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19 दिन 19 टिप्स: अगर आप सास बनने जा रही हैं तो पढ़ें ये खबर

‘पता नहीं वो मेरे साथ एडजेस्ट कर पाएगी या नहीं? कहीं वह बेटे को हमसे अलग न कर दे. राजन के पापा कहते हैं कि मैं बहुत ज्यादा डामिनेटिंग हूं, मेरी किसी से नहीं बन सकती. बहू से भी नहीं बनेगी. क्या करूं वकील हूं. अपनी बात मनवाने की आदत हो गयी है. सही बात पर अड़ जाती हूं तो अब इसमें डामिनेटिंग होने वाली बात कैसे आ गयी?’

कामिनी सचदेवा ने अपनी चिन्ता अपनी सबसे करीबी सहेली अनुराधा से जाहिर की. कामिनी के बेटे राजन की शादी अगले महीने डॉ. अरुणा से होनी है. अरुणा गायनोकौलोजिस्ट है. अपने पापा के नर्सिंग होम में काम करती है. जबकि कामिनी और उनका बेटा राजन दोनों वकालत के पेशे में हैं और उनके पति का बिजनेस है. कामिनी काफी तेज-तर्रार महिला है, जिसके चलते उनके पेशे में उनका काफी नाम भी है. रिकॉर्ड है कि अभी तक वह कोई केस नहीं हारी हैं. मगर जब बात घर-परिवार की होती है तो कामिनी की यही तेजी उन पर कई बार भारी पड़ जाती है. उनके ज्यादातर रिश्तेदार उनके परिवार से इसीलिए दूर-दूर रहते हैं क्योंकि वह अपने आगे किसी की सुनती ही नहीं हैं. अक्सर उनको तेज स्वर में बातें करते सुन लगता है जैसे वह लड़ रही हैं. इधर जब से उनके इकलौते बेटे राजन की शादी तय हुई है तब से पति कई बार उन्हें समझा चुके हैं कि थोड़ा धीमे स्वर में बात किया करो. हम दोनों तो तुम्हारी बातें बर्दाश्त कर लेते हैं, लेकिन बहू के साथ अपने व्यवहार को नरम रखना, वरना वह इस घर में दो दिन भी नहीं टिकेगी. ऐसा न हो कि राजन उसको लेकर हमसे अलग हो जाए.

कामिनी दिल से बहुत अच्छी महिला हैं मगर जुबान की जरा कठोर हैं. सच को नंगा खड़ा कर देना उनकी आदत है. झूठ या बनावट उन्हें पसन्द नहीं है. सुस्ती बर्दाश्त नहीं है. खुद भी हमेशा चुस्त रहती हैं और चाहती हैं कि सब उनकी तरह चुस्ती-फुर्ती दिखाएं. इसके चलते ड्राइवर से लेकर मेड तक परेशान रहती है. अब जब बेटे की शादी तय हुई है तो उनके इस व्यवहार के कारण न सिर्फ उनका बेटा और पति भविष्य के प्रति आशंकित हैं, बल्कि वह खुद भी परेशान हैं कि कहीं उनकी कोई बात बहू गलत तरीके से न ले ले. आखिर वह भी एक डॉक्टर है, भला उनकी बातें क्यों बर्दाश्त करेगी? इसी डर से कामिनी आजकल खुद को बदलने की कोशिश में लगी हुई हैं. आजकल वह हरेक से धीमे स्वर में बात करने की कोशिश करती हैं.

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वैसे भी सास-बहू का रिश्ता बड़ा नाजुक होता है. दोनों के बीच तनातनी बनी ही रहती है. शादी के बाद जहां लड़की के जीवन में तमाम बदलाव आते हैं, वहीं सास की जिन्दगी भी बदल जाती है.

माओं को बेटे की शादी की खुशी तो होती है, मगर बदलाव के लिए वह पहले से तैयार नहीं होती हैं. यही वजह है कि अधिकतर भारतीय परिवारों में बेटे की शादी के बाद रिश्ते उलझ जाते हैं और पूरा परिवार ट्रैक से उतर जाता है. तो अगर आप भी सास बनने जा रही हैं तो कुछ बातों के लिए खुद को उसी तरह तैयार करिए जिस तरह आपकी आने वाली बहू आप सबके साथ एडजेस्ट होने के लिए खुद को तैयार कर रही है. जरा सोचिए कि एक लड़की के लिए कितना मुश्किल होता है अपने मां-बाप, भाई-बहन, घर-परिवार को छोड़कर अनजान लोगों के साथ उनके घर में रहने के लिए खुद को तैयार करना. अपनी जिन्दगी जीने के तरीकों को छोड़कर दूसरे के बताए तरीके से जिन्दगी जीने के लिए रजामंद होना. वह अपना सबकुछ छोड़कर आएगी आपका घर संभालने, आपका वंश चलाने तो उसके लिए आशंकाएं पालने की अपेक्षा जरूरी है अपनापन विकसित करना.

कभी न सोचें कि बेटा हाथ से निकल जाएगा

अक्सर महिलाएं यह सोच कर परेशान रहती हैं कि जिस बेटे को उन्होंने अपना खून-पसीना, लाड-प्यार देकर पाला-पोसा, बड़ा किया वह शादी के बाद उनसे दूर हो जाएगा. उस पर बहू का कब्जा हो जाएगा. उसका प्यार बंट जाएगा. जबकि ऐसा नहीं है. आप अपनी शादी के शुरुआती दिनों को याद करिये. क्या आपने कभी अपने पति को अपनी सास से छीनने की बात सोची थी? नहीं. लेकिन आप दोनों की नजदीकियां देखकर आपकी सास का पारा हमेशा चढ़ा रहता था. वह आप पर हमेशा आरोप लगाती थी कि आपने उनसे उनका बेटा छीन लिया. जबकि ऐसा कतई नहीं था. आप इस बात को बहुत बेहतर जानती हैं कि आपकी सास की आशंका गलत थी.

यह इंनसिक्योरिटी हर महिला में होती है. इसी के चलते सास अपनी बहू से अपना तालमेल नहीं बिठा पाती है. बेटे को उसकी पत्नी मिली है, जिसके साथ उसको जीवन गुजारना है. अगर शादी के शुरुआती दिनों में वह उसकी नजदीकियां नहीं पा सकेगा, उसको नहीं समझ सकेगा तो उनका रिश्ता हमेशा के लिए कमजोर रह जाएगा. क्या आप चाहती हैं कि आपके बेटे के साथ ऐसा हो? अगर नहीं तो अपने बेटे-बहू को ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त साथ रहने दीजिये, उनके छोटे-बड़े फैसले मिलजुल कर लेने दीजिए. इससे उनकी अन्डरस्टैंडिंग बढ़ेगी और एकदूसरे पर विश्वास मजबूत होगा. आपको यह बातें समझनी चाहिएं और अपने बेटे को सपोर्ट करना चाहिए. आप मां हैं. आपकी जगह कोई भी नहीं ले सकता है. आप यह बात समझें कि आपकी बहू भी उसी इन्सान पर अपना प्यार लुटा रही है जिस पर आप लुटाती आयी हैं. अगर आप उन दोनों के साथ रहने पर खुशी जताएंगी तो उसका प्रसाद आपकी झोली में ही आना है.

बहू नहीं लेती है सास की जगह

कहा जाता है कि किचेन एक ऐसा स्थान है जहां सास और बहू दोनों अपना-अपना राज कायम करके रखना चाहती हैं. यह बात बिल्कुल भी सच नहीं है. सच तो यह है कि बीस-पच्चीस साल की लड़कियां रसोई बनाने के शुरुआती चरण में होती हैं और उस समय उनको खाना बनाने में एक्सपेरिमेंट करना अच्छा लगता है. वह नयी-नयी डिश ट्राई करती हैं. फिर शादी तय होने पर हर लड़की अपने मायके में कुछ नया बनाना सीखती है, और ससुराल आने पर वह उसे बना कर सबको खिलाना चाहती है. खासतौर पर अपने पति का दिल जीतना चाहती है. इसका मतलब यह नहीं है कि वह किचेन में आपकी जगह लेना चाहती है या अपने हाथ का स्वाद चखा कर घर के पुरुष सदस्यों को अपने कब्जे में करना चाहती है.

आप यह सोचिए कि यदि आपकी बेटी की शादी होने वाली हो और आप उसे कुछ नई रेसेपीज सिखाएं और फिर उसकी ससुराल में उसके हाथ का खाना खाकर उसके पति और सास-ससुर उसकी प्रशंसा करें तो इससे आपकी बेटी को कितनी खुशी मिलेगी. कुछ ऐसा ही आपकी बहू आपसे उम्मीद करेगी. उसके बनाए खाने को खाकर अगर आप उसकी थोड़ी सी प्रशंसा कर दें तो वह खुशी से झूम उठेगी और हो सकता है आपके गले ही लग जाए. आप दोनों के बीच ऐसा रिश्ता देखकर बेटा तो आपकी ममता का कायल हो जाएगा. इसलिए अगर बहू कुछ नया ट्राई कर रही है तो उसमें मीन-मेख निकालने की जगह उसका हाथ बंटाइए. रसोई में खुशियां रहेंगी तो पूरे घर में खुशियां रहेंगी.

