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Emotional Story : कितनी गलत थी मैं – पढ़ी लिखी होने के बावजूद भी वह बेवकूफ क्यों थी?

Emotional Story : एक लंबे प्रवास के बाद मैं वापस अपने घर जा रही थी। रास्तेभर मेरा मन 8 माह से छोड़े हुए अव्यवस्थित घर को व्यवस्थित करने में उलझा हुआ था। घर पहुंचने से पहले ही मैं ने कामवाली से संपर्क साधने का प्रयास किया पर नहीं हो सका। घर पहुंच कर झाड़ूपोंछा करने वाली राधिका तो मिल गई, पर बरतन साफ करने वाली रानी न मिल पाई। उस की जगह मीना काम पर लग गई।

तभी एक दिन रानी मिलने आ गई।आते ही बोली, “आंटीजी, अंकलजी अब ठीक हैं न? यहां से तो अंकल ठीकठाक गए थे, फिर वहां जा कर क्या हो गया कि औपरेशन तक करवाना पड़ा?” उस ने बड़ी सहानुभूति से पूछा।

“तुम्हें अंकलजी के बारे में किस ने बताया है?” मैं ने उत्सुकतावश पूछा।

“सामने वाली आंटी कल बाजार में मिली थीं। मैं तो बस उन्हीं का हालचाल जानने आई हूं,” उस ने बड़ी आत्मीयता से कहा।

उस के मुंह से सहानुभूतिपूर्ण, आत्मीय शब्द सुन कर आश्चर्य भी हुआ और अच्छा भी लगा। अपनी व्यस्त दिनचर्या में से समय निकाल कर मात्र कुशलक्षेम जानने के लिए आना उस के आंतरिक लगाव का प्रतीक था, नहीं तो आजकल व्यस्तताएं इतनी बढ़ गई हैं कि सगेसंबंधी तक औपचारिकताएं निभाने से कतराने लगे हैं। मन अंदर तक भीग गया।

“काम करोगी?” मैं ने पूछा।

“आंटीजी, मेरे पास काम बहुत है। काम खत्म कर के घर वापस जातेजाते दोपहर के 3 बज जाते हैं।तब तक बच्चे भी स्कूल से वापस आ जाते हैं। वैसे, आप ने करवाना क्या है?” उस ने जानना चाहा।

“बरतन, साफसफाई और कपड़े आदि के सब कामों का इंतजाम हो गया है। मैं चाहती हूं कि सुबह रसोई में तुम घंटा भर मेरी मदद कर दिया करो। सुबह नाश्ता तुम यहीं कर लिया करो।”

कुछ देर सोचने के बाद वह बोली, “सुबह थोड़ा जल्दी उठने की कोशिश करती हूं,” इतना कह कर वह चली गई।

3-4 दिन बाद वह हाजिर थी। आते ही रसोई में मदद करने के अलावा घर को व्यवस्थित करने, डस्टिंग, कपड़े संभालने जैसे छोटेछोटे काम भी करने लगी। फिर एक दिन आते ही बोली,”आंटीजी, कल से मैं आधा घंटा देर से आऊंगी।”

कारण पूछने पर बोली,” स्कूल से मेरे छोटे बेटे की शिकायत आई है कि वह स्कूल देर से पहुंचता है। कल से मैं उसे तैयार कर के खुद स्कूल छोड़ कर फिर काम पर आऊंगी। उस के पापा के बस का कुछ भी नहीं है।”

शिक्षा के प्रति उस की ललक देख कर मन खुश था। अब मैं अकसर कौपी, पैंसिल, पैन जैसी छोटीछोटी चीजें उस के बच्चों के लिए दे कर अपने देने के सुख, अपने अहम को संतुष्ट कर लेती थी।

एक दिन मैं ने उस के बच्चों के लिए कुछ खाने को दी तो वह बोलने लगी कि इस को खाते कैसे हैं। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि ये लोग भी इसी दुनिया के वासी हैं। फिर एक बार वह 3-4 दिनों तक लगातार नदारद थी। कारण पूछने पर बोली, “बच्चे बीमार थे। उन की दवा, देखभाल सब मुझे ही करना पड़ता है। इन के पापा से तो कोई उम्मीद नहीं है।”

“फोन तो कर सकती थीं?” मैं ने कहा

“आंटीजी, मुझे नंबर मिलाना नहीं आता है,” उस ने सहजता से कहा।

मैं ने अपना नंबर स्पीड डायल पर डाल दिया,”बस, यह नंबर दबा दिया कर और फोन बंद न किया कर। तेरा फोन बंद था। मैं ने कितनी बार फोन किया था,” मैं ने खीज कर कहा।

“आंटीजी, क्या करूं? बच्चों की बीमारी में फोन चार्ज करना ही भूल गई थी,” वह दुखी हो कर बोली।

वाह री मां की ममता…अब जब भी वह देर से आती तो मुझे फोन कर देती थी। कारण वही बताती कि बच्चों की फीस भरनी है, यूनिफौर्म लेनी है या फिर स्कूल टीचर ने बुलाया है…फिर एक दिन उस ने रोते हुए फोन पर कहा, “मैं काम पर नहीं आ सकती हूं।”

कारण पूछने पर बोली, “मेरा बेटा कहीं भाग गया है।”

2 दिन बाद आ पहुंची। बेटे के विषय में पूछने पर बोली, “मैं यहां काम पर थी। घर पर मेरे पति ने शराब के नशे में बेटे को इतना पीटा कि वह घर से भाग गया। वह तो संयोग था कि उस के किसी दोस्त ने उसे स्टेशन पर देख लिया और हम उसे घर ले आए।”

“क्या नशे में वह तुम पर भी हाथ उठाता है?” मैं ने जानना चाहा

इतना सुनते ही गुस्से से उस का चेहरा तमतमाने लगा। उस का यह रौद्र रूप देख कर मैं हैरान थी।

“शुरू में उस ने 1-2 बार ऐसा किया जरूर, पर एक दिन मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया और ऐसा धक्का मारा कि दूर जा गिरा। फिर उस की दोबारा हिम्मत नहीं हुई,” उस ने कहा।

फिर बात को आगे बढ़ाते हुए बोली, “नशा तो इन लोगों के लिए एक बहाना है। क्या नशे में कभी किसी पुरुष ने अपनी मां या बहन पर हाथ उठाया है? नहीं न? अपनी मांबहन, बेटीबहू के प्रति अति संवेदनशील होने वाले पुरुष भी अपनी पत्नी के लिए संवेदनहीन हो जाते हैं। शायद ये पुरुष लोग स्त्री जाति पर हाथ उठा कर ही अपना वर्चस्व स्थापित करने की दुस्साहस करते हैं और अपने अहम की संतुष्टि करते हैं।”

उस की बेबाक बात सुन कर मैं उस का मुंह देखती रह गई। न कोई शिकवाशिकायत, न किसी से सहारे की याचना, न समाजसेवी संस्थाओं का बीचबचाव, न पंचायत का हस्तक्षेप, न रिश्तेदारों की दखलअंदाजी, न कोर्टकचहरी के चक्कर… बस, अपने ही बलबूते पर अपने अस्तित्व, अपनी गरिमा, अपनी अस्मिता को बचाए रखने का वह एक उदाहरण लगी।

सब से बड़ी बात, हमारा मध्यवर्ग, अभिजात्यवर्ग या तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग की महिलाएं जिस मानसिक, शारीरिक उत्पीड़न को सह कर भी लोकलाज के भय से बड़ी सफाई से छिपा जाती हैं या नकार जाती हैं, उस ने बिना किसी लागलपेट के सब बता दिय। इस प्रकार वह मुझे नारी सशक्तिकरण का साक्षात रूप दिखाई दी।

सच में कितनी गलत थी मैं। मैं उसे आज तक अबला, लाचार ही समझाती रही, पर उस ने मुझे समझा दिया कि जीवन, जीवटता से जीने में है। यह संसार वैसे नहीं चलता जैसे हम चलाना चाहते हैं। यह बात बिलकुल सच है, पर अपने जीवन पर तो हमें पूरा अधिकार है। कोई भी रिश्ता जीवन से बड़ा नहीं होता है। इसलिए किसी भी रिश्ते को जीवित रखने के लिए स्वयं को खत्म कर देना समझदारी नहीं है। समझौता तभी तक करना चाहिए, जब तक अस्तित्व पर चोट नहीं आए। शायद यही नारी की सच्ची आजादी है।

Wild Animals : शहरों में हिंसक जानवरों का बढ़ता खतरा

Wild Animals : बीते ढाई महीने से लखनऊ के रहमानखेड़ा इलाके में एक बाघ घूम रहा है. पूरा वन महकमा उस बाघ को पकड़ने के लिए ढाई महीने से मशक्कत कर रहा है. मगर बाघ झलक दिखला कर चंपत हो जाता है. वन विभाग ने उसे रिझानेललचाने के तमाम इंतजाम किए. कभी पिंजड़े में बकरी बांधी, कभी पड़वा बांधा. बाघ आता, ट्रैंक्विलाइज करने के लिए बंदूकें तान कर बैठे वन अधिकारियों की नाक के नीचे से कब अपना शिकार खींच ले जाता, सूरमाओं को पता तक नहीं चलता. बीते ढाई महीने से बाघ सरकारी मेहमान बन कर नरमगरम गोश्त की दावत पर दावत उड़ा रहा है, मगर हत्थे नहीं चढ़ रहा.

एक दिन सुबहसुबह एक किसान ने इलाके में घूमते बाघ को सामने से देखा और अपना लोटा पानी छोड़ कर भागा. एक दिन वह एक वन अधिकारी की जीप के सामने आ गया और उस की जीप पलटतेपलटते बची. बाघ सामने से चैलेंज दे रहा है मगर किसी में ताकत नहीं कि उसे पिंजरे में कैद कर सके.

13 फरवरी को लखनऊ में ही बुद्धेश्वर एमएम लौन में हो रहे एक विवाह समारोह में तेंदुआ घुस आया. रात लगभग 8 बजे एक तेंदुए की घुस जाने की खबर से लोग दहशत में आ गए और अपनी जान बचाने के लिए सड़कों पर भाग खड़े हुए. दूल्हादुल्हन को एक कार में बंद किया गया. वे 5 घंटे उस कार में बंद रहे. रात के 3 बजे जब वन कर्मियों ने तेंदुए को बेहोश कर पकड़ने में कामयाबी पाई उस के बाद कहीं जा कर फेरे पड़े और वह भी मेहमानों की अनुपस्थिति में क्योंकि अधिकतर लोग भय के मारे भाग चुके थे. आपाधापी में एक शख्स तो छत से ही कूद गया और बुरी तरह से घायल हो गया. एक वन कर्मी के हाथ तेंदुए के पंजा मरने से घायल हो गए. काफी जद्दोजहद के बाद तेंदुए को पकड़ा जा सका. लेकिन इस रैस्क्यू से पहले जो कुछ हुआ वह रोंगटे खड़े कर देने वाला था.

इस तरह बाघ तेंदुए का शहर में बढ़ता दखल खतरे का संकेत दे रहा है. वन्यजीवों का दखल जिस तरह से आबादी में बढ़ रहा है वह कभी भी मानव वन्यजीव संघर्ष का कारण बन सकता है. 4 साल पहले इंदिरा नगर के तकरोही में तेंदुए का कहर इस कदर था कि लोगों को घर से लाठीडंडे ले कर निकलना पड़ता था. वहीं 2012 में रहमानखेड़ा में आए बाघ ने 35 पशुओं का शिकार किया था. उसे 105 दिन बाद पकड़ा जा सका था.

जिस तरह पशुपक्षियों के निवासस्थलों यानी जंगलों की बेतहाशा कटाई चालू है और उन के घूमने और शिकार करने के स्थान तंग होते जा रहे हैं, वह दिन दूर नहीं जब इन का खतरा मानवजाति के लिए बहुत बड़ा होगा. जंगलों की कटाई वन्यजंतुओं को आक्रामक बना रही है.

यूटिलिटी बिडर द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने पिछले 30 वर्षों के दौरान जंगलों के होते सफाए के मामले में सब से ज्यादा वृद्धि देखी है. इस में 2015 से 2020 के बीच उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई. आंकड़ों की मानें तो इन पांच सालों के दौरान भारत में 668,400 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वन क्षेत्र को काट दिया गया. देखा जाए तो यह आंकड़ा ब्राजील के बाद सब से ज्यादा है.

मार्च 2023 में जारी एक रिपोर्ट में डेटा एग्रीगेटर साइट अवर वर्ल्ड इन डेटा द्वारा 1990 से 2000 और 2015 से 2020 के लिए जारी आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है. इन आंकड़ों में पिछले 30 वर्षों के दौरान 98 देशों में काटे गए जंगलों का ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है.

रिपोर्ट के अनुसार जहां भारत ने 1990 से 2000 के बीच अपने 384,000 हेक्टेयर में फैले जंगलों को खो दिया, वहीं 2015 से 2020 के बीच यह आंकड़ा बढ़ कर 668,400 हेक्टेयर हो गया. मतलब की इन दो समयावधियों के दौरान भारत में वन विनाश में 284,400 हेक्टेयर की वृद्धि देखी जो दुनिया में सब से ज्यादा थी.

