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टेसू के फूल: भाग 3

हार कर विदेश चला गया था मधुकर. आलोक और अणिमा के ब्याह तक भी नहीं रुका था वह. अपने अरमानों से सजे महल के खंडहरों को देखने के लिए रुकता भी क्यों? अपना कहने को क्या रह गया था यहां? 4 बरसों तक अमेरिका में रह कर मधुकर जब वापस भारत लौटा तो लखनऊ में नर्सिंगहोम खोला. फिर स्वयं को पूर्णरूप से व्यस्त कर लिया था उस ने. मरीजों के बीच रह कर कई बार चारु के पास जाने का मन किया था उस का पर जा नहीं सका था. कहीं सही व्यवहार नहीं मिला और उस का संवेदनशील मन आहत हुआ तो? खुद चारु ने कब टोह ली थी उस की? अपने ही संसार में तो रमी रही. फिर भी एकांत के क्षणों में चारु बहुत याद आती थी. उस का अनिंद्य सौंदर्य, शांत, संयमित व्यवहार उसे बारबार याद आता. जीवन संध्या की इस बेला में जीवनसाथी की कमी हमेशा खलती थी. पिछले साल एक सेमिनार में उस की भेंट आलोक से हो गई थी. इतने साल बाद मिले आलोक पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी मधुकर ने. हर प्रश्न चारु के इर्दगिर्द ही घूमता रहा. उस के बाद आलोक ही अपने समाचारों से मधुकर को अवगत कराता रहता. हर महीने आलोक आता और अपने घर की पूरी सूचना उसे दे जाता. ऐसा लगता जैसे सबकुछ सही तरीके से चल रहा है. इधर, पिछले कुछ दिनों से आलोक बहुत परेशान दिख रहा था. हर समय बुझाबुझा सा रहता. मधुकर इतने बरसों तक जुड़ा था उस परिवार से इसलिए थोड़ा सा दुख भी उस परिवार का नहीं सह पाता था. उस ने आलोक को कुरेदा तो चुप नहीं रह पाया था वह. फिर उस ने कहना शुरू किया, ‘अजीब सा चिड़चिड़ा स्वभाव हो गया है मधुकर भैया, चारु दीदी का.

पूरे घर का वातावरण ही नारकीय बन गया है.’ मधुकर ने उसे अविश्वास से घूरा था. आलोक ने फिर कहा, ‘मुझे तो ऐसा लगता है कि जैसे दीदी मेरी खुशियों की सब से बड़ी दुश्मन हैं. अणिमा को मेरे साथ देख कर ईर्ष्यालु हो उठती हैं.’ ‘यह क्या कह रहे हो? तुम्हारे सुख के लिए जिस बहन ने अपनी खुशियों की तिलांजलि दे दी, वह तुम्हारी दुश्मन कैसे हो सकती है? अणिमा को वह स्वयं अपनी इच्छा से तुम्हारी बहू बना कर लाई थी.’ ‘यह सच है भैया, पर आप भी दीदी का व्यवहार देखेंगे तो परेशान हो उठेंगे, कभी दरवाजे की दरार में से अंदर झांकती हैं तो कभी दरवाजे की आड़ में हो कर पतिपत्नी की बातें सुनती हैं. हमारे हर कार्यकलाप और गतिविधि पर गिद्धदृष्टि है दीदी की. मैं ने हमेशा दीदी का आदर किया है, पर अणिमा तो पराए घर की है. मेरा कुछ फर्ज पत्नी के प्रति भी तो है. दीदी के बरताव से तालमेल बिठाना बहुत मुश्किल हो गया है.’ आलोक के जाने के बाद मधुकर बेहद बेचैन हो उठा था. विश्वास नहीं हो रहा था, पढ़ीलिखी, सुलझे विचारों वाली चारु क्या वास्तव में ऐसा ही व्यवहार करती होगी? आज वह आलोक के कहने पर ही उस शहर में आया था.

जी तो कल ही मचल उठा था, लेकिन चारु ने तो तब एक बार भी रुकने के लिए नहीं कहा था. यों चले जाना शिष्टाचार के विरुद्ध नहीं होता क्या? चारु के कहे शब्द उस के अंतस्थल को एक बार फिर कचोटने लगे थे. सुबह उठ कर उस ने अपना सामान सूटकेस में बंद किया और चारु के घर की ओर रवाना हो गया. रिकशे वाले को पैसे दिए और बाहर लौन में आ कर खड़ा हो गया था. पहले का समय होता तो धड़धड़ाते हुए बंगले की सीढि़यां चढ़ कर सीधे चारु के कमरे में पहुंच जाता किंतु अब एक अव्यक्त संकोच ने उस के पांव जकड़ लिए थे. काफी देर तक वह असमंजस की स्थिति में दरवाजे पर ही टिका रहा. अंदर से आती आवाज ने उसे दरवाजे पर ही रोक दिया था. गलत समय पर तो नहीं आ गया? उसे लगा, नहीं आना चाहिए था इस समय. शांत, सहिष्णु और संयमित चारु का कभी उग्र स्वर नहीं सुना था उस ने. और आज ये आवाजें? लौटने को हुआ तो आलोक की गाड़ी की आवाज ने रोक दिया उसे. ‘‘कहां जा रहे हैं भैया? यह सब तो प्रतिदिन होता है यहां,’’ वापस लौटते हुए मधुकर को रोक कर आलोक उसे बैठक में ले आया.

मधुकर सोच रहा था, ‘शांत, निश्छल स्वभाव वाली चारु को कभी क्रोध आता भी तो मुंह से कभी कुछ नहीं कहती थी. बस, माथे पर बल डाल देती थी.’ पूरे 9 साल के परिचय की उस की एकएक भंगिमा, एकएक आदत याद हो गई थी उसे. ऐसा तीखा व्यवहार तो अनपेक्षित ही था चारु का. आलोक के सूचना देने पर चारु अंदर आ कर कमरे में बैठ गई थी. मधुकर को ऐसा लगा चारु को देख कर जैसे कोई नन्हा बालक मचलमचल कर जिद कर रहा हो और अब रो कर खुद को हलका महसूस कर रहा हो. कुछ देर बादखाना खा कर आलोक और अणिमा अपने शयनकक्ष में चले गए तो चारु उस के पास आ कर कमरे में बैठ गई थी. उसे लगा, चारु के मन में भाईभाभी के प्रति उपजी ईर्ष्या ने असुरक्षा को जन्म दिया है. ‘‘ठंड नहीं लग रही है? खिड़की क्यों नहीं बंद कर लेते?’’

चारु का साधिकार आग्रह अच्छा लगा था उसे. ‘‘रहने दो, अच्छा लग रहा है,’’ उस ने चारु का हाथ पकड़ लिया, ‘‘नींद नहीं आ रही है?’’ पूछा. ‘‘नहीं. ये दोनों रात 11 बजे कमरे में बंद हो जाते हैं. मैं अकेली बाहर घूमती रहती हूं,’’ चारु के शब्दों में अश्लीलता का पुट था. ‘ब्याहता पतिपत्नी का इतनी रात को अपने शयनकक्ष में जाना गलत था क्या? पूरा दिन अस्पताल में मरीजों की तीमारदारी करने के बाद दो पल सुस्ताने में असंगत तो कुछ भी नहीं था,’ मधुकर सोच रहा था. ‘‘तुम अपना समय कैसे बिताती हो?’’ ‘‘कुछ खास नहीं करने को. घर पर तो पूरा आधिपत्य अणिमा का ही है. कालेज की नौकरी जबरन आलोक ने छुड़वा दी. चार पैसे कमाती थी तो लगता था, मेरा भी कोई अस्तित्व है.’’ ‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, चारु? बहुत काम किया है तुम ने. अब कुछ पल सुस्ता लो. आलोक तुम्हें आराम करते देखना चाहता है.’’ मधुकर ने अपने स्नेहिल स्पर्श से उस के कंधे को छुआ तो कांप गई थी चारु. कितना अपनत्वभरा स्पर्श था चारु के लिए? घंटों यों ही बातें करते रहे थे दोनों. उस के बाद कुछ दिन और रहा था मधुकर वहां. अणिमा हर काम चारु से पूछ कर करती थी. ऐसा कभी नहीं लगा उसे कि चारु का कोई अपमान कर रहा है. शायद भाईभाभी के सुखी दांपत्य को देख कर चारु ईर्ष्या से जलने लगी है. चिर कुंआरेपन की बगिया में उस की सुप्त आकांक्षाएं गृहस्थी का फूल खिलाने का स्वप्न देख रही हैं शायद.

 

अगर ऐसा हो तो चारु क्यों नहीं आ जाती उस के पास? वह तो अब भी प्रतीक्षारत है. जब तक मधुकर वहां रहा चारु खिलीखिली सी रही. बरसों पुराने मधुर क्षण याद आ गए थे उसे. आखिर वह दिन भी आया जब मधुकर को लौटना था. सामान बांधते हुए उस के हाथ चारु के शब्दों से रुक गए थे. ‘‘मत जाओ मधुकर. तुम चले गए तो सुबह की प्रतीक्षा में पूरी रात करवटें बदलती रहूंगी. तुम मेरी दुर्दशा देख तो रहे हो.’’ कुछ देर रुक कर फिर फुसफुसाहट सुनी थी मधुकर ने, ‘इस में मेरा क्या दोष है मधुकर?’ ‘‘गलत समझा है तुम ने चारु. दोषी कोई भी नहीं. दोषी वह घटनाक्रम है जिस ने हमें हर बार नए मोड़ पर खड़ा कर दिया और नदी के 2 किनारों के समान हम आज तक नहीं मिल पाए. जीवन की 2 राहों पर खड़े 2 राही आज तक एकसाथ जीने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं. पर लगता है वह दिन शायद कभी नहीं आएगा.’’

