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निया शर्मा के नए वीडियो ने मचाया धमाल, यूजर्स ने कहा शर्म करो दीदी

एक्ट्रेस निया शर्मा सोशल मीडिया पर काफी ज्यादा एक्टिव रहती हैं. अपनी ग्लैमर्स  अंदाज कि वजह से अपने फैंस के बीच छाई रहती हैं. फैंस उनकी पोस्ट पर जमकर रिएक्शन देते नजर आते हैं. निया शर्मा ने अपनी बोल्ड तस्वीर शेयर करने के बाद अपनी डांस की वीडियोज शेयर किया है.

निया अपनी डांस की वीडियोज में बेहद ज्यादा क्यूट लग रही हैं. निया ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर एक वीडियो शेयर किया है जिसमें वह बैकलेस टॉप पहनकर डांस करती नजर आ रही हैं. वहीं निया ने इस वीडियो को शेयर करते हुए लिखा है कि या तो बलैक या फिर वाइट इसके अलावा और कुछ नहीं.

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इस वीडियो को शेयर करने के बाद यूजर्स निया को ट्रोल करना शुरू कर दिए हैं. उन्होंने कहा है कि शर्म करो दीदी. एक अलग यूजर्स ने लिखा कि पागल लग रही हैं दीदी. इससे पहले भी निया शर्मा ने अपनी खूबसूरत तस्वीरे शेयर कि थी, जिसमें वह बेहद ही ज्यादा प्यारी लग रही थीं.

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कुछ समय पहले निया शर्मा ने रवि दुबे को बेस्ट किसर बताया था. निया शर्मा रवि दुबे के साथ टीवी सीरियल जमाई राजा में नजर आ चुकी हैं. अब जमाई राजा 2.0 ऑनस्क्रीन कैमेस्ट्री इन दिनों चर्चा में है.

 

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इससे पहले भी निया शर्मा अपनी खूबसूरती से लोगों का दिल जीतती रहती हैं. निया शर्मा के फैंस अक्सर उनके नई-नई तस्वीर को देखने के लिए सोशल मीडिया पर इंतजार करते रहते हैं.

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निया आए दिन नए-नए पोस्ट और नए -नए प्रोजेक्ट्स को लेकर चर्चा में बनी रहती हैं. निया के लुक की तारीफ हर कोई करता नजर आता है.

ब्लैंक चेक : सुमित्रा किसके मोह में अंधी हो रही थी- भाग 3

श्रीकांत एक बड़ी दुकान में सैल्समैन ही तो थे. कभी बेटे के लिए बाइक जरूरी हो गई थी तो कभी नए मौडल का एंड्रौएड फोन तो कभी ब्रैंडेड गौगल्स. प्राइवेट कालेज की फीस और बेटे का लंबाचौड़ा हाथ खर्च देतेदेते उन के फंड से काफीकुछ निकलता जा रहा था.

सुमित्रा सपनों में डूबी हुई थीं. ‘कांत, आप क्यों परेशान हो रहे हैं? मेरा राजकुमार तो ब्लैंक चैक है. उस की शादी में मनचाही रकम भर के वसूल लेना. यह अमेरिका जा कर इतने डौलर कमाएगा कि आप रुपए गिन भी नहीं पाएंगे.’

कांत नाराज हो कर बोले थे, ‘हवा में मत उड़ो. अब समय बदल गया है, दहेज के बारे में सोचना भी अपराध है.’

एक दिन अपने मित्रों के सामने वे अपने दिल का दर्द उड़ेल बैठे थे, ‘आजकल बच्चों की पढ़ाई में जितना खर्च हो जाता है उतने में तो बेटी का ब्याह भी हो जाए.’

सभी जोर से ठहाका लगा कर हंस पड़े थे कि मित्र ने कहा था, ‘बात तो सही कह रहे हो पर लड़कियां भी तो बेटे के बराबर ही पढ़ती हैं. अब मेरी बेटी भी इंजीनियरिंग कर रही है. वह तो गवर्नमैंट कालेज में पढ़ रही है और उसे स्कौलरशिप भी मिल रही है. उस का तो कैंपस सलैक्शन भी हो गया है. जिस के घर जाएगी, पैसे से उस का घर भर देगी.’

अर्णव का कैंपस सलैक्शन नहीं हुआ था. उसे कौल सैंटर में नौकरी मिली थी. अमेरिका के हिसाब से उसे रात में जा कर काम करना पड़ता था. वह शाम  7 बजे जाता था और सुबह 8 बजे लौट कर आता था. उस का शरीर रात की नौकरी नहीं झेल पाया था. वह बीमार हो कर घर लौट आया था. काफी दिनों तक उस का इलाज चलता रहा था. वहां पर उस के कई दोस्त बन गए थे जो विदेशों में पढ़ाई के साथसाथ नौकरी कर रहे थे. अर्णव भी अमेरिका जाने को उतावला हो उठा था. उस ने जीआरई के लिए तैयारी करनी शुरू कर दी. कोचिंग और फीस उस ने स्वयं ही दी थी.

उस ने 2 बार जीआरई की परीक्षा दी परंतु असफल रहा था. वहीं पर वह उन दलालों के चंगुल में फंस गया जो ठेके पर लड़कों को अमेरिका, इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया भेजते थे. वे लड़कों को अपने जाल में फंसाने के लिए सारे हथकंडे आजमाया करते थे.

एक दिन वह अपने मित्र सुधांशु को ले कर आया था. ‘पापा, सुधांशु अमेरिका जा रहा है. मां, प्लीज आप पापा को समझाइए. सब की जिंदगी बदल जाएगी. वहां मुझे स्कौलरशिप भी मिल जाएगी. मैं वहां से पोस्ट ग्रेजुएट कर के आऊंगा तो यहां मुझे बहुत बड़ा पैकेज मिलेगा. वहां रहूंगा तो डौलर में कमाऊंगा. सोचिए जरा, बड़ा सा बंगला, बड़ी सी गाड़ी, क्या ठाट होंगे आप के.’

‘कांत नाराज हो कर बोले थे, ‘सुधांशु तो नेता का बेटा है. अपने पिता के पैसे पर ऐश कर रहा है. मेरे पास पैसा कहां रखा है जो मैं दे दूं.’

‘पापा, प्लीज आप कहीं से कर्ज ले लीजिए. मैं एकएक पैसा लौटा दूंगा.’

परंतु श्रीकांत नहीं पिघले थे.

वह घर में पड़ा रहता. न मां से बात करता, न पापा से. वह सूख कर कांटा हो गया था.

‘कहीं नौकरी क्यों नहीं कर लेता?’

‘दिनभर नौकरी ही तो लैपटौप पर बैठाबैठा ढूंढ़ता रहता हूं.’

फिर किसी बीपीओ में उस की नौकरी लग गई थी. सालभर करता रहा था. कुछ रुपए इकट्ठे कर लिए थे.

अब उस ने बैंक में लोन के लिए अर्जी डाल दी थी. सीधा फौर्म ले कर गारंटर की जगह हस्ताक्षर करने का हुक्मनामा सुना दिया था. घर के पेपर्स उस ने श्रीकांत से पूछे बिना ही निकाल लिए थे.

कई दिनों तक घर में अशांति छाई रही थी. परंतु हमेशा की तरह ही सुमित्रा बेटे के समर्थन में खड़ी हो कर बोली थीं, ‘पेपर बैंक में रखने से उस का भविष्य सुधर जाता है तो इस में क्या परेशानी है? कर दीजिए हस्ताक्षर.

‘बेटे को पंख लग जाएंगे. वह आकाश की ऊंचाइयों को छू लेना चाहता है तो आप क्यों बाधा बने हुए हैं. हम लोगों का क्या? थोड़ी सी जिंदगी जी लेंगे किसी तरह. बेटा दुखी रहेगा, तो हम इस मकान का भला क्या करेंगे.’

कांत चिल्ला कर बोले थे, ‘जब तक जिंदा हूं, सिर पर छत चाहिए कि नहीं? एकएक ईंट जोड़ कर इस 2 कमरे का घर किसी तरह बना पाया हूं, वह भी जीतेजी गिरवी रख दूं. मैं ने इस घर को बनाने में अपना खूनपसीना बहाया है. तब जा कर यह बना पाया हूं.’

अर्णव भी कम नहीं था. वह बचपन से जिद्दी था. जो सोच लेता था, वह कर के रहता था. दलाल ने

उसे ऐसे सपने दिखाए थे मानो अमेरिका की सड़कों पर डौलर बिखरे पड़े हैं. वहां पहुंचते ही वह बटोर कर अपनी झोली में भर लेगा.

आखिरकार सुमित्रा के दबाव में कांत को मजबूर हो कर उस पर हस्ताक्षर करने ही पड़े थे. परंतु उस समय उन की आंखों से आंसू भरभर कर निकल पड़े थे. उस दिन सुमित्रा का भी मन खराब हुआ था पर बेटे की खुशी के लिए वे सबकुछ करने को तैयार थीं. आखिर वह उन का ब्लैंक चैक जो था.