इस के लिए एक तरफ देश में बढ़ती आबादी जिम्मेदार है जिस की लगातार बढ़ती जरूरतों के लिए तेजी से जंगल काटे जा रहे हैं तो दूसरी तरफ वे सरकारी योजनाएं जिन का बहुत बड़ा फायदा बड़ेबड़े उद्योगपति उठा रहे हैं, और अपनी धनपिपासा को शांत करने के लिए जंगलों, नदियों और पहाड़ों को तबाह और बरबाद करने में दिनरात जुटे हैं.

Lifestyle Updates : फ्लैट कल्चर और आप की प्राइवेसी

Lifestyle Updates : बढ़ती जनसंख्या ने जगह तंग कर दी है. अब लोग आगेपीछे, दाएंबाएं फैलने की जगह ऊपर की तरफ बढ़ रहे हैं. कहने का अर्थ यह कि अब रहने के लिए घर नहीं बल्कि फ्लैट अधिक बन रहे हैं. ऊंचीऊंची बिल्डिंगों में कबूतरखाने, जहां प्राइवेसी का नामोनिशान नहीं है.

”सोनू अपनी बहू से बोला जरा धीरे बोला करे, यह फ्लैट है, उस के घर का आंगन नहीं कि चिल्लाचिल्ला कर एकदूसरे को बुलाएं. चिल्लाचिल्ला कर बात करें.” बूआ सास ने रानी के पति और अपने भतीजे सोनू को तीखे अंदाज में हिदायत दी.

सोनू पहले ही कई बार अपनी पत्नी रानी से धीरे बात करने की कह चुका है. वह जब से इस घर में ब्याह कर आई है सोनू उस का वौल्यूम ही कम करने में लगा है, मगर रानी की जुबान तो ठीक वौल्यूम पर सेट ही नहीं हो रही है. आखिरकार आज उस की बूआ सास ने भी टोक दिया.

दरअसल रानी पहले जिस मकान में रहती थी वह बड़ा और फैला हुआ पुराने जमाने का मकान था, जिस में बीचोंबीच बड़ा सा आंगन और चारों तरफ रहने के लिए कमरे बने थे. दोमंजिला बने इस मकान में नीचे रानी का परिवार और ऊपर ताऊजी की फैमिली रहती थी. दोनों परिवारों में कुलमिला कर 9 भाईबहन थे.

पूरे घर में धमाचौकड़ी मची रहती थी. सब बच्चे खानेखेलने के लिए आंगन में खड़े हो कर एकदूसरे को चिल्लाचिल्ला कर बुलाते थे. रानी की यही आदत अब उस के ससुराल में उस के लिए मुसीबत बनी हुई थी. क्योंकि यह सेकंड फ्लोर पर एक थ्री बीएचके फ्लैट था. बिल्डिंग के हर फ्लोर पर 4 फ्लैट थे. दीवारें आपस में जुड़ी हुई थीं, बालकनी में खड़े हो जाओ तो ऊपर वाले फ्लोर और नीचे वाले फ्लोर के लोगों से आसानी से बात हो सकती थी. शाफ्ट में सब के किचन की खिड़कियां खुलती थीं. इस की वजह से एक घर की आवाज दूसरे घर में आसानी से सुनी जा सकती थी.

रानी के सामने वाला फ्लैट बूआ सास का था. जिन्होंने सुबहसुबह अपने भतीजे सोनू को हिदायत दी. पता नहीं रानी की कौन सी बात उन के कान में पड़ गई थी. रानी को ब्याह कर के आए अभी महीना ही हुआ था. वह देख रही थी कि उस के ससुराल में सब बड़ी धीमी आवाज में बात करते थे. यहां तक कि लड़ाईझगड़ा भी धीमे स्वर में होता था. समझ नहीं आता था कि लड़ रहे हैं या बात कर रहे हैं.

रानी को बड़ा अटपटा लगता था. सोचती कि यह कैसा घर है, जहां न खुल कर हंस सको, न रो सको, न लड़ सको. बस गूंगे बन कर बैठे रहो या फुसफुसाफुसफुसा कर बात करो. जरा सी आवाज बढ़ते ही टोक पड़ती है.

शहरों में बढ़ते फ्लैट कल्चर की यह सब से बड़ी परेशानी है कि आप की कोई प्राइवेसी नहीं रह गई है. गेट के वौचमैन से ले कर ऊपरनीचे, अगलबगल के फ्लैट वाले जानते हैं कि आप के घर में क्या चल रहा है, क्या पक रहा है, कौन आया है, कौन गया है, अंदर क्या बातें चल रही हैं. आदिआदि.

जसविंदर सिंह कितने समय तक यही बताते रहे कि उन का दामाद चूंकि सालभर के लिए कनाडा गया है, इसलिए उन की बेटी यहां उन के पास रहने आ गई है. जब कि जिस दिन उन की बेटी ऋचा अपना सूटकेस ले कर आई थी उसी दिन बगल के फ्लैट में रहने वाली मालिनी कुकरेजा को पता चल गया था कि वह पति से तलाक ले कर हमेशा के लिए मांबाप के घर आ गई है.

दरअसल उस रात ऋचा जब अपने मांबाप को रोरो कर अपने ससुराल वालों की और अपने पति की बुराइयां मांबाप से कर रही थी, कई कान उस के फ्लैट की दीवार से लगे हुए थे. कुकरेजा का फ्लैट बगल में था, लिहाजा उन्होंने सारी बातें साफसाफ सुनी थीं. उन के लिए तो उन की अगली किट्टी पार्टी के लिए यह सब से मसालेदार न्यूज थी. बेचारे जसविंदर सिंह सोचते थे कि किसी को सच्चाई नहीं मालूम, मगर सब जानते थे उन की बेटी के साथ क्या हुआ.

हिना खान अपने फ्लैट को बेच कर किसी छोटे शहर में एक घर खरीदना चाहती हैं. वजह यह कि वह अपने फ्लैट में किसी तरह की प्राइवेसी महसूस नहीं करती हैं. उन के ऊपरी फ्लैट में रहने वाले सिन्हा साहब जब देखो तब उस के दरवाजे पर मुंह पर मुसकान चिपकाए खड़े रहते हैं. कहते हैं- ‘बेटा बड़ी अच्छी खुशबू आ रही थी, मैं तो अपनेआप को रोक नहीं पाया.’

सिन्हा साहब खाने के बड़े शौकीन हैं. उन की पत्नी बीपी और शुगर की मरीज है तो उन के वहां न तो खाने में ज्यादा मिर्चमसाला पड़ता है और न नौनवेज ज्यादा बनता है. उबलाउबला खाना सिन्हा साहब के गले से बमुश्किल ही उतरता है.

कई बार तो वे बाहर से चाटपकौड़े खा आते हैं और बीवी से भूख न होने का बहाना बना देते हैं. मगर जब से हिना और उस के पति रिजवान अपने दो बच्चों के साथ उन के नीचे वाले फ्लैट में आए हैं, तब से सिन्हा साहब हफ्ते में एक दो बार तो उन के घर का मसालेदार खाना खाने आ ही जाते हैं. नौनवेज के शौकीन सिन्हा साहब को जब भी हिना के किचन से बिरयानी या कोरमे की खुशबू आती है वे अपने आप को रोक नहीं पाते और भागेभागे चले आते हैं.

अब ऐसा नहीं है कि हिना अगर कुछ खाना उन को खिला देगी तो गरीब हो जाएगी, मगर कभीकभी वह हिसाब से बस अपने परिवार के लिए ही बनाती है, ऐसे में एक बड़ा हिस्सा निकाल कर किसी बाहर वाले को देने में कोफ्त तो होती है. फिर वे पड़ोसी हैं, उम्रदराज हैं, इसलिए सबकुछ ठीक से देना पड़ता है. कभीकभी सिन्हा साहब नहीं चाहते कि उन की पत्नी को पता चले तो वह हिना की डाइनिंग टेबल पर ही खा कर ऊपर जाते हैं. ऐसे में एक बिन बुलाए मेहमान की खातिरदारी हिना को अखरने लगती है. जब तक वे बैठे रहते हैं हिना को अपना सारा काम भी रोकना पड़ता है.

अब तो रिजवान जब भी हिना से कुछ नौनवेज बनाने को कहते हैं तो वह बाजार से और्डर कर देती है. यह सोच कर कि न वो किचन में बनाएगी और न उस की खुशबू सिन्हा साहब की नाक तक पहुंचेगी.

गुप्ताजी वास्तु को बहुत मानते हैं और वास्तु के पंडित के कहने पर आएदिन अपने फ्लैट में कुछ न कुछ रद्दोबदल करवाते रहते हैं. गुप्ताजी की बेटी की शादी तय नहीं हो रही थी. काफी भागदौड़ कर थक चुके थे. पंडित से पूछा तो उस ने वास्तु दोष बताया. पंडित ने घर का वास्तु ठीक करने के लिए उन से बाथरूम की जगह किचन और किचन की जगह बाथरूम बनवाने की बात कही तो गुप्ताजी से ज्यादा परेशानी उन के पड़ोसियों को हुई. गुप्ताजी ने तो काम शुरू करवा दिया. पर दिनभर दीवारों को तोड़ने के लिए जो ठकठक मची रहती थी और सीढ़ियों पर सीमेंट मौरंग की जो गंदगी होती थी, उस ने ऊपरनीचे और बगल वाले फ्लैट में तीन परिवार की महिलाओं का ब्लडप्रैशर बढ़ा दिया.

एक दिन गुप्ताजी के परिवार से तीनों परिवारों की जम कर लड़ाई हुई. खैर उन के घर का काम तो किसी तरह पूरा हुआ मगर उन के परिवार से अन्य तीनों परिवारों की बातचीत फिलहाल बंद है.

बढ़ती जनसंख्या ने जगह तंग कर दी है. अब लोग आगेपीछे, दाएंबाएं फैलने की जगह ऊपर की तरफ बढ़ रहे हैं. कहने का अर्थ यह कि अब रहने के लिए घर नहीं बल्कि फ्लैट अधिक बन रहे हैं. ऊंचीऊंची बिल्डिंगों में कबूतर घर बनाने में जितना पैसा लगता है उस से दो फ्लैट खरीदे जा सकते हैं.

लोग यह सोच कर फ्लैट ले लेते हैं कि उस में वे ज्यादा सुरक्षित रहेंगे. बिल्डिंग में गार्ड होंगे. मैंटिनैंस की जिम्मेदारी बिल्डर की होगी. बिजलीपानी की बेहतर सुविधा होगी. साफसफाई का पूरा ध्यान रखा जाता होगा. पर जब वे उस में रहने लगते हैं तब समझ में आता है कि यहां प्राइवैसी जैसी कोई बात नहीं है.

इंसान इन में खुल कर जी नहीं सकता. न छत अपनी, न जमीन अपनी, बस बीच में त्रिशंकु की तरह लटके हैं. एनिवर्सरी या बर्थडे पार्टी में तेज आवाज में गाने नहीं बजा सकते. गेस्ट आएं तो हल्लागुल्ला नहीं कर सकते, किया तो बगल वाला पुलिस बुला कर खड़ा कर देगा. अपने वहां कोई बीमार है, या कोई सोने की कोशिश कर रहा है और ऊपरी माले पर भजनकीर्तन हो रहा हो तो दिमाग भन्ना जाता है.

आज प्राइवेसी को ले कर सब परेशान हैं. हम कहीं भी अकेले नहीं हैं. हमारा कुछ भी सिर्फ हमारा नहीं है. उस पर सब की नजर है. सब के कान लगे हैं. हमारा मोबाइल फोन तो प्राइवेसी का सब से बड़ा दुश्मन है. हम कहां जा रहे हैं, किस्से मिल रहे हैं, किस से बात कर रहे हैं, हमारे पास कितना पैसा है, किसकिस बैंक में है, सारी जानकारी उन लोगों तक पहुंच रही है, जिन्हें हम जानते तक नहीं हैं. सरकार और बाजार ने हमारी प्राइवेसी पर कब्जा जमा रखा है. इन के साथ बिल्डर भी आ जुड़े हैं. जिन्होंने कबूतरखाने जैसे घर बना कर खुल कर सांस लेना भी मुश्किल कर दिया है.

Private Hospitals : धन के मोह में फर्ज से दूर हो रहा चिकित्सा जगत

Private Hospitals : आज कुकुरमुत्तों की तरह जगहजगह उग रहे निजी अस्पताल पैसा बनाने की फैक्टरी बन गए हैं, जो छोटी सी बीमारी में भी तमाम तरह के टैस्ट करवाते हैं और वह भी अपने कहे हुए पैथलैब्स में.

बात जनवरी 2019 की है. लखनऊ के रहने वाले मोहम्मद हाफिज की बेटी उमराव को अचानक रात में पेटदर्द और उलटी की शिकायत हुई. पतिपत्नी बेटी को ले कर पास बने एक नए अस्पताल की इमरजैंसी विभाग में पहुंचे. वहां उस को एक इंजैक्शन लगाया गया. रात की ड्यूटी पर तैनात जूनियर डाक्टर ने कहा कि इस से दर्द में आराम आ जाएगा. मगर कुछ देर बाद उमराव के हाथपैर सूजने लगे.

हाथों व गरदन की त्वचा के नीचे खून जमा होने लगा. जिस के चलते वे हिस्से लाल हो गए. यह हालत देख जूनियर डाक्टर के हाथपैर फूल गए. उस ने मोहम्मद हाफिज से कहा कि अपने मरीज को तुरंत किसी बड़े अस्पताल या पीजीआई ले जाओ. देर न करो क्योंकि उस की नब्ज नहीं मिल रही.

