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बुलबुल कैन सिंगः चैंकाने वाली त्रासदी का बेहतरीन चित्रण

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माता,लेखक व निर्देशकः रीमा दास

सह निर्माता: जया दास

कलाकारः अर्नाली दास, मनोरंजन दास, बनिता ठाकुरिया, मनबेंद्र दास, दीपज्योति कलिता व अन्य.

अवधिः एक घंटा 34 मिनट

गत वर्ष राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल करने के अलावा ‘‘औस्कर’’ में भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के रूप में जा चुकी असमिया फिल्म ‘‘विलेज रौकस्टार’’ की लेखक, निर्माता व निर्देशक रीमा दास अब अपनी नई असमी फिल्म ‘‘बुलबुल कैन सिंग’’ लेकर आयी हैं. यह फिल्म भारतीय सिनेमाघरों में 27 सितंबर को पहुंची है, मगर इससे पहले यह फिल्म 40 अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में धूम मचाने के अलावा 17 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार हासिल कर चुकी है.

कहानीः

कहानी के केंद्र में आसाम के एक गांव में रहने वाली और स्कूल में पढ़ने वाली किशोरवय लड़की बुलबुल (अर्नालीदास) है, उसके पिता अच्छे गायक हैं. बुलबुल को गांव के किनारे पेड़ो के झुंड के बीच जमीन पर गिरे हुए फूल के पास आराम करते हुए आनंद आता है. बुलबुल के पिता अपनी बेटी को भी गायक बनाना चाहते हैं. बुलबुल की आवाज अच्छी है, मगर उसकी आवाज तब विफल हो जाती है, जब उसे लोगों के सामने गाना पड़ता है. असफलता और आत्म-संदेह के डर से भी नाजुक बोनी (बोनिता ठाकुरिया) और सुमन (मनोरंजन दास ) जो पारंपरिक पुरुष छवि को पूरा नहीं करता है, इसलिए उसे लोग ‘औरत’ कहकर बुलाते हैं. वास्तव में सुमन ट्रांसजेंडर/ समलैंगिक है. स्कूल में लड़के सुमन की पैंट उतारना चाहते हैं और जांचना चाहते हैं कि वास्तव में वहां क्या है. लेकिन बुलबुल और बोनी उसे लड़कियों की तरह मानते हैं. जबकि सुमन (मनोरंजन दास) अभी भी समझने का प्रयास कर रहा है कि वह वास्तव में कौन है. स्कूल में ही एक किशोर वय लड़का पराग (मनवेंद्रर दास) है, जो बुलबुल को कविताएं लिखकर देना शुरू करता है. बुलबुल घर पर उस कविता को अपने बिस्तर पर फैलाकर पढ़ती है, सुमन उसके बगल से बाहर निकलती है.

अब स्कूल में बुलबुल, बोनी, बोनी का दोस्त, सुमन, परागयह पांच दोस्त एक साथ नजर आने लगते हैं. पहले प्यार का अनुभव तीनों किशोरों को उच्च उम्मीदों और सख्त नैतिकआदर्श के दबाव में रखता है. यह पांचों एक साथ तस्वीरें भी खिंचवाते हैं. एक दिन यह पांचो जंगल में घूमने जाते हैं. बोनी और बोनी का दोस्त अलग पेड़ के नीचे खड़े होकर बातें करते हैं. बुलुबुल, सुमन से कहती है कि आने जाने वालों पर नजर रखे. पर सुमन प्रकृति में खो जाता है और जैसे ही एक झाड़ियों कें झुंड में बुलबुल और पराग के चुंबन लेते ही कुछ आदमियों का झुंड उन्हे घर लेता है. फिर यह नैतिक पुलिसिंग करते हुए बुलबुल और बोनी की पिटायी करते है. मामला इनके घर व स्कूल तक पहुंचता है. बुलबुल और बोनी से स्कूल के शिक्षक अपना अपराध लिखवाते है और फिर इनकी संगीत की प्रतिभा को नजरंदाज कर स्कूल से निकाल दिया जाता है. बुलबुल को लगता है कि उसका सब कुछ तबाह हो गया. वह सुमन सहित हर किसी से संबंध खत्म कर लेती है. बुलबुल, सुमन को काफी कुछ बुरा भला कहकर उसे दोस्त मानने से इंकार कर देती है. जबकि बुलबुल को थोड़ा एहसास होता है कि सुमन उन मर्दाना पुरुषों के सामने उतनी ही शक्तिहीन रही होगी जितनी वह और पराग. इस घटना के बाद बोनी अपनी विधवा मां की परवाह न करते हुए आत्महत्या कर लेती है. प्यार और दुख के बीच संबंध बहुत ताकत की मांग करता है. इसी वजह से बुलबुल अकेले में गाना शुरू कर देती है.

फिर गांव में एक समारोह के दौरान एक शख्स कहता है- ‘‘प्यार स्प्रिच्युअल होता है.प्यार फिजिकल भी होता है. प्यार खुद की अनुभूमित, प्यार खुद की खुशी व संतुष्टि होता है. मगर आधुनिक सोच ने प्यार को बदनाम कर दिया.’’दूसरे दिन गांव की कुछ औरते आपस में चर्चा करते हुए कहती है- ‘‘प्यार स्प्रिच्युल होता है, प्यार फिजिकल होता है, पर हमारी समझ में तो कुछ नही आया.’’

दोस्त बोनी की मृत्यु के बाद बुलबुल एक टिड्डी के साथ खेलते हुए नजर आती है. उसने खुद को अस्थायी रूप पराग व सुमन सहित हर किसी से दूर कर लिया है, लेकिन जीवन से नहीं….कुछ दिन बाद नदी किनारे बोनी की मां (पाकीजा बेगम) और बुलबुल गुमसुम बैठे होते हैं. तभी आकाश में इंद्रधनुष नजर आता है. बोनी की मां बुलबुल से इंद्रधनुष देखने के लिए कहती है. उसके बाद वह बुलुबल से कहती है- ‘‘यदि आप लोगों को बहुत सुनते हैं, तो आपका जीवन बर्बाद हो जाएगा. वही करें जो आपका दिल चाहता है.‘‘

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लेखन व निर्देशनः

रीमा दास को अपने शिल्प में महारत हासिल है. रीमा दास ने फिल्म में प्रकृति को भी एक किरदार की तरह पेश किया है. फिल्मकार ने एक लड़की को किस तरह परिवार, समाज,पितृसत्तात्मक सोच जैसे दबावों का सामना करना पड़ता है, उसका सटीक चित्रण किया है. फिल्म में बुलबुल की मां अक्सर उससे कहती है ‘‘लड़कियों को विनम्र और शांत होना चाहिए‘‘ और ‘‘अपनी फ्रौक को नीचे खींचो.‘‘

फिल्मकार ने फिल्म में असम के ग्रामीण जीवन और परिवेश, दिनचर्या को बहुत ही बेहतरीन तरके से उकेरा है. तो वहीं तीन दोस्तों के जीवन को बड़े खूबसूरत तरीके से चित्रित किया है. किशोरवय के प्यार को खूबसूरती से चित्रित किया गया है. तो वही फिल्म्कार ने सामाजिक और नैतिकता के ठेकेदारों पर कुठाराघाट करते हुए सवाल उठाया है कि किन्ही चार लोगों को समाज व संस्कृति के ठेकेदार बन किसी की भी जिंदगी को तहस नहस करने का अधिकार किसने दिया? इसी के साथ फिल्मकार ने शिक्षकों की बदलती सोच पर कटाक्ष किया है.एक शिक्षक का काम होता है छात्र की कमियों को दुरुस्त कर उसे एक बेहतर इंसान बनाना न कि उसे ऐसी सजा देना जिससे वह अपना जीवन ही खत्म कर ले.

पूरी फिल्म देखने के बाद यह बात उभकर आती है कि फिल्म में रीमा दास ने बुलबुल को प्रतीकात्मक रूप में फिल्म में उपयोग किया है. बुलबुल और सुमन दोनों मनुष्य द्वारा उत्पीड़ित हैं, लेकिन उनका सार प्रकिृत से प्राप्त उनके नामों में निहित है. बुलबुल एक पक्षी है और सुमन एक फूल है. दोनों को स्वतंत्र होने की आवश्यकता है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो बुलबुल के किरदार में अर्नाली दास और सुमन के किरदार में मनोरंजन दास ने शानदार जीवंत अभिनय किया है.

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‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’: 2 साल बाद वापस लौटेंगी दयाबेन, इस दिन होगी धमाकेदार एंट्री

मशहूर टीवी शो  ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ की दयाबेन काफी समय से इस शो में नजर नहीं आ रही है. और उनके लैटने का इंतजार फैंस काफी बेसब्री से कर रहे हैं. तो आपके लिए खुशखबरी भी आ गई है. जल्द ही दयाबेन यानी दिशा वकानी वापस आ सकती हैं. जी हां, आपकी दयाबेन जल्द ही इस शो में धमाकेदार एंट्री करने वाली हैं.

वैसे कई बार खबरें आ चुकी हैं कि  दिशा वकानी ने ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’  शो छोड़ दिया है लेकिन अब खबर ये आ रही है कि दिशा वकानी जल्द ही इस शो में वापस आने वाली हैं. उनके फैंस के लिए ये खबर ट्रीट की तरह साबित होगा.

पिछले कुछ महीनों से ये शो ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’  अपनी स्टारकास्ट की वजह से सुर्खियों में बना हुआ था. दयाबेन के फैंस उनके लौटने का इंतजार कर रहे थे तो वहीं मेकर्स इस उलझन में नजर आए कि किस तरह से दिशा को शो में वापस लाना है. काफी समय से ये भी खबरें आ रही थीं कि, दिशा वकानी अब इस शो में नजर नहीं आएंगी. इतना ही नहीं कहा तो ये भी जा रहा था कि, मेकर्स ने दिशा के बाद अब नई दयाबेन की खोजबीन शुरू कर दी है.

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खबरों की माने तो दिशा वकानी और सीरियल तारक मेहता का उल्टा चश्मा के प्रड्यूसर असित मोदी एक साथ काम करने के लिए राजी हो गए हैं. बताया जा रहा है कि, मां बनने के बाद दिशा वकानी को कैमरा फेस करने में कुछ परेशानी हो रही थी. इसी वजह से  वे पिछले 2 साल से सीरियल से दूरी बनाईं हुई थीं.

