चुनावी बेला में बंगाल की धरती पर आजकल ‘जय श्री राम’ के नारे खूब लग रहे हैं. हर तरफ भगवा झंडे लहरा रहे हैं. इन दिनों शायद ही कोई दिन होता हो जब प्रदेश में भाजपा की कोई चुनावी रैली या सभा नहीं होती है. भाजपा के बड़े दिग्गज बंगाल में डेरा जमा कर बैठे हैं. केंद्र के बड़े-बड़े नेता और दूसरे भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी लगातार यहाँ का दौरा कर रहे हैं. देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री मंच से ‘सोनार बांग्ला’ बनाने के वादे करते सुने जा रहे हैं. नरेंद्र मोदी कहते हैं बंगाल में “आसोल परिबोर्तन’ होगा. दीदी की सत्ता हथियाने के लिए खूब हथकंडे अपनाये जा रहे हैं.

सरकार को घेरने और परेशान करने के लिए सीबीआई और ईडी का भी भरपूर इस्तेमाल हो रहा है. भाजपा की ओर बंगाल के ब्राह्मण, बनिए, कायस्थ का काफी रुझान है. इनका भरपूर समर्थन भी भाजपा को मिल सकता है. ये तीनों जातियां धर्म की दुकानदारी की साझेदार हैं, मगर बंगाल में बड़ी संख्या ओबीसी, दलित और मुसलामानों की भी है, उनके वोट आखिर भाजपा की झोली में क्यों जाएंगे? फिर वह तबका जो पढ़ा लिखा है, राजनितिक समझ रखता है, युवा है, शिक्षित मगर बेरोज़गार है, जिसके लिए भाजपा के पास ना कोई योजना है ना कोई वादा है, वो भाला भाजपा को वोट क्यों देगा?

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पश्चिम बंगाल में महिला वोटरों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है, जो ममता को अपनी शक्ति के रूप में देखती हैं. ममता सरकार ने प्रदेश की लड़कियों को साक्षर और स्वाबलंबी बनाने के लिए कई योजनाएं भी चलाई हैं, जिनमें कन्याश्री और सौबुज साथी योजनाओं को खूब प्रशंसा मिली है. सौबुज साथी योजना के तहत ममता सरकार ने नौवीं से बारहवीं कक्षा तक छात्र – छात्राओं को मुफ्त साइकिलें दी हैं ताकि उनका स्कूल ना छूटे और वे स्वाबलंबी हों . ऐसे में विधानसभा चुनाव में ये देखना खासा दिलचस्प रहेगा कि बंगाल की जनता भाजपा के मंदिर, पूजा, आरती और ब्राह्मणों के सशक्तिकरण वाला सोनार बांग्ला बनाएगी या प्रदेश के युवाओं और महिलाओं के साक्षर और सशक्त होने को महत्त्व देगी.

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव की बिसात पर अन्य राजनितिक पार्टियों या गठबंधनों से कहीं ज़्यादा चर्चा तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की है. वे एक दूसरे के आमने सामने हैं और एक दूसरे के कट्टर प्रतिद्वंद्वी बन कर हुंकार भर रहे  हैं. कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों का जोश और शोर कुछ ख़ास नहीं है. इनसे भाजपा को कोई ख़ास नुकसान होता भी नहीं दिख रहा है. लेकिन दस साल से सत्ता पर काबिज़ दीदी को हराना भाजपा के हिन्दू राष्ट्र के प्रसार के लिए बहुत ज़रूरी है. यही वजह है कि ममता सरकार को घेरने और बिखेरने की नित नयी चालों के साथ भाजपा तृणमूल के दिग्गज नेताओं को भी तोड़ने-जोड़ने में व्यस्त है. बीते तीन माह में ममता के कई ‘करीबी’ भाजपा की गोद में जा बैठे हैं, इससे ममता की पेशानी पर कुछ बल ज़रूर पड़े हैं, लेकिन इससे उन्हें वफादारी और वफादारों की पहचान भी खूब हो रही है. बकौल ममता – अच्छी बात है कि आधे अधूरे मन से पार्टी में बने रह कर भविष्य में पार्टी को नुकसान पहुचाएं इससे बेहतर है कि पहले ही अलग हो जाएँ. अवसरवादियों की जरूरत तृणमूल को नहीं है फिर चाहे वो शुभेंदु अधिकारी हों या मनीरूल इस्लाम, गदाधर हाजरा हों या निमाई दास अथवा मोहम्मद आसिफ इकबाल.

