चुनावी बेला में बंगाल की धरती पर आजकल ‘जय श्री राम’ के नारे खूब लग रहे हैं. हर तरफ भगवा झंडे लहरा रहे हैं. इन दिनों शायद ही कोई दिन होता हो जब प्रदेश में भाजपा की कोई चुनावी रैली या सभा नहीं होती है. भाजपा के बड़े दिग्गज बंगाल में डेरा जमा कर बैठे हैं. केंद्र के बड़े-बड़े नेता और दूसरे भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी लगातार दौरा कर रहे हैं. देश गृहमंत्री अमित शाह मंच से ‘सोनार बांग्ला’ बनाने का वादा करते हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं – ‘बंगाल में आसोल पोरिबोर्तन होबे’. पश्चिम बंगाल में ‘दीदी’ की सत्ता हथियाने के लिए नित नए हथकंडे अपनाये जा रहे हैं. सरकार को घेरने और परेशान करने के लिए सीबीआई और ईडी का भी भरपूर इस्तेमाल हो रहा है. दीदी के रिश्तेदारों को जांच एजेंसियां भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरने के प्रयास में लगी हैं. मगर ममता की रैलियों में ना भीड़ की कमी है ना जोश की. और यही चीज़ भाजपा को परेशान कर रही है.
हालांकि बंगाल में भीड़ जुटाने में भाजपा भी पीछे नहीं है, लेकिन यह भीड़तंत्र कितना प्रतिशत वोटतंत्र में बदलेगा, यह कहना अभी थोड़ा मुश्किल है. भाजपा की ओर बंगाल के ब्राह्मण, बनिए, कायस्थ का अच्छा रुझान है. ये तीनों जातियां भाजपा की धर्म की दुकानदारी की साझेदार हैं, मगर बंगाल में बड़ी संख्या ओबीसी, दलित और मुसलामानों की भी है, उनके वोट आखिर भाजपा की झोली में क्यों जाएंगे, यह बड़ा सवाल है. फिर वह तबका जो पढ़ा लिखा है, राजनितिक समझ रखता है, युवा है, शिक्षित मगर बेरोज़गार है, जिसके लिए भाजपा के पास ना कोई योजना है ना कोई वादा है, वो भाला भाजपा को वोट क्यों देगा?
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पश्चिम बंगाल में महिला वोटरों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है, जो ममता को एक शक्ति के रूप में देखती हैं. दीदी ने प्रदेश की लड़कियों को साक्षर और स्वाबलंबी बनाने के लिए कई योजनाएं चला रखी हैं, जैसे – कन्याश्री और सौबुज साथी योजना। सौबुज साथी योजना के तहत नौवीं से बारहवीं कक्षा तक छात्र–छात्राओं को मुफ्त साइकिलें दी गयी हैं ताकि उनका स्कूल ना छूटे और वे स्वाबलंबी हों . ऐसे में अबकी चुनाव में यह देखना खासा दिलचस्प होगा कि बंगाल की जनता भाजपा के मंदिर, पूजा, आरती और ब्राह्मणों के सशक्तिकरण वाला सोनार बांग्ला बनाएगी या प्रदेश के युवाओं और महिलाओं के साक्षर और सशक्त होने को महत्त्व देगी.
चुनाव की बिसात पर अन्य राजनितिक पार्टियां भी हैं मगर सबसे ज़्यादा चर्चा तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की ही है. वे एक दूसरे के आमने सामने कट्टर प्रतिद्वंद्वी बन कर हुंकार भर रहे हैं. कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों का जोश और शोर कुछ ख़ास नहीं है. इनसे भाजपा को कोई ख़ास नुकसान भी नहीं. लेकिन दस साल से सत्ता पर काबिज़ दीदी को हराना भाजपा के हिन्दू राष्ट्र के प्रसार के लिए बहुत ज़रूरी है. यही वजह है कि ममता सरकार को घेरने और बिखेरने की नित नयी चालों के साथ भाजपा लगातार तृणमूल के दिग्गज नेताओं को तोड़ने-जोड़ने में व्यस्त है. बीते तीन माह में ममता के कई ‘करीबी’ भाजपा की गोद में जा बैठे हैं, इससे ममता की पेशानी पर बल ज़रूर पड़े हैं, लेकिन वफादारी और वफादारों की पहचान भी खूब हो रही है. बकौल ममता – अच्छी बात है कि आधे अधूरे मन से पार्टी में बने रह कर भविष्य में पार्टी को नुकसान पहुचाएं इससे बेहतर है कि पहले ही अलग हो जाएँ. अवसरवादियों की जरूरत तृणमूल को नहीं है.
