अफसोस की बात है कि तार्किकता को तरजीह दे कर सत्ता से सवाल करने वाले छात्रों को देशद्रोही घोषित किया जा रहा है. देखा जाए तो यह देश की सामूहिक बौद्धिकता पर घातक हमला है. ऐसा लगता है छात्रों को सुनियोजित तरीके से उलझा कर शिक्षा का व्यवसायीकरण कर छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ किया जा रहा है.
शेक्सपियर का एक दुखांत नाटक है ‘हैमलेट’, इस का खलनायक कत्ल की ‘करामात’ से कुरसी पर कब्जा जमा लेता है. भय के भंवर और भ्रमजाल में उलझे देश की दुर्दशा पर नाटक का नायक प्रिंस हैमलेट यह कहता है, ‘‘देश के शरीर में जोड़ों की हड्डियां उखड़ी हुई हैं. हर तरफ अव्यवस्था का आलम पसरा हुआहै.’’
धर्म, संप्रदाय, जाति आदि की दीवारों को खड़ा कर आदमी को आदमी से जुदा करने की साजिशों को रचने का इतिहास बहुत पुराना है. हम अपने देश पर नजर डालें तो जो कुछ हमें जोड़ता रहा है उसे धर्म जागरण के नाम पर अब जोरजुल्म से तोड़ा जा रहा है.
‘बांटो और राज करो’ की पुरानी नीति का एक नया संस्करण इस वर्तमान दशक में देखने को मिला है. राज पर पकड़ मजबूत करने वालों ने अब जिस नीति को अपनाया है वह है- कुछ नया बखेड़ा खड़ा करते रहो, नया तमाशा दिखाते रहो और जनता का ध्यान मूल मुद्दे से हटा कर राज करते रहो. इसे ‘ध्यान बांटो और राज करो’ कहा जाता है.
यूनिवर्सिटीज और उन में पढ़ने वाली युवा पीढ़ी को बदनाम कर उन पर प्रहार करने का सिलसिला सत्ता ने खूब जोरशोर से जारी कर रखा है. इंग्लिश की प्रख्यात लेखिका और सोशल ऐक्टिविस्ट अरुंधति राय ने इस खतरे को भांपते हुए एकदो साल पहले ठीक ही कहा था कि वर्तमान सरकार देशवासियों को बौद्धिक कुपोषण यानी इंटैलेक्चुअल मालन्यूट्रिशन का शिकार बनाने की साजिश रच रही है. उच्च शिक्षा केंद्रों में वंचित वर्ग के प्रवेश को रोकने के लिए फीस में बेतहाशा वृद्धि की जा रही है. विद्यार्थियों से तर्कशक्ति छीनने के लिए उन्हें अंधआस्था पर आधारित पाठ्यक्रम परोसा जा रहा है. सोचने की शक्ति पैदा करने के बजाय उन के दिमाग में ऊलजलूल सूचनाएं एक षड्यंत्र के तहत ठूंसी जा रही हैं. शिक्षा का मुख्य मकसद तो दिमाग को सोचने के लिए प्रशिक्षित करना है, न कि पौराणिक तथ्यों को रट कर डिगरी का कबाड़ लेना.
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तार्किकता को तरजीह दे कर सत्ता से सवाल करने वालों को देशद्रोही घोषित किया जाने लगा है. आखिर तर्कशील युवा पीढ़ी से सत्ता के महारथी क्यों डरने लगे हैं? आज लाइब्रेरी में किताब पढ़ने वालों पर कहर बरसाया जा रहा है. यह देश की सामूहिक बौद्धिकता पर घातक हमला है.
रवींद्रनाथ टैगोर की एक कहानी है जिस में राजा अपने तोते को शिक्षित करने का आदेश देता है. राजा के मंत्रीगण और शिक्षाधिकारी शिक्षित करने के नाम पर तोते को इतने बंधनों में बांध देते हैं कि आखिरकार उस की मृत्यु हो जाती है. मंत्रीगण राजा को खबर देते हैं कि तोता पूरी तरह शिक्षित हो गया है. अब वह शोरगुल नहीं करता, पंख नहीं फड़फड़ाता है. इस कहानी के माध्यम से टैगोर शिक्षा के क्षेत्र में बंधनों व प्रहारों के दुष्प्रभावों को इंगित करते हैं. रवींद्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजी राज में यह कहानी लिखी थी. इसे अब लोकतंत्र के 7वें दशक में इस्तेमाल किया जा रहा है.