उत्साहित भाजपा  
भाजपा को लग रहा है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में अपनी सीटों की संख्या में नौ गुना और मत प्रतिशत में चार गुना इजाफा करने के बाद ‘बैटल ऑफ़ बंगाल’ उनके लिए आसान है और वह आराम से ममता बनर्जी के किले को ढहा देगी. उल्लेखनीय है कि 2014 के आम चुनाव में मोदी लहर के बावजूद भाजपा को राज्य में 42 में से केवल दो सीटें मिली थीं, मगर 2019 में उसके सांसदों की संख्या बढ़कर 18 हो गयी और वोट प्रतिशत भी 10 प्रतिशत से बढ़कर 40 प्रतिशत हो गया. लेकिन सवाल यह है कि भाजपा ने लोकसभा में जो जादू दिखाया, क्या विधानसभा चुनाव में वह कायम रहेगा?

जानकारों की मानें तो अमूमन पार्टी का वोट शेयर विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बराबर नहीं रहता है. ये ज़्यादातर बराबर तब रहते हैं जब लोकसभा और विधानसभा चुनाव छह महीने के अंतराल में हों. विधानसभा चुनाव में वोटों का बंटवारा भी लोकसभा के चुनाव के मुकाबले कम होता है. वर्ष 2019 के चुनाव में बंगाल में भाजपा को दलित वोट 59 फीसदी मिला था जबकि ममता को 30 फीसदी ही मिला. पश्चिम बंगाल की कुल आबादी में 17 फीसदी दलित हैं. इसके अलावा भाजपा को अपर कास्ट, ओबीसी और दूसरे सभी समुदाय में तृणमूल के मुक़ाबले थोड़ा वोट ज़्यादा मिला.

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ममता के साथ मुसलमान सबसे ज़्यादा जुड़े और उनका एकतरफ़ा वोट तृणमूल को ही गया, जो ममता की जीत के पीछे बड़ी वजह रहा. मगर इस बार ममता के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए असद्दुदीन ओवैसी भी आ गए हैं और पीरजादा अब्बास सिद्दीकी भी. पश्चिम बंगाल के 30 फीसदी मुसलमान निश्चित ही तीन तरफ बंट जाएंगे, इसको लेकर भाजपा खासी उत्साहित है और उसका सारा फोकस बाकी बचे 70 फीसदी वोटरों पर है, जिनको लुभाने का वो कोई मौक़ा नहीं छोड़ रही है.

हालांकि ये 70 फ़ीसदी वोटर एकतरफा वोट नहीं करते. इसमें आदिवासी, दलित, ओबीसी सब आते हैं. वोट करने के पीछे उनकी अपनी पसंद, विचारधारा, दिक्क़तें और वजहें हैं. ये भी ज़रूरी नहीं है कि लोकसभा के लिए जिन्होंने भाजपा को वोट दिया वो विधानसभा के लिए भी उसी को वोट दे. बात जब घर की आती है तो फैसले बदल भी जाते हैं. विधानसभा चुनाव आते ही जनता रोज़गार, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ के सवालों को मथने लगती है. ‘अपने’ और ‘बाहरी’ का भेद भी करने लगती है.