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क्या कहती है जनता
2014 के आम चुनाव में मोदी लहर के बावजूद भाजपा को पश्चिम बंगाल में 42 में से केवल दो सीटें मिली थीं, मगर 2019 में उसके सांसदों की संख्या बढ़कर 18 हो गयी और वोट प्रतिशत भी 10 प्रतिशत से बढ़कर 40 प्रतिशत हो गया. लेकिन लोकसभा का जादू क्या विधानसभा चुनाव में कायम रहेगा? क्या ‘बैटल ऑफ़ बंगाल’ भाजपा के लिए आसान होगा? क्या भाजपा ममता बनर्जी के किले को ढहा सकेगी? इसको लेकर ‘सरिता’ ने जनता के विचार जानने की कोशिश की.
सैमुअल रॉय, हिन्दू बंगाली हैं. वे मूल रूप से कोलकाता-हुगली के रहने वाले हैं. उनका परिवार हुगली में रहता है. सैमुअल दिल्ली में कई सालों से गॉर्ड के रूप में कार्यरत हैं. लेकिन चुनाव चाहे लोकसभा का हो या विधानसभा का, सैमुअल नौकरी से छुट्टी लेकर अपने मताधिकार का प्रयोग करने अपने राज्य ज़रूर जाते हैं. मोदी वर्सेज ममता के सवाल पर सैमुअल बेहिचक कहते हैं, ‘सरकार तो दीदी ही बनाएगी. दीदी ने बंगाल को संवारने के लिए बहुत संघर्ष किया है. उन्होंने वहां बेहतरीन काम किया है, अभी भी कर रही है, आगे भी करेगी. दीदी जानती है बंगाल को क्या चाहिए. बाहर का आदमी नहीं समझ सकता बंगाल को. हम सिर्फ ममता को मुख्यमंत्री चाहते हैं. हमारा पूरा परिवार ममता को वोट डालेगा.’
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परोमा भट्टाचार्या
थिएटर आर्टिस्ट परोमा भट्टाचार्या का कहना है कि – ‘पश्चिम बंगाल एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाला राज्य है. वहां के बंगाली ने पिछले वर्षों में काफी विकास देखा है, लेकिन उसे और अधिक देखने की जरूरत है. ममता बनर्जी इसके लिए प्रयास कर रही है. बंगाली युवाओं के लिए रोज़गार के और अधिक अवसर होने की आवश्यकता है. भाजपा ने भी वहां विकास और रोज़गार का वादा किया है. अभी यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि विधानसभा चुनाव कौन जीतेगा. मौजूदा सरकार कम बहुमत के साथ भी आ सकती है. मैं इस देश के युवा होने के रूप में अधिक उद्योगों, अपनी पीढ़ी के लिए अधिक रोजगार देखना चाहती हूं और जो भी सत्ता में आना चाहता है, उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा होगा.’
नीलाद्री शेखर दास
दिल्ली की एक फार्म में मैनेजर लेबल पर कार्यरत नीलाद्री शेखर दास का बीते दो विधानसभा चुनाव में वोट तृणमूल कांग्रेस को गया और अबकी बार वे फिर ममता के पक्ष में ही वोट करेंगे.
