप को उन के सम्मुख कर देते हैं. अपनी टांगों के छोटेछोटे टुकड़े भी उतार कर दे देते हैं, चाहे आहिस्ताआहिस्ता हमारा खून निकालने वाले टीकों के आकार बढ़ते जा रहे हों. हमारे कद छोटे होते जा रहे हैं और उन के बड़े. उन की पूंछें आसमान की ओर तनी जा रही हैं और हमारी जमीन पर लटकती जा रही हैं. लेकिन हम तो यही सोच कर अपना सबकुछ समर्पित करते जा रहे हैं कि एक न एक दिन ये लोग हमें स्वर्ग जरूर पहुंचा देंगे. लेकिन हमारे नौजवान उन की आसमान की ओर तनी पूछें देख कर अकसर दांत पीसते नजर आते हैं.   यह भी खूब रही राम अपने कंजूस दोस्त श्याम को कथा सुनाने ले गया. दोनों जब वहां पहुंचे तो देखा कि चारों तरफ पंडाल रंगबिरंगे कपड़ों से सजा हुआ था. फूलमाला पहने कथावाचक लोगों को दानपुण्य की महिमा बता रहे थे. कहने का मतलब पूरी कथा में दानपुण्य की महिमा बताई गई थी. वापस आने के बाद राम ने पूछा, ‘‘अब तुम्हारा क्या विचार है दान देने के बारे में?’’

श्याम ने कहा, ‘‘भाई, मैं तो धन्य हो गया आज की कथा सुन कर. सोच रहा हूं, मैं भी दान मांगना शुरू कर दूं.’’ यह सुनते ही राम की बोलती बंद हो गई.

मेरा बेटा 9 महीने का था. दिसंबर का महीना होने की वजह से कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. एक दिन रात को करीब 3 बजे मेरे बेटे ने सोते समय पोटी कर दी. दांत निकल रहे थे, इसलिए पोटी पतली होने की वजह से उस के पैर भी गंदे हो गए थे.

पानी एकदम बर्फ की तरह ठंडा होेने की वजह से मैं ने बराबर में दूसरे बिस्तर पर सो रहे अपने पति को उठाया कि थोड़ा पानी गरम कर दें. जिस से मैं बेटे की पोटी साफ कर सकूं और उसे ठंड न लगे. किंतु मेरी बहुत कोशिश के बावजूद मेरे पति उठने को तैयार नहीं हुए. करवट बदल कर दूसरी तरफ मुंह कर के लिहाफ में दुबक कर सो गए.

मजबूर हो कर मैं ने बर्फ जैसे पानी से ही अपने बेटे की पोटी को साफ किया. पानी इतना ठंडा था कि मेरा बेटा बुरी तरह रो रहा था. मेरी भी उंगलियां ठंडे पानी की वजह से गली जा रही थीं. किंतु मेरे पतिदेव अब भी लिहाफ से मुंह ढक कर सो रहे थे. मैं ने जैसेतैसे बेटे को कपड़े से पोंछ कर सुखाया और लिहाफ में गरम कर के सुला दिया.

किंतु मेरी आंखों में नींद बिलकुल नहीं थी. मुझे पति पर गुस्सा आ रहा था कि उन के पानी न गरम करने की वजह से मुझे अपने बेटे को ठंडे पानी से साफ करना पड़ा और उसे परेशानी हुई.

अचानक मैं उठी और वही बर्फ जैसा पानी बालटी में ले आई. फिर गहरी नींद में सो रहे अपने पति के ऊपर उलट दिया. अब गुस्सा होने की बारी उन की थी. उन्होंने उठ कर एक जोर का चांटा मेरे गाल पर जड़ दिया. किंतु, फिर भी मैं उन को गीला करने के बाद अपने लिहाफ में चैन से सो गई.

आज उस घटना को 18 वर्ष बीत चुके, किंतु अब भी उस घटना को याद कर के हम लोग हंस पड़ते हैं.