अब गृहमंत्री अमित शाह भले पश्चिम बंगाल पहुंच कर मंच से ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाएं और उपस्थित जनता से भी हाथ उठा कर लगाने को कहें, लेकिन जैसा कि तृणमूल नेता महुआ मोइत्रा कहती हैं, ‘हमें ‘जय श्रीराम’ से दिक़्क़त नहीं है, लेकिन हम क्या बोलेंगे और कैसे अपने धर्म को फ़ॉलो करेंगें, ये हमारा निजी मामला है. हमें आपका (भाजपा का) स्लोगन नहीं बोलना है, हम अपना स्लोगन कहेंगे.’ तो कुछ यही सोच बंगाल के आम मानुस की भी है. परम्परागत रूप से दुर्गा और सरस्वती की उपासना करने वाला अचानक श्रीराम में दिलचस्पी क्यों लेने लगेगा?

महिलाओं को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते

पश्चिम बंगाल में महिला वोटरों का रुझान दीदी की तरफ दिख रहा है. दीदी में उनको शक्ति नज़र आती है. बंगाल में महिलाओं के बीच उनकी लोकप्रियता काफी है. ममता ने भी भाजपा के ‘जय श्रीराम’ के जवाब में ‘दुर्गा’ को खड़ा करके ये दिखाने की कोशिश की है कि उत्तर भारतीयों की पुरुष प्रधान मानसिकता बंगाल में नहीं चलेगी. बंगाल में महिलाओं को बराबरी का दर्जा हासिल है. यहाँ बंगाली औरत की अपने घर-परिवार में धमक रहती है. दुर्गा पूजा और सरस्वती पूजा उनके लिए महान उत्सव हैं जब वह नखशिख तक सजती हैं, सात दिन की पूजा में सत्तर प्रकार के पोशाक धारण करती हैं. इस परम्परा और अधिकार को कोई बाहरी आ कर नहीं छीन सकता है. ममता बंगाली महिलाओं की मानसिकता को बखूबी समझती हैं और इसलिए उन्होंने ‘धर्म’ के साथ-साथ ‘महिला-पुरुष’ नैरेटिव को भी ‘दुर्गा’ नैरेटिव के साथ साधने की कोशिश की है.

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पश्चिम बंगाल में महिला वोटरों की तादाद तकरीबन 49 फीसदी हैं जिनके लिए ममता ने काम भी किया है. ममता ने साइकिल योजना और स्वास्थ्य योजना के जरिए महिलाओं में अपने दबदबे को बरकरार रखने की कोशिश की है. देश में आज वो अकेली महिला मुख्यमंत्री हैं और सीधे मोदी-शाह को चुनौती देने जा रही हैं. लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने 40 फीसदी महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया था. इस विधानसभा में भी उन्होंने 294 सीट पर 50 महिलाओं को टिकट दिया है.

मतुआ सम्प्रदाय का महत्व
पश्चिम बंगाल की राजनीति में मतुआ संप्रदाय काफ़ी अहम है, जो किसी भी राजनितिक पार्टी का भविष्य तय करता है. बंगाल में मतुआ संप्रदाय को मानने वालों की संख्या तकरीबन 3 करोड़ है. मतुआ सम्प्रदाय अभी तक ममता को सपोर्ट करता आया था. मतुआ माता बीनापाणि देवी यानी मतुआ माता की ममता बनर्जी से साल 2010 में नजदीकियां बढ़ी. इसी साल मतुआ माता ने ममता बनर्जी को मतुआ संप्रदाय का संरक्षक भी घोषित किया. इसे मतुआ संप्रदाय का ममता बनर्जी को राजनीतिक समर्थन माना गया. इसका फायदा भी तृणमूल कांग्रेस को मिला और वह 2011 में पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज हुईं.

बीनापाणि देवी और उनकी राजनीतिक ताकत ममता के साथ लम्बे समय तक बनी रही. उल्लेखनीय है कि 2019 की लोकसभा चुनाव के दौरान जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिम बंगाल में चुनावी अभियान शुरू किया तो सबसे पहले मतुआ संप्रदाय के 100 साल पुराने मठ में बोरो मां का आशीर्वाद लेने पहुंचे थे. इसके बाद से इस परिवार का रुझान भाजपा की ओर होना शुरू हुआ. 5 मार्च 2019 को बीनापाणि देवी के निधन के बाद परिवार में राजनीतिक बंटवारा खुलकर दिखने लगा और उनके छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर ने भाजपा का दामन थाम लिया और 2019 में मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर को भी भाजपा ने बनगांव से टिकट दिया, जिसके बाद वह सांसद बन गए.