नीलाद्री कहते हैं, ‘भाजपा का बहुत हल्ला है, लेकिन इस हल्ले का यह मतलब नहीं है कि बंगाल में भाजपा की सरकार बन रही है. ममता बहुत स्ट्रांग है वहां. सरकार वही बनाएगी. ममता और मोदी के बीच 60:40 का मुकाबला है. 40 परसेंट से ज़्यादा वोट भाजपा को नहीं मिलेगा. हम बंगाली लोग शक्ति का उपासक है. मांस-मच्छी खाना पसंद करता है. हमको कोई आकर बोलेगा कि दुर्गा पूजा छोड़ कर राम की भक्ति करो या मच्छी छोड़ कर आलू खाओ तो उसको हम बंगाल में खड़ा भी नहीं होने देगा. सबका अपना पसंद है. हमारा पसंद सिर्फ ममता है.’
शिक्षित बंगाली जहाँ शिक्षा और रोजगार के मसले पर भाजपा को कटघरे में खड़ा करते हैं और ममता बनर्जी के संघर्षों और प्रयासों की तारीफ़ करते हैं वहीँ गरीब बंगाली जिनके जनधन खातों में मोदी ने दस-दस हज़ार रूपए डलवाये हैं, वो मोदी के गुणगान भी करते हैं. इन पर भगवा का काफी असर दिखता है. इसकी बड़ी वजह है.
दरअसल दिल्ली की बंगाली झुग्गी बस्ती में रहने वाले ज़्यादातर गरीब बंगाली परिवार पैंतीस-चालीस साल पहले पश्चिम बंगाल छोड़ कर रोजगार की तलाश में दिल्ली आये. इनमे बहुतेरे बांग्लादेशी भी हैं, जिनके पास अब दिल्ली का वोटर आईडी कार्ड है. इनका बंगाल के विकास या राजनीति से अब कोई ताल्लुक भी नहीं बचा है और ना ही ये वहां वोट करने जाते हैं. दिल्ली में यह सब्ज़ी-मछली बेचने के धंधे में हैं. बंगाली कपड़ा, सौंदर्य प्रसाधन, पूजा सामग्री बेचने का भी छोटा मोटा व्यवसाय करते हैं. यह वो तबका है जो भाजपा के गुण गा रहा है और बंगाल की सत्ता में परिवर्तन की बात कर रहा है.
माया मंडल
75 साल की माया मंडल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बुराई करते नहीं थकती हैं. वो कहती हैं, ‘तुमको अच्छा लगे या बुरा लगे मगर ममता हमको नहीं चाहिए. वो हमारे लिए कुछ नहीं किया. इस बार ममता को वोट नहीं डालेगा, मोदी को डालेगा. बेटा बोला है मोदी को ही वोट देने का. ममता बुरा काम करती है. उसने हमारे नाम पर घर बनवाया मगर हमको घर नहीं दिया. उसके लोग बोलते हैं कि 35000 रुपया लाओ तब घर मिलेगा. हम विधवा औरत कहाँ से इतना पैसा लाएगी?’
कुछ और कुरेदने पर पता चला कि माया मंडल की पैदाइश बांग्लादेश की है. पति का निधन हो चुका है. उनके दो बच्चे हैं – एक लड़का और एक लड़की.
पश्चिमम बंगाल की कुल आबादी में 17 फीसदी दलित हैं. इसके अलावा भाजपा को अपर कास्ट, ओबीसी और दूसरे सभी समुदाय में तृणमूल के मुक़ाबले थोड़ा वोट ज़्यादा मिला. मगर जानकारों की मानें तो अमूमन किसी पार्टी का वोट शेयर विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बराबर नहीं रहता है. ये ज़्यादातर बराबर तब रहते हैं जब लोकसभा और विधानसभा चुनाव छह महीने के अंतराल में हों. तब वह स्थिति होती है कि पिछले चुनाव के लोक-लुभावने वादों का असर अगले चुनाव पर भी बना रहता है. पर दोनों चुनावों में फासला ज़्यादा होने पर विधानसभा चुनाव में वोटों का बंटवारा लोकसभा चुनाव के मुकाबले कम हो जाता है.
