Download App

लाइलाज नहीं जैंडर डिस्फोरिया

17 वर्ष का मोहसिन मुंबई में अपनी मां और बहन के साथ अपने मामा के घर में रहता है. जब घर पर कोई नहीं होता तो वह बहन के कपड़े और अंडरगारमैंट्स चुपके से ले कर पहनता और घर में ठुमके लगाया करता था. वह मां की हाईहील सैंडल पहन कर भी घूमता था. उस की इस आदत को पड़ोसी देख कर उस की मां से शिकायत किया करते थे. मां को गुस्सा आ जाता था और वे उसे पीटती थीं, पर उस में सुधार नहीं आया.

ऐसा कई सालों तक चलता रहा. मां को पता था कि उन का बेटा ऐसा है. लेकिन करें तो क्या करें? परेशान हो कर वे मुंबई के सायन अस्पताल में असिस्टैंट प्रोफैसर व मनोरोग चिकित्सक, डा. गुरविंदर कालरा से मिलीं. वे डाक्टर से कहती रहीं कि यह बिगड़ चुका है, इसे सुधारने की आवश्यकता है.

दरअसल, मां को लगता था कि उन के बेटे का दिमागी संतुलन ठीक नहीं है जिस की वजह से वह लड़का होते हुए भी लड़कियों के कपड़े पहन कर नाचता है.

डा. कालरा का कहना था कि यह लड़का किसी भी रूप में बीमार नहीं है. उस के अंदर ‘जैंडर डिसऔर्डर’ है जिसे चाहें तो आप ठीक कर सकते हैं या फिर उसे वैसे ही रहने दे सकते हैं.

डा. कालरा आगे कहते हैं कि मोहसिन को ‘जैंडर डिस्फोरिया’ या ‘जैंडर डिसऔर्डर’ काफी समय से है. इस में व्यक्ति को खुद की शारीरिक बनावट और मानसिक बनावट में अंतर दिखाई पड़ता है. व्यक्ति लड़की या लड़का पूरी तरह से बनना नहीं चाहता, उसे अपनी शारीरिक संरचना पसंद है पर उस का मानसिक स्तर लड़की जैसा है. अधिकतर किन्नर इसी के शिकार होते हैं जो शारीरिक रूप से लड़के होते हैं पर वे मानसिक रूप से लड़कियों जैसा व्यवहार करते हैं.

एक अध्ययन में पाया गया कि अगर कोई व्यक्ति ‘जैंडर आइडैंटिटी डिसऔर्डर’ का शिकार हो तो वह किन्नर ही बने, यह सोचना ठीक नहीं.

सायन अस्पताल के मनोरोग प्रमुख डा. निलेश शाह कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति अपना सैक्स बदलने के लिए सर्जरी करवा सकता है. तकरीबन 50 किन्नरों से बात करने पर पता चला कि 84 प्रतिशत किन्नर ‘जैंडर आईडैंटिटी डिसऔर्डर के शिकार हैं. उन की इस मनोदशा को शुरुआती अवस्था में ही इलाज द्वारा सुधारा जा सकता है. असल में किन्नर ‘थर्ड जैंडर’ में आते हैं जबकि ‘जैंडर डिस्फोरिया’ में व्यक्ति सिंगल जैंडर का होता है.

यूएस के अटलांटा में पिछले वर्ष वर्ल्ड प्रोफैशनल एसोसिएशन फौर ट्रांसजैंडर हैल्थ द्वारा विचारगोष्ठी का आयोजन किया गया था जिस में डा. गुरविंदर कालरा ने इस विषय पर अपनी स्टडी प्रस्तुत की. इसे सभी ने सराहा और अधिक से अधिक लोगों ने इस विषय की जानकारी प्राप्त की. इस पर बातचीत भी हुई. इस तरह के अध्ययन पश्चिमी देशों में अधिक हुए हैं.

न करें मारपीट

डा. कालरा कहते हैं कि इस तरह की अव्यवस्था या गड़बड़ी बच्चे को ढाई या 3 साल की अवस्था से शुरू हो जाती है. जब बच्चा अपने लिंग की पहचान कर पाता है. ऐसे बच्चे समलैंगिक नहीं होते. ये अधिकतर लड़कियों के बीच में खेलते या फिर लड़कियां लड़कों के बीच में खेलना, उन की जैसी हरकतें करना वगैरा करते हैं. ऐसे में समाज उन की हंसी उड़ाया करता है. परेशान हो कर मातापिता उस से मारपीट करते हैं जो ठीक नहीं.

यह अव्यवस्था बच्चे को जन्म से ही होती है. लेकिन कई बार कुछ विडंबना या घटना भी इसे जन्म दे सकती है, जैसे कि पिता का घर से दूर रहना, पिता का मर जाना आदि. इस तरह के बच्चे बहुत कम डाक्टर तक पहुंच पाते हैं.

मुंबई के फोर्टिस अस्पताल की मनोरोग चिकित्सक डा. पारुल टांक कहती हैं कि बचपन से ही बच्चे की आदत को सुधारना जरूरी है. कई बार मातापिता लड़की को लड़कों के कपड़े पहना देते हैं क्योंकि घर में लड़का नहीं है. ऐसे में बच्चे के कुछ हावभाव लड़कों जैसे हो जाते हैं, जैसा कि उन के पास आई एक लड़की का हुआ जो अपने पिता की मौत के बाद अपनेआप को लड़का समझने लगी और बाद में अपना ‘सैक्स’ भी चैंज करवा डाला.

यह सर्जरी हमारे देश में काफी लंबी है और उम्रभर हार्माेन देना पड़ता है क्योंकि उन में स्वाभाविक तौर पर हार्मोन नहीं होता.

मजाक न उड़ाएं

जब लड़की या लड़का अपनेआप को विपरीत लिंग के समझने लगते हैं तो सब से पहले पड़ोसी, दोस्त वगैरा उस का मजाक उड़ाते हैं जिस से बच्चे को तनाव, उदासीनता, घबराहट आदि होने लगती है इसलिए बड़े हो कर वे बच्चे ‘सैक्स चैंज’ की लंबी प्रक्रिया को भी अपनाने के लिए तैयार हो जाते हैं.  समय रहते अगर मातापिता मनोरोग चिकित्सक के पास जाएं तो बच्चे को इस समस्या से निकालने का प्रयास किया जा सकता है.

इस में यह भी देखना होता है कि कहीं यह अव्यवस्था उस में पागलपन की वजह से तो नहीं है. अगर ऐसा नहीं है तो यह बीमारी नहीं है. इस का इलाज किया जा सकता है. मातापिता समाज या परिवार से डरें नहीं बल्कि आगे आ कर बच्चे को इस समस्या से नजात दिलाने का प्रयास करें.

अब मेल पिल्स

मेल कौंट्रासैप्टिव पिल्स के अनुसंधान की शुरुआत हालांकि 7वें दशक के प्रारंभ में हो गई थी किंतु सफलता नहीं मिल पाने के पीछे वैज्ञानिकों की अपनी मजबूरी थी. इस की राह में पुरुषों के प्रजनन अंगों की रचना और फिजियोलौजी की जटिलताएं बारबार आड़े आती रहीं. महिलाओं में ओव्यूलेशन से ले कर फर्टिलाइजेशन और भू्रण को गर्भाशय के अंदर इंप्लांटेशन को रोक कर गर्भधारण को बाधित करना अपेक्षाकृत आसान है. पुरुषों के साथ ऐसी बात नहीं है. महिला की एक ओवरी से पूरे महीने में मात्र एक ही अंडा निकलता है जिस को नियंत्रित करने में वैज्ञानिकों को विशेष परेशानी नहीं हुई. ओव्यूलेशन के लिए जिम्मेदार हार्मोंस की मात्रा को बाधित कर देने पर न तो अंडे का निर्माण संभव है और न ही ओव्यूलेशन. इसलिए फीमेल पिल्स की ईजाद में चिकित्सा वैज्ञानिकों को विशेष परेशानी नहीं हुई, लेकिन पुरुषों में न तो कभी वीर्य का निर्माण और न ही स्खलन बाधित होता है.

इतना ही नहीं, प्रत्येक स्खलन के दौरान वीर्य के प्रति मिलीलिटर में लगभग 100 मिलियन से भी अधिक शुक्राणु होते हैं. जहां तक प्रैग्नैंसी की बात है, इस के लिए मात्र एक ही शुक्राणु काफी होता है और वह शुक्राणु कोई भी हो सकता है. ऐसी स्थिति में, एकसाथ इतने शुक्राणुओं को नियंत्रित करना वैज्ञानिकों के लिए आसान बात नहीं थी, फिर भी इसी को आधार बना कर शुरुआती दिनों में गोसिपोल नामक गोली के निर्माण में वैज्ञानिकों को आंशिक सफलता मिली. लेकिन ऐसा देखा गया कि इस से शुक्राणुओं की संख्या में तेजी से कमी आती है और 10 फीसदी पुरुष स्थायी रूप से संतानोत्पत्ति में असमर्थ पाए गए. सो, इस के प्रयोग को तुरंत बंद कर दिया गया.

शुरुआती दौर में गोसिपोल का प्रयोग असफल साबित हुआ, किंतु इतना तो स्पष्ट हो गया कि मेल पिल्स के निर्माण में सैक्स हार्मोंस द्वारा ही सफलता मिल सकती है. अर्थात इस की विभिन्न मात्रा का प्रयोग कर ऐसी गोलियां बनाई जा सकती हैं जो शुक्राणुओं के निर्माण को न तो स्थायी रूप से बाधित करें और न ही प्रैग्नैंसी की संभावनाओं को स्थायी रूप से खत्म करें. इस के साथसाथ, वैज्ञानिकों ने इस बात को भी ध्यान में रखा कि मस्तिष्क में स्थित पिट्यूटरी ग्लैंड नामक विशेष ग्रंथि को भी नियंत्रण में रखा जाए तो शुक्राणुओं के निर्माण को नियंत्रण में रखा जा सकता है.

वैज्ञानिक इस बात पर ध्यान केंद्रित करने लगे कि शुक्राणुओं के निर्माण के लिए जिम्मेदार मस्तिष्क में स्थित पिट्यूटरी ग्लैंड द्वारा स्राव को बाधित कर दिया जाए तो बिना किसी साइड इफैक्ट या सैक्स की क्रियाशीलता को बाधित किए शुक्राणुओं की संख्या में कमी ला कर प्रैग्नैंसी को नियंत्रित किया जा सकता है. लेकिन अनुसंधान के क्रम में शीघ्र ही एक नए सैक्स हार्मोन टेस्टोस्टेरोन का पता चला जो अंडकोष से स्रावित होता है.

शोध से यह भी पता चला कि टेस्टोस्टेरोन नामक यह हार्मोन शुक्राणुओं के निर्माण से ले कर मैच्योर होने के लिए जिम्मेदार है. इतना ही नहीं, वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि यह पुरुषार्थ के साथसाथ मांसपेशियों के विकास तथा दाढ़ीमूंछ के निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण भागीदारी निभाता है.

अब वैज्ञानिकों का सारा ध्यान इसी हार्मोन पर था. वे अपने अनुसंधान से यह पता लगाने में लग गए कि किस तरह इस हार्माेन के स्राव को नियंत्रित किया जाए. जैसेजैसे अनुसंधान आगे बढ़ता गया, इस रहस्य से परदा उठने लगा और शीघ्र ही पता चल गया कि शुक्राणुओं के निर्माण के लिए जिम्मेदार अंडकोष से स्रावित होने वाले टेस्टोस्टेरोन का तार पिट्यूटरी ग्लैंड से जुड़ा है.

