जमादार संग जन्मदिन –

लॉकडाउन के दौरान जिनके जन्मदिन पड़ रहे हैं वे अपने आप से ही हेप्पी बर्थ डे कहकर सेलिब्रेट कर रहे हैं. 12 अप्रैल को मध्यप्रदेश के राज्यपाल लाल जी टंडन ने भी अपना जन्मदिन सादगी से मनाया पर इसकी एक खास बात जो भोपाल के राजभवन की चारदीवारी में ही कैद होकर रह गई वह यह थी कि राज्यपाल महोदय ने एक जमादार को भी साथ बैठालकर खाना खिलाया. कायदे से इस खबर को जितना रेस्पोंस मिलना चाहिए था वह नहीं मिला क्योंकि मीडिया का सारा ध्यान इन दिनों कोरोना और लॉकडाउन से जुड़ी खबरों और उससे भी ज्यादा अफवाहों पर है . लॉकडाउन के चलते बड़े नेता अधिकारी बुके लेकर राजभवन नहीं पहुंचे थे इसलिए भी इस गरमागरम समाचार की भ्रूण हत्या हो गई.

दलितों के साथ भोज कर उन्हें उपकृत करने का सियासी रिवाज सादगी से सम्पन्न हो गया तो कहना मुश्किल है कि यह बड़प्पन था , मजबूरी थी या फिर मनोरंजन था. बहरहाल डाइनिंग टेबल पर सोशल डिस्टेन्सिंग का पूरा और खास ध्यान रखा गया जिससे हल्दी लगी न फिटकरी और रंग भी चोखा आया. लालजी टंडन के जन्मदिन पर उनकी तनहाई के साथी इस जमादार की तो मानो पीढ़ियाँ तर गईं. लेकिन वह पैदाइशी बेचारा यह कभी नहीं समझ पाएगा कि वह दिन कब आएगा जब देश के नेता यह सोचें कि जो स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन वे रोज खाते हैं वह दलितों को कभीकभार भी नसीब क्यों नहीं होता.

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सबसे बड़े भक्त की परीक्षा –

इसमें कोई शक नहीं कि कोरोना और लॉकडाउन से दान दक्षिणा का कारोबार भी प्रभावित हुआ है लेकिन इससे भी बड़ी चिंता की बात पंडे पुजारियों के लिए यह है कि फुर्सत में बैठे लोग कहीं यह सोचना शुरू न कर दें कि जब बगैर दान दक्षिणा के भी काम चल ही जाता है तो क्यों पैसा जाया किया जाये और भगवान कहीं है तो उसने कोरोना को भस्म क्यों नहीं कर दिया उल्टे खुद ही बंद हो गया . देश भर में जो ब्रांडेड मंदिर बंद हैं उनमे से एक केदारनाथ का भी है. इस मंदिर की मूर्ति की पूजा अति उच्च श्रेणी के रावल समुदाय के ब्राह्मणो के निर्देशन में ही होती है. इन दिनों यह ज़िम्मेदारी भीमा शंकर रावल निभा रहे हैं जो महाराष्ट्र के नांदेड तरफ कहीं फंसे हुये हैं.

अब यह कोई हिन्दी फिल्म तो है नहीं कि भीमा शंकर उड़कर केदारनाथ पहुँच जाएँ लिहाजा उन्होने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है कि वे ही उड़नखटोले का इंतजाम कर दें. केदारनाथ के कपाट 29 अप्रेल को खुलना है अब अगर नरेंद्र मोदी कृपा नहीं बरसाते हैं तो सालों पुराना रिवाज टूट जाएगा और मूर्ति मुकुट विहीन ही रहेगी क्योंकि भगवान का स्वर्ण मुकुट रावल अपने पास ही रखते हैं और कभी कभार इसे पहनते भी हैं. पैसों की तंगी के इस दौर में अगर सरकार फिजूल का यह खर्च करती है तो भी निशाने पर रहेगी कि लाखों दरिद्रनरायन यानि मजदूर यहाँ वहाँ भूखे प्यासे फंसे पड़े हैं और आप एक  रावल के केदारनाथ मंदिर पहुँचने के लिए हवाईजहाज पर पैसा फूँक रहे हैं.

