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लॉकडाउन टिट बिट्स- 7

सूतक में सियासत

अधिकतर राज्यों में राज्यपाल राज भवनों में आराम फरमाते लॉकडाउन यानि वैज्ञानिक सूतक काल काट रहे हैं लेकिन पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की नाक में तरह तरह से दम करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे . राजस्थान के झुंझनु के एक खाते पीते जाट परिवार के जगदीप की मारवाड़ियों में भी ख़ासी पेठ है . राजस्थान हाइकोर्ट बार एसोशिएशन के अध्यक्ष रह चुके धनखड़ कांग्रेस और जनता दल में भी रह चुके हैं लेकिन 2003 में वे भाजपा में शामिल हो गए थे . यानि घाट घाट का पानी उन्होने पिया है .

भाजपा मुद्दत से लाख कोशिशों के बाद भी पश्चिम बंगाल से ममता का दबदबा भेद नहीं पा रही है तो उसने धनखड़ को राज्यपाल बनाकर भेज दिया जिसके दिशा निर्देशों का पालन करते वे ममता को घेरने का कोई मौका नहीं गँवाते उल्टे नए नए मौके पैदा कर लेते हैं . कई बार तो भ्रम होने लगता है कि वे राज्यपाल हैं या विपक्ष के नेता की भूमिका निभा रहे हैं . लॉकडाउन के दौरान जब ममता बनर्जी राज्य के प्रबंधन में व्यस्त थीं तब उन्हें डिस्टर्ब करने की गरज से धनखड़ ने 14 पृष्ठों का एक ( आरोप ) पत्र उन्हें लिख डाला और फिर 3 मई को सरकार को लताड़ लगाई कि ममता सरकार गरीबों का राशन बांटने में देर और हिंसा कर रही है और अधिकारी राजनीति करते रहते हैं .

प्रतिक्रिया उम्मीद के मुताबिक हुई जबाब में ममता ने भी 14 प्रष्ठीय जबाब दिया जिसका सार यह था कि राज्यपाल महोदय कोरोना के कहर के दौरान सत्ता हड़पना चाहते हैं और इस बाबत धमकी भरी चिट्ठी उन्हें लिख रहे हैं .  उनका पत्र संवैधानिक मर्यादाओं के खिलाफ है बगैरह बगैरह . धनखड़ की दिक्कत जिस पर भाजपा आलाकमान को ध्यान देना चाहिए यह है कि पार्टी कोई जमीनी नेता पश्चिम बंगाल में खड़ा नहीं कर पा रही है और जो छोटे मोटे हैं वे धार्मिक विवाद और फसाद पैदा करने को ही राजनीति समझते हैं जिसका अधिकतम फायदा भाजपा उठा चुकी है . कुछ कुछ राजनैतिक पंडितों का मानना है कि धनखड़ को गवर्नरी छोडकर सक्रिय राजनीति में आ जाना चाहिए इससे शायद कुछ और फायदा भाजपा को हो लेकिन वह ममता से सत्ता छीनने लायक फिर भी नहीं होगा .

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दिक्कत में दिग्विजय

एक कथित इंटरव्यू में कथित रूप से मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने एक ऐसी कथित बात उजागर कर दी जिसे हर कोई जानता है कि राज्य में सत्ता छिनने की वजह एक और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह हैं जिनहोने उठापटक के दिनों में बिके यानि सिंधिया गुट के विधायकों के बाबत उन्हें धोखे या अंधेरे में रखा और 22 विधायक इस्तीफा देकर ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में शामिल हो गए . हर कोई मानता और जानता है कि लड़ाई राज्यसभा सीट के साथ साथ दिग्विजय सिंधिया के शास्वत बैर और वर्चस्व की भी है या थी .  जब सिंधिया को समझ आ गया कि उनकी नहीं सुनी जा रही तो वे बेवफाई करते भगवा खेमे की शरण में चले गए .

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बात यहीं खत्म हो जाती तो और बात थी लेकिन कमलनाथ के खुलासे के बाद दिग्विजय सिंह की सिट्टीपिट्टी गुम है क्योंकि लॉकडाउन के चलते राज्यसभा चुनाव आगे बढ़ा दिये गए हैं .  अब अगर ऐसे में कमलनाथ खेमा इस बात पर अड़ जाता है कि अंधेरे में रखने बाले या धोखा देने बाले दिग्विजय को राज्यसभा में क्यों भेजा जाये जिनकी खुराफात कभी किसी सबूत की मोहताज नहीं रही . गौरतलब है कि मध्यप्रदेश से राज्यसभा में एक कांग्रेसी का जाना तय है दूसरे पर नौबत आई तो वोटिंग होगी जिसमें भाजपा का पलड़ा भारी है .

कमलनाथ खेमे से यह मांग दबी जुबान से उठने लगी है कि दिग्विजय सिंह के बजाय दूसरे उम्मीदवार फूल सिंह बरैया को भेजा जाना ज्यादा फायदे का सौदा साबित होगा क्योंकि वे दलित समुदाय के हैं और उनकी ग्वालियर चंबल संभागों में गहरी पैठ है जहां 16 सीटों पर उपचुनाव होना है .  उन्हें भेजने से दलित समुदाय में अच्छा मेसेज जाएगा और कांग्रेस को चुनावी लाभ भी होगा .  इनसे भी ज्यादा अहम बात यह कि  दिग्विजय सिंह की बची खुची राजनीति और गुट दोनों खत्म हो जाएंगे जिससे कांग्रेस की इमेज चमकेगी . शायद यही दबाब था कि कमलनाथ को एक अप्रिय सत्य बोलना पड़ा जिसे बोलने की देर थी कि दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ के फोन की घंटी बजाई .  अगले ही दिन दोनों ने साथ सदभावना डिनर किया और डकार लेने के बाद खंडन कर दिया कि ऐसा कुछ नहीं है जैसा कि वायरल हुआ था . लेकिन खटका और खतरा बरकरार है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि ये निर्देश ऊपर यानि दिल्ली से आ रहे हों .

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सरकारी सम्मान की हवस

भक्तों का लॉकडाउन का वक्त पूजा पाठ और श्रद्धा में कटे इसके लिए सरकार ने पुराने धार्मिक सीरियलों के पुनर्प्रसारण की व्यवस्था कर दी तो 33 साल बाद एक बार फिर रामानन्द सागर खेमा और उनकी रामायणी टीम की बल्ले बल्ले हो आई . राम का किरदार निभाने बाले अरुण गोविल ने कहा कि उन्हें कभी किसी सरकार ने सम्मान नहीं दिया . अरुण उत्तरप्रदेश के मेरठ के रहने बाले हैं और भाई के कारोबार में हाथ बंटाने मुंबई चले गए थे वहाँ उन्होने फिल्मों में किस्मत आजमाई लेकिन दर्शकों ने उन्हें खारिज कर दिया . 1987 में वे रामानन्द सागर के संपर्क में आए और राम की भूमिका झटक ली . इसमें एक्टिंग उन्हें ज्यादा नहीं करना पड़ी क्योंकि आधा काम तो मेकअप से ही धार्मिक सीरियलों और फिल्मों में हो जाता है . बचे वक्त में पात्र को या तो मुस्कुराते रहना होता है या फिर क्रोधित होते श्राप देते रहना होता है बाकी बची खुची कसर भी पौराणिक भाषा बाली संवाद अदायगी से सम्पन्न हो जाती है .

उम्मीद के मुताबिक यह सीरियल दूसरी बार भी भक्तों ने देखा तो अरुण गोविल को याद आया कि दर्शकों ने तो खूब उनके पाँव पड़े जगह जगह पूजा पाठ किया और आरती भी उतारी  लेकिन सरकारों ने अपनी सम्मान देने की ज़िम्मेदारी नहीं निभाई तो यह दर्द या हवस दिल की हदें पार कर जुबां पर आ ही गया . फिर तो सरकारी सम्मान रामायण के तमाम प्रमुख पात्र मांगने लगे लेकिन तरीका बदल दिया . रावण बने अरविंद त्रिवेदी ने लक्ष्मण की भूमिका निभाने बाले सुनील लहरी को भी सम्मान और पुरुस्कार देने की बात की तो जबाब में सुनील ने भी उनके लिए सम्मान देने की बात कर डाली . यानि दोनों एक दूसरे की पीठ खुजाते नजर आए जो राम जी की मंशा पर पानी फेरती राजनीति या कूटनीति कुछ भी कह लें थी .

यानि सरकारी सम्मान नहीं हुआ भंडारे का प्रसाद हो गया जिसे ये कलाकार बिना लाइन में लगे झटकना चाहते हैं यह इनका लालच और हवस नहीं तो क्या है .

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चिराग बने हज्जाम और पत्रकार        

लॉकडाउन के वक्त में लोग अपने अपने शौक पूरे कर रहे हैं लेकिन बिहार के जामुई से लोजपा  सांसद चिराग पासवान के मामले में सिंगमंड फ्रायड की थ्योरी के हवाले से कहा जा सकता है कि दमित इच्छाए फूट फूट कर बाहर आ रही हैं . खूबसूरत चिराग हीरो बनना चाहते थे लेकिन पहली ही फिल्म मिले न मिले हम महा फ्लाप हुई और उन्हें कुछ नहीं मिला तो वे समझदार युवा की तरह बिहार वापस आ गए और पिता की दलित राजनीति के कारोबार में हाथ बंटाने लगे जो भगवा खेमे की कृपा से अभी ठीक ठाक चल रहा है .  आगे क्या होगा यह राम और राम विलास पासवान जानें .

फिल्मी पर्दे पर तरह तरह की भूमिकाएँ निभाने की ख़्वाहिश पूरी करने चिराग ने लॉकडाउन के दौरान पूरी की . एक दफा वे अपने पिता राम विलास पासवान की हजामत बनाते नजर आए तो एक बार अपने मंत्री पिता का इंटरव्यू उन्होने एक न्यूज़ चेनल के लिए किया . लेकिन ये टोटके ज्यादा चले नहीं तो इसकी वजह समझते चिराग को होशियार हो जाने की जरूरत है कि जब उनके गरीब दलित मजदूर भाई देश भर में भूखे प्यासे भटक रहे थे तब वे शोहरत के लिए नकली  हज्जाम और पत्रकार बन रहे थे .

