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पंजाब के टेस्टी छोले ऐसे बनाएं

मेथी के साथ बने छोले बहुत अच्छे लगते हैं.क्योंकि मेथी पचाने का काम करता है. छोले को कई तरह से बनाएं जाते हैं जैसे काबुली, चना , मटर के छोले. छोला उत्तर भारत का लोकप्रिय डिश है. बाजारों में छोले चावल या छोले भटूरे खूब पसंद किया जाता है. ऐसे में आइए आपको बताते हैं कैसे बनाएं छोले का यह डिश .

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समाग्री

काबुली चना

चाय की पत्ती

इलायची

नमक

तेज पत्ता

प्याज

टमाटर

अदरक

हरी मिर्च

काली मिर्च

लौंग

धनिया पाउडर

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विधि

सबसे पहले छोले को बीनकर धो लें और एक रात के लिए उसे भिंगोकर रख दें. भिगे हुए छोले में थोड़ा सा नमक डाल दें. अब छोले को निकालकर कुकर में रख दें उबालने के लिए. साथ ही कुकर में एक पैकेट चाय की पत्ती और उसमें बड़ी इलायची भी रख दें.

अब छोले में लगभग 2-3 सीटी लगा लें. दूसरी तरफ आप कुछ प्याज , अदरक और लहसून छील के काट लें. अदरक और लहसून को ब्लेंड कर लें.

अब सबसे पहले कड़ाही में चेल डालकर उसमें जीरा और लाल मिर्च डाल लें,उसके साथ ही उसमें हींग डाल दें. अब उसमें अदरक और लहसून का पेस्ट डाल दें. इसके बाद इसमें प्याज को डालकर भूनें. अब इसके बाद जब प्याज कुछ देर के लिए भून जाए तब उसमें टमाटर डाल दें.

जब सब भून जाएं तो उसमें सभी मसाले को  मिक्स करके डालें, इसके बाद से उसमें अब उसे थोड़े देर के लिए पकाएं. उसके बाद उसमें बॉयल चना डालें. उसे कुछ देर के लिए पकाएं.

अब इसमें कुछ कप पानी डालकर 3 सीटी लगा दें. उसमें मेथी भी डालें. अब आपका चना छोला तैयार है. आप इसे चावल के साथ परोसे.

 

#नियमों का पालन कर #अच्छे नागरिक बने

बहुत से लोग ऐसे हैं जो अपनी कार के रीयर वियू मिर्रस को सही तरीक़े से एड्जस्ट करने की जेहमत नही उठाते. सिर्फ़ कुछ ही मिनट लगते हैं सड़क पर गाड़ी दौड़ाने से पहले शीशों को सही तरह एड्जस्ट करने में हाँ लेकिन आपकी गाड़ी को आपके अलावा कोई और नही चलाता हो तो बात और है अगर ऐसा नही है तो आपको इस साधारण सी लगने वाली लेकिन बेहद अहम बात पर ध्यान देने की ज़रूरत है.

जब भी आपकी गाड़ी के रीयर व्यू मिर्रस(ORVMs) को सेट करें तो ज़रूर ध्यान रखें की ब्लाइंड स्पोट न रहे. आप ये काम आसानी से कर सकते हो अगर आप इन सिंपल लेकिन ज़रूरी स्टेप्स का ध्यान रखें.

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अगर आप ड्राइवर की सीट पर बैठे हैं तो अपने सिर को ड्राइवर की साथ वाली यानी राइट साइड की खिड़की की ओर झुकाएँ और फिर शीशे को तब तक एड्जस्ट करें जब तक आपको अपनी गाड़ी का कोना कम से कम दिखे, फिर सीधे बैठ जाएँ और यही प्रक्रिया पेसेंजर सीट पर बैठ कर अपनायें. इसके लिए पेसेंजर साइड पर बैठ जाएँ और जितना आप पहले सीधे हाथ की तरफ़ झुके थे उतना ही अब अपने बाएँ हाथ की खिड़की की तरफ़ झुकें और फिर शीशे को तब तक एड्जस्ट करें जब तक आपको अपनी गाड़ी का कोना कम से कम न दिखने लगे.

बस फिर बैठें और बेफ़िक्र हो जाएँ क्यूँकि इस तरीक़े से सेट किए शीशों में आपको OVRMs में अपनी गाड़ी देखने के लिए किसी भी और झुकना नही पड़ेगा और इस आसान से तरीक़े से आप ब्लाइंड स्पोट से भी बच जाएँगे.

इस तरीक़े से अपनी गाड़ी के OVRMs को सेट करने की आदत डालने में आपको कुछ वक्त ज़रूर लगेगा लेकिन ये आदत आपको लम्बे वक्त तक काम आएगी और आपको दुर्घटना से भी बचाएगी जिससे आपके इलाज या गाड़ी के मेंटेनेंस के पैसे भी बच जाएँगे.

तो #ज़िम्मेदारनागरिकबने और हर बार अपनी गाड़ी को मोड़ते वक्त पहले सिग्नल दें और क़रीब 3 सेकेंड रुकने के बाद अपनी गाड़ी के रीयर व्यू मिर्रस (ORVMs ) को देखें और सिर्फ़ तब ही लेन बदलें. आप सभी की यात्रा सुरक्षित रहे.

सुशांत सिंह राजपूत के जन्मदिन को खास बनाने के लिए बहन ने किया ये प्लान

21 जनवरी को सुशांत सिंह राजपूत का  जन्मदिन होता था. अगर वह जिंदा होते तो उनका ये 33 वां जन्मदिन होता. ऐसे में उनकी बहन श्वेता कृति सिंह ने उन्हें याद किया है. श्वेता सुशांत सिंह राजपूत को न्याय दिलाने के लिए पहले दिन से कोशिश में लगी हुई हैं.

यहीं नहीं एक्टर के आने वाले जन्मदिन पर भी श्वेता ने उनके लिए मुहिम चलाने के लिए अपील कि है. पहले उन्होंने सोशल मीडिया पर सुशांत के फैंस से सुझाव मांगा कि क्या सुशांत का जन्मदिन सेलिब्रेट करना चाहिए इसपर उन्हें सुशांत के फैंस ने सलाह दिया. जिसके बाद श्वेता ने सुझाव बताया कि सुशांत के जन्मदिन पर 3 जरुरतमंद लोगों की मदद करेंगे.

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इसके अलावा जन्मदिन पर ग्लोबल 15 मिनट का मेडिटेशन भी रखा जाएगा. श्वेता ने कहा कि फैंस सुशांत के गानों पर परफॉर्म करेंगे और सोशल मीडिया पर वीडियो शेयर करेंगे.

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मालूम हो कि बीते साल 2020 में 14 जून को सुशांत सिंह राजपूत ने अपने घर में फांसी लगाकर अपनी जीवन की लीला हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त कर ली.

सुशांत सिंह राजपूत के मौत के बाद से पूरे इंडस्ट्री को बहुत बड़ा धक्का लगा था. बता दें कि सीबीआई पिछले पांच महीने से मामले की जांच कर रही है. वहीं ड्रग्स मामले में जांच कर रही है सीबीआई एजेंसी कोई ठोस मासले पर नहीं पहुंची है.

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पिछले सात महीने से लगातार इस मामले पर जांच चल रही है लेकिन अभी तक सुशांत को न्याय नहीं मिल पाया है जिससे फैंस काफी ज्यादा उदास नजर आ रहे हैं.

वहीं इस केस में सुशांत की कथित गर्लफ्रेंड रिया चक्रवर्ती जेल गई थी. उन्हें भी अब रिहा कर दिया गया है. सभी फैंस सरकार के इस फैसले से नाराज नजर आ रहे हैं. अब देखना ये है कि क्या वाकई सुशांत को लेकर न्याय हो पाएगा या नहीं.

Crime Story: मुंगेर का चर्चित गोलीकांड

  सौज्नयासत्यकथा 

जयकारा लगाते हुए माता के भक्त दुर्गा की प्रतिमा विसर्जन के लिए दीनदयाल उपाध्याय चौक से बाटला चौक की ओर बढ़ते जा रहे थे. उस वक्त रात के साढ़े 11 बजे थे. सैकड़ों लोगों के पीछेपीछे सीआईएसएफ के जवान और जिले के कई थानों की फोर्स थी.  माता के भक्तों पर पुलिस का दबाव था कि वे जल्द से जल्द मूर्ति विसर्जित कर शहर को भीड़ से मुक्ति दें, ताकि चल रही चुनाव प्रक्रिया आसानी से कराई जा सके. हालांकि शांतिपूर्वक मूर्ति विसर्जन कराने के लिए पुलिस के पास 2 दिनों का पर्याप्त समय था, इस के बावजूद पुलिस जल्दबाजी में थी.

दरअसल, पुलिस का भारी दबाव लोगों पर इसलिए भी था क्योंकि शहर में चुनाव का दौर चल रहा था, दूसरे कोरोना प्रोटोकाल का चक्कर भी था. इसलिए एसपी लिपि सिंह चाहती थीं कि सब कुछ शांतिपूर्वक संपन्न हो जाए.   लोग माता का जयकारा लगाते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे.   लेकिन पुलिस के भारी दबाव से अचानक माहौल गरमा गया और भक्तों की ओर से किसी ने पुलिस पर पत्थर उछाल दिया. पत्थर एक पुलिस वाले के सिर पर जा गिरा और वह जख्मी  हो गया.  एक तो पुलिस पहले से ही लोगों से नाराज थी. साथी को चोटिल देख कर पुलिस फोर्स आपे से बाहर हो गई. गुस्साई फोर्स ने भक्तों पर लाठियां बरसानी शुरू कर दीं. अचानक लाठीचार्ज से लोग मूर्ति को चौक के बीचोंबीच छोड़ जान बचा कर इधरउधर भागने लगे. साथ ही आत्मरक्षा में पुलिस पर पत्थर फेंकने लगे.

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जवाबी काररवाई में पुलिस ने हवाई फायर किए. गोलियों की तड़तड़ाहट से भक्तों की भीड़ बेकाबू हो गई और इधरउधर भागने लगी. इसी भगदड़ में 21 साल के युवक अनुराग कुमार पोद्दार की गोली लगने से मौत हो गई.  एक युवक की मौत से माहौल और बिगड़ गया. शहर में अशांति की आग फैल गई. आग की लपटों पर काबू पाने के लिए रातोंरात शहर भर में चप्पेचप्पे पर भारी फोर्स लगा दी गई. जैसेतैसे रात बीती. पुलिस ने फोर्स के बल पर उपद्रवियों पर काबू तो पा लिया था, लेकिन माहौल तनावपूर्ण बना हुआ था.   बिगडे़ माहौल के लिए शहरवासी पुलिस कप्तान लिपि सिंह को दोषी मान रहे थे. उन का कहना था पुलिस फोर्स के पीछे चल रही एसपी लिपि सिंह के आदेश पर ही पुलिस ने गोली चलाई थी, जिससे एक युवक की मौत हुई थी.   यह घटना बिहार के मुंगेर जिले के थाना कोतवाली क्षेत्र में 26 अक्तूबर, 2020 की रात में घटी थी. अगले दिन मृतक अनूप पोद्दार के पिता की तहरीर पर कोतवाली थाने में धारा 304 आईपीसी के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया गया.

