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और दीप जल उठे : भाग 1

ट्रिनट्रिन…फोन की घंटी बजते ही हम फोन की तरफ झपट पड़े. फोन पति ने उठाया. दूसरी ओर से भाईसाहब बात कर रहे थे. रिसीवर उठाए राजेश खामोशी से बात सुन रहे थे. अचानक भयमिश्रित स्वर में बोले, ‘‘कैंसर…’’ इस के बाद रिसीवर उन के हाथ में ही रह गया, वे पस्त हो सोफे पर बैठ गए. तो वही हुआ जिस का डर था. मां को कैंसर है. नहीं, नहीं, यह कोई बुरा सपना है. ऐसा कैसे हो सकता है? वे तो एकदम स्वस्थ थीं. उन्हें कैंसर हो ही नहीं सकता. एक मिनट में ही दिमाग में न जाने कैसेकैसे विचार तूफान मचाने लगे थे. 2 दिनों से जिन रिपोर्टों के परिणाम का इंतजार था आज अचानक ही वह काला सच बन कर सामने आ चुका था.

‘‘अब क्या होगा?’’ नैराश्य के स्वर में राजेश के मुंह से बोल फूटे. विचारों के भंवर से निकल कर मैं भी जैसे यह सुन कर अंदर ही अंदर सहम गई. ‘भाईसाहब से क्या बात हुई,’ यह जानने की उत्सुकता थी. औचक मैं चिल्ला पड़ी, ‘‘क्या हुआ मां को?’’ बच्चे भी यह सुन कर पास आ गए. राजेश का गला सूख गया. उन के मुंह से अब आवाज नहीं निकल रही थी. मैं दौड़ कर रसोई से एक गिलास पानी लाई और उन की पीठ सहलाते, उन्हें सांत्वना देते हुए पानी का गिलास उन्हें थमा दिया. पानी पी कर वे संयत होने का प्रयास करते हुए धीमी आवाज में बोले, ‘‘अरुणा, मां की जांच रिपोर्ट्स आ गई हैं. मां को स्तन कैंसर है,’’ कहते हुए वे फफकफफक कर बच्चों की तरह रोने लगे. हम सभी किंकर्तव्यविमूढ़ उन की तरफ देख रहे थे. किसी के भी मुंह से आवाज नहीं निकली. वातावरण में एक सन्नाटा पसर गया था. अब क्या होगा? इस प्रश्न ने सभी की बुद्धि पर मानो ताला जड़ दिया था. राजेश को रोते हुए देख कर ऐसा लगा, मानो सबकुछ बिखर गया है. मेरा घरपरिवार मानो किसी ऐसी भंवर में फंस गया जिस का कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.

मैं खुद को संयत करते हुए राजेश से बोली, ‘‘चुप हो जाओ राजेश. तुम्हें इस तरह मैं हिम्मत नहीं हारने दूंगी. संभालो अपनेआप को. देखो, बच्चे भी तुम्हें रोता देख कर रोने लगे हैं. तुम इतने कमजोर कैसे हो सकते हो? अभी तो हमारे संघर्ष की शुरुआत हुई है. अभी तो आप को मां और पूरे परिवार को संभालना है. ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जो ठीक न किया जा सके. हम मां को यहां बुलाएंगे और उन का इलाज करवाएंगे. मैं ने पढ़ा है, स्तन कैंसर इलाज से पूरी तरह ठीक हो सकता है.’’

मेरी बातों का जैसे राजेश पर असर हुआ और वे कुछ संयत नजर आने लगे. सभी को सुला कर रात में जब मैं बिस्तर पर लेटी तो जैसे नींद आंखों से कोसों दूर हो गई हो. राजेश को तो संभाल लिया पर खुद मेरा मन चिंताओं के घने अंधेरे में उलझ चुका था. मन रहरह कर पुरानी बातें याद कर रहा था. 10 वर्ष पहले जब शादी कर मैं इस घर में आई थी तो लगा ही नहीं कि किसी दूसरे परिवार में आई हूं. लगा जैसे मैं तो वर्षों से यहीं रह रही थी. माताजी का स्नेहिल और शांत मुखमंडल जैसे हर समय मुझे अपनी मां का एहसास करा रहा था. पूरे घर में जैसे उन की ही शांत छवि समाई हुई थी. जैसा शांत उन का स्वभाव, वैसा ही उन का नाम भी शांति था. वे स्कूल में अध्यापिका थीं.

स्कूल के साथसाथ घर को भी मां ने जिस निपुणता से संभाला हुआ था, लगता था उन के पास कोई जादू की छड़ी है जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देती है. घर के सभी सदस्य और दूरदूर तक रिश्तेदार उन की स्नेहिल डोर से सहज ही बंधे थे. घर में ससुरजी, भाईसाहब, भाभी और दीदी में भी मुझे उन के ही गुणों की छाया नजर आती थी. लगता था मम्मीजी के साथ रहतेरहते सभी उन्हीं के जैसे स्वभाव के हो गए हैं.

इन सारी मधुर स्मृतियों को याद करतेकरते मुझे वह क्षण भी याद आया जब राजेश का तबादला जयपुर हुआ था. मम्मीजी ने एक मिनट भी नहीं सोचा और तुरंत मुझे भी राजेश के साथ ही जयपुर भेज दिया. खुद वे मेरी गृहस्थी जमाने वहां आई थीं और सबकुछ ठीक कर के एक सप्ताह बाद ही लौट गई थीं. यह सब सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. अचानक सवेरे दूध वाले भैया ने दरवाजे की घंटी बजाई तो आवाज सुन कर हड़बड़ा कर मेरी आंख खुली. देखा साढ़े 6 बज चुके थे.

‘अरे, बच्चों को स्कूल के लिए कहीं देर न हो जाए,’ सोचते हुए झपपट पहले दूध लिया. दोनों को तैयार कर के स्कूल भेजतेभेजते दिमाग ने एक निर्णय ले लिया था. राजेश की चाय बना कर उन्हें उठाते हुए मैं ने अपने निर्णय से उन्हें अवगत करा दिया. मेरे निर्णय से राजेश भी सहमत थे. राजेश ने भाईसाहब को फोन किया, ‘‘आप मां को ले कर आज ही जयपुर आ जाइए. हम मां का इलाज यहीं करवाएंगे, लेकिन आप मां को उन की बीमारी के बारे में कुछ भी मत बताना. और हां, कैसे भी उन्हें यहां ले आइए.’’ भाईसाहब भी राजेश से बात कर के थोड़ा सहज हो गए थे और उसी दिन ढाई बजे की बस से रवाना होने को कह दिया.

‘राजेश के साथ पारिवारिक डाक्टर रवि के यहां हो आते हैं,’ मैं ने सोचा, फिर राजेश से बात की. वे राजेश के बहुत अच्छे मित्र भी हैं. हम दोनों को अचानक आया देख कर वे चौंक गए. जब हम ने उन्हें अपने आने का कारण बताया तो उन्होंने हमें महावीर कैंसर अस्पताल जाने की सलाह दी. उसी समय उन्होंने वहां अपने कैंसर स्पैशलिस्ट मित्र डा. हेमंत से फोन कर के दोपहर का अपौइंटमैंट ले लिया. डा. हेमंत से मिल कर कुछ सुकून मिला. उन्होंने बताया कि स्तन कैंसर से डरने की कोई बात नहीं है. आजकल तो यह पूरी तरह से ठीक हो जाता है. आप सब से पहले मुझे यह बताइए कि माताजी की यह समस्या कब सामने आई?

मैं ने बताया कि एक सप्ताह पहले माताजी ने झिझकते हुए मुझे अपने एक स्तन में गांठ होने की बात कही थी तो अंदर ही अंदर मैं डर गई थी. लेकिन मैं ने उन से कहा कि मम्मीजी, आप चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा. जब 4-5 दिनों में वह गांठ कुछ ज्यादा ही उभर कर सामने आई तो मम्मीजी चिंतित हो गईं और उन की चिंता दूर करने के लिए भाईसाहब उन्हें दिखाने एक डाक्टर के पास ले गए. जब डाक्टर ने सभी जांच रिपोर्ट्स देखीं तो कैंसर की पुष्टि की.

सब सुनने के बाद डा. हेमंत ने भी कहा, ‘‘आप तुरंत माताजी को यहां ले आएं.’’ मैं ने उन्हें बता दिया कि वे आज शाम को ही यहां पहुंच रही हैं. डा. हेमंत ने अगले दिन सुबह आने का समय दे दिया. राहत की सांस ले कर हम घर चले आए.

रात साढ़े 8 बजे मम्मीजी भाईसाहब के साथ जयपुर पहुंच गईं. राजेश गाड़ी से उन्हें घर ले आए. आते ही मम्मीजी ने पूछा कि क्या हो गया है उन्हें? तुम ने यहां क्यों बुला लिया? मम्मीजी की बात सुन कर मैं ने सहज ही कहा, ‘‘मम्मीजी, ऐसा कुछ नहीं है. बच्चे आप को याद कर रहे थे और आप की गांठ की बात सुन कर राजेश भी कुछ विचलित हो गए थे, इसलिए मैं ने सामान्य चैकअप के लिए आप को यहां बुला लिया है. आप चिंता न करें, आप बिलकुल ठीक हैं.’’ मेरी बात सुन कर मम्मीजी सहज हो गईं. तभी बच्चों को चुप देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘अरे, नीटूचीनू तुम दूर क्यों खड़े हो? यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्याक्या लाई हूं.’’ बच्चे भी दादी को हंसते हुए देख दौड़ कर उन से लिपट पड़े. ‘‘दादीमां, आप कितने दिनों बाद यहां आई हो. अब हम आप को यहां से कभी भी जाने नहीं देंगे.’’ बच्चों के सहज स्नेह से अभिभूत मम्मीजी उन को अपने लाए खिलौने दिखाने में व्यस्त हो गईं, तो मैं रसोई में उन के लिए चाय बनाने चली गई. इसी बीच राजेश ने भाईसाहब को डा. हेमंत से हुई बातचीत बता दी. अगले दिन सुबह जल्दी तैयार हो कर मम्मीजी राजेश और भाईसाहब के साथ अस्पताल चली गईं.

कैंसर अस्पताल का बोर्ड देख कर मम्मी चौंकी थीं, पर राजेश ने होशियारी बरतते हुए कहा, ‘‘आप पढि़ए, यहां पर लिखा है, ‘भगवान महावीर कैंसर ऐंड रिसर्च इंस्टिट्यूट.’ कैंसर के इलाज के साथ जांचों के लिए यही बड़ा केंद्र है.’’ मां यह बात सुन कर चुप हो गई थीं. अगले 2 दिन जांचों में ही चले गए. इस दौरान उन्हें कुछ शंका हुई, वे बारबार मुझ से पूछतीं, ‘‘तुम ही बताओ, आखिर मुझे हुआ क्या है? ये दोनों भाई तो कुछ बताते नहीं. तुम तो कुछ बताओ. तुम्हें तो सब पता होगा?’’ मैं सहज रूप से कहती, ‘‘अरे, मम्मीजी, आप को कुछ नहीं हुआ है. यह स्तन की साधारण सी गांठ है, जिसे निकलवाना है. डाक्टर छोटी सी सर्जरी करेंगे और आप एकदम ठीक हो जाओगी.’’

एक सवाल : भाग 2

यह बात समीर को चुभ गई थी. उस ने तो घोटाले के पैसों से शीना को बहुत ऐश करवाईर् थी. खैर, इतना अनापशनाप पैसा था दोनों के पास कि पैसे का झगड़ा तो मामूली ही बात थी.

शीना अब समीर की दूसरी गतिविधियों पर भी नजर रखने लगी थी. जैसे, अपनी फेसबुक वौल पर वह किसे ज्यादा तवज्जुह देता है, किस के फोटो ज्यादा शेयर करता है, किस महिला मित्र को ज्यादा कमैंट करता है आदि.

कुछ ही दिनों में वह समीर की बेरुखी की तह तक पहुंच गई. उस की फेसबुक वौल पर किसी जवान लड़की के ऐसे कमैंट दिखे कि उसे लगा कि समीर के उस लड़की से संबंध हैं. ट्विटर पर भी उस ने नजर गड़ा रखी थी कि समीर किस के नाम पर क्या ट्वीट करता है.

तभी उस का ध्यान पड़ा कि जो लड़की समीर से काम के सिलसिले में अकसर मिलती जुलती है उस के और समीर के मैसेज कुछ साधारण नहीं. उसे कहीं से उन संदेशों में प्यार की गंध आने लगी थी. वह सब समझ गई थी कि शौकीनमिजाज समीर क्यों उस से किनारा कर रहा है, क्यों उस के खर्चे बढ़ गए हैं. समीर इतना बड़ा व्यापारी और शख्सियत है, कौन लड़की उस के साथ उठनेबैठने और मौजमस्ती करने से इनकार करेगी. और फिर इतनी बड़ी हस्तियों पर प्रैस और मीडिया तो जैसे नजर गड़ाए ही रहते हैं. अखबारों और मनोरंजक मैगजींस में समीर व उस लड़की के संबंध के बारे में खुल्लमखुल्ला छपने लगा था.

शीना को यह सब बहुत अखरने लगा. एक तो पति की उस से दूरी, ऊपर से जगहंसाई भी. जो पैसा वह दिनरात मेहनत कर के कमाती रही और पति के जिस पैसे पर उस का हक है, उस पर कोई और मौज करे, यह बरदाश्त करना क्या आसान बात है और तो और, जब कभी पार्टी में जाती, समीर साथ न होता तो वह अन्य महिलाओं की हंसी का पात्र बन कर रह जाती. उसे ऐसा महसूस होता जैसे किसी ने उस के जले पर नमक छिड़क दिया हो.

सबकुछ उस की बरदाश्त से बाहर होने लगा था. सो, एक दिन उस ने गुस्से में आ कर ट्वीट कर डाला, ‘‘मेरे पति समीर के दूसरी लड़की से संबंध हैं, यह मैं आप सब के साथ साझा कर रही हूं क्योंकि मैं दुनिया के ताने सुनसुन कर परेशान हो गई हूं. बेहतर है मैं स्वयं ही इसे स्वीकार लूं.’’

यह ट्वीट तो ऐसा था जैसे मीडिया के हाथ गड़ा खजाना लग गया हो. समीर इसे बरदाश्त न कर पाया और उस रात दोनों में खूब ? झगड़ा हुआ. समीर ने कहा, ‘‘क्यों तुम हमारी जिंदगी बरबाद करने पर तुली हो? तुम भी चैन से रहो और मुझे भी रहने दो. यदि मेरे किसी और लड़की से संबंध हैं तो तुम्हें क्या? तुम से पहले भी तो मैं तलाकशुदा था. तब तो तुम्हें कोई तकलीफ नहीं हुई, फिर अब क्यों?’’

शीना बिफर कर बोली, ‘‘क्योंकि अब मैं तुम्हारी पत्नी हूं. तुम्हारे पैसे और तुम पर मेरा हक है. तुम उसे किसी और से बांटो और मेरी जगहंसाई करवाओ, मैं कैसे बरदाश्त करूं? सारी मीडिया आज तुम्हारी और उस लड़की की ही बातें कर रही है. मैं ने अपने मुंह से स्वीकार लिया, तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा.’’

‘‘कौन सा पहाड़ टूट पड़ा? मैं बताता हूं, अगले एक महीने बाद फिर से इलैक्शन आ रहे हैं. तुम्हारे इस ट्वीट से मेरी कितनी छवि खराब होगी तुम ने सोचा? कौन टिकट देगा मुझे और इस राजनीति में मैं जो अपने पैर जमा रहा हूं वह कल को हमारे बेटे के लिए ही तो अच्छा होगा. चलो, जो भी हुआ भूल जाओ. और अब हम अच्छे पतिपत्नी की तरह प्यारभरी जिंदगी जिएंगे.’’

शीना को लगा उस के जीवन में लगा ग्रहण हट गया है. उसे लगा जैसे उस का खोया प्यार उसे फिर से मिल गया है. सो, उस ने अगले दिन ही समीर से कहा, ‘‘समीर, चलो न हम एक कौमन ट्वीट फिर से कर देते हैं.’’

समीर कहां मना करने वाला था. दोनों ने मिल कर अगले ही दिन ट्वीट किया, ‘‘हम दोनों अपने जीवन से बहुत खुश हैं, और उस लड़की के बारे में जो भी कहा, वह मात्र एक गलतफहमी थी.’’

मीडिया में फिर से यह बात फैल गईर् थी. समीर की छवि एक बार फिर अच्छे राजनेता की बन गई.

एक महीना बीता. चुनाव हुए और समीर को कुरसी हासिल हो गई. अब समीर के तेवर फिर से बदल गए थे. शीना ने लाख कोशिशें कीं कि समीर गैर महिलाओं से संबंध न रखे, किंतु फितरत से शौकीन समीर को वह रोक न पाई. खूब जगहंसाई हुई. पति, प्यार, पैसा सब ही तो बंट गया था.