बैंक से 10 लाख रुपए लोन ले कर सुमित्रा ने अर्णव को दे दिए थे. बेटे को खुश देख कर सुमित्रा को तसल्ली तो हुई थी परंतु कांत उस रात खून के आंसू रोए थे.

अर्णव उसी दिन मुंबई चला गया था. कुछ दिन फोन करता रहा था. फिर जल्दी ही शायद वह वहां की अपनी रंगीन दुनिया में खो गया और मांबाप, घरद्वार सब को पूरी तरह से भूल गया था.

आज सुमित्रा अपनी गलतियों पर पछता कर सिसक रही थीं. परंतु ‘अब पछताए होत का, जब चिडि़या चुग  गई खेत.’ तभी दरवाजे की घंटी बजी  थी. उन्होंने घबरा कर घड़ी पर  निगाह डाली, सुबह के  6 बजे थे.

सुमित्रा ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने शची खड़ी थी. वे उस से लिपट कर जोरजोर से सिसक पड़ी. ‘‘भाभी, आप ने फोन करने में इतनी देर क्यों कर दी,’’ शची बोली थी.

शची के हाथ से छूट कर ब्लैंक चैक हवा में फड़फड़ा रहा था.

ब्लैंक चेक : सुमित्रा किसके मोह में अंधी हो रही थी- भाग 2

पतिपत्नी दोनों ही भविष्य के अंधकार की कालिमा की चिंता के कारण एकदूसरे की ओर पीठ कर के लेट गए. थके हुए कांत कुछ देर में खर्राटे भरने लगे थे. परंतु निराशा की गर्त में डूबी सुमित्रा अतीत के पन्नों को पलटने में उलझ गई थीं.

शची उन की छोटी और प्यारी सी ननद है जिस की शादी करने में श्रीकांत ने अपना सबकुछ लुटा दिया था. परंतु लालची पति के अत्याचार से परेशान हो कर शची 5 वर्ष की बेटी आन्या को ले कर उन के पास लौट कर आ गई थी. श्रीकांत अपनी बहन शची को पितातुल्य स्नेह देते थे. उन्होंने सब से पहले उसे अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह दी.

भाईबहन की मेहनत रंग लाई थी. शची ने पहली बार में ही बैंक की परीक्षा पास कर ली थी. शची की तनख्वाह और प्यारी सी आन्या के आ जाने से उन की खुशियों में चारचांद लग गए. ननदभाभी के बीच प्यारा सा रिश्ता था. नन्ही सी आन्या के ऊपर वे अपना प्यार लुटा कर बहुत खुश थीं. वह स्कूल से आती तो वह स्वयं उसे अपने हाथों से खाना खिलातीं, उस के साथ खेलतीं. सबकुछ सुचारु रूप से चलने लगा था. शची अपनी तनख्वाह सुमित्रा के हाथ में ही रखती थी.

परंतु फिर भी अकसर मां न बन पाने की कसक सुमित्रा के मन में उठ जाया करती थी. उन की शादी के 12 वर्ष पूरे हो चुके थे, और अब तो वे मां बनने की उम्मीद भी छोड़ बैठी थीं.

मां बनने के लिए वे डाक्टरों के साथ मौलवी, पंडित, गंडातावीज, मंदिरमसजिद हर जगह चक्कर काटतेकाटते निराश हो चुकी थीं. वे आन्या को पा कर अपने गम को अब काफी हद तक भूल बैठी थीं.

परंतु कुछ दिनों से उन्हें चक्कर और मितली की शिकायत रहने लगी थी. एक दिन शची ही उन्हें जबरदस्ती डाक्टर के पास ले गई थी. वे मां बनने वाली हैं, यह जान कर वे खुशी के मारे फूली नहीं समा रही थीं.शची ने भाभी की सेवा में रातदिन एक कर दिया था. उन्हें बिस्तर से जमीन पर पैर भी नहीं रखने दिया था. वह घड़ी भी जल्द ही आ गई थी, जब सुमित्रा प्यारे से बेटे की मां बन गई थीं.

सुमित्रा की देखभाल के लिए उन की अम्मा आ गई थीं. ‘श्रीकांत, तुम्हें बहुत ही खुश होना चाहिए. बेटा तो ब्लैंक चैक की तरह ही होता है. इस की शादी में मनचाही रकम भर के चैक कैश कर लेना. अम्मा की बातें सुन सुमित्रा की आंखें चमक उठी थीं. वे बातबात पर बेटे को ब्लैंक चैक कह कर पुकारतीं और घमंड में रहने लगी थीं.

समय को तो पंख लगे ही होते हैं. अर्णव भी स्कूल जाने लगा था. आन्या 5वीं क्लास में आ गई थी. वह हर बार अपनी कक्षा में प्रथम आती. कभी स्पोर्ट्स में तो कभी डिबेट में मैडल ले कर आने लगी थी.

अर्णव भी पहली कक्षा में आ गया था. परंतु वह लाड़ में बिगड़ता जा रहा था. पति से लड़झगड़ कर सुमित्रा उसे ट्यूशन भेजने लगी थीं. यदि शची कभी अर्णव को डांट देती तो सुमित्रा की त्योरियां चढ़ जातीं और वे बिलकुल भी बरदाश्त नहीं कर पाती थीं. उन के मन में मेरातेरा कब पनप उठा था, वे खुद नहीं जान पाई थीं.

जो शची कभी उन की प्यारी ननद थी और आन्या लाड़ली बेटी के समान थी, अब उन लोगों की शक्ल भी उन्हें नहीं सुहाती थी. वे आन्या की सफलता देख ईर्ष्या की आग में धधकती रहती थीं.

उन्हीं दिनों शची और अजय की नजदीकियों की खबर उन्हें सुनने को मिली थी. वे तो भड़ास निकालने का कोई मौका तलाश ही रही थीं. एकदम से बिफर कर बोली थीं, ‘वह गंजा अजय, जिस की बीवी 2 साल पहले कैंसर से मरी है, बड़ेबड़े 2 लड़के हैं उस के. बड़ा दिलफेंक निकला वह. क्यों अपनी बाकी की जिंदगी खराब करने पर तुली हुई हो? लगता है उस की बड़ीबड़ी गाडि़यों पर मरमिटी हो?’

‘भाभी, आप नाहक नाराज हो रही हैं. मैं गौरव और आरव, दोनों बच्चों से कई बार मिल चुकी हूं. दोनों मुझे बहुत पसंद करते हैं.’

‘तुम्हें जहां मरजी हो जाओ, परंतु आन्या को मेरे पास ही छोड़ना होगा. उस के बिना भला मैं कैसे रहूंगी? वे सुबकसुबक कर रोने लगी थीं. फिर धीरे से बोलीं, ‘शादी कब करने वाली हो?’

उत्तर कांत ने दिया था, ‘इसी 25 दिसंबर को.’ वे चिढ़ कर बोली थीं, ‘सारी खिचड़ी भाईबहन के बीच पक चुकी है. बस, मैं ही गैर थी, जिसे तुम लोगों ने एकदम अंधेरे में रखा था. अंजू न बताती तो मुझे शादी के बाद ही

पता लगता.’ ‘नहीं भाभी, मैं आज ही आप से बात करने वाली थी.’ शची आन्या को अपने साथ अपने नए घर में ले जाना चाहती थी. परंतु सुमित्रा ने आन्या को सौतेले पिता की उलटीसीधी बातें बता कर भड़का दिया था. वह अपनी मां के साथ दूसरे घर में जाने को तैयार नहीं हुई थी.

शची ने आन्या को हालांकि अजय, उन के पुत्रों गौरव व आरव से कई बार मिलवाया था परंतु सुमित्रा और स्कूल की सहेलियों की बातों को सुन कर आन्या मां की दूसरी शादी के विरोध में खड़ी हो गई थी.

लेकिन शची अपने निर्णय पर अडिग रही थी. वह अपने नए परिवार में रमने का प्रयास कर रही थी. अजय और बच्चों का सहयोग पा कर वह बहुत खुश थी. परंतु बेटी आन्या के बिना उसे सबकुछ अधूरा सा लग रहा था.

आन्या फोन पर भी मां से बात नहीं करती थी. सुमित्रा ने आन्या को इसलिए नहीं जाने दिया था कि शची बेटी की वजह से उन्हें अपनी तनख्वाह देती रहेगी. उस की तनख्वाह के कारण ही वे मालामाल बन चुकी थीं. हर बार की तरह इस बार भी पहली तारीख का बेसब्री से इंतजार करती रहीं परंतु न शची आई, न पैसे.

शची ने पैसे भाई के अकाउंट में ट्रांसफर किए, जिसे वे लेना उचित नहीं समझ रहे थे, इसलिए उन्होंने सुमित्रा से इस की चर्चा करना जरूरी नहीं  समझा था.