इस के अलावा पब्लिक की ओर से 6 और मुकदमे दर्ज किए गए.  मुकदमा दर्ज तो कर लिया गया, लेकिन इस काररवाई से उपजी चिंगारी अभी भी सुलग रही थी. मुकदमा दर्ज होने के बावजूद आक्रोशित जनता एसपी लिपि सिंह को गिरफ्तार करने की मांग पर अड़ी हुई थी. जिस का खतरनाक नतीजा 29 अक्तूबर को वीभत्स तरीके से सामने आया, जिस के बारे में किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था.   पुलिस काररवाई से असंतुष्ट जनता ने पूरबसराय थाने को आग के हवाले कर दिया. साथ ही एसपी कार्यालय में काम भी अवरुद्ध कर दिया. जब मामले की जानकारी डीआईजी मनु महाराज को मिली तो वह भारी फोर्स सहित मुंगेर जा पहुंचे और कानूनव्यवस्था अपने हाथों में ले कर दीनदयाल उपाध्याय चौक से बाटला चौक तक पैदल फ्लैग मार्च किया.

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फ्लैग मार्च के दौरान नागरिकों से अपील की गई कि कानून अपने हाथों में न लें, पुलिस को अपने तरीके से काम करने दें, मृतक के साथ न्याय होगा, कानून पर विश्वास रखें.  मनु महाराज की अपील का नागरिकों पर असर पड़ा और वे अपनेअपने घरों को लौट गए. इस पर पुलिस की ओर से उपद्रवियों पर 9 मुकदमे दर्ज किए गए.   शहर का माहौल खराब था. घटना के लिए एसपी लिपि सिंह को दोषी ठहराया जा रहा था. यह मामला यहीं नहीं रुका, मगध के डीआईजी मनु महाराज से होते हुए बात चुनाव आयोग तक पहुंच गई थी.   चुनाव आयोग ने इस पर कड़ा एक्शन लेते हुए जिलाधिकारी राजेश मीणा और एसपी लिपि सिंह को तत्काल प्रभाव से पद से हटा कर वेटिंग लिस्ट में डाल दिया. इन दोनों पदों पर नई तैनाती कर दी गई.

नई जिलाधिकारी रचना पाटिल बनी तो मानवजीत सिंह ढिल्लो को एसपी की कमान मिली. उधर मगध डिवीजन के कमिश्नर सुशील कुमार को डीआईजी मनु महाराज ने घटना की जांच कर एक हफ्ते में रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया.  काररवाई चल ही रही थी कि पुलिस की पिटाई से घायल बड़ी दुर्गा महारानी के कार्यकर्ता शादीपुर निवासी कालू यादव उर्फ दयानंद कुमार ने मुंगेर के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी न्यायालय में परिवाद दायर किया.  दायर वाद में कुल 7 आरोपी बनाए गए. आरोपियों के नाम थे लिपि सिंह (एसपी), खगेशचंद्र झा (सीओ), कृष्ण कुमार और धर्मेंद्र कुमार (एसपी के अंगरक्षक), संतोष कुमार सिंह (थानाप्रभारी कोतवाली), शैलेष कुमार (थानाप्रभारी कासिम बाजार) और ब्रजेश कुमार (थानाप्रभारी मुफस्सिल).  एसपी लिपि सिंह एक बार फिर चर्चाओं में आ गई थीं.

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जलियावाला बाग कांड को याद कर के लोगों ने उन्हें जनरल डायर की उपाधि दी. हालांकि एसपी लिपि सिंह ने खुद पर लगाए गए आरोपों को बेबुनियाद बताते हुए कहा, ‘‘अनुराग की मौत पुलिस की गोली से नहीं हुई थी, बल्कि जुलूस में शामिल उपद्रवियों की ओर से की गई फायरिंग से हुई थी. जांचपड़ताल में घटनास्थल से 3 देशी कट्टे और 12 खोखे मिले थे. पुलिस जांच चल रही है.’’   इस घटना में जांच का क्या नतीजा सामने क्या आया, कहानी यहीं ब्रेक कर के आइए जानते हैं लिपि सिंह के बारे में.  लेडी सिंघम कही जाने वाली आइपीएस लिपि सिंह मूलरूप से बिहार के नालंदा जिले के मुस्तफापुर गांव की रहने वाली हैं. इसी गांव के रहने वाले रामचंद्र प्रसाद सिंह (आर.सी.पी. सिंह) और गिरिजा सिंह की बेटी हैं लिपि सिंह.  आर.सी.पी. सिंह की 2 बेटियां हैं, जिन में लिपि सिंह बड़ी हैं और उस से छोटी दिल्ली में रह कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही है.

आर.सी.पी. सिंह खुद आईएएस अधिकारी थे. उन का राजनीति में आना महज इत्तफाक था. दरअसल, उन्होंने सर्विस के दौरान यूपी काडर में लंबे समय तक काम किया. नीतीश कुमार जब केंद्र में मंत्री बने तो आर.सी.पी. सिंह दिल्ली में उन के प्राइवेट सेक्रेट्री थे. इस दौरान दोनों ने लंबे समय तक साथ काम किया.   साल 2005 में जब नीतीश कुमार पहली बार बिहार में मुख्यमंत्री बने, तब आर.सी.पी. सिंह मुख्य सचिव बन कर आए. कहा जाता है कि आर.सी.पी. सिंह ने नीतीश कुमार के कहने पर नौकरी छोड़ दी और जेडीयू पार्टी जौइन कर ली थी.   नीतीश कुमार ने बाद में उन्हें राज्यसभा का सांसद बनाया और फिलहाल वह पार्टी में नंबर 2 की हैसियत रखते हैं.  आर.सी.पी. सिंह का परिवार शिक्षा का महत्त्व जानता था. खुद वह एक काबिल आईएएस अफसर थे और चाहते थे कि उन की बेटियां भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चलें. बेटियों की शिक्षा पर उन्होंने पानी की तरह पैसा बहा कर उन्हें काबिल बनाया.  लिपि सिंह चाहती थी कि वह भी अपने पिता की ही तरह आईएएस अधिकारी बने. भविष्य संवारने के लिए उन्होंने दिल्ली का रुख किया.   वहां हौस्टल में रह कर आगे की पढ़ाई जारी रखी और कंपटीशन की तैयारी में जुट गईं. उन्होंने 2015 में यूपीएससी की परीक्षा दी.

परीक्षा में लिपि का 114वां रैंक आया और 2016 में वह आईपीएस अफसर बनीं.  हालांकि इस से पहले भी लिपि का चयन इंडियन औडिट अकाउंट सर्विस में हुआ था. तब उन्होंने वाणिज्य सेवा में सफलता हासिल की थी और देहरादून में प्रशिक्षण के दौरान अवकाश ले कर दोबारा यूपीएससी की परीक्षा देनी चाही ताकि आईएएस या आईपीएस बन सकें, लेकिन लिपि को एकेडमी से छुट्टी नहीं मिली तो पक्के इरादों वाली लिपि ने इंडियन औडिट एकाउंट से इस्तीफा दे दिया और कंपटीशन की तैयारी में जुट गईं. फलस्वरूप उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा पास कर ली.  इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून की भी शिक्षा ली थी. सपनों को पूरा करने में पिता आर.सी.पी. सिंह का काफी योगदान रहा. लिपि को बेहतर भविष्य देने वाले उन के पिता गुरु भी थे. गुरुस्वरूप पिता ने बेटी को एक ही शिक्षा दी थी कि अपनी मंजिल पाने के लिए लक्ष्य को मन की आंखों से साधो. मंजिल खुदबखुद मिल जाएगी.   पिता का दिया गुरुमंत्र लिपि हमेशा याद रखती थी. लिपि सिंह संघर्षशील और कर्मठी युवती थी.

ट्रेनिंग पूरी होने के बाद उन की पहली पोस्टिंग इन के गृह जनपद नालंदा में हुई थी. यह नालंदा जिले की पहली महिला आईपीएस अधिकारी बनी थीं. ट्रेनिंग में अच्छा काम करने के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इन्हें बिहार कैडर अलाट किया था.   कहा जाता है यह सब सांसद पिता आर.सी.पी. सिंह की बदौलत हुआ था. आईपीएस लिपि सिंह ने पुलिस फोर्स जौइन करने के बाद कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. कानून के हिसाब से पुलिस महकमे, बालू माफिया और अपराधियों के खिलाफ उन का डंडा लगातार चलता रहा है.   महज कुछ ही साल की सर्विस में इस लेडी अफसर ने ऐसा काम किया कि पुलिसकर्मी, बाहुबली से ले कर अपराधी तक खौफ खाने लगे. जिस जिले में लिपि की तैनाती होती थी, वहां वह अपने विभाग के सिस्टम की गंदगी अपने तरीके से साफ करने में कोई कोताही नहीं बरतती थीं.  नालंदा से लिपि सिंह का पहली बार स्थानांतरण पटना के बाढ़ सर्किल में हुआ.

लिपि सिंह बाढ़ इलाके की एडिशनल एसपी थीं. जिस क्षेत्र में इन का स्थानांतरण हुआ था, वहां बाहुबली विधायक अनंत सिंह का कानून चलता था.   लिपि का खौफ इतना था कि कोई इन के खिलाफ अपना मुंह तक नहीं खोलता था. इतना दबदबा कि लोग उन से डरते थे. उन के हुक्म के बिना पत्ता नहीं हिलता था.  एक दौर था जब अनंत सिंह नीतीश कुमार की सरकार में छोटे सरकार के नाम से जाने जाते थे. ऐसी जगह पर लिपि सिंह का स्थानांतरण होना दांतों के बीच जीभ के होने की तरह था.   आखिरकार जिस बात का डर था, हुआ वही. लिपि सिंह का कार्यकाल बाहुबली अनंत सिंह से टकराहट के साथ शुरू हुआ. दरअसल, 2019 में हुए आम चुनाव के दौरान अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी ने चुनाव आयोग में लिपि सिंह की शिकायत कर दी थी.  आरोप था कि लिपि सिंह अनंत सिंह के करीबियों को जानबूझ कर परेशान कर रही थीं. इस के बाद चुनाव आयोग के आदेश पर लिपि सिंह का ट्रांसफर एंटी टेरेरिज्म स्क्वायड (एटीएस) में कर दिया गया. लेकिन चुनाव के बाद इन्हें एक बार फिर बाढ़ इलाके का सर्किल दे कर उसी पद पर यानी एडिशनल एसपी नियुक्त कर दिया गया.

लिपि सिंह को दोबारा उसी पद पर देख अनंत सिंह का लोहे का मजबूत किला हिल गया. इस के बाद लिपि सिंह ने लोहा लिया बाहुबली कहे जाने वाले विधायक अनंत सिंह से. खुद को बब्बर शेर समझने वाले अनंत सिंह लिपि सिंह के खौफ से डर कर घर छोड़ कर फरार होने पर मजबूर हो गए.  दरअसल, लिपि सिंह को मुखबिर के जरिए सूचना मिली थी कि बाहुबली विधायक अनंत सिंह ने अपने एक दुश्मन को मौत के घाट उतारने के लिए अपने गांव वाले घर नदवां में एके-47 राइफल, बड़ी मात्रा में कारतूस और देशी बम छिपा रखे हैं.   लिपि सिंह ने अनंत सिंह के पैतृक गांव नदवां में उन के घर पर छापेमारी की. इस छापेमारी के दौरान एक एके-47 राइफल, 22 जिंदा कारतूस और 2 देशी बम बरामद हुए.   उस के बाद लिपि सिंह ने अनंत सिंह के खिलाफ यूएपीए यानी अनलाफुल एक्टीविटीज प्रिवेंशन ऐक्ट के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया.