खुशियों के पल- भाग 2

अजनबी होते हुए भी कभीकभी किसी के साथ ऐसी आत्मीयता बढ़ जाती है मानो बरसों से जानते हैं. विशाल और नीरजा कुछ इसी तरह मिले और साथ बढ़ता गया.

वे अब 5-7 दिनों पर लाइब्रेरी जाते. उन का लाइब्रेरी जाने का समय साढ़े 4 बजे होता. किताब जमा करते व नई किताब लेते 5 बज जाते.

5 बजे नीरजा अपना सामान समेट लेती. फिर वे अकसर ही बाहर कौफी पीने चले जाते. अब नीरजा उन से खूब खुल कर बात करती थी. वे भी उसे चिढ़ा देते थे. जब वे चिढ़ाते तो वह झूठे गुस्से में मुंह फुला लेती. फिर वे उसे मनाते. उस की सुंदरता के पुल बांधते. वह खिलखिला कर हंस देती. वह उन्हें अपना स्मार्ट बौयफ्रैंड कहती. वे अकसर कहते, उन की उम्र उस के बौयफ्रैंड बनने की नहीं है, तब वह नाराज हो जाती. वह कहती, यह बात दोबारा नहीं कहना. उम्र से क्या होता है. उस के स्मार्ट बौयफ्रैंड जैसा स्मार्ट कोई और हो तो बताएं.

उस ने कई बार साफ कहा था कि वे उसे बहुत अच्छे लगते हैं. वह अकसर ही उन के कंधे पर अपना सिर टिका कर आंखें मूंद लेती थी. वे मना करते, कहते, ‘लोग देख रहे हैं.’ तो वह कहती, ‘देखने दो. मुझे अच्छा लगता है.’

वे एक हाथ से ड्राइविंग करते व दूसरे हाथ से उस के बालों को हलकेहलके सहलाते रहते. उन्होंने एकाध बार उसे कोई गिफ्ट दिलाने की कोशिश की थी, पर उस ने सख्ती से मना कर दिया था. वह कहती थी, ‘‘कौफी, पैस्ट्री पकौड़ा तक ठीक है पर गिफ्ट वगैरह नो, बिग नो.’’

उन को भी शिद्दत से लगता था कि वे नीरजा के प्यार में आकंठ डूब चुके थे. जब भी उस से मिल कर आते, बेचैन हो जाते. 5-7 दिनों का इंतजार उन के लिए मुश्किल हो जाता था. पर रोज तो वे जा नहीं सकते थे. पर

यह कैसा प्यार था. अगर यह लगाव था तो यह कैसा लगाव था, भई. उन की उम्र 24 साल की लड़की से प्यार करने की नहीं थी. पत्नी थी, बेटे थे, बहुएं थीं, पोती भी थी.

प्यार तो कोई बंधन नहीं मानता. उम्र का भी नहीं शायद. पर समाज तो था. सामाजिक स्थिति तो थी. उन का एक कदम उन की सामाजिक स्थिति को खत्म कर सकता था. वे परिपक्व थे, जानते थे.

देखतेदेखते 3 महीने और गुजर गए. लाइब्रेरी का इंटरव्यू हो गया. अभिमन्यू ने इंटरव्यू संभाल लिया था. पर अपौइंटमैंट फंस गया. किसी ने कोर्ट केस कर दिया था. नीरजा के साथसाथ वे भी बहुत दुखी हुए. पर क्या किया जा सकता था. इंतजार करना था.

उस दिन वे कई दिनों बाद लाइब्रेरी गए थे. शायद 15 दिनों बाद. नीरजा इश्यू व डिपौजिट काउंटर पर बैठी थी. पर शायद उस की तबीयत ठीक नहीं थी, चेहरा कुम्हलाया हुआ था. अपना काम खत्म करतेकरते भी उसे 6 बज गए थे. वे कुरसी पर बैठे किताब पढ़ते रहे. 6 बजे वह अपना बैग ले करआ गई. उन्होंने सवालिया निगाहों से उसे देखा.