कहते हैं मतुआ सम्प्रदाय के लोग पूर्वी पाकिस्तान से आकर पश्चिम बंगाल में बसे हैं. मतुआ संप्रदाय की शुरुआत 1860 में अविभाजित बंगाल में समाज सुधारक हरिचंद्र ठाकुर ने की थी. उनका जन्म एक गरीब और अछूत नामशूद्र परिवार में हुआ था. मतुआ महासंघ की मान्यता ‘स्वम दर्शन’ की रही है जिसका रास्ता हरिचंद्र ठाकुर ने दिखाया. इस संप्रदाय के लोग हरिचंद्र ठाकुर को ही भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं और श्री श्री हरिचंद्र ठाकुर कहते हैं. मतुआ संप्रदाय हिन्दू धर्म को मान्यता देता है लेकिन ऊंच-नीच और भेदभाव के बगैर. जबकि भाजपा मनुवादी सोच के तहत हिन्दू को भी ऊंच-नीच, सवर्ण-अछूत जैसे खांचों में बांटती है. पर मतुआ समाज के आगे बड़ा मुद्दा नागरिकता पाने का भी है.

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मतुआ सम्प्रदाय में बहुतेरों के पास भारतीय नागरिकता नहीं है और भाजपा सीएए-एनआरसी का कानून ले आई है जो मुस्लिमों को छोड़कर बाकियों को नागरिकता देने की बात कहता है. ऐसे में भाजपा की तरफ मतुआ समुदाय का झुकाव स्वाभाविक है. मतुआ संप्रदाय के लिए नागरिक संशोधन कानून (सीएए) बड़ा मसला है. पूर्वी पाकिस्तान से आकर पश्चिम बंगाल में बसे मतुआ संप्रदाय के लोगों को इस कानून के तहत नागरिकता मिल जाएगी. पश्चिम बंगाल में ऐसे लोग बड़ी संख्या में है जो एनआरसी के डर के साए में हैं. भाजपा एनआरसी का डर खत्म करने के लिए ही नागरिक संशोधन कानून लाई है और इसे चुनाव में बड़ा मुद्दा भी बना रही है. कुछ दिन पहले ही भाजपा के पश्चिम बंगाल प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय ने कहा भी था कि जल्दी ही नागरिकता संशोधन कानून लागू हो जाएगा, इसकी तैयारी की जा रही है.

भाजपा भी आदिवासी और अनुसूचित जाति-जनजाति समुदाय के लोगों पर फोकस कर अपना मिशन-200 पूरा करना चाहती है. बंगाल दौरे पर गृहमंत्री अमित शाह का मतुआ समुदाय के घर पहुंच कर ज़मीन पर बैठ कर पत्तल में लंच करना काफी कुछ कह जाता है. गौरतलब है कि 2011 की जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति की आबादी क़रीब 1.84 करोड़ है और इसमें 50 फ़ीसदी मतुआ संप्रदाय के लोग हैं जो चुनाव के वक़्त हर राजनितिक पार्टी के लिए काफी अहम् हो जाते हैं. एक अनुमान के मुताबिक, प. बंगाल में मतुआ संप्रदाय के पास करीब 3 करोड़ का वोटबैंक है. नामशूद्र समाज के लोग भी मतुआ संप्रदाय को मानते हैं. नामशूद्र के अलावा दूसरे दलित समाज के लोग भी मतुआ संप्रदाय से जुड़े हैं. ऐसे में राजनीतिक दलों के लिए अनुसूचित जाति का बड़ा वोट हासिल करने के लिए मतुआ संप्रदाय को साधना ज़रूरी है.