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उसके मायके जाने पर रोकटोक न करें

आपको याद है जब आप शादी करके आयी थीं तो आपका मन अपने मां-बाप से मिलने के लिए कितना छटपटाता था? रात को जब सब सो जाते थे तो आप अपने मां-बाप को याद करके सारी रात आंसू बहाती थीं. याद है न? दरअसल मां-बाप से छूटना किसी के लिए भी बहुत तकलीफदेह होता है. भारतीय रवायत ने हमेशा लड़कियों से उनका घर छुड़वाया है. घर छूटने के दर्द का अहसास सास को बखूबी होता है, लेकिन जब उसकी बहू की बात आती है तो वह कोशिश करती है कि वह अपने मायके न जाए. भला क्यों? आपका बेटा आपके पास रहता है तो क्या बहू साल-छह महीने में कुछ दिनों के लिए अपने मां-बाप के साथ रहने न जाए? आपको यह बात समझनी चाहिए कि उसका अपने पैरेंट्स के पास जाना उतना ही नेचुरल है जितना आपके बेटे का आपके पास रहना. मायके जाने का यह मतलब नहीं है कि वह आपका सम्मान नहीं करती है. वह अपने मां-बाप से या भाई-बहन से फोन पर बातें करती है तो आपके कान खड़े हो जाते हैं. क्यों? क्या वह अपने जन्म देने और पालने-पोसने वालों से सिर्फ इसलिए नाता तोड़ ले क्योंकि अब वह आपके घर की बहू है? वह आपकी बहू है, आपके घर की बंधुआ मजदूर नहीं? आपके बेटे से शादी करके उसके रिश्तेदारों की लिस्ट में वृद्धि हुई है, पहले के रिश्ते टूटे नहीं हैं. इसलिए उन रिश्तों को निभाने की राह में बाधा न बनें वरना आपसे उसका रिश्ता खत्म होते देर नहीं लगेगी.

बेटा बहू का हाथ बंटाए तो बुरा क्या है

माएं अपने बेटों को कभी घर का काम करना नहीं सिखाती हैं, नतीजा यह होता है कि बेटे कभी किचेन में मां का हाथ बंटाते नहीं देखे जाते हैं, जबकि पति अक्सर पत्नी का हाथ बंटाते पाये जाते हैं. पति बर्तन-कपड़े धोता दिखता है. सब्जी-भाजी खरीदता नजर आता है. यहां तक कि कुछ पति तो नाश्ता-खाना भी बना देते हैं. बच्चों की देखभाल भी कर लेते हैं और उन्हें स्कूल के लिए भी रेडी कर देते हैं. आपके पति ने भी यह सारे काम आपके लिए किये होंगे. फिर आपको क्यों बुरा लगता है जब आपका बेटा आपकी बहू के साथ किचेन में कुछ काम करवा रहा होता है? आप अपनी सहेलियों में यह चुगली क्यों करती हैं कि बहू ने बेटे को बिल्कुल अपने कंट्रोल में कर रखा है? वह उसके आगे-पीछे नाचता रहता है? सच तो यह है कि नया शादीशुदा जोड़ा ज्यादा से ज्यादा वक्त साथ बिताना चाहता है. रसोई भी ऐसी जगह है जहां एक साथ काम करते हुए दोनों के बीच अंडरस्टैंडिंग बढ़ती है. वहां वे आपस में बातें करते हुए अपने प्यार और रिश्ते की डोर को और मजबूत करते हैं. क्या आप नहीं चाहतीं कि आपके बेटे-बहू के बीच हमेशा प्यार और सामंजस्य बना रहे?

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अब सबकुछ आपके व्यवहार और सोच पर निर्भर है. आप अपने घर को स्वीट होम बनाना चाहती हैं या पानीपत का मैदान यह आपके हाथ में है. पूर्वाग्रहों और दकियानूसी सोच को परे रखकर नई बहू का स्वागत करेंगीं और उसे बेटी मान कर उसके साथ अपना रिश्ता आगे बढ़ाएंगी तो आपके बेटे का ही नहीं वरन आपका भी वर्तमान और भविष्य दोनों सुखी बनेगा. प्यार भी बढ़ेगा और मान सम्मान भी.

अलविदा इरफान खान: जयपुर के जमीदार परिवार का बेटा कैसे बना बॉलीवुड का ‘मकबूल’

एक कहावत है कि बड़े लोगों को बीमारियां भी बड़ी होती हैं. हालांकि ऐसी कहावतों पर यकीन नहीं होता, क्योंकि उन्हें हम जितने सरलीकृत ढंग से समझते हैं, वे इतनी सरल नहीं होतीं. यह बात भी पूरी तरह से सरल निष्कर्षों से परे है, हो सकता है इस कहावत का यह मतलब हो कि दुर्लभ बीमारियां होती तो सब को हैं, लेकिन इन का पता सिर्फ अमीर लोगों को ही चलता है.

वजह ये कि बड़े लोग बीमारी का पता करने के लिए जितना कुछ खर्च कर सकते हैं, उतना हर कोई नहीं कर सकता. अकारण ही इरफान खान की बीमारी का नाम सामने आते ही स्टीव जौब्स का नाम नहीं आया, बल्कि इस नाम के सामने आने का एक मनोविज्ञान है कि स्टीव की तरह इरफान खान भी खास हैं, इसलिए न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर ने उन्हें अपने लिए चुना था.

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इरफान खान का फिल्मी कैरियर

इरफान खान नई दिल्ली स्थित नेशनल स्कूल औफ ड्रामा से पासआउट हैं. वह अपने सहज अभिनय के लिए जाने जाते हैं. 1988 में मीरा नायर की फिल्म ‘सलाम बौंबे’ से उन्होंने फिल्मों में डेब्यू किया था. यह फिल्म औस्कर अवार्ड के लिए भी नौमिनेट हुई थी. इरफान खान के फैंस उन्हें विशेष रूप से कुछ खास फिल्मों के लिए जानते हैं. इन फिल्मों में हैं, ‘हासिल’, ‘मकबूल’, ‘लाइफ इन मैट्रो’, ‘न्यूयार्क’, ‘द नेमसेक’, ‘लाइफ औफ पई’, ‘साहब, बीवी और गैंगस्टर-2’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘लंच बौक्स’ और ‘हिंदी मीडियम’.

साल 2011 में मिला पद्मश्री

इरफान के बेजोड़ अभिनय को सरकार ने भी नोटिस किया, जिस की वजह से साल 2011 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ के लिए साल 2012 में बेस्ट एक्टर का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला.

जयपुर के रहने वाले हैं इरफान

इरफान खान मूलत: जयपुर के टोंक कस्बे से हैं. उन का ताल्लुक जमींदार फैमिली से है और असली नाम है साहबजादे इरफान अली खान. इरफान की लाइफ में एक वक्त ऐसा भी आया था, जब वह एक्टिंग छोड़ना चाहते थे. दरअसल, नेशनल अवार्ड विनर इरफान खान एक तरह की एक्टिंग से ऊब गए थे.

1994-1998 तक टीवी में किया काम

1994-1998 के बीच उन्होंने कई टीवी शोज में काम किया. ये सब एक ही तरह के थे. इसलिए इरफान खान रोजरोज एक जैसा काम कर के परेशान होने लगे थे. तभी एक दिन उन्होंने तय किया कि अब रोजरोज यह सब नहीं करना. उस वक्त उन्होंने अभिनय करने से ही तौबा करने का मन बना लिया था.

लेकिन उन्हीं दिनों उन की भेंट आसिफ कपाडि़या से हो गई जिन्होंने उन्हें फिल्म ‘वॉरियर’ में पेश किया. इस फिल्म की स्क्रिप्ट इरफान खान को बेजोड़ लगी. उन्होंने इस फिल्म में अभिनय भी बेजोड़ किया और इस तरह से उन का मन बदल गया और वह फिल्म इंडस्ट्री में बने रहने के लिए तैयार हो गए.

फिल्म ‘वॉरियर’ के बाद उन्हें और भी कई अच्छी फिल्में मिलीं. इरफान खान जब एनएसडी में फाइनल ईयर में थे तभी डायरेक्टर मीरा नायर ने उन्हें फिल्म ‘सलाम बौंबे’ में काम करने के लिए औफर दिया था. लेकिन हाइट ज्यादा होने की वजह से उन का रोल काट दिया गया था. फिर भी ‘सलाम बौंबे’ से उन की पहचान जुड़ी रही. क्योंकि उन्होंने इस फिल्म से साल 1988 में डेब्यू किया था.

लेकिन इरफान को असली पहचान दिलाई विशाल भारद्वाज की फिल्म मकबूल ने, जिसमें उनकी एक्टिंग ने लोगों के दिलों पर छाप छोड़ दी.

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कॉस्टिंग काउंच से भी गुजरे इरफान खान

इरफान खान अपने सहज अभिनय के लिए ही नहीं, बल्कि साफगोई भरी बातचीत के लिए भी जाने जाते हैं. इरफान ने एक इंटरव्यू में खुलासा किया था कि कैरियर के शुरुआती दिनों में उन्हें कास्टिंग काउच के दौर से गुजरना पड़ा था.

बकौल इरफान, ‘मुझे मेल और फीमेल दोनों ही डायरेक्टर्स ने काम के लिए साथ सोने का औफर दिया था. ऐसा नहीं है कि कास्टिंग काउच का सामना सिर्फ एक्ट्रेस को ही करना पड़ता है, ये लड़कों के साथ भी हो सकता है. इस तरह की स्थितियों का सामना दोनों को ही करना पड़ता है. हालांकि इस परेशानी से लड़कियों को ज्यादा जूझना पड़ता है. कास्टिंग काउच काफी फोर्सफुली किया जाता है. यहां तक कि कई बार इस में आपसी सहमति भी नहीं होती, उस स्थिति में यह काफी दर्दनाक हो जाता है.