‘‘काम अधिक था,’’ उस ने धीरेधीरे कहा, ‘‘तबीयत भी ठीक नहीं लग रही थी. इसीलिए देरी हो गई, चलिए.’’

दोनों बाहर आ गए.‘‘चलो, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’’

‘‘नहीं, मुझे कौफी पीनी है.’’

‘‘श्योर, आर यू औलराइट?’’

‘‘बिलकुल. गाड़ी बढ़ाओ मिस्टर विशाल, लोग देख रहे हैं.’’

रास्तेभर वह अपना सिर उन के कंधों पर टिकाए आंखें मूंदे चुपचाप बैठी रही. हां, हूं के अलावा कोई बात नहीं की. अंबर कैफे आ गया. वेटर आ गया. तब उस ने सिर उठाया व आंखें खोलीं.

‘‘क्या लोगी, कोल्ड या हौट कौफी?’’

‘‘हौट कौफी, तुम्हारे जैसी हौट.’’

उन्होंने हौट कौफी व प्याज के पकौड़ों का और्डर दिया.‘‘अगली बार हम यहां नहीं आएंगे,’’ नीरजा ने कहा.

‘‘हां, अगली बार हम एल चाइको में चलेंगे. आराम से बैठ कर चाइनीज खाएंगे.’’

‘‘तुम अपनी बीवी से डरते हो न?’’ अचानक उस ने कहा.

‘‘वैसे तो कौन नहीं डरता. पर, मेरी बीवी ऐसी नहीं है.’’

‘‘वो तो मैं जानती हूं. वह तुम्हें खूब खुश रखती होगी. अच्छा एक बात बताओ, अगर तुम 20 साल बाद पैदा हुए होते तो?’’

‘‘तो मेरी उम्र 90 साल होती अगर मैं जिंदा होता तो.’’

‘‘नहींनहीं, अगर मैं 20 साल पहले पैदा हुई होती तो?’’

‘‘तो तुम्हारी उम्र 54 साल की होती.’’

‘‘अरे नहीं यार, उम्र का सही कौम्बिनेशन मिलाओ न.’’

‘‘मतलब, अगर हम दोनों एकाध साल के अंतर से पैदा हुए होते तो क्या होेता, यही न?’’

‘‘हां, हां. मेरा यही मतलब था. तो क्या होता?’’

‘‘होता क्या, तब हमारी मुलाकात लाइब्रेरी में नहीं होती. शायद हौस्पिटल में हो जाती.’’

वह खिलखिला कर हंस पड़ी, पर हंस न पाई. उस ने अपना पेट कस कर पकड़ लिया जैसे दर्द हो रहा हो.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, तुम्हें क्या हुआ है नीरजा?’’

‘‘कुछ नहीं. थोड़ा फीवर है. कमजोरी लग रही है?’’

‘‘चलो, आज मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं,’’ उन्होंने इशारे से वेटर को बुलाया. आज नीरजा कौफी भी आधा कप ही पी पाई थी. पकौड़े तो छुए भी न थे. लड़का बरतन ले गया.

‘‘नहीं, मैं आप को घर नहीं ले जा सकती,’’ उस ने सख्ती से कहा, ‘‘आगे ले लीजिए, अगले चौराहे से मैं औटो ले लूंगी.’’

उन्होंने बहस नहीं की व गाड़ी आगे बढ़ा ली. आगे एक पार्क का पिछला हिस्सा था जो ऊंची बाउंड्री से घिरा हुआ था. वहां कुछ अंधेरा था.

‘‘उस पेड़ के पास गाड़ी रोकिए न, प्लीज.’’

उन्होंने पार्क के पीछे स्थित पेड़ के पास गाड़ी रोक दी. वह एकटक उन के चेहरे की तरफ देख रही थी.

‘‘क्या हुआ,’’ उन्होंने धीरे से पूछा.

वह कुछ न बोली. सिर्फ उन के चेहरे पर देखती रही.

‘‘आर यू औलराइट, तुम ठीक तो हो न.’’