आपको बता दें, दिशा वकानी की एंट्री इस शो के नवरात्री जश्न पर हो सकती है. दयाबेन गरबा करती नजर आ सकती है. जी हां इस मौके पर दयाबेन की एंट्री हो सकती है.

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जय हो भगवान! अब तो आप दलितों की हत्या का हुक्म देने लगे

ज्यादा नहीं महज चार दिन पहले ही आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अपनी जिंदगी में दूसरी बार कोलकाता में माना था कि समाज में छुआछूत और भेदभाव अभी भी हैं. देश के कोने कोने की जमीनी जानकारी रखने वाले भागवत जाने क्यों शिवपुरी के दलित हादसे पर खामोश हैं कि यह क्रूरता बर्बरता और अमानवीयता की हद है. भागवत ही क्यों सारा देश खामोश है. मानो दो दलित मासूमों की सरेआम हत्या नहीं हुई हो बल्कि कुछ दबंग सवर्णों ने कान पर भिनभिनाते मच्छर मार डाले हों.

बात देखा जाये तो गलत कहीं से नहीं है कि दलित वाकई मक्खी, मच्छर और कीड़ा मकोड़ा है जिसे जब मन करे मार डालो कोई कुछ नहीं बोलेगा. सोशल मीडिया पर सुबह दोपहर और शाम  राम हनुमान और घनश्याम भजते रहने वाले शेरों ने जम्हाई भी नहीं ली और फिर यह बताने के लिए अपने पुनीत कर्म में लग गए कि आज प्रधानमंत्री ने अमेरिका में क्या गुल खिलाकर देश का परचम कुछ यूं लहराया कि सारी दुनिया नमो नमो करते उन्हें फादर औफ नेशन कह रही है.

12 साल की रोशनी और 10 साल के अविनाश का गुनाह शायद इतना भर था कि वे उस समुदाय में पैदा हुये थे जो पैदाइशी अछूत पापी और जानवर है, ऐसा कई धर्मग्रंथों में साफ साफ लिखा भी है कि दलित को मारना कतई गुनाह नहीं है बल्कि पुण्य सरीखा काम है. जिन नव और प्राचीन हिंदुओं को शक हो या जानकारी न हो कि यह धर्म ग्रंथ ही कहते हैं कि दलित को मारो, उसे बराबरी से बैठने मत दो और बैठे तो उसके नितंब काट दो, अपने कुए का पानी मत पीने दो और वह यह सब करें तो बेखौफ होकर उसे मारो तुम्हें यानि सवर्णों को इससे कोई पाप नहीं लगेगा उल्टे तुम्हारी सीट स्वर्ग में आरक्षित हो जाएगी वे हिन्दू इस रिपोर्ट को पढ़कर जिज्ञासा अगर हो तो जानकारी इस लेखक से ले सकते हैं.

वाकई रोशनी और अविनाश को हाकिम और रामेश्वर यादव ने नहीं मारा बल्कि इसी ईश्वरीय वाणी और व्यवस्था ने मारा है, बेचारे ये दोनों तो निमित्त मात्र बन गए थे लिहाजा इन्हें तो तुरंत रिहा कर देना चाहिए जिससे ये धरती को दलित विहीन करने की अपनी मुहिम पूरी कर पाएं.  हो सके तो इन्हें पूरी कानूनी सुरक्षा और मुक्कमल हथियार मुहैया कराये जाना चाहिए जिससे ये भगवान का आदेश पूरी तरह पूरा कर पाएं.

हुआ इतना भर था कि मध्यप्रदेश के चंबल और मध्यभारत इलाके के एक पिछड़े जिले शिवपुरी के गांव भावखेड़ी में रोशनी और अविनाश की हत्या सरेआम लाठियों से पीट पीट कर कर दी गई. मारने वाले थे रामेश्वर और हाकिम यादव जिन्हें आईपीसी की धाराओं के तहत पुलिस ने पकड़ा तो हाकिम बड़ी दिलेरी से बोला – मुझे तो भगवान का आदेश हुआ है कि इस धरती पर राक्षसों का सर्वनाश कर दो. इसलिए मैं सर्वनाश करने निकला हूं.

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सच में यह कोई हाहाकारी या पहाड़ टूटने वाली बात नहीं थी कि दो दलित बच्चों को लाठियों से पीट पीट कर मार डाला गया क्योंकि ऐसा तो इस सभ्य समाज में आए दिन होता रहता है. मीडिया के लिए यह खबर गरमागरम लगी सो उसने यथासंभव कंजूसी बरतते मजबूरी में इसे परोस दिया. पाताल तक की खबर खोद लाने वाले मीडिया को एक दिन बाद पता चला कि ये दोनों आपस मेन भाई बहन नहीं बल्कि बुआ भतीजे थे. बहरहाल किसी ने इसे मौब लिंचिंग का एक और मामला कहा तो कुछ ने शर्मनाक बताते अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मान ली. मरने वाले बच्चे चूंकि वाल्मीकि यानी भंगी, मेहतर समाज के थे इसलिए उतना हल्ला नहीं मचा जितना कि लोकतन्त्र और संविधान के लिहाज से मचना चाहिए था.

अविनाश का पिता मनोज वाल्मीकि सकते में है. उसे या किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा है कि इन दोनों को क्यों मारा गया खुद एसपी शिवपुरी राजेश सिंह चंदेल ने माना कि दोनों आरोपियों (भगवानवादी अगर इन्हें आरोपी कहने की इजाजत दें तो) से पूछताछ में कोई ठोस कारण सामने नहीं आया है.

जबकि ठोस से भी ठोस वजह हाकिम सीना ठोक कर बता चुका था कि भगवान का आदेश हुआ है.

भगवान को दोषी ठहराए जाने से बचाने कुछ कहानियां भी गढ़ ली गईं. मसलन बच्चे खुले में शौच कर रहे थे इसलिए उनका ऊपर का टिकिट कटा दिया क्योंकि वहां शौचालय की किल्लत नहीं है. अब वे ऊपर (जाहिर है नर्क में क्योंकि स्वर्ग तो दलितों को मिलता नहीं वह तो ऊंची जाति वाले पुण्यात्माओं से ठसाठस भरा पड़ा है) जाकर खुलेआम शौच कर सकते हैं. एक बात जमीनी विवाद और झोपड़ी के झगड़े की भी सामने आई. लेकिन भगवान के आदेश के आगे सब बोनी हैं और होना भी चाहिए कि दलित राक्षस होता है. इसलिए उसे मारा जाना कोई जुर्म नहीं.

मामला दलित बच्चों की हत्या का हो और राजनेता उनकी लाशों पर रोटिया न सेकें, ऐसा होना शोभा नहीं देता. इसलिए बसपा प्रमुख मायावती ने बहन होने का फर्ज निभाते हादसे को दुखद और निंदनीय बता डाला. इधर राज्य के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी अपना राजधर्म यह कहते निभा डाला कि घटना हृदय विदारक है. आरोपियों पर कड़ी कार्रवाई होगी और परिवार की हर संभव मदद की जाएगी.

यकीन माने दिल से दलित हितैषी होतीं और अगर देश में भाजपा का राज न होता तो मायावती तुरंत हेलीकाप्टर या हवाईजहाज से शिवपुरी पहुंचती और कमलनाथ भी भागते लेकिन राजनीति का भी ट्रेंड बदल गया है मरने बाले की हैसियत, जाति और औकात देखकर ही नेता घटनास्थल पर पहुंचते हैं.

किसी मंत्री विधायक तो दूर की बात है किसी रसूखदार पार्षद की बूढ़ी सास भी मरी होती तो तमाम छोटे बड़े नेता गमछा कंधे पर डालकर पहुंच जाते. जानवरों सी जिंदगी जीने वाले दलितों के यहां हमदर्दी जताने जाना वक्त और पैसे की बर्बादी ही है. जिससे सवर्ण समुदाय नाराज भी हो सकता है .

कुछ सरकारी विभागों ने तो परिजनो को पैसे देने की घोषणा कर दी है. लेकिन मुमकिन है दो चार लाख देकर कमलनाथ भी मनोज के परिवार की भरपाई हुई मान वर्ण व्यवस्था पर पैसों की चादर डाल लें. मगर 11 लाख तो बिल्कुल नहीं देंगे. जैसे भोपाल के गणेश विसर्जन के दौरान मरे युवकों के परिजनों को तुरंत देकर अपने अफसरों का निठल्लापन ढक लिया था. वैसे भी वह धार्मिक मामला था और उसमें मारे गए आधे बच्चे सवर्ण थे. जेब कटी सरीखे मामलों पर कानून व्यस्था को कोसते रहने वाले पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को भी हादसा कानून व्यवस्था से जुड़ा नहीं लगा तो वे अपनी जगह ठीक हैं क्योंकि मामला धार्मिक निर्देशों का ही था.

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मुद्दे की बात भगवान का आदेश है, जिस पर सब चुप हैं क्योंकि भगवान के मामले में 6 साल से कोई टांग नहीं फसा रहा शिवपुरी हादसे पर भी कोई केंद्रीय मंत्री कुछ नहीं बोला. कोई कुछ न बोले यह हर्ज या हैरानी की बात बिल्कुल नहीं लेकिन यह मुनासिब वक्त है और उसकी मांग भी है कि नरेंद्र मोदी से प्रार्थना की जाये कि वे इसी वाल्मीकि समुदाय के सफाई कर्मियों के चरण धोने का ड्रामा कर राजनीति न करें बल्कि अपनी 56 इंच की छाती का इस्तेमाल इन्हें दबंगों से बचाने के लिए करें. मोहन भागवत जी से तो याचना ही की जा सकती है कि अगर भेदभाव और छुआछूत हैं तो उन्हें दूर करने अभियान चलाएं. राम मंदिर निर्माण से इन मरते और कहर झेलते शूद्रों को कुछ हासिल नहीं होने वाला वजह राम ने ही एक शूद्र के कानों में पिघला शीशा डलवा दिया था क्योंकि उसने धार्मिक बातें सुन ली थीं.

