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कल्पवृक्ष-भाग 3 : विवाह के समय सभी व्यंग क्यों कर रहे थे?

लेखिका- छाया श्रीवास्तव

पिता ने बड़े ही आश्चर्य से हठीलेजोशीले बेटे की ओर देखा, ‘क्या यही है 6 माह पूर्व का निखिल, जो ससुराल से मिले रुपयों के लिए कई दिन  झगड़ता रहा था और ले कर ही माना था.’

 

‘‘बाबूजी, जैसे आप की बहू ने आज्ञा दी है, हम सब वहीं विभा की शादी को तैयार हैं. हम दोनों भी जीपीएफ आदि निकाल लेंगे. शादी वहीं होगी,’’ दोनों ने अपना निर्णय सुनाया. तभी दोनों जेठानियां आगे आईं.

 

‘‘मांजी, हमारे मायके के जो भारी बरतन हों, आप उन्हें साफ कर विभा को दे सकती हैं. कुछ न कुछ हम दोनों के पास भी है.’’

 

‘‘नहीं, बड़ी दीदी. आप की बेटी शैली बड़ी हो रही है. आप बरतनभांडे कुछ नहीं देंगी. बड़े दादा रुपए भर देंगे. रुपए तो तब तक हम शैली के लिए जोड़ ही लेंगे. अभी जो समय की मांग है वही चाहिए, बस.’’

 

जो काम पूरे परिवार को पहाड़ काटने सा प्रतीत हो रहा था वह जैसे पलभर में सुल झ गया.

 

तभी विभा के कमरे से सिसकियों के स्वर बाहर तक गूंजते चले गए. सब उधर दौड़ते चले गए. देखा, विभा पड़ी सिसक रही है. मधु ने घबरा कर उस का सिर गोद में रख लिया. वह अपने पलंग पर पड़ी सिसक रही थी. ‘‘क्या हुआ विभा, क्या हुआ,’’ सब उसे घेर कर खड़े हो गए, विभा थी कि रोए जा रही थी.

 

‘‘बोल न विभा,’’ मां ने हिला कर पूछा.

 

‘‘मां, ये भाभियां क्या अभी से वैरागिनी बन जाएंगी? क्या इन का सब सामान संजो कर मैं सुखी हो पाऊंगी?’’ वह रो कर बोली.

 

‘‘पगली, इतनी सी बात पर ऐसे बिलख रही है, जैसे कुबेर का खजाना लुट गया हो. अरे, यह तो फिर जुड़ जाएगा. मैं नौकरी कर लूं तो क्या फिर न जुड़ पाएगा. फिर अभी कौन कंगाल है, सब चीजें हैं तो घर में, तू सब चिंता छोड़,’’ मधु ने उसे सम झाया.

 

‘‘मधु ठीक कहती है, विभा. अभी जो है उसे तो स्वीकार करना ही पड़ेगा. सामान तो हम फिर जोड़ लेंगे. छोटी भाभी की तू चिंता मत कर, वह तो जब से आई है वैरागिनी सी ही तो रहती है. इसी से तो वह राजरानी से बढ़ कर है घरभर के लिए,’’ मुकेश ने उसे सम झाया. तब वह बड़ी कठिनाई से शांत हुई.

 

फिर बाबूजी ने देर नहीं की. उन्होंने रकम कम करने की प्रार्थना के साथ उन की कुछ ऊंची मांग स्वीकार कर ली थी. कुछ के लिए अगली विदा पर देने की प्रार्थना भी की थी. उन्हें जैसे पूरा विश्वास था कि वे लोग कुछ हद तक मान जाएंगे, क्योंकि उन लोगों को भी लड़की सहित उन का मध्यवर्गीय परिवार पसंद था.

 

हुआ भी यही. एक माह पश्चात सब शर्तों के साथ शादी तय भी हो गई. रकम भी कम कर दी गई. सामान तो सारा मिल ही रहा था, सब प्रसन्न हो उठे.

 

तब तक विभा की परीक्षाएं भी हो गईं. फिर सगाई की रस्म हुई. विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई. तब गई लग्न. पूरे 7 थाल भर कर गए. साड़ी, सूट, बच्चों के कपड़े व फल, मेवे, मिठाई, अच्छे बड़ेबड़े थाल देख कर घरभर खुश हो उठा. तभी मुकेश द्वारा हाथ पर थाल रखे जाने पर वर संजय की निगाह थाल पर लिखे नाम पर पड़ी जो मशीन द्वारा लिखा गया था. फिर उस ने सब थालों पर नजर डाली तो मन न जाने कैसा हो गया.

 

‘‘थालों पर नाम किस का लिखा है? वह पूछ बैठा.’’

 

‘‘छोटी बहू, मधु का. ये सब उसी के मायके के थाल हैं.’’

 

‘‘परंतु आप की बहन का नाम तो विभा है न?’’

 

‘‘हां, विभा ही तो है.’’

 

‘‘तो क्या यह उचित लगा आप लोगों को कि किसी के मायके की भेंट किसी को दी जाए?’’ वह थोड़ी तेज आवाज में बोला.

 

‘‘प्लीज, धीरे बोलिए, असल बात यह है कि 2 वर्र्ष पूर्व ही हम एक बहन के विवाह से निबटे हैं, फिर छोटे भाई निखिल का विवाह किया. लड़के के विवाह में भी तो पैसा लगता है.

 

‘‘आप के विवाह में भी लग रहा होगा, हम अभी ऐसी परिस्थिति में नहीं थे कि आप लोगों की सारी मांगें पूरी कर सकते. इसलिए ये सब लाना पड़ा. अब तक जितने भी संबंध आए, हम सब को और विभा को आप व आप का पूरा परिवार ही अच्छा लगा. और एक बात और बतलाऊं, छोटी बहू मधु ने ही खुशी से अपना बहुत सा सामान देने की हठ की है, वरना हम लोग तो यह रिश्ता शायद करने का साहस ही न कर पाते,’’ फिर उन्होंने जो घर पर घटित हुआ था, सारा कह सुनाया.

 

और आखिर में कहा, ‘‘और आप विश्वास करें तब से यह सब दहेज ऐसे ही रखा है, सिवा टीवी और स्कूटर के, सब नया ही है.’’

 

 

लड़का लगन की चौक पर बैठा था. घराती और मेहमान सब एक ओर और मुकेश आदि सहित सब दूसरी ओर. वर के निकट सामान के पास कुछ दबेदबे स्वर सुन कर सब पास आ गए. पिता चिंतित हो उठे, मन में कहा, ‘कुछ गड़बड़ हो गई लगती है,’ वे पास आ कर बैठ गए. अखिल और निखिल भी सरक आए, ‘‘क्या बात है, मुकेश?’’

 

मुकेश ने दबे शब्दों में सब कह दिया. तब तक वर के पिता, भाई तथा अन्य नातेदार भी आ जुटे.

 

‘‘क्या बात है, संजय?’’

 

‘‘पापा, ये देख रहे हैं थाल आदि, ये हैं तो नए परंतु इन की पत्नी मधु का नाम गुदा है इन में,’’ उस ने निखिल की ओर इशारा कर  के कहा.

 

‘‘तो इस में क्या हुआ, ऐसा तो चलता ही है, इधर का उधर दहेज का आदानप्रदान. तू तो पागल है बिलकुल.’’

 

‘‘यह तो ठीक है पापा. परंतु आप मुकेश भैया से सब हाल तो सुन लो,’’ वह संकोच से बोला.

 

‘‘नहींनहीं, रहने दें. हम यहीं से दूसरे खरीद कर रख देंगे. आप अभी रस्म तो पूरी होने दें, यह जरूर है कि इतने भारी न ले पाएंगे, क्षमा चाहते हैं हम इस के लिए.’’

 

‘‘परंतु मैं चाहता हूं कि आप वह सब इन सब को भी सुना दें, जो मधु भाभी के बारे में मु झे बतलाया है. आप लोगों ने जानबू झ कर तो नहीं बताया, मेरे खुद पूछने पर ही तो बताया है,’’ संजय बोला.

 

 

सहसा निखिल का मुंह अपमान की भावना से तमतमा गया. उसे मन ही मन मधु की दानशीलता पर क्रोध आ रहा था. क्यों मान ली सब ने उस की बात? यदि सारा सामान इन लोगों ने लेने से इनकार कर दिया तो कितनी थूथू होगी. यही अखिल, मुकेश, पिताजी व साथ आए लोग सोच रहे थे. फिर संजय के बहुत जोर डालने पर मुकेश ने पिछली घटना सुना दी, जो सच थी कि कैसे वह इस संबंध को टाल रहे थे और कैसे मधु ने अपना सारा दहेज ननद विभा को दे कर रिश्ता पक्का कराया, आदि.

 

‘‘तो क्या हुआ, दे तो रहे हैं सब सामान. किस का है, इस से हमें क्या. हम ने भी तो तेरी बड़ी बहन को कुछ सामान तेरे बड़े भाई के दहेज का दिया था. नाम से क्या, कौन देखेगा नाम? थाल तो आए और रखे गए. कौन रोजरोज इस्तेमाल करता है, इतने बड़े बरतन,’’ पिताजी बोले तथा अन्य व्यक्तियों ने भी इस का अनुमोदन किया.

 

‘‘परंतु मु झे नहीं चाहिए यह सब,’’ ये शब्द संजय के मुंह से सुन कर सब के मुंह सफेद पड़ गए.

 

‘‘बेवकूफ है क्या?’’ बड़ा भाई अजय चिल्ला कर बोला.

 

‘‘तू सब हंसीखेल सम झता है. सामान लाना, खरीदना, ये लोग क्या इतना ले कर चले होंगे? चुपचाप बैठ कर दस्तूर होने दे. आप लोग चिंता न करें, यह तो ऐसा ही हठी है. पंडितजी, दस्तूर कराइए.’’

 

‘‘नहीं भैया, जब तक ये थाल नहीं चले जाएंगे, मैं कुछ नहीं कराऊंगा. आप अपने भीतर से थाल मंगाइए न,’’ वह अड़ गया.

 

कल्पवृक्ष-भाग 2 : विवाह के समय सभी व्यंग क्यों कर रहे थे?

लेखिका- छाया श्रीवास्तव

उस से छोटी हमउम्र विभा जैसे उस की सगी छोटी बहन सी ही थी. गहरा लगाव था दोनों में. विभा विज्ञान ले कर इस बरस स्नातक होने जा रही थी. घर वालों की अनुमति ले कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी, जो विषय उस का था पहले वही ननद विभा का था. इस से वह उसे खुद पढ़ाती, बताती रहती. पूरा घर उस पर जैसे जान छिड़कता.