अब सुमित्रा का मिजाज बदल गया था. उन की प्राथमिकताएं बदल गई थीं. आन्या उन की सहायिका बन कर रह गई थी. वे उसे घरेलू कार्यों में उलझा कर पढ़ने का समय भी नहीं देती थीं.

कांत उस के लिए दूध गरम करते तो कभी ठंडा दूध पी कर ही वह स्कूल चली जाती. उसे टिफिन में ताजे नाश्ते के स्थान पर बिस्कुट या ब्रैड मिलने लगी थी. स्कूल यूनिफौर्म अकसर प्रैस भी नहीं होती थी. जूते में पौलिश मुश्किल से वह कभीकभी कर पाती थी.

जब फरवरी में उस का फाइनल रिजल्ट आया तोे उस का बी ग्रेड देख कर सुमित्रा पति के सामने उस की शिकायतों का पुलिंदा खोल कर बैठ गई थीं. स्कूल से आन्या की शिकायत शची के पास पहुंची थी. उस का रिजल्ट देख वह रोंआसी हो उठी थी.

वह पति अजय के साथ बेटी से मिलने आई तो उस दिन सुमित्रा ने उन लोगों का अपमान किया और आन्या की बुराइयों का पिटारा खोल कर बैठ गई थीं. भाई श्रीकांत ने अकेले में बहन से बेटी को अपने साथ ले जाने का आग्रह किया था.

पैसा न मिलने की तिलमिलाहट थी ही और अब आन्या के जाने की सुगबुगाहट से सुमित्रा के हाथों के तोते उड़ गए थे. उन्हें आन्या के रूप में एक मुफ्त की नौकरानी मिली हुई थी.

शची अपनी अबोध बेटी के उलझे बाल, गंदे एवं टूटे बटन वाली फ्रौक, अनाथ सी अवस्था व उतरा हुआ चेहरा देख कर अपने कमरे में जा कर फूटफूट कर रो पड़ी थी.

वह सोचने को मजबूर हो गई थी कि बेटी की इस अवस्था के लिए क्या वह स्वयं जिम्मेदार नहीं है? वह तो इतनी बड़ीबड़ी गाडि़यों में घूम रही है और उन की बेटी की ऐसी दयनीय दशा.

उस दिन काफी कहासुनी व हंगामे के बाद शची बेटी को जबरदस्ती अपने साथ ले कर जाने लगी तो सुमित्रा ने सारे रिश्ते तोड़ने की बात कह दी थी.

उस दिन से आज तक दोनों के बीच सारे संबंध समाप्त हो गए थे. चूंकि अर्णव और आन्या एक ही स्कूल में पढ़ते थे इसलिए सुमित्रा को आन्या की ऊंचाइयों को छूने की सारी दास्तां पूरी तरह से मिलती रहती थी.

अर्णव ट्यूशन के सहारे बस पास भर होता रहा. परंतु उन के लाड़ में बिगड़ा हुआ वह ब्रैंडेड कपड़ों के शौक में उलझा रहा. वे हमेशा से चाहती थीं कि उन का बेटा विदेश में जा कर डौलर में कमाई करे.

अपनी इच्छापूर्ति के चक्कर में सुमित्रा को इंजीनियरिंग के ऐडमिशन के लिए अपने प्रौविडैंट फंड से बड़ी रकम निकाल कर डोनेशन के लिए देनी  पड़ी थी.

पोती की सियासी डुबकी

मौनी अमावस्या के दिन प्रयागराज में गंगा की डुबकी लगाने के बाद प्रियंका गांधी अपने पारिवारिक धर्मगुरु शंकराचार्य स्वरूपानंद के शिविर में पहुंचीं तो लगा ऐसे जैसे पौराणिक युग की कोई राजकुमारी कोई वर मांगने गई है. प्रियंका के स्वरूपानंद के ही पास जाने के पीछे की कहानी उन हिंदू धर्मगुरुओं की सामंती मानसिकता की देन है जो शूद्रों, मुसलमानों और स्त्रियों का मंदिर में प्रवेश निषेध करते हैं.

इंदिरा गांधी साल 1984 में अपनी हत्या के कुछ दिनों पहले जब पुरी के जगन्नाथ मंदिर गई थीं तो वहां के मठाधीशों ने उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया था. उन के मुताबिक, एक पारसी से शादी करने के बाद वे हिंदू नहीं रह गई हैं. तब स्वरूपानंद ने इंदिरा गांधी का पक्ष लिया था.

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इस घटना से नेहरूगांधी परिवार ने कोई सबक नहीं सीखा. उलटे, और जोरशोर से मंदिरों में जा कर पूजापाठ करना शुरू कर दिया. लेकिन भगवा गैंग ने उन्हें हिंदू नहीं माना तो नहीं माना. अब हिंदुत्व का चोला पहन कर राजनीति करने का टोटका आजमा रहीं प्रियंका अपनी दादी, पिता और भाई राहुल की ही गलती दोहरा रही हैं जिन्होंने जनेऊ तक धारण कर लिया था.

बैलगाड़ी पौलिटिक्स

मैट्रोमैन के नाम से मशहूर 88 वर्षीय श्रीधरन ने साल 2013 में ही नरेंद्र मोदी को प्रतिभाशाली युवा नेता बता कर अपनी भक्ति जाहिर कर दी थी. इस के बाद यह सुगबुगाहट हुई थी कि भाजपा उन्हें बतौर इनाम राष्ट्रपति बना सकती है. लेकिन तब हालात के चलते दलित रामनाथ कोविंद को यह पद दे कर उस ने उभरते दलित असंतोष को थाम लिया था. कई मैट्रो परियोजनाओं को सफलतापूर्वक अंजाम देने वाले श्रीधरन इस सदमे को बरदाश्त नहीं कर पाए और अपने गृहराज्य केरल जा कर मंदिरों में श्रीमदभगवतगीता बांचते रिटायरमैंट के बाद का वक्त काटने लगे.

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8 साल गीता पढ़ने के बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ कि ये मैट्रो, विकास, तकनीक और तेज गति वगैरह सब मिथ्या हैं, असल तो वर्णव्यवस्था वाली सनातन पुरातन संस्कृति है जिसे वामपंथियों के गढ़ केरल में स्थापित करने का टैंडर उन्होंने भाजपा जौइन कर भर दिया है. लगता नहीं कि वे यह ठेका पूरा कर पाएंगे.

गोद से सिर तक

नाना प्रकार की परेशानियां झेल रहे नीतीश कुमार राजद नेता तेजस्वी यादव के हमलावर तेवरों से भी खासे परेशान हैं. विधानसभा के भीतर तेजस्वी ने आक्रामक होते पत्रकारों की गिरफ्तारी, बिहार में बढ़ते अपराधों और ढीली पड़ती खेल गतिविधियों तक पर सरकार को घेरा तो लड़खड़ाए नीतीश पुचकारने के अंदाज में बोले, ‘मैं ने तुम्हें गोदी में खिलाया है. मुमकिन है इस दौरान कभी तेजस्वी ने उन्हें भिगोया भी हो जिस का उल्लेख सदन में नहीं किया जा सका. बात और मुद्दे अतीत में ले जाने का यह मोदी फार्मूला है जो बातबात में नेहरू परिवार को कोसते लोगों का ध्यान भटकाया करते हैं.

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भगवा गैंग की कृपा से मुख्यमंत्री बने नीतीश अब सहज व सैद्धांतिक राजनीति नहीं कर पा रहे जिस के लिए वे कभी जाने जाते थे. इस पर परेशानी यह कि लालू पुत्र ने गोद छोड़ सिर पर चढ़ना शुरू कर दिया है. ऐसे में उन की पहली प्राथमिकता जदयू के विधायक गिनते रहना रह गई है.

अखिलेश – चंद्र

उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव सिर पर हैं. भाजपा योगी आदित्यनाथ की कट्टर हिंदूवादी इमेज व राममंदिर निर्माण के सहारे नैया पार लगने का ख्बाव देख रही है और बसपा उस का अंदरूनी समर्थन कर रही है. लेकिन सपा प्रमुख अखिलेश यादव और भीम आर्मी के युवा मुखिया चंद्रशेखर की मेलमुलाकातें जिस तेजी से बढ़ रही हैं उन्हें देख लगता है कि ये दोनों युवा भाजपा को क्लीन स्वीप नहीं करने देंगे.

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अमेरिका की मशहूर मैगजीन ‘टाइम’  में सौ उभरते नेताओं की सूची में जगह पाने वाले चंद्रशेखर को अगर अपनी पार्टी को खड़ा करना है तो उन्हें दलितों के हित में राज्य में पसरते मनुवाद का विरोध करना ही होगा. बसपा इन्हीं सीढि़यों से हो कर सत्ता की छत तक पहुंची थी.