अलविदा इरफान खान: दादा तू ऐसे नहीं मर सकता…

यह साल था 2012, दिल्ली विश्वविद्यालय में मुझे दाखिला लेने का बहुत मन था. लेकिन 12वीं में नंबर इतने नहीं थे कि दाखिला ले पाता. किसी दोस्त ने बताया कि दाखिला लेने का एक तरीका है ईसीए कोटा. यानि एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी. अगर आपके पास कोई टेलेंट है सिंगिंग या एक्टिंग जैंसी तो आप ईसीए से दाखिला ले सकते हैं. मैं बहुत खुश हुआ. मैंने एक्टिंग का आप्शन चुना. उन दिनों फिल्मों में खास दिलचस्पी नहीं थी. लेकिन अपने उछल्ले व्यवहार को देख कर मुझे दाखिला लेने का यही तरीका बेस्ट लगा.

उस साल मार्च में इरफान सर की फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ आई थी. उस दौरान इरफान सर का नाम मेरे लिए बस सामान्य ज्ञान का हिस्सा भर था. दोस्त ने कहा अगर कॉलेज के जजों को इम्प्रेस करना है तो पान सिंह तोमर देख और उसका अभिनय स्टेज पर जाकर कर दे.

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पान सिंह तोमर ने डाला ऐसा असर…

मैं तुरंत फोन रिचार्ज की दूकान पर गया और पेन ड्राइव में उस समय ‘पान सिंह तोमर’ फिल्म का हॉल डब्ड प्रिंट लेकर आया. ‘पान सिंह तोमर’ शायद यह वही फिल्म थी जिसने सिनेमा को लेकर मेरे जीवन में अनंत इच्छाए जगा दी. इस फिल्म का एकएक सीन, हरएक डायलॉग, हर किरदार और ख़ास कर इरफ़ान सर का पान सिंह के किरदार ने सिनेमा के लिए मेरे मन के दरवाजे खोल दिए.

मुझे आज भी याद है, उस समय डीयू के आर्ट फैकल्टी के स्पिक मकाय केन्टीन के अन्दर में बस इरफ़ान सर के डायलॉग जोर जोर से दोहराता करता था. और उनमें मेरा सबसे पसंदीदा था कि “बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में.” यह डायलॉग इतना पसंद था कि दोस्तों के साथ मस्ती के समय उनकी बातों को काट कर हर बार इसी से पलटवार दिया करता. सच मानो यह सिर्फ इसलिए नहीं कि सवाल सिर्फ दाखिले का था बल्की इस से कई ज्यादा कि मुझे उन्होंने अच्छा सिनेमा देखने के लिए प्रेरित किया.

हांलाकि जब मैं खालसा कॉलेज में दाखिले के ऑडिशन के लिए स्टेज पर चढ़ा तो बहुत सहम गया, मुझ पर पड़ती लाइट और सामने अंधेरें में से दिखती कई चमकती आंखो से सन्न रह गया. टूटते फूटते बस मंच में अपना टाइम खा कर वापस चला आया. अब इस प्रकरण में कॉलेज में दाखिला नहीं हुआ. यह समझ आ गया कि बेहतरीन एक्टिंग करना हर किसी के बसके बात नहीं. उसके बाद मैंने एक्टिंग का ख़याल दिमाग से तो निकाल दिया लेकिन आलू के बोरों के भाव सिनेमा देखना चालू कर दिया.

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इरफ़ान सर हमारी पीढ़ी के लिए बने थे

ख़ुशी इस बात की है कि जिस अभिनेता की फ़िल्में धड़ल्ले से देखनी शुरू की वह इरफ़ान सर थे. सलाम बॉम्बे, मकबूल, हांसिल, एक डॉक्टर की मौत और बहुत सारी. संजीदा फिल्मों में दिलचस्पी बनने लगी ओम पूरी, नसीर सर, पंकज कपूर, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी इत्यादि को देखना भी शुरू किया. आमतौर पर संजीदा फ़िल्में देखने वाले लोग इरफ़ान सर से पहले ओम पूरी, नसीर सर को देख चुके होते हैं, मेरे साथ यह उल्टा हुआ मैंने पहले इरफ़ान सर को ही देखा. यह इसलिए भी हो सकता है क्योंकि शायद इरफ़ान सर हमारी पीढ़ी के लिए बने थे.

आज इस शानदार कलाकार ने ‘मदारी’ बन कर हमें खूब तमाशा दिखाया. वह आज हमारे बीच नहीं रहे. इरफान सर की आज 29 अप्रैल 2020 को निधन हो गया है. लेकिन मेरे जैसे उनके चाहने वाले उन्हें हमेशा अपने दिलों में जगह देंगे. इस दुखद माहौल में उनके लिए उन्ही की फिल्म के ये डायलोग उन्हें समर्पित है –

“दादा तू ऐंसे नहीं मर सकता… हम ऊपर आकर फिर जवाब लेंगे.”
“हमारा बदला पूरा नहीं हुआ है… हम वापस आएँगे, हम दोबारा आएँगे.”

नहीं रहे बॉलीवुड के दिग्गज कलाकार ‘इरफ़ान खान’

बॉलीवुड और हॉलीवुड में नाम कमा चुके अभिनेता इरफ़ान खान की मत्यु ने बॉलीवुड में शोक की लहर दौर गयी. 54 साल के इरफ़ान खान न्यूरोइंडोक्राइन ट्यूमर से पीड़ित थे,जिसका इलाज़ उन्होंने विदेश में जाकर करवाया थाऔर इस बीमारी को दर्शकों के साथ शेयर भी किया था. वे ठीक होकर वापस मुंबई आये और ‘अंग्रेजी मीडियम’ फिल्म की शूटिंग राजस्थान में की,जो लॉक डाउन के चलते केवल दो दिन सिनेमाघरों में दिखी थी.मंगलवार की सुबह वे बाथरूम में गिर गए थे औरकोकिलाबेन अस्पताल में भर्ती हुए थे.

डाक्टरों के अनुसार उनकी कोलोन इन्फेक्शन की समस्या बढ़ गयी थी.जिससेआज सुबह उनका देहांत हो गया. वे एक संजीदा दिल इंसान थे और हमेशा हंसकर बात करते थे. वे जिन्दंगी को अपने तरीके से जीना पसंद करते थे और जब भी इंटरव्यू किया. उनकी जिन्दादिली देखने को मिलती थी. यही वजह है कि उनकी फिल्में भी अलग और प्रभावी रही. उन्होंने हमेशा लीक से हटकर फिल्में की और हर किरदार में अभिनय से जान डालाहै. उन्होंने टीवी से लेकर फिल्में,जहाँ भी काम किया सफल रहे.

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हालाँकि उनका शुरूआती जीवन संघर्ष से भरा था,लेकिन उन्हें अपने पर विश्वास था कि वे एक दिन कामयाब होंगे. उनकी पत्नी सुतपा सिकदार का उनकी कामयाबी में बहुत बड़ा हाथ कहते रहे, जिन्होंने  हर समय हर काम में उनका साथ दिया. इरफ़ान का ‘हिंदी मीडियम’ फिल्म में काम करना भी उनके लिए चुनौती थी,क्योंकि इसमें दिखाए गए कुछ तथ्य उनके जीवन से काफी मेल खाते थे.उसकी सफलता से प्रेरित होकर उन्होंने ‘अंग्रेजी मीडियम’ फिल्म बनायीं थी. हिंदी भाषा और उससे जुड़े लोगों को उन्होंने हमेशा महत्व दिया है, जिसे लोग कम समझते है. को वेएक बेहतर मैगज़ीन मानते थे, जिसमें हिंदी भाषा को अच्छी तरह से लिखा जाता है.

एक इंटरव्यू में उन्होंनेहिंदी भाषा को लेकर चर्चा भी की थी और कहा था कि बचपन से ही वेहिंदी के करीब थे. हालांकि पढाई उन्होंनेअंग्रेजी माध्यम से की है, लेकिनहिंदी साहित्य को उन्होंने पढ़ा था और उससे बहुत प्रभावित थे.हिंदी जानने वाले को कमतर और अंग्रेजी जानने वाले को बेहतर समझनेवालेउन्हेंपसंद नहीं था. इसलिए उन्होंने हॉलीवुड में काम कर इस बात को बखूबी सिद्ध कर दिया था, क्योंकि इन परिस्थितियों से वे कई बार गुजर चुके थे. उनका कहना था कि अंग्रेज देश छोड़कर चले गए है, पर अभी भी वे किसी न किसी रूप में राज कर रहे है.केवल भाषा ही नहीं,व्यवसाय से लेकर मीडिया, विकास के मोड्यूल,रहन-सहन आदि सबकुछ हम विदेश से ही लेते है.

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इरफ़ान का शुरूआती जीवन काफी संघर्षपूर्ण था,लेकिन उन्हें अभिनय पसंद था और उन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा. उन्हें कई बार रिजेक्शन का सामना भी करना पड़ा, पर वे शांत रहे,धीरे-धीरे जो चाहा मिलता गया. उनके हिसाब से एक कलाकार कितना भी काम कर ले,कभी भी अपने काम से संतुष्ट नहीं रहता ,उसे हमेशा कुछ न कुछ अलग करते रहने की इच्छा रहती है.आज वे नहीं है पर इंडस्ट्री उन्हें हमेशा उनकी कमी महसूस करेगी, क्योंकि वे केवल एक अच्छे कलाकार ही नहीं, एक अच्छे इंसान भी रहे है.