मुसलामानों पर नज़र  
पश्चिम बंगाल की राजनीति में मुसलमान बहुत बड़ा फैक्टर है. राज्य की कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग 30 फ़ीसद है और 70-100 सीटों पर उनका एकतरफ़ा वोट जीत और हार तय कर सकता है. पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को नज़रअंदाज़ करके सत्ता की चाशनी चाटना नामुमकिन है. मुस्लिम समाज यहाँ करीब 100 से 110 सीटों पर नतीजों को प्रभावित करता है. यही वजह है कि हर राजनितिक पार्टी मुसलमानों को लुभाने के लिए चुग्गा डालने में लगी है.

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस बार 42 मुस्लिम कैंडिडेट मैदान में उतारे हैं. वहीँ एआईएमआईएम प्रमुख असद्दुदीन ओवैसी बंगाल की जमीन पर उतरते ही सीधे  फुरफरा शरीफ की दरगाह पर सजदा करने पहुंचे क्योंकि चुनाव में फुरफुरा शरीफ की खास भूमिका रहती है.

फुरफुरा शरीफ पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के जंगीपारा विकासखंड में स्थित एक गांव का नाम है. इस गांव में स्थित हजरत अबु बकर सिद्दीकी की दरगाह बंगाली मुसलमानों में काफी लोकप्रिय है. कहा जाता है कि मुसलामानों के लिए अजमेर शरीफ के बाद फुरफुरा शरीफ ही दूसरी सबसे पवित्र दरगाह है. यहां पर हजरत अबु बकर सिद्दीकी के साथ ही उनके पांच बेटों की मज़ारें हैं, जहाँ सालाना उर्स में बड़ी संख्या में बंगाली और उर्दू भाषी मुसलमानों की भीड़ जुटती है.

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वहीँ फुरफुरा शरीफ दरगाह की देखरेख की जिम्मेदारी निभाने वाले पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी हैं जो इस बार चुनाव मैदान में ममता और ओवैसी दोनों को चुनौती देंगे. अब्बास सिद्दीकी अपने नाम के साथ पीरजादा लगाते हैं. पीरजादा फारसी शब्द है, जिसका मतलब होता है मुस्लिम धर्मगुरु की संतान. अब्बास सिद्दीकी का परिवार फुरफुरा शरीफ स्थित हजरत अबु बकर सिद्दीकी और उनके पांच बेटों की मज़ारों की देखरेख करता आया है और वर्तमान में इसके कर्ता-धर्ता अब्बास सिद्दीकी हैं. पीरजादा अब्बास सिद्दीकी अब तक एक मजहबी शख्सियत थे, ऐसा नहीं था कि उनका राजनीति से वास्ता नहीं था, 34 वर्षीय अब्बास सिद्दीकी की कभी ममता बनर्जी से घनी छनती थी.

जब ममता के संघर्ष के दिन थे और वह सिंगुर और नंदीग्राम में आंदोलन कर रही थीं तब फुरफुरा शरीफ के पीरजादा परिवार ने ममता का खुला समर्थन किया था. तब वहां कई मुसलमान किसानों की भी जमीन सरकारी अधिग्रहण में जा रही थी, जो ममता के आंदोलन के कारण बच सकी थी. जब तक अब्बास सिद्दीकी मौलाना के रोल में रहे तब तक ममता से उनकी खूब पटी और उनके इशारे पर मुस्लिम वोट का खूब फायदा ममता को मिला, मगर अब्बास की राजनितिक इच्छाएं जागृत होते ही ममता से उनकी राहें जुदा हो गयीं.  अपनी ऊंची महत्वाकांक्षाओं के चलते अब्बास सिद्दीकी ने ममता का साथ छोड़ कर कांग्रेस और लेफ्ट के साथ याराना गाँठ लिया. अब उनकी पार्टी ‘इंडियन सेक्यूलर फ्रंट’ बंगाल के मुसलामानों को साधने में जी-जान से जुटी है.

