दादी का भुनभुनाना जारी था, ‘अरे, लड़कियां तो निखालिस भूसा होती हैं, हवा लगते ही फुर्र से उड़ जाएंगी, पर वजनदार अनाज की तरह परिवार का रखवाला तो लड़का ही होता है. बेटे वाले घर की तो बात ही कुछ और है.’

यह सुनने के हम अब आदी हो गए थे. मुझ से 2 बड़ी और 3 छोटी बहनें थीं. मैं तीसरे नंबर की बड़ी चंचल व भावुक थी. मुझ से 2 बड़ी बहनें अकसर गुमसुम रहतीं.

मेरी सब से छोटी बहन का जब जन्म हुआ तो घर में मातम सा छा गया. ऐसा सन्नाटा शायद हम सभी बहनों के जन्म के समय भी रहा होगा. छोटी के जन्म पर पड़ोसी भी ‘हे राम, फिर लड़की ही हुई’ जैसे शब्द बोल कर अपने पड़ोसी होने का धर्म निभा जाते. पापा को 2 लाइन लिख दी जातीं कि इस बार भी घर में बेटी पैदा हुई है.

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छोटी के जन्म के बाद पापा 1 साल में घर आए थे. 2 महीने की छुट्टियां चुटकियों में बीत गईं. वापस ड्यूटी पर जाते हुए पापा ने दादी के पांव छुए. हम सभी लड़कियों को अच्छे नंबरों से पास होने की हिदायत दे कर उन्होंने संकरी पगडंडियों की तरफ धीरेधीरे अपने कदम बढ़ाए तो घुटनेनुमा पहाड़ पर चढ़ते हुए पापा की पदचाप हम सभी महसूस करते रहे.

जितने दिन पापा घर में रहे हर दिन त्योहार की तरह बीता. चूल्हे की आग से तपती कंचनवर्णा मां के चेहरे पर जरा भी शिकन न दिखाई देती. वह बड़ी फुर्ती से पापा की पसंद के व्यंजन बनाती रहतीं. दोपहर के 2-3 बजे पापा गांव से दूर घूमने निकल पड़ते. कभी हम बहनें भी उन के साथ चल देतीं. गोल, चमकीले, चौकोर पत्थरों के ऊपर जब कभी हम सुस्ताने बैठतीं तो पापा भी बैठ जाते. पापा ध्यान दिलाते, ‘देखो बच्चो, कितना सुंदर लग रहा है यह सब. खूबसूरत पहाड़, स्लेटी रंग के पत्थरों से ढकी छतें कितनी प्यारी हैं.’

तब जा कर कहीं हमें पहाड़ों की सुंदरता का एहसास होता. पहाड़ी खेतों के बीच चलतेचलते सांझ हो जाती और फिर अंधेरा छाने लगता. मैं पापा को याद दिलाती कि अब हमें वापस चलना चाहिए. तारों की छांव में हम वापस मुड़ते. पहाड़ी ढलान पर चलना सहज नहीं होता, ऊपर तारों की चादर फैली हुई और नीचे कलकल करती पहाड़ी नदी. पापा बिना कठिनाई के कदम बढ़ाते साथ ही हमें ऊंचीनीची, संकरी जगहों पर हाथ पकड़ कर रास्ता तय करवाते.

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पापा के जाने के बाद उदासी सी छा गई. सारे घर में दादी समयअसमय साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछा करतीं और सारा गुस्सा हम बहनों पर ही उतारतीं. उन के सामने कोई जवाब देने की हिम्मत न करता. दादीजी का रौब और दबदबा सारे गांव में मशहूर था.

अंगरेजी सरकार द्वारा सम्मानित जागीरदारों के उच्च कुल में जन्मी 7 भाइयों की अकेली बहन थीं हमारी दादी. सुना है, उस जमाने में दादाजी की बरात में 500 बराती गए थे. जबकि मेरी मां साधारण परिवार की, कम पढ़ीलिखी लड़की थीं. पापा नायब सूबेदार थे. एन.डी.ए. की लिखित परीक्षा में 2 बार निकलने पर एस.एस.बी. में असफल रहे. इस असफलता का गम पापा को अंदर तक झकझोर गया. वह गम पापा कभी भुला नहीं पाते कि पढ़ाई में उन से फिसड्डी लड़के आगे निकल गए थे और वह रह गए. फिर भी फौज में जाने की उन की दिली इच्छा थी इसलिए जो पद मिला स्वीकार कर लिया.