जिस दलित समुदाय की राजनीति से वे आज संसद में हैं और उनके पिता केंद्रीय मंत्री हैं उसी समुदाय की अनदेखी उन्हें मंहगी भी पड़ सकती है . कुछ और न कर पाएँ हर्ज की बात नहीं पर हमदर्दी के दो बोल तो वे अपने बालों के लिए बोलते उनके हक की भी बात करते तो ज्यादा प्रसिद्धि मिलती जो चुनाव में भी काम आती . हाथ में उस्तरा और माइक थाम लेने से राजनीति ज्यादा नहीं चलने बाली . उनका नेता बुरे वक्त में क्या कर रहा था वोटर इस पर नजर रखता है .

ऋषि कपूर के निधन के बाद नीतू कपूर ने अंबानी परिवार के लिए ने लिखा इमोशनल पोस्ट, जानें क्यों?

ऋषि कपूर 30 अप्रैल को इस दुनिया को हमेशा के लिए छोड़कर चले गए. ऐसे में उनके परिवार में अभी भी उदासी छाई हुई है. बेटे रणबीर कपूर, पत्नी नीतू कपूर उनके आखिरी समय में साथ खड़े थे. वही बेटी रिद्धिमा कपूर लॉकडाउन की वजह से दिल्ली में फंसी हुई थी.

नीतू कपूर हर उस व्यक्ति का शुक्रिया अदा कर रही हैं जिन्होंने मुश्किल वक्त में ऋषि कपूर की मदद की है.

नीतू ने नीता अंबानी और ऋषि कपूर के साथ फोटो शेयर करते हुए लिखा है. दो साल की लंबी जर्नी रही है. इस जर्नी में कुछ अच्छे दिन भी थे कुछ बुरे वक्त भी थे लेकिन यह मुश्किल का वक्त अमबानी परिवार के बिना संभव नहीं हो पाता. बीते कुछ दिनों से इस परिवार का धन्यवाद कहने के लिए शब्द ढूंढ रहे थें लेकिन शब्द कम पड़ गए.

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पिछले सात महीने से हर कोई यहीं कोशिश करता था कि ऋषि और हमें कोई दिक्कत न हो. ऐसे में उन्होंने हमें हर तरह से सपोर्ट किया.

वह अस्पताल में मिलने आते थे और ऋषि कपूर को खूब प्यार अटेंशन देते थें. उन्होंने उस वक्त संभाला जब हम डरे हुए थें.

अंबानी परिवार का नाम लेते हुए नीतू ने लिखा मुकेश भाई, नीता भाभी, आकाश, अनंत, श्र्लोका और ईशा आप सभी हमेशा हमारे साथ रहें. कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने दी.

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आगे लिखा है उन्होंने मेरे रणबीर, रिद्धिमा और पूरे कपूर परिवार की तरफ से आप सभी को धन्यवाद.

नीतू कपूर ने इस इमोशनल पोस्ट को लिखकर यह जाहिर कर दिया है कि अंबानी परिवार ने मुश्किल की इस घड़ी में किसी तरह की कोई कमी नहीं होने दी है.

क्यों बनते हैं विवाहेत्तर संबंध

2018 के जून माह में भंवरताल गार्डन जबलपुर में रहने वाली आयशा ने स्वास्थ्य महकमे में डिप्टी डायरेक्टर के पद पर तैनात अपने पति डा शफात‌उल्लाह खान की हत्या इसलिए करवा दी थी, क्योंकि उसका पति अपने  विभाग की क‌ई महिला कर्मचारियों से अबैध  संबंध रखता था. अपनी अय्याशी की बजह से पत्नी के साथ संबंध भी नहीं बनाता था और पत्नी को प्रताड़ित  करता था. हद तो तब हो गई जब पति ने पत्नी की नाबालिग भतीजी को अपनी हवस का शिकार बना लिया और इससे नाबालिग को  गर्भ ठहर गया .तंग आकर पत्नी ने सुपारी देकर उसकी हत्या करवा दी. इसी तरह दिसम्बर 2019 में नरसिंहपुर जिले के गोटेगांव थाना क्षेत्र में एक युवक आशीष की हत्या उसके ही दोस्त पंकज ने इसलिए कर दी थी , क्योंकि आशीष ने पंकज की पत्नी से सेक्स संबंध बना रखे थे.

ये घटनाएं साबित करती हैं  कि समाज में वढ़ते व्यभिचार और विवाहेत्तर संबंधों के कारण अपराधों का ग्राफ भी तेजी से बढ़ रहा है.

आम तौर पर विवाह होने के बाद पति और पत्नि के बीच के सेक्स संबध प्रारंभ के कुछ वर्षों में तो ठीक रहते हैं, परन्तु  बच्चों के जन्म के बाद पार्टनर की जरूरतों पर पर्याप्त ध्यान न दिये जाने और सेक्स संबंधों के प्रति लापरवाही कलह का कारण बन जाता है.

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सेक्स स्पेशलिस्ट बताते हैं कि सुखद सेक्स उसी को माना जाता है जिसमें दोनों पार्टनर ओर्गेज्म पा सकें .यदि पति पत्नि सेक्स संबधों में एक दूसरे को संतुष्ट कर पाने में सफल होते हैं तो उनके दाम्पत्य संबंधों की कैमिस्टी भी अच्छी रहती है.

राकेश और प्रीति की शादी को पांच वर्ष हो चुके हैं . उनकी दो साल की एक वेटी भी है ,परन्तु वेटी के जन्म के साथ ही प्रीति का ध्यान अपनी वेटी में ही रम गया है. पति की छोटी छोटी जरूरतों का ध्यान रखने वाली प्रीति अब पति के प्रति वेपरबाह सी हो गई है. कभी रोमांटिक मूड होने पर राकेश सेक्स संबंधी बातों के साथ जब सेक्स  करने की पहल करता है तो प्रीति उसे यह कहकर झिड़क देती है कि तुम्हे तो बस एक ही चीज से मतलब है. इससे राकेश कुंठित होकर चिड़चिड़ाने लगता है . वह अपनी कामेच्छा को मन मसोसकर  दबा लेता है ,परन्तु सेक्स न करने की कुंठा से उसके मन में कहीं और शारीरिक संबध बनाने के ख्याल भी आने लगते हैं . प्रीति जैसी अनेक महिलाओं का यही व्यवहार राकेश जैसे पुरूषों को दूसरी स्त्री के साथ संबंध बनाने को प्रोत्साहित करता है .

जिस तरह स्वादिष्ट भोजन करने के  बाद कुछ और खाने की इच्छा  नहीं होती,  ठीक उसी तरह सेक्स क्रिया से संतुष्ट पति-पत्नी अन्यत्र  सेक्स के लिए  नहीं भटकते. दाम्पत्य जीवन में सुख प्राप्त करने के लिए पति-पत्नी को उनकी सेक्स जरूरतों  का भी ध्यान रखना चाहिए.

सेक्स की  पहल  आम  तौर पर पति  द्वारा की जाती है.  पत्नी  को भी  चाहिए कि वह  सेक्स  की पहल करे. पति.पत्नी में से  किसी के भी द्वारा की  पहल का स्वागत कर सेक्स संबंध  स्थापित कर एक दूसरे की संतुष्टि का ख्याल रखकर विवाहेत्तर संबधों  से बचा जा सकता है.

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बच्चों के जन्म के बाद भी सेक्स के प्रति निरूत्साहित न हो . सेक्स दाम्पत्य जीवन का मजबूत आधार है . शारीरिक संबध जितने सुखद होंगे भावनात्मक प्यार  उतना ही मधुर होगा. घर में पत्नी के सेक्स के प्रति रूखे व्यवहार के चलते पुरूष अन्यत्र सुख की तलाश में संबंध बना लेते हैं . कामकाजी पति द्वारा पत्नि को पर्याप्त समय और यौन संतुष्टि न देने के मामलों में भी पत्नि द्वारा अन्य पुरूष से शाररिक संबध बना लिये जाते हैं ,जिसकी परिणिति से दाम्पत्य जीवन में तनाव और विखराव देखने को मिलता है .

 स्वाभाविक होता है बदलाव

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि संबंधों में यह बदलाव स्वभाविक है  शादी के आरंभिक सालों में पति पत्नी एक.दूसरे के प्रति जो खिंचाव महसूस करते हैं,वह समय के साथ खत्म होता जाता है और तब शुरू होती है रिश्तों में उकताहट. आर्थिेक , पारिवारिक और बच्चों की परेशानियां इस उकताहट को बढ़ावा देती हैं . फिर इस उकताहट को दूर करने के लिए पति.पत्नी बाहर कहीं सुकून तलाशते है जहां उन्हे फिर से अपने वैवाहिक जीवन के आरंभिक वर्षो का रोमांच महसूस हो. यहीं से विवाहेतर संबंधों की शुरुआत होती है.

*कौन से कारण हैं उत्तरदाई

समाज के अलग-अलग वर्गों में किये गए अध्ययन से पता चलता है कि अलग-अलग लोगों में विवाहेत्तर संबंधों के कारण भी अलग-अलग होते है.क‌ई वार वर्क प्लेस पर लगातार एकांत में काम करने से  तो कभी किसी से भावनात्मक जुड़ाव हो जाने से भी संबंध बन जाते हैं. सेक्स लाइफ से असंतुष्टि,सेक्स से जुड़े कुछ नए अनुभव लेने की लालसा,वक्त के साथ आपसी संबंधों में प्रेम का अभाव,अपने पार्टनर की किसी आदत से तंग होना और क‌ई वार एक-दूसरे को जलाने के लिए भी विवाहेतर संबंध स्थापित हो जाते हैं.