चारु अबोध बालिका की तरह मधुकर का मुंह देख रही थी. मधुकर कहता रहा, ‘‘इन बच्चों को अपने जीवन में व्यस्त देख कर तुम्हें अपने रीतेपन का एहसास हो रहा है. मैं ने तुम्हें तब भी कहा था कि तुम ही अकेली रह जाओगी. आलोक अब बच्चा नहीं रहा जो तुम्हारी उंगली पकड़ कर चलेगा. अपने जीवन के निर्णय लेने में अब वह खुद सक्षम है. पीछे लौटना तो मुश्किल है चारु. सामने अब भी सुनहरी सुबह हमारी प्रतीक्षा कर रही है. तुम्हारी तरह मैं भी बहुत अकेला हूं, चारु.’’ चारु उदास आंखों से उसे निहारती रही थी. फिर बोल उठी थी, ‘‘कहीं तमन्नाओं का बहलाव तो नहीं है यह, मधुकर?’’ ‘‘नहीं चारु, पुराने रिश्तों पर नए संबंधों की मोहर ही तो लगानी है.’’ सहसा चारु को अपनी जीवनसंध्या का एहसास होने लगा था. प्रतिक्षण, प्रतिपल एकदूसरे की बाट जोहते प्रेमी अगर अब भी नहीं मिले तो बहुत देर हो जाएगी. आंसू के दो कतरे चारु की आंखों से टपके तो मधुकर ने उन्हें पोंछ लिया था. फिर अपनी बांहों में भींच कर पूछा था उस ने, ‘‘ये आंसू किसलिए हैं चारु?’’ ‘‘जो पीछे छूट गया. उस के लिए नहीं हैं ये आंसू, मधुकर. आने वाली सुबह की खुशी के हैं ये आंसू. अब मुझे अकेला मत छोड़ना.’’ मधुकर ने अपनी हथेली चारु के होंठों पर रख दी थी. टेसू के दो फूल टपटप गिर रहे थे. उधर आलोक और अणिमा की भी आंखें नम हो गई थीं.

 

#lockdown: बुरे दिन आने वाले हैं 

अच्छे दिन आने वाले हैं… राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी ने वर्ष 2014 के आम चुनाव में यह नारा देकर देश के मतदाताओं को बहकाया था. इस नारेरूपी झूठ के चलते कांग्रेस नेता डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार धराशाई हो गई और भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार सत्तासीन हो गई. झूठ की बुनियाद पर बनी व टिकी मोदी सरकार अपने सर्वाइवल के लिए समय-समय पर झूठ का ही सहारा लेती है.

एक नजर डालते हैं साल 2014 पर. भारत में आम चुनाव होने वाले थे. सभी पार्टियां चुनाव के मैदान में अपनी पूरी ताक़त झोंके हुए थीं. लेकिन इन सबके बीच एक आवाज़ जो सबसे ज़्यादा आ रही थी वह थी, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’. इस नारे का जादू ऐसा चला कि सातवां वर्ष जारी है और इस नारे को देना वाला व्यक्ति दिल्ली के सिंहासन पर बैठा हुआ है. भारत की जनता आज भी उस नारे को व्यावहारिक होते देखने की चाहत लिए इंतजार कर रही है.

भाजपा ने  नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई. देश की जनता को बहुत उम्मीद थी कि मोदी आए हैं तो देश की स्थिति में बदलाव भी आएंगे.लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होने के बाद देश की जनता ने कई तरह के उलट-फेर देखे. जहां मोदी ने नोटबंदी से अपने कार्यकाल का स्टार्टअप किया वहीं जीएसटी के साथ देश के व्यापारियों को स्टैंडअप इंडिया का ‘तोहफ़ा’ दिया. और फिर देखते ही देखते देश की अर्थव्यवस्था ज़मीन में इतनी गहराई तक पहुंच गई कि पिछले 40 वर्षों में इतनी नीचे तक नहीं गिर पाई थी.

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आज कोरोना वायरस से दुनियाभर के देश जूझ रहे हैं वहीं इस बीच विश्व बैंक ने कहा है कि इस संकट से दक्षिण एशिया के आठ देशों की वृद्धि दर सबसे अधिक प्रभावित हो सकती है. इन देशों में भारत शामिल है.भारत और अन्य दक्षिण एशियाई देशों में 40 साल में सबसे ख़राब आर्थिक वृद्धि दर रिकॉर्ड की जा सकती है. इस संबंध में विश्व बैंक ने कोरोना वायरस संकट के बीच 12 अप्रैल को एक रिपोर्ट जारी की है.

विश्व बैंक ने  ‘दक्षिण एशिया की अर्थव्यवस्था पर ताज़ा अनुमान: कोविड-19 का प्रभाव’ रिपोर्ट पेश करते हुए कहा कि भारत समेत दक्षिण एशियाई देशों में 40 वर्षों में सबसे ख़राब आर्थिक विकास दर दर्ज की जा सकती है. दक्षिण एशिया के क्षेत्र, जिनमें आठ देश शामिल हैं, में विश्व बैंक का अनुमान है कि उनकी अर्थव्यवस्था 1.8 फ़ीसदी से लेकर 2.8 फीसदी की दर से बढ़ेगी. छह महीने पहले विश्व बैंक ने 6.3 फीसद वृद्धि दर का अनुमान लगाया था. दक्षिण एशिया में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत के बारे में विश्व बैंक का अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में वहां वृद्धि दर 1.5 फीसदी से लेकर 2.8 फीसदी तक ही रहेगी. हालांकि, विश्व बैंक ने 31 मार्च, 2020 को ख़त्म हुए वित्त वर्ष 2019-2020 में 4.8 से 5 फीसदी की आर्थिक वृद्धि रहने का अनुमान जताया है.

विश्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया, “2019 के अंत में जो हरे निशान के संकेत दिख रहे थे उसे वैश्विक संकट के नकारात्मक प्रभावों ने निगल लिया है.”भारत के अलावा विश्व बैंक ने अनुमान में जताया है कि श्रीलंका, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश की आर्थिक विकास में तेज़ गिरावट दर्ज होगी. तीन अन्य देश – पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और मालदीव में भी मंदी आने का अनुमान है. विश्व बैंक ने 7 अप्रैल तक सभी देशों के डाटा पर यह रिपोर्ट तैयार की है.

कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने के उपायों के कारण पूरे दक्षिण एशिया में सप्लाई चैन प्रभावित हुई है. दक्षिण एशिया में 13,000 के क़रीब मामले सामने आए हैं, जो दुनिया के अन्य भागों के मुक़ाबले में कम हैं. भारत में लॉकडाउन के कारण 1.3 अरब लोग घरों में बंद हैं, लाखों लोग बिना काम के हैं. लॉकडाउन ने बड़े और छोटे कारोबार को प्रभावित किया है. लाखों प्रवासी मज़दूर शहरों से अपने गांवों को लौट चुके हैं.

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बहरहाल, वर्ल्ड बैंक की इस ताजा रिपोर्ट के काफी पहले से राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय कई एजेंसियां भारत की अर्थव्यवस्था के गिरते जाने के प्रति सचेत करती रही हैं. ये एजेंसियां ही नहीं, विपक्षी पार्टी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष व सांसद राहुल गांधी ने भी मोदी सरकार को बार-बार आगाह किया कि देश की आर्थिक नीति में कई दोष हैं. लेकिन ‘मन की बात’ सुनाने वाले प्रधानमंत्री मोदी भला किसी की बात कैसे सुनते.

फिर भी, सरकार ने जो कुछ कदम उठाए हैं वे नाकाफी हैं. फिलहाल देश का आर्थिक भविष्य अंधकारमय है जिसका हर देशवासी पर बुरा असर पड़ना तय है. सो, देश में रहने वाले सभी तैयारी करें, बुरे दिन आने वाले हैं…

टेसू के फूल: भाग 2

थकीहारी चारु के चेहरे पर उस ने कभी भी तनाव की सुर्खी नहीं देखी थी, हमेशा मधुर मुसकान और निस्सीम पुलक के भाव ही देखे थे. उसे लगता, मां के उपदेशों से आहत हो कर चारु कभी भी मां का विरोध क्यों नहीं करती? विरोध न करे, प्रतिकार तो करे. एक दिन चारु को विश्वास में ले कर उस ने पूछा तो चारु के नेत्र सजल हो उठे थे. भर्राए स्वर में बोली थी, ‘हमेशा से मां ऐसी नहीं थीं, मधुकर. इस घर में रह कर मां ने जितना दुलार मुझे दिया है, शायद ही किसी दूसरे को मिला होगा. उन के ऋण से मैं कभी भी मुक्त नहीं हो सकूंगी. ‘कुछ दिनों पहले एक कार दुर्घटना में उन की दोनों टांगें जाती रहीं. उन के शरीर का निचला भाग चेतनाशून्य हो कर रह गया. हंसतीखेलती, चुस्तदुरुस्त गृहिणी का जीवन बिस्तर और डाक्टरों की दवाओं तक आ कर सिमट जाए तो उस की मनोदशा क्या होगी?