मोहम्मद हाफिज घबरा गए. बेटी की जान बचानी थी तो बिना सवालजवाब किए तुरंत एम्बुलैंस में ले कर शहर के मशहूर अपोलो मैडिक्स हौस्पिटल पहुंचे. वहां उमराव को आईसीयू में भरती किया गया.

दूसरे दिन सुबह अन्य रिश्तेदार भी अस्पताल पहुंच गए. आईसीयू में दिन में सिर्फ एक बार परिवार के किसी एक व्यक्ति को मरीज को देखने की अनुमति थी. मां उसे देख कर आई. उस समय उमराव बात कर रही थी. शाम को डाक्टर ने कहा कि उमराव को सांस लेने में दिक्कत है, इसलिए उस को वैंटिलेटर पर रखा जा रहा है. परिजन इस से इनकार नहीं कर पाए. जो भी पैसे लगें पर बच्ची की जान बचनी जरूरी थी. शाम को मां देखने गई तब भी वह सांस ले रही थी. आंख खोल कर देख रही थी.

तीसरे दिन दोपहर में डाक्टर ने उमराव के पिता को केबिन में बुलाया और कहा कि उमराव की किडनी काम नहीं कर रही है. उस को डायलिसिस की जरूरत है. आप फौर्म पर साइन कर दीजिए. मोहम्मद हाफिज को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि उन की बेटी को क्या हो गया है. उस को तो बस पेटदर्द और उलटी की शिकायत हुई थी. डाक्टर भी साफसाफ नहीं बता रहे थे कि आखिर अचानक उस को क्या बीमारी हो गई.

मोहम्मद हाफिज डायलिसिस के लिए राजी हो गए और फौर्म पर साइन भी कर दिए. तभी उन की पत्नी ने उन को बाहर बुलाया, बोली, “मैं उमराव को देख कर आई हूं. वैंटिलेटर पर उस की सांस चलती दिख रही है पर डाक्टर ने उस की दोनों आंखों पर छोटे टेप चिपकाए हुए हैं. कह रहा है, कोमा में है. मुझे तो लगता है वह ख़त्म हो चुकी है.”

मोहम्मद हाफिज ने अपने एक मित्र को फोन किया जो पुलिस में थे. वे कृष्णानगर थाने के इंस्पैक्टर को ले कर जब पहुंचे और थानेदार ने जब डाक्टर से मरीज का हाल पूछा तो डाक्टर बोला, “उस को तो अभी कार्डियक अटैक पड़ा है. उस की डैथ हो चुकी है. हम पेपर्स बना रहे हैं.”

मोहम्मद हाफिज ने डाक्टर का कौलर पकड़ लिया, बोले, “अभी तो तू मेरी बच्ची को डायलिसिस के लिए ले जा रहा था? अभी तूने मुझ से फौर्म पर साइन करवाए. बता, मेरी बच्ची कब मरी? थानेदार ने भी जब केस दर्ज करने की धमकी दी तब पता चला कि उमराव की डैथ पिछली रात ही हो गई थी.”

हौस्पिटल का संचालक डाक्टर एक मृत शरीर को वैंटिलेटर पर रख कर परिजनों से और पैसा वसूलने के चक्कर में था. वह जीवित है और कोमा में है, यह दिखाने के लिए उस को वैंटिलेटर पर रखा हुआ था जहां मशीन के जरिए हवा उस के फेफड़ों में भर रही थी और निकल रही थी. ऐसा मालूम पड़ रहा था कि वह सांस ले रही है.

मोहम्मद हाफिज उमराव को पहले जिस हास्पिटल में ले कर गए थे वहां इमरजैंसी वार्ड में तैनात जूनियर डाक्टर ने बिना एलर्जी टैस्ट के उस को जो इंजैक्शन दर्द दूर करने के लिए दिया था, दरअसल उस का रिएक्शन हो गया और उमराव पर सेप्टिसीमिया का अटैक पड़ा जिस में शरीर के खून की नाड़ियां फटने लगीं.

बाद में अपोलो मैडिक्स हौस्पिटल में भी उस को उचित इलाज नहीं मिला और दूसरे दिन रात में उस की मृत्यु हो गई. मगर इस की जानकारी परिजनों को देने के बजाय उमराव के मृत शरीर से भी धनउगाही की तैयारी इस हौस्पिटल ने कर डाली थी. अगर मोहम्मद हाफिज अपने पुलिस मित्र की मदद न लेते तो उमराव को कोमा में कह कर न जाने कितने दिन तक मोहम्मद हाफिज से यह हौस्पिटल धनउगाही करता. मात्र दो दिन वैंटिलेटर पर रखने के लिए ही उस ने मोहम्मद हाफिज से डेढ़ लाख रुपए चार्ज किया था.

शहर के इस बड़े प्राइवेट हौस्पिटल के बारे में पहले भी इस तरह की खबरें अखबारों में छपती रही हैं. मगर कोई कार्रवाई नहीं होती. इस की कई वजहें हैं. मरीज के मरने के बाद परिजन गहरे दुख की अवस्था में होते हैं. वे कहते हैं अस्पताल के खिलाफ शिकायत करने से हमारा मरीज तो अब जिंदा नहीं हो सकता. पुलिस में रिपोर्ट करवाने पर मृतक का पोस्टमार्टम सरकारी अस्पताल में होगा. उस के शरीर की छीछालेदर होगी. डेड बौडी दोतीन दिनों बाद मिलेगी.

अस्पताल के खिलाफ एफआईआर करेंगे तो हमें भी तो कोर्टकचहरी के चक्कर लगाने पड़ेंगे. हमारे पास न पैसा है न समय और ये प्राइवेट अस्पताल जो करोड़ोंअरबों में खेल रहे हैं, इन का कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता. ये पुलिसकचहरी सब को खरीदने का माद्दा रखते हैं.

आएदिन अखबारों में इस तरह की खबरें छपती हैं कि मरीज की मौत के बाद परिजनों ने लापरवाही का इलजाम लगाते हुए हंगामा किया या डाक्टरों से मारपीट की या हौस्पिटल में तोड़फोड़ की. बस, बात यहीं तक आ कर ख़त्म हो जाती है. आगे कोई एफआईआर या जांच नहीं होती.

ऐसा नहीं है कि इन अस्पतालों में अच्छे डाक्टर नहीं हैं या यहां सब के साथ इस तरह का व्यवहार होता है. इन्हीं अस्पतालों से मरीज ठीक हो कर भी जाते हैं. मगर जिन मरीजों के परिजन बहुत सचेत और जागरूक नहीं होते उन से ये अस्पताल अधिक धन वसूलने के लिए कई तरह के करतब करते हैं. जैसे उन मरीजों को भी आईसीयू वार्ड और वैंटिलेटर पर ले जाते हैं जिन को उस की जरूरत नहीं. वे दवाएं अपने बताए कैमिस्ट से ही खरीदने का दबाव भी बनाते हैं.

मरीज के पास आईसीयू में परिजनों को जाने की मनाही होती है तो उन्हें यह भी पता नहीं चलता कि जो महंगीमहंगी दवाएं और इंजैक्शंस मंगाए जा रहे हैं वे उन के मरीज को चढ़ भी रहे हैं या नहीं.

21 जनवरी, 2025 को रांची सदर अस्पताल में मरीज की मौत के बाद परिजनों ने हंगामा किया और डाक्टरों पर इलाज में लापरवाही का आरोप लगाया. इस के बाद सदर अस्पताल प्रबंधक को पुलिस बुलानी पड़ी.

दरअसल, एनआईटी के छात्र अमन को 18 जनवरी को मैडिकल अस्पताल से सदर अस्पताल लाया गया था, जहां उस की मौत हो गई. मृतक के चाचा कौशल मिश्रा कहते हैं कि राज्य का एकमात्र हेमेटोलौजिस्ट सदर अस्पताल में है, इसलिए वे अपने भतीजे को मेडिका से सदर अस्पताल ले कर आए. सदर अस्पताल में करीब सवा लाख रुपए की दवा बाहर से मंगवाई गई और 58 हजार रुपए की जांच कराई गई. जब औक्सीजन की जरूरत पड़ी तो यहां औक्सीजन न मिली.

अमन प्लास्टिक एनीमिया (कैंसर) नामक एक गंभीर बीमारी से पीड़ित था. सदर हौस्पिटल के हेमेटोलौजिस्ट डा. अभिषेक रंजन उस का इलाज कर रहे थे. उन का कहना है कि उस मरीज का ब्लड और प्लेटलेट्स बहुत कम थीं. प्लास्टिक एनीमिया में बोनमैरो सूख जाता है, खून और प्लेटलेट्स में अचानक कमी आ जाती है, जिस से स्थिति गंभीर हो जाती है. गंभीर बीमारी और इलाज के दौरान होने वाले जोखिम के बारे में सारी जानकारी परिजनों को दे दी गई थी. इलाज में किसी भी तरह की लापरवाही के आरोप बेबुनियाद हैं.

लखनऊ में चौक के एक निजी अस्पताल यूनाइटेड हौस्पिटल में भी पिछले दिनों एक मरीज की मौत के बाद वैंटिलेटर पर रख कर धनवसूली करने पर परिजनों ने खूब हंगामा मचाया. मोहनलालगंज के रिटायर शिक्षक नरेश गुप्ता (74) के बेटे गोविंद के मुताबिक, 26 दिसंबर को उन्होंने पिता को इलाके के सिग्मा ट्रामा सैंटर में कूल्हे के औपरेशन के लिए भरती कराया था.

वहां आयुष्मान योजना से औपरेशन के बाद छुट्टी कर दी गई. कुछ दिनों बाद उन की सांस फूलने के साथ टांके पकने लगे. दर्द भी असहनीय हो गया. फिर गोविंद अपने पिता को आशियाना स्थित क्रिटी केयर अस्पताल में ले गए. वहां इलाज में करीब ढाई लाख रुपए खर्च हो गए, फिर भी सुधार नहीं हुआ.

यहां से डाक्टरों ने बड़े अस्पताल के लिए रैफर कर दिया. गोविंद जब पिता को ले कर केजीएमयू पहुंचे तो वहां उन्हें बेड ही नहीं मिला. मगर वहां गोविंद को एक दलाल मिल गया, जिस ने झांसा दे कर चौक के निजी अस्पताल यूनाइटेड हौस्पिटल में नरेश को भरती करवा दिया. अस्पताल के संचालक ने आश्वासन दिया था कि 3 दिनों में मरीज स्वस्थ हो जाएगा.

गोविंद का कहना है कि पिता के भरती होने के बाद उन्हें देखने के लिए कोई डाक्टर नहीं आया. क्योंकि अस्पताल में कोई कुशल डाक्टर था ही नहीं. 3 दिन उस के पिता को भरती रखा गया. वहां डाक्टर से फोन पर बात कर के कर्मचारियों के जरिए पिता का इलाज किया जा रहा था. गोविंद के मुताबिक पिता की मौत होने के बाद भी संचालक ने शव को वैंटिलेटर पर रखा और उन से पैसे वसूले. इस के अलावा वे अपने कहे हुए कैमिस्ट से लगातार दवाएं और इंजैक्शन मंगवाते रहे.

चिकित्सा जगत से जुड़ी इस तरह की खबरें आएदिन अखबारों की सुर्खिया बनती हैं. कई मामले तो ऐसे भी हुए जब गुस्साए परिजनों ने डाक्टरों के साथ इतनी बदसुलूकी की कि उन्हें शासन से अपनी सुरक्षा की गुहार लगनी पड़ी. हड़ताल पर जाना पड़ा. लेकिन इस में गलती लापरवाह और धनलोलुप डाक्टरों की है, जिन की वजह से मरीज ठीक होने के बजाय मौत के मुंह में चले जाते हैं.

दरअसल, सतर्कता और नियमित जांचों के अभाव में कुछ अस्पताल धनउगाही में ज्यादा लगे हुए हैं. धनलोलुप दवा विक्रेताओं, कैमिस्टों, डाक्टरों, पैथलैब्स और निजी अस्पताल संचालकों का एक कौकस बना हुआ है. मरीज अगर ऐसे किसी चंगुल में फंस गया तो उस का बच निकलना मुश्किल ही होता है.

आज कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे निजी अस्पताल पैसा बनाने की फैक्टरी बन गए हैं, जो छोटी सी बीमारी में मरीज को आईसीयू में रख लेते हैं. इलाज शुरू करने से पहले तमाम तरह के टैस्ट करवाते हैं और वह भी अपने कहे हुए पैथलैब्स में.

अब गलीमहल्लों में एक या दो कमरों की क्लीनिक में बैठने वाले डाक्टर्स बहुत कम हो गए हैं जो साधारण सर्दीजुकाम से ले कर टीबी तक का इलाज कुछ सस्ती गोलियों से कर देते थे. वे नाड़ी पकड़ कर रोगी के शरीर का पूरा हाल जान लेते थे. वे दुनियाभर के टैस्ट नहीं करवाते थे. उन का अनुभव ज्यादा था और फीस बहुत कम. एक बार परचा बनवा लिया तो उसी पर बारबार दवा लिखा ली जाती थी.

