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जब डेट पर जाएं सिंगल पेरैंट

सिंगल पेरैंटिंग अपनेआप में एक चैलेंज है. समाज और परिवार को आप से बहुत अपेक्षाएं होती हैं. ऐसे में आप जब एक बार फिर डेट पर जाने की सोचें तो कई बातों का खयाल रखना जरूरी है. देश में जैसे-जैसे तलाक के केस बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे सिंगल पेरैंट्स की संख्या भी बढ़ती जा रही है. ऐसे में अपने बच्चों की केयर करते हुए वे फिर किसी को डेट करें या नहीं, उन के सामने यह सवाल उठ खड़ा होता है.

सिंगल पेरैंट की बहुत सी जिम्मेदारियों के साथ यह स्थिति उन के लिए काफी जटिल होती है क्योंकि उन के दिमाग में अपने बच्चे की सुरक्षा और जरूरतें प्राथमिकता में होती हैं. 2 बच्चों की सिंगल पेरैंट मां सुलेखा कहती हैं, ‘‘जब आप सिंगल हो, आप पार्टी, डिनर, छुट्टी जब चाहे एंजौय कर सकते हैं, पर जब आप का बच्चा साथ हो, आप हर चीज बच्चे की टाइमिंग्स, उस की उम्र व उस की जरूरतों के अनुसार ही तय करते हो.’’

11 और 16 वर्षीय बेटों की सिंगल पेरैंट अंजलि का कहना है, ‘‘समाज और फैमिली की अलग ही उम्मीदें हैं, इसलिए मैं खुल कर डेट नहीं कर पाई. मुझे कोई गिल्ट नहीं था. पर मैं अपने पेरैंट्स के सामने डेटिंग नहीं कर पाई, यह स्वीकार करना मेरे पेरैंट्स के लिए मुश्किल था कि मैं आगे बढ़ रही हूं. उन्हें हमेशा यही आशा थी कि मैं अपने एक्स हस्बैंड के पास वापस चली जाऊंगी.’’

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प्राजक्ता देशमुख के अनुसार, ‘‘यह याद रखना चाहिए कि सुखी माता या पिता ही बैस्ट माता-पिता होते हैं और यदि डेटिंग से उन्हें खुशी मिल रही है तो उन के जीवन में यह खुशी आनी ही चाहिए. अपने नए पार्टनर को बच्चे के बारे में साफ बता देना चाहिए. पर बच्चों को अपने पार्टनर के बारे में बताने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए.’’

8 वर्षों से सिंगल पेरैंट रह रहीं रीता कहती हैं, ‘‘मैं अपने बच्चों के बारे में क्यों छिपाऊं? वे मेरे जीवन के सब से प्यारे लोग हैं. यदि कोई मेरे बच्चों को स्वीकार नहीं करता, तो बस, बायबाय. मैं अपने नए पार्टनर को पहले अपना दोस्त कह कर बच्चों से मिलवाती हूं. 4 साल मैं ने जिसे डेट किया, वे उस से 5 बार मिले. मुझे महसूस हुआ कि सिंगल पेरैंट के बच्चों के लिए भी यह स्थिति काफी कन्फ्यूजिंग होती है. उन के पास 2 अलगअलग रूल्स वाले घर होते हैं. ऐसे में आप एक नया पर्सन उन के सामने ले आते हैं तो और रूल्स जुड़ जाते हैं. तभी मैं ने तय कर लिया कि मैं सिंगल पेरैंट बन कर ही रहूंगी.’’

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7 साल के बेटे की सिंगल पेरैंट आरती की कोशिश रहती है कि डेटिंग से पहले नया व्यक्ति उस का अच्छा दोस्त बन जाए. वह मेरे बेटे को और मेरा बेटा उसे पसंद करता हो. दोनों एकदूसरे की कंपनी एंजौय करते हों. अगर मैं दोनों के बीच यह पौजिटिव एनर्जी देख लूंगी, तभी मैं आगे बढ़ने के बारे में सोच सकती हूं.’’ सिंगल पेरैंट अगर वर्किंग हैं तो उन के सामने सब से बड़ा चैलेंज होता है कि वे कैसे अपना टाइम मैनेज करें.

सुलेखा कहती हैं, ‘‘मैं 9 बजे के बाद वीकडेज में बाहर जाती हूं. मैं घर पर अपनी डेट से कभी नहीं मिलती. मेरे बच्चे वीकैंड पर अपने पिता के पास चले जाते हैं. मैं तब पूरी तरह से फ्री होती हूं.’’ आरती ने वीकैंड को बेटे के साथ टाइम बिताने के लिए रिजर्व रखा है. उस ने कह रखा है कि वह वीकडेज में ही मिल सकती है. वीकैंड में वह अपने बेटे को बाहर उस की पसंद की जगह ले कर जरूर जाती है. वह कभी डेट को अपने बेटे के सामने घर नहीं लाती और उस ने यह क्लियर कर रखा है कि बेटे से संबंधित जब भी कोई इमरजैंसी होगी, वह हर चीज पीछे छोड़ सकती है. वह कहती है, ‘‘अपने लिए टाइम मैनेज करना एक चैलेंज होता है. पहले बच्चा, फिर दोस्त, उस के बाद अपने लिए टाइम बचता है. कभीकभी थकान हो जाती है.’’

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पुरुषों के लिए स्थिति अलग 10 साल के बेटे के सिंगल पेरैंट अजय कहते हैं, ‘‘मेरी पत्नी के बजाय बेटे ने मेरे साथ रहना चुना. सिंगल पिता को महिलाएं ज्यादा विश्वसनीय डेटिंग औप्शन मानती हैं. मेरा बेटा मेरे साथ रहता है, इसलिए उन्हें लगता है कि मैं बहुत जिम्मेदार इंसान हूं. मेरा बेटा समझदार है. उसे नए लोगों से मिलने में कोई प्रौब्लम नहीं होती. वह हर जगह एडजस्ट कर लेता है. ‘‘मेरा रिलेशन लौंग टर्म चले या शौर्ट टर्म चले, मैं उन्हीं लोगों को बेटे से मिलवाता हूं जिन के बारे में मुझे पता होता है कि वे मेरे बेटे के साथ ठीक से रहेंगे. मेरी मां मेरे साथ रहती हैं, इसलिए मुझे किसी से मिलने बाहर भी जाना हो तो मेरे बेटे को देखने के लिए कोई घर पर होता है.

वैसे, मेरी प्राथमिकता काम पर से घर ही आने की होती है. मैं अपने बेटे के साथ कुछ समय बिताता हूं. साढ़े 9 बजे उस के सोने के बाद ही बाहर जाता हूं.’’ अजय कहते हैं, ‘‘सभी सिंगल पेरैंट्स को अपने बच्चों से खुली बात करनी चाहिए. बच्चे सवाल पूछते हैं. कुछ पेरैंट्स उन्हें चुप करा देते हैं. मैं यह कभी नहीं करता. वह चाहे कुछ भी पूछे, चाहे सैक्सुअलिटी पर ही, मैं जवाब देने की कोशिश जरूर करता हूं. जैसेजैसे बच्चे बड़े होते हैं, अपने आसपास बहुतकुछ देखते हैं. उन का सवाल पूछना स्वाभाविक है.

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बच्चों के साथ हैल्दी बात होने का माहौल रहना चाहिए. उन के साथ नम्र रहना चाहिए.’’ अंजलि ऐसी ही स्थिति से गुजरी हैं. कुछ साल पहले उन के बेटे ने पूछ लिया कि क्या वे किसी को डेट कर रही हैं? वे बताती हैं, ‘‘मेरी लाइफ में किसी के आने से वह खुद को इनसिक्योर समझने लगा. मुझे अजीब सी स्थिति से निबटना पड़ा. उसे समझना पड़ा कि किसी से मिलने, किसी के साथ मूवी जाने से मेरी लाइफ में उस का महत्त्व कम नहीं हो जाएगा. वह ही मेरी पहली प्राथमिकता रहेगा. अपने बच्चों से फ्रैंडली बात करने की आदत यहां बड़ी काम आई.’’

कई बार बच्चे खुद ही महसूस करने लगते हैं कि उन के पेरैंट्स के लिए कौन सही रहेगा. मोना बताती हैं, ‘‘मेरे सभी दोस्तों में मेरा बेटा अंदाजा लगा लेता है कि कौन मेरा अच्छा, सही दोस्त हो सकता है. जिन्हें मैं ने डेट किया, उन के बच्चों के साथ उन का कैसा संबंध रहा है, यह भी जानना जरूरी होता है. बच्चों का साथ होना आप को सिखा देता है कि लाइफ में क्या महत्त्व रखता है.’’