बेटियों का सहयोग आर्थिक जिम्मेदारियों में

बदलते समय के साथ नए जमाने की युवतियां आर्थिक तौर पर मजबूत हो रही हैं. वे बिंदास बाहर भी निकलती हैं और अपने पास बटुए की ताकत भी रख रही हैं. बेटेबेटी की पढ़ाईलिखाई, रहनसहन और शादीब्याह में मांबाप का खर्च लगभग बराबर ही लगता है. ऐसे में घर की आर्थिक जिम्मेदारियां लेने में बेटियां पीछे क्यों रहें? ए क अहम व दिलचस्प फैसले मेंसुप्रीम कोर्ट ने 6 जनवरी को गृहिणी को आर्थिक रूप से पारिभाषित करते हुए कहा है कि महिलाओं का घरेलू कार्यों में समर्पित समय और प्रयास पुरुषों की तुलना में ज्यादा होता है. गृहिणी भोजन बनाती है, किराना और जरूरी सामान खरीदती है, ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाएं खेतों में बुआई, कटाई, फसलों की रोपाई और मवेशियों की देखभाल भी करती हैं. उन के काम को कम महत्त्वपूर्ण नहीं आंका जा सकता.

इसलिए गृहिणी की काल्पनिक आय का निर्धारण महत्त्वपूर्ण मुद्दा है. एक वाहन दुर्घटना में एक दंपती की मौत पर मुआवजा राशि तय करते हुए जस्टिस एन वी रमना, एस अब्दुल नजीर और जस्टिस सूर्यकांत की बैंच गृहणियों की आमदनी को ले कर काफी दार्शनिक, तार्किक, गंभीर और संवेदनशील नजर आई जो एक लिहाज से जरूरी भी था क्योंकि महिलाओं के प्रति आम नजरिया धर्म से ज्यादा प्रभावित है जो उन्हें दासी, शूद्र और पशुओं के बराबर घोषित करता है. लेकिन महसूस यह भी हुआ कि सब से बड़ी अदालत के जेहन में परिवारों की संरचना और महिलाओं की स्थिति की 70 से ले कर 90 तक के दशक की तसवीर की गहरी छाप है, नहीं तो नए दौर की अधिकतर युवतियां नौकरीपेशा हैं और अपनी मांओं, नानियों और दादियों के मुकाबले घर के काम, जो अदालत ने शिद्दत से गिनाए, न के बराबर जानती व करती हैं. यह बात किसी सुबूत की मुहताज भी नहीं है कि जागरूकता, शिक्षा क्रांति और कई धार्मिक, पारिवारिक व सामाजिक दुश्वारियों से नजात पाने के लिए मध्यवर्गीय युवतियों की अपने पांव पर खड़े होने की मजबूरी और जिद ने उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर तो बना दिया है, लेकिन एवज में उन से गृहिणी होने का फख्र या पिछड़ेपन का तमगा, कुछ भी कह लें, छीन लिया है.

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वह जमाना गया जब लोग एक लड़के की चाहत में 5-6 बेटियां पैदा करने में हिचकते नहीं थे और उन्हें नाममात्र को पढ़ा कर अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मान कर किसी भी ऐरेगैरे, कामचलाऊ लड़के से उन की शादी कर देते थे. लड़कियों की बदहाली और दुर्दशा की एक बड़ी वजह भी यह थी कि लड़कियां लड़के की चाहत की शर्त पर पैदा की जाती थीं. यों बढ़ रहा आर्थिक मूल्य सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर खुशी जाहिर करने वाली भोपाल की वीणा की दोनों लड़कियां बीटैक करने के बाद जौब कर रही हैं. बड़ी 27 वर्षीय अनन्या अहमदाबाद में एक सौफ्टवेयर कंपनी में 6 लाख रुपए के सालाना पैकेज पर कार्यरत है और उस से 2 साल छोटी सौम्या एक नैशनल बैंक में क्लर्क है. उसे भी लगभग 6 लाख रुपए मिलते हैं. दोनों अपनी मस्त और आजाद जिंदगी जी रही हैं. वीणा बताती हैं, ‘‘उन्हें घर के सारे कामकाज नहीं आते क्योंकि पढ़ाई के चलते न तो मैं उन्हें सिखा पाई और न ही उन्होंने कभी सीखने में दिलचस्पी दिखाई. उन्हें एहसास था कि वे इन कामों के लिए नहीं बनी हैं.’’ कोई 70 फीसदी मध्यवर्गीय परिवारों के पेरैंट्स को वीणा की तरह इस बात पर गर्व है कि उन की बेटियां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं और इस के लिए उन्होंने उन्हें पढ़ने की सहूलियत बेटों के बराबर दी है, परवरिश पर भी बेटों के बराबर खर्च किया है और मुकम्मल यानी आजकल के जमाने के मिजाज के हिसाब से आजादी भी दी है.

इस से बेटियों का आत्मविश्वास बढ़ा है और पति व ससुराल वालों पर उन की कोई खास मुहताजी नहीं रही है. उलटे, वे बहू की कमाई के मुहताज रहते हैं. इस में शक नहीं कि इन नौकरीपेशा युवतियों का रिस्क कम हुआ है लेकिन नौकरी चाहे वह सरकारी हो या प्राइवेट, उन्हें हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है. इस का एक बड़ा फायदा उन्हें यह हुआ है कि घर के कामकाज यथा ?ाड़ूपोंछा, बरतनकपड़े धोना और खाना नहीं बनाना पड़ता. ये काम अब मशीनों व नौकरों के भरोसे होते हैं. आधी से ज्यादा युवतियां तो ये काम जानती भी नहीं क्योंकि मायके में उन्हें इन के लिए बाध्य करना तो दूर की बात है, ट्रेनिंग भी नहीं दी गई. इसीलए वे पढ़ पाईं. यानी हुआ सिर्फ इतना है कि काम और मेहनत तो उन्हें करनी पड़ रही है लेकिन उस की दिशा बदल गई है और पैसा सीधा उन के हाथ में आता है जिस के खर्च व इस्तेमाल का हक घर की व्यवस्था के हिसाब से उन्हें है. कोई शक नहीं कि युवतियों का आर्थिक महत्त्व और मूल्यांकन दोनों बढ़े हैं. मुमकिन है आने वाले वक्त में कोई अदालत इन का भी आर्थिक विश्लेषण किसी मामले में करे. लेकिन यह देखा जाना बेहद दिलचस्प है कि कमाऊ युवतियां शादी से पहले और बाद भी अभिभावकों की आर्थिक मदद करती हैं या नहीं और इस बारे में क्या सोचती हैं.

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पहले बात पेरैंट्स की जब कई नौकरीपेशा युवतियों से इस मुद्दे पर बात की गई तो लगभग सभी ने पेरैंट्स की आर्थिक मदद की इच्छा जताई. वहीं, आधे से ज्यादा ने यह भी कहा कि मातापिता ने उन्हें काबिल तो बना दिया लेकिन वे उन से पैसे नहीं लेते. वे इसे पाप तो नहीं, पर गलत सम?ाते हैं कि लड़की की कमाई से पैसा लिया जाए. हालांकि इस स्थिति को जनरेशन वार नहीं कहा जा सकता लेकिन इसे बेटियों के साथ नए तरीके का भेदभाव कहने से किसी तरह का गुरेज नहीं किया जा सकता. यह दलील सटीक भी है और जटिल भी कि जो पेरैंट्स लड़कियों की परवरिश और शिक्षा पर बराबरी से पैसा खर्च करते हैं, लाड़दुलार में भी भेदभाव नहीं करते, आजादी भी देते हैं, उन की शादी में तो ज्यादा ही खर्च करते हैं और अब तो जायदाद में भी बेटियों का हक बेटों के बराबर हो गया है तो फिर उन से बेटों की तरह आर्थिक मदद लेने में हिचकते क्यों हैं? क्या वे बराबरी की बात महज दिखावे के लिए करते हैं? आस्था से उन के मन में वे धार्मिक पूर्वाग्रह हैं जिन के तहत यह कहा जाता है कि मरने के बाद तारेगा तो बेटा ही. यह डायलौग हर घर में हर कभी सुनने को मिल जाता है कि हम ने तो कभी बेटेबेटी में भेदभाव किया ही नहीं, आजकल बेटियां बेटों से कम नहीं होतीं और दोनों में फर्क क्या है.