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दादी को सख्त अफसोस होता कि मेरा बेटा दीपू मेजर का बेटा होते हुए भी पीछे क्यों रह गया जबकि वह पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहा था. मेजर का इकलौता वारिस होने के कारण बड़ेबड़े घरों से रिश्ते आए थे लेकिन वह खूबसूरती पर मर मिटा. दानदहेज फूटी कौड़ी भी न मिली और आगे से देखो लड़कियों की फौज खड़ी है. दादी कुछ न कुछ बोलती ही रहतीं. कभी हमें कोसतीं और कभी पापा की किस्मत को दोषी ठहरातीं.

दादी चालीसा अभी खत्म भी नहीं हो पाई थी कि पूर्वा भागीभागी आई और बोली, ‘‘दादी, पार गांव से संतू आया है. साथ में बकरी का छोटा सा एक बच्चा भी लाया है.’’

‘‘संतू बकरी का बच्चा ले आया,’’ दादी खुश होते हुए बोलीं, ‘‘बड़ी खुशामद से मंगवाया है.’’

हम    बहनें प्रश्नभरी नजरों से दादी को देखने लगीं तो वह बोलीं, ‘‘बच्चो, तुम्हारी समझ में अभी ये बातें नहीं आएंगी. समय आने पर तुम खुद ही समझ जाओगी.’’

मैं उत्सुकता से भरी आंगन की तरफ भागी तो देखा सामने दूध की तरह सफेद बकरी का बच्चा भयभीत नजरों से टुकरटुकर मुझे देख रहा था. मैं उसे गोद में लेने को आगे बढ़ी तो वह कुलांचें भरता हुआ भाग निकला.

संतू को चाय और रोटी, बकरी के बच्चे को दानापानी खिलापिला कर दादी ने राहत की सांस ली थी और फिर दालान में बैठ कर वह आगे की रूपरेखा बनाने में जुट गईं.

दादी ने गांव के एक लड़के को सब कुछ समझा कर पुरोहित के घर जल्दी आने का बुलावा भेजा. पंडित ठीक समय पर पहुंच गया. उस ने संकल्प के लिए परिवार के सभी लोगों को पूजाघर में जमा किया और फिर सब की हथेली में पानी और तिल रखते हुए संकल्प छोड़ने को कहा. पंडित मंत्रोच्चारण कर रहा था और परिवार के लोग बकरी पर तेल छिड़क रहे थे. अंत में पंडित ने कहा, ‘‘हे देवी, अगर घर में बेटा हुआ तो यह बकरी तुझे भेंटस्वरूप देंगे.’’

पंडित के कहे अंतिम शब्द मुझे विष वाण से लग रहे थे.

इत्तफाक ही कहिए कि 6 बहनों के बाद घर में बेटे का जन्म हो गया. नामकरण संस्कार बड़े धूमधाम से मनाया गया तो घर में बधाई देने वालों का तांता लग गया. गांव की रस्म के अनुसार भरपूर दक्षिणा दी गई. भाई का नाम दादी की इच्छानुसार तथा पंडित की सहमति से कालीचरण रख दिया गया.

मैं बकरी के छौने को चारापानी देने गई. लाड़ से मैं ने उसे सहलाया तो वह मैं…मैं करता हुआ मेरे आसपास उछलने- कूदने लगा. मैं ने प्यार से उसे खैरू कह कर पुकारा तो वह मेरे पास आ गया. मैं उछलती हुई अपनी छोटीबड़ी बहनों को बताने गई, ‘‘देखो, कल से बकरी के बच्चे को खैरू कह कर बुलाना, यह नाम मैं ने रखा है. कैसा लगा तुम्हें?’’

‘‘अच्छा है,’’ मेरे से 2 साल बड़ी बहन जो बोलने में बड़ी कंजूस थी, अपने शब्दों को खर्च करती हुई मुझे समझाते हुए बोली, ‘‘नन्हे छौने को इतना प्यार न किया कर प्रिया, क्योंकि इस की जुदाई तू सह नहीं पाएगी. खैरू की खैरियत नहीं, वह देवी मां को चढ़ेगा.’’

पलक झपकते ही साल निकल गया. खैरू अब खापी कर जवान बकरा बन चुका था. इस साल पापा जब घर आए तो दादी फुरसत के क्षणों में पापा को अपने पास बिठाते हुए बोलीं, ‘‘दीपक, आने वाले दशहरे पर तुझे छुट्टी लेनी पड़ेगी. अष्टमी को काली मंदिर में बकरा भेंट करना है.’’