असल परीक्षा इस रावल की नहीं बल्कि मोदी जी की है जो कभी कभार हिमालय की किसी गुफा में जाकर ध्यानमग्न होकर बैठ जाते हैं तो समूचे आर्यावर्त में हाहाकार मच जाता है. लोग शंकर से ज्यादा नरेंद्र को पूजने लगते हैं. आखिर ज्ञान, ध्यान और योग, समाधि बाला कट्टर हिन्दूवादी नीलकंठनुमा पीएम पहली बार मिला है जिसे उस वक्त तक नहीं खोना है जब तक जीडीपी शून्य से भी नीचे न आ जाए अर्थात सभी भिक्षुक न हो जाएँ. अब देखना दिलचस्प होगा कि नरेंद्र मोदी भीमा शंकर को कैसे केदारनाथ पहुंचाते हैं . फैसला होने तक रावल चाहें तो यह दोहा गुनगुना  सकते हैं कि ……. कभी कभी भगवान को भी भक्तो से काम पड़े, जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े….

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बक़ौल जस्टिस काटजू –

लॉकडाउन का दौर यूं ही सूना सूना सा गुजर जाता अगर रिटायर्ड जस्टिस मार्कण्डेय काटजू यह ट्वीट न करते कि ईश्वर कहीं है तो कोरोना को खत्म क्यों नहीं कर देता. बात बहुत मामूली है और हर किसी के खासतौर से आस्तिकों के दिमाग में सबसे पहले आई होगी जो दिन रात पूजा पाठ में उलझे अपना और दूसरों का भी वक्त व पैसा जाया किया करते हैं. हैरान परेशान इन लोगों का संदेह दूर करने ऊपर से कोई आकाशवाणी नहीं हुई तो ये नीचे बालों की सलाह पर दोगुने जोश से भजन पूजन में यह सोचते लग गए कि यह भी एक तरह की प्रभु लीला ही है लिहाजा ज्यादा सर, घबराहट पैदा करने बाले इस सवाल में न खपाया जाये.

घोषित तौर पर घनघोर नास्तिक जस्टिस काटजू तो अगले ट्वीटके मसौदे पर चिंतन मनन करने अपनी लाइब्रेरी तरफ चले गए लेकिन सोशल मीडिया पर खासा बबाल मचा गए जिसके लिए वे बदनाम भी खूब हैं. भक्तों ने नाना प्रकार के तर्क दिये कुछ अभक्तों ने उनका समर्थन भी किया. लेकिन उनके मामूली से सवाल का कोई भी सटीक जबाब नहीं दे पाया. बड़े और नामी धर्म गुरु व शंकराचार्य नुमा महामानव और मुल्ले, पादरी तक अपने अपने ईश्वर की इस खामोशी पर हैरान हैं और ऐसी किसी बहस से कतरा रहे हैं जो उनकी दुकानदारी के लिए खतरा बन जाये तो इन पर तरस आना स्वभाविक बात है. डर तो इस बात का है कि कल को ये लोग कोरोना को ही अवतार घोषित कर उसके पूजा पाठ के इंतजाम न करा दें जैसे कभी स्माल पाक्स को शीतलामाता करार देकर करबाए थे.

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आ अब लौट चलें –

बसपा प्रमुख मायावती ने मुद्दत बाद वे तेवर दिखाये जिनहोने उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है.   अंबेडकर जयंती के मौके पर अनायास या जानबूझकर उन्हें याद आया कि बाबा साहब ने तो पूरी ज़िंदगी दलितों के भले के लिए समर्पित कर दी थी और एक वे हैं जो बार बार मनुवादियों के बहकाबे में आकर अपने दलित भाई बहिनों को भूल जाती हैं. लिहाजा भूल सुधारते उन्होने अरसे बाद एक सच्ची बात यह कही कि लॉकडाउन के चलते जो लाखों मजदूर देश भर में इधर उधर फंसे हैं उनमें से 90 फीसदी दलित और अति पिछड़े हैं जिनकी अनदेखी हर एक सरकार ने की.

उनके इस बयान पर प्रतिक्रियाएँ तय है देर से आएंगी खासतौर से भाजपा इसे तूल देकर अपना नुकसान नहीं करना चाहेगी क्योंकि उसका वोट बेंक तो अपने घरों में आराम फरमाता रामायण और महाभारत का लुत्फ उठा रहा है. वह अगर कुछ कहेगी भी तो सिर्फ इतना कि इस नाजुक मुद्दे पर धर्म और जात पांत की राजनीति न की जाये. लेकिन मायावती ने कर दी है तो यह उनकी मजबूरी भी हो गई थी वजह उन्हें कोई पूछ ही नहीं रहा था उल्टे कोसने बाले कोस ही रहे थे कि बातें तो बड़ी बड़ी करती थीं अब जब दलित बड़ी दिक्कत में है तो तो मुंह में दही जमाए बैठी हैं. अब देखना दिलचस्प होगा कि मायावती इस सच पर कितने दिनों कायम रह पाती हैं और कैसे कैसे इसे भुना पाती हैं.

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