मुकदमा दर्ज होने के बाद अनंत सिंह को गिरफ्तार किया जाना था. पुलिस उन की गिरफ्तारी के लिए पटना स्थित उन के सरकारी आवास पर गई, लेकिन अनंत सिंह फरार हो गए. उन पर काररवाई करने के लिए उन के दाहिने हाथ कहे जाने वाले लल्लू मुखिया के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया. पर पुलिस जब उसे गिरफ्तार करने पहुंची, तो वह भी गायब हो गया. फिर लिपि सिंह कोर्ट गईं और वहां से उन्होंने लल्लू मुखिया की संपत्ति कुर्क करने का आदेश ले लिया.   इस के लिए काररवाई भी शुरू कर दी गई. चूहेबिल्ली के इस खेल में लिपि सिंह ने अनंत सिंह को जेल भेज कर अपना लोहा मनवा लिया. उन्होंने दिखा दिया कि औरत कमजोर नहीं होती. जब वह कानूनी जामा पहने हो तो और भी नहीं. बिहार में आईपीएस लिपि सिंह अपने कारनामों से सुर्खियों में छाई रहने लगीं.

बहरहाल, लौह इरादों वाली अफसर लिपि सिंह ने चट्टान जैसे भारीभरकम अनंत सिंह को धूल चटा दी थी. अत्याधुनिक और खतरनाक असलहा एके-47, जिंदा कारतूस और बम बरामदगी के जुर्म में अब तक वह जेल में हैं. इस मामले में अदालत में गवाही चल रही है. लिपि सिंह ने पहली बार अदालत में हाजिर हो कर अपना बयान दिया था.   इस मामले में आगे क्या होगा, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन मुंगेर गोलीकांड में सीआईएसएफ की ओर से की गई जांच में पुलिस की तरफ से 13 राउंड 5.56 एमएम इंसास राइफल से गोली चलाने का उल्लेख किया गया था और यह रिपोर्ट ईमेल के जरिए डीआईजी को भेज दी गई थी.   इस पूरे प्रकरण के बाद तत्काल आईपीएस लिपि सिंह और डीएम राजेश मीणा को पद से हटा कर प्रतीक्षा सूची में डाल दिया गया था. फिलहाल लिपि सिंह को सहरसा जिले की एसपी बना दिया गया है.

खैरू की बलि: छोटी बहन के जन्म से घर में सन्नाटा क्यों छा गया

दादी का भुनभुनाना जारी था, ‘अरे, लड़कियां तो निखालिस भूसा होती हैं, हवा लगते ही फुर्र से उड़ जाएंगी, पर वजनदार अनाज की तरह परिवार का रखवाला तो लड़का ही होता है. बेटे वाले घर की तो बात ही कुछ और है.’

यह सुनने के हम अब आदी हो गए थे. मुझ से 2 बड़ी और 3 छोटी बहनें थीं. मैं तीसरे नंबर की बड़ी चंचल व भावुक थी. मुझ से 2 बड़ी बहनें अकसर गुमसुम रहतीं.

मेरी सब से छोटी बहन का जब जन्म हुआ तो घर में मातम सा छा गया. ऐसा सन्नाटा शायद हम सभी बहनों के जन्म के समय भी रहा होगा. छोटी के जन्म पर पड़ोसी भी ‘हे राम, फिर लड़की ही हुई’ जैसे शब्द बोल कर अपने पड़ोसी होने का धर्म निभा जाते. पापा को 2 लाइन लिख दी जातीं कि इस बार भी घर में बेटी पैदा हुई है.

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छोटी के जन्म के बाद पापा 1 साल में घर आए थे. 2 महीने की छुट्टियां चुटकियों में बीत गईं. वापस ड्यूटी पर जाते हुए पापा ने दादी के पांव छुए. हम सभी लड़कियों को अच्छे नंबरों से पास होने की हिदायत दे कर उन्होंने संकरी पगडंडियों की तरफ धीरेधीरे अपने कदम बढ़ाए तो घुटनेनुमा पहाड़ पर चढ़ते हुए पापा की पदचाप हम सभी महसूस करते रहे.

जितने दिन पापा घर में रहे हर दिन त्योहार की तरह बीता. चूल्हे की आग से तपती कंचनवर्णा मां के चेहरे पर जरा भी शिकन न दिखाई देती. वह बड़ी फुर्ती से पापा की पसंद के व्यंजन बनाती रहतीं. दोपहर के 2-3 बजे पापा गांव से दूर घूमने निकल पड़ते. कभी हम बहनें भी उन के साथ चल देतीं. गोल, चमकीले, चौकोर पत्थरों के ऊपर जब कभी हम सुस्ताने बैठतीं तो पापा भी बैठ जाते. पापा ध्यान दिलाते, ‘देखो बच्चो, कितना सुंदर लग रहा है यह सब. खूबसूरत पहाड़, स्लेटी रंग के पत्थरों से ढकी छतें कितनी प्यारी हैं.’

तब जा कर कहीं हमें पहाड़ों की सुंदरता का एहसास होता. पहाड़ी खेतों के बीच चलतेचलते सांझ हो जाती और फिर अंधेरा छाने लगता. मैं पापा को याद दिलाती कि अब हमें वापस चलना चाहिए. तारों की छांव में हम वापस मुड़ते. पहाड़ी ढलान पर चलना सहज नहीं होता, ऊपर तारों की चादर फैली हुई और नीचे कलकल करती पहाड़ी नदी. पापा बिना कठिनाई के कदम बढ़ाते साथ ही हमें ऊंचीनीची, संकरी जगहों पर हाथ पकड़ कर रास्ता तय करवाते.

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पापा के जाने के बाद उदासी सी छा गई. सारे घर में दादी समयअसमय साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछा करतीं और सारा गुस्सा हम बहनों पर ही उतारतीं. उन के सामने कोई जवाब देने की हिम्मत न करता. दादीजी का रौब और दबदबा सारे गांव में मशहूर था.

अंगरेजी सरकार द्वारा सम्मानित जागीरदारों के उच्च कुल में जन्मी 7 भाइयों की अकेली बहन थीं हमारी दादी. सुना है, उस जमाने में दादाजी की बरात में 500 बराती गए थे. जबकि मेरी मां साधारण परिवार की, कम पढ़ीलिखी लड़की थीं. पापा नायब सूबेदार थे. एन.डी.ए. की लिखित परीक्षा में 2 बार निकलने पर एस.एस.बी. में असफल रहे. इस असफलता का गम पापा को अंदर तक झकझोर गया. वह गम पापा कभी भुला नहीं पाते कि पढ़ाई में उन से फिसड्डी लड़के आगे निकल गए थे और वह रह गए. फिर भी फौज में जाने की उन की दिली इच्छा थी इसलिए जो पद मिला स्वीकार कर लिया.

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दादी को सख्त अफसोस होता कि मेरा बेटा दीपू मेजर का बेटा होते हुए भी पीछे क्यों रह गया जबकि वह पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहा था. मेजर का इकलौता वारिस होने के कारण बड़ेबड़े घरों से रिश्ते आए थे लेकिन वह खूबसूरती पर मर मिटा. दानदहेज फूटी कौड़ी भी न मिली और आगे से देखो लड़कियों की फौज खड़ी है. दादी कुछ न कुछ बोलती ही रहतीं. कभी हमें कोसतीं और कभी पापा की किस्मत को दोषी ठहरातीं.

दादी चालीसा अभी खत्म भी नहीं हो पाई थी कि पूर्वा भागीभागी आई और बोली, ‘‘दादी, पार गांव से संतू आया है. साथ में बकरी का छोटा सा एक बच्चा भी लाया है.’’

‘‘संतू बकरी का बच्चा ले आया,’’ दादी खुश होते हुए बोलीं, ‘‘बड़ी खुशामद से मंगवाया है.’’

हम    बहनें प्रश्नभरी नजरों से दादी को देखने लगीं तो वह बोलीं, ‘‘बच्चो, तुम्हारी समझ में अभी ये बातें नहीं आएंगी. समय आने पर तुम खुद ही समझ जाओगी.’’

मैं उत्सुकता से भरी आंगन की तरफ भागी तो देखा सामने दूध की तरह सफेद बकरी का बच्चा भयभीत नजरों से टुकरटुकर मुझे देख रहा था. मैं उसे गोद में लेने को आगे बढ़ी तो वह कुलांचें भरता हुआ भाग निकला.

संतू को चाय और रोटी, बकरी के बच्चे को दानापानी खिलापिला कर दादी ने राहत की सांस ली थी और फिर दालान में बैठ कर वह आगे की रूपरेखा बनाने में जुट गईं.

दादी ने गांव के एक लड़के को सब कुछ समझा कर पुरोहित के घर जल्दी आने का बुलावा भेजा. पंडित ठीक समय पर पहुंच गया. उस ने संकल्प के लिए परिवार के सभी लोगों को पूजाघर में जमा किया और फिर सब की हथेली में पानी और तिल रखते हुए संकल्प छोड़ने को कहा. पंडित मंत्रोच्चारण कर रहा था और परिवार के लोग बकरी पर तेल छिड़क रहे थे. अंत में पंडित ने कहा, ‘‘हे देवी, अगर घर में बेटा हुआ तो यह बकरी तुझे भेंटस्वरूप देंगे.’’

पंडित के कहे अंतिम शब्द मुझे विष वाण से लग रहे थे.

इत्तफाक ही कहिए कि 6 बहनों के बाद घर में बेटे का जन्म हो गया. नामकरण संस्कार बड़े धूमधाम से मनाया गया तो घर में बधाई देने वालों का तांता लग गया. गांव की रस्म के अनुसार भरपूर दक्षिणा दी गई. भाई का नाम दादी की इच्छानुसार तथा पंडित की सहमति से कालीचरण रख दिया गया.

मैं बकरी के छौने को चारापानी देने गई. लाड़ से मैं ने उसे सहलाया तो वह मैं…मैं करता हुआ मेरे आसपास उछलने- कूदने लगा. मैं ने प्यार से उसे खैरू कह कर पुकारा तो वह मेरे पास आ गया. मैं उछलती हुई अपनी छोटीबड़ी बहनों को बताने गई, ‘‘देखो, कल से बकरी के बच्चे को खैरू कह कर बुलाना, यह नाम मैं ने रखा है. कैसा लगा तुम्हें?’’

‘‘अच्छा है,’’ मेरे से 2 साल बड़ी बहन जो बोलने में बड़ी कंजूस थी, अपने शब्दों को खर्च करती हुई मुझे समझाते हुए बोली, ‘‘नन्हे छौने को इतना प्यार न किया कर प्रिया, क्योंकि इस की जुदाई तू सह नहीं पाएगी. खैरू की खैरियत नहीं, वह देवी मां को चढ़ेगा.’’