खीजते हुए पापा बोले, ‘‘तुम तो जानती हो मां कि फौज में छुट्टियां कम ही मिलती हैं. तुम्हारी इसी बेटे की झक के कारण इतनी बड़ी गृहस्थी जुड़ गई. जानती हो मां अब वह जमाना आ गया है कि बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं माना जाता.’’

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पापा का इतना कहना था कि दादी भभक कर बोलीं, ‘‘अगर उपाय न होता तो जिद कर के मैं ने बकरा न मंगवाया होता. तुम ने तो वंश का नामोनिशान ही मिटादिया होता. पुरखे बिना तर्पण के निराश हो कर भूखेप्यासे ही लौट जाते. बेटियों के हाथ से पितरों को पानी चढ़वाता क्या? 2 गांवों की जायदाद दूसरे वंश को ऐसे ही सौंप देते? अब कुल में नाम लेने वाला हो गया है तो काली को पूजा तो देनी ही होगी.’’

दादी का अंधविश्वास ही हमें अखरता था, वरना तो उन का व्यक्तित्व हम सब के लिए गर्व करने लायक था. दादाजी फौज में बड़े ओहदेदार थे. उन की मौत के समय पापा बहुत छोटे थे, सो दादी ने ही मायके और ससुराल दोनों जगह को संभाला और पापा को पालपोस कर बड़ा किया. हर साल शहीद दिवस पर सफेद सिल्क की साड़ी में दादी को जब सम्मानित किया जाता तो वह क्षण हम बहनों के लिए फख्र करने का होता था. अब सब से कहतीं फिरती हैं कि काली मां के खुश होने से ही उन के घर में पोता पैदा हुआ.

गांव भर में दादी को अपनी मन्नत पूरी होने का ढिंढोरा पीटते देख एक उन की हमउम्र बुढि़या से नहीं रहा गया तो उन्होंने पूछ लिया, ‘‘क्यों दीपक की मां, पहले कालीमां की याद नहीं आई जो 6 लड़कियां हो जाने के बाद मन्नत मानी.’’

दादी लड़कियों को कितना भी डांटें लेकिन दूसरों का इस तरह कहना उन्हें कहां बरदाश्त होता. फौरन बोलीं, ‘‘तुम्हें मेरी पोतियों की फिक्र क्यों हो रही है? सब पढ़ रही हैं. सुंदर हैं, कितने ही अच्छे घरों के राजकुमार मेरी देहरी चढ़ेंगे.’’

खैरू अब खूब सुंदर दिखने लगा था. सफेद लंबे झबरीले बालों में वह लंबातगड़ा लगता. जानपहचान वाले लोग उस की हड्डीपसली पर निगाह रखते, उस की खाल को खींच कर अनुमान लगाते कि प्रसाद के रूप में उन्हें कितनी बोटियां मिलेंगी. ताजे गोश्त के स्वाद को याद करते हुए वे थूक निगलते.

दशहरा शुरू हो गया. पापा छुट्टी ले कर घर आ गए, नजदीकी रिश्तेदार जमा होने लगे. इस तरह का जो भी मेहमान आता वह एक नजर खैरू पर डाल कर दूसरे मेहमानों से यही कहता, ‘‘बकरा बड़ा जोरदार है.’’

आखिर खैरू की जुदाई का दिन भी आ गया. सप्तमी के दिन खैरू को मंदिर ले जाना था. मंदिर गांव से काफी दूर है. मैं उस से लिपटती और आंसुओं को उसी के शरीर से रगड़ती, पोंछती लेकिन आंसू हैं कि थमने का नाम ही नहीं लेते. पापा गुस्सा होते हुए मुझे झिड़की देते, ‘‘क्यों बकरे को परेशान करती हो. इधरउधर खेलती क्यों नहीं?’’

ऐसे समय दादी मुझे गोद में बैठा कर कहतीं, ‘‘रहने दे, बेटा, इसी के साथ हिला है. दानापानी भी इसी के हाथ से खाता है. जिस समय बकरे को ले जाएंगे इस की नजर बचा कर ही ले जाना होगा वरना यह तूफान खड़ा कर देगी.’’