मुक्त सोच यानी फ्री थिंकिंग को बढ़ावा दे कर ही सृजनात्मक शक्ति से निर्माण का वातावरण बनाया जा सकता है. जबकि इस के विपरीत, हम विद्यार्थियों को जकड़नों में जकड़ते जा रहे हैं. शिक्षा, जिसे मुक्ति का साधन बनना था, वह स्वयं अनेक तरह की संकीर्णताओं और धर्म व जाति से बंध कर सत्ताधीशों के हाथ का खिलौना बन गई है.
‘न्यू इंडिया’ का झुनझुना थमा कर देश को कौर्पोरेट घरानों व अंधआस्थावानों के लिए मुफ्त की उपजाऊ जमीन बनाया जा रहा है. धर्म सत्ता व कौर्पोरेट घरानों ने साजिश रच कर देश को 2 तरह के भारत में बांट दिया है. एक भारत वह जो सत्ता से सवाल कर रहा है व उस की शोषणकारी व भेदभाव की नीतियों के खिलाफ आवाज उठा रहा है, विकास के नाम पर पूंजीपतियों के अंधाधुंध मुनाफे के खेल को रोकने की मांग कर रहा है, धर्मजाति या इलाके के नाम पर समुदायों के उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठा रहा है.
दूसरी तरफ, सत्ता द्वारा अपनी मनमरजी से कौर्पोरेट घरानों के हितों को साधने के लिए बनाया गया ‘न्यू इंडिया’ है जिस की राहुल बजाज जैसों की मामूली सी आलोचना भी देशभक्ति के तराजू में तौली जा रही है. आज सत्ता से सवाल करने वाले सब राष्ट्रद्रोही करार दिए जा रहे हैं. सत्ता और पूंजी का असर है कि मीडिया दिनरात इस ‘न्यू इंडिया’ का गुणगान करता रहता है. आमजन के मुद्दे पर कोई बात नहीं की जाती. सत्ता के खिलाफ एक शब्द भी देशद्रोह है. अब तो खुल कर कहा जा रहा है, ‘जो हमारे खिलाफ है वह देशद्रोही है.’ जेएनयू व जामिया पर किए गए प्रहार इसी के सुबूत हैं.
इन दोनों विश्वविद्यालयों के नाम से ही सत्ता को चिढ़ है. इसलिए ये इस के निशाने पर बने हुए हैं. इस मुगालते में मत रहिए कि जामिया के सब विद्यार्थी सिर्फ मुसलिम हैं. असलियत यह है कि जामिया यूनिवर्सिटी में 59 प्रतिशत से अधिक विद्यार्थी अन्य धर्मों के हैं. मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई के मामले में यह सैंट्रल यूनिवर्सिटी देश की सर्वोत्कृष्ट यूनिवर्सिटी मानी जाती है.
विविधता और प्रतिनिधित्व के स्तर पर जेएनयू एक अर्थ में ‘मिनी इंडिया’ है. विचार और व्यवहार के स्तर पर लोकतंत्र की सर्वोच्च परंपराओं व असहमति के स्वर को रचाएबचाए जेएनयू ‘आइडिया औफ इंडिया’ को प्रतिबिंबित करता है. दरअसल, जेएनयू को आदर्श भारत का एक छोटा रूप कहा जा सकता है.
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यहां ऐडमिशन लेने वाले विद्यार्थी भारत के हर कोने के गांवढाणियों, कसबों और छोटेबड़े शहरों से आते हैं. ये सब बेहतर भविष्य के सपने अपनी आंखों में संजो कर यहां आते हैं. जिंदगी की राह पर तपन सह कर और राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कठिन प्रवेशपरीक्षा से गुजर कर वे इस विश्वविद्यालय तक पहुंचने में सफल होते हैं. जिंदगी में हर कदम पर खुद के बलबूते पर किया गया इन का संघर्ष इन्हें मजबूती देता है. विचारों का विटामिन इन्हें आगे बढ़ते रहने को प्रेरित करता है. इन के अटल इरादों को तोड़ना सत्ता के नशाखोरों के बस की बात नहीं. कम फीस पर कठिन परीक्षाओं के कारण हर वर्ग को यहां जगह मिली है. सिर्फ जयजयकार करने वालों को नहीं.
