हार कर विदेश चला गया था मधुकर. आलोक और अणिमा के ब्याह तक भी नहीं रुका था वह. अपने अरमानों से सजे महल के खंडहरों को देखने के लिए रुकता भी क्यों? अपना कहने को क्या रह गया था यहां? 4 बरसों तक अमेरिका में रह कर मधुकर जब वापस भारत लौटा तो लखनऊ में नर्सिंगहोम खोला. फिर स्वयं को पूर्णरूप से व्यस्त कर लिया था उस ने. मरीजों के बीच रह कर कई बार चारु के पास जाने का मन किया था उस का पर जा नहीं सका था. कहीं सही व्यवहार नहीं मिला और उस का संवेदनशील मन आहत हुआ तो? खुद चारु ने कब टोह ली थी उस की? अपने ही संसार में तो रमी रही. फिर भी एकांत के क्षणों में चारु बहुत याद आती थी. उस का अनिंद्य सौंदर्य, शांत, संयमित व्यवहार उसे बारबार याद आता. जीवन संध्या की इस बेला में जीवनसाथी की कमी हमेशा खलती थी. पिछले साल एक सेमिनार में उस की भेंट आलोक से हो गई थी. इतने साल बाद मिले आलोक पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी मधुकर ने. हर प्रश्न चारु के इर्दगिर्द ही घूमता रहा. उस के बाद आलोक ही अपने समाचारों से मधुकर को अवगत कराता रहता. हर महीने आलोक आता और अपने घर की पूरी सूचना उसे दे जाता. ऐसा लगता जैसे सबकुछ सही तरीके से चल रहा है. इधर, पिछले कुछ दिनों से आलोक बहुत परेशान दिख रहा था. हर समय बुझाबुझा सा रहता. मधुकर इतने बरसों तक जुड़ा था उस परिवार से इसलिए थोड़ा सा दुख भी उस परिवार का नहीं सह पाता था. उस ने आलोक को कुरेदा तो चुप नहीं रह पाया था वह. फिर उस ने कहना शुरू किया, ‘अजीब सा चिड़चिड़ा स्वभाव हो गया है मधुकर भैया, चारु दीदी का.
पूरे घर का वातावरण ही नारकीय बन गया है.’ मधुकर ने उसे अविश्वास से घूरा था. आलोक ने फिर कहा, ‘मुझे तो ऐसा लगता है कि जैसे दीदी मेरी खुशियों की सब से बड़ी दुश्मन हैं. अणिमा को मेरे साथ देख कर ईर्ष्यालु हो उठती हैं.’ ‘यह क्या कह रहे हो? तुम्हारे सुख के लिए जिस बहन ने अपनी खुशियों की तिलांजलि दे दी, वह तुम्हारी दुश्मन कैसे हो सकती है? अणिमा को वह स्वयं अपनी इच्छा से तुम्हारी बहू बना कर लाई थी.’ ‘यह सच है भैया, पर आप भी दीदी का व्यवहार देखेंगे तो परेशान हो उठेंगे, कभी दरवाजे की दरार में से अंदर झांकती हैं तो कभी दरवाजे की आड़ में हो कर पतिपत्नी की बातें सुनती हैं. हमारे हर कार्यकलाप और गतिविधि पर गिद्धदृष्टि है दीदी की. मैं ने हमेशा दीदी का आदर किया है, पर अणिमा तो पराए घर की है. मेरा कुछ फर्ज पत्नी के प्रति भी तो है. दीदी के बरताव से तालमेल बिठाना बहुत मुश्किल हो गया है.’ आलोक के जाने के बाद मधुकर बेहद बेचैन हो उठा था. विश्वास नहीं हो रहा था, पढ़ीलिखी, सुलझे विचारों वाली चारु क्या वास्तव में ऐसा ही व्यवहार करती होगी? आज वह आलोक के कहने पर ही उस शहर में आया था.