स्त्री  के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार

भारतीय समाज और संस्कृति में स्त्रियों के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार आज भी देखने को मिलता है .सामाजिक परम्पराओं की गहराई में स्त्री द्वेष छिपा है और यही परमपराएं पीढ़ियों से महिलाओं को गुलाम मानती आई हैं. सामाजिक ढांचे में उन्हें इस तरह ढाला जाता है कि वे अपने शरीर के आकार से लेकर निजी साज-सज्जा तक के लिए स्वतंत्र नहीं हैं.  जो महिला अपने ढंग से जीने के लिये परम्पराओं और वर्जनाओं को तोड़ने का प्रयास करती है उस पर समाज  चरित्रहीन होने का कलंक लगा देता है.  पुरूष को घर में व्यवस्था, पत्नी का समय व बढ़िया तृप्तिदायक खाना,सुख चैन का वातावरण और देह संतुष्टि की कामना रहती है ,परन्तु कभी पुरूष उनकी सुख सुविधाओं और शाररिक जरूरतों का उतना ख्याल नही रखता . पत्नी से यह अपेक्षा जरूर की जाती है कि वह पति की  नैसर्गिक चाहें पूरी करती रहे.मनोवैज्ञानिकों के अनुसार  विवाहेत्तर संबंधों को रोकने के लिये कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है.यदि आपसी रिश्तों की गर्माहट कम हो गई है तो रिश्तों को पुराने कपड़े की तरह निकाल कर नए कपड़ों की तरह नए रिश्ते बनाना समस्या का हल नहीं है . अपने  पार्टनर को समझाने के कई तरीके है. उससे बातचीत कर समस्या को सुलझाया जा सकता है.सेक्स को लेकर की गई बातचीत ,सेक्स के नये नये तरीके प्रयोग में लाकर एक दूसरे की शाररिक संतुष्टि से विवाहेत्तर संबंधों से बचा जा सकता है .

फोर प्ले से आफ्टर प्ले तक का सफर

सफल दाम्पत्य जीवन जीने वाले पति-पत्नी के अनभव बताते हैं कि किस तरह एक दूसरे को जरूरतों का ध्यान रख कर पार्टनर को भटकाव से बचाया जा सकता है.

सेक्स को केवल रात्रिकालीन क्रिया मानकर निपटाने से सहसंतुष्टि नहीं मिलती. जब दोनों पार्टनर को और्गेज्म का सुख मिलेगा तभी सहसंतुष्टि प्राप्त होगी. स्त्री और पुरूष का एक साथ स्खलित होना और्गेज्म कहलाता है . सुखद सेक्स सबंधों की सफलता में और्गेज्म या चरम सुख की भूमिका महत्वपूर्ण होती है .और्गेज्म पाने में फोर प्ले का रोल अहम रहता  है . पति पत्नि के वीच आपस में उनके नाजुक अंगों को चूमने ,मसलने और सहलाने से आनंद की अनुभूति होती है .ओंठो को मुंह में रखकर चूसने ,स्तनों को दबाकर निपल पर जीभ फेरने तथा गर्दन ,आंख ,कान ,ओंठों को चूमने से दिलो दिमाग में सेक्स की तरंगे प्रवाहित होने लगती है. फोर प्ले के दौरान होने वाला स्त्राव जब महिला और पुरूष के यौन अंगों को अच्छे ढंग से गीला कर दे तभी सेक्स की ओर बढ़ना चाहिये . कभी कभी और्गेज्म प्राप्त न होने की स्थिति में जो पहले स्खलित हो जाये उसे पार्टनर के स्खलित होने तक यौन अंगों को हिलाकर सहयोग करने से सहसंतुष्टि का सुख मिल जाता है . स्खलित होने पर एक दूसरे से मुंह फेरने की बजाय एक दूसरे के आलिंगन में रह आफ्टर प्ले का भी ध्यान रखना चाहिए.

सेक्स को शारीरिक तैयारी के साथ मानसिक तैयारी के साथ भी किया जाना चाहिये . यह पति पत्नि की आपस की जुगलबंदी से ही मिलता है. सेक्स करने के पहले की गई सेक्स से संबधित चुहल और छेड़छाड़ भूमिका बनाने में सहायक होती है . कमरे का वातावरण , विस्तर की जमावट , अंडरगारमेंटस का पहनावा जैसी छोटी छोटी बातें सेक्स के लिये उद्दीपक का कार्य करती हैं .सेक्स के दौरान घर परिवार की समस्यायें बीच में नहीं आनी चाहिये . सेक्स संबधों के दौरान छोटी छोटी बातों को लेकर की जाने बाली यही शिकायतें संबधों को बोझिल बनाती और सेक्स के प्रति अरूचि भी उत्पन्न करती हैं . सेक्स के लिये नये स्थान और नये तरीकों के प्रयोग कर संबधों का प्रगाढ़ बनाया जा सकता है .सेक्स की सहसंतुष्टि निश्चित तौर पर दाम्पत्य जीवन को सफल बनाने के साथ विवाहेत्तर संबधों को रोकने में मददगार साबित हो सकती है.और विवाहेत्तर संबंधों की वजह से समाज में बढ रहे अपराधों पर भी काबू पाया जा सकता है.

सरकारी मंडी में मनमानी बनी तरबूज किसानों की परेशानी

भले ही पूरे देश में कोरोना लौकडाउन है, फिर भी केंद्र सरकार के साथसाथ राज्य सरकारों ने किसानों को सशर्त इस दौरान काफी छूट दी हैं. पर मंडियों में मौजूद सरकारी मुलाजिम सरकारी नियमों का हवाला दे कर इन तरबूज किसानों को मंडी में नहीं घुसने दे रहे.

यही हाल देश की हर बड़ी व छोटी मंडियों में है. सरकारी मुलाजिमों की मनमानी करने के कारण किसान काफी परेशानी में हैं क्योंकि इन मंडियों में उन की उपज बिक नहीं पा रही.

इधर, तरबूज किसानों की चिंता वाजिब है. इन किसानों की सब से बड़ी समस्या मंडी में तैनात सरकारी corमुलाजिमों की मनमानी है. सरकारी मुलाजिम इस की यह वजह बताते हैं कि मंडी में ये किसान सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कर रहे. वहीं किसान कह रहे हैं कि हम सरकार का हर नियम मानने को तैयार हैं, पर मंडी में हमारी उपज सही कीमत पर बिके. पर ऐसा हो नहीं पा रहा.

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ऐसे किसानों के लिए एक तरफ कुआं तो वहीं दूसरी तरफ खाई वाली स्थिति पैदा हो गई है. मंडी में उन की उपज न बिकने से खराब हो रही है.

तमाम सरकारी दावों की पोल खोलती इन तरबूज किसानों की समस्या वाकई हैरान करने वाली है.

यह मामला झांसी जिले के मऊरानीपुर तहसील की मंडी से जुड़ा है. यहां तरबूज की खेती करने वाले किसानों को मंडी में घुसने से रोक दिया गया. इतना ही नहीं, मंडी के गेट पर ताला लटका दिया गया, जिस से गुस्साए किसानों ने सड़क के दोनों ओर तरबूज से लदे ट्रैक्टर व ट्रॉली की लाइन लगा दी.

झांसी जिले में मऊरानीपुर की मंडी में 3 मई को जब किसान अपने तरबूज बेचने के लिए मंडी पहुंचे तो किसानों को देखते ही मंडी में ताला लगा दिया गया और उन्हें अंदर जाने से रोक दिया गया.

गुस्साए सैकड़ों किसानों ने जिन में बड़ी तादाद में औरतें भी थीं, मंडी के बाहर प्रदर्शन शुरू कर दिया.

यहां मौजूद एक किसान ने कहा कि हम लोग फसल को तैयार करने के लिए 2-3 महीने पहले से ही मेहनत कर रहे हैं और आज जब फसल तैयार हो गई है तो मंडी में इसे बेचने से मना किया जा रहा है.

अब जब स्थानीय मंडी में ही हमारी उपज नहीं बिक पाएगी, तो किसान क्या करेगा. हम इसी के भरोसे रहते हैं. अगर उपज नहीं बिकेगी तो हम खाएंगे क्या. हमारी तो लागत भी नहीं निकल पा रही है.

मंडी में पिछले कई दिनों से किसान तरबूज ला कर बेच रहे थे, लेकिन 3 मई को अचानक मंडी के गेट पर ताला लगा दिया गया. मऊरानीपुर तहसील इलाके के सैकडों किसान जब  ट्रॉली में तरबूज लाद कर पहुंचे तो वहां तैनात कर्मचारियों ने उन्हेें मंडी के अंदर जाने से मना कर दिया. इस के बाद किसानों ने अपने ट्रैक्टर ट्राली सडक के किनारे खड़े कर दिए और मंडी के गेट पर धरना देने लगे.

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मऊरानीपुर के मंडी सचिव इस की वजह सोशल डिस्टेंसिंग बताते हैं. उन का कहना है कि कोरोना लौकडाउन के चलते बडे़ अधिकारियों ने निर्देश दिया है कि सोशल डिस्टेंसिंग रखनी है, लेकिन किसानों ने अचानक भीड़ लगा दी. तरबूज ट्रैक्टर पर लाद कर यहां जमा हो गए हैं.

भीड़ न बढ़ने पाए, इसलिए मंडी को बंद कर दिया गया. वहीं कुछ बड़े कारोबारियों ने किसानों को भ्रमित कर के तरबूज मंडी में मंगा लिए, जबकि भीड़ लगाने से मना किया गया था.

झांसी जिले की मऊरानीपुर तहसील प्रशासन ने नई गल्ला मंडी को बंद कर दूसरी जगह सब्जी मंडी खोलने के लिए अस्थाई इंतजाम किया है, लेकिन किसान वहां नहीं जाते, यहीं आते हैं.

किसान नेता शिवनारायण सिंह परिहार बताते हैं कि सरकार कुछ कहती है, अधिकारी व कर्मचारी कुछ कहते हैं. सरकार कहती है कि मंडियों में किसान अपनी फसल बेच सकते हैं. कई ट्रैक्टरट्रॉलियों में तरबूज ले कर किसान मऊरानीपुर मंडी में डेरा डाले हुए हैं.