इस दौरान यह भी पता चला कि जब इस की मात्रा रक्त में सामान्य से ज्यादा हो जाती है या फिर बाहर से इस का समावेश किया जाता है तो शुक्राणु का निर्माण पूरी तरह बाधित हो जाता है. लेकिन इस से कई दूसरे अवांछित साइड इफैक्ट भी देखने को मिलने लगे. चेहरे पर कीलमुंहासे, वजन में बढ़ोत्तरी के साथसाथ पौरुषग्रंथि में वृद्धि होने की शिकायतें आने लगीं.

इस के बाद वैज्ञानिकों ने एक दूसरा रास्ता निकाला. टेस्टोस्टेरोन के साथ एक दूसरा सैक्स हार्मोन प्रोजेस्टेरोन की एक निश्चित मात्रा मिला कर प्रयोग करने पर विचार किया गया. इस के पीछे वैज्ञानिकों का तर्क था कि यह हार्मोन पुरुष और महिला दोनों में रिप्रौडक्टिव हार्मोन सिस्टम के स्राव को कम कर देता है. ऐसा करने में वैज्ञानिकों को आशातीत सफलता मिली.

लंबे अनुसंधान के बाद यह तय हो गया है कि मेल पिल्स में प्रोजेस्टेरोन तथा टेस्टोस्टेरोन दोनों तरह के हार्मोन का मिश्रण जरूरी है. इस के साथ यह समस्या आने लगी कि प्रोजेस्टेरोन और टेस्टोस्टेरोन से निर्मित पिल्स के खाने के बाद आंत में जा कर पाचक रस और विभिन्न एंजाइम्स के प्रभाव से विच्छेदित हो जाता है, जिस से इस की क्रियाशीलता तथा प्रभाव दोनों कम हो जाते हैं. इसलिए शोधकर्ता अब इन दोनों हार्मोंस के मिश्रण को त्वचा में इंप्लांट करने के लिए इस के माइक्रो कैप्सूल तथा इंजैक्शन विकसित कर रहे हैं, ताकि टेस्टोस्टेरोन की क्रियाशीलता प्रभावित न हो. दुनिया के कई देशों में माइक्रो पिल्स, इंजैक्शन क्रीम, जैल आदि का निर्माण करने पर विचार किया गया.

परीक्षण अब अंतिम चरण में

पिल्स का परीक्षण दुनिया के कई देशों में अब अंतिम दौर में है. ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि वह दिन दूर नहीं जब महिलाओं की तरह पुरुष भी मैडिकल शौप से बर्थ कंट्रोल की गोलियां, क्रीम, जैल की शीशियां खरीदते, अस्पतालों में इस का इंजैक्शन लेते और परिवार नियोजन केंद्रों पर इस के सेवन के तरीकों पर चर्चा करते नजर आएंगे.

हाल ही में लगभग 1 हजार पुरुषों पर इस के इंजैक्शन का परीक्षण किया जा चुका है और 99 फीसदी कारगर भी साबित हुआ है. यह अस्थायी तौर पर रिप्रौडक्टिव हार्माेनल सिस्टम को या तो कम कर देता है या उसे पूरी तरह से रोक देता है. खास बात यह है कि यह पूरी तरह रिवर्सिबल है और इस का सेवन छोड़ देने पर 67 फीसदी पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या 6 माह के भीतर सामान्य हो जाती है. शतप्रतिशत सामान्य होने में लगभग 1 साल का समय लगता है. इस में किसी तरह के साइड इफैक्ट देखने को नहीं मिले.

यूनाइटेड नैशन वर्ल्ड और्गेनाइजेशन यूनिवर्सिटीज औफ कैलिफोर्निया, लौस एंजेल्स तथा यूनिवर्सिटीज औफ सिडनी में भी इस का परीक्षण पूरा किया जा चुका है. पौरुष को मैंटेन रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस हार्मोन के सेवन से बिना किसी परेशानी के स्पर्म काउंट में कमी तो आई लेकिन बांझपन, उत्तेजना या इच्छा में कमी जैसे विकार देखने को नहीं मिले. यूनिवर्सिटीज औफ वाशिंगटन के पौपुलेशन सैंटर फौर रिसर्च इन रिप्रौडक्शन के विशेषज्ञ डा. एंड्रियू कोवियेलो के शब्दों में, ‘‘पुरुष कौंट्रोसैप्टिव के लिए यदि टेस्टोस्टेरोन का प्रयोग किया जाता है तो 3 महीने के बाद तक इस का स्राव होता रहता है. यानी इस का प्रयोग 3 महीने बाद तक सुरक्षित माना जा सकता है. फलस्वरूप इस के माइक्रो कैप्सूल विकसित करने की कोशिश की जा रही है जिस में गाढ़े तरल पदार्थ के रूप में हार्मोन होगा और जिसे हथेली तथा बांह की त्वचा के नीचे इंप्लांट करने की सुविधा होगी.’’

आस्टे्रलिया के शोधकर्ताओं ने पुरुषों के लिए जैब नामक नौन बैरियर कौंट्रासैप्टिव मैथड के अंतर्गत इंजैक्शन के निर्माण में सफलता पा ली है. इसे प्रोजेस्टेरोन तथा टेस्टोस्टेरोन के मिश्रण से बनाया गया है और इसे 2 से 3 माह के अंतराल में लगाने की जरूरत होती है.

यह वीर्य का निर्माण नहीं होने देता और इस का प्रभाव स्थायी भी नहीं होता है. एनजेक रिसर्च इंस्टिट्यूट यूनिवर्सिटी औफ सिडनी तथा कोनकार्ड हौस्पिटल ने 18 से 51 वर्ष के लगभग 1756 पुरुषों के बीच इस का परीक्षण करने के बाद पाया कि यह इंजैक्शन काफी तेज और प्रभावी है.

इस परीक्षण में शामिल एसोसिएट प्रोफैसर पीटर लिउ के अनुसार, ‘‘आज इस की काफी जरूरत है क्योंकि कई महिलाएं पिल्स का सेवन करना नहीं चाहतीं या फिर इसे किसी कारणवश टौलरेट नहीं कर पातीं. उसी तरह कई पुरुष ऐसे होते हैं जो अपने बंध्याकरण को देर से कराना चाहते हैं या फिर कराना नहीं चाहते.’’

परीक्षण रिपोर्ट के अनुसार जैब इंजैक्शन बंध्याकरण की तरह उतना ही इफैक्टिव है जितना महिलाओं के द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली पिल्स. इस के सेवन के बाद न तो सर्जरी और न ही दूसरी वजह से स्पर्म के निर्माण को पूरी तरह बंद करने की जरूरत होगी.

अभी मेल पिल्स मार्केट में आई भी नहीं, पर इस को ले कर तरहतरह के सवाल उठ रहे हैं. सवाल तब भी उठे थे जब फीमेल पिल्स पहली बार मार्केट में आई थी. तब यह बात उठी थी कि इस से मां के नैसर्गिक अधिकार का अतिक्रमण होगा. समाज में विकृतियां आएंगी. नैतिक, सामाजिक, वैचारिक मूल्यों में गिरावट आएगी. यौनशोषण को बढ़ावा मिलेगा. अब, लगभग 60 वर्षों के बाद जब मेल पिल्स मार्केट में आने वाली है तब भी कुछ इसी तरह के सवाल उठने लगे हैं. कहा जाने लगा है कि इस से सामाजिक तानाबाना छिन्नभिन्न हो जाएगा. पतिपत्नी और दांपत्य में दरार आएगी, तलाक में इजाफा होगा. सामाजिक कटुता और वैमनस्य बढ़ेंगे आदि.

दुनिया के मशहूर जर्नल फैमिली प्लानिंग ऐंड रिप्रौडक्टिव हैल्थकेयर में यूएसए के यूनिवर्सिटीज औफ सोशल फ्यूचर इंस्टिट्यूट के प्रो. जुडिथ इबरहार्डथ ने लगभग 140 पुरुषों और 240 महिलाओं के बीच बातचीत कर यह जानने की कोशिश की कि आम लोग इस के सेवन के प्रति कितना सहज, सतर्क तथा ईमानदार होंगे.

स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बात से चिंतित हैं कि मल्टी सैक्सुअल पार्टनर तथा लिव इन रिलेशनशिप पर विश्वास करने वाले पुरुषों के बीच यदि कंडोम का प्रयोग कम हुआ तो एड्स तथा गुप्त रोग फैलने की संभावना काफी बढ़ जाएगी.

एक बात और, ऐसी महिलाएं जो प्रैग्नैंसी के बाद पुरुष को जबरदस्ती शादी करने के लिए बाध्य करती हैं, वैसे पुरुषों के लिए यह पिल्स वरदान साबित हो सकती है. साथ ही वे पुरुष जो कंडोम का इस्तेमाल करते हैं, इस पिल्स को इस्तेमाल जरूर करेंगे.

उधार के शुक्राणु

यह सुन कर चौंकिएगा नहीं कि गुजरात के शैलेश अपने ही पोते के जैविक पिता हैं. यह इस तरह संभव हुआ कि शैलेश के पुत्र राहुल पटेल, जोकि अमेरिका में सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं, को अजूस्पर्किया नामक बीमारी हो गई. इस की वजह से राहुल में स्पर्म बनना बंद हो गया. ऐसी स्थिति में परिवार की कड़ी आगे किस तरह बढ़े, यह विचारणीय प्रश्न बन गया. परिवार ने मिल कर तय किया कि अन्य के स्पर्म लेने के बजाय राहुल के पिता शैलेश के ही स्पर्म ले लिए जाएं ताकि बच्चा जैनेटिकली अंतर्परिवारीय हो. ऐसा ही किया गया और आयु के 60वें दशक में प्रवेश कर चुके शैलेश इस तरह अपने पोते के जैविक पिता बन गए.
 
‘विकी डोनर’ फिल्म की तर्ज पर एक ब्रिटिश पुरुष ने स्पर्म डोनेशन करना शुरू कर दिया. जब उस की पत्नी को इस बात का ज्ञान हुआ तो वह कुपित हो गई. उस ने ह्यूमन फर्टिलाइजेशन ऐंड एंब्रयोलौजी अथौरिटी यानी एचएफइए से पति द्वारा किए जा रहे स्पर्म डोनेशन को गैर कानूनी बताते हुए मांग की कि पति के स्पर्म को पत्नी की ‘वैवाहिक संपत्ति’ माना जाए.
 
ब्रिटिश अखबार ‘डेली मेल’ के अनुसार, इस महिला ने शंका व्यक्त की है कि इन स्पर्म से उत्पन्न बच्चे से मेरे पति का नैसर्गिक रूप से इमोशनल अटैचमैंट बनेगा. परिणाम- स्वरूप भविष्य में वह मेरे बेटे के सौतेले भाईबहन के रूप में जुड़ कर परेशानियों का सबब बन सकता है क्योंकि बालिग होने पर उस बच्चे को जैविक पिता के बारे में जानने का कानूनी अधिकार है. महिला ने एचएफईए से इस संबंध में आवश्यक गाइडलाइन बनाने की भी मांग की है.
 