#lockdown: कोरोना का कहर

कोरोना वायरस का कहर देश पर ही नहीं, पूरी दुनिया पर भारी पड़ रहा है. चीन से शुरू हुआ चमगादड़ों और सांपों से उत्पन्न यह वायरस अभी तक हर चुनौती का मुकाबला कर रहा है. और छूत की बीमारी होने से इस का असर कब, किस से, किसे हो जाए, पता नहीं. दुनियाभर के भीड़भाड़ के कार्यक्रम टाल दिए गए हैं. इटली तो तकरीबन पूरा बंद हो गया. चीन, जहां से यह शुरू हुआ, बेहद एहतियात बरत रहा है. भारत में भी इस का डर फैला हुआ है. इस बार होली देशभर में फीकी रही.

प्रकृति का कहर कब, कहां टूट पड़े, यह पहले से जानना असंभव है. हालांकि, मानव बुद्धि और तकनीक इतनी विकसित हो चुकी है कि सब को भरोसा है कि सालभर में इस वायरस की वैक्सीन बना ही ली जाएगी. हर देश ने इस के शोध के लिए खजाने खोल दिए हैं क्योंकि जान है तो जहान है.

भारत में शोध पर तो ज्यादा खर्च नहीं हो पा रहा पर जो भी उपाय उपलब्ध हैं, उन का प्रयोग इस के फैलाव को रोकने के लिए तो करने ही होंगे. घनी आबादी वाले शहरों में यह फैलने लगा, तो अंधभक्ति व सांप्रदायिक वायरस से भी ज्यादा खतरनाक साबित होगा. आज हमारे यहां अंधभक्ति, खासतौर से सांप्रदायिक अंधभक्ति, जानें ले रही है. पर कोरोना वायरस फैल गया तो हमारी गंदगी, लापरवाही, साधनों के अभाव में यह बुरी तरह फैलेगा और गरीबअमीर, हिंदूमुसलिम, भाजपाईकांग्रेसी सब को बराबर का डसेगा.

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हमारे यहां अनुशासन की बेहद कमी है. हम वायरस को गंभीरता से नहीं लेंगे. देश की 80-90 फीसदी जनता अनपढ़ या अनपढ़ों के बराबर ही है जो वायरस के फैलने पर जो सावधानियां जरूरी हैं उन्हें न अपना कर टोनेटोटकों को अपनाना ज्यादा अच्छा समझेगी. जब यूरोप, अमेरिका में वायरस से बचने के लिए चर्चों में प्रार्थना करने का सहारा लिया जा सकता है तो यहां तो प्रधानमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री से ले कर अस्पतालों के डाक्टर तक पूजापाठ में ही तो शरण ले लेते हैं. ये सब वायरस के कहर को समझेेंगे नहीं. 10-20 लाख लोग मर जाएं, तो क्या फर्क पड़ता है अगर वे दूसरे धर्म, जाति, महल्ले, शहर या पार्टी के हों. लेकिन अगर खुद पर मौत आने लगे तो इसे पिछले जन्मों का प्रताप माना जाएगा.

कोरोना वायरस भीड़ वाली जगह में आसानी से फैलता है. पर हमारे यहां तो यह धारणा है कि कुंभ, आरतियों, तीर्थों में यह नहीं फैलेगा.

इस बारे में भ्रांतियां अंधभक्तों में जितनी जल्दी फैलती हैं उस का जवाब नहीं. मैक्सिको के राष्ट्रपति ने कहा कि उन्हें तो गले मिल कर अभिवादन करना ही होगा, इस से कुछ नहीं होगा, गौड विल सेव. अमेरिकी राष्ट्रपति आधे खब्ती आधे भक्त डोनाल्ड ट्रंप भी इसी गिनती में आते हैं. उन का अमेरिकियों को राष्ट्रव्यापी संबोधन कुछ ऐसा ही प्रयास था, विषय की गंभीरता से कहीं परे. कनाडा के प्रधानमंत्री को  कोरोना का इन्फैक्शन हो गया है. ब्राजील के राष्ट्रपति को होने का डर है.

हमारे देश भारत में झुग्गियों में चिपक कर सोना होता है, ट्रेनोंबसों में चिपक कर सफर करना होता है, यहां अगर यह फैला तो बचाव का कोई उपाय नहीं है.

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खाली होता खजाना

2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आते ही पंडित अरुण जेटली ने जिस तरह से भारत को सब से तेज गति से बढ़ता देश घोषित किया था वह भारत का विश्वगुरु होने जैसा धोखा देने वाला झूठा दावा था. अरुण जेटली ने संपत्ति मंत्री की हैसियत से अपने कार्यकाल के दौरान बारबार पौराणिक आदेश देने शुरू किए कि देश के नागरिकों को अपने पास चलायमान संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है. सभी पैसा राज्य यानी सरकार के बैकों में रखा जाना चाहिए. यह राजा की इच्छा है कि वह इस पैसे का क्या करे. जो सोच रहे थे कि उन का बैंकों के पास रखा पैसा सुरक्षित है, वे मोह के बंधन में थे. पर हां, मोह से मुक्ति दिलाने के कई कदम उठाए जा चुके हैं.

उठाए गए कदमों में नोटबंदी एक था. इस में गरीब और अमीर सभी को मजबूर किया गया कि जितना नकद धन घर में पाप के रूप में है, उसे वे राजा के सरकारी बैंकों में ‘लगभग’ दान के रूप में जमा करा दें. अपने पैसे जमा कराने पर कोई रुकावट नहीं थी. हां, मूर्ति पर चढ़ाए धन और मिष्ठान्न में से भोग के बाद कितना वापस मिलेगा, यह चक्रवर्ती राजा ने ऋषियोंमुनियों द्वारा दिए गए आदेश के अनुसार ही किया.

नया पुराण लिखा गया और भारतीय रिजर्व बैंक समयसमय पर उस पुराण की व्याख्या भक्तों को संपत्तिविहीन करने के लिए करता गया.

बैंकों में गए इस पैसे का क्या हुआ, अब यह स्पष्ट हो रहा है. संपत्ति मंत्री पंडित अरुण जेटली ने जनता के नाम से संचित धन को श्रेष्ठियों व ज्येष्ठियों को बांट दिया कि  वे इस से बड़ेबड़े मंदिर बनवाएं, और राष्ट्र व धर्मसुरक्षा का प्रबंध करें. इस संपत्ति का कितना अंश पापिन जनता को मिलेगा, यह उन के साथ हुए अनावश्यक शास्त्रविरोधी अनुबंधों से तय नहीं होगा, बल्कि नए पुराण के रचयिता भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा तय होगा.

बैंकों के खजाने खाली हो गए और देश के गिनेचुने ज्योषियों, श्रेष्ठियों, जिन में अधिकांश पावनभूमि गुजरात से संबंधित थे, को भरपूर संपत्ति मिली. जनता को अपने परिश्रम से बनाए गए पैसे को पाने के लिए अब फिर लाइनों में लगना पड़ रहा है. हाल में यस बैंक का संपत्तिमुक्ति कार्यक्रम चला है.

यह शुरुआत है. धीरेधीरे पूरे देशवासियों से कंदमूल और बक्कल

वस्त्र पहनने को कहा जाए, तो बड़ी बात नहीं. दिल्ली में जिस तरह पहले विश्वविद्यालयों, फिर विद्यार्थियों के साथ हिंसा, हत्या व अग्नि से भस्म करने का प्रयोजन किया गया और जिस तरह ज्ञानियों व पंडितों से भरे निदेशक मंडलों ने विघ्नों के बावजूद इस सब का अनुमोदन किया, उस से स्पष्ट है कि पौराणिक क्रांति सफल ही होगी और धन का मोह भी समाप्त होगा.

कांग्रेस में नेतृत्व संकट

कांग्रेस में छोटे से भूचाल महसूस किए जा रहे हैं. कांग्रेस के पिछले अध्यक्ष, नेहरू खानदान के वारिस राहुल गांधी एक तरह से अपनी पार्टी को चलाने की जिम्मेदारी उठाने के लायक साबित नहीं कर पाए हैं. कांग्रेस की बागडोर आजकल बीमार, वृद्ध और कमजोर होती सोनिया गांधी के हाथों में है, जो किसी तरह से जिम्मेदारी से छुटकारा चाहती हैं.

कांग्रेस अभी एक मरी पार्टी नहीं. भाजपा के अलावा कांग्रेस ही है जो देश के कोनेकोने में मौजूद है.

कांग्रेस आज पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में अकेले राज कर रही है. कर्नाटक, केरल, हिमाचल, उत्तराखंड, हरियाणा व कई उत्तरपूर्व राज्यों में अकेली विपक्षी पार्टी है. महाराष्ट्र व झारखंड में सहयोगी दलों के साथ सत्ता में है. लोकसभा व राज्यसभा में वह सब से बड़ी विपक्षी पार्टी है. उस के काफी विधायक देशभर में हैं. जिला परिषदों, नगरपालिकाओं, पंचायतों में उस की मौजूदगी है. कांग्रेस में अगर कमी है तो उस के केंद्रीय नेतृत्व में.

भारतीय जनता पार्टी का उफान अब थम गया है. उस ने देश की अर्थव्यवस्था का बंटाधार तो कर दिया ही है, उस के नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी की चर्चा के चलते उस के खिलाफ मुसलिमों, दलितों व पिछड़ों ने मोरचा खोल दिया है. मई 2019 में भारी जीत के बाद भाजपा एकएक कर के राज्यों के चुनाव हारती नजर आ रही है.