वह समझ गई थी कि वह दोबारा अपने ही पति द्वारा छली गई है. इस झटके को वह सहन न कर पाई और एक दिन अपने ही घर में मृत पाई गई. पुलिस आई, उसे लगा कहीं यह हत्या तो नहीं. लेकिन नहीं, पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से मालूम हुआ कि उस ने जहर खा कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली थी.

वह तो चली गई, लेकिन जातेजाते एक सवाल छोड़ गई. एक पत्नी कैसे अपने पति के प्यार को बांट ले और कैसे रोजरोज जगहंसाई करवाए? दूसरी महिला उस के हक को छीन ले, उस के पैसे पर मौज करे, जिसे बदनामी और इज्जत की परवा ही नहीं. लेकिन एक पत्नी के लिए तो वह उस की इज्जत पर जैसे बड़ा प्रहार है, वह कैसे उसे सह सकती थी.

निशान : भाग 3

पूर्व कथा

हर मातापिता की तरह सुरेश और सरला भी अपनी बेटी मासूमी को धूमधाम से विदा कर ससुराल भेजना चाहते हैं. 2 भाइयों की इकलौती बहन मासूमी खूबसूरत होने के साथ घर के कामों में दक्ष है. उस के रिश्ते भी खूब आते लेकिन जब शादी की बात पक्की होने को आती, उसे दौरे पड़ जाते. वह चीख उठती और रिश्ता जुड़ने से पहले टूट जाता. एक दिन मौसी ने मासूमी से उस के दिल की बात जाननी चाही तो वह बोली, ‘मौसी, आप ने ऐसा सोचा भी कैसे…’ वहीं, मासूमी को कई बार विवाह की महत्ता का एहसास होता रहा. वह सोचने लगी कि उसे भी शादी कर घर बसा लेना चाहिए. 28 साल की हो चुकी मासूमी का नया रिश्ता आया तो सभी ने सोचा कि यह रिश्ता चूंकि काफी समय बाद आया है, लड़का अच्छा पढ़ालिखा व उच्च पद पर है और मासूमी ज्यादा समझदार भी हो गई है, अत: वह इस रिश्ते को हरी झंडी दे देगी लेकिन मासूमी को लगा कि वह विवाह का रिश्ता संभालने में असफल रहेगी. उधर वह अपने पापा से बेहद डरीसहमी रहती थी. स्कूल से घर आते ही उस का पहला प्रश्न होता, ‘मां, पापा तो नहीं आ गए, राकेश भैया स्कूल गए थे या नहीं, दोनों भाइयों में झगड़ा तो नहीं हुआ?’ सरला उसे परेशानी में देख कहती, ‘तू क्यों इन चिंताओं में डूबी रहती है? अरे, घर है तो लड़ाईझगड़े भी होंगे.’ इसी असमंजस में फंसी मासूमी स्कूल से कालेज में आ गई थी और आज फिर वह दिन आ गया था जो किसी आने वाले तूफान का संकेत दे रहा था…

आखिरी भाग

अब आगे…

भाई राकेश का मुकदमा मां की अदालत में था. मांपिताजी दोनों की चुप्पी आने वाले तूफान का संकेत दे रही थी. किसी भी क्षण झगड़ा होने वाला था. इसलिए मासूमी फिर पिता की ओर बढ़ कर बोली, ‘‘पापा, आप हाथमुंह धोएं, मैं चाय बनाती हूं.’’

रसोई में जा कर भी मासूमी का मस्तिष्क उलझा रहा. पापा काम से थकेहारे आते हैं. ये बातें तो बाद में भी हो सकती हैं. भाई राकेशप्रकाश भी अब बड़े हैं, उन्हें अपनी जिम्मेदारियां समझनी चाहिए. समय से घर आना व पढ़ना चाहिए पर दोनों कुछ खयाल ही नहीं रखते. मासूमी अकसर पिता का पक्ष लेती. इस के पीछे छिपा कारण यह था कि वह मां को गुस्से से बचाना चाहती थी लेकिन सरला को शिकायत होती कि वह सबकुछ जानते हुए भी पिता का पक्ष लेती है.

पिता चाय की प्याली ले कमरे में चले गए और मासूमी से पूछा, ‘‘तुम्हारी मां को क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, क्यों? आप से कुछ कहा?’’ मासूमी ने अनजान बन कर पूछा.

‘‘नहीं, कहा तो नहीं पर लग रहा है कुछ गड़बड़ है. जाओ, बुला कर लाओ मां को,’’ उन्होंने आदेश देने के अंदाज में मासूमी से कहा तो उस का दिल अनजानी आशंका से धड़क उठा.

दरवाजे पर खड़ी मां तमतमाए चेहरे से उसे देख कर बोलीं, ‘‘रसोई में जाओ और खाने की तैयारी करो.’’

‘‘जी,’’ कह मासूमी बाहर निकल गई पर उस के पैर कांपने लगे थे. हमेशा यही होता था. जब घर में कलह होती तो उसे रसोई में जाने का आदेश मिल जाता था. और फिर वह पल आ गया जिस से उस का मन हमेशा कांपता था. अंदर मां पापा से कह रही थीं :

‘‘देखिए, आज मैं आप से ऐसी बात कहने वाली हूं जिस में आप की, बच्चों की व इस घर की भलाई है. यह समझ लीजिए कि घर के इस माहौल ने मासूमी की जिंदगी पर गहरा असर डाला है. हमेशा एक तानाशाह बन कर घर पर राज किया है. मुझे बराबरी का दर्जा देना तो दूर, आप ने हमेशा अपने पैर की जूती समझा है. मैं ने फिर भी कुछ नहीं कहा. मासूमी भी मुझे ही चुप कराती है, क्योंकि वह लड़ाईझगड़े से डरती है लेकिन अब मामला दोनों लड़कों का है. अब राकेश ने भी कह दिया है कि पापा हमें दूसरों के सामने बेइज्जत न करें. संभालिए खुद को वरना कल प्रकाश घर से भागा था अब कहीं राकेश भी…’’

‘‘कर चुकीं बकवास. खबरदार, अब एक शब्द भी आगे बोला तो,’’ अंगारों सी लाल आंखें लिए मुट्ठियां भींचे सुरेश की कड़क आवाज दूर तक जा रही थी, ‘‘कान खोल कर सुन लो, बच्चों को बिगाड़ने में सिर्फ तुम्हारा हाथ है. तुम्हारे कारण ही वे इतनी हिम्मत करते हैं. कहां है वह उल्लू का पट्ठा, मेरे सामने कहता तो खाल खींच देता उस सूअर की औलाद की.’’

‘‘गाली देने से झूठ, सच नहीं हो जाता. तुम्हें बदलते वक्त का अंदाजा नहीं. बच्चों के साथ कदम नहीं मिला सकते तो उन का रास्ता मत रोको,’’ सरला भी तैश में आ गई थीं.

जिस बात से दूर रखने के लिए सरला ने मासूमी को रसोई में भेजा था वे सारी बातें दीवारों की हदें पार कर उस के कानों में गूंज रही थीं.

सुरेश मर्दों वाले अंदाज में सरला की कमजोरियों को गिनवा रहे थे और दोनों बेटे मां की बेइज्जती पर दुख से पहलू बदल रहे थे तो मासूमी दोनों भाइयों को फटकार रही थी :

‘‘लो, पड़ गया चैन. एक दिन भी घर में शांति नहीं रहने देते. रोज कोई न कोई हंगामा होता है. रोज के झगड़ों से मेरी जान निकल जाती है. इस से अच्छा है, मैं मर ही जाऊं. ऊपर से मौसी, बूआ रोज आ कर अपने पतियों की वीरगाथाएं सुनाती हैं कि वे उन से लड़ते हैं. क्या सारे पुरुष एक से होते हैं? उन्हें यही करना होता है तो वे शादियां ही क्यों करते हैं?’’

प्रकाश गुस्से से गुर्राया, ‘‘तुम चुप ही रहो. सारा दोष मांपिताजी का है. हर समय ये झगड़ते रहते हैं. पापा तो सारी उम्र हमें बच्चा ही समझते रहेंगे. जब मन में आया डांट दिया, जब मन आया गाली दे दी.’’

उधर मां की तेज आवाज आने पर मासूमी मां की ओर बढ़ी, ‘‘मां, रहने दो. आप ही चुप हो जाइए. आप को पता है कि पापा अपनी बात के आगे किसी की नहीं सुनते तो आप मत बोलिए.’’

‘‘तू हट जा. आज फैसला हो कर रहेगा. मुझे गुलाम समझ रखा है. बाप रौब जमाता है तो बेटे अलग मनमानी करते हैं. तेरा क्या है, शादी के बाद अपने घर चली जाएगी, पर मेरे सामने तो बुढ़ापा है. अगर तेरे पिता का यही हाल रहा तो क्या दामाद और बहुओं के सामने भी ऐसे ही गालियां खाती रहूंगी? नहीं, आज होने दे फैसला,’’ मां बुरी तरह हांफ रही थीं और मासूमी रो रही थी.

राकेश बोला, ‘‘क्यों रोती है? हम बच्चे तो नहीं कि हर बात को सही मान लें.’’

मासूमी चिल्लाई, ‘‘देखा प्रकाश, सारा झगड़ा इसी का शुरू किया है. बित्ते भर का है और मांबाप का मुकाबला कर रहा है.’’

‘‘चुप रह वरना एक कस कर पड़ेगा. पापा की चमची कहीं की,’’ राकेश लालपीला हो कर बोला.

प्रकाश भी तमक उठा, ‘‘दिमाग फिर गया है तुम लोगों का…उधर वे लड़ रहे हैं इधर तुम. कोई मानने को तैयार नहीं है.’’

‘‘आप माने थे…’’ राकेश ने पलट- वार किया तो प्रकाश उसे मारने दौड़ा.

उसी समय अंदर से कुछ टूटने की आवाजें आईं. मासूमी दौड़ कर अंदर गई तो देखा पिताजी हाथ में क्रिकेट का बैट लिए शो केस पर तड़ातड़ मार रहे हैं.

राकेश द्वारा पाकेटमनी जोड़ कर खरीदा गया सीडी प्लेयर और सारी सीडी जमीन पर पड़ी धूल चाट रही थीं…शोपीस टुकड़ेटुकड़े हो कर बिखरा पड़ा था.

मासूमी हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘पापा, प्लीज, शांत हो जाएं.’’

लेकिन सुरेशजी की जबान को लगाम कहां थी, गालियों पर गालियां देते चीख रहे थे, ‘‘तू हट जा. एकएक को देख लूंगा. बहुत खिलाड़ी, गवैए बने फिरते हैं पर मैं ये नहीं होने दूंगा. इन को सीधा कर दूंगा या जान से मार डालूंगा.’’

प्रकाश का जवान खून भी उबाल खा गया, ‘‘हां, हां, मार डालिए. रोजरोज के झगड़ों से तो अच्छा ही है.’’

सरला और मासूमी ने मिल कर प्रकाश को बाहर धकेलना चाहा और राकेश ने बाप को पकड़ा पर कोई बस में नहीं आ रहा था.

मासूमी ने घबरा कर इधरउधर देखा तो बहुत सारी आंखें उन की खिड़कियों से झांक रही थीं और कान दरवाजे से चिपके हुए थे. बस, यही वह समय था जब मासूमी का सिर चकराने लगा. उसे लगा कि वह गहरे पाताल में धंसती जा रही है, जहां न उसे मां की बेबसी का होश था न पिता के गुस्से का और न भाइयों की बगावत का.

मासूमी को होश आया तो सारा माहौल बदला हुआ था. पिता सिर झुकाए सिरहाने बैठे थे, मां पल्लू से आंखें पोंछ रही थीं, भाई हाथपैर सहला रहे थे. पिता का गुस्सा तो साबुन के बुलबुलों की तरह बैठ गया था पर मां सरला आज मौके का फायदा उठा कर फिर बोल उठी थीं, ‘‘जवान बच्चों के लिए आप को अपनी आदतों और कड़वाहटों पर काबू पाना चाहिए. यह नहीं कि घर में घुसते ही हुक्म देना शुरू कर दें.’’

प्रकाश ने उन्हें चुप कराया, ‘‘मां, बस भी करो. देख नहीं रही हैं मासूमी की हालत.’’

सुरेशजी मासूमी की हालत देख खामोश और शर्मिंदा थे तो मांबेटों की तकरार चालू थी. सब एकदूसरे को दोष दे रहे थे. पिता का कहना था कि अगर बच्चों पर लगाम न कसो तो वे बेकाबू हो जाएंगे. बच्चों का कहना था, ‘‘पापा हमें हर बात पर बस डांटते हैं. घर से बाहर रहो तो घर में रहने का आदेश, घर पर रहो तो टोकाटाकी. गाने सुनें तो हमें भांड बनाने लगते हैं. दोस्तों के साथ खेलें तो उसे आवारागर्दी कहते हैं. हम तो यहां बस मां के कारण चुप हैं वरना…’’

सरला बेटों को चुप करा रही थीं, ‘‘चुप रहो, जवान हो गए हो तो इस का मतलब यह नहीं कि पिता के सामने जबान खोलो.’’

सब मिल कर मासूमी को एहसास दिलाना चाह रहे थे कि कोई किसी का दुश्मन नहीं. हां, झगड़े तो होते ही रहते हैं. देखो, तुम्हें तकलीफ हुई तो सब तुम्हारी चिंता में बैठे हैं.

मां ने मासूमी के बाल सहलाए, ‘‘सब लड़झगड़ कर एक हो जाते हैं पर तुम बेकार में उसे दिल में पाल लेती हो…’’

मासूमी बिखर गई, ‘‘मां, आप को अच्छा लगे या बुरा पर सच यह है कि गलती आप की भी है. आप को यही लगता है कि पिताजी ने कभी आप की कद्र नहीं की लेकिन मैं जानती हूं कि पापा के मन में आप के लिए क्या है. आप घर नहीं होतीं तो आप को पूछते हैं. आप की बहुत सी बातों की सराहना निगाहों से करते हैं पर कहना नहीं आता उन्हें. लेकिन उन की तकलीफदेह बातों के कारण आप का ध्यान उन की इन बातों पर नहीं जाता. इसी कारण पापा पर गुस्सा आने पर आप बच्चों के सामने पापा की कमजोरियां गिनवाती हैं और फिर बच्चे उन को आप की पीठ पीछे बुराभला कहते हैं,’’ मासूमी बोल रही थी और सरला चोर सी बनी सब बातें सुन रही थीं.

सुरेशजी भी मासूमी की हालत से घबराए थे. हमेशा ही गुस्सा ठंडा होने पर वह एकदम बदल जाते. उन्हें बीवीबच्चों पर प्यार उमड़ आता था. आज भी यही हुआ. वे उठे और टूटा शोपीस, सीडी प्लेयर उठा कर गाड़ी में रखने लगे. टूटी सीडी के नाम, नंबर नोट करने लगे. मासूमी खामोशी से लेटी देख रही थी कि अब पापा बाजार जा कर सब नया सामान लाएंगे. आइसक्रीम, मिठाई से फ्रिज भर जाएगा. मां के लिए नई साड़ी, भाइयों को पाकेटमनी मिलेगी. प्यार से समझाएंगे कि बेटा, अभी तुम लोगों का ध्यान पढ़ने में लगना चाहिए. मैं तो चाहता हूं कि तुम लोग खाओपियो, हंसोबोलो.

पिताजी खुश होंगे तो सब के साथ बैठे दुनियाजहान की बातें करेंगे. मां भी चहकती फिरेंगी. बस, 2 दिन बाद ही जरा सी कोई बात होगी तो फिर हंगामा शुरू हो जाएगा. मासूमी का तो कालेज जाना भी बंद हो चुका था. यों वहां जाने पर भी हमेशा की तरह मन धड़कता था कि कहीं फिर दोनों भाइयों में, मांबाप में झगड़ा न हो गया हो. कहीं मौसी और बूआ अपनेअपने पतियों से झगड़ कर न आ बैठी हों. बस, यही हालात थे जिन के कारण मासूमी को पुरुषों से नफरत हो गई थी, जिस में उस के पिता, भाई, फूफा, मौसा सभी शामिल थे. सारे पुरुष उसे जल्लाद लगते थे, जो सिर्फ स्त्रियों पर अपना हक जता कर उन्हें नीचा दिखाना चाहते थे. इस से बचने के लिए वह इतना ही कर सकती थी कि मर्दों के साए से दूर रहे.