ये डाक्टर्स फैमिली डाक्टर भी होते थे. रातबिरात किसी की तबीयत बिगड़े तो डब्बा ले कर घर तक मरीज को देखने चले आते थे. बहुत गंभीर स्थिति होने पर ही मरीज को अस्पताल में भरती होने की सलाह देते थे, वह भी किसी सरकारी अस्पताल में. इन में सेवाभाव तो था ही, महल्ले में अपनी इज्जत बनी रहे, इस की भी चिंता थी क्योंकि लोगबाग इन को भगवान के रूप में देखते थे.

आज भी कुछ महल्लों में ऐसे डाक्टर्स हैं जो डाक्टरी के पवित्र पेशे की इज्जत संभाले हुए हैं. दिल्ली के कीर्तिनगर में 75 वर्षीय डाक्टर अजमानी अपनी क्लिनिक पर आने वाले पहले 3 मरीजों से कोई चिकित्सा शुल्क नहीं लेते और कोई गरीब आदमी इलाज करवाने पहुंच जाए तो मुफ्त परचा लिख देते हैं. कई बार दवाएं भी अपने पास से दे देते हैं.

गाजियाबाद के होम्योपैथिक डाक्टर एस के गुप्ता फोन पर ही मरीज का पूरा हाल जान कर व्हाट्सऐप पर दवा लिख कर भेज देते हैं, फिर चाहे औनलाइन उन की फीस पहुंचे या न. लखनऊ के हजरतगंज में डाक्टर भाटिया के क्लीनिक पर सुबहशाम मरीजों की लंबी कतार देखी जाती थी. डाक्टर भाटिया जीवनभर अपनी छोटी सी क्लीनिक पर बैठ कर मरीजों का इलाज करते रहे. उन की 2 दिनों की दवा में गजब का जादू था कि उस के बाद रोगी बिलकुल ठीक हो जाता था. वे भी पहले आने वाले 10 मरीजों से कोई फीस नहीं लेते थे. पिछले वर्ष 80 वर्ष की उम्र में उन का देहांत हो गया. आज भी उन के अनुभव, दयाभाव और दरियादिली की तारीफ करते लोग थकते नहीं हैं.

New Education Policy : बच्चों की अच्छी सेहत राष्ट्र की जरूरत है

New Education Policy : सरकार की नई शिक्षा नीति में खेलकूद का कोई स्थान ही नहीं है. तीसरी कक्षा से आठवीं कक्षा के बच्चों के बैग पर नजर डालिए, उन से ज्यादा वजनी तो उन के स्कूल बैग मालूम पड़ते हैं. जिन्हें सारा दिन पीठ पर ढोने में उन की रीढ़ झुकी जा रही है.

उत्तराखंड के नैशनल गेम्स की ओपनिंग सेरेमनी के दौरान अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बच्चों में बढ़ते मोटापे पर चिंता जाहिर करते हुए इस से बचाव के लिए खेलकूद को अपनाने की सलाह दी. उन्होंने खाने में तेल के इस्तेमाल पर भी लोगों से सावधानी बरतने की अपील की. मोटापे से लड़ाई को मोदी एक अभियान के रूप में शुरू करना चाहते हैं. उन के इस अभियान में कई फिल्मी हस्तियां भी कूद पड़ी हैं, जिन में सब से आगे हैं अक्षय कुमार.

अक्षय ने मोदी के भाषण वाले वीडियो को एक्स पर साझा कर मोटापे से लड़ाई के हथियारों पर अपनी बात रखी. एक्स पर उन्होंने लिखा, “पर्याप्त नींद, साफ हवा, सूर्य की भरपूर रौशनी, खेलकूद, व्यायाम और स्वास्थवर्धक भोजन जिस में तेल कम हो, वह अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है.”

प्रधानमंत्री मोदी या उन के समर्थक अक्षय कुमार जिन बातों का जिक्र कर रहे हैं, वह बातें कौन नहीं जानता? खेलकूद और व्यायाम की कमी के चलते आज बड़े ही नहीं बल्कि छोटेछोटे बच्चे भी हार्ट के मरीज हो रहे हैं. बच्चों में सांस फूलना, थकान, कमजोरी, चिड़चिड़ापन, अस्थमा जैसे रोग मुख्यतः इसी कारण बढ़ रहे हैं क्योंकि एक तरफ वे खेलकूद से दूर हो गए हैं, और दूसरी तरफ पौष्टिक और सुपाच्य भोजन की जगह फास्ट फूड पर ज्यादा निर्भर हो गए हैं.

दो दशक पहले तक स्कूलों में पीटी, योग और खेलकूद के लिए अलग से एक पीरियड होता था. लंच ब्रेक में भी बच्चे खेलते थे और बहुत सारे बच्चे तो स्कूल खत्म होने के बाद भी स्कूल के प्लेग्राउंड में काफी देर तक खेलते रहते थे. स्कूल से लौटने के बाद भी बच्चे दोस्तों के साथ खेलने निकल जाते थे और देर शाम तक पार्क या मैदान में खेलते रहते थे. क्रिकेट, गिल्ली डंडा, कंचे, पतंग उड़ाना, फुटबौल, बैडमिंटन, खोखो, कबड्डी जैसे न जाने कितने तरह के खेल वे खेलते थे. क्या अब ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं?

सरकार की नई शिक्षा पौलिसी में खेलकूद का कोई स्थान ही नहीं है. तीसरी कक्षा से आठवीं कक्षा के बच्चों के बैग पर नजर डालिए, उन से ज्यादा वजनी तो उन के स्कूल बैग मालूम पड़ते हैं. जिन्हें सारा दिन पीठ पर ढोने में उन की रीढ़ झुकी जा रही है. बच्चों पर पढ़ाई का इतना बोझ है कि 8 पीरियड स्कूल में पढ़ कर आने के बाद वे ट्यूशन भी पढ़ने जाते हैं. वहां से लौटे तो स्कूल और ट्यूशन दोनों जगह का होमवर्क पूरा करने में उन का दिन खतम हो जाता है. वे खेलने कब जाएं?

इंटरनेट और स्मार्टफोन ने बच्चों की आदतें और सेहत दोनों बिगाड़ रखी हैं. अगर थोड़ा सा वक्त उन को पढ़ाई से मिलता भी है तो वह समय फोन पर कार्टून देखने, रील्स देखने या चैट करने में वे बिताते हैं. वे खेलते कब हैं?

किशोरों के माइंड हैल्थ कोशेंट पर आधारित अध्ययन से पता चलता है कि स्मार्टफोन के शुरुआती उपयोग और किशोरों के बीच मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट के बीच एक महत्त्वपूर्ण संबंध है, जिस में आक्रामकता, क्रोध, चिड़चिड़ापन और मतिभ्रम जैसे लक्षणों में वृद्धि हो रही है.

जो किशोर छोटी उम्र में स्मार्टफोन का उपयोग करना शुरू करते हैं, उन में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं अधिक गंभीर होती हैं. अवसाद और चिंता के अलावा, अंतरविरोधी विचार और वास्तविकता से अलगाव जैसे नए लक्षण भी देखे जा रहे हैं, जो एक गंभीर मानसिक स्वास्थ्य संकट का संकेत देते हैं.

स्मार्टफोन तक कम उम्र में पहुंच से किशोर अनुपयुक्त सामग्री के संपर्क में आ जाते हैं, नींद में व्यवधान पड़ता है, तथा वैयक्तिक संपर्क में कमी आती है, जो सामाजिक कौशल विकसित करने और संघर्षों से निपटने के लिए महत्वपूर्ण है. ऐसे बच्चे जो फोन में अधिक खोए रहते हैं, परिवार से अलगथलग होने लगते हैं. अकेले रहने में उन को ज्यादा सुकून महसूस होता है. वे किसी से ज्यादा घुलमिल नहीं पाते. अपने विचार घरवालों या दोस्तों से शेयर नहीं करते. अपनी परेशानियां तक नहीं बता पाते. धीरेधीरे वे असामाजिक होते जाते हैं.

फील्ड में जा कर अन्य बच्चों के साथ खेलने में जो आनंद है, उस से आज के बच्चे अनभिज्ञ से हैं. दूसरों के साथ मिल कर खेलने से सामाजिकता और सामंजस्य की भावना विकसित होती है. भाईचारा बढ़ता है, विचारों और भावनाओं का आदानप्रदान होता है, हारनेजीतने की अनुभूति होती है, हारने पर भी उत्साह बना रहता है, अवसाद जैसे रोगों से बच्चा दूर रहता है.

घर के बाहर निकल कर कोई भी खेल खेलने से शरीर में चुस्तीस्फूर्ति बढ़ती है. हड्डियों के विकास के लिए विटामिन डी की भरपूर मात्रा धूप से मिलती है. फेफड़ों को खुली हवा मिलती है. शरीर के एक एक अंग का व्यायाम हो जाता है. नतीजा भूख बढ़ती है और शरीर तंदरुस्त होता है. जो बच्चे खेलतेकूदते रहते हैं वे बीमार भी बहुत कम पड़ते हैं. उन का इम्यून सिस्टम स्ट्रांग होता है.

प्रधानमंत्री बच्चों के बढ़ते मोटापे से चिंतित हैं मगर उन्हें इस बात की भी चिंता करनी चाहिए कि फास्ट फूड बेचने वाली विदेशी कंपनियों ने कैसे बाजारों और शिक्षण संस्थाओं में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है. फास्ट फूड जिस में मैदा, मक्खन, चीज, मेयोनीज, अजीनोमोटो जैसे स्वास्थ्य को खराब करने वाले पदार्थ भरे होते हैं, आज उन का इतना विज्ञापन हो रहा है कि बच्चे उन को खाने की जिद में जिद्दी होते जा रहे हैं.

घरघर में टीवी पर बच्चे पिज्जा, बर्गर, चिप्स, कोला, मोमोज के विज्ञापन देख रहे हैं. यहां तक कि बच्चों के लिए आने वाले कार्यक्रमों में भी किसी न किसी रूप में इन चीजों के विज्ञापनों ने अपनी जगह बना रखी है. बच्चे मातापिता से इन्हीं चीजों की फरमाइश करते हैं. पहले घरों में नमकीन बनता था. डोनट, शक्करपारे, नमकपारे, गुझिया, दालमोठ, लैयाचना मुरमुरा आदि, जो स्वादिष्ट होने के साथसाथ हेल्दी भी था.

बाजार में बनने वाली चीजें कैसे तेल में बन रही हैं यह हमें नहीं मालूम, पर घर में तो हम अच्छा तेल या घी ही इस्तेमाल करते हैं. फास्ट फूड में इस्तेमाल होने वाली मेयोनीज में मैदा और क्रीम ही भरी होती है जो सेहत के लिए नुकसानदेह है. चीज, पनीर, फ्राइड चिकेन आदि मोटापा ही बढ़ाता है. मगर इन चीजों का इतना क्रेज है कि अब ठेले वाले भी फास्ट फूड बनाने और बेचने लगे हैं. उन को इस में ज्यादा मुनाफा प्राप्त होता है, भले लोगों की सेहत खराब होती रहे.

पहले छोटे वैंडर्स फ्रूट चाट बेचते थे, लैयामुरमुरा, भुनी शकरकंदी बेचते थे. यह चीजें भारतीय लोगों की सेहत के लिए अच्छी थीं. बेल का शरबत, गन्ने का शरबत पेट को ठंडा रखता था. यह चीजें मोटापा नहीं बढ़ातीं. मगर आज ठेलों पर मोमोज बिक रहे हैं. मैदे की रोटी में लिपटे चिकन रोल बिक रहे हैं. पीजा भी अब ठेलों पर बनने लगा है. आप सोचिए कि पिज्जा हट या डोमिनोज जैसी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां पिज्जा बनाने के लिए जिस तरह की महंगी ब्रेड और चीज का इस्तेमाल करती हैं, क्या गलीगली खड़े ठेलों पर उतनी महंगी ब्रेड और चीज इस्तेमाल होती होगी? कतई नहीं.

ये लोग बहुत सस्ता पनीर (सोयाबीन का बना पनीर), घटिया तेल, सस्ता चीज, घटिया क्वालिटी की मेयोनीज, सड़ेगले टमाटरों का सौस इस्तेमाल करते हैं, तभी इन के पिज्जा के दाम भी काफी कम होते हैं. मगर बच्चों की जुबान को चूंकि इन चीजों का चस्का लग गया है तो वे इन्हें खरीदते और खाते हैं. अब तो स्कूलकालेज की कैंटीनों में भी सस्ते फास्ट फूड ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया है.

प्रधानमंत्री एक तरफ बच्चों के बढ़ते मोटापे और बीमारियों की चिंता करें और दूसरी तरफ फास्ट फूड बनाने वाली कंपनियों को भी बढ़ावा दें, स्कूलकालेजों में क्या खाना परोसा जा रहा है, कैंटीनों में क्या बिक रहा है, उस पर उन की संस्थाएं कोई नजर न रखें तो ऐसी चिंता का क्या मतलब है?