और ऐसा नहीं कर सकते तो संविधान की जगह मनु स्मृति घोषित तौर पर लागू कर दें इससे सारा फसाद ही खत्म हो जाएगा .

ये है भुतहा शहर

यह फोटो इटली के मटेरा प्रांत में स्थित शहर क्रास्को का है, जिसे 540 ईस्वी में  यूनानियों ने बसाया था. दुश्मनों पर निगाह रखने के लिए क्रास्को को 400 मीटर ऊंची पहाड़ी पर बसाया गया था. भूकंप जोन में होने के कारण यहां रहने वाले लोग धीरेधीरे इस जगह को छोड़ कर अन्य जगहों पर चले गए.

1980 में यहां इतना भीषण भूकंप आया कि शहर लोगों से खाली हो गया. कुछ मर गए तो कुछ दूसरी जगहों पर चले गए. इसीलिए इस शहर को घोस्ट सिटी (भुतहा शहर) कहा जाने लगा. यह शहर भले ही लोगों से खाली हो गया, लेकिन फिल्मकारों के लिए यह जगह शूटिंग के लिए पसंदीदा बन गई. यहां पर हौलीवुड की एक दरजन से ज्यादा फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है.

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इटली के मटेरा प्रांत में स्थित क्रास्को को भले ही घोस्ट सिटी कहा जाता हो, हकीकत में यहां भूत जैसी कोई चीज नहीं है. अलबता यहां रोमांचक और डरावनी फिल्मों की शूटिंग जरूर होती है.

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मासिक धर्म बेडि़यों के साए में क्यों ?

मैंने बचपन में देखा है कि दादी मेरी मम्मी को मासिकधर्म के दौरान घर के कार्य से बेदखल रखती थी. मम्मी को रसोईघर में घुसने की अनुमति नहीं होती थी, साथ ही वह किसी भी वस्तु को छू भी नहीं सकती थीं. यही नहीं उन्हें उन दिनों कांच के बरतनों में भोजन दिया जाता था और उसे भी वे अलग कमरे में बैठ कर खाती थीं. बरतन भी अलग धोती थीं. बात सिर्फ धोने पर ही नहीं खत्म होती थी. वे बरतन उन्हें आग जला कर तपाने होते थे. हम छोटेछोटे बच्चे जब भी ये सब देखते और सवाल करते थे तो जवाब मिलता था कि छिपकली छू गई थी.

वैदिक धर्म के अनुसार मासिकधर्म के दिनों में महिलाओं के लिए सभी धार्मिक कार्य वर्जित माने गए हैं और यह दकियानूसी नियम सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं, लगभग सभी धर्मों में है. लेकिन इस सोच के पीछे छिपे तथ्य को समझ पाना बहुत मुश्किल लगता है. सब लोगों से अलग रहो, अचार को हाथ मत लगाओ, बाल न संवारों, काजल मत लगाओ आदिआदि. न जाने कितने दकियानूसी नियम आज भी गांवों और कसबों में औरतों को झेलने पड़ रहे हैं. क्या कोई लौजिक है? किस ने बनाए हैं ये रूल्स और आखिर क्यों? जवाब कोई नहीं, क्योंकि होता आ रहा है, इसलिए सही है. आज भी बहुत सी महिलाओं के दिमाग पर ताले पड़े हैं.

लौजिक

आज 21वी सदी में जब इंसान चांद पर जीवन की या मंगल पर पानी की खोज कर रहा है तब यह सोच कितनी अवैज्ञानिक है. कैसी मूर्खतापूर्ण सोच है जिस के कारण रजस्वला नारी को अपवित्र मान लिया जाता है और पलभर में ही स्वयं के घर में वह अछूत बन जाती है. उस से अछूत की तरह बरताव किया जाता है. जबकि इस का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. बस परंपरा के नाम पर आज भी आंखों पर काला चश्मा चढ़ा हुआ है.

एक सहज और सामान्य शारीरिक क्रिया जो किशोरावस्था से शुरू हो कर सामान्य तौर पर अधेड़ावस्था तक चलती रहती है न जाने आज भी कितनी पाबंदियां झेलती है. यह एक सामाजिक पाबंदी बन गई है. उन के साथ अछूतों जैसा व्यवहार और हर महीने 4-5 दिनों का यह समय किसी सजा से कम नहीं होता है. माहवारी के दौरान महिलाएं न तो खाना बना सकती हैं और न ही दूसरे का खाना या पानी छू सकती हैं. उन्हें मंदिर और पूजापाठ से भी दूर रखा जाता है. कई मामलों में तो उन्हें जमीन पर सोने के लिए मजबूर किया जाता है.

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उदाहरण

एक स्वामी किस तरह अज्ञानता फैला रहा है-

‘‘इस का कारण यह कि रजस्वला के स्पर्श के कारण विविध वस्तुओं पर प्रभाव पड़ता है. इस के अलावा रजोदर्शन काल में अग्नि साहचर्य के कारण (रसोई बनाते समय) उसे शारीरिक हानि होती है.’’

इन अज्ञानताभरी बातों का असर आज भी बहुत से घरों में इन रूढि़वादी परंपराओं को तोड़ने नहीं देता. इन घरों में आम धारणा यह है कि इस दौरान महिलाएं अशुद्ध होती हैं और उन के छूते ही कोई चीज अशुद्ध या खराब हो सकती है.

एक स्कूल अध्यापिका मीरा का कहना है कि उस ने सारा जीवन इन पाबंदियों को माना, क्योंकि घर के बड़ों ने उसे ऐसा करने को कहा था. उसे हर बार इस का विरोध करने पर कहा गया कि ऐसा नहीं करने पर नतीजा बुरा होगा. जैसे दरिद्रता आएगी, बीमारियां फैलेंगी, घर के बड़े या बच्चे बीमार पड़ जाएंगे या पति की मौत हो जाएगी. ऐसी और न जाने कितनी बातें.

मीरा दुखी होते हुए कहती हैं, ‘‘ये 4-5 दिन घर की महिलाओं के लिए किसी सजा से कम नहीं होते थे. पर घर की बड़ी महिलाएं आंख बंद कर के ये सब मानती थीं. उन्हें इस बात में कुछ भी बुरा नजर नहीं आता था. किसी भी पुजारी या महंत के द्वारा बताई गईर् सभी बातें घर के सब सदस्यों को जायज लगती थीं. रजस्वला को कुछ भी छूने की मनाही होती थी. मैं सोचती थी कि पुरुषों के साथ ऐसा भेदभाव क्यों नहीं होता. ये सब हम लड़कियों को ही क्यों भुगतना पड़ता है. आज मैं ने अपनेआप को इन बातों से आजाद ही नहीं करा, बल्कि मेरी कोशिश है कि हर घर में परंपराओं की ये बेडि़यां टूटें.’’

आशाजी कहती हैं कि उन के गांव में आज भी रजस्वला महिला के साथ ऐसा होता है. जैसे यह गुनाह वह जानबूझ कर रही है. इस से भी बड़ी हैरानी तो तब होती है, जब हमारे पोथीपुराणों का हवाला देते हुए पंडेपुजारी भी मासिकधर्म को अशुद्ध घोषित करते हैं. रजस्वला महिला को उन की अपनी ही चीजें छूने की मनाही होती है. यही नहीं उन के लिए अलग बिस्तर या चटाई बिछती है.

मासिकधर्म के विषय में यह मान्यता है कि इस दौरान स्त्री अचार को छू ले तो अचार सड़ जाता है. पौधों में पानी दे तो पौधे सूख जाते हैं. यही नहीं अगर घर के लोग इस स्थिति में किसी महिला को घर की किसी चीज को छूते हुए देख लें, तो बहुत अनर्थ होता है.

आज के हालात

मैं अपनी ननद के घर गई, जोकि उत्तराखंड में रहती है. वहां पहुंचने पर मैं ने देखा कि ननद एक प्लास्टिक की कुरसी पर बैठी है, जबकि बाकी सब सोफे पर बैठे थे. खानेपीने के समय भी उन्हें साथ नहीं बैठाया गया. जिस कुरसी पर बैठी थीं उसे भी बाद में सर्फ से धोया गया. लेकिन परिवार के हर सदस्य चाहे बच्चा हो या बुजुर्ग या नौकर या घर के पुरुष सब के लिए यह स्थिति बहुत सामान्य सी बात थी.

मैं ने जब ननद या ननदोई को समझाने की कोशिश की तो जवाब मिला, ‘‘इस में बुराई भी क्या है? हम सब वही कर रहे हैं जो हमारे स्वामीजी कहते हैं, पुरखे मानते आए हैं. तुम दिल्ली वाले ज्यादा पढ़लिख कर परंपराएं निभाना भूल जाते हैं.’’

मुझे यह देख दुख हुआ कि आज भी भारत के अधिकांश क्षेत्रों में यह छुआछूत का भयंकर रिवाज हमारे समाज में चालू है. इस लज्जा और अपमानजनक स्थिति के लिए क्या महिलाएं खुद दोषी नहीं हैं?

अब वक्त बदला है. अब शहर के पढ़ेलिखे लोग, रजस्वला नारी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करते हैं. इस तरह की किसी परंपरा को नहीं मानते. लेकिन पूजा करना या मंदिर जाना आज भी वर्जित है. इस विषय पर आज भी महिलाएं खुल कर बात नहीं कर पातीं. बड़े शहरों की कुछ शिक्षित महिलाओं को छोड़ छोटे शहरों व कसबों में यह आज भी वर्जित विषय है.

अब जरा सोचिए, यदि एकल परिवारों के चलते, परिस्थिति से समझौता करते हुए, रजस्वला महिला को रसोईघर में जाने की इजाजत मिली है, तब क्या उस महिला का या उस के परिवार वालों का कुछ अनिष्ट हुआ?

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दरअसल, मासिकचक्र या रजस्वला होना एक नैसर्गिक क्रिया है, जो पूरी तरह से शरीर के गर्भावस्था के लिए तैयार होने की प्रक्रिया का एक हिस्सा है. यह कहना कि इस से दूषित रक्त बाहर निकलता है सर्वथा गलत है. चिकित्सीय दृष्टिकोण से नारी का ठीक समय पर रजस्वला होना बेहद जरूरी है. इस नैसर्गिक क्रिया से हर महिला को गुजरना पड़ता है. सभी लोगों को खासकर महिलाओं को भी समझना होगा कि इस का पवित्रता से कोई लेनादेना नहीं है. यहां तो खुद औरत ही औरत के ऊपर इस तरह की बेबुनियाद परंपराएं थोपते हुए नजर आती है.