जब से वह आई थी, बड़ी और म झली की  झड़पें कम हो गईर् थीं. सासननद का मानसम्मान जैसे बढ़ गया था. बातबात पर उत्तेजित होने वाले तीनों भाई शांत पड़ चले थे. रोब गांठने वाले ससुरजी का स्वर धीमा पड़ गया था. सासुमां की ममता बहुओं पर बेटियों के समान लहरालहरा उठती. कटु वाक्यों के शब्द अतीत में खोते चले जा रहे थे. क्रोध तो जैसे उफन चुके दूध सा बैठ गया था.

‘‘छोटी बहू, यह बाबूजी की दूधरोटी का कटोरा लगता है, मेरे आगे भूल से रख गई हो, यह रखा है.’’

‘‘अरे, मेरे पास तो रखा है, शायद भूल गई.’’

तभी मधु गरम रोटी सेंक कर म झले जेठ के लिए लाई, बोली, ‘‘बड़े दादा, यह दूधरोटी आप ही के लिए है.’’

‘‘परंतु मेरे तो अभी पूरे दांत हैं, बहू.’’

‘‘तो क्या हुआ, बिना दांत वाले ही दूधरोटी खा सकते हैं. देखते नहीं हैं, आप कितने दुबले होते जा रहे हैं. अब तो रोज बाबूजी की ही भांति खाना पड़ेगा. तभी तो आप बाबूजी जैसे हो पाएंगे और देखिए न, बाल कैसे सफेद हो चले हैं अभी से.’’

वे जोर से हंसते चले गए. फिर स्नेह से छलके आंसू पोंछ कर बोले, ‘‘पगली कहीं की. यह किस ने कहा कि दूधरोटी खाने से मोटे होते हैं व बाल सफेद नहीं होते.’’

‘‘बाबूजी को देखिए न. उन के तो न बाल इतने सफेद हैं न वे आप जैसे दुबले ही हैं.’’

‘‘तब तो मधु, मु झे भी दूधरोटी देनी होगी. बाल तो मेरे भी सफेद हो रहे हैं,’’ म झला अखिल बोला.

‘‘म झले भैया, आप को कुछ साल बाद दूंगी.’’

‘‘पर छोटी बहू, बच्चों को तो पूरा नहीं पड़ता, तू मु झे देगी तो वहां कटौती

न होगी.’’

‘‘नहीं, बड़े भैया. मैं चाय में से बचा कर दूंगी आप को. अब केवल 2 बार चाय बना करेगी. पहले हम सब दोपहर में पीते थे. फिर शाम को आप सब के साथ. अब हम सब की भी साथ ही बनेगी और आप चुपचाप रोज बाबूजी की तरह ही खाएंगे.’’

सुन कर मां का कलेजा करुणा से भर आया. उन्होंने अपनेअपने कमरों के दरवाजे पर खड़ी दोनों बड़ी बहुओं की ओर देख, फिर छोटी बहू की ओर आकंठ ममत्व में डूबे हुए वे कुछ कहने को होंठ खोल ही रही थीं कि मधु साड़ी के छोर से हाथ पोंछती बोली, ‘‘बाबूजी, एक बात कहनी थी, आज्ञा हो तो कहूं?’’

‘‘हां, हां, कह न बहू,’’ वे आर्द्र कंठ से बोले.

‘‘क्या मेरे मायके से जो रुपया नकद मिला था वह सब खर्च हो गया? यह न सोचें कि मु झे चाहिए. यदि जमा हो तो वह विभा के विवाह में लगा दें.’’

‘‘वह, वह तो निखिल ने आधा शायद तभी अपने खाते में जमा कर लिया था. वह तो…’’

निखिल वाशबेसिन में कुल्ला करते घूम कर खड़ा हो गया. उस ने घूर कर मधु की ओर देखा. मधु ने तुरंत उधर से पीठ घुमा ली. फिर वह बोली, ‘‘वह सब निकाल लें और सब लोग कम से कम 25-25 हजार रुपए दें, भरपाई हो जाएगी.’’

‘‘रुपए हुए तो इतना सामान कहां से आएगा बेटी?’’

‘‘वह मेरा सामान तो अभी नया ही सा है, वही सब दे दें. घर में 2-2 फ्रिजों का क्या करना है. न इतने टीवी ही चाहिए. बिजली का खर्च भी तो बचाना चाहिए. मु झे तो ढेरों सामान मिला था. कुछ आलतूफालतू बेच कर बड़ी चीजें ले लें. रंगीन टीवी, फ्रिज, कपड़े धोने की मशीन के बिना भी तो अब तक काम चल रहा था. वैसे ही फिर चल सकता है. आप को घरवर पसंद है तो यहीं संबंध करिए विभाजी का, यही घरबार ठीक है.’’

सब जैसे चकित रह गए. दोनों जेठजेठानियां मुंहबाए अचरज से देख रहे थे और निखिल तो जैसे पहले उबल रहा था, परंतु फिर लगा वह बिलकुल शांत हो गया पत्नी के सामने. पहले उस के मन में आया कि कहीं मधु उस की ससुराल में मिले नए स्कूटर के लिए न कह दे, परंतु अब वह जैसे पिघल रहा था. उस ने पिता से लड़ झगड़ कर विवाह के बाद ससुराल से मिले आधे रुपए  झटक कर बैंक बैलेंस बना लिया था. यह बात उस ने मधु से कभी नहीं कही थी. आज जैसे वह पूरे परिवार की नजरों में गिर गया था. रुपयों की बात पर वह बौखला कर कुछ कहने के शब्द संजो रहा था कि मधु की दानशीलता ने उसे गहराई तक गौण बना दिया.

‘‘मांजी, मेरे पास जेवर भी कई जोड़ी हैं. मैं सब से छोटी हूं न मायके में. इस से बड़े दोनों भाईभाभी व चाचाचाची तथा दोनों बेटेबहुओं ने भी काफी कुछ दिया है. चाची की तो मैं बहुत दुलारी हूं. उन्होंने अलग से कई जेवर दिए हैं, उन्हें बेच कर समस्या हल हो जाएगी. आप लोग चिंता न करें. बाबूजी रिटायर हो गए हैं तो अब यह भार उन का नहीं, उन के तीनों बेटेबहुओं का है. कोई तानाठेना क्यों देगा. क्या कोई पराया है. बहन उन की ननद हमारी, आप तो कुछ शर्तों पर हेरफेर कर हां कर दो. सब ठीक हो जाएगा. कुछ अच्छा काम हम लोग भी तो कर लें.’’

सुन कर बहुत रोकने पर भी नेत्र बरस पड़े. वे भर्राए कंठ से किसी प्रकार बोले, ‘‘छोटी बहू, क्या कहूं? तेरी जैसी तो कहीं मिसाल नहीं है रे, कहां से पाया तू ने ऐसा ज्ञान, उदारता. तू कहां से आ गई इस घर में.’’

‘‘न, न बाबूजी और कुछ नहीं. मैं सह नहीं सकूंगी,’’ कह कर वह आगे बढ़ी उन के मुख पर हाथ रखने को तो उन्होंने उसे कंधे से लगा लिया और फिर उस के सिर पर हाथ रख कर जैसे मन की सारी ममता लुटाने को आतुर हो उठे.

‘‘पता नहीं कौन से कर्म किए थे हम ने कि इस साधारण घर में बहू बन कर चली आई. अरे, धन्य हैं इस के मातापिता और परिवार वाले जो उन्होंने इस मणि को हमारी  झोली में डाल दिया. अरे, आ तो मधु. मैं तु झे छाती से लगा कर कलेजा ठंडा कर लूं. अरे, ऐसा तो मैं अपनी औलाद को भी न ढाल पाई.’’

मांजी ने उसे खींच कर कलेजे से लगा लिया. मधु ने लज्जा से अपना मुंह मांजी के आंचल में छिपा लिया. मुकेश, अखिलेश अपनी नम आंखें पोंछ कर उठ खड़े हुए. निखिल वहां से चल कर अपने कमरे में दरवाजे पर खड़ा हो कर मुड़ा और बोला, ‘‘बाबूजी, आप विभा के यहां मंजूरी का पत्र लिख दें, और हां, मेरा स्कूटर मेरा बहनोई चलाएगा. अब थोड़ी साफसफाई हो जाएगी, बस,’’ कह कर वह अंदर घुस गया.

कल्पवृक्ष-भाग 1: विवाह के समय सभी व्यंग क्यों कर रहे थे?

लेखिका- छाया श्रीवास्तव

विभा के विवाह के लिए लड़के वालों की ऊंची मांग पूरी करना घर वालों के लिए संभव न था. तीनों बेटों की यही राय बन रही थी कि बहन का रिश्ता वहां न किया जाए. लेकिन सब से छोटी बहू मधु के कारण शादी की बात ऐसे बनी कि सब तरफ खुशियां छा गईं.

छोटी ननद की शादी की बात वैसे तो कई जगह चल रही थी, किंतु एक जगह की बात व संबंध सभी को पसंद आई. लड़की देख ली गई और पसंद भी कर ली गई. परंतु लेनदेन पर आ कर बात अटक गई. नकदी की लंबीचौड़ी राशि मांगी गई और महंगी वस्तुओं की फरमाइश ने तो जैसे छक्के छुड़ा दिए. घर पर कई दिनों से इसी बात पर बहस छिड़ी हुई थी. सब परेशान से बैठे थे. पिता सहित तीनों भाई, दोनों भाभियां तरहतरह के आरोपों से जैसे व्यंग्य कस रहे थे.

लड़का कोई बड़ा अधिकारी भी नहीं था. उन्हीं लोगों के समान मध्यम श्रेणी का विक्रय कर लिपिक था, परंतु मांग इतनी जैसे कहीं का उच्चायुक्त हो. कई लाख रुपए नकद, साथ ही सारा सामान, जैसे स्कूटर, फ्रिज, वाश्ंिग मशीन, रंगीन टैलीविजन, गैस चूल्हा, मशीन, वीसीआर और न जाने क्या क्या.

‘‘बाबूजी, यह संबंध छोडि़ए, कहीं और देखिए,’’ बड़े बेटे मुकेश ने तो साफ बात कह दी. बड़ी बहू ने भी इनकार ही में राय दी. म झले अखिलेश व उस की पत्नी ने भी यही कहा. छोटा निखिलेश तो जैसे तिलमिला ही गया. वह बोला, ‘‘ऐसे लालचियों के यहां लड़की नहीं देनी चाहिए. अपनी विभा किस बात में कम है. हम ने भी तो उस की शिक्षा में पैसे लगाए हैं. शुरू से अंत तक प्रथम आ रही है परीक्षाओं में, और देखना, एमएससी में टौप करेगी, तो क्या वह नौकरी नहीं कर सकेगी कहीं?’’