हालांकि अबकी विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस का वोटबैंक बंटने के आसार हैं, जिससे भाजपा को काफी फायदा मिल सकता है. गौरतलब है कि अभी तक ममता के साथ मुसलमान सबसे ज़्यादा जुड़े और उनका एकतरफ़ा वोट तृणमूल को ही गया, मगर इस बार ममता के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए असद्दुदीन ओवैसी भी आ गए हैं और पीरजादा अब्बास सिद्दीकी भी. पश्चिम बंगाल के 30 फीसदी मुसलमान निश्चित ही तीन तरफ बंट जाएंगे, इसको लेकर भाजपा खासी उत्साहित है और उसका सारा फोकस बाकी बचे 70 फीसदी वोटरों पर है, जिनको लुभाने का वो कोई मौक़ा नहीं छोड़ रही है.
हालांकि ये 70 फ़ीसदी वोटर एकतरफा वोट नहीं करेंगे. इसमें आदिवासी, दलित, ओबीसी सब आते हैं. वोट करने के पीछे उनकी अपनी पसंद, विचारधारा, दिक्क़तें और वजहें हैं. ये भी ज़रूरी नहीं है कि लोकसभा के लिए जिन्होंने भाजपा को वोट दिया वो विधानसभा के लिए भी उसी को वोट दे. बात जब घर की आती है तो फैसले बदल भी जाते हैं. विधानसभा चुनाव आते ही जनता रोज़गार, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ के सवालों को मथने लगती है. ‘अपने’ और ‘बाहरी’ का भेद भी करने लगती है.
अब गृहमंत्री अमित शाह भले पश्चिम बंगाल पहुंच कर मंच से ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाएं और उपस्थित जनता से भी हाथ उठा कर लगाने को कहें, लेकिन जैसा कि तृणमूल नेता महुआ मोइत्रा कहती हैं, ‘हमें ‘जय श्रीराम’ से दिक़्क़त नहीं है, लेकिन हम क्या बोलेंगे और कैसे अपने धर्म को फ़ॉलो करेंगें, ये हमारा निजी मामला है. हमें आपका (भाजपा का) स्लोगन नहीं बोलना है, हम अपना स्लोगन कहेंगे.’ तो कुछ यही सोच बंगाल के आम मानुस की भी है. परम्परागत रूप से दुर्गा और सरस्वती की उपासना करने वाला अचानक श्रीराम में दिलचस्पी क्यों लेने लगेगा?
महिलाओं को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते
पश्चिम बंगाल में महिला वोटरों का रुझान दीदी की तरफ दिख रहा है. दीदी में उनको शक्ति नज़र आती है. ममता ने भी भाजपा के ‘जय श्रीराम’ के जवाब में ‘दुर्गा’ को खड़ा करके बताने की कोशिश की है कि उत्तर भारतीयों की पुरुष प्रधान मानसिकता बंगाल में नहीं चलेगी. बंगाल में महिलाओं को बराबरी का दर्जा हासिल है. यहाँ बंगाली औरत की अपने घर-परिवार में धमक रहती है. दुर्गा पूजा और सरस्वती पूजा उनके लिए महान उत्सव हैं जब वह नखशिख तक सजती हैं, सात दिन की पूजा में सत्तर प्रकार के पोशाक धारण करती हैं. इस परम्परा और अधिकार को कोई बाहरी आ कर नहीं छीन सकता है. ममता बंगाली महिलाओं की मानसिकता को बखूबी समझती हैं और इसलिए उन्होंने ‘धर्म’ के साथ-साथ ‘महिला-पुरुष’ नैरेटिव को भी ‘दुर्गा’ नैरेटिव के साथ साधने की कोशिश की है.
पश्चिम बंगाल में महिला वोटरों की तादाद तकरीबन 49 फीसदी हैं जिनके लिए ममता ने काम भी किया है. ममता सरकार की साइकिल योजना और स्वास्थ्य योजना के जरिए महिलाओं को फायदा पहुंचा है. देश में आज वो अकेली महिला मुख्यमंत्री हैं और सीधे मोदी-शाह को चुनौती दे रही हैं. उनकी यह छवि महिलाओं को लुभाती है. ममता को भी अपनी महिला वोटरों से काफी उम्मीदें हैं और उन्हें साधने के लिए उन्होंने 50 सीटों पर महिला उम्मीदवारों को उतारा है.