‘‘यू वांट टू किस मी,’’ उस ने अचानक कहा.

‘‘व्हाट?’’ उन का चेहरा भक से उड़ गया, ‘‘व्हाट रबिश यू आर टौकिंग?’’

‘‘आई नो. यू वांट टू. क्या मुझे किस करना चाहते हो?’’

‘‘नो, नैवर, हाऊ कैन यू…’’

‘‘बट, आईर् वांट टू,’’ उस ने घूम कर अपनी दोनों बांहें उन के गले में डाल दीं व अपने होंठ उन के होंठों पर रख दिए.

‘‘किस मी, किस मी, प्लीज, होल्ड मी.’’

उस ने उन्हें जोर से पकड़ रखा था. उन के हाथ अपनेआप उस की पीठ पर पहुंच गए. नीरजा ने उन का एक लंबा सा किस लिया. गाड़ी के अंदर अंधेरा था पर इंजन स्टार्ट था.

गाड़ी के बैक पर ठकठक खटखटाने की आवाज आई.

‘‘कौन है अंदर, बाहर निकलो.’’

नीरजा छिटक कर उन से अलग हो गई. उन्होंने घूम कर पीछे देखा. एक पुलिसवाला अपने डंडे से बैक पोर्शन खटखटा रहा था, ‘‘बाहर निकलो.’’

उन्होंने तुरंत गाड़ी बढ़ा दी व स्पीड ले ली. पुलिसवाला पीछे चिल्लाता ही रह गया. चौराहा पार हो गया.

‘‘यह तुम ने क्या किया?’’ आगे आ कर उन्होंने कहा, ‘‘अभी तो हम शायद बच गए. पर कितनी बड़ी मुसीबत हो जाती हम दोनों के लिए.’’

‘‘आप मैनेज कर लेते. आप पावरफुल हैं. पर आप को अच्छा नहीं लगा क्या. मुझे तो बड़ा अच्छा लगा.’’

‘‘मुझे भी अच्छा लगा, नीरजा,’’ वे यह कहने से अपने को न रोक सके, ‘‘यू आर रियली ब्यूटीफुल.’’

नीरजा के चेहरे पर बड़ी प्यारी सी मुसकराहट आई.‘‘बस, इस चौराहे पर रोक लीजिए. मैं यहीं से औटो कर लूंगी.’’

‘‘पर…’’

‘‘रोकिए न प्लीज.’’

उन्होंने गाड़ी रोक ली. नीरजा तुरंत उतर गई. ‘‘फिर मिलते हैं,’’ कहते हुए उस ने दरवाजा बंद किया व सामने ही खड़े औटो में जा बैठी. औटो आगे बढ़ गया. उन्होंने भी गाड़ी घर की तरफ घुमा ली.

अगले 10 दिनों तक उन की लाइब्रेरी जाने की हिम्मत नहीं हुई. फिर उन का एक बाहर का प्रोग्राम बन गया. उन के कार्यकाल के समय में हुई 2 अनियमितताओं की जांच चल रही थी. यह जांच उन के खिलाफ नहीं थी पर जांच अधिकारी ने उन्हें विटनैस बनाया था. जांच का कार्य मुंबई में हो रहा था. सो, उन्हें 15 दिनों के लिए मुंबई जाना था. जाने से पहले उन्हें एक बार लाइब्रेरी जाना था. किताबें वापस करनी थीं वरना देर हो जाती.

वे लाइब्रेरी पहुंचे पर नीरजा नहीं आई थी. वे निराश हो गए व किताबें वापस कर के चले आए. फिर वे मुंबई चले गए. दोनों जांच कमेटियों में अपना विटनैस का काम खत्म करने में उन्हें 20 दिन लग गए. आने के दूसरे दिन ही शाम को 4 बजे लाइब्रेरी पहुंचे.

आज भी नीरजा वहां नहीं थी. वे परेशान हो गए. उस दिन ही उस की तबीयत ठीक नहीं थी. दोएक लोगों से पूछताछ की, पर कुछ पता न चला. तब वे सीधे लाइब्रेरियन के पास पहुंच गए.