अगर वाकई ऐसा है और इसे बेटियों पर एहसान वे नहीं सम?ाते हैं तो फिर पैसे लेने पर भेदभाव क्यों? बेटों से तो अधिकारपूर्वक पैसे ले लिए जाते हैं पर बेटी से नहीं. भोपाल के शाहपुरा इलाके में रहने वाले एक सरकारी कर्मचारी नरेंद्र शर्मा इस सवाल के जबाब में कहते हैं, ‘‘बात सच है, न जाने क्यों जरूरत पड़ने पर बेटी से पैसे मांगने में हिचक होती है लेकिन बेटे से नहीं. खुद बेटी नेहा ने कई बार पैसे देने की पेशकश की लेकिन मैं ने यह कहते मना कर दिया कि रखो अपने पास या फिर अपने लिए ज्वैलरी वगैरह ले लो.’’ फिर कुछ सोचते हुए वे आगे कहते हैं, ‘‘इस से मु?ो उस की शादी के लिए गहने और कपड़ेलत्ते नहीं खरीदने पड़ेंगे. यह खर्च एक मध्यम परिवार में 8-10 लाख रुपए कम तो किसी भी सूरत में होता नहीं. एक तरह से मेरा ही एक बड़ा खर्च कम हो रहा है.’’ निश्चित रूप से यह एक टरकाऊ व मनबहलाऊ जवाब है क्योकि कोई मांबाप अपने बेटे से यह नहीं कहते कि अपनी पत्नी के लिए गहने वगैरह खरीद लो. उलटे, इस और ऐसे कई कामों के लिए उन से पैसे ले लेते हैं. इसे बेटों और बेटियों दोनों के साथ भेदभाव नहीं तो क्या सम?ा जाए. यह दोहरा मापदंड लड़कियों को फुजूलखर्चीली भी बना सकता है और जमा या निवेश किया गया उन का पैसा दहेज की शक्ल में ससुराल चला जाता है जो कि सरासर गैरजरूरी है. मुंबई के एक इंटरनैशनल बैंक में नौकरी कर रही तृप्ति यादव का कहना है कि उस के पापा पैंशनर हैं. मम्मीपापा दोनों अकेले रहते हैं, लिहाजा पैसों की जरूरत आमतौर पर उन्हें नहीं पड़ती.

उस से तो वे कुछ लेते ही नहीं लेकिन यूएस में रह कर जौब कर रहे भाई से कभीकभार ले लेते हैं. शिवानी चाहती है कि मम्मीपापा भोपाल छोड़ कर उस के पास रहें जिस से उसे उन की चिंता न हो. इस पर न तो उस के पति को एतराज है और न ही विधवा सास को. उलटे, वे तो यह कहती हैं कि समधीसमधन भी आ जाएं तो उन्हें सहूलियत रहेगी. वक्त अच्छे से कटेगा, नहीं तो हम दोनों के औफिस चले जाने के बाद वे मुश्किल से दिन काटती हैं. लेकिन शिवानी के रूढि़वादी मांबाप की जिद यह है कि न तो बेटी से पैसा लेंगे और न ही उस के घर जा कर रहेंगे. बात युवतियों की मानसी, सोनिया और साक्षी जैसी नवयुवतियों सहित विनीता कुमार और इंदिरा जैसी महिलाएं, जिन की गिनती दोनों पीढि़यों में की जा सकती है, इस बात की पुरजोर वकालत करती हैं कि बेटियों को भी घर की जिम्मेदारियों में हाथ बंटाना चाहिए और पेरैंट्स की आर्थिक मदद भी करनी चाहिए. इस बात के पीछे सभी के अपने भावुक तर्क हैं जो फेमिनिज्म की नई परिभाषा गढ़ते नजर आते हैं. यानी, बात जमीनी स्तर की है, काल्पनिक साहित्य और तथाकथित स्त्रीविमर्श से इस का कोई संबंध नहीं. मध्य प्रदेश मध्यक्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी की एक अधिकारी अर्चना श्रीवास्तव की मानें तो भोपाल के 1,000 से भी ज्यादा घरों वाले मीनाल रेजीडैंसी के जिस इलाके में वे रहती हैं वहां लगभग सभी घरों की बेटियां दूसरे शहरों में रहते नौकरी कर रही हैं जिस से पेरैंट्स उन के भविष्य को ले कर निश्ंिचत हैं. ये पेरैंट्स सीधे बेटियों से आर्थिक मदद नहीं लेते लेकिन इन के लिए कुछ करने का जज्बा लिए बेटियां अपने तरीके से इन की मदद करती रहती हैं.

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मम्मीपापा के जन्मदिन और शादी की वर्षगांठ सहित ये महंगे उपहार वे तीजत्योहारों के अलावा बेमौके भी औनलाइन शौपिंग के जरिए भेजती रहती हैं. जब मम्मी सीधे पैसे न लें तो यह एक बेहतर रास्ता है. 26 वर्षीय अदिति जैन बताती है कि इस से उन की वे जरूरतें पूरी हो जाती हैं जिन पर वे खर्च करने में कंजूसी बरतते हैं. गुरुग्राम की एक कंपनी में नौकरी कर रही अदिति जब भी घर भोपाल आती है तो मम्मीपापा को 40-50 हजार रुपए खरीदारी जरूर कराती है. महंगे स्मार्टफोन के अलावा कई लग्जरी आइटम वह उन्हें दिला चुकी है. अदिति की तरह ही कोंपल राय को भी नौकरी करते 7 साल हो चुके हैं. जब उस ने पहली सैलरी पापा को दी तो उन की आंखों में आंसू आ गए थे लेकिन उन्होंने सिर्फ एक रुपया लिया. कोंपल घर की माली हालत से वाकिफ थी और पापा के इस सनातनी स्वभाव से भी कि वे उस से पैसे नहीं लेंगे तो उस ने सम?ादारी दिखाते पापा से यह वादा ले लिया कि छोटे भाई की पढ़ाई का खर्च वह उठाएगी. अब एमसीए की डिग्री लेने के बाद भाई की जौब लग गई है और वह अकसर कहता है, ‘‘दीदी, तुम्हारा सारा कर्ज जल्द उतार दूंगा. तुम्हारी जगह अगर बड़ा भाई होता तो शायद इतना कुछ न करता.’’ उलट इस के, कोंपल यह मानती है कि वह पापा के कर्ज से मुक्त हो गई जिन्होंने अपनी जरूरतों में कटौती कर उस की पढ़ाई पर पैसा खर्चने में कोई हिचक कभी नहीं दिखाई.

अगर यह उन की जिम्मेदारी थी तो एवज में उस का भी कोई फर्ज बनता था जो उस ने पूरा किया और अगर यह निवेश था तो बहुत स्मार्ट था. हैरत और दिलचस्पी की बात यह भी है कि मध्यवर्ग से नीचे निम्नआय वर्ग में स्थिति उलट है. बदलाव उस में भी आए हैं लेकिन लड़कियों से आर्थिक मदद लेने में मांबाप कतई नहीं हिचकते. तय है प्रचलित परंपराओं और रिवाजों पर उन की जरूरतें भारी पड़ती हैं. भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में स्थित डीबी मौल के एक शोरूम में कार्यरत मालती की मानें तो उस की पूरी तनख्वाह घरखर्च में चली जाती है क्योंकि पापा की कमाई पूरी नहीं पड़ती. हाईस्कूल तक पढ़ीलिखी मालती शायद ज्यादा पढ़ीलिखी मध्यवर्गीय युवतियों से ज्यादा मदद मांबाप की कर रही है. फर्क सिर्फ आमदनी, स्टेटस और शिक्षा का है. इस मौल में काम कर रही कोई 40 महिलाएं और युवतियां नौकरी इसीलिए कर रही हैं कि घर चलाने में वे आर्थिक योगदान दे सकें. यानी, युवतियों का आर्थिक महत्त्व और उपयोगिता दोनों बढ़ रहे हैं. लेकिन बकौल सुप्रीम कोर्ट, उन का आर्थिक विश्लेषण किया जाना अहम है. ऐसे में साफ दिख रहा है कि गृहिणियों के मुकाबले युवतियां आगे हैं और पेरैंट्स को एक बड़ी चिंता से भी दूर रखे हुए हैं. मदद करने से पहले बेटियां घर की जिम्मेदारी में मांबाप का हाथ बंटाए, यह स्वागतयोग्य बात है. लेकिन इस में उन्हें कुछ सावधानियां भी रखनी चाहिए, मसलन- द्य जिस तरह पेरैंट्स बच्चों को पैसा देने से पहले यह सुनिश्चित करते हैं कि संतान पैसे का बेजा इस्तेमाल तो नहीं कर रही उसी तरह बेटियों को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कहीं मांबाप उन के पैसे को फुजूलखर्ची में तो नहीं उड़ा रहे. द्य अगर पिता जुआरी या शराबी हो तो मदद सोचसम?ा कर करें और उस का तरीका बदलें. नकद पैसे देने के बजाय जरूरत का सामान दिलाएं. द्य मांबाप अगर धार्मिक कार्यों में पैसा खर्च करते हों तो उन की मदद का मतलब अपने पैसे को बरबाद करना है.

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समाज और रिश्तेदारी में ?ाठी शान और दिखावे पर खर्च करने वाले पेरैंट्स को भी सोचसम?ा कर पैसा देना चाहिए. द्य शादी के बाद पति की सहमति और जानकारी में मांबाप की आर्थिक सहायता करनी चाहिए. द्य अगर ज्यादा बचत हो जाए तो उसे कहीं न कहीं इन्वैस्ट कर देना चाहिए. द्य शादी के पहले नौकरी के दौरान अगर पेरैंट्स ने पैसा न लिया हो तो उन्हें कोई महंगा लेकिन जरूरत का आइटम गिफ्ट कर देना चाहिए. वर्तिका ने बैंक की 6 साल की नौकरी के दौरान कोई 10 लाख रुपए बचाए थे. जैसे ही शादी तय हुई, उस ने पापा को 5 लाख रुपए की कार तोहफे में दे दी. यह उस के पापा का सपना था. वर्तिका बताती है, ‘‘पापा चाहते थे कि अपने घर में भी कार हो लेकिन उन की पूरी सैलरी हम तीनों भाईबहनों की परवरिश व पढ़ाई पर खर्च हो जाती थी.