आज उस के भाई अच्छाखासा कमा कर परिवार वाले हो गए थे. एक मासूमी ही थी जिस के लिए सबकुछ बेकार हो चला था. अब यह रिश्ता फिर से हाथ आया था और मासूमी ने फिर से इनकार कर दिया था. इस बार सुरेशजी को गुस्सा तो बहुत आया फिर भी खुद पर काबू पा कर वे मासूमी को समझा रहे थे, ‘‘यह क्या नादानी है. तुम्हारी इतनी उम्र होने पर भी यह रिश्ता आया है. अब कहीं न कहीं तो समझौता करना ही पड़ेगा. खुशियां दरवाजे पर खड़ी हैं फिर तुम्हें क्या परेशानी है? या तो तुम्हें मुझे यह बात स्पष्ट समझानी होगी वरना मैं अपने हिसाब से जो करना है कर दूंगा.’’

कुछ समय मासूमी सिर झुकाए खड़ी रही फिर हिम्मत कर के बोली, ‘‘आप मुझ से जवाब मांग रहे हैं तो सुनिए पापा, मैं हार गई हूं खुद से लड़तेलड़ते. बहुत सोचने के बाद मुझे विश्वास हो गया है कि मैं मां जैसी हिम्मत व सब्र नहीं रखती. मैं नहीं चाहती कि मेरे पिता द्वारा जो व्यवहार मेरी मां से किया गया वही व्यवहार कोई और व्यक्ति मेरे साथ करे.

‘‘औरत होने के नाते मैं उस औरत के दुख को महसूस कर सकती हूं जो मेरी मां है. हो सकता है कि विवाह के बाद मैं भी व्यावहारिकता में जा कर सबकुछ सह लूं पर मैं इतिहास दोहराना नहीं चाहती. आप के, मां व परिवार के बीच होने वाले झगड़ों ने मेरे अस्तित्व को ही जैसे खोखला व कमजोर बना दिया है. मुझे नहीं लगता कि मैं अब किसी परिवार का हिस्सा बनने लायक हूं. एक अनजाना सा डर मुझे हर खुशी से दूर ही रखेगा. इसलिए आप मुझे माफ कर दें और रिश्ते के लिए मना कर दें.’’

इतना कह कर वह दोनों हाथों से मुंह छिपा कर फूटफूट कर रो दी और कमरे में भाग गई. मासूमी की बात सुन कर सुरेशजी सन्न रह गए. उन्होंने सोचा भी नहीं था कि आएदिन घर में होने वाले झगड़े उन की बेटी की जिंदगी में ऐसा गहरा निशान छोड़ जाएंगे कि उस की जिंदगी की खुशियां ही छिन जाएंगी. जिंदगी के कटघरे में आज वे अपराधी बन सिर झुकाए खड़े थे.

डाक टिकट संग्रह

बचपन के दिन भुला न देना… वर्तमान पीढ़ी ने तो यह गाना शायद ही सुना हो, मगर साठ-सत्तर की नैया पर सवार लोगों को यह गीत बखूबी याद है. बचपन यानी शरारतें, मौज-मस्ती, घुमक्कड़ी और याराना. हमने तो बचपन में ढेरों शरारतें की हैं. आजकल के बच्चे तो कम्प्यूटर और फोन में ही घुसे रहते हैं. याराना क्या होता है, मस्ती क्या होती है, मोहल्लेदारी क्या होती है, इन्हें पता ही नहीं. एक हम थे कि हर दिन कोई नयी चीज ट्राई करते थे, सफल हुए तो खुश और असफल हुए तो भी मजा ही आता था. काफी खुराफाती शौक होते थे हमारे. तब हमारी उम्र रही होगी कोई बारह या तेरह साल की. दो लंगोटिया यार थे – धीरू और टिल्लू. वो दोनों हम पर जान देते थे और हम उन दोनों पर. ये दोनों मेरे दो हाथ थे. तीन वानरों की यह सेना मिल कर खूब शरारतें करती थी. अक्ल मेरी चलती थी और हाथ पांव उन दोनों के, मगर मजे की बात यह थी कि जब पकड़े जाते तो मैं अपनी बेचारी सी शक्ल और दुबलेपन की वजह से बच निकलता, मगर धीरू और टिल्लू फंस जाते थे. कभी पतंग लूटने के चक्कर में पीटे जाते, कभी किसी के चलते वाहन में गिल्ली उड़ कर जा लगती तो वह इन दोनों को ही दौड़ाता.

हमारे जमाने में चिट्ठियों का बहुत चलन था, आजकल तो डाक से चिट्ठियां आती ही नहीं हैं, लोग ईमेल और वॉट्सएप पर ही बतिया लेते हैं. लेकिन जब हम छोटे थे तो चिट्ठियां डाकिया लाता था, साइकिल की घंटी बजा कर घर वालों को इत्तिला देता था और अपने बड़े से झोले से चिट्ठी निकाल कर घर के बाहर लगे छोटे से लेटर बॉक्स में डाल जाता था. तब हर घर के गेट या दरवाजे पर एक छोटा लेटर बॉक्स जरूर लगा होता था. शाम को पिताजी दफ्तर से आते तो दरवाजे की कुंडी खटकाने से पहले लेटर बॉक्स खोलकर चिट्ठियां निकालते थे. उन्हीं दिनों हमारा एक शौक जागा था – डाक टिकट संग्रह का. यह कोई मंहगा शौक नहीं था. पहले पहल तो हमने अपने घर में आने वाले पत्रों के डाक टिकटों को सहेजना शुरू किया. हम लिफाफे पर लगे डाक टिकट पर नम रुई का फाया रखते और फिर बड़ी सफाई से टिकट निकाल लिया करते थे, धीरे-धीरे हमारा शौक विस्तार पाने लगा तो डाक टिकट निकालने में अच्छी खासी महारत हासिल हो गई. हम चाहते थे कि जल्दी ही ढेर सारे टिकट संग्रह कर लें, मगर हफ्ते में तीन-चार चिट्ठियों से ज्यादा आती नहीं थीं. हमने धीरू और टिल्लू को भी इस काम में लगा दिया. दोनों बड़ी मेहनत से मेरे लिए टिकट संग्रह करने लगे. मगर मेरी हवस पूरी होने का नाम ही नहीं ले रही थी. टिकटों की संख्या में ज्यादा बढ़ोत्तरी न देखकर हमने मोहल्ले के पोस्ट ऑफिस रामादीन पोस्टमैन को पटाने की सोची. हमारी सोच यह थी कि अगर रामादीन पट गया तो उनके झोले में मौजूद ढेरों देसी-विदेशी पत्रों पर से हमें देसी के साथ-साथ विदेशी टिकट भी आसानी से हासिल हो जाएंगे. इससे हमारा खजाना बढ़ भी जाएगा और उसमें वैराइटी भी आ जाएगी. हमने रामादीन से बात की. ठाकुर के होटल पर एक कटिंग चाय पिलाने की बात पर हमारा कॉन्ट्रैक्ट साइन हो गया. कुछ दिन तक रामादीन एक कटिंग चाय में हमें टिकट उपलब्ध कराते रहे, मगर फिर उन्होंने चाय के साथ समोसे की मांग भी रख दी. खैर, हम उस पर भी राजी हो गये. जब तक रामादीन चाचा चाय और समोसे पर हाथ साफ करते, हम लोग उनके झोले में भरे पत्रों पर लगे डाक टिकटों पर हाथ साफ करते रहते.

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थोड़े दिन बाद रामादीन ने डिमांड बढ़ा दी. बोले – कटिंग चाय और बासी समोसे से काम नहीं चलेगा, आधा पाव दूध वाली चाय और मिठाई खिलाओ तब झोला खोलना. हम लोगों ने कास्ट बेनिफिट एनालिसिस किया, और यह निश्चय किया कि अब हम रामादीन की ब्लैकमेलिंग के आगे नहीं झुकेंगे और अपने बलबूते मैदान में उतरेंगे. इस तरह से हम तीनों ने आत्मनिर्भर होकर मोहल्ले की चिट्ठियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया.

मोहल्ले के घरों के बाहर लगे डाक बक्से से चिट्ठियां निकालना कोई बड़ी बात नहीं थी. कुछ लेटर बौक्स तो खुले ही रहते थे, मगर कुछ पर छोटे ताले पड़े होते थे. मगर ताले वाले लेटर बौक्स से भी हम चिमटी की मदद से आराम से चिट्ठियां निकाल लेते थे. उन पर लगे डाक टिकट निकाल कर हम चिट्ठियां वापस लेटर बॉक्स में डाल देते थे. लोगों को अब पत्र बिना डाक टिकट के मिलने लगे थे. पहले पहल तो लोगों को पता ही नहीं चला, या उन्होंने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया, लेकिन धीरे-धीरे कुछ शक्की लोगों का ध्यान इस ओर गया. हमें पता ही नहीं चला कि मोहल्ले के चौकीदार, दुकानदार, प्रेस वाली तक यह सूचना पहुंच गई कि देखो, डाक वाले डिब्बे कौन छूता है.

एक दिन भाजी वाले ने धीरू को डिब्बे से चिट्ठी निकालते धर लिया. हम दूसरे डिब्बों पर हाथ साफ कर रहे थे, सो बच गए. धीरू की धुनाई हो गई. धीरू ने मुंह खोला तो बात हमारे घर तक भी पहुंच गई. पिताजी ने कड़कदार आवाज में हमें बुलाया. सच्चाई पूछी और डांट कर अंदर अम्मा के पास भेज दिया. दूसरे दिन पिताजी जब दफ्तर से लौटे तो हमसे पूछा, ‘कितने टिकट बटोरे हैं?’

हमने डरते डरते बताया, ‘सात सौ पैंतालीस…’

बोले, ‘ले आओ.’ मैं घबराया कि आज तो मेरे सारे डाक टिकट गए समझो. पिताजी जरूर इन्हें चूल्हे में झोंकने वाले हैं. इतने सालों की मेहनत मिट्टी में मिलने वाली है… डरते-डरते अंदर गए. अपना बस्ता खोला और किताबों के बीच जमा की गई अपनी मेहनत को दोनों हथेलियों के बीच लेकर बाहर कमरे में आए और पिताजी के सामने सिर झुका कर खड़े हो गए. पिताजी तख्त पर एक ओर खिसक कर बैठ गए. बोले, ‘यहां रख दो और बैठो मेरे पास.’

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हम आंखों में आंसू लिए उनके पास तख्त पर बैठ गए. सारे टिकट हमने उनके चरणों में रख दिए. पिताजी ने टिकट देखे. उनकी आंखों में खुशी नाच रही थी. बड़े उल्लास से उन्होंने पास पड़ा अपना थैला खोला और उसमें से एक डाक टिकट कलेक्शन की फाइल निकाल कर मेरे सामने रख दी और चहक कर बोले, ‘चलो, सारे टिकट इसमें कायदे से लगाते हैं, मुझे भी बचपन में बड़ा शौक था टिकट संग्रह का…’

कुसुम की लहलहाती खेती

रबी के मौसम में उगाई जाने वाली कुसुम एक खास तिलहनी फसल है. इस की पैदावारी कूवत के मामले में भारत विश्व में पहले स्थान पर है. भारत के डेढ़ लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन में इसे उगाया जाता है. इसे मुख्य रूप से महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गुजरात, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और बिहार में उगाया जाता है.

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) के वैज्ञानिकों ने तिलहन फसल कुसुम की नई किस्म कुसुम 1 तैयार की है. यह न केवल पहले से 4 फीसदी ज्यादा तेल देगी, बल्कि दिल का भी ज्यादा बेहतर खयाल रखेगी.

खास बात यह भी है कि कुसुम की मौजूदा किस्म पीबीएनएस 12, जहां 145 दिन में पकती है, वहीं नई किस्म 125 दिन में ही पक कर तैयार हो जाएगी.

इस किस्म की उपज सिंचित अवस्था में 20-24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व असिंचित अवस्था में 9-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है जो प्रचलित पीबीएनएस 12 के बराबर है, लेकिन छत्तीसगढ़ कुसुम 1 में पीबीएनएस 12 की तुलना में तेल का प्रतिशत अधिक है.

पीबीएनएस 12 किस्म में जहां तेल की मात्रा 29 फीसदी पाई जाती है, वहीं नई किस्म कुसुम 1 में 33 फीसदी तेल मिलता है.

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खेती के लिए मिट्टी : कुसुम को उगाने के लिए मिट्टी में नमी को बनाए रखने वाली और अतिरिक्त पानी को बहा देने वाली होना जरूरी है. जल निकास की व्यवस्था ठीक न होने पर पानी के ठहर जाने पर इस के पौधों की जड़ें सड़ जाती हैं. इस से उत्पादन में भारी कमी आती है. सिंचाई पर आधारित इस की खेती के लिए अगर मिट्टी भारी हो तो अतिरिक्त जल निकास की व्यवस्था अच्छी होनी चाहिए.

खेत की तैयारी : मिट्टी में से ढेले, पत्थर वगैरह निकाल देने चाहिए और खेत में गहरी जुताई करनी चाहिए.

फसल की बोआई का उचित समय : इस फसल को बोने का सही समय सितंबर माह के दूसरे पखवाड़े से अक्तूबर माह के दूसरे पखवाड़े तक होता है.

बीजोपचार : मिट्टी से उपजने वाली बीमारियों से बचाव के लिए बोआई से पहले प्रति एक किलोग्राम बीजों को थायरम 3 ग्राम या कैप्टान 2 ग्राम या कार्बंडाजिम 2 ग्राम की दर से बीजोपचार करना चाहिए.

खरपतवार की रोकथाम : बोआई के 10-15 दिनों के अंदर ही बीजों का अंकुरण होते ही पौधों के बीच की दूरी बनाए रखनी चाहिए. खरपतवारों को हटा देना चाहिए.

फूलों के गुच्छे बनने के समय भी 25-30 और 45-50 दिनों में हाथ या फावड़े से खेत की सफाई करनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : सही और संतुलित रूप में उर्वरक देने के लिए बोआई के 2-3 हफ्ते पहले 2 टन प्रति एकड़ के हिसाब से सड़ी गोबर की खाद को खेत में डालना चाहिए.

अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए मिट्टी की जांच करा कर जरूरत के मुताबिक उर्वरकों को खेत में डालना चाहिए.

सिंचाई व्यवस्था : बीज डाले जाने वाली जगह या अंकुरण के समय मिट्टी में सही नमी नहीं पाई जाती है तो बोआई से पहले हलकीफुलकी सिंचाई कर दें. यदि मिट्टी ऐसी हो जिस में दरारें पड़ने की संभावना हो तो दरारें पड़ने से पहले सिंचाई कर दें ताकि पानी को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सके. यदि एक ही सिंचाई का प्रावधान हो तो फसल के विकास में मिट्टी की नमी कम होने से पहले ही सिंचाई करनी चाहिए.

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अंत:फसल प्रणाली को अपनाना : कुसुम अपनेआप में एक ऐसी फसल है जिस में अच्छा फायदा होता है, फिर भी अनेक राज्यों में बारिश पर निर्भर फसल की स्थिति में कुछ दूसरी फसलों को भी उगा सकते हैं, जिन्हें उगाना आसान है.

कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में कुसुम के साथ दूसरी फसल इस तरह से उगाई जा सकती है:?कुसुम और धनिया (1:3), कुसुम और चना (3:6), महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुसुम और अलसी (1:3) को लाइनों में उगा सकते हैं.

कीट प्रबंधन

इस फसल में लगने वाला मुख्य कीट माहू है. इस के अलावा पत्ते को खाने वाली इल्लियां और महाराष्ट्र के अकोला में गुझिया घुन होते?हैं.

गुझिया घुन से होने वाले नुकसान से बचने के लिए 10जी फोरेट 4 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से डालें, वहीं अन्य कीटों की रोकथाम के लिए सही कीटनाशक का छिड़काव करें.

रोग प्रबंधन : कुसुम के प्रमुख रोग इस प्रकार?हैं: उकठा, जड़ें सड़ जाना और पत्तों पर चित्तियां उभर आना.

उकठा रोग से बचाव के लिए प्रतिरोधक संकर किस्में जैसे एनएआरआई एच 15, पीबीएनएस 12 और एनएआरआई 6 का इस्तेमाल करें. साथ ही, ट्राइकोडर्मा हारजिएनम 10 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीजोपचार करें. इस के साथ थीरम या मैंकोजेब 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीजोपचार करने से जड़ों को सड़ने से रोका जा सकता?है.

इस के अलावा मैंकोजेब की 2.5 ग्राम मात्रा या कार्बंडाजिम 1 ग्राम और मैंकोजेब की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़कने से पत्तों पर उभर कर आने वाली चित्तियों को रोकने में मदद मिलती है. बीज बनते समय फसल को पक्षियों से बचाया जाना जरूरी है.