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आरती के अनुसार, बच्चों की जिम्मेदारी के चलते उन के सामने यह स्पष्ट था कि उन्हें लाइफ में अब क्या नहीं चाहिए. उस ने बताया, ‘‘जिस ने बच्चों को साइडलाइन करने की कोशिश की, उसे मैं ने साफसाफ न कहने में देर नहीं लगाई. जब आप अपने बच्चों की लाइफ, फ्यूचर, कैरियर के बारे में सोचते हो तो आप के सोचने का नजरिया कुछ और होता है. आप को लगता है कि किसी इडियट के साथ रहने से अच्छा है अकेले रहना.

सिंगल पेरैंट के लिए मेरी यही सलाह है कि भावनात्मक रूप से इनसिक्योर लोगों से दूर रहो. अपने इमोशंस, अपने बच्चों के इमोशंस और फिर तीसरे व्यक्ति के इमोशंस मैनेज करना बहुत मुश्किल है.’’

इसी कड़ी में आगे पढ़िए सिंगल पैरेट्स के लिए परफैक्ट डेटिंग टिप्स…

मुद्दा: जलकुंभी से खतरा

लेखक- रामकिशोर दयाराम

पंवार जलकुंभी की वजह से सतपुड़ा जलाशय 60 प्रतिशत घट चुका है. यदि इसे जल्दी ही जड़मूल से नष्ट न किया तो यह पूरे जलाशय को अपनी आगोश में जकड़ लेगी. मध्य प्रदेश की जीवनरेखा कही जाने वाली नर्मदा को कहीं आने वाले समय में चाइनीज झालर यानी जलकुंभी निगल न ले, इस बात पर चिंता करना और चतुराई दिखाना होगा. चाइनीज झालर ने वर्ष 1960 के दशक से नगरीय क्षेत्र की जीवनदायिनी तवा नदी पर बने सतपुड़ा जलाशय को बुरी तरह से अपनी आगोश में जकड़ लिया है.

नदियों की बहती जलधारा के संग जिस दिन तवानगर के तवा जलाशय को अपना शिकार बनाने के बाद ब्रांदा बांध में नर्मदा से मिलने जलकुंभी पहुंच गई उस दिन नर्मदा को अपने आंचल को बचाना मुश्किल हो जाएगा. वर्तमान समय में सतपुड़ा बांध अपने अस्तित्व की लड़ाई में सुरसारूपी चाइनीज झालर के जबड़े में जकड़ा अपने स्वरूप को बचाने के लिए हाथपांव मारने को विवश है.

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बैतूल जिले के सारणी स्थित सतपुड़ा ताप बिजलीघर के लिए 2,875 एकड़ में फैले सतपुड़ा जलाशय का 60 प्रतिशत भाग पिछले नवंबर में ही विदेशी खरपतवार से पट चुका है. चाइनीज झालर को जड़मूल नष्ट करने के लिए अगर अभी नहीं जागे तो बहुत देर हो जाएगी. सतपुड़ा जलाशय को बचाने का एकमात्र विकल्प सामूहिक प्रबंधन है जिस में सब की सहभागिता सुनिश्चित होनी जरूरी है. चाइनीज झालर जलकुंभी को वाटर हाइसिंथ कहते हैं. इसे समुद्र सोख भी कहा जाता है. यह एक विदेशी जलीय खरपतवार है. भारत में यह 1855 में कोलकाता में पहली बार देखी गई. बीते 164 वर्षों में कोलकाता में दिखी जलकुंभी ने देशभर के जलाशयों में तेजी से फैलना शुरू कर दिया.

नतीजा यह निकला कि वायुमार्ग से कहें या जलमार्ग से, किसी न किसी बहाने कोलकाता से बैतूल तक पहुंची इस जलकुंभी ने भयावह समस्या पैदा कर दी है. जलकुंभी पर अपनी रिसर्च रिपोर्ट प्रस्तुत कर चुके वैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में रोचक जानकारी को परोसा है जिस के अनुसार जिस जलाशय में जलकुंभी होती है, उस जलाशय के पानी का वाष्पीकरण 7 गुना तेजी से होता है. दरअसल, जलकुंभी में 90 प्रतिशत पानी होता है. इस वजह से यह पानी का वाष्पीकरण करने में सहायक है. छोटे तालाबों में यदि जलकुंभी फैल जाए तो उसे बहुत तेजी से सुखा देती है. वहीं, साल्विनिया मोलेस्टा, जिसे भी चाइनीज झालर कहते हैं, साउथ इंडिया में पाई जाने वाली इस खरपतवार को बैतूल जिले की विद्युत नगरीय सारनी क्षेत्र का मौसम उपयुक्त मिला, जिस के चलते यह खरपतवार कुछ ही दिनों में जलाशय के पानी के ऊपर किसी खेल मैदान की घास की तरह फैल गई.

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सतपुड़ा जलाशय में तीसरी सब से ज्यादा प्र्रभावित करने वाली खरपतवार हाइड्रा वर्टिसीलाटा है. यह पानी के भीतर पाई जाती है. इस के अलावा टाइफ समेत अन्य जलीय खरपतवार सतपुड़ा जलाशय में तेजी से फैल रही हैं. सतपुड़ा जलाशय को विदेशी खरपतवार से बचा पाना मुश्किल हो जाएगा, ऐसे संकेत खरपतवार अनुसंधान निदेशालय, जबलपुर, के डा. सुशील कुमार और डा. वी के चौधरी द्वारा दिए गए हैं. सामने आएंगे दुष्परिणाम जलाशय में तेजी से फैल रही खरपतवार के दुष्परिणाम गरमी के दिनों में सामने आते हैं. भारी बारिश के चलते कई बार सतपुड़ा जलाशय के गेटों को खोला जाता है तो जलाशय में पहाड़ी नदियों से मिट्टी, पत्थर के कण, शहरी नालों का मलबा और सतपुड़ा जलाशय की राख नहरों में पहुंचने लगते हैं जिस से उस की क्षमता घट जाती है. वर्ष 1960 में सतपुड़ा जलाशय के निर्माण के समय जलाशय की क्षमता 110 एमसीएम थी. वर्ष 2008 के सर्वे में 75 एमसीएम रह गई है. इसलिए गरमी के दिनों में पानी की किल्लत से इनकार नहीं किया जा सकता.

जलीय खरपतवार को निकालने का ठेका जिस कंपनी को दिया गया, उस ने कम दर पर काम का ठेका तो ले लिया लेकिन जलीय खरपतवार को जलाशय से पूरी तरह निकालना उस के लिए घाटे का सौदा साबित हुआ. शासकीय निविदा स्वीकृत दर से कम दर पर ठेका लेने के बाद जब सतपुड़ा जलाशय में जलकुंभी की जमीन को तलाशने के लिए गोताखोरी की गई तो जान गले में अटक गई. सफाई मशीन हुई बीमार जलाशय के विभिन्न चिह्नित 5 क्षेत्रों की सफाई के लिए मध्य प्रदेश पावर जनरेटिंग कंपनी ने एक करोड़ 36 लाख रुपए का टैंडर निकाला था. यह टैंडर एमबी (मठारदेव बाबा कंस्ट्रक्शन) कंपनी ने 24 लाख रुपए कम में यानी 1 करोड़ 2 लाख रुपए में ले लिया है. सफाई का कुल क्षेत्रफल 7 लाख 52 हजार 100 वर्गमीटर है. सफाई का कार्य एमबी कंपनी को 2 सालों तक करना है. 75.21 हैक्टेयर की सफाई का काम चरणजीत सिंह सैनी के 3 सहयोगी रमेश सरोज, शकील, ओ झा की सा झेदार कंपनी को दिया गया.

वीड़ हार्वेस्टर (नदियों में चल कर खरपतवार निकालने का काम करती है) मशीन आई जिसे पूरी खरपतवार को निकालना था. लेकिन असमय ही मशीन ने दम तोड़ दिया. 13 अक्तूबर, 2019 को बीमार मशीन इलाज कराने के लिए फरीदाबाद ले जाई गई. सो, सारनी में जो काम मशीन से होना था, वह अब मजदूरों द्वारा करवाया जा रहा है जिस के कारण पूरी तरह से जलकुंभी का निकलना दिल्ली की तरह दूर हो गया है. विदेशी परिंदों की जान को खतरा मध्य प्रदेश के सतपुड़ा जलाशय पिछले डेढ़ साल से साल्विनिया मोलेस्टा समेत अन्य खरपतवार से ग्रसित है. साल्विनिया मोलेस्टा नामक खरपतवार पानी में तेजी से फैलती है और पूरे पानी की सतह पर फैल जाती है. जिस वजह से देशविदेश से आने वाले प्रवासी पक्षियों को जलाशय में पानी नजर नहीं आता और पक्षी परेशान हो कर कहीं और चले जाते हैं. इस खरपतवार की वजह से जलाशय में मछलियों की भी मृत्यु होने लगी है. द्य हमारी बेडि़यां मेरी परिचित पड़ोसिन महिला मेरे घर आईं. वे कौलबैल न बजा कर अपनी चाबी की रिंग से गेट खटखटाने लगीं. मैं रसोई के काम में व्यस्त थी.