जी तो कल ही मचल उठा था, लेकिन चारु ने तो तब एक बार भी रुकने के लिए नहीं कहा था. यों चले जाना शिष्टाचार के विरुद्ध नहीं होता क्या? चारु के कहे शब्द उस के अंतस्थल को एक बार फिर कचोटने लगे थे. सुबह उठ कर उस ने अपना सामान सूटकेस में बंद किया और चारु के घर की ओर रवाना हो गया. रिकशे वाले को पैसे दिए और बाहर लौन में आ कर खड़ा हो गया था. पहले का समय होता तो धड़धड़ाते हुए बंगले की सीढि़यां चढ़ कर सीधे चारु के कमरे में पहुंच जाता किंतु अब एक अव्यक्त संकोच ने उस के पांव जकड़ लिए थे. काफी देर तक वह असमंजस की स्थिति में दरवाजे पर ही टिका रहा. अंदर से आती आवाज ने उसे दरवाजे पर ही रोक दिया था. गलत समय पर तो नहीं आ गया? उसे लगा, नहीं आना चाहिए था इस समय. शांत, सहिष्णु और संयमित चारु का कभी उग्र स्वर नहीं सुना था उस ने. और आज ये आवाजें? लौटने को हुआ तो आलोक की गाड़ी की आवाज ने रोक दिया उसे. ‘‘कहां जा रहे हैं भैया? यह सब तो प्रतिदिन होता है यहां,’’ वापस लौटते हुए मधुकर को रोक कर आलोक उसे बैठक में ले आया.
मधुकर सोच रहा था, ‘शांत, निश्छल स्वभाव वाली चारु को कभी क्रोध आता भी तो मुंह से कभी कुछ नहीं कहती थी. बस, माथे पर बल डाल देती थी.’ पूरे 9 साल के परिचय की उस की एकएक भंगिमा, एकएक आदत याद हो गई थी उसे. ऐसा तीखा व्यवहार तो अनपेक्षित ही था चारु का. आलोक के सूचना देने पर चारु अंदर आ कर कमरे में बैठ गई थी. मधुकर को ऐसा लगा चारु को देख कर जैसे कोई नन्हा बालक मचलमचल कर जिद कर रहा हो और अब रो कर खुद को हलका महसूस कर रहा हो. कुछ देर बादखाना खा कर आलोक और अणिमा अपने शयनकक्ष में चले गए तो चारु उस के पास आ कर कमरे में बैठ गई थी. उसे लगा, चारु के मन में भाईभाभी के प्रति उपजी ईर्ष्या ने असुरक्षा को जन्म दिया है. ‘‘ठंड नहीं लग रही है? खिड़की क्यों नहीं बंद कर लेते?’’
चारु का साधिकार आग्रह अच्छा लगा था उसे. ‘‘रहने दो, अच्छा लग रहा है,’’ उस ने चारु का हाथ पकड़ लिया, ‘‘नींद नहीं आ रही है?’’ पूछा. ‘‘नहीं. ये दोनों रात 11 बजे कमरे में बंद हो जाते हैं. मैं अकेली बाहर घूमती रहती हूं,’’ चारु के शब्दों में अश्लीलता का पुट था. ‘ब्याहता पतिपत्नी का इतनी रात को अपने शयनकक्ष में जाना गलत था क्या? पूरा दिन अस्पताल में मरीजों की तीमारदारी करने के बाद दो पल सुस्ताने में असंगत तो कुछ भी नहीं था,’ मधुकर सोच रहा था. ‘‘तुम अपना समय कैसे बिताती हो?’’ ‘‘कुछ खास नहीं करने को. घर पर तो पूरा आधिपत्य अणिमा का ही है. कालेज की नौकरी जबरन आलोक ने छुड़वा दी. चार पैसे कमाती थी तो लगता था, मेरा भी कोई अस्तित्व है.’’ ‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, चारु? बहुत काम किया है तुम ने. अब कुछ पल सुस्ता लो. आलोक तुम्हें आराम करते देखना चाहता है.’’ मधुकर ने अपने स्नेहिल स्पर्श से उस के कंधे को छुआ तो कांप गई थी चारु. कितना अपनत्वभरा स्पर्श था चारु के लिए? घंटों यों ही बातें करते रहे थे दोनों. उस के बाद कुछ दिन और रहा था मधुकर वहां. अणिमा हर काम चारु से पूछ कर करती थी. ऐसा कभी नहीं लगा उसे कि चारु का कोई अपमान कर रहा है. शायद भाईभाभी के सुखी दांपत्य को देख कर चारु ईर्ष्या से जलने लगी है. चिर कुंआरेपन की बगिया में उस की सुप्त आकांक्षाएं गृहस्थी का फूल खिलाने का स्वप्न देख रही हैं शायद.