सप्तमी के दिन सुबह ही गेंदे के सुगंधित फूलों की माला खैरू के गले में डाल दी गई. रोली और अक्षत से उस का माथा सजाया गया. मुलायम घास की पत्तियां, भीगे चने और आटे की मीठी रोटी उस को खाने के लिए दी गई लेकिन उस ने छुआ तक नहीं. खैरू मैं…मैं… कर रहा था. मांस के भूखे लोग उसे धकियाते हुए ले जा रहे थे. कतारबद्ध वे पहाड़ी रास्ते पर ढलान व चढ़ाई लांघते हुए उत्साह से, तेज कदमों से चले जा रहे थे. लेकिन खैरू धीमी चाल से चलता हुआ पीछे मुड़मुड़ कर कभी घर की ओर तो कभी मुझे देख रहा था.

मिमियाता हुआ निरीह प्राणी कितना बेबस था. मैं उस को लाख कोशिशों के बावजूद नहीं बचा सकती थी. बड़ा विश्वास था उस का मुझ पर, मैं क्या करती. देखते ही देखते वे लोग पहाड़ की दूसरी तरफ आंखों से ओझल हो गए और मैं थके पैरोंसे वापस घर की ओर मुड़ी और बिना खाएपीए बिस्तर में घुसी रही. घर में हर कोई देवीपूजन की बात करता कि पूजन कैसा रहा, कितने बकरे आए थे, बलि के लिए उन में खैरू सब से अच्छा था आदि. और मैं चुपचाप रोती, अपने गुस्से को अंदर ही अंदर दबाने की कोशिश करती रही रात भर.

कालीचरण 4 साल का हो गया लेकिन वह न बोलता और न ही सुन सकता था. दादी को गहरा धक्का लगा. उन्होंने सिर पीट लिया. इनसान की इच्छाएं कितनी अधिक हैं लेकिन जीतेजी किस की इच्छा पूरी होती है. दादी की पोते की इच्छा तोपूरी हुई लेकिन प्रकृति ने तो बड़े ही क्रूर ढंग से बदला चुकाया. धीरेधीरे कालीचरण बड़ा होने लगा. पापा रिटायर हो गए. उन्हें बेटे की स्कूल की फिक्र होने लगी. मूकबधिरों के हमारे यहां बहुत कम स्कूल हैं. किसी तरह एक स्कूल में दाखिला करवाया.

मुझ से बड़ी बहन जो ज्यादातर चुप रहती थी आज एक नामी डाक्टर है. कोई शिक्षिका तो कोई निजी फर्म में जनरल मैनेजर का पद संभाले हुए है. हम बहनोंके लिए पापा को वर ढूंढ़ने में अधिक परेशानी नहीं हुई, क्योंकि सभी तो अच्छे पदों पर कार्यरत थीं. बहुत गर्व की अनुभूति होती थी पापा को हम बहनों के बारे में बोलतेहुए.

कई महीनों बाद मैं इस बार पापा से मिलने मायके आई तो कुशलक्षेम, प्रणाम और आशीर्वाद के बाद मैं कुरसी पर बैठी ही थी कि कालीचरण नमस्ते करता हुआ मेरे सामने खड़ा था. मैं प्रश्नसूचक नेत्रों से पापा को देखने लगी. वे सजल आंखों से मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘क्या करूं बेटा, मैं ने इस का एडमिशन जितने भी विकलांग स्कूल हैं, सभी में करवा दिया लेकिन यह मारपीट करता है. इस कारण इस का नाम काट दिया जाता है. आखिरी स्कूल था वहां से भी निकाल दिया गया. कभी सोचता हूं यह या तो पैदा ही न होता और होना ही था तो तुम्हारी तरह लड़की होता.’’

मैं मम्मीपापा को दुखी देख कर परेशान सी आंगन में टहलने लगी. आंगन से मैं चौक में उतर आई. मेरे पीछेपीछे मां भी आ गईं. खैरू का खूंटा वहीं गड़ा हुआ था. मैं निर्जीव खूंटे को बैठ कर सहलाने लगी. मां मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए बोलीं, ‘‘क्या करें प्रिया बेटा, खैरू की बलि हम भी नहीं भूले हैं.’’

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मेरे कानों में 5 वर्ष पहले दादी के कहे शब्द गूंजने लगे. बेटा तो वजनदार अनाज की तरह परिवार का रक्षक होता है. बकरा मंगवा लिया तो हो गई न काली मां प्रसन्न.

 शशि ध्यानी        

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