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हड़बड़ा कर खिड़की से बाहर झांक कर देखने लगी तो उन्हें पहचान गई. मैं वहीं से ऊंची आवाज लगा कर बोली, ‘‘गेट खुला ही है. आप हैंडल खोल कर अंदर आ जाइए.’’ वे गेट के पास ही खामोश, अनमनी सी खड़ी रहीं, तो मजबूर हो कर मुझे ही बाहर आना पड़ा. मैं ने बाहर आ कर गेट खोला और बोली, ‘‘गेट तो बस हैंडल से ही बंद था. आप उसे खोल कर अंदर क्यों नहीं आ गईं?’’ इस प्रश्न पर उन्होंने जवाब दिया, ‘‘लोगों के घरों में सफाई करने व कूड़ा उठाने वाले लोग भी बैल बजा कर अपनेआप गेट खोल कर कूड़ा लेने के लिए आते हैं और जाते समय गेट बंद भी करते हैं. उन के कारण बैल का स्विच और हैंडल गंदा हो जाता है. इसीलिए, मैं किसी के घर का गेट अपने हाथ से नहीं खोलती और कौलबैल भी नहीं बजाती.’’ मैं बरबस बोल पड़ी, ‘‘उन से ऐसी गंदगी तो नहीं हो जाती है?’’ इस प्रश्न पर वे कुछ नहीं बोलीं और वापस चली गईं. और मैं काफी देर तक उन की दकियानूसी सोच के बारे में सोचती रही. रेणुका श्रीवास्तव (सर्वश्रेष्ठ) मेरे पड़ोसी सिन्हा साहब का परिवार बहुत अंधविश्वासी है. उन के कथनानुसार परिवार के मुखिया के खाए बिना घर के नौकर को खाना नहीं देना चाहिए और बृहस्पतिवार को पैसा भी नहीं देना चाहिए, इस से घर का रुपयापैसा चला जाता है और खाने का अंश निकल जाता है. फिर वह खाना किसी अंग में नहीं लगता.

व्यवसायी परिवार होने की वजह से वे लोग 3 बजे दिन में खाना खाते हैं. उन की नौकरानी बहुत गरीब और विधवा है. सुबह को दो रोटी खा कर वह 3 बजे तक भूख से तड़पती रहती है. सब के खाने के बाद, सब कुछ निबटा कर, उसे खाना मिलता है. पड़ोसिन मु झे भी बारबार टोकती हैं कि आप नौकरानी को खाना सब के साथ क्यों देती हैं, किंतु मु झे इस में विश्वास नहीं है कि जिस बाई के कठिन परिश्रम से मु झे मेरी पसंद का खाना बैठेबिठाए मेज पर मिल जाता है, उसे खाना मैं देर से दूं. सिन्हा परिवार के इस अटूट विश्वास के बाद भी उन के यहां खर्चे की किचकिच मची रहती है जबकि मैं बहुत संतुष्ट और बाई भी बहुत खुश रहती है. न जानें क्यों लोग अंधविश्वास के पीछे मानवता को भूल जाते हैं. पुष्पा श्रीवास्तव द

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प्रियंका से दस साल छोटे निक जोनस का बयान- रिश्ते में उम्र से नहीं पड़ता फर्क

बॉलीवुड एक्ट्रेस प्रियंका चोपड़ा आए दिन निक जोनस के साथ रिश्ते को लेकर चर्चा में बनी रहती हैं. प्रियंका औऱ निक के उम्र में दस साल का डिफरेंस है. लोग अक्सर इस बात पर सवाल करते नजर आते हैं.उम्र को लेकर हमेशा दोनों को ट्रोलर का सामना करना पड़ता है.वहीं प्रियंका के पति निक जोनस का इस बात पर बयान आया है.

निक ने अपने और प्रियंका के रिश्ते को खूबसूरत बताते हुए कहा है मैं 27 का हूं और मेरी पत्नी 37 की हैं कितना कूल है हम दोनों का रिश्ता.

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प्रियंका पहले भी इस बात पर अपनी प्रतिक्रिया दे चुकी हैं. मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है हम दोनों साथ में बहुत खुश हैं. हमारी फैमली को कोई दिक्कत नहीं है.

बीते दिनों प्रियंका ने अपने पुराने दिनों को याद करते हुए अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर अपनी पुरानी तस्वीर शेयर की थी. जिसमें प्रियंका  ने  मिस वर्ल्ड 2000 का खिताब जीता था.

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पोस्ट में लिखा है यह 20 साल पुरानी तस्वीर है इसे देखकर ऐसा लग रहा है जैसे कल की ही बात हो, अगर आपके मन में कुछ कर दिखाने की तमन्ना हो तो हर मंजिल आसान हो जाती है.

बता दें जिस वक्त प्रिंयका के हाथ में मिस वर्ल्ड 2000 का खिताब था उस वक्त प्रियंका की उम्र 18 साल थी तो वहीं निक जोनस उस वक्त 8 साल के थें.

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प्रियंका अपने शादीशुदा जीवन में बहुत खुश है. अक्सर अपने ससुराल वालों के साथ तस्वीर शेयर करती रहती हैं. हाल ही में प्रियंका अपनी मां की 40वीं सालगिरह मनाते दिखी थीं जिसमें उनके करीबी दोस्त और रिश्तेदार मौजूद थें.

वर्कफ्रांट की बात करें तो प्रियंका फिल्म ‘द स्काई इज पिंक’के बाद  कई प्रोजेक्ट्स पर काम कर रही हैं, लेकिन इस बारे में उन्होंने खुलासा नहीं किया है. इस फिल्म में फरहान अख्तर के साथ प्रियंका की जोड़ी को दर्शकों ने खूब पसंद किया था.

सावधान सिर पर सींग निकाल देता है मोबाइल

जानवरों की तरह इंसानों के सिर पर भी सींग निकलने लगें तो बात हैरान करने वाली है. इसलिए जो युवा सिर को ज्यादा झुका कर मोबाइल यूज कर रहे हैं, वे सचेत हो जाएं. आप ने जानवरों के सिर पर तो सींग देखासुना होगा, लेकिन क्या इंसानों के सिर पर भी सींग उग सकते हैं, कभी सोचा है आप ने? हां, यह सच है कि अब इंसानों के सिर पर भी सींग उगने लगे हैं और यह सब हो रहा है ज्यादा मोबाइल के इस्तेमाल से.

आज मोबाइल हमारी जरूरत ही नहीं, जिंदगी बन गया है. इस के बिना हम कुछ मिनट भी नहीं रह सकते. एक आप और हम ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया मोबाइल में समा गई है. और ऐसा हो भी क्यों न. घर बैठे ही मोबाइल की मदद से हम कई काम आसानी से कर सकते हैं, जैसे राशन का सामान मंगवाना, होटल से खाना और्डर करना, प्लेन, टे्रन के टिकट बुक करवाना, यह सब हम चुटकियों में घर बैठे कर सकते हैं और सब से बड़ी बात यह है कि दूर रह रहे अपने दोस्तों-रिश्तेदारों का हाल हम पल में जान सकते हैं. तो है न यह कमाल की चीज. लेकिन अति हर चीज की बुरी होती है, यह बात भी सच है.

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हाल ही में हुई एक रिसर्च से पता चला कि मोबाइल का ज्यादा इस्तेमाल करने वाले युवाओं के सिर में सींग निकल रहे हैं. सिर के स्कैन में इस बात की पुष्टि भी हो गई. यानी मोबाइल अब कंकाल स्तर का बदलाव कर रहा है. यह नई रिसर्च जैव यांत्रिक पर की गई है जिस में यह सामने आया है कि जो युवा सिर को ज्यादा झुका कर मोबाइल यूज कर रहे हैं उन की खोपड़ी में सींग विकसित हो रहे हैं. इस रिसर्च में 18 से 30 साल के ऐसे युवाओं को शामिल किया गया जो मोबाइल पर कई घंटे बिताते हैं.

आस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड स्थित सनशाइन कोस्ट यूनिवर्सिटी में हुई इस रिसर्च में इसे विस्तृत तरीके से सम झाया गया है. कहा गया है कि रीढ़ ही हड्डी से शरीर का वजन शिफ्ट हो कर सिर के पीछे की मांसपेशियों तक जाता है. इस से कनैक्ंिटग टैंडन और लिंगामैंट्स में हड्डी विकसित होती है. इसी का रिजल्ट है कि युवाओं में हुक या सींग की तरह हड्डियां बढ़ रही हैं जो गरदन के ठीक ऊपर की तरफ खोपड़ी से बाहर निकली हुई हैं.