गौरतलब है कि वर्ष 2005 में ब्रिटेन के एक कोर्ट ने आदेश दिया था कि एक स्पर्म डोनर सिर्फ 10 परिवारों को ही स्पर्म डोनेट कर सकता है. इतना ही नहीं, यदि स्पर्म डोनेशन से उत्पन्न बच्चा बालिग होने पर बायलौजिकल पिता के बारे में जानना चाहे तो उसे उस के बारे में जानकारी देनी होगी. बच्चा चाहे तो क्लिनिकल प्रमाण के साथ जैविक पिता से मिल व जुड़ भी सकता है किंतु जैविक पिता को अपनी ओर से उस से मिलने व जुड़ने का अधिकार नहीं होगा. क्योंकि डोनेशन से पूर्व स्पर्म डोनर से इस आशय का शपथपत्र लिया जाता है कि उसे यह जानने का अधिकार नहीं होगा कि स्पर्म का प्रयोग कहां किया गया है और न ही वह भविष्य में बच्चे पर अपना अधिकार जताएगा.
 
जहां तक हमारे देश की बात है, संसद में वर्ष 2008 में एक विधेयक लाया गया था. कृत्रिम रूप से बच्चे पैदा करने की तकनीक से जुड़ा यह विधेयक आज तक संसद में पारित नहीं हो पाया. इस विधेयक में इस क्षेत्र को नियंत्रित करने के लिए कुछ कानून सुझाए गए थे. प्रजनन केंद्रों के डाक्टर भी इस के लिए देश में नियंत्रक कानून बनाए जाने की मांग कर रहे हैं जिस से स्पर्म डोनेशन के साथ आईवीएफ तकनीक पर ध्यान रखा जा सके. उन की मांग थी कि स्पर्म डोनेट करने वाले लोगों की सूची रखे जाने के लिए एक केंद्रीय संस्थान का गठन किया जाए ताकि भारत सरकार के कानून के अंतर्गत सांविधिक रूप से इस पर नियंत्रण रखा जा सके.
 
बावजूद इस के, हमारे देश में भी यह कारोबार अपने पांव पसार रहा है. स्पर्म लेनदेन के विशिष्ट नियमकायदे तो नहीं हैं पर स्वयं निर्मित संहिता का पालन अवश्य किया जाता है. वात्सल्य प्रजनन केंद्र के क्लिनिकल रिसर्च विभाग की डा. वसुधा भट्ट कहती हैं, ‘‘ब्लड डोनेशन की भांति स्पर्म डोनेशन भी समाज हित का कार्य है, इसलिए इस के बदले पैसा दिए जाने का प्रावधान नहीं है. मगर स्पर्म डोनेशन की बात कुछ और ही है. यहां स्पर्म लेने वाले की चाह के अनुसार विशिष्ट, योग्य व्यक्ति का चयन और निश्चित मानदंडों के अनुसार उस का क्लिनिकली स्वस्थ होना अहम चुनौती है. ऐसे दुर्लभ चयन व गोपनीयता की शर्त के कारण केंद्र को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से मनचाहे धन का प्रलोभन देना पड़ता है ताकि डोनर स्वेच्छा व उमंग से स्पर्म डोनेट कर सके. तत्पश्चात डोनर से प्राप्त स्पर्म को ‘-196 डिगरी सेल्सियस’ पर लिक्विड नाइट्रोजन में स्टोर कर संरक्षित रखना होता है.’’
 
मगर मौडर्न आईवीएफ सैंटर की डा. कंचन जाघव बताती हैं कि भारत में स्पर्म देने और लेने वालों का आज भी टोटा है. हमारे देश में स्पर्म डोनेशन के लिए स्वस्थ, सुयोग्य व्यक्ति के चुनाव हेतु कोई मानदंड तय नहीं है. सामान्यतया प्रजनन केंद्र यही ध्यान रखते हैं कि प्राप्त किया जाने वाला स्पर्म रोगदोष मुक्त हो. जैविक रूप से स्पर्म डोनर कितना युवा, सुयोग्य और प्रतिभाशाली है, इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता.
 
हालांकि फिर भी तमाम वर्जनाओं व नकारात्मकताओं के बावजूद युवावर्ग में स्पर्म देने व लेने के प्रति रु?ान बनने लगा है. चूंकि अब संयुक्त परिवार तो रहे नहीं और न ही उन का पहले जैसा भावनात्मक दबदबा रहा है, ऐसी हालत में एकल परिवार अंत:परिवारीय घालमेल में पड़ कर, खामखां विचित्र स्थितियों से रूबरू होना नहीं चाहते, क्योंकि अंत:परिवारीय स्पर्म लेनदेन के कारण संभव है कि पारिवारिक संबंध नष्टभ्रष्ट व विकृत हो जाएं. कोई बड़ी बात नहीं कि इन के कारण ब्लैकमेलिंग का ऐसा तानाबाना बुना जाए कि परिवार अनैतिक संबंधों की दलदल बन कर रह जाएं. कौन जाने, इस तरह उत्पन्न संतान को शैलेश व राहुल के उदाहरण की भांति जीवनपर्यंत कलंकित, विषम संबोधनों व आरोपों से मुखातिब होना पड़े और नतीजतन पारिवारिक संबंधों का तानाबाना बिखर जाए. इसलिए ऐसी विषम परिस्थितियों से बचने के उद्देश्य से एकल परिवार गोपनीयता बरतते हुए स्पर्मबैंक से ही स्पर्म प्राप्त करने का सुरक्षित मार्ग अपनाने लगे हैं.
 
इस के बावजूद स्पर्म डोनेशन के कारण उत्पन्न होने वाली कतिपय पारिवारिक व सामाजिक समस्याओं से इनकार नहीं किया जा सकता. उदाहरण के लिए स्पर्म डोनेशन से उत्पन्न बच्चों में स्वाभाविक रूप से नैसर्गिक पैतृक गुणावगुण का अभाव दृष्टिगत होगा और संभव है उन के कारण मातापिता के अपनत्व भाव में नीरसता आ जाए. अति तो उस समय हो जाएगी, जब मातापिता व बच्चे के संबंधों में तनिक मात्र का विचलन आ जाने पर विभिन्न आक्षेपों का सिलसिला प्रारंभ हो जाएगा. असंभव नहीं कि इस कारण परिवार के अन्य सदस्य भी ऐसे बच्चों को बाहरी अंश मान कर अलगाव भाव बरतने लगें.
 
श्रीमती दुर्गादेवी मैमोरियल हौस्पिटल की डा. ललिता खंडेलवाल इस की पुष्टि तो नहीं करतीं मगर कहती हैं कि सच तो यह है कि हमारे यहां स्पर्म डोनेशन आज भी अनजाना सा नाम है और जो जानते हैं उन के लिए तो यह वर्जनापूर्ण विषय है. फिर भी इस पर हो रही चर्चाओं से, चाहे वे फिल्म के कारण शुरू हुई हों या मीडिया के माध्यम से, लोगों की जिज्ञासाएं अवश्य बढ़ी हैं किंतु स्पर्म डोनेट करने या डोनेटेड स्पर्म ग्रहण करने के मामले में लोगों की दकियानूसी ?ि?ाक आज भी देखने को मिलती है. जहां अन्य के शुक्राणु ले कर संतानोत्पत्ति की बात है, वहां भारतीय पारंपरिक समाज में परपुरुष के शुक्राणु से उत्पन्न संतान को वर्णसंकर मान कर हेय दृष्टि से देखा जाता है. इस बात का सबूत प्रथम उदाहरण है, जो होने को तो पढ़ेलिखे, खुले विचारों वाले भारतीय परिवार से संबंधित है पर उन्होंने शुक्राणु लेने के मामले में दकियानूसी सोच दिखाई और बाहरी स्वस्थ युवा व्यक्ति के स्पर्म लेने के बजाय स्वयं के परिवार के प्रौढ़ायु व्यक्ति के स्पर्म लेना उचित माना.
 
ऐसी संभावनाएं भी बनती हैं जब मातापिता बच्चों में उच्च या विशेषीकृत जैनेटिक गुणों की चाह में, बच्चा पैदा करने के योग्य होने के बावजूद, व्यक्ति विशेष के स्पर्म की मांग करने लगें. सुनने में आया है कि ‘विकी डोनर’ फिल्म के बाद जौन अब्राहम के स्पर्म की मांग होने लगी थी तब अब्राहम को उपहास में कहना पड़ा कि यदि ऐसा हो गया तो मैं ‘फादर औफ नैशन’ बन जाऊंगा. कल को कोई क्रिकेटर की चाह में सचिन तेंदुलकर, महेंद्र सिंह धौनी या अन्य की या विशिष्ट पारंगतता प्राप्त विभूतियों के स्पर्म की चाह रखने लगे तो हैरानी नहीं.
 
कल्पना कीजिए, ऐसा हुआ तो एक व्यक्ति के अनेक क्लोन नजर आने लगेंगे जिस से उस व्यक्ति की विशिष्टता ही समाप्त हो जाएगी. सोचने वाली बात है, यदि क्रिकेट टीम में एक सचिन की जगह सभी सचिन हों, तो फिर सचिन की महत्ता कहां रह जाएगी?
 
जो कुछ भी हो, इन्हें नियंत्रित करने के लिए भारत सरकार को वर्ष 2008 में प्रस्तुत विधेयक को अद्यतन कर, अविलंब प्रभावी दिशानिर्देश पारित करने होंगे. कानून में स्वस्थ व सक्रिय स्पर्म की सुनिश्चितता के साथ यह व्यवस्था भी करनी होगी कि जैविक पिता और उत्पन्न संतान के संबंधों की गोपनीयता पूरी तरह से बनाई रखी जाए, अन्यथा मां व बच्चे के अतिरिक्त दोनों परिवार (शुक्राणु प्रदाता व गृहीत्वा) प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे. दूसरी ओर गोपनीयता भंग हो जाने की स्थिति में ‘नारायण दत्त तिवारी प्रकरण’ की भांति कोई बच्चा व उस की मां डीएनए टैस्ट के आधार पर पितृत्व की नई समस्याओं को जन्म दे सकती है. अत: उभयपरीक्षा सुरक्षा सुनिश्चित किए जाने के लिए एक परिपूर्ण निरापद कानून की सख्त आवश्यकता है.
 
समय रहते ऐसा नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब स्पर्म डोनेशन के प्रचलन में आते ही ब्रिटेन और अरब अमीरात की भांति भारत में भी विभिन्न समस्याएं जन्म लेने लगेंगी. देश में ‘मैडिकल टूरिज्म’ की बढ़ती संभावनाओं के कारण विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रस्तुत होने की भी प्रचुर संभावनाएं हैं. इसलिए एक समग्र कानून बनाए जाने की जरूरत है ताकि ब्लड डोनेशन की भांति स्पर्म डोनेशन भी सकारात्मक रूप से अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सके.

चरम आनंद का सुख

स्त्रीपुरुष संबंध में चरम आनंद को और्गेज्म कहा जाता है. स्त्रियों में यह स्थिति धीरेधीरे या देर से आती है. इसलिए कई स्त्रियों को इस के आने या होने का एहसास भी नहीं होता. सैक्सोलौजिस्ट्स यह मानते हैं कि मनुष्य देह मल्टीपल और्गेज्म वाली है जबकि स्त्री को प्रकृति ने पुरुष की तुलना में ज्यादा बार और्गेज्म पर पहुंचने की क्षमता दी है. कुपोषण, पोषणहीनता विटामिंस की कमी, सैक्स संबंधों में अनाड़ीपन या अल्पज्ञान के चलते हमारे देश में लोग मोनो और्गेज्म का ही सुख पाते हैं और उसे ही पर्याप्त सम झते हैं.

सुहागरात का प्रथम मिलन

अकसर दंपती सुहागरात के दिन चरम आनंद का अनुभव नहीं कर पाते. उन्हें लगता है व्यर्थ ही इतने सपने पाले. 