पलक झपकते ही साल निकल गया. खैरू अब खापी कर जवान बकरा बन चुका था. इस साल पापा जब घर आए तो दादी फुरसत के क्षणों में पापा को अपने पास बिठाते हुए बोलीं, ‘‘दीपक, आने वाले दशहरे पर तुझे छुट्टी लेनी पड़ेगी. अष्टमी को काली मंदिर में बकरा भेंट करना है.’’

खीजते हुए पापा बोले, ‘‘तुम तो जानती हो मां कि फौज में छुट्टियां कम ही मिलती हैं. तुम्हारी इसी बेटे की झक के कारण इतनी बड़ी गृहस्थी जुड़ गई. जानती हो मां अब वह जमाना आ गया है कि बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं माना जाता.’’

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पापा का इतना कहना था कि दादी भभक कर बोलीं, ‘‘अगर उपाय न होता तो जिद कर के मैं ने बकरा न मंगवाया होता. तुम ने तो वंश का नामोनिशान ही मिटादिया होता. पुरखे बिना तर्पण के निराश हो कर भूखेप्यासे ही लौट जाते. बेटियों के हाथ से पितरों को पानी चढ़वाता क्या? 2 गांवों की जायदाद दूसरे वंश को ऐसे ही सौंप देते? अब कुल में नाम लेने वाला हो गया है तो काली को पूजा तो देनी ही होगी.’’

दादी का अंधविश्वास ही हमें अखरता था, वरना तो उन का व्यक्तित्व हम सब के लिए गर्व करने लायक था. दादाजी फौज में बड़े ओहदेदार थे. उन की मौत के समय पापा बहुत छोटे थे, सो दादी ने ही मायके और ससुराल दोनों जगह को संभाला और पापा को पालपोस कर बड़ा किया. हर साल शहीद दिवस पर सफेद सिल्क की साड़ी में दादी को जब सम्मानित किया जाता तो वह क्षण हम बहनों के लिए फख्र करने का होता था. अब सब से कहतीं फिरती हैं कि काली मां के खुश होने से ही उन के घर में पोता पैदा हुआ.

गांव भर में दादी को अपनी मन्नत पूरी होने का ढिंढोरा पीटते देख एक उन की हमउम्र बुढि़या से नहीं रहा गया तो उन्होंने पूछ लिया, ‘‘क्यों दीपक की मां, पहले कालीमां की याद नहीं आई जो 6 लड़कियां हो जाने के बाद मन्नत मानी.’’

दादी लड़कियों को कितना भी डांटें लेकिन दूसरों का इस तरह कहना उन्हें कहां बरदाश्त होता. फौरन बोलीं, ‘‘तुम्हें मेरी पोतियों की फिक्र क्यों हो रही है? सब पढ़ रही हैं. सुंदर हैं, कितने ही अच्छे घरों के राजकुमार मेरी देहरी चढ़ेंगे.’’

खैरू अब खूब सुंदर दिखने लगा था. सफेद लंबे झबरीले बालों में वह लंबातगड़ा लगता. जानपहचान वाले लोग उस की हड्डीपसली पर निगाह रखते, उस की खाल को खींच कर अनुमान लगाते कि प्रसाद के रूप में उन्हें कितनी बोटियां मिलेंगी. ताजे गोश्त के स्वाद को याद करते हुए वे थूक निगलते.

दशहरा शुरू हो गया. पापा छुट्टी ले कर घर आ गए, नजदीकी रिश्तेदार जमा होने लगे. इस तरह का जो भी मेहमान आता वह एक नजर खैरू पर डाल कर दूसरे मेहमानों से यही कहता, ‘‘बकरा बड़ा जोरदार है.’’

आखिर खैरू की जुदाई का दिन भी आ गया. सप्तमी के दिन खैरू को मंदिर ले जाना था. मंदिर गांव से काफी दूर है. मैं उस से लिपटती और आंसुओं को उसी के शरीर से रगड़ती, पोंछती लेकिन आंसू हैं कि थमने का नाम ही नहीं लेते. पापा गुस्सा होते हुए मुझे झिड़की देते, ‘‘क्यों बकरे को परेशान करती हो. इधरउधर खेलती क्यों नहीं?’’

ऐसे समय दादी मुझे गोद में बैठा कर कहतीं, ‘‘रहने दे, बेटा, इसी के साथ हिला है. दानापानी भी इसी के हाथ से खाता है. जिस समय बकरे को ले जाएंगे इस की नजर बचा कर ही ले जाना होगा वरना यह तूफान खड़ा कर देगी.’’

सप्तमी के दिन सुबह ही गेंदे के सुगंधित फूलों की माला खैरू के गले में डाल दी गई. रोली और अक्षत से उस का माथा सजाया गया. मुलायम घास की पत्तियां, भीगे चने और आटे की मीठी रोटी उस को खाने के लिए दी गई लेकिन उस ने छुआ तक नहीं. खैरू मैं…मैं… कर रहा था. मांस के भूखे लोग उसे धकियाते हुए ले जा रहे थे. कतारबद्ध वे पहाड़ी रास्ते पर ढलान व चढ़ाई लांघते हुए उत्साह से, तेज कदमों से चले जा रहे थे. लेकिन खैरू धीमी चाल से चलता हुआ पीछे मुड़मुड़ कर कभी घर की ओर तो कभी मुझे देख रहा था.

मिमियाता हुआ निरीह प्राणी कितना बेबस था. मैं उस को लाख कोशिशों के बावजूद नहीं बचा सकती थी. बड़ा विश्वास था उस का मुझ पर, मैं क्या करती. देखते ही देखते वे लोग पहाड़ की दूसरी तरफ आंखों से ओझल हो गए और मैं थके पैरोंसे वापस घर की ओर मुड़ी और बिना खाएपीए बिस्तर में घुसी रही. घर में हर कोई देवीपूजन की बात करता कि पूजन कैसा रहा, कितने बकरे आए थे, बलि के लिए उन में खैरू सब से अच्छा था आदि. और मैं चुपचाप रोती, अपने गुस्से को अंदर ही अंदर दबाने की कोशिश करती रही रात भर.

कालीचरण 4 साल का हो गया लेकिन वह न बोलता और न ही सुन सकता था. दादी को गहरा धक्का लगा. उन्होंने सिर पीट लिया. इनसान की इच्छाएं कितनी अधिक हैं लेकिन जीतेजी किस की इच्छा पूरी होती है. दादी की पोते की इच्छा तोपूरी हुई लेकिन प्रकृति ने तो बड़े ही क्रूर ढंग से बदला चुकाया. धीरेधीरे कालीचरण बड़ा होने लगा. पापा रिटायर हो गए. उन्हें बेटे की स्कूल की फिक्र होने लगी. मूकबधिरों के हमारे यहां बहुत कम स्कूल हैं. किसी तरह एक स्कूल में दाखिला करवाया.

मुझ से बड़ी बहन जो ज्यादातर चुप रहती थी आज एक नामी डाक्टर है. कोई शिक्षिका तो कोई निजी फर्म में जनरल मैनेजर का पद संभाले हुए है. हम बहनोंके लिए पापा को वर ढूंढ़ने में अधिक परेशानी नहीं हुई, क्योंकि सभी तो अच्छे पदों पर कार्यरत थीं. बहुत गर्व की अनुभूति होती थी पापा को हम बहनों के बारे में बोलतेहुए.

कई महीनों बाद मैं इस बार पापा से मिलने मायके आई तो कुशलक्षेम, प्रणाम और आशीर्वाद के बाद मैं कुरसी पर बैठी ही थी कि कालीचरण नमस्ते करता हुआ मेरे सामने खड़ा था. मैं प्रश्नसूचक नेत्रों से पापा को देखने लगी. वे सजल आंखों से मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘क्या करूं बेटा, मैं ने इस का एडमिशन जितने भी विकलांग स्कूल हैं, सभी में करवा दिया लेकिन यह मारपीट करता है. इस कारण इस का नाम काट दिया जाता है. आखिरी स्कूल था वहां से भी निकाल दिया गया. कभी सोचता हूं यह या तो पैदा ही न होता और होना ही था तो तुम्हारी तरह लड़की होता.’’

मैं मम्मीपापा को दुखी देख कर परेशान सी आंगन में टहलने लगी. आंगन से मैं चौक में उतर आई. मेरे पीछेपीछे मां भी आ गईं. खैरू का खूंटा वहीं गड़ा हुआ था. मैं निर्जीव खूंटे को बैठ कर सहलाने लगी. मां मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए बोलीं, ‘‘क्या करें प्रिया बेटा, खैरू की बलि हम भी नहीं भूले हैं.’’

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मेरे कानों में 5 वर्ष पहले दादी के कहे शब्द गूंजने लगे. बेटा तो वजनदार अनाज की तरह परिवार का रक्षक होता है. बकरा मंगवा लिया तो हो गई न काली मां प्रसन्न.

 शशि ध्यानी        

फिल्म ‘ पीटर’ का ट्रेलर हुआ वायरल , बच्चों को आएगी पसंद

फिल्म ‘ पीटर’ 10 वर्षीय बालक धान्या और बकरी के बच्चे की बीच की दोस्ती को बयां करने के साथ दिल को छू लेने वाली कहानी है. एक दिन धान्या के दादाजी, धान्या के चाचा को एक संत के पास ले जाते हैं .क्योंकि धान्या के चाचा की शादी के 5 वर्ष बीत जाने के बावजूद भी कोई संतान नहीं है. संत कहते हैं कि उन्हें भगवान सोनोबा को बकरी समर्पित करनी पड़ेगी.
अब धान्या के पिता व चाचा दोनों बकरी की तलाश शुरू कर देते हैं. मगर गांव में फेस्टिवल के चलते बकरी खत्म हो गई है. आसपास के 4 गांव में तलाश करने के बाद उन्हें एक घर के सामने बकरी का एक बच्चा मिलता है, जिसकी मां सांप के काटने के कारण मर चुकी है. बकरी के बच्चे को भगवान सोनोबा को समर्पित नहीं किया जा सकता.
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ऐसे में निर्णय लिया जाता है  कि बकरी के बच्चे को घर ले जाकर पांच छह माह तक पाल पोस कर बड़ा करेंगे, उसके बाद उसे सोनोबा भगवान को समर्पित कर देंगे. लेकिन घर आने के बाद धान्या, बकरी के बच्चे के साथ खेलना शुरू कर देता है .धान्या को उसके दोस्त स्पाइडर-मैन बुलाते हैं और स्कूल के दोस्त उस बकरी के बच्चे को ‘पीटर’बुलाने लगते हैं. क्योंकि धान्या, बकरी के बच्चे को  अपना भाई मानता है. धीरे-धीरे धान्या और पीटर के बीच संबंध प्रगाढ़ होते जाते हैं .
यह देख कर धान्या की मां को चिंता सताने लगती है कि जब पीटर के समर्पण का दिन आएगा ,तो क्या होगा? धान्या की मां की इच्छा के विपरीत एक दिन पीटर को भगवान सोनोबा को समर्पित कर दिया जाता है. इस घटना से धान्या को सदमा लगता है और वह जीवित होते हुए भी एक मृतक बालक की तरह हो जाता है. फिर धान्या के पूरे परिवार को पता चलता है कि धान्या की चाची गर्भनिरोधक गोली का सेवन करती हैं, इसी कारण बच्चा नहीं हो रहा है. क्योंकि धान्या की चाची खुद भी मां नहीं बनना चाहती .तब पूरे परिवार को एहसास होता है  संत ने भी मूर्ख बनाया.अब धान्या  की मां उसे स्वस्थ करने के लिए प्रयासरत है.
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“आनंदी इंटरप्राइजेज “,”जंपिंग टोमेटो मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड “और “7 कलर्स सिने विजन “निर्मित मराठी भाषा की फिल्म ‘पीटर’ का निर्देशन अमोल अरविंद भावे ने किया है. इस फिल्म को अपने से सवाल ने वाले वाले कलाकार हैं- प्रेम बोरहडे, मनीषा भोर, अमोल पंसारे, विनिता संचेती, सिद्धेश्वर सिद्धेश हैं. फिल्म के संगीतकार श्री गुरुनाथ श्री, गायिका साई जोशी वह  गीतकार रंगनाथ गजरे हैं.
यह फिल्म 22 जनवरी को सिनेमाघरों में प्रदर्शित की जाएगी.