वाशिंगटन टाइम्स की न्यूज रिपोर्ट में उस चित्र को भी दिखाया गया है जिसमें खोपड़ी के निचले हिस्से में यह कांटेदार सींगनुमा हड्डी दिख रही है. डाक्टरों का कहना है कि इंसान की खोपड़ी का वजन करीब साढ़े 4 किलो होता है. डाक्टरों ने रिसर्च में पाया कि मोबाइल चलाते वक्त लोग अपने सिर को आगेपीछे की तरफ हिलाया करते हैं. ऐसे में गरदन के निचले हिस्से की मांसपेशियों में खिंचाव आने लगता है.

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यही वजह है कि कुछ दिनों बाद हड्डियां बाहर की तरफ निकल जाती हैं. सिर पर ज्यादा दबाव पड़ने के चलते सींग जैसी दिखने वाली हड्डियां निकल रही हैं. महिलाओं की तुलना में पुरुष ज्यादा प्रभावित शोधकर्ताओं का पहला पेपर जनरल औफ एनेटौमी में साल 2016 में प्रकाशित हुआ था. इस पेपर में 18 से 30 साल वाले 216 लोगों के एक्सरे को शामिल किया गया था.

रिसर्च में कहा गया कि 41 फीसदी युवा वयस्कों के सिर की हड्डी में वृद्धि देखी जा सकती है. यह पहले के अनुमान में ज्यादा थी और साथ ही पुरुष इस से ज्यादा प्रभावित थे.

इसी कड़ी में आगे पढ़िए मोबाइल के अलावा अन्य डिवाइसों से भी हैं खतरा…

सफर के साथ व्यंजनों का स्वाद

घर के बने चटपटे व स्वादिष्ठ व्यंजनों का स्वाद सफर के मजे को दोगुना कर देते हैं. सफर के दौरान, बच्चों का ही क्या, बड़ों का भी कुछ न कुछ खाने का मन करता रहता है. साथ में व्यंजन हों तो न टे्रन के स्टेशन आने का इंतजार होता है न बस स्टैंड के आने का. जब मन चाहे, साथ ले जा रहे व्यंजनों में से किसी का भी स्वाद लिया जा सकता है. कई तरह की चटनियां, अचार, सब्जियां, भुनी प्याज, टमाटर, खीरा आदि चीजों को भी सफर में ले जाया जा सकता है ताकि साफ, पौष्टिक व स्वादिष्ठ खाने का स्वाद लिया जा सके. प्रस्तुत है सफर में साथ ले जाने वाले कुछ ऐसे ही जायकेदार व्यंजन.

  1. चना दाल कचौड़ी

सामग्री:

1 कप चना दाल, 1/2 किलो मैदा, 3/4 कप तेल, 1/4 छोटा चम्मच नमक, 1/2 छोटा चम्मच मिर्च पाउडर, 1 बड़ा चम्मच धनिया पाउडर, 1/2 छोटा चम्मच गरममसाला, 1 छोटा चम्मच अमचूर पाउडर, चुटकीभर हींग, तलने के लिए तेल.

विधि:

चना दाल भिगो कर पीस लें. कड़ाही में आधा कप तेल डालें. उस में हींग व मसाले डाल कर भूनें. मसाले भुनने पर दाल डाल कर?भूनें. मैदा में नमक व तेल डाल कर गूंध लें. इस के पेड़े बना कर हलका बेलें व बीच में चना दाल का मसाला भर दें. पेड़े को बंद कर के कचौड़ी बेल लें. गरम तेल में कचौडि़यों को सुनहरा होने तक सेंकें.

2. चटपटा रोल

सामग्री:

2 कटोरी (छोटी) उबली मटर के दाने, 1/4 छोटा चम्मच गरममसाला, 1 छोटा चम्मच धनिया पाउडर, 1 छोटा चम्मच अमचूर पाउडर, 1/4 छोटा चम्मच लालमिर्च पाउडर, 2 कप मैदा, 1/4 कप तेल, 3 बड़े चम्मच नारियल पाउडर, तलने के लिए तेल, नमक स्वादानुसार.

विधि:

तेल गरम कर मसाला भूनें व उबली मटर डाल कर भून लें. नारियल पाउडर डाल कर एक बार फिर मसाला भूनें. मैदा व नमक छान लें व तेल डाल कर पानी के साथ गूंध लें. इस के पेड़े बना कर बेलें व बीच में मटर का मसाला भर कर दोनों साइड से बंद करें व गरम तेल में तलें.

3. ग्रेनोला बार

सामग्री:

1/2 कप मुरमुरे, 1 कप ओट्स, 1/4 कप फ्लैक्स सीड, 1/2 कप चीनी, 1/2 कप गुड़, 1/2 कप बादाम व काजू, 10-15 किशमिश, 1 बड़ा चम्मच घी.

विधि:

घी में ओट्स, मुरमुरे व फ्लैक्स सीड भून लें. पानी, चीनी, गुड़ की चाशनी में सभी चीजें डाल कर?आंच बंद कर दें. इसे जमा कर बार के आकार में काटें.

मैं बीवी के ऊपर लेट कर सेक्स करने पर भी जल्दी पस्त हो जाता हूं, क्या करूं?

सवाल

मैं 22 साल का हूं. फोरप्ले के बाद बीवी के ऊपर लेट कर सेक्स करने पर भी महज 30 सैकंड में मैं पस्त हो जाता हूं. इस नाकामी पर बीवी के ताने सुन कर खुदकुशी करने का मन करता है. मैं क्या करूं?

जवाब

तजरबे की कमी के चलते ऐसा हो रहा होगा. आप एक बार मामला निबटने के बाद फिर से कोशिश करें, तो दूसरी पारी ज्यादा देर तक टिकेगी और धीरेधीरे आप का हौसला बढ़ जाएगा. अगर फिर भी 30 सैकंड में इजाफा न हो, तो किसी माहिर डाक्टर से इलाज कराएं. नीमहकीमों से कतई न मिलें.

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जानिए कैसे बदलता है उम्र के साथ सेक्स बिहेवियर

शादीशुदा जिंदगी में दूरियां बढ़ाने में सैक्स का भी अहम रोल होता है. अगर परिवार कोर्ट में आए विवादों की जड़ में जाएं तो पता चलता है कि ज्यादातर झगड़ों की शुरुआत इसी को ले कर होती है. बच्चों के बड़े होने पर पतिपत्नी को एकांत नहीं मिल पाता. ऐसे में धीरेधीरे पतिपत्नी में मनमुटाव रहने लगता है, जो कई बार बड़े झगड़े का रूप भी ले लेता है. इस से तलाक की नौबत भी आ जाती है. विवाहेतर संबंध भी कई बार इसी वजह से बनते हैं.

मनोचिकित्सक डाक्टर मधु पाठक कहती हैं, ‘‘उम्र के हिसाब से पति और पत्नी के सैक्स का गणित अलगअलग होता है. यही अंतर कई बार उन में दूरियां बढ़ाने का काम करता है. पतिपत्नी के सैक्स संबंधों में तालमेल को समझने के लिए इस गणित को समझना जरूरी होता है. इसी वजह से पतिपत्नी में सैक्स की इच्छा कम अथवा ज्यादा होती है. पत्नियां इसे न समझ कर यह मान लेती हैं कि उन के पति का कहीं चक्कर चल रहा है. यही सोच उन के वैवाहिक जीवन में जहर घोलने का काम करती है. अगर उम्र को 10-10 साल के गु्रपटाइम में बांध कर देखा जाए तो यह बात आसानी से समझ आ सकती है.’’

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शादी के पहले

आजकल शादी की औसत उम्र लड़कियों के लिए 25 से 35 के बीच हो गई है. दूसरी ओर खानपान और बदलते परिवेश में लड़केलड़कियों को 15 साल की उम्र में ही सैक्स का ज्ञान होने लगता है. 15 से 30 साल की आयुवर्ग की लड़कियों में नियमित पीरियड्स होने लगते हैं, जिस से उन में हारमोनल बदलाव होने लगते हैं. ऐसे में उन के अंदर सैक्स की इच्छा बढ़ने लगती है. वे इस इच्छा को पूरी तरह से दबाने का प्रयास करती हैं. उन पर सामाजिक और घरेलू दबाव तो होता ही है, कैरियर और शादी के लिए सही लड़के की तलाश भी मन पर हावी रहती है. ऐसे में सैक्स कहीं दब सा जाता है.

इसी आयुवर्ग के लड़कों में सैक्स के लिए जोश भरा होता है. कुछ नया करने की इच्छा मन पर हावी रहती है. उन की सेहत अच्छी होती है. वे हर तरह से फिट होते हैं. ऐसे में शादी, रिलेशनशिप का खयाल उन में नई ऊर्जा भर देता है. वे सैक्स के लिए तैयार रहते हैं, जबकि लड़कियां इस उम्र में अपनी इच्छाओं को दबाने में लगी रहती हैं.