एक दंपती कहता है, बहुत भयंकर रहा हमारा प्रथम मिलन. पत्नी को छूते ही पति का काम हो गया (स्खलित हो गया). पत्नी कोरी (चरमानंद का एक अंश तक नहीं) ही रह गई. अभी पतिपत्नी के बीच न कुछ बात हुई, न विचार…पति ग्लानि का शिकार हो गया. उसी को दबाने के लिए उस ने नया पैंतरा अपनाया. शादी में ससुराल में हुए स्वागत और लेनदेन में मीनमेख निकालने लगा. पत्नी भी कब तक चुप रहती. दूसरेतीसरे दिन पति सहज था पर पत्नी न हो पाई. तब पति ने सचाई पत्नी को बताई. इस सच को बता कर और अपनी कमजोरी बता कर पति ने पत्नी का मन जीत लिया. उस दिन वे दोनों मन से मिले. दरअसल, वे उसी दिन को अपनी सुहागरात का नाम देते हैं.

कई बार प्रथम रात्रि में आनंद भी संभव नहीं होता, और्गेज्म तो दूर की बात है. दरअसल, उस रात्रि में कई तरह के डर हावी रहते हैं. मिलन के लिए दोनों की मानसिकता एकजैसी हो, यह भी आवश्यक नहीं. चरमानंद तालमेल, स्नेह व सद्व्यवहार पर निर्भर करता है.

लंबे समय बाद भी सुख

अकसर पुरुष आनंद पा ले तो स्त्रियां अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती हैं. पूछने पर कह देती हैं कि उन्हें आनंद आ गया. असल में 2 या 3 बच्चे हो जाने के बाद भी आनंद आता है. एक युवती कहती है, ‘‘संभोग करने में उसे दर्द रहता था. सहेलियों ने सलाह दी कि बच्चा पैदा होने पर यह दर्द गायब हो जाएगा. दर्द गायब हुआ पर चरमानंद तीसरे बच्चे के बाद ही आया. चरमानंद के बाद मैंने संभोग की असली स्टेज जानी जिस के बाद कुछ करने का मन नहीं करता.’’

एक स्त्री कहती है, ‘‘मुझे मेनोपौज के समय चरमानंद का पता चला. उस समय कामोत्तेजना बढ़ गई. मैं स्वयं ही इन से फरमाइश करने लगी. पहले चरमानंद आ जाता तो जीवन के लंबे अरसे तक इस का अनुभव लेते रहते.’’

कैसे पहचानें और्गेज्म

यह स्थिति चरम संतुष्टि की स्थिति है. यह अपनेआप पता लग जाती है. अकसर इस के बाद कुछ करने का मन नहीं करता. कुछ स्त्रियां आंख मीच कर निढाल भी रहती हैं.

इस दौरान योनि में संकुचन हृदय धड़कन जैसा होने लगता है. निरंतर और्गेज्म पाते रहने से इस स्थिति पर पहुंचने का 20-30 सैकंड पहले पता लग जाता है. ऐसे में एकाग्रता बढ़ा लेना अच्छा रहता है. पुरुष भी अपनी देह पर पकड़ अनुभव करते हैं. यह स्थिति उन के लिए सफल सैक्स का बहुत बड़ा साइलैंट कम्युनिकेशन है.

और्गेज्म अपने सुख के लिए भी है. शरीर के साथ ही यह मन को भी हलका बनाता है. शरीर से निकले स्राव तनमन में रासायनिक क्रिया उपजाते हैं. मन को फुर्तीला बनाते हैं, जीवन के प्रति विश्वास जगाते हैं. जीना रुचिकर लगता है, उस में रस आता है. कभी स्खलन न हो या चरमानंद न आए तो मन बेचैन, उद्विग्न, अकारण परेशान, चिंतातुर रहता है. इसे चरमानंद पाने वाले लोग आसानी से जानसम झ सकते हैं.

हर बार पहले जैसी अनुभूति

एक युवती कहती है कि पहला और्गेज्म उसे समझ न आया. संकुचन हुआ तो लगा पता नहीं यह क्या हो गया. इसे जानने के बाद अगली बार यह स्थिति न सिर्फ आनंददायक रही बल्कि तृप्तिदायक व संतुष्टिदायक भी रही. एक युवक कहता है, ‘‘मेरी पत्नी ने एक रात मुझे बताया कि आज मुझे नाभि तक सरसराहट महसूस हो रही है. लग रहा है मेरे भीतर घंटियां बज रही हैं.’’ मैं समझ गया, यह उस का पहला और्गेज्म है.

स्त्रियों का चरमानंद पुरुषों के चरमानंद जैसा मुखर नहीं होता कि बिना बताए उसे कोई जान ले या भांप ले. इसीलिए कई बार उस में बाधा होती है. कुछ स्त्रियों को चरमानंद से पूर्व जल्दी और ज्यादा घर्षण चाहिए. कुछ को पुरुष अंग और गहराई पर चाहिए तो किसीकिसी को सिर्फ कोराकोरा स्पर्श चाहिए.

पुरुष करते हैं परवा

स्त्रियों के चरमानंद की पुरुषों को बहुत परवा रहती है. दरअसल, यह उन्हें अपनी सैक्स परफौर्मैंस की बदौलत पाई सफलता लगती है. इसलिए उन्हें सही स्थिति बताई जाए तो वे उस की परवा करते हैं, यहां तक कि अपने आनंद को स्थगित कर के भी. एक सज्जन कहते हैं कि मैं चरमानंद के नजदीक होता हूं और मेरी पत्नी कहती है, अब यह करो. यह मत करो तो मैं मान लेता हूं क्योंकि मुझे पता है, मेरी तृप्ति कैसे होती है पर उस की तृप्ति उस समय मेरे लिए सब से महत्त्वपूर्ण होती है.

चरमानंद से पूर्व भी आनंद आता है. अगर चरमानंद को डिले करना है तो थोड़ा ध्यान बांटा जाए. लेकिन डिले इतना न हो कि हाथ से ही निकल जाए. यह न हो कि वह पुरुष साथी स्खलित हो जाए और फिर स्त्री के योग्य होने में उसे समय लगे और तब चरमानंद हाथ न आए.

फोरप्ले व आफ्टरप्ले दोनों स्थितियों का अपना महत्त्व है. अच्छे फोरप्ले से समय पर चरमानंद पाया जा सकता है और अच्छा आफ्टरप्ले चरमानंद को देर तक बनाए रखता है. ये भावात्मक निकटता उपजाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. सैक्स को सिर्फ तन की क्रिया ही नहीं रहने देते बल्कि भावनात्मक, आंतरिक व सम्मानजनक बनाते हैं.

चरमानंद सैक्स को मुक्त मन से किए गए स्वागत का सुखद परिणाम है.ु यह स्त्रीत्व और पुरुषत्व के माने ठीक से बता देता है. एकदूसरे के लिए साथी का महत्त्व भी सम झाता है. समझदारी, समरसता से किया गया सैक्स सुख के द्वार खोलता है. यह और्गेज्म यानी चरमानंद पा कर ही अनुभव किया जा सकता है.   

भारत भूमि युगे युगे

कितना महंगा दौरा

7 जून को जबलपुर के हवाई अड्डे का नजारा देखने लायक था, सैकड़ों कर्मचारियों, अधिकारियों, छोटेबड़े नेताओं सहित हजारों सुरक्षाकर्मी वहां मौजूद थे. दर्जनों एंबुलैंस और फायर ब्रिगेड की गाडि़यां खड़ी थीं. एअरपोर्ट पर तकरीबन 300 सरकारी और 3 हजार गैरसरकारी वाहन खड़े थे.

बात सिर्फ इतनी थी कि इसी दिन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को महज 5 मिनट वहां रुकना था. वे शंकराचार्य स्वरूपानंद के आश्रम में आंखों के एक अस्पताल का उद्घाटन कर के लौट रहे थे. अंदाजा लगाया जा सकता है कि राष्ट्रपति की तीनदिवसीय मध्य प्रदेश यात्रा पर कितने करोड़ रुपए खर्च हुए होंगे. यह फुजूल खर्च है और जनता के पैसों की बरबादी. यह ब्रिटिशकाल की याद दिलाती है. वे तो गैर थे पर ये तो अपने हैं जिन्हें इस तरफ ध्यान देना चाहिए. सिर्फ नाम के आगे से महामहिम शब्द हटवा देने के अलावा भी करने को बहुत कुछ है.

काश ऐसा कर पाते मुलायम

‘मैं अगर सीएम होता तो यूपी को 15 दिन में ठीक कर देता.’ मुलायम सिंह के इन शब्दों में उत्तर प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था की स्वीकारोक्ति भी थी. अब कौन मुलायम सिंह को बताए कि यूपी तो शुरू से ही ऐसा है. वजह, वहां पसरा जातिवाद, भेदभाव और गुंडागर्दी है. लोगों ने बहुजन समाज पार्टी को मौका दिया तो वह भी कांगे्रसी संस्कृति की निकली. सब के सब लाइन से लूटखसोट में लगे रहे. नेताओं और बाबुओं ने पेट भर खाया.

यूपी ठीक हो न हो, पर विदेश में पढ़े अपने देशी बेटे को मुलायम ठीक कर एक आदर्श पिता की भूमिका निभा पाएं तो जरूर यूपी पर उपकार करेंगे. चमकदमक पर सादगी का रैपर लपेट कर जीने वाले अखिलेश दरअसल चाटुकार अधिकारियों और नेताओं से घिरे रहते हैं. ऐसे में यूपी की हालत तो और भी बिगड़ना तय है.

लौट आए लालू

उपचुनाव सप्लीमैंटरी इम्तिहान की तरह होते हैं, मिला मौका भुना लिया तो ठीक, वरना साल खराब होना तय है. 2014 में आम चुनाव होने के मद्देनजर यह साल राजनेताओं के लिए बेहद अहम है जिस में लालू यादव चूके नहीं. राजद ने महाराजगंज लोकसभा सीट जीत कर नीतीश को अचंभित कर दिया.

आमतौर पर सत्तारूढ़ दल के प्रति मतदाताओं का झुकाव ज्यादा रहता है, लेकिन यह अपवाद है, नियम नहीं. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो नीतीश कुमार फेल हो गए हैं. लालू जोश में हैं क्योंकि इस जीत की उन्हें सख्त जरूरत थी. उम्मीद है इस नतीजे से मुद्दत से सुस्त पड़े उन के साथी रामविलास पासवान भी जल्द ट्रैक पर आ जाएंगे. बिहार बदले न बदले पर लालू का भविष्य जरूर बदलता दिख रहा है.

अभी दिल्ली दूर है

आम आदमी पार्टी यानी आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ नई दिल्ली विधानसभा से चुनाव लड़ने का ऐलान कर सनसनी फैलाने की असफल कोशिश की तो बाछें सिर्फ सटोरियों की खिलीं क्योंकि इस सीट पर तगड़ा दांव लगेगा. यों शीला दीक्षित उतनी भ्रष्ट हैं नहीं जितना उन्हें यह नवजात पार्टी बता रही है और इस बताने भर से मतदाता नहीं मानने वाला. शीला दीक्षित की अपनी जमीनी पकड़ काफी मजबूत है.

बेहतर तो यह होता कि केजरीवाल पहले अपना विधानसभा पहुंचना सुनिश्चित करते जिस से वे अपनी लड़ाई सदन में भी जारी रख पाते जो सड़कों पर फ्लौप सी हो गई है. अन्ना हजारे की यात्रा अब खबर भी नहीं बनती, यह भी उन्हें ध्यान रखना चाहिए. पहले झपट्टे में केजरीवाल का शेर के शिकार का ख्वाब पूरा होगा या नहीं, इस के लिए थोड़ा इंतजार सभी को करना ही होगा.