‘‘एक्सक्यूज मी,’’ उन्होंने पूछा, ‘‘मुझे आप की नीरजा नाम की ट्रेनी से कुछ काम था. मुझे पता चला है कि वह आज नहीं आई है, वह छुट्टी पर है. क्या आप बता सकती हैं कि वह कब तक छुट्टी पर है?’’

लाइब्रेरियन ने उन्हें ध्यान से देखा, ‘‘आप नीरजा के क्या लगते हैं? किस रिलेशन में हैं?’’

‘‘नहीं, रिलेशन में तो नहीं हूं पर दे आर वेल नोन टू मी.’’

‘‘आप कैसे परिचित हैं, आप को नीरजा से क्या काम है?’’

‘‘दरअसल, नीरजा ने ही अपने एक पर्सनल काम के लिए मुझ से कहा था. उसी की जानकारी उसे देनी है. नीरजा कहां है और कैसी है, मैडम?’’

‘‘नीरजा इज नौट वैल. वह बीमार है. करीब 20 दिनों से वह छुट्टी पर है. उस की एप्लीकेशन आई थी.’’

‘‘क्या, 20 दिनों से छुट्टी पर है. तब तो सीरियस बात लगती है. क्या आप ने उसे देखा है?’’

‘‘नहीं, मैं तो नहीं गई थी. पर स्टाफ  के लोग गए थे. शी इज रियली सीरियसली सिक.’’

‘‘क्या आप मुझे उस के घर का ऐड्रैस दे सकती हैं, प्लीज,’’ वे बेचैन हो गए.

‘‘मुझे मालूम नहीं है. आप औफिस से ले लें. मैं स्लिप लिख देती हूं.’’

उन्होंने स्लिप लिख कर दे दी. उन का धन्यवाद कर के वे औफिस में गए व नीरजा का पता ले लिया. हाउस नंबर 144, मीरापट्टी रोड. उन्होंने बाहर आ कर गाड़ी दौड़ा दी. मीरापट्टी रोड ज्यादा दूर नहीं थी. वे एड्रैस पर पहुंच गए. उसी के बगल में पार्किंग की जगह मिल गई. उन्होंने गाड़ी वहीं खड़ी कर दी. घर ढूंढ़ते हुए 2-3 लोगों से पूछना पड़ा. आखिरकार वे पहुंच गए. वह एक मंजिला मकान था. मकान साधारण था. उन्होंने कुंडी खटखटाई.

एक उम्रदराज महिला ने दरवाजा खोला.

‘‘कहिए?’’ उन्होंने पूछा, ‘‘किस से मिलना है?’’

‘‘जी, क्या नीरजाजी का यही मकान है?’’

‘‘जी हां, यही मकान है, कहिए?’’

‘‘दरअसल मुझे उन से मिलना है.’’

‘‘उस की तबीयत ठीक नहीं है. आप कौन हैं?’’

‘‘जी, मैं लाइब्रेरी से आया हूं. उन की तबीयत के बारे में ही जानने आया हूं.’’

‘‘आइए, अंदर आ जाइए.’’

अंदर का कमरा ड्राइंगरूम था. कमरा बड़ा नहीं था. फर्नीचर थोड़े से ही थे पर ढंग से लगे थे. वे एक कुरसी पर बैठ गए. महिला को चलने में परेशानी हो रही थी. उन महिला ने दरवाजा खुला रहने दिया, पर परदा खींच दिया. फिर आ कर दूसरी कुरसी पर बैठ गईं.

‘‘मैं नीरजा की मां हूं. नीरजा का भाई दवा लाने गया है.’’

‘‘अब कैसा हाल है नीरजा का?’’

‘‘हालत ठीक नहीं है. लाइब्रेरी से सुमनजी आईर् थीं. तब तो नीरजा ने उन से बात भी की थी. अब वह सो रही है. सुमन ने तो उस के बारे में बताया ही होगा.’’