मतुआ सम्प्रदाय का महत्व
पश्चिम बंगाल की राजनीति में मतुआ संप्रदाय भी काफ़ी अहम है, जो किसी भी राजनितिक पार्टी का भविष्य तय करता है. इस संप्रदाय को मानने वालों की संख्या यहां तकरीबन 3 करोड़ है. मतुआ सम्प्रदाय अभी तक ममता को सपोर्ट करता आया था. मतुआ माता बीनापाणि देवी यानी मतुआ माता की ममता बनर्जी से साल 2010 में नजदीकियां बढ़ी. इसी साल मतुआ माता ने ममता बनर्जी को मतुआ संप्रदाय का संरक्षक भी घोषित किया. ममता को इससे राजनीतिक समर्थन मिला और 2011 में वह चुनाव जीत कर पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज हुईं.
बीनापाणि देवी और उनकी राजनीतिक ताकत ममता के साथ लम्बे समय तक बनी रही. लेकिन केंद्र में भाजपा के उदय के बाद मोदी की नज़र भी इस सम्प्रदाय पर टिक गयी। 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब पश्चिम बंगाल में चुनावी अभियान शुरू किया तो सबसे पहले मतुआ संप्रदाय के 100 साल पुराने मठ में बोरो मां का आशीर्वाद लेने पहुंचे. इसके बाद से इस परिवार का रुझान भाजपा की ओर होने लगा. 5 मार्च 2019 को बीनापाणि देवी के निधन के बाद परिवार में राजनीतिक बंटवारा खुलकर दिखा बीनापाणि देवी के छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर ने भाजपा का दामन थाम लिया। 2019 में मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर को भी भाजपा ने बनगांव से टिकट दिया, जिसके बाद वह सांसद बन गए.
कहते हैं मतुआ सम्प्रदाय के लोग पूर्वी पाकिस्तान से आकर पश्चिम बंगाल में बसे हैं. मतुआ संप्रदाय की शुरुआत 1860 में अविभाजित बंगाल में समाज सुधारक हरिचंद्र ठाकुर ने की थी. उनका जन्म एक गरीब और अछूत नामशूद्र परिवार में हुआ था. मतुआ महासंघ की मान्यता ‘स्वम दर्शन’ की रही है जिसका रास्ता हरिचंद्र ठाकुर ने दिखाया. इस संप्रदाय के लोग हरिचंद्र ठाकुर को ही भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं और श्री श्री हरिचंद्र ठाकुर कहते हैं. मतुआ संप्रदाय हिन्दू धर्म को मान्यता देता है लेकिन ऊंच-नीच और भेदभाव के बगैर. जबकि भाजपा मनुवादी सोच के तहत हिन्दू को भी ऊंच-नीच, सवर्ण-अछूत जैसे खांचों में बांटती है. पर मतुआ समाज के आगे बड़ा मुद्दा नागरिकता पाने का भी है.
मतुआ सम्प्रदाय में बहुतेरों के पास भारतीय नागरिकता नहीं है और भाजपा सीएए-एनआरसी का कानून ले आई है जो मुस्लिमों को छोड़कर बाकियों को नागरिकता देने की बात कहता है. ऐसे में भाजपा की तरफ मतुआ समुदाय का झुकाव स्वाभाविक है. पूर्वी पाकिस्तान से आकर पश्चिम बंगाल में बसे मतुआ संप्रदाय के लोगों को इस कानून के तहत नागरिकता मिल जाएगी. यह बड़ा चुग्गा अबकी चुनाव में भाजपा की ओर से डाला गया है.
भाजपा आदिवासी और अनुसूचित जाति-जनजाति समुदाय के लोगों पर फोकस कर अपना ‘मिशन-200’ पूरा करना चाहती है. बंगाल दौरे पर गृहमंत्री अमित शाह का मतुआ समुदाय के घर पहुंच कर ज़मीन पर बैठ कर पत्तल में लंच करना काफी कुछ कह जाता है. गौरतलब है कि 2011 की जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति की आबादी क़रीब 1.84 करोड़ है और इसमें 50 फ़ीसदी मतुआ संप्रदाय के लोग हैं जो चुनाव के वक़्त हर राजनितिक पार्टी के लिए काफी अहम् हो जाते हैं.