बंगाल के मुसलमानों के बीच युवा अब्बास सिद्दीकी का अपना फैन बेस है. अपने उत्तेजक भाषण, मजहबी तकरीरों की वजह से वह सोशल मीडिया के वर्चुअल स्पेस से लेकर हकीकत के जलसों में भी काफी भीड़ खींचते हैं. उनके कई वीडियो फेसबुक, ट्विटर पर अलग-अलग  संदर्भों में खूब वायरल हुए हैं.

पश्चिम बंगाल की राजनीति में मुसलमान बहुत बड़ा फैक्टर है. ऐसा इसलिए क्योंकि राज्य की कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग 30 फ़ीसद है. सीटों के लिहाज़ से बात करें तो लगभग 70-100 सीटों पर उनका एकतरफ़ा वोट जीत और हार तय कर सकता है. यही वजह है कि पूरे देश में एनआरसी और सीएए का राग अलापने वाली भाजपा भी पश्चिम बंगाल में इस मुद्दे पर चुप मार जाती है, ये जानते हुए भी कि मुसलमान उसके खेमे में झाँकने नहीं आएगा.

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गौरतलब है कि कांग्रेस और लेफ़्ट का गठबंधन पश्चिम बंगाल में पहले ही हो चुका है. इस बार उनके साथ फ़ुरफ़ुरा शरीफ़ के पीरज़ादा अब्बास सिद्दीक़ी भी हैं. राजनीति में सीधे तौर पर अब्बास की पहली बार एंट्री हुई है. पिछले सप्ताह तीनों पार्टियों ने संयुक्त रूप से एक रैली की थी, जिसके बाद कांग्रेस में इस गठबंधन के बाद कुछ बग़ावती सुर भी सुनाई दिए थे. रैली में अब्बास सिद्दीक़ी के व्यवहार को देखकर लेफ्ट पार्टी के स्थानीय नेताओं में भी इस गठबंधन को लेकर थोड़ी असहजता देखने को मिली थी. पिछले चुनाव में ममता बैनर्जी का साथ देने वाले अब्बास सिद्दीकी ने असदुद्दीन ओवैसी को नाउम्मीद कर कांग्रेस और लेफ्ट से हाथ तो मिला लिया है लेकिन वो कितना फायदा पहुंचा पाते हैं इसका खुलासा 2 मई को चुनाव परिणाम आने के बाद ही होगा.

दूसरी तरफ़ ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) प्रमुख असदउद्दीन ओवैसी बिहार में पांच सीटों पर खाता खोलने के बाद बड़ी उम्मीद लेकर बंगाल के चुनावी मैदान में उतरे हैं. राजनितिक जानकारों की मानें तो ओवैसी और सिद्दीक़ी दोनों बिल्कुल अलग भूमिका में हैं. ओवैसी का पश्चिम बंगाल में कोई दख़ल नहीं है. ना तो उनकी भाषा बंगाली मुसलमानों जैसी है और ना ही बंगाल के बारे में उनको ज़्यादा पता है, ना ही वो वहाँ के रहने वाले हैं. ऐसे में सोचने वाली बात है कि बंगाली मुसलमान उनको वोट क्यों देंगे?

जबकि पीरजादा अब्बास सिद्दीकी का मामला अलग है. बंगाली मुसलमान का उन पर विश्वास है लेकिन उनका कुछ दख़ल हुगली ज़िले की सीटों पर ही है, जहाँ से वो ताल्लुक़ रखते हैं. उसके बाहर उनका कोई प्रभुत्व नहीं है. उनकी महत्वाकांक्षा भी बहुत बड़ी हैं. उन्होंने कांग्रेस और लेफ्ट से हाथ तो मिला लिया है मगर सीटों के बंटवारे में वह हिस्सा भी बड़ा ही चाहेंगे.लिहाज़ा आने वाले दिनों में सीटों के बंटवारे को लेकर मामला फंस सकता है. इसलिए ओवैसी और सिद्दीक़ी को एक नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों का प्रभाव का स्तर अलग है. ओवौसी और सिद्दीक़ी के बीच के इस अंतर को कांग्रेस और लेफ़्ट भी समझते हैं और शायद इसलिए उन्होंने फ़ुरफ़ुरा शरीफ़ के अब्बास सिद्दीक़ी के साथ गठबंधन किया है ताकि थोड़े बहुत मुस्लिम वोट उनकी झोली में आ सकें.