भाजपा का बदलता चेहरा

गोआ में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक ने पार्टी की अंदरूनी कलह को तो उजागर किया ही साथ ही, गुजरात दंगों के दागी नरेंद्र मोदी से जुड़े फैसले ने लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा दीं. आडवाणी को दरकिनार करते हुए मोदी को सामने ला कर भाजपा ने कट्टर हिंदुत्व बनाम उदारता की नई लड़ाई छेड़ दी है. पढि़ए जगदीश पंवार का विश्लेषणात्मक लेख.

9 जून का दिन इस देश के लिए दुखद ही कहा जाएगा जब गोआ में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में गुजरात दंगों के दागी नरेंद्र दामोदर दास मोदी को चुनाव अभियान समिति का मुखिया घोषित किया गया. दुनिया के सब से बड़े और 66 साल पुराने लोकतंत्र के लिए उम्मीद थी कि पार्टी पुराने अनुभव और सबक के बाद ऐसे किसी नेता को आगे करेगी जो लोकतंत्र के उसूलों पर चलने वाला व इस देश की बहुधर्मीय जनता को स्वीकार्य हो और अपने नेतृत्व वाले गठबंधन के सहयोगियों को भी मान्य हो पर राष्ट्रीय कही जाने वाली इस पार्टी को ऐसा कोई नेता न मिला.

गोआ के फैसले ने एक झटके में लोकतंत्र की तमाम मर्यादाओं, सिद्धांतों की धज्जियां उड़ा दीं. हिंदुत्व के कट्टर, तानाशाहीपूर्ण विचारधारा वाले नरेंद्र मोदी को सीधे तौर पर न सही, देश के भावी शासक के तौर पर पेश किया गया. भाजपा मोदी की हवा में बह निकली. मोदी यानी कट्टर हिंदुत्व. यानी संघ की मूल सोच. यानी मुसलमानों के खिलाफ एक चेहरा.   

मोदी के नाम की घोषणा के साथ ही भाजपा और उस के सहयोगी दलों में हलचल मच गई. मोदी की कार्यशैली और विचारधारा से पार्टी के कुछ लोग और सहयोगी डरे हुए हैं.

पार्टी के बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी और उन के कई समर्थक कोपभवन में जा बैठे लेकिन उन के बारे में कहा गया कि वे बीमार हैं इसलिए गोआ नहीं आ सके. 8 और 9 तारीख की दोदिवसीय बैठक में आखिरी दिन ज्योंही मोदी के नाम की घोषणा हुई, दिल्ली में बैठे आडवाणी फौरन सामने आ गए और उन्होंने संसदीय समिति, राष्ट्रीय कार्यकारिणी और चुनाव समिति से इस्तीफा देने का पत्र पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भेज दिया.  

आडवाणी के इस्तीफे से पार्टी के भीतर बेचैनी बढ़ गई और मानमनौव्वल का दौर शुरू हो गया. स्वयं पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, वेंकैया नायडू आडवाणी को मनाने उन के बंगले पर गए पर वे नहीं माने. राजनाथ सिंह ने आडवाणी का इस्तीफा स्वीकार करने से इनकार कर दिया. आखिर नागपुर में संघ के हस्तक्षेप से आडवाणी राजी हुए पर अंतर्कलह का अंत नहीं हुआ.

मजे की बात है कि आडवाणी जैसे दिग्गज को दरकिनार कर दिए जाने के बावजूद उन के समर्थक खुल कर सामने नहीं आ पाए. वजह साफ है, भाजपा में कितना ही बड़ा नेता हो संघ की मरजी के बिना किसी का कोई वजूद नहीं है. आडवाणी के समर्थक तमाम नेता धीरेधीरे संघ द्वारा खींची लकीर पर लौट आए. उन का भविष्य भी पार्टी के साथ जुड़ा है. उन में से किसी की हिम्मत संघ से लड़ने की नहीं है. लिहाजा सब चुप्पी साधे रहे और मोदी की जयजयकार करने वालों में शामिल हो गए.

दरअसल, भाजपा ने इस साल होने वाले 4 विधानसभा चुनावों और फिर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों को देखते हुए गोआ में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाई थी. यह पहले से ही तय था कि बैठक में नरेंद्र मोदी को बड़ी जिम्मेदारी देने का ऐलान किया जाएगा क्योंकि पार्टी में हिंदुत्व का समर्थक गुट मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे लाने की मांग कर रहा था. इस से पहले मोदी को संसदीय कार्यसमिति में लिया गया. मोदी के अलावा भाजपा का अन्य कोईर् भी मुख्यमंत्री इस समिति में नहीं है.

मोदी को चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख बनाने से स्पष्ट हो गया कि भाजपा अब 2014 का चुनाव उन की अगुआई में लड़ेगी. इस घोषणा के बाद आडवाणी हाशिए पर चले गए. भाजपा में मोदी के अलावा कोई दूसरा ऐसा नेता नहीं दिखता जो हिंदुत्व की राजनीति को आगे बढ़ा सके.

पार्टी में प्रधानमंत्री पद की लड़ाई बारबार सामने आ रही है. लालकृष्ण आडवाणी सब से वरिष्ठ होने के नाते खुद को दावेदार मान रहे हैं जबकि कैडर की ओर से मोदी को उम्मीदवार घोषित करने की मांग की जा रही है. उधर, लोकसभा में विपक्ष की नेता होने के कारण सुषमा स्वराज की दावेदारी उठती रही है और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी राजा बनने का सपना पाले हुए हैं. यानी 4 दावेदार तो मुख्य रूप से सामने हैं ही.

असल में आडवाणी की लड़ाई मोदी से नहीं, संघ से है. जिन्ना की प्रशंसा के बाद आडवाणी संघ के लिए नकारा हो गए लेकिन आडवाणी प्रधानमंत्री बनने की अपनी महत्त्वाकांक्षा को आगे बढ़ाने की कोशिश करते रहे.

राजनाथ सिंह को भेजे अपने इस्तीफे में आडवाणी ने संघ पर ही निशाना साधा है. उन्होंने लिखा है, ‘‘पार्टी जिस ढंग से चलाई जा रही है और यह जिस दिशा में जा रही है, उस से मैं सहज नहीं हो पा रहा हूं. आज की तारीख में हमारे ज्यादातर नेता अपने निजी एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं.’’  इस तरह आडवाणी अब संघ के कट्टर हिंदुत्व के मार्ग में अड़ंगा बन रहे हैं.

सत्ता में रहते हुए उन्हें सबक मिल गया कि देश को चलाने के लिए नेता को मजहबी कट्टरता नहीं, धर्मनिरपेक्ष विचारों और धर्मनिरपेक्ष नेता की छवि की जरूरत है. इसलिए आडवाणी ने 2005 में पाकिस्तान जा कर जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताया, हालांकि उन्हें इस की सजा भुगतनी पड़ी. आरएसएस को यह बात रास नहीं आई और उन्हें पार्टी प्रमुख पद से हटना पड़ा. 2004 में सत्ता से हटने के बाद से आडवाणी देश के सामने सैक्युलर दिखने का लगातार प्रयास करते रहे हैं.

यह इत्तफाक ही है कि जिस दिन गोआ में नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाए जाने का ऐलान हो रहा था, आडवाणी उसी दिन अपने ब्लौग पर तानाशाह हिटलर और मुसोलिनी को याद करते हुए लिख रहे थे, ‘‘यह कहानी दूसरे विश्व युद्ध के दौरान एडोल्फ हिटलर और बेनिटो मुसोलिनी की भेंट के बारे में है जिस में हिटलर इटली के सुप्रीमो को बताते हैं कि दोनों द्वारा किए गए पापों की उन्हें मृत्यु के बाद काफी कीमत चुकानी होगी. मुसोलिनी ने अपने मित्र को बताया कि जब उन का अंतिम समय आएगा तो वे वेटिकन जा कर पोप से सहायता मांगेंगे, जिन के पास स्वर्ग जाने का पास माना जाता है. हिटलर ने उन से कहा कि वे पोप को उन का भी नाम प्रस्तावित करें. इस किस्से के साथ कैंची का एक जोड़ा और कागज का टुकड़ा भी दिखाया जाता है जिस में कहानी के अंत में होता यह है कि दोनों फासिस्ट नेता नरक में पहुंच गए और सिर्फ पोप ही स्वर्ग पहुंचता है.’’

आडवाणी यह किस्सा अभिनेता कमल हासन को सुनाते हैं जो अपनी फिल्म के प्रमोशन के दौरान दिल्ली स्थित आडवाणी के घर पर भी आए थे. इसी दौरान कमल हासन ने आडवाणी से पूछ लिया था कि क्या उन्होंने ‘ग्रे वौल्फ : द एस्केप औफ एडोल्फ हिटलर’ पुस्तक पढ़ी है? कमल हासन ने यह पुस्तक आडवाणी को बाद में भेजी और उन्होंने इसे पढ़ा.

आडवाणी अपने ब्लौग पर तानाशाहों का यह किस्सा क्यों लिख रहे हैं? क्या वे मजहबी कट्टरपंथ की राह पर चलने वालों का हश्र बताना चाहते हैं? नरेंद्र मोदी की तुलना में वे खुद को उदार साबित करना चाहते हैं? क्या यह संघ की सोच पर निशाना है?

सत्ता में रह कर आडवाणी सीख ले चुके हैं. आज मोदी की जो सांप्रदायिक छवि है, वैसी छवि 1990 में अयोध्या में राममंदिर बनाने के आंदोलन के दौरान आडवाणी की थी. वे सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा के वक्त देशभर में सांप्रदायिक माहौल खड़ा कर रहे थे. इस आंदोलन में भजभज मंडली उन के साथ थी.

दिसंबर 1992 में बाबरी मसजिद विध्वंस के दौरान आडवाणी घटना स्थल पर मौजूद थे और बड़े खुश थे. बाबरी विध्वंस से पहले आडवाणी ने भड़काऊ भाषण दिया था. उन्होंने कारसेवकों में जोश भरा. उन्होंने कहा था कि मंदिर उसी जगह बनेगा जहां बाबरी मसजिद है.

सत्ता में आने के बाद आडवाणी हिंदुत्व एजेंडे को आगे बढ़ाने का प्रयास करते दिखे. उस समय भारत आए पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा बैठक की विफलता का ठीकरा आडवाणी के सिर पर ही फोड़ा गया. आडवाणी तब उप प्रधानमंत्री व गृहमंत्री थे.    

असल में भाजपा में खींचतान का कारण नेतृत्व और विचारधारा दोनों हैं. वास्तव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उस की मूल कट्टर हिंदुत्व विचारधारा का खेवनहार वाला नेतृत्व चाहिए लेकिन दिक्कत है कि खुले तौर पर कहीं पार्टी की सांप्रदायिक छवि न बन जाए. भाजपा पहली बार 1998 और 1999 में आधीअधूरी सत्ता में आई तो उसे सहयोगी दलों की जरूरत पड़ी. इस के लिए कुछ दलों को साथ लेने के लिए अपने मूल कट्टर एजेंडे को छोड़ना पड़ा लेकिन इस का मतलब यह नहीं था कि संघ ने अपनी जन्मजात हिंदुत्व विचारधारा त्याग दी. सत्ता के लिए उसे कुछ समय के लिए समझौता करना पड़ा था. भाजपा के सिद्धांत सत्ता के लिए उस समय ताक पर रख दिए गए.