आज गलीगली में कुकुरमुत्तों की तरह स्कूल खुल रहे हैं. खासतौर पर प्ले स्कूल, जहां प्रीनर्सरी से प्रेप तक बच्चे अपने जीवन के चार साल बिताते हैं. जिन के पास भी चार कमरे का खाली मकान है, वह ऐसे स्कूल खोल कर बैठा है. जिस में खेलकूद और व्यायाम के लिए तो स्पेस ही नहीं है. सुबह की असैंबली के लिए भी इतनी जगह नहीं होती कि बच्चे एक लाइन में खड़े हो सकें. स्कूल खोलने के तमाम मानक ताक पर धरे हैं. जिन सरकारी संस्थाओं को इन मानकों के अनुरूप स्कूल होने की जांच करनी होती है, उन के अधिकारी कुछ लाख रुपए में बिक जाते हैं और बिना जांचपड़ताल के एनओसी से देते हैं.

बच्चों की शारीरिक एक्टिविटी के नाम पर ऐसे स्कूलों में कुछ खिलौने या छोटेछोटे झूले होते हैं. इन स्कूलों में न धूप है न साफ हवा. बच्चों की सेहत कैसे ठीक रहे? इन से ज्यादा सेहतमंद तो वे बच्चे होते हैं जो गांवदेहातों में पेड़ के नीचे टाटपट्टी पर बैठ कर पढ़ते हैं और खेतों मैदानों की मिट्टी में खेलते हैं. उन के शरीर को धूप और हवा तो मिलती है. उन का इम्यून सिस्टम कहीं ज्यादा मजबूत होता है.

शहर के स्कूलों में अब पीटी, एनसीसी, योगा आदि के क्लास भी बहुत कम देखने को मिलते हैं. पहले एक पीरियड इन एक्टिविटीज के लिए हुआ करता था. साल में एक या दो बार स्कूल से बाहर बच्चों के कैंप लगते थे. स्पोर्ट्स डे होते थे. इंटरस्कूल कम्पीटीशंस होते थे. पर अब ये एक्टिविटीज बहुत कम स्कूलों में होती है. शहरों के स्टेडियम में भी अब बच्चों की संख्या बहुत कम दिखती है. पहले स्टेडियम में बच्चे तैराकी सीखने, क्रिकेट सीखने, बैडमिंटन आदि खेल सीखने आते थे.

खुद मातापिता अपने बच्चों का नाम स्टेडियम में लिखवाने आते थे. अब नहीं आते क्योंकि न उन के पास टाइम है और न बच्चों के पास. बच्चों पर पढ़ाई का बोझ इतना है, कि सुबह से शाम तक किताबों से सिर नहीं निकाल पाते. बच्चों से मातापिता की एक्सपैक्टेशंस इतनी बढ़ चुकी हैं कि हर पेरैंट चाहता है कि उस का बच्चा ही क्लास में अव्वल हो. अगर बच्चा कुछ कम मार्क्स ले आए तो फिर उस की डांटफटकार, लानतमलामत शुरू हो जाती है.

मांबाप की चाहतों का नाजायज बोझ आज हर बच्चा उठा रहा है. बच्चे मानसिक दबाव में हैं. लिहाजा खायापिया भी उन के तन को नहीं लगता. तनाव की स्थिति अनेक रोगों को जन्म देती है. जिस में अवसाद, डायबिटीज और हृदय रोग मुख्य हैं. शहरी बच्चों में यह तीन बीमारियां बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं.

बच्चे देश का भविष्य हैं. वे सेहतमंद होंगे, बीमारीमुक्त होंगे, ताकतवर होंगे तभी देश के विकास में उन की अच्छी भागीदारी हो पाएगी. हमारे बच्चे तंदरुस्त होने इस के लिए पूरे सिस्टम को एकजुट होना होगा. सिर्फ चिंताभर कर देने से काम नहीं चलेगा. एक्शन भी चाहिए. ऐसे स्कूल बंद होने चाहिए जहां खेल के मैदान नहीं हैं. सभी स्कूलों को यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि वे छात्रों के लिए व्यायाम और खेलकूद को नियमित करें. बच्चों की कैंटीनों में खाने का क्या सामान बिक रहा है, कैसे तेल में बन रहा है, इस की निगरानी सरकारी एजेंसियों की तरफ से होनी चाहिए.

माना कि आज इंटरनेट, कंप्यूटर और मोबाइल फोन जीवन के जरूरी अंग बन गए हैं. बच्चों को भी इन की पूरी जानकारी आवश्यक है. परंतु इन चीजों में जरूरत से ज्यादा समय लगाना न बच्चों की मानसिक सेहत के लिए ठीक है और न शारीरिक सेहत के लिए.

Psychology : रोने को हथियार न बनाएं

Psychology : कुछ लोगों के लिए रोना जहां अपने इमोशन, अपनी परेशानी, अपने दुख को एक्सप्रेस करने का एक जरिया होता है वहीं कुछ लोगों के लिए रोना अपनी बात मनवाने का एक हथियार होता है.

“अब तो तुम्हें मेरे रोने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता, पहले तुम्हें मेरे एक आंसू से कितनी तकलीफ होती थी, तुम मुझे मनाने की कोशिश करते थे.”
“यार ये क्या तुम हर बात पर रोनेधोने और आंसू बहाने लग जाती हो, क्या तुम अपनी कोई भी बात बिना रोए नहीं कर सकती.”
कुछ लोगों के लिए रोना जहां अपने इमोशन, अपनी परेशानी, अपने दुख को एक्सप्रेस करने का एक जरिया होता है. वहीं कुछ लोगों के लिए रोना अपनी बात मनवाने का एक हथियार होता है, उन्हें लगता है कि वे रोधो कर अपनी बात मनवा लेंगे.
ऊपर के दो डायलोग्स में भी ऐसा ही है जहां एक ओर वाइफ को शिकायत है कि अब पति को उस के रोने से, उस के आंसुओं से कोई फर्क नहीं पड़ता. वहीं दूसरी ओर हसबैंड वाइफ की बात पर रोने की आदत से परेशान हो चुका है. अब वाइफ का रोना उसे इरिटेट करता है.

दरअसल, हंसने, खुश होने, गुस्से, उदासी की तरह रोना भी एक इमोशन है. जैसे, खुश होना, हंसना एक सामान्य इमोशन है उसी तरह किसी बात पर दुखी होना या रोना भी एक नौर्मल इमोशन है.

रोना गलत बात नहीं है और न ही ऐसी कोई गाइडलाइंस है कि इंसान को कब और कितना रोना चाहिए. एक अध्ययन के अनुसार, महिलाएं प्रतिमाह औसतन 5.3 बार रोती हैं और पुरुष प्रति माह औसतन 1.3 बार रोते हैं.

रोना, एक नौर्मल इमोशन

रोना उतनी बुरी बात भी नहीं है, जितना इसे हमारे समाज में माना जाता है. रोना मानसिक और शारीरिक सेहत के लिए अच्छा होता है क्योंकि यह अपनी भावनाओं को एक्सप्रेस करने का एक माध्यम होता है . रोने से हमारे शरीर में औक्सीटोसिन और प्रोलैक्टिन जैसे कैमिकल्स रिलीज होते हैं. ये आप की हार्टबीट को कम कर सकते हैं और आप के मन को शांत कर सकते हैं.

कई बार रोने से गुस्सा शांत हो जाता है, गुस्सा होने पर रोना इमोशंस को शांत करने में मदद करता है. यह इमोशनल रिलीज का एक हिस्सा होता है, जिस के बाद तनाव और निराशा कम होती है.

• किसी बहुत बड़ी उपलब्धि के मिलने पर खुशी में रोना खुशी के आंसू निकलना एक सामान्य रिएक्शन है.

• अपनी या किसी और की तकलीफ में, दर्द में, किसी अपने से दूर या अलग होने के दुख में रोना आंसू आना नौर्मल इमोशन है.

• कई बार काम के प्रैशर में, ज्यादा वर्कलोड होने पर सिचुएशन न संभाल पाने, ज्यादा थक जाने पर रोना आना सामान्य है.

• गुस्से में किसी से लड़ाई हो जाने पर, किसी के दिल दुखाने वाली बात कह देने पर आंखों से गंगाजमुना बहने लगना एक नौर्मल बात है.

• कई बार अपने नजदीकी रिश्तों से किसी बात पर लड़ाई होने पर रोना आना या फिर दोस्त की किसी बात पर अपसेट होने पर रोना आना भी नौर्मल है. सीधे शब्दों में जब कोई आहत महसूस करता है तो यह इमोशन तब सामने आता है, तो रोना आता है और यह बिलकुल नौर्मल है. जो लोग भावुक होते हैं, वे दिल के बिलकुल साफ होते हैं और जब किसी से लड़ाई का समय आता है, तब वे बहस करने की बजाय, अपनी बात थोपने की जगह रो कर अपनी भावना एक्सप्रेस करते हैं.

कई बार जब कोई किसी गलत बात पर कुछ कह नहीं पाता या ऐसी किसी स्थिति में होता है जो परेशान करने वाली होती है तो वह गुस्से में बस रोने लगता है. यह भी अपनी फीलिंग्स को बाहर निकालने का एक नौर्मल तरीका है.

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, डेविस के शोधकर्ता किम्बर्ली एल्सबैक और बेथ बेचकी के शोध के अनुसार परिवार में किसी की मृत्यु या बड़ी बीमारी जैसी स्थिति में, किसी व्यक्ति का रोना अपेक्षित है. लेकिन इसे आदत बनाना सही नहीं होता, यह रोने वाले की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा सकता है. ऐसा करने से आप के आसपास के लोग, कलीग्स आप को कमजोर, गैरपेशेवर या चालाक समझ सकते हैं.

बातबात पर रोने से कुछ मिलता नहीं

अगर कोई वाजिब कारण पर कभीकभार रोता है तो उस के आसपास के लोग उस के रोने, उस के इमोशन को अहमियत देते हैं लेकिन अगर किसी का मोटिव यानी उद्देश्य रोने का या ढोंग कर के कर अपनी बात पूरी कराना है तो जरूरी नहीं उस का यह मोटिव हर बार पूरा होगा.

कुछ महिलाएं अपने इस इमोशन को एक घटिया चाल के रूप में चलाती हैं. अपनी बात मनवाने के लिए अपनाती हैं, ऐसा करना गलत है और लंबे समय में कोई भी उन की इस चाल के झांसे में नहीं आएगा क्योंकि जिस हसबैंड की वाइफ ने रोने को अपनी हर मांग पूरी करवाने का हथियार बना लिया हो तो उस बेचारे पति का तो सर दर्द ही हो जाएगा और एक समय के बाद उस पर पत्नी के आंसुओं और रोने का कोई असर नहीं होगा.

रोने से हर चीज या मनचाही चीज मिल जाएगी या आप की बात मान ली जाएगी यह जरूरी नहीं. कभीकभार रोने पर पति मनाएगा, पुचकारेगा पर बारबार हर बात पर रो कर बात मनवाने की साजिश से कुछ नहीं मिलेगा.

रोने को हथियार न बनाएं

अगर किसी की वाइफ बारबार रोती है, तो ये यकीनन ऐसा करना उन की शादीशुदा जीवन पर असर डाल सकता है. अधिकांश पुरुष कभी भी किसी महिला के आंसू देख कर खुश नहीं होते, फिर चाहे वह आंसू पत्नी के हों, मां के हों या बहनबेटी के हों. उन के आंसू देख कर वे खुद को कमजोर महसूस करते हैं और अपने निर्णय पर मजबूत रह पाने में असहाय महसूस करते हैं. 60% मामलों में पत्नी के आंसू पति को कमजोर बना देते हैं परंतु 40% मामलों में आंसू काम नहीं आते.

बातबात पर रोना पलटवार न कर दे
इजराइल के विजमान संस्थान के अनुसंधानकर्ताओं ने अपने शोध में यह खुलासा भी किया है कि महिलाओं के आंसुओं में ऐसे रसायन होते हैं जो पुरुषों में सैक्स की इच्छा को कम करते हैं. इसलिए वे महिलाएं जो पुरुषों से अपनी बात मनवाने के लिए आसुओं को अपना हथियार मानती हों, उन का यह हथियार उलटवार भी कर सकता है और उन की सैक्सलाइफ को बरबाद कर सकता है.

रोने के मामले में महिला और पुरुष के हार्मोन अलग

रोने के पीछे शरीर में पाए जाने वाले हार्मोन जिम्मेदार होते हैं. रिसर्च के मुताबिक पुरुषों में टैस्टोस्टेरोन हार्मोन होता है जो उन्हें महिलाओं के मुकाबले ज्यादा शक्तिशाली और मजबूत बनाता है. यही हार्मोन पुरुषों को रोने और भावुक होने से रोकता है और आंसुओं को बहने से रोकता है.

अकसर देखा जाता है कि महिलाएं पुरुषों से ज्यादा और तेजी से रोने लगती हैं और अगर पुरुष रोता है तो उसे कहा जाता है, “क्या औरतों की तरह रो रहे हो.” हौलैंड की एक प्रोफैसर ने एक रिसर्च में पाया कि पुरुषों के कम आंसुओं के पीछे की वजह प्रोलैक्टिन हार्मोन होता है. दरअसल प्रोलैक्टिन हार्मोन मनुष्य को भावुक बनाता है और एक्सप्रेशन व्यक्त करने के लिए उत्साहित करता है.

जानकारी के मुताबिक पुरुषों में प्रोलैक्टिन हार्मोन न के बराबर होता है और औरतों में इस की मात्रा ज्यादा होती है. इसलिए अपने अंदर कूटकूट कर भरे हार्मोन के चलते ही औरतें ज्यादा रोती और भावुक होती हैं.