एक चर्चित केस

नेहा को अचानक स्कूल में पीरियड शुरू हो गया और उसे पता नहीं चला. राह चलते समय मर्द उसे घूर रहे थे और महिलाएं उसे अपनी टीशर्ट नीचे कर खून के धब्बे छिपाने की सलाह दे रही थीं. लेकिन वह समझ नहीं पा रही थी. तभी एक महिला ने उसे सैनिटरी नैपकिन दिया. तब जा कर उसे लोगों के घूरने का माजरा समझ आया.

फिर क्या था? घर आ कर नेहा ने अपनी वही स्कर्ट बिना किसी शर्म और झिझक के सोशल साइट पर शेयर करते हुए लिखा कि क्या औरत होना गुनाह है? यह पोस्ट उन सभी महिलाओं के लिए है जिन्होंने औरत होते हुए भी मेरे वूमनहुड को छिपाने के लिए मुझे मदद का औफर दिया. मैं शर्मिदा नहीं हूं. मुझे हर 28 से 35 दिनों में पीरियड होता है जोकि एक नैसर्गिक क्रिया है. मुझे दर्र्द भी होता है. तब मैं मूडी हो जाती हूं. लेकिन मैं किचन में जाती हूं और कुछ चौकलेट, बिस्कुट खाती हूं.

अब आप ही बताएं यदि पीरिएड्स स्त्री का गुनाह है, तो इन के हुए बिना वह मां कैसे बनेगी? संसार में रजस्वला होना प्रकृति का नारी को दिया हुआ एक वरदान है. इस वरदान से ही पूरी सृष्टि की रचना हुई है. क्या इस बात को झुठलाया जा सकता है?

परंपरा के पीछे का सच

इस प्रक्रिया के दौरान 3 से 5 दिनों में करीब 35 मिलीलीटर खून बहता है, तो महिला का शरीर थोड़ा कमजोर हो जाता है. बहुत सी महिलाओं को तो असहनीय दर्द भी होता है. ऐसे में महिला को आराम की जरूरत होती है. शायद इसी वजह से हमारे पूर्वजों ने यह परंपरा शुरू की कि इसी बहाने से रजस्वला को थोड़ा आराम मिल जाएगा. लेकिन अच्छी पहल का भी परिणाम उलटा ही हुआ. रजस्वला नारी को अपवित्र माना जाने लगा और उसे रसोई से छुट्टी देने की जगह उस का पारिवारिक बहिष्कार किया जाने लगा. हैरानी की बात तो यह है कि इन नसीहतों में कहीं भी सेहत से जुड़ी बातें शामिल नहीं होतीं.

आज भी कई गांवों में मासिकधर्म के दौरान महिलाओं का किचन में जाना और बिस्तर पर सोना वर्जित है. आज भी महिलाओं की बड़ी संख्या सैनिटरी नैपकिन के बजाय गंदे, पुराने कपड़ों का इस्तेमाल करती हैं, जिस कारण महिलाओं में बीमारी का खतरा बढ़ जाता है.

आज भी हमारे देश में जहां हम पौर्न और सैक्स कौमेडी के बारे में तो खुलेआम बाते करते हैं, मगर जब बात महिला की सेहत की आती है, तो उसे टैबू बना कर रखना चाहते हैं.

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वैसे इस टैबू को तोड़ने की जिम्मेदारी खुद महिलाओं के कंधे पर है. जब तक महिलाएं शर्म और झिझक छोड़ कर अपनी बेटियों को इस बारे में नहीं बताएंगी, कोई कैंपेन, कोई संस्था कुछ नहीं कर सकती. बड़े पैमाने पर बदलाव के लिए पहल महिलाओं को ही करनी होगी.

बच्चे के बदलते व्यवहार और बिगड़ते स्वभाव को ऐसे पहचानें

प्ले स्कूल की प्रिंसिपल स्वाति गुप्ता का कहना है, ‘‘आजकल एकल परिवारों और महिलाओं के कामकाजी होने से स्थितियां बदल गई हैं. दोढाई साल के बच्चे सुबहसुबह सजधज कर बैग और बोतल के बोझ के साथ स्कूल आ जाते हैं. कई बच्चे ट्यूशन भी पढ़ते हैं. कई बार महिलाओं को बात करते सुनती हूं कि क्या करें घर पर बहुत परेशान करता है. स्कूल भेज कर 4-5 घंटों के लिए चैन मिल जाता है.’’

गुरुग्राम के रेयान स्कूल का प्रद्युम्न हत्याकांड हो या इसी तरह की अन्य घटनाएं, जनमानस को क्षणभर के लिए आंदोलित करती हैं. लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के साइकोलौजी विभाग की हैड दीपा पुनेठा का कहना है, ‘‘पेरैंट्स अपने बच्चे के भविष्य के लिए जरूरत से ज्यादा सचेत रहने लगे हैं. बच्चे के पैदा होते ही वे यह तय कर लेते हैं कि उन का बच्चा डाक्टर बनेगा या फिर इंजीनियर. वे अपने बच्चे के खिलाफ एक भी शब्द सुनना पसंद नहीं करते हैं.’’

चेन्नई में एक छात्रा ने शिक्षक की पिटाई से नाराज हो कर आत्महत्या कर ली. दिल्ली में एक शिक्षक द्वारा छात्र पर डस्टर फेंकने के कारण छात्र ने अपनी आंखें खो दीं.

इस तरह की घटनाएं आएदिन अखबारों की सुर्खियां बनती रहती हैं.

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जितनी सुविधाएं उतनी फीस

आजकल शिक्षण संस्थाएं पैसा कमाने का स्रोत बन गई हैं. एक तरह से बिजनैस सैंटर हैं. जितनी ज्यादा सुविधाएं उतनी ज्यादा फीस. सभी पेरैंट्स चाहते हैं कि वे अपने बच्चों को बेहतरीन परवरिश दें. इस के लिए वे हर मुमकिन प्रयास भी करते हैं. फिर भी ज्यादातर पेरैंट्स न बच्चों की परफौर्मैंस से संतुष्ट होते हैं और न ही उन के बिहेवियर से. इस के लिए काफी हद तक वे स्वयं जिम्मेदार होते हैं, क्योंकि वे स्वयं ही नहीं समझ पाते कि उन्हें बच्चे के साथ किस समय कैसा व्यवहार करना है.

बच्चा पढ़ने से जी चुराता है तो मां कभी थप्पड़ लगा देती है, कभी डांटती है तो कभी डरातीधमकाती है. लेकिन कभी यह पता लगाने की कोशिश नहीं करती कि बच्चा आखिर क्यों नहीं पढ़ना चाह रहा है. हो सकता है उसे टीचर पसंद नहीं आ रहा हो, उस का आई क्यू लैवल कम हो अथवा उस समय पढ़ना नहीं चाह रहा हो.

मुंबई के एक इंटरनैशनल स्कूल की अध्यापिका ने अपना दर्द साझा करते हुए बताया कि अब शिक्षिका पर मैनेजमैंट का प्रैशर, बच्चों का प्रैशर और अभिभावकों का प्रैशर बहुत ज्यादा रहता है. यदि किसी बच्चे से उस का होमवर्क पूरा न करने पर 2-3 बार कह दिया या सही ढंग से बोलने को कह दिया तो बच्चे घर पर छोटी सी बात को बढ़ाचढ़ा कहते हैं. इसीलिए अब हम लोग ज्यादातर पढ़ा कर अपना काम पूरा करते हैं.

पेरैंट्स का दबाव

अब स्कूल हों या पेरैंट्स सब को बच्चों की पर्सैंटेज से मतलब रह गया है. स्कूल को अपने रिजल्ट की चिंता है तो पेरैंट्स को अपने बच्चे को सब से आगे रखने की फिक्र है. बच्चों पर आवश्यकता से अधिक दबाव बनाया जा रहा है. पेरैंट्स और स्कूल दोनों ही बच्चों से उन की क्षमता से कहीं अधिक प्रदर्शन की चाह रखते हैं. बच्चों पर इतना अधिक दबाव और बोझ बढ़ जाता है कि या तो वे चुपचाप उस के नीचे दब कर सब की अपेक्षाएं पूरी करने की कोशिश करते हैं या फिर विद्रोही बन कर अपने मन की करने लगते हैं.

इलाहाबाद के एक मशहूर स्कूल की रुचि गुप्ता ने बताया कि पेरैंट्स के अनावश्यक हस्तक्षेप के कारण आजकल बच्चों को पढ़ाना बहुत मुश्किल हो गया है. बच्चे पढ़ना नहीं चाहते और यदि उन पर जरा भी सख्ती करो तो बात का बतंगड़ बना देते हैं. सारा दोष टीचर पर आ जाता है. जब मैनेजमैंट नाराज हो, तो इस समय टीचर तो बलि का बकरा बन जाता है.

आजकल स्कूलों में वैल्यू ऐजुकेशन एक दिखावा है. सब को केवल बच्चों के नंबरों से मतलब है, क्योंकि आज का नारा है, कामयाब इंसान ही तारा है.

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पैसे का रोब

आजकल बच्चे पेरैंट्स की शह पर ही जिद्दी बन कर स्कूल में टीचर को कुछ नहीं समझते हैं. क्लास में टीचर का मजाक बनाना और ऊटपटांग प्रश्न पूछना आम बात हो गई है.

आजकल पेरैंट्स बच्चों के सामने ही स्कूल और टीचर की कमियां निकालते रहते हैं. कई बार पेरैंट्स बच्चों के सामने ही कहने लगते हैं कि इस टीचर की शिकायत मैनेजमैंट से कर देंगे. तुरंत स्कूल से निकलवा देंगे. भला इन बातों को सुनने के बाद टीचर के प्रति बच्चों के मन में आदरसम्मान कहां से आ सकता है?

सुविधासंपन्न परिवारों के बच्चे ज्यादातर किसी की कदर नहीं करते. न स्कूल में अपने टीचर्स की न ही घर में अपने पेरैंट्स की. वे मेहनत करने का माद्दा नहीं रखते. मांबाप की शाहखर्ची देख कर स्कूल में भी अपने पैसे का रोब दिखाते हैं.

टीचर का फर्ज

अभिभावक मंजू जायसवाल अपना दर्द साझा करती हुई कहती हैं कि कोई भी टीचर अपनी गलती मानने को तैयार नहीं होती. यदि बात बढ़ कर ऊपर तक पहुंच जाती है तो बच्चे को बारबार अपमानित करती हैं, इसलिए बच्चे घर में कुछ बताना ही नहीं चाहते. इस तरह की शिकायत कई अभिभावकों ने की कि पेरैंट्स मीटिंग में टीचर केवल अपनी बात कहना चाहती हैं और वह भी बच्चों की शिकायतें.

अपनी व्यस्त जिंदगी के कारण मातापिता बच्चों को समय नहीं दे पाते. वे पैसे के बल पर नौकर या क्रेच में पलते हैं, इसलिए संस्कार की जगह आक्रोश से भरे रहते हैं.

अभिभावक यह कहने में शान समझते हैं कि उन की तो सुनता ही नहीं है. मोबाइल और टीवी में लगा रहता है जबकि वे स्कूल की टीचर से यह अपेक्षा करते हैं कि वे उन की यह आदत छुड़ा दें. जब बच्चा अधिक समय आप के पास रहता है, तो आप की जिम्मेदारी बनती है कि बच्चे को संस्कार दें, उस के साथ समय गुजारें, उस की जरूरतों को समझें.

प्राय: जो छात्र कमजोर होते हैं, उन की इस कदर उपेक्षा की जाती है कि वे कुंठित हो जाते हैं और पढ़ाई से जी चुराने लगते हैं. ऐसे में अच्छे टीचर का फर्ज है कि वह सभी बच्चों पर ध्यान दे, उन की प्रतिभा को निखारे, उन की जरूरतों को पहचान कर उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दे.

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सातवें आसमान की जमीन : भाग 1

ड्राइंगरूम में हो रहे शोर से परेशान हो कर किचन में काम कर रही बड़ी दी वहीं से चिल्लाईं, ‘‘अरे तुम लोगों को यह क्या हो गया है. थोड़ी देर शांति से नहीं रह सकते? और यह नंदा, यह तो पागल हो गई है.’’

‘‘अरे दीदी मौका ही ऐसा है. इस मौके पर हम भला कैसे शांत रह सकते हैं. सुप्रिया दीदी टीवी पर आने वाली हैं, वह भी अपने मनपसंद हीरो के साथ, मात्र उन्हीं की पसंद के क्यों. अरे सभी के मनपसंद हीरो के साथ. अब भी आप शांत रहने के लिए कहेंगी.’’ नंदा ने कहा.

सब के सब नंदा को ताकने लगे. किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सुप्रिया को ऐसा क्या मिल गया और कौन सा हीरो इस के लिए निमंत्रण कार्ड ले कर आया है, यह सब पता लगाना घर वालों के लिए आसान नहीं था. और नंदा तो इस तरह उत्साह में थी कि घर वालों को कुछ बताने के बजाए इस जीबोगरीब खबर को फोन से दोस्तों को बताने में लगी थी.

नंदा की इस शरारत पर बड़ी दी ने खीझ कर उसे पकड़ते हुए कहा, ‘‘तेरा यह कौन सा नया नाटक है, कुछ बता तो सही.’’

‘‘बड़ी दी, सुप्रिया दीदी एक कांटेस्ट जीत गई हैं. ईनाम में उसे अपने फेवरिट हीरो के साथ टीवी पर आना है. अब तो समझ में आ गया कि नहीं?’’ नंदा ने स्पष्ट किया.

‘‘तुम्हारा मतलब सुप्रिया टीवी पर अपने ड्रीम बौय के साथ, फैंटास्टिक.’’ संदीप ने किताब बंद करते हुए नंदा की बात का समर्थन किया. नंदा ने आगे कहा, ‘‘भैया इतना ही नहीं, वह हीरो, सुप्रिया दीदी के लिए परफोर्म करेगा, गाना गाएगा. डांस करेगा. अब और क्या चाहिए? पर है कहां अपनी गोल्डन गर्ल?’’

‘‘नहा रही है लकी गर्ल, लेकिन उस ने तो मुझ से कुछ बताया ही नहीं, पर बाकी लोग तो हैं. सुप्रिया दीदी को लग रहा होगा, पता नहीं किसे बुरा लग जाए. इसीलिए किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं है. और जीतना तो एक सपना था. उसे कहां पता था कि सच हो जाएगा.’’

तभी परदे के पीछे से सुप्रिया आती दिखाई दी. अपार आनंद में डूबी सुप्रिया के चेहरे पर अजीब तरह की चमक थी. नंदा ने दौड़ कर सुप्रिया को बांहों में भर लिया, ‘‘सुप्रिया दी…लकी…लकी गर्ल.’’

दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर नाचने लगीं. थक गईं तो निढाल हो कर सोफे पर गिर पड़ीं. इस बीच किसी को भी एक भी शब्द बोलने का मौका नहीं मिला. दोनों के सोफे पर बैठते ही बड़ी दी बोलीं, ‘‘यह क्या पागलपन है, सुप्रिया, घर में किसी को कुछ बताए बगैर तुम कांटेस्ट के फाइनल तक पहुंच गईं. चलो जो किया, ठीक किया. अमित को इस बारे में बताया है?’’

सुप्रिया आंखों से मधुर मुसकान मुसकराईं, उस के बजाए नंदा बोली, ‘‘बड़ी दी, इस तरह के काम कोई पूछ कर करता है? मान लीजिए आप से पूछने आती तो आप कांटेस्ट में हिस्सा लेने देतीं? दीदी अब छोड़ो इसे टीवी पर देखने के लिए तैयार हो जाइए. कमर कस कर तैयारी शुरू कर दीजिए.’’

‘‘तैयारी किस बात की. कोई ब्याह थोड़े ही करने जा रही हैं,’’ वह थोड़ा नाराज हो कर बोलीं, ‘‘आजकल के बच्चे भी न पागल… नादान…’’

‘‘दीदी, ब्याह क्या, यह तो उस से भी जबरदस्त है. लाखों दिलों की धड़कन, चार्मिंग, अमेजिंग लवर बौय अपनी सुप्रिया के साथ…’’

नंदा की बात पूरी होती, उस के पहले ही शैल, सुकुमार और नेहा का झुंड आ पहुंचा. इस के बाद तो जो हंगामा मचा. कान तक पहुंचने वाला शब्द भी ठीक से सुनाई नहीं दे रहा था. बड़ी दी, भैयाभाभी और घर के अन्य लोग परेशान थे. हवा रंगबिरंगी और सुगंधित हो गई थी. कौन सी डे्रस, कैसी हेयरस्टाइल, स्किनकेयर, फुटवेयर, परफ्यूम, डायमंड या पर्ल, गोल्ड या सिलवर… बातों की पतंगें उड़ती रहीं और सुप्रिया उन पर सवार विचारों में डूबी थी कि जीवन इतना भी सुंदर और अद्भुत हो सकता है.

वह असाधारण और अविस्मरणीय घटना घटी और विलीन हो गई. वह दृश्य देखते समय सुप्रिया के मित्रों में जो उत्तेजना थी, उस का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता. फिर भी इस पागल उत्साह में बड़ी दीदी ने थोड़ा अवरोध जरूर पैदा किया था. इस के बावजूद उन्होंने सभी को आइस्क्रीम खिलाई थी. सुप्रिया की ठसक देख कर सभी ने अनुभव किया कि अमित कितना भाग्यशाली है. उस की अनुपस्थिति थोड़ा खल जरूर रही थी. पता नहीं, चेन्नै में उस ने यह प्रोग्राम देखा या नहीं. सुप्रिया ने उसे कांटेस्ट की बात बताई भी थी या नहीं?

सुप्रिया के राजकुमार ने अपनी अत्यंत लोकप्रिय फिल्म का प्रसिद्ध गाना पेश किया था. उस ने उस का हाथ पकड़ कर डांस भी किया. एक प्रेमी की तरह चाहत भरी नजरों से उसे निहारा भी और घुटनों के बल बैठ कर उसे गुलाब भी दिया.

‘‘इस समय आप को कैसा लग रहा है?’’ कार्यक्रम खत्म होने पर कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले ने पूछा था. खुशी में पागल हो कर उछल रही सुप्रिया कुछ पल तो बोल ही नहीं सकी. उस आनंद में उस की आंखों की पलकें तक नहीं झपक रही थीं. खुशी में आंसू आ जाते हैं. इस के बारे में उस ने पढ़ा और सुना था. पर सचमुच वह क्या होता है. उस दिन उसे पता चला. सातवां आसमान मतलब यही था, आउट आफ दिस वर्ल्ड. दिल से अनुभव किया था उस ने. उसे ऐसा भाग्य मिला. इस के लिए उस ने उस अदृश्य शक्ति को हाथ जोड़े और इसी के साथ तालियों की गड़गड़ाहट…

मेघधनुष लुप्त हो गया. सुप्रिया ने यह सप्तरंगी सपना समेट कर यादों के पिटारे में रख लिया कि जब मन हो पिटारा खोल कर देख लेगी. आखिर सुप्रिया पूरी तरह जमीन पर आ गई. इस की मुख्य वजह चेन्नै से अमित वापस आ गया था. आते ही उस ने फोन कर के यात्रा और अपने काम की सफलता की कहानी सुना कर पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या हाल है, कुछ नया सुनाओ?’’

‘‘कुछ खास नहीं, बस चल रहा है.’’

‘‘नथिंग एक्साइटिंग?’’

‘‘कुछ नहीं, यहां क्या एक्साइटिंग हो सकता है. बस सब पहले की तरह…’’ सुप्रिया ने कहा. कांटेस्ट जीतने की परीकथा उस के होंठों तक आ कर लौट गई. शायद मन में कुछ खटक रहा था.

‘थाटलेस और मीनिंगलेस… चीप इंटरटेनमेंट…’ अमित टीवी के ज्यादातर प्रोग्रामों के लिए यही कहता था. जबकि उस की इस मान्यता का सुप्रिया से कोई लेनादेना नहीं था.