इस वजह से सत्ता में रहते हुए वह अपनी विचारधारा आगे न बढ़ा पाई. आडवाणी जैसे नेताओं को तभी समझ में आ गया कि देश को चलाने के लिए सैक्युलर विचारों की जरूरत है. सत्ता में रह कर वे समझ गए कि उन्हें अपनी विचारधारा बदलनी पड़ेगी, यानी आडवाणी ने सत्य जान लिया.

जिन्ना प्रकरण के बाद आडवाणी भीतर ही भीतर आरएसएस से लड़ रहे हैं. उन्होंने जिन्ना की मजार पर जा कर जो कुछ कहा, सोचसमझ कर ही कहा था.

आडवाणी की इस बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि वे पार्टी में सैक्युलर विचारों की पैरवी के लिए विरोध करने का साहस कर रहे हैं.

शासन में रहने के बाद राजा को समझ आती है कि प्रजा क्या चाहती है. इतिहास बताता है कि सम्राट अशोक आखिर में हिंसा से आजिज आ कर अहिंसा के मार्ग पर चलने को मजबूर हुआ था. अटल बिहारी वाजपेयी, बलराज मधोक, आडवाणी जैसे नेता संघ की भट्ठी से तप पर परिष्कृत हुए और जब इन्होंने सत्य जान लिया तो संघ के लिए बेकार हो गए. भाजपा तो हिंदुत्व के लिए अभिशप्त है. उस की जान संघ में बसी है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी इस राजनीतिक शाखा का गठन ही देश पर हिंदुत्व थोपने के लिए किया था. मुगलों से हार और फिर महाराष्ट्र में हिंदू धर्म की अमानवीयता के खिलाफ हुए सामाजिक सुधारक आंदोलन से घबराए महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों ने 1925 में जब आरएसएस की स्थापना की तो उस का उद्देश्य ही हिंदूराज कायम करना था, यानी देश व समाज शंकराचार्यों, साधुसंतों और मंदिरों, मठों में बैठे पंडों के आदेशों से संचालित हो.

इसी मकसद से संघ ने 1951 में जनसंघ के रूप में अपना राजनीतिक दल शुरू किया. संघ की शिक्षादीक्षा पा कर यहीं से अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता निकले.

ऐसे नेताओं के जरिए संघ भारत में धार्मिक राज्य का वैटिकन मौडल चाहता है जहां फैसले संसद नहीं, धर्मसंसद करे. इसीलिए इलाहाबाद महाकुंभ में साधुओं की जमात नरेंद्र मोदी को बुला कर  उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की मांग को परवान चढ़ाना चाहती थी. इलाहाबाद न सही, संघ के इशारे में मोदी को गोआ में इसी पद की ओर आगे कर दिया गया. वह मोदी जिन के माथे पर गुजरात के सैकड़ों निर्दोष लोगों के कत्ल का कलंक चस्पां है, वह मोदी जो अपने भाषणों में मुसलमानों के खिलाफ आग उगलते रहे, गुजरात दंगों के दौरान वह मोदी लोगों की सुरक्षा के दायित्व से मुंह फेरे रखा.

दंगों के बाद मोदी ने सुरक्षा की बात तो दूर जो बयान दिए वे और भी चोट पहुंचाने वाले थे. उन्होंने कहा था कि हम क्या कर सकते हैं? हम राहत कैंप चलाएं या उन के (मुसलमानों के) लिए हमें बच्चे पैदा करने वाले सैंटर खोल देने चाहिए? मोदी का आशय एक मुसलमान की 4 बीवियों और 25 बच्चों की ओर था. हम 5, हमारे 25. यह बयान मोदी ने 2002 में अपनी गुजरात गौरव यात्रा के दौरान दिया था.

यह इत्तफाक की बात है कि देश में भाजपा की जब भी सरकार बनी वह गठबंधन सरकार ही रही और 1933 से 1945 तक जरमनी में नाजियों की सरकार भी गठबंधन की थी. एडोल्फ हिटलर ने अपना प्रचार मंत्री पौल जोसेफ गोएबल्स को बनाया. गोएबल्स ने अपने कार्यकाल की शुरुआत जरमन यहूदियों पर हमले कराने से की. यहूदी व्यापारियों, डाक्टरों और वकीलों का बायकाट कराया गया. यहूदी आबादी पर हमले कराए. उन के धर्मस्थल जलाए गए और हत्याएं कराई गईं. उस ने आइडियोलौजिकल तरीके से जरमनी की जनता में यहूदियों के खिलाफ नफरत भरी. बाद में हिटलर की आत्महत्या के बाद खुद को हिटलर की जगह चांसलर घोषित कर दिया. बाद में गोएबल्स का हश्र भी बुरा हुआ.

क्या मोदी को संघ अपना गोएबल्स बना चुकी है? यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है. भारतीय जनता पार्टी (पहले जनसंघ) में शुरू से ही नरेंद्र मोदी और आडवाणी होते रहे हैं. यानी यहां विचारों का द्वंद्व चलता आया है. पहले जो कट्टर होता है वह बाद में जा कर उदारता, लोकतांत्रिक विचारों का वकील बन जाता है. जो आडवाणी आज मोदी की ताजपोशी से नाराज हो कर कोपभवन में चले गए वही 1990 में ‘मोदी’ बने हुए थे.

इस से पहले जनसंघ के समय हिंदुत्व राजनीति के धुरंधर बलराज मधोक मोदी की भूमिका में थे. वे मुसलमानों के खिलाफ अखबारों में लेख लिखने के कारण कट्टरपंथी माने जाते थे लेकिन बाद में वे भी आज के आडवाणी की तरह उदारता की बात करने लगे और इसी के चलते उन्हें जनसंघ से रुसवा होना पड़ा.

‘द हिंदू नैशनलिस्ट मूवमैंट इन इंडियन पौलिटिक्स : 1925 टू द 1990’ नामक पुस्तक में लिखा है : फरवरी, 1973 के कानपुर में जनसंघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सामने एक नोट पेश किया गया. उस नोट में बलराज मधोक ने कहा था कि जनसंघ पर आरएसएस का असर बढ़ता जा रहा है. और मधोक ने संगठन मंत्रियों को हटा कर जनसंघ की कार्यप्रणाली को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की मांग उठाई थी.

लालकृष्ण आडवाणी उस वक्त जनसंघ के अध्यक्ष थे और वे मधोक की इन बातों से इतने नाराज हुए कि मधोक को पार्टी का अनुशासन तोड़ने और पार्टी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप लगा कर 3 साल के लिए बाहर कर दिया गया. इस घटना से मधोक इतने आहत हुए कि वे फिर कभी लौट कर पार्टी में वापस नहीं आए. अटल बिहारी वाजपेयी तक को संघ का कोपभाजन बनना पड़ा था.

भारत की राजनीति में आज कट्टरता और उदारता के बीच की जंग है. भाजपा और कांग्रेस दोनों ही लोकतांत्रिक तरीकों से दूर हट रही हैं. कांग्रेस अगुआई वाली यूपीए सरकार के फैसले भी तानाशाही तरीकों से भरे होते हैं. उस ने जबावदेही और जनता के प्रति अपने फर्ज को खत्म कर दिया है.

यह माना जा रहा था कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 6 साल शासन करने के बाद पार्टी यह सबक सीखेगी कि इस देश में राज करने के लिए सब को साथ ले कर चलने वाला नेतृत्व होना चाहिए, जबकि भाजपा में संघ का प्रभाव और बढ़ गया. भाजपा में प्रधानमंत्री पद का झगड़ा अभी खत्म नहीं हुआ है. आम चुनावों तक यह तमाशा जारी रहेगा.

सवाल यह है कि इस कट्टरता से लड़ेगा कौन? चारों ओर से मोदी का जाप करने वाले उन के समर्थकों से पूछा जाना चाहिए कि जिस मोदी को आप देश का उद्धारक, अवतार घोषित करने पर तुले हैं, उस की खासीयत क्या है?

मोदी ऐसी कोई विकास की गंगा नहीं ले आए. उन्होंने टाटा, अंबानी व अदाणी जैसे कुछ औद्योगिक लोगों को सरकारी संसाधन मुहैया करा कर आगे बढ़ाया है. गुजरात में गरीबों, दलितों, पिछड़ों और स्त्रियों की दशा में कोई बदलाव नहीं आया. वहां भी अन्य जगहों की तरह चप्पेचप्पे पर भ्रष्टाचार पसरा हुआ है.

मोदी के शासन से भला धर्म की खाने वालों को हो सकता है, आम आदमी को नहीं. यह तय है कि धर्मस्थलों में धनवर्षा होने लगेगी. ऐसे विचारों से देश में खाप पंचायतों की सोच पनपने में मदद मिलेगी, निकम्मापन बढे़गा.

असल में संघ को देश में मुसलमानों के खिलाफ एक लोकप्रिय चेहरा चाहिए और नरेंद्र मोदी से बेहतर भाजपा में फिलहाल और कोई नहीं है. लिहाजा, संघ की कट्टर सोच और सत्ता चलाने की सीख ले चुके नेताओं के बीच जब तक द्वंद्व रुकेगा नहीं जब तक खुद संघ अपनी हिंदुत्व की नीतियों को त्याग नहीं देगा. 

आधुनिक लाइफस्टाइल

हाल ही में आईसीएमआर यानी भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद और अमेरिका की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए एक अध्ययन में 80 प्रतिशत लोग किसी न किसी तरह के यौन रोगों के शिकार पाए गए. इस अध्ययन में शामिल दंपतियों से उन की सामाजिक, पारिवारिक स्थिति, बीमारी, इलाज, लैंगिक व्यवहार, एचआईवी व अन्य यौन रोगों के बारे में जानकारी व खतरे के बोध के बारे में सवाल किए गए. 29 प्रतिशत लोग अपने साथी के कारण यौन रोगों का शिकार पाए गए.

अध्ययन में शामिल दंपतियों में अधिकांश पुरुष इरैक्टाइल डिसफंक्शन, एचआईवी व महिलाएं सिफलिस व गोनोरिया से पीडि़त पाई गईं. परीक्षण में शामिल एकतिहाई महिलाओं में ट्राइकोमोनास वैजाइनलिस की उपस्थिति पाई गई.

इसी तरह जर्नल औफ अमेरिकन मैडिकल एसोसिएशन (जामा) में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, 18-54 आयुवर्ग के स्त्रीपुरुषों के बीच किए गए एक सर्वेक्षण में 43 प्रतिशत महिलाएं व 31 प्रतिशत पुरुष लैंगिक समस्या के शिकार पाए गए. ये सभी आंकड़े दर्शाते हैं कि यह समस्या कितनी गंभीर है.

क्या आप ने कभी गौर किया है कि सैक्स लाइफ जीवनशैली पर निर्भर करती है. जीवनशैली बदलने का सब से ज्यादा प्रभाव सैक्स लाइफ पर पड़ता है. आधुनिक जीवनशैली यानी सुविधासंपन्न जीवन, लगातार देर रात तक काम में व्यस्तता, शारीरिक श्रम में कमी, जंक और फास्टफूड का चलन, देर रात पार्टियों में धूम्रपान व शराब की लत आदि सैक्स लाइफ पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं और सैक्स संबंधी रोगों को जन्म देते हैं.

जितनी तेजी से विज्ञान ने तरक्की कर हमें सुखसुविधाएं उपलब्ध करवाई हैं उतनी ही तेजी से तरहतरह की बीमारियों ने शरीर में घर बनाया है. एग्रेशन (गुस्सा), डिप्रैशन, मैंटल डिसऔर्डर, तनाव, जैसे मानसिक रोग व मोटापा, गैस, कब्ज जैसी रोजमर्रा की तकलीफें और अस्थमा, जोड़ों का दर्द, माइग्रेन, बवासीर, उच्च रक्तचाप, मधुमेह व हृदयरोग जैसे गंभीर रोग इसी आधुनिक जीवनशैली की देन हैं और यही सैक्स लाइफ को बरबाद कर डालते हैं.