फसल की कटाई : फसल को सुबह के समय ही काटें. पौधों की जड़ से कटाई करें. बाद में इन्हें गड्डियों में बांध कर छोटेछोटे ढेरों के?रूप में खेत में रख दें. जब ये पूरी तरह सूख जाएं तब इस फसल को लकड़ी से कूटपीट कर अथवा बैलगाड़ी या ट्रैक्टर या हैरो वगैरह यंत्र की मदद से इस की गहाई की जा सकती है. इस प्रक्रिया में सही और साफसुथरे बीज अलग हो जाते हैं.

इस तरह की गहाई और सफाई का काम मशीन द्वारा भी किया जा सकता है. जैसे गेहूं की फसल के लिए किया जाता है या दोनों ही प्रकार की तकनीकों का इस्तेमाल इस फसल के लिए भी किया जा सकता है.

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कुसुम की संकर और विभिन्न किस्में

ओडिशा, बिहार, राजस्थान के लिए : एनएआरआई-एनएच 1, एनएआरआई-एच 15 संकर किस्में हैं, वहीं ए 1, एनएआरआई 6, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एसएसएफ 658, एसएसएफ 648, फुले एसएसएफ 733 अन्य किस्में हैं.

उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु के लिए : एनएआरआई एनएच 1, एनएआरआई-एच 15 संकर किस्में हैं, वहीं एनएआरआई 6, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एसएसएफ 658, एसएसएफ 648, फुले एसएसएफ 733, जेएसएफ 1, जेएसआई 7, जेएसआई 73 अन्य किस्में हैं.

महाराष्ट्र के लिए : एनएआरआई एनएच 1, एनएआरआई एच 15 संकर किस्में हैं और भीमा, एकेएस 207, एनएआरआई 6, पीकेवी पिंक, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एसएसएफ 708 अन्य किस्में?हैं.

आंध्र प्रदेश, तेलंगाना के लिए : एनएआरआई-एनएच 1, एनएआरआई-एच 15 संकर किस्में हैं और मंजिरा, एनएआरआई 6, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एसएसएफ 708, टीएसएफ 1 अन्य किस्में हैं.

कर्नाटक के लिए : एनएआरआई-एनएच 1, एनएआरआई-एच 15 संकर किस्में हैं और ए-1, ए-2, एनएआरआई 6, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एसएसएफ 708 अन्य किस्में हैं

मध्य प्रदेश के लिए : एनएआरआई-एनएच 1, एनएआरआई-एच 15 संकर किस्में हैं, वहीं जेएसएफ 97, जेएसएफ 99, जेएसआई 7, जेएसआई 73, परभणी कुसुम (पीबीएनएस 12), फुले कुसुम, पीबीएनएस 40, एनएआरआई 6, जेएसएफ 1 अन्य किस्में हैं.

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एफआईआर दर्ज कराने से पहले पढ़ ले ये जानकारी

पुलिस और पीड़ित पक्ष

अगर आप किसी मामले की फर्स्ट इनफौर्मेशन रिपोर्ट यानी एफआईआर दर्ज कराने थाने जाते हैं और पुलिस अधिकारी इनकार करता है तो आप उस के खिलाफ कानूनी कार्यवाही कर सकते हैं. इस के अलावा पीडि़त व्यक्ति के पास और भी विकल्प हैं.

सोहनलाल के साथ उस के पड़ोसियों ने गंदे पानी की नाली के विवाद को ले कर खूब झगड़ा किया. उस ने पड़ोसियों को बहुत समझाया कि यह विवाद अदालत में विचाराधीन है. सो, अदालत का फैसला होने तक स्थिति को यथावत रखा जाए. उस के पड़ोसी संख्या में ज्यादा थे, इसलिए उन्होंने सोहन के साथ मारपीट कर दी. इस मारपीट में सोहन के हाथ और पांव पर कई चोटें आईं. अपने हितैषी के कहने पर वह थाने में रिपोर्ट लिखाने गया. थानाधिकारी ने रिपोर्ट लिखने से मना कर दिया. उस ने थानाधिकारी को मौके पर चलने का भी अनुरोध किया लेकिन वह तैयार नहीं हुआ.

सोहन आरामशीन पर नौकरी करता था. उस के मालिक के कहने पर उस ने जिला पुलिस अधीक्षक को रजिस्टर्ड डाक से रिपोर्ट भेज दी. उस रिपोर्ट के आधार पर मुकदमा दर्ज हो गया और मारपीट करने वाले लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार भी कर लिया.

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थानाधिकारी द्वारा रिपोर्ट न लिखने के किस्से रोजाना अखबारों के माध्यम से प्रकाश में आते रहते हैं. बहुत फरियादी तो रिपोर्ट न दर्ज होने के चलते न्याय से वंचित रह जाते हैं. लेकिन याद रखें, थानाधिकारी ही सर्वेसर्वा नहीं हैं. उस से भी उच्च अधिकारी हैं. दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 में स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि यदि थानाधिकारी किसी पीडि़त व्यक्ति की रिपोर्ट लिखने से इनकार कर दे तो उस जिले के पुलिस अधीक्षक को रजिस्टर्ड डाक से रिपोर्ट भेजी जा सकती है.

अजमल के मामले में भी यही हुआ. गांव के कुछ लोगों ने उस के मकान में तोड़फोड़ कर नुकसान पहुंचाया. वह रिपोर्ट लिखाने थाने गया तो पता लगा कि प्रभावशाली लोगों के कहने से पुलिस किसी प्रकार की कार्यवाही करने के मूड में नहीं है. उस के गांव से जिला पुलिस अधीक्षक कार्यालय 250 किलोमीटर की दूरी पर था. यदि डाक से रिपोर्ट भेजी जाए तो 4-5 दिन से पहले पहुंचने की संभावना नहीं थी. उस ने गांव के पटवारी से राय ली तो उस ने अदालत के माध्यम से रिपोर्ट दर्ज कराने की सलाह दी. अजमल ने एक वकील के मारफत अदालत में रिपोर्ट पेश कर दी. अदालत ने उसी दिन पुलिस को रिपोर्ट दर्ज कर के मामले की तहकीकात करने का हुक्म जारी कर दिया. अदालत के हुक्म से प्रथम सूचना रिपोर्ट यानी फर्स्ट इनफौर्मेशन रिपोर्ट दर्ज हो गई.

इस प्रकार थानाधिकारी किसी पीडि़त व्यक्ति की रिपोर्ट दर्ज नहीं करता है तो पीडि़त के पास 2 विकल्प उपलब्ध हैं. वह या तो रजिस्टर्ड डाक से जिला पुलिस अधीक्षक को रिपोर्ट भेज सकता है या अदालत के मारफत मुकदमा दर्ज करा सकता है.

हर आपराधिक मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है. यदि रिपोर्ट आधीअधूरी या बढ़ाचढ़ा कर लिखी गई है तो मुकदमे पर विपरीत प्र्रभाव पड़ सकता है. इसी तरह रिपोर्ट और पीडि़त के बयानों में फर्क होने पर अदालत यह मान लेती है कि अपराधी ने कोई वारदात नहीं की है. सो, पीडि़त द्वारा अपने बयानों में प्रथम सूचना रिपोर्ट की ताईद करना अनिवार्य है. बोलचाल की भाषा में प्रथम सूचना रिपोर्ट को एफआईआर कहा जाता है. ऐसी शिकायत, जो किसी अपराध के घटित होने की इत्तला हो और जिस का मकसद कानूनी कार्यवाही करना हो, उसे एफआईआर कहा जाता है.

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अखिलेश को उसी के कालेज के विद्यार्थियों ने छात्रसंघ के चुनाव की रंजिश के चलते मारपीट कर घायल कर दिया. जब पुलिस अखिलेश को अस्पताल ले गई तो वह बोलने की स्थिति में नहीं था. जब उसे होश आया तो उस ने पुलिस अधिकारी को पूरी घटना का मौखिक ब्योरा दे दिया. अखिलेश के ब्योरे को पुलिस ने लिख लिया. फिर उस का इलाज तो 10 दिन तक चलता रहा लेकिन पुलिस ने मारपीट करने वाले सातों लड़कों को गिरफ्तार कर जेल भिजवा दिया. अस्पताल से छुट्टी मिलने पर उसे बहुत ताज्जुब हुआ कि बिना रिपोर्ट लिखवाए ही पुलिस ने कार्यवाही कर दी. पूछने पर पता लगा कि उस ने पुलिस को वारदात का जो ब्योरा दिया था उसी के आधार पर यह मुकदमा दर्ज हुआ और कार्यवाही शुरू हो गई.

कानून में यह भी प्रावधान है कि जब पीडि़त व्यक्ति लिखित में रिपोर्ट पेश करने के काबिल न हो तो उस के बयानों के आधार पर भी मुकदमा दर्ज कर कार्यवाही शुरू की जा सकती है. इन बयानों को कानूनी भाषा में ‘पर्चा बयान’ कहते हैं. कानून की नजर में इन बयानों की अहमियत प्रथम सूचना रिपोर्ट के बराबर होती है. ऐसी स्थिति तब उत्पन्न होती है जब पीडि़त व्यक्ति घायल हो या बीमारी के कारण रिपोर्ट लिखाने में असमर्थ हो.

जैसे ही थानाधिकारी को रिपोर्ट प्राप्त होती है, वैसे ही वह रिपोर्ट की जांच कर के रजिस्टर में दर्ज कर लेता है. इसे ही मुकदमा दर्ज होना कहते हैं. इस रजिस्टर की मूल प्रति 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के अवलोकनार्थ भेजी जाती है, ताकि बाद में इस में कोई तबदीली न की जा सके. यदि किसी व्यक्ति के मारपीट से शरीर पर चोटें आई हों तो उन का वर्णन भी रिपोर्ट में करना चाहिए. ऐसा करने से डाक्टर की रिपोर्ट से मिलान हो जाता है और अदालत इस बात पर विश्वास कर लेती है कि पीडि़त व्यक्ति के शरीर पर रिपोर्ट के दिन चोटें थीं. प्रथम सूचना रिपोर्ट की नकल रिपोर्टकर्ता को निशुल्क दी जाती है.

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि घटना घटित होने के तुरंत बाद पीडि़त व्यक्ति के कथन सही होने की संभावना होती है. इस अवधारणा को कानून के क्षेत्र में स्वीकार किया गया है. जो रिपोर्ट घटना के तुरंत बाद दर्ज करा दी जाती है, उस रिपोर्ट को अदालतें सत्य मानती हैं. रिपोर्ट लिखाने में जितनी देरी की जाती है, घटना के प्रति अविश्वास की सूई उतनी ही तेजी से घूमने लगती है. ऐसा माना जाता है कि पीडि़त व्यक्ति ने लोगों से सलाहमशवरा करने के बाद बढ़ाचढ़ा कर रिपोर्ट लिखवाई है. जब कोई रिपोर्ट बढ़ाचढ़ा कर लिखवाई जाती है तो जाहिर है कि उस में ऐसी बातें भी लिख दी जाती हैं जो वास्तव में घटित ही नहीं हुई हों. जब रिपोर्ट की कोई एक बात संदेह के घेरे में आ जाती है तो पूरी रिपोर्ट को सही नहीं माना जाता है.

विनोद का सुभाष से झगड़ा हो गया था. दोनों के बीच धक्कामुक्की हुई और नीचे गिरने से विनोद के हाथ पर चोट लग गई. लोगों ने उसे राय दी कि वास्तविक घटना के वर्णन से सुभाष के खिलाफ गंभीर मुकदमा नहीं बनेगा. सो, रायमशवरा किया और दूसरे दिन एक कहानी तैयार की गई कि सुभाष रात के 10 बजे विनोद के घर में लाठी ले कर आया और उस ने मारपीट शुरू कर दी. विनोद ने अपना बचाव करना चाहा तो उस के हाथ पर चोट लग गई.

अदालत में सुभाष के वकील ने सब से पहले रिपोर्ट लिखने में हुई देरी का ही मुद्दा उठाया. रिपोर्ट लिखाने में हुई एक दिन की देरी का माकूल जवाब विनोद की ओर से नहीं दिया जा सका. नतीजा यह निकला कि अदालत को पूरी घटना पर ही शक हो गया. सुभाष को इसी शक का लाभ देते हुए बरी कर दिया गया.

लेकिन प्रकाश के मामले में रिपोर्ट लिखाने में हुई देरी से मुकदमे पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा. राकेश वगैरह ने उस की फसल को नुकसान पहुंचाया, तो वह रिपोर्ट लिखाने थाने जाने लगा. राकेश के चाचा के साथ प्रकाश के अच्छे संबंध थे. उन्होंने प्रकाश को यह कह कर रोक लिया कि वे राकेश से उसे मुआवजा दिलवा देंगे. 3 दिनों तक मुआवजे के बिंदु पर बातचीत होती रही. आखिर में राकेश ने मुआवजे के रूप में एक रुपया भी देने से इनकार कर दिया. मजबूरन तीसरे दिन प्रकाश को रिपोर्ट लिखवानी पड़ी. अदालत में रिपोर्ट लिखाने में हुई देरी का मामला उठा तो प्रकाश ने स्पष्टीकरण दे दिया कि 3 दिनों तक समझौते की बातचीत चलती रही. जब समझौते के सभी प्रयास असफल हो गए तो उसे रिपोर्ट दर्ज करानी पड़ी. सो, प्रकाश द्वारा बताई गई घटना पर अदालत को शक नहीं हुआ.

प्रथम सूचना रिपोर्ट सोचसमझ कर लिखानी चाहिए. घटना से संबंधित सभी बातें उस में लिख देनी चाहिए. यह रिपोर्ट मुकदमे का आधार स्तंभ होती है. सो, इस में ऐसी बात नहीं लिखनी चाहिए जिसे साबित करना नामुमकिन हो. रामदेव ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि जब दीनदयाल उस के मकान की दीवार को नुकसान पहुंचा रहा था तो मांगीलाल ने उसे औफिस में आ कर इत्तला दी. जब अदालत में बयान हुए तो मांगीलाल ने कहा कि उस ने कोई इत्तला रामदेव को नहीं दी. मांगीलाल के इस बयान से पूरी वारदात की सत्यता पर प्रश्नचिह्न लग गया. यह तो साबित हो चुका था कि रामदेव की दीवार को तोड़ने से उस का नुकसान हुआ है, लेकिन यह साबित नहीं हुआ कि यह गैरकानूनी काम दीनदयाल ने ही किया था. सो, दीनदयाल को बाइज्जत बरी करने के अलावा अदालत के पास विकल्प नहीं था.

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ऐसा नहीं है कि रिपोर्ट लिखाने में एक दिन की देरी होते ही मुलजिम को बरी कर दिया जाता है. अदालत मुकदमे के हर पहलू पर गौर करने के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंचती है. यदि पुलिस थाना वारदात की जगह से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हो तो जाहिर है कि एक दिन तो लगेगा ही. इसी तरह रात को हुई

वारदात के बारे में रिपोर्ट लिखाने में देरी होना स्वाभाविक है. जहां देरी होने की वजह स्वाभाविक हो, वहां पीडि़त व्यक्ति द्वारा दर्ज कराए गए मुकदमे पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है. हर व्यक्ति की अपनी सामाजिक व्यवस्था होती है, जिस का पालन सभी के लिए अनिवार्य होता है. बलात्कार के मामले में रिपोर्ट लिखाने से पहले सामाजिक स्तर पर भी विचार किया जाता है. सो, देरी होना स्वाभाविक है. पृथ्वीराज के मामले में ऐसा ही हुआ.

पृथ्वीराज नाम के व्यक्ति ने एक महिला के साथ बलात्कार किया. वह महिला किसी तरह बलात्कारी के चंगुल से छूट कर घर पहुंची. तब तक रात हो चुकी थी. घर में कोई पुरुष सदस्य मौजूद नहीं था. पीडि़त महिला ने घर की औरतों को पूरा किस्सा सुनाया तो वे सकते में आ गईं. उन औरतों ने आसपड़ोस की महिलाओं से भी सलाहमशवरा किया तो यह नतीजा निकला कि पुरुष सदस्य से बात कर के ही कार्यवाही करना मुनासिब होगा.

2 दिनों बाद पुरुष सदस्य आए तो उन्हें पूरी वारदात से अवगत करवाया गया. उन्होंने वारदात के तीसरे दिन मुकदमा दर्ज कराया. अदालत में सुनवाई के दौरान मुकदमा दर्ज कराने में हुई देरी के आधार पर वारदात को संदेह के दायरे में लाने की कोशिश की गई. लेकिन अदालत ने कहा कि भारतीय समाज में बलात्कार का तथ्य उजागर होना पीडि़ता की सामाजिक हैसियत पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है. सो, सभी हालात पर विचारविमर्श करने में एकदो दिन लगना स्वाभाविक है. फिर घर में पुरुष सदस्य की गैरमौजूदगी भी देरी होने की माकूल वजह हो सकती है.