वहीँ ममता बनर्जी कहती हैं कि उनको अपने मुस्लिम मतदाताओं पर पूरा भरोसा है. उन्हें यकीन है कि जो मुस्लिम मतदाता उनके साथ पहले से जुड़े हुए हैं वो उन्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे. इस भरोसे को कायम रखने के लिए ही ममता ने 42 मुस्लिम चेहरे चुनाव मैदान में उतारे हैं. लेकिन अब्बास और ओवैसी कुछ मुस्लिम वोट तो ज़रूर खींच ले जाएंगे. ऐसे में कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोटों पर हक़ जमाने के चलते मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है.

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पश्चिम बंगाल की त्रिकोणीय बिसात को देखते हुए जानकार कहते हैं कि बंगाली मानुस ममता में ही ज़्यादा विश्वास रखता है. भाजपा के बवाल से भले तृणमूल कांग्रेस कुछ चुनौती का सामना कर रही है, मगर ममता ने जिस तरह हर तबके को ध्यान में रख कर उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की है, वह टीएमसी के लिए काफी आशा जगाती है. शुक्रवार को अपना लकी डे मानने वाली ममता बनर्जी ने फिलहाल जो 291 कैंडिडेट के नाम जारी किए हैं उनमें 50 महिलाएं, 42 मुस्लिम, 79 एससी, 17 एसटी और 103 सामान्य वर्ग के उम्मीदवार हैं. लिस्ट में 100 ऐसे चेहरे हैं, जिन्हें पहली बार मौका दिया जा रहा है. कई सीटों पर फेरबदल किया गया है.

ममता बनर्जी का कहना है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस किसी के साथ समझौता नहीं करने वाली है. जमीनी स्तर पर साफ़ छवि और भ्रष्टाचार मुक्त चेहरे को महत्व दिया जा रहा है. लिस्ट में कई स्टार उम्मीदवार भी हैं. कम से कम 100 उम्मीदवार 50 साल से कम उम्र के हैं. इनमें से तीस उम्मीदवार ऐसे हैं जिनकी उम्र 40 साल से भी कम है. 80 साल से ज्यादा उम्र के नेताओं को ममता ने टिकट नहीं दिया है. वहीँ 24 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे गए हैं. नंदीग्राम से खुद ममता बनर्जी टीएमसी छोड़ भाजपा में गए शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ चुनाव में उतरेंगी. नंदीग्राम को शुभेंदु अधिकारी का गढ़ माना जाता है. अगर वो यहाँ से हारे तो भाजपा की काफी छीछालेदर होगी. इस सीट पर मुकाबला काफी रोचक होने वाला है.

गौरतलब है कि ममता बनर्जी पिछले 10 साल से बंगाल पर राज कर रहीं हैं, लेकिन यह पहला मौका है जब उन्हें कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. एक तरफ भाजपा है और दूसरी तरफ अपने मुस्लिम मतदाता को साधे रखने की चुनौती उनके सामने है. उन्हें इस बात का बखूबी अंदाज़ा है कि लेफ्ट गठबंधन अब्बास सिद्दीक़ी के सहारे और भाजपा ओवौसी के सहारे टीएमसी के मुसलमान वोटर में सेंधमारी की कोशिश में जुटी है.

पश्चिम बंगाल में इस बार 8 फेज में वोटिंग होगी. 294 सीटों वाली विधानसभा के लिए वोटिंग 27 मार्च (30 सीट), 1 अप्रैल (30 सीट), 6 अप्रैल (31 सीट), 10 अप्रैल (44 सीट), 17 अप्रैल (45 सीट), 22 अप्रैल (43 सीट), 26 अप्रैल (36 सीट), 29 अप्रैल (35 सीट) को होनी है. काउंटिंग 2 मई को की जाएगी.