हम क्यों, कहां पीछे हैं
शिक्षा मानव सभ्यता की बेहतरी की पहली बुनियाद है. हर देश में समृद्ध व विकसित समाज का रास्ता शिक्षा से हो कर ही गुजरा है. जिन देशों को आज हम बेहतर व विकसित कहते हैं, उन्होंने सब से पहले अपने देश को शिक्षा के मंच पर खड़ा किया था. तमाम यूरोपियन देशों ने शिक्षा के क्षेत्र में समर्पण के साथ भारी निवेश किया था. सो, वहां के युवाओं में वैज्ञानिक सोच पैदा हुई. नएनए अनुसंधान हुए और वहां के समाज को इस का फायदा मिला.
देश सीमाओं, सेनाओं, बारूद के ढेरों, ऊंची इमारतों, पुलों, सड़कों से नहीं बनता है, देश शिक्षित व समृद्ध नागरिकों से बनता है. आज भारत में वह हर चीज वैश्वीकरण से हासिल
हो गई है जो दुनिया के समृद्ध समाजों/देशों के पास है, मगर जो चीज समाज/देश को खुद पैदा करनी होती है उस में यह बिलकुल हारा हुआ देश है. दुनिया की टौप 300 यूनिवर्सिटीज में भारत की कोई यूनिवर्सिटी नहीं है और टौप 500 में महज 6 हैं जिस में 5 आईआईटी संस्थान हैं व एक बेंगलुरु साइंस इंस्टिट्यूट. जबकि, जनसंख्या की दृष्टि से देखा जाए तो पूरे यूरोपअमेरिका को भारत अकेला कवर कर लेता है.
अशिक्षित समाज पूंजीवादी व्यवस्था में कभी खुशहाल नहीं हो सकता. आज शहरों में चमचमाते कौन्वेंट निजी स्कूल हैं तो दूसरी तरफ जर्जर सरकारी स्कूल हैं. उच्चवर्ग के लोगों की शिक्षा की व्यवस्था अलग व गरीब लोगों की शिक्षा व्यवस्था अलग यानी बहुसंख्यक आबादी को शिक्षा से वंचित रखने का सोचासमझा उपाय नजर आता है.
एक तरफ पौश कालोनियां बसी हैं तो दूसरी तरफ झुग्गियों के क्लस्टर हैं. पौश इलाकों में बड़ेबड़े निजी अस्पताल हैं तो झुग्गी बस्तियों में झोलाछाप डाक्टर. यह ऐसा विभेद है जो समाज को बांटता जाता है. आज उच्चवर्गीय समाज के कौन्वेंट स्कूलों में पढ़े बच्चे देश के गरीबों, गांव में बसने वालों को समाज का हिस्सा मानने के बजाय कमाई के ग्राहक मात्र समझते हैं.
शिक्षा समाज की मूलभूत आवश्यकता है व समाज को खड़ा करने का मूल भी. मगर पूंजीवादी व्यवस्था के आगमन के साथ शिक्षा सिमटने लग गई. चंद स्कूल या कालेजों के आउटपुट को सामने रख कर गुणगान भले ही कर लिया जाए, मगर साक्षरता से आगे शिक्षा नहीं बढ़ पा रही है. शिक्षित भारत के बजाय हम साक्षर भारत में ही फंस गए और साक्षर भारत भविष्य का निरक्षर भारत ही होगा.
हर देश में शिक्षा के प्रसार में सरकारी शिक्षा व्यवस्था ही कारगर रही है. निजी शिक्षा व्यवस्था अमीरों के बच्चों तक सीमित रह जाती है. 19वीं सदी में यूरोप व अमेरिका की सरकारी शिक्षा व्यवस्था ने वहां के समाज की कायापलट कर दी थी. फिर जापान, सोवियत संघ व कई साम्यवादी सरकारों ने इसे सरकार की जिम्मेदारी माना और अपने बच्चों को उपलब्ध करवाया. चीन हमारा पड़ोसी देश है. चीन की सस्ती चीजें हमारे यहां यों ही नहीं आई हैं. बल्कि चीन ने अपने बच्चों को सरकारी शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से समृद्ध किया और वे शिक्षित बच्चे नईनई तकनीक ईजाद कर के अपने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती दे रहे हैं.