फिर भी जहां तक संभव हो सके, प्रथम सूचना रिपोर्ट शीघ्र लिखाने की कोशिश करनी चाहिए, वरना अदालत में विलंब का  स्पष्टीकरण देना भारी पड़ सकता है. यदि रिपोर्ट में वारदात की हकीकत को ही बयान किया जाए तो  मुकदमे को साबित करने में आसानी रहती है. बढ़ाचढ़ा कर लिखाई गई रिपोर्ट के मुकदमे अकसर फेल हो जाते हैं.

समाज की दूरी से दो लोगों को फांसी : भाग 1

भाग 1

लोग पढ़लिख कर आधुनिक होने का कितना भी दम भर लें, लेकिन सोच उन की वही पुरानी ही है. भूरा राजपूत अपनी दकियानूसी सोच को दरकिनार कर अगर बेटी शैफाली की बात मान लेते तो शायद आज उन की बेटी जीवित होती.

डेयरी संचालक भूरा राजपूत अपना काम निपटा कर वापस घर आया तो उस की नजर घरेलू कामों में लगीं बेटियों पर पड़ी. उन की 4 बेटियों में 3 तो घर में थीं लेकन सब से बड़ी बेटी शैफाली घर में नजर नहीं आई. उन्होंने पत्नी से पूछा, ‘‘रेनू, शैफाली दिखाई नहीं दे रही. वह कहीं गई है क्या?’’

‘‘अपनी सहेली शिवानी के घर गई है. कह रही थी, उस की किताबें वापस करनी हैं.’’ रेनू ने पति को बताया.

पत्नी की बात सुन कर भूरा झल्ला उठा, ‘‘मैं ने तुम्हें कितनी बार समझाया है कि शैफाली को अकेले घर से मत जाने दिया करो, लेकिन मेरी बात तुम्हारे दिमाग में घुसती कहां है. उसे जाना ही था तो अपनी छोटी बहन को साथ ले जाती. उस पर अब मुझे कतई भरोसा नहीं है.’’

पति की बात सही थी. इसलिए रेनू ने कोई जवाब नहीं दिया.

शैफाली सुबह 10 बजे अपनी मां रेनू से यह कह घर से निकली थी कि वह शिवानी को किताबें वापस कर घंटा सवा घंटा में वापस आ जाएगी. लेकिन दोपहर एक बजे तक भी वह घर नहीं लौटी थी. उसे गए हुए 3 घंटे हो गए थे. जैसेजैसे समय बीतता जा रहा था, वैसेवैसे रेनू और उस के पति भूरा की चिंता बढ़ती जा रही थी.

रेनू बारबार उस का मोबाइल नंबर मिला रही थी, लेकिन उस का मोबाइल स्विच्ड औफ था. जब भूरा से नहीं रहा गया तो शैफाली का पता लगाने के लिए घर से निकल पड़ा. उस ने बेटे अशोक को भी साथ ले लिया था.

शैफाली की सहेली शिवानी का घर गांव के दूसरे छोर पर था. भूरा राजपूत वहां पहुंचा तो घर का दरवाजा अंदर से बंद था. भूरा ने दरवाजा खटखटाया तो कुछ देर बाद शिवानी के भाई संदीप ने दरवाजा खोला. शैफाली के पिता को देख कर संदीप घबरा गया. लेकिन अपनी घबराहट को छिपाते हुए उस ने पूछा, ‘‘अंकल आप, कैसे आना हुआ?’’

भूरा गुस्से में बोला, ‘‘शैफाली और शिवानी कहां हैं?’’

‘‘अंकल शैफाली तो यहां नहीं आई. मेरी बहन शिवानी मातापिता और भाई के साथ गांव गई है. वे लोग 2 दिन बाद वापस आएंगे.’’ संदीप ने जवाब दिया.

संदीप की बात सुन कर भूरा अपशब्दों की बौछार करते हुए बोला, ‘‘संदीप, तू ज्यादा चालाक मत बन. तू ने मेरी भोलीभाली बेटी को अपने प्यार के जाल में फंसा रखा है. तू झूठ बोल रहा है कि शैफाली यहां नहीं आई. उसे जल्दी से घर के बाहर निकाल वरना पुलिस ला कर तेरी ऐसी ठुकाई कराऊंगा कि प्रेम का भूत उतर जाएगा.’’

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‘‘अंकल मैं सच कह रहा हूं, शैफाली नहीं आई. न ही मैं ने उसे छिपाया है.’’ संदीप ने फिर अपनी बात दोहराई.

यह सुनते ही भूरा संदीप से भिड़ गया. उस ने संदीप के साथ हाथापाई की. फिर पुलिस लाने की धमकी दे कर चला गया. उस के जाते ही संदीप ने दरवाजा बंद कर लिया. यह बात 13 जून, 2019 की है.

भूरा राजपूत लगभग 2 बजे पुलिस चौकी मंधना पहुंचा. संयोग से उस समय बिठूर थाना प्रभारी विनोद कुमार सिंह भी चौकी पर मौजूद थे. भूरा ने उन्हें बताया, ‘‘सर, मेरा नाम भूरा राजपूत है और मैं कछियाना गांव का रहने वाला हूं. मेरे गांव में संदीप रहता है. उस ने मेरी बेटी शैफाली को बहलाफुसला कर अपने घर में छिपा रखा है. शायद वह शैफाली को साथ भगा ले जाना चाहता है. आप मेरी बेटी को मुक्त करा दीजिए.’’

चूंकि मामला लड़की का था. थानाप्रभारी विनोद कुमार सिंह पुलिस के साथ कछियाना गांव निवासी संदीप के घर जा पहुंचे. घर का मुख्य दरवाजा बंद था. थानाप्रभारी विनोद कुमार सिंह ने दरवाजे की कुंडी खटखटाई, साथ ही आवाज भी लगाई. लेकिन अंदर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई.

संदीप के दरवाजे पर पुलिस देख कर पड़ोसी भी अपने घरों से बाहर आ गए. वे लोग जानने की कोशिश कर रहे थे कि आखिर संदीप के घर ऐसा क्या हुआ जो पुलिस आई है. जब दरवाजा नहीं खुला तो थानाप्रभारी विनोद कुमार सिंह सहयोगी पुलिसकर्मियों के साथ पड़ोसी विजय तिवारी की छत से हो कर संदीप के घर में दाखिल हुए.

घर के अंदर एक कमरे का दृश्य देख कर सभी पुलिस वाले दहल उठे. कमरे के अंदर संदीप और शैफाली के शव पंखे के सहारे साड़ी के फंदे से झूल रहे थे. इस के बाद गांव में कोहराम मच गया.

भूरा राजपूत और उस की पत्नी रेनू बेटी का शव देख कर फफक पड़े. शैफाली की बहनें भी फूटफूट कर रोने लगीं. पड़ोसी विजय तिवारी ने संदीप द्वारा आत्महत्या करने की सूचना उस के पिता दिनेश कमल को दे दी.

थानाप्रभारी विनोद कुमार सिंह ने प्रेमी युगल द्वारा आत्महत्या करने की बात वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को दी तो कुछ देर बाद एसपी (पश्चिम) संजीव सुमन तथा सीओ अजीत कुमार घटनास्थल पर आ गए. उन्होंने फोरैंसिक टीम को भी बुलवा लिया.

उस के बाद पुलिस अधिकारियों ने घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण किया और फंदों से लटके शव नीचे उतरवाए. मृतक संदीप की उम्र 20-22 वर्ष थी, जबकि मृतका शैफाली की उम्र 18 वर्ष के आसपास. मौके पर फोरैंसिक टीम ने भी जांच की.

टीम ने मृतक संदीप की जेब से मिले पर्स व मोबाइल को जांच के लिए कब्जे में ले लिया. मृतका शैफाली की चप्पलें और मोबाइल भी सुरक्षित रख ली गईं. पुलिस टीम ने वह साड़ी भी जांच की काररवाई में शामिल कर ली. जिस से प्रेमी युगल ने फांसी लगाई थी.

अब तक मृतक संदीप के मातापिता  व भाईबहन भी गांव से लौट आए थे और शव देख कर बिलखबिलख कर रोने लगे. संदीप की मां माधुरी गांव जाने से पहले उस के लिए परांठा सब्जी बना कर रख कर गई थी. संदीप ने वही खाया था.

पुलिस अधिकारियों ने मृतकों के परिजनों से घटना के संबंध में पूछताछ की और दोनों के शव पोस्टमार्टम हेतु लाला लाजपत राय अस्पताल कानपुर भिजवा दिए. मृतकों के परिजन एकदूसरे पर दोषारोपण कर रहे थे, जिस से गांव में तनाव की स्थिति बनती जा रही थी.

इसलिए पुलिस अधिकारियों ने सुरक्षा की दृष्टि से गांव में पुलिस तैनात कर दी. साथ ही आननफानन में पोस्टमार्टम करा कर शव उन के घर वालों को सौंप दिए.

कानपुर महानगर से 15 किलोमीटर दूर जीटी रोड पर एक कस्बा है मंधना. जो थाना बिठूर के क्षेत्र में आता है. मंधना कस्बे से कुरसोली जाने वाली रोड पर एक गांव है कछियाना. मंधना कस्बे से मात्र एक किलोमीटर दूर बसा यह गांव सभी भौतिक सुविधाओं वाला गांव है.

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भूरा राजपूत अपने परिवार के साथ इसी गांव में रहता है. उस के परिवार में पत्नी रेनू के अलावा एक बेटा अशोक तथा 4 बेटियां शैफाली, लवली, बबली और अंजू थीं. भूरा राजपूत डेयरी चलाता था. इस काम में उसे अच्छी आमदनी होती थी, जिस से उस की आर्थिक स्थिति मजबूत थी.

भाईबहनों में बड़ी शैफाली थी. वह आकर्षक नयननक्श वाली सुंदर युवती थी. वैसे भी जवानी में तो हर युवती सुंदर लगती है. शैफाली की तो बात ही कुछ और थी. वह जितनी खूबसूरत थी, पढ़ने में उतनी ही तेज थी. उस ने सरस्वती शिक्षा सदन इंटर कालेज मंधना से हाईस्कूल पास कर लिया था. फिलहाल वह 11वीं में पढ़ रही थी.

पढ़ाईलिखाई में तेज होने के कारण उस के नाजनखरे कुछ ज्यादा ही थे. लेकिन संस्कार अच्छे थे. स्वभाव से वह तेजतर्रार थी, पासपड़ोस के लोग उसे बोल्ड लड़की मानते थे.

कछियाना गांव के पूर्वी छोर पर दिनेश कमल रहते थे. उन के परिवार में पत्नी माधुरी के अलावा 2 बेटे थे. संदीप उर्फ गोलू, प्रदीप उर्फ मुन्ना और बेटी शिवानी थी. दिनेश कमल मूल रूप से कानपुर देहात जनपद के रूरा थाने के अंतर्गत चिलौली गांव के रहने वाले थे. वहां उन की पुश्तैनी जमीन थी. जिस में अच्छी उपज होती थी. दिनेश ने कछियाना गांव में ही एक प्लौट खरीद कर मकान बनवा लिया था. इस मकान में वह परिवार सहित रहते थे. वह चौबेपुर स्थित एक फैक्ट्री में काम करते थे.

दिनेश कमल का बेटा संदीप और बेटी शिवानी पढ़ने में तेज थे. इंटरमीडिएट पास करने के बाद संदीप ने आईटीआई कानपुर में दाखिला ले लिया. वह मशीनिस्ट ट्रेड से पढ़ाई कर रहा था.

शिवानी और शैफाली एक ही गांव की रहने वाली थीं, एक ही कालेज में साथसाथ पढ़ती थीं. अत: दोनों में गहरी दोस्ती थी.

दोनों सहेलियां एक साथ साइकिल से कालेज आतीजाती थीं. जब कभी शैफाली का कोर्स पिछड़ जाता तो वह शिवानी से कौपीकिताब मांग कर कोर्स पूरा कर लेती और जब शिवानी पिछड़ जाती तो शैफाली की मदद से काम पूरा कर लेती. दोनों के बीच जातिबिरादरी का भेद नहीं था. लंच बौक्स भी दोनों मिलबांट कर खाती थीं.

एक रोज कालेज से छुट्टी होने के बाद शिवानी और शैफाली घर वापस आ रही थीं. तभी रास्ते में अचानक शैफाली का दुपट्टा उस की साइकिल की चेन में फंस गया. शैफाली और शिवानी दुपट्टा निकालने का प्रयास कर रही थीं, लेकिन वह निकल नहीं रहा था.

उसी समय पीछे से शिवानी का भाई संदीप आ गया. वह मंधना बाजार से सामान ले कर लौट रहा था. उस ने शिवानी को परेशान हाल देखा तो स्कूटर सड़क किनारे खड़ा कर के पूछा, ‘‘क्या बात है शिवानी, तुम परेशान दिख रही हो?’’

‘‘हां, भैया देखो ना शैफाली का दुपट्टा साइकिल की चेन में फंस गया है. निकल ही नहीं रहा है.’’

‘‘तुम परेशान न हो, मैं निकाल देता हूं.’’ कहते हुए संदीप ने प्रयास किया तो शैफाली का दुपट्टा निकल गया. उस रोज संदीप और शैफाली की पहली मुलाकात हुई. पहली ही नजर में दोनों एकदूसरे की ओर आकर्षित हो गए. खूबसूरत शैफाली को देख कर संदीप को लगा यही मेरी सपनों की रानी है. हृष्टपुष्ट स्मार्ट संदीप को देख कर शैफाली भी प्रभावित हो गई.

उसी दिन से दोनों के दिलों में प्यार की भावना पैदा हुई तो मिलन की उमंगें हिलोरें मारने लगीं. आखिर एक रोज शैफाली से नहीं रहा गया तो उस के कदम संदीप के घर की ओर बढ़ गए. उस रोज शनिवार था. आसमान पर घने बादल छाए थे, ठंडी हवा चल रही थी.

संदीप घर पर अकेला था. वह कमरे में बैठा टीवी पर आ रही फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ देख रहा था. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. संदीप ने दरवाजा खोला तो सामने खड़ी शैफाली मुसकरा रही थी.

‘‘शिवानी है?’’ वह बोली.

‘‘वह तो मां के साथ बाजार गई है, आओ बैठो. मैं शिवानी को फोन कर देता हूं.’’ संदीप ने कहा.

‘‘मैं बाद में आ जाऊंगी.’’ शैफाली ने कहा ही था कि मूसलाधार बारिश शुरू हो गई.

‘‘अब कहां जाओगी?’’

‘‘जी.’’ कहते हुए शैफाली कमरे में आ गई और संदीप के पास बैठ कर फिल्म देखने लगी.

कमरे का एकांत हो 2 युवा विपरीत लिंगी बैठे हों, और टीवी पर रोमांटिक फिल्म चल रही हो तो माहौल खुदबखुद रूमानी हो जाता है. ऐसा ही हुआ भी शैफाली ने फिल्म देखतेदेखते संदीप से कहा, ‘‘संदीप एक बात पूछूं?’’

‘‘पूछो?’’

‘‘प्यार करने वालों का अंजाम क्या ऐसा ही होता है.’’

‘‘कोई जरूरी नहीं.’’ संदीप ने कहा, ‘‘प्यार  करने वाले अगर समय के साथ खुद अनुकूल फैसला लें और समझौता न कर के आगे बढ़ें तो उन का अंत सुखद होगा.’’

‘‘अपनी बात तो थोड़ा स्पष्ट करो.’’

‘‘देखो शैफाली, मैं समझौतावादी नहीं हूं. मैं तो तुरतफुरत में विश्वास करता हूं और दूसरे मेरा मानना है कि जो चीज सहज हासिल न हो उसे खरीद लो.’’

‘‘अच्छा संदीप अगर मैं कहूं कि मैं तुम से प्यार करती हूं, तब तुम मेरा प्यार हासिल करना चाहोगे या खरीदना पसंद करोगे?’’

शैफाली के सवाल पर संदीप चौंका. उस का चौंकना स्वाभाविक था. वह यह तो जानता था कि शैफाली बोल्ड लड़की है, लेकिन उस की बोल्डनैस उसे क्लीन बोल्ड कर देगी, वह नहीं जानता था. संदीप, शैफाली के प्रश्न का उत्तर दे पाता, उस के पहले ही शिवानी मां के साथ बाजार से लौट आई. आते ही शिवानी ने चुटकी ली, ‘‘शैफाली, संदीप भैया से मिल लीं. आजकल तुम्हारे ही गुणगान करता रहता है ये.’’

‘‘धत…’’ शैफाली ने शरमाते हुए उसे झिड़क दिया. फिर कुछ देर दोनों सहेलियां हंसीमजाक करती रहीं. थोड़ा रुक कर शैफाली अपने घर चली गई.