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‘सौबूज साथी’ के ज़रिये महिला सशक्तिकरण का सन्देश   

26 जनवरी को गणतंत्र दिवस परेड में पश्चिम बंगाल की झांकी में बंगाली बालाओं को साड़ी पहन साइकिल पर सवार होकर स्कूल जाते दिखाया गया था. झांकी के माध्यम से यह बताने की कोशिश हुई कि महिला सशक्तिकरण और महिला साक्षरता के प्रति ममता सरकार कितनी प्रतिबद्ध है. झांकी की थीम में दुर्गा, टैगोर, सुभाष चंद्र बोस भी हो सकते थे, लेकिन ममता सरकार ने इनमें से कुछ भी नहीं चुना. खुद एक ‘फाइटर वुमन’ के तौर पर पहचान बनाने वाली ममता मानती हैं कि औरत के विकास से ही देश का विकास संभव है. उनकी थीम का नाम था ‘सौबूज साथी’.

सौबूज का अर्थ होता है हरा रंग, तृणमूल कांग्रेस का रंग भी हरा है और मुस्लिम सम्प्रदाय का भी प्रिय रंग हरा ही है. रंग से काफी कुछ साधा जा सकता है. जैसे भगवा रंग बहुत कुछ कह जाता है, बहुत कुछ समझा जाता है. भगवा जहाँ उत्तेजना, जोश और कट्टरता का आह्वान करता प्रतीत होता है, वहीँ हरा रंग प्रकृति, सौम्यता और शीतलता का एहसास कराता है. आने वाले दो माह में बंगाल की जनता देश को बता देगी कि दोनों रंगों में से उसका पसंदीदा रंग कौन सा है.

खैर, पश्चिम बंगाल में चुनावी सरगर्मी चरम पर है, ऐसे में ममता सरकार द्वारा ‘सौबूज साथी’ को झांकी के विषय के रूप में लिए जाने का ख़ास मकसद था इस योजना के बारे में पूरे राष्ट्र को बताना. ये बताना कि शिक्षा के माध्यम से छात्र-छात्राओं का सशक्तिकरण ममता सरकार कैसे कर रही है. उल्लेखनीय बात यह है कि राज्य सरकार की ‘कन्याश्री’ योजना के बाद  ‘सौबूज साथी’ योजना को विश्व भर से प्रशंसा मिली है.

‘सौबूज साथी’ को वर्ल्ड समिट ऑन द इन्फॉर्मेशन सोसाइटी (डब्ल्यूएसआईएस) द्वारा भी सम्मानित किया गया है. ‘सौबूज साथी’ योजना मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के दिमाग की उपज है. इस योजना के तहत गरीबों लोगों के साथ-साथ राज्य द्वारा संचालित, राज्य द्वारा प्रायोजित और राज्य द्वारा सहायता प्राप्त स्कूलों और मदरसों में कक्षा 9 से 12 तक के छात्रों को मुफ्त साइकिल दी जाती है. योजना का उद्देश्य स्कूल छोड़ने वालों की संख्या को कम करना और यह सुनिश्चित करना है कि छात्र और खासतौर पर छात्राएं कम से कम 12वीं कक्षा तक की शिक्षा अवश्य प्राप्त करें.

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अब तक एक करोड़ से ज़्यादा साइकिलें इस योजना के तहत बांटी जा चुकी हैं. इस योजना का उद्देश्य लड़कियों को स्वतंत्र और स्वाबलंबी बनाना भी है. इससे बंगाली लड़कियों में काफी आत्मविश्वास पैदा हुआ है. किसी अन्य राज्य में लड़कियों को सशक्त करने की ऐसी पहल शायद ही हुई हो. मनुवादी विचारधारा में रचीबसी भाजपा तो लड़कियों को घर और धर्म के चक्रव्यूह से कभी निकलने ही नहीं देना चाहती है. मनुस्मृति महिलाओं के सशक्तिकरण का कोई सन्देश नहीं देती. वह तो स्त्री को हमेशा निगरानी में रखने की बात कहती है.

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