दरअसल, तनावभरी जीवनशैली में लोग भूलते जा रहे हैं कि सैक्स दांपत्य जीवन का वह मधुर पक्ष है, प्रेम का वह चरम बिंदु है जिस में युगल जीवन की संपूर्णता समाहित है. जब सैक्स आप के जीवन में पौजिटिव न हो, सैक्स में अरुचि हो तो समझ जाइए कि खतरे की घंटी है.

जीवनशैली और घटते स्पर्म

मौडर्न लाइफस्टाइल सिर्फ स्वास्थ्य को ही नहीं बल्कि प्रजनन क्षमता को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है. ब्रिटेन में हुआ अध्ययन बताता है कि आज से 50 साल पहले पुरुषों के 1 मिलीलिटर सीमन में शुक्राणुओं की संख्या 11 करोड़ 30 लाख थी जो आज की तारीख में घट कर सिर्फ 4 करोड़ 70 लाख रह गई है. इस के अलावा पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या घटने के साथ उन की गुणवत्ता में भी कमी आ रही है. इन 50 वर्षों में शुक्राणुओं की अनियमितता लगभग 10 गुना बढ़ गई है जिस का नतीजा यह हुआ कि पुरुष प्रजनन तंत्र का संतुलन बिगड़ गया.

जानकार बताते हैं कि अगर पुरुष धूम्रपान या अन्य नशे छोड़ कर खानपान में सुधार और कैफीन के इस्तेमाल को घटाने के साथ मोबाइल का कम प्रयोग करें तो शुक्राणुओं को होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है.

ओरल सैक्स और कैंसर

बेसिक इंस्ंिटक्ट वाले हौलीवुड ऐक्टर माइकल डगलस ने हाल ही में खुलासा किया कि ओरल सैक्स की वजह से उन्हें गले का कैंसर हुआ. उन्होेंने ब्रिटिश अखबार गार्जियन को बताया कि ओरल सैक्स के जरिए ह्यूमन पैपिलोमा वायरस यानी एचपीवी उन में संक्रमित हुआ और वे इस रोग का शिकार हुए. उन्होंने बताया कि उन की बीमारी चौथे स्टेज में डायगनोज हुई.

यूके की कैंसर रिसर्च के मुताबिक ओरल सैक्स से मुंह के कैंसर का खतरा रहता है. खासतौर से अगर ओरल सैक्स मल्टीपार्टनर के साथ किया जाए तो एचपीवी इन्फैक्शन की वजह से कैंसर की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है. कैंसर रिसर्च डेटा के अनुसार, पुरुषों में ओरल सैक्स के दौरान एचपीवी वायरस से संक्रमित होने की संभावना महिलाओं से ज्यादा होती है. इसलिए हैल्दी सैक्स को बनाएं अपनी जीवनशैली का हिस्सा.

विवाह से पूर्व यौन संबंध

बदलते सामाजिक मूल्यों के परिणामस्वरूप विवाह से पूर्व यौन संबंध आम हो गए हैं. यौन स्वच्छंदता की बढ़ती प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप यौन रोग बढ़ रहे हैं. असुरक्षित यौन संबंधों से महिलाओं को यौन रोगों जैसे सिफलिस, गोनोरिया और पुरुषों में एचआईवी एड्स जैसे गंभीर रोगों के होने का खतरा बढ़ जाता है. जननांगों में संक्रमण के कारण उन में विकृतियां जन्म लेती हैं जिस से बाद में संतानहीनता जैसी समस्या का सामना करना पड़ता है.

कैरियर सैक्स में बैरियर

कैरियर को अधिक महत्त्व देने के चलते देर से विवाह, विवाह से पूर्व सैक्स संबंध और विवाह के बाद अधिक कौंट्रासैप्टिव पिल्स का प्रयोग स्वस्थ सैक्स की राह में रोड़ा बनता है. इस से गर्भाधान में दिक्कत होती है.

धूम्रपान व शराब की लत

देर रात पार्टियों में धूम्रपान व शराब का सेवन सैक्स लाइफ को प्रभावित करता है. धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों में नपुंसकता का प्रतिशत अपेक्षाकृत अधिक पाया जाता है. धूम्रपान करने वालों के शुक्राणुओं की संख्या व गतिशीलता में भी कमी आ जाती है. धूम्रपान से महिलाओं में समय से पहले मेनोपौज आने की संभावना रहती है जिस से इस्ट्रोजन का स्तर घटता है और मासिक धर्म से जुड़ी समस्याएं जन्म लेती हैं.

शारीरिक श्रम का अभाव

शारीरिक श्रम के नाम पर लोग दिनभर  कुछ नहीं करते. पैदल नहीं चलते, सीढि़यां नहीं चढ़ते, और तो और सुबहशाम हवाखोरी के नाम पर बाहर सैर करने के लिए भी नहीं निकलते. शारीरिक श्रम न करने की वजह से इंसान का पाचनतंत्र जाम हो जाता है. जैसे लोहे में जंग लग जाता है वैसे ही मशीनरी में जंग लगता जाता है. पाचनतंत्र निष्क्रिय होने से शरीर दुर्बल हो या फिर मोटा, थुलथुला हो जाता है, समय से पहले बाल सफेद होने लगते हैं, झड़ने लगते हैं, त्वचा कांतिहीन हो जाती है और चेहरा समय से पहले ही ढलने लगता है.

घंटों कंप्यूटर के सामने बैठे रहना कार्डियोवस्कुलर सिस्टम को प्रभावित करता है जिस से पुरुषों में इरैक्टाइल डिसफंक्शन की समस्या जन्म लेती है. शारीरिक श्रम के अभाव में सैक्स हार्मोन के स्तर में कमी जैसी समस्याएं जन्म लेती हैं.

एक गैरसरकारी संस्था ने आधुनिक जीवनशैली से ग्रस्त लोगों की सक्रियता का स्तर आंकने के लिए 1 हजार महिलाओं, पुरुषों व बच्चों पर अनुसंधान किया. उन की रिपोर्ट के अनुसार, 77 प्रतिशत पुरुष व 63 प्रतिशत महिलाएं व 75 प्रतिशत बच्चे पूरे दिन में मात्र 30 से 50 मिनट भी भागदौड़ नहीं करते. है न हैरानी की बात.

काम और सिर्फ काम

व्यस्तता भरी जिंदगी आज की लाइफस्टाइल का हिस्सा हो गई है. अधिकांश प्राइवेट कंपनियों में देर रात तक काम करने वाले महिलापुरुष काम के प्रैशर से थक कर जब घर आते हैं तो सैक्स के प्रति अरुचि, पार्टनर से दूरियां आदि लाइफस्टाइल का हिस्सा बन जाती हैं. दांपत्य जीवन से प्रेम, यौन ऊर्जा, एकदूसरे के प्रति आकर्षण कहीं खो सा जाता है और शरीर शिथिल हो जाता है, उस में एनर्जी का अभाव हो जाता है.

खानपान

व्यस्त लाइफस्टाइल में हैल्दी फूड भी न जाने कहां गायब हो गया है. सुबह उठते ही 1 कप चाय पी और औफिस की तरफ दौड़ लगा दी. यानी शरीर के लिए जरूरी आवश्यक पौष्टिक तत्त्वों का पूरी तरह से अभाव और परिणामस्वरूप डायबिटीज, कैंसर, मोटापा जैसी बीमारियों को न्यौता मिल जाता है, जो स्वस्थ सैक्सुअल लाइफ में बाधक बनता है. शरीर को जरूरी पौष्टिक तत्त्व न मिलने से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है. और शरीर की ऊर्जा समाप्त होने लगती है व सैक्स करने की इच्छा नहीं होती. इसे साइकोसैक्सुअल डिसफंक्शन का नाम दिया जाता है. इस में यौनेच्छा में कमी, सैक्स भावना का न होना जैसी समस्याएं जन्म लेती हैं. यह स्थिति कई बार मेनोपौज से पहले तो कई बार मेनोपौज के बाद होती है.

नींद पूरी न होना

देर रात तक जागने वाली जीवनशैली से भी पुरुषों व महिलाओं में सैक्स समस्याएं जन्म लेती हैं. नींद पूरी न होने से तनाव जैसी समस्याएं पैदा होती हैं जो सैक्स से जुड़ी समस्याओं जैसे सैक्स में अरुचि, सैक्सुअल डिसफंक्शन का कारण बनते हैं.

गुस्सा और ब्लडप्रैशर

बच्चा हो या बड़ा, गुस्सा तो आजकल सब की नाक पर रहता है. गुस्से की वजह है तीखा व अधिक कैलोरी वाला खाना जिस से उन के शरीर को पूरे पौष्टिक तत्त्व नहीं मिल पाते हैं. परिणामस्वरूप, शरीर दुर्बल व कमजोर हो जाता है. इस वजह से सहनशक्ति कम हो जाती है, बातबात पर गुस्सा आता है. हर वक्त चिड़चिड़ापन व बातबात पर चीखनाचिल्लाना आदत बन जाती है. ऐसे व्यक्ति बहुत जल्दी ब्लडप्रैशर की चपेट में आ जाते हैं.

डिप्रैशन

आधुनिक जीवनशैली से उपजे तनाव को हम अकेले ही झेलते रहते हैं. इतना समय भी नहीं होता है कि हम अपने घर व बाहर के सुखदुख किसी दूसरे के साथ बांट कर अपने मन को हलका कर लें. और यही तनाव कब डिप्रैशन बन जाता है, पता ही नहीं चलता. एक सर्वेक्षण के अनुसार, डिप्रैशन की शिकार महिलाओं में कामकाजी महिलाओं की संख्या अधिक है. घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारियां निभातेनिभाते वे टूट जाती हैं लेकिन किसी से अपने मन की बात नहीं कहती हैं क्योंकि वे जानती हैं इस दोहरी जिम्मेदारी से उन्हें छुटकारा नहीं मिल सकता. इसलिए यह तनाव उन की दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है. जब अति हो जाती है तो यही तनाव गंभीर रूप धारण कर डिप्रैशन बन जाता है और यही डिप्रैशन सैक्सलाइफ पर दुष्प्रभाव डालता है.

पतिपत्नी परिवार के साथ अधिक से अधिक समय बिताएं. कम से कम रात का खाना तो सब साथ खाएं. घर या कार्यालय में कोई परेशानी है तो पतिपत्नी आपस में उसे शेयर करें. अकेले उस समस्या से न जूझें, खुल कर कहें. 2 लोग मिल कर समस्या का समाधान जल्दी ढूंढ़ सकते हैं.

तनावग्रस्त हों तो ठंडे पानी से नहाएं और मूड बदलने के लिए अपने प्रिय साथी के साथ फिल्म देखने या फिर बाजार शौपिंग के लिए निकल जाएं.

दुबले व सुगठित बदन की चाह

इसे भी अगर हम एक बीमारी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. इसी चाह में जो दुबले हैं वे वजन बढ़ाने के लिए फैट्स आदि ज्यादा मात्रा में खाने लगते हैं और जो मोटे हैं वे वजन घटाने के लिए खानापीना छोड़ कर डाइट व ड्रग्स लेने लगते हैं. आहार विशेषज्ञों का कहना है कि वजन कम करने के लिए खाना छोड़ना तो दूर की बात है, एक सीमा से अधिक खाना कम कर देना भी स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं है. क्योंकि स्वास्थ्य ही स्वस्थ सैक्स का आधार होता है.