रोने के इमोशन पर कंट्रोल

कई बार बिना बात के रोना परेशान करने वाला, असहज, शर्मनाक और थका देने वाला हो सकता है. ऐसे में यह समझना कि रोने का कारण क्या है, और इस इमोशन पर कंट्रोल करना सीखना अकसर एक बड़ी राहत होती है.

पौजिटिव या मजेदार सोचें

जब किसी को किसी इमोशनल बात पर रोना आए तो कुछ पौजिटिव या मजेदार सोचें, हालांकि जब कोई परेशान या दुखी होता है तो यह थोड़ा मुश्किल हो सकता है, लेकिन फिर भी जब रोना आए तो अगर किसी की कोई पौजिटिव या प्रेरणादाई बात सुनी या वीडियो देखी जाए तो इस इमोशन पर कंट्रोल किया जा सकता है.

गहरी सांस लें

जब रोना आए तो धीरेधीरे गहरी सांस लेना और सांस लेने पर ध्यान केंद्रित करने से रोने के इमोशन पर कंट्रोल हासिल करने में मदद मिल सकती है. डीप ब्रीदिंग मन को शांत करती है और इस से भावनाओं के प्रवाह को दूसरी दिशा में ले जाने में मदद करती है.

जगह बदल लें, किसी और काम में मन लगाएं

जब बहुत रोना आ रहा हो, मन उदास हो और आंसू रुकने का नाम न ले रहे हों उस समय जगह से चले जाना, उस स्थिति से खुद को डिस्ट्रैक्ट कर लेना, वौक पर चले जाना, कोई मूवी देखना, ध्यान को भटका सकता है और रोना रोकने में मदद कर सकता है. ऐसा करने से फीलगुड एंडोर्फिन निकलता है और जो बात परेशान कर रही होती है, जिस की वजह से रोना आ रहा होता है उस पर काबू पाने में मदद मिलती है.

कई बार बहुत अधिक गुस्सा, परेशान होना, या निराश होने से रोना आ सकता है, इसलिए खुद को उस स्थिति से हटा कर ध्यान घर के छोटेमोटे कामों में लगाने से रोना रोकने में मदद मिल सकती है.

Maharashtra : छोटे दलों को खत्म करेगी भाजपा

Maharashtra : बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है. राजनीति में भी बड़े दल पहले छोटे दलों का लौलीपौप देते हैं फिर उन को खत्म कर देते हैं. भाजपा अब बड़ी मछली बन कर छोटे दलों को खा रही है.

भारतीय जनता पार्टी एक एक कर छोटे दलों को प्रभावहीन कर के खत्म कर रही है. इस का ताजा उदाहरण महाराष्ट्र की राजनीति में दिखाई दे रहा है. महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के पहले और बाद में अंतर आ गया है. शिवसेना के जो एकनाथ शिंदे पहले मुख्यमंत्री थे अब वह उप मुख्यमंत्री हैं. एकनाथ शिंदे और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस के बीच कई मुद्दों को ले कर मतभेद हैं. महाराष्ट्र ही नहीं बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश में भी भाजपा छोटे दलों को खत्म करती जा रही है.

महाराष्ट्र की महायुति सरकार में दरार के संकेत लगातार मिल रहे हैं. सीटों, विभागों और योजनाओं पर लगातार मतभेद और टकराव सामने आ रहे हैं. एकनाथ शिंदे की नाराजगी खुल कर सामने आई है और सरकार में एक के बाद एक कई मुद्दों पर असहमति बनी हुई है. महाराष्ट्र सरकार 3 पैरों वाले तांगा जैसी है. इस में सब से आगे मुख्यमंत्री और भाजपा ने देवेन्द्र फडणवीस हैं. इस के पीछे के दो पहियों में से एक शिवसेना के एकनाथ शिंदे हैं और एक एनसीपी के अजित पंवार हैं.

तीनों पहियों में दो जिस तरफ चलेंगे वह सरकार में बना रहेगा. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. एकनाथ शिंदे और अजित पवार में से कोई भी एक के अलग होने से सरकार नहीं गिरेगी. दूसरी तरफ भाजपा इन में से किसी भी एक के साथ तोड़फोड़ कर उस को खत्म सकती है. इस के पहले भी एकनाथ शिंदे और अजित पवार शिवसेना और एनसीपी को तोड़ चुके हैं. उस समय भाजपा ने बड़ा दिल दिखाते हुए एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया था.

जैसे ही विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा मजबूत हुई उस ने मुख्यमंत्री का पद छीन लिया. अब भाजपा के देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री हैं, शिवसेना के एकनाथ शिंदे और एनसीपी के अजित पंवार उप मुख्यमंत्री हैं. मुख्यमंत्री से उपमुख्यमंत्री बने एकनाथ शिंदे के लिए तालमेल बैठाना सरल नहीं है. ऐसे में लगातार विवाद की खबरें आती रहती हैं.

महायुति में महाभारत

चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे को ले कर महायुति में विवाद था. इस को किसी तरह से हल किया गया. चुनाव के बाद जब भाजपा को बड़ी जीत मिली तो भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री बनाना तय किया. इस के बाद मुख्यमंत्री के चयन को ले कर भाजपा और शिंदे में अनबन की खबरें आने लगीं. शिंदे मुख्यमंत्री पद नहीं छोड़ना चाहते थे और भाजपा देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी. इस के बाद समझौता हुआ और शिंदे उप मुख्यमंत्री बनने को राजी हुए.

शिंदे अगर राजी न होते तो भी भाजपा के पास दूसरा प्लान भी था. शिंदे के साथी उदय सामंत देवेन्द्र फडणवीस के करीबी माने जाते हैं. उन के साथ 20 विधायक भाजपा के पाले में आने को तैयार थे. शिंदे सेना के 57 विधायक हैं. उन में से 20 अलग होते, तो दलबदल कानून लागू नहीं होता. उदय सामंत डिप्टी सीएम बनते. इस की भनक शिंदे को लग गई और वह उप मुख्यमंत्री बनने को राजी हो गए.

टकराव के मुद्दे

शिंदे को एक बार दवाब में लेने के बाद भाजपा ने उन को आगे बढ़ने नहीं दिया. मंत्रिमंडल में विभागों के बंटवारे पर खींचतान चलती रही. शिंदे गृह मंत्रालय चाहते थे, लेकिन कोई मुख्यमंत्री गृह विभाग दूसरे को नहीं देता है. इस के बाद राजस्व और शहर विकास विभाग की मांग की गई. भाजपा राजस्व विभाग देने को तैयार न थी. हार मान कर शिंदे को शहर विकास विभाग स्वीकार करना पड़ा. भाजपा और शिंदे के बीच एक और टकराव जिलों के गार्जियन मंत्रियों की नियुक्ति को ले कर हुआ. फडणवीस ने नासिक में अपनी पार्टी के गिरीश महाजन और रायगढ़ में अजित की पार्टी की अदिति तटकरे को नियुक्त किया. शिंदे गुट के विरोध पर 24 घंटे में यह निर्णय स्थगित करना पड़ा. दोनों जिले पूर्व में शिंदे गुट के पास ही थे. यह मामला अब तक विवादों में पड़ा है.

राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के पुनर्गठन में एकनाथ शिंदे का नाम नहीं था. बाद में नियमों में बदलाव कर शिंदे को शामिल किया गया. महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम के अध्यक्ष अमूमन परिवहन मंत्री होते हैं. परिवहन मंत्रालय शिंदे सेना के प्रताप सरनाईक के पास है. उन के बजाय अतिरिक्त मुख्य सचिव संजय सेठी को अध्यक्ष बना दिया गया.

एकनाथ शिंदे जब मुख्यमंत्री थे उस समय अपने कार्यकाल के दौरान की उन्होंने कुछ लोकप्रिय योजनाओं का प्रस्ताव रखा था. नई सरकार द्वारा उस पर पुनर्विचार न होने से भी शिंदे नाराज हैं. इन में लाडली बहना और त्योहारों के समय गरीबों को मुफ्त दी जाने वाली राशन किट योजना ‘आनंदाचा शिघा’ भी शामिल है. इन योजनाओं ने महायुति को जिताने में अहम भूमिका निभाई. इन योजनाओं को बंद नहीं किया जाएगा, लेकिन नियमों में कड़ाई बरते जाने से कई समूह इन से बाहर हो जाएंगे.

शिंदे अपनी पार्टी का विस्तार राज्य के बाहर करना चाहते हैं. इस में भी भाजपा को दिक्कत थी. देवेन्द्र फडणवीस ने शिंदे के 20 विधायकों की सुरक्षा फडणवीस ने घटा दी. कहने के लिए भाजपा और अजित पवार के कुछ विधायकों की सुरक्षा भी घटाई गई है, लेकिन उन की संख्या शिंदे के विधायकों की तुलना में बहुत कम है. शिंदे-भाजपा के बीच टकराव की परतें खुलती नजर आ रही हैं. शिंदे को यह महसूस होना स्वाभाविक है कि उन्हें घेरा जा रहा है और उन की उपेक्षा व अनदेखी की जा रही है.

खत्म हो रहे छोटे दल

शिंदे समयसमय पर अपनी नाराजगी दिखाते रहते हैं. एकदो बार वह मंत्रिमंडल की बैठक में नहीं गए. भाजपा या अजित पवार की बैठकों का उन्होंने बहिष्कार किया. उसी विषय पर अपनी स्वतंत्र बैठक बुलाई. मुख्यमंत्री सहायता निधि की तरह ही अपना स्वतंत्र सहायता फंड भी बना लिया है. ऐसा लगता है कि शिंदे को हाशिए पर लाने के लिए भाजपा और अजित पवार एक हो गए हैं. जब तक भाजपा और अजित पंवार एक साथ हैं एकनाथ शिंदे के नाराज होने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है.

एकनाथ शिंदे बुरे फंस गए हैं. भाजपा शिंदे और अजित पंवार के बीच तोलमोल का खेल खेल रही है. जब तक अजित पंवार भाजपा के साथ है तब तक महाराष्ट्र में महायुति सरकार को कोई खतरा नहीं है. भाजपा शिंदे को खत्म कर देगी. बिहार में नीतीश कुमार और भाजपा के बीच गठबंधन चल रहा है. यहां भाजपा अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए नीतीश की जदयू को खत्म कर देगी.

बिहार 26 फरवरी को नीतीश सरकार का मंत्रिमंडल विस्तार हुआ. 2025 के विधानसभा चुनाव पर इस मंत्रिमंडल विस्तार का प्रभाव पड़ेगा. मंत्रिमंडल विस्तार में भाजपा का पलड़ा भारी है. इस विस्तार में 7 नए मंत्रियों को जगह मिली. सभी 7 मंत्री भारतीय जनता पार्टी कोटे से हैं. भाजपा ने इस विस्तार के जरीए जातीय गणित और क्षेत्रीय संतुलन को बनाने का काम किया है. मंत्रिमंडल में पिछड़ा वर्ग के 3, अत्यंत पिछड़ा वर्ग के 2 और सवर्ण जाति से दो मंत्री बनाए गए हैं.

भाजपा के इस कदम पर नीतीश कुमार अभी मौन हैं. इस से साफ लग रहा है कि वह पूरी तरह से भाजपा पर निर्भर हैं. 2025 में बिहार के विधानसभा चुनाव हैं. यहां चुनाव भाजपा भले ही नीतीश कुमार के साथ लड़ेगी. चुनाव के बाद जैसे फैसले आएंगे भाजपा वैसा कदम उठाएगी. भाजपा ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी. उस के अधिक विधायक होंगे तब वह अपना मुख्यमंत्री बनाएगी और जदयू खत्म हो जाएगा.

बिहार में जदयू ही नहीं चिराग पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी का भी वही हाल है. चिराग पासवान में अपने बलबूते कुछ करने की ताकत नहीं है. ऐसे में उन की पार्टी भाजपा की पिछलग्गू ही बनी रहेगी. बिहार के नेता जीतन राम मांझी भले ही केंद्र में मंत्री हों लेकिन भाजपा से वह भी परेशान हैं. बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले सीट शेयरिंग को ले कर सियासी बवाल मच गया है.

केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी ने भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. जीतन राम मांझी का कहना है कि जहां भाजपा मजबूत है वहां के चुनाव में वह सहयोगी दलों को महत्व नहीं देती है. जैसे दिल्ली के चुनाव में उस ने किया. दिल्ली में चिराग पासवान और नीतीश कुमार की पार्टी को भाजपा ने सीट में हिस्सेदारी दे दी लेकिन जीतन राम मांझी को एक भी सीट नहीं दी थी. इस को ले कर जीतन राम मांझी बुरी तरह भड़के हुए हैं. जीतन राम मांझी ने कहा कि ‘झारखंड में भी हमारी औकात नहीं थी, दिल्ली में भी हमारी औकात नहीं है लेकिन बिहार में हम अपनी औकात दिखाएंगे.’

बिहार जैसे हाल है उत्तर प्रदेश में

भाजपा बिहार में जिस तरह से नीतीश कुमार, चिराग पासवान और जीतन राम मांझी के साथ कर रही है वही हाल उत्तर प्रदेश में लोकदल, अपना दल अनुप्रिया पटेल, ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद के साथ कर रही है. पिछड़ी जाति के आरक्षण को ले कर अनुप्रिया पटेल ने उत्तर प्रदेश की योगी सरकार पर हमला बोला. इस के बाद उन के पति और योगी सरकार में मंत्री आशीष पटेल ने कई बातें कहीं. जिस के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन को बुला कर बात की. इस के बाद से अपना दल के नेता पूरी तरह से खामोश हैं.