‘‘क्यों कोई लेनादेना नहीं है. उस के साथ शादी करने जा रही है. पूछ तो सही उस से कि उस ने तेरे कार्यक्रम की डीवीडी देखी थी या नहीं? वह देखना चाहता है या नहीं? दुनिया ने उस प्रोग्राम को देखा है. ऐसा भी नहीं कि उसे पता न हो. तब इस में उस से छिपाना क्या?’’ नंदा ने पूछा.

देखा जाए, तो एक तरह से उस का कहना ठीक भी था. सुप्रिया बारबार खुद से पूछती थी कि आखिर उस ने अमित से इस विषय पर बात क्यों नहीं की? किसी न किसी ने तो उसे बताया ही होगा. यह कोई छोटीमोटी बात नहीं थी. चारों ओर चर्चा थी. फिर यह कौन सी चोरी की बात है, जो उस से छिपाई जाए. पर अमित ने भी तो उस से इस बारे में कुछ नहीं पूछा.

सुप्रिया ने सब को पार्टी दी. सभी इकट्ठे हुए. बड़ी दी ने सब का स्वागत किया. क्योंकि मम्मीपापा के बाद इस समय घर में वही सब से बड़ी थीं. धमालमस्ती में उन्होंने कोई रुकावट नहीं डाली थी. अमित को भी आना था, इसलिए सुप्रिया पूरी एकाग्रता से तैयार हुई थी.

‘‘गौर्जियस?’’

कैसे करें लौकी की खेती और उचित देखभाल ?

ताजगी से भरपूर लौकी कद्दूवर्गीय सब्जी है. इस में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट व खनिज लवण के अलावा प्रचुर मात्रा में विटामिन पाए जाते हैं. लौकी की खेती पहाड़ी इलाकों से ले कर दक्षिण भारत के राज्यों तक की जाती है. निर्यात के लिहाज से सब्जियों में लौकी खास है.

आबोहवा

लौकी की अच्छी पैदावार के लिए गरम व आर्द्रता वाले रकबे मुनासिब होते हैं. इस की फसल जायद व खरीफ दोनों मौसमों में आसानी से उगाई जाती है. इस के बीज जमने के लिए 30-35 डिगरी सैंटीग्रेड और पौधों की बढ़वार के लिए 32 से 38 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान मुनासिब होता है.

मिट्टी और खेत की तैयारी

बलुई, दोमट व जीवांश से?भरपूर चिकनी मिट्टी, जिस में पानी के सोखने की कूवत अधिक हो और जिस का पीएच मान 6.0-7.90 हो, लौकी की खेती के लिए मुनासिब होती है. पथरीली या ऐसी भूमि जहां पानी भरता हो और निकासी का अच्छा इतंजाम न हो, इस की खेती के लिए अच्छी नहीं होती है.

खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और बाद में 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करें. हर जुताई के बाद खेत में पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी व इकसार कर लेना चाहिए ताकि खेत में सिंचाई करते समय पानी बहुत कम या ज्यादा न लगे.

खाद व उर्वरक

अच्छी उपज हासिल करने के लिए

50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 35 किलोग्राम फास्फोरस व 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय देनी चाहिए. बची हुई नाइट्रोजन की आधी मात्रा 4-5 पत्ती की अवस्था में और बची आधी मात्रा पौधों में फूल बनने से पहले देनी चाहिए.

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बीज की मात्रा

सीधी बीज बोआई के लिए 2.5-3 किलोग्राम बीज 1 हेक्टेयर के लिए काफी होता है. पौलीथिन के थैलों या नियंत्रित वातावरण युक्त गृहों में नर्सरी उत्पादन करने के लिए प्रति हेक्टेयर 1 किलोग्राम बीज ही काफी होता है.

बोआई का समय

आमतौर पर लौकी की बोआई गरमी यानी जायद मौसम में 15 फरवरी से 25 फरवरी तक और बरसात यानी खरीफ मौसम में 15 जून से 15 जुलाई तक कर सकते हैं. पहाड़ी इलाकों में बोआई मार्चअप्रैल माह में की जाती है.

बोआई की विधि

लौकी की बोआई के लिए गरमी के मौसम में 2.5-3.5 मीटर व बारिश के मौसम में 4-4.5 मीटर की दूरी पर 50 सैंटीमीटर चौड़ी  व 20 से 25 सैंटीमीटर गहरी नालियां बना लेते हैं. इन नालियों के दोनों किनारे पर गरमी में 60 से

75 सैंटीमीटर व बारिश में 80 से 85 सैंटीमीटर फासले पर बीजों की बोआई करते हैं. एक जगह पर 2 से 3 बीज 4-5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए.

सिंचाई

खरीफ मौसम में खेत की सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती, पर बारिश न होने पर 10 से 15 दिनों के बाद सिंचाई की जरूरत पड़ती है.

अधिक बारिश की हालत में पानी निकालने के लिए नालियों का गहरा व चौड़ा होना जरूरी है. गरमी में ज्यादा तापमान होने के कारण 4-5 दिनों के फासले पर सिंचाई करनी चाहिए.

निराई गुड़ाई

आमतौर पर खरीफ मौसम में या सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं, लिहाजा उन को खुरपी की मदद से 25 से 30 दिनों में निराई कर के निकाल देना चाहिए.

पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए 2 से 3 बार निराईगुड़ाई कर के जड़ों के पास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. रासायनिक खरपतवारनाशी के रूप में ब्यूटाक्लोरा रसायन की 2 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के तुरंत बाद छिड़कनी चाहिए.

कीड़ों की रोकथाम

कद्दू का लाल कीट रैड पंपकिन बीटल : इस कीट का प्रौढ़ चमकीले नारंगी रंग का होता है. इस की सूंड़ी व प्रौढ़ दोनों ही जमीन के अंदर पाए जाते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं. ये प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. सूंड़ी पौधों की जड़ काट कर नुकसान पहुंचाती है, वहीं प्रौढ़ कीट खासतौर पर मुलायम पत्तियां अधिक पसंद करते हैं. इस कीट के अधिक आक्रमण से पौधे पत्तीरहित हो जाते हैं.

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रोकथाम

* सुबह ओस पड़ने के समय राख का बुरकाव करने से प्रौढ़ कीट पौधों पर नहीं बैठते हैं, जिस से नुकसान कम होता है.

* जैविक विधि से रोकथाम के लिए अजादीरैक्टिन 300 पीपीएम 5 से 10 मिलीलिटर या अजादीरैक्टिन 5 फीसदी 0.5 मिलीलिटर की दर से 2 या 3 बार छिड़कने से फायदा होता है.

* इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर डाईक्लोरोवास 76 ईसी 1.25 मिलीलिटर या ट्राइक्लोफेरान 50 ईसी 1 मिलीलिटर या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एमएल 0.5 मिलीलिटर की दर से 10 दिनों के अंतराल पर छिड़कें.

फल मक्खी : इस कीट की सूंड़ी फसल को नुकसान पहुंचाती है. प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है. इस के सिर पर काले व सफेद धब्बे पाए जाते हैं. प्रौढ़ मादा छोटे मुलायम फलों के अंदर अंडे देना पसंद करती है. अंडों से ग्रब्स सूंड़ी निकल कर फलों के अंदर का भाग खा कर खत्म कर देते हैं. ये कीट फल के जिस भाग पर अंडे देते हैं, वह भाग वहां से टेढ़ा हो कर सड़ जाता है और नीचे गिर जाता है.

रोकथाम

* गरमी की गहरी जुताई या पौधे के आसपास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिस से फल मक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाए.

* फल मक्खी द्वारा खराब किए गए फलों को इकट्ठा कर के खत्म कर देना चाहिए.

* नर फल मक्खी को नष्ट करने के लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल कीटनाशक डाईक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान क्यूल्यूर को 6:1:2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टुकड़े को डुबा कर 25 से 30 फंदे खेत में स्थापित कर देने चाहिए. कार्बारिल 50 डब्ल्यूपी, 2 ग्राम प्रति लिटर पानी या मैलाथियान 50 ईसी 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी को ले कर 10 फीसदी शीरा या गुड़ में मिला कर जहरीले चारे को 1 हेक्टेयर खेत में 250 जगहों पर इस्तेमाल करना चाहिए.

* प्रतिकर्षी 4 फीसदी नीम की खली का इस्तेमाल करें, जिस से जहरीले चारे की ट्रैपिंग की कूवत बढ़ जाए. जरूरत पड़ने पर कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीलीप्रोल 18.5 एससी 025 मिलीलिटर या डाईक्लारोवास 76 ईसी 1.25 मिलीलिटर का प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव कर सकते हैं.

खास रोग व रोकथाम

चूर्णिल आसिता : रोग की शुरुआत में पत्तियों और तनों पर सफेद या धूसर रंग पाउडर जैसा दिखाई देता है. कुछ दिनों के बाद ये धब्बे चूर्ण भरे हो जाते हैं. सफेद चूर्णी पदार्थ आखिर में समूचे पौधे की सतह को ढक लेता है. अधिक प्रकोप के कारण पौधे जल्दी बेकार हो जाते हैं. फलों का आकार छोटा रह जाता है.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए खेत में फफूंदनाशक दवा जैसे ट्राइडीमोर्फ 0.05 फीसदी 1 लिटर पानी में घोल कर 7 दिनों के फासले पर छिड़काव करें. इस दवा के न होने पर फ्लूसिलाजोल 1 ग्राम प्रति लिटर पानी या हेक्साकोनाजोल 1.5 मिलीलिटर पानी की दर से छिड़काव करें.

मृदुरोमिल आसिता : ?यह रोग बारिश या गरमी वाली फसलों में बराबर लगता है. उत्तरी भारत में इस रोग का हमला ज्यादा होता?है. इस रोग की खास पहचान पत्तियों पर कोणीय धब्बे पड़ना है. ये कवक पत्ती के ऊपरी भाग पर पीले रंग के होते हैं और नीचे की तरफ रोएंदार बढ़वार करते हैं.

रोकथाम

* इस रोग के लिए बीजों को मैटालिक्सला नामक कवकनाशी की 3 ग्राम दवा से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए और मैंकोजेब 0.25 फीसदी का छिड़काव रोग की पहचान होने के तुरंत बाद फसल पर करना चाहिए.