बंटवारा: शिखा के मामा घुमक्कड़ क्यों बन गए

आदर्श मलगूरिया

सिख होने के कारण ही मामाजी विवेक के साथ शिखा की शादी करने में आनाकानी कर रहे थे. लेकिन धर्म के आधार पर दिलों को नहीं बांटा जा सकता है, इस बात का आभास मामाजी को सरदार हुकम सिंह के घर नीरू को देख कर हुआ जो वर्षों पहले उठे धार्मिक उन्माद के तूफान में कहीं खो गई थी.

बचपन में वह मामाजी की गोद में चाकलेट, टाफी के लिए मचलती थी. वही उस की उंगली पकड़ कर पार्क में घुमाने ले जाते थे.सरकस, सिनेमा, खेलतमाशा, मेला दिखाने का जिम्मा भी उन्हीं का था. स्कूल की बस छूट जाती तो मां डांटने लगती थीं, पर यह मामाजी ही थे जो कार स्टार्ट कर पोर्च में ला कर हार्न बजाते और शिखा जान बचा कर भागतीहांफती कार में बैठ जाती थी.

‘बहुतबहुत धन्यवाद, मामाजी,’ कहते हुए वह मन की सारी कृतज्ञता, सारी खुशी उड़ेल देती थी. मामाजी का अपना घरपरिवार कहां था? न पत्नी, न बच्चे. शादी ही नहीं की थी उन्होंने. मस्ती से जीना और घुमक्कड़ी, यही उन का जीवन था.

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खानदानी जमींदार, शाही खर्च, खर्चीली आदतें. मन आता तो शिखा के यहां चले आते या मुंबई, दिल्ली, कोलकाता घूमने निकल जाते…धनी, कुंआरा, बांका युवक…लड़कियों वाले मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगते, पर जाने क्या जिद थी कि उन्होंने शादी के लिए कभी ‘हां’ न भरी.

मां समझातेसमझाते हार गईं. रोधो भी लीं, पर जाने कौन सी रंभा या उर्वशी  खुभी थी आंखों में कि कोई लड़की उन्हें पसंद ही न आती. फिर मांबाप भी नहीं रहे सिर पर. बस, छोटी बहन यानी शिखा की मां थी. उसी का परिवार अब उन का अपना परिवार था.

उम्र निकल गई तो रिश्ते आने भी बंद हो गए, पर बहन फिर भी जोड़तोड़ बिठाती रहती थी. सोचती थी कि किसी तलाकशुदा स्त्री से ही उन का विवाह हो जाए. पर मामाजी जाने कौन सी मिट्टी के घड़े थे. अब तो खैर बालों में चांदी भर गई थी. बच्चों की शादी का समय आ गया था.

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शिखा के पिता व्यापार के सिलसिले में घर से बाहर ही रहते थे. बच्चों की हारीबीमारी, रोनामचलना, जिदें सब मामाजी ही झेलते थे. टिंकू गणित में फेल हो गया तो मामाजी ही स्वयं बैठ कर उसे गणित के सवाल समझाते थे. बीनू के विज्ञान में कम अंक आए तो उन्होंने ही उसे वाणिज्य की महत्ता का पाठ पढ़ा कर ठेलठाल कर चार्टर्ड एकाउंटेंसी में दाखिल करवाया था. शिखा के स्कूल का कार्यक्रम रात 10 बजे समाप्त होता तो मामाजी की ही ड्यूटी रहती थी उसे वापस लाने की.

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धीरेधीरे स्नेह के इस मायाजाल में वह ऐसे फंसे कि अब होटल प्रवास लगभग समाप्त हो गया था. कारोबार तो खैर कारिंदे ही देखते थे. आज वही मामाजी शिखा के कारण मां पर बरस रहे थे, ‘‘लड़की को कुछ अक्ल का पाठ पढ़ाओ. दिमाग को पाला मार गया है. लड़का पसंद किया तो साधारण मास्टर का. इस तिमंजिली कोठी में रहने के बाद यह क्या उस खोली में रह पाएगी? फिल्में देखदेख कर दिमाग चल गया है शायद.’’

शिखा धीमेधीमे सुबक रही थी. मां के सामने तो अभिमान से कह दिया था कि विवेक के साथ वह झोंपड़ी में रह लेगी, पर बातबात पर दुलारने वाले गलतसही सब जिदें मानने वाले मामाजी की अवज्ञा वह कैसे करती? क्रोध का प्रतिकार किया जा सकता है, पर प्यार के आगे विद्रोह कभी टिकता है भला?

मामाजी ने ही शिखा व विवेक के प्रेम संबंधों की चर्चा सब से पहले सुनी थी. सीधे शिखा से कुछ न पूछा और विवेक के घरपरिवार के बारे में सब पता लगा लिया. बिजली का सामान बनाने वाली एक कंपनी का साधारण सा सेल्समैन, ऊपर से सिख परिवार का मोना (कटे बालों वाला) बेटा. करेला और नीम चढ़ा. बाप सरदार हुकमसिंह सरकारी स्कूल में साधारण मास्टर थे. भला क्या देखा शिखा ने उस लड़के में? उसी बात को ले कर घर में इतना बावेला मच रहा था. शिखा के पिता, भाईबहन (मां और मामाजी) पर बकनाझकना छोड़ कर तटस्थ दर्शक से सब सुन रहे थे.

‘‘आखिर बुराई क्या है उस लड़के में,’’ पिताजी पूछ ही बैठे.

‘‘अच्छाई भी क्या है? साधारण नौकरी, मामूली घरबार. फिर पिता सिख बेटा हिंदू, कभी सुनी है ऐसी बात?’’ मामाजी उफन ही तो पड़े.

‘‘शायद उन लोगों ने उसे गोद लिया हो या मन्नत मांगी हो. कई हिंदू भी तो लड़कों के केश रखते हैं,’’ मां ने सुझाया.

‘‘तो क्या यहांवहां पड़ा यतीम ही रह गया है शिखा के लिए?’’ मामाजी गरजे.

‘‘उन लोगों से मिल कर बातचीत करने में क्या हर्ज है?’’ पिताजी ने सुझाया.

‘‘आप भी हद करते हैं. पंजाब में आग लगी है. बसों से घसीट कर हिंदुओं को मारा जाता है. अब ऐसे घर में बात चलाएंगे? अपनी बेटी देंगे?’’

‘‘कुछ उग्रवादियों के लिए सारी जाति को दोष देना उचित नहीं है. सभी तो एक समान नहीं हैं,’’ मां ने कहा.

‘‘जो इच्छा आए करो,’’ मामाजी ने हथियार डाल दिए.

‘‘लड़के को खाने पर बुला लेते हैं. शिखा का भी मन रह जाएगा,’’ पिताजी ने कहा.

अगले दिन शिखा के निमंत्रण पर विवेक घर में आया. सब को अच्छा लगा, टिंकू व बीनू को भी. शायद उस के आकर्षक व्यक्तित्व का ही जादू था कि मामाजी की आंखों का भी अनमनापन कम हो गया. विवेक ने अगले सप्ताह सब को अपने घर आने को कहा.

परंतु अगले ही दिन शहर में कर्फ्यू लग गया. शहर के चौक में गोली चल गई थी. कुछ सिख आतंकवादी 2 हत्याएं कर के कहीं छिप गए थे. पुलिस के हाथ कुछ नहीं लगा तो शहर में कर्फ्यू लग गया. सड़कों पर केंद्रीय रिजर्व पुलिस की गश्तें लगने लगीं. जनजीवन अस्तव्यस्त हो कर भय व आतंक के घेरों में सिमट गया.

शहर की पुरानी बस्तियों वाले इलाकों में, जहां दैनिक सफाई, जमादारों पर निर्भर थी, गंदगी व सड़ांध का साम्राज्य हो गया. साधारण आय वाले घर, जहां महीने भर का राशन जमा नहीं रहता, अभावों में घिर गए. रोज मजदूरी कर के कमाने वालों के लिए तो भूखे मरने की नौबत आ गई.

8-10 दिन बाद कर्फ्यू में थोड़ी ढील दी गई. फिर धीरेधीरे कर्फ्यू उठा लिया गया.

मामाजी बड़बड़ाते रहे, ‘जिन लोगों के कारण इतना कुछ हो रहा है उन्हीं के घर में रिश्ता करने जा रहे हो?’

शिखा कहना चाहती थी, ‘नहीं, मामाजी, हथियार उठाने वाले लोग और ही हैं, राजनीतिक स्वार्थों से बंधे हुए. प्यार करने वाले तो इन बातों से कहीं ऊपर हैं,’ पर शरम के मारे कुछ कह नहीं पाती थी. आखिर कर्फ्यू हटा व जनजीवन सामान्य हो गया.

इस के बाद मामाजी विवेक के घर गए थे, तो अचानक ही उन का गुस्सा काफूर हो गया था और अनजाने उन के चिरकुमार रहने का रहस्य भी उजागर हो गया था.

विवेक के घर पहुंच कर मामाजी अचकचा से गए थे. सामने अधेड़ आयु की शालीन, सुसंस्कृत, मलमल की चादर से माथा ढके निरुपमाजी (विवेक की मां) खड़ी थीं. इस आयु में भी चेहरे पर तेज था.

‘‘नीरू, तुम…’’ मामाजी के मुख से निकला था, ‘‘आज इतने बरसों बाद मुलाकात होगी, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था. और फिर इन परिस्थितियों में…’’

निरुपमाजी भी ठगी सी खड़ी थीं.

‘‘आप शायद वही निरुपमा हैं न जो लाहौर में हमारे कालिज में पढ़ती थीं. मुझ से अगली कक्षा में थीं.’’

मां उन्हें पहचानने का यत्न कर रही थीं.

सब के लिए यह सुखद आश्चर्य था. घर के बड़े पहले से ही एकदूसरे से परिचित थे.

‘‘यहां कैसे आईं? दंगों से कैसे बच कर निकलीं?’’ मां ने पूछा.

‘‘आप लोग तो शायद धर्मशाला चले गए थे न?’’ निरुपमाजी ने पूछा.

‘‘हां, हमें पिताजी ने पहले ही भेज दिया था. पर भैया वहीं रह गए थे,’’ मां ने बताया.

‘‘मुझे मालूम है.’’

मां, मामाजी तथा निरुपमाजी सभी जैसे अतीत में लौट गए थे.