कांग्रेस की दिक्कत यह है कि सोनिया गांधी के बाद उस के दिल्ली के नेताओं में शशि थरूर, पी चिदंबरम, कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, मनीष तिवारी जैसे अंग्रेजीदां नेता ही बचे हैं. कोई भी सड़कों और गलियों में खाक छानने वाला नहीं है. कोई कन्हैया कुमार नहीं है. कोई जगन रेड्डी नहीं है. कोई हार्दिक पटेल नहीं है. जो हैं उन्हें दिल्ली में पार्टी के कर्णधार घास नहीं डालते.

प्रियंका गांधी भी राहुल गांधी की तरह हिचकिचाती नेता हैं जो सप्ताह में एक बार से ज्यादा मुंह नहीं खोलतीं. उन पर पति रौबर्ट वाड्रा पर चल रहे मामलों का गहरा काला साया भी पड़ा हुआ है.

कांग्रेस को नेता चाहिए, राजा चाहिए. फौज तैयार है पर कमांडर नहीं है. कांग्रेस की हालत 2014 से पहले वाली भाजपा जैसी है जब भाजपा लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज जैसे कमजोर हाथों में थी. नरेंद्र मोदी ने धुआंधार भाषणों से बाजी पलट दी.

अब कांग्रेस को नेता इंपोर्ट करना पड़ेगा जैसे भाजपा ने 2014 में गुजरात से किया था. युवाओं में से किसी को चुनना होगा. राहुल और प्रियंका को अपनी खातिर, पार्टी की खातिर व देश की खातिर कोई कौर्पाेरेट रैवोल्यूशन करनी होगी. कांग्रेसियों में तो कोई मिलने वाला नहीं है, यह पक्का है.

ब्रिटेन से सबक

भारतीय मूल के 3 हिंदू आजकल ब्रिटेन के मंत्रिमंडल में शामिल हैं. रिषी सुनक 39 वर्षीय बैंकर हैं जिन के पुरखे पंजाब से अफ्रीका गए थे और फिर ब्रिटेन पहुंच गए थे. उन्होंने इनफोसिस के नारायण मूर्ति की बेटी से प्रेम विवाह किया है. 47 वर्षीया प्रीति पटेल का परिवार भी अफ्रीका होते हुए ब्रिटेन पहुंचा था. आलोक शर्मा भी मंत्रिमंडल में हैं, जो आगरा से हैं.

रिषी सुनक वित्त मंत्री हैं, प्रीति पटेल गृह मंत्री और आलोक शर्मा व्यापार व एनर्जी मंत्री. क्या ये घुसपैठिए हैं? ये विधर्मी क्या इंग्लैंड की आस्था को नुकसान पहुंचा रहे हैं? क्या इन की  मंत्रिमंडल में मौजूदगी तुष्टीकरण की नीति है?

भारत में जो शोर रोज सुनाई देता है उस से तो ऐसा लगता है कि जो भी देश के बहुसंख्यकों में शामिल नहीं, वह गद्दार है और गोली का हकदार है. वह अपने देशप्रेम को हर रोज साबित करे और देश की ‘कृपा’ पर जीने का अभ्यास कर ले. जो हिंदू नहीं, वह पक्का पाकिस्तानी है, दुश्मन है, इस तरह के नारे खुलेआम सांसदोंमंत्रियों ने दिल्ली के चुनावी भाषणों में दिए थे. गृह मंत्री ने इनकार कर दिया कि इन नारों से

खास नुकसान हुआ होगा और ऐसे सांसदोंमंत्रियों का मुंह बंद करने की कोशिश तो की ही नहीं गई. जो पहले ऐसे शब्द बोलते रहे, 5 से 25 का जमाजोड़ समझाते रहे, वे देश में ऊंचे नहीं, बहुत ऊंचे पदों पर हैं. यदि यही भावना ब्रिटेन में हो, तो क्या भारतीय मूल के 3-3 हिंदू वहां के मंत्रिमंडल में होते?

अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, स्कैंडिनेवियाई देश अपने देशों में मुसलिमों को पनाह लेने दे रहे हैं. वे जानते हैं कि इन में से कुछ उद्दंड होंगे, कुछ कट्टरपंथी होंगे पर ज्यादातर उन के देशों की अर्थव्यवस्था को मजबूती देंगे. वे वहां की लेबर की बढ़ती गंभीर कमी को पूरा करेंगे. उन्हें वोट का हक भी दे दिया जाता है बिना चिंता किए कि गोरों की गिनती कम हो जाएगी.

हमारे देश में मौजूदा केंद्रीय सरकार के अधीन जिस तरह का अलगाव वाला रवैया अपनाया जा रहा है उस का नतीजा दिखना शुरू हो गया है. देश की आर्थिक प्रगति थम गई है. क्या हमारे शासक गुरु और धर्मगुरु यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया में बढ़ती राजनीतिक व आर्थिक हैसियत से कुछ सीखेंगे? देश की तरक्की के लिए क्या अलगाव का रवैया छोड़ सब का साथ ले कर सब का विकास करने की ओर कदम बढ़ाएंगे?

#lockdown: खेती-किसानी- अप्रैल महीने के जरूरी काम

गन्ने की फसल में अगर नमी की कमी दिखाई दे रही है, तो सिंचाई करें. निराईगुड़ाई का काम करें. खेत में खरपतवार न पनपने दें. यूरिया वगैरह व गोबर की अच्छी तरह सड़ी हुई खाद या कंपोस्ट खाद या केंचुआ खाद खेत में जरूरत के मुताबिक डालें. जैविक खाद डालने से खेत की मिट्टी की पानी को ज्यादा समय तक रोकने की कूवत पैदा होती है. साथ ही, मिट्टी की क्वालिटी में सुधार आता है, जिस से गन्ने की ज्यादा पैदावार मिलती है. पेड़ी वाली फसल में गन्ने की सूखी पत्तियां खेत में ही फैला दें, ऐसा करने से खेत में नमी बनी रहती है. साथ ही, खरपतवारों पर भी काबू रहता है.

* गेहूं की फसल पूरी तरह से पक जाने पर ही कटाई करें. दानों को दांत से काटने पर अगर कट की आवाज आए तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए. थ्रेशिंग के लिए सही मशीन का इस्तेमाल करें. गेहूं को अगर स्टोर करना है तो वैज्ञानिक तरीकों से ही स्टोर करें.

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* मूंग की बोआई का काम 15 अप्रैल तक जरूर निबटा लें. अगर मार्च महीने में मूंग बोई गई है, तो इस महीने जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.
* चने की देर से बोई गई फसल में इस महीने दाना पड़ने लगता है. अगर इस दौरान फली छेदक कीट का हमला दिखाई दे, तो फौरन किसी अच्छी कीटनाशी दवा का छिड़काव करें. समय पर बोई गई फसल कटाई के लिए तैयार हो गई है तो कटाई करें.
* चारे के लिए मक्का, बाजरा व लोबिया की बोआई का काम पूरा करें. यूरिया खाद को खेत में जरूरत के मुताबिक डालें. अगर जरूरत महसूस हो, तो दूसरी खादों को संतुलित मात्रा में दें.
* सूरजमुखी की फसल में फूल निकलते समय निराईगुड़ाई की जरूरत होती है. ऐसे में निराईगुड़ाई करें. खेत में नमी की कमी है, तो सिंचाई करें. यूरिया खाद को जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल करें.
* करेला, लौकी की पौध तैयार हो गई है, तो करेले की रोपाई 2×1 मीटर व लौकी की 150×60 सैंटीमीटर की दूरी पर करें. अगर अभी तक करेला व लौकी की नर्सरी नहीं डाली गई है, तो फौरन नर्सरी डालें.
* लहसुन की फसल तैयार हो गई है, तो गांठों की सावधानी से खुदाई करें. खुदाई करने के बाद 2-3 दिन तक फसल को खेत में सुखाने के बाद फिर छाया में सुखाएं. गांठों को वैज्ञानिक तरीके से स्टोर करें.
* मिर्च की फसल में फली बेधक कीट की रोकथाम के लिए कारगर कीटनाशी का छिड़काव करें. एफिड कीट की रोकथाम के लिए डाईमिथोएट या मिथाइल ओडेमिटान दवा के 0.1 फीसदी वाले घोल का 2 छिड़काव
15 दिन के अंतर पर करें.

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* बैगन की फसल में निराईगुड़ाई का काम पूरा करें. जरूरत के मुताबिक खादपानी दें. खरपतवारों को काबू में रखें.
* खीरा की फसल में फल मक्खी व लाल भृंग कीट की रोकथाम के लिए मैलाथियान दवा का इस्तेमाल करें. एफिड कीट की रोकथाम के लिए डाईमिथोएट दवा के 0.1 फीसदी वाले घोल का छिड़काव फायदेमंद है.
* अदरक की बोआई करें. बोआई के समय खेत में जरूरत के मुताबिक नमी मौजूद रहनी चाहिए, ताकि गांठों का जमाव अच्छी तरह हो सके. बोआई वाली गांठों का वजन
15-20 ग्राम होना चाहिए और बोआई से पहले गांठों को मैंकोजेब दवा से उपचारित कर लेना चाहिए. बोआई मेंड़ बना कर उन पर करें. लाइन से लाइन की दूरी 30-40 सैंटीमीटर व बीज से बीज की दूरी 20 सैंटीमीटर रखें. बोआई 5-10 सैंटीमीटर की गहराई पर करें. अपने इलाके की आबोहवा को ध्यान में रख कर ही किस्मों का

#lockdown: मोदीजी यह विधायक आपकी नहीं सुनता

बचपन में जब प्राइमरी स्कूल में हिंदी विषय के मास्टरजी व्याकरण में स्वर और व्यंजन सिखाया करते थे तो पल्ले कुछ नहीं पड़ता था. इस मारे मास्टरजी के पास एक घपरोल आइडिया हमेशा रहता था. वह थी उन की पतली लपलपाती बेत की लचकदार छड़ी. जहां विद्यार्थी अटका वहीँ इस छड़ी से पीछे का बेस लाल कर दिया करते. हांलाकि पल्ले तो उस के बाद भी नहीं पड़ता था. लेकिन यह दूसरे विद्यार्थियों के लिए सीख जरुर बन जाता था. और वे रटन तोते की तरह ही सही लेकिन रट जाया करते.