लातिन अमेरिकी देश क्यूबा का ही उदाहरण ले लीजिए. साल 1969 के बाद फिदेल कास्त्रो ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से अपने देश के नागरिकों को इतना मजबूत बना दिया कि आधी सदी से अमेरिका उसे तोड़ने का अभियान चलाए हुए है, मगर हर नागरिक एक मिसाइलमैन की तरह खड़ा है. बिना बड़े हथियारों के एक छोटा सा द्वीप दुनिया के सब से ताकतवर देश के सामने डट कर खड़ा है. चाहे वह गरीब ही क्यों न हो. पर उस गरीबी के कारण वही संतुलित सोच है जो भारत में हिंदू धर्म के गुणगान के नाम पर परोसी जा रही है.
किसी भी देश को विदेशी खतरा हथियारों से नहीं, अपने कमजोर नागरिकों से होता है. दिमाग व पेट से कमजोर नागरिक सदा बिकने को तैयार रहेंगे. चाहे तो देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त लोगों का विश्लेषण कर के देख लीजिए. इसलिए, हथियारों की होड़ में फंस कर बजट खराब करने के बजाय शिक्षा में निवेश किया जाना चाहिए. भारत का शिक्षा बजट हमेशा 2 फीसदी के आसपास ही रहा है. इसे भी हायर एजुकेशन के नाम पर कुछ यूनिवर्सिटीज हड़प लेती हैं.
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आज जिस राह पर सरकार चल रही है यानी शिक्षा का बड़े पैमाने पर निजीकरण किया जा रहा है, शिक्षा महंगी की जा रही है, वह मुल्क के अंदर कई मुल्क खड़े करने वाली है. अखंड नहीं, खंडखंड भारत की तरफ रास्ता जा रहा है. विकसित नहीं, अराजक भारत बन रहा है.
छात्रों की आवाज दबाने की कोशिश
केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद लगातार शैक्षणिक संस्थाओं को निशाना बनाया जा रहा है. अपने पिछले कार्यकाल में भाजपा ने लगातार जेएनयू को बदनाम करने की कोशिश की. जब उस की यह साजिश कामयाब नहीं हो पाई तो सुनियोजित तरीके से सीधे अपने नकाबपोश गुंडे भेज कर हिंसा करवाई. यह भारतीय जनता पार्टी देश के छात्रों, युवाओं की आवाज दबा कर संविधान को कमजोर कर रही है.
भाजपा सरकार आरएसएस की सोच के अनुसार शिक्षा व शिक्षण संस्थानों में लगातार हमले कर रही है. पिछले 3 वर्षों में ऐसे कई मामले हैं जहां पर आरएसएस के संगठनों के अतिरिक्त सरकार के मंत्री सीधे तौर पर शिक्षण संस्थानों पर प्रयत्क्ष व अप्रत्यक्ष हमलों से जुड़े रहे हैं.
इन में से कुछ चर्चित संस्थान हैं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, एफटीआईआई पुणे, आईआईटी मद्रास आदि, जहां परिसर जनवाद पर तीखे हमले हुए हैं तथा लोकतांत्रिक संस्कृति को खत्म करने के प्रयास हुए हैं. पर इन सभी मामलों में छात्रों ने इन का एकता के साथ मुंहतोड़ जवाब दिया, जिस के चलते भाजपा सरकार को कई बार पीछे हटना पड़ा.
इन हमलों की आड़ में भाजपा सरकार बड़े ही गुपचुप तरीके से एक साजिश के तहत सार्वजनिक शिक्षा के ढांचे को नष्ट करने के लिए कार्यरत है, जिस की तरफ लोगों का ध्यान कम जा रहा है. यह बड़े ही सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है. छात्रों को उलझा कर गुपचुप तरीके से शिक्षा का व्यवसायीकरण तथा सांप्रदायीकरण किया जा रहा है. हर विश्वविद्यालय में ऐसे सेल बना दिए गए हैं.
जनता को भ्रमित करने में कुशल इस सरकार के लिए यह स्थिति ज्यादा अनुकूल है- जब कोई नीति नहीं, मतलब, कोई चर्चा व आलोचना नहीं. भाजपा का जब मन होता है तो यूजीसी तथा मानव संसाधन विकास मंत्रालय से अधिसूचना या यो कहें कि फतवा जारी कर दिया जाता है, बिना किसी चर्चा व संवाद के. इस तरह पिछले 6 वर्षों में भाजपा सरकार ने जनतांत्रिक संस्थानों व प्रक्रियाओं को खत्म करने का काम किया है.
भाजपा सरकार उच्च शिक्षा में पिछली यूपीए-2 सरकार की राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (रूसा) को ही आगे बढ़ा रही है, जो अपनेआप में शिक्षा के व्यवसायीकरण को ही आगे बढ़ाता है. रूसा के तहत कक्षा में पढ़नेपढ़ाने की प्रक्रिया व मूल्यांकन को पूरी तरह बदलने के प्रावधान हैं. छात्रों को परीक्षा और असाइनमैंट के कुचक्र में ही उलझा दिया है जिस से कक्षा में अध्यापन का समय बुरी तरह प्रभावित हुआ है. छात्र व अध्यापक में बातचीत में कमी आई है. अध्यापक भी अध्यापन को छोड़ कर बाकी सब कामों में लग गए हैं. जिन राज्यों में इसे लागू किया गया है वहां से छात्रों के गुस्से की लगातार खबरें आ रही हैं. परीक्षा परिणामों में भारी गड़बड़ी की खबरें आम बात हो गई हैं. दरअसल, मार्किंग का अधिकतर काम आउटसोर्सिंग के जरिए निजी कंपनियों को दिया गया जो छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ कर रही हैं.
अब सैमेस्टर परीक्षाओं के लिए औब्जैक्टिव टाइप प्रश्नों का प्रस्ताव लागू किया जा रहा है जो नियमित शिक्षा और परीक्षा की मूल भावना के ही खिलाफ है. योगी आदित्यनाथ का उत्तर प्रदेश सैमेस्टर के बीच में इसे लागू करने वाला पहला राज्य बना है, जहां मगध विश्वविद्यालय में इसे शुरू किया गया है. यह तथाकथित शिक्षा सुधार शिक्षा के ढांचे को बदल कर इसे महज डिगरीनुमा कागज के टुकड़े में तबदील करने के सिवा कुछ नहीं है. जैसे पंडितों को उपलब्धियां मिलती हैं, बिना पढ़े, बिना परीक्षा दिए.
देश में शिक्षकों के लाखों पद खाली पड़े हैं, उन पर नियुक्तियों के बजाय सरकार शिक्षकछात्र अनुपात बदल रही है. तकनीकी शिक्षा, जिस में दक्षता एक महत्त्वपूर्ण मापदंड है, में सरकार ने शिक्षकछात्र अनुपात पहले ही बदल दिया है. इस का पता हमें तब चला जब पिछले दिसंबर के पहले सप्ताह में एआईसीटीई ने स्ववित्त संस्थानों के अनुमोदन के लिए वर्ष 2018-19 की हैंडबुक जारी की जिस में शिक्षकछात्र अनुपात को 1:15 से बदल कर 1: 20 का निर्णय लिया गया है.
जेएनयू और अन्य विश्वविद्यालयों में शोध के क्षेत्र (एमफिल व पीएचडी) में सीटों को कम करने की यूजीसी की राजपत्रित अधिसूचना के चलते छात्रों के लिए शोध के अवसरों में भारी कमी आई है. यहां तक कि एमफिल के छात्र भी शोध में अपने भविष्य को ले कर निश्चिंत नहीं हैं क्योंकि पीएचडी में उन के संस्थानों में सीटें ही नहीं हैं. दरअसल, यह छात्रों को शोध में उच्चशिक्षा से वंचित करने का एक तरीका है.
भारत में उच्चशिक्षा में 62 प्रतिशत छात्र निजी शिक्षण संस्थानों में जाते हैं. प्राथमिक शिक्षा भी मुनाफे की इस दौड़ से नहीं बच पाई है. एक साजिश की तरह सरकारी प्राथमिक शिक्षा प्रणाली को बदनाम किया गया तथा साथ ही निजी शिक्षण संस्थानों को सरकार की नीतियों द्वारा बढ़ावा दिया गया. आज यह आम धारणा बन गई है कि सरकारी स्कूल अच्छे नहीं होते व अपने बच्चों को निजी स्कूलों में ही पढ़ाना चाहिए. राज्य सरकारें इस सार्वजनिक शिक्षा के ढांचे को पूरी तरह तबाह करने में जुटी हैं.
‘इंग्लिश मीडियम’ फिल्म की तरह बड़ी संख्या में छात्रों का सरकारी स्कूलों से प्राइवेट में पलायन हो गया है. सरकार कम छात्र संख्या का हवाला दे कर इन सरकारी स्कूलों को या तो बंद करने जा रही है या पीपीपी मौडल के आधार पर निजी हाथों में सौंपने जा रही है. राजस्थान सरकार ने पीपीपी मौडल पर 225 स्कूलों को चलाने का निर्णय लिया है, जिस का अर्थ है सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में देना.
मध्य प्रदेश सरकार ने कम बच्चों का हवाला देते हुए 15,000 सरकारी स्कूलों को बंद करने की योजना बनाई है. इसी तरह महाराष्ट्र सरकार ने करीब 13,905 स्कूलों को बंद करने का फैसला किया है. इसी तरह की खबरें ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा सहित कई राज्यों से आ रही हैं जहां सरकारों ने बड़ी संख्या में सरकारी स्कूलों को बंद करने का फैसला किया है.
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शिक्षा व छात्र मुद्दों पर बहस की दिशा बदल गई है. बीजेपी का प्रयास रहा है कि छात्रों को राष्ट्रवाद, धर्म, भारतीय सेना का मानसम्मान आदि मुद्दों में उलझाए रखा जाए जिस में कुछ हद तक वह सफल भी रही है क्योंकि छात्र भी उस के इस चक्र में फंस कर इन्हीं मुद्दों को स्पष्ट करने में लगे रहे हैं. हालांकि, छात्रों और जनता में इन मुद्दों पर स्पष्ट समझ रखना बहुत महत्त्वपूर्ण है. इस के अतिरिक्त आरएसएस व इस के संगठनों द्वारा अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, प्रगतिशील लेखकों तथा पत्रकारों पर लगातार बढ़ रहे हमलों ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि छात्रों का इन के खिलाफ आंदोलन व प्रचार करना बाध्यता बन गया. इन सब के चलते छात्रों के आधारभूत मुद्दे व सार्वजनिक शिक्षा के खिलाफ बीजेपी की साजिश कहीं अनदेखी रह गई, जो कि बराबर के महत्त्व की लड़ाई है.
समाज को प्रभावित करने वाली सामाजिक व आर्थिक नीतियों को समझना और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष छात्र आंदोलन की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी है क्योंकि छात्र समाज का अभिन्न हिस्सा हैं. सरकार विद्यार्थियों के मुद्दों से ध्यान भटकाने का प्रयास कर रही है. वैसे भी, उसे इस तरह का कुप्रचार कर जनता को अपने असल मुद्दों से गुमराह करने में महारत हासिल है. इसी के चलते पूरे देश में धार्मिक, जाति व राष्ट्रीय गौरव जैसे चर्चा के मसले थोपे गए हैं और रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं, आर्थिक विकास, कृषि संकट, महंगाई आदि असल मसलों पर चर्चा से मोदी सरकार बचती आई है.
एक द्वंद्वात्मक बात यह है कि हमें छात्रों के बुनियादी मांगों के संघर्ष को सामाजिक संघर्ष, सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष और जनवाद को बचाने के संघर्ष के साथ जोड़ना होगा. हम जानते हैं कि धार्मिकता और कुरसी की विकराल चुनौती का सामना करने के लिए छात्रों में एकता की आवश्कता है. छात्रों की एकता तब ही बनेगी जब छात्र अपने मसलों और शिक्षा पर हो रहे हमलों को समझ सकेंगे.