उस दिन के बाद दोनों में औपचारिक बातचीत होने लगी. दिल धीरेधीरे करीब आ रहे थे. संदीप शैफाली को पूरा मानसम्मान देने लगा था. जब भी दोनों का आमनासामना होता, संदीप मुसकराता तो शैफाली के होंठों पर भी मुसकान तैरने लगती. अब दोनों की मुसकराहट लगातार रंग दिखाने लगी थी.

एक रविवार को संदीप यों ही स्कूटर से घूम रहा था कि इत्तेफाक से उस की मुलाकात शैफाली से हो गई. शैफाली कुछ सामान खरीदने मंधना बाजार गई थी. चूंकि शैफाली के मन में संदीप के प्रति चाहत थी. इसलिए उसे संदीप का मिलना अच्छा लगा. उस ने मुसकरा कर पूछा, ‘‘तुम बाजार में क्या खरीदने आए थे?’’

‘‘मैं बाजार से कुछ खरीदने नहीं बल्कि घूमने आया था. मुझे पंडित रेस्तरां की चाय बहुत पसंद है. तुम भी मेरे साथ चलो. तुम्हारे साथ हम भी वहां एक कप चाय पी लेंगे.’’

‘‘जरूर.’’ शैफाली फौरन तैयार हो गई.

पास ही पंडित रेस्तरां था. दोनों जा कर रेस्तरां में बैठ गए. चायनाश्ते का और्डर देने के बाद संदीप शैफाली से मुखातिब हुआ, ‘‘बहुत दिनों से मैं तुम से अपने मन की बात कहना चाह रहा था. आज मौका मिला है, इसलिए सोच रहा हूं कि कह ही दूं.’’

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शैफाली की धड़कनें तेज हो गईं. वह समझ रही थी कि संदीप के मन में क्या है और वह उस से क्या कहना चाह रहा है. कई बार शैफाली ने रात के सन्नाटे में संदीप के बारे में बहुत सोचा था.

उस के बाद इस नतीजे पर पहुंची थी कि संदीप अच्छा लड़का है. जीवनसाथी के लिए उस के योग्य है. लिहाजा उस ने सोच लिया था कि अगर संदीप ने प्यार का इजहार किया तो वह उस की मोहब्बत कबूल कर लेगी.

‘‘जो कहूंगा, अच्छा ही कहूंगा.’’ कहते हुए संदीप ने शैफाली का हाथ पकड़ा और सीधे मन की बात कह दी, ‘‘शैफाली मैं तुम से प्यार करने लगा हूं.’’

शैफाली ने उसे प्यार की नजर से देखा, ‘‘मैं भी तुम से प्यार करती हूं संदीप, और यह भी जानती हूं कि प्यार में कोई शर्त नहीं होती. लेकिन दिल की तसल्ली के लिए एक प्रश्न पूछना चाहती हूं. यह बताओ कि मोहब्बत के इस सिलसिले को तुम कहां तक ले जाओगे?’’

‘‘जिंदगी की आखिरी सांस तक.’’ संदीप भावुक हो गया, ‘‘शैफाली, मेरे लफ्ज किसी तरह का ढोंग नहीं हैं. मैं सचमुच तुम से प्यार करता हूं. प्यार से शुरू हो कर यह सिलसिला शादी पर खत्म होगा. उस के बाद हमारी जिंदगी साथसाथ गुजरेगी.’’

शैफाली ने भी भावुक हो कर उस के हाथ पर हाथ रख दिया, ‘‘प्यार के इस सफर में मुझे अकेला तो नहीं छोड़ दोगे?’’

‘‘शैफाली,’’ संदीप ने उस का हाथ दबाया, ‘‘जान दे दूंगा पर इश्क का ईमान नहीं जाने दूंगा.’’

शैफाली ने संदीप के होंठों को तर्जनी से छुआ और फिर उंगली चूम ली. उस की आंखों की चमक बता रही थी कि उसे जैसे चाहने वाले की तमन्ना थी, वैसा ही मिल गया है.

शैफाली और संदीप की प्रेम कहानी शुरू हो चुकी थी. गुपचुप मेलमुलाकातें और जीवन भर साथ निभाने के कसमेवादे, दिनोंदिन उन का पे्रमिल रिश्ता चटख होता गया. दोनों का मेलमिलाप कराने में शैफाली की सहेली शिवानी अहम भूमिका निभाती रही.

एक दिन प्यार के क्षणों में बातोंबातों में संदीप ने बोला, ‘‘शैफाली, अपने मिलन के अब चंद महीने बाकी हैं. मैं कानपुर आईटीआई से मशीनिस्ट टे्रड का कोर्स कर रहा हूं. मेरा यह आखिरी साल है. डिप्लोमा मिलते ही मैं तुम से शादी कर लूंगा.’’

संदीप की बात सुन कर शैफाली खिलखिला कर हंस पड़ी.

संदीप ने अचकचा कर उसे देखा, ‘‘मैं इतनी सीरियस बात कर रहा हूं और तुम हंस रही हो.’’

‘‘बचकानी बात करोगे तो मुझे हंसी आएगी ही.’’

‘‘मैं ने कौन सी बचकानी बात कह दी?’’

‘‘शादी की बात.’’ शैफाली ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘बुद्धू शादी के बाद पत्नी की सारी जिम्मेदारियां पति की हो जाती हैं. एक पैसा तुम कमाते नहीं हो, मुझे खिलाओगे कैसे? मेरे खर्च और शौक कैसे पूरे करोगे?’’

‘‘यह मैं ने पहले से सोच रखा है,’’ संदीप बोला, ‘‘डिप्लोमा मिलते ही मैं दिल्ली या नोएडा जा कर कोई नौकरी कर लूंगा. शादी के बाद हम दिल्ली में ही अपनी अलग दुनिया बसाएंगे.’’

संदीप की यह बात शैफाली को मन भा गई. दिल्ली उस के भी सपनों का शहर था. इसीलिए संदीप ने उस से दिल्ली में बसने की बात कही तो उस का मन खुशी से झूम उठा.

क्रमश:

सौजन्य: मनोहर कहानियां

सड़क संशोधन चालान लगाम या लगान

सरकार मनमानी पर उतारू है और आम लोग उस के आगे बेबस हैं. मोटर व्हीकल एक्ट में जुर्माने की अनापशनाप राशि से हादसे रुकने की गारंटी नहीं. लेकिन, देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की पोल जरूर खुल गई है. लोग दरअसल इसी को ले कर सहमे हुए हैं और नए नियमों का मजाक बना कर अपनी भड़ास भी निकाल रहे हैं.

तानाशाही का दौर गुजर जाने के अरसे बाद लोग क्यों उस की तारीफ करने लगते हैं या आंशिक रूप से उस से सहमत क्यों होने लगते हैं, इस मानसिकता पर शोध की गुंजाइशें मौजूद हैं. लेकिन, सच यह भी है कि जब तानाशाही चल रही होती है तब इस का तात्कालिक विरोध करने की हिम्मत जनता में नहीं होती, फिर चाहे जमाना राजशाही का रहा हो या लोकतंत्र का. विरोध की हिम्मत एक मुद्दत बाद ही आती है.

साल 1933 में जरमनी में हिटलर के नेत़त्व वाली नाजी सरकार ने एक अजीब सा फैसला लिया था कि नसबंदी के लिए एक मुहिम चलाई जाएगी. जरमनी तब कतई जनसंख्या के दबाव से कराह नहीं रहा था. यह तो हिटलर की सनक थी कि वह ऐसा इसलिए कर रहा था कि वंशानुगत बीमारियां अगली पीढ़ी में न फैलें. तब तकरीबन 4 लाख ऐसे जरमनियों की जबरिया नसबंदी कर दी गई थी जो किसी आनुवंशिक रोग की चपेट में थे.

यह वह दौर था जब आनुवंशिकी यानी जेनेटिक्स में रोज नएनए प्रयोग हो रहे थे और काफी वैज्ञानिक पादरी भी हुआ करते थे. हिटलर को यह गलत कहीं से नहीं लगा था कि अगर ऐसी बीमारियों पर काबू पा लिया जाए जो पीढ़ीदरपीढ़ी फैलती हैं तो जरमनी एक स्वस्थ देश होगा और नई नस्लें वंशानुगत रोगों से मुक्त होंगी. इस तरह जरमनी सब से बेहतर इंसानी नस्ल वाला देश बन जाएगा.

यह और बात है कि ऐसा कुछ हुआ नहीं. इसलिए नहीं कि हिटलर की तानाशाह कोशिशों में कोई कमी थी, बल्कि इसलिए कि जेनेटिक्स कोई प्रजा नहीं होती जो किसी तानाशाह के डर से अपना स्वभाव बदल ले. वंशानुगत बीमारियां अब भी बढ़ रही हैं. आज भी वैज्ञानिक नएनए शोध कर रहे हैं लेकिन वे जींस या डीएनए की प्रकृति और प्रवृत्ति को उस परिकल्पना में नहीं ढाल पा रहे जिस से रोगों और बीमारियों को जीता जा सके.

अब यह कहना कि हिटलर गलत क्या कर रहा था, हैरानी पैदा करने वाली बात है, यानी इस से सहमत लोग इस बात से भी इत्तफाक रखते हैं कि हिटलर अगर अपने मकसद में कामयाब हो जाता तो देश कई असाध्य बीमारियों, जिन में मानसिक ज्यादा हैं, से मुक्त होता.

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ऐसा ही दूसरा प्रसंग भारत का है. 25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजैंसी लगाई थी तो इस की अपनी अलग व्यक्तिगत व राजनीतिक वजहें थीं. लेकिन उन के छोटे बेटे संजय गांधी के हुक्म पर देशभर में तकरीबन 62 लाख लोगों की जबरिया नसबंदी कर दी गई थी. हाल यह था कि सरकार के आदेश पर डाक्टरों ने घरों में घुसघुस कर नसबंदियां कीं. यहां तक कि बसअड्डों और रेलवे स्टेशनों पर भी नसबंदियां किया जाना आम बात थी. नाबालिगों से ले कर 70-75 साल के बूढ़ों तक की नसबंदी जबरिया की गई थी.

हालांकि, आपातकाल और नसबंदी का कोई सीधा संबंध नहीं था लेकिन अभी भी वह दौर नसबंदी के लिए ज्यादा याद किया जाता है. नागरिक अधिकारों के हनन और मीडिया पर अंकुश लगाने की बात प्रसंगवश होती है. महत्त्वाकांक्षी संजय गांधी क्यों नसबंदी की मुहिम चला बैठे थे जबकि यह न भी होती तो उन का कुछ बिगड़ने वाला नहीं था. इस पर राजनीतिक समीक्षक और विश्लेषक आज भी यह मानते हैं कि संजय गांधी खुद को राजनीति में एक विशेष शख्सियत के रूप में स्थापित करना चाहते थे ताकि उन्हें दुनियाभर में पहचान व अहमियत मिले.

लेकिन, अब जब भारत जनसंख्या विस्फोट के मुहाने पर खड़ा है, तब लोगों को संजय गांधी की नसबंदी मुहिम याद आती है कि अगर वे कामयाब हो जाते तो आज हालात काबू में होते. इस में कोई शक नहीं कि 70 के दशक में देश पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव था कि वह बढ़ती आबादी को नियंत्रित करे और संजय गांधी को यह बात समझ भी आ गई थी कि अगर लोग इसी दर से बच्चे पैदा करते रहे तो जल्द ही खानेपीने के लाले पड़ जाएंगे.

यही वह दौर था जब सरकार ने कई अभियान समाजहित के छेड़ रखे थे. परिवार नियोजन के अलावा दहेज उन्मूलन, शिक्षा, पर्यावरण और कृषि क्षेत्र में हरित और श्वेत जैसी क्रांतियां इन में प्रमुख थे. सरकार चाहती थी कि उत्पादन बढ़े और देश को अन्न के लिए अमीर देशों का मुहताज न रहना पड़े.

वह दौर भी गुजर गया लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गाहेबगाहे आपातकाल को कोसने का राग अलापते रहते हैं. एक तरह से वे याद दिलाते रहते हैं कि देश एक पार्टी के हाथों में चला गया था जो एक परिवार की बपौती थी. यह बात सिरे से समझ से परे है कि जब आपातकाल और उस में भी जबरिया नसबंदी अगर गलत थी तो क्यों

15 अगस्त को लालकिले से अपने भाषण में उन्हें जनसंख्या नियंत्रण की बात कहनी पड़ी थी. ठीक वैसे ही जैसे आम और बुद्धिजीवी लोग कहते रहते हैं कि संजय गांधी कुछ खास गलत नहीं कर रहे थे. हां, उन का तरीका और उन की तानाशाही गलत थी.

मौजूदा सरकार की नजर में 2 से ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले राष्ट्रद्रोही हो गए हैं यानी सरकार कभी भी जनसंख्या नियंत्रण कानून ला सकती है और यही क्यों, मौजूदा सरकार कभी भी कोई भी कानून बना सकती है क्योंकि उस के पास रिकौर्ड बहुमत है और लोग आंख बंद कर सरकार के हर फैसले से सहमत हो रहे हैं मानो फैसले सरकार नहीं, बल्कि ऊपर वाला ले रहा हो. जनता का एक वर्ग अपने जातीय अहम के लिए सरकार की हर बात को पूरा समर्थन देने को तैयार है.

हिटलर और संजय गांधी को समझ आ गया था कि लोग समझाने से बात नहीं मानते हैं, उन पर न तो सरकार की अपीलों का कोई असर होता और न ही इश्तिहारों का, इसलिए जबरदस्ती करना उन का आखिरी विकल्प था जो उन्होंने की.

जबरदस्ती के बदले मायने

हिटलर, संजय गांधी और नरेंद्र मोदी की तुलना की जाए तो सामने यह आएगा कि मौजूदा भाजपा सरकार किस किस्म की जबरदस्ती कर रही है. ऊपरी तौर पर नोटबंदी, जीएसटी, तीन तलाक और 370 जैसे चर्चित फैसलों के बाद मोटर व्हीकल एक्ट 1988 में संशोधन तानाशाही के दायरे में नहीं आते हैं और न ही सरकार किसी से कोई जबरदस्ती कर रही है.

दावा किया जा सकता है कि यह सरकार भी लोगों और देश का भला चाहती है लेकिन मोटर व्हीकल एक्ट के संशोधित प्रावधानों पर लोग उस के द्वारा पहले लिए गए फैसलों सरीखे सहमत नहीं दिख रहे हैं. लेकिन इतने असहमत भी नहीं हुए हैं कि सड़कों पर आ कर संगठित विरोध या विद्रोह करें. फिर दिक्कत क्या है, इसे बहुत बारीकी से समझा और देखा जाना जरूरी है ताकि यह स्पष्ट हो कि कहीं यह भी जबरदस्ती ही तो नहीं और इस की खूबियां और खामियां क्या हैं.

1 सितंबर, 2019 से लागू प्रावधानों की इकलौती खास बात यह है कि अब हरेक अपराध या गलती पर जुर्माने की राशि बेतहाशा बढ़ा दी गई है (देखें बौक्स).

इस नए कानून के लागू होते ही लोगों ने तरहतरह की व्यंग्यात्मक और मनोरंजक प्रतिक्रियाएं सोशल मीडिया पर देते अपनी भावनाएं और विचार व्यक्त किए. इन में से अधिकांश सरकार और कानून का मखौल उड़ाते हुए थे (देखें बौक्स). इस का एक बड़ा मतलब यह भी निकलता है कि आम लोगों में सरकार के प्रति पहले सा लिहाज नहीं रह गया है और जो उन्हें गलत या ज्यादती लग रही है वे उस का विरोध करने लगे हैं.

लोकतंत्र की बहुत सी खूबियों में से ज्यादा अहम यह है कि इस में शासक तय नहीं करता है कि जनता कैसी होनी चाहिए, बल्कि जनता तय करती है कि शासक कैसा होना चाहिए. हालिया नए कानून के मद्देनजर यह समझना भी बेहद अहम है कि कहीं लोग इस की आड़ ले कर सरकार की छीछालेदर तो नहीं कर रहे. ये वही लोग हैं जो जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटाए जाने पर कुछ दिनों पहले सरकार की तरफ से ही तरहतरह की दलीलें दे रहे थे और ताल ठोंक कर यह भी कह रहे थे कि भाजपा को 303 सीटें कबड्डी खेलने को नहीं दी हैं.

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सड़क, सड़क दुर्घटनाओं और नए प्रावधानों से परे लोग, दरअसल, सरकार से असहमति ही जता रहे हैं, क्योंकि सीधा डाका उन की जेब पर पड़ रहा है. विरोध, हालांकि, नोटबंदी के बाद भी हुआ था और इस से ज्यादा हुआ था जिस से भाजपा और नरेंद्र मोदी घबरा उठे थे कि कहीं गुस्साए लोग सड़कों पर न आ जाएं. उस संभावित विद्रोह को रोकने नरेंद्र मोदी को एक सार्वजनिक सभा में लगभग आंसू बहाते कहना पड़ा था कि मुझे 50 दिन का वक्त और दीजिए सब ठीक हो जाएगा.

