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प्यार नहीं वासना : भाग 1

कितने ही जवान घरपरिवार से दूर रह कर नौकरी करते हैं. अपने और परिवार के लिए ही नहीं, बल्कि देशप्रदेश के लिए भी. कुलदीप मेघवाल राजस्थान सशस्त्र बल में था. उसे पता नहीं था कि उस की पत्नी कविता उस के पीछे क्या गुल खिला रही है. उस के चचेरे भाई कविन उर्फ सचिन व कविता ने ऐसा षडयंत्र रचा कि…

उस रोज तारीख थी 20 सितंबर, 2019 और दिन था शुक्रवार. दोपहर का समय था. झुंझुनूं जिले के थाना पचेरी कलां के थानाप्रभारी

भरतलाल मीणा लंच कर के थाना कार्यालय में आ कर बैठे ही थे कि उन के पास निहालोठ की ढाणी से चंदन सिंह मेघवाल का फोन आया. फोन करने वाला रोते हुए कांपती आवाज में बोला, ‘‘साहब, मैं मजदूरी पर गया था और मेरी पत्नी दवा लेने नारनौल गई थी. घर में केवल मेरा बेटा कुलदीप सिंह था. उस की बीवी कविता पास के खेत में काम कर रही थी. मैं अभी घर आया तो कुलदीप बिस्तर पर खून से लथपथ मिला. किसी ने उस की हत्या कर दी है. आप जल्द आ जाइए.’’हत्या की सूचना मिलते ही थानाप्रभारी उसी समय पुलिस टीम के साथ घटनास्थल निहालोठ की ढाणी के लिए रवाना हो गए. थोड़ी देर में वह घटनास्थल पर पहुंच गए. कुलदीप सिंह के घर से रोनेचीखने की आवाजें सुन कर आसपास के लोग भी वहां आ गए. सभी हैरान थे कि दिनदहाड़े आखिर घर में घुस कर कुलदीप को किस ने मार डाला.

थानाप्रभारी ने घटनास्थल का मुआयना किया. कुलदीप की लाश बिस्तर पर खून से लथपथ पड़ी थी. ऐसा लग रहा था जैसे उस ने  हत्यारे से अपना बचाव भी नहीं किया था.

इस का मतलब था कि कुलदीप सिंह नींद के आगोश में था. नींद में सोते हुए ही उसे मार डाला गया था. उस की गरदन आधी कटी थी. कमरे का सामान भी बिखरा पड़ा था. देखने से लग रहा था कि उस की हत्या लूट के कारण की गई थी. जगहजगह खून के छींटे लगे थे. ये छींटे कमरे, आंगन से बाहर खेत तक थे.

थानाप्रभारी मीणा को पता चला कि मृतक कुलदीप सिंह मेघवाल आरएसी (राजस्थान सशस्त्र बल) में ड्राइवर था. उस की ड्यूटी उदयपुर में थी. अभी वह छुट्टी पर घर आया हुआ था. उसे 23 सितंबर को अपनी ड्यूटी पर लौटना था.

मौकामुआयना करने के बाद थानाप्रभारी को लगा कि लुटेरे घर में आएं और आरएसी का जवान बिना कोई विरोध किए उन के हाथों मारा जाए, ऐसा कैसे संभव है. क्या वह नींद में था? अगर वह नींद में था तो लुटेरे माल ले कर चंपत हो जाते. उन्हें कुलदीप को मारने की क्या जरूरत थी? और अगर मान लिया जाए कि लूट के दौरान कुलदीप जाग गया होगा तो वह विरोध करने के लिए चारपाई से नीचे जरूर उतरा होगा. ऐसी हालत में उस की लुटेरों से हाथापाई हुई होगी. इस हिसाब से भी उस का शव नीचे कहीं आंगन में पड़ा होना चाहिए था.

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लुटेरे घर से क्याक्या सामान ले गए, इस बारे में थानाप्रभारी ने मृतक के पिता चंदन मेघवाल से बात की तो उन्होंने अलमारी वगैरह चैक कर के बताया कि केवल कुलदीप की पत्नी कविता के संदूक में रखे कुछ गहने गायब हैं. बाकी गहने वहीं रखे मिले.

थानाप्रभारी की समझ में यह बात नहीं आई कि लुटेरे सारे गहने क्यों नहीं ले गए? अब तक की जांच से यह स्पष्ट हो गया कि कुलदीप की हत्या लूट के लिए नहीं की गई, बल्कि इस का कोई दूसरा ही कारण था.

मृतक की मां भी नारनौल से दवा ले कर घर आ गई थी. बेटे की मौत की सुन कर वह दहाड़ें मार कर रोने लगी. मृतक की बीवी कविता रोतेरोते बेहोश हो गई थी. वह गला फाड़ कर रो रही थी. थानाप्रभारी ने उच्चाधिकारियों को घटना से अवगत करा दिया.

आरएसी जवान की हत्या की खबर सुन कर झुंझुनूं के एसपी गौरव यादव, सीआई (बुहाना) देवेंद्र प्रताप सिंह, सीओ (खेतड़ी) मोहम्मद अयूब खान सहित एफएसएल की टीम भी घटनास्थल पर पहुंच गई. पुलिस अधिकारियों ने घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण किया.

पुलिस अधिकारियों के पूछने पर ग्रामीणों ने बताया कि सुबह कुलदीप और उस की पत्नी कविता खेत में लावणी कर के कड़बी (घास) इकट्ठी कर रहे थे. दिन में करीब साढ़े 11 बजे कुलदीप खेत से घर आ गया था, जबकि उस की पत्नी कड़बी इकट्ठा कर रही थी. ससुर चंदन भी काम पर चले गए थे.

चंदन दोपहर में जब खाना खाने घर आए तो उन्हें कुलदीप की हत्या की खबर मिली. इस के बाद पति की हत्या की खबर मिलने पर कविता घर आई थी. वह छाती पीटपीट कर रो रही थी. पुलिस अधिकारी उस से कुछ पूछते तो वह रोतेरोते बेहोश हो जाती थी.

पुलिस को लग रहा था कि कुलदीप की हत्या में घर या आसपास का कोई जानकार व्यक्ति शामिल है. पुलिस ने पड़ोसियों और परिवार के सदस्यों से भी पूछताछ की.

एसपी गौरव यादव ने जयपुर से डौग स्क्वायड की टीम बुलाई. खोजी कुत्ते को घटनास्थल पर छोड़ा गया तो वह लाश सूंघ कर सीधा बाथरूम में गया. वहां से वह 500 मीटर दूर खेत में गया. वहां से लौटने के बाद वह महिलाओं को सूंघता हुआ कविता के पास गया और उस की साड़ी का पल्लू दांतों से पकड़ लिया.

यह देख कर वहां मौजूद लोग हैरान रह गए. कविता की ओर इशारा करने के बाद वह घर से निकल कर एक दूसरे घर में गया. वह घर मृतक के चाचा का था. खोजी कुत्ता वहां से मृतक के चचेरे भाई कविन की पैंट उठा लाया. यह देख कर सभी आश्चर्यचकित रह गए.

खोजी कुत्ते का काम खत्म होने के बाद पुलिस ने मौके की काररवाई पूरी कर लाश पोस्टमार्टम के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र बुहाना भेज दी.

पुलिस ने मामले की जांच शुरू कर दी. मृतक की पत्नी कविता और चचेरा भाई कविन पुलिस के शक के दायरे में आ चुके थे. इसी दौरान पुलिस को जानकारी मिली कि करीब 2 महीने पहले कविन और मृतक के घर वालों के बीच झगड़ा हुआ था. उस झगड़े की वजह कविन और कविता के बीच बने अवैध संबंध थे.

कविन बुहाना में रह कर पढ़ रहा था और फिलहाल छुट्टी पर घर आया हुआ था. लेकिन कुलदीप की हत्या के बाद वह घर से गायब था. थानाप्रभारी ने हेडकांस्टेबल भीम सिंह को उस के घर की निगरानी पर लगा दिया.

कुलदीप का पोस्टमार्टम होने के बाद लाश परिजनों को सौंप दी गई. चूंकि वह राजस्थान पुलिस में था, इसलिए पुलिस की सलामी के साथ उस का अंतिम संस्कार कर दिया गया. इस के बाद पुलिस ने 21 सितंबर, 2019 को मृतक की पत्नी कविता को हिरासत में ले लिया.

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थानाप्रभारी भरतलाल मीणा ने उस से कहा, ‘‘कविता, जो भी सच है बता दो, इसी में तुम्हारी भलाई है. पुलिस को पुख्ता सबूत मिल गए हैं कि कुलदीप का मर्डर किस ने किया है. हम तुम्हारे मुंह से सुनना चाहते हैं. वैसे भी कविन ने हमें सब कुछ बता ही दिया है.’’

यह सुनते ही कविता के पैरों तले से जमीन सरक गई. उस ने आसानी से अपना जुर्म कबूल कर लिया. उस ने बताया कि उस ने अपने देवर प्रेमी कविन उर्फ सचिन के साथ मिल कर पति को सोते समय कुल्हाड़ी से वार कर मौत के घाट उतारा था.

उसी दिन कविन भी पुलिस के हत्थे चढ़ गया. उस से पूछताछ की गई तो उस ने भी अपना गुनाह कबूल कर लिया. केस का खुलासा होने के बाद 22 सितंबर को एसपी गौरव यादव ने प्रैस कौन्फ्रैंस आयोजित कर आरोपियों को मीडिया के सामने पेश किया. इस के बाद थानाप्रभारी भरतलाल मीणा ने आरोपी कविता और कविन को कोर्ट में पेश कर 3 दिन के पुलिस रिमांड पर ले लिया.

रिमांड अवधि में अभियुक्तों से विस्तार से पूछताछ की गई. पुलिस ने कविता के घर के बाथरूम के ऊपर एक कपड़े में लपेट कर छिपाए गए गहने भी बरामद कर लिए. उस के ही घर के सोफे के नीचे से वह कुल्हाड़ी भी पुलिस ने बरामद कर ली, जिस से कुलदीप की हत्या की गई थी.

हत्या के बाद कविता ने कुल्हाड़ी बाथरूम में ले जा कर धो दी थी. दोनों ने हत्या के समय जो कपड़े पहने थे, वह भी पुलिस ने बरामद कर लिए. खून सने कपड़े उन्होंने धो दिए थे. दोनों से की गई पूछताछ में कुलदीप सिंह मेघवाल की हत्या की जो कहानी सामने आई, वह इस प्रकार निकली—

राजस्थान के जिला झुंझुनू के थाना पचेरी कलां के अंतर्गत गांव है निहालोठ की ढाणी. इसी गांव में चंदन सिंह मेघवाल का परिवार रह रहा था. चंदन सिंह के पास थोड़ी सी खेती की जमीन थी, इसलिए घर खर्च चलाने के लिए वह दूसरों के यहां भी खेती का काम कर लेता था.

उस के परिवार में पत्नी के अलावा 4 बेटे व एक बेटी थी. उस का एक बेटा कुलदीप सिंह आरएसी में ड्राइवर के पद पर नौकरी करता था. कुलदीप की तैनाती 9वीं बटालियन उदयपुर में थी. कुलदीप का छोटा भाई लोकेश मेघवाल भी राजस्थान पुलिस में था. इस के अलावा उस की एकलौती बहन छोटू बाला भी राजस्थान पुलिस में कांस्टेबल है जो इन दिनों अलवर में तैनात है.

कुलदीप की शादी जून 2017 में हरियाणा की खातोली निवासी कविता से हुई थी. कुलदीप की आरएसी में नौकरी की वजह से कम छुट्टियां मिलती थीं. फिर भी कुलदीप और कविता की खुशहाल जिंदगी थी. मगर इस खुशहाल जिंदगी में राहु बन कर आया कविन उर्फ सचिन मेघवाल. वह कुलदीप के सगे चाचा राम मेघवाल का बेटा था. कविन इन दिनों बुहाना के एक निजी कालेज में बीए प्रथम वर्ष में पढ़ रहा था.

वह बुहाना में भी रहता था और सप्ताह के अंत में अपने घर निहालोठ की ढाणी आता था. कविता और कविन हमउम्र थे. कुलदीप ड्यूटी पर रहता था जबकि उस की बीवी गांव में सासससुर के साथ रहती थी. सासससुर घर पर नहीं होते तो कविन अकसर कविता के घर पहुंच जाता. वह मीठीमीठी बातें कर कविता के रूपसौंदर्य की प्रशंसा कर के उसे रिझाने की कोशिश में लगा रहता था.

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कविता भी उसे मन ही मन चाहने लगी थी. जनवरी 2019 की बात है. कविता घर पर अकेली थी. उसी समय कविन उस के घर आ गया. उस समय कविता नहाधो कर कमरे में बैठी बाल सुखा रही थी.

अगले भाग में पढ़ें- मैं तुम्हें बेइंतहा प्यार दूंगा. तुम्हें हर खुशी दूंगा. 

देश का हाल शिक्षा बदहाल

अफसोस की बात है कि तार्किकता को तरजीह दे कर सत्ता से सवाल करने वाले छात्रों को देशद्रोही घोषित किया जा रहा है. देखा जाए तो यह देश की सामूहिक बौद्धिकता पर घातक हमला है. ऐसा लगता है छात्रों को सुनियोजित तरीके से उलझा कर शिक्षा का व्यवसायीकरण कर छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ किया जा रहा है.