लोकदल के नेता जंयत चौधरी केंद्र में मंत्री रह कर ही खुश हैं. उन को लगता है कि भाजपा विरोध में उन का दल टूट जाएगा. ओमप्रकाश राजभर और सुभाष निषाद योगी सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलने की हालत में नहीं हैं. असल में भाजपा ने इन दलों में अपने नेताओं को घुसा दिया है. यह विचारधारा के हिसाब से भाजपा के करीब हैं. भाजपा के इशारे पर यह नेता इन दलों को तोड़ कर खत्म कर सकते हैं. ऐसे में अनुप्रिया, ओमप्रकाश और सुभाष निषाद के पास खामोश रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. जो भाजपा की बात नहीं मानता वह दल टूट जाता है. महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना इस का उदाहरण हैं.

1993 में भाजपा के मुकाबले सपा-बसपा एक साथ चुनाव लड़ी. भाजपा ने बसपा नेता मायावती को मुख्यमंत्री पद का झांसा दे कर गठबंधन को तोड़ दिया. इस के बाद 3 बार मायावती भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं. दलित और पिछड़ी जातियों के बीच आपस में इतनी दूरी है कि अब समाजवादी पार्टी बसपा को भाजपा की बी टीम कहती है. बसपा के फैसले भाजपा को लाभ पहुंचाने वाले होते हैं.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी कहते हैं, ‘अगर लोकसभा चुनाव में बसपा कांग्रेस के साथ खड़ी होती तो भाजपा को तीसरी बार सरकार बनाने से रोका जा सकता था.’ बसपा ने उत्तर प्रदेश के 9 विधानसभा के उपचुनाव लड़े. जिस का प्रभाव यह हुआ कि समाजवादी पार्टी को भाजपा के मुकाबले केवल 2 सीटों पर जीत मिल सकी. सपा को इस बात की टीस है कि बसपा के चुनावी फैसलों का लाभ भाजपा को मिल रहा है. बसपा अब भाजपा पर निर्भर है.

पंजाब में शिरोमणि अकाली दल भारतीय जनता पार्टी का सहयोगी दल था. अटल बिहारी बाजपेयी से ले कर नरेंद्र मोदी सरकार तक केंद्र सरकार में अकाली दल के नेताओं को मंत्री पद मिला हुआ था. कृषि कानूनों के विरोध में जब किसान आन्दोलन हुआ तब से अकाली दल और भाजपा के बीच दूरियां बढ़नी शुरू हुई. भाजपा जब भी ‘हिंदूराष्ट्र’ की बात करती है तो सहज भाव से सिख को अपना खलिस्तान याद आने लगता है. अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल हिंदू और सिखों के बीच एक कड़ी का काम करते थे जो दोनों को जोड़े थे. शिरोमणि अकाली दल के कमजोर होने का प्रभाव पंजाब की राजनीति पर पड़ रहा है.

2020 में नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार ने बिना शिरोमणि अकाली दल से बात किए 3 कृषि कानून लागू कर दिए थे. इन कानूनों के विरोध में सुखबीर बादल की पत्नी हरसिमरत कौर ने केन्द्रीय मंत्री पद भी छोड़ दिया. इस के बाद शिरोमणि अकाली दल हाशिए पर है. भाजपा ने अकाली दल को लगभग खत्म कर दिया है. भाजपा एकएक कर छोटे दलों को खत्म करती जा रही है. नवीन पटनायक और चन्द्रबाबू नायडू के साथ भी भाजपा ने इसी तरह से खेल किया है.

भाजपा से लड़ कर ही बच रहे दल

जो दल भाजपा के पिछलग्गू बने हैं वह एकएक कर खत्म हो रहे हैं. दूसरी तरफ जो दल भाजपा का साथ छोड़ कर अलग हो गए वह अपने को बचाने में सफल हो रहे हैं. दक्षिण भारत एआईएडीएमके जयललिता के समय से भाजपा के साथ थीं. नरेंद्र मोदी के दौर में भाजपा की बदलती विस्तारवादी नीति से परेशान हो कर भाजपा से दूर हो गई. तभी अपने वर्चस्व को बचा पाई. इसी तरह से टीएमसी नेता ममता बनर्जी भी खुद को बचाने में सफल रही है.

जयललिता और ममता बनर्जी एनडीए का हिस्सा रहते हुए भी अटल सरकार की नाक में नकेल डाल कर रखा था. यह महिला नेता चाहे साथ रही या विपक्ष में अपनी शर्तों और मुद्दों पर काम किया. जिस तरह से भाजपा के प्रभाव में आ कर मायावती ने दलित राजनीति को खत्म कर दिया कुछ वैसा ही हाल जयललिता का भी हुआ. जयललिता और मायावती की राजनीतिक विरासत भी एक जैसी रही. मायावती अपने गुरू कांशीराम के बाद बसपा पर कब्जा किया तो जयललिता ने एमजी रामचन्द्रन की विरासत हासिल कर अपना प्रभाव जमाया था.

जयललिता 1991 से 1996, 2001 में, 2002 से 2006 तक और 2011 से 2014, 2015 से 2016 तक 6 बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं. वह आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) की महासचिव थीं. राजनीति में आने से पहले वो अभिनेत्री थीं. उन का जन्म गरीब परिवार में हुआ था. जयललिता ने तमिल के अलावा तेलुगू, कन्नड़ और एक हिंदी तथा एक अंग्रेजी फिल्म में भी काम किया था. 15 साल की आयु में कन्नड़ फिल्मों में मुख्य अभिनेत्री की भूमिकाएं करने लगी थीं. इस के बाद वे तमिल फिल्मों में काम करने लगीं.

1965 से 1972 के दौर में उन्होंने अधिकतर फिल्में एमजी रामचंद्रन के साथ की थी. यहीं से वह राजनीति में आई. 1987 में रामचंद्रन का निधन के बाद उन्होंने खुद को रामचंद्रन की विरासत का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. जयललिता अटल सरकार का हिस्सा नहीं रही लेकिन वह एनडीए के साथ रही. उन का सहारा ले कर भाजपा ने तमिलनाडु की राजनीति में अपना प्रभाव बढ़ा लिया. मोदी राज में भी जयललिता 2016 तक एनडीए का हिस्सा रही.

जयललिता के निधन के बाद भाजपा ने उन को हिंदू छवि का नेता बताया. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अन्नामलाई कहते हैं, ‘जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक ने हिंदुत्व के आदर्शों से किनारा किया.‘

भाजपा ने इस तरह के आरोप लगा कर अन्नाद्रमुक के अंदर भीतरघात कर उस को कमजोर किया. अन्नाद्रुमुक के वोटर भाजपा और डीएमके के बीच बंट गए हैं. ऐसे में जयललिता की पार्टी को भाजपा ने खत्म सा कर दिया है.

टीएमसी नेता ममता बनर्जी ने अपनी राजनीति कांग्रेस के साथ शुरू की. कुछ समय पर भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए का भी हिस्सा रही. इस के बाद भी ममता बनर्जी ने इन दलों को धूल चटा कर अपनी राजनीतिक जमीन तैयार की. ममता बनर्जी ने 15 साल की उम्र ही राजनीति शुरू की थी. कांग्रेस (आई) की छात्र शाखा से जुड़ी थी. इस के बाद वह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस (आई) पार्टी में बनी रहीं और पार्टी के भीतर और अन्य स्थानीय राजनीतिक संगठनों में विभिन्न पदों काम किया.

1975 में उन्होंने समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के विरोध में उन की कार पर डांस किया था. 1976 से 1980 तक महिला कांग्रेस (इंदिरा), पश्चिम बंगाल की महासचिव रहीं. 1984 के आम चुनाव में ममता बनर्जी सोमनाथ चटर्जी को हरा कर सब से कम उम्र की सांसद बनी थीं. 1991, 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 के आम चुनावों में कोलकाता दक्षिण सीट को बरकरार रखा. 1991 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने बनर्जी को मानव संसाधन विकास, युवा मामले और खेल तथा महिला एवं बाल विकास के लिए केंद्रीय राज्य मंत्री बनी थीं.

1997 में कांग्रेस से नाराज को तृणमूल कांग्रेस नाम से पार्टी बनाई. 1999 में वह भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार में शामिल हो गईं और रेल मंत्री बनीं. 2004 के आम चुनाव में टीएमसी ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया. इस चुनाव में सफलता नहीं मिली तो वह भाजपा से दूर हो गई. 2009 के चुनाव में टीएमसी ने कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए का साथ दिया. 2009 की मनमोहन सरकार में दोबारा रेल मंत्री बनीं.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के लिए ममता बनर्जी ने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. 2011 में टीएमसी ने वामपंथी सरकार को पश्चिम बंगाल की सत्ता से बाहर कर दिया. तब से वह मुख्यमंत्री पद पर बनी हुई है. वह पश्चिम बंगाल की तीसरी सब से लंबे समय तक मुख्यमंत्री बनी रहने वाली नेता बन गई हैं. अगर ममता कम से कम 26 अक्टूबर 2025 तक पद पर बनी रहती हैं, तो वह बिधान चंद्र रौय को पीछे छोड़ते हुए ज्योति बसु के बाद दूसरी सब से लंबे समय तक सेवा करने वाली मुख्यमंत्री बन जाएंगी. इस से ममता बनर्जी की राजनीतिक पकड़ को समझा जा सकता है.

जो दल भाजपा के साथ पिछलग्गू बने रहे वह टूट कर बिखर गए. उन का जनाधार खत्म हो गया. दूसरी तरफ जो दल भाजपा से अलग हो कर अपना जनाधार बढ़ाने में लगे रहे भाजपा के मुकाबले डट कर खडे हुए वह सफल हो रहे हैं. इन में ममता बनर्जी सब से प्रमुख नेता हैं. बहुत सारे प्रयासों के बाद भी भाजपा पश्चिम बंगाल के किले को भेद नहीं पाई है. न ही ममता बनर्जी को झुका पाए हैं. इसी दौर में अरविंद केजरीवाल जैसे लोग जो विचारधारा की राजनीति से भटके वह बिखर गए. जनता के साथ रह कर उस के काम कर के भाजपा से लड़ा जा सकता है. ममता बनर्जी ने यह दिखा दिया है.

Hindi Story : मुझे बेबस न समझो – नेहा किस बात को यादकर सिहर उठती थी?

Hindi Story : नेहा शूटिंग के उस सीन को याद कर सिहर उठती थी. वह ओलिशा की बौडी डबल थी, सो सारे रेप सीन या उघड़े बदन वाले सीन उस पर ही फिल्माए जाते थे. वैसे तो अब उसे इन सब की आदत पड़ चुकी थी पर आज रेप सीन को विभिन्न कोणों से फिल्माने के चक्कर में वह काफी टूटी व थकी महसूस कर रही थी. फिर देर रात तक नींद उस से कोसों दूर रही. अपनी ही चीखें, चाहे डायलौग ही थे, उस के कानों में गूंज कर उस के अपने ही अस्तित्व पर सवाल खड़े कर रहे थे जिस के कारण उसे शारीरिक थकावट से ज्यादा दिमागी थकावट महसूस हो रही थी.

कब तक वह ऐसे दृश्यों पर अभिनय करती रहेगी, यह सवाल उस के सिर पर हथौड़े की तरह वार कर रहा था. विचारों के भंवर से बाहर निकलने के लिए वह कौफी का मग हाथ में पकड़ खिड़की के पास आ खड़ी हुई. बाहर आसपास की दुनिया देख उसे कुछ सुकून मिला ही था कि उसे देख 1-2 लोगों ने हाथ हिलाया और फिर आपस में कोई भद्दा मजाक कर खीखी कर हंसने लगे. सब को पता है कि वह छोटीमोटी फिल्मी कलाकार है. पर शुक्र है यह नहीं पता कि वह किसी का बौडी डबल करती है. नहीं तो उसे वेश्या ही समझ लेते. खैर, दिमाग से यह कीड़ा बाहर फेंक वह कालेज जाने की तैयारी करने लगी. बस पकड़ने के लिए स्टौप पर खड़ी थी तो देखा कि 2-4 आवारा कुत्ते एक कुतिया के पीछे लार टपकाते उसे झपटने जा रहे थे. वह कुतिया जान बचा उस के पैरों के आसपास चक्कर लगाने लगी. तभी, एक पत्थर उठा उस ने कुत्तों को भगाया. कुतिया भाग कर एक नाले में छिप गई.

बाहर आवारा कुत्ते उस कुतिया के आने का इंतजार करने लगे. किसी ने भी कुत्तों को वहां से नहीं भगाया. शायद मन ही मन इस कुतिया का तमाशा देखने की चाह रही होगी भीड़ की. तभी उस की बस आ गई और वह अपना बसपास दिखा सीट खाली होने का इंतजार करने लगी. सीट का इंतजार करतेकरते आत्ममंथन भी करने लगी. शूटिंग के समय तो वह भी इस निरीह कुतिया की तरह लार टपकाते साथी सदस्यों से इसी तरह बचती फिरती रहती है क्योंकि उन की निगाह में ऐसे सीन देने वाली युवती का अपना कोई चरित्र नहीं होता. तभी तो सीन फिल्माते समय जानबूझ कर एक ही सीन को बीसियों बार रीटेक करवाया जाता है.