‘‘ये सब तो बाद की बातें हैं निखिल. अभी तो जो है उस पर गौर करो. कहीं भी बात चलाओ, मांग में कमी होगी क्या. एक यही घर तो सब को सही लगा है. और जगह बात कर लो, मांग तो होगी ही. आजकल नौकरीपेशा लड़के के जैसे सुरखाब के पर निकल आते हैं. यह लड़का सुंदर है, विभा के साथ जोड़ी जंचेगी. परिवार छोटा है, 2 भाईबहन, बहन का विवाह हो गया. बड़ा भाई भी विवाहित है. छोटा होने से छोटे पर अधिक दायित्वभार नहीं होगा. बहन सुखी रहेगी तुम्हारी,’’ पिताजी दृढ़ स्वर में बोले.

‘‘यह तो ठीक है बाबूजी. 2 लाख रुपए नकद, फिर इतना साजोसामान हम कहां से दे सकेंगे. आभा के विवाह से निबटे 2 ही बरस तो हुए हैं, वहां इतनी मांग भी नहीं थी,’’ अनिल बोला.

‘‘अब सब एक से तो नहीं हो सकते. 2 बरस में समय का अंतर तो आ ही गया है. सामान कम कर दें, तो शायद बात बन जाए. रुपए भी एक लाख तक दे सकते हैं. यदि सामान खरीदना न पड़े तो कुछ निखिल की ससुराल का नया रखा है. अभी 6 माह ही तो विवाह को हुए हैं,’’ बाबूजी बोले.

‘‘तो क्या छोटी बहू को बुरा नहीं लगेगा कि उस के मायके का सामान कैसे दे रहे हैं? कई स्त्रियों को मायके का एक तिनका भी प्रिय होता है,’’ बड़ा बेटा मुकेश बोला.

‘‘नहीं.’’ ‘‘बिलकुल नहीं, बाबूजी, फालतू का तनाव न पैदा करें. बहुओं में बड़ी और म झली क्या दे देगी अपना कुछ सामान. कोई नहीं देने वाला है, जानते तो हैं आप, जब छोटी का दहेज देंगे तो क्या वह नहीं चाहेगी कि ये दोनों भी कुछ दें, अपने मायके का कौन देगा, टीवी, फ्रिज, अन्य सामान?’’ अखिल बोला.

‘‘न भैया, मैं खुद नहीं चाहता कि मधु के मायके का सामान दें. जब हमें मिला है तो हम कैसे न उस का उपयोग कर पाएं, यह कहां की शराफत की बात हुई? फिर बड़ी व म झली भाभियों का नया सामान है कहां कि वह दिया जा सके,’’ निखिल उत्तेजित हो खीझ कर बोला.

‘‘रहने दो भैया. कोई कुछ मत दो. मना कर दो कि हम इतने बड़े रईस नहीं हैं, न धन्ना सेठ कि उन की इतनी लंबीचौड़ी फरमाइश पूरी कर सकें. हमें नहीं देनी ऐसी कोई चीज जो बहुओं के मायके की हो. कौन सुनेगा जनमभर ताने और ठेने? इसी से आभा को किसी का कुछ नहीं दिया,’’ मां सरोज बोलीं.

‘‘तब और बात थी. मुकेश की मां, अब रिटायर हो चुका हूं मैं. बेटी क्या, बेटोें के विवाह में भी तो लगती है रकम, और लागत लगाई तो है मैं ने. तीनों बेटों के विवाह में हम ने इतना बड़ा दानदहेज कब मांगा था, बेटों की ससुराल वालों से? अपने बेटे भी तो नौकरचाकर थे. हां, छोटे निखिल के समय अवश्य थोड़ाबहुत मुंह खोला था, परंतु इतना नहीं कि सुन कर देने वाले की कमर ही टूट जाए,’’ बाबूजी गर्व से बोले.

‘‘तो ऐसा करो, छोड़ो सर्विस वाला लड़का, कोई बिजनैस वाला ढूंढ़ो, जो इतना मुंह न फाड़े कि हम पैसे दे न सकें,’’ मां बोलीं.

‘‘लो, अभी तक कहती थीं कि लड़का नौकरीपेशा चाहिए. अब कहती हो कि व्यापारी ढूंढ़ो. लड़की की उम्र 21 बरस पार कर गई है. व्यापारी या कैसा भी ढूंढ़तेढूंढ़ते अधिया जाएगी. समय जाते देर लगती है क्या?’’

‘‘तो कर्ज ले लो कहीं से.’’

बाबूजी खिसिया कर बोले, ‘‘कर्ज ले लो. कौन चुकाएगा कर्ज? तुम चुकाओगी?’’

‘‘मैं चुकाऊंगी, क्या भीख मांगूंगी,’’ वे रोंआसी हो कर बोलीं.

‘‘तुम लोग कितनाकितना दे पाओगे तीनों,’’ वे तीनों बेटों की ओर देख कर बोले.

‘‘बाबूजी, आप जानते तो हैं कि क्लर्क, शिक्षकों की तनख्वाह होती कितनी है. तीनों ही भाईर् लगभग एक ही श्रेणी में तो हैं, वादा क्या करें. निखिल को छोड़ तीनों पर 3-3 बच्चों का भार है. पढ़ाईलिखाई आदि से ले कर क्या बचता है, आप जानते तो हैं क्या दे पाएंगे. हिसाब लगाया कहां है. पर जितना बन पड़ेगा देंगे ही. आप अभी तो उन्हीं को साफ लिख दें कि हम केवल 50 हजार नकद और यह सामान दे सकेंगे, यदि उन्हें मंजूर है तो ठीक, वरना मजबूरी है. एक लाख तो नकद किसी प्रकार नहीं दे पाएंगे, न इतना सामान ही,’’ मुकेश ने कहा तो जैसे दोनों भाइयों ने सहमति से सिर हिला दिया. बड़ी व म झली बहू कब से कमरे में घुसी खुसरफुसर कर रही थीं. छोटी मधु रसोई में थी, चारों जनों को गरमगरम रोटियां सेंक कर खिला रही थी. 6 माह हुए जब वह ब्याह कर आई थी. तब से वह रसोई की जैसे इंचार्ज बन गई थी. बच्चों सहित पूरे घर को परोस कर खिलाने में उसे न जाने कितना सुख मिलता था.

 

Crime Story: आंकडो़ं का रत्न था रतन खत्री

जब आमजन महामारी से जूझ रहा था तब कई हस्तियों की मौते हुईं. जिन हस्तियों की मौतें हुईं, उन
में से एक का जिक्र न के बराबर हुआ. यह एक ऐसा शख्स था जो किसी भी नेता या अभिनेता से कहीं अधिक लोकप्रिय और आम लोगों के ज्यादा करीब था. इस का नाम था रतन खत्री और उपनाम सट्टा या मटका किंग.

आंकड़ों के इस सौदागर ने 5 दशक तक ठसके से देश भर में सट्टे का अपना कारोबार चलाया लेकिन कभी कोई कानून उस का कुछ नहीं बिगाड़ सका. यह और बात है कि आम भारतीय की रोजमर्रा की जिंदगी का अहम हिस्सा रहे रतन खत्री की मौत बेहद खामोश और सादगी भरी रही, जबकि उस ने एक चमकदमक भरी जिंदगी को जिया और लाखोंकरोड़ों मेहनतकशों के अलावा मध्यमवर्गीय लोगों को भी सट्टे की ऐसी लत लगाई कि कई तो इस में बरबाद और कंगाल हो गए.

इस में कोई शक नहीं कि वह उन बिरले लोगों में से था, जिन के पास एक आला दिमाग और जोखिम उठाने की कूवत होती है. कोई भी रतन खत्री के अतीत के बारे में कुछ खास नहीं जानता सिवाय इस के कि भारतपाकिस्तान के बंटबारे के वक्त सिंधी समुदाय का यह किशोर मय परिवार के पाकिस्तान से भारत आया था. यह परिवार भी दूसरे शरणार्थियों की तरह खानेपीने को मोहताज था. पचास के दशक में मुंबई में देश भर के लोग आ कर बस रहे थे, इन में से अधिकांश मजदूर थे. इसी दौर में मुंबई में कपड़ा मिलों का बोलबाला शुरू हुआ, जिस के चलते मजदूरों की कई छोटीबड़ी यूनियनें वजूद में आईं, जिन के दम पर कम्युनिस्ट यहां खूब फलेफूले

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बेरोजगार और बेघर रतन के सामने कई दुश्वारियां मुंह बाए खड़ी रहती थीं लेकिन वह भीड़ का हिस्सा बनने नहीं बल्कि भीड़ का अगुवा बनने को पैदा हुआ था. मुंबई तब भी आज की तरह बेरहम थी, लेकिन यह भी सच है कि वह जिस पर मेहरबान हो जाती है उसे खाक से उठा कर फलक पर बैठा देती है.
यही रतन के साथ हुआ और इतने इत्तफाकन और दिलचस्प तरीके से हुआ कि उस की कामयाबी एक किंवदंती बन कर रह गई. एक और नौजवान थे कल्याणजी भगत, जो गुजरात के कच्छ इलाके से रोजगार की तलाश में मुंबई आए थे. साधारण किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले कल्याणजी ने पेट पालने के लिए कई छोटेमोटे काम किए. उन्होंने किराने की दुकान में काम किया और मोहल्लेमोहल्ले जा कर घरेलू मसाले भी बेचे. कल्याणजी वरली इलाके में रहते थे. उस दौर में मुंबई में कसीनो न के बराबर थे और रेसकोर्स भी गिनेचुने थे. लेकिन एक खास तरह के सट्टे का जोर यहां छूत की बीमारी की तरह फैल रहा था. यह था न्यूयार्क कौटन एक्सचेंज में सूत के दामों के खुलने और बंद होने का अंदाजा लगाना.

जुआ सट्टा इन अंदाजों और यूं ही लगाई जाने वाली शर्तों का एक संगठित और बड़ा कारोबार क्यों नहीं हो सकता, यह बात जैसे ही कल्याणजी के खुराफाती दिमाग में कौंधी तो उन्होंने इसे एक ऐसा प्लेटफार्म देने में कामयाबी हासिल कर ली, जिस की तब कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था. अपने कारोबार को चमकाने के लिए कल्याणजी को उन के ही जैसे तीक्ष्ण बुद्धि वाले साथी की तलाश थी जो रतन खत्री को देखते और उस से मिलते ही पूरी हो गई. इन दोनों ने मिल कर मुंबई में मटका जुआ या सट्टा कुछ भी कह लें, शुरू किया. जिस का शुरुआती क्षेत्र वरली था.