मुसलामानों पर नज़र
पश्चिम बंगाल की राजनीति में मुसलमान बहुत बड़ा फैक्टर है. राज्य की कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग 30 फ़ीसद है और 70-100 सीटों पर उनका एकतरफ़ा वोट जीत और हार तय कर सकता है. पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को नज़र अंदाज़ करके सत्ता की चाशनी चाटना नामुमकिन है. मुस्लिम समाज यहाँ करीब 100 से 110 सीटों पर नतीजों को प्रभावित करता है.
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस बार 42 मुस्लिम कैंडिडेट मैदान में उतारे हैं. लेकिन यह मुस्लिम वोटबैंक को साधने में कितने कामयाब होंगे जबकि इस वोटबैंक में ओवैसी और पीरजादा सेंध लगा रहे हैं। एआईएमआईएम प्रमुख असद्दुदीन ओवैसी बंगाल की जमीन पर उतरते ही सीधे फुरफरा शरीफ की दरगाह पर सजदा करने पहुंचते हैं क्योंकि चुनाव में फुरफुरा शरीफ की खास भूमिका है. बता दें कि फुरफुरा शरीफ पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के जंगीपारा विकासखंड में स्थित एक गांव का नाम है. इस गांव में स्थित हजरत अबु बकर सिद्दीकी की दरगाह बंगाली मुसलमानों में काफी लोकप्रिय है. कहा जाता है कि मुसलामानों के लिए अजमेर शरीफ के बाद फुरफुरा शरीफ ही दूसरी सबसे पवित्र दरगाह है. यहां पर हजरत अबु बकर सिद्दीकी के साथ ही उनके पांच बेटों की मज़ारें हैं, जहाँ सालाना उर्स में बड़ी संख्या में बंगाली और उर्दू भाषी मुसलमानों की भीड़ जुटती है. असदउद्दीन ओवैसी बिहार में पांच सीटों पर खाता खोलने के बाद बड़ी उम्मीद लेकर बंगाल के चुनावी मैदान में उतरे हैं. हालांकि ओवैसी का पश्चिम बंगाल में कोई दख़ल नहीं है. ना तो उनकी भाषा बंगाली मुसलमानों जैसी है और ना ही बंगाल के बारे में उनको ज़्यादा पता है, ना ही वो वहाँ के रहने वाले हैं. ऐसे में सोचने वाली बात है कि बंगाली मुसलमान उनको वोट क्यों देंगे?
वहीँ फुरफुरा शरीफ दरगाह की देखरेख की जिम्मेदारी निभाने वाले पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी हैं जो अबकी बार ममता के वोटबैंक हथियाने के लिए मैदान में हैं. पीरजादा अब्बास सिद्दीकी का मामला ओवैसी से अलग है. बंगाली मुसलमान का उन पर विश्वास है. उनका दख़ल हुगली ज़िले की सीटों पर अधिक है, जहाँ से वो ताल्लुक़ रखते हैं. मगर उसके बाहर उनका कोई प्रभुत्व नहीं है. चुनाव में उन्होंने कांग्रेस और लेफ्ट से हाथ मिलाया है मगर सीटों के बंटवारे में वह हिस्सा भी बड़ा ही चाहेंगे. लिहाज़ा आने वाले दिनों में सीटों के बंटवारे को लेकर मामला फंस सकता है. पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की महत्वाकांक्षा बड़ी हैं. अब्बास का परिवार फुरफुरा शरीफ की मज़ारों की देखरेख करता आया है और वर्तमान में इसके कर्ता-धर्ता अब्बास सिद्दीकी हैं. अब तक वे एक मजहबी शख्सियत थे और ममता से उनकी घनी छनती थी.