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‘‘नीरू, मैं ने तुम लोगों से कितना कहा था कि हमारी कोठी में आ जाओ. वह इलाका फिर भी थोड़ा सुरक्षित था,’’ मामाजी की आवाज जैसे कुएं से आ रही थी.

‘‘जिस दिन तुम ने यह बात कही थी और हमारे न मानने पर नाराज हो कर चले गए थे, उसी रात हमारी गली में हमला हुआ. आग, मारकाट, खून. मैं छत पर सो रही थी. उठ कर पिछली सीढि़यां फलांग कर भागी. गुंडों के हाथ से इन्हीं सरदारजी ने मुझे उस रात बचाया था. फिर कैंपों, काफिलों की भटकन. इसी बीच सारे परिवार की मौत की खबर मिली. उस समय इन्हीं ने मुझे सहारा दिया था.’’

अतीत के कांटों भरे पथ को निरुपमाजी आंसुओं से धो रही थीं. ‘‘मैं ने तुम्हें कितना ढूंढ़ा. कर्फ्यू हटा तो तुम्हारी गली में भी गया. पर वहां राख व धुएं के सिवा कुछ भी न मिला,’’ मामाजी धीरेधीरे कह रहे थे. उन का स्वर भारी हो चला था. सभी चुपचाप बैठे थे. मां मामाजी को गहरी नजरों से देख रही थीं.

सरदार हुकमसिंह ने सन्नाटा तोड़ा, ‘‘मैं ने विवेक को सिख बनाने की कभी जिद नहीं की. धर्म की आड़ में स्वार्थ का नंगा नाच हम लोग एक बार देख चुके हैं. इसलिए धर्म पर मेरा विश्वास नहीं रहा. हमारा धर्म तो केवल इनसानियत है. विवेक को भी हम केवल एक अच्छा इनसान बनाना चाहते हैं.’’

‘‘मैं आप का आभारी हूं कि आप ने सिख धर्म का अनुयायी होते हुए वर्षों पहले एक हिंदू लड़की की रक्षा की. काश, आज सभी इनसान आप जैसे होते तो घृणा की आग स्वयं ही बुझ जाती,’’ मामाजी ने भावविह्वल हो कर सरदारजी के हाथ माथे से लगा लिए.

‘‘तो भाई, क्या कहते हो, शगुन अभी दे दें?’’ शिखा के पिताजी ने पूछा.

‘‘हां…हां, क्यों नहीं. एक बार देश के टुकड़े हुए थे. उस के नासूर अभी तक रिस रहे हैं. अब फिर अगर धर्म के आधार पर दिलों का बंटवारा करेंगे तो घाव ताजे न हो जाएंगे?’’ कहते हुए मामाजी ने उंगली में पड़ी हीरे की अंगूठी उतार कर विवेक को पहना दी.

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आदर्श मलगूरिया

अर्पण-भाग 3 : अदिति आईने से बात करते हुए किसके ख्याल में खो जाती

‘‘परंतु मुझे यह नौकरी नहीं करनी है,’’ अदिति ने यह बात थोड़ी ऊंची आवाज में कही. आंखों के आंसू गालों पर पहुंचने के लिए पलकों पर लटक आए थे.

डा. हिमांशु ने मुंह फेर कर कहा, ‘‘अदिति, अब तुम्हारे लिए यहां काम नहीं है.’’

‘‘सचमुच?’’ अदिति ने उन के एकदम नजदीक जा कर पूछा.

‘‘हां, सचमुच,’’ अदिति की ओर देखे बगैर बड़ी ही मृदु और धीमी आवाज में डा. हिमांशु ने कहा, ‘‘अदिति, वहां वेतन बहुत अच्छा मिलेगा.’’

‘‘मैं वेतन के लिए नौकरी नहीं करती,’’ अदिति और भी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘सर, आप ने मुझे कभी समझा ही नहीं.’’

वे कुछ कहते, उस के पहले ही अदिति उन के एकदम करीब पहुंच गई. दोनों के बीच अब नाममात्र की दूरी रह गई थी. उस ने डा. हिमांशु की आंखों में आंखें डाल कर कहा, ‘‘सर, मैं जानती हूं, आप सबकुछ जानतेसमझते हैं. प्लीज, इनकार मत कीजिएगा.’’

अदिति के आंसू आंखों से निकल कर कपोलों को भिगोते हुए नीचे तक बह गए थे. वह कांपते स्वर में बोली, ‘‘आप के यहां काम नहीं है? इस अधूरी पुस्तक को कौन पूरी करेगा? जरा बताइए तो, चार्ली चैपलिन की आत्मकथा कहां रखी है? बायर की कविताएं कहां हैं? विष्णु प्रभाकर या अमरकांत की नई किताबें कहां रखी हैं…?’’

डा. हिमांशु चुपचाप अदिति की बातें सुन रहे थे. उन्होंने दोनों हाथ बढ़ा कर अदिति के गालों के आंसू पोंछे और एक लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘तुम्हारे आने के पहले मैं किताबें ही खोज रहा था. तुम नहीं रहोगी तो भी मैं किताबें ढूंढ़ लूंगा.’’

अदिति को लगा कि उन की आवाज यह कहने में कांप रही थी.

डा. हिमांशु ने आगे कहा, ‘‘इंसान पूरी जिंदगी ढूंढ़ता रहे तो भी शायद उसे न मिले और यदि मिले भी तो इंसान ढूंढ़ता रहे. उसे फिर भी प्राप्त न हो सके, ऐसा भी हो सकता है.’’

‘‘जो अपना हो उस का तिरस्कार कर के,’’ इतना कह कर अदिति दो कदम पीछे हटी और चेहरे को दोनों हाथों में छिपा कर रोने लगी. फिर लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘क्यों?’’

डा. हिमांशु ने अदिति को थोड़ी देर तक रोने दिया. फिर उस के नजदीक जा कर कालेज में पहली बार जिस सहानुभूति से उस के कंधे पर हाथ रखा था उसी तरह उस के कंधे पर हाथ रखा. अदिति को फिर एक बार लगा कि हिमालय के शिखरों की ठंडक उस के सीने में समा गई है. कानों में मधुर घंटियां बजने लगीं. उस ने स्नेहिल नजरों से डा. हिमांशु को देखा. फिर आगे बढ़ कर अपनी दोनों हथेलियों में उन के चेहरे को भर कर चूम लिया. फिर वह उन से लिपट गई. वह इंतजार करती रही कि डा. हिमांशु की बांहें उस के इर्दगिर्द लिपटेंगी परंतु ऐसा नहीं हुआ. वे चुपचाप बिना किसी प्रतिभाव के आंखें फाड़े उसे ताक रहे थे. उन का चेहरा शांत, स्थितप्रज्ञ और निर्विकार था.

‘‘आप मुझ से प्यार नहीं करते?’’

डा. हिमांशु उसे देखते रहे.

‘‘मैं आप के लायक नहीं हूं?’’

डा. हिमांशु के होंठ कांपे, पर शब्द नहीं निकले.

‘‘मैं अंतिम बार पूछती हूं,’’ अदिति की आवाज के साथ उस का शरीर भी कांप रहा था. स्त्री हो कर स्वयं को समर्पित कर देने के बाद भी पुरुष के इस तिरस्कार ने उस के पूरे अस्तित्व को हिला कर रख दिया था. आंखों से आंसुओं की जलधारा बह रही थी. एक लंबी सांस ले कर वह बोली, ‘‘मैं पूछती हूं, आप मुझे प्यार करते हैं या नहीं? या फिर मैं आप के लिए केवल एक तेजस्विनी विद्यार्थिनी से  अधिक कुछ नहीं हूं?’’ फिर डा. हिमांशु का कौलर पकड़ कर झकझोरते हुए बोली, ‘‘सर, मुझे अपनी बातों का जवाब चाहिए.’’

डा. हिमांशु उसी तरह जड़ बने खड़े थे. अदिति ने लगभग धक्का मार कर उन्हें छोड़ दिया. रोते हुए वह उन्हें अपलक ताक रही थी. उस ने दोनों हाथों से आंसू पोंछे. पलभर में ही उस का हावभाव बदल गया. उस का चेहरा सख्त हो गया. उस की आंखों में घायल बाघिन का जनून आ गया था. उस ने चीखते हुए कहा, ‘‘मुझे इस बात का हमेशा पश्चात्ताप रहेगा कि मैं ने एक ऐसे आदमी से प्यार किया जिस में प्यार को स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है. मैं तो समझती थी कि आप मेरे आदर्श हैं, सामर्थ्यवान हैं. परंतु आप में एक स्त्री को सम्मान के साथ स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है. जीवन में यदि कभी समझ में आए कि मैं ने आप को क्या दिया है, तो उसे स्वीकार कर लेना. जिस तरह हो सके, उस तरह. आज के आप के तिरस्कार ने मुझे छिन्नभिन्न कर दिया है. जो टीस आप ने मुझे दी है, हो सके तो उसे दूर कर देना क्योंकि इस टीस के साथ जिया नहीं जा सकता.’’

इतना कह कर अदिति तेजी से पलटी और बाहर निकल गई. उस ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा. फिर भी उस ने उसी कालेज में आवेदन कर दिया जिस में डा. हिमांशु ने नौकरी की बात कर रखी थी. 2-3 माह में वह कालेज भी जाने लगी पर डा. हिमांशु से कोई संपर्क नहीं किया. कुछ दिन बाद अदिति अखबार पढ़ रही थी, तो अखबार में छपी एक सूचना पर उस की नजर अटक गई. सूचना थी-‘प्रसिद्ध साहित्यकार, यूनिवर्सिटी के हैड औफ द डिपार्टमैंट डा. हिमांशु की हृदयगति रुकने से मृत्यु हो गई है. उन का…’

अदिति ने इतना पढ़ कर पन्ना पलट दिया. रोने का मन तो हुआ, लेकिन जी कड़ा कर के उसे रोक दिया. अगले दिन अखबार में डा. हिमांशु के बारे में 2-4 लेख छपे थे. अदिति ने उन्हें पढ़े बगैर ही उस पन्ने को पलट दिया था. इस के 4 दिन बाद औफिस में अदिति को पाठ्यपुस्तक मंडल की ओर से ब्राउनपेपर में लिपटा एक पार्सल मिला. भेजने वाले का नाम उस पर नहीं था. अदिति ने जल्दीजल्दी उस पैकेट को खोला. उस पैकेट में वही पुस्तक थी जिसे वह अधूरी छोड़ आई थी. अदिति ने प्यार से उस पुस्तक पर हाथ फेरा. लेखक का नाम पढ़ा. उस ने पहला पन्ना खोला, किताब के नाम आदि की जानकारी थी. दूसरा पन्ना खोला, लिखा था :

‘अर्पण

मेरे जीवन की एकमात्र स्त्री को, जिसे मैं ने हृदय से चाहा, फिर भी उसे कुछ दे न सका. यदि वह मेरी एक पल की कमजोरी को माफ कर सके, तो इस पुस्तक को अवश्य स्वीकार कर ले.’

उस किताब को सीने से लगाने के साथ ही अदिति एकदम से फफकफफक कर रो पड़ी. पूरा औफिस एकदम से चौंक पड़ा. सभी उठ कर उस के पास आ गए. हर कोई एक ही बात पूछ रहा था, ‘‘क्या हुआ अदिति? क्या हुआ?’’