19 अप्रैल 2020 को प्रधानमंत्री मोदीजी ने स्वर व्यंजन तो नहीं लेकिन इंग्लिश ग्रामर के वोवल्स की क्लास लगा दी. हिंदी में जिसे स्वर कहते हैं इंग्लिश में उसे वोवल्स कहा जाता है. मोदी जी ने सोशल प्लेटफार्म लिंकडिन के माध्यम से वोवल्स के इन वर्ड्स को आधार बना कर कोरोना के संकट से जीवन में बदलाव और लड़ने की तरकीब बखूबी बताई, वैसे बोलने बताने की खूबी तो उन में बहुत है, ऐंसे ही थोड़े वे अपने प्रतिद्वंदियों के छक्के छुड़ा देते हैं.

अपनी इस पोस्ट में उन्होंने कोरोना खतरे से उपजी देश की स्तिथि को क्रिएटिव तरीके से समझाने की कोशिश की. जिस में वोवल्स की तर्ज पर पांच मुख्य बिंदु देश के सामने रखे. आज की स्थिति को देखते हुए बदकिस्मती से एकता और भाईचारे का जो बिंदु सब से पहला होना चाहिए था वह सब से अंत का यानी पांचवां बिंदु था. जिस में लिखा था कि कोरोना जातधर्म, रंग, भाषा, लिंग और सीमा नहीं देखता, इसलिए एकता और भाईचारा बनाए रखना जरुरी है. लेकिन इस में हमारे मोदीजी क्या कर सकते हैं. इस में तो सारी गलती अंग्रेजी अल्फाबेट की है.

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लेकिन मोदीजी से गलती यह हुई कि उन्होंने यह पोस्ट इंग्लिश में कर दी. जाहिर है, जब देश का बड़ा हिस्सा हिंदी के स्वर व्यंजन ठीक से समझ नहीं पाया तो ख़ाक इंग्लिश के समझेगा. और समझेगा भी कैंसे जब उसे समझाने वाले खुद स्कूल न गए हों.

यही हुआ पूर्वी उत्तर प्रदेश के विधायक सुरेश तिवारी के साथ. यह साहब बरहज विधानसभा सीट से भाजपा विधायक है. इन का एक वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हो गया है. जिस में वे कहते हुए पाए गए हैं कि “एक चीज का ध्यान रखियेगा, कोई भी मियां लोगों (मुसलामानों) के यहां से सब्जी नहीं खरीदेगा.” मामला तूल पकड़ता देख प्रदेश के भाजपा प्रवक्ता ने इस मामले में कहा कि पार्टी ऐंसे बयानों का समर्थन नहीं करती.

इंडियन एक्सप्रेस ने जब इस मामले में विधायक की पूछ ली तो साहब स्वीकार करते हैं और यहां तक कह देते है कि उन के साथ कई सरकारी अधिकारी मौजूद थे. विधायक जी कहते हैं कि उन्होंने तो लोगों को सिर्फ राय दी.

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वाह विधायकजी, कम से कम आप की इस राय ने पुष्टि तो कर दी कि किस पिटारे से निकल कर गली महल्लों में गरीब रेहड़ी वाले पीटे जा रहे हैं. लेकिन विधायक जी की नादानी तो देखिये, कहते हैं कि “आखिर इस में बवाल क्यों मचा रखा है?”

अब मोदीजी अगर पोस्ट हिंदी में लिखते तो हमारे विधायक जी भी उसे पढ़ पाते की कोरोना का किसी धर्म से लेना देना नहीं हैं. लेकिन समस्या सिर्फ भाषा की थोड़ी है मान लो अगर मोदीजी हिंदी में लिख भी देते तो पांचवे बिंदु तक आते आते तो विधायकजी को झपकी लग ही जाती. सही बात है भई, जब विषय पसंदीदा न हो झपकी लग ही जाती है. वैसे तो मोदी जी समुद्र किनारे कूड़ा उठाने की वीडियो बना कर सोशल मीडिया में ट्रेंडी बन जाते हैं क्या अपने नालायक विधायकों के लिए इस विषय में एक वीडियो नहीं बना सकते थे.

अभी कुछ दिन पहले की घटना है एक मुस्लिम डिलीवरी बॉय को उस के मुस्लिम होने की वजह से शायद विधायकजी की राय से प्रभावित आदमी ने सामान लेने से मना कर दिया. हांलाकि उस आदमी को बाद में थानों के चक्कर भी काटने पड़ गए. लेकिन समस्या वो आदमी नहीं जिस ने सामान लेने से मना कर दिया, समस्या है सुरेश तिवारी जैसे विधायक जिन्हें लोगों को सही राह दिखाने के लिए चुना गया है लेकिन यही खुद भटके हुए हैं और जनता को और भटका रहे हैं.

इस की चर्चा इसलिए जरुरी है क्योंकि भारत में कोरोना संकट तो चायनीज है और यह तो भक्त भी जानते हैं कि  चायनीज माल टिका है क्या भला? देरसवेर चला ही जाएगा. लेकिन देश की जड़ में जमी गरीबी और साम्प्रदायिकता का वायरस तो पक्का देशी है. यह कोरोना के साथ भी और कोरोना के बाद भी जाने का नाम ही नहीं लेगा.

जितना नुकसान कोरोना वायरस इस देश का कर सकता है उस से कई ज्यादा तो इन धर्मों की कट्टरता और इस कट्टरता को पनाह देती गन्दी राजनीति ने कर दिया है. लोगों के भीतर अविश्वास, कटुता, नफरत और गुस्सा भर दिया है. जो संभवतया कभी न कभी कहीं न कहीं विस्फोट होते रहेंगे.

अब अगर राज्य व्यवस्था में लपलपाती बेत (दंड) का हकदार सिर्फ गरीब प्रवासी मजदूर ही नहीं है तो सुरेश तिवारी जैंसे विधायक इस दंड के अधिक भोगी होने चाहिए. यह इसलिए नहीं कि दंड दे कर उन में सुधार आ जाएगा बल्कि इसलिए कि उन्ही के समकक्ष बाकी शरारती असामाजिक तत्व अपनी खराब मानसिकता को ऐसे खुलेआम प्रदर्शित न कर सकें. इसलिए संवेधानिक दायरे में रह कर सरकार और उन की पार्टी को इस पर कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए. ताकि किसी राजू या अहमद को सड़क पर अपने पहचान का बोर्ड लगाकर सब्जी बेचने की जरुरत न पड़े.

#lockdown: कोरोना से ज़्यादा क्वारंटाइन का डर

कोरोना से लोगो को बचाने के लिए आइसुलेशन सेंटरों में लोगो को क्वारटाइन किया जा रहा है. बीमारी से बचाने के लिए बने यह सेंटर लोगो के लिए बीमारी बनते जा रहे है.यहाँ कोरोना का भय और अकेलापन लोगो को डरा रहा है.

बाहरी जिलों से अपने घर जाने का मोह कहिये या जरूरत लोग पैदल, साइकिल या किसी भी तरह के साधन से मुसीबतों को उठा कर घर आ रहे तो उनको गांव या शहर में घर से बाहर ही आइसुलेशन सेंटर में 14 दिनों के लिए रखा जा रहा है.यह आईसुलेशन सेंटर में जाने से अब लोग डरने लगे है.

*घर पहुचते हुई मौत*

उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले में क्वारंटाइन किए गए एक युवक की मौत सोमवार को मौत हो गई. वह सोमवार की सुबह मुंबई से पैदल गांव पहुंचा था. गांव पहुंचने के बाद उसे क्वारंटाइन कर दिया गया. क्वारंटाइन के करीब चार घंटे के बाद उसकी तबीयत खराब हो गई और उसने दम तोड़ दिया.

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श्रीवस्ती जिले के मल्हीपुर थाना क्षेत्र के मटखनवा गांव निवासी एक युवक सुबह करीब सात बजे बहराइच होकर पैदल अपने गांव आया. यहां उसे प्राथमिक विद्यालय में क्वारंटाइन कर दिया गया. तकरीबन साढ़े दस बजे उसे पेट दर्द के साथ उल्टी-दस्त शुरू हो गई. गांव के सेक्रेटरी ने युवक की हालत बिगडने की जानकारी भंगहा सीएचसी अधीक्षक डॉ. प्रवीर कुमार को दी. जब तक सीएचसी से एंबुलेंस पहुंचती. तब तक युवक ने दम तोड़ दिया. मृतक युवक का सैंपल कोविड-19 जांच के लिए भेजा गया है. क्वारंटाइन सेंटर में पहुंचने के बाद उसके संपर्क में आए परिवार के आठ लोगों को स्कूल में ही क्वारंटाइन किया गया है.