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जान कर हैरानी होती है कि मटके के नाम से चलने वाले इस कारोबार में मटके का इस्तेमाल नहीं होता था. मोटे तौर पर कहें तो मटका एक प्रतीक भर था, जिस में पर्चियां डाली जाती हैं और फिर बोली लगने के बाद निकाल ली जाती हैं. इन पर्चियों में दांव लगाने वालों के भाव मय नाम के दर्ज रहते थे. असल में इस खेल या सट्टे का फंडा यह था कि न्यूयार्क कौटन एक्सचेंज के सहीसही दाम बताने वालों को जीत की राशि दे दी जाती थी, बाकी बचा पैसा कल्याणजी भगत और रतन खत्री का हो जाता था.

इसे और आसानी से समझें तो होता यह था कि अगर सौ लोगों ने कौटन का दाम भारतीय मुद्रा में अपने अंदाजे से सही बताया है तो उन की पर्चियां इकट्ठी कर ली जाती थीं और दांव पर लगने वाली राशि एकत्रित कर ली जाती थी.

मान लिया जाए कि दांव लगाने वाले सौ लोगों ने एक एक रुपया लगाया और अंदाजा 6 का सही निकला तो इन छह लोगों को 9-9 यानी 54 रुपए पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी से दे दिए जाते थे. बाकी के 46 रुपए इन दोनों के हो जाते थे. चूंकि उस वक्त यह रकम लाखों में होती थी, इसलिए इन की कमाई भी हजारों में होती थी.

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ऐसा बहुत कम ही होता था कि बहुत से लोगों के बताए भाव न्यूयार्क कौटन एक्सचेंज के भावों से मेल खाएं, इसलिए इस जोड़ी को घाटा भी अपवाद स्वरूप ही हुआ, जो उन के मुनाफे या कमाई के आगे कुछ भी नहीं होता था.

कल तक जो कल्याणजी और रतन फाके करते थे, वे देखते ही देखते लखपति हो गए. आज से 60 साल पहले लखपति होने का मतलब था आज की तारीख में करोड़पति होना. देखते ही देखते यह कारोबार मुंबई से होते हुए आसपास के इलाकों और देश भर के बड़े शहरों में फैल गया. तब लोग इस में भारी दिलचस्पी लेते, लंबेलंबे दांव लगाते थे.

इस में भी कोई शक नहीं कि जिस का भाव सटीक खुलता था, उस के भाग्य भी खुल जाते थे यानी जीतने वाला एक बार में खासा पैसा कमा लेता था, लेकिन हारने वालों का एकदम से कोई बड़ा नुकसान नहीं होता था.

एक तरह से सूत के दाम के बहाने यह आजकल की महिलाओं की किटी पार्टी यानी बीसी जैसा था जिस में इन दोनों की भूमिका मैनेजर की होती थी. सट्टे के कारोबार के लिहाज से ये बुकी, पंटर या खाइबाज की श्रेणी में आते थे. कुछ साल साथ रहते दोनों काफी मालामाल हो गए और इन का नाम भी चलने लगा. लेकिन रतन खत्री की हैसियत मैनेजर की ही थी, जिस ने बेहद कुशलतापूर्वक पैसों का हिसाबकिताब और लेनदेन संभाल रखा था. फिर एक दिन जैसा कि 2 नंबर के तेजी से बढ़ते धंधों का घोषित रिवाज है, के मुताबिक दोनों में फूट पड़ गई.

उस वक्त तक इन के मटके के कारोबार में से पुलिस वालों को भी हिस्सा जाने लगा था और उन छोटेबड़े गुंडे, मवालियों को भी ये पालने लगे थे जिन का काम वैतनिक या ठेके पर उन लोगों को मैनेज करना होता था जो इन के धंधे में अड़ंगा या टांग अड़ाते थे. अब तक यह व्यवसाय उम्मीद से ज्यादा लोकप्रिय भी हो गया था और व्यवस्थित भी, ठीक वैसे ही जैसे किसी कंपनी का कारोबार होता है. रतन और कल्याण दोनों विकट के महत्त्वाकांक्षी थे, लेकिन बेवकूफ नहीं थे कि पैसों को ले कर लड़ेंझगड़ें. इन्हें एहसास था कि अगर झगड़े तो दोनों कहीं के नहीं रह जाएंगे, लिहाजा दोनों ने खामोशी से अलगअलग रास्ते अख्तियार कर लिए.

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दोनों में कोई खास मनमुटाव था भी नहीं. दरअसल, 1962 में एकाएक ही न्यूयार्क कौटन एक्सचेंज ने सूत के भाव खोलने और बंद करने की प्रक्रिया बंद कर दी तो सट्टा लगाने वालों ने भी मुंह मोड़ना शुरू कर दिया.

अब तक ये दोनों 7 नहीं तो 3 पुश्तों के गुजारे लायक पैसा इकट्ठा कर चुके थे और शानोशौकत की जिंदगी जीने लगे थे. राजनीति और फिल्म इंडस्ट्री में भी इन का नाम इज्जत से लिया जाने लगा था. कई नामचीन हस्तियों से इन के अंतरंग संबंध स्थापित हो गए थे, जिस की वजह सिर्फ इतनी थी कि इन्होंने कम वक्त में बेशुमार दौलत कमा ली थी. हां, आम लोगों की निगाह में इन की कोई इज्जत नहीं थी, जिस की इन्हें जरूरत भी नहीं थी. जब ये अलग हुए तो लोगों ने स्वाभाविक अंदाजा यह लगाया कि अब यह कारोबार भी खत्म हो जाएगा, लेकिन तब भी कोई अंदाजा नहीं लगा पाया था कि अब जो होने जा रहा है उस के मुकाबले पिछला तो कुछ भी नहीं था.

देश में असल सट्टे की शुरुआत तो इन के अलग होने के बाद हुई, जब दोनों ने ही अलगअलग नंबरों वाला सट्टा खिलाना शुरू किया. यह तो इन्हें समझ आ ही गया था कि यह सब से सुरक्षित धंधा है और लोग दांव लगाने के लिए सूत के दामों के मोहताज नहीं हैं. कल्याणजी ने पर्चियों के जरिए सट्टा खिलाना शुरू किया. इस में 0 से लेकर 9 तक 10 अंक पर्चियों पर लिखे जाते थे और लोगों को किसी एक अंक पर दांव लगाने को कहा जाता था, जिस का अंक खुलता था उसे 1 के 9 रुपए दिए जाते थे.

यह शैली रतन को भी जमी तो उन्होंने भी अलग से सट्टा खिलाना शुरू कर दिया. यह लगभग लौटरी जैसा था, जो पसंद इसलिए किया गया कि इस में ड्रा दांव लगाने वालों के सामने किया जाता था और भुगतान भी हाथोंहाथ होता था. इस में टिकट खरीदने का भी झंझट नहीं था और न्यूनतम राशि से भी इसे खेला जा सकता था.

कल्याणजी छोटे से संतुष्ट रहने वाले कारोबारी थे लेकिन रतन विकट के महत्त्वाकांक्षी थे. उन्होंने कारोबार बढ़ता देख सट्टे में नएनए और ऐसेऐसे प्रयोग किए कि देखते ही देखते यह कारोबार देश भर में पसर गया. 70 के दशक तक तो उन का सट्टे का कारोबार 100 करोड़ रुपए रोजाना टर्नओवर वाला हो गया था और यह प्रचार खुद रतन ने मीडिया के जरिए करवाया था. तब मीडिया का मतलब अखबार और पत्रिकाएं ही हुआ करता था. कई अखबारों ने अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए सट्टे के नंबर भाग्यशाली अंकों के नाम पर छापना शुरू कर दिए, इस से सटोरियों का भरोसा सट्टे में और बढ़ने लगा. खुराफाती दिमाग के मालिक रतन ने सट्टे को और लोकप्रिय और रोमांचकारी बनाने के लिए इस में ताश के पत्तों का इस्तेमाल किया, जिस ने देश में हाहाकार मचा दिया.

सट्टा अब दिन में 2 बार खिलाया जाने लगा. पहले वाले को ओपन और दूसरे को क्लोज नाम दिया गया. इस नए और दिलचस्प तरीके में ताश की एक गड्डी को 3 हिस्सों में बांट कर रखा जाता था फिर हर गड्डी में से एकएक पत्ता उठाया जाता था.

मान लिया जाए कि पहला पत्ता नहला दूसरा इक्का और तीसरा पंजा खुला तो बढ़ते क्रम में इसे 159 लिखा जाता था, जिसे पत्ती कहा गया. इन तीनों अंकों को जोड़ने पर योग 15 आया. इन में से दाहिने अंक 5 को खुला हुआ अंक माना गया. जिन्होंने पंजे पर पैसा लगाया होता, उन्हें वह 9 गुना कर वापस दे दिया जाता था. अब मान लिया जाए कि सौ लोगों में से 8 ने पंजे पर दांव लगाया था तो उन्हें 72 रुपए का भुगतान हुआ. बचे 28 रुपए रतन के हो जाते थे.

चूंकि लाखोंकरोड़ों के दांव लगते थे इसलिए उसी अनुपात में रतन की कमाई बढ़ रही थी. क्लोज, ओपन के 4-5 घंटे बाद इसी तर्ज पर खोला जाता था. अब अगर उस में अट्ठा दुग्गी और बादशाह खुले तो पत्ती बढ़ते क्रम में बनी 238 जिसका जोड़ हुआ 13, इस का दाहिना अंक 3 यानी तिग्गी खुला हुआ माना गया इस तरह ओपन और क्लोज की जोड़ी बनी 53 की.

जिन्होंने 53 की जोड़ी पर एक रुपया लगाया होता था, उन्हें एवज में 90 रुपए मिलते थे. लोगों को ललचाने के लिए पत्ती से पत्ती का विकल्प भी दिया जाने लगा यानी जिस ने ओपन में 159 और क्लोज में 238 पर दांव लगाया उसे 1 रुपए के 900 रुपए दिए जाने लगे. सिंगल पत्ती पर पैसा लगाने वालों को भी 90 गुना पैसा दिया जाता था. यानी जिस ने 159 या 238 पर एक रुपया लगाया, उन्हें जीतने पर 90 रुपए दिए जाने का प्रावधान रखा गया.

ऐसा बहुत कम होता था कि किसी की पत्ती या पत्ती से पत्ती खुल जाए. लेकिन 100 में से 4-5 की जोड़ी खुलने लगी तो सटोरियों को यह फायदे का सौदा साबित हुआ क्योंकि जो जोड़ी पर 10 रुपए लगाता था, उसे 900 रुपए मिलते थे और जिन का दांव नहीं लगता था वे एकदम से कंगाल नहीं हो जाते थे. उन की जेब से महज 10 रुपए जाते थे, जिन्हें कवर करने के लिए वे अगले दिन फिर अपनी गाड़ी कमाई में से दांव लगाते थे.

हजार-2 हजार में से 40-50 की ही जोड़ी लगती थी और पत्ती से पत्ती तो 8-10 हजार में से एक की लगती थी. लेकिन सच यह भी है कि कइयों को 9 से ले कर 90 गुना तक पैसा मिलता था लिहाजा सट्टा गांवदेहातों, कस्बों से ले कर महानगरों तक की दैनिक जिंदगी का हिस्सा बनने लगा, जिस में एक वक्त ऐसा भी आया कि रतन खत्री का रोल तयशुदा वक्त पर ड्रा निकालने का रह गया. हर जगह सट्टे के छुटभइए से ले कर धन्ना सेठ तक उस के एजेंट बन गए. इन लोगों को सट्टे की भाषा में खाइबाज कहा जाता है. ये लोग दिन भर का पैसा इकट्ठा कर उस का उतारा या पाना अपने से ऊपर वाले के ऊपर कमीशन पर करते थे, जो ड्रा खुलने के बाद विजेताओं को भुगतान करता था.

सट्टे में गहरे तक डूबे लोग भी जानतेमानते थे कि यह बहुत से लोगों से पैसा ले कर उस का छोटा सा हिस्सा कुछ लोगों में बांटने की प्रक्रिया है, जिस में कोई बेईमानी नहीं होती.

रतन खत्री का ओपन क्लोज, जोड़ी पत्ती और पत्ती से पत्ती दिनों दिन लोकप्रिय हो रहे थे. यह कारोबार अधिकांश जगह पुलिस की सरपरस्ती में होता था. चूंकि इस में कोई हिंसा नहीं होती और हर पुलिस चौकी और थाने में हफ्ता बिना किसी चूंचपड़ के पहुंच जाता था इसलिए इसे खूब छूट और शह मिली.
यह नेटवर्क देश का सब से बड़ा नेटवर्क साबित हुआ जो लैंडलाइन फोन के जमाने में भी खूब फलाफूला था. ड्रा की जानकारी ट्रंक काल के जरिए मिनटों में देश भर में पहुंच जाती थी कि ओपन और क्लोज में कौन सी पत्ती खुली, कौन सी जोड़ी बनी और सिंगल नंबर क्या खुला.

जैसेजैसे टेक्नोलौजी आती गई, वैसेवैसे रतन खत्री ने भी इसे अपनाया और अब यह कारोबार कंप्यूटर के जरिए औनलाइन होने लगा है.सट्टे के बड़े नुकसानों में से एक है लोगों का लालच के चलते अंधविश्वासी हो जाना. अधिकांश सटोरिए ऐसीऐसी बेवकूफियां करते थे कि उन पर तरस ही आता है. किसी को सुबह सड़क चलते गर्भवती महिला दिख जाए तो वह मान लेता था कि आज नहला खुलेगा इसी तरह कोई गंजा आदमी दिख जाए तो दांव जीरो यानी मिंडी पर लगा दिया जाता था.

कई सटोरिए बच्चों से सट्टे का नंबर पूछते नजर आते थे, उन का मानना होता था कि बच्चों के मुंह से भगवान बोलता है यानी भगवान का एक काम सट्टे का नंबर देना भी था.इन लालची सटोरियों को लूटने के लिए ज्योतिषियों की फौज भी धंधा करने लगी जो शर्तिया सट्टे के नंबर बताती थी. सट्टा लगाने के पहले सटोरिए इन ठगों के पास जा कर लकी नंबर जानने के लिए दक्षिणा चढ़ाते थे. बढ़ते कारोबार की गंगा में हाथ धोने के लिए अखबार वालों ने भी अपनी जिम्मेदारी भूल कर नंबरों का खेल शुरू कर दिया था.

नागपुर के 3 बड़े साप्ताहिक तो इसीलिए बिकते थे कि उन में सप्ताह भर के सट्टे के नंबर छपते थे. इतना ही नहीं, ये अखबार अगले सप्ताह खुलने वाले संभावित नंबर भी छापते थे. सट्टे के सब से बड़े केंद्र मुंबई के भी कई अखबार ये नंबर प्रकाशित करते थे यानी इस कारोबार को बढ़ाने में इन का भी खासा योगदान था.
ये लोग 3-4 तरह के नंबर छाप देते थे, जिन में से अकसर कोई खुल भी जाता था क्योंकि 10 में से 4 अंक बताने पर इन का जोखिम कम होता था और बताया नंबर न खुलने पर कोई इन का गिरहबान नहीं पकड़ता था, बल्कि अपनी किस्मत को दोष देने लगता था.

आदतन सटोरियों के पास तो पिछले 60 साल तक का रिकौर्ड मौजूद मिल जाता था जो यह मानते थे कि इतिहास की तरह सट्टे के नंबर भी अपने आप को दोहराते हैं. ये लोग किसी खास दिन या तारीख को खास नंबर पर दांव खेलते थे और दिनरात बेवजह का यह हिसाबकिताब लगाते रहते थे.

मसलन 15 जुलाई, 2020 को वही नंबर खुलना चाहिए जो 15 जुलाई, 1980 को खुला था. बिलाशक आंकड़ों का अपना अलग रोमांच है, लेकिन इस के जुनून ने जिस तादाद में आम लोगों की जिंदगी तबाह की, उतनी शायद धार्मिक अंधविश्वासों ने भी नहीं की होगी.लौकडाउन के दिनों में बीती 10 मई को सैंट्रल मुंबई स्थित नवजीवन सोसाइटी में 88 साल की पकी उम्र में जब सट्टा किंग रतन खत्री ने आंकड़ों की अपनी मायावी दुनिया को अलविदा कहा तो उतनी हलचल हुई नहीं, जितनी होनी चाहिए थी. तब सट्टा भी बंद था, इसलिए इस मौत की चर्चा सट्टा जगत में ही हो कर रह गई कि एक इतिहास खत्म हो गया.

इस इतिहास ने कितनों को बरबाद और कितनों को आबाद किया, इस का कोई हिसाबकिताब किसी के पास नहीं. लेकिन यह बात किसी सबूत की मोहताज नहीं कि रतन खत्री ने आम लोगों की जुएसट्टे की प्रवृति को भुनाते हुए अपनी एक अलग बादशाहत खड़ी की, जिस की मिसाल शायद ही कहीं मिले.
पारसियों जैसी वेशभूषा वाले इस शख्स की जिंदगी का विवादों से भी कम नाता रहा. एक मिथक जरूर सट्टे की दुनिया में बड़े चटखारे ले ले कर कहा सुना जाता है कि एक वक्त में सट्टे के बढ़ते कारोबार से तबाह लोगों की तादाद देख चिंतित तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रतन खत्री से सट्टा बंद कर देने को कहा था. इस पर रतन खत्री ने उन से कहा था कि आप सरकारी लौटरी बंद कर दीजिए, मैं सट्टा बंद कर देता हूं.

इस हाजिरजवाबी से चिढ़ी इंदिरा गांधी ने रतन खत्री को भी इमरजेंसी के दौरान जेल में ठूंस दिया था. तब तकरीबन डेढ़ साल सट्टा बंद रहा था, लेकिन जेल से रिहा होने के बाद रतन ने फिर इसे चालू कर दिया था और अपने साम्राज्य को और ज्यादा विस्तार भी दिया था. शायद ही नहीं, तय है उस के मन से इंदिरा गांधी और कानून का बचाखुचा खौफ खत्म हो चुका था.

यह वह दौर था जब मुंबई में अंडरवर्ल्ड के रोजरोज छोटेबड़े डौन पैदा हो रहे थे लेकिन किसी की हिम्मत रतन पर हाथ डालने की नहीं होती थी. अपने नाजायज कारोबार को कामयाबी के साथ चलाते रतन खत्री का विवादों से कोई खास नाता न रहना बताता है कि वह एक कुशल प्रबंधक था, जिस के नाम का सिक्का 50 साल से भी ज्यादा चला. वह कोई रहस्यमय व्यक्तित्व नहीं था, लेकिन उस के बारे में लोगों को उतनी ही जानकारी रहती थी, जितनी कि वह चाहता था.

फिल्मी दुनिया से रतन के संबंध थे, पर वे सतही थे. ऐसा कहा जाता है कि वह फिल्मकारों को पैसा फायनैंस करता था. मशहूर निर्मातानिर्देशक और अभिनेता फिरोज खान की साल 1975 में प्रदर्शित फिल्म ‘धर्मात्मा’ रतन खत्री की जिंदगी पर ही आधारित थी. इस फिल्म में रतन खत्री की भूमिका दिग्गज खलनायक और चरित्र अभिनेता प्रेमनाथ ने निभाई थी. यह किरदार सट्टा प्रेमियों ने खासतौर से बहुत पसंद किया था और लोग सट्टे के मसीहा की जिंदगी नजदीक से देखने टूट पड़े थे.

अपने जमाने की सुपरडुपर इस फिल्म में तत्कालीन 2 टौप की नायिकाएं रेखा और हेमामालिनी भी थीं. इस फिल्म की अधिकांश शूटिंग अफगानिस्तान में हुई थी. लेकिन फिल्म चलने की बड़ी वजह प्रेमनाथ का धर्मात्मा वाला किरदार था, जो हमेशा गरीबों की मदद के लिए तैयार रहता था. इस किरदार ने देश भर में रतन खत्री की इमेज एक ऐसे रईस आदमी की गढ़ी थी, जो वाकई में धर्मात्मा था और हमेशा दुश्मनों से घिरा रहता था.

फिल्म के वे दृश्य खूब पसंद किए गए थे जिन में धर्मात्मा ताश के पत्तों से सट्टे का नंबर खोलता था जो स्क्रीन पर चमकते तो ओपन और क्लोज की हलचल मच जाती थी. ऐसा माना जाता है कि धर्मात्मा के किरदार को वास्तविकता देने और प्रभावी बनाने में रतन खत्री ने फिरोज खान की हर तरह से मदद की थी.
रतन खत्री के न रहने से क्या सट्टा बंद हो जाएगा, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं. हालांकि कोरोना से इस कारोबार पर भी फर्क पड़ा है लेकिन अभी भी कल्याणजी का सट्टा छुटपुट ही सही, चल रहा है. मुमकिन है रतन का भी चलने लगे लेकिन उस का जादू और जुनून पहले जैसा नहीं रहेगा. क्योंकि सट्टा भी अब हाइटेक हो चला है और इस के नएनए संस्करण ज्यादा लोकप्रिय हो रहे हैं, जिन में क्रिकेट सब से ऊपर है.

क्रिकेट का सट्टा भी रतन के सट्टे की तरह गांवदेहातों तक फैल गया है लोग इस में बरबाद भी हो रहे हैं. लेकिन इस में रतन खत्री की कुरसी पर कौन है, यह किसी को नहीं मालूम.

अस्थमा: दमे से न निकले दम

वातावरण में बढ़ते प्रदूषण के चलते दमा यानी अस्थमा रोग हर उम्र के लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है. दमे का रोग न करे आप का जीना दूभर, इस के लिए किन बातों का रखें ध्यान, जानकारी दे रहे हैं डा. उपेंद्र कौल. दिल्ली की 11 प्रतिशत जनसंख्या दमे से पीडि़त है. इस की वजह तेजी से बढ़ता हवा प्रदूषण और लोगों में बढ़ती धूम्रपान की आदत है. दमा अपने आप में चिंता का विषय है, उस से भी ज्यादा चिंता का विषय है दमा, हार्ट अटैक और स्ट्रोक जैसी गंभीर बीमारियों का संबंध. एक जैसे लक्षणों की वजह से बहुत से ऐसे मामले सामने आते हैं जिन में कंजस्टिव हार्ट फेल्योर को दमा का अटैक समझ लिया जाता है. दोनों के इलाज की अलगअलग पद्धति होने और जांच में देरी होने से गंभीर जटिलताएं हो सकती हैं और वह जानलेवा भी साबित हो सकता है.

दमा के इलाज के लिए आमतौर पर इनहेलर का इस्तेमाल किया जाता है. अगर हार्ट फेल्योर होने पर इनहेलर दे दिया जाए तो गंभीर अरिहद्मिया होने से मरीज की जल्दी मौत हो सकती है. दमा और कंजस्टिव हार्ट फेल्योर के लक्षण एक जैसे होते हैं, जिन में सांस टूटना और खांसी है. यह जागरूकता फैलाना जरूरी है कि अपनेआप दवा देने से पहले और खुद ही अपनी बीमारी का पता लगाने से पहले डाक्टर से सलाह लेना जरूरी है. सही समय पर डाक्टरी सलाह लेने से जानलेवा हालात को रोका जा सकता है. कुछ खून जांच की पद्धतियां हैं जिन से कार्डिएक ओरिजिन और प्ल्यूमिनरी ओरिजिन का फर्क पता चलता है. इन में से एक टैस्ट है एमटी पीआरओबीएनपी ऐस्टीमेशन, जिसे स्क्रीनिंग पौइंट औफ केयर टैस्ट कहा जाता है. ऐसे टैस्ट से कई बार अस्पताल में गैरजरूरी भरती होने की परेशानी से बच सकते हैं.

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आमतौर पर लोग यह मान कर चलते हैं कि दमा और हार्ट अटैक में कोई भी समानता नहीं है, एक सांस प्रणाली को प्रभावित करता है तो दूसरा दिल के नाड़ीतंत्र को. जबकि तथ्य यह है कि दोनों में आपसी संबंध हैं, जो मरीज दमा से पीडि़त है. बिना दमा वालों के मुकाबले उसे हार्ट अटैक होने की 70 प्रतिशत संभावना ज्यादा होती है. इस के कई कारण हो सकते हैं जिन में तीव्र जलन और सूजन शामिल होती है. कुछ किस्म की जलन शरीर के लिए फायदेमंद होती है लेकिन पुरानी जलन जो नाक की एलर्जी, दमा, रिह्यूमेटौ आर्थ्राइटिस, एथीरोस्कलेरेसिसि की वजह से होती है, स्थायी नुकसान कर सकती है.

दमे के इलाज के लिए प्रयोग होने वाली कुछ दवाएं दमे के मरीजों में दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ा देती हैं. उदाहरण के लिए बीटा एमोनिस्टस, जो मांसपेशियों को आराम देने में मदद करती है, का प्रयोग दमा के मरीजों को तुरंत आराम देने के लिए प्रयोग की जाती है. एडीनालीन डेरीवेटिव्ज, औल बीटा एगोनिस्टस दिल पर नकारात्मक असर डालने के लिए जानी जाती है. यह खून में पोटैशियम के स्तर को कम करने के लिए भी जिम्मेदार होती है. यह दिल की रफ्तार में गड़बड़ी पैदा करती है. दमे को नियंत्रित करने में प्रयोग होने वाली कोर्टिकोस्टीरौयड्स को भी रक्त धमनियों में फड़फड़ाहट की वजह समझा जाता है. यह हर डाक्टर की जिम्मेदारी है कि वह दमा नियंत्रण के लिए प्रयोग होने वाली दवाओं के नकारात्मक असर के बारे में मरीजों को जागरूक करें. इसलिए दवाओं का ज्यादा प्रयोग और अपनेआप दवा लेने से परहेज करना चाहिए.

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यह जरूरी है कि दमे को नियंत्रित रखा जाए ताकि हालत बिगड़ कर दिल की समस्या बनने तक न पहुंच सके. दमे का उचित इलाज करने के लिए नियमित तौर पर लक्षणों का ध्यान रखना और इस बात का खयाल रखना चाहिए कि फेफड़े कितने अच्छे ढंग से काम कर रहे हैं. इन बातों का ध्यान रख कर दमे के इलाज को बेहतर तरह से योजनाबद्ध किया जा सकता है. दमे को नियंत्रित करने के लिए सक्रिय भूमिका निभा कर दमे के इलाज को लाभदायक बनाया जा सकता है और दमे के अटैक को रोका जा सकता है, लंबे समय तक दमे को नियंत्रित किया जा सकता है और इस तरह लंबे समय में होने वाली समस्याओं को रोक सकते हैं. सरकार को चाहिए कि वह नागरिकों को साफ और धूल रहित पर्यावरण प्रदान करे. उसे पर्यावरण प्रदूषण को काबू करने के लिए सख्त कदम उठाए जाने चाहिए, उद्योगों और वाहनों के लिए नियम सख्त बनाने चाहिए, हवा की गुणवत्ता मापने के लिए मौनिटरिंग स्टेशनों के नैटवर्क को बेहतर बनाना चाहिए और लोगों में जागरूकता फैलानी चाहिए. यह भी देखा गया है कि अनियंत्रित दमा दिल पर दबाव बढ़ा देता है, जिस वजह से दिल का दायां हिस्सा काम करना बंद कर देता है. इसलिए यह बेहद जरूरी है कि इलाज कर रहे डाक्टर दमे के मरीजों में दिल की समस्याओं के खतरे को टालने के लिए हर संभव उपाय करें. दमे और दिल के रोगी के आपसी संबंध के बारे में लोगों को जागरूक कर के उन्हें चेतन रखा जा सकता है. इस तरह उन्हें समय पर आवश्यक कदम उठाने में मदद मिल सकती है.

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(लेखक फोर्टिस एस्कोर्ट्स हार्ट इंस्टीट्यूट, बसंतकुंज, दिल्ली के एग्जीक्यूटिव डायरैक्टर हैं.)

इन टिप्स को फॉलो कर आप भी बन सकते हैं अच्छे पड़ोसी

शांति जीवन के लिए बहुत जरूरी है. शांति का एक पक्ष पड़ोसियों से बेहतर तालमेल के जरीए पाया जा सकता है. आप के अच्छे व्यवहार से आप के पड़ोसी सदैव आप के बन सकते हैं. जानिए अच्छे पड़ोसी बनने के गुर ताकि आप की गुडी इमेज आप को सोसायटी में सिर उठा कर जीने का अधिकार दे:

– आप कालोनी में नए आए हैं, तो पड़ोसी के समक्ष अपनी अकड़ू इमेज न बनाएं. नई जगह पर अपनी पहचान बनाएं. इस के लिए आप को स्वयं पहल करनी होगी. यकीन मानिए आप मुसकरा कर सामने वाले से बात करेंगे, तो सामने वाला भी आप के साथ वैसे ही पेश आएगा.

– कालोनी में नए आए हैं, तो पासपड़ोस में चेहरे पर मुसकराहट लिए नमस्तेसलाम या वैलकम गिफ्ट से जानपहचान बढ़ाएं.

– पड़ोसी से उन का लाइफस्टाइल जानें. ऐसा करने से लड़ाईझगड़े से बचा जा सकता है. मसलन, आप के पड़ोसी नाइट शिफ्ट में काम करते हैं. ऐसे में सुबह व शाम आराम के लिहाज से उन के लिए बहुत अहम हैं. आप का बच्चा स्कूल के बाद गानेबजाने की प्रैक्टिस करता है. यह बात पड़ोसी को बताने से होने वाले झगड़े से बच जाएंगे. ऐसे में दोनों अपनीअपनी समस्या का बीच का रास्ता खोज सकते हैं.

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– आप दूसरी मंजिल पर रहते हैं, तो इस बात का ध्यान रखें कि भारीभरकम उपकरणों के खिसकाने आदि से उपजे शोर से पहली मंजिल वाले को खीज हो सकती है. फिर खीज लड़ाईझगडे़ का रूप भी ले सकती है. ऐसे में समझदारी इसी में है कि आप भारी उपकरणों के नीचे मोटा रबर मैट बिछाएं ताकि शोर कम हो.

– टहलने, चलने की तहजीब भी बहुत जरूरी है. खटखट की आवाज करते जूते या सैंडल किसी भी को डिस्टर्ब कर सकते हैं. अत: आज से ही अपनी कालोनी, ब्लौक या गलीमहल्ले में खटखट की आवाज करने वाले जूते या सैंडल पहनना बंद कर दें. जूतेचप्पल ऐसे हों जो आवाज न करें.

– घर में पैट है, तो ध्यान रहे वह हमेशा चेन से बंधा रहे. कालोनी में पैट के साथ बाहर हैं, तो उसे चेन से बांध कर रखें. आप को उस से भले डर न लगता हो, लेकिन दूसरों को लग सकता है. यही नहीं, अगर पैट चेन से बंधा न हो तो किसी को काट भी सकता है, जो झगड़े की वजह बन सकता है.

– पार्किंग ऐटिकेट्स से भी जरूर वाकिफ हों. गाड़ी, स्कूटर या बाइक ऐसे पार्क करें कि किसी का रास्ता ब्लौक न हो. किसी के घर के आगे गाड़ी पार्क न करें. पार्किंग ऐटिकेट्स से वाकिफ होने से पासपड़ोस में झगड़े से बच सकते हैं.

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– पड़ोसियों से मेलजोल बनाए रखें. स्वयं पहल कर के पड़ोसी को अपने घर चायनाश्ते पर बुलाएं. अच्छा माहौल आप को मानसिक सुकून तो प्रदान करेगा ही, जरूरत के समय आप के पड़ोसी भी आप के साथ होंगे.

– धीमा बोलना बहुत जरूरी है. आप किसी से फोन पर बात कर रहे हैं और आप की कालोनी में महिलाएं तेज आवाज में बात कर रही हैं तो उन्हें मना करने पर झगड़ा हो सकता है. ऐसे में घर के हर छोटेबड़े सदस्य को सिखाएं कि घर, टैरेस, पार्क आदि जगहों पर धीमी आवाज में बोलें. आप की तेज आवाज दूसरे की शांति भंग कर सकती है.

– पड़ोसियों से संवाद बनाए रखें. उन के हर सुखदुख में उन का साथ दें. समय की कमी रहती है, तो अपने पड़ोसियों से व्हाट्सऐप, फेसबुक से जुड़ें.

– घर में पार्टी करने वाले हैं, तो पहले ही अपने पड़ोसियों को इस बारे में बता दें अन्यथा पार्टी के दौरान आप के पड़ोसी मूड खराब कर सकते हैं. पहले बताने से पड़ोसी शोरशराबा होने पर ऐडजस्ट करने की कोशिश करेंगे.

– घर का कूड़ाकरकट डस्टबिन में डालें. यहांवहां न फेंकें. यहांवहां बिखरा कूड़ा झगड़े का कारण बन सकता है. इसी तरह कालोनी में बिखरे कूड़े को नजरअंदाज न करें. उसे उठा कर डस्टबिन में डालें. आप को देख कर दूसरे लोग भी ऐसा करेंगे यानी कालोनी साफसुथरी रहेगी.

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– आसपास के इलाके में कोई दिल दहलाने वाली घटना घटी है, तो इस बारे में पड़ोसियों से बात करें ताकि यह बात वैलफेयर ऐसोसिएशन के हैड के कानों तक पहुंच जाए और कालोनी में वैसी कोई घटना न घटे.

– बड़ेबुजुर्गों की खैरखबर लेते रहें. कालोनी में जरूरतमंदों की सहायता करने से पीछे न हटें.

– चौकन्ने रहें कि कहीं आप का व्यवहार, आप का रहनसहन या किसी भी प्रकार का आचरण पड़ोसी को कष्ट तो नहीं दे रहा.

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– अपने पड़ोसियों से सरलता से पूछें कि कहीं उन्हें आप की वजह से कोई दिक्कत तो नहीं. यह जान कर झगड़े की जड़ को ही नष्ट कर सकते हैं.

सवर्णों के मंदिर में दलितों का क्या काम

बसपा प्रमुख मायावती अब राजनीति नहीं कर रहीं बल्कि भाजपा की खुशामद ज्यादा कर रहीं हैं जिसमें उनके व्यक्तिगत स्वार्थ और आर्थिक हित भी हैं .  इस सच से परे तय है वे वह दौर नहीं भूली होंगी जब 80 – 90 के दशक में उनके राजनैतिक गुरु और अभिभावक बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम का एक थिंक टेंक हुआ करता था जिसका फुल टाइम काम धर्म ग्रन्थ पढ़ कर उनमें से ऐसे तथ्य और उदाहरण छांटना होता था जिनमे दलितों को तरह तरह से  प्रताडित करने के स्पष्ट संदर्भ और निर्देश हैं .

कांशीराम ने सार निकाला और नारा दिया , तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार और भाजपाइयों के लिए एक नया शब्द दिया मनुवादी .  लेकिन उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं रही होगी कि जिस तेजतर्रार सांवली युवती को वे दलित हितों , उत्तरप्रदेश और बसपा की कमान सौंप रहे हैं कभी वही उनकी मेहनत और मुहिम का सौदा मनुवादियों से करेगी .

अयोध्या में राम मंदिर बन रहा है और पूरे जोर शोर से 5 अगस्त की तैयारियां भी कोई 5 -6 करोड़ सवर्ण कर रहे हैं .  लेकिन यह जोश उन 23 करोड़ दलितों में नहीं है जिनके पास दियों में जलाने तो दूर दाल बघारने के लिए भी तेल नहीं है और  जिनका राम लक्ष्मण , सीता , हनुमान और रावण भी सिर्फ रोटी होता है .  उनकी अयोध्या उनका झोपड़ा होती है .  खैर इस फलसफे से परे एक दिलचस्प और हैरतअंगेज बात  मायावती के राम  मंदिर से पैदा होते सरोकार हैं .

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मायावती की भाजपा से नई मांग यह है कि दलित महामंडलेश्वर स्वामी कन्हैया प्रभुनन्दन गिरि को भी भूमि पूजन में आमंत्रित किया जाए . गौरतलब है कि राम जन्मभूमि पूजन कार्यक्रम में कोरोना कहर के चलते केवल दौ सौ लोगों को ही बुलाया गया है . बकौल मायावती प्रभुनन्दन गिरी को बुलाने से देश में जातिविहीन समाज बनाने की संवैधानिक मंशा पर कुछ असर पड़ सकता था .

विकट का विरोधाभास

एक तरफ तो मायावती एक दलित महामंडलेश्वर को इस मेगा इवेंट में बुलाये जाने पर सामाजिक समरसता का आरएसएस ब्रांड ढोल पीट रहीं हैं और दूसरी तरफ इसी ट्वीट में यह भी कह रहीं हैं कि वैसे तो जातिवादी उपेक्षा तिरस्कार व अन्याय से पीड़ित दलित समाज को इन चक्करों में पड़ने के बजाय अपने उद्धार के लिए श्रम / कर्म में ही ज्यादा ध्यान देना चाहिए तथा इस मामले में भी अपने मसीहा परमपूज्य बाबा साहब डा भीमराव आंबेडकर के बताए रास्ते पर चलना चाहिए .

गौरतलब यह भी है कि 13 अखाड़ों के एकलौते दलित महामंडलेश्वर प्रभुनन्दन गिरि खुद को इस आयोजन में न बुलाये जाने पर नाराजगी जताते यह आरोप लगा चुके हैं कि भूमि पूजन समारोह में भी दलित समुदाय की अनदेखी की जा रही है .  इससे पहले मंदिर निर्माण के लिए गठित ट्रस्ट में भी किसी दलित को जगह नहीं दी गई थी . गौरतलब है कि प्रयागराज में आयोजित पिछले कुम्भ में प्रभुनन्दन गिरि को महामंडलेश्वर की उपाधि संत समुदाय द्वारा देकर यह जताने की कोशिश की गई थी कि एक दलित संत भी इस उपाधि का पात्र हो सकता  है .

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कुछ  सवाल

मायावती और प्रभुनन्दन गिरि क्यों तिलमिला रहे हैं और क्यों दलित होते हुए भी उनसे 5 अगस्त को लेकर सवर्णों की उपेक्षा बर्दाश्त नहीं हो रही इससे ज्यादा  यह सवाल कहीं अहम् है कि क्यों ये लोग इस खर्चीले मंदिर और आयोजन की औचित्यता पर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे . इस बाबत खासतौर से मायावती को कुछ सवालों पर विचार करना चाहिए क्योंकि वैचारिक दोहरेपन को लेकर उनका राजनैतिक केरियर डगमगा रहा है और वे रोज दलितों का भरोसा खो रहीं हैं .  यह उनके लिए भले ही न हो पर दलित समुदाय के लिहाज से जरुर चिंता की बात है जो नेतृत्व विहीन होता जा रहा है – .

– क्या किसी दलित महामंडलेश्वर को आमंत्रित करने से दलित अत्याचार बंद हो जायेंगे .

– दलितों के भले के लिए कौन सा रास्ता उपयुक्त है , राम बाला जिन्होंने एक शूद्र शम्बूक को केवल इसलिए मार डाला था कि वह धर्म ग्रन्थ पढ़ते तपस्या करने की जुर्रत कर रहा था जिससे एक ब्राम्हण बच्चे की अकाल मौत हो गई थी . या दलितों के लिए अमबेडकर बाला रास्ता उपयुक्त है जो ऐसे धर्म ग्रन्थ जला देने की न केवल बात कहते थे बल्कि खुद उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था .

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– दलितों को क्या पढ़ना चाहिए रामायण या संविधान

– क्या मंदिरों से दलितों का अब तक कोई भला हुआ है अगर हाँ तो मायावती बताएं और गिनाएं भी कि कैसा और कितना हुआ है .

– जब दलितों का भला अपनी मेहनत और काम से ही होना है तो मायावती क्यों दलित महामंडलेश्वर को आमंत्रित न किये जाने पर तिलमिलाहट प्रदर्शित कर रही हैं .  यह किस किस्म की राजनीति है जबकि वे खुद भाजपा की मंशा भाजपा से भी बेहतर समझती हैं कि वह ब्राह्मण राज और वर्ण व्यवस्था बहाल करने की है .

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अगर ऐसा मायावती की नजर में नहीं है तो क्यों अपने बचे खुचे समर्थकों जिनमें अब ब्राह्मण ज्यादा हैं को लेकर वे भाजपा में शामिल हो जातीं .

सुशांत सिंह राजपूत मामले में सामने आई अंकिता लोखडें तो इस निर्देशक ने कह दी यह बात

सुशांत सिंह राजपूत को लेकर अभी भी मामला गंभीर चल रहा है इसी बीच सुशांत के को न्याय दिलाने के लिए उनकी भूत पूर्व प्रेमिका अंकिता लेखडें सामने आ रही हैं. अंकिता हर जगह खुलकर अपनी बोतं को रखते हुए कह रही हैं कि सुशांत ने सुसाइड नहीं किया है. उसे मरने के लिए मजबूर किया गया है.

उन्होंने अभी तक कई चैनल में दिए इंटरव्यू में कहा है कि सुशांत कभी डिप्रेशन में नहीं थे लेकिन रिया से मिलने के बाद उनके स्वभाव में बदलाव आया है. अंकिता ने इस बात का भी खुलासा किया है कि पिछले कुछ सालों से वह अपने किसी भी करीबी दोस्त और रिश्तेदार के साथ ज्यादा करीब नहीं थे. वह अपनी ही दुनिया में मस्त रहते थे. अपनी दिक्कते भी किसी से शेयर नहीं करते थें.

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अंकिता लोखडें के सभी बयानों को सुनने के बाद अब फैंस उन्हें काफी केयरफुल रहने को कह रहे हैं. वहीं फिल्म निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने उन्हें सावधान रहने के लिए कहा है. क्योंकि बॉलीवुड में गैंगबाजी को लेकर भी बहुत सारी बातें सामने आ रही है.


विवेक अग्निहोत्री ने लिखा है कि सुशांत सिंह राजपूत डिप्रेशन में नहीं था. लोग उन्हें समझ नहीं पाएं वह बहुत ज्यादा क्रिएटीव माइंड था. अंकिता लोखडें कृप्या अपना ध्यान रखें वो लोग तुम्हारा पीछा करेंगे, भगवान तुम्हें शक्ति दे.

 

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Look at the speed ??? Kya baat kya baat kya baat ? #workoutroutine

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अंकिता लोखडें ने बताया कि सुशांत के मौत से कुछ वक्त पहले सुशांत के पिता ने उन्हें कॉल किया था और कहा था कि सुशांत का नया नंबर उनके पास नहीं है कृप्या मेरा बात उससे करवा दे.

 

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HOPE,PRAYERS AND STRENGTH !!! Keep smiling wherever you are?

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वो सुशांत के पिता की बात को सुनकर हैरान रह गई थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था सुशांत ऐसे कैसे हो सकता है.

रिया चक्रवर्ती ने VIDEO शेयर कर अपने सफाई में कहा कुछ ऐसा, फैंस ने सुनाई खरी-खटी

सुशांत सिंह राजपूत के मौत को कुछ समय हो चुका है लेकिन इसके बावजूद भी मामला शांत होने का नाम नहीं ले रहा है. सुशांत सिंह राजपूत के घर वालों ने सुशांत के मौत के करीब डेढ़ महीने बाद सभी चीजों के जांच पड़ताल करके रिया चक्रवर्ती के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी है.

सुशांत सिंह राजपूत के पिता का कहना है कि उनके बेटे ने आत्महत्या नहीं कि है. उसके खिलाफ साजिश की गई है. सुशांत के पिता ने यह एफआईआर दर्ज करवाई है जिसमें उन्होंने अपने बेटे के मौत की जिम्मेदार रिया चक्रवर्ती को बताया है.

यहीं नहीं उन्होंने यह भी इल्जाम लगाया है कि रिया मेरे बेटे के अकाउंट से पैसे लेती थी उसके मौत के बाद भी सुशांत के कई अकाउंट से पैसे निकाले गए हैं.

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इसके बाद से खबर आ रही है कि रिया चक्रवर्ती ने अपना केस लड़ने के लिए देश के सबसे महंगे वकील को हायर किया है. रिया चक्रवर्ती ने वकील के कहने के अनुसार अपना एक वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर किया है.

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रिया ने कहा है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने मेरे बारे में बहुत गंदगी फैलाई है. लेकिन मुझे पूरा यकीन है मुझे न्याय जरूर मिलेगा. रिया चक्रवर्ती और सुशांत सिंह पिछले कुछ सालों से रिलेशन में थे जिस समय से वह अपने करीबी दोस्त और रिश्तेदार से दूर रह रहे थें. वह अपने फैमली से भी ज्यादा करीब नहीं थें.

रिया चक्रवर्ती के इस वीडियो में के बाद से सुशांत के फैंस ने फिर से खरी-खोटी सुनाना शुरू कर दी है. रिया चक्रवर्ती को सुशांत के फैंस ने हमेशा से परेशान किया है. सुशांत के फैंस हमेशा से चाहते है कि सीबीआई की जांच हो लेकिन अभी तक महाराष्ट्र पुलिस ने कोई करवाई नहीं किया है.

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लगातार इस बात की चर्चा सोशल मीडिया पर हो रही है. सोशल मीडिया पर फैंस इस वीडियो वीडियो पर कमेंट कर रहे हैं.

 

पोल्ट्री किसानों के लिए सलाह

कोरोना महामारी की वजह से पोल्ट्री उद्योग को भारी नुकसान उठाना पड़ा है, इस नुकसान में वृद्धि सोशल मीडिया की कई मिथक और गलत धारणाओं के फैलने के कारण हुआ है, जिस का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था. मुरगीपालकों ने इस दौरान ब्रायलर 5 से 10 रुपए किलो और अंडा 1-1.3 रुपए प्रति अंडा बेचा, जबकि 1 किलो ब्रायलर उत्पादन में 72 से 75 रुपए तक लागत आती है और अंडा उत्पादन में 3.25 रुपए की लागत आती है. इस प्रकार पोल्ट्री उद्योग को हुए घाटे ने इस उद्योग को खत्म सा कर दिया है, जिसे हमें फिर से स्थापित करना होगा ताकि उचित कीमत पर मांस व अंडा लोगों को उपलब्ध हो सके.

एक अनुमान के अनुसार इस वर्ष जाड़े में अंडे व ब्रायलर की उपलब्धता कम होने से कीमत दोगुनी होने की संभावना है. इस बुरे दौर में देसी प्रजातियों को कम नुकसान उठाना पड़ा है, क्योंकि ये प्रजातियां धीरेधीरे बढ़ती हैं और कीड़ेमकोड़े, गिरे हुए अनाज, बासी खाना, चारा इत्यादि खा कर अपना पेट भर लेती हैं, जिस से लौकडाउन के दौरान देसी मुरगियां पालने वाले मुरगीपालकों को आर्थिक रूप से अधिक नुकसान नहीं उठाना पड़ा और वह इन्हें अधिक समय तक रख कर अधिक लाभ ले सकते हैं.

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कृषि विज्ञान केंद्र, कटिया द्वारा सीतापुर जिले में देशी मुरगियों की विभिन्न प्रजातियां जिस में कारी देवेंद्रा, कारी निर्भीक, कड़कनाथ, असील, कारी ब्रो धनराजा प्रजातियां उपलब्ध कराईं और बैकयार्ड पोल्ट्री के रूप में प्रदर्शनी में दिया.

हमारे किसान, जिन के पास कड़कनाथ मुरगे लगभग 1.5 से 2 किलो वजन के हैं, वे बिक्री के लिए उपलब्ध हैं, क्योंकि आने वाले समय में देशी मुरगों की कीमत अच्छी मिलेगी, इसलिए आप इन्हें कुछ समय तक उन की देखभाल करें और जो नुकसान हुआ है, उस की जल्दी से जल्दी भरपाई हो जाएगी.

कृषि विज्ञान केंद्र, कटिया, सीतापुर के पशुपालन विशेषज्ञ डा. आनंद सिंह ने पोल्ट्री किसानों के लिए गरमी के मौसम में देखभाल व अन्य आवश्यक सलाह दी है :

* जिले में मक्का, बाजरा, मूंगफली की खेती की जाती है और इसे हमें बढ़ावा देना होगा, क्योंकि इन का प्रयोग पोल्ट्री आहार बनाने में किया जाता है और बाजार में इन उत्पाद की कमी होने के कारण इन की कीमत भी अधिक है. इस से किसान भाइयों को अधिक फायदा मिलेगा.

* पोल्ट्री में आहार की आवश्यकता को 5 से 10 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और कृषि विश्वविद्यालय के द्वारा विकसित तकनीकों को अपना कर जैसे पोल्ट्री आहार में संपूरक आहार का प्रयोग करें, माइक्रोबियल एनएसपी एंजाइम का उपयोग, फाइटेज, प्रोटियेज, आवश्यक तेल और और्गेनिक एसिड का प्रयोग, पोल्ट्री के पाचन तंत्र को स्वस्थ रखने के लिए प्रोबायोटिक, लिवर टौनिक इत्यादि का इस्तेमाल कर सकते हैं.

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* मक्का और सोयाबीन की उत्पादन में कमी होने की स्थिति में या इन की उपलब्धता की कमी में पोल्ट्री में आहार में

टूटे हुए चावल व बाजरा को 30 से 40 फीसदी और बिनौले की खली 10 से 12 फीसदी और सरसों की खली 5 से 8 फीसदी तक प्रयोग कर सकते हैं.

* गरमी का मौसम चल रहा है. गरमी में वृद्धि हो रही है, तो पोल्ट्री के दाने में थोड़ा पानी मिला कर या पानी से गीला कर के मुरगियों को देना चाहिए और आहार दिन में ठंडे समय में जैसे सुबह और शाम को देना चाहिए. जैसेजैसे तापमान बढ़ता है, मुरगी की ऊर्जा की आवश्यकता कम होती जाती है, इसलिए दाने में पोषक तत्त्वों की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए.

मुरगी के पानी में अतिरिक्त विटामिन संपूरक देना चाहिए.

* मुरगी को स्वच्छ व ठंडा पानी दें. पानी के बरतन साफ होने चाहिए. आमतौर मुरगियों को प्रति किलो दाने पर 2 लिटर पानी की आवश्यकता होती है. मुरगियों में पानी की आवश्यकता प्रति डिगरी तापमान बढ़ने पर

4 फीसदी तक बढ़ जाती है. मिट्टी के बरतन में पानी देना अधिक लाभदायक होता है.

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* तापमान बढ़ने के साथसाथ हमें आवास के प्रबंधन की उचित देखभाल रखनी चाहिए. आवास की छत पर बाहर से सफेदी कर देनी चाहिए या उष्मा कुचालक शीट का प्रयोग कर सकते हैं. आवास कक्ष दोनों तरफ से छत 3 फुट बाहर निकली होनी चाहिए. मुरगियों  को गरम मौसम में खुली जगह देनी चाहिए. अधिक गरमी होने की स्थिति में पंखे, कूलर और एग्जास्ट पंखों का प्रयोग कर सकते हैं. आवास के दोनों तरफ बोरी के परदे लगा देने से और दिन में पानी का छिड़काव करना लाभदायक होता है. आवास के छप्पर पर हरी लताएं चढ़ा देनी चाहिए.

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* मुरगीशाला में बिछावन की मोटाई

2 से 3 इंच रखनी चाहिए, बिछावन को समयसमय पर उलटतेपलटते रहना चाहिए. इस बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए.

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