अगर ऐसा हो तो चारु क्यों नहीं आ जाती उस के पास? वह तो अब भी प्रतीक्षारत है. जब तक मधुकर वहां रहा चारु खिलीखिली सी रही. बरसों पुराने मधुर क्षण याद आ गए थे उसे. आखिर वह दिन भी आया जब मधुकर को लौटना था. सामान बांधते हुए उस के हाथ चारु के शब्दों से रुक गए थे. ‘‘मत जाओ मधुकर. तुम चले गए तो सुबह की प्रतीक्षा में पूरी रात करवटें बदलती रहूंगी. तुम मेरी दुर्दशा देख तो रहे हो.’’ कुछ देर रुक कर फिर फुसफुसाहट सुनी थी मधुकर ने, ‘इस में मेरा क्या दोष है मधुकर?’ ‘‘गलत समझा है तुम ने चारु. दोषी कोई भी नहीं. दोषी वह घटनाक्रम है जिस ने हमें हर बार नए मोड़ पर खड़ा कर दिया और नदी के 2 किनारों के समान हम आज तक नहीं मिल पाए. जीवन की 2 राहों पर खड़े 2 राही आज तक एकसाथ जीने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं. पर लगता है वह दिन शायद कभी नहीं आएगा.’’
चारु अबोध बालिका की तरह मधुकर का मुंह देख रही थी. मधुकर कहता रहा, ‘‘इन बच्चों को अपने जीवन में व्यस्त देख कर तुम्हें अपने रीतेपन का एहसास हो रहा है. मैं ने तुम्हें तब भी कहा था कि तुम ही अकेली रह जाओगी. आलोक अब बच्चा नहीं रहा जो तुम्हारी उंगली पकड़ कर चलेगा. अपने जीवन के निर्णय लेने में अब वह खुद सक्षम है. पीछे लौटना तो मुश्किल है चारु. सामने अब भी सुनहरी सुबह हमारी प्रतीक्षा कर रही है. तुम्हारी तरह मैं भी बहुत अकेला हूं, चारु.’’ चारु उदास आंखों से उसे निहारती रही थी. फिर बोल उठी थी, ‘‘कहीं तमन्नाओं का बहलाव तो नहीं है यह, मधुकर?’’ ‘‘नहीं चारु, पुराने रिश्तों पर नए संबंधों की मोहर ही तो लगानी है.’’ सहसा चारु को अपनी जीवनसंध्या का एहसास होने लगा था. प्रतिक्षण, प्रतिपल एकदूसरे की बाट जोहते प्रेमी अगर अब भी नहीं मिले तो बहुत देर हो जाएगी. आंसू के दो कतरे चारु की आंखों से टपके तो मधुकर ने उन्हें पोंछ लिया था. फिर अपनी बांहों में भींच कर पूछा था उस ने, ‘‘ये आंसू किसलिए हैं चारु?’’ ‘‘जो पीछे छूट गया. उस के लिए नहीं हैं ये आंसू, मधुकर. आने वाली सुबह की खुशी के हैं ये आंसू. अब मुझे अकेला मत छोड़ना.’’ मधुकर ने अपनी हथेली चारु के होंठों पर रख दी थी. टेसू के दो फूल टपटप गिर रहे थे. उधर आलोक और अणिमा की भी आंखें नम हो गई थीं.