इसलिए मैं ने यह ठीक सम?ा कि इतनी नकदी बजाय ससुराल ले जाने के उन मांबाप पर खर्च किया जाए जिन्होंने बड़ी उम्मीदों से हमें काबिल बनाया.’’ बिलाशक बेटियां आगे बढ़ रही हैं, पेरैंट्स की आर्थिक सहायता भी कर रही हैं और परिवार व समाज की दीगर जिम्मेदारियों में भी हाथ बंटा रही हैं लेकिन यह न कहने की कोई वजह नहीं कि बेटे और बेटी में भेदभाव अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है जिस की वजह धार्मिक मान्यताएं, सामाजिक रूढि़यां और सड़ीगली परंपराएं हैं जिन्हें जड़ से उखाड़ा जाना जरूरी है. इस बाबत नए दौर की युवतियों को खासतौर से सजग रहना होगा और जिम्मेदारियां निभाने के एवज में उन्हें अपने हक मांगना नहीं, बल्कि छीनने होंगे.

ब्लैंक चेक : सुमित्रा किसके मोह में अंधी हो रही थी- भाग 1

.72 वर्षीय श्रीकांत हाथ में लिफाफा लिए हुए घर में घुसे. पत्नी सुमित्रा लिफाफा देखते ही खुश हो गई थीं. वे बोलीं, ‘‘क्या अर्णव की चिट्ठी आई है? वह कब आ रहा है?’’ परंतु उन के उदास चेहरे पर निगाह पड़ते ही वे चिंतित हो उठी थीं. ‘‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है? आप का चेहरा क्यों इतना उतरा हुआ है?’’

पत्नी के सारे प्रश्नों को नजरअंदाज करते हुए श्रीकांत सोफे पर निराशभाव से धंस कर बैठ गए थे. उन का चेहरा झुका हुआ था, दोनों हाथ उन के सिर पर थे.

पति का गमगीन चेहरा देख, बुरी खबर की आशंका से सुमित्रा एक गिलास में पानी ले कर आई. फिर पूछा, ‘‘कांत, क्या बात है? कुछ तो बोलिए?’’

श्रीकांत रोंआसे हो कर बोले, ‘‘बैंक से मकान की नीलामी का नोटिस आया है. तुम्हारा लाड़ला राजकुमार इस मकान के ऊपर बैंक से लोन ले कर अमेरिका गया है. लोन की एक भी किस्त नहीं भेजी है. नालायक कहीं का. तुम्हारे लाड़ले ने अपने बूढ़े बाप को हथकड़ी पहना कर जेल भेजने का पक्का प्रबंध कर दिया है.’’

‘‘बड़े घमंड और शान से ब्लैंक चैक कहा करती थीं न.’’‘‘देख लो, अपने ब्लैंक चैक को. मांबाप को मुसीबत में डाल दिया है.’’ ‘‘हमारा मकान नीलाम होगा…’’ सुमित्रा घबरा कर बोलीं, ‘‘किसी तरह कोशिश कर के इस नीलामी को रोकिए. इस बुढ़ापे में हम लोग कहां जाएंगे. जो कहना है, अपने राजदुलारे से कहो.’’

‘‘उस का तो कुछ अतापता ही नहीं है.’’ श्रीकांत बोले, ‘‘उस की राह देखतेदेखते तो आंखों की रोशनी भी चली गई. अब तो आंखों के आंसू भी सूख चुके हैं.’’

‘‘आप मुझे बताइए, मैं उस अफसर के पैर पकड़ लूंगी, भीख मांगूंगी कि मुझे मोहलत दे दो. इस बुढ़ापे में बताओ भला मैं कहां भटकूंगी.’’

‘‘चुप हो जाओ. सब तुम्हारा ही कियाधरा है. तुम्हारी बातों में आ कर आज यह दिन देखना पड़ रहा है.’’ श्रीकांत बोले. फिर वे मन ही मन बुदबुदाए थे, ‘‘झूठे राजेश के झांसे में पड़ कर सबकुछ बरबाद हो गया. वह पैसा खाता रहा, कहता था कि सर, आप निश्ंिचत रहिए, मैं ने आप की फाइल नीचे दबा दी है. अब किसी अफसर की निगाह ही उस पर नहीं पड़ सकती. मैं ने आप की जिंदगीभर का इंतजाम कर दिया है. झूठा, मक्कार एक लाख रुपया भी खा गया और न कुछ करा न धरा.’’

पत्नी को रोते देख वे खिसिया कर बोले, ‘‘सुमित्रा, शांत हो जाओ. अब सबकुछ औनलाइन हो गया है, इसलिए कोई कुछ कर भी नहीं सकता.’’ सुमित्रा चुपचाप बैठी रही थीं. उन्हें अपने चारों ओर अंधकार दिखाई पड़ रहा था. अंधेरे में तीर मारते हुए उन्होंने अपने दोचार परिचितों को फोन मिलाया परंतु किसी से अपनी समस्या कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं.

उन के जेहन में बारबार बेटीतुल्य ननद शची का चेहरा याद आ रहा था. अपने बेटे के मोह में वे अंधी हो गई थीं. बेटे के घमंड में वे शची को जाने क्याक्या कह बैठी थीं. कांत ने उन्हें समझाने की कोशिश की थी तो वे उन से भी उलझ बैठी थीं.

शची की कही बात सौ प्रतिशत सही निकली. उस की कही हुई बात उन के दिल पर हथौड़े सी हमेशा चोट करती रहती है. ‘भाभी, अब समय बदल गया है. बेटेबेटी में अब कोई फर्क नहीं रह गया है. ब्लैंक चैक की रातदिन आप माला जपती रहती हैं जबकि उस के लक्षण से तो लगता है कि वह ब्लैंक ही न रह जाए.’

एक दिन वह आई थी केवल उन्हें आगाह करने के लिए. ‘भाभी, आप का बेटा बिगड़ रहा है. अपनी आंखों के ऊपर से पट्टी खोलिए, जब उस की असलियत खुलेगी तब आप को मेरी कही बात याद आएगी.’

‘‘कांत, मैं शची से बात करूं. अब तो वही एक सहारा दिखाई पड़ रही है.’’ ‘‘किस मुंह से उस से मदद मांगोगी. तुम ने उसे कितना जलील किया था. मेरा तो राखी का रिश्ता भी तुड़वा दिया और आज जब तुम्हें जरूरत है, तो उस की याद आ रही है.’’

‘‘एक बात समझ लो, पैसा बड़ी बुरी चीज है. मदद मांगते ही अपने भी पराए हो जाते हैं. उसे तो तुम दुश्मन ही समझती थीं.’’ सुमित्रा अपने आंसू पोंछ कर बोलीं,  ‘‘कांत, हम लोग शची से अपना लोन चुकता करने को कहेंगे. फिर यह घर उसी के नाम कर देंगे और हम लोग किराएदार की तरह उसे हर महीने किराया दे दिया करेंगे.’’

‘‘तुम्हारा प्लान तो अच्छा है लेकिन उस ने मना कर दिया तो…’’‘‘नहीं, वह मना नहीं करेगी. इस समय उस के लिए 10 लाख रुपए कोई बड़ी रकम नहीं है. इस से हम लोगों की इज्जत सरेआम नीलाम होने से बच जाएगी और घर की चीज घर में ही रह जाएगी.’’‘‘मैं उस दिन उधर से निकल रही थी तो अंजू ने उस की कोठी दिखाई थी. आजकल शची के बंगले की चर्चा पूरे महल्ले में हो रही है.’’

‘‘सुमित्रा, प्लीज इस समय चुप हो जाओ.’’वे चुप हो कर मन ही मन सोचने को विवश हो गईं कि आज की स्थिति के लिए काफी हद तक क्या वे खुद जिम्मेदार नहीं हैं.

श्रीकांत चिंतित मुद्रा में शून्य में निहार रहे थे. उन के उदास और मुरझाए हुए चेहरे को देख सुमित्रा घबरा उठी थीं. यदि कांत इस सदमे को न झेल पाए और इन्हें कुछ हो गया, तो उन का क्या होगा?

वे चुपचाप वहां से उठ कर अंदर कमरे में चली गई थीं. काफी देर तक वहीं पर बैठेबैठे सोचती रहीं. जब किसी तरह कोई समाधान नहीं सूझा तो उन्होंने अपना मोबाइल उठाया और शची से माफी मांगते हुए अपनी सारी समस्या खुल कर कह डाली थी.