30 के पार बदल जाते हैं हालात

महिलाओं की स्थिति: 30 के बाद शादी हो जाने के बाद महिलाओं में शादीशुदा रिलेशनशिप बन जाने से सैक्स को ले कर कोई परेशानी नहीं होती है. वे और्गेज्म हासिल करने के लिए पूरी तरह तैयार होती हैं. महिलाएं कैरियर बनाने के दबाव में नहीं होती. घरपरिवार में भी ज्यादा जिम्मेदारी नहीं होती. ऐसे में सैक्स की उन की इच्छा पूरी तरह से बलवती रहती है. बच्चों के होने से शरीर में तमाम तरह के बदलाव आते हैं, जिन के चलते महिलाओं को अपने अंदर के सैक्सभाव को समझने में आसानी होती है. वे बेफिक्र अंदाज में संबंधों का स्वागत करने को तैयार रहती हैं.

पुरुषों की स्थिति: उम्र के इसी दौर में पति तमाम तरह की परेशानियों से जूझ रहा होता है. शादी के बाद बच्चों और परिवार पर होने वाला खर्च, कैरियर में ग्रोथ आदि मन पर हावी होने लगता है, जिस के चलते वह खुद को थका सा महसूस करने लगते हैं. यही वह दौर होता है जिस में ज्यादातर पति नशा करने लगते हैं. ऐसे में सैक्स की इच्छा कम हो जाती है.

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महिला रोग विशेषज्ञा, डाक्टर सुनीता चंद्रा कहती हैं, ‘‘हमारे पास बांझपन को दूर करने के लिए जितनी भी महिलाएं आती हैं उन में से आधी महिलाओं में बांझपन का कारण उन के पतियों में शुक्राणुओं की सही क्वालिटी का न होना होता है. इस का बड़ा कारण पति का मानसिक तनाव और काम का बोझ होता है. इस के कारण वे पत्नी के साथ सही तरह से सैक्स संबंध स्थापित नहीं कर पाते.’’

नौटी 40 एट

40 के बाद की आयुसीमा एक बार फिर शारीरिक बदलाव की चौखट पर खड़ी होती है. महिलाओं में इस उम्र में हारमोन लैवल कम होना शुरू हो जाता है. उन में सैक्स की इच्छा दोबारा जाग्रत होने लगती है. कई महिलाएं अपने को बच्चों की जिम्मेदारियों से मुक्त पाती हैं, जिस की वजह से सैक्स की इच्छा बढ़ने लगती है. मगर यह बदलाव उन्हीं औरतों में दिखता है जो पूरी तरह से स्वस्थ रहती हैं. जो महिलाएं किसी बीमारी का शिकार या बेडौल होती हैं, वे सैक्स संबंधों से बचने का प्रयास करती हैं.

40 प्लस का यह समय पुरुषों के लिए भी नए बदलाव लाता है. उन का कैरियर सैटल हो चुका होता है. वे इस समय को अपने अनुरूप महसूस करने लगते हैं. जो पुरुष सेहतमंद होते हैं, बीमारियों से दूर होते हैं वे पहले से ज्यादा टाइम और ऐनर्जी फील करने लगते हैं. उन के लिए सैक्स में नयापन लाने के विचार तेजी से बढ़ने लगते हैं.

50 के बाद महिलाओं में पीरियड्स का बोझ खत्म हो जाता है. वे सैक्स के प्रति अच्छा फील करने लगती हैं. इस के बाद भी उन के मन में तमाम तरह के सवाल आ जाते हैं. बच्चों के बड़े होने का सवाल मन पर हावी रहता है. हारमोनल चेंज के कारण बौडी फिट नहीं रहती. घुटने की बीमारियां होने लगती हैं. इन परेशानियों के बीच सैक्स की इच्छा दब जाती है.

इस उम्र के पुरुषों में भी ब्लडप्रैशर, डायबिटीज, कोलैस्ट्रौल जैसी बीमारियां और इन को दूर करने में प्रयोग होने वाली दवाएं सैक्स की इच्छा को दबा देती हैं. बौडी का यह सैक्स गणित ही पतिपत्नी के बीच सैक्स संबंधों में दूरी का सब से बड़ा कारण होता है.

डाक्टर मधु पाठक कहती हैं, ‘‘ऐसे में जरूरत इस बात की होती है कि सैक्स के इस गणित को मन पर हावी न होने दें ताकि सैक्स जीवन को सही तरह से चलाया जा सके.’’

रिलेशनशिप में सैक्स का अपना अलग महत्त्व होता है. हमारे समाज में सैक्स पर बात करने को बुरा माना जाता है, जिस के चलते वैवाहिक जीवन में तमाम तरह की परेशानियां आने लगती हैं. इन का दवाओं में इलाज तलाश करने के बजाय अगर बातचीत कर के हल निकाला जाए तो समस्या आसानी से दूर हो सकती है. लड़कालड़की सही मानो में विवाह के बाद ही सैक्स लाइफ का आनंद ले पाते हैं. जरूरत इस बात की होती है कि दोनों एक मानसिक लैवल पर चीजों को देखें और एकदूसरे को सहयोग करें. इस से आपसी दूरियां कम करने और वैवाहिक जीवन को सुचारु रूप से चलाने में मदद मिलती है.

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हा हा…कार

कम्बख्त कार के कारनामे भी अजीबोगरीब हैं. कभी किसी बेकार के साथ चमत्कार करती है तो कभी मक्कार को दुत्कार देती है. दरअसल ‘कार’ से जुड़े इस नए शब्दकोष ने लोगों की जिंदगी में कैसे हाहाकार मचा रखा है, आप भी बूझिए.

अब से 2 दशक पहले तक कार शानोशौकत, दिखावे और विलास की वस्तु समझी जाती थी. पैसे वाले ही इसे खरीद पाते थे. आम जन इसे अपनी पहुंच से दूर समझते थे और अनावश्यक भी. लोग दालरोटी के जुगाड़ को ही अपना लक्ष्य समझते थे. संजय गांधी ने पहली बार देश के लोगों को छोटी कार का सपना दिखाया और मारुति कार जब देश में बनने लगी तो इस ने स्कूटर वालों के कार के सपनों को हकीकत में बदल दिया और बदल दीं इस के साथ कई परिभाषाएं और अर्थ. अब तो कहावत बन गई है कि ‘पति चाहे अनाड़ी हो पर पास में एक गाड़ी हो तो जिंदगी सब से अगाड़ी रहती है.’

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तो भाइयो, गाड़ी आजकल लगभग सब के पास है और जिन के पास नहीं है वे भी अपना शौक टैक्सी से पूरा कर लेते हैं. हां, गाड़ी यानी कार के इस्तेमाल के आधार पर समाज 3 वर्गों में बंट गया है. पहला वर्ग तो वह है जो रोजरोज के आनेजाने में अपनी कार का ही इस्तेमाल करता है, दूसरा कोई साधन इस्तेमाल नहीं करता. दूसरा वर्ग वह है जो अपनी कार में सप्ताह में एक दिन, अकसर रविवार को अपने परिवार सहित सैर को निकलता है और शाम की चायनाश्ता किसी रेस्तरां, रिश्तेदार या मित्र के पास करता है. तीसरे वर्ग में वे लोग आते हैं जो अपनी कार की सफाई तो पूजा की तरह रोज करते हैं, पर उस का इस्तेमाल कभीकभार ही करते हैं, जैसे किसी शादीब्याह में या परिवार के किसी गंभीर बीमार को अस्पताल में ले जाने में.

खैर, कहने का तात्पर्य यह कि कार अब के जमाने में परिवार का अंग बन चुकी है. इस के सर्वव्यापक अस्तित्व के कारण कई शब्दों के अर्थ और परिभाषाएं बदल चुकी हैं. यहां छोटी कार के आगमन से जो ‘कार वाले’ बन गए हैं उन की ओर से कुछ शब्दों की नई परिभाषाएं व अर्थ प्रस्तुत किए जा रहे हैं. भाषाशास्त्रियों से विनम्र निवेदन है कि निम्नलिखित परिभाषाओं को शब्दकोष में विधिवत सम्मिलित करें :

बेकार : जिस व्यक्ति के पास आज के समय में कार नहीं है, उसे लोग (खासकर महिलाएं) ‘बेकार’ कहते हैं, चाहे वह कोई भी चंगी नौकरी या व्यवसाय क्यों न करता हो. यानी कार नहीं है तो अच्छाखासा बंदा बेकार है.

साकार : जिस व्यक्ति के पास ‘कार’ हो उसे ‘साकार’ कहते हैं यानी दुनिया को वही नजर आता है जिस के पास कार होती है. पैदल, यहां तक कि दुपहिया वाहन वालों का भी अस्तित्व खतरे में है.

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निराकार : साधन संपन्न होते हुए भी जो व्यक्ति जानबूझ कर कार नहीं खरीदता उसे ‘निराकार’ कहा जाता है. कार कंपनियां ऐसे ही ‘निराकार’ सज्जनों को साकार बनाने का भरसक प्रयत्न करती रहती हैं.

