दर्शकों ने तो पूरा लुत्फ उठाया लेकिन संस्कृति के ठेकेदारों के पेट में मरोड़े उठीं क्योंकि पहली बार किसी नाटक में स्त्री पुरुष के प्रेम संबंधों को बेहद वास्तविक और सहज रूप से दिखाने की हिम्मत किसी ने की थी. भोपाल के रवीन्द्र भवन में खेला गया नाटक जुगनू की जूलियट उस समय विवादों और आलोचनाओं से घिर गया जब इसमें कथित रूप से कुछ अश्लील दृश्य दिखाये गए. इफ्तेखार नाट्य समारोह के अंतर्गत इस नाटक की कहानी बेहद सपाट थी जिसमें नायिका चांदनी और नायक जुगनू एक दूसरे से प्यार करते हैं जो चांदनी के भाई सल्जू को नागवार गुजरता है.
सल्जू एक साजिश रचते चांदनी की शादी एक सजातीय युवक से तय कर देता है और चांदनी को धोखे में रखते बताता है कि उसकी शादी जुगनू से ही हो रही है. नाटक का अंत हिन्दी फिल्मों जैसा ही है. राज खुलने पर चांदनी और जुगनू 1981 में प्रदर्शित हिट फिल्म के सपना और बासु की तर्ज पर अपनी जान दे देते हैं.
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नाटक के बीच में यानि प्यार के दौरान कलाकारों ने दृश्यों को जीवंत कर दिया. नायक नायिका प्यार में डूबे एक दूसरे को किस करते हैं और अंतरंगता के दौरान कुछ कुछ सहवास की सी मुद्रा में आने से खुद को नहीं रोक पाते तो सहज समझा जा सकता है कि वे कथानक के प्रति किस हद तक समर्पित थे. उन्होने कोई मंचीय मर्यादाएं पार नहीं कीं बल्कि मंच से इतना भर दिखाया कि दरअसल में प्यार के दृश्य कितने वास्तविक तरीके से प्रस्तुत किए जा सकते हैं.
नाटक के समापन के बाद किसी और ने तो एतराज नहीं जताया बल्कि मीडिया को ही लगा कि नाटक में अश्लीलता थी जो भारतीय संस्कृति के खिलाफ है लिहाजा उन्होने हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि दिन दहाड़े अश्लीलता परोसी गई और सब देखते रहे कोई कुछ नहीं बोला. आरोप संस्कृति विभाग पर भी लगा कि वह नाटकों के मंचन के लिए भारी भरकम रकम तो देता है लेकिन नाटकों की स्क्रिप्ट और डायलोग्स पर लगाम नहीं कसता जिससे कला के नाम पर अश्लीलता फेल रही है. कुछ मीडियाकर्मियों ने चुंबन और लिपलौक दृश्यों के बाबत निर्देशक वसीम अली को घेरा तो वे घबरा कर बोले कि ये दृश्य तो नाटक में थे ही नहीं वो तो कलाकारों ने फ्लो में ऐसा कर दिया.
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देखा जाये तो नाटक में कुछ भी अश्लील या आपत्तिजनक नहीं था लेकिन लोगों की आदत सी पड़ गई है रामलीला नुमा दृश्यों को देखने की जिनमें कथित मर्यादाएं भी उन्हें धर्म और संस्कृति नजर आती हैं. ये संस्कृति रक्षक अगर कला के दायरे तय करेंगे तो तय है वह हरिश्चंद्र और सत्यवान सावित्री से आगे कहीं नहीं होगी.
नाटकों का आधुनिक होना बेहद जरूरी हो चला है क्योंकि इनके दर्शक लगातार घट रहे हैं कहने का मतलब यह नहीं कि दर्शकों को आकर्षित करने इनमें देह दर्शन और सेक्स जबरन परोसा जाये बल्कि यह है कि कहानी की मांग के मुताबिक दृश्यों पर बेवजह की हाय हाय बंद की जाये नहीं तो जो दर्शक अभी नाटकों को मिल रहे हैं वे भी खत्म हो जाएंगे और वैसे भी अश्लीलता और गैर अश्लीलता की परिभाषा या दायरे तय करने का जिम्मा दर्शक ही उठाएं तो ज्यादा अच्छा है.