दिल्ली के दंगों से किसी को कोई हैरानी हुई हो, ऐसी बात नहीं. ये दंगे तो होने ही थे. यह 2019 से दीवारों पर साफ लिखा था. गुजरात व हरियाणा में जरा सा बचने, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड की हारों के बाद दंगे कराना ही एक अकेला उपाय बचा था जिस से कि हिंदू राष्ट्र, जिसे पौराणिक राज कहना ज्यादा सही होगा, की ओर बढ़ा जा सकता था. यह काम धारा 370 को तकरीबन खत्म करने के बाद नहीं हुआ, राममंदिर के फैसले से नहीं हुआ और नागरिकता कानून में निरर्थक संशोधन के बाद भी नहीं हुआ तो भगवा गैंग को हैरानी तो होनी ही थी.
इसलिए कुछ करना था. और दिल्ली में मिली बुरी हार की खीझ का बदला भी लेना था. सो, दिल्ली को दंगों में झोंक दिया गया जिस में 2002 के गुजरात मौडल और 2019 के उत्तर प्रदेश व जामिया व जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पैटर्न पर पुलिस की देखरेख में दंगे कराए गए. 53 लोग मारे जा चुके हैं, 450 घायल हैं और बेशुमार संपत्ति जला दी गई है.ये दंगे समाप्त नहीं हुए हैं. भारत एक बार फिर सीरिया बनने की कोशिश में लगा है जहां के काफी बड़े क्षेत्र में धार्मिक कट्टर इसलामिक स्टेट का राज चला था और आज भी अमेरिका के दखल के बावजूद वे तत्त्व अपना प्रभाव बनाए हुए हैं. लाखों सीरियाई अपना घर छोड़ कर यूरोप के शहरों में भटक रहे हैं.
महाभारत विध्वंसों की कहानियां
धार्मिक राज्यों में तो यह होना ही था. हमारे रामायण, महाभारत और पुराण आमतौर पर युद्धों और विध्वंसों की कहानियों से भरे हैं. हमारे देवीदेवता सुख व समृद्धि के प्रतीक नहीं, तीर, चक्र, गदा, तलवार, खड़ग हिंसा के प्रतीक रहे हैं. इसलाम में शुरुआत में ही विरासत को ले कर विवाद हो गया था. ईसा की मृत्यु तो हिंसक थी ही, ईसाई क्रूसेडों के अलावा धार्मिक सेनाओं ने 2,000 साल दुनिया के कितने ही हिस्सों में हिंसा मचाई. उसी राह पर चलने में हिंसा तो होगी ही.
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यह हिंसा देश पर भारी पड़ेगी. यूरोप व पश्चिमी एशिया में धर्म के साथसाथ बहुत से आविष्कार होते रहे. नई सोच का जन्म हुआ. नई तकनीक ईजाद की गई. पानी के विशाल जहाज बने, जिन पर सामान लाद कर व्यापार किया जाता था और तोपें लाद कर लड़ाइयां लड़ी जाती थीं. भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ. हमारी तकनीक केवल मंदिरों तक सीमित रही. आम व्यक्ति के जीवन को सुधारने के लिए हमारे देश ने कुछ खास नहीं किया.
आज देश में जो हिंसा हो रही है और जो होती रहेगी वह देश को दिक्कतों के युग में ले जा सकती है, इस के आसार दिख रहे हैं. देश में आर्थिक मंदी छाई हुई है. बेरोजगारी बढ़ रही है. उद्योगपति कंगाल हो रहे हैं. बैंक दीवालियापन की कगार पर हैं. ऐसे में देश में धर्मजनित हिंसा देश के लिए आत्महत्या है, और कुछ नहीं.धर्मलाभ नहीं जनलाभ
दिल्ली सरकार आधीअधूरी सी है
दिल्ली में विधानसभा चुनाव बेहद स्थानीय ही थे क्योंकि दिल्ली सरकार आधीअधूरी सी है. मुख्यमंत्री को संविधान के तहत हर समय केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल की अनुमतियों का मुंह देखना पड़ता है. पर फिर भी आम आदमी पार्टी से मुकाबले के लिए प्रधानमंत्री उतरे, चाणक्य गृहमंत्री उतरे, कई मुख्यमंत्री आए, सैकड़ों सांसद आए ताकि अदना से छोटे कद के अरविंद केजरीवाल को रसातल में पहुंचा दिया जाए.
इस चुनाव के दौरान और बाद में भी भारतीय जनता पार्टी के सिर पर पाकिस्तान का भूत सवार रहा. भाजपा चुनावी जंग ऐसे लड़ रही थी जैसे युधिष्ठिर ने 5 गांवों के लिए कौरवों से युद्ध में सारे परिवार को झोंक दिया था.भाजपा भूल गई कि हार तो दूसरी बात, जीत के बाद भी युधिष्ठिर को खुशी नहीं मिली थी. क्योंकि वह जीत महंगी थी. राजधर्मानुशासन पर्व के प्रथम अध्याय में ही कृष्ण की कूटनीति से युद्ध जीते युधिष्ठिर विलाप करते रहे : ‘‘मैं ने लोभवश अपने बंधुबांधवों का संहार करवा डाला.’’
