स्त्रीत्व को परिभाषित करने के लिए शब्द काफी नहीं हो सकते. स्त्री होना तो खुद में एक अनोखा अनुभव है जिस का सिर्फ एहसास ही किया जा सकता है. पुरुष ने हमेशा से ही स्त्री को कमजोर के रूप में ही चित्रित किया है. एक मजबूत शरीर और भारी आवाज वाली स्त्री में वे सौंदर्य बोध नहीं देख पाते. पर, यह बात पूरी तरह पूर्वाग्रह से ग्रस्त दिखती है.

दरअसल, स्त्री को हमेशा से ही एक भोग्या की तरह ही देखा गया है. समाज में उसे दोयम दर्जा दिया गया है. नारी कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारों के अंदर ही बनाया गया. क्रमिक रूप से नारी के मन में नाजुकता, कोमलता और सेवापरायणता जैसे शब्द बोए गए हैं. स्त्री को सिर्फ बच्चों को जन्म देना है, इसी में उस का जीवन पूर्ण होना है, ऐसी बातें उसे धर्म और सेवा के नाम पर बताई गई हैं.

पुरुष अपने मन ही मन में यह जानता रहा है कि स्त्री उस से हर क्षेत्र में श्रेष्ठ है. पुरुष को हमेशा ही मन में यह डर सताता रहता है कि कहीं स्त्री उस से आगे न बढ़ जाए और इसलिए पुरुष ने स्त्री को ममता की मूरत और घर की लक्ष्मी जैसे शब्दों से विभूषित किया है. उसे नख से ले कर शिख तक तरहतरह के आभूषणों से लाद दिया ताकि स्त्री को भी उस के विशेष होने का खयाल लगातार बना रहे और उस के साए में पुरुष अपना मिथ्या अहंकार पोषित करता रहे.

यह एक मनोविज्ञान है कि पुरुष का मिथ्या अहंकार ही है कि वह स्त्री को मात्र देह की तरह ही देखता है जिस का प्रमाण पौर्न फिल्में तथा महिलाओं के प्रति अश्लील चुटकुलों का प्रचार होना है. पुरुष का मिथ्या अहंकार तब चकनाचूर हो जाता है जब स्त्री उस को पछाड़ कर सामाजिक दौड़ में आगे निकलने लगती है.

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