शेक्सपियर का एक दुखांत नाटक है ‘हैमलेट’, इस का खलनायक कत्ल की ‘करामात’ से कुरसी पर कब्जा जमा लेता है. भय के भंवर और भ्रमजाल में उलझे देश की दुर्दशा पर नाटक का नायक प्रिंस हैमलेट यह कहता है, ‘‘देश के शरीर में जोड़ों की हड्डियां उखड़ी हुई हैं. हर तरफ अव्यवस्था का आलम पसरा हुआहै.’’

धर्म, संप्रदाय, जाति आदि की दीवारों को खड़ा कर आदमी को आदमी से जुदा करने की साजिशों को रचने का इतिहास बहुत पुराना है. हम अपने देश पर नजर डालें तो जो कुछ हमें जोड़ता रहा है उसे धर्म जागरण के नाम पर अब जोरजुल्म से तोड़ा जा रहा है.

‘बांटो और राज करो’ की पुरानी नीति का एक नया संस्करण इस वर्तमान दशक में देखने को मिला है. राज पर पकड़ मजबूत करने वालों ने अब जिस नीति को अपनाया है वह है- कुछ नया बखेड़ा खड़ा करते रहो, नया तमाशा दिखाते रहो और जनता का ध्यान मूल मुद्दे से हटा कर राज करते रहो. इसे ‘ध्यान बांटो और राज करो’ कहा जाता है.

यूनिवर्सिटीज और उन में पढ़ने वाली युवा पीढ़ी को बदनाम कर उन पर प्रहार करने का सिलसिला सत्ता ने खूब जोरशोर से जारी कर रखा है. इंग्लिश की प्रख्यात लेखिका और सोशल ऐक्टिविस्ट अरुंधति राय ने इस खतरे को भांपते हुए एकदो साल पहले ठीक ही कहा था कि वर्तमान सरकार देशवासियों को बौद्धिक कुपोषण यानी इंटैलेक्चुअल मालन्यूट्रिशन का शिकार बनाने की साजिश रच रही है. उच्च शिक्षा केंद्रों में वंचित वर्ग के प्रवेश को रोकने के लिए फीस में बेतहाशा वृद्धि की जा रही है. विद्यार्थियों से तर्कशक्ति छीनने के लिए उन्हें अंधआस्था पर आधारित पाठ्यक्रम परोसा जा रहा है. सोचने की शक्ति पैदा करने के बजाय उन के दिमाग में ऊलजलूल सूचनाएं एक षड्यंत्र के तहत ठूंसी जा रही हैं. शिक्षा का मुख्य मकसद तो दिमाग को सोचने के लिए प्रशिक्षित करना है, न कि पौराणिक तथ्यों को रट कर डिगरी का कबाड़ लेना.

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तार्किकता को तरजीह दे कर सत्ता से सवाल करने वालों को देशद्रोही घोषित किया जाने लगा है. आखिर तर्कशील युवा पीढ़ी से सत्ता के महारथी क्यों डरने लगे हैं? आज लाइब्रेरी में किताब पढ़ने वालों पर कहर बरसाया जा रहा है. यह देश की सामूहिक बौद्धिकता पर घातक हमला है.

रवींद्रनाथ टैगोर की एक कहानी है जिस में राजा अपने तोते को शिक्षित करने का आदेश देता है. राजा के मंत्रीगण और शिक्षाधिकारी शिक्षित करने के नाम पर तोते को इतने बंधनों में बांध देते हैं कि आखिरकार उस की मृत्यु हो जाती है. मंत्रीगण राजा को खबर देते हैं कि तोता पूरी तरह शिक्षित हो गया है. अब वह शोरगुल नहीं करता, पंख नहीं फड़फड़ाता है. इस कहानी के माध्यम से टैगोर शिक्षा के क्षेत्र में बंधनों व प्रहारों के दुष्प्रभावों को इंगित करते हैं. रवींद्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजी राज में यह कहानी लिखी थी. इसे अब लोकतंत्र के 7वें दशक में इस्तेमाल किया जा रहा है.

मुक्त सोच यानी फ्री थिंकिंग को बढ़ावा दे कर ही सृजनात्मक शक्ति से निर्माण का वातावरण बनाया जा सकता है. जबकि इस के विपरीत, हम विद्यार्थियों को जकड़नों में जकड़ते जा रहे हैं. शिक्षा, जिसे मुक्ति का साधन बनना था, वह स्वयं अनेक तरह की संकीर्णताओं और धर्म व जाति से बंध कर सत्ताधीशों के हाथ का खिलौना बन गई है.

‘न्यू इंडिया’ का झुनझुना थमा कर देश को कौर्पोरेट घरानों व अंधआस्थावानों के लिए मुफ्त की उपजाऊ जमीन बनाया जा रहा है. धर्म सत्ता व कौर्पोरेट घरानों ने साजिश रच कर देश को 2 तरह के भारत में बांट दिया है. एक भारत वह जो सत्ता से सवाल कर रहा है व उस की शोषणकारी व भेदभाव की नीतियों के खिलाफ आवाज उठा रहा है, विकास के नाम पर पूंजीपतियों के अंधाधुंध मुनाफे के खेल को रोकने की मांग कर रहा है, धर्मजाति या इलाके के नाम पर समुदायों के उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठा रहा है.

दूसरी तरफ, सत्ता द्वारा अपनी मनमरजी से कौर्पोरेट घरानों के हितों को साधने के लिए बनाया गया ‘न्यू इंडिया’ है जिस की राहुल बजाज जैसों की मामूली सी आलोचना भी देशभक्ति के तराजू में तौली जा रही है. आज सत्ता से सवाल करने वाले सब राष्ट्रद्रोही करार दिए जा रहे हैं. सत्ता और पूंजी का असर है कि मीडिया दिनरात इस ‘न्यू इंडिया’ का गुणगान करता रहता है. आमजन के मुद्दे पर कोई बात नहीं की जाती. सत्ता के खिलाफ एक शब्द भी देशद्रोह है. अब तो खुल कर कहा जा रहा है, ‘जो हमारे खिलाफ है वह देशद्रोही है.’ जेएनयू व जामिया पर किए गए प्रहार इसी के सुबूत हैं.

इन दोनों विश्वविद्यालयों के नाम से ही सत्ता को चिढ़ है. इसलिए ये इस के निशाने पर बने हुए हैं. इस मुगालते में मत रहिए कि जामिया के सब विद्यार्थी सिर्फ मुसलिम हैं. असलियत यह है कि जामिया यूनिवर्सिटी में 59 प्रतिशत से अधिक विद्यार्थी अन्य धर्मों के हैं. मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई के मामले में यह सैंट्रल यूनिवर्सिटी देश की सर्वोत्कृष्ट यूनिवर्सिटी मानी जाती है.

विविधता और प्रतिनिधित्व के स्तर पर जेएनयू एक अर्थ में ‘मिनी इंडिया’ है. विचार और व्यवहार के स्तर पर लोकतंत्र की सर्वोच्च परंपराओं व असहमति के स्वर को रचाएबचाए जेएनयू ‘आइडिया औफ इंडिया’ को प्रतिबिंबित करता है. दरअसल, जेएनयू को आदर्श भारत का एक छोटा रूप कहा जा सकता है.

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यहां ऐडमिशन लेने वाले विद्यार्थी भारत के हर कोने के गांवढाणियों, कसबों और छोटेबड़े शहरों से आते हैं. ये सब बेहतर भविष्य के सपने अपनी आंखों में संजो कर यहां आते हैं. जिंदगी की राह पर तपन सह कर और राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कठिन प्रवेशपरीक्षा से गुजर कर वे इस विश्वविद्यालय तक पहुंचने में सफल होते हैं. जिंदगी में हर कदम पर खुद के बलबूते पर किया गया इन का संघर्ष इन्हें मजबूती देता है. विचारों का विटामिन इन्हें आगे बढ़ते रहने को प्रेरित करता है. इन के अटल इरादों को तोड़ना सत्ता के नशाखोरों के बस की बात नहीं. कम फीस पर कठिन परीक्षाओं के कारण हर वर्ग को यहां जगह मिली है. सिर्फ जयजयकार करने वालों को नहीं.

हम क्यों, कहां पीछे हैं

शिक्षा मानव सभ्यता की बेहतरी की पहली बुनियाद है. हर देश में समृद्ध व विकसित समाज का रास्ता शिक्षा से हो कर ही गुजरा है. जिन देशों को आज हम बेहतर व विकसित कहते हैं, उन्होंने सब से पहले अपने देश को शिक्षा के मंच पर खड़ा किया था. तमाम यूरोपियन देशों ने शिक्षा के क्षेत्र में समर्पण के साथ भारी निवेश किया था. सो, वहां के युवाओं में वैज्ञानिक सोच पैदा हुई. नएनए अनुसंधान हुए और वहां के समाज को इस का फायदा मिला.

देश सीमाओं, सेनाओं, बारूद के ढेरों, ऊंची इमारतों, पुलों, सड़कों से नहीं बनता है, देश शिक्षित व समृद्ध नागरिकों से बनता है. आज भारत में वह हर चीज वैश्वीकरण से हासिल

हो गई है जो दुनिया के समृद्ध समाजों/देशों के पास है, मगर जो चीज समाज/देश को खुद पैदा करनी होती है उस में यह बिलकुल हारा हुआ देश है. दुनिया की टौप 300 यूनिवर्सिटीज में भारत की कोई यूनिवर्सिटी नहीं है और टौप 500 में महज 6 हैं जिस में 5 आईआईटी संस्थान हैं व एक बेंगलुरु साइंस इंस्टिट्यूट. जबकि, जनसंख्या की दृष्टि से देखा जाए तो पूरे यूरोपअमेरिका को भारत अकेला कवर कर लेता है.

अशिक्षित समाज पूंजीवादी व्यवस्था में कभी खुशहाल नहीं हो सकता. आज शहरों में चमचमाते कौन्वेंट निजी स्कूल हैं तो दूसरी तरफ जर्जर सरकारी स्कूल हैं. उच्चवर्ग के लोगों की शिक्षा की व्यवस्था अलग व गरीब लोगों की शिक्षा व्यवस्था अलग यानी बहुसंख्यक आबादी को शिक्षा से वंचित रखने का सोचासमझा उपाय नजर आता है.

एक तरफ पौश कालोनियां बसी हैं तो दूसरी तरफ झुग्गियों के क्लस्टर हैं. पौश इलाकों में बड़ेबड़े निजी अस्पताल हैं तो झुग्गी बस्तियों में झोलाछाप डाक्टर. यह ऐसा विभेद है जो समाज को बांटता जाता है. आज उच्चवर्गीय समाज के कौन्वेंट स्कूलों में पढ़े बच्चे देश के गरीबों, गांव में बसने वालों को समाज का हिस्सा मानने के बजाय कमाई के ग्राहक मात्र समझते हैं.

शिक्षा समाज की मूलभूत आवश्यकता है व समाज को खड़ा करने का मूल भी. मगर पूंजीवादी व्यवस्था के आगमन के साथ शिक्षा सिमटने लग गई. चंद स्कूल या कालेजों के आउटपुट को सामने रख कर गुणगान भले ही कर लिया जाए, मगर साक्षरता से आगे शिक्षा नहीं बढ़ पा रही है. शिक्षित भारत के बजाय हम साक्षर भारत में ही फंस गए और साक्षर भारत भविष्य का निरक्षर भारत ही होगा.

हर देश में शिक्षा के प्रसार में सरकारी शिक्षा व्यवस्था ही कारगर रही है. निजी शिक्षा व्यवस्था अमीरों के बच्चों तक सीमित रह जाती है. 19वीं सदी में यूरोप व अमेरिका की सरकारी शिक्षा व्यवस्था ने वहां के समाज की कायापलट कर दी थी. फिर जापान, सोवियत संघ व कई साम्यवादी सरकारों ने इसे सरकार की जिम्मेदारी माना और अपने बच्चों को उपलब्ध करवाया. चीन हमारा पड़ोसी देश है. चीन की सस्ती चीजें हमारे यहां यों ही नहीं आई हैं. बल्कि चीन ने अपने बच्चों को सरकारी शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से समृद्ध किया और वे शिक्षित बच्चे नईनई तकनीक ईजाद कर के अपने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती दे रहे हैं.

लातिन अमेरिकी देश क्यूबा का ही उदाहरण ले लीजिए. साल 1969 के बाद फिदेल कास्त्रो ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से अपने देश के नागरिकों को इतना मजबूत बना दिया कि आधी सदी से अमेरिका उसे तोड़ने का अभियान चलाए हुए है, मगर हर नागरिक एक मिसाइलमैन की तरह खड़ा है. बिना बड़े हथियारों के एक छोटा सा द्वीप दुनिया के सब से ताकतवर देश के सामने डट कर खड़ा है. चाहे वह गरीब ही क्यों न हो. पर उस गरीबी के कारण वही संतुलित सोच है जो भारत में हिंदू धर्म के गुणगान के नाम पर परोसी जा रही है.