* यदि संक्रमण भयानक हालत में हो तो मैटालैक्सिल व मैंकोजेब का 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से या डाईमेयामर्फ का

1 ग्राम प्रति लिटर पानी व मैटीरैम का 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से 7 से 10 दिनों के फासले पर 3 से 4 बार छिड़काव करें.

फलों की तोड़ाई व उपज

लौकी के फलों की तोड़ाई मुलायम हालत में करनी चाहिए. फलों का वजन किस्मों पर निर्भर करता है. फलों की तोड़ाई डंठल लगी अवस्था में किसी तेज चाकू से करनी चाहिए. तोड़ाई 4 से

5 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए ताकि पौधों पर ज्यादा फल लगें. औसतन लौकी की उजप 350 से 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

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प्रेमी प्रेमिका के चक्कर में दुल्हन का हश्र: भाग 1

उत्तर प्रदेश के कासगंज जिला मुख्यालय से कोई 14 किलोमीटर दूर है गांव होडलपुर, जो सोरों थाना क्षेत्र में आता है. होडलपुर छोटा सा गांव है. यहां के बच्चे पढ़ाई के लिए सोरों और कासगंज जाते हैं. इसी होडलपुर गांव में डालचंद का परिवार रहता है. डालचंद खातापीता किसान है.

उस के 4 बेटे और 2 बेटियां हैं. 2 विवाहित बेटे विनोद और महेंद्र हिमाचल प्रदेश में नौकरी करते हैं. दोनों बेटियों की भी शादी हो गई है. अब घर में पत्नी सोमवती और 2 बेटे कुंवरपाल और रामनरेश रहते हैं.

कुंवरपाल का मन पढ़ाई में बिलकुल नहीं लगता था. हाईस्कूल पास करने के बाद वह गांव के लोगों की भैंसें दूहने का काम करने लगा, जबकि रामनरेश इंटरमीडिएट पास कर चुका था.

कुल मिला कर डालचंद की जिंदगी ठीकठाक चल रही थी पर कुंवरपाल को ले कर वह पिछले कुछ समय से चिंतित था. दरअसल, इसी गांव की दूसरी गली में रामकिशोर अपनी 6 बेटियों और पत्नी के साथ रहता था.

रामकिशोर की दूसरे नंबर की  बेटी नेहा इंटरमीडिएट पास करने के बाद आगे की पढ़ाई कर के अपना भविष्य सुधारना चाहती थी. लेकिन अचानक उस के दिल के द्वार पर कुंवरपाल ने दस्तक दे दी थी. कुंवरपाल और नेहा एकदूसरे को पसंद करने लगे. धीरेधीरे आशिकी शुरू हुई, जिस ने जल्दी ही दीवानगी का रूप ले लिया. दोनों अपनी दुनिया बसाने के सपने देखने लगे.

दोनों की जाति एक ही थी, इसलिए उन्हें पूरा विश्वास था कि आगे चल कर ये रिश्ता परवान चढ़ जाएगा. नेहा और कुंवरपाल की लुकछिप कर मुलाकातें होने लगीं. मोबाइल के जरिए दोनों एकदूसरे के संपर्क में रहते थे, पर इश्क के दुश्मन तो हर जगह होते हैं. गांव में कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने इस प्रेमी युगल की नजरों के भावों को भांप लिया.

इस के बाद गांव में उन के प्यार के चर्चे होने लगे. किसी ने यह बात रामकिशोर के चचेरे भाई कृष्णकुमार को बता दी कि उस की भतीजी नेहा का चक्कर कुंवरपाल से चल रहा है. कृष्णकुमार पेशे से डाक्टर है और उस ने गांव में ही अपना क्लिनिक बना रखा है, जो ठीकठाक चलता है.

कुंवरपाल के इस दुस्साहस पर उसे बहुत गुस्सा आया पर उस ने फिलहाल उस से कुछ नहीं कहा बल्कि एक दिन नेहा को ऊंचनीच समझाई और कहा कि वह जिस रास्ते पर जा रही है, वह ठीक नहीं है इसलिए उसे संभल जाना चाहिए.

नेहा ने चाचा से तर्क करना ठीक नहीं समझा, पर उसे चाचा की बात बिलकुल भी पसंद नहीं आई. वह जान चुकी थी कि उस के प्यार की बात उस के घर वालों तक पहुंच चुकी है, लिहाजा उस ने कुंवरपाल को फोन कर के सतर्क कर दिया.

लेकिन उस से बातचीत करनी बंद नहीं की. नेहा सोचती थी कि ये उस की अपनी जिंदगी है, इसे वो जैसे चाहेगी वैसे जिएगी. चाचा कौन होता है, उस की जिंदगी में दखल देने वाला.

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कहते हैं, इश्क और मुश्क कभी छिपाए नहीं छिपता, कुंवरपाल और नेहा की प्रेम कहानी भी छिपी नहीं रह सकी. उन के प्रेमिल संबंधों की चर्चा गांव की गलियों में फैल गई. हालांकि दोनों अपने घर में इस बात का जिक्र करना चाहते थे कि वे दोनों अपनी दुनिया बसा कर साथसाथ जीना चाहते हैं पर जब रामकिशोर को पता चला कि नेहा कुंवरपाल से लुकछिप कर मिलती है तो उसे बहुत बुरा लगा.

वह कुंवरपाल को बिलकुल भी पसंद नहीं करता था. इस की वजह यह थी कि कुंवरपाल न तो ज्यादा पढ़ालिखा था और न ही उस के पास कोई नौकरी थी. वैसे भी गांवों में ऐसी शादियां नहीं होतीं.

रामकिशोर ने अपनी पत्नी को हिदायत दे दी थी कि वह नेहा पर नजर रखे, नहीं तो किसी दिन वह हमें डुबो देगी. नेहा की मां भी बेटी के लिए परेशान हो गईं. उस ने नेहा को समझाने की भरसक कोशिश भी की लेकिन नेहा के सिर पर तो आशिकी की दीवानगी चढ़ी हुई थी.

एक दिन रामकिशोर ने डालचंद को रोक कर टोका, ‘‘देखो डालचंद, मैं तुम्हारी इज्जत करता हूं पर तुम्हें अपने लड़के कुंवरपाल को रोकना होगा. वह मेरी बेटी से मिलताजुलता है. तुम बेटे पर कंट्रोल रखो वरना अच्छा नहीं होगा.’’

रामकिशोर की धमकी से डालचंद परेशान हो गया. उस ने सोचा कि अगर कुंवरपाल की शादी कर दी जाए तो वह सुधर सकता है. अत: वह उसे शादी के बंधन में बांधने की कोशिश में लग गया. पिता का रुख देख कर कुंवरपाल के हौसले भी पस्त हो गए. इधर नेहा चाहती थी कि कुंवरपाल कुछ हिम्मत दिखाए और वे दोनों गांव की तंग गलियों से निकल कर कहीं दूर जा कर अपनी दुनिया बसा लें.

एक दिन उस ने कुंवरपाल से पूछा, ‘‘अब क्या इरादा है तुम्हारा, मैं अब घर वालों की बंदिशों से परेशान हो गई हूं. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती.’’

‘‘तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं. तुम्हारे घर वाले हमें धमका रहे हैं. इस से पापा बहुत परेशान हो गए हैं.’’ कुंवरपाल बोला.

‘‘यह कोई नई बात नहीं है. प्यार करने वालों का हमेशा ही विरोध होता है. हमारा भी विरोध होगा, चलो हम यहां से भाग चलते हैं.’’ नेहा ने कहा.

‘‘लेकिन कहां जाएंगे, क्या करेंगे, क्या खाएंगे?’’ कुंवरपाल ने नेहा को समझाने का प्रयास किया, ‘‘तुम नहीं जानती नेहा, हम अगर चले गए तो पुलिस मेरे घर वालों को कितना परेशान करेगी. बेहतर यही होगा कि तुम अपने मम्मीपापा को इस रिश्ते के लिए राजी कर लो.’’

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नेहा परेशान हो गई. अपनी प्रेम कहानी को आगे ले जाने का उसे कोई रास्ता नहीं दिख रहा था. लेकिन समाज से छिप कर दोनों मिलते रहे.

इसी बीच एक मध्यस्थ के जरिए कुंवरपाल के लिए एटा जिले के गांव चांदपुर निवासी संतोष की बेटी का रिश्ता आया. संतोष गांव का खातापीता किसान था. उस की बेटी पूनम ने इंटर पास कर लिया था. हालांकि पूनम आगे भी पढ़ना चाहती थी पर संतोष ने कहा कि पढ़ाई तो तुम ससुराल में रह कर भी कर सकती हो.

संतोष को मध्यस्थ के जरिए पता चला कि सोरों के होडलपुर निवासी डालचंद का खातापीता परिवार है. वहां अगर बात बन गई तो पूनम सुखी रहेगी. बिचौलिया के जरिए बात का सिलसिला शुरू हुआ और दोनों पक्ष इस रिश्ते के लिए राजी हो गए.

क्रमश:

जानलेवा न बन जाए डायबिटिक फुट

डा. मधुकर एस भट्ट 

वर्षों बाद अचानक उसे अपने दवाखाने में एक रोगी के रूप में देख कर न तो मैं उसे पहचान पाया और न ही वह मुझे. लेकिन रोग के बारे में सुनने और जांच के दौरान मैं ने उसे पहचान लिया. चिकोटी काटते हुए पूछा, ‘‘क्यों रे, रहीम, पहचाना नहीं? और तुम्हारा मोटापा कहां चला गया?’’ तब तक उस ने भी मुझे पहचान लिया था और चेहरे पर फीकी मुसकराहट लाते हुए बोल पड़ा, ‘‘मेरा मोटापा तुम्हारे ऊपर चढ़ गया, बैलेंस बराबर रखना है न.’’ फिर तो हम दोनों डाक्टर और रोगी के रिश्ते को भूल कर एकदूसरे से लिपट गए और पुराने दिनों की याद में खो गए.