‘2 दिनों की बीमारी इंसान को परेशान कर देती है. मां जानती हैं कि यह बीमारी उन्हें आजन्म बरदाश्त करनी है. हीनभावना से ग्रस्त मां का मनोबल तो बढ़ा ही सकती हूं, अगर और कुछ नहीं कर सकती तो …’ वितृष्णा के स्थान पर बेटी की संवेदना को देख कर चकित हो उठा था मधुकर. सहानुभूति का दरिया उमड़ पड़ा था उस के मन में चारु के प्रति. इस सहानुभूति ने कब दोनों के मन में प्रणय का स्थान ले लिया, यह तब जान पाए जब दोनों एकदूसरे के सान्निध्य के लिए तरसते थे. पूरे दिन की शिथिलता एकदूसरे के साहचर्य में पलभर में विलुप्त हो जाती थी. इन मधुर क्षणों को कंजूस के धन की भांति दोनों प्रेमी सहेज कर रखते थे. एक दिन मधुकर ने जब चारु के मातापिता के सामने ब्याह का प्रस्ताव रखा तो इनकार नहीं किया उन्होंने. वे तो स्वयं उस नारकीय वातावरण से अपनी बेटी को निकालना चाह रहे थे. लेकिन चारु परेशान हो उठी. नन्हे भाई और पिता का खयाल उस की खुशियों को तिरोहित कर गया. लेकिन पिता बेटी की खुशियों की चिता पर बेटे का जीवन नहीं संवारना चाहते थे.

इसलिए साधारण सी रस्म के साथ सगाई संपन्न हो गई. उस दिन के बाद मधुकर उस घर का सदस्य ही बन गया. डा. भारती उस का परिचय ज्येष्ठपुत्र के रूप में सब से करवाते थे. कुदरत भी कैसा मजाक करती है कभीकभी. ब्याह की तारीखनिश्चित करवाने जा रहे थे डा. भारती, अचानक हृदयगति रुकने से उन की मृत्यु हो गई. कितना अप्रत्याशित सा था यह सब. ईंट दर ईंट रख कर जिस महल को दोनों प्रेमियों ने सजाया था, पलभर में ही ढह गया. अब तो नैतिक, मौलिक दायित्वों के साथ आर्थिक दायित्वों का निर्वहन भी चारु को ही करना था. सबकुछ तो चुक गया था, पत्नी की बीमारी में डा. भारती का. पति की मृत्यु का दुख ज्यादा समय तक चारु की मां झेल नहीं पाई थीं और उन्होंने भी दम तोड़ दिया. यों तो बिस्तर पर पड़ी मां बेटी को कुछ भी तो नहीं दे पाती थीं, पर कच्चे धागे के समान सहारा तो था, जो टूट गया था. इतनी बड़ी दुनिया में अकेली औरत का रहना कठिन ही नहीं, मुश्किल भी तो था. मधुकर ने चारु को उस के दायित्वों के साथ ही अपनाना चाहा था, ‘तुम्हारे दुखसुख और दायित्व मेरे हैं, चारु. विश्वास करो, पूरापूरा निभाऊंगा इन्हें.’

पर स्वाभिमानी चारु कहां मानने वाली थी. वह बोल पड़ी थी, ‘भावनाओं में बह कर लिया गया निर्णय कभी सही नहीं होता. तुम्हारे एहसानों के बोझ तले आलोक का व्यक्तित्व दब कर रह जाएगा.’ ‘ऐसा तब होता जब आर्थिक रूप से तुम मुझ पर निर्भर होतीं. तुम स्वयं भी तो प्रवक्ता हो.’ ‘हां, लेकिन घर तो तुम्हारा है.’ ‘यदि आलोक मेरा भाई होता तब क्या होता? क्या यों ही छोड़ देता मैं उसे?’ ‘दोनों परिस्थितियां अलगअलग हैं. अपने सुख की खातिर आलोक को अभिशप्त जीवन कैसे जीने दूं?’ मधुकर कुछ नहीं कह पाया था. इतने बड़े वीरान बंगले में दोनों भाईबहन रह गए थे. मधुकर नियमित रूप से वहां जाता. उस का सहारा बरगद की छांव जैसा प्रतीत होता चारु को. कुछ भी तो नहीं कर पाती थी उस की सलाह के बिना. उस वीरान बड़े से बंगले में अकेली चारु पूरा दिन तो कालेज और परिवार का काम निबटाती पर ज्यों ही शाम की लाली क्षितिज पर आने लगती, वह उदास हो जाती थी. नन्ही उम्र के भाई से अपने दुख, परेशानियां बांटती भी तो कैसे? कितनी बार मनोबल और संयम टूटे थे. कई बार वह बिखरी थी. अगर मधुकर की बांहों का सहारा न मिला होता तो कब की टूट चुकी होती. दुख, तकलीफ और परेशानियों को झेलती चारु जब परेशान हो उठती तो मधुकर के सुदृढ़ कंधों पर सिर टिका कर सिसक उठती. अश्रु की अविरल धारा से मन का पूरा विषाद धुल जाता था.

मनोबल टूटता तो सोचती, मधुकर का प्रस्ताव स्वीकार ले, पर तभी आलोक का ध्यान आ जाता. मधुकर की दया कहीं उसे आत्महीनता के आगोश में न समेट ले. कृत्यअकृत्य के चक्रवात में उलझी चारु कभी दुविधा से निकल नहीं पाई. आलोक दिनपरदिन सफलता के शिखर पर चढ़ता गया. दिन बीते, महीने बीते और फिर वर्ष. एक दिन ऐसा आया, जब चारु की मेहनत रंग लाई और आलोक डाक्टर बन गया. बहुत प्रसन्न हुई थी चारु. रोगियों की सेवा करते आलोक को वह मधुकर से परामर्श लेने के लिए कहती. एक बार आय अर्जित करनी शुरू की आलोक ने तो चारु को काम पर नहीं जाने दिया. बरसों से संघर्ष करती चारु खुद भी तो टूट चुकी थी अब तक. जीवन के अवसान की ओर अग्रसर चारु पूर्ण विश्राम की अधिकारिणी थी भी. बस, अब एक और साध रह गई थी उस के मन में, भाई के लिए सुंदर, गुणवान जीवनसंगिनी तलाश करना. हमेशा की तरह मधुकर से उस ने एक बार फिर सहायता मांगी थी. मधुकर उस का महज प्रेमी ही नहीं, मित्र और रहबर भी था. पगपग पर दिशा दी थी उस ने. अब तक के संघर्षपूर्ण जीवन का श्रेय मधुकर को ही तो देती थी वह.

लेकिन इस बार आलोक बहन के इस निर्णय पर बौखला उठा था.

हमेशा दूसरों के लिए सुख का संधान करने वाली बहन को अपना घरसंसार बसाने का अधिकार भाई से पहले था. मधुकर कितने बरसों से प्रतीक्षा कर रहा था. चारु को समझाया था मधुकर ने, ‘यों ही भावनाओं में कब तक बहती रहोगी, चारु? आदर्शों की सलीब पर कब तक टंगी रहोगी? तुम्हारी प्रतीक्षा करतेकरते थक चुका हूं मैं. दिल भी टूट चुका है.’ ‘जीवन में यही सब तो माने रखता है. भावनाओं से अलग तो नहीं रहा जा सकता है. अब तो इन बच्चों के खानेखेलने के दिन हैं. अब क्या इस उम्र में दुलहन का जोड़ा पहनूंगी?’ वह हंस दी थी. ‘तुम्हारे यहां रहने या मेरे पास रहने से इन बच्चों को क्या फर्क पड़ेगा? सुखदुख बांटने को अनेक दोस्त, रिश्तेदार हैं इन के.’ मधुकर ने चारु को समझाया था, पर नहीं मानी वह, शायद पिंजरे में बंद हो कर रहने की आदी हो चुकी थी.

टेसू के फूल: भाग 1

पार्टी के शोरगुल और लोगों की भीड़भाड़ में चारु खुद को बेहद अकेला महसूस कर रही थी. खिलाखिला सा वातावरण भी मन की बोझिल परतों को राहत नहीं दे पा रहा था. बचपन से ही अंतर्मुखी रही है वह. न कभी किसी को आमंत्रण देती और न ही कभी स्वीकार करती थी. आज भी अणिमा की बात तो टाल ही गई पर आलोक की जिद को टाल नहीं पाई थी. तभी तो उस के कहने पर चली आई थी. भीड़ से दूर छिटक कर बाहर छोटी सी बगिया में आ गई थी. बेला और गुलाब के चटकीले रंगों और महकती सुरभि के बीच छोटीछोटी रंगीन कुरसियां पड़ी थीं, फुहारों से पानी झर रहा था. बीच में छोटा सा जलाशय था.

काफी देर तक जल की लहरों को गिनती रही थी. अचानक आलोक की आवाज ने उसे चौंका दिया था, ‘‘दीदी, देखो तो कौन आया है.’’ ‘‘मधुकर?’’ शब्द गले में ही घुट कर रह गए. नितांत अजनबी जगह में किसी आत्मीय जन का होना मरुस्थल में झील के समान ही लगा था उसे. मंद हास्य से युक्त उस प्रभावशाली व्यक्तित्व को काफी देर तक निहारती रही थी. तभी तो नमस्कार के बदले नमस्कार कहना भी भूल गई थी. देख रही थी, कुछ तो नहीं बदला इस अंतराल में. वही गौर वर्ण, उन्नत नासिका और घुंघराले बाल. हां, कहींकहीं बालों में छिटकी सफेदी उम्र का एहसास अवश्य करा दे रही थी. ‘‘कैसी हो, चारु?’’ वही पुराना संबोधन कैसा अपना सा लगा था उसे. ‘‘अच्छी ही हूं. आप कैसे हैं?’’ इतने बरसों बाद मात्र औपचारिक से प्रश्नोत्तर ही रह गए थे अब दोनों के बीच. ‘‘क्या कर रहे हैं आजकल?’’ ‘‘अपना नर्सिंगहोम है. सुबह से शाम तक मरीजों से घिरा रहता हूं. यों समझ लो दिन कट जाता है.’’ मधुकर के चेहरे पर घिर आई मधुर मुसकान में चारु ने कुछ ढूंढ़ने का प्रयत्न किया. मन में बहुत कुछ उमड़नेघुमड़ने लगा था, ‘मरीजों के अतिरिक्त समय बिताने के लिए आप के पास सुंदर पत्नी होगी, भरापूरा परिवार होगा.’ ‘‘चलो, अंदर चलें. बाहर ठंड है,’’ अपना हाथ उन्होंने चारु के कंधे पर टिका दिया. मनचाहे व्यक्ति का स्पर्श कितना हृदयस्पर्शी, सुखदायी है.

कनखियों से निहारा था उस ने मधुकर को. मधुकर के प्रश्न से एक बार फिर चौंकी थी, ‘‘आलोक की पत्नी कैसी है? खूब सेवा करती होगी तुम्हारी?’’ वह प्रश्न कम था, उस पर किया गया कटाक्ष अधिक, यह अच्छी तरह समझ रही थी चारु. आलोक के ब्याह से पूर्व जब मधुकर ने उसे ब्याह के बंधन में बांधना चाहा था और उस का नकारात्मक उत्तर सुन कर समझाया भी था, ‘वे सब अपनेअपने जीवन में व्यस्त हो जाएंगे, सिर्फ तुम ही अकेली रह जाओगी, चारु.’ सच ही कहा था मधुकर ने. अगर उस का प्रस्ताव तब ठुकराया न होता तो इस घुटनभरी जिंदगी से मुक्ति तो मिल गई होती. तब परिपक्व और व्यावहारिक बुद्धि वाली चारु को लगा था कि मधुकर स्वप्नजीवी है. मगर आज महसूस कर रही थी कि मधुकर तो ठोस धरातल पर ही खड़ा था.

उसी ने अपने चारों ओर कर्तव्यनिष्ठा की ऐसी सीमारेखा बांध ली थी जिसे तोड़ना तो दूर, लांघना भी नामुमकिन था. डर रही थी कुछ दिन पहले जो फफोला अंतर में फूटा था, कहीं अपने अंतरंग साथी को देख कर उस का मवाद न रिस जाए. अंदर कमरे में बैठ कर मधुकर की उपस्थिति में वह सहज नहीं हो पा रही थी. अनचाहे ही वह पूछ बैठी, ‘‘आप कहां रह रहे हैं?’’ ‘‘यहीं, होटल हिलटौप में.’’ मधुकर सोच रहा था, ‘हमेशा की तरह होटल में रहने के लिए टोकेगी.’ पर ऐसा कुछ नहीं हुआ तो खुद ही पूछ लिया उस ने, ‘‘घर आने के लिए नहीं कहोगी, चारु?’’ ‘‘घर? किस का घर? मेरा कोई घर नहीं है,’’ आह भरी थी चारु ने. ‘‘ऐसा क्यों कह रही हो?’’ ‘‘सच कह रही हूं. जिस घर को सजायासंवारा, अपने स्नेह से सींचा, अब वहां मुझे अपनी स्थिति अनावश्यक और निरर्थक लगती है. विश्वास न हो तो खुद आ कर देखो, कैसे बेगानों की तरह रह रही हूं. ऐसे, जैसे कोई किराए के मकान में रहता है.’’ इतने दिनों का संयम खुद टूटने लगा था.

इस से ज्यादा न मधुकर ने कुछ पूछा न ही चारु ने कुछ कहा. लोगों की भीड़ में चारु आलोक को ढूंढ़ने लगी थी. घर लौटना चाह रही थी अब. तभी उसे आलोक और अणिमा आते हुए दिखे. बंगले से बाहर निकल कर आलोेक ने मधुकर को निमंत्रण दिया था लेकिन चारु फिर भी चुप रही थी. आखिर दूसरे दिन आने का वादा कर के मधुकर होटल लौट आया. बिस्तर पर लेटेलेटे मधुकर बाहर फैले अंधकार को ताकता रहा था. जितनी बार आंखें बंद करने का प्रयास करता, चारु का उदास चेहरा और बोझिल पलकें उस के सामने आ जातीं. वह सोचने लगा, इतनी उदास तो वह तब भी नहीं दिखती थी जब टूटतेबिखरते घर को संवारने में संघर्षरत रही थी. बरसों पुराना विगत धुलपुंछ कर उस के सामने आ गया था. अतीत के गर्भ में बसी उन भूलीबिसरी यादों को भुला पाना इतना सहज नहीं था. फिर उन रिश्तों को कैसे भुलाया या झुठलाया जाए जो उस के जीवन से गहरे जुडे़ थे. अपने त्याग और खुशियों की आधारशिला पर तो चारु ने आलोक के भविष्य का निर्माण किया था. आज वही आलोक उस के साथ दुर्व्यवहार करता होगा? विश्वास नहीं हुआ था उसे.

उस ने भी तो आलोक को बचपन से देखापरखा है, फिर मनमुटाव की यह स्थिति क्यों उपजी? यादों के साए और भी गहराने लगे थे. उन दिनों वह उस शहर में नयानया आया था. चारु और उस के परिवार से उस का परिचय तब हुआ था जब वह उस की बीमार, अपाहिज मां का इलाज करने अकसर उस के घर जाया करता था. 4 लोगों का परिवार था उस का. पिता डा. भारती, उन की अपाहिज पत्नी, भाई आलोक और स्वयं चारु. बिस्तर पर लेटी चारु की मां शांत, निश्चेष्ट सी पड़ी छत को टुकुरटुकुर निहारती रहतीं. जब कभी पीड़ा सघन हो जाती तो वे जोरजोर से चीत्कार कर उठतीं. मां की सेवाशुश्रूषा में डूबी चारु कभी पिता का संबल बनती, कभी मां का मनोबल बढ़ाती तो कभी स्नेह का लेप लगा कर नन्हे भाई को ममता का कवच पहनाती. वैसे तो पत्नी की सेवा के लिए डा. भारती ने कई बार नर्स नियुक्त की थी, लेकिन सड़न से भरे हुए उस कमरे में रोगिणी की शंकित और कातर निगाहों का सामना करने का साहस किसी भी परिचारिका में नहीं था. तब कालेज की पढ़ाई के साथसाथ मां की देखरेख भी चारु की दिनचर्या का अंग बन गई थी.

लॉकडाउन नें सब्जी उत्पादक किसानों की बढ़ा दी मुसीबत खेतों में सड़ रहीं सब्जियां

कोरोना वायरस के चलते लगाये गए लॉकडाउन ने सभी को प्रभावित किया है. लेकिन जिसके कंधे पर घरों में बैठे लोगों के पेट भरने का दारोमदार है उनकी सरकार से छूट मिलनें के बाद भी हालत खराब होती जा रही है. इसमें जिन पर सबसे ज्यादा असर पड़ रहा है वह हैं सब्जी किसान. चूँकि तैयार सब्जियों को ज्यादा दिन स्टोर कर नहीं रखा जा सकता है ऐसे में मांग घटने के चलते इन सब्जी किसानों तैयार फसल खेतों में ही सड़ जा रही है ऐसे में किसानों की हालत माली रूप से ख़राब होती जा रही है.

ट्रांसपोर्ट वाहनों की धरपकड़ बन बड़ा कारण

लॉक डाउन नें रोड पर चलनें के लिए कई तरह के वाहनों पर रोक लगा रखा है इस असर ट्रांसपोर्ट के वाहनों पर भी पड़ा है. ट्रांसपोर्टर वाहन जब्त किये जाने के डर के चलते अपने वाहन बहार नहीं निकाल पा रहें हैं जिससे यूपी और मध्यप्रदेश में एक से दूसरे जिलों के मंडियों में सब्जियों की आवाजाही कम हो गई है. जो किसान अपने वाहनों से सब्जियां लेकर मंडियों में पहुंचा रहें हैं वह भी लॉकडाउन के चलते बाहर नहीं जा पा रही हैं. जिससे किसानों को भारी नुकसान का सामना करना पड़ रहा है.

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तय कीमतों से भी कम रेट पर बिक रहीं है सब्जियां

सरकारों ने लॉक डाउन के चलते जमाखोरी और कालाबाजारी पर रोक लगाने के लिए आवश्यक खाद्य वस्तुओं और सब्जियों के फुटकर व थोक रेट तय कर रखें हैं. जिससे कोई भी दुकानदार सरकार द्वारा तय किये गए इस रेट से ज्यादा ज्यादा मूल्य नहीं ले सकता है. लेकिन सब्जी के मामले में यह एकदम उलट हो गया है. यह सब्जियां सरकार द्वारा तय मूल्य से भी कम दाम पर बिक रहीं हैं. जिन किसानों नें सब्जियों की खेती कर रखी है मांग कम होने के चलते उनकी तैयार फसल खेतों में सड़ जा रही है. ऐसे में सब्जी किसान अपने तैयार फसल को औनें पौने दाम पर बेंचने की मजबूर हो रहें है. कई किसान उत्पादन ज्यादा होने और मांग कम होने के चलते अपनी तैयार सब्जियां तोड़ कर फेंक दे रहें हैं या फ्री में बाँट रहें हैं. ऐसे में खेती में लगाई गई उनकी लागत तक निकालना मुश्किल हो गया है.

बस्ती जनपद के ब्लौक बहादुरपुर के गाँव नारायणपुर के 24 वर्षीय युवा किसान अनुराग पाण्डेय नें बताया की उन्होंने लौकी, खीरा, नेनुआ, कद्दू, प्याज की फसलें ले रखीं हैं. जिससे हर दो दिन पर चार से पांच कुंतल की उपज मिल रही हैं. लेकिन आवाजाही पर रोक लगनें के चलते मंडियों तक पहुंचनें में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. कई बार तो पुलिस वाले अभद्रता से पेश आने लगते हैं. ऐसे में जो फसल खेत से लोकल आढ़ती खरीद कर ले जा रहें वह बेहद ही कम मूल्य पर खरीद रहें है. ऐसे में फुटकर में भी यह सब्जियां कम रेट पर ही बिक रहीं हैं.

 

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अनुराग नें बताया की उनके खेतों में जो सब्जियां तैयार हैं उसका 10 प्रतिशत भी नहीं बिक पा रहा है. ऐसे में लागत निकालना तक मुश्किल हो गया है. इसी गाँव के रहने वाले कौशलेन्द्र पाण्डेय नें भी केला, शिमला मिर्च, लौकी, खीरा, कद्दू, नेनुआ और तोरई की फसल ले रखी है. लेकिन खेतों में तैयार होने वाली फसल का मुश्किल से 10-15 प्रतिशत ही बिक पा रहा है बाकी फसल वह या तो फ्री में बाँट दे रहें हैं यह खेतों में ही खराब हो जा रही है.

स्थानीय प्रशासन को उठानें होंगें उचित कदम
लॉक डाउन के और आगे खिसकनें के आशंकाओं के बीच सब्जियों की खेती से जुड़े किसानों का कहना है की जब किसानों को कृषि कार्यों में लॉक डाउन के बीच आने जाने में सहूलियत दिए जाने की घोषणा की गई है. तो जिलों के स्थानीय प्रशासन को भी उस सहूलियत को दिए जाने में आगे आना चाहिए इसके लिए प्रशासन को सब्जियों की ढुलाई में लगे ट्रांसपोर्ट वाहनों के एक जिले से दूसरे जिलों में आवाजाही में छूट दिए जाने की जरूरत है. नहीं तो किसान सब्जियों में घाटे के चलते खेती से किनारा कर सकतें है. जिससे लोगों के सब्जियों की रोजमर्रा के जरूरतों पर भी असर पड़ सकता है.

#lockdown: पैसे की खातिर, दो भाईयों का मर्डर  

छत्तीसगढ़ के सरगुजा मे,कोरोना विषाणु  महामारी के समय काल में, एक ऐसा जघन्य अपराध घटित हुआ, जिसने संपूर्ण छत्तीसगढ़ को उद्वेलित कर दिया. दरअसल, हुआ यह कि इस सनसनीखेज अपराध में दो भाइयों की हत्या करके, घर में दफन करने का अपराध कारित हुआ.इस हाई प्रोफाइल मर्डर मे पुलिस ने अंततः सफलता प्राप्त करके आरोपियों को जेल के सींखचों  में डालने में सफलता  प्राप्त की. घटनाक्रम कुछ ऐसा था –  सुनील अग्रवाल औ उसका चचेरा भाई सौरभ अग्रवाल दोनों को आरोपी ने अपने घर पर बुलाया और खूब शराब पिलाई और गोली मारकर हत्या करने के पश्चात अपने ही घर में दफन कर दिया. पुलिस ने  लाश  घर से बरामद कर ली. हमारे  संवाददाता के अनुसार  दोनों में एक की गोली मारकर और  दूसरे की चाकू से गोदकर हत्या की  गई.

दोनों भाई अंबिकापुर शहर के बड़े कारोबारी थे. उनके घर से महज  30 मीटर दूर पर ही दोनों की हत्या की गई .पुलिस की पूछताछ में जानकारी सामने आई  उसके मुताबिक “जर जोरू व जमीन”  जैसे उस पुराने  फलसफे की सच्चाई साबित  हो गई. “जर”अर्थात   पैसे के लेनदेन में दोनों भाई की हत्या हुई , सुनील अग्रवाल और सौरभ अग्रवाल

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का एक पड़ोसी था, जिससे कुछ महीने पहले एक मकान इन कारोबारियों ने खरीदा था. लेकिन इसी मामले को लेकर उनमें पैसों का विवाद शुरू हो गया था. विवाद के बाबजूद इन कारोबारियों का अपने उस मित्रवत  पड़ोसी के घर आना जाना बना हुआ था .

“कोरोना- काल” मे  हत्या 

हत्याकांड का समय बेहद अहम है. देश में चल रहे लॉक डाउन के समय यह हत्या हुई,देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 21 दिनों का लाक डाउन घोषित किया हुआ था इसी दरमियान 4अप्रैल को इस हत्याकांड की पृष्ठभूमि तैयार की गई . यहां तक कि अपने घर में 6 फीट का गड्ढा भी खोद कर तैयार कर लिया और फिर अपने घर शराब पीने दोनों को बुलाया. .योजना  के मुताबिक 10 अप्रैल शाम को कथित आरोपी  ने दोनों कारोबारी को अपने घर पर बुलाया, जहां सभी ने शराब पी, फिर खाना खाया. इसके बाद वही दोनों कारोबारी की हत्या कर दी गयी. और घर में ही शव को दफना दिया. संदेह के आधार पर पुलिस ने पड़ोसी की हिरासत में लिया तो पूरी वारदात का खुलासा हुआ.

शुक्रवार 10 अप्रेल  को देर शाम क़रीब आठ बजे के बाद से दोनों लापता थे. जिनकी पतासाजी के लिए तीन टीमें बनाई गई थी.संदिग्ध परिस्थितियों में लापता यह दोनों व्यवसायी जिस इनोवा में निकले थे, वह लावारिस हालत में ही शहर के आकाशवाणी चौक के पास रात में ही बरामद हो चुकी थी, जिसके बाद अनहोनी की आशंका गहरा गयी थी.

दोनों की लाश गड्ढे मे …

छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर के ब्रम्हरोड निवासी व्यवसायी सौरभ अग्रवाल 27 वर्ष व सुनील अग्रवाल 40 वर्ष चचेरे भाई थे. दोनों अचानक गायब हो गए . उनका मोबाइल स्वीच ऑफ था. दूसरे दिन 11 अप्रैल  शनिवार 2020 को परिजनों की सूचना पर पुलिस उनकी खोजबीन में जुट गई. पुलिस ने उस क्षेत्र के सीसीटीवी फुटेज चेक किया तो एक कार से निकल रहे युवक की पहचान सिद्धार्थ यादव के रूप में हुई. पुलिस ने जब उसे हिरासत में लेकर पूछताछ की तो उसने ब्रम्हरोड निवासी दोनों व्यवसायी के पड़ोसी आकाश गुप्ता का नाम बताया. जब पुलिस ने आकाश गुप्ता को गिरफ्त में लेकर  पूछताछ की तो उसने 10 अप्रैल की रात ही हत्या करने की बात क़ुबूल  कर ली। आकाश व उसके कथित ड्राइवर सिद्धार्थ यादव ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. हत्या करने के बाद दोनों की लाश आकाश के घर के पीछे पूर्व प्लान के अनुसार खोदे गए गड्ढे में गाड़ दिया.

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यह तथ्य भी उजागर हुआ की व्यवसायी सौरभ अग्रवाल ने मुख्य आरोपी आकाश गुप्ता का 6 माह पहले मकान  खरीदा था. आकाश ने पूरे रुपए भी ले लिए थे.6 महीने में मकान खाली करने की बात तय हुई थी. 6 महीने पूरे होने पर सौरभ ने मकान खाली करने कहा, इस बात को लेकर कुछ दिन पूर्व दोनों के बीच कहासुनी हुई थी .

विवाद के बाद भी सौरभ व उसके चचेरे भाई सुनील अग्रवाल का आकाश के घर आना-जाना था. वे साथ में बैठकर कैरम भी खेलते थे.विवाद की रंजिश व अपनी प्रोपर्टी बचाने आकाश ने उनकी हत्या का प्लान बना लिया. हत्या के बाद शव को ठिकाने लगाने घटना के 6 दिन पहले से ही अपने घर के पीछे  गड्ढा खोदना शुरु कर दिया था.इसमें  कथित ड्राइवर सिद्धार्थ यादव ने सहयोग किया. कुल जमा कोरोना  महामारी के इस आपाधापी के समय में भी रुपयों के लालच में हत्या जैसा जघन्य अपराध हो गया.और पुलिस ने तत्परता के साथ आरोपियों को धर दबोचा. आरोपियों पर धारा 302, 201 भादवि  के तहत मामला दर्ज कर उन्हें न्यायालय में प्रस्तुत किया गया,जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया.

कोरोना संकट में भी जारी है मोदी का इमेज बिल्डिंग अभियान

मलेरिया की दवा निर्यात के बहाने इमेज मेकिंग

एक तरफ देश की जनता कोरोना वायरस के संकट से जूझ रही है. देश मे बेकारी, बीमारी, भुखमरी और बेरोजगारी बढ़ रही है. कल कारखाने बन्द हो गए है. रोजीरोजगार ना मिलने से मजदूरों का पलायन शुरू हो गया है. लंबे लंबे लॉक डाउन से घरो में आपसी तनाव बढ़ रहा है. देश के ऐसे हालत हो गए है कि विकास की नजर में हम सालोसाल पीछे हो गए है. इस माहौल में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की “इमेज मेकिंग” पर काम करने वाला तंत्र उनको विश्व गुरु बनाने में लगा है. इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि दूसरे देशों के मुकाबले भारत मे कोरोना से कम नुकसान हो रहा है.

समय पर नही हुआ लॉक डाउन का फैसला

मोदी की इमेज मेकिंग के लिए काम करने वाले लोग यह नहीं बता रहे कि लॉक डाउन का फैसला भारत मे इतनी देर से क्यों हुआ? भारत मे जनवरी माह में कोरोना का पहला केस आया था. जनवरी फरवरी में ही लोक डाउन पर फैसला ले लिए गया होता तो देश मे इतना लंबा लॉक डाउन करने की हालत नही बनती. यह फैसला लेने में केंद्र सरकार ने इतनी देरी क्यो की ? क्या इसकी वजह अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प का भारत दौरा था ? अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत दौरे में भारत सरकार इतना भाव विभोर हो गई थी कि उसे कोरोना का कोई डर दिखाई ही नही दे रहा था.

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अमेरिकी राष्ट्रपति के दौरे के बाद भारतीय जनता पार्टी का फोकस मध्य प्रदेश में कॉंग्रेस सरकार को गिरा कर अपनी सरकार बनाने का था. लॉक डाउन की आहट को तब तक रोका गया जब तक मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह ने कुर्सी नहीं संभाल लिया था. उस समय तक वँहा सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान नही दिया गया. सवाल यह उठ रहा है कि क्या राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए लॉक डाउन को तब तक टाला गया जब तक मध्य प्रदेश में सत्ता का स्थानांतरण नही हो गया ?

अमेरिकी राष्ट्रपति के दौरे और मध्य प्रदेश सरकार के गठन तक केंद्र सरकार को कोरोना का खतरा क्यो नजर नही आया ? मार्च माह तक कोरोना का ख़ौफ़ दुनिया मे दिखने लगा था. भारत मे विपक्षी दल के नेता यह मांग करने लगे थे कि कोरोना से निपटने के लिये सरकार कड़े कदम उठाए ? अगर सरकार ने उस समय अपने एयर पोर्ट को लॉक कर दिया होता तो कोरोना का किसी तरह का खतरा यँहा नही होता. विश्व के तमाम देशों ने यह फॉर्मूला अपनाया और आज वह ना केवल कोरोना के संकट से बचे है बल्कि उनके यहाँ इस तरह के हालत नही फैले है.

लॉक डाउन के साथ नही हुए बेहतर प्रबंध

भारत सरकार ने कोरोना संकट से निपटने के दौरान कोई ऐसा अच्छा इंतजाम नहीं किया जिससे शहरों में रहने वाले लोग आराम से अपने घर तक पहुंच सके. केंद्र सरकार ने अचानक लॉक डाउन की घोषणा कर दी जिससे जो जहां था वहीं फस गया. बेरोजगारी के बढ़ते संकट को देखते हुए शहरों में रहने वाले लोग अपने गांव और घर की तरफ पलायन करने को मजबूर हो गए. केंद्र सरकार ने अगर सही समय पर सही तरीके से आवागमन का साधन उपलब्ध कराती है तो शहरों से गांव की तरफ पलायन करने वाले लोग इस तरह भूखे प्यासे पैदल, धक्के खा कर गांव घर नही पहुचते.

मजेदार बात यह है कि किसी को इन सवालों को उठाने का समय नही है. सोशल मीडिया पर ऐसे सवाल करने वालो को मोदी भक्त घेर लेते है. मीडिया का एक बड़ा हिस्सा “गोदी मीडिया” बन चुका है. देश के लोगो को यह बातया जा रहा है कि दुनिया मे मोदी अकेले ऐसे नेता है जो कोरोना वायरस से निपट रहे है. लॉक डाउन फेल होने के पहले फेल होने के कारणों का ठीकरा फोड़ने के लिये दूसरे लोगो के कंधों को तैयार कर लिया गया.

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दिल्ली से उत्तर प्रदेश आने वाले मजदूरों का जब बड़ा हुजूम दिल्ली उत्तर प्रदेश के बॉर्डर पर इकट्ठा होने लगा तब उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बात का ठीकरा दिल्ली सरकार के ऊपर फोड़ने की कोशिश की, जबकि उत्तर प्रदेश सरकार ने पहले यह प्रबंध किया था की दिल्ली के मजदूरों को उत्तर प्रदेश बिहार उत्तराखंड और दूसरे प्रदेशों में पहुंचाने के लिए बस की सुविधा दी जाएगी. अगर समय पर दिल्ली उत्तर प्रदेश बॉर्डर पर बस की सुविधा उपलब्ध होती तो मजदूरों को पैदल और प्राइवेट साधनों से अपने घरों की तरफ जाने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता . यह जिम्मेदारी केंद्र सरकार की थी की लॉक डाउन से पहले वह ऐसे इंतजाम कर लेती जिससे बाहर फंसे हुए लोग सकुशल अपने घर वापस हो जाते . अगर ऐसा प्रबंध हो जाता तो लोग आराम से अपने घर पहुंच जाते और उनमें कोरोना बीमारी का कोई खतरा भी नहीं रहता .

केंद्र सरकार ने कोरोना संकट से निपटने के लिए जो बेहतर प्रबंध करनी चाहिए थे वह नहीं कर पाई . इसके साथ ही साथ विभिन्न प्रदेशों के साथ केंद्र सरकार का जो समन्वय होना चाहिए था  वह भी नहीं हो पाया . देश में कुछ प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं है ऐसे में केंद्र सरकार को विपक्षी सरकारों के साथ बेहतर तालमेल करके कोरोना संकट से निपटने का प्रबंध करना चाहिए था यह केंद्र सरकार का असफलता है की विपक्षी सरकारों के साथ उसका बेहतर तालमेल नहीं हो सका ऐसे में हर सरकार अपने अपने तरीके से कोरोना संकट से निपटने के प्रयास कर रही थी.

विश्व गुरु बनने की चाहत

प्रचार तंत्र के सहारे अब इस बात को बताने का प्रयास किया जा रहा है कि पूरे विश्व में भारत की ऐसा देश है जो कोरोना से बेहतर अंदाज में लड़ाई लड़ रहा है. सच्चाई है कि भारत में अस्पतालों की बेहतर व्यवस्था नहीं है. यहां पर अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टरों और बाकी स्टाफ के पास किसी तरह की अच्छी व्यवस्था नहीं है. अस्पताल कर्मचारियों  के पास कोरोना से दूर रहने के उपाय  जैसे अच्छे किस्म के मास्क, ग्लब्स, सेनेटाइजर, और पीपी  ड्रेस नहीं है जिसे पहनकर कोरोना का इलाज किया जा सके. इस संकट से निपटने के लिए लखनऊ मेडिकल कॉलेज ने अपने कर्मचारियों के वेतन कटौती करके यह सामान खरीदने का प्रस्ताव पास किया था. मामला सोशल मीडिया पर आने के बाद सरकार की चारो तरफ आलोचना होने लगी. इसके बाद उतर प्रदेश सरकार में यँहा के कर्मचारियों की मदद करने की बात कही और इलाज के लिए जरूरी सामान उपलब्ध कराया. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के एक और अस्पताल बलरामपुर  अस्पताल में कर्मचारियों ने सही व्यवस्था ना होने के कारण आपत्ति जताई और अस्पताल मैनेजमैंट का घेराव करने की चेतावनी भी दी थी.

इस तरह की हालत केवल लखनऊ के अस्पतालों की नहीं है दूरदराज और दूसरे प्रदेशों के अस्पतालों की भी हालत इसी तरीके की है ऐसे में जो सरकार अपने अस्पताल और अस्पताल में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए बेहतर व्यवस्था नहीं कर पा रही है वहीं सरकार विदेशों में मदद करने के नाम पर अपनी इमेज बिल्डिंग कर रही है.

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“गोदी मीडिया” में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मेडिकल डिप्लोमेसी’ को लेकर बहुत चर्चा की जा रही है. इसमें बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया के दूसरे देशों में कोरोना से निपटने के लिए मलेरिया की दवा भिजवाने का प्रबंध किया है इस प्रबंध की वजह से नरेंद्र मोदी विश्व के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे हैं और जिन देशों को कोरोना संकट से निपटने के लिए मलेरिया की दवा भेजी जा रही है वह देश आने वाले समय में भारत के सच्चे मित्र होंगे . मलेरिया की दवा को लेकर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बातचीत को भी देखने की जरूरत है. इस बात में भी विवाद है कि भारत ने अमेरिका को मलेरिया की जो दवा सप्लाई की है वह भारत को अमेरिका के दबाव में करना पड़ा है.

मुद्दों से ध्यान भटकाने का प्रयास

इस समय देश को सबसे बड़ी जरूरत है कि करोना संकट के साथ-साथ देश बेरोजगारी, बेकारी और भुखमरी के संकट से बाहर आ सके. लॉक डाउन में ऐसा प्रबंध होना चहिए की  जनता के काम चलते रहे और लॉक डाउन इतिहातो का पालन भी किया जा सके. लॉक डाउन जिस तरह से बढ़ेगा दूसरी तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा. जिसकी शुरुआत लॉक डाउन में पुलिस और जनता के बीच आपसी तनाव के रूप में देखने को मिल रहा है. कोरोना संकट के नाम पर पुलिस की निरंकुश व्यवस्था सामने आ रही है.

केवल यही नही कोरोना से निपटने में लगे लोगो को सम्मान देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील पर पहले ताली और थाली बजाना और बाद में कैंडिल और दिए कि रोशनी करने की बातों को भी जनता ने कोरोना भगाने से जोड़ लिया. किसी भी देश के लिए यह सोच समझने वाली है कि देश ताली, थाली और कैंडल जला कर इस कोरोना जैसी महामारी का मुकाबला कर रहा है. लोगो को जरूरी सूचनाएं देने की जगह पर रामायण, महाभारत और चाणक्य जैसे टीवी सीरियल दिखाए जा रहे है जिससे लोग जीवन और मृत्यु के लिए व्यवस्था को नही अपने कर्मो को जिम्मेदार माने. राजा के हर आदेश को भगवान का आदेश मॉन कर स्वीकार करें. असल मे सरकार के इन फैसलों पर चर्चा करने की जगह पर इस बात पर चर्चा हो रही है कि जब पूरे विश्व के नेता कोरोना संकट में बेबस हो रहे थे तब भारत के प्रधानमंत्री उससे लड़ने के प्रबंध कर रहे थे बल्कि पूरे विश्व की मदद भी कर रहे थे.

लॉक डाउन में जी उठी यमुना

जो काम करोड़ों रुपया खर्च करके ना हो पाया वो काम मात्र इक्कीस दिन के लॉक डाउन ने कर दिया. दिल्ली में यमुना जी उठी है. यमुना फिर से साँसे ले रही है. फिर से नीली दिख रही है. इसमें मछलियां अटखेलियां करती नज़र आ रही हैं.

यमुना को साफ़ करने के लिए केंद्र और दिल्ली सरकार ने बड़ी मशक्क़तें कीं, इसकी सफाई के लिए करोड़ों का बजट फूंक दिया, मगर कोई सकारात्मक परिणाम कभी नहीं निकला, लेकिन 21 दिन के लॉक डाउन में यमुना ने खुद अपने को साफ़ कर लिया. इक्कीस दिन के बंद में ना तो यमुना में औद्योगिक कचरा गिरा, ना लोग अपना मैल धोने यहाँ आये और ना पूजा पाठ, पुष्प-दिया प्रवाह इसमें हुआ. शव दाह, अस्थि या मूर्ती विसर्जन जैसे उपक्रम भी इसके घाटों पर नहीं हुए. नतीजा यमुना खुश हो कर अपने अति पुराने सुन्दर नीले रूप में निखार आई. यमुना के इस बदलाव को विशेषज्ञों के स्तर पर काफी गंभीरता से लिया जा रहा है. लॉक डाउन ने यमुना ही नहीं देश की बाकी नदियों को भी जीवनदान दिया है. गंगा, गोमती, ब्रह्मपुत्र आदि तमाम नदियों का जल अपना रंग बदल कर स्वच्छ नीला नज़र आने लगा है. इनमे जलीय जीवों की तादात बढ़ती दिख रही है.

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गौरतलब है कि दिल्ली में यमुना को साफ़ करने के लिए सरकारी योजनाएं सन 1975 से बन-बिगड़ रही थीं. इन योजनाओं का आज तक कोई परिणाम नहीं निकला. इन योजनाओं पर करोड़ों-अरबों रूपए स्वाहा हो चुके हैं. वर्ष 2011 मई में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने दिल्ली सरकार से यमुना उद्धार कि रिपोर्ट भी मांगी थी मगर तत्कालीन सरकार कोई उत्साहवर्धक रिपोर्ट पेश नहीं कर पाई. सरकार द्वारा दिल्ली के 22 किलोमीटर हिस्से की यमुना नदी की सफाई के लिए पिछले दशक में 2000 करोड़ रूपए से ज़्यादा व्यय हो चुके हैं, परन्तु यमुना में जस की तस गंदी बनी रही. सारा धन नेताओं और सरकारी अधिकरियों की जेबों में चला गया. गन्दगी, गाद और ऑक्सीजन की भयंकर कमी ने यमुना की मछलियों का जीवन भी दुश्वार कर दिया. बीते कई सालों से यमुना में मछलियों का टोटा पड़ गया था.

यमुना को शुद्ध करने के लिए बाकायदा ‘यमुना बचाओ आन्दोलन’ चला. इस आंदोलन में  भारतीय किसान संघ ने अग्रणीय भूमिका निभाई. प्रयाग से दिल्ली तक यमुना-भक्तों ने पद यात्राएं कीं, जंतर मंतर पर हज़ारों लोगों ने एकत्रित होकर अपना मत सरकार के सामने रखा.उधर बृज की गली-गली में घूम कर आंदोलनकारियों ने यमुना को बचाने के लिए भजन-कीर्तन के जरिये चेतना जाग्रत करने की कोशिश की कि लोग किसी तरह नदियों में अपने घर का कूड़ा-कचरा, पूजा सामग्री इत्यादि प्रवाहित करने से तौबा कर लें, लेकिन सारा प्रयास विफल रहा. ना लोग सुधरे, ना सरकार का कोई जतन काम आया.

‘यमुना बचाओ आंदोलन’ से लम्बे समय तक जुड़े रहे सोशल एक्टिविस्ट एन.एन. मिश्रा कहते हैं, ‘यमुना में घरेलू कूड़ा-करकट से इतना प्रदूषण नहीं होता, जितना इसके घाटों पर पूजापाठ करने वाले, फूल और पूजा सामग्री प्रवाहित करने वाले, प्लास्टिक की थैलियों में गंद फेकने वाले, मरे हुए जानवरों और इंसानों के शवों को यमुना जी में बहाने वाले,  रोजाना इसके घाटों पर अपने गंदे कपडे धोने वाले लोग यमुना को गंदा करते हैं और इससे भी ज़्यादा प्रदूषण औद्योगिक मिलों द्वारा पैदा किया जाता है, जो रोज़ाना लाखों लीटर औद्योगिक कचरा इसमें उंडेलती हैं. इसी के साथ स्लॉटर हाउसेस से निकला रक्त, रसायन, गन्दगी सब यमुना में गिरती है. लेकिन लॉक डाउन ने तीन हफ़्तों से इन सब पर रोक लगा रखी है, लिहाज़ा यमुना साफ़ हो गई है. लॉकडाउन ने दिल्ली की मृतप्राय यमुना को नया जीवन दे दिया है. 1990 के बाद यमुना अब इस रूप में दिख रही है. दूसरी तरफ यमुना किनारे बसी झुग्गियों में रहने वाले लोग अपने घर चले गए है. अधिकाँश लोग अपने गाँव की ओर पलायन कर गए हैं. इस कारण वहां की गंदगी भी यमुना में कम जा रही है. फैक्ट्रियों का गंदा और रंगीन पानी यमुना में नहीं गिर रहा है, यमुना की स्वछता का एक बड़ा कारण यही है.’

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उल्लेखनीय है कि यमुना की नई रंगत देख कर यमुना निगरानी समिति की ओर से केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को इस पर अध्ययन कर एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया है ताकि यह बदलाव भविष्य में भी यमुना में सुधार का आधार बन सके. यमुना से जुड़ी योजनाएं भी इसी रिपोर्ट को आधार बनाकर तैयार की जाएंगी. इसी निर्देश के मद्देनजर सीपीसीबी की एक टीम ने विभिन्न स्थानों से राजधानी में यमुना के पानी के नमूने भी उठाए हैं. संभावना जताई जा रही है कि यमुना के इस बदलाव पर प्राथमिक रिपोर्ट जल्दी जारी कर दी जाएगी.

गौरतलब है कि दिल्ली में पल्ला से बदरपुर तक कुल 54 किलोमीटर तक यमुना बहती है, लेकिन वजीराबाद से ओखला के बीच 22 किलोमीटर के क्षेत्र में यह सबसे ज्यादा प्रदूषित है. यमुनोत्री से प्रयाग (इलाहाबाद) के बीच 1,370 किलोमीटर लंबी यमुना का यह हिस्सा कहने को तो थोड़ा सा है, लेकिन 76 फीसद प्रदूषण इसी हिस्से में दिखता है. वजह, पानीपत और दिल्ली की औद्योगिक इकाइयों का कचरा और रसायन युक्त पानी नालों के जरिये सीधे यमुना में गिरता है.

दिल्ली सरकार के उद्योग विभाग ने पिछले कुछ समय में सीधे नालों में गंदगी फैलाने को लेकर 900 से अधिक औद्योगिक इकाइयों पर कार्रवाई भी की थी. प्रदूषण नियंत्रण उपायों में दिल्ली के 28 औद्योगिक क्लस्टरों में से 17 को 13 कॉमन एफ्लूएंट ट्रीटमेंस प्लांट (सीईटीपी) से जोड़ा गया है, जबकि 11 इससे जुड़े हुए नहीं हैं.

इधर यमुना के पानी का शोधन भी कम हो रहा था. उल्लेखनीय है कि यमुना में 748 एमजीडी पानी गिरता है, इसमें से मात्र 90 एमजीडी पानी का शोधन ही हो पा रहा है और 290 एमजीडी पानी यमुना में ऐसे ही गिर रहा है. पिछले करीब दो सप्ताह से चल रहे देशव्यापी लॉकडाउन ने दिल्ली और हरियाणा की तमाम औद्योगिक इकाइयों पर तालाबंदी कर दी. नतीजा, यमुना में औद्योगिक कचरा और रसायन युक्त पानी बिल्कुल नहीं जा रहा है. अधिकतर स्लॉटर हाउसेस भी बंद पड़े हैं. घाटों पर लोगों का आना शून्य है. कोई पूजा पाठ, हवन इत्यादि भी नहीं हो रहा है. इस दौरान बारिश भी कई बार हो चुकी है. दूसरी तरफ हरियाणा ने हाल ही में सिंचाई का भी काफी सारा पानी यमुना में छोड़ा है. इन्हीं सबके मिश्रित परिणाम से यमुना का बहाव बढ़ा है. पहले का कचरा नीचे बैठ गया है और ऊपर बह रहा पानी पहले की तुलना में काफी साफ नजर आ रहा है.

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इसके अलावा, दिल्ली में हिंडन का पानी भी पहले से साफ हुआ है. हालांकि घरेलू सीवरेज की गंदगी अभी भी नदी में ही जा रही है. इसके बावजूद औद्योगिक कचरा गिरना एकदम बंद ही हो गया है. इसीलिए पानी की गुणवत्ता में सुधार हुआ है. उन्होंने कहा कि लॉकडाउन के चलते आने वाले कुछ दिनों में नदियों के जल में और सुधार की पूरी उम्मीद है. सोचिये कि जिस यमुना को साफ करने के लिए सरकारों ने करोड़ों रूपये खर्च कर दिए उसे मात्र 21 दिनों के लॉकडाउन ने एकदम पाक साफ कर दिया. अगर कोरोना का प्रकोप नहीं होता तो आप अपने बच्चों को यह यकीन नहीं दिला पाते कि यमुना का पानी नीला होता है.

गंगा ने भी बदला रूप

नदियों की सफाई पर नजर रखने वाले पर्यावरणविद विक्रांत टोंगड़ का मानना है कि देश में लॉकडाउन के बाद से गंगा नदी के पानी की गुणवत्ता में भी काफी सुधार हुआ है. विक्रांत टोंगड़ कहते हैं कि औद्योगिक क्षेत्र बंद हैं जहां से बड़े पैमाने पर कचरा नदीं में डाला जाता था. टेनरी यानी चमड़ा उद्योग पूरी तरह बंद है. यही वजह है कि कानपुर के आसपास गंगा का पानी बेहद साफ हो गया है. आर्गेनिक प्रदूषण तो नदीं के पानी में घुल कर खत्म हो जाता है, लेकिन औद्योगिक इकाइयों से होने वाला रासायनिक कचरा घातक किस्म का प्रदूषण है जो नदी की खुद को साफ रखने की क्षमता को खत्म कर देता है. लॉकडाउन के दौरान नदी की खुद को साफ रखने की क्षमता में सुधार के कारण ही जल की गुणवत्ता में सुधार हुआ है.

Coronavirus: QUARANTINE के लिए इस बॉलीवुड एक्टर ने दिया अपना होटल

कोरोना महामारी के दौरान लोगों को राहत देने व उनकी मदद करने के लिए धीरे धीरे कुछ बौलीवुड हस्तियंा सामने आ रही है.कुछ दिन पहले ही दुबई में फंसे अभिनेता सचिन जे जोषी ने अपनी पत्नी उर्वषी षर्मा और अपने एनजीओ ‘द बिग ब्रदर’’के माध्यम से जरुरतमंदो तक रोषन पहुॅचाने का कार्यक्रम षुरू किया था.

मगर अब सचिन जोषी को भी अहसास हुआ कि कोरोना से बचाव के लिए सेल्फ-आइसोलेशन और सेल्फ-क्वारंटाईन वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरुरत बन गयी है,तो उन्होेने मंुबई के पवई इलाके में स्थित अपने ३६ कमरे वाला आलिशान बुटीक होटल ‘‘द बीटल’’ को मंुबई महानगर पालिका को देते हुए उन्होंने प्रस्ताव दिया कि कोविद -19 से संक्रमित हुए विदेश से लौटे प्रवासियों को क्वारंटाईन के रूप में यहा रखा जाए.वास्तव में जहरीला कोरोना वायरस (कोविद -19) भारत के हजारों लोगों और विदेशों में लाखों लोगों को प्रभावित कर रहा है.२१ दिन के लॉकडाउन से भारत गुजर रहा है,इस बीच नागरिकों ने साबित कर दिया है कि इंसानियत अभी भी मौजूद है.

दुबई में फंसे सचिन जे जोशी ने ख्ुाद कहा-‘‘मुंबई एक घनी आबादी वाला शहर है.इसलिए हमारे शहर को बचाने के लिए उपाय करने के लिए पर्याप्त अस्पताल और बिस्तर व्यवस्था नहीं हैं.जब नगरपालिका ने हमसे मदद के लिए संपर्क किया,तो हमने मदद करने के लिए अपनी खुशी से अपने होटल का उपयोग करने की इजजत दे दी.बीएमसी की मदद से हमने अपने होटल को यात्रियों के क्वारंटाईन के तहत सुविधा में बदल दिया है.जबकि नगरपालिका ने एहतियाती कदम उठाते हुए नियमित निरीक्षण के लिए विशेष डॉक्टरों और नर्सों की नियुक्ति कुछ दिशा-निर्देश के साथ किया है.आवश्यक उपकरणों और सुसज्जित कर्मचारियों के साथ पूरी इमारत/होटल के कमरों की नियमित रूप से सफाई की जाती है.’’
ज्ञातब्य है कि अभिनेता व उद्योगपति सचिन जे जोशी ने फिल्म ‘‘अजान’’ में अभिनय कर बौलीवुड में कदम रखा था.उसके बाद उन्होंने  सनी लियोन व नसिरूद्दीन षाह के के साथ ‘‘‘जैकपॉट’’, लिसा रे और उषा जाधव के साथ ‘‘वीरप्पन’’, नर्गिस फाकरी और मोना सिंह के साथ ‘‘अमावस’’जैसी फिल्मों में अभिनय किया.

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अभिनेता सचिन जे जोषी का मानना है कि वायरस से लड़ने में मदद करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है.केवल मुंबई या महाराष्ट्र या सिर्फ भारत में ही नहीं यह खतरनाक कोरोना वायरस दुनिया के खिलाफ खड़ा है.सरकारी कर्मचारियों और गरीबों को ध्यान में रखते हुए उनके बिग ब्रदर फाउंडेशन के तहत जरूरतमंदों को खाद्य पदार्थ से भरे बॉक्स वितरित कर रहे हैं.सचिन के अनुसार यह कार्य उनका ‘द बिग ब्रदर’फाउंडेशन लॉकडाउन समय के अंत तक काम करता रहेगा.
होटल ‘‘द बीटल’’की चर्चा करते हुए सचिन जे जोषी की पत्नी उर्वषी षर्मा कहती हैं-‘‘मुझे खुशी है कि पवई,मुंबई में हमारा होटल ‘द बीटल‘ क्वारंटाईन के लिए बीएमसी दिया गया है.यह मेरे पति का फैसला है और मैं उनका सम्मान और उनका समर्थन करती हूं.हम अपने होटल से लेकर अधिकारियों और गली में फंसे सभी लोगों को खाना बांट रहे हैं. हमारी टीम लगभग दो सप्ताह से इस काम को निर्बाध रूप से कर रही है और जब तक हम सक्षम हैं,हम मदद करते रहेंगे। ‘‘

कोरोना पीड़ितो की चैरिटी के लिए उर्वशी शर्मा ले रही हैं हस्तकला का सहारा  
ज्ञातब्य है कि अभिनेता सचिन जे जोषी की पत्नी उर्वषी षर्मा भी अदाकारा हैं.वह ‘नकाब’, ‘बार्बर’,‘खट्टा मीठा’,‘चक्रधार’जैसी फिल्मों में अपने अभिनय का जलवा विखेर चुकी हैं.अभिनेता सचिन जे जोषी से षादी करने के बाद से वह अभिनय से दूर हो गयीं.स दंपति की एक बेटी समीरा और बेटा शिवांश है.अब लाॅकडाउन के दौरान उर्वशी शर्मा ने मोमबत्ती बनाने और कढ़ाई करने का नया शौक अपनाया है.वह कहती हैं-‘‘इन दिनों मैं मोमबत्ती और फूल बनाने, कढ़ाई, बुनाई और मोती पिरोने का काम कर रही हूं.अपने बच्चों के साथ मूलयवान वक्त बिताने के अलावा मैं पेंटिंग भी करती हूं.कुल मिलाकर यह मेरे लिए एक बहुत ही उपयोगी क्वारंटाइन साबित हुआ है.

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यॅूं भी कुछ रचनात्मक करना हमेशा से ही मेरा जुनून रहा  है.मैं कुछ भी साधारण नहीं करती हूं. हमारे सुंदर घर के हर कोने पर मेरा खास स्पर्श है.मुझे कला और शिल्प बेहद पसंद हैं, और मैं इसके लिए हर दिन समय निकालती हूं.मैं इस कलाकृति को हमारे बिग ब्रदर फाउंडेशन के लिए निधि जुटाने के लिए बेचूंगी.जिससे कोराना पीड़ितो की मदद में योगदान हो सके.‘‘
हमने ‘‘द बिग ब्रदर फाउंडेशन’’को एक गैर-लाभकारी पहल के रूप में स्थापित किया गया था.हमने इस संस्था द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों और महिलाओं के सशक्तिकरण के खास कार्य किए हैं.’’

ये रिश्ता क्या कहलाता है की एक्ट्रेस का हुआ तलाक, पति को मिली बेटे की कस्टडी

सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है कि मशहूर एक्ट्रेस सिमरन खन्ना का उनके पति भरत से  कुछ दिनों पहले तलाक हो गया है. सिमरन और भरत के अलगाव की खबरें आए दिन आ रही थी. दोनों के बीच लंबे समय से अनबन चल रहा था.

एक रिपोर्ट में सिमरन ने अपने तलाक की खबर को सही बताते हुए कहा कि हां यह सच है कि हमारा तलाक हो गया है लेकिन आज भी हम एक अच्छे दोस्त की तरह एक-दूसरे से मिलते हैं.

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बता दें कि सिमरन और भरत का एक बेटा है विनीत उसकी कस्टडी फिलहाल भरत के पास है. टीवी सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में उन्होंने गायत्री यानी गायू का किरदार निभाया था. इस किरदार में लोगों ने इन्हें बेहद पसंद किया था. इसके अलावा भी सिमरन ने कई सीरियल में लीड रोल में काम किया है. जैसे- परमावतार श्रीकृष्ण और भी कई सीरियल में भी.

 

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Kokka mera kuch kuch kenda ni kokka. #punjabi #laung #traditional

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बता दें सिमरन अभिनेत्री चाहत खन्ना की बहन है. चाहत इन दिनों मीका सिंह के साथ नजदीकियों को लेकर सुर्खियों में हैं. वह मीका सिंह के साथ म्यूजिक वीडियो में काम कर रही हैं.

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सिमरन फिलहाल कई अलग-अलग तरह के प्रोजेक्ट्स पर काम कर रही है. कुछ दिनों से अपने निजी जीवन में चल रहे परेशानियों से परेशान थी. हालांकि अब वह बहुत खुश है. अपने काम पर ध्यान दे रही है. अगर इन दिनों की बात करें तो वह अपनी फैमली के साथ घर पर समय बीता रही हैं. घर से बाहर नहीं निकल रही हैं.

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