कभी ऐंगल की बात तो कभी कपड़े ज्यादा नहीं उघड़े, क्याक्या बहाने नहीं बनाए जाते उस की बेचारगी का फायदा उठाने के लिए. इसी कारण वह भी हर सीन के बाद चुपचाप एक कोने में बैठ जाती है. एक बार उस ने छूट दे दी तो गरीब की जोरु बन रह जाएगी. उस की अपनी बेबसी, शूटिंग पर उपस्थित लोगों की कुटिल मुसकान भेदती निगाहें व अश्लील इशारे उस के अंतर्मन को क्षतविक्षत कर देते हैं पर वह भी क्या करे. बड़ेबड़े सपने ले कर वह चंडीगढ़ आई थी. उच्च शिक्षा के साथसाथ मौडलिंग व फिल्मों में काम करने के लिए. सब कहते थे कि वह फिल्मी सितारा लगती है, एकदम परफैक्ट फिगर है, कोई भी डायरैक्टर उसे देखते ही फिल्मों में हीरोईन साइन कर लेगा.

उच्च शिक्षा का सपना ले कर चंडीगढ़ आई नेहा की मुंबई तो अकेले जाने की व रहने की हिम्मत न पड़ी. पर यहां पढ़ाई के दौरान ही चंडीगढ़ में थोड़ी जानपहचान के बलबूते पर उसे मौडलिंग के काम मिलने लगे थे. मांबाप के मना करने के बावजूद वह इस आग के दरिया में कूद पड़ी. मौडलिंग से संपर्क बने तो इक्कादुक्का टीवी सीरियल में काम भी मिल गया. उसे इतनी जल्दी मिलती शोहरत कुछ नामीगिरामी कलाकारों को रास नहीं आई. पालीवुड में उन को नेहा का आना खतरे की घंटी लगने लगा. उन्होंने उस की छोटीछोटी कमियों को बढ़ाचढ़ा कर दिखा उस के यहां पैर ही न टिकने दिए. मांबाप ने भी सहारा देने की जगह खरीखोटी सुना दी. वह तो भला हो उस के पत्रकार मित्र साहिल का जिस ने उसे फिल्मों में ओलिशा का बौडी डबल बनने की सलाह दी और फिल्मों में काम दिलवा उसे आर्थिक व मानसिक संकट से उबार लिया. अब तो यही काम उस की रोजीरोटी है.

आज कोई रिश्तेदार उस का अपना नहीं, सभी ने उस से मुंह मोड़ लिया है. इसी वजह से पढ़ाई दोबारा शुरू कर वह कुछ बनना चाहती है ताकि इस से छुटकारा पा सके. पर क्या करे, कहां जाए, मांबाप तो स्वीकारने से रहे. ‘नहीं, नहीं, ऐसे बेचारगी वाले नैगेटिव विचारों को वह फन नहीं उठाने देगी. यही कमजोरी औरों को फायदा उठाने का मौका देगी और वह उस बसस्टौप वाली निरीह कुतिया की तरह किसी के पैरों पर गिड़गिड़ाएगी नहीं.’ इस सोच ने उसे संबल प्रदान किया. वर्तमान से रूबरू होते ही वह समझ गई कि आज भीड़ से भरी बस में उसे सीट मिलने से तो रही, इसलिए यूनिवर्सिटी तक खड़े हो कर ही जाना पड़ेगा. चलो, केवल 20 मिनट का ही सफर रह गया है, वह भी बस आराम से कट जाए. वैसे भी गली के आवारा कुत्तों से ज्यादा अश्लील व खूंखार तो कई बार सहयात्री होते हैं. सीट मिली तो विचारों की तंद्रा भी टूटी और नेहा को चैन भी आया क्योंकि आज नकारात्मक विचारों की कड़ी टूट ही नहीं रही थी.

बगल की सीट खाली हुई तो लाठी पकड़े बूढ़े ने जानबूझ कर उस पर अपना भार डाल दिया. वह किनारे खिसकी तो वृद्ध व्यक्ति ने हद ही कर दी. बैठतेबैठते उस के हिप्स पर च्यूंटी काट दी. उस ने घूर कर देखा तो खींसे निपोर सौरीसौरी बोलने लगा कि गलती से हाथ लग गया था.

जैसे ही बस रुकी, सीट बदल ली. पर यह तो दिन की शुरुआत थी. तभी अचानक बस रुकी और पीछे खड़ा व्यक्ति उस पर झूल पड़ा. वह झटके से उस वृद्ध के ऊपर लुढ़क गई. उस ने खड़े हो कर बाकी सफर करना तय करना ही सही समझा. और अपनी सीट से खड़ी हो आगे दरवाजे की तरफ बढ़ने लगी. अभी वह खड़ी ही हुई थी कि तभी उसे पीछे कुछ गड़ता सा महसूस हुआ. पीछे खड़ा 17-18 साल का भारी सा लड़का उस के साथ सट कर गंदी हरकत करने लगा. उस ने उसे धकियाते हुए लताड़ा तो खींसें निपोरते उस ने नेहा पर कटाक्ष किया, ‘‘इतनी ही नाजुक है तो अपनी सवारी पर आया कर.’’

वह मुंह फेर खड़ी हो गई. कौन इन कुत्तों के मुंह लगे. इन कुत्तों का शिकार नहीं बनना उसे. उस के जवाब न देने के कारण उस लड़के की हिम्मत बढ़ गई. वह कभी पीठ पर हाथ फेरता तो कभी उस के हिप्स पर. उस की घुटन देख एक बुजुर्ग सरदारजी ने उसे अपनी सीट सौंप दी. वैसे तो उस का स्टौप आने ही वाला था फिर भी उस ने बैठने में ही भलाई समझी और सिमट कर अपनी सीट पर बैठ गई. पता नहीं, उस की इस बात को उस लड़के ने कैसे लिया क्योंकि स्टौप आने पर जैसे ही वह उठी तो उस लड़के ने उस के रास्ते में पैर अड़ा दिया. वह गिरतेगिरते बची. इस हरकत से जब उस बुजुर्ग सरदारजी ने उस लड़के को टोका तो उस ने भरी बस में उन्हें 2 मुक्के मार, पीछे सीट पर धकेल दिया. उन्हें बचाने के लिए कोई न उठा. ड्राइवर, कंडक्टर व सारी सवारियां मूकदर्शक बन तमाशा देखती रहीं जिस से उस लड़के की हिम्मत और बढ़ गई.

इस सब तमाशे की वजह से नेहा अपने स्टौप पर उतर ही नहीं पाई. लगा कौरवों की सभा में फंस कर रह गई है. तभी लालबत्ती पर बस रुकी. नेहा ने वहीं उतरने में भलाई समझी. पर यहां भी मुसीबत ही हाथ लगी. सोचने और कूदने में समय लग गया और उस के कूदतेकूदते ही बस चल पड़ी और वह सीधा सड़क पर गिरी. ज्यादा चोट नहीं लगी. हां, कुछ गाड़ी वालों ने गालियां जरूर सुना दीं. तभी, जैसे ही वह खड़ी हुई तो 2 मजबूत हाथों ने उसे घुमा कर अपनी तरफ कर लिया और फुटपाथ की तरफ खींच कर ले आए.

जैसे ही उस अनाम व्यक्ति को धन्यवाद करने के लिए उस ने उस की तरफ देखा तो उस की चीख गले में ही घुट कर रह गई. यह तो वही दुष्ट था और भरी सड़क से किनारे ला उस की इज्जत पर हमला करना चाहता था. चलतीदौड़ती सड़क को देख नेहा ने हिम्मत जुटाई और 2 करारे थप्पड़ उस दुष्ट के मुंह पर जड़ दिए.

नेहा ने कड़क लहजे में पूछा, ‘‘क्या बदतमीजी है, तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो?’’

‘‘ओ मेरी रानी, तुम्हें तो पा कर ही रहूंगा. पहले मेरे इन गालों पर चुंबन दे, इन्हें सहलाओ, तभी तुम्हें जाने दूंगा. कब तक तड़पाओगी, मेरी जान.’’ वह वहशी ठहाका मार कर हंसा और उसे अपनी तरफ खींचने लगा. नेहा समझ गई कि कोई बड़ी मुसीबत आन पड़ी है, अपनी रक्षा स्वयं ही करनी होगी. सो, उस ने कस कर पकड़े अपने बैग में से अपने सुरक्षा कवच लालमिर्च पाउडर और मोबाइल को निकालने के लिए जद्दोजेहद शुरू की. आज तक कभी जरूरत नहीं पड़ी थी मिर्चपाउडर की. इस मुसीबत में हड़बड़ाहट में न तो उसे मिर्चपाउडर मिल रहा था और न ही मोबाइल. बेबस हो उस ने बढ़ती भीड़ की तरफ झांका. कई लोग उस की सहायता करने के बजाय अपनेअपने मोबाइल से इस सारे कांड का वीडियो बना रहे थे. उस ने सहायता के लिए गुहार लगाई. इक्कादुक्का लोग उस की सहायता को आगे बढ़े भी तो भीड़ ने उन के कदम थाम लिए, यह कह कर कि ‘देखते नहीं, शूटिंग चल रही है. कल भी यहीं एक शूटिंग चल रही थी, किसी ने ऐसे ही हस्तक्षेप करने की कोशिश की तो बाउंसरों ने उस की खासी पिटाई कर दी थी.’ सारी भीड़ शूटिंग का मजा लेने के लिए घेरा बना खड़ी हो गई. यह सब सुनदेख नेहा का दिमाग पलभर के लिए सुन्न हो गया. क्या करे? वहां कोई भी मौके की नजाकत नहीं समझ रहा था. लगता था सभी बहती गंगा में हाथ धोना चाहते थे.

वैसे भी आजकल तो सजा बलात्कारी नहीं, बलात्कार होने वाली नारी को भुगतनी पड़ती है. लोगबाग तो बलात्कारी, आतंकवादी और हत्यारों के साथ सैल्फी ले हर्षित महसूस करते हैं. नहीं, वह दूसरी ‘निर्भया’ नहीं बनेगी. निर्बल नहीं, निर्भय होना है उसे, इस सोच के साथ जैसे ही वह अपने बैग में हाथ डाल अपने ‘हथियार’ निकालने लगी तो उस शख्स ने मौका पाते ही उसे जमीन पर गिरा दिया. स्वयं नेहा की छाती पर बैठ गया और बोला, ‘‘करती है, किस या नहीं. मैं चंडीगढ़ का किसर बौय हूं. देखता हूं तुम मुझे कैसे इनकार करती हो.’’

उस की इस हरकत पर भीड़ ने तालियां बजानी शुरू कर दीं. एक ने फिकरा कसा, ‘‘क्या बढि़या डायलौग है. पिक्चर सुपरहिट है, मेरे भाई. जारी रखो. बिलकुल असली सा मजा आ रहा है.’’

एक के बाद दूसरी आवाजें आ रही थीं. तब तक वह लड़का अपने होंठों को उस के होंठों तक ले आया. नेहा ने हिम्मत जुटा उसे परे धकेला. जैसे ही वह पीछे हटा तो दूर गिरा नेहा का बैग उस लड़के के पैरों से लग कर नेहा के हाथों पर आ गिरा. आननफानन नेहा ने लालमिर्च का पैकेट ढूंढ़ने की कोशिश की. उस के हाथ में पैकेट आता, उस से पहले ही वह लड़का अपनी जींस की जिप खोल उस की तरफ बढ़ा और…

भीड़ इस सब का पूरा लुत्फ उठा रही थी. लोगों के हाथ मोबाइल पर और आंखें उन दोनों पर टिकी थीं ताकि कोई भी पल ‘मिस’ न हो जाए.

भीड़ में से कोई चिल्लाया, ‘अजी, वाह, यह तो ब्लू फिल्म की शूटिंग चल रही है.’ नेहा समझ गई वासना से लिप्त भीड़ उस की कोई सहायता नहीं करेगी. क्या पता 1-2 लोग और इस मौके का फायदा उठाने को आ जाएं. उसे अपनी रक्षा खुद करनी होगी. हिम्मत जुटा उस ने हाथ में आए मिर्च के पैकेट को बाहर निकाला और उस दुष्ट की आंखों में झोंक दिया.

जब तक वह आंखें मलता तब तक नेहा ने अपने मिर्च वाले हाथों से उस का ‘वही’ अंग जिप में से निकाल कर दांतों में भींच लिया. खून का फौआरा फूट पड़ा. लड़का दर्द से बिलबिला, सड़क पर लोटने लगा.

सारी भीड़ हक्कीबक्की रह गई. वीरांगना के समान नेहा उठ खड़ी हुई. कपड़े झाड़ उस ने मिर्च का पैकेट हाथ में ले नपुंसक भीड़ पर छिड़क दिया, ‘‘लो, अब खींचों फोटो अपना व अपने इस साथी दरिंदे का.’’ और पिच्च से भीड़ पर थूक दिया. वह आगे बढ़ गई. भीड़ ने उस के लिए खुद ही रास्ता बना दिया.

लेखिका – शोभा बंसल

Emotional Story : खानाबदोश – माया और राजेश क्यों बेघर हो गए

Emotional Story : मