चेहरे पर ओढ़ी खामोशी, आंखों का आकर्षण बरबस मुझे उस की ओर खींच ले गया था. उस से मिलने की चाह में एकएक पल बिताना मुश्किल हो रहा था. लेकिन यह कैसी बेबसी थी कि उस की आंखों का दर्द देख कर भी मैं सिर्फ महसूस करता रह गया, बेबस सा.
उस के व्यक्तित्व ने मुझे ऐसा प्रभावित कर रखा था कि घंटों तो क्या, अगर पूरे दिन भी इंतजार करना पड़ता तो भी मैं कुछ बुरा महसूस नहीं करता. एक अजीब रूमानी आकर्षण ने मुझे अपने पाश में ऐसा जकड़ लिया था कि मैं अपने खुद के अस्तित्व से भी उदासीन रहने लगा था. हर ‘क्यों’ का उत्तर अगर मिल जाता तो दुनिया ही रुक गई होती. पर पार्क की बैंच पर बैठ कर किसी की प्रतीक्षा करने का अनोखा आनंद तो वही जान सकता है जो ऐसे पलों से गुजरा हो.
पिछले जमाने की रहस्यमयी फिल्मों की नायिका सी यह लड़की मुझे शहर की एक सड़क पर दिखी थी. पता नहीं क्यों, पहली नजर में ही मैं उस के प्रति आकर्षित हो गया था और यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मैं ने उस के बाद, उस रास्ते के अनगिनत चक्कर काटे थे. मन में पक्की उम्मीद थी कि एक न एक दिन तो वह फिर मिलेगी और ऐसा ही हुआ. एकदो बार फिर आमनासामना हुआ और पता नहीं कैसे, उसे भी यह एहसास हो गया कि मैं वहां उसी के लिए चक्कर काटा करता हूं. शायद इसीलिए उस ने, थोड़ी चोरी से, मेरी और देखना शुरू कर दिया था. बस, कहानी यहीं से शुरू हुई थी.
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बातचीत की हालत में पहुंचने में काफी समय लगा और जब मिलने के वादे तक पहुंचे तो वह भी हफ्ते में सिर्फ एक दिन, मंगलवार और समय दोपहर का. मुझे लगा कि शायद उसे उस दिन घर से निकलने में आसानी होती होगी. वैसे, मंगलवार को मेरी भी सिर्फ 2 ही क्लास होती थीं, इसलिए कालेज से जल्दी निकल पाना आसान था. जगह तय हुई यही पार्क…मैं तो कालेज से निकल कर, तेजतेज कदमों से सीधा पार्क जा पहुंचता और पहले से तय बैंच पर जा कर बैठ जाता. वह देर से आए या जल्दी, मेरी आंखें पार्क के गेट पर टिकी रहतीं. उस का वह गेट से घुसना, धरती पर नजर बिछाए हौलेहौले चलना और फिर निकट आ कर आधा इंच मुसकराना, मुझे बहुत मोहक लगता था.
हम एक ही बैंच पर पासपास बैठे होते पर उस की ओर से कोई ऐसी क्रिया होती नहीं लगती थी जो प्यार का संदेश दे सके. वह कम बोलती थी, मैं ही बकबक करता रहता था. मैं ने अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य की योजनाएं तक सबकुछ उस को बता डाली थीं. पर उस के बारे में मैं अब तक कुछ जान पाने में सफल नहीं हो सका था. मैं जब भी उस से उस के बारे में कोई प्रश्न करता तो वह अनजान सी आसमान की तरफ देखने लगती. उस के चेहरे पर छाया सांध्यकालीन शून्य और रहस्यमय हो जाता.
अपने इस तथाकथित ‘अचीवमैंट’ को निकट मित्रों से साझा कर डालना स्वाभाविक था. पर जब मैं ने उन्हें यह बताया कि मेरे प्यार का सफर एक बिंदु पर ही अटका हुआ है तो वे सब के सब सलाहकार बन गए.
एक ने कहा –
‘अगर वह प्यार न करती होती तो चल कर पार्क तक आती ही क्यों.’
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बात ठीक लगी.
दूसरे ने कहा –
‘अच्छे संस्कारों वाली होगी. शी वोंट कम रनिंग ऐंड ले डाउन विद यू.’
यह बात अनजाने ही मन को सुख का एहसास करा गई.
तीसरे ने कहा-
‘ऐसा करो, एक दिन पार्क में तुम देर से जाओ. अगर वह बैठ कर तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही तो पक्का है कि वह तुम्हें प्यार करती है. और अगर उठ कर वापस चली गई, तो समझ लेना कि यह सब खेल था.’
यह बात सब को जम गई. सब की सहमति से आने वाले मंगलवार को ही यह निर्णायक प्रयोग करने का निर्णय ले लिया गया.
गिनगिन कर दिन काटे. आखिर, मंगलवार आया. क्लास में क्या पढ़ाया जा रहा था, मुझे कोई ज्ञान नहीं. देर करनी थी, सो, बैठा रहा. जैसे ही निर्णायक घड़ी आई, मैं भारीभारी पैर उठाता पार्क की ओर चल दिया. मित्रों ने मुझे ऐसे विदा किया जैसे मैं श्मशान घाट जा रहा हूं.
मुझे नहीं मालूम था कि दिल इतनी तेज भी धड़क सकता है. पार्क के गेट की ओर बढ़ते हुए मेरे हाथपैर लगभग कांप रहे थे पर, जैसे ही मेरी दृष्टि ने पार्क के भीतर प्रवेश किया, दिल बल्लियों उछल पड़ा. वह पार्क की उसी बैंच पर बैठी अपने पैर के अंगूठे से जमीन पर कुछ रेखाचित्र बना रही थी.
मेरी गति में अचानक तेजी आ गई. मैं लगभग भागता हुआ बैंच तक जा पहुंचा. वह मुसकराई और एक ओर खिसक कर मेरे बैठने के लिए ज्यादा जगह बना दी.
मन के भीतर अब तक पनपते अपनेपन की जगह अब अधिकार भाव ने ले ली थी. इसलिए बैंच पर बैठते ही मैं ने उस का हाथ अपने दोनों हाथों के बीच दबा लिया. वह सकुचाई जरूर, पर प्रतिरोध नहीं किया.
मेरे मन का विश्वास अब चरम पर था. मैं ने बिना किसी हिचकिचाहट के सीधेसीधे उस से प्रश्न कर दिया, ‘‘शादी करोगी मुझ से?’’
वह कुछ बोली नहीं. सिर झुकाए बैठी पैर के अंगूठे से जमीन पर रेखाचित्र बनाती रही.
मैं उतावला हो रहा था. मैं ने अपना प्रश्न दोहराया, ‘‘बोलो, शादी करोगी मुझ से?’’
वह सिर झुकाएझुकाए ही धीरे से बोली, ‘‘इस के लिए आप को हमारी मम्मी से मिलना होगा.’’
मेरा मन बेकाबू हो उठा था, ‘‘हां…हां, क्यों नहीं. बोलो, कब, कहां?’’
वह थोड़ी देर कुछ सोचती रही, फिर बोली, ‘‘पूछ कर बताऊंगी.’’
इतना कह कर वह एकदम उठी और चल दी. गेट के पास पहुंच कर उस ने एक बार मुड़ कर मेरी ओर देखा और बाहर चली गई.
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अब मेरा एकएक दिन मुश्किल से कट रहा था, अगले मंगलवार के इंतजार में.
आखिर वह दिन आया. अब समस्या थी कि दोपहर तक का समय कैसे काटा जाए. कालेज जाने का कोईर् फायदा लग नहीं रहा था. सो, सड़कों के चक्कर काटकाट कर सूरज के चढ़ने को निहारता रहा.
समय होते ही मैं पार्क की ओर भागा.
मैं जब पार्क में पहुंचा तो यह देख कर थोड़ी निराशा हुई कि बैंच अभी खाली पड़ी थी. खैर, मैं अपनी उसी जगह जा कर बैठ गया जहां मैं अकसर बैठा करता था. मेरी नजर गेट पर ही टिकी रही.
जैसेजैसे समय बीत रहा था, एक अनजान सा डर मुझे परेशान किए था. तभी एक गरीब सा दिखने वाला आदमी मेरी ओर बढ़ने लगा. वह जैसे ही पास आया उस ने एक मुड़ा हुआ कागज मेरी ओर बढ़ाया. कंपकंपाते हाथों से वह कागज मैं ने उस से लिया और जल्दी से खोल कर पढ़ा. उस में लिखा था –
‘आप इन के साथ चले आएं. ये आप को पहुंचा देंगे.’
जो कुछ हो रहा था उस ने मुझे सारी हालत पर विचार करने को मजबूर कर दिया था. पहले मैं ने उस आदमी को गौर से देखा. यह वही आदमी था जिस के रिकशे पर वह पार्क आयाजाया करती थी. तब मैं ने उस आदमी को आगे चलने का इशारा किया और मैं उस के पीछे हो लिया.
मैं इस सड़क पर कभी बहुत आगे तक गया नहीं था, इसलिए मुझे पता नहीं था कि यह सड़क आगे जा कर एक पतली गली जैसी हो जाती है. छोटीछोटी ढेरों दुकानें, खुली नालियां
और एकदूसरे को धकियाती भीड़. मुझे लगा कि शायद सफाई कर्मचारियों को
इस रास्ते का पता मालूम नहीं होगा.
थोड़ा आगे जा कर रिकशा रुक गया. रिकशे वाले ने एक गहरी सांस ली और बोला, ‘‘बाबू साहब, रिकशा इस के आगे न जा पाएगा. दस कदम आगे चल कर बाईं ओर की गली नंबर 10 में मुड़ जाइएगा. 2 कोठियां छोड़ कर एक जीना ऊपर जाता दिखेगा. बस, उस में चढ़ जाइएगा, मैडम मिल जाएंगी.’’
मैं ने उसे पैसे देने की कोशिश की, पर उस ने लिए नहीं. जहां कहीं मैं इस समय था वह जगह ऐसी लग रही थी जैसे यह शहर का हिस्सा है ही नहीं. जगहजगह टूटे प्लास्टर वाले रंगबिरंगे मकान लगभग वैसे ही लग रहे थे जैसे माचिस की ढेर सारी डब्बियां एकदूसरे के ऊपर रख दी गई हों. हर मकान के बाहर, धूप में सूखते मैलेकुचैले कपड़े और दीवारों पर चिपकी पान की पीक के अलावा जगहजगह पी हुई बीड़ीसिगरेटों के बचे टुकड़े बिखरे पड़े थे.
अब मुझे डर लगने लगा था, पर फिर भी, पैर अनजाने ही आगे बढ़ते चले जा रहे थे. तभी सामने की दीवार पर एक जंग खाई टीन की पट्टी लगी दिखाई दी, जिस पर लगभग मिटता हुआ सा लिखा था- ‘गली नंबर-10.’ मैं उस ओर मुड़ गया.
गली के मुहाने पर ही पड़ी प्लास्टिक की कुरसी पर एक पुलिसमैन बैठा दिखाई दिया. उसे पुलिसमैन मानने में तनिक शंका हो रही थी. पैंट से बाहर निकली मुड़ीतुड़ी कमीज, मुंह में भरी पान की पीक, बिना धुला सा चेहरा. पर हां, हाथ में डंडा जरूर था.
वह मेरी ओर देख कर मुसकराया. मैं ने भी मुसकरा कर मुसकराहट का उत्तर दे दिया. मुझे मुसकराते देख वह इतनी जोर से हंसा कि उस के मुंह में भरी पीक उछल कर उस की कमीज पर आ गिरी. मुझे यह सब देख उबकाई सी आने लगी, इसलिए मैं तेजी से आगे बढ़ गया.
रिकशे वाले द्वारा बताई सीढ़ी सामने थी. एकदम पतला सा जीना था और जीने की दीवारें बहुत ही ज्यादा गंदी थीं. छोटीछोटी सीढि़यों पर पैर तो मैं ने रख दिए पर मन में ‘आगे जाऊं या पीछे’ की उलझन और बढ़ गई. सोच रहा था ‘नर्क में भी अप्सराएं रहती हैं, ऐसा तो कभी किसी ने बताया नहीं. या कहीं, मेरे साथ कोई उपहास प्रायोजित तो नहीं किया गया है.’ अपनी सुरक्षा का डर भी जोर पकड़ने लगा था. तभी सामने एक दरवाजा आ गया. दरवाजे के बाजू में लिखा था ‘नं.-3.’
मेरा हाथ दरवाजा खटखटाने को आगे बढ़ गया. भीतर से किसी महिला की आवाज आई, ‘‘खुला है, तशरीफ ले आइए.’’