‘‘सुभद्रापुत्र अभिमन्यु तथा द्रौपदी के प्यारे पुत्रों को मरवा कर मिली विजय मुझे पराजय जान पड़ती है.’’‘‘माता कुंती ने कर्ण के जन्म का रहस्य छिपा कर मुझे बड़े दुख में डाल दिया है. गुप्तरूप से उत्पन्न हुए कुंती के पुत्र कर्ण हम लोगों के बड़े भाई थे. मैं ने राज्य के लोभ में भाई के हाथ भाई का वध करा डाला.’’
‘‘आत्मीयजनों को मार कर स्वयं ही अपनी हत्या कर के हम कौन सा धर्मफल प्राप्त करेंगे.’’‘‘हम लोग तो लोभ और मोह के कारण राज्यलाभ के सुख का अनुभव करने की इच्छा से दंभ और अभिमान का आश्रय ले कर इस दुर्दशा में फंस गए हैं.’’
भारतीय जनता पार्टी के हिंदू नेता
भारतीय जनता पार्टी के नेता हिंदू संस्कृति, इतिहास, देवीदेवताओं की बड़ीबड़ी बातें करते हैं पर इन ग्रंथों में ही युद्घ की विभीषिका का जो जिक्र है उस की उन को कोई जानकारी नहीं है क्योंकि ज्यादातर अंधभक्त हैं जो व्हाट्सऐप पर राम, कृष्ण की जानकारी प्राप्त कर खुद को विशेषज्ञ मान लेते हैं.भारत-पाकिस्तान, हिंदू-मुसलमान करने वाले नेताओं के राजगद्दी के मोह के लिए कई युद्धों व झड़पों में भारी नुकसान हुआ है, जो युधिष्ठिर के विलाप की तरह का है.
अरविंद केजरीवाल इस पचड़े में पड़ने से बचे रहे और बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य की चिंता करते रहे. केजरीवाल के इसी जाल में भाजपा के धुरंधर, चाणक्य सब फंसे रहे. यह याद दिला दें कि रामायण, महाभारत में राजाओं द्वारा जनहित कार्यों का वर्णन न के बराबर है. वहां राज्य के कर्तव्यों में केवल ऋषियोंमुनियों की सुरक्षा, उन्हें दान देना, गाएं देना, सुवर्ण देना, वर्णव्यवस्था बनाए रखना आदि है. अब जीतने के बाद केजरीवाल के सुर बदले, पर ये टैंपरेरी हैं या परमानैंट, पता नहीं.
दरअसल, देश को ऐसी सरकार चाहिए जो धर्म के लाभ के नहीं, जनता के लाभ के फैसले ले.महिला शक्तिएक काम करने वाली, औरतों के हकों के लिए लड़ने वाली, ऊंचे पद पर बैठी युवा महिला के लिए तलाक लेना और फिर खुलेआम उसे स्वीकार करना काफी कठिन है. दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्षा स्वाति मालिवाल ने ट्विटर पर संदेश डाला कि वे परियों की कहानियों से विवाह का अंत कर रही हैं क्योंकि विवाह को सहना दर्दनाक हो गया था. उन्होंने कहा कि कई बार 2 बहुत अच्छे, सुलझे हुए लोग भी साथ नहीं रह पाते.
भूख हड़ताल पर बैठने वाली महिलाएं
महिलाओं के लिए हर तरह के जोखिम लेने वाली, भूख हड़ताल पर बैठने वाली, पति के साथ हाथ में हाथ डाल कर चलने वाली स्वाति मालिवाल को तलाक की परीक्षा से गुजरना पड़ा. इस में चाहे कुछ अस्वाभाविक लगे, पर जब 2 जने साथ न रह पाएं तो अलग हो जाना ही सही है. पूजा भट्ट ने सही कहा कि एक झूठ को नकली प्रतिष्ठा के कारण ढोए रखना भी गलत ही है.
स्वाति जब तलाक की प्रक्रिया से गुजर रही थीं, जो कभी भी खुशनुमा नहीं होती और हर पल एक खामोश दर्द देती है, तब भी, अपना काम मुस्तैदी से कर रही थीं. उन्होंने मोहन भागवत को आड़ेहाथों लिया जो हिंदू औरतों को शेष समाज के साथ पौराणिक युग में ले जाना चाहते हैं जिस में औरतें ऋषियोंमुनियों के मनोरंजन की निर्जीव वस्तु मात्र मानी जाती थीं और गायों के साथ राजा उन्हें यज्ञों के बाद दान में दे देते थे. उन्होंने गुजरात के धार्मिक संस्था के होस्टल के प्रबंधकों की खिंचाई की जिन्होंने पैंटी उतरवा कर होस्टल की लड़कियों की जांच की कि कहीं वे मासिक पीरियड के दौरान अन्य लड़कियों के साथ बैठ कर मैस में खाना तो नहीं खा रहीं. उन्होंने दिल्ली मैट्रो में एक पुरुष द्वारा अपना अंग एक महिला यात्री को दिखाने पर पुलिस पर उस अपराधी को पकड़ने का दबाव भी बनाया.
व्यक्तिगत परेशानियों के समय में भी स्वाति मालिवाल ने जिस तरह अपनी जिम्मेदारियां पूरी कीं, वह यह साबित करता है कि महिलाएं चाहें तो अपने घरों के पुरुषों की हथकडि़यों से छुटकारा पा सकती हैं. जरूरत है सही कदम, सही होने और सही मानसिकता रखने की.
राममंदिर
सफेद दाढि़यों वाले व भगवा वस्त्र पहने तथाकथित संतों, महंतों की इच्छा पूरी करते हुए सुप्रीम कोर्ट और सरकार की मेहरबानी से अयोध्या में राममंदिर का निर्माण करने के लिए ट्रस्ट का गठन हो ही गया. दशकों से जो हिंदू इस सपने को देख रहे थे वे चाहे संतुष्ट हों पर यह संदेह बना रहेगा कि यह मंदिर देश की बड़ी जनता के लिए पराया ही रहेगा. मुसलमानों ने उस जगह बनी बाबरी मसजिद के लिए कानूनी लड़ाई चाहे लड़ी हो पर देशभर में उत्पात कभी नहीं मचाया था जबकि हिंदू 1947 में विभाजन से पहले भी मचा रहे थे. बाबरी मसजिद कभी भी मुसलमानों के लिए आस्था का कोई बड़ा केंद्र नहीं रही.
अब जब यह मंदिर बन भी जाएगा तो भी सदा यह याद दिलाता रहेगा कि इस के नाम पर देशभर में मुसलिम विरोधी हिंसक आंदोलन हुए. कांग्रेस ने 1910 से 1947 तक आजादी की लड़ाई के लिए राजनीति की थी, जबकि भाजपा ने सदियों पुराने पौराणिक काल्पनिक देवता के नाम पर देशभर में विवाद फैलाया था. राममंदिर हिंदुओं की प्रगति, उन्नति, चेतना, विकास, तार्किक सोच, शिक्षा का प्रतीक नहीं होगा, बल्कि यह सामाजिक बंटवारे, अंधविश्वास और अंधभक्ति का प्रतीक होगा.
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हिंदुओं की आस्था का खेल बहुत रोचक है. यह आस्था शिफ्ट होती रहती है. यह किसी पेड़, पेड़ के नीचे रखे पत्थरों, कुएं, नदी, पहाड़, झरने पर भी हो सकती है. आस्था के चलते ही संतोषी मां एक बार मुख्य देवी बन गई थी. कभी गणेश की पूजा मुख्य हो जाती है तो कभी साईं बाबा की. कुछ के लिए वैष्णो देवी मुख्य हो जाती है तो कई अनजाने से गुरुजी की समाधि पर जम जाते हैं.
इन सब को क्या राममंदिर की ओर ठेला जाएगा या राममंदिर केवल ऊंचे सवर्णों यानी ब्राह्मणों, क्षत्रियों का ही मंदिर होगा? देश के बनिए वैसे राममंदिर समर्थक हैं पर वे पूजते शिव या हनुमान को हैं. उन्हें राममंदिर क्या आमंत्रित करेगा? या फिर यह केवल हिंदूमुसलिम विवाद का सरकारी स्मारक बन कर रह जाएगा?
राममंदिर का कंपीटिशन कैसा होगा?
भाजपा ने बड़ी शान से सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति बनवाई पर यह स्थल अभी तीर्थस्थल नहीं बना है. इस की प्रतियोगिता क्या राममंदिर से होगी? देशभर में विष्णु, कृष्ण, शिव, गणेश, हनुमान, दुर्गा, काली के मंदिरों से इस राममंदिर का कंपीटिशन कैसा होगा? जो भी यहां जाएगा क्या उस के सामने हिंदूमुसलिम विवाद की वैसी ही छवि खड़ी होगी जैसी भारत और पाकिस्तान की सीमा – अटारीवाघा्ा – पर होती है?
राममंदिर हिंदू समाज को नया उत्साह देगा, ऐसा अभी तो नहीं लगता. सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया ही ऐसे समय पर है जब अर्थव्यवस्था सब से ज्यादा कमजोर है. बेरोजगारी बढ़ रही है जबकि उत्पादन घट रहा है, महंगाई धीरेधीरे बढ़ रही है, व्यापार ठप हो रहे हैं, सरकार के खजाने में पैसे नहीं हैं और वह अपनी कंपनियां जमीनजायदाद समेत बेच रही है, किसान आत्महत्याएं बढ़ रही हैं. ऐसे में हिंदूमुसलिम विवाद का स्मारक राममंदिर देश को नया आत्मबल और आत्मविश्वास देगा, ऐसा प्रतीत नहीं होता. राममंदिर भगवा दलों की जीत अवश्य है, पर यह देश को कभी कुछ देगा, इस में संदेह है