‘‘मैं बाहर गया हुआ था. आज ही लौटा, तो लाइब्रेरियन मैडम ने नीरजा के बारे में बताया. मैं ने सोचा, मैं भी नीरजा को देख आऊं. क्या हुआ है नीरजा को?’’

‘‘नीरजा को कैंसर है, ब्लडकैंसर.’’

‘‘क्या?’’ उन का सिर घूम गया. उन्हें लगा कि जैसे पूरा कमरा घूम रहा है, ‘‘पा…पानी…पानी मिलेगा क्या?’’

नीरजा की मां ने उन्हें पानी दिया. पानी पी कर वे जरा संभले.

‘‘क्या कह रही हैं आप, कैंसर क्या ऐसे होता है. अभी कुछ दिनों पहले ही तो मैं उन से मिला था. एकदम ठीकठाक थीं. कहीं कोई गलती तो नहीं हुई है?’’

‘‘गलती कैसी साहब. इस का पता तो 6 महीने पहले ही चल गया था. कितना रुपया इस के इलाज में खर्चा हो गया. अब तो यही लगता है कि किसी तरह से इसे आराम मिले. बड़ी तकलीफ है इसे. नींद की गोली दे कर सुलाया जाता है,’’ वे रो पड़ीं.

‘‘डाक्टर क्या कह रहा है?’’

‘‘अब डाक्टर कुछ नहीं कह रहे हैं. कहते हैं कभी भी कुछ भी हो सकता है.’’

‘पर इस में तो बोनमैरो वगैरह…

‘‘हो चुका है. 2 बार हुआ है. तभी तो लाइब्रेरी वालों ने मदद की थी. अब नहीं हो सकता है.’’

नीरजा की मां चुप हो गईं. वे भी चुप रहे. उन की समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या कहें. आखिर वे बोले, ‘‘क्या मैं एक बार नीरजा को देख सकता हूं? मैं उसे बिलकुल भी डिस्टर्ब नहीं करूंगा.’’

2 लमहे वे उन्हें देखती रहीं, फिर बोलीं, ‘‘आइए.’’

वे उन्हें ले कर अंदर के कमरे में गईं. उन का जी धक से रह गया. सीने तक चादर ओढ़े नीरजा सो रही थी. पर यह जैसे वह वाली नीरजा नहीं थी. उस का गोरा गुलाबी चेहरा सांवला लग रहा था. चादर से निकले उस के हाथ स्किनी लग रहे थे. माथा उभरा हुआ व काफी चौड़ा लग रहा था.

‘‘बहुत कमजोर हो गई है साहब.’’ उस की मां ने फुसफुसा कर कहा. वे ज्यादा देर तक खड़े न रह सके, बाहर आ गए. पर्स निकाल कर देखा. करीब 10 हजार रुपए थे. निकाल कर नीरजा की मां की तरफ बढ़ाए. उन्होंने सवालिया निगाहों से उन्हें देखा.

‘‘लाइब्रेरी से हैं. मैं कल सुबह फिर आऊंगा. तब और रुपयों का इंतजाम हो जाएगा. सरकारी मदद है. उस का अच्छे से अच्छा इलाज होगा. वह बच जाएगी. अब मैं चलता हूं, कल फिर आऊंगा,’’ वे किसी तरह से अपनेआप को जब्त किए रहे.

बाहर निकल कर किस तरह से वे अपनी कार तक पहुंचे, उन्हें नहीं मालूम. कार में बैठते ही स्टियरिंग पर सिर टिका कर वे बेआवाज फफक पड़े. उन की नीरजा खो गई थी. इन बीते दिनों की उन की गैरहाजिरी ने उन से उन की नीरजा छीन ली थी. पर वे ऐसे हार नहीं मानेंगे. शहर के बड़े से बड़े डाक्टर को ला कर खड़ा कर देंगे. वे नीरजा को ऐसे नहीं मरने देंगे. डाक्टर मित्रा शहर के सब से बड़े कैंसर स्पैशलिस्ट हैं. उन को ले कर आएंगे. कोई तो रास्ता होगा, कोई तो रास्ता निकलेगा.