हम दोनों 12वीं कक्षा तक साथ पढ़े थे. अपने भारीभरकम शरीर और मजाकिया स्वभाव के कारण कक्षा में वह बहुत लोकप्रिय था. हम दोनों में गहरी दोस्ती थी. मैं दुबलापतला था और मुझे उस मोटे के साथ देख कर अकसर सहपाठी कहा करते थे कि ये दोनों मिल कर धरती का बोझ बैलेंस कर रहे हैं. फिर मैं मैडिकल में चला आया और वह एग्रीकल्चर में. कुछ दिनों तक संपर्क बना रहा, फिर अपनेअपने पेशे में हम लोग उलझ कर रह गए.

स्कूली दिनों में बहुत आलसी था वह. खेलकूद में उसे कोई रुचि नहीं रहती थी. लेकिन हां, कार्यक्रमों में मिठाई बनवाने की जिम्मेदारी लेने में उसे बहुत आनंद आता था. उस का मानना था कि वार्षिक कार्यक्रम में खेलकूद के अलावा मिठाई खाने की भी एक प्रतियोगिता होनी चाहिए.

उस की मैडिकल जांच के दौरान मुझे पता चला कि डायबिटीज का रोग उसे विरासत में पिताजी से मिला था. उस ने माना कि दवा और खानेपीने के परहेज में लापरवाही के कारण डायबिटीज नियंत्रण में न आते देख, डाक्टरों ने उसे इंसुलिन लेने की सलाह दी, तो वह भाग खड़ा हुआ और लोगों के बहकावे में आ कर तरहतरह की अवैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति के प्रयोग में उलझ गया. फलस्वरूप, उस का रोग बहुत बढ़ गया और मधुमेह से जुड़ी अन्य जटिलताओं के लक्षण उत्पन्न होने लगे. तब उसे अपनी गलती का एहसास हुआ, और फिर सही चिकित्सा से स्थिति नियंत्रण में चल रही थी.

इधर, उस के पैरों में बहुत दर्द रहने लगा था और साथ ही बाएं अंगूठे पर एक घाव भी हो गया था, जिसे देख कर चिकित्सक ने उसे ‘डायबिटिक फुट’ हो जाने का अंदेशा जताते हुए शल्य चिकित्सक की सलाह लेने की नीयत से तुरंत मेरे पास भेज दिया. वह मेरे पास आया और बोला, ‘‘उन्होंने कहा है कि देर करने से पैर कटवाने की नौबत भी आ सकती है,’’ यह कहते हुए वह बिलखने लगा और पैर बचा लेने की गुहार करने लगा.

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मैं ने उसे अपने अस्पताल में भरती कर उचित चिकित्सा शुरू कर दी. उस का पैर तो बच गया लेकिन अंगूठा गंवाना पड़ा. अब वह मैडिकल सलाह के अनुसार दवा, खानपान, परहेज आदि सभी नियमपूर्वक निभा रहा है और पहले से बहुत अच्छी स्थिति में है.

हमारे देश में डायबिटीज या मधुमेह से पीडि़त रोगियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. कई रोगी जरूरत के मुताबिक उपचार नहीं करा पाते. फलस्वरूप, उन में इस रोग से जुड़ी गंभीर जटिलताएं उत्पन्न होने की संभावना बनी रहती है. लंबे समय तक कंट्रोल में न रहने पर मधुमेह शरीर के हर अंग या संस्थान (सिस्टम) पर बुरा असर डालता है, जैसे आंख, गुरदा, हृदय, लिवर, पाचनतंत्र, तंत्रिकातंत्र (नर्वस सिस्टम), रक्त वाहिनियां (वैस्कुलर सिस्टम), रोगनिरोधक तंत्र (इम्यून सिस्टम) इत्यादि.

इन्हीं कारणों से इन रोगियों में साधारण घाव भी जल्दी ठीक नहीं होता और कभीकभी विकराल रूप धारण कर पूरे अंग को सड़ा देता है. अनियंत्रित मधुमेह के रोगियों के पैर में इस प्रकार का जटिल घाव होने की संभावना बहुत रहती है, जिसे डायबिटिक फुट कहते हैं.

डायबिटिक फुट के कारण

मधुमेह के रोगियों में तंत्रिकातंत्र के कमजोर पड़ने से त्वचा की संवेदनशीलता कम हो जाती है जिस के कारण हलके आघात, खरोंच, छाले का पता नहीं चल पाता है. चोटिल होने की संभावना पैरों में सब से ज्यादा होने के कारण वहां इस तरह के घाव अकसर होते रहते हैं.

इस रोग के असर से रोगी की रक्तवाहिनियां संकुचित होने लगती हैं और उन में रक्त प्रवाह कम होने लगता है. हृदय से दूर होने के कारण पैरों के रक्तसंचार पर ज्यादा बुरा असर पड़ता है. फलस्वरूप, वहां की त्वचा और मांसपेशियों की कोशिकाओं में औक्सीजन के स्तर में कमी आ जाती है. कोशिकाएं मृत होने लगती हैं. कभीकभी तो पूरा पैर ही मृत सा हो जाता है. यह स्थिति पीप या मवाद बनाने वाले जीवाणुओं के पनपने के लिए बहुत ही अनुकूल होती है.

इन रोगियों में रोगनिरोधक क्षमता की कमी तथा कोशिकाओं में उच्च शर्करायुक्त वातावरण भी जीवाणुओं को तेजी से बढ़ने के लिए बहुत अनुकूल परिस्थितियां प्रदान करता है.

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संक्रमण

पैर का साधारण घाव या आघात संक्रमित हो कर पीप बना देता है. शीघ्र ही यह पीप पूरे पैर में फैल कर सड़ांध उत्पन्न कर देती है और पैर मृत होने की हालत में आ जाता है. उपचार के अभाव में यह पीप रक्तप्रवाह के माध्यम से पूरे शरीर में फैल जाती है और पूरा शरीर संक्रमित हो जाता है. उस अवस्था में डायबिटीज के कारण पहले से ही कमजोर पड़े गुरदा और लिवर, जल्द ही क्रियाविहीन हो जाते हैं. फिर धीरेधीरे दूसरे अंग भी संक्रमित हो कर क्रियाविहीन होने लगते हैं. और तब, रोगी के जल्द ही मर जाने की पूरी संभावना बन जाती है.

डायबिटिक फुट के लक्षण

जिन रोगियों के पैरों में डायबिटीज का असर पहले से ही रहता है, उन में डायबिटिक फुट होने की संभावना या रुझान बना रहता है. कुप्रभाव का लक्षण एक या दोनों पैरों में कम या ज्यादा हो सकता है, जैसे प्रभावित पैर की त्वचा में संवेदनशीलता की कमी, रंग का काला पड़ना, शुष्कता, ठंडापन, घाव या अल्सर का जल्दी ठीक नहीं होना आदि. पैर की मांसपेशियों में भी रक्तप्रवाह की कमी के कारण दर्द रहने लगता है, जो शुरू में चलने पर उभरता है और आराम करने के बाद ठीक हो जाता है, परंतु बाद में साधारण से ले कर बहुत ज्यादा दर्द बराबर बना रहता है.

इलाज

यदि व्यक्ति को पहले से मधुमेह के रहने की जानकारी हो और उस के पैर में इस प्रकार का कोई लक्षण या आघात हो जाए तो वह फौरन अपने चिकित्सक से मिले. चिकित्सक रक्त शर्करा के स्तर की आवश्यकतानुसार पहले से चल रही दवाओं की मात्रा में फेरबदल कर सकते हैं या टेबलेट के स्थान पर इंसुलिन शुरू कर सकते हैं. एंटीबायोटिक की सुई भी लगानी पड़ सकती है. घाव को अतिशीघ्र पीप मुक्त करने और सड़े हुए या मृत भाग को हटाने के लिए शल्यक्रिया की आवश्यकता पड़ सकती है. अस्पताल में भरती रह कर इलाज करवाना पड़ सकता है.

यदि पैर बचाना हो तो चिकित्सक की बात मानें वरना गंभीर परिणाम हो सकते हैं. पूरे पैर में पीप हो जाने या मृत हो जाने के बाद रोगी की जान बचाने के लिए पैर काट कर अलग करने के अलावा कोई उपाय नहीं रहता और उस से भी आगे, यदि संक्रमण पूरे शरीर में फैल चुका हो तो फिर मृत्यु से बचाना भी कठिन हो सकता है.

यदि रोगी को उस के डायबिटीज से ग्रसित होने का पहले से पता न हो और उस के पैर या किसी भी अंग पर फोड़ा, फुंसी, आघात आदि जल्दी ठीक न हों या उन में संक्रमण बहुत तेजी से फैलने लगे, तो उसे तुरंत चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए. कई बार इसी तरह की परिस्थिति में उसे मधुमेह होने का पता चलता है. ऐसे में तब चिकित्सक की सलाह के अनुसार आगे का उपचार करें.

 रोगी को इन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है

डायबिटीज जड़ से ठीक नहीं होती, बल्कि खानपान, व्यायाम व दवाओं के सेवन से नियंत्रण में रहती है. किसी के बहकावे में आ कर मनमाना इलाज न करें. नियमित और सुचारु रूप से वैज्ञानिक पद्धति द्वारा इलाज करवाते रहें. चिकित्सक की राय के अनुसार रक्त की जांच आदि करवाने में कोताही न करें. यदि डाक्टर इंसुलिन पर रखना आवश्यक समझते हों, तो इंसुलिन न लेने की जिद न करें.

कहा जाता है कि डायबिटीज के रोगी को अपने पैर की देखभाल चेहरे से ज्यादा करनी चाहिए. पैर को सदा साबुन, तेल आदि से साफ रखें. नाखून बढ़ने न दें, उन्हें बहुत सावधानी से काटें.

किसी एक पैर या दोनों पैरों में डायबिटिक फुट के रुझान या प्रवृत्ति का कोई लक्षण अनुभव हो या दिखे, तो अपने चिकित्सक से तुरंत परामर्श लें.

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चप्पल के स्थान पर मोजे और जूते का प्रयोग करें. ध्यान रहे कि जूते के अंदर गड़ने या चोट पहुंचाने वाली कील, कांटा या कंकड़ आदि न रहे.

पैर में किसी प्रकार का छोटे से छोटा घाव या आघात हो, तो उस की अनदेखी न करें, तुरंत चिकित्सक की सलाह लें.

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