किसी भी देश को विदेशी खतरा हथियारों से नहीं, अपने कमजोर नागरिकों से होता है. दिमाग व पेट से कमजोर नागरिक सदा बिकने को तैयार रहेंगे. चाहे तो देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त लोगों का विश्लेषण कर के देख लीजिए. इसलिए, हथियारों की होड़ में फंस कर बजट खराब करने के बजाय शिक्षा में निवेश किया जाना चाहिए. भारत का शिक्षा बजट हमेशा 2 फीसदी के आसपास ही रहा है. इसे भी हायर एजुकेशन के नाम पर कुछ यूनिवर्सिटीज हड़प लेती हैं.

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आज जिस राह पर सरकार चल रही है यानी शिक्षा का बड़े पैमाने पर निजीकरण किया जा रहा है, शिक्षा महंगी की जा रही है, वह मुल्क के अंदर कई मुल्क खड़े करने वाली है. अखंड नहीं, खंडखंड भारत की तरफ रास्ता जा रहा है. विकसित नहीं, अराजक भारत बन रहा है.

छात्रों की आवाज दबाने की कोशिश

केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद लगातार शैक्षणिक संस्थाओं को निशाना बनाया जा रहा है. अपने पिछले कार्यकाल में भाजपा ने लगातार जेएनयू को बदनाम करने की कोशिश की. जब उस की यह साजिश कामयाब नहीं हो पाई तो सुनियोजित तरीके से सीधे अपने नकाबपोश गुंडे भेज कर हिंसा करवाई. यह भारतीय जनता पार्टी देश के छात्रों, युवाओं की आवाज दबा कर संविधान को कमजोर कर रही है.

भाजपा सरकार आरएसएस की सोच के अनुसार शिक्षा व शिक्षण संस्थानों में लगातार हमले कर रही है. पिछले 3 वर्षों में ऐसे कई मामले हैं जहां पर आरएसएस के संगठनों के अतिरिक्त सरकार के मंत्री सीधे तौर पर शिक्षण संस्थानों पर प्रयत्क्ष व अप्रत्यक्ष हमलों से जुड़े रहे हैं.

इन में से कुछ चर्चित संस्थान हैं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, एफटीआईआई पुणे, आईआईटी मद्रास आदि, जहां परिसर जनवाद पर तीखे हमले हुए हैं तथा लोकतांत्रिक संस्कृति को खत्म करने के प्रयास हुए हैं. पर इन सभी मामलों में छात्रों ने इन का एकता के साथ मुंहतोड़ जवाब दिया, जिस के चलते भाजपा सरकार को कई बार पीछे हटना पड़ा.

इन हमलों की आड़ में भाजपा सरकार बड़े ही गुपचुप तरीके से एक साजिश के तहत सार्वजनिक शिक्षा के ढांचे को नष्ट करने के लिए कार्यरत है, जिस की तरफ लोगों का ध्यान कम जा रहा है. यह बड़े ही सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है. छात्रों को उलझा कर गुपचुप तरीके से शिक्षा का व्यवसायीकरण तथा सांप्रदायीकरण किया जा रहा है. हर विश्वविद्यालय में ऐसे सेल बना दिए गए हैं.

जनता को भ्रमित करने में कुशल इस सरकार के लिए यह स्थिति ज्यादा अनुकूल है- जब कोई नीति नहीं, मतलब, कोई चर्चा व आलोचना नहीं. भाजपा का जब मन होता है तो यूजीसी तथा मानव संसाधन विकास मंत्रालय से अधिसूचना या यो कहें कि फतवा जारी कर दिया जाता है, बिना किसी चर्चा व संवाद के. इस तरह पिछले 6 वर्षों में भाजपा सरकार ने जनतांत्रिक संस्थानों व प्रक्रियाओं को खत्म करने का काम किया है.

भाजपा सरकार उच्च शिक्षा में पिछली यूपीए-2 सरकार की राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (रूसा) को ही आगे बढ़ा रही है, जो अपनेआप में शिक्षा के व्यवसायीकरण को ही आगे बढ़ाता है. रूसा के तहत कक्षा में पढ़नेपढ़ाने की प्रक्रिया व मूल्यांकन को पूरी तरह बदलने के प्रावधान हैं. छात्रों को परीक्षा और असाइनमैंट के कुचक्र में ही उलझा दिया है जिस से कक्षा में अध्यापन का समय बुरी तरह प्रभावित हुआ है. छात्र व अध्यापक में बातचीत में कमी आई है. अध्यापक भी अध्यापन को छोड़ कर बाकी सब कामों में लग गए हैं. जिन राज्यों में इसे लागू किया गया है वहां से छात्रों के गुस्से की लगातार खबरें आ रही हैं. परीक्षा परिणामों में भारी गड़बड़ी की खबरें आम बात हो गई हैं. दरअसल, मार्किंग का अधिकतर काम आउटसोर्सिंग के जरिए निजी कंपनियों को दिया गया जो छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ कर रही हैं.

अब सैमेस्टर परीक्षाओं के लिए औब्जैक्टिव टाइप प्रश्नों का प्रस्ताव लागू किया जा रहा है जो नियमित शिक्षा और परीक्षा की मूल भावना के ही खिलाफ है. योगी आदित्यनाथ का उत्तर प्रदेश सैमेस्टर के बीच में इसे लागू करने वाला पहला राज्य बना है, जहां मगध विश्वविद्यालय में इसे शुरू किया गया है. यह तथाकथित शिक्षा सुधार शिक्षा के ढांचे को बदल कर इसे महज डिगरीनुमा कागज के टुकड़े में तबदील करने के सिवा कुछ नहीं है. जैसे पंडितों को उपलब्धियां मिलती हैं, बिना पढ़े, बिना परीक्षा दिए.

देश में शिक्षकों के लाखों पद खाली पड़े हैं, उन पर नियुक्तियों के बजाय सरकार शिक्षकछात्र अनुपात बदल रही है. तकनीकी शिक्षा, जिस में दक्षता एक महत्त्वपूर्ण मापदंड है, में सरकार ने शिक्षकछात्र अनुपात पहले ही बदल दिया है. इस का पता हमें तब चला जब पिछले दिसंबर के पहले सप्ताह में एआईसीटीई ने स्ववित्त संस्थानों के अनुमोदन के लिए वर्ष 2018-19 की हैंडबुक जारी की जिस में शिक्षकछात्र अनुपात को 1:15 से बदल कर 1: 20 का निर्णय लिया गया है.

जेएनयू और अन्य विश्वविद्यालयों में शोध के क्षेत्र (एमफिल व पीएचडी) में सीटों को कम करने की यूजीसी की राजपत्रित अधिसूचना के चलते छात्रों के लिए शोध के अवसरों में भारी कमी आई है. यहां तक कि एमफिल के छात्र भी शोध में अपने भविष्य को ले कर निश्चिंत नहीं हैं क्योंकि पीएचडी में उन के संस्थानों में सीटें ही नहीं हैं. दरअसल, यह छात्रों को शोध में उच्चशिक्षा से वंचित करने का एक तरीका है.

भारत में उच्चशिक्षा में 62 प्रतिशत छात्र निजी शिक्षण संस्थानों में जाते हैं. प्राथमिक शिक्षा भी मुनाफे की इस दौड़ से नहीं बच पाई है. एक साजिश की तरह सरकारी प्राथमिक शिक्षा प्रणाली को बदनाम किया गया तथा साथ ही निजी शिक्षण संस्थानों को सरकार की नीतियों द्वारा बढ़ावा दिया गया. आज यह आम धारणा बन गई है कि सरकारी स्कूल अच्छे नहीं होते व अपने बच्चों को निजी स्कूलों में ही पढ़ाना चाहिए. राज्य सरकारें इस सार्वजनिक शिक्षा के ढांचे को पूरी तरह तबाह करने में जुटी हैं.

‘इंग्लिश मीडियम’ फिल्म की तरह बड़ी संख्या में छात्रों का सरकारी स्कूलों से प्राइवेट में पलायन हो गया है. सरकार कम छात्र संख्या का हवाला दे कर इन सरकारी स्कूलों को या तो बंद करने जा रही है या पीपीपी मौडल के आधार पर निजी हाथों में सौंपने जा रही है. राजस्थान सरकार ने पीपीपी मौडल पर 225 स्कूलों को चलाने का निर्णय लिया है, जिस का अर्थ है सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में देना.

मध्य प्रदेश सरकार ने कम बच्चों का हवाला देते हुए 15,000 सरकारी स्कूलों को बंद करने की योजना बनाई है. इसी तरह महाराष्ट्र सरकार ने करीब 13,905 स्कूलों को बंद करने का फैसला किया है. इसी तरह की खबरें ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा सहित कई राज्यों से आ रही हैं जहां सरकारों ने बड़ी संख्या में सरकारी स्कूलों को बंद करने का फैसला किया है.

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शिक्षा व छात्र मुद्दों पर बहस की दिशा बदल गई है. बीजेपी का प्रयास रहा है कि छात्रों को राष्ट्रवाद, धर्म, भारतीय सेना का मानसम्मान आदि मुद्दों में उलझाए रखा जाए जिस में कुछ हद तक वह सफल भी रही है क्योंकि छात्र भी उस के इस चक्र में फंस कर इन्हीं मुद्दों को स्पष्ट करने में लगे रहे हैं. हालांकि, छात्रों और जनता में इन मुद्दों पर स्पष्ट समझ रखना बहुत महत्त्वपूर्ण है. इस के अतिरिक्त आरएसएस व इस के संगठनों द्वारा अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, प्रगतिशील लेखकों तथा पत्रकारों पर लगातार बढ़ रहे हमलों ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि छात्रों का इन के खिलाफ आंदोलन व प्रचार करना बाध्यता बन गया. इन सब के चलते छात्रों के आधारभूत मुद्दे व सार्वजनिक शिक्षा के खिलाफ बीजेपी की साजिश कहीं अनदेखी रह गई, जो कि बराबर के महत्त्व की लड़ाई है.

समाज को प्रभावित करने वाली सामाजिक व आर्थिक नीतियों को समझना और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष छात्र आंदोलन की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी है क्योंकि छात्र समाज का अभिन्न हिस्सा हैं. सरकार विद्यार्थियों के मुद्दों से ध्यान भटकाने का प्रयास कर रही है. वैसे भी, उसे इस तरह का कुप्रचार कर जनता को अपने असल मुद्दों से गुमराह करने में महारत हासिल है. इसी के चलते पूरे देश में धार्मिक, जाति व राष्ट्रीय गौरव जैसे चर्चा के मसले थोपे गए हैं और रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं, आर्थिक विकास, कृषि संकट, महंगाई आदि असल मसलों पर चर्चा से मोदी सरकार बचती आई है.

एक द्वंद्वात्मक बात यह है कि हमें छात्रों के बुनियादी मांगों के संघर्ष को सामाजिक संघर्ष, सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष और जनवाद को बचाने के संघर्ष के साथ जोड़ना होगा. हम जानते हैं कि धार्मिकता और कुरसी की विकराल चुनौती का सामना करने के लिए छात्रों में एकता की आवश्कता है. छात्रों की एकता तब ही बनेगी जब छात्र अपने मसलों और शिक्षा पर हो रहे हमलों को समझ सकेंगे.

मोहमोह के धागे : भाग 3

कुछ दिनों बाद ही एक दिन देवरानी को चक्कर और उलटियां आ रही थीं. डाक्टर ने मुआयना कर के 2 माह के गर्भ की सूचना दी. घर में थोड़ी सी खुशी की लहर घूम गई. रेवती की खुशी का ठिकाना न रहा. वह सम झी, साधु की साधना का फल है. वह दिनरात देवरानी की सेवा में लग गई. सभी संतुष्ट थे.

9वें महीने में रेवती की देवरानी नीता ने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया. घर में छाई मुर्दनी धीरेधीरे तिरोहित होती गई. जहां तक रेवती का सवाल, उस में अलग सा परिवर्तन आ गया था. अब देवरानी से उस का ध्यान हट कर सारा ध्यान बच्चे की ओर लग गया था. नीता को भी देखभाल की जरूरत थी. रेवती सारा दिन बच्चे को गोद में लिए बैठी रहती. कभी मालिश करती, कभी स्नान करवा के डेटौल में उस के कपड़े धो कर डालती. बच्चा दूध के लिए रोता तो जा कर नीता को देती. नीता को अब खलने लगा था.

रीता ने 6 महीने की मैटरनिटी लीव ले रखी थी. अब वह चलनेफिरने लगी थी. अपने बच्चे का काम करना चाहती थी. पर रेवती उसे मौका नहीं देती. किचन का काम अधूरा पड़ा रहता. चायनाश्ता, लंच का कुछ समय न रहा था. सब की प्रश्नवाचक निगाहें रेवती पर उठने लगीं. कुछ समय तो परिवार वाले रेवती में आए इस बदलाव का कारण जानने की कोशिश करते रहे लेकिन किसी नतीजे पर न पहुंच पा रहे थे. मान लिया नवजात बच्चे के काम कर उसे संतुष्टि मिलती थी पर अब वह अपनी देवरानी नीता के मां बनने की खुशियों में बाधा बन रही थी.

एक दिन तो हद ही हो गई. रेवतीकिचन का सारा काम अधूरा छोड़, बच्चे को ले मंदिर चली गई. बच्चा भूख के मारे रोने लगा. पर वह पूरे मंदिर परिसर की परिक्रमा करती रही. नीता नहा कर निकली, तो बच्चा नदारद. वह घबरा गई. सभी लोग रेवती और बच्चे को खोजने लगे. करीब आधे घंटे बाद रेवती भूख से बिलबिलाते, रोते बच्चे को ले कर जब घर आई तो नीता, जो सदैव जेठानी की इज्जत करती थी, उन के ऊपर हुए वैधव्य के वज्रपात के कारण ऊंची आवाज में बात न करती थी, गुस्से में फट पड़ी. उस ने रेवती की गोद से बच्चा छीनते हुए खरीखोटी सुना डाली.

रेवती को यह उम्मीद न थी. वह स्तब्ध रह गई. नीता ने चिल्ला कर कहा कि आज के बाद आप मेरे बच्चे को हाथ नहीं लगाएं. यह सुन रेवती के दिमाग में पाखंडी साधु की बात याद आई. जब तुम्हारा पति पुनर्जन्म लेगा तो बहुत लोग उसे तुम से दूर करने का प्रयास करेंगे. तुम हिम्मत न हारना. अब रेवती का दिमाग गुस्से से भर गया. वह चिल्लाने लगी, ‘‘किस का बच्चा, कौन सा बच्चा? यह बच्चा मेरे पति रणवीर हैं जिन्होंने इस घर में पुनर्जन्म लिया है. यह मेरा बच्चा है, मेरा रहेगा.’’ यह कह वह बच्चे को छीनने लगी. घरवालों ने बड़ी कठिनाई से दोनों को अलगअलग किया.

साधु महाराज ने उसे हिदायत दी, ‘‘देवी, ध्यान रखना यह बात हमेशा गुप्त रखना वरना मेरी ज्ञानध्यानशक्ति कमजोर पड़ जाएगी. मैं फिर तुम्हारे लिए कुछ न कर पाऊंगा. जाओ, अब घर जाओ.’’ सारे परिवार में खलबली मच गई. सब नीता को सम झाने लगे. रेवती की ओर से माफी मांगने लगे. नीता सम झदार लड़की थी. वह ससुराल वालों की आज्ञा की अवहेलना नहीं करना चाहती थी. सो, चुप्पी लगा गई.

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रेवती, नीता की इस घोषणा से सतर्क हो गई. उस के दिमाग में साधु ने जो बातें भरी थीं वे घर बना चुकी थीं. रातरातभर वह गहरी सोच में डूबी रहती. उस के दिमाग में एक अजीब सी हलचल शुरू हो गई. वह दिमागी रुग्णता का शिकार हो गई.

एक दिन सासससुर किसी आयोजन में गए हुए थे. राजवीर औफिस गया था. नीता बच्चे को पालने में सुला कर नहाने चली गई. रेवती ने मौका पा एक बैग में कुछ कपड़े, दूध की बोतल रखी. कुछ रुपए उस के पास थे. वह बच्चे को एक चादर में लपेट कर दबेपांव घर से निकल गई. उसे स्वयं पता नहीं था कि कहां जाना है. सामने जाते हुए औटो को रोक स्टेशन चलने को कह दिया. स्टेशन आने पर हरिद्वार का टिकट ले लोगों से पूछतीपूछती प्लेटफौर्म नंबर-2 पर आ गई. उस ने साधुमहाराज के मुंह से हरिद्वार, ऋषिकेश का नाम बारबार सुना था.

उधर, नीता ने जब घर में बच्चे और रेवती को न देखा तो उसे रेवती की सारी योजना सम झ आ गई. उस ने बिना समय गंवाए पुलिस स्टेशन जा कर बच्चे और रेवती की फोटो दे कर सारी बात बताई. पुलिस सक्रिय हो गई. उस ने फिर पति, सास, ससुर रेवती के मायके में सब को सूचित किया. देखतेदेखते पुलिस ने बस अड्डे, टैक्सी स्टैंड, रेलवे स्टेशन खबर व फोटो भिजवा दीं. नीता की सू झबू झ और पुलिस की दौड़भाग से रेवती को हरिद्वार जाने वाली गाड़ी के प्लेटफौर्म से पकड़ लिया गया.

रेवती ने पुलिस को देख हंगामा कर दिया. वह किसी तरह भी बच्चा सौंपने को तैयार नहीं थी. उस ने एक ही रट लगा रखी थी कि यह मेरा रणवीर है. साधुमहाराज की तपस्या के बल पर मु झे वापस मिला है. जबरन लेडी कांस्टेबल ने बच्चे को उस की पकड़ से छुटकारा दिलवाया. रेवती अनर्गल प्रलाप करते हुए बेहोश हो गई.

लगभग एक महीने तक रेवती का मानसिक रोगों के अस्पताल में इलाज हुआ. डाक्टरों की स्नेहपूर्ण काउंसलिंग से उसे वास्तविकता से रूबरू करवाया गया. धीरेधीरे उसे अपनी नामस झी का भान हुआ. ससुराल वालों को जब रेवती द्वारा गहने देने की बात पता चली तो सब स्तब्ध रह गए. रेवती की नाजुक हालत को देख वे सब खून का घूंट पी कर रह गए. राजवीर ने मंदिर जा कर उस पाखंडी साधु की काली करतूत से सब को अवगत कराया. किसी के मोबाइल में साधु की प्रवचन करते समय की फोटो थी. उस ने प्रिंटआउट निकलवा पुलिस स्टेशन में दे कर गहने लूटने की घटना बना कर रिपोर्ट लिखवाई, पुलिस एक बार फिर अपने काम में जुट गई.

अब रेवती बहुत शर्मिंदा थी. वह नए सैशन में ऐडमिशन ले कर आगे पढ़ना चाहती थी. इस के लिए उस ने डरतेडरते सासससुर से कहा. वे दोनों पहले ही उस की नामस झी से नाखुश थे. पहले तो उन्होंने गहने गंवाने के कारण रेवती को खरीखोटी सुनाई, उस के बाद कालेज में ऐडमिशन की मांग को सिरे से खारिज कर दिया. रेवती एक बार फिर निराशा के अंधकार में डूब गई. उस दिन छुट्टी होने के कारण राजवीर घर पर ही था.

रेवती का पढ़ाई का प्रस्ताव रखना, मातापिता द्वारा खारिज करना ये सब बातें राजवीर सुन रहा था. वह नए जमाने के क्रांतिकारी विचारों का युवक था. रणवीर केवल उस का भाई ही नहीं, वरन पक्का दोस्त भी था. उसे यह सब नागवार गुजरा. वह रेवती भाभी की पीड़ा और अकेलेपन से वाकिफ था. वह भाभी के भविष्य को सुधारने के लिए कुछ करना चाहता था. अचानक ऐसा संयोग बना कि उसे रेवती को इस घोर निराशा से बाहर निकालने का मौका हाथ लगा.

राजवीर का एक दोस्त समीर था, जिस की पत्नी अचानक प्रसव के समय एक  प्यारी सी बच्ची को जन्म दे कर चल बसी. पति पर तो दुख और मुसीबत का मानो पहाड़ ही टूट गया. घर में कोई न था जो बच्ची को संभाल लेता. बच्ची को जब तक कोई संभालने वाला न मिल जाता, नर्स उसे संभाल रही थी. उस ने दोस्त से अपनी रेवती भाभी के लिए पूछा. दोस्त समीर ने तुरंत हामी भर दी. वह राजवीर का शुक्रिया करते नहीं थक रहा था पर इस में भी राजवीर को एक आशंका थी कि रेवती को उस बिना मां की बच्ची को संभालने की अनुमति उस के रूढि़वादी मातापिता की ओर से मिलेगी या नहीं.

दूसरी समस्या यह थी कि रेवती और उस के परिवार को बच्ची को संभालने के लिए समीर के घर जा कर रहना मान्य होगा या नहीं. पहली समस्या का हल तो निकल गया. रेवती को बच्ची संभालने की अनुमति तो मिल गई पर रेवती और परिवार को समीर के घर जा कर रहना मान्य नहीं था. मातापिता की त्योरियों में भी बल पड़ गए. राजवीर को भी खरीखोटी सुननी पड़ी.

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खैर, रेवती बच्ची को ले कर आ तो गई पर घर के कामों के चलते बच्ची को संभाल नहीं पा रही थी. घर में हर समय 2-2 बच्चों के काम, उन के रोने के शोरगुल के कारण कामकाज में लापरवाही होते देख राजवीर ने एक घरेलू हैल्पर रख ली. रेवती ने देखा कि सभी का ध्यान राजवीर के बेटे की ओर था. बच्ची की उपेक्षा हो रही थी. बच्ची रोती रहती, रेवती काम में लगी रहती. हैल्पर भी दूसरों के काम करती रहती. उस की बात पर ध्यान नहीं देती थी. रेवती को बच्ची से बहुत लगाव हो गया था. अब उस ने हिम्मत कर के बच्ची की केयरटेकर के रूप में समीर के घर रहने का फैसला कर लिया.

समीर एक शरीफ और सम झदार लड़का था. घरभर के एतराज के बावजूद राजवीर, रेवती को समीर के घर ले गया. समीर सवेरे ही औफिस निकल जाता, शाम को आ कर थोड़ी देर अपनी बच्ची से खेलता. जब वह सो जाती तो रेवती उसे अपने कमरे में ले जाती. रेवती के कुशल हाथों ने समीर के अस्तव्यस्त घर को संभाल लिया. बच्ची को पिता का भी भरपूर प्यार मिलने लगा. रेवती संतुष्ट थी. वह दिल की गहराइयों से बच्ची को प्यार करने लगी थी.

देखतेदेखते बच्ची 5 साल की हो गई. बच्ची के 5वें जन्मदिन पर राजवीर ने समीर से मिल कर एक योजना बनाई. समीर रेवती के लिए गुलाबी साड़ी और चूडि़यां लाया और बोला, ‘‘रेवतीजी, इन 5 सालों में आप ने मेरे घर और बच्ची के लिए इतना कुछ किया जिस का मैं उपकार जीवनभर नहीं उतार सकता. क्षमा चाहता हूं. मेरे घर और बच्ची को आप ने जैसे संभाला, वह कोई अपने घर का सदस्य ही संभाल सकता है. मैं आप को केयरटेकर न मान कर बहुत ऊंचा दर्जा देता हूं. आप भी आज इस समाज की वर्जनाओं को तोड़ कर चाहें तो इस साड़ी और चूडि़यों को पहन कर मेरे मन की बात मान सकती हैं.

‘‘अब मैं आप को अपने जीवनसाथी के रूप में देख कर समाज के रूढि़वादी बंधनों को तोड़ना चाहता हूं. अगर आप को मंजूर नहीं, तो कोई बात नहीं. मु झे बुरा नहीं लगेगा. बच्ची 5 साल की हो चुकी है, मैं इसे होस्टल में भेजने का इंतजाम कर लूंगा.’’

रेवती भी जिंदगी में इतने कटु अनुभव  झेल चुकी थी कि और कुछ सहने की हिम्मत न थी. समीर की सज्जनता, सादगी और चरित्र की महानता वह परख चुकी थी. उसे भी इस घर और बच्ची के साथ समीर से भी मोह हो चुका था. ससुराल और मायके में राजवीर एकमात्र हितैषी था. उस के मन में खुशी की एक लहर सी उठी. अगले दिन बच्ची के जन्मदिन की शाम को रेवती ने पूरे घर को सजा कर समीर की दी गुलाबी साड़ी और चूडि़यां पहन लीं. मेहमानों के आने से पहले घर में यह गाना गूंजने लगा, ‘ये मोहमोह के धागे, तेरी उंगलियों से जा उल झे…’

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समीर केक ले कर आया तो रेवती का यह बदला रूप देख आश्चर्य और खुशी में डूब गया. उस ने खुशी से बच्ची को गोद में उठा गोलगोल घुमाना शुरू कर दिया. रेवती ने जब उसे ऐसा करते देखा, तो भागती हुई आई, बोली, ‘‘अरे, मेरी बच्ची को चक्कर आ जाएंगे.’’ और दोनों जोर से हंस पड़े.

मोहमोह के धागे : भाग 2

अब रेवती का उत्साह बढ़ गया. अगले दिन उतावली हो समय से पहले ही मंदिर में जा बैठी. साधुमहाराज पुजारी के साथ जब प्रवचन हौल में पधारे तो उन की नजर गद्दी के ठीक सामने अकेली बैठी रेवती पर पड़ी.श्वेत वस्त्र, सूनी मांग, सूनी कलाइयां देख उन्हें सम झते देर न लगी कि कोई विधवा है. वे धीमे स्वर में पुजारी से रेवती का सारा परिचय पता कर आंखें बंद कर गद्दी पर विराजमान हो गए. देखतेदेखते हौल खचाखच भर गया.

प्रवचन के बीच आज उन्होंने एक ऐसा भजन गाने के लिए चुना जब कृष्ण गोपियों से दूर चले जाते हैं. गोपियां उन के विरह में रोती हुई गाती हैं- ‘आन मिलो आन मिलो श्याम सांवरे, वन में अकेली राधा खोईखाई फिरे…’ लोग स्वर से स्वर मिलाने लगे. रेवती की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. अंत में प्रसाद वितरण के बाद लोग चले गए तो रेवती भी उठ खड़ी हुई. अचानक उस ने देखा साधुमहाराज उसे रुकने का संकेत कर रहे हैं. वह असमंजम में इधरउधर देख खड़ी हो गई.

साधुमहाराज ने उसे अपनी गद्दी के पास बुला कर बैठने को कहा. डरती, सकुचाती रेवती बैठ गई तो उन्होंने रेवती के बारे में जो पुजारी से जानकारी हासिल की थी, सब अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर रेवती को कह डाली. भोली रेवती हैरान हो उठी. उन के कदमों पर लोट गई, बोली, ‘‘यह सब सत्य है.’’

साधु महाराजजी ने कहा, ‘‘जब मैं पूजा के समय गहरे ध्यान में था तो एक फौजी मु झे ध्यानावस्था में दिखाई देता है. मानो कुछ कहना चाहता हो. अब सम झ में आया वह तुम्हारा शहीद पति ही है जो मेरे ध्यान ज्ञान के जरिए कोई संदेश देना चाहता है. कल जब मैं ध्यान में बैठूंगा तो उस से पूछूंगा.’’

भोलीभाली रेवती उस के शब्दजाल में फंसती गई. रेवती ने साधु के पैर पकड़ लिए, बोली, ‘‘महाराज, मेरा कल्याण करो.’’

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साधु महाराज ने उसे हिदायत दी, ‘‘देवी, ध्यान रखना यह बात हमेशा गुप्त रखना वरना मेरी ज्ञानध्यानशक्ति कमजोर पड़ जाएगी. मैं फिर तुम्हारे लिए कुछ न कर पाऊंगा. जाओ, अब घर जाओ.’’

प्रसाद ले कर रेवती घर पहुंची. उस ने सासससुर को बड़े आदर से खाना परोसा. रणवीर की शहादत के बाद वह अवसाद की ओर चली गई थी. अब खुद ही उस से निकलने लगी है. इस का कारण मंदिर जाना, पूजापाठ में मन लगाना ही सम झा गया. दिन बीतते जा रहे थे. एक दिन प्रवचन के बाद साधुमहाराज ने एकांत में रेवती को बुलाया और कहा, ‘‘मु झे साधना के दौरान तुम्हारे पति ने दर्शन दिए. उस ने कहा, ‘मैं रेवती को इस तरह अकेला असहाय अवस्था में छोड़ आया था. अब मैं फिर उसी घर में जन्म ले कर रेवती का दुख दूर करूंगा.’’’

परममूर्खा और भावुक रेवती पांखडी साधुमहाराज की बातें सुन कर आंसुओं में डूब गई.

साधुमहाराज ने आगे कहा, ‘‘पर उसे दोबारा उसी घर में जन्म लेने से बुरी शक्तियां रोक रही हैं. उस के लिए मु झे बड़ी पूजा, यज्ञ, साधना करनी पड़ेगी. इस सब के लिए बहुत धन की जरूरत है जो तुम जानती हो हम साधुयोगियों के पास नहीं होता. अगर तुम कुछ मदद करो तो तुम्हारे पति का पुनर्जन्म लेना संभव हो सकता है.’’

यह सुन रेवती गहरी सोच में डूब गई. रेवती को इस तरह चुप देख साधु बोले, ‘‘नहींनहीं, इतना सोचने की जरूरत नहीं है. अगर नहीं है, तो रहने दो. मैं तो तुम्हारे पति की भटकती आत्मा की शांति के बारे में सोच रहा था.’’

रेवती को पता था 4-5 हजार रुपए उस की अलमारी में रखे हैं या फिर खानदानी गहने जो देवर की शादी के समय निकाले गए थे. कुछ व्यस्तता और बाद में रणवीर की मृत्यु के बाद किसी को बैंक में रखवाने की सुधबुध न रही. रेवती ने सोचा पति ही नहीं, तो गहने किस काम के. यह सोच कर बोली, ‘‘महाराज, रुपए तो नहीं, पर कुछ गहने हैं? वह ला सकती हूं क्या?’’

मक्कार संन्यासी बोला, ‘‘अरे, जेवर से तो बहुत दिक्कत हो जाएगी, पर क्या करूं बेटी, तुम्हें असहाय भी नहीं छोड़ना चाहता. चलो, कल सवेरे 8 बजे मैं यहां से प्रस्थान करूंगा, तुम जो देना चाहती हो, चुपचाप यहीं दे जाना.’’

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रेवती पूरी रात करवट बदलती रही. उसे सवेरे का इंतजार था. उस ने रात को ही एक गुत्थीनुमा थैली में सारे गहने और 4 हजार रुपए रख लिए थे. वह पाखंडी साधुमहाराज से इतनी प्रभावित थी कि इस सब का परिणाम क्या होगा, एक बार भी नहीं सोचा. सवेरे उठ जल्दी से काम पूरा कर साधु को विदा देने मंदिर पहुंच गई. साधुमहाराज जीप में बैठ चुके थे. रेवती घबरा गई. वह बिना सोचेसम झे भीड़ को चीरती हुई जीप के पास पहुंच गई और पैरों में पोटली रख, पैर छू बाहर निकल आई.

अगले भाग में पढ़ें- वह दिल की गहराइयों से बच्ची को प्यार करने लगी थी.

मोहमोह के धागे : भाग 1

वीर प्रताप के घर के सामने रिश्तेदार, पड़ोसियों और दूरदराज के सभी जानने वालों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी. दुखद सन्नाटा पसरा था. लोग सिर  झुकाए खड़े थे. बीचबीच में महिलाओं के दिल दहलाने वाली रोने की आवाजें बाहर तक आ जाती थीं. दरअसल, कल ही वीर प्रताप का बड़ा बेटा रणवीर, जम्मू के पास कुछ आतंकवादियों के साथ होने वाली मुठभेड़ में शहीद हो गया था. खबर मिलते ही लोग जमा होने लगे.

जब रणवीर का पार्थिव शरीर ले कर घर पहुंचे तो हाहाकार मच गया. एक ओर शहीद रणवीर की जयजयकार से आसपास का सारा इलाका गुंजित हो रहा था, दूसरी ओर उस के पार्थिव शरीर को देखते ही घर में रुदन, चीखपुकार का दृश्य दिल दहला रहा था. शाम होतेहोते पूरे राजकीय सम्मान के साथ रणवीर का अंतिम संस्कार हो गया.

घर में गहरी उदासी छाई थी. रणवीर की मां को अभी तक यकीन नहीं हो रहा था कि उस का लाड़ला दुनिया से विदा हो चुका है. वे रो नहीं रही थीं बल्कि विस्फारित आंखों से देख रही थीं. कुछ महिलाएं उन्हें रुलाने की असफल कोशिश कर रही थीं.

सब से दयनीय हालत शहीद रणवीर की पत्नी रेवती की थी. रेवती सिर्फ 3 वर्षों पहले इस घर में सजीले रणवीर की बहू बन कर आई थी. राजपूती कदकाठी, चेहरे पर नूर, आंखों में अथाह मस्तीभरी थी. इन्हीं गुणों को देख रणवीर ने पहली बार देखने पर ही विवाह की हामी भर दी थी. दानदहेज न मिलने की आशंका पहले से ही थी. रेवती पितृविहीन थी. घर में मां और छोटा भाई था. रेवती के बहू बन कर आते ही घर में उजाला सा हो गया. रणवीर 2 महीने की छुट्टी पर आता. घर में रौनक हो जाती थी.

दोनों भाई मिल कर रेवती से हंसीमजाक करते थे. रेवती हाजिरजवाब थी. उस के खुशमिजाज स्वभाव से सारा घर गुलजार रहता. वही रेवती आज पति की मृत्यु के गहरे आघात से बेहोश पड़ी थी. विवाह के 2 महीने बाद ही रणवीर चला गया था. रेवती ने ससुराल में बड़ी बहू की जिम्मेदारी को बड़ी कुशलता से संभाल लिया था. रणवीर साल में एक या दो बार आता. परिवार को साथ नहीं रख सकता था. इसलिए रेवती ससुराल में ही रही.

जिस रेवती के रूपशृंगार से सारा घर दमकता था, उसी शृंगार को उजाड़ने के लिए रूढि़वाद समाज डट कर खड़ा हो गया. रिश्तेनाते, पड़ोस की महिलाएं बेहोश रेवती को पानी डालडाल कर होश में ला रही थीं. उन में से कुछ बड़ी बेदर्दी से उस की चूडि़यां तोड़ने, मांग का सिंदूर, बिंदी मिटाने, मंगलसूत्र, पायल, और बिछुए जैसी सुहाग की निशानियां उतारने के लिए बड़ी तत्परता से जुटी थीं. रेवती के ऊपर अमानवीय अत्याचार इस पढ़ेलिखे समाज के सामने होते रहे. परंतु कहीं से कोई विरोध का स्वर नहीं उठा.

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देखतेदेखते चौथे की बैठक भी हो गई. थोड़ी सी जयजयकार करवा कर बेचारा रणवीर पत्नी को निसंतान छोड़ कर दुनिया से चला गया. पीछे अनेक ज्वलंत समस्याएं रह गईं जो अभी पत्नी और परिवार वालों को सुल झानी शेष थीं.

हर साल देश में आतंकवाद के नाम पर, नक्सलवादियों के हमलों में निर्दोष जवान शहीद होते हैं. चंद दिनों की जयजयकार कर समाज उन्हें भुला देता है और उन के परिवारों को  असहाय हाल में छोड़ दिया जाता है. उन को किनकिन संकटों से गुजरना पड़ता है, यह तो उन की विधवाएं या परिवार ही जानते हैं. परिवार वाले क्याक्या कुर्बानियां देते हैं, यह कोई नहीं जानता.

रेवती के इस उजड़े रूप को देखना सभी के लिए मुश्किल था. सहसा देख कर विश्वास नहीं होता कि यह वही रेवती है जो राजस्थान की परंपरागत पोशाक लहंगाचुनर, जो चटकीले रंगों के होते हैं, लाख की चूडि़यां, माथे पर बोरला, पैरों में पायल पहने छमछम करती घर में घूमा करती थी.

अभी 2 महीने पहले ही तो रणवीर के छोटे भाई राजवीर की शादी में कितना नाची थी. सारे रिश्तेदार देखते ही रह गए. कभी घूमरघूमर कर पद्मावती की तरह नाचती, तो कभी ‘मोरनी बागा में बोले आधी रात में…’ गाने की धुन पर नाचती. रणवीर को भी पकड़ कर साथ नाचने के लिए बाध्य करती. रोशनी से नहाई कोठी आज रणवीर की शहादत के बाद अंधेरे में डूबी सी उदास खड़ी थी.

कुछ दिनों बाद दुनिया पहले की तरह चलने लगी. राजवीर का औफिस उसी शहर में था. उस ने औफिस जाना शुरू कर दिया. देवरानी भी एक स्कूल में लग गई. रेवती को कुछ समय के लिए मायके भेज दिया गया. मायके में मां और भाईभाभी ही थे. मायके में जा कर रेवती का मन और व्यथित हो गया. रणवीर के साथ, या राखी, भाईदूज पर जब वह आती तो मां, भाईभाभी मानो बिछबिछ जाते. पूरे सजधज में जब वह आती तो महल्ले के लोग भी उस को देख रश्क करते. मां बचाई जमापूंजी से अच्छी से अच्छी खातिर करने की कोशिश करतीं. रेवती सब के लिए उपहार और मिठाई ले कर जाती. इस बार हालात बदल चुके थे.

रेवती का ऐसा उजड़ा रूप, मुख पर गहरी उदासी देखी नहीं जा रही थी. उस के मायके में पहुंचते ही एक बार फिर रुदनविलाप के स्वर गूंजे. बहुत नजदीकी पड़ोस वाले भी आ कर जमा हो गए. कुछ महिलाएं आत्मीयता और सहानुभूति दिखाने के लिए स्वर में स्वर मिला रोेने लगीं. कुछ पड़ोसिनें तो बजाय रेवती को दिलासा देने के, उस के बुरे समय के किस्से कहने लगीं. कुछ देर बाद मातमपुरसी को आई महिलाओं को हाथ जोड़ते हुए विदा किया गया. रेवती एक मूर्ति की तरह अंदर सिर  झुका कर बैठ गई.

मायके में कुछ दिन निकल गए. पर अब रेवती को अपने प्रति सब का बदला हुआ व्यवहार महसूस होने लगा. मां की डोर भी भाईभाभी के हाथ में थी. विधवा बेटी के लिए कुछ नहीं कर पातीं. उधर, भाभी का फुसफुसाते हुए उस के बारे में बातें करना वह कितनी बार सुन चुकी थी. जब भाभी तैयार हो कर घूमने या किसी आयोजन में जातीं, तो रेवती से छिप कर निकलतीं. मां भी इशारोंइशारों में रेवती को संकेत दे चुकी थीं कि शुभ अवसरों पर कमरे के अंदर ही बैठना.

रेवती का मन अब मायके से उचाट हो गया था. जाए तो कहां जाए? जब तक ससुराल से कोई बुलाए नहीं, वहां भी तो नहीं जा सकती. एक दिन अचानक देवर लेने आ गया. उसे कुछ तसल्ली हो गई. दरअसल, रणवीर के औफिस में कुछ जरूरी कागजात पर साइन करने के लिए रेवती को बुलाया गया था. रेवती उसी दिन ससुराल के लिए लौट गई. मां या भाईभाभी किसी ने भी उसे दोबारा आने को नहीं कहा. रेवती का दिल अंदर ही अंदर टुकड़ेटुकड़े हो गया. इसी मायके के लिए वह कैसी उतावली रहा करती थी.

ससुराल में भी जा कर मन को शांति न मिली. 3-4 दिन ससुर के साथ रणवीर के औफिस जाने में बीत गए. जो पैसा मिला, उस की रेवती के नाम की एफडी बनवा दी गई. पहले सास और बहू मिल कर घर के काम पूरे कर लिया करती थीं. शाम को देवरानी भी साथ देती थी. अब सास एकदम कमजोर हो गई थीं. बातचीत भी कम ही करतीं. ससुर सारा दिन अखबार या टीवी देख समय बिताते. देवरदेवरानी सुबह से गए, शाम को घर आते.

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देवरानी रसोई में आ कर रेवती का हाथ बंटाती. वह अपनी स्कूल की दिनचर्या, सहकर्मियों के साथ की गई बातचीत, बच्चों की मासूम शरारतों के बारे में बताती रहती. रेवती के पास तो कुछ भी नहीं होता बताने को. वह मन मसोस कर काम में लगी रहती. सोचती, एक बच्चा ही होता तो जिंदगी कट जाती. अब सास तो शारीरिक कमजोरी की वजह से कहीं आतीजाती न थीं. घर में ही सोच में पड़ी रहतीं. किसी विशेष दिन या त्योहार पर रेवती ही परिवार की ओर से मंदिर में चढ़ावा, दान आदि देने जाने लगी.

एक दिन रेवती ने सुना कि मंदिर में एक बहुत पहुंचे हुए साधु महाराज

10 दिन के लिए आने वाले हैं. वह कई सालों में से किसी घने अरण्य में तपस्या में लीन थे. उन्हें सिद्धि प्राप्त हो गई है. अब वे मानव कल्याण हेतु विभिन्न मंदिरों में जा कर प्रवचन देंगे और भक्तों की समस्याओं का निदान करेंगे. यह सुन रेवती को मानो राह मिल गई. उस ने सोचा, साधुमहाराज से अपने कष्टों के निवारण के लिए उपाय पूछेगी.

अगले दिन रेवती ने जल्दी ही घर के काम निबटा लिए. वह मंदिर में जा कर साधुमहाराज के दर्शन के लिए खड़ी हो गई. कुछ ही देर में एक फूलों से सजी जीप में अपने अनुयायियों के साथ एक युवा साधु उतरे. उन के उतरते ही वहां खड़ी भीड़ ने फूलों की वर्षा के साथ गगनभेदी जयजयकार से पूरा इलाका गुंजित कर दिया. मंदिर के अन्य सेवकजनों ने उन्हें बड़े सम्मान से अंदर ले जा कर एक ऊंची गद्दी पर विराजमान कर दिया.

रेवती भी भीड़ में धक्के खाती अंदर जा श्रद्धालुओं के साथ साधुमहाराज के सामने नीचे बिछी दरी पर जा बैठी. एक लोटा ताजा जूस पी कर साधुमहाराज ने अपना प्रवचन देना आरंभ कर दिया. बीचबीच में वे भजन भी गाते जिस में जनता उन का अनुकरण करती. रेवती तो साधुमहाराज के बिलकुल सामने बैठी थी. वह तो ऐसी मंत्रमुग्ध हुई कि आंखों से अविरल आंसू बह निकले. प्रसाद ले अभिभूत सी घर पहुंची.

बहुत दिनों बाद आज न जाने कैसे वह सासससुर से बोली, ‘‘आप दोनों का खाना लगा दूं?’’ दोनों ने हैरानी से हामी भर दी. रणवीर की मृत्यु के बाद रेवती एकदम चुप हो गई थी. घर में किसी से बात न करती. बेमन से खाना बना अपने कमरे में चली जाती. देवरदेवरानी अपने काम पर चले जाते. दोपहर को ससुर कांपते हाथों से खाना गरम कर पत्नी को देते और खुद भी खा लेते. रेवती बहुत कम खाना खाती. कभी कोई फल, कभी दही या छाछ पी लेती. उस की भूख मानो खत्म सी हो गई थी. उस ने जल्दी से खाना गरम किया और दोनों की थालियां लगा लाई. यही नहीं, पास बैठ कर मंदिर में सुने प्रवचन के बारे में भी बताने लगी.

सासससुर दोनों ने सांत्वना की सांस ली, चलो, अच्छा हुआ बहू का किसी ओर ध्यान तो लगा. वे इतने नए एवं उच्च विचारों के नहीं थे कि बहू की दूसरी शादी के बारे में सोचते अथवा आगे पढ़ाई करवाने की सोचते. राजस्थान के परंपरागत रूढि़वादी परिवार के थे जो इतना जानते थे कि पति की मृत्यु के साथ उस की पत्नी का जीवन भी खत्म हो गया. पति की आत्मा की शांति हेतु आएदिन व्रतअनुष्ठान चलते रहे. बहू का पूजापाठ में रु झान देख कर दोनों ने उस की प्रशंसा करते हुए रोज समय पर मंदिर जाने की सलाह दी.

अगले भाग में पढ़ें- रणवीर की शहादत के बाद वह अवसाद की ओर चली गई थी.

काश, मेरा भी बौस होता

आज फिर अनीता छुट्टी पर है. इस का अंदाज मैं ने इसी से लगा लिया कि वह अभी तक तैयार नहीं हुई. लगता है कल फिर वह बौस को अदा से देख कर मुसकराई होगी. तभी तो आज दिनभर उसे मुसकराते रहने के लिए छुट्टी मिल गई है.

मेरे दिल पर सांप लोटने लगा. काश, मेरा भी बौस होता…बौसी नहीं…तो मैं भी अपनी अदाओं के जलवे बिखेरती, मुसकराती, इठलाती हुई छुट्टी पर छुट्टी करती चली जाती और आफिस में बैठा मेरा बौस मेरी अटेंडेंस भरता होता…पर मैं क्या करूं, मेरा तो बौस नहीं बौसी है.

बौस शब्द कितना अच्छा लगता है. एक ऐसा पुरुष जो है तो बांस की तरह सीधा तना हुआ. हम से ऊंचा और अकड़ा हुआ भी पर जब उस में फूंक भरो तो… आहा हा हा. क्या मधुर तान निकलती है. वही बांस, बांसुरी बन जाता है.

‘‘सर, एक बात कहें, आप नाराज तो नहीं होंगे. आप को यह सूट बहुत ही सूट करता है, आप बड़े स्मार्ट लगते हैं,’’ मैं ऐसा कहती तो बौस के चेहरे पर 200 वाट की रोशनी फैल जाती है.

‘‘ही ही ही…थैंक्स. अच्छा, ‘थामसन एंड कंपनी’ के बिल चेक कर लिए हैं.’’

‘‘सर, आधे घंटे में ले कर आती हूं.’’

‘‘ओ के, जल्दी लाना,’’ और बौस मुसकराते हुए केबिन में चला जाता. वह यह कभी नहीं सोचता कि फाइल लाने में आधा घंटा क्यों लगेगा.

पर मेरी तो बौसी है जो आफिस में घुसते ही नाक ऊंची कर लेती है. धड़मधड़म कर के दरवाजा खोलेगी और घर्रर्रर्रर्र से घंटी बजा देगी, ‘‘पाल संस की फाइल लाना.’’

‘‘मेम, आज आप की साड़ी बहुत सुंदर लग रही है.’’

वह एक नजर मेरी आंखों में ऐसे घूरती है जैसे मैं ने उस की साड़ी का रेट कम बता दिया हो.

‘‘काम पूरा नहीं किया क्या?’’ ठां… उस ने गरम गोला दाग दिया. थोड़ी सी हवा में ठंडक थी, वह भी गायब हो गई, ‘‘फाइल लाओ.’’

दिल करता है फाइल उस के सिर पर दे मारूं.

‘‘सर, आज मैं बहुत थक गई हूं, रात को मेहमान भी आए थे, काफी देर हो गई थी सोने में. मैं जल्दी चली जाऊं?’’ मैं अपनी आवाज में थकावट ला कर ऐसी मरी हुई आवाज में बोलती जैसी मरी हुई भैंस मिमियाती है तो बौस मुझे देखते ही तरस खा जाता.

‘‘हां हां, क्यों नहीं. पर कल समय से आने की कोशिश करना,’’ यह बौस का जवाब होता.

लेकिन मेरे मिमियाने पर बौसी का जवाब होता है, ‘‘तो…? तो क्या मैं तुम्हारे पांव दबाऊं? नखरे किसी और को दिखाना, आफिस टाइम पूरा कर के जाना.’’

मन करता है इस का टाइम जल्दी आ जाए तो मैं ही इस का गला दबा दूं.

‘‘सर, मेरे ससुराल वाले आ रहे हैं, मैं 2 घंटे के लिए बाहर चली जाऊं,’’ मैं आंखें घुमा कर कहती तो बौस भी घूम जाता, ‘‘अच्छा, क्या खरीदने जा रही हो?’’ बस, मिल जाती परमिशन. पर यह बौसी, ‘‘ससुराल वालों से कह दिया करो कि नौकरी करने देनी है कि नहीं,’’ ऐसा जवाब सुन कर मन से बददुआ निकलने लगती है. काश, तुम्हारी कुरसी मुझे मिल जाती तो…लो इसी बात में मेरी बौसी महारानी पानी भरती दिखाई देती.

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उस दिन पति से लड़ाई हो गई तो रोतेरोते ही आफिस पहुंची थी. मेरे आंसू देखते ही बौसी बोली, ‘‘टसुए घर छोड़ कर आया करो.’’ लेकिन अगर मेरा बौस होता तो मेरे आंसू सीधे उस के (बौस के) दिल पर छनछन कर के गरम तवे पर ठंडी बूंदों की तरह गिरते और सूख जाते. वह मुझ से पूछता, ‘क्या हुआ है? किस से झगड़ा हुआ.’ तब मैं अपने पति को झगड़ालू और अकड़ू बता कर अपने बौस की तारीफ में पुल बांधती तो वह कितना खुश हो जाता और मेरी अगले दिन की एक और छुट्टी पक्की हो जाती.

कोई भी अच्छी ड्रेस पहनूं या मेकअप करूं तो डर लगने लगता है. बौसी कहने लगती है, ‘‘आफिस में सज कर किस को दिखाने आई हो?’’ अगर बौस होता तो ऐसे वाहियात सवाल थोड़े ही करता? वह तो समझदार है, उसे पता है कि मैं उस के दिल के कोमल तारों को छेड़ने और फुसलाने के लिए ही तो ऐसा कर रही हूं. वह यह सब जान कर भी फिसलता ही जाएगा. फिसलता ही जाएगा और उस की इसी फिसलन में उस की बंद आंखों में मैं अपने घर के हजारों काम निबटा देती.

पर मेरी किस्मत में बौस के बजाय बौसी है, बासी रोटी और बासी फूल सी मुरझाई हुई. उस के होेते हुए न तो मैं आफिस टाइम पर शौपिंग कर पाती हूं, न ही ससुराल वालों को अटेंड कर पाती हूं, न ही घर जा कर सो पाती हूं, न ही अपने पति की चुगली उस से कर के उसे खुश कर पाती हूं और न ही उस के रूप और कपड़ों की बेवजह तारीफ कर के, अपने न किए हुए कामों को अनदेखा करवा सकती हूं.

अगर मेरा बौस होता तो मैं आफिस आती और आफिस आफिस खेलती, पर काम नहीं करती. पर क्या करूं मैं, मेरी तो बौसी है. इस के होने से मुझे अपनी सुंदरता पर भी शक होने लगा है. मेरा इठलाना, मेरा रोना, मेरा आंसू बहाना, मेरा सजना, मेरे जलवे, मेरे नखरे किसी काम के नहीं रहे.

इसीलिए मुझे कभीकभी अपने नारी होने पर भी संदेह होने लगा है. काश, कोई मेरी बौसी को हटा कर मुझे बौस दिला दे, ताकि मुझे मेरे होने का एहसास कराये.

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तलाकशुदा माता-पिता बच्चे को कैसे दें खुशहाल जीवन

निधि और सुधीर का वर्ष 2000 में अलीगढ़ में परीकथा जैसा प्रेम हुआ था जो बाद में विवाह में परिवर्तित हो गया था. शुरू के कुछ सालों तक सब ठीक रहा पर बाद में दोनों के वैचारिक मतभेद खुल कर सामने आने लगे. दोनों का प्रेमविवाह था, इसलिए अपने परिवार से उन्हें किसी सहायता की उम्मीद नहीं थी. खराब रिश्ते के कारण घर में घुटन इस कदर बढ़ी कि उन की बेटी आनंदी एक दिन बिना बताए न जाने कहां गुम हो गई.

नागपुर में रहने वाली सोनल और चेतन का विवाह भी बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था. दरअसल, चेतन का अपने साथ काम करने वाली महिला सहकर्मी से रिश्ता कायम हो गया था, जो वह अब चाह कर भी भुला नहीं पा रहा था. घर में रातदिन की सोनल और चेतन की किचकिच का सीधा असर उन की बेटी देविका पर हो रहा था. चेतन अपराधबोध के कारण न तो विवाह से बाहर आ पा रहा था और न ही प्रेम के कारण अपनी महिला सहकर्मी को छोड़ पा रहा था. ऐसे में सोनल ने एक समझदार मां और महिला का परिचय देते हुए न केवल चेतन को इस अनचाहे रिश्ते से आजाद कराया बल्कि खुद को और अपनी बेटी देविका को भी दर्द के रिश्ते से आजाद कर दिया था.

यह सच है कि बच्चे को माता और पिता दोनों की आवश्यकता होती है, पर एक घुटनभरे माहौल में दोनों मातापिता के साथ से अच्छा है कि बच्चा माता या पिता किसी एक के साथ सुकूनभरी जिंदगी के सारे रंग जिए.

सुषमा और राजीव ने जब देखा कि उन की लड़ाइयों का उन के बेटे रचित पर विपरीत असर हो रहा है तो आपसी सहमति से वे दोनों अलग हो गए. आज रचित अपने पापा राजीव के साथ रहता है और पहले से अधिक खुश है. उधर, सुषमा ने भी दूसरा विवाह कर लिया है. लेकिन रचित के मन में मां के प्रति कहीं कोई कड़वाहट नहीं है.

रचित के शब्दों में, ‘‘पहले घर में मैं अकेलापन महसूस करता था. अब पापा के साथ मैं बहुत खुश रहता हूं. मम्मी भी अब महीने में एक बार आती हैं तो हम सब मिल कर खूब मजा करते हैं.’’

अगर एक दशक पहले तक देखें तो तलाक शब्द किसी भी परिवार के लिए एक बदनुमा दाग जैसा लगता था. पर आज समाज की सोच में काफी बदलाव आ गया है. अगर वैवाहिक रिश्ते में किसी भी कारण से कुछ मतभेद हैं तो जीवनभर कड़वाहट ढोने से अच्छा है, आप अलग हो जाएं. जो भी साथी बच्चे की ठीक से देखभाल कर सकता है, वह बच्चे को अपने साथ रख सकता है.

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बच्चा या बच्चे आप के लिए समस्या नहीं हैं बल्कि आप के जीवन को परिपूर्ण बनाने में सहायक होते हैं. कुछ सुझावों के जरिए इस बात को समझने की कोशिश करते हैं :

अपराधबोध को न पनपने दें : अगर आप सिंगल मदर या फादर हैं तो इस अपराधबोध में कतई न जिएं कि आप का बच्चा एक की कमी महसूस करता है. आप ने उसे एक घुटनभरे माहौल से निकाल कर उस पर बड़ा एहसान किया है. अगर आप खुद ही हर समय अपराधबोध से ग्रसित रहेंगे तो धीरेधीरे बच्चे को भी एहसास होने लगेगा कि उस के जीवन में कुछ तो कमी है.

प्लांड वैकेशन : बच्चे की स्कूल की छुट्टियों में उसे ले कर जरूर दर्शनीय स्थलों पर जाएं. अगर आप का बजट अधिक है तो आप विदेश यात्रा भी कर सकते हैं. यदि मां के पास है तो बच्चे के पिता को भी वहां बुला कर वह बच्चे की खुशी को दोगुना कर सकती है, पर ऐसा तभी करें जब आप एक्स हसबैंड के साथ सहज हों. तीर्थ यात्रा पर बिलकुल न जाएं क्योंकि वहां आप को दकियानूसी लोग ही मिलेंगे.

शेयर करें छोटीबड़ी बातें : यह ठीक है मातापिता अपनी संतान को अपनी हर बात बताना जरूरी और ठीक नहीं समझते हैं, पर आप और आप का बच्चा ही अब परिवार हैं, तो हर छोटीबड़ी बात आप उस के साथ जरूर शेयर करें. बच्चे के साथ उस के बचपन की बातें करें.

दोस्तों और रिश्तेदारों को करें आमंत्रित : दोस्तों और रिश्तेदारों को बीचबीच में घर पर बुलाते रहें. ऐसा करने से आप के घर का माहौल तो खुशनुमा रहेगा ही, साथसाथ आप का बच्चा भी सामाजिक तौरतरीके सीखेगा. पर नकारात्मक और छोटी सोच वाले रिश्तेदारों के लिए घर के दरवाजे बंद ही रखें.

खुल कर जिएं : अगर आप अपने बच्चे के साथ अकेले रहते हैं तो इस का मतलब यह नहीं है कि आप हर समय शहीदाना भाव लिए घूमते रहें. अपनी आय के अनुसार अपने शौक को जीवित रखें. अगर आप हर समय जिम्मेदारियों का टोकरा सिर पर रख कर चलेंगे तो ऐसे माहौल में आप का बच्चा भी दब्बू सा या डराडरा महसूस करेगा. महीने में एक बार सिनेमा देखें, बाहर होटल में डिनर भी एंजौय कर सकते हैं.

नए दोस्त बनाने के लिए करें प्रेरित: अपने बच्चे के दोस्तों के बारे में जानकारी रखें और उस के दोस्तों को समयसमय पर घर बुलाएं और साथ ही साथ अपने बच्चे को उन के घर जाने के लिए भी उत्साहित करें.

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आत्मनिर्भरता की ओर पहला कदम: आप और आप का बच्चा ही अब एकदूसरे के पूरक हैं, किसी और से कुछ उम्मीद न रखें. हर छोटे और अगर आवश्यक हो तो बड़े कामों में भी अपने बच्चे की मदद अवश्य लें. इस से आप के बच्चे को न केवल अपने और आप के बारे में सारी जानकारी रहेगी, बल्कि आप की मदद करतेकरते वह खुद भी आत्मनिर्भर हो जाएगा, जो उस के लिए बेहद आवश्यक भी है.

आर्थिक मदद लेने से न करें परहेज: एक पति और पत्नी में अलगाव या तलाक हो सकता है, पर बच्चे का मातापिता से रिश्ता नहीं टूट सकता है. भले ही बच्चा मां के पास रहता है और अगर उस की परवरिश और पढ़ाई इत्यादि के लिए मां को पैसों की आवश्यकता हो तो बच्चे के पिता से मदद मांगने में हिचकिचाएं नहीं. बच्चा पिता का भी है और अगर उन के पास पैसे होंगे तो वे अपने बच्चे की बेहतरी के लिए अवश्य योगदान करेंगे. ऐसा करने से आप भी थोड़ा हलका महसूस करेंगी और साथ ही साथ, बच्चे को भी यह लगेगा कि भले ही मातापिता अलग रहते हों पर उस के भविष्य के लिए वे दोनों एकल यूनिट की तरह काम करते हैं. यह बात बच्चे के आत्मविश्वास को कई गुना बढ़ा देगी.

होम्योपैथी : कैंसर के दुष्प्रभावों से बचने के लिए करवाएं इलाज

कैंसर एक गंभीर रोग हैं. लाखों लोग हर वर्ष कैंसर के कारण मौत के मुंह में चले जाते हैं. लेकिन सही समय पर कैंसर का इलाज किया जाएं तो  इसे ठीक किया जा सकता हैं. आईये जानें कि कैंसर क्या हैं और कैंसर के दुष्प्रभावों के इलाज में कैसे कारगर है होम्योपैथी. इस बारे में बता रहें है डा. कल्याण बनर्जी क्लिनिक.

कैंसर शरीर की कोशिका अथवा कोशिकाओं के समूह की असामान्य एवं अव्यवस्थित वृद्धि हैं, जो एक गांठ अथवा ट्यूमर का रूप ले लेती हैं. सभी असामान्य वृद्धि कैंसर नहीं होती. कैंसरयुक्त गांठ को मेलिग्नेंट गांठ तथा कैंसर रहित गांठ को विनाइन गांठ कहते हैं. कैंसर रहित गांठ विशेष हानिकारक नहीं होती, ये सामान्य गति से बढ़ती हैं. जबकि कैंसरयुक्त गांठ अत्यंत घातक होती हैं और असाधारण एवं तीव्र गति से आकार में बढ़ती हैं और दूसरे अंग को प्रभावित करती हैं.

  1. कैंसर और उसके उपचार का सबसे आम दुष्प्रभाव क्या हैं?

मोटे तौर पर अगर हम पारंपरिक चिकित्सा के जरिए विभिन्न प्रकार के कैंसर के उपचार के तौर-तरीकों को विभाजित करें तो हमें मुख्य तौर पर तीन तरीके मिलते हैं: सर्जिकल प्रबंधन, कीमोथेरेपी (हार्मोनल थेरेपी के विभिन्न रूपों सहित) और विकिरण. कैंसर के मरीजों के इलाज के लिए इन सभी तरीकों का या इनमें से कुछ तरीकों का उपयोग किया जाता है. हर तरीके के साथ दुष्प्रभाव का खतरा जुड़ा हुआ है.

सर्जिकल मामलों के लिए

सर्जरी की जगह का ठीक नहीं होना, इस जगह पर कोई और संक्रमण हो जाना या पुनरावर्ती चरण के दौरान किसी अन्य प्रणाली में संक्रमण हो जाना, दर्द निवारकों, एंटीबायोटिक्स और एनेस्थीसिया के प्रति प्रतिक्रिया. ये प्रतिक्रियाएं कभी-कभी बहुत गंभीर हो सकती है और आर्गन फेल्योर की नौबत आ सकती है. ऐसे मामलों में कैंसर के मूल प्रबंधन को तब तक के लिए रोक कर रखा जाता है जब तक आर्गन फेल्योर की जानलेवा स्थिति को ठीक कर दिया जाए या मरीज की हालत स्थिर हो जाए.

लिम्फोइडेमा

कैंसर से ग्रस्त मरीज जिन्होंने लिम्फ नोड हटाने की सर्जरी कराई है या जिन्हें उपचार के तहत रेडिएषन दिया गया है उन्हें लिम्फोडेमा होने का खतरा होता है. लिम्फोडेमा दर्दनाक सूजन है जो तब होता है जब षरीर का लसीका (लिम्फेटिक) द्रव का ठीक से संचरण नहीं हो पाता है और वह नरम ऊतकों में जमा होता रहता है.

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कीमोथेरेपी- कीमोथेरेपी लेने वाले मरीजों को भी उपचार के दौरान कई तहत के दुश्प्रभाव हो सकते हैं. उनमें प्रमुख हैं:

  • प्रतिरक्षा संबंधी समस्याएं
  • रक्त के थक्के बनना, आसानी से घाव होना और खून बहना, एनीमिया
  • हड्डियों की समस्या
  • कीमोब्रेन
  • दांतों की समस्याएं
  • दस्त
  • थकान
  • बाल झड़ना
  • मुँह में छाले
  • मतली और उल्टी
  • न्यूरोपैथी
  • दर्द
  • रैशेज
  • वजन में कमी या वजन बढ़ना
  • यौन और प्रजनन संबंधी समस्याएं
  • मनोवैज्ञानिक समस्याएं

विकिरण

रेडिएशन थिरेपी के कुछ सामान्य दुश्प्रभाव इस प्रकार हैं:

  • त्वचा संबंधी समस्याएं
  • थकान
  • दूसरी बार कैंसर का होना

2. इन दुष्प्रभावों को रोकने के लिए होम्योपैथिक समाधान कितने प्रभावी और सुरक्षित हैं?

होम्योपैथी का उपयोग लंबे समय से कैंसर के उपचार के दुष्प्रभावों का प्रबंधन करने के लिए किया जाता रहा है. हमारे क्लिनिक में हम हर दिन कैंसर के सौ से अधिक मामले देखते हैं. अधिकांश मरीज कैंसर के प्रबंधन के लिए क्लिनिक आते हैं. हमारे डॉक्टरों को अक्सर कैंसर के उपचार के दुष्प्रभावों का प्रबंधन करने के लिए भी बुलाया जाता है, जो सर्जरी या कीमोथेरेपी और विकिरण के प्रतिकूल प्रभावों से उत्पन्न होने वाली जटिलताएं हैं. ये प्रतिकूल प्रभाव उपचार के पूरा होने के कई वर्षों बाद भी प्रकट हो सकते हैं. क्लिनिक में कई वर्शों से कैंसर के हजारों मरीजों के इलाज के अनुभव के आधार पर हमने जो उपचार विकसित किया हैं उससे काफी संख्या में मरीज लाभान्वित हो रहे हैं.

कैंसर की सर्जरी वाली जगहों का ठीक नहीं हो पाना एक महत्वपूर्ण समस्या है जिसके कारण कीमोथेरेपी या विकिरण चिकित्सा की शुरुआत में देरी होती है. पारंपरिक चिकित्सा अक्सर इन रोगियों की मदद करने में सक्षम नहीं होती है. इन मामलों में होम्योपैथिक प्रबंधन की मदद से कैंसर वाली जगहों को ठीक करने में मदद मिलती है और अगर संक्रमण का कोई दूसरा मामला हो तो उसका भी उपचार किया जाता है.

3. क्या होम्योपैथी भी इन दुष्प्रभावों को पूरी तरह से ठीक करने या उनसे निपटने में मदद कर सकती है?

उपचार से उत्पन्न होने वाले हर प्रतिकूल प्रभाव को हर मामले में पूरी तरह से दूर नहीं किया जा सकता है. कुछ मामलों में, दुष्प्रभाव को या तो कम कर दिया जाता है या अच्छे तरीके से प्रबंधित किया जाता है. यह कीमोथिरेपी या विकिरण के कारण ऊतकों को होने वाले नुकसान पर निर्भर करता है. सर्जिकल मामलों में, यह इस बात पर निर्भर करता है कि ऊतकों को कितना हटाया गया है.

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4. जो रोगी लंबे समय से कैंसर से पीड़ित हैं और कीमोथेरेपी से गुजर रहे हैं, उनका प्रबंधन क्या एलोपैथिक दवाइयों से नहीं हो सकता है? ऐसे रोगियों में होम्योपैथी कितनी कारगर है? क्या इससे शरीर में ताकत आती हैै?

यह कैंसर मरीजों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण खंड है. कई मरीज जो दवाइयां ले रहे होते हैं वे पहले से ही बहुत अधिक होती है और वे और अधिक दवाइयां नहीं लेना चाहते हैं. वे इस दुश्चक्र को समझते हैं कि अगर उन्होंने कुछ और दवाइयां ली तो उन दवाइयों के दुश्प्रभावों से निबटने के लिए कुछ और दवाइयों की आवष्यकता होगी. ऐसे मरीजों के लिए होम्योपैथी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. कीमोथेरेपी के दुष्प्रभावों का समाधान करने के अलावा होम्योपैथी उन आकस्मिक बीमारियों को भी प्रभावी ढंग से प्रबंधित कर सकती है जिन बीमारियों का संबंध कैंसर से नहीं है और साथ ही साथ होम्योपैथी कैंसर का जो इलाज चल रहा है उसे भी प्रभावित नहीं करती है. इसके कारण मरीज डाक्टरी पर्ची में एलोपैथी दवाइयों को सीमित करने में सक्षम रहता है.

5. क्या होम्योपैथी कैंसर के इलाज का एकमात्र उपाय हो सकती है या क्या यह एलोपैथी का पूरक उपचार है?

डाॅ. कल्याण बनर्जी के क्लिनिक में दुनिया भर से कैंसर के रोगियों को रेफर किया जाता है. ओंकोलाॅजिस्ट, डाक्टर और दुनिया के सर्वाधिक आधुनिक अनुसंधान और उन्नत चिकित्सा केन्द्र मरीजों को होम्योपैथी उपचार तथा कैंसर एवं अन्य गंभीर बीमारियों के प्रबंधन के लिए इस क्लिनिक में भेजते हैं.

विभिन्न चरणों में विभिन्न प्रकार के कैंसर के लिए होम्योपैथी उपचार का एकमात्र तरीका है. कई मामलों में हमने पाया है कि हमने अपने क्लिनिक में जो उपचार विधि विकसित की है उसका उपयोग करने पर जो परिणाम आते हैं वे परम्परागत उपचार की तुलना में या तो समान हैं या कहीं अधिक बेहतर हैं. यह बात खतरनाक ब्रेन ट्यूमर, अग्नाशय के कैंसर और ओवेरियन कैंसर या अन्य बीमारियों के गंभीर मामलों में भी लागू होती है. इसके अलावा प्रोस्टेट कैंसर के उपचार में होम्योपैथी उपचार का अच्छा प्रभाव पड़ता है खास तौर पर आरंभिक अवस्था में.

क्लिनिक में आने वाले कैंसर के लगभग सत्तर प्रतिशत मामले ऐसे होते हैं जिनका उपचार कीमोथेरेपी और / या विकिरण चिकित्सा से नहीं किया जा सकता. हमने पाया कि हम ज्यादातर मरीजों का जीवन काल लंबा करने तथा उसके जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में सफल रहे हैं. हमने ऑन्कोलॉजिस्टों से इलाज कराने वाले मरीजों की तुलना में 50 प्रतिषत से अधिक मरीजों में जीवन प्रत्याषा में सुधार पाया.

6. एलोपैथी उपचार को रोकने के बाद भी कैंसर और कीमोथेरपी के दुश्प्रभावों का प्रबंधन करने के मामले में होम्योपैथी कितनी अच्छी है?

होम्योपैथी कीमोथेरेपी, विकिरण या कैंसर सर्जरी से उत्पन्न होने वाले लगभग सभी दुष्प्रभावों से निपटने में बेहद सफल है. हमारे किलनिक में आने वाले 80 प्रतिषत से अधिक मरीजों में कैंसर उपचार के दुश्प्रभावों का प्रबंधन केवल होम्योपैथी से ही होता है.

7. क्या होम्योपैथिक उपचार भी शरीर में कैंसर के दोबारा होने से रोकने में मदद करता है?

होम्योपैथी का उपयोग कैंसर की पुनरावृत्ति का भी समाधान करने के लिए किया जाता है. कैंसर की पुनरावृत्ति के जोखिम को कम करने के लिए दीर्घकालिक होम्योपैथी उपचार दिया जाता है. हम पाते हैं कि हमारे रोगियों में कैंसर की पुनरावृत्ति की दर बहुत कम है. यह निश्चित रूप से इन बातों पर निर्भर करता है कि कैंसर किस प्रकार का था, किस चरण में इसका निदान किया गया, रोगी की आयु क्या थी और क्या रोगी अन्य बीमारियों से पीड़ित था.

इलाज के बाद इन रोगियों का पांच साल के लिए फौलोअप बहुत जरूरी है. क्लिनिक में इलाज कराने वाले मरीजों में से 60 प्रतिषत से अधिक मरीज पांच साल के फौलोअप के बाद कैंसर से मुक्त पाए जाते हैं.

Budget 2020 : विपक्ष को भी नहीं आया समझ, आम-आदमी तो दूर की  बात

भारतीय जनता पार्टी में एक बात तो है, ये पार्टी रिकौर्ड बनाने और पुरानी रीति-नीति को ध्वस्त करने की इच्छाशक्ति रखती है. 2014 से 2019 तक हम कई मौकों पर ये सब देख चुके हैं. इस बात भी कुछ ऐसा ही हुआ. पहले एक पुरानी रीति पीएम मोदी ने गणतंत्र दिवस के दिन ही तोड़ दी. इस बार इंडिया गेट पर नहीं बल्कि शौर्य मेमोरियल पर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की गई. खैर बात करते हैं बजट 2020 की. मोदी सरकार पार्ट-2 का पहला बजट वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से संसद में पेश किया. इतिहास बनाने में वो भी पीछे नहीं हटीं.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक फरवरी को आम बजट पेश किया. इस दौरान वो 2 घंटे 40 मिनट तक भाषण पढ़ती रहीं. फिर भी आखिरी के दो पेज रह गए. जब वो भाषण खत्म ही करने वालीं थीं तभी उनकी तबियत भी बिगड़ गई. इसके बाद आखिरी पेज बिना पढ़ें ही सदन में रख दिया गया. हर बार की तरह इस बार भी बजट आम लोगों को बिल्कुल भी समझ नहीं आया. जीएसटी के बाद से वैसे भी बजट में कुछ क्लियर समझ नहीं आ रहा. लेकिन सवाल ये है कि आखिरकार जिस आम आदमी के लिए ये बजट बनाया जाता है अगर वो ही इसे समझ न पाए तो फिर क्या फायदा.

वित्त मंत्री के भाषण के बाद पीएम नरेंद्र मोदी भी सामने आए. उन्होंने बजट को सबसे बेस्ट बजट बता दिया. बताएं भी क्यों नहीं. सरकार के मुखिया तो वो ही हैं.

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि टैक्स छूट के लिए कर्मचारी भविष्य निध‍ि (EPF),नेंशनल पेंशन सिस्टम (NPS) और सुपरएनुएशन यानी रिटायरमेंट फंड में निवेश की संयुक्त ऊपरी सीमा 7.5 लाख रुपये तक कर दी है. इन तीनों में टैक्स छूट का फायदा मिलता है. बजट डौक्यूमेंट में कहा गया है, ‘यह प्रस्ताव किया जाता है कि एक साल में कर्मचारी के खाते में नियोक्ता द्वारा भविष्य निध‍ि, सुपरएनुएशन फंड और एनपीएस में निवेश की ऊपरी सीमा 7.5 लाख रुपये तय किया जाए.’

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अब इसका मतलब है कि अब किसी ने अगर इससे ज्यादा निवेश किया तो यहां पर टैक्स लगाया जाएगा. यह नया नियम 1 अप्रैल, 2021 से लागू होगा और आकलन वर्ष 2021-22 के लिए मान्य होगा. इसका मतलब यह है कि इन सभी योजनाओं में किसी कर्मचारी का एक साल में निवेश 7.5 लाख रुपये से ज्यादा है तो उस पर टैक्स लग जाएगा.

नया टैक्स स्लैब लेकिन समस्या वही पुरानी

लगता है अब सीए (चार्टर्ड एकाउन्टेंट) की मांग काफी बढ़ जाएगी. क्योंकि टैक्स में जो बदलाव किए गए हैं वो अब तक लोगों की समझ से परे है. नए टैक्स स्लैब में वित्त मंत्री ने 5 से 10 फीसदी तक की कटौती की घोषणा की है. इसकेके मुताबिक 5 लाख रुपये तक निजी सालाना कमाई पर कोई टैक्स नहीं देना होगा. अभी तक 2.5 लाख तक की कमाई ही टैक्स फ्री है. वहीं 2.5 से 5 लाख तक की कमाई पर पांच फीसदी टैक्स लगता है. वहीं नए टैक्स स्लैब में छूट की व्यवस्था खत्म कर दी गई है.

इसके बाद 5 लाख से 7.5 लाख तक की कमाई पर 10 फीसदी, इतनी सालाना निजी कमाई पर 20 फीसदी टैक्स देना होता था. 7.5 से 10 लाख तक की कमाई पर 20 फीसदी की जगह 15 फीसदी, 10 लाख से 12.5 लाख तक की कमाई पर 30 की जगह 20 फीसदी और 12.5 लाख से 15 लाख तक की आमदनी वालों को भी 30 फीसदी की जगह 25 फीसदी टैक्स देना होगा.

वहीं 15 लाख से ऊपर की कमाई पर पहले की तरह ही 30 फीसदी इनकम टैक्स चुकाना होगा. नए टैक्स स्लैब की शर्तों के मुताबिक अगर आप इनकम टैक्स रिटर्न भरते हैं तो आपके लिए यह नियम लागू होगा. नहीं तो पहले की तरह पांच लाख की निजी कमाई में 5 फीसदी का टैक्स चुकाना होगा. इसके साथ ही वित्त मंत्री ने कहा कि इनकम टैक्स में अगर छूट चाहिए तो पुरानी टैक्स व्यवस्था के मुताबिक चलना होगा.

मतलब कि पहले आपको टैक्स में 100 तरह की रियायतें मिलती थी. आसान भाषा में कहूं तो आप जब टैक्स पे करते थे अगर आप घर का रेंट, स्कूल की फीस, कोई पॉलिसी ली हो तो उतनी टैक्स में छूट मिल जाती थी. लेकिन अब जिसमें आपको 100 प्रकार की छूट का प्रावधान था  इसको घटाकर 30 कर दिया गया है. लेकिन यहां भी पेंच है. अब वो 30 चीजें क्या होगीं जिसमें आम आदमी को रियायतें दी जाएंगी वो अभी तक क्लीयर नहीं हुआ है.

टैक्स में छूट के लिए अब आपके पास दो विकल्प हैं. पुराने स्लैब को अगर आप चुनते हैं तो निवेश कर आप छूट पा सकते हैं, वहीं अब नए के मुताबिक आप इस राहत को खर्च करते हुए भी हासिल कर सकते हैं. चयन आपको करना है.

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इससे पहले बजट भाषण में वित्त मंत्री सीतारमण में कहा कि देश के लोगों के मन से टैक्स का डर दूर करना है. किसी को भी टैक्स की वजह से परेशान नहीं किया जाएगा. उन्होने कहा कि टैक्स देने वालों का शोषण बर्दाश्त नहीं करेंगे. इसके अलावा उन्होंने टैक्स चोरी करनेवालों के लिए कड़ा कानून बनाने की बात भी कही है. मंत्री ने कहा कि इसके लिए देश में टैक्स पेयर चार्टर बनाया जाएगा.

कई-कई हजार करोड़ की घोषणाएं सुनकर मानों ऐसा लगता है कि अब विकास की गंगा बहेगी और जमीनी स्तर पर भी बदलाव देखने को मिलेगा लेकिन होता कुछ भी नहीं है. बजट का रोना यही है…उल्टा सीधा सब एक समान…

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