रोते हुए अदिति मात्र गरदन हिला रही थी. उसे खुद ही पता नहीं था कि उसे क्या हुआ है.

किसान आंदोलन : उलट आरोपों से बदनाम कर राज की तरकीब

लेखक-रोहित और शाहनवाज

सरकार ने अपने पुराने हथियार को निकाल कर किसान आंदोलन में माओवादियों, देशद्रोहियों के शामिल होने का हल्ला मचाना शुरू किया तो कितने ही हिंदी, अंगरेजी चैनलों व अखबारों ने इस हल्ले को सरकार की फेंकी हड्डी सम झ कर लपकने में देर न लगाई रातदिन एक कर दिए. दिल्ली हरियाणा के सिंघु बौर्डर पर हम किसान आंदोलन कवर करने गए थे. आंदोलन में ‘जय जवान, जय किसान’ के नारों की आवाज वहां तक पहुंच रही थी जहां दूर मीडिया की गाडि़यों के खड़े होने की जगह थी. उत्सुकता बढ़ी तो तेज कदमों से धरनास्थल पर पैर दौड़ पड़े.

वहां पुलिस के लगाए 2 लेयर बैरिकेडों के बीचोंबीच जा कर हम फंस गए. हमें बैरीकेड पार कर के किसानों की तरफ बढ़ना था. लेकिन अंदर जाने का रास्ता ब्लौक था. रास्ता खोज ही रहे थे कि तभी एक आवाज सुनाई दी, ‘भाइयो, रास्ता इधर है. इस रास्ते से आ जाओ, ‘‘मु झे तो लगा कि एक 27 वर्षीय युवा (तेजिंदर सिंह) बैरीकेड के ठीक पीछे कुरसी पर दिल्ली की तरफ मुंह कर के खड़ा था. उस के हाथ में सफेद रंग की तख्ती (प्लेकार्ड) थी. तख्ती पर लिखा था, ‘‘गोदी मीडिया गो बैक.’’ वहीं उस की बगल में खड़े दूसरे आंदोलनकारी की तख्ती पर कुछ मीडिया चैनलों के नाम के साथ ‘मुर्दाबाद’ के नारे लिखे हुए थे. अब यह दिलचस्प था कि किसान आंदोलन में सरकार की नीतियों के साथसाथ मुख्यधारा की मीडिया की मुखालफत देखने को मिली. हम जानने के लिए उन की तरफ बढ़े. हायहैलो की, फौरमैलिटी छोड़ कर सीधा प्रश्न पूछा, ‘‘इन तख्तियों का क्या मतलब है?’’ तेजिंदर ने जवाब दिया, ‘‘हम किसानों का यह संघर्ष 2 मोरचों पर है. एक, तीनों कानून वापस करवाने आए हैं.

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दूसरा, हमारा संघर्ष सरकार के तलवे चाटने वाली गोदी मीडिया के खिलाफ भी है. हम इन के आगे चाहे कितनी भी सफाई दे दें, जो भी सचाई रख दें, ये लोग वही दिखाएंगे जो सरकार इन से कहेगी. आज ये दोनों मिल कर हमें खालिस्तानी कह रहे हैं, कल को कुछ और भी कह सकते हैं. मीडिया एक बार भी इन कानूनों को ले कर सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत नहीं कर सकती.’’ तभी दूसरा युवक भी बातों में कूद पड़ा. उस ने कहा, ‘‘ये (मीडिया) बस आंदोलन को किसी भी तरह से बदनाम करना चाहती है. जो भी आवाज सरकारी नीतियों के खिलाफ उठती है, उस आवाज को सब से पहले यही मीडिया दबाती है. इस का किसानों पर क्या असर पड़ेगा, उन्हें इस से कोई मतलब नहीं.

इन्हें तो मोटी मलाई मिल ही जाती है. हम यहां खड़े ही इसीलिए हैं ताकि उन्हें उन की बिकी हुई हकीकत दिखा सकें.’’ आंदोलन में सरकार के साथसाथ मीडिया को ले कर प्रदर्शनकारियों में असंतोष का यह पहला उदाहरण नहीं था, बल्कि वहां देखने में आया कि किसान इन बातों को ले कर इतना सचेत थे कि अपनी बात रखने से पहले वे यह अच्छी तरह टटोल लेते कि फलां कौन सा चैनल है, रात के प्राइम टाइम में क्या चलाएगा और हमें इन से कैसे बात करनी है. मीडिया और सरकार को ले कर किसान प्रदर्शनकारियों का विश्वास पूरी तरह खत्म हो चुका है. आंदोलन के शुरू से इन दोनों के रवैये को किसान सम झ चुके थे. इस का कारण यह कि भाजपाई नेता लगातार आंदोलन पर कोई हड्डी हवा में उछालता तो यह मीडिया लपक कर उस के ऊपर दौड़ पड़ता.

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मीडिया-सत्ता का गठजोड़ जून में विवादित कृषि संबंधित अध्यादेश आने के बाद से ही देशभर में किसान तरहतरह से अपने स्तर पर प्रदर्शन कर रहे थे. भारत में दुनिया के सब से सख्त लौकडाउन लगने के कारण इन अध्यादेशों के खिलाफ पंजाब व अन्य राज्यों में लोग अपने घरों की छतों पर इकट्ठे हो कर ही इन कानूनों का विरोध कर रहे थे. समय के साथसाथ लोगों की छतों और आंगन में होने वाले धरने सड़कों पर उतर आए. एक समय के बाद किसानों ने अपनी यूनियन के साथ इकट्ठे हो कर पंजाब में ‘रेल रोको आंदोलन’ किया. और जब किसानों की मांग को सरकार ने अनदेखा कर दिया तो किसान अपनी मांग ले कर देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के बौर्डर पर तैनात हो आए.

यह आंदोलन समय के साथसाथ बड़ा हुआ और किसान अपनी बात, अपनी मांगें जनता तक पहुंचाने में एक तरह से सफल भी हुए. लेकिन किसानों के इस आंदोलन को सरकारी नुमाइंदों और सत्ता की गोद में बैठी मीडिया, जिसे गोदी मीडिया कहा जाता है, ने बदनाम करने का एक भी मौका हाथ से जाने नहीं दिया. भाजपाई नेता और उस की आईटी सैल जो भी आरोप आंदोलन के खिलाफ गढ़ते, उन्हें मुख्यधारा की मीडिया सरकारी भोंपू की तरह दिनरात बजबजाती. भाजपाई नेता और मीडिया द्वारा खालिस्तानी, देशद्रोही, टुकड़ेटुकड़े गैंग, आतंकवादी कनैक्शन, चीनपाक कनैक्शन इत्यादि शब्दों से आंदोलन पर कई सवालिया निशान खड़े किए जाते रहे, यह इसलिए ताकि आमजन को पूरा मसला सम झ में आए उस से पहले ही उन्हें भ्रम की दीवार के पीछे धकेल दिया जाए.

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आंदोलन के खिलाफ नकारात्मक रिपोर्ट से सनी आज की मीडिया ने अपना चरित्र साफ दिखा दिया, जिसे किसान भी बखूबी सम झे. यह मीडिया की ही कड़वी सचाई है कि उस ने पिछले 3 महीने से लगातार चले आ रहे इस आंदोलन में- किसानों की मांग क्या है, यह कानून क्या है, आखिर वे आंदोलन करने को मजबूर क्यों हैं, इसे स्पष्टतौर से सम झाने की जगह बस, सरकारी आरोपों का भोंपू बजाया. सरकार की दमनकारी नीति तो दूर, इस बात को भी बड़े स्मार्ट तरीके से छिपाया गया कि किसानों का यह आंदोलन आडानीअंबानी और चंद दूसरे कौर्पोरेट घरानों के खिलाफ भी है जिन के पैट्रोलपंपों, नैटवर्क, मौल्स को किसानों द्वारा लगातार बायकौट किया जा रहा है. यह सोचने वाली बात है, जब तक किसान अपने प्रदेश में, राज्य स्तर पर प्रदर्शन कर रहे थे, तब तक सरकार इन पर ध्यान देना भी जरूरी नहीं सम झ रही थी. लेकिन वही किसान अब जब अपनी मांगों को ले कर दिल्ली के बौर्डरों पर जमे तो उन पर तरहतरह का टैग लगा कर उन के आंदोलन को बदनाम किया जाता रहा. किसानों को दिल्ली के सिंघु बौर्डर पर आए 2 ही दिन हुए थे कि 30 नवंबर को बीजेपी के सोशल मीडिया अकाउंट, खासकर ट्विटर और फेसबुक, से प्रदर्शन करने आए किसानों पर ‘खालिस्तानी’ होने का टैग लगाया गया.

वैसे तो यह सब टैगिंग का काम भाजपा के अंधभक्त पहले से ही कर रहे थे, लेकिन आधिकारिक रूप से भाजपा ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट से ट्वीट कर किसानों के आंदोलन को खालिस्तानी होने की बात कही. सिर्फ सोशल मीडिया हैंडल ही नहीं, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर तो यह तक कह गए, ‘‘अगर ये लोग इंदिरा गांधी को कर (मार) सकते हैं तो ये मोदी को क्यों नहीं कर सकते.’’ इस के साथ ही खट्टर ने इन किसानों पर ‘प्रो-खालिस्तान’ और ‘प्रो-पाकिस्तान’ होने का भी टैग लगा दिया था. ठीक उसी दिन उत्तराखंड भाजपा के नेता दुष्यंत कुमार गौतम ने कहा था, ‘‘इन किसानों का इस प्रोटैस्ट से कोई लेनादेना नहीं है. इसे आतंकवादियों और राष्ट्रविरोधी ताकतों द्वारा अपहरण कर लिया गया है. प्रोटैस्ट में आए कुछ लोग महंगी कारों और अच्छे कपड़ों में देखे गए, वे किसान नहीं हो सकते.’’ कुछ इसी तरह का बयान केंद्रीय मंत्री वी के सिंह ने भी दिया. उन्होंने कहा कि कपड़ों से ये लोग किसान नहीं लगते हैं. लोगों को गुमराह करने में महारत हासिल करने वाले भाजपा के सोशल मीडिया चीफ अमित मालवीय ने 2 दिसंबर को इंटरनैट पर वायरल हो रहे एक वीडियो का अधूरा हिस्सा दिखा कर ट्वीट किया कि पुलिस वालों ने किसी किसान पर लाठियों से हमला नहीं किया.

जिस के जवाब में किसी राजनीतिक पार्टी ने नहीं, बल्कि ट्विटर की कंपनी ने ही उस ट्वीट पर ‘मैनीपुलेटेड मीडिया’ (गुमराह करने) का टैग लगा दिया. भारत में ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी व्यक्ति के ट्वीट को ट्विटर ने ‘मैनीपुलेटेड मीडिया’ का टैग दिया हो. 3 दिसंबर के दिन भाजपा के सांसद मनोज तिवारी ने किसान आंदोलन को ‘टुकड़ेटुकड़े गैंग’ द्वारा संचालित करने का आरोप लगाया. इस आंदोलन को उन्होंने ‘सुनियोजित साजिश’ करार दिया और कहा कि यह गैंग इस प्रोटैस्ट को शाहीनबाग जैसा बनाना चाहता है. उन्होंने यह भी कहा कि इसे शाहीनबाग 2.0 बनाने की पूरी तैयारी है.’’ 6 दिसंबर को भाजपा के जनरल सैक्रेटरी बी एल संतोष ने किसान आंदोलन आयोजित कर रही किसान यूनियनों पर ‘दोगला’ होने का आरोप लगाया. किसान आंदोलन की मांगों का समर्थन कर रहे ऊंचे अवार्ड और पदकों से सम्मानित खिलाडि़यों के अवार्ड वापस करने को ले कर मध्य प्रदेश भाजपा के नेता कमल पटेल का अजीबोगरीब बयान सामने आया. उन्होंने कहा, ‘‘अवार्ड वापसी करने वाले सभी लोगों ने भारत माता को गाली दी है और देश के टुकड़े करने की कसम खाई है.

अवार्ड वापसी करने वाला कोई भी देशभक्त नहीं है.’’ 9 दिसंबर को केंद्रीय मंत्री राओसाहेब दानवे ने यह दावा किया कि इस प्रोटैस्ट के पीछे चीन और पाकिस्तान के हाथ हैं. उन के अनुसार, चीन और पाकिस्तान इस प्रोटैस्ट की फंडिंग कर रहे हैं. यहां तक कि अगर कोई मुसलिम व्यक्ति आंदोलन में दिख जाए तो उस का ऐसा एंगल दिखाया जाता है मानो वह संदिग्ध हो, उस ने वहां जा कर कोई गुनाह कर दिया हो. ऐसे में सवाल यह बनता है कि देश में क्या कोई मुसलिम समुदाय से आने वाला व्यक्ति किसान नहीं हो सकता? और अगर कोई मुसलिम समुदाय का व्यक्ति आंदोलन में शामिल हो भी गया तो इस में क्या कोई गुनाह है? इस के बाद 11 दिसंबर ‘ह्यूमन राइट्स डे’ के दिन सिंधु बौर्डर पर भारतीय किसान यूनियन (उग्रहन) के किसानों ने देश की जेलों में कैद उन लोगों को रिहा करने की मांग भी उठाई जो सरकार की तीखी आलोचना करते थे और जिन पर अभी तक कोई आरोप सिद्ध नहीं किया जा सका है.

जिन में वरवरा राव, शर्जील इमाम, उमर खालिद, फादर स्टेन, सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा और भी कई ऐसे नाम हैं जिन्हें सरकार द्वारा यूएपीए कानून के तहत काफी लंबे समय से जेल में बंद किया गया है. और इस लिस्ट में कई नाम ऐसे भी हैं जो किसानों के अधिकारों को ले कर लंबे समय से संघर्ष कर रहे थे. हैरानी वाली बात यह भी है कि सरकार इन में से किसी के खिलाफ अभी तक पुख्ता सुबूत नहीं जुटा पाई है. माओवादी और देशद्रोह कनैक्शन का होहल्ला तमाम आरोपों के बाद सरकार ने इन दिनों आंदोलन को बदनाम करने के लिए कुछ और आरोपों को इन में शामिल कर दिया. अब जाहिर सी बात है, ‘खालिस्तान’ की पीपरी, यूपी, बिहार और हरियाणा में बैठे किसान परिवार के सम झ के परे था तो सरकार को ऐसे सिंबल की जरूरत थी जो उन के आरोपों को सार्थक कर सके. यही कारण था कि माओवादी, देशद्रोही, टुकड़ेटुकड़े गैंग की हवा फिर से बनाने की पूरी कवायद चली. जिस के लिए सरकार ‘सरकारी सूत्रों’ (केंद्रीय खुफिया ब्यूरो) का हवाला देते हुए यह खबर खूब जोरशोर से चलवा दी कि किसानों के इस आंदोलन को अल्ट्रा लेफ्ट, प्रो लेफ्ट विंग, एक्सटी्रमिस्ट एलिमैंट और माओवादियों ने हाईजैक कर लिया है. पंजाब के संगरूर जिले से मंजीत सिंह से जब इन आरोपों के बारे में पूछा गया तो वे बताते हैं,

‘‘ये सब झूठे आरोप लगा कर सरकार हमारे आंदोलन को बदनाम करना चाहती है और इस आग में घी डालने का काम गोदी मीडिया कर रहा है. इस देश को गर्त में ले जाने का काम जितना देश की सरकार ने किया है उस से कहीं बड़ा योगदान दलाल मीडिया का है. हम सीधेसाधे किसान हैं जो अपने हक मांगने सरकार के पास आए हैं.’’ वे आगे बताते हैं, ‘‘सरकार इन कानूनों को वापस लेने से डरती है, क्योंकि इस से उन के चंद कौर्पोरेट दोस्तों के हित जुड़े हुए हैं. यही कारण है कि वह हम पर बदलबदल कर आरोप लगा रही है. खालिस्तानी, आतंकवादी चल नहीं पाया तो माओवादी कहना शुरू कर दिया है. सरकार बौखलाई हुई है, क्योंकि वह नैतिक दबाव में फंस गई है. इसलिए वह हमारे आंदोलन को अनैतिक दिखाने की कोशिश कर रही है. यही कारण है कि वह हम पर झूठे आरोप लगा रही है.’’ इसी मसले पर सिंघु बौर्डर पर आए करमजीत ने फोन पर बात करते हुए बताया, ‘‘अगर सरकार को पता है कि आंदोलन में खालिस्तानी, आतंकवादी, माओवादी, देशद्रोही वगैरहवगैरह हैं तो वह आए उन्हें गिरफ्तार करे.

चुप क्यों बैठी है. चुप बैठ कर तो वह अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही है, साथ ही, राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ कर रही है. इस पर सरकार की खामोशी यह दिखाती है कि वह बस कीचड़ उछालना चाहती है.’’ करमजीत मानते हैं कि भाजपा ने इन 6 सालों में अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए कुछ तरह के नए सिंबल गढ़े हैं या पुराने सिंबल को जोरशोर से इस्तेमाल किया है, जिस में मीडिया के बड़े हिस्से ने उन का साथ दिया. सिंबल के इर्दगिर्द राजनीति किसी भी तरफ की राजनीति में ‘पहचान’, ‘टैग’ व ‘सिंबल’ अहम चीज होती है. फिर चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक. इन ‘सिंबल’ को स्थापित करना किसी भी राजनेता के लिए राजनीतिक विजय के समान होता है. ये वही पहचान होते हैं जो राजनेता को राजनीतिक फायदा व नुकसान पहुंचाते हैं.

यही कारण है कि सब से पहले राजनेता इन्हीं को गढ़ने की कोशिश करता है. आज भाजपा इतनी ताकतवर है कि उस ने अपने विरोधियों के खिलाफ ऐसे कई टैग गढ़ दिए हैं जिस से उन को सिर्फ कुछ शब्दों के इर्दगिर्द बदनाम किया जा सके. ऐसे में, बस, इस तरह के सिंबल उछाल दो, बाकी का काम मीडिया, अंधभक्त खुदबखुद कर ही देंगे. 2014 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में काबिज हो रहे थे, उस से पहले वे खुद के लिए योजनाबद्ध तरीके से ‘हिंदू हृदय सम्राट’, ‘साधूसंत’, ‘संन्यासी’, ‘फकीर’, ‘विकासपुरुष’, ‘ईमानदार’ जैसे शब्द स्थापित करवा चुके थे. वहीं, उस समय के विपक्षी नेता उम्मीदवार राहुल गांधी के लिए ‘शहजादा’, ‘पप्पू’, ‘नौसिखिया’, ‘मां का लाड़ला’ जैसी पहचान घरघर तक पहुंचा चुके थे. जिस से आमजन में प्रधानमंत्री के चेहरे के लिए एक स्पष्टता बनी. यह इमेज को बनाने और बिगाड़ने का खेल राजनीति की प्रमुख पहचान है. राजनीति में ये सिंबल न सिर्फ किसी की हस्ती को बनानेडुबोने के काम आते हैं बल्कि सत्ता में बैठे सत्ताधारियों के उन के खिलाफ उठ रहे विरोधों को कुचलने के भी काम आते हैं. मौजूदा समय की बात की जाए तो भाजपा इन सिंबल व अपने प्रचारतंत्र के सहारे कई आंदोलनों का दमन कर चुकी है.

यही कारण था, जुलाई 2015 में दलित छात्र स्कौलर रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद उठ रहे विरोधों को खत्म करने के लिए देश में आंदोलित छात्रों पर सब से पहले हमला किया गया. उन्हें कथित ‘टुकड़ेटुकड़े गैंग’ सिंबल दिया गया, जो आज तक छात्र आंदोलन के लिए नासूर बना हुआ है. इस शब्द के बड़े राजनीतिक माने रहे हैं. इस के जरिए समाज में एक अलग तरह का डिस्कोर्स खड़ा किया गया. देशभक्त बनाम देशद्रोह की बहस छेड़ी गई. बाजार में दालचावल की बढ़ी कीमतों से परेशान आम व्यक्ति के लिए भी ‘फलानी यूनिवर्सिटी’ में कुछ नौसिखियों छात्रों द्वारा चली बहस प्राथमिकता बन गई और पूरा मामला भाजपा के लिए अंधभक्ति फैलाने के नजरिए से मील का पत्थर बन गया. ठीक इसी तरह की ‘सिंबल’ की राजनीति मोदी सरकार के खिलाफ उठे उन तमाम विरोधों, आपत्तियों और असहमतियों के विरुद्ध भाजपाइयों द्वारा की गई, जहां बुद्धिजीवियों को ‘अरबन नक्सल,’ असहमति में अवार्ड लौटाने वालों को ‘अवार्ड वापसी गैंग’ इत्यादि टैग दिए गए. इसी कड़ी में सीएए-एनआरसी आंदोलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने झारखंड के दुमका से आगजनी करने वालों को ‘कपड़ों से पहचानने’ की सलाह दे दी. वैसे तो यह तय है कि तमाम मीडिया और सरकारी तंत्र ने आज अल्पसंख्यक समुदाय को संदिग्ध की कैटेगरी में डाल ही दिया है, फिर चाहे वह मौबलिंचिंग के समय हो या सीएए-एनआरसी के समय.

इसे सम झने के लिए कोरोनाकाल में तबलीगी जमात वाले प्रकरण को याद किया जा सकता है. लेकिन इस के साथ जो भी सरकार की आंख में किरकिरी पैदा करता है उसे यह सरकार सिंबल के माध्यम से बदनाम करवाती है, जैसे लौकडाउन के समय मजदूरों को कहा जा रहा था कि वे ‘कोरोना वाहक’ हैं. जिस से उन्हें निरंकुश और तानाशाह की तरह पीटे जाने का लाइसैंस सरकार ने अपने हाथ में ले लिया था. किसानों के आंदोलन में भी यही देखने को मिला, जहां कानूनों पर चर्चा से ज्यादा सरकार और मीडिया नए सिंबल गढ़ने का या तो प्रयास कर रही है या पुराने सिंबलों के जरिए आंदोलन को कठघरे में खड़ा कर रही है. बस, इस बीच जो नहीं हो पा रहा वह किसानों को इन कानूनों से होने वाली समस्या और कानूनों के फायदेनुकसान पर सिलसिलेवार चर्चा का होना है.

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