देश के किसी भी हिस्से में जाएं तो चौड़ी, चिकनी सड़कों के किनारे जैसे ही कोई छोटा शहर, कसबा या गांव आता है, वहां पर बहुत सारी चीजें बिकती नजर आती हैं. इन में ज्यादातर हिस्सा उन चीजों का होता है, जो वहां के लोकल यानी स्थानीय फल या खानेपीने की होती हैं. भुने हुए आलू, शकरकंद, नारियल पानी, मेवा और दूसरी बहुत सी चीजें यहां मिल जाती हैं. यहां बात बेचने वाली औरतों से जुड़ी हैं. ये औरतें इस तरह के काम कर के अपने घर का खर्च चलाती हैं.
सड़क किनारे दुकान चलाने के साथ ही साथ ये औरतें अपने छोटेछोटे बच्चों को संभाल रही होती हैं. इन के पति अपने गांवघर से दूर किसी दूर शहर में नौकरी करने गए होते हैं.
लखनऊउन्नाव हाईवे के किनारे अजगैन कसबे के पास अमरूद बेच रही रेहाना बताती है, ‘‘हम रोज 20 से 30 किलो अमरूद सीजन में बेच लेते हैं. 5 से 7 रुपए किलो की बचत भी हो गई तो कुछ घंटों में 150 से 200 रुपए की कमाई हो जाती है.
‘‘सीजन के हिसाब से हम अपने सामान को बदल देते हैं. ऐसे में रोज का खर्च हमारी कमाई से चलता है और जो पैसा पति बाहर कमा रहे हैं वह किसी बड़े काम के लिए जमा हो जाता है.’’
मिल कर संभाल रहे घर
भोजपुर गांव की रहने वाली सितारा देवी के पास गांव में खेती करने के लिए 3 बीघा जमीन थी. घरपरिवार बड़ा हो गया था. सितारा के 3 बेटियां और 2 बेटे थे. इन का खर्च चलाना आसान नहीं था. पति सुरेश भी परेशान रहता था.
भोजपुर गांव का ही रहने वाला प्रदीप मुंबई में कपड़ों की धुलाई का काम करता था. वह सुरेश से मुंबई चलने के लिए कहने लगा.
सुरेश बोला, ‘‘मैं मुंबई कैसे चल सकता हूं. घरपरिवार किस के भरोसे छोड़ कर जाऊं? पत्नी घरपरिवार और बच्चों को अकेले कैसे संभाल पाएगी?’’
यह बात सुरेश की पत्नी सितारा भी सुन रही थी. वह भी सोचती थी कि अगर सुरेश पैसा कमाने घर से बाहर चला जाए तो घरपरिवार का खर्च आसानी से चल जाएगा.
सुरेश और प्रदीप की बातें सुन कर सितारा को लगा कि पति मुंबई इसलिए नहीं जा रहा क्योंकि पत्नी घर का बोझ कैसे उठा पाएगी.
वह बोली, ‘‘तुम घरपरिवार की चिंता मत करो. उस को मैं संभाल लूंगी. तुम बाहर से चार पैसा कमा कर लाओगे तो घर का खर्च चलाना और भी आसान हो जाएगा.’’
सितारा के हिम्मत बंधाने के बाद सुरेश ने मुंबई जा कर पैसा कमाने का फैसला कर लिया. कुछ ही सालों के बाद दोनों की घर गृहस्थी खुशहाल हो गई.
सुरेश सालभर में एक महीने की छुट्टी ले कर घर आता था तो एकमुश्त पैसा ले कर आता था. इतना पैसा गांव की खेती में कभी नहीं बच सकता था.
गांव के लोगों ने कहना शुरू किया कि सुरेश की कमाई से उस का घरपरिवार सुधर गया तो खुद सुरेश कहता था, ‘‘मेरे घर की खुशहाली में मुझ से ज्यादा मेरी पत्नी सितारा का हाथ है. अगर उस ने हमारे घरपरिवार, खेती को नहीं संभाला होता तो मेरे अकेले की कमाई से क्या हो सकता था.’’
अब सुरेश और सितारा के साथ उन के बच्चे भी खुश थे. बड़ा बेटा भी कुछ सालों में सुरेश के साथ मुंबई कमाई करने चला गया.