शची के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थीं. फिर पति का ध्यान आते ही वे गिलास में दूध ले कर आईं. कांत ने दूध की ओर निगाह उठा कर देखा भी नहीं. फिर भला वे क्या खातीपीतीं.

संपादकीय

देश की खुशहाली, जैसी भी हैं, का एक बड़ा कारण खुदरा व्यापार है. खुदरा व्यापारी थोक विक्रेताओं और उत्पादकों से सामान लाते हैं और लोग उन की दुकानों पर आ कर खरीदते हैं पर अब उन की जगह ई कामर्स वाली विशाल कंपनियां लेने लगी हैं. ज्यादातर ई कामर्स बिक्री एमेजान और फ्लिपकार्ड के माध्यम से ही होती है हालांकि अब छोटे उत्पादक भी सीधे प्रचार कर के अपना सामान बेचने की कोशिश कर रहे हैं.

जहां एक खुदरा व्यापारी के पास एक तरह की 100-200 चीजें होती हैं और दालों, मासालों के लिए कहीं, कपड़ों के लिए कहीं, क्रोकरी के लिए कहीं, फलसब्जियों के लिए कहीं जाना पड़ता है, एमेजन और फ्लिपकार्ड सबकुछ, सिवाए कारों और बाहकों के छोड़ कर एक ही प्लेटफार्म पर देने लगे हैं.

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यह जहां सुविधा है उपभोक्ता के लिए, यह उन लाखों दुकानदारों को बेकार कर रहा है जो समाज और अर्धव्यवस्था की रीढ़ ही हड्डी थे. ये मिडिलमैन ही थे जो सामन उत्पादक से नया खरीद कर अपना ब्याज व मुनाफा कमा कर बेचा करते थे और मध्यम वर्ग की पहचान थे, अब केवल जीरो बन कर रह गए हैं. इन्हें समझ नहीं आ रहा कि नई चुनोतियों का सामना कैसे करें.

लोकल स्र्कल नाम की सर्वे कंपनी पता किया है कि कोविड के दौरान लौकडाउन में जो आदत उपभोक्ताओं को पड़ी वह आज भी चालू है. 49′ उपभोक्ता छोटा सामान अब इन ई कामर्स कंपनियों से खरीदने लगे हैं क्योंकि खरीदारों में से 86′ इन्हें सुरक्षित लगते हैं, 50′ सोचते हैं कि दाम कम हैं, 48′ को वापिस करने की सुविधा भाती है, 46′ कहते हैं कि उन्हें सामान चुनने में सुविधा रहती है, 45′ कहते हैं कि बाजार जाने से जबकि जो ई कौमर्स डिलवरी हो जाती है और 45′ को दूसरों के अनुभव पढऩे के मिलते हैं अपनी सिफारिश व शिकायत करने का अवसर भी.

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बड़े बाजार या लोकल गलीमोहल्ले का वितरक यह सब नहीं कर पा रहा. वह अब केवल सस्ता, डुप्लीकेट माल अनपढ़ों या अधपढ़ों को बेच पा रहा है. गलीमोहल्ले से ले कर बड़ेबड़े बाजारों की बड़ी दुकानों जब वे दुकानदार आमतौर पर सूदखोरी ज्यादा करते हैं और ग्राहक की शक्ल देख कर दान लेते हैं. उन की डिस्काउंट पौलिसियों मनमर्जी पर निर्भर रहती हैं, वे विज्ञापन में तो भरोसा ही नहीं करते.

ये बड़ी कंपनियां अगर खुदरा बाजार के समाप्त कर देंगी तो देश का मध्यवर्ग केवल नौकरीपेशा बन कर रह जाएगा. अपना छोटा ही सही, लेकिन खुद का व्यापार मध्यवर्ग की पहचान भी. पीढिय़ों से खुदरा व्यापार के बल पर करोड़ों परिवार खातेपीते माने गए हैं. अब उन्हें अपने बच्चों को शिक्षा दिला कर नौकरी के लिए भेजना पड़ रहा है वह भी देश से बाहर क्योंकि देश में नौकरियां हैं ही नहीं.

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छोटे खुदरा व्यापारी अपना न ब्रांड बना रहे हैं और न ही ग्राहक सेवा का काम सीख रहे हैं. दुकाने के कोने में मूॢत के आगे दिया जला कर वे सोचते हैं कि लक्ष्मी खुश हो जाएंगी. लक्ष्मी तो अमेरिका की अमेजान व ……कंपनी के पास जा रही है. वे कंपनियां ग्राहकों को उधार नहीं देती पर उत्पादकोंं  को महीनों बाद भुगतान कर रही है और उत्पादकों की हिम्मत नहीं कि चूं भी कर सकें. यह सामाजिक परिवर्तन है जिस की जिम्मेदार बहुत हद तक नई सरकार है जो इन खुदरा व्यापारियों के बल पर बन कर आई हैं.

Mouni Roy जल्द बनेंगी दुल्हन, बॉयफ्रेंड के परिवार वालों से मां की हुई मुलाकात

मौनी रॉय आए दिन सोशल मीडिया पर छाई रहती हैं. सोशल मीडिया पर नए-नए पोस्ट को लेकर मौनी रॉय चर्चा में बनी रहती हैं. वहीं इन दिनों मौनी रॉय के निजी जीवन के बारे में खूब सारी बातें हो रही हैं. जी हैं मौनी रॉय जल्द ही शादी के बंधन में बंधने वाली हैं.

इस खबर के बाहर आते ही इंडस्ट्री में इस बात की जमकर चर्चा शुरू हो गई. मौनी आए दिन दुबई आती जाती रहती हैं. जिसे देखने के बाद फैंस ने मौनी से सवाल किया था कि आप इतना ज्यादा दुबई क्यों जाती हैं. जिस पर मौनी ने कोई जवाब नहीं दिया था लेकिन अब इस बात का खुलासा हो गया है कि मौनी के होने वाले पति दुबई में.सेटल हैं.जिस वजह से मौनी दुबई के चक्कर काटती रहती हैं.

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मौनी अपने बॉयफ्रेंड सूरज नांबारिया को फिलहाल डेट कर रही हैं, पेशे से सूजर दुबई में बैंकर हैं. कुछ समय पहले ही मौनी की मां ने सूरज नांबारिया के फैमली से मुलाकात कि है. खबर की माने तो इन दोनों के बीच लंबी बात-चीत चली दोनों के बीच के बातचीत को देखने के बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि जल्द ही दोनों शादी के बंधन में बंधेंगे.

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इसके साथ ही खबर यह भी है कि इस मुलाकात में मौनी के भाई ने भी शिरकत की थी.  मौनी की कुछ वक्त पहले की तस्वीर सूरज के माता पिता ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर शेयर की थी. जिसमें मौनी बेहद प्यारी लग रही हैं.

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हालांकि अभी तक इस बात का खुलासा नहीं हुआ है कि मौनी रॉय कब शादी के बंधन में बंधने वाली हैं. मौनी रॉय जल्द अपने फैंस को खुशखबरी देने वाली हैं. मौनी के फैंस को इस दिन का बेसब्री से इंतजार हैं.

फिलहाल मौनी अपने नए-नए प्रोजेक्ट्स पर काम करती नजर आ रही हैं. फैंस जल्द मौनी को दुल्हनके अवतार में देखना चाहते हैं.

फिल्म ‘रामसेतु’ के लिए अयोध्या रवाना हुए अक्षय कुमार, नुसरत और जैकलीन भी आई नजर

एक्टर अक्षय कुमार आएं दिन सोशल मीडिया पर अपने नए-नए ट्विट को लेकर छाए रहते हैं. हालांकि इन दिनों अक्षय कुमार अपनी अपकमिंग फिल्म  ‘रामसेतु’ को लेकर चर्चा में बने हुए हैं. इस फिल्म की शूटिंग जल्द शुरू होने वाली है.

बता दें कि अक्षय कुमार इस सिलसिले में अपनी टीम के साथ अयोध्या के लिए आज रवाना हो गए हैं. आज यानि 18 मार्च को अक्षय कुमार ने जो ट्विट किया है उसमें उनके साथ जैक्लिन फर्नाडिस और नुसरत भरूचा फोटो में नजर आ रही हैं.

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बता दें कि अक्षय कुमार ने लिखा है कि स्पेशल फिल्म स्पेशल शुरुआत, फिल्म रामसेतु की टीम मूहूर्त शूट के लिए रवाना हुई है. आप सभी के स्पेशल विशेज की जरुरत है. इस फिल्म का निर्माण अक्षय कुमार के प्रोड्क्शन हाउस के तहत किया जाएगा इस फिल्म को डॉयरेक्ट कर रहे हैं अभिषेक शर्मा.