चमत्कार : जिस व्यक्ति की आय का साधन भले ही लोगों को नजर न आए, फिर भी उस ने कार रखी है, तो उसे लोग ‘चमत्कार’ कहते हैं. हमारे महल्ले के मंदिर के पुजारी ने कार रखी है. उसे भी लोग ‘चमत्कार’ कहते हैं. यह दीगर है कि ऐसे चमत्कारों पर आयकर विभाग की नजर भी रहती है.

बदकार : कई कार मालिक बड़े रसिक होते हैं. अपने दोस्तों को अपनी कार में बिठा कर वे किसी एकांत स्थान पर रुक कर कार में शराब पीने का आनंद लेते हैं और कई तो अवैध कर्म भी करते हैं. ऐसे कार मालिकों को ‘बदकार’ कहा जाए तो क्या नुकसान है?

स्वीकार : जिस व्यक्ति ने अपने ससुर से दहेज में कार स्वीकार की हो उसे ‘स्वीकार’ की संज्ञा देना उचित होगा.

मक्कार : बैंक से ऋण ले कर कार तो खरीद ली पर ऋण की किस्त चुकाने में जो आनाकानी करता है, ऐसे कार मालिक को ‘मक्कार’ कहना बिलकुल सही होगा. बैंकों से अनुरोध है कि वे इस शब्द को अपनी शब्दावली में शामिल कर लें.

स्वर्णकार : जिस व्यक्ति ने अपनी पत्नी के सोने के गहने बेच कर कार खरीदने का दुस्साहस किया हो उसे ‘स्वर्णकार’ कहलाने का हकदार होना चाहिए.

पैरोकार : कार का ऐसा मालिक जो पैदल चलने में अपना अपमान समझता हो यानी कार के बाहर अपने पैर भी न रखता हो, उसे ‘पैरोकार’ कहना उचित होगा.

सरोकार : जो कार मालिक सिर्फ कार वालों से ही मिलनाजुलना पसंद करते हैं, उन्हीं में ब्याहशादी का संबंध स्थापित करने में विश्वास रखते हैं और बाकी दुनिया से कोई सरोकार रखना नहीं चाहते उन्हें ‘सरोकार’ कह कर बुलाया जाए.

चीत्कार : कारें भी कई तरह की होती हैं और चलाने वाले भी. जो व्यक्ति अपनी कार को भीड़भाड़ वाले इलाके में भी चीते की गति से चलाता हुआ ले जाता है उसे ‘चीत्कार’ कहना उपयुक्त होगा. पर अगर उस से किसी को टक्कर लग जाए तो लोग अपनेआप ही उसे ‘फटकार’ कहने लगेंगे.

ललकार : जो व्यक्ति अपने पड़ोसी से ज्यादा महंगी कार खरीद कर ले आए और रोज अपने घर से निकलते वक्त उक्त पड़ोसी के घर के सामने अपनी महंगी कार का हौर्न बारबार बजाए, ऐसे को हम ‘ललकार’ कहना पसंद करेंगे.

हाहाकार : जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति को देखते हुए पड़ोसियों को कोई उम्मीद न हो कि वह भी कभी कार खरीद सकता है और वह अचानक नई कार खरीद कर अपने दरवाजे के सामने खड़ी कर दे तो पड़ोसियों के घरों में तो हाहाकार मचना स्वाभाविक है. ऐसा कारनामा करने वाले को ‘हाहाकार’ कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी.

फनकार : कई ऐसे धुरंधर हैं जो महीनों तक बिना ड्राइविंग लाइसैंस और गाड़ी के रजिस्टे्रशन के अपनी कार चलाते रहते हैं. पर क्या मजाल कि कोई पुलिस वाला उन का चालान कर दे. जिस महानुभाव को ऐसा फन हासिल हो, उसे ‘फनकार’ कहा जाए तो क्या हर्ज है?

चित्रकार : इस परिभाषा को लिखने से पहले मैं दुनिया छोड़ चुके महान आर्टिस्ट एम एफ हुसैन और उन की जमात के लोगों से क्षमा मांगता हूं. कई व्यक्तियों को अपनी कार के शीशों और बौडी पर अजीबोगरीब स्टिकर सजाने का जनून होता है. इसी प्रकार के व्यक्ति को, जिस ने अपनी कार को कैनवास की तरह इस्तेमाल किया हो, उसे ‘चित्रकार’ के नाम से सम्मानित किया जाए.

कलाकार : वैसे तो किसी कवि या लेखक के लिए कार खरीदना असंभव जैसा है फिर भी कई हिम्मत वाले लेखक घर के खर्चों में कटौती कर के कार खरीदने का सपना पूरा कर लेते हैं. ऐसे ही किसी कवि या लेखक को जिस ने कार रखी हो, ‘कलाकार’ कहना उचित होगा.

फुफकार : कई कार चालक बड़े गुस्सैल होते हैं. पैट्रोल की महंगाई ने ज्यादातर को ऐसा बना दिया है. वे अपना गुस्सा अपने विरोधी पर अपनी कार के साइलैंसर से धुआं फेंक कर निकालते हैं. ऐक्सिलरेटर को बारबार दबा कर ऐसा धुआं फेंकेंगे मानो कोई सांप फुफकार रहा हो. ऐसे गुस्सैल कारचालक को ‘फुफकार’ ही कहना चाहिए.

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दुत्कार : अमीर लोगों को अब इस बात की ईर्ष्या होती है कि ऐरेगैरे आदमियों ने भी कार रख ली है, चाहे छोटी कार ही क्यों न हो. तो अब कई अमीर लोगों ने अपनी बड़ी कारों में प्रैशर हौर्न फिट करवा लिए हैं. जब वे कोई छोटी कार देखते हैं तो उस से आगे निकलते हुए बारबार अपने प्रैशर हौर्न से बड़ी भयावह आवाज पैदा करते हैं, मानो छोटी कार वालों को दुत्कार रहे हों. ऐसे ईर्ष्यालु, अमीर कार मालिक को ‘दुत्कार’ के नाम से नवाजा जाए.

नकारा : जिस व्यक्ति ने बहुत ही पुराने मौडल की कार खरीदी हो और जैसेतैसे हांक कर कार वालों की श्रेणी में रहने का प्रयास करता हो, उसे ‘नकारा’ कहना बिलकुल सही होगा.

कार सेवा : अपनी कार की हर रोज, साप्ताहिक या मासिक धुलाई और साफसफाई को आजकल ‘कार सेवा’ कहते हैं.

नाटककार : कार के ऐक्सिडैंटल डैमेज के झूठे बिल बना कर जो कार मालिक बीमा कंपनियों से पैसा ऐंठता है, उन जैसा नाटककार और कहां मिलेगा, इसलिए उसे ‘नाटककार’ कहा जाए.

हमारे पास अभी शब्द तो और भी बहुत हैं जिन की परिभाषाएं और अर्थ बदल चुके हैं पर स्थानाभाव से अभी इतना ही लिख कर समाप्त करता हूं. ऐसा न हो कि ‘सरकार’ ही मुझ से नाराज हो जाए. जब ये परिभाषाएं शब्दकोश में शामिल हो जाएंगी तो यह ‘कथाकार’ और बहुत से अर्थ व परिभाषाएं ले कर आप के सामने उपस्थित हो जाएगा. आप स्वयं भी जानकार हैं इसलिए अपनी प्रतिक्रिया अवश्य बताइए, धन्यवाद.

चिराग नहीं बुझा

गोंडू लुटेरा उस कसबे के लोगों के लिए खौफ का दूसरा नाम बना हुआ था. भद्दे चेहरे, भारी डीलडौल वाला गोंडू बहुत ही बेरहम था. वह लोफरों के एक दल का सरदार था. अपने दल के साथ वह कालोनियों पर धावा बोलता था. कहीं चोरी करता, कहीं मारपीट करता और जोकुछ लूटते बनता लूट कर चला जाता.

कसबे के सभी लोग गोंडू का नाम सुन कर कांप उठते थे. उसे तरस और दया नाम की चीज का पता नहीं था. वह और उस का दल सारे इलाके पर राज करता था.

पुलिस वाले भी गोंडू लुटेरा से मिले हुए थे. पार्टी का गमछा डाले वह कहीं भी घुस जाता और अपनी मनमानी कर के ही लौटता.

गोंडू का मुकाबला करने की ताकत कसबे वालों में नहीं थी. जैसे ही उन्हें पता चलता कि गोंडू आ रहा है, वे अपनी दुकान व बाजार छोड़ कर अपनी जान बचाने के लिए इधरउधर छिप जाते.

यह इतने लंबे अरसे से हो रहा था कि गोंडू और उस के दल को सूनी गलियां देखने की आदत पड़ गई थी.

बहुत दिनों से उन्होंने कोई दुकान नहीं देखी थी जिस में लाइट जल रही हो. उन्हें सूनी और मातम मनाती गलियों और दुकानों के अलावा और कुछ भी देखने को नहीं मिलता था.

एक अंधेरी रात में गोंडू और उस के साथी लुटेरे जब एक के बाद एक दुकानों को लूटे जा रहे थे तो उन्हें बाजार खाली ही मिला था.

‘‘तुम सब रुको…’’ अचानक गोंडू ने अपने साथियों से कहा, ‘‘क्या तुम्हें वह रोशनी दिखाई दे रही है जो वहां एक दुकान में जल रही है?

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‘‘जब गोंडू लूटपाट पर निकला हो तो यह रोशनी कैसी? जब मैं किसी महल्ले में घुसता हूं तो हमेशा अंधेरा ही मिलता है.

‘‘उस रोशनी से पता चलता है कि कोई ऐसा भी है जो मुझ से जरा भी नहीं डरता. बहुत दिनों के बाद मैं ने ऐसा देखा है कि मेरे आने पर कोई आदमी न भागा हो.’’

‘‘हम सब जा कर उस आदमी को पकड़ लाएं?’’ लुटेरों के दल में से एक ने कहा.

‘‘नहीं…’’ गोंडू ने मजबूती से कहा, ‘‘तुम सब यहीं ठहरो. मैं अकेला ही उस हिम्मती और पागल आदमी से अपनी ताकत आजमाने जाऊंगा.

‘‘उस ने अपनी दुकान में लाइट जला कर मेरी बेइज्जती की है. वह आदमी जरूर कोई जांबाज सैनिक होगा. आज बहुत लंबे समय बाद मुझे किसी से लड़ने का मौका मिला है.’’

जब गोंडू दुकान के पास पहुंचा तो यह देख कर हैरान रह गया कि एक बूढ़ी औरत के पास दुकान पर केवल 12 साल का एक लड़का बैठा था.

औरत लड़के से कह रही थी, ‘‘सभी लोग बाजार छोड़ कर चले गए हैं. गोंडू के यहां आने से पहले तुम भी भाग जाओ.’’

लड़के ने कहा, ‘‘मां, तुम ने मुझे जन्म  दिया, पालापोसा, मेरी देखभाल की और मेरे लिए इतनी तकलीफें उठाईं. मैं तुम्हें इस हाल में छोड़ कर कैसे जा सकता हूं? तुम्हें यहां छोड़ कर जाना बहुत गलत होगा.

‘‘देखो मां, मैं लड़ाकू तो नहीं??? हूं, एक कमजोर लड़का हूं, पर तुम्हारी हिफाजत के लिए मैं उन से लड़ कर मरमिटूंगा.’’

एक मामूली से लड़के की हिम्मत को देख कर गोंडू हैरान हो उठा. उस समय उसे बहुत खुशी होती थी जब लोग उस से जान की भीख मांगते थे, लेकिन इस लड़के को उस का जरा भी डर नहीं.

‘इस में इतनी हिम्मत और ताकत कहां से आई? जरूर यह मां के प्रति प्यार होगा,’ गोंडू को अपनी मां का खयाल आया जो उसे जन्म देने के बाद मर गई थी. अपनी मां के चेहरे की हलकी सी याद उस के मन में थी.

उसे अभी तक याद है कि वह किस तरह खुद भूखी रह कर उसे खिलाती थी. एक बार जब वह बीमार था तब वह कई रात उसे अपनी बांहों में लिए खड़ी रही थी. वह मर गई और गोंडू को अकेला छोड़ गई. वह लुटेरा बन गया और अंधेरे में भटकने लगा.

गोंडू को ऐसा महसूस हुआ कि मां की याद ने उस के दिल में एक रोशनी जला दी है. उस की जालिम आंखों में आंसू भर आए. उसे लगा कि वह फिर बच्चा बन गया है. उस का दिल पुकार उठा, ‘मां… मां…’

उस औरत ने लड़के से फिर कहा, ‘‘भाग जाओ मेरे बच्चे… किसी भी पल गोंडू इस जलती लाइट को देख कर दुकान लूटने आ सकता है.’’

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तभी गोंडू दुकान में घुसा. मां और बेटा दोनों डर गए.

गोंडू ने कहा, ‘‘डरो नहीं, किसी में इस लाइट को बुझाने की ताकत नहीं है. मां के प्यार ने इसे रोशनी दी है और यह सूरज की तरह चमकेगा. दुकान छोड़ कर मत जाओ.

‘‘बदमाश गोंडू मर गया है. तुम लोग यहां शांति से रहो. लुटेरों का कोई दल कभी इस जगह पर हमला नहीं करेगा.’’

‘‘लेकिन… लेकिन, आप कौन हैं?’’ लड़के ने पूछा.

वहां अब खामोशी थी. गोंडू बाहर निकल चुका था.

उस रात के बाद किसी ने गोंडू और उस के लुटेरे साथियों के बारे में कुछ नहीं सुना.

कहीं से उड़ती सी खबर आई कि गोंडू ने कोलकाता जा कर एक फैक्टरी में काम ले लिया था. उस के साथी भी अब उसी के साथ मेहनत का काम करने लगे थे.

अनाम रिश्ता: भाग-3

हमारी नजरें उत्सुकतावश द्वार पर ही लगी हुई थीं कि उधर से एक हाथ से लड़की की उंगली थामे और दूसरे से लड़के को गोद में उठाए कमला का पदार्पण हुआ. लड़के को देखते ही सब लोग मुसकराने लगे. भाभी ने फुसफुसा कर मां से कहा था, ‘यह तो गोपी का हमशक्ल है.’

अब की बार तो कमला में गजब का परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहा था. आंखें तो पहले ही बड़ीबड़ी थीं, मां ने जो अपनी पुरानी लिपस्टिक और साड़ी दे दी थी, उन के इस्तेमाल के बाद तो उस का रूप ही निखर आया था. कोई नहीं कह सकता था कि यह किसी छोटी जाति के घर की बहू है. काले रंग में भी इतना आकर्षण होता है, यह इंदु ने उस दिन जाना था. अब समझ आया कि क्या था उस कालीकलूटी में जो गोपी जैसा बांका नौजवान उस पर मरता था.

एक दिन मां कुछ हलकेफुलके मूड में थीं. किसी काम से गोपी उन के पास आया तो बोलीं, ‘क्यों रे गोपी, तेरी उम्र निकली जा रही है, तू शादी कब करेगा?’

‘बीबीजी, शादी तो हमारी हो गई.’

‘शादी हो गई? और हमें पता भी नहीं चला?’ मां ने हैरानी से पूछा.

गोपी ने नजर उठा कर इंदु की तरफ देखा. वह समझ गई कि गोपी उस के सामने बात करने में झिझक रहा है, सो वह वहां से उठ तो गई पर बात सुनने का लोभ संवरण न कर पाई, इसलिए बराबर वाली कोठरी में छिप कर खड़ी हो गई.

‘हां, अब बोल,’ मां ने उस की ओर देखा.

‘तुम्हें मालूम नहीं चला तो मैं क्या करूं. तुम्हारे पास तो वह रोज आती है,’ गोपी सिर झुका कर बोला.

‘किस की बात कर रहा है तू?’ मां को समझ नहीं आया.

‘कमला की,’ गोपी धीरे से बोला, ‘हम तो उसे ही अपनी दुलहन मानते हैं. दुनिया के सामने सात फेरे नहीं हुए तो क्या, मन से तो हम दोनों एकदूजे को मियांबीवी समझते हैं.’

‘वह एक शादीशुदा औरत है. तुम्हारे गांव वाले उसे कुछ नहीं कहते? किसना भी जानता है यह सब?’

‘हां, जानता है. उस ने तो कई बार कमला को पीटा भी है पर उस ने भी साफसाफ कह दिया कि मैं गोपी को चाहती हूं, उसे नहीं छोड़ सकती, चाहे तो तू मुझे छोड़ दे. पर वह बेचारा भी क्या करे, एक तो गरीबी, ऊपर से शक्लसूरत भी मामूली. पहली शादी ही मुश्किल से हुई थी. इसे छोड़ दिया तो दूसरी तो होने से रही. सो, यही सोच कर चुप रह जाता है कि चलो, जैसी भी है, घर तो संभाल रही है, बच्चे पाल रही है.

पूरी बात सुनने पर भी मां कुछ  असंतुष्ट सी थीं. बोलीं, ‘वह औरत तो शहर की है, बड़ी चालाक है. एकसाथ दोदो आदमियों को बेवकूफ बना रही है. पर तू क्यों अक्ल के पीछे लट्ठ लिए भाग रहा है. उसे तो घर भी मिल गया. कहने को पति भी है, बच्चे भी हैं और पैसा लुटाने को तू है, पर तुझे क्या मिला? शादी कर ले तो तेरा भी घर बस जाएगा, बच्चे होंगे, समाज में इज्जत होगी,’ मां ने अपने स्तर पर उसे ऊंचनीच समझाने की चेष्टा की.

पर उस ने जो दलील पेश की उसे सुन कर तो मां के साथ इंदु का मुंह भी हैरानी से खुला का खुला रह गया. सिर झुकाएझुकाए ही वह बोला, ‘ठीक है, भाभी, तुम्हारी बात. चलो, हम शादी कर भी लें. पत्नी हमें पसंद न आई तो क्या होगा? किसी की जिंदगी खराब करने से क्या फायदा? कमला मुझे अच्छी लगती है, और मैं उसे. हमारे लिए तो इतना ही बहुत है. रहा सवाल बच्चों का, सो मुझे लगता ही नहीं कि वे बच्चे सिर्फ कमला के ही हैं. जब वह हमें अच्छी लगती है तो उस की हर चीज हमें प्यारी है.

‘तुम्हें लगता होगा कि हम अकेले हैं पर हमारी नजरों से देखो तो पता चलेगा कि हमारे पास सबकुछ है. मन का संतोष सब से बड़ी चीज है, बाकी तो सब दिखावा है.’

वह आगे बोला, ‘कमला के पास भी सबकुछ है, आदमी है, बच्चे हैं. अगर इन चीजों से खुशी मिलती तो वह हमें क्यों चाहती?’

मां को निरुत्तर कर गोपी चला गया. इंदु मन ही मन सोचती रही कि यह गांव का अनपढ़ आदमी कितनी सरल भाषा में जीवन की कितनी बड़ी सचाई कह गया है.

सब लोग सोचते थे कि यह कुछ दिन का खुमार है, समय बीततेबीतते उतर जाएगा. फिर यह भी अपना घर बसा लेगा और कमला को भूल जाएगा. कमला पर भी जब जिम्मेदारियों का बोझ पड़ेगा तो दुनियादारी समझने लगेगी. पर इन दोनों ने तो सब के गणित को अंगूठा दिखा दिया.

इसी बीच, इंदु का विवाह भी हो गया. वह जब भी मायके आती, कुछ न कुछ परिवर्तन जरूर नजर आता. कभी भाभी के बच्चा होने को होता, कभी महल्ले में किसी की मृत्यु की खबर सुनने को मिलती तो कभी किसी की शादी की अथवा भागने की.

पर गोपी और कमला की प्रेम कहानी बिना किसी परिवर्तन के उसी प्रकार आगे बढ़ रही थी. हमेशा वह अपने बच्चों को साथ लिए गोपी से मिलने आती. उसी प्रकार गोपी उसे घुमाने ले जाता. कभी कपड़े दिलवाता और कभी खाने का सामान. इस नियम में जरा भी बदलाव नहीं आया था. हां, इतना जरूर हुआ था कि बच्चे अब

2 के स्थान पर 3 हो गए थे.

अब तो समाज ने भी उन के प्यार को स्वीकार कर लिया था. उन के उस रिश्ते को मान लिया था जिस का कोई नाम न था.

अचानक कोई कमरे में आया तो इंदु की विचारतंद्रा भंग हो गई और वह अतीत से वर्तमान में लौट आई. भाभी चायनाश्ता लाई थीं.

चाय पी कर उस ने भाभी से पूछा, ‘‘गोपी की खबर सुन कर कमला आई थी क्या?’’

‘‘हां, आई थी. आते ही उस की लाश पर गिर कर फूटफूट कर रोई, अपनी चूडि़यां भी तोड़ दीं, लोगों ने बड़ी मुश्किल से उसे चुप कराया. क्रियाकर्म का सारा खर्चा उसी ने किया. हालांकि पिताजी ने कहा था, ‘यह हमारे यहां इतने दिन से नौकरी कर रहा था, इतना तो हम इस के लिए कर ही सकते हैं.’

‘‘पर वह मानी नहीं. बोली, ‘मैं भी तो सारी उम्र इस की कमाई खाती रही. भैयाजी, मेरे पास तो जो कुछ है, सब इसी का दिया है. जब यही नहीं रहा तो मैं इन गहनों का क्या करूंगी,’ कह कर उस ने अपनी अंगूठी उतार कर पिताजी के हाथ में दे दी और कहा कि इसे बेच कर क्रियाकर्म कर दीजिए.

‘‘जब मुखाग्नि देने का समय आया तो वह बोली, ‘मेरा रामू यह काम करेगा. भैयाजी, आप सब को तो मालूम है, गोपी इसे कितना चाहता था और यह तो इस का फर्ज भी है.’

‘‘यह एक ऐसी सचाई थी जिसे सब जानते थे पर कहने की हिम्मत किसी ने नहीं की थी, इसीलिए सब ने कमला की यह बात मान ली.’’

रात को भी मेरे दिमाग में बचपन की बातें घूमती रहीं. मैं सोचने लगी कि प्यार भी क्या चीज है. जो इनसान बाप की मार के डर से गांव छोड़ कर भागा था उसे गांव के नाम से ही नफरत हो गई थी. बहुत समझानेबुझाने के बाद कभीकभी मांबाप से मिलने चला जाता था. लेकिन रात को जाता था और सुबह ही वापस आ जाता था.

परंतु पता नहीं, कौन सी डोर थी जिस ने उसे ऐसे बांध लिया कि वह हर हफ्ते गांव जाने लगा. फिर धीरेधीरे यह अंतराल घटता ही गया. कभी 4 दिन में तो कभी

3 दिन में वह गांव जाने लगा. शाम को भी जल्दी चला जाता था और अगले दिन भी थोड़ी देर से आता था. बाप भी बूढ़ा हो चला था, सो उस की भी जिम्मेदारी सिर पर थी, इसलिए कोई कुछ नहीं कहता था.

गोपी का बाप अब बीमार भी रहने लगा था, सो उस के ब्याह के लिए जोर देने लगा. पर उस ने ब्याह के लिए इनकार कर दिया था. हां, यह जरूर कर दिया कि बापू की दोनों समय की रोटी का इंतजाम कमला को सौंप दिया. कुछ दिन तक तो पिता ने उस के घर का खाना खाने से मना कर दिया, पर अंत में परिस्थिति से उन्हें समझौता करना ही पड़ा.

इंदु की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या नाम दे उस रिश्ते को जिसे वे दोनों जिंदगीभर निभाते रहे. कितनी हिम्मती है वह औरत जो अपने प्यार के लिए दुनिया से लड़ती रही, हार न मानी.

आखिरी वक्त पर भी उस ने जिस बहादुरी से अपने बेटे का परिचय दिया, क्या वह पढ़ेलिखे और समझदार कहे जाने वाले लोगों के बस की बात है?

अगले दिन इंदु ने अपनी मां से पूछा कि क्या कमला अब भी आती है यहां? तो उत्तर मिला, ‘‘नहीं, अब नहीं आती.’’

‘‘मां, किसी दिन उसे बुलवा लो, बड़ा मन है उसे देखने का,’’ इंदु ने अपनी इच्छा मां के आगे व्यक्त की.

मां ने एक आदमी के जरिए गांव में खबर भेज कर कमला को बुलवा लिया.

हलके नीले रंग की किनारीदार सूती धोती, हाथों में कांच की दोदो चूडि़यां और मांग में सिंदूर की हलकी सी रेखा, बिंदी जो पहले चवन्नी के आकार की हुआ करती थी, अब एक बिंदु का आभास भर दे रही थी.

इंदु को देख कर अपनी वही मनमोहिनी हंसी हंस कर कमला बोली, ‘‘अच्छा, इंदु बिटिया आई है. बड़े दिनों में आई बिटिया, अच्छी तो हो?’’

‘‘मैं तो अच्छी हूं पर तुम्हें क्या हो गया ?है? पहचानी ही नहीं जा रही हो. बड़ी कमजोर दिख रही हो,’’ इंदु बोली.

उस की आंखों में आंसू भर आए पर फिर भी हंस कर बोली, ‘‘तुम्हें सब पता चल गया होगा, बिटिया. अब बताओ, क्या अब हम वैसे ही रहेंगे?’’

उस का उत्तर सुन कर इंदु से कुछ कहते न बना. सिर झुका कर हाथ से यों ही निरुद्देश्य कुछ आड़ीतिरछी लकीरें बनाती रही. आंखें उस की भी भीग गईं. जिस औरत को लोग भलाबुरा कहते रहे, उस को ‘चालू’ समझ कर उस का अपमान, तिरस्कार करते रहे, उस को इस रूप में देख कर मन एक अनजानी श्रद्धा से भर गया और अपनी सोच से घृणा सी होने लगी.

कमला तो थोड़ी देर बाद उठ कर चली गई पर मन में हमेशा के लिए एक प्रश्न छोड़ गई कि क्या हम सभ्य, शिक्षित कहलाने वाले लोग प्यार की परिभाषा जानते हैं?

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