परसपुर गांव की रहने वाली हमीदा का पति गांव में कपड़ों की बुनाई का काम करता था. इस के बाद भी उस को इतना पैसा नहीं मिलता था कि घरपरिवार ठीक से चल सके.
हमीदा के मायके में कुछ लोग कपड़ों की बुनाई का काम करने सूरत जाते थे. वहां उन को अच्छा पैसा मिल जाता था.
हमीदा ने अपने पति रहमान से भी सूरत जाने के लिए कहा तो वह कहने लगा, ‘‘मैं सूरत जा तो सकता हूं, पर तुम यहां घर पर अकेले कैसे रहोगी? बूढ़े मांबाप भी हैं.’’
हमीदा बोली, ‘‘तुम हम लोगों की चिंता मत करो. यहां घर की जिम्मेदारी मुझ पर है. तुम केवल परदेस जाओ. जितनी मेहनत तुम यहां करते हो, उतनी मेहनत वहां भी करोगे तो अच्छा पैसा मिल जाएगा जिस से हमारा घरपरिवार सही से रह सकेगा. मांबाप का इलाज भी हो सकेगा.’’
रहमान सूरत चला गया. वहां उस ने मेहनत से कपड़ों की बुनाई का काम किया. मिल का मालिक भी खुश हो गया. उस ने एक साल में ही रहमान की तनख्वाह बढ़ा दी.
रहमान को रहने के लिए मिल में ही जगह दे दी जिस से रहने पर होने वाला खर्च बच गया. इस से रहमान की कमाई में बरकत दिखने लगी. घर वाले भी सही से रहने लगे. मांबाप का इलाज भी शहर के डाक्टरों से होने लगा.
रहमान कहता है, ‘‘यह कमाई उस की नहीं है. इस में पत्नी का भी पूरा सहयोग रहा है. अगर पत्नी ने घरपरिवार की जिम्मेदारी नहीं संभाली होती तो में कमाई करने कभी सूरत नहीं जा पाता.’’
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पत्नी बनी सहयोगी
सुरेश और रहमान दोनों का कहना है कि उन की नजर में पत्नी उन की सहयोगी है. इन दोनों के सहयोग से ही घर की गृहस्थी की गाड़ी सही तरह से चलती है. घर में रह कर कुछ पत्नियां अपने हुनर का इस्तेमाल कर के खुद भी कमाई करती हैं और अपने घर को माली सहयोग करने लगती हैं.
मानिकपुर गांव का इकबाल जब कमाने के लिए दिल्ली चला गया तो उस की पत्नी शोभा ने न केवल घर के काम किए, खेती कराई, बल्कि उस ने ठेके पर कपड़े ले कर साड़ी वगैरह में तार की कढ़ाई करने का काम शुरू कर दिया.
एक साड़ी की कढ़ाई करने में शोभा को 10 दिन का समय लगता था. वह हर रोज 2 घंटे इस काम को करती थी. इस के बदले उस को 500 रुपए मिल जाते थे. इस तरह महीने में 50 से 60 घंटे काम कर के शोभा को 1,500 से 2,000 रुपए के बीच पैसे मिलने लगे.
शोभा ने यह पैसे गांव में बने डाकघर में जमा करने शुरू किए. कुछ ही सालों के अंदर शोभा ने खुद अपनी कमाई से हजारों रुपए जुटा लिए.
बीए करने वाली बिन्नो की शादी टूसरपुर गांव में हुई थी. बिन्नो पढ़नेलिखने में बहुत तेज थी. वह नौकरी करना चाहती थी, पर उस को नौकरी नहीं मिली. उस के गांव में ‘शिक्षा मित्र’ की जगह निकली तो गांव के बड़े लोगों ने उस के बजाय दूसरी औरत को नौकरी पर रखवा दिया.
बिन्नो का पति दीपक भी बेरोजगार था. वह कमाने के लिए दिल्ली चला गया. इधर बिन्नो ने गांव के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम शुरू कर दिया.
शुरुआत में तो गांव के लोगों ने बिन्नो के पास पढ़ने के लिए बच्चे भेजने में आनाकानी की. बिन्नो का घर 2 गांव के बीच था. उस ने दूसरे गांव के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया.