मुम्बई से श्रावस्ती का सफर इसके लिए पैदल सरल काम नही था.16 सौ किलोमीटर पैदल और दूसरे साधनों से चोरी छिपे वह अपने घर पहुचने के लिये चल दिया. रास्ते मे अनगिनत मुसीबतों को वह झेल कर घर पहुचा तो घर वालो के साथ उसको भी स्कूल में रोक दिया गया. भूख थकान और दूसरी बीमारियों में उसके शरीर को मौत के मुंह तक पहुचा दिया. यँहा आते ही कोरोना की जांच होने लगी उसकी हालत को देख कर अगर पहले उसका इलाज किया गया होता तो शायद वह बच जाता.

सरकार दावा कर रही है कि हर आसुलेशन सेंटर में हर तरह के इलाज की सुविधाएं है.असल मे यँहा केवल लोगो को अलग थलग रखने की सुविधा है. हर मुम्बई से वापस आये युवक को समय पर इलाज मिल जाता तो उनकी जान बच सकती है. हर किसी के ऊपर कोरोना का भूत सवार है. उसके आगे कोई और बीमारी उसे नजर नही आ रही थी.यही नही एम्बूलेंस भी समय पर इस युवक को नही मिली.

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*शादी की जगह पहुच गया आइसुलेशन सेंटर*

शाहजहांपुर का रहने वाला महेश लुधियाना में अपने दोस्त पंकज के साथ साइकिल बनाने की दुकान पर काम करता था. उसकी शादी 25 अप्रैल को होने वाली थी। महेश को जब कोई साधन नहीं मिला तो वो अपने दोस्त के साथ साइकिल से ही चल दिए 8 सौ किलोमीटर दूरी 6 दिन में तय करके 15 अप्रैल को वह लोग अपने शहर पहुँच गए तो गांव से पहले ही रोक लिया गया. महेश कहता है कि जब मुझे किसी तरह की कोई दिक्कत नही थी तो क्यो 14 दिन के लिए आइसुलेशन सेंटर में रखा गया. मेरी शादी की तारीख तो आगे बढ़ गई है पर हमें अपने गांव पहुँच कर भी घर की जगह आसुलेशन सेंटर में रखा जा रहा है.

*मांगा घर मिल रहा आइसुलेशन सेंटर*

बड़ी संख्या में इस तरह की दिक्कते अब आ रही है.बाहर से लोग अपने घर पहुचने के लिए आ रहे है पर उनको पहले आसुलेशन सेंटर में रखा जा रहा है.

घर पहुचने से क्वारटाइन किये जाने का डर अब लोगो के सिर पर चढ़ कर बोलने लगा है. कुछ समय पहले तक केवल यह ही लग रहा था की जमाती लोग ही क्वारटाइन होने के डर से छिप रहे थे या इन जगहों पर हंगामा कर रहे थे.अब दूसरे लोग भी इसी डर का शिकार हो रहे. परेशानी का सबब यह है कि बाहर से आने वाले हर किसी को आइसुलेशन सेंटर में रखा जा रहा है.

*मनोवैज्ञानिक सलाह की जरूरत*

लोगो के मन से क्वारटाइन सेंटर में जाने के भय को खत्म करने के लिए सबसे पहले सरकार को अपने आसुलेशन सेंटरों की व्यवस्थाओं को सुधारने की जरूरत है.वँहा के लोग अच्छे व्यवहार के साथ क्वारटाइन किये गए लोगो से पेश आये.दूसरे सबसे बड़ी जरूरत है कि ऐसे लोगो की मनोवैज्ञानिको के द्वारा काउंसिल कराई जाए.

असल मे एक माह से चल रहे लॉक डाउन की वजह से जनता में जीवन और अपने भविष्य को लेकर तमाम तरह की परेशानियों का सामाना करना पड़ रहा है.काम धंधा बन्द होने और नॉकरी के जाने का अलग खतरा बन जाता है. ऐसे में बिना किसी तरह के सम्पर्क के 14 दिन आइसुलेशन सेंटर में रहना किसी कैदखाने से कम नही है। ऐसे में लोगो के मन मे निराशा का भाव डिप्रेशन बढ़ाने वाला साबित हो रहा है.उसे लगता है जैसे वो कोरोना से होने वाली मौत का इंतजार कर रहा है.

सरकार अब मनोवैज्ञानिको की व्यवस्था करने की बात कर रही है. पर इनकी संख्या बहुत सीमित है. गांव गांव बने आसुलेशन सेंटरों तक इन सुविधाओं का पहुचना बहुत टेढ़ी खीर है.ऐसे में लोगो के मन से क्वारटाइन के डर को निकालना सरल नहीं है.

अलविदा: जब योद्धा की तरह दुर्लभ बीमारी से लड़े थे इरफान खान

मार्च 2018 में जब इरफान खान ने खुद ही ट्वीट कर के बताया कि वह एक दुर्लभ बीमारी से ग्रस्त हैं तो उनके फैन सकते में आ गए थे. हालांकि यह दुर्लभ बीमारी क्या है, इस का उन्होंने अपने ट्वीट में खुलासा नहीं किया था, बल्कि उन्होंने किसी जासूसी उपन्यास के अधूरे वाक्य की तरह इसे अधूरा छोड़ दिया था.

इस के बाद अफवाहों और अनुमानों का तूफान उठना ही था, सो मीडिया से ले कर समूचे सोशल मीडिया का मंच उन की अनुमानित बीमारियों से भर गया. कुछ अनुमान तो दावे की हद से परे थे, विशेषकर ब्रेन कैंसर होने का अनुमान.

बहरहाल एक हफ्ते तक कहर ढाने वाली इन अफवाहों के तूफान को खुद इरफान खान ने ही आगे बढ़ कर संभाला, अपनी ‘दुर्लभ बीमारी’ के बारे में खुलासा कर के उन्होंने अपने चाहने वालों के लिए फिर एक ट्वीट किया और इस ट्वीट में बताया, ‘मुझे न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर नामक बीमारी है.’

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साथ ही उन्होंने इस बात का भी खुलासा किया कि इस दुर्लभ बीमारी के इलाज के लिए वह आजकल देश से बाहर हैं. हालांकि, अपने इस खुलासे में भी उन्होंने कई रहस्यात्मक पौज छोड़ दिए.

मसलन उन्होंने यह साफ नहीं किया कि बीमारी उन के शरीर के किस हिस्से में है और किस स्टेज में पहुंच चुकी है. इरफान खान ने अपने कमजोर दिल वाले फैंस को ध्यान में रख कर यह भी उजागर नहीं किया कि यह घातक है या फिर कोई सामान्य बीमारी है. बस, उन्होंने उलाहने की शक्ल में यह भर कहा कि न्यूरो संबंधी बीमारी हमेशा दिमाग में ही नहीं होती. यह जवाब उन लागों के लिए था जो अपने अनुमानों से यह साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि इरफान खान को ब्रेन कैंसर है.

संजीदा स्वभाव के इरफान खान ने  कुछ नहीं छिपाया

इरफान अली खान अपने अभिनय की बदौलत बौलीवुड से ले कर हौलीवुड तक अपने चाहने वालों की एक अच्छीखासी फौज के दिलों में राज करते हैं. 54 साल के इस अभिनेता ने बहुत कम समय में जितनी शोहरत हासिल की है, उस से कहीं ज्यादा सम्मान भी हासिल किया है.

इसलिए वह अपने चाहने वालों के लिए अपने बारे में जानकारी देने की शिष्टता और गरिमा दोनों का महत्त्व समझते हैं. यही वजह थी कि उन्होंने अपने बारे में अफवाहों के बाजार को नहीं चढ़ने दिया.

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वह खुद सामने आए और अपनी बात मार्गेरेट मिशेल के इस आकर्षक विचार से शुरू की कि जिंदगी पर इस बात का आरोप नहीं लगाया जा सकता कि जिंदगी ने हमें वह सब नहीं दिया, जिस की हमें उस से उम्मीद थी. अपने फैंस के लिए लिखे गए ट्वीट में उन्होंने यह भी कहा कि मैं ने सीखा है कि अचानक सामने आने वाली चीजें हमें जिंदगी में आगे बढ़ाती हैं.

जब मुझे न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर का पता चला तो इसे स्वीकार कर पाना आसान नहीं था, लेकिन मेरे आसपास मौजूद लोगों के प्यार और मेरी इच्छाशक्ति ने मुझे उम्मीद दी है कि मैं इस से पार पा जाऊंगा, बस आप सब मेरे लिए दुआएं कीजिए.

उन्होंने अपने एक के बाद एक किए गए कई ट्वीट में यह भी कहा था कि न्यूरो शब्द का इस्तेमाल हमेशा ब्रेन के लिए ही नहीं होता और रिसर्च के लिए गूगल से आसान रास्ता नहीं है. जिन लोगों ने मेरे लिखने का इंतजार किया, उम्मीद है उन्हें बताने के लिए मैं कई कहानियों के साथ लौटूंगा.

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इस के पहले जब उन्होंने पहली बार खुद ही अपनी बीमारी का खुलासा किया था, तब भी उन्होंने इसे बहुत ही शालीन तरीके से अपने चाहने वालों के बीच रखा था. तब उन्होने लिखा था, ‘कभीकभी आप एक झटके से जागते हैं. पिछले 15 दिन मेरे जीवन की सस्पेंस स्टोरी जैसे रहे हैं. मैं एक दुर्लभ बीमारी से पीडि़त हूं. मैं ने जिंदगी में कभी समझौता नहीं किया. मैं हमेशा अपनी पसंद के लिए लड़ता रहा और आगे भी ऐसा ही करूंगा.’