मधुमेह, अस्थमा व हृदय रोग

इन जानलेवा रोगों के मूल में हैं अधिक स्टार्चयुक्त व फैट्स वाला भोजन व शारीरिक श्रम का अभाव. आज हम अपने पाचनतंत्र की डाइजैस्टिव कैपेसिटी से कई गुना अधिक खा रहे हैं. यह अतिरिक्त भोजन हमारे शरीर में तरहतरह के विकार पैदा करता है. आधुनिक जीवनशैली के तहत वक्तबेवक्त खाना मधुमेह, अस्थमा व हृदय रोग जैसी बीमारियों को जन्म देता है.

सुबह व शाम की सैर के साथ खुली हवा में व्यायाम से पाचनतंत्र के सभी विकार दूर होते हैं जिस से संपूर्ण शरीर हलकाफुलका, स्वस्थ व स्फूर्तिदायक बन जाता है. सुबह जल्दी उठ कर खुली हवा में सांस लेने से फेफड़ों में स्वस्थ वायु का प्रवेश होता है. फेफड़े स्वस्थ रहने से न केवल हृदय को बल मिलता है बल्कि खांसी, दमा, श्वास रोग व एलर्जी आदि से भी छुटकारा मिलता है.

विशेषज्ञों की राय

लाइफस्टाइल और उस से जुड़ी सैक्स समस्याओं पर कंसलटैंट सैक्सोलौजिस्ट डा. के आर धर ने बताया, ‘‘बदलती जीवनशैली में काम के प्रैशर के चलते स्त्रीपुरुष अपनी रुटीन लाइफ में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि सैक्स जैसी महत्त्वपूर्ण क्रिया से दूर होते जाते हैं. उन की सैक्सुअल इच्छा कम होती जाती है. पतिपत्नी में शारीरिक आकर्षण का अभाव अनेक पारिवारिक और सैक्स संबंधी समस्याओं को जन्म देता है.

‘‘सोशल नैटवर्किंग साइट जैसे फेसबुक, ट्विटर आदि पर विपरीत सैक्स के फ्रैंड्स बना कर लोग सैक्स के विकृत रूप का परिचय देने लगे हैं. इस प्रक्रिया में उन के मल्टीपल पार्टनर बन जाते हैं जो उन के हार्मोंस को प्रभावित करते हैं. जब वे इन साइट्स पर विपरीत सैक्स के लोगों से चैटिंग करते हैं, विपरीत सैक्स के प्रति शारीरिक आकर्षण का सारा प्रवाह उसी तरफ बहा देते हैं तो घर में पति या पत्नी दोनों का एकदूसरे के प्रति सैक्सुअल अट्रैक्शन और सैक्स की इच्छा खत्म हो जाती है जिस का अप्रत्यक्ष परिणाम आपस में तनाव, दूरी व चिड़चिड़ेपन के रूप में सामने आता है. इस का असर आपसी रिश्तों व बच्चों पर भी पड़ता है और कई बार सैक्स के प्रति यह अरुचि और दूरी तलाक व संबंधविच्छेद जैसे भयावह परिणाम तक पहुंच जाती है.

‘‘दांपत्य जीवन में सैक्स का अभाव व पुरुषों में इरैक्टाइल डिसफंक्शन और महिलाओं में मेनोपौज का जल्दी आना, पेनफुल सहवास, वेजाइनल ड्राइनैस व नो और्गेज्म के रूप में सामने आता है. स्वस्थ सैक्स के अभाव में अनेक शारीरिक समस्याएं जन्म लेती हैं या कहें कि शारीरिक समस्याएं स्वस्थ सैक्स की राह में बाधक बनती हैं.

‘‘कुछ दंपती अपनी सैक्सुअल लाइफ में अपने स्तर पर स्वयं को संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं जैसे पौर्न वीडियोज देख कर और सैक्स टौयज के इस्तेमाल से जबकि यह पूरी तरह गलत है. इस से सैक्स हार्मोन पहले ही प्रवाहित हो जाते हैं और पतिपत्नी में एकदूसरे को सैक्सुअल लेवल पर संतुष्ट करने की क्षमता खत्म हो जाती है. इन सभी समस्याओं से बचने का एक ही तरीका है कि सैक्स को अपने जीवन में महत्त्व दें. पतिपत्नी एकदूसरे को पर्याप्त समय दें, प्रेमभाव रखें. अपने रिश्ते में ईमानदार रहें.’’

यौन शिक्षा का अभाव भी सैक्स समस्याओं का एक बड़ा कारण बनता है. इस बारे में सीनियर सैक्सोलौजिस्ट डा. अशोक गुप्ता का कहना है, ‘‘बढ़ती उम्र में बच्चों को हर चीज को जानने की इच्छा होती है, ऐसे में उन के मन में कई सवाल भी उठते हैं. बच्चों को यदि सही समय पर उन का जवाब न दिया जाए तो बच्चा अपने सवालों के जवाब जानने के लिए गलत तरीके भी अपना सकता है. ऐसे में बच्चों को सही समय पर यौन शिक्षा देनी भी जरूरी हो जाती है. एकल परिवारों के चलन के कारण मांबाप अपने बच्चों पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते, कई बार पेरैंट्स बच्चों के आगे सैक्स संबंधी बातों का जिक्र करना अच्छा नहीं समझते. ऐसे में बच्चे इंटरनैट या गलत किताबों के माध्यम से जानकारी पाते हैं जो आगे चल कर उन की सैक्सुअल लाइफ पर दुष्प्रभाव डाल सकती है.’’

शरीर में अनेक शक्तियां निहित हैं. इन शक्तियों को पहचान कर व इन्हें विकसित कर हम न केवल अपने शरीर को स्वस्थ, सुडौल व सुंदर बना सकते हैं बल्कि गंभीर व असाध्य रोगों से छुटकारा पा कर आजीवन निरोग भी रह सकते हैं. अपने शरीर को निष्क्रिय मत बनाइए. अपनी अतिव्यस्त दिनचर्या से कम से कम आधाआधा घंटा सुबहशाम सैर व ऐक्सरसाइज के लिए निकालिए. व्यायाम का मतलब सिर्फ हाथपैर हिलाना नहीं है. व्यायाम करते समय आप को एहसास होना चाहिए कि आप की मांसपेशियां व आप का स्नायुतंत्र सक्रिय हो रहा है. 

जब शरीर सक्रिय रहता है तब सुप्त चेतन शक्तियों का विकास होता है. डैड सैल्स यानी सुप्त तंतु जाग्रत होते हैं, उन में शक्ति का संचार होता है. इतना ही नहीं, शरीर सक्रिय रहता है तो नए रक्त तंतुओं/कोशिकाओं का निर्माण भी होता है. कुल मिला कर अगर स्वास्थ्य नहीं तो सैक्स लाइफ नहीं और अगर सैक्स लाइफ नहीं तो फिर लाइफ किस बात की.

-साथ में ललिता गोयल और राजेश कुमार

व्यवस्था में अव्यवस्था

‘‘सरकार लोगों की मनमानी पर अंकुश लगाने के बजाय आंखें मूंदे हुए है. नौकरशाह और राजनीतिक लोग अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हाथ मिला कर काम कर रहे हैं. देश में खासतौर पर उत्तर प्रदेश को विदेशियों ने हजारों सालों तक लूटा और आजादी के बाद अलग तरीके से यह लूट जारी है.’’

ये वाक्य उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के हैं जिन्होंने उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम द्वारा एक उद्योगपति को दिए गए प्लौट के आवंटन को रद्द करने को अवैध ठहराते हुए कहे. असल में देश में आज नागरिक जो आतंक और अन्याय सह रहे हैं वे तो विदेशियों के शासन में भी नहीं सहने पड़े. लुटेरों को छोड़ दें तो विदेशी शासन हमारे अपने शासन से हमेशा ज्यादा अच्छे रहे हैं.

आज पटवारी से ले कर केंद्रीय मंत्री तक सब आम आदमी की लूट पर मौज कर रहे हैं. उन्होंने नियमों, उपनियमों, शासनादेशों और अपने खुद के निर्णयों का ऐसा जाल बुन रखा है कि हर नागरिक जबतक लुटपिट नहीं जाता, वह जी नहीं सकता.

इस देश से गरीबी अगर कम नहीं हो रही है तो इसलिए कि सरकारी अमला और उस के सहारे पलने वाला पूंजीपति वर्ग जनता की संपत्ति को समेटे जा रहा है और आम आदमी योग्यता व क्षमता होने के बावजूद असहाय है. वह अपनी मेहनत का ज्यादा समय सरकारी गलियारों में बिताता है. सरकार, सरकारी नेता, सरकारी अफसर, सरकारी अदालतें आज किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं. वे नियम, कानून बनाते हैं पर उद्देश्य होता है जनता को लूटना.

अरबों के जो बेईमानी के मामले दिख रहे हैं और रातोंरात जो अरबपति बनते दिख रहे हैं, वे इस सिस्टम की देन हैं जिस का जिक्र न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने अपने फैसले में किया. पर क्या किसी की सेहत पर कोई असर पड़ता है? अब सरकारी मशीनरी इतनी दंभी और बेफिक्र हो गई है कि वह हर तरह की आलोचना को कुत्तों का भूंकना समझ कर उसे पूरी तरह अनदेखा कर देती है. 

लालच के नाम पर लूट

सारदा, सहारा, मार्गदर्शी, संचिता जैसी सैकड़ों चिटफंड व नौनबैंकिंग फाइनैंस कंपनियों के चक्कर में लोग आखिर क्यों आ जाते हैं, यह पहेली है. इन कंपनियों ने आम जनता के अरबों रुपए हड़प लिए और उस के बावजूद वे फलफूल रही हैं. अभी हाल में पिरामिड मार्केटिंग करने वाली एक अमेरिकन कंपनी के गोरखधंधे का मामला सामने आया और उस के अमेरिकी मुखिया को केरल में कई रातें जेल में गुजारनी पड़ीं.

इन कंपनियों की तर्ज पर तकरीबन हर महल्ले में छोटीछोटी फाइनैंस कंपनियां खुली हैं जो 15 से 25 प्रतिशत तक ब्याज देने का लालच दे कर करोड़ों जमा करती हैं और फिर एक दिन दरवाजा बंद कर के गायब हो जाती हैं. जमा करने वाले जबतक पुलिस, अदालत पहुंचते हैं, कंपनियों के मालिक पैसा उड़ा चुके होते हैं.

असल परेशानी है कि छोटी बचत वाले नागरिक इतने बेवकूफ हैं कि वे समझ नहीं पाते कि मोटा ब्याज देने वाला आखिर पैसा लाएगा कहां से. हमारे देश की अभी भी यह मानसिकता बनी है कि पैसा चमत्कारों की देन है. तभी तो धर्म की दुकानों पर लंबी लाइनें लगी रहती हैं.

यही लोग इन फाइनैंस कंपनियों के एजेंटों के बहकावे में आ जाते हैं जैसे वे धर्म के एजेंटों के बहकावे में आते हैं. वे कंपनी की तड़कभड़क, वहां लगी लंबी कतारों, एजेंटों का वाक्य कि जमा कराने का शुभ मुहूर्त बस निकला जा रहा है, लोगों को सम्मोहित कर देता है.

सरकार चिटफंड कंपनियों और छोटी फाइनैंस कंपनियों पर नकेल डालने का कानून बनाने पर विचार कर रही है पर यह कानून केवल लूट के बंटवारे में सरकारी अफसरों को शामिल करने के अलावा कुछ न करेगा. 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें