शहर में ट्रेन आई, लोगों ने वाह वाही मचाई. कहा की नया दौर आया है. पुराने बंधन, दकियानूस अब ख़त्म होने को हैं. साल बीते लेकिन कहे अनुसार बदलाव नहीं दिखे. फिर काली तारकोल की सड़कें बिछीं, सड़कों के किनारे रोड लाइट लगीं, शहर जगमग हुआ. लोगों ने कहा कि विकास हुआ. फिर यह सड़कें शहर से होकर गांव में चिपकने लगी तो शहरी बोले अब दकियानूस की पुरानी व्यवस्था ढर्रा के गिर जाएगी. साल बीते फिर भी कुछ नहीं हुआ. फिर शहरों के उन्ही सड़कों के ऊपर से चीरती हुई मेट्रो बनी, किनारों में माल, सिनेमा हॉल, पिज़्ज़ा हट आया तो अब शहरी भले लोग दकियानूस और पुरानी व्यवस्था की बात करना ही छोड़ दिए. अब वे घर में बैठ कर एंड्राइड फोन के एक टिक से “सब चंगा सी” की पालिसी में दिन रात लग गए.

देश में पूंजीवाद की वाहवाही में लगे लोग गांव में अभी भी चल रही उन सामंती व्यवस्थाओं पर चुप रहने लगे है जिनसे आँख मिलाने की हिम्मत अब बची नहीं है. आँख मिलाएंगे तो कैसे, पिछले 6 साल से बने फर्जी राष्ट्रवाद का गुब्बारा फूट न जाएगा? भारत मां के हम सभी सपूत हट कर “ब्राह्मण, बनिया और राजपूत” तक ठहर न जाएगा? जो वन नेशन की बात तो करता है, लेकिन इक्वल सिटिज़न कहने से बिदकता है. इसलिए एक तरीका बना दिया है कि उन मसलों पर ध्यान ही नहीं देना जो दोगली राष्ट्रवाद के महल को तहसनहस करे.

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खैर, दिल्ली में बैठ कर सोशल मीडिया पर तैरते हुए एक वीडियो मेरे पास तक पहुंची. वीडियो में एक महिला के शव को सजी सजाए तैयार चिता से लोग हटाते दिखे. लगा भारत देश महान है तो हिन्दू संस्कृति में कोई परंपरा होगी जिसमें चिता से एक दो बार शव को हटाया या रखा जाता होगा, या यह भी हो सकता है मृत शरीर का अंतिम क्रियाक्रम करने के लिए कोई सस्ता नौसिखिया पंडित चला गया हो जिसने दिशाओं का ध्यान रखे बगैर गलत ढंग से शव को चिता में लेटाया हो और लताड़ पड़ने के बाद फिर से पोजीशन बदल रहा हो.

लेकिन नहीं, मैं गलत था. शहर में रह कर “सब चंगा सी” का भूत मेरे दिमाग पर भी चढ़ा था. थोडा खबरे टटोली तो पता चला यह शव दलित महिला का है. जो मरने के बाद भी जातीय उत्पीडन झेल रही है. मामला यह कि महिला की मौत 19 जुलाई को हुई और शव को जलाने के लिए पास के एक शमशानघाट ले गए. अब सरहदों ने जैसे देशों के बटवारे किये है वैसे ही देश में जातियों ने लोगों के बंटवारे किये हैं. और लोगों ने शमशानघाट के. यह इसी व्यवस्था में तय था कि कौन सी जाती कहां पानी पिएगा?, कहां रहेगा?, क्या खाएगा?, क्या करेगा? और फिलहाल की घटना के साथ कहां जलेगा? लेकिन इस मामले में मृत महिला का परिवार हम शहरियों के “सब चंगा सी” और 2014 के बाद वाले “हम भारत मां के सपूत” वाले भ्रम में फंस गया.

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उसे लगा 1955 एक्ट वाला जाति भेदभाव पर पाबन्दी वाला क़ानून मोदीजी के आने के बाद सामजिक तौर पर  लागू हो गया है, और जो लोग मोदीजी को वोट देते हैं वे जातीय भेदभाव को ध्वस्त कर चुके हैं. इसलिए वह अपनी पत्नी का शव गांव के पास वाले ठाकुरों के शमशानघाट ले गया. क्रियाकर्म की सब तैयारिया पूरी हो चुकी थी, मृत महिला का 4 साल का बेटा अग्नि हाथ में लिए तैयार था. चिता पर उपले और लकड़ी सज चुके थे, इतने में 250 ठाकुर वहां पहुंचे. यह ठाकुर परिवार को सांत्वना देने नहीं बल्कि परिजन को हडकाने पहुंचे थे. “खबरदार जो इसे यहां जलाया तो. जाके इसे तुम्हारे लिए बनाए शमशानघाट पर जलाओ.” इतना कहने की हिम्मत कर देना कि ऐसा शुरू से चल रहे नियमों के हिसाब से किया जा रहा है. यह कोन से समाज के नियम हैं, जो संविधान के सामानांतर बराबर चल रहे हैं.

उन ठाकुरों ने वहां से 4 किलोमीटर दूर निचली जाति के लिए तय दुसरे शमशानघाट ले जाने के लिए दबाव बनाया. मृत महिला का पति और ससुर मजबूर थे. उनका हुक्का पानी उन्ही ठाकुरों के यहां काम कर के चलता था. इसलिए यह मामला जातीय उत्पीडन का तो था लेकिन पुलिस स्टेशन में रखे कंप्लेंट रजिस्टर में दर्ज नहीं हुआ. फिर मामला गांव का भी था. हैंडपम्प से लेकर खेत में उगाई तक में गांव के उन्ही दबंगों का प्रभुत्व है. और जिस कोर्ट में मामला पहुंचेगा उससे पहले गांव में उन्ही ठाकुरों के सरपंचो से गांव निकाला दे दिया जाएगा.

मुझे दुख मृत महिला का नहीं है. जीते जी उसने जितने जातीय भेदभाव झेले होंगे मरने के बाद अब क्या फर्क पड़ता है. फर्क उसके परिजन को पड़ा होगा. जिसमें 4 साल का बच्चा मेरे लिए सबसे अहम् है. आधुनिक भारत में हम शहरी लोग रेस्टोरेंट में पिज़्ज़ा खाते हुए देश के तथाकथित बदलाव पर ख़ुशी जाहिर कर सकते हैं. किन्तु क्या हम उस 4 साल के बच्चे से आँख मिला पाएँगे जिसने इतनी छोटी उम्र में जातीवाद का इतना तीखा दंश झेला हो. वह उम्र के साथ जब बड़ा होगा तो क्या यह याद उसे हमेशा कुरेदेगी नहीं? फिर क्या वह हमसे पूछेगा नहीं कि जिस समय तुम राष्ट्रवाद के हुंकार से लबालब भरे थे उस दौरान मेरी मां की चिता को तुम्हारे सड़ेगले समाज ने जलने नहीं दिया?

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राज्य की स्वघोषित दलित नेता व पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ट्वीट करती है- 

“यूपी में आगरा के पास एक दलित महिला का शव जातिवादी मानसिकता रखने वाले उच्च वर्गों के लोगों ने इसलिए चिता से हटा दिया, क्योंकि वह शमशान-घाट उच्च वर्गों का था, जो यह अति-शर्मनाक व अति-निंदनीय है.

ध्यान हो तो यह वही मायावती है जो राज्य में किसी भी हालत में मुख्यमंत्री बनने के लिए भाजपा के साथ गठबंधन कर लेती है. वही भाजपा जिसकी बुनियाद इन्ही कुप्रथाओं, पाखंडों और भेदभावों का महिमामंडन करने का रहा है. जिनके लिए मनु सर्वोप्रिय हैं. फिर यह कैसी दोगली सियासत है?

इस घटना पर पुलिस का कहना है कि इस मामले में परिजनों द्वारा कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई है. इसलिए लोकल टीम कोई एक्शन नहीं ले सकती. लेकिन वे खुद से तहकीकात करेंगे. पुलिस ने आगे कहा कि इलाके में शान्ति बहाल करने की कोशिश की गई है, और परिवार ने अलग शमशानघाट की मांग की है. जिसे देखा जा रहा है.

किन्तु इसपर अलग शमशामघाट मिल जाए सिर्फ उसका मसला नहीं बल्कि उसी शमशाम में जलाने के हक दिए जाने के साथ भी है. यह हकीकत है कि ग्रामीण इलाकों में बदलाव अथवा विकास सबसे पहले इलाके के ऊँची जातियों के दरवाजों को चूम कर जाती है, छनछन कर जो बचता है वह नीचे के लोगों के पास पहुँचता है, ऐसे में सड़कें, लाइट, नालियां, हैंडपम्प ऊँची जातियों के अधीन रहता है. जिसका इस्तेमाल या अधिकार लेने के लिए उन्ही की जीहुजूरी करनी पड़ती है.

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इसलिए सिर्फ शमशान घाट ही नहीं बल्कि इसके साथ साथ अपने लिए अलग कम्युनिटी सेंटर खोले जाने को लेकर भी है जहां गांव के एस/बीसी समाज के लोग अपनी समस्याओं और चिंताओं को रख सकें. जिन पर बात कर खुद से उसका हल ढूंढा जा सके. उदाहरण महाड़ सत्याग्रह से लगाया जा सकता है जब रामचंद्र बाबाजी मोरे ने स्थानीय महाड़ों के नेतृत्व देकर और आंबेडकर के साथ मिलकर तालाब से पानी लेने के अधिकार को हांसिल किया था. और लोगों का स्थानीय लोगों को सकारात्मक राजनीति की तरफ बढ़ाया.

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