यह साल था 2012, दिल्ली विश्वविद्यालय में मुझे दाखिला लेने का बहुत मन था. लेकिन 12वीं में नंबर इतने नहीं थे कि दाखिला ले पाता. किसी दोस्त ने बताया कि दाखिला लेने का एक तरीका है ईसीए कोटा. यानि एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी. अगर आपके पास कोई टेलेंट है सिंगिंग या एक्टिंग जैंसी तो आप ईसीए से दाखिला ले सकते हैं. मैं बहुत खुश हुआ. मैंने एक्टिंग का आप्शन चुना. उन दिनों फिल्मों में खास दिलचस्पी नहीं थी. लेकिन अपने उछल्ले व्यवहार को देख कर मुझे दाखिला लेने का यही तरीका बेस्ट लगा.

उस साल मार्च में इरफान सर की फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ आई थी. उस दौरान इरफान सर का नाम मेरे लिए बस सामान्य ज्ञान का हिस्सा भर था. दोस्त ने कहा अगर कॉलेज के जजों को इम्प्रेस करना है तो पान सिंह तोमर देख और उसका अभिनय स्टेज पर जाकर कर दे.

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पान सिंह तोमर ने डाला ऐसा असर...

मैं तुरंत फोन रिचार्ज की दूकान पर गया और पेन ड्राइव में उस समय ‘पान सिंह तोमर’ फिल्म का हॉल डब्ड प्रिंट लेकर आया. ‘पान सिंह तोमर’ शायद यह वही फिल्म थी जिसने सिनेमा को लेकर मेरे जीवन में अनंत इच्छाए जगा दी. इस फिल्म का एकएक सीन, हरएक डायलॉग, हर किरदार और ख़ास कर इरफ़ान सर का पान सिंह के किरदार ने सिनेमा के लिए मेरे मन के दरवाजे खोल दिए.

मुझे आज भी याद है, उस समय डीयू के आर्ट फैकल्टी के स्पिक मकाय केन्टीन के अन्दर में बस इरफ़ान सर के डायलॉग जोर जोर से दोहराता करता था. और उनमें मेरा सबसे पसंदीदा था कि “बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में.” यह डायलॉग इतना पसंद था कि दोस्तों के साथ मस्ती के समय उनकी बातों को काट कर हर बार इसी से पलटवार दिया करता. सच मानो यह सिर्फ इसलिए नहीं कि सवाल सिर्फ दाखिले का था बल्की इस से कई ज्यादा कि मुझे उन्होंने अच्छा सिनेमा देखने के लिए प्रेरित किया.

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