इन तरबूज किसानों का कहना है कि ये नहीं बिका तो सड़ जाएगा और फसल सड़ी तो किसान भूख से मर जाएगा.

वहीं तहसीलदार ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं. कहीं ऐसा न हो कि ये बेलगाम सिस्टम किसान की जान ले ले. हम तो यही कह रहे हैं कि सोशल डिस्टेंसिंग करो या कोई और नियम लगाओ, लेकिन किसान की फसल तो खरीदो.

तरबूज किसान न सिर्फ अपनी उपज बेचने को ले कर परेशान हैं, बल्कि कई जगहों पर खेतों में तरबूज पडे़पडे़ ही सड़ रहे हैं.

पिछले कई दिनों से मौसम में बदलाव आया है, वहीं बरसात ने भी तरबूज की फसल को मंडियों और बाजारों तक पहुंचने से रोक दिया है.

गंगा व यमुना के अलावा दूसरी नदियों के किनारे इस मौसम में तरबूज, खीरा, ककड़ी, खरबूजा, लौकी जैसी सब्जियों और फलों की पैदावार होती है.

प्रयागराज में तकरीबन 3 बीघा खेत में तरबूज बोने वाले एक किसान का कहना है कि उन्होंने एक लाख से ज्यादा की लागत लगाई थी, लेकिन बाजार तक न पहुंच पाने की वजह से तरबूज खेतों में ही खराब हो जा रहा है.

नदियों के किनारे हजारों एकड़ जमीन पर बोई गई इन सब्जियों को उगाने वाले किसान परेशान हैं, वे कहते हैं कि हम बड़ी मंडी तक जा ही नहीं पा रहे हैं और गांवों में सब्जियां बिक नहीं पा रही हैं. ऐसे में तमाम किसान परेशान हैं कि वे अपनी लागत कैसे निकाल पाएंगे.

कछार इलाकों में पैदा होने वाली इन फसलों को उगाने के लिए किसान जीतोड़़ मेहनत करते हैं. घड़े में पानी भर कर सिंचाई करते हैं क्योंकि रेत में पानी का और कोई साधन नहीं रहता. यदि सब्जी और फल न बिक पाया तो सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा.

इन किसानों की समस्या को ले कर कोई कुछ कहने को राजी नहीं हैं. वहीं ये किसान किस दम पर साहूकार का कर्ज लौटा पाएंगे, कहना मुश्किल है.

भुखमरी की कगार पर “स्ट्रगलर” कलाकार,मायानगरी से पलायन को मजबूर आर्टिस्ट

कुछ साल पहले एक फ़िल्म आई थी “चला मुरारी हीरो बनने” जिंसमे दिखाया गया था कि किस तरह से एक कलाकार हीरो बनने मुम्बई जाता है. उसके जीवन का संघर्ष मुंबई जा कर पूरा होता है. इस संघर्ष पर और भी तमाम फिल्में बनी थी.कोरोना के संकट भरे दौर में अब मायानगरी मुम्बई से वापस पलायन हो रहा है.

जो मायानगरी मुम्बई कभी कलाकारों के लिए सबसे बड़ा मुकाम होती थी जंहा कलाकार को उसकी कला के हिसाब से पारितोषिक मिलता था वँहा छोटे स्ट्रगलर कलाकार भुखमरी की कगार पर पहुँच गए है. प्रधानमंत्री फंड में करोड़ो का दान देने वाले बड़े कलाकरों को भी इनकी कोई फिक्र नही है. प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक गुहार लगाने वॉले इन कलाकारों की कंही सुनवाई नहीं हो रही. मुम्बई के तमाम फ़िल्म स्टूडियो बन्द है. फिल्मों को अब जल्दी सिनेमाघरों में लगना मुश्किल है. ऐसे में फिल्मों की शूटिंग बन्द है. शादी, पार्टी, इवेंट्स के बन्द होने से भुखमरी के हालात बिगड़ते जा रहे है. गांव घर से भाग कर मायानगरी मुम्बई जाने वाले यह कलाकार अब मुम्बई से भाग कर वापस अपने गांव घर आ रहे तो उनको उपेक्षा का शिकार भी होना पड़ रहा है.

 

बुरे हाल में यूपी बिहार के कलाकार

मायानगरी मुम्बई में अपने सपनो को पूरा करने गए यूपी, बिहार और दूसरे कई प्रदेशों के आर्टिस्ट लॉक डाउन में भुखमरी की कगार पर पहुँच गए है. इनकी हालात दिहाड़ी मजदूरों से भी बुरी हो रही है. दिक्क्क्त की बात यह है कि आर्टिस्ट होने में कारण यह मजदूरों की तरह किसी से कुछ मांग भी नहीं सकते है.

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आर्टिस्ट वेलफेयर एसोसिएशन उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष अंजनी उपाध्याय कहते है “यूपी और बिहार के हजारों आर्टिस्ट मायानगरी मुम्बई में अपने सपनो को पूरा करने हर साल जाते है. इनमे से कुछ वंही रह कर काम करते है कुछ अपने गांव घर आते जाते रहते है. होली में यह आर्टिस्ट अपने घर नही आते क्योंकि होली मिलन के कई कार्यक्रमों में उनकी कमाई हो जाती थी. इस साल होली में कमाई के लिए मुम्बई में रुके यह आर्टिस्ट लॉक डाउन के बाद वंही फंस गए और अब भुखमरी के कगार पर पहुँच गए है. क्योंकि होली से ही उनको कार्यक्रम नही मिले”

कोरोना इफेक्ट में बन्द हो गए स्टेज कार्यक्रम

वैश्विक महामारी  कोरोना में लॉकडाउन होने के कारण उन कलाकारों के सामने भारी आर्थिक संकट खड़ा हो गया है जिनकी रोजी रोटी ही कला के भरोसे चल रही थी.

मुंबई और दूसरे बड़े शहरों में सभी छोटे कलाकारों का यही हाल है. बड़े कलाकारों को छोड़कर जितने भी दैनिक कलाकार हैं वो दैनिक मजदूर की तरह सांस्कृतिक कार्यक्रमों के ज़रिए ही अपनी रोजीरोटी का इंतजाम करते थे.

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मुम्बई में रहने वाले जौनपुर के सुरेश शुक्ला कहते है “मुम्बई में होली मिलन बड़े पैमाने पर होता था. यह आयोजन यूपी बिहार के लोग करते थे. इनमे भोजपुरी और अवधी गाने वालो को सबसे अधिक काम मिलता था. कुछ कलाकार तो होली उत्सव से ही इतना कमा लेते थे कि उनके साल भर का मुम्बई में रहने के किराए का इंतजाम हो जाता था. इस साल होली में काम नही मिला. इसके बाद अप्रैल माह से शुरू होनी वाली सहालग में भी काम नही मिला. ऐसे में इन कलाकारों के हालात बेहद खराब हो गए है.”

होली के बाद शादी सीजन भी गया

होली के बाद दूसरे सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन नही हुआ. कलाकारों को यह उम्मीद थी कि 14 अप्रैल को पहला लॉक डाउन खत्म हो जाएगा. इसके बाद शादियों का सीजन शुरू हो जाएगा तो बेकारी के दिन खत्म हो जायेगे. जब 14 अप्रैल के बाद दूसरा लॉक डाउन 03 मई तक और उसके बाद 17 मई तक तीसरा लॉक डाउन घोषित हो गया तो सारी उम्मीद खत्म हो गई.

शादियों के इवेन्ट मैनजमेंट देंखने वाली पूजा वाजपई कहती है ” शादियों में अब पहले की तरह खर्च नहीं होंगे और ज्यादा भीड़भाड़ नही होगी ऐसे में शादियों के इवेंट्स बन्द हो जयेगे. जिसका प्रभाव उन कलाकारों पर पड़ेगा जो शादियों में सेलेब्रेटी गेस्ट बनकर जाते थे. उन आर्टिस्ट का काम भी खत्म हो जाएगा जो शादियों के फंक्शन में नाच गाने से जुड़े होते थे.”

छोटी बड़ी हर शादी में आर्केस्ट्रा पर डान्स करने के लिए छोटे कलाकारों को बुलाया जाता था. इनको 10 हजार से 25 हजार एक रात का पैसा मिलता था. यह कलाकार जब शूटिंग नही करते थे तब शादियों में डान्स और गाने के सहारे अपना काम चला लेते थे. शादियो में होने वाले फंक्शन में अब यह ट्रेंड खत्म हो रहा है। पूजा वाजपई कहती है “केवल लॉक डाउन तक ही नही लॉक डाउन खुलने के बाद भी अब कम से कम साल भर शादियों में पहले जैसी रौनक नही होगी.  इस कारण शादियों के फंक्शन से जुड़े ऐसे आयोजनों में कमी आएगी और इससे जुड़े कलाकार बेरोजगार हो जयेगे”.

कैसे होगा परिवार का पोषण

यह आर्टिस्ट अपने कला प्रदर्शन के ज़रिए अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे. अब कार्यक्रम ना होने से यह अपने परिवार का पालन पोषण कैसे कर पाएंगे यह सबसे बड़ी चिंता का विषय है. इनमे बड़ी संख्या में गरीब दैनिक मजदूर कलाकार शामिल है. इनमे गीत-संगीत, नृत्य, नाटक, जादू, कठपुतली, साउंड श्रमिक, बैण्ड पार्टी, ढोल भांगड़ा, शहनाई आदि विभिन्न विधाओं से जुड़े कलाकार शामिल हैं.

आर्टिस्ट वेलफेयर एसोसिएशन उत्तर प्रदेश के अध्य्क्ष अंजनी उपाध्याय कहते है “कलाकारों की आर्थिक मदद के लिए हम कलाकारों ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखा और उनसे मांग की कि स्ट्रगलर कलाकरों की मदद की जाए. जिनके पास लॉक डाउन की वजह से बेरोजगारी आ गई है. यह कलाकार और इनके परिवार भुखमरी के शिकार हो गए है”.  इस संकट में कलाकार समुदाय को यूपी सरकार से राहत राशि की अपेक्षा है.

अब मुंबई में रहना हुआ दूभर

मुंबई में रह कर संघर्ष कर रहे कुछ कलाकरों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी पत्र लिखा है. इनमे दिनेश चन्द्र उपाध्याय, गायक सुरेश शुक्ल, म्यूजिशियन प्रकाश तिवारी, देवेश पाठक और प्रियांशु शामिल है यह सभी कहते है कि हम कलाकारों की हालत “रोज कुंआ खोदो रोज पानी पियो वाली” थी. केवल फ़िल्म, सीरियल, या बड़े आयोजनों के साथ ही साथ हम लोगो जन्मदिन, सालगिरह, बिजनेस पार्टी में भी गाने बजाने का काम करके अपनी जरूरतों को पूरा करते थे. अब यह पार्टियां बन्द हो गई है। ऐसे में बहुत सारे स्ट्रगलर कलाकार बेकारी झेल रहे है. हमारे पास खुद और परिवार के पालन पोषण का कोई रास्ता नही रह गया है.

उत्तर प्रदेश बिहार के यह कलाकार अब घर वापसी करना चाहते हैं. दिक्क्क्त कि बात यह है कि बहुत सारे कलाकारों के पास यँहा भी कोई काम नही है. यँहा से मुम्बई जाने का कारण ही यह था कि मुंबई में मेहनत करके पैसा मिल रहा था.

आसान नही घर वापसी

यूपी बिहार के तमाम कलाकार जिस हालात में मुम्बई गए उसमे कई बार उनका अपने गांव घर से रिश्ता नाता टूट गया था.कई कलाकार तो अपने गांव की खेती और घर तक बेच कर मुम्बई रहने लगें थे. ऐसे लोग अब वापस गांव रहने नही आ सकते. मुम्बई में काम है नही और वँहा की महंगाई कम नही है. इसके अलावा एक आर्टिस्ट के रूप में रहन सहन का खर्च अलग होता है. इस खर्चो की वजह से रखा पैसा भी जाता अब नही बचा है. मुम्बई में रहने का किराया ही इतना है कि बिना काम किये कोई रह नहीं सकता.

हिंदी फिल्मों की कलाकार सुप्रिया कहती है “किसी बड़े कलाकार के लिए भले ही यह दिन मुश्किल भरे ना हो पर छोटे कलाकार का इस संकट के दौर को जीवन व्यतीत करना बहुत कठिन है. खास कर महिला कलाकारों के लिए क्योकि वह तो मेहनत मजदूरी वॉले काम भी नही कर सकती. ज्यादातर लोग उनकी मजबूरी का फायदा भी उठाने के प्रयास में रहते है. ऐसे में स्ट्रगलर कलाकारों के लिए यह दिन बहुत कठिन है. कोरोना से अधिक रोजीरोटी का सवाल है”.

लॉकडाउन में संभावना सेठ की बिगड़ी तबीयत, दोबारा हुई अस्पताल में भर्ती

लॉकडाउन में किसी का बीमार होना भी खतरे से खाली नहीं हैं. बिग बॉस की पूर्व कंटेस्टेंट संभावना सेठ की तबीयत बिगड़ गई है. उऩ्हें अस्पताल में भर्ती किया गया है. इसकी जानकारी संभावना के पति अविनाश ने इंस्टाग्राम के जरिए दिया है.

उन्होंने इसंटाग्राम पर पोस्ट करते हुए लिखा है कि बीती रात संभावना की तबीयत बिगड़ने से हमें अस्पताल जाना पड़ा. सुबह पांच बजे हम वापस आएं हैं. जिस वजह से अब कोई वीडियो ब्लॉग नहीं बनेगा. कुछ दिनों तक वह रेस्ट पर हैं. जैसे ही लोगों को इस बात की शबर मिली तभी काम्या पंजाबी, सब्यासाची और भी कई करीबी रिश्तेदारों ने उन्हें कमेंट किया.

 

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She became addiction, she is the best? lots of love ?

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कमेंट के जरिए ज्यादा लोगों ने पूछा क्या अब वो ठीक हैं. उनका पूरा ख्याल रखें. वहीं कुछ यूजर्स का रिप्लाई करते हुए उनके पति ने कहां उन्हें ब्लड प्रेशर का बीमारी है. फिलहाल वह स्वस्थ्य है. जिस वजह से अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई थी.

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संभावना हर रोज सोशल मीडिया पर अपने यूजर्स के लिए ब्लॉग बनाती हैं. उन्हें 24 घंटे के अंदर दोबारा अस्पताल लेकर जाना पड़ा है. जिससे फैंस ज्यादा परेशान हो गए हैं. उनके स्व्स्थ होने के लिए दुआ कर रहे हैं.

मदर्स डे स्पेशल: मां-बेटी का रिश्ता है सबसे खास

मां शब्द का अर्थ शब्दों मे बयान कर पाना बेहद मुश्किल है लेकिन इस शब्द को अगर 80 साल का बुजुर्ग भी अपनी जुबान पर लाता है तो उसकी भी आंखें नम हो जाती हैं. वो सच्चा प्यार है मां, जो निस्वार्थ और निडर है . मां और बेटे के प्यार को कौन नहीं जानता लेकिन जहां बात आती है सच्ची दोस्ती की तो वो है मां- बेटी का रिश्ता.

ऐसा नहीं है की इनके बीच मे प्यार नहीं होता. प्यार के साथ साथ दोस्ती का रिश्ता इनके प्यार को और मजबूत बनाता है.क्योंकि एक मां ही है जो आपको आप से बेहतर जानती है. बेशक मां बेटी के बीच जेनरेशन गैप होता है, इसके बावजूद भी  इन दोनों के बीच की बौन्डिंग बेहद मजबूत होती है. ऐसा बिलकुल नहीं है की बेटी जबतक अपनी मां के घर है. तब तक ही ये दोस्ती होती है बल्कि शादी के बाद इस रिश्ते में और भी गहरे प्यार का रंग चढ़ता है.

एक बेटी ही होती है जो छोटी -छोटी बात पर मां से झगड़ जाती है और तुरंत ही हमजोली बन जाती है .बेटी जिसे ससुराल में हर पल मां की याद सताती है और उसकी दी नसीहतें याद आती हैं, उसके आंचल को याद कर अपना दामन भिगो लेती हैं. ऐसी ही कुछ खट्टी -कुछ मीठी बातें है जो इस रिश्ते को और भी मजबूत कर जाती हैं .आइए जानते है इस प्यारे से रिश्ते के बारे में.

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मिलकर हर परेशानी का हल निकलती हैं 

माना ये जाता है की बेटियां पापा की लाड़ली होती है लेकिन जब बेटी किसी बात से परेशान या असमंजस मे होती है तो वो पापा से कहने में हिचकती है. तब बेटी सबसे पहले अपनी परेशानी अपनी मां से शेयर करती है .क्योंकि एक लड़की होने के नाते जिस दौर में वो है उस दौर से उसकी मां भी गुजर चुकी है. वहीं अगर मां किसी बात को लेकर चिंतित होती है तो वो अपने दिल की बात अपनी बिटिया से ही कर पाती है.

नए नए नुस्खे आजमाती हैं साथ 

जब बेटी बड़ी होने लगती है तो वो मां के साथ उसका काम में हाथ बटाती है. कभी कभी दोनों मिलकर नए व्यंजन पकाती है और जब बेटी को मेकअप करने का शौक चढ़ता है तो सबसे पहले वो अपनी मां पर ही नए नुस्खे आजमाती है. इससे उन दोनों के बीच एक दूसरे से लगाव और भी बढ़ जाता है.

ज्यादा टाइम बिताती है साथ

ज्यादातर लड़कियां बाहर घूमने के बजाय घर पर ही टाइम बिताती हैं, जिससे मां बेटी एक दूसरे के साथ ज्यादा टाइम साथ रहती हैं. साथ टीवी देखती हैं, बातें करती हैं और यही छोटी- छोटी सी खुशियां एक नया रिश्ता इजात करती हैं और वो हैं मां बेटी के बीच गहरी दोस्ती का. अगर कोई ये सोचता हैं कि वो अपनी मां से अपनी परेशानी बताएगा तो वो परेशानी मे फंस जायेगा तो ये बिल्कुल गलत हैं क्योंकि एक मां ही होती हैं जो हर मुसीबत मे हमारा साथ देती हैं. इस बात का पता आपको खुद ही चल जायेगा क्योंकि अगर आप कभी भी हल्की सी भी तकलीफ होती हैं तो आप के मुंह से सिर्फ मां ही निकलता हैं.

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उम्र की मोहताज नहीं आधुनिकता

‘आधुनिकता’ शब्द की हमारे दिमाग में ऐसी छवि बनती है जैसे कोई समसामयिक और नई बात है. ज्यादातर लोग इसे नए जमाने की देन समझते व मानते हैं. संभवतया इस का मुख्य कारण आधुनिकता को बाहरी या परिधान, मेकअप आदि के स्तर तक सीमित कर देना लगता है. विचारों की आधुनिकता को खुलापन या पाश्चात्य जीवनशैली और सोच मान लिया जाता है. दोनों ही रूपों में आधुनिकता निखरती है. अपने असली रूप में यह हमें लाभ पहुंचाती है.

अकसर कोई बुजुर्ग हमें अपने जैसा या अपने से आगे सोचता हुआ मिलता है तो हम ताज्जुब करते हैं. जनरेशन गैप खत्म होता जान पड़ता है. विचारशील लोग इसे शाश्वत सोच का नाम दे देते हैं जो कालजयी तथा लिंगभेद और देशकाल से ऊपर होती है.19वीं शताब्दी के आखिर में मेवाड़ में गंगा बाई आमेरा ने अपने 8 भाइयों की मृत्यु के बाद स्वयं घरपरिवार का बीड़ा उठाया. शिक्षा ग्रहण की. 1907 में डिलिवरी के 27 दिनों बाद ही देवरानी और उस के कुछ दिनों बाद देवर की मृत्यु हो जाने पर उन के बच्चे को अपनाया, पालापोसा. मेवाड़ में गांधीजी के चलाए स्त्रीशिक्षा आंदोलन में चर्चित रहीं. उस समय हर घर से एक बेटी और एक बहू को पढ़ाने का आंदोलन चला. उन्होंने अपने 2 पोतों की बहुओं को पढ़ाने की अगुआई की. नौकरी लगने पर स्वयं पोते की बहू को नौकरी जौइन कराने ले गईं. प्रपौत्री के जन्म पर उन्होंने शानदार जश्न आयोजित किया, तो लोगों ने हंसी उड़ाई.

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उस समय लड़कियों को इतना महत्त्व नहीं दिया जाता था. लोग आज भी इस बात की चर्चा करते हुए कहते हैं कि गंगाबाई ने सब को मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहा कि लड़का कहां से आता है और लड़की कहां से आती है? प्रकृति ने कोई भेद नहीं किया तो हम क्यों करें? मुझे इस बच्चे के जन्म पर जो खुशी हुई है, मैं उस का आनंद उत्सव मना रही हूं.आज यह बात भले ही आम लगे पर उस समय बहुत खास थी. ऐसा सोचने और करने वाले लोग न के बराबर थे. स्त्रियां परदे में रहती थीं. उस समय वे बहुओं से कहती थीं, ‘कोई घूंघट नहीं निकालेगा. मेरे सामने पैदा हुई हो, तुम्हीं मुझ से न हंसोबोलो और मन की बात न करो तो यह क्या बात हुई.’ बहुएं घरपरिवार, पड़ोस या गांव की हों, सभी उन्हें प्यार से गंगा बूआजी कहती थीं और उन से सलाहमशवरा कर लिया करती थीं.

हमारा सामाजिक परिवेश बनेबनाए ढर्रे पर चलता है, तो हम भी भेड़चाल में शामिल हो जाते हैं. ऐसा क्यों हो रहा है या यह होना भी चाहिए या नहीं, इस पर सोचने की फुरसत भी हमारे पास नहीं रहती. आज रहनसहन, खानपान चमकदमक के नाम पर जितनी आधुनिकता दिखती है, यदि उस की आधी भी सोच के स्तर पर आती तो जातिबिरादरी, अस्पृश्यता, ऊंचनीच जैसी तमाम नकारात्मक सामाजिकता काफी हद तक दूर हो जाती. लोग इन्हें परंपरा के प्रति आस्था और पूर्वजों की देन (?) मान कर इस तरह की धारणाओं को बदलने की कोशिश भी नहीं करते.

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कुछ लोग मिलते हैं तो भी अपवाद के स्तर पर. सुशीला देवी शर्मा 85 साल की हैं, पर शुरू से ही इन की सोच काफी आधुनिक रही. चूंकि बाहरी स्तर पर इन्होंने सादगी ही अपनाई, इसलिए कई बार लोगों की उपेक्षा का शिकार भी रहीं. छोटी उम्र में शादी हो जाने के कारण इन पर घर की जिम्मेदारी आ गई. पति वकालत करना चाहते थे. ऐसे में अपने सिलाईकढ़ाई के हुनर से कमाई कर के पति को इंदौर पढ़ने भेजा. सिलाई कक्षाएं चला कर कमाई बढ़ाई. खुद ने श्रमजीवी कालेज जौइन किया. अपनी कूवत से पढ़लिख कर शिक्षिका बनीं. बच्चे भी खूब पढ़ाए. एक बेटा सर्जन, एक प्रोफैसर और 2 बेटे वकील हैं तो एक बेटी प्रोफैसर और एक डाक्टर है.

आज से 30-35 वर्ष पहले छोटे शहरों में ब्राह्मण  में भी आपस में शादी अंतर्जातीय विवाह मानी जाती थी. जो ब्राह्मण गौड़, औदीचय, आमेरा, पुषकरणा आदि जिस जाति का होता था उसी में विवाह करता था. ऐसे में इन के 2 पुत्रों ने ईसाई लड़कियों से विवाह किया तो इन्होंने सहज रूप से उन्हें अपनाया. घर के बेहद सगों ने इन दोनों के बहिष्कार व संपत्ति से वंचित करने की राय दी व दबाव डाला तो इन्होंने उसे खारिज कर दिया. ये तो अपनी लड़कियों को भी संपत्ति में हिस्सा देने की पक्षधर हैं. यह बदलाव एकदम तो नहीं पर धीरेधीरे पुख्ता हो कर आता गया.

इन के पोतेपोती डाक्टर हैं, जज हैं. वे भी इन की सोच व काम के कायल हैं. वे इन पर बहुत गर्व करते हैं. इन के हाथ की बनाई गई पौलिथीन की आसन, पैचवर्क की साडि़यां, परदे, गिलाफ आदि खूब पसंद करते हैं. ‘कूड़ा’ शब्द सुशीलाजी के शब्दकोश में नहीं है. वे कहती हैं, कभी उन्होंने कूड़ाघर का मुंह नहीं देखा. ये इस तरह की नई चीजें बनाबना कर बांटती रहती हैं.

रानी भारद्वाज 62 साल की हो रही हैं. वे दिल्ली में रहती हैं. वे आधुनिकता को खास उम्र और क्षेत्र की बपौती नहीं मानतीं. उन के दोनों बच्चों ने विदेशी जीवनसाथी चुने तो इन्होंने खुशीखुशी उन का साथ दिया. अपने अरमान पूरे करने के नाम पर बच्चों को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने वाले मांबाप को ये ठीक पेरैंटिंग न कर सकने का दोषी मानती हैं. उन का कहना है कि बच्चों को लिखापढ़ा दो, सहीगलत समझा दो, आगे उन की मरजी. हमें फिर उन की जिंदगी में दखल और उन से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए.
यही नहीं, ये बच्चोंबहू के साथ ब्यूटीपार्लर, मौल घूमनेफिरने तथा बाहर खानेपीने में भी खूब रुचि लेती हैं. पति गांधीवादी और आर्यसमाजी हैं. वे रात को जल्दी सो जाते हैं. वे इतनी भ्रमणशील और देररात तक चलने वाली जिंदगी पसंद नहीं करते तो ये अपनी ओर से उन पर कोई विचार नहीं थोपतीं. बच्चे छोटे थे, तब ये अकेली ही जा कर सिनेमा देख आती थीं.

ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सोच के सम्मान को महत्त्व देती हैं. ये अपनेआप को या अपने विचारों को किसी पर लादना ठीक नहीं समझतीं. हर उम्र और विचारधारा वाले लोगों से इन की पटरी बैठ जाती है. हाल ही में बेटे द्वारा रशियन मूल की लड़की से शादी करने पर जब बहू ने भारतीय रीतिरिवाज से शादी की इच्छा प्रकट की, तो लड़की वालों की ओर से भी सारा इंतजाम स्वयं कर के उस की इच्छा का सम्मान किया.

शादी में ये फालतू खर्च पसंद नहीं करती हैं, इसलिए नहीं किया. व्यर्थ रिश्तेदारों को कपड़ेलत्ते, लेनादेना, उपहारबाजी और ऐसी ही रस्मों के बहाने व्यक्ति को कर्जदार बनाने वाली परंपराएं ये पसंद नहीं करतीं. जिस से सचमुच खुशी मिले, वही सामाजिकता इन्हें रास आती है. हां, शादीब्याह में टैंट वाले, फूल वाले और बैरों द्वारा टिप मांगने और उस की राशि बढ़वाने पर ये आसानी से खुलेहाथ से देना पसंद करती हैं.
प्रतिभा रोहतगी का व्यक्तित्व भी बहुआयामी है. वे 74 वर्ष की हैं. 1993 तक राजनीति में सक्रिय  रहीं. वे लेखिका भी हैं. उन की 3 पुस्तकें छपी हैं, ‘किसी से कुछ मत कहना’, ‘प्रतीक’ और ‘कहता चल.’
वे कविताएं भी लिखती हैं. उन का सब से ज्यादा जोर शिक्षा पर है. उन्होंने अपने चारों बच्चों को खूब पढ़ाया. 2 डाक्टर हैं, एक वकील और एक बेटी अमेरिका में बैंककर्मी. पोतेपोती भी अच्छी तरह पढ़लिख रहे हैं. उन के दोनों बेटे दिल्ली में हैं. एक डीएलएफ और दूसरा यमुनापार में. वे फिर भी दरियागंज में किराए के मकान में रहती हैं, उन के अपने मकान का किराया आता है.

वे कहती हैं, ‘‘मैं सब के साथ प्रेम से रहना चाहती हूं. उन की भी खुशी बनी रहे और मेरी भी. मेरे  3-3 घर हैं. जब जहां मन करता है, चली जाती हूं. खास मौके पर पूरे परिवार को कनाट प्लेस या किसी और अच्छी जगह अपनी ओर से पार्टी देती हूं. वे बुलाते हैं तो भी एंजौय करती हूं.’’
राजनीति के बारे में वे कहती हैं, ‘‘मैं ने भाजपा में रह कर व निर्दलीय दोनों स्थितियों में राजनीति को देखा. राजनीति में स्वार्थ और निजी महत्त्वाकांक्षाओं का खेल ज्यादा है. बड़े राजनेता छोटों को अपने मातहत समझ कर खूब कुटवातेपिटवाते हैं. मुझे कुछ करने की इच्छा थी, तो मैं जुड़ी, लेकिन जब लगा कि कुछ करने नहीं दिया जा रहा है, तो क्यों समय बरबाद करती. समाज का भला राजनीति में रहे बगैर भी खूब किया जा सकता है. मैं अब खूब मस्त रहती हूं. जब जितना बन पड़े, कर लेती हूं. घूमनाफिरना, मिलनाजुलना, हंसीमजाक सब मेरे जीवन में खूब है.’’

प्रतिभाजी के अधिवक्ता पुत्र अफसोसपूर्वक कहते हैं, ‘‘सच, हम मम्मी को समझ नहीं पाए. इन्हें हलके में ही लेते रहे. यदि हम ने और पापा ने मम्मी का समय पर ठीक से साथ दिया होता तो स्थितियां आज कुछ और होतीं. मम्मी ने जो कुछ किया, अकेले अपने दम पर किया. वाकई, यह सब कम नहीं है.’’
प्रतिभाजी हर समय को एंजौय करती हैं, कहती हैं, ‘‘छोटीमोटी नोकझोंक के अलावा हम में बड़े डिफरैंस नहीं होते. बाहर रहने के बावजूद हमारे बच्चे नग्नता पसंद नहीं करते. हम ने उन्हें संस्कार और मूल्य दिए हैं. आगे उन की अपनी सोच और समझ. वे क्या चाहते हैं और हम क्या चाहते हैं, यह एकदूसरे को बताए बिना भी हम अच्छी तरह समझते हैं. आज इसी सोचसमझ के अभाव से परिवारों में टूटन और गैप आ रहे हैं.’’
जनरेशन गैप को लोग बहुत बड़ा मुद्दा बना कर पेश करते हैं. इसे पुरातनता और आधुनिकता के बीच न पटने वाली खाई के रूप में भी मानते हैं. यह इतना बड़ा हौआ है नहीं, जितना बड़ा बना दिया जाता है.
94 वर्षीया विद्यावती जैन दिल्ली के दरियागंज में अकेली रहती हैं. 1997 में पति का निधन हुआ और उन्होंने जीवन की गाड़ी को अवसाद की पटरी पर न चढ़ने दिया. उन की 6 बेटियां हैं. वे मुंबई, गाजियाबाद व दिल्ली में रहती हैं. विद्यावतीजी के पास 2 नौकर हैं. फिर भी वे काफी काम खुद करती हैं.
जब मैं ने उन से पूछा कि क्या 6 बेटियां बेटे की उम्मीद में हो गईं? तो वे सहजरूप से कहती हैं, ‘‘बेटे की उम्मीद? यह आप क्या कह रही हैं. मेरी तो छहों बेटियां बेटों से भी ज्यादा हैं. आसपड़ोस में कहीं भी पूछ आओ, कोई भी आप को बता देगा, मैं ने छहों के जन्म पर मिठाइयां बांटी हैं. आज इन बेटियों की बदौलत जाने कितने परिवारों से हमारा संबंध जुड़ गया है. नातेरिश्ते बढ़ गए हैं. 6 दामाद व बच्चे.’’
क्या आप के समय में परिवार नियोजन के साधन थे, इस पर वे कहती हैं, ‘‘आज जितने तो नहीं थे, फिर भी थे. हां, जो थे वे 4-5 साल ही कारगर थे, इसीलिए हमारे 4-6 साल के गैप पर बच्चे हुए.

आप ने बच्चे कैसे पालेपोसे? इस सवाल पर वे बोलीं, ‘‘मैं समय के अनुसार चलने में विश्वास रखती हूं. मैं ने सब को खूब पढ़ायालिखाया. मेरी सब बेटियां अच्छी पढ़ीलिखीं और अच्छे ओहदों पर हैं. यह नहीं कि पढ़ रही हैं तो वे और कुछ काम न करें. हम ने उन्हें गाना, डांस, सिलाईकढ़ाई वगैरह सब सिखाया. इस वजह से हमें उन की ससुरालों में भी बहुत मान मिला. वरना पढ़ाई के नाम पर लड़केलड़कियां समय खूब बरबाद करते हैं और टाइम पर जो सीखना चाहिए वह नहीं सीखते. घर के बाकी लोग थकतेपिसते रहते हैं. ऐसे में बच्चों में संवेदना व समझने की भावना भी नहीं पनपती.’’

आज का आधुनिक खानपान और परिधानशृंगार को देख वे कैसा अनुभव करती हैं? इस पर वे कहती हैं, ‘‘खानपान पहले ज्यादा अच्छा था मौसम व मिजाज के अनुसार. अब तो जंक व बाजारू खानपान बढ़ गया है. ठंडागरम इकट्ठा खाया जाता है. पोषण के बजाय स्वाद पर ज्यादा जोर है. फैशन और दिखावा बढ़ रहा है. बौडी प्रदर्शन हो रहा है भले ही बौडी दिखाने योग्य न हो. हमारे समय में व्यायाम, घुमाईफिराई की वजह से लोगों के शरीर ज्यादा स्वस्थ रहते थे. मनोरोग भी कम थे. अब पैसा तो बढ़ा है पर खुशी कम दिखती है.’’
आप परंपराओं को कितना मानती हैं? इस पर वे बताती हैं, ‘‘जितना जरूरी हो और जो आसानी से निभ जाए. बेटियों की शादी हम ने ऐसी जगह नहीं की जहां परंपराओं के नाम पर लड़की वालों का शोषण हो. वे बलि के बकरे बनाए जाएं. न ही हम ने ये परंपराएं मानीं कि बेटी के घर पानी न पियो, उन के घर खाओ मत. हम तो उन के वहां खातेपीते और रहते हैं. मैं सब बेटियों के पास जाती रहती हूं.

‘‘फालतू ढकोसलों में मेरा विश्वास नहीं. दूसरों के लिए कुछ कर सकूं, तो उस में मुझे जीवन की सार्थकता लगती है. मैं अपनी जिंदगी से बहुत खुश हूं. अभी भी फोन पर बात, कभीकभी बाहर जाना व घर के काम भी करती हूं. समय बरबाद करना मुझे आज भी पसंद नहीं.’’लज्जा गोयल मूलतया उत्तर प्रदेश की हैं. अब वे दिल्ली में रहती हैं. ये हर स्थिति से जूझनेनिबटने का माद्दा रखती हैं. इन के पति का मसूरी में मर्डर हो गया था. वे पत्रकार थे. इन्होंने हत्यारे की तफतीश की पूरी कोशिश की. पुलिस, कानून, परिचित आदि सब से संपर्क रखा. ये निसंतान थीं, सो, एक बच्चा गोद लिया. लोग ऐसे बच्चों से सच छिपाते हैं पर इन्होंने तो गोद लेने के बाद कुबूल किया. उसे पढ़ानेलिखाने की कोशिश की. वह ज्यादा पढ़लिख न पाया तो उसे हुनर की ओर प्रेरित किया. इन्होंने बेटे को अपनी पसंद से शादी करने की छूट दे रखी है.

बस, प्यार करो, तो निभाओ, यही इन की अपेक्षा है. इन्होंने कई लड़कियों को बेटी का प्यार दिया. ससुराल वालों ने इन्हें संपत्ति से बेदखल किया तो व्यर्थ कानूनी पचड़ों में पड़ने के बजाय इन्होंने अपने हुनर व आत्मसम्मान पर ध्यान दिया.चिकित्सा पद्धति पर इन्हें विश्वास है. कमरदर्द की इन्हें शिकायत रहती थी, सो, कमरदर्द का कई जगह से परामर्श कर के इन्होंने औपरेशन कराया. देशीघरेलू दवाओं के फेर में उसे बढ़ने या बिगड़ने न दिया. इन के घर में पति की पुस्तकों का कलैक्शन है. ये पढ़ने के शौकीनों को पुस्तकें पढ़ने व ले जाने देने में सार्थकता समझती हैं. स्वयं भी पढ़ती रहती हैं.

इन्हें नईनई बातें जाननेसमझने का शौक है. प्रसिद्ध जगहों पर भ्रमण करना तथा व्यायाम करने में इन्हें रुचि है. व्यंजन चाव से बनातीं व खिलाती हैं. बिजली, पानी और बैंक जैसे तमाम जरूरतमंद विभागों में आजा कर अपने काम करा लेती हैं.बात व मुद्दों की तह तक पहुंचने की इन की क्षमता के कारण कोई समस्या इन के सामने ज्यादा देर टिक नहीं पाती. ये धार्मिक ढकोसलों और कर्मकांडों में विश्वास नहीं रखतीं. पति की बौद्धिकता के कारण इन्होंने राजनीति व लेखन, पठनपाठन में रुचि ली. स्वयं एमए तक पढ़ाई की. संपादन कार्य में पति का सहयोग किया.

ये पढ़ीलिखी बहू चाहती हैं, ताकि आगे की पीढ़ी भी पढ़ीलिखी बने. परदे या दिखावे में इन का विश्वास नहीं. बहू जो चाहे करे, नौकरी करे तो अच्छा है. नौकरी करने से खाली टाइम नहीं रहेगा व दोनों अपना घर ठीक चला सकेंगे. सेवा के लिए बेटेबहू या औलाद होती है, ये ऐसा नहीं मानतीं.इन्हें रिऐलिटी शो या शोशा बनाने वाली न्यूज अथवा तमाशबीन सीरियलों पर विचारविमर्श करने की आदत है. ये प्रसारण पर कुछ नीति चाहती हैं. घरघर में इस तरह का सांस्कृतिक आक्रमण पसंद नहीं करतीं.

आधुनिकता को खास उम्र से जोड़ना उस के साथ अन्याय करना है. उसे बाहरी रूप में ही माननासमझना एकांगी रूप को देखना है. उसे होहुल्लड़ या पार्टीबाजी में ही जाननाबूझना अपने ही चश्मे से उसे देखना है. आधुनिकता जेहनी और वैचारिक है, जहां मिल जाए वहीं और उसी रूप में स्वागतयोग्य है.आधुनिक होने से जीवन सहज हो जाता है. व्यक्ति तकनीक व माहौलफ्रैंडली हो कर बेहतर जीवन की ओर बढ़ता है. लोगों को समझनेबूझने, जाननेसमझने की औटोमैटिक क्षमता उस का सब जगह अनुकूलन करती है, घरदफ्तर, बाहरभीतर सब जगह.

दरअसल, ऐसा तथाकथित आधुनिक तो हम में से कोई नहीं होना चाहेगा जो बाहर तो आधुनिक दिखे पर दकियानूस रहे. आधुनिकता को सही रूप में जाननेसमझने के बाद तो उस का मजा ही कुछ और है. जीवन बहती धार है. हम न हों, तो भी हमारे आसपास लोग व माहौल आधुनिक होते ही हैं.

शराब की मार : अर्थव्यवस्था में सुधार संक्रमण में हाहाकार

लॉकडाउन 3 के रियायत का पहला दिन राज्यों के अर्थव्यस्था के  लिए तो बेहतर रहा लेकिन कोरोना संक्रमण से होने वाले नाकाबंदी को कमजोर करने वाला रहा . पहले दिन ही लोग सामाजिक बंधन को तोड़ते हुए शराब पीता है भारत का प्रतीक बन कर उभरा. ना किसी को कोरोना वायरस का डर सता रहा था ना ही कोई सामाजिक लोग लज्जा से पीड़ित था. सबको हर कीमत पर सिर्फ और सिर्फ अपनी शराब की बोतल चाहिए थी. यह हम नहीं कह रहे हैं , यह कल की स्थिति बयान कर रही है. आइए जानते हैं भारत के कितने प्रतिशत लोग शराब पीते हैं. कोरोना संकट में क्यों जरूरी है शराब दुकान खोलना.  क्या इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है. जनजीवन  से लेकर सरकारी राजस्व तक शराब का दबदबा है. आइए इस बात को समझते हैं .

* शराब पर क्यों दी रियायत :- देश व्यापी लॉक डाउन के कारण राज्यों  अर्थव्यवस्था नाजुक हो गया था , उसी को सही करने के उद्देश्य से शराब के दुकानों को खोला गया . ज्यादातर राज्यों के कुल राजस्व का 15 से 30 फीसदी हिस्सा शराब से आता है.

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* शराब का प्रभाव राज्यों के कमाई पर :-  बिहार और गुजरात में शराब बिक्री पर प्रतिबंध लगा हुआ है, लेकिन बाकि राज्यों के कमाई पर शराब का बड़ा प्रभाव है. सभी राज्यों की बात की जाए तो पिछले वित्त वर्ष में उन्होंने कुल मिलाकर करीब 2.5 लाख करोड़ रुपये की कमाई यानी टैक्स राजस्व शराब बिक्री से हासिल की थी.  शराब की बिक्री से यूपी के कुल टैक्स राजस्व का करीब 20 फीसदी (करीबन  26,000 करोड़ ) हिस्सा मिलता है. यही पडोसी राज्य उत्तराखंड में भी शराब से मिलने वाला आबकारी शुल्क कुल राजस्व का करीब 20 फीसदी रहा था. वही वित्त वर्ष 2019-20 में शराब की बिक्री से महाराष्ट्र ने 24,000 करोड़ रुपये, तेलंगाना ने 21,500 करोड़, कर्नाटक ने 20,948 करोड़, पश्चिम बंगाल ने 11,874 करोड़ रुपये, राजस्थान ने 7,800 करोड़ रुपये, पंजाब ने 5,600 करोड़ रुपये और  दिल्ली ने  5,500 करोड़ (करीब 14 फीसदी) का राजस्व हासिल किया था.

* शराब पर स्पेशल कोरोना टैक्स :-   सोमवार को उमड़े भूड़ को देख सरकार भी कुछ अलग कमाई करने जा रही  है , दिल्‍ली में मंगलवार से शराब 70 फीसद महंगी हो गई है. दिल्‍ली सरकार ने शराब की बिक्री पर ‘स्पेशल कोरोना फ़ीस’ वसूलने का फैसला किया है. कोरोना फीस को लेकर कैबिनेट में चर्चा हुई थी और उसी में यह राय बनी कि शराब की बिक्री पर कोरोना फीस वसूली जाए. सोमवार देर रात को इस बारे में आदेश भी जारी हो गया.

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* 16 करोड़ से अधिक लोग शराब का सेवन करते हैं :– देश में 16 करोड़ से अधिक लोग शराब का सेवन करते हैं. नशीले पदार्थ के सेवन की दृष्टि से हम दुनिया के  चौथे नंबर पर हैं .

* शराब के बाद लोग भांग का सेवन करते हैं :– शराब के सेवन के बाद दूसरे नंबर पर देशभर में लोग भांग का सेवन करते हैं. जिसका करीब  3 करोड से अधिक लोग सेवन करते हैं. कोई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में  शराब के सरकारी दुकान की तरह ही भांग का सरकारी दुकान भी होता है. मध्य प्रदेश सरकार आज से ही शराब और भांग की बिक्री शुरू करने जा रही है .

* किस राज्यों में कितना खपत :- हालिया एक सर्वेक्षण में यह पता चला है कि देश के 5 राज्यों में शराब का अधिक खपत है. छत्तीसगढ़ त्रिपुरा पंजाब  अरुणाचल और गोवा , इसके बाद हरियाणा ,  दिल्ली,कर्नाटका और महाराष्ट्र नंबर आता है .

*18 से 49 वर्ष के लोग अधिक शराब पीते हैं :-  एक बात जानकर आप भी आश्चर्यचकित हो जाएंगे कि भारत में 40% से अधिक लोग समाज की लोक लज्जा को किनारे करते हुए शराब सेवन करते हैं. शराब पीने की औसत आयु की अगर बात की जाए तो सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के सर्वेक्षण के अनुसार 18 से 49 वर्ष के लोग अधिक शराब पीते हैं.

* शराब पीने  में महिलाएं लाइन में दिखी :-  शराब के सेवन में महिलाएं भी पीछे नहीं हैं. लॉक डाउन 3 में शराब की दुकान खोलने का आदेश जैसे ही जारी हुआ, समाज के हर तबके में जोश भर गया . यह शिक्षित राज्यों में भी देखा गया. तमिलनाडु आंध्र और तेलंगाना में  शराब की दुकानों पर महिलाएं लाइन में दिखी. एक सर्वेक्षण के अनुसार पता चलता है कि देश में 6% महिलाएं शराब पर निर्भर हैं. किसी ना किसी तरह यानी उन्हें हर कीमत पर शराब चाहिए ही चाहिए. 2% महिलाएं अभी शराब की लत नहीं है. वह अपने साथी के साथ ही शराब पीती है. खुद खर्च करने से बचती है और अधिक सेवन भी नहीं करती है.

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* शराब पीने के बाद  लोग अपना आपा खो देते हैं.  :-  शराब का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है. यह हर कोई जानता है , लेकिन क्या आप यह भी जानते हैं कि भारतीय समाज में लड़ाई झगड़ों का प्रमुख कारण शराब बन कर उभर रहा है. सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश में शराब पीने के बाद अधिकतर 10 में से चार लोग अपना आपा खो देते हैं. बातों ही बातों में तू तू मैं मैं पर आ जाते हैं.

* महिलाओं शराब सेवन के बाद ज्यादा कंट्रोल में रहती हैं :- सर्वेक्षण से एक बात और पता चलता है. महिलाओं शराब सेवन के बाद ज्यादा कंट्रोल में रहती हैं, जबकि पुरुष इस मामले में लापरवाह हैं रिपोर्ट यह बताता है कि शराब सेवन के बाद हर पांचवां व्यक्ति अपना आपा खो देता है, इसमें हर 16 वी महिला अपना आपा खो देती है.

घर पर ऐसे बनाएं टेस्टी इंडियन टाकोज

लेखिका-रश्मि देवर्षि 

 

सामग्री-
मूंग और मोठ स्प्राउटस किये हुए 1 कप,

काले चने उबले 1/2 कप,

तेल 3 छोटी चम्मच,

हरा प्याज़ बारीक कटा हुआ 1/4 कप,

1 टमाटर मीडियम आकार का बारीक कटा हुआ,

हरीमिर्च 1 बारीक कटी,

देगी मिर्च 1 छोटी चम्मच,

चाट मसाला 1 छोटी चम्मच,

सूखा पुदीना पाउडर 1/2 छोटी चम्मच,

नमक 1/2 छोटी चम्मच,

काला नमक और भुना हुआ जीरा 1-1 छोटी चम्मच,

टमाटर सॉस 1 छोटी चम्मच,

चिली सॉस 1 छोटी चम्मच,

खजूर इमली की चटनी 1 छोटी चम्मच,

हरा धनिया बारीक कटा हुआ 1 छोटी चम्मच.

टाकोज शैल 4 से 5,

बटर 2 बड़ी चम्मच,

ऊपर से सजाने के लिए हरा धनिया और टमाटर सॉस.

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सलाद के लिए-
पत्ता गोभी कटी हुई 1/2 कप,

लाल प्याज 1/4 कप,

हरा धनिया बारीक कटा हुआ 2 छोटी,

व्हाइट विनेगर 1/2 छोटी चम्मच,

नमक 1/4 छोटी चम्मच,

पिसी काली मिर्च 1/2 छोटी चम्मच.

इन सभी सामग्री को एक बाउल में डालकर मिला लें और 15 से 20 मिनट के लिए ढककर रखें.

विधि-
सबसे पहले पैन में तेल गरम करें, जैसे ही तेल गरम हो जाये हरा प्याज़ और टमाटर डालकर हल्की आंच में भूनें. प्याज टमाटर भुन जाने के बाद इसमें मूंग मोठ के स्प्राउटस, और उबले काले चने और हरीमिर्च डालकर एक मिनट के लिए पका लें.

 

इसके बाद देगी मिर्च, चाटमसाला, सूखा पुदीना, नमक, काला नमक, भुना जीरा, टमाटर सॉस, चिली सॉस, खजूर इमली की चटनी, कटा हराधनिया डालकर अच्छे से मिला लें और पावभाजी वाले मैशर से हल्का सा मैश करें. गैस बंद कर मिश्रण को ठंडा होने के लिए रख दें.

 

सभी टाकोज शैल में ब्रश की सहायता से बटर लगाकर इनमें तीन से चार छोटी चम्मच स्प्राउटस और चने का तैयार मिश्रण भरें और टाकोज को ऊपर से पत्ता गोभी प्याज़ की सलाद, टमाटर सॉस और हराधनिया से सजाकर सर्व करें.

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