मंशा यह है

ऐसा लगता नहीं कि लोगों की असल मंशा महज बढ़े हुए जुर्माने के प्रति ही है, बल्कि लगता ऐसा है कि लोग यह मानने लगे हैं कि सरकार अब निरंकुश हो चली है जिस की मनमानी पर यदि अभी प्रतीकात्मक तौर पर भी लगाम नहीं कसी गई तो आने वाले वक्त में सांस लेने पर भी टैक्स लग सकता है. फिर भले ही वह एक पैसा प्रति सांस ही हो.

बिलाशक नए प्रावधान जबरदस्ती थोपे गए हैं और चूंकि वे सीधेसीधे आम लोगों की रोजमर्राई जिंदगी को प्रभावित कर रहे हैं, इसलिए लोगों का गुस्सा सोशल मीडिया पर व्यंग्य की शैली में निकला जो साहित्य की भाषा और परिभाषा में पीड़ा व व्यथा से उपजा माना जाता है.

सड़क लोगों की बुनियादी जरूरत है, जिस से वे बिजली और पानी की तरह कोई समझौता करने की गलती या चूक नहीं कर सकते. अब सरकार के बताए मुताबिक सड़कों पर चलना पड़े और बात न मानने पर बातबात पर जुर्माना भरना पड़े, तो लोगों की तकलीफ स्वाभाविक है. लेकिन यह तकलीफ तकनीकी तौर पर लोगों को यह जताते दी गई है कि तुम लोग अनुशासनहीन, गंवार और असभ्य हो, जो अभी तक सड़कों पर सलीके से वाहन चलाना भी नहीं सीखे हो और सिखाने का इकलौता तरीका जुर्माना है.

सोशल मीडिया, दरअसल, एक डिजिटल सड़क है जिस की प्रतिक्रियाओं को सरकार ज्यादा दिनों तक नजरअंदाज करने की गलती नहीं कर सकती. इसलिए नए प्रावधानों के लागू होने के बाद ही केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को यह सफाई देने को मजबूर होना पड़ा कि देश में 5 लाख सड़क हादसे हर साल होते हैं जिन में डेढ़ लाख मौतें होती हैं, और इन में 60 फीसदी युवा होते हैं. क्या इन की जान नहीं बचानी चाहिए? लोगों में कानून के प्रति सम्मान और डर नहीं हो, ऐसी स्थिति अच्छी नहीं है. बाद में वे यह भी कहते नजर आए कि जुर्माना वही भरेगा जो नियमकानून तोड़ेगा.

जड़ में पैसा और भ्रष्टाचार

नए संशोधित प्रावधानों ने हैरतअंगेज तरीके से तुरंत अपना असर दिखाया और पुलिस ने कुछ चालान ऐसे भी काटे जो देशभर में चर्चा का विषय बने. गुरुग्राम में एक स्कूटी सवार से 23 हजार रुपए वसूले गए जबकि उस की स्कूटी की कीमत 15 हजार रुपए की भी नहीं थी. इसी तरह भुवनेश्वर में एक औटोरिकशा चालक से जुर्माने के 47,500 रुपए वसूले गए. इन दोनों के पास वांछित कागजात नहीं थे.

निश्चित रूप से ये और इस तरह के लोग गलत हैं लेकिन आम लोगों की इस दलील को नजरअंदाज या खारिज भी नहीं किया जा सकता कि कोई स्कूटी चालक क्यों 23 हजार रुपए का जुर्माना भरेगा, इस से तो बेहतर वह अपनी 15 हजार की स्कूटी पुलिस वालों को देना फायदे का सौदा समझेगा.

एक अंदाजे के मुताबिक, देशभर के 17 करोड़ दोपहिया वाहनों में से 12 करोड़ की हालत ऐसी ही है.जाहिर है लोग चाहते हैं कि गलती पर जुर्माना हो, लेकिन वह इतना अव्यावहारिक नहीं होना चाहिए कि उन पर भार पड़ जाए. सरकार जानबूझ कर उन पर ऐसा ही जुर्माना थोप रही है. दरअसल, इस भारीभरकम जुर्माने में सरकार ने इस बात का ध्यान नहीं दिया है कि देश में प्रतिव्यक्ति औसत आय 10,534 रुपए महीना है. इस को आधार मानें तो एक गलती पर एक झटके में महीनेभर की कमाई सरकार झटक ले जा रही है.

दरअसल, 1 सितंबर को ही 2 और अहम खबरें सामने आई थीं कि सरकार को जीएसटी से होने वाली आमदनी में एक लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा का नुकसान हुआ है और जीडीपी में भारीभरकम गिरावट आ रही है. ऐसे में लोगों की यह आशंका गलत नहीं कही जा सकती कि सरकार की मंशा और मकसद तरहतरह से आम लोगों की जेब से पैसा निकाल कर सरकार चलाना है. बढ़ा हुआ जुर्माना इन में से एक है. इस से पहले भी सरकार कई कदम ऐसे उठा चुकी है जिन में डाका सीधा आम लोगों की जेब पर ही पड़ा था.

रसोई गैस, पैट्रोल, डीजल के बढ़ते दाम, रेलवे टिकट पर और एक टैक्स के अलावा बैंकिंग प्रक्रिया में तो लोगों को तरहतरह से बेवजह का पैसा देना पड़ रहा है. दो टूक कहें तो सरकार आर्थिक मोरचे पर असफल साबित हो चुकी है और अपनी नाकामी ढकने के लिए वह तरहतरह से लोगों की जेब, उन के भले के नाम पर, काट रही है. इस के लिए वह जरूरी दहशत भी लोगों में फैला रही है.

पैसे के बाद फसाद की बड़ी जड़ पुलिस विभाग में पसरा भ्रष्टाचार और खुलेआम घूसखोरी भी है. खासतौर से सड़कों को ले कर तो हालात बेहद बुरे हैं. पुलिस वाले, जिन पर जुर्माना वसूलने की जिम्मेदारी है, हर कहीं कभी भी बैरियर, बैरिकेट्स और चैकिंग पौइंट लगा कर आम लोगों का निकलना मुश्किल कर देते हैं. ये पुलिस वाले जुर्माना कम वसूलते हैं, घूस ज्यादा खाते हैं.

ऐसे में लोगों का यह डर जायज है कि उन के जुर्माने का पैसा सरकारी खजाने तक पहुंचेगा ही नहीं. और सरकार इस बात की गारंटी भी नहीं ले रही. इसीलिए एक पोस्ट यह भी खूब वायरल हुई कि सरकार ने टै्रफिक चालान के बहाने पुलिस विभाग के लिए आठवें वेतनमान की व्यवस्था कर दी है. सरकार आम लोगों को तो अनुशासन में रहने और नियमों का पालन करने को जुर्माने के जरिए बाध्य कर रही है लेकिन गलेगले तक भ्रष्टाचार और घूसखोरी में डूबे पुलिस विभाग पर चुप्पी साधे हुए है.

यह हर किसी का रोजमर्राई तजरबा है कि पुलिस वाले लाइसैंस, रजिस्ट्रेशन और परमिट, बीमा वगैरह न होने पर लोगों से 100-200 रुपए ले कर उन्हें जाने देते हैं, ठीक वैसे ही जैसे ट्रेन में टीटीई हजारपांच सौ रुपए में बर्थ बेच देता है. इतना ही नहीं, पुलिस वाले तो सरेआम लोगों से बदतमीजी, मारपीट और गालीगलौज भी करते हैं. ऐसा वे इसलिए नहीं करते कि उन्हें लोगों की जानमाल की चिंता और उन से कानून का पालन कराने की ड्यूटी पूरी करनी होती है, बल्कि इसलिए करते हैं कि ज्यादा से ज्यादा घूस वसूल कर अपना घर भरा जा सके. ऐसी कई पोस्टें भी सोशल मीडिया पर आएदिन वायरल होती रहती हैं.

यानी सरकार की नजर में लोगों का स्वाभिमान और आत्मसम्मान कोई माने नहीं रखता. फिर क्या खा कर वह लोगों की जान की हिफाजत का वास्ता दे रही है. उस की बात किसी के गले नहीं उतर रही. और लोग यह बात भी हजम नहीं कर पा रहे कि ज्यादा जुर्माना भर देने से सड़क हादसों में कमी आएगी.

इन दलीलों में भी है दम

1 सितंबर को जैसे ही लोगों को नए प्रावधान के ये नुकसान समझ आए तो उन्होंने सीधेसीधे सड़कों की बदहाली पर सवाल उठाए, खराब पड़े ट्रैफिक सिग्नल्स का रोना रोया, ट्रैफिक जाम का हवाला दिया. गड्ढों के बारे में बताया, अतिक्रमण को भी बयां किया. लेकिन सरकार है कि यह मानने को तैयार ही नहीं कि सड़क दुर्घटनाएं इन वजहों से भी होती हैं. उस ने तो सीधेसीधे लोगों को जिम्मेदार ठहरा कर पल्ला झाड़ लिया.

पिछले 5 दशकों से खराब और बदहाल सड़कें हमेशा ही चुनावी मुद्दा रही हैं. राजनीतिक पार्टियां सड़कें सुधारने का वादा कर के सत्ता में आती हैं और फिर भूल जाती हैं. कभी बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव ने सड़कों को हेमामालिनी के गालों की तरह चमका देने का वादा कर सत्ता हथियाई थी, तो साल 2003 के चुनाव में मध्य प्रदेश में भाजपा ने कांग्रेसी राज में सड़कों की दुर्दशा को मुद्दा बनाया था. लेकिन इन दोनों सहित तमाम राज्यों में सड़कों की बदहाली आज भी ज्यों की त्यों है.

हर कोई जानता है कि हाइवे पर सड़क हादसे ज्यादा होते हैं और शराब इस की बड़ी वजह है, लेकिन, इन्हीं राजमार्गों पर जगहजगह शराब के ठेके, ढाबे और लाइसैंसशुदा बार शान से चल रहे हैं. इन राजमार्गों पर दूरदूर तक कोई अस्पताल, डिस्पैंसरी या डाक्टर तो दूर की बात है, मरहमपट्टी कराने को कोई कंपाउंडर भी नहीं मिलता. शराबखोरी को बढ़ावा दे कर शराबी ड्राइवरों पर जुर्माना लगाना कौन सी तुक की बात है, इस का कोई जवाब किसी सरकार के पास नहीं. सरकारों को तो बस राजस्व से मतलब है, फिर चाहे वह मरने की शर्त पर हो या जिंदा रहने की मजबूरी में.

ऐसी कई ठोस दलीलें हैं जो सरकार और उस की मंशा को कठघरे में खड़ी करती हैं जिन का मकसद और मंशा यह है कि हमारा गिरेहबान पकड़ कर जेब से तो पैसा निकाल लिया जाएगा, लेकिन अपनी जिम्मेदारियां सरकार कब पूरी करेगी. हम ने भाजपा को 303 सीटें लूटखसोट करने को नहीं दीं थीं.

इस में कोई शक नहीं कि लगभग 60 फीसदी सड़क हादसे चालकों की गलतियों और लापरवाहियों से होते हैं, लेकिन अहम सवाल जो तेजी से पूछा जा रहा है वह यह है कि ज्यादा जुर्माने से क्या इन पर काबू पाया जा सकेगा?

लोगों को जुर्माने के डंडे से अनुशासित करने का टोटका नहीं चल पाया तो सरकार क्या करेगी? जुर्माना कम करेगी या और बढ़ाएगी? संभावना दूसरी बात की ज्यादा है क्योंकि सरकार की मंशा सिर्फ और सिर्फ जानमाल की ओट ले कर पैसा झटकने की है, जिस में वह कामयाब भी होती दिख रही है क्योंकि लोगों का विरोध सोशल मीडिया तक ही सिमट कर रह गया है.

अब लोग लाइसैंस, परमिट और रजिस्ट्रेशन वगैरह के लिए दफ्तरों में लाइन लगाए खड़े हैं. इस से भी सरकार को भारी आमदनी हो रही है.

लेकिन असली बात यह है कि नए कानून के बहाने जनता ने सरकार पर जम कर निशाना साधा जो एक तरह की चेतावनी है कि भविष्य में ऐसी कोई दूसरी ज्यादती की, तो लोग उसे बख्शेंगे नहीं. फिर भले ही सालों बाद उसे यह कहना पड़े कि फैसला गलत कहां से था. गलत तो हैसियत से ज्यादा लगाया गया जुर्माना था. सड़क हादसों में मारे जाने वाले लोग अपनी मौत के जिम्मेदार खुद होते हैं, सरकार का इस में कोई देष नहीं ठीक वैसे ही जैसे हिटलर और संजय गांधी का नसबंदी के मामले में नहीं था.

सरकार की मानसिकता

सरकार की हालत और मानसिकता ब्रिटिश हुकूमत जैसी साफ दिख रही है जो अपने खर्चों के लिए बातबात पर लगान लगा देती थी और लोग घरबार, जमीनजायदाद व गहने तक बेच कर देते थे क्योंकि उन्हें देश में रहना जो होता था. आज भी यही हो रहा है. लोग सड़कों के इस्तेमाल की जरूरत से ज्यादा कीमत चुकाने को मजबूर हैं, तो यह किस्तों में लगते अघोषित आपातकाल को स्वीकार लेने की मजबूरी है. वहीं, भाजपा सरकार किसी भी शर्त पर देश को हिंदू राष्ट्र बनाए, उस की मंजूरी भी है.

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यहां यह बात उल्लेखनीय है कि आपातकाल के दौरान नसबंदी अभियान चलाने का एक मकसद यह भी था कि लोगों का ध्यान इंदिरा गांधी पर चल रहे अदालती मामलों से हट जाए, फिर चाहे देश में दहशत फैले तो फैलती रहे. आज के मोटर व्हीकल एक्ट के संशोधनों का सच क्या है, इस के लिए कुछ साल इंतजार करना पड़ेगा.

फिलहाल तो ड्राइविंग संबंधी दस्तावेज बनवाने, संभालने और उन का नवीनीकरण कराने में व्यस्त लोगों का ध्यान जीएसटी से कम होती कमाई और गिरती जीडीपी से हट गया है.

पोषण से भरपूर है नारियल पानी, जानें इसके फायदे

वैसे तो आपने नारियल तेल के बहुत सारे फायदों के बारे में सुना होगा, लेकिन हम आपको बता दें कि नारियल खाना भी काफी फायदेमंद है. गर्मियों में तो यह बेहद लाभकारी है क्योंकि यह शरीर को ठंडा रखता है. सेहत के लिहाज से देखें तो नारियल पौष्टिक तत्वों से भरपूर होता है. रोजाना नारियल का एक टुकड़ा खाने से न सिर्फ आपकी बौडी में इम्यूनिटी बढ़ती है बल्कि याददाश्त भी बेहतर होती है. नारियल विटमिन, मिनरल, कार्बोहाइड्रेड और प्रोटीन से भरपूर होता है. इसमें पानी की मात्रा भी अच्छी होती है. इसलिए ये बौडी को हाइड्रेड रखता है. इसके अलावा बाल और स्किन को हेल्दी रखने के लिए नारियल का सेवन जरूर करना चाहिए.

बढ़ती है याददाश्त

नारियल खाने से याददाश्त बढ़ती है. इसके लिए नारियल की गिरी में बादाम, अखरोट व मिश्री मिलाकर हर रोज खाएं. नारियल में अच्छा कोलेस्ट्रॉल पाया जाता है जो आपके हार्ट को हेल्दी रखता है.

पेट साफ करता है

अगर आपको कब्ज की समस्या रहती है तो नारियल के एक बड़े टुकड़े को रात के खाने के बाद अच्छी तरह चबा कर खाकर सो जाएं. इसके बाद पानी न पिएं. सुबह आपका पेट बिल्कुल साफ हो जाएगा. नारियल में फाइबर अच्छी मात्रा में पाया जाता है जो पेट को साफ कर देता है.

नकसीर में फायदेमंद

जिन लोगों को गर्मियों में नाक से खून आता है. उनके लिए नारियल दवा की तरह काम करता है. इसके लिए नारियल को मिश्री के साथ मिलाकर खाएं.

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उल्टी रोकता है

अगर किसी को बार-बार उल्टी आ रही है तो उसे नारियल का टुकड़ा मुंह में रखकर थोड़ी देर तक चबाना चाहिए. इससे उल्टी में तुरंत फायदा होगा.