जब ममता के संघर्ष के दिन थे और वह सिंगुर और नंदीग्राम में आंदोलन कर रही थीं तब फुरफुरा शरीफ के पीरजादा परिवार ने ममता का खुला समर्थन किया था. तब वहां कई मुसलमान किसानों की भी जमीन सरकारी अधिग्रहण में जा रही थी, जो ममता के आंदोलन के कारण बच गयी. जब तक अब्बास सिद्दीकी मौलाना के रोल में रहे तब तक ममता से उनकी खूब पटी और उनके इशारे पर मुस्लिम वोट का खूब फायदा ममता को मिला, मगर अब्बास की राजनितिक इच्छाएं जागृत होते ही ममता से उनकी राहें जुदा हो गयीं. अपनी ऊंची महत्वाकांक्षाओं के चलते अब्बास सिद्दीकी ने ममता का साथ छोड़ कर कांग्रेस और लेफ्ट के साथ याराना गाँठ लिया. अब उनकी पार्टी ‘इंडियन सेक्यूलर फ्रंट’ बंगाल के मुसलामानों को साधने में जी-जान से जुटी है. युवा अब्बास सिद्दीकी अपने उत्तेजक भाषण, मजहबी तकरीरों की वजह से सोशल मीडिया के वर्चुअल स्पेस से लेकर हकीकत के जलसों में भी काफी भीड़ खींचते हैं. उनके चुनावी वीडियो फेसबुक, ट्विटर पर खूब वायरल हैं.
वहीँ ममता बनर्जी को अपने मुस्लिम मतदाताओं पर पूरा भरोसा है. उन्हें यकीन है कि जो मुस्लिम मतदाता उनके साथ पहले से जुड़े हुए हैं वो उन्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे. इस भरोसे को कायम रखने के लिए ही ममता ने 42 मुस्लिम चेहरे चुनाव मैदान में उतारे हैं. लेकिन अब्बास और ओवैसी कुछ मुस्लिम वोट तो ज़रूर खींच ले जाएंगे. ऐसे में कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोटों पर हक़ जमाने के चलते मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है.
पश्चिम बंगाल की त्रिकोणीय बिसात को देखते हुए जानकार कहते हैं कि बंगाली मानुस ममता में ही ज़्यादा विश्वास रखता है. भाजपा के बवाल से भले तृणमूल कांग्रेस कुछ चुनौती का सामना कर रही है, मगर ममता ने जिस तरह हर तबके को ध्यान में रख कर उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की है, वह टीएमसी के लिए काफी आशा जगाती है. शुक्रवार को अपना लकी डे मानने वाली ममता बनर्जी ने फिलहाल जो 291 कैंडिडेट के नाम जारी किए हैं उनमें 50 महिलाएं, 42 मुस्लिम, 79 एससी, 17 एसटी और 103 सामान्य वर्ग के उम्मीदवार हैं. लिस्ट में 100 ऐसे चेहरे हैं, जिन्हें पहली बार मौका दिया जा रहा है. कई सीटों पर फेरबदल किया गया है. कम से कम 100 उम्मीदवार 50 साल से कम उम्र के हैं. इनमें से तीस उम्मीदवार ऐसे हैं जिनकी उम्र 40 साल से भी कम है. 80 साल से ज्यादा उम्र के नेताओं को ममता ने टिकट नहीं दिया है. वहीँ 24 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे गए हैं. नंदीग्राम से खुद ममता बनर्जी टीएमसी छोड़ भाजपा में गए शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ चुनाव में उतरेंगी. नंदीग्राम को शुभेंदु अधिकारी का गढ़ माना जाता है. अगर वो यहाँ से हारे तो भाजपा की काफी छीछालेदर होगी. इस सीट पर मुकाबला काफी रोचक होने वाला है.
बॉक्स
पश्चिम बंगाल में इस बार 8 फेज में वोटिंग होगी. 294 सीटों वाली विधानसभा के लिए वोटिंग 27 मार्च (30 सीट), 1 अप्रैल (30 सीट), 6 अप्रैल (31 सीट), 10 अप्रैल (44 सीट), 17 अप्रैल (45 सीट), 22 अप्रैल (43 सीट), 26 अप्रैल (36 सीट), 29 अप्रैल (35 सीट) को होनी है. काउंटिंग 2 मई को की जाएगी.