उन्होंने झटके से सिर उठाया व आंसुओं को पोंछ डाला. दूसरे दिन वे पहले बैंक गए, 50 हजार रुपए निकाले. फिर वे डाक्टर मित्रा के पास खुद गए. उन्होंने दिन में एक बजे विजिट का वादा किया. उस के बाद वे 144, मीरा?पट्टी रोड चले गए.

घर पर ताला लटक रहा था. वे सन्न रह गए. अगलबगल से पता करने पर पता चला कि सब नीरजा को ले कर ज्यूड हौस्पिटल गए हुए हैं. वे बदहवास गाड़ी चला कर ज्यूड हौस्पिटल पहुंचे. काउंटर पर पता चला नीरजा आईसीयू में है. आईसीयू के बाहर ही नीरजा की मां बैठी धीरेधीरे रो रही थीं. उन की बगल में ही एक 13-14 वर्ष का नीरजा की शक्ल जैसा लड़का बैठा था. वह नीरजा का भाई होगा. वे जा कर नीरजा की मां की बगल में खड़े हो गए. उन्हें देखते ही नीरजा की मां जोर से रो पड़ीं.

‘‘आप के जाने के बाद जब नीरजा जागी तो मैं ने उसे बताया कि विशाल आए थे. आप का नाम सुनते ही जैसे वह खिल गई, मुसकराई भी थी. मुझे लगा कि वह कुछ ठीक हो रही है. पर उस के बाद उस की तबीयत बिगड़ गई. थोड़ीथोड़ी देर में 2 उलटियां हुईं. उलटी में खून था साहब. बगल के डाक्टर प्रकाश को मेरा बेटा बुला लाया. नीरजा बेहोश हो गई थी. उन्होंने उसे तुरंत अस्पताल ले जाने को कहा. उन्होंने ही एंबुलैंस भी बुला दिया. यहां डाक्टरों ने जवाब दे दिया है.’’

तभी अंदर से नर्स आई, ‘‘यहां मिस्टर विशाल कौन हैं?’’

‘‘जी, मैं हूं,’’ उन्होंने कहा.

‘‘पेशेंट को होश आ गया है. बट शी इज वैरी क्रिटिकल ऐंड वीक. कई बार आप का नाम ले चुकी है. आइए, पर ज्यादा बात नहीं कीजिएगा. शी विल नौट होल्ड. आइए, इधर से आ जाइए.’’

वे आईसीयू के अंदर आ गए. नर्स उन्हें नीरजा के बैड तक ले गई. नीरजा गले तक सफेद चादर ओढ़े लेटी थी. उस की हिरनी जैसी बड़ीबड़ी आंखें पूरी खुली थीं. उन्हें देखते ही उस के होंठों पर मुसकराइट व आंखों में चमक आ गई. नर्स ने अपने होेंठों पर उंगली रख कर उन्हें इशारा किया.

‘‘हैलो स्मार्टी,’’ उस ने चादर से अपना हाथ निकाल कर उन का हाथ पकड़ लिया. उस की आवाज साफ थी, ‘‘बड़ी देर कर दी आतेआते?’’

वे खड़े, उसे चुपचाप देखते रहे.

‘‘मुझ से बेहद नाराज हैं न मेरे दोस्त. इसीलिए न कि मैं ने पहले क्यों नहीं बताया. पर अगर मैं पहले बता देती तो मुझे मेरा स्मार्टी बौयफ्रैंड शायद नहीं मिलता. सही है न.’’

इतना बोलने में ही उस के माथे पर पसीने की एकदो बूंदें आ गईं. उन्होंने पास पड़ा स्टूल खींच लिया व उस के पास ही बैठ गए, जिस से उसे बोलने में जोर न लगाना पड़े.