पसोपेश की हालत में होते हुए भी पैर आगे बढ़ ही गए. अब मैं एक बड़े कमरे में खड़ा था. कमरे में कई दरवाजे खुल रहे थे जिन पर परदे पड़े हुए थे. सामने वाली दीवार के साथ एक तख्त बिछा हुआ था जिस पर गहरे रंग की चादर बिछी थी और इधरउधर 2-3 मसनद जैसे तकिए भी लगे थे. मसनदों का रंग भी चादर की तरह सुर्ख था.
तख्त पर एक अधेड़ उम्र की महिला बैठी थी जिस के दोनों हाथ किसी कड़ी चीज को काटने में व्यस्त थे और आंखें मेरे ऊपर गड़ी हुई थीं. वे बहुत धीरे से बोलीं, ‘‘बैठिए.’’
मैं ने इधरउधर देखा. बेंत से बनी कई कुरसियां पड़ी थीं. मैं ने एक कुरसी खींची और उस पर बैठ गया.
मेरी नजर महिला पर कम, इधरउधर के वातावरण पर ज्यादा थी. मैल की आगोश में लिपटी दीवारें, कमरों के दरवाजों पर झूलते सिल्की परदों से मेल नहीं खा रही थीं.
मन घबराने लगा था. तभी वे महिला जो शायद उस की मम्मी ही रही होंगी, धीरे से बोलीं, ‘‘क्या सोच रहे हो, हम ने आप को यहां क्यों बुलाया. किसी बेहतर जगह भी तो बुला सकते थे. पर…पर वह हमारी नजर में आप के साथ धोखा होता.’’
इस के बाद वे थोड़ी देर चुप रहीं. फिर कुछ बैठी सी आवाज में बोलीं, ‘‘धोखा दे कर, बाद में उस का अंजाम भुगतना अब हमारे बूते का नहीं रह गया है बरखुरदार.’’
यह कहतेकहते शायद उन का गला भर आया था, इसलिए वे चुप हो गईं. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ पुरानी यादें उन के जेहन में उतर आई थीं.
मैं चुप ही रहा.
सुपारी काटने में व्यस्त उन के हाथों
की गति पहले से तेज हो गई थी.
शायद वे अपने मन के आवेश को कड़ी सुपाड़ी के ऊपर उतारने की कोशिश कर रही थीं. वे अचानक फिर से बोलीं, ‘‘आंखें बूढ़ी हो गईं एक ऐसे मर्द का दीदार करने की ख्वाहिश में जिस में इतनी हिम्मत हो कि वह औरत के जिस्म के सौदागरों को चुनौती दे सके.’’ उन की तकलीफ मुझे झकझोरने लगी थी.
वे शायद अपने आंसू रोकने की कोशिश कर रही थीं. थोड़ी देर चुप रहीं. फिर वे बोलीं, ‘‘यहां तक आने की हिम्मत दिखाई है तुम ने. तो सुनो, गौर से सुनो, यहां रह रही सैकड़ों लड़कियों की कराहती आवाजें जो चीखचीख कर पूछ रही हैं कि इन का क्या कुसूर था. कुसूर तो कमबख्त वक्त का था जिस ने इन्हें बदनाम कोख में ला पटका.’’
मेरे चिंतन पर प्रश्नचिह्न लग गया था.
मेरे कानों में सैकड़ों कराहते नारी स्वर गूंजने लगे थे. मेरी आंखें गीली हो आई थीं.
वे फिर बोलीं. इस बार उन की आवाज में कुछ उत्तेजना सी थी, ‘‘साहबजादे, अगर एक मासूम को इस नरक से निकालने का हौसला रखते हो तो जाओ अपने मांबाप, घरखानदान वालों से पूछो कि क्या वे गली नंबर-10 के कोठे नंबर-3 की एक लड़की को अपने घर की बहू बनाने को तैयार हैं.’’
मैं खामोश था.
वे चुप थीं.
थोड़ी देर चुप रह कर वे तनिक धीमी आवाज में बोलीं, ‘‘अगर वे हां कर दें तो हमें खबर कर देना. हम बेटी को दुलहन बना कर खुद छोड़ने आ जाएंगे.’’
वे थोड़ा सा चुप हुईं और फिर कराहती सी आवाज में बोलीं, ‘‘और अगर ‘न’ कर दें तो तुम फिर कभी इस ओर मत आना. ये बदनाम गलियां हैं. बेकार में बदनाम हो जाओगे.’’
वे बहुत थकी सी लगने लगी थीं. वे धीरेधीरे उठीं और बिना मेरी ओर देखे पीछे के कमरे के अंदर चली गईं.
अब एकदम सन्नाटा हो गया था.
मैं कुरसी पर बैठा अपनी चेतना लौटने का इंतजार करता रहा. फिर मैं भी कुरसी से उठा और धीरेधीरे बाहर की ओर चल दिया.
मुझे लग रहा था कि कमरे के दरवाजे पर पड़े परदे के पीछे से याचनाभरी
2 आंखें मेरा पीछा कर रही हैं.
मैं कितनी ही कोशिशें करने के बाद घर वालों से कुछ न कह सका और न कभी फिर वह लड़की ही मिली. दिनदहाड़े आगरा घूमनेफिरने के बाद टैक्सी वाला तारीफों के पुल बांधते हुए हमें एक दुकान में यह कह कर ले गया कि यहां आगरा की प्रसिद्ध वस्तुएं फिक्स रेट पर मिलती हैं. दुकान के पहले छोर में हैंडीक्राफ्ट के आइटम रखे थे, जिन के दाम और क्वालिटी पहली नजर में हमें बाजार की अपेक्षा उचित लगे. हम ने कुछ आइटम खरीद लिए.
दुकान पर हमारा भरोसा जमता देख, दुकानदार आग्रह कर के हमें दुकान के दूसरे छोर में ले गया जहां हैंडलूम के आइटम थे.
हमारे लाख मना करने के बाद कि हमारे पास खरीदारी के लिए पैसे ही नहीं हैं, वह बोला, ‘‘अरे साहब, पैसे कौन मांग रहा है. आप आइटम तो पसंद कीजिए. जितने का भी सामान हो उस का सिर्फ 40 फीसदी दे जाइए, हम सामान पार्सल से आप के घर भेज देंगे. डाक का खर्च हमारा रहेगा, बाकी पैसे दे कर पार्सल छुड़ा लेना.’’
हमारे नानुकुर करने के बाद भी वह एक साड़ी मेरी मिसेज को दिखाते हुए बोला, ‘‘बहनजी, यह बांस (बैंबू)
की साड़ी आगरा की प्रसिद्ध साड़ी
है, इसे जरूर ले जाइए, कीमत मात्र 1,200 रुपए.’’
मैं ने पत्नी को एकदो साड़ी खरीदने की सहमति दे डाली. फिर क्या था, मोहतरमा ने 6 साडि़यां पैक करा डालीं.
दुकानदार ने प्रत्येक साड़ी के कोने में हमारे हस्ताक्षर करा लिए ताकि साडि़यों के बदले जाने की गुंजाइश न रहे. दुकानदारी के तरीके से प्रभावित हो कर हम इतने निश्ंिचत हो गए कि बिल की काउंटरफाइल में लिखी शर्तों को पढ़े बगैर हम ने उन की शर्तों पर साइन कर दिए. सारी जेबें खंगालने के बाद 3 हजार रुपए अदा कर के हम अपने घर को विदा हो लिए.
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घर पहुंचने के एक हफ्ते के अंदर पार्सल भी पहुंच गया. डाकिया बाकी के 3 हजार रुपए के अलावा 125 रुपए डाकखर्च भी मांगने लगा. हमारे यह कहने पर कि डाकखर्च तो दुकानदार ने दे दिया होगा, वह बोला, ‘‘नहीं, बकाया डाकखर्च देने पर ही मैं पार्सल आप को दे सकता हूं.’’ 125 रुपए के पीछे 3 हजार फंसते देख हम ने पार्सल छुड़ा लिया.
हम ने पार्सल खोला. हस्ताक्षरयुक्त साडि़यां पा कर तसल्ली हुई. आगरा की निशानी के नाम पर बड़े उत्साह से पहनने के बाद एक ही धुलाई में साडि़यों का सारा आकर्षण भी धुल गया. इस ठगी की कटु याद आज भी मुझे कचोटती है.
सुबोध मिश्र