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एक इंटरव्यू में बात करते हुए फिल्म के डॉयरेक्टर अभिषेक शर्मा ने बताया था कि 80 प्रतिशत फिल्म की शूटिंग मुंबई में होगी. अक्षय कुमार के लुक पर चर्चा करते हुए फिल्म के डॉयरक्टर ने बताया था कि अक्षय कुमार इस फिल्म में ऑर्कियोलॉजिस्ट की भूमिका निभा रहे हैं. अक्षय कुमार का किरदार कई भारतीय और अंतराष्ट्रीय आर्कियोलॉजिस्ट पर निर्धारित है.

आगे उन्होंने कहा कि अक्षय के फैंस को इस बार बिल्कुल नया अवतार उनका देखने को मिलेगा. उम्मीद है कि फैंस को अक्षय कुमार का यह अवतार बेहद पसंद आएगा.

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वहीं इस फिल्म में जैक्लिन फार्नाडिस और नुसरत भारूचा एक मजबूत महिला के किरदार में नजर आ रही हैं. इससे ज्यादा अभी तक दोनों एक्ट्रेस के बारे में खुलासा नहीं हुआ है. नुसरत और जैक्लिन को इस फिल्म के लिए फैंस बधाइयां दे रहे हैं. दोनों को फिल्म में देखने के लिए फैंस काफी ज्यादा एक्साइटेड हैं.

अक्षय कुमार की वर्कफ्रंट की बात करें तो अभी वह कई नए प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे हैं. जैसे अतरंगी, बच्चन पांडे ,रक्षा बंधन.

अपने अपने जज्बात : भाग 1

रात साढ़े 11 बजे मोबाइल बज उठा.

‘‘हैलो, कौन?’’

‘‘जी, मैं खलील, अस्सलाम अलैकुम.’’

‘‘वालेकुम अस्सलाम,’’ उतनी ही गर्मजोशी से मैं ने जवाब दिया, ‘‘जी फरमाइए.’’

‘‘आप बेटी की शादी कब तक करेंगी?’’

‘‘फिलहाल तो वह बीएससी फाइनल की परीक्षा दे रही है. फिर बीएड करेगी. उस के बाद सोचूंगी,’’ इस के बाद दूसरी बातें होती रहीं. जेहन के किसी कोने में बीती बातें याद हो उठीं…

6 सालों से मैं खलील साहब को जानती हूं. खलील साहब रिटायर्ड इंजीनियर थे. अकसर अपनी बीवी के साथ शाम को टहलते हुए मिल जाते. हम तीनों की दोस्ती, दोस्ती का मतलब समझने वाले के लिए जिंदा मिसाल थी और खुद हमारे लिए बायसे फक्र.

हमारी दोस्ती की शुरुआत बड़े ही दिलचस्प अंदाज से हुई थी. मैं खलील साहब की पोती शिबा की क्लासटीचर थी. एक हफ्ते की उस की गैरहाजिरी ने मुझे उस के घर फोन करने को मजबूर किया. दूसरे दिन बच्ची के दादादादी यानी खलील साहब और उन की बेगम क्लास के सामने खड़े थे. देख कर पलभर के लिए मुझे हंसी आ गई. याद आ गया जब मैं स्कूल जाने लगी तो मेरे दादाजान पूरे 5 घंटे कभी स्कूल के कैंपस के चक्कर लगाते, कभी पीपल के साए तले गजलों की किताब पढ़ते.

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दादी शिबा को बैग थमा कर क्लास में बैठने के लिए कह रही थीं लेकिन वह दादा की पैंट की जेब से चौकलेट निकाल रही थी.

‘बुखार, सर्दी, खांसी हो गई थी. इस वजह से हम ने शिबा को स्कूल नहीं भेजा था,’ दादी का प्यार टपटप टपक रहा था.

‘आज शाम आप क्या कर रही हैं?’ खलील साहब ने मुसकरा कर पूछा.

‘जी, कुछ खास नहीं,’ मैं ने अचकचाते हुए कहा.

‘तो फिर हमारे गरीबखाने पर आने की जहमत कीजिए न. आप की स्टूडैंट का बर्थडे है,’ बेगम खलील की मीठी जबान ने आकर्षित किया.

इस मुलाकात के बाद पिछले 6 सालों में हमारे बीच स्नेह की ढेरों कडि़यां जोड़ती चली गई हर एक मुलाकात.

खलील साहब अपने तीनों बेटों के पास 4-4 महीने रह कर रिटायर्ड लाइफ का पूरा मजा लेते हुए उन के बच्चों के साथ खेल कर खुद को नौजवान महसूस करते थे. वे अपनी बेगम से सिर्फ नींद के वक्त ही अलग होते बाकी का वक्त बेगम के आसपास रह कर गुजारते. दो जिस्म एक जां. पूरे 34 साल का लंबा दुर्गम जिंदगी का सफर तय करते हुए दोनों एकदूसरे की रगरग में समा गए थे. शीरीफरहाद, लैलामजनू जैसे जाने कितने नामों से उन की मुहब्बत पुकारी जाती.

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जब भी शिबा के घर आते, उन दोनों की हर शाम मेरे नाम होती. बहुआयामी शख्सीयत के मालिक खलील साहब शायरी, गणित, सियासत, इंसानी जज्बात की बारीकी, फिल्म, क्रिकेट और न जाने किनकिन विषयों पर बातें करते. शाम की चाय के बाद मिशन रोड से वर्कशौप तक की सैर हमें एकदूसरे को नजदीक से समझने के मौके देती. रास्ते के किनारे लगे अमलतास और गुलमोहर के फूल भी हवा के साथ झूमते हुए हमारे बेबाक ठहाकों में शामिल होते.

‘मैडम, आप की खामोशमिजाजी और सोचसोच कर धीमेधीमे बोलने का अंदाज मैं भी सीखना चाहती हूं,’ हर वक्त बोलने वाली बेगम खलील फरमातीं तो मैं सकुचा जाती.

‘आप क्यों मुझे शर्मिंदा कर रही हैं. मैं तो खुद आप की खुशमिजाजी और खलील साहब से आप की बेपनाह मुहब्बत, आप का समझौतावादी मिजाज देख कर आप की कायल हो गई हूं. किताबी इल्म डिगरियां देता है मगर दुनियाबी इल्म ही इंसानी सोच की महीन सी झीनीझीनी चादर बुनना सिखा सकता है.’

मेरी ये बातें सुन कर बेगम खलील मुझे गले लगा कर बोलीं, ‘सच शम्मी, खलील साहब के बाद तुम ने मुझे समझा. बहुत शुक्रगुजार हूं तुम्हारी.’

पूरे 4 साल इसी तरह मिलतेजुलते, मुहब्बतें लुटाते कब बीत गए, पता ही नहीं चला. वक्त ने खलील दंपती के साथ दोस्ती का तोहफा मेरी झोली में डाल दिया जिस की खुशबू से मैं हर वक्त खुशी से भरीभरी रहती.

उस दिन पौधों को पानी देने के लिए बगीचे में जा रही थी कि शिबा के अब्बू को बदहवासी से गेट खेलते पाया. उन का धुआंधुआं चेहरा देख कर किसी अनहोनी की आशंका होने लगी. मुझे देखते ही वे भरभरा कर ढह से गए. मुश्किल से उन के हलक से निकला, ‘मैडम, अम्माजान…’

यकीन नहीं आया, पिछले हफ्ते ही तो खलील साहब के साथ जबलपुर गई थीं, एकदम तंदुरुस्त, हट्टीकट्टी.

दर्द और आंसुओं के साए में पूरे 40 दिन बिता कर शिबा के अब्बू खलील साहब को अपने साथ ले आए थे. मुझ में हिम्मत नहीं थी कि मैं उन का सामना कर सकूं. दो हंस मोती चुगते हुए, अचानक एक हंस छटपटा कर दम तोड़ दे तो दूसरा…पत्थर, आंखें पत्थर. आंसू पत्थर, आहें पत्थर इस भूचाल को कैसे झेल पाएंगे खलील साहब? पिछले 35 साल एक लमहा जिस के बिना नहीं गुजरा, उस से हमेशा के लिए जुदाई कैसे सहेंगे वे?

खलील साहब से सामना हुआ, आंसू सूखे, शब्द गुम, आवाज बंद. पहाड़ से हट्टेकट्टे शख्स 40 दिनों में ही बरसों के बीमार लगने लगे. दाढ़ी और भौंहों के बाल झक सफेद हो गए थे. कमर से 45 डिगरी झुक गए थे. पपड़ाए होंठों पर फैला लंबी खामोशी का सन्नाटा. कुछ कहने और सुनने के लिए बाकी नहीं रहा था. काफी देर तक मैं खलील साहब को दर्द की भट्ठी में चुपचाप, बेबसी से जलता हुआ देखती रही.

स्कूल से लौटते हुए रोज खलील साहब की खैरियत जानने के लिए शिबा के घर जाना मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया. सिनेमा, टीवी, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गहरी दिलचस्पी रखने वाले खलील साहब पाबंदी से इबादत करने लगे थे. मुझे देख कर बरामदे में आ कर बैठते, चुप, बिलकुल चुप.

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