बिन्नो इन बच्चों से 20 रुपए महीना फीस लेती थी. दोनों गांव के बच्चे एक ही सरकारी स्कूल में पढ़ते थे. उस स्कूल में जब छमाही इम्तिहान हुए तो वे बच्चे पढ़ाई में आगे निकल गए जिन को बिन्नो ट्यूशन पढ़ाती थी. इस के बाद तो बिन्नो के पास ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों की तादाद काफी बढ़ गई.
इस तरह घर बैठ कर बिन्नो ने पति का काम भी संभाल लिया और ट्यूशन के जरीए पैसा कमा कर माली मदद भी कर दी.
काम आई समझदारी
बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी ने गांव के हालात को बहुत खराब कर दिया है. गांव में रहने वाले बहुत से लोगों के पास खेती करने के लिए जमीन नहीं है. जिन के पास थोड़ीबहुत जमीन है, उन को भी उस से कोई लाभ नहीं मिलता. उन की सारी कमाई दो जून की रोटी का ही इंतजाम करने में खर्च हो जाती है.
बहुत से लोग गांव में ही रह कर मेहनतमजदूरी करते हैं लेकिन उन को वहां ठीक से पैसा नहीं मिलता है. इसके लिए गांव में रहने वाले तमाम लोग कमाई करने शहरों की ओर जाते हैं. गांव में उन की पत्नी और बच्चे रह जाते हैं.
समझदार पत्नियां गांव में रहते हुए अपना घर भी संभाल लेती हैं और कुछ न कुछ काम कर के पैसा जुटाने की कोशिश में लगी रहती हैं.
गांव की ये महिलाएं सिलाई, बुनाई, कढ़ाई जैसे काम करती हैं. कुछ पढ़ीलिखी औरतें बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करती हैं. वहीं दालमोंठ, अचार, पापड़, सेंवई, माचिस, मोमबत्ती, अगरबत्ती जैसे सामान ठेके पर बनाने का काम भी करती हैं जिस से उन की अच्छीखासी कमाई हो जाती है. आसपास के बाजारों में पता करने से इस तरह के कामों का पता चल जाता है. पत्रपत्रिकाओं के पढ़ने, टैलीविजन और रेडियो के कार्यक्रमों को सुनने से इस तरह की तमाम जानकारियां हासिल हो जाती हैं.
कोशिश यह करें कि लड़कियों को पढ़ाएं जिस से जब वे अपनी गृहस्थी शुरू करें तो कुछ न कुछ काम करने का हुनर उन को पता हो.
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आसान नहीं रास्ते
गांव में अकेली रह रही औरतों के लिए परेशानियां भी कम नहीं हैं. जोठरा गांव की रहने वाली प्रेमा का पति हरखू मुंबई में काम करने चला गया था. प्रेमा गांव में अकेली रहती थी. प्रेमा के साथ उस की बीमार सास भी रहती थी, जिस को दिखाई भी नहीं देता था.
प्रेमा का 2 साल का एक बेटा भी था. वह जंगल में तेंदूपत्ता तोड़ने और मजदूरी का काम करती थी. जब वह मजदूरी करने जाती थी तो अपने बेटे के पांव में रस्सी बांध देती थी जिस से वह बच्चा पास के बने कुएं तक न जा सके.
प्रेमा कहती है कि वह यह काम मजबूरी में करती है. अगर बच्चा सास के सहारे छोड़ जाए तो उन को दिखाई नहीं देता है. बच्चा दूर जा सकता है. कभी कोई हादसा हो सकता है. अगर वह बच्चे को ले कर मजदूरी करने जाती है तो वहां भी वह परेशान करता है.
इस तरह की तमाम परेशानियां और भी हैं. गांव में रहने वालों की सब से बड़ी परेशानी यह है कि वह किसी दूसरे की तरक्की को देख कर सहज नहीं रहते. जब कोई औरत आगे बढ़ती है तो उस पर तमाम तरह के लांछन भी लगने लगते हैं.
अकेली औरत के दामन पर दाग लगाना आसान होता है इसलिए गांव के लोग औरतों को बदनाम भी करते हैं. कभीकभी अगर पतिपत्नी समझदारी से काम नहीं करते तो उन के बीच झगड़ा भी हो जाता है इसलिए जब कभी इस तरह की गलतफहमी हो तो समझदारी से काम लें.
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