इम्यूनिटी बढ़ाए

नारियल के सेवन से इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाया जा सकता है. गर्भावस्था के दौरान एचआईवी, फ्लू, दाद इत्यादि से बचने के लिए भी नारियल खाना चाहिए. नारियल में एंटिबैक्टीरियल, एंटिफंगल और एंटिवायरल तत्व पाए जाते हैं जो गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की रक्षा कर सकते हैं.

सनस्क्रीन का काम करता है

नारियल एक अच्छा एंटिबायौटिक है, इससे हर तरह की एलर्जी दूर होती है. नारियल का तेल अच्छा सनस्क्रीन है. धूप में जाने से पहले इसे लगाकर निकलें तो आप धूप की अल्ट्रावायलेट किरणों के कुप्रभाव से बच जाएंगे और आपको किसी महंगे सनस्क्रीन की जरूरत भी नहीं पड़ेगी.

मुंहासे दूर करे

पिंपल्स को दूर करने के लिए ककड़ी के रस में नारियल का पानी मिलाकर चेहरे पर लगाएं. फायदा होगा.

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पेट में कीड़े होने पर

पेट में कीड़े होने पर रात को सोने से पहले और सुबह 1 चम्मच पिसे हुए नारियल का सेवन करें. इससे पेट के कीड़े बहुत जल्दी मर जाते हैं.

नए टोटकों से ठगी : मिर्ची यज्ञ और गुप्त नवरात्रि

ग्राहकों को लुभाने के लिए कंपनियां जैसे नएनए प्रोडक्ट लौंच करती हैं वैसे ही धर्म के दुकानदार भी नएनए पाखंड परोसते रहते हैं. लेकिन यह शुद्ध ठगी है, इस से दूर रहने में ही भलाई है.

केवल मध्य प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश की राजनीति में बाबाओं, धर्मगुरुओं, महामंडलेश्वरों, तांत्रिकों और ज्योतिषियों सहित शंकराचार्यों का दखल बहुत बढ़ रहा है. 2019 के लोकसभा चुनाव में धर्म के इन दुकानदारों ने तबीयत से चांदी काटी थी. लेकिन सब से ज्यादा चर्चाओं में मध्य प्रदेश रहा जहां लगातार 15 साल भाजपा का राज रहा था.

एक है स्वामी वैराग्यानंद गिरि जिस के बारे में लोग इतना ही जानते हैं कि वह भी दूसरे बाबाओं की तरह सिद्ध और चमत्कारी है. महामंडलेश्वर कहे जाने वाले इस बाबा के इन दिनों कहीं अतेपते नहीं हैं. भले ही उस की पोल खुल चुकी हो, लेकिन उस की पोल के खुलने से लोगों की आंखें खुल रही हों, ऐसा कतई नहीं लग रहा.

मिर्ची यज्ञ का ढकोसला

मिर्ची बाबा के नाम से मशहूर हो गए वैराग्यानंद को नाम के मुताबिक किसी किस्म का वैराग्य नहीं है बल्कि यह बाबा पूरे ऐशोआराम से भक्तों की दक्षिणा पर भौतिक सुखों का भोग करता है. सही मानो में कहें तो यह भोगानंद मानव जीवन की नश्वरता समझते उसे ऐशोआराम से जीने में यकीन करता है.

दूसरे बाबाओं की तरह यह भी मेहनतमजदूरी कर पेट नहीं भरता, बल्कि इस का पेशा तंत्रमंत्र की आड़ में लोगों को उल्लू बना कर अपना उल्लू सीधा करना है. यह बाबा भोपाल लोकसभा चुनाव के दौरान और उस के बाद तक सुर्खियों में रहा था. इस सीट से कांग्रेसी दिग्गज दिग्विजय सिंह के मुकाबले भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा सिंह को मैदान में उतारा था. उस समय सभी की निगाहें इस कड़े और दिलचस्प मुकाबले पर टिक गई थीं.

अपनी जीत के लिए दिग्विजय सिंह ने जिन सैकड़ों बाबाओं का डेरा, डंगर और लंगर भोपाल में डलवा दिया था, मिर्ची बाबा उन में से एक था जिस ने दावा किया था कि वह 5 क्ंिवटल मिर्ची का यज्ञ करेगा जिस के प्रभाव से दिग्विजय सिंह जीत जाएंगे. धर्म के इस नए आइटम को देखने के लिए हजारों लोग इकट्ठा हुए थे और मीडिया ने देशभर में मिर्ची यज्ञ की चर्चा या प्रचार कुछ भी कह लें, किया था.

मिर्ची यज्ञ एक नए किस्म का यज्ञ है जिस का आविष्कार शायद इसी बाबा ने किया है. इसीलिए लोगों की दिलचस्पी इस में और बढ़ गई. बड़े धूमधड़ाके से इस बाबा और इस की टीम ने मिर्ची यज्ञ संपन्न किया. बात में दम लाने के लिए इस बाबा ने यह घोषणा भी कर दी थी कि अगर इस अनूठे मिर्ची यज्ञ के बाद भी दिग्विजय सिंह नहीं जीते तो वह जल समाधि ले कर ब्रह्मलीन हो जाएगा.

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दिग्विजय सिंह नहीं जीते. उलटे, प्रज्ञा भारती के हाथों 3 लाख से भी ज्यादा वोटों से हारे तो यह बाबा नदारद हो गया, क्योंकि पोल खुल चुकी थी खुद की भी और यज्ञ की भी. जिन लोगों के पास इस का फोन नंबर था वे इसे फोन करकर के पूछते रहे कि बाबा जल समाधि कब ले रहे हो, तो उस ने फोन ही बंद कर दिया.

ड्रामे पे ड्रामा

बात आईगई होने लगी, लेकिन यह बाबा बेहतर जानता था कि धर्मांध लोग बेवकूफ होते हैं. इन से पैसा ? गटकने की संभावनाएं कभी खत्म नहीं होतीं. लिहाजा, जून के दूसरे सप्ताह में यह फिर प्रकट हो गया और जल समाधि लेने की घोषणा कर डाली.

चालाकी दिखाते यानी खुद को बचाने की गरज से मिर्ची बाबा ने एक वकील सैयद अली के जरिए कलैक्टर भोपाल तरुण पिथोड़े को एक चिट्ठी लिखी कि वह ब्रह्मलीन होना चाहता है, इसलिए प्रशासन इस की अनुमति दे.

यह ड्रामा भी कम दिलचस्प नहीं था. अपनी चिट्ठी में इस बाबा ने लिखा कि अभी वह तंत्रमंत्र के लिए मशहूर असम के कामाख्या मंदिर में तपस्यारत है और 16 जून की दोपहर 2 बज कर 11 मिनट पर समाधि लेना चाहता है. इस पत्र में उस ने माना कि चूंकि उस ने दिग्विजय सिंह की जीत के लिए यज्ञ किया था और उन के हारने की स्थिति में समाधि लेने की घोषणा की थी, इसलिए वह अपना संकल्प पूरा करना चाहता है.

चूंकि कानून में ऐसा कोई प्रावधान है नहीं कि प्रशासन किसी बाबा के विधिविधान से मरने का इंतजाम करे, इसलिए कलैक्टर ने इजाजत नहीं दी और यही इस बाबा की मंशा भी थी कि देखो, मैं तो मरने को तैयार था लेकिन सरकार ने नहीं करने दिया. मरने की इजाजत तो दूर की बात है, उलटे, प्रशासन को इस ढोंगी बाबा की जानमाल की सुरक्षा के इंतजाम भी करने पड़े.

दो कौड़ी की अक्ल रखने वाला भी कह सकता है कि जब ब्रह्मलीन होना ही था तो उस के लिए कलैक्टर की इजाजत की क्या जरूरत. तुम तो बाबा हो, जहां चाहे समाधि ले लो, किसे पता चलेगा. लेकिन मकसद पाखंड फैलाना और ड्रामा करना ही था, जो इस देश में कोई नई बात नहीं. हां, जिस दिन ऐसा कोई ड्रामा न हो, तो जरूर लगता है कि हम सांपसंपेरों और तंत्रमंत्र प्रधान देश के निवासी नहीं रहे.

फैल गया अंधविश्वास

साफ दिख रहा है कि अब यह बाबा जरूर किसी नए ड्रामे की तैयारी में है, क्योंकि यही इस का पेशा है. मिर्ची यज्ञ की पोल खुलने के बाद भी लोगों ने कोई सबक नहीं लिया. भोपाल में अब हर कहीं, छोटे स्तर पर ही सही, मिर्ची यज्ञ होने लगे हैं. हैरत तो इस बात की भी है कि लोग घरों में खुद मिर्ची यज्ञ करने लगे हैं. अब यज्ञ हवन के बाद दोचार मिर्चियां भी लोग हवन सामग्री के साथ हवन कुंड में डाल लेते हैं कि शायद इस से बिगड़ी बात बन जाए और कोई चमत्कार हो जाए.

मिर्ची यज्ञ धर्म की हाट का नया आइटम है, इसलिए इसे लोग खूब ट्राई कर रहे हैं. दतिया के नजदीक रतनपुर मंदिर में भी मिर्ची यज्ञ हुआ तो बिहार के गया में भी समारोहपूर्वक इसे संपन्न किया गया. इस नवीनतम यज्ञ का धुआं धीरेधीरे देशभर में फैल रहा है और लोग बेवकूफों की तरह मिर्ची आग में ?ोंक कर खांसते आंखें पोंछ रहे हैं. ऐसे में दिग्विजय सिंह और मिर्ची बाबा से ज्यादा तरस इन लोगों पर आता है.

मिर्ची जला कर बच्चों की नजर उतारने का रिवाज काफी पुराना है. फिर भी बच्चे बीमार पड़ते हैं. कुपोषण से और दूसरी बीमारियों से भी मर रहे हैं. लेकिन जब लोगों ने भी कसम खा रखी है कि वे नहीं सुधरेंगे, तो कोई क्या कर लेगा. जब बिलकुल जान पर आ जाती है, तो वे दौड़ते हैं डाक्टर के पास कि साहब, बचा लो, भगवान के बाद आप ही हो.

गुप्त नवरात्रि

मिर्ची यज्ञ हिट हो गया है. लेकिन जानकर हैरत होती है कि लोगों को मूंड़ने के लिए इन बाबाओं ने तरहतरह के पाखंड फैला रखे हैं. जुलाई के पहले सप्ताह में अखबारों में, न्यूज चैनल्स पर और उस से भी ज्यादा सोशल मीडिया पर जम कर प्रचार हुआ गुप्त नवरात्रि का. वायरल हुई एक पोस्ट में बीती 7 जुलाई को बताया गया कि गुप्त नवरात्रि के तहत आज सातवें दिन मां कात्यायनी की पूजा होती है जिस से घरगृहस्थी खुशहाल बनी रहती है, छात्र उत्तीर्ण हो जाते हैं, बेरोजगारों को रोजगार मिल जाता है और विवाहयोग्य उम्मीदवारों की शादी हो जाती है.

इस पोस्ट के आखिर में एक तांत्रिक का नाम और नंबर दिया गया था. लोगों ने इस तांत्रिक से संपर्क किया और गुप्त नवरात्रि में खूब पूजापाठ कराया. फिर तो अकेले इसी ने ही नहीं, बल्कि सैकड़ों तांत्रिकों ने गुप्त नवरात्रि से खूब पैसा बनाया और सालभर के राशनपानी का इंतजाम कर लिया.

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भोपाल के एक प्रमुख समाचारपत्र की खबर पर गौर करें तो प्रकट नवरात्रि के अलावा 2 और गुप्त नवरात्रि भी होती हैं जो माघ और आषाढ़ के महीने में आती हैं. इन नवरात्रि में गुप्त साधनाएं करने से भक्तों और साधकों की तमाम मनोकामनाएं पूरी होती हैं. इस खबर में दुर्गा के 10 रूपों का वर्णन करते बताया गया था कि 10 जुलाई तक कब, किस देवी की साधना किस तरीके से करनी चाहिए.

इस प्रतिनिधि ने एक पंडेनुमा तांत्रिक से गुप्त नवरात्रि पर पूजा करने की बात कही तो वह सहर्ष तैयार हो गया. उस ने इस बाबत 11 हजार रुपए नकद मांगे और इतने के ही सामान की लिस्ट थमा दी. इस के बाद इस तांत्रिक से संपर्क नहीं किया गया तो उस ने तो पहले फोन किए और बाद में घर पर ही आ धमका. पूजा के बाबत मना करने पर इस ने तरहतरह के श्राप दिए और गुप्त नवरात्रि का डर दिखाया कि एक बार मन में बात आ जाने के बाद या संकल्प लेने के बाद पूजापाठ नहीं कराया तो इतने अनिष्ट होंगे कि फिर ब्रह्मा भी कुछ नहीं कर सकेगा.

बिलकुल मना कर देने पर यह तांत्रिक घर में धूनी रमा कर बैठ गया कि पूजा के 11 हजार रुपए दो नहीं तो भस्म होने के लिए तैयार हो जाओ. यह नजारा देख दिल्ली के चांदनी चौक की याद हो आई जहां के फुटपाथी दुकानदारों से किसी आइटम का भाव पूछ लो तो वे हाथ धो कर ग्राहक के पीछे पड़ जाते हैं कि अब तो लेना ही पड़ेगा. नहीं तो वे गालीगलौज और मारपीट तक पर उतारू हो आते हैं.

जब इस पंडे को पुलिस बुलाने की धौंस दी गई तो उस ने पहली बार सच बोला कि बुला लो, सभी पुलिस वाले हमारे यजमान हैं और घर तो घर, थानों तक में हम से ही यज्ञहवन करवाते हैं. पिछले साल फलां आईपीएस की लड़की चुपचाप भागी थी तो उन्होंने हम से ही अनुष्ठान करवाया था.

बहरहाल, जैसेतैसे यह पंडा टला लेकिन खोजबीन करने पर पता चला कि केवल गुप्त नवरात्रि में ही नहीं, बल्कि काफी लोग घरों में तांत्रिक अनुष्ठान करवाते रहते हैं और इन में तथाकथित सभ्य, शिक्षित, आधुनिक और संपन्न लोग ज्यादा होते हैं. किसी को संतान से समस्या है तो किसी की पत्नी बीमार रहती है, किसी को व्यापार में घाटा हो रहा है और किसी को शत्रु का नाश करवाना है. ऐसे सैकड़ों काम ये तांत्रिक करते हैं.

इन के पास होटलों की तरह बाकायदा एक मैन्यू कार्ड होता है जिस में शत्रु को मारने से ले कर वशीकरण यज्ञ तक का रेट लिखा रहता है. ऐसी क्रियाएं अकसर रात को की जाती हैं और गुप्त नवरात्रि में तो भोपाल जैसे शहर में पंडों और तांत्रिकों का टोटा पड़ जाता है.

कोई क्या कर लेगा

मिर्ची वाला बाबा हो या गुप्त नवरात्रि वाला, इन का कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता, क्योंकि इन के खिलाफ कार्यवाही का जिम्मा जिन लोगों के पास है वही इन के यजमान होते हैं. इन के विज्ञापन चैनलों पर, अखबारों में, पत्रपत्रिकाओं में और सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से चलते हैं.

मिर्ची वाले बाबा की बात करें तो बात कम हैरत की नहीं कि भोपाल कलैक्टर ने उस की ब्रह्मलीन होने की दरख्वास्त ली और उस की सुरक्षा में पुलिस बल तैनात कर दिया. अगर उसे यह कह दिया जाता कि यह काम भगवान का है, उस से पूछ लो, तो यह बाबा फिर दुम दबा कर भाग जाता या फिर कोई और नई दलील गढ़ लेता.

दरअसल, जब लोग यहां लुटने और बेवकूफ बनने को तैयार बैठे हैं तो इन बाबाओं का क्या दोष. उलटे, जब ये बाबा लोग तरहतरह से तंत्रमंत्र और चमत्कारों का प्रचार और ब्रैंडिंग करते हैं तो धर्मभीरु लोग इन के ?ांसे में क्यों नहीं आएंगे, जो दिमाग और तर्कों को ताक में रखते कुछ भी करवाने को तैयार हो जाते हैं. इन के दिमाग में तो सदियों से यह बात ठुंसी पड़ी है कि धर्मग्रंथों में वर्णित चमत्कार वास्तव में भी होते हैं.

कहने को ही यह युग विज्ञान का है वरना बोलबाला और दबदबा तो मिर्ची और अदरक वाले बाबाओं सहित सड़क छाप निठल्ले, निकम्मे और ठग तांत्रिकों का है जिन पर किसी का जोर नहीं चलता. राजनेता इन का सहारा लेते हैं और प्रशासन इन की हिफाजत करने के साथ इन्हें महिमामंडित करता है. ऐसे में कोई इन का क्या कर लेगा. देश का आर्थिक विकास जाए भाड़ में, धर्म का विकास होना चाहिए.

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