अपने एक और ट्वीट में उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए यह भी लिखा था कि, ‘मेरा परिवार और मेरे दोस्त मेरे साथ हैं. हम बेहतर रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे हैं. जैसे ही सारे टेस्ट हो जाएंगे, मैं आने वाले 10 दिनों में अपने बारे में सब बातें बता दूंगा. तब तक मेरे लिए दुआ करें.’

हालांकि इरफान अब ऐसी यात्रा पर निकल चुके हैं जहां से वो कभी नहीं लौटेंगे, लेकिन उनके फैंस के दिलों में उनकी यादे हमेशा ताजा रहेंगी.

19 दिन 19 टिप्स: फोरप्ले जितना ही जरूरी है आफ्टरप्ले  

सविता को इस बात का हमेशा मलाल रहता था कि सेक्स के बाद पति पीठ घुमा कर ऐसे सो जाता है, जैसे काम निकल जाने के बाद कोई करता हो कई बार उसने यह बात अपने पति विशाल को समझाने की कोशिश भी की. विशाल को जब याद रहता तो वह बेमन से सेक्स के बाद भी सविता को प्यार दुलार करता रहता. ज्यादातर सेक्स के बाद थक कर वह सो ही जाता था. सविता ने अपनी कई दोस्तों से भी बात कर पता किया. जिनमें से ज्यादातर ने यही कहा कि उनका पति भी ऐसा ही करता है कुछ ने कहा कि उनका पति सेक्स के बाद भी आफ्टरप्ले करता है. सभी से बात कर सविता को यह महसूस हुआ कि उसकी बाकी की सहेलियों को जैसे इस बात का फर्क ही नहीं पड़ता कि पति सेक्स के बाद आफ्टरप्ले में रूचि ले या नहीं.

आफ्टरप्ले की यह समस्या उसे मन ही मन कचोटती रहती थी. उसका मन करता था कि सेक्स के बाद भी पति उसी मुद्रा में उसके साथ कुछ समय रहे. जिस दिन विशाल ऐसा करता था सविता को मन ही मन सेक्स में एक अजीब सी खुशी महसूस होती थी. जिस दिन ऐसा नहीं करता था उसमें पूरा दिन एक चिड़चिड़ापन रहता था. ज्यादातर ऐसा ही होता था. ऐसे में सविता के लिये अपने को खुश रखना मुश्किल हो रहा था. सविता ने आफ्टरप्ले को लेकर बहुत सारी जानकारियां जुटाई पर अपने मन की गुत्थी उसे सुलझती नहीं दिख रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि आफ्टरप्ले न होने से उसमें इतनी बेचैनी क्यों होती है?

आफ्टरप्ले को लेकर सविता कितनी भी परेशान क्यों न हो नेहा जैसी महिलाओं को इस बात का कोई मलाल नहीं होता नेहा कहती है मेरी शादी को 3 साल हो गये. हम एक दूसरे से हर तरह से खुश है. मुझे नहीं लगता कि आफ्टरप्ले जैसी कोई चीज जरूरी होती है.मनोविज्ञानी डाक्टर रीना मलिक कहती हैं सेक्स को लेकर अभी समाज में बड़ी अज्ञानता फैली है. ऐसे में अगर किसी को इन चीजों का पता नहीं है तो उसका यह मतलब नहीं होता कि उसे किसी तरह की परेशानी नहीं है फोरप्ले, संतुष्टि और चरमसुख जैसी चीजों का ज्ञान बहुतो को नहीं होता है.’ 

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 डाक्टर रीना मलिक कहती है जो लोग अपनी पत्नी को सेक्स के दौरान पूरी तरह से संतुष्ठि नहीं कर पाते उनके लिये बेहद जरूरी है कि वह सेक्स के बाद आफ्टरप्ले पर पूरा ध्यान दें आज पतिपत्नी के बीच सेक्स में तनाव के मामले बढ़ रहे है. इनका प्रभाव वैवाहिक संबंधों पर भी पड़ता है कई बार बात घर की चाहरदीवारी से बाहर निकल कर अदालत तक पहुंच जाती है. ऐसे में सेक्स संबंधों के कोई कमी पति पत्नी के बीच न रह जाये इसका पूरा प्रयास करना चाहिए.

 क्या है आफ्टरप्ले:

सेक्स संबंध के 3 खास हिस्से होते हैं. इनको अलग अलग नामों से जाना जाता है. सेक्स करने के पहले के हिस्से को फोरप्ले कहा जाता है. दूसरा हिस्सा सेक्स का होता है. जिसमें शारीरिक संबंध बनते है. तीसरा हिस्सा आफ्टर प्ले कहलाता है फोरप्ले शारीरिक संबंध बनाने की शुरूआत होती है. ज्यादातर लोग सेक्स करने से पहले फोरप्ले करके अपने पार्टनर को सेक्स के लिये तैयार करते है कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो बिना फोरप्ले के ही सेक्स करते है. सेक्स संबंधों में फोरप्ले का सबसे खास रोल होता है यह सेक्स में संतुष्टि के लिये मदद करता है. इसका खास प्रभाव महिलाओं पर पड़ता है.

सेक्स संबंधों के जानकार डाक्टर गिरीश चन्द्र मक्कड कहते है सेक्स संबंधों के पहले अगर ठीक तरह से फोर प्ले किया जाये तो साथी को संतुष्टि किया जा सकता है. आमतौर पर जो लोग सही से फोरप्ले नहीं करते वह अपने साथी को सेक्स में खुश नहीं रख पाते जब तक सहयोगी सेक्स के लिये पूरी तरह से तैयार नहीं होगी सेक्स का आनंद अधूरा रह जायेगा. ऐसे में फोरप्ले का महत्व बढ़ जाता है.

औरत का सेक्स के मामले में मनोविज्ञान अलग होता है. वह धीरेधीरे सेक्स के लिये तैयार होती है और फिर धीरेधीरे ही वह संतुष्टि भी होती है. ऐसे में जब पुरूष बिना फोरप्ले के सेक्स को चटपट करके निपटाना चाहता है. तब स्त्री को खराब लगता है कई पुरूषों के सामने यह परेशानी आती है कि वह फोरप्ले में ज्यादा समय नहीं देते. ऐसे में स्त्री चिड़चिड़ी हो जाती है. जिन महिलाओं का सेक्स में पूरा आनंद नहीं मिलता वह आफ्टरप्ले से अपने मनोभावों को संतुष्टि करना चाहती है. ऐसे में जब पुरूष सेक्स के बाद उसे छोड़कर या अलग सो जाता है तो उसे अच्छा नहीं लगता है. जिन महिलाओं को सेक्स में उतनी संतुष्टि नहीं मिलती. जितनी मिलनी चाहिये उनके लिये आफ्टरप्ले सबसे बेहतर तरीका होता है. इसलिये आफ्टरप्ले के महत्व को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है.

 मनोविज्ञानी डाक्टर रीना मलिक कहती हैं सेक्स की संतुष्टि में आफ्टरप्ले के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है खासतौर पर उन महिलाओं के लिये जिनको सेक्स में कम संतुष्टि मिलती है. औरतों के लिये सेक्स का मतलब काफी कुछ उनके इमोशन पर निर्भर करता है ऐसे में सेक्स के बाद प्यार दुलार सेक्स में संतुष्टि का पूरा एहसास कराता है. इसी वजह से आफ्टर प्ले को खुश रहने का इमोशनल स्टेप माना जा सकता है. इसके अभाव में औरत का सेक्स से मोह भंग होने लगता है जो सुखी विवाहित जीवन के लिये बड़ा खतरा होता है.

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 आफ्टरप्ले रखें खुश:

 आफ्टर प्ले केवल सेक्स में संतुष्टि का एक जरीया भर नहीं है यह आपसी रिश्तों को मतबूत बनाने का काम भी करता है. ऐसे में जरूरी यह होता है कि सेक्स के बाद भी कोई ऐसी बात न की जाये तो तनाव बढ़ाने वाली हो. घर परिवार या दूसरी परेशानियों के बारें में बाद में बात करें जब औरत कोई ऐसी बात करती है जिसे वह पुरूष से जबरदस्ती मनवाना चाहती है, यह बात जब सेक्स संबधों के बाद करती है, तो उसे लगता है जैसे ब्लैकमेल कर रही हो. ऐसे में सेक्स के बाद प्यार मनुहार और हंसी मजाक भरी बातें करें यह आप दोनों को खुश रखने का काम करेगी. इसके बाद एक मिलने वाला सुकून न सेक्स के आनंद को कई गुना बढ़ा देता है. डाक्टर रीना मलिक कहती हैं सविता जैसी महिलाओं के परेशान होने का यही सबसे बड़ा कारण होता है. सेक्स में खुश न रहने वाली महिलाओं के लिये आफ्टरप्ले बहुत जरूरी हो जाता है.

पुरूषों को आफ्टरप्ले में रूचि कम होती है. इसकी सबसे बड़ी वजह उनका सेक्स में संतुष्टि हो जाना होता है. सेक्स के बाद वह मानसिक रूप से अपने को कम ही जुड़ाव महसूस करता है. अगर पुरूष भी सेक्स के बाद आफ्टरप्ले के महत्व को समझ ले तो दोनो के लिये भी अच्छा रहता है. कई बार पुरूष से सेक्स में कमी रह जाती है. ऐसे में आफ्टरप्ले उस कमी को पूरा करने का काम करेगा. आफ्टरप्ले औरत को खुश रखने का मनोवैज्ञानिक तरीका होता है. इसमें पुरूषों की रूचि कम भले ही हो पर औरत की संतुष्टि का एहसास ही उसे खुश रखता है.                                                           

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