‘‘नहीं,’’ मैं तुम से नाराज नहीं हूं,’’ उन्होंने धीरे से कहा, ‘‘पर मैं तुम से बहुतबहुत नाराज हूं. अगर तुम समय से मुझे बता देतीं तो मैं हिंदुस्तान के बडे़ से बड़े डाक्टर से तुम्हारा इलाज करा कर तुम्हें बचा लेता.’’

‘‘नहीं विशाल, मैं जानती थी इस का कोई इलाज नहीं था. आप नाराज मत होइए, मैं जानती हूं मैं आप को

मना लूंगी माई डियर फ्रैंड. पर मुझे आप से माफी मांगनी है, मुझे माफ कर दीजिए प्लीज.’’

‘‘पर किसलिए? तुम किसलिए माफी मांग रही हो नीरजा?’’

‘‘मैं जीना चाहती थी. इसलिए मेरे पास जितना भी वक्त था मैं उसे जीना चाहती थी. खुशीखुशी जीना चाहतीथी. इसीलिए मैं ने आप का कुछ चुरा लिया था.’’

‘‘चुरा लिया था, पर तुम ने मेरा क्या चुरा लिया था?’’

‘‘मैं ने आप के शांत जीवन से अपने लिए कुछ खुशियों के पल चुरा लिए थे, मिस्टर विशाल. आप के पूरे जीवन के लिए एक बड़ा सा शून्य छोड़ दिया है. आई एम सौरी सर. मुझे माफ कर दीजिए सर.’’

‘‘माफी की कोई बात है ही नहीं नीरजा, क्योंकि मैं कभी भी तुम से नाराज हो ही नहीं सकता. अब मैं समझ गया. मेरी नीरजा बहुतबहुत बहादुर है, वैरी ब्रेव.’’

‘‘इसीलिए मैं आप को अपने घर नहीं ले जा सकती थी. अगर आप मम्मी से मिलते, तो मम्मी आप को सबकुछ सचसच बता देतीं. अच्छा, एक बात बताइए?’’

‘‘पूछो नीरजा, कुछ भी पूछो?’’

‘‘मैं ने बीसियों बार आप को माई स्मार्ट बौयफ्रैंड कहा है. कहा है न, बताइए?’’

‘‘बिलकुल कहा है.’’

‘‘पर आप ने एक बार भी मुझे माई गर्लफ्रैंड नहीं कहा है. कहा है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो कहिए न प्लीज. मैं सुन रही हूं. मैं इस पल को भी जीना चाहती हूं.’’

उन्होंने उस की हथेली अपने हाथों में ले ली व भरे गले से कहा, ‘‘दिस इज फैक्ट नीरजा. यू आर माई

स्वीट लिटिल गर्लफ्रैंड ऐंड आई लव यू वैरीवैरी मच.’’उस ने उन की हथेली को चूम लिया.

नीरजा की आंखें मुंदने लगीं. जबान लड़खड़ाने लगी. नर्स जो नर्सिंग काउंटर से देख रही थी, तुरंत आई.‘‘आप प्लीज तुरंत बाहर जाइए. सिस्टर डाक्टर को कौल करो, अर्जेंट.’’

वे धीरेधीरे बाहर आ कर किनारे पड़ी बैंच पर बैठ गए.

डाक्टर मित्रा के आने की नौबत नहीं आने पाई. उस के पहले ही नीरजा ने आखिरी सांस ले ली.

नीरजा का जिस्म पहले घर लाया गया. वे अंतिम संस्कार तक रुके. गाड़ी घर की तरफ मोड़ते समय उन के कानों में नीरजा के आखिरी शब्द गूंजते रहे, ‘मैं ने आप के शांत जीवन से अपने लिए खुशियों के कुछ पल चुरा लिए हैं.’

‘तुम ने मेरे जीवन में शून्य नहीं छोड़ा है नीरजा,’ वे बुदबुदा पड़े, ‘मेरे जीवन के किसी खाली कोने में अपनी मुसकराहटों व खिलखिलाहटों के रंग भी भरे हैं. मैं तुम्हें माफ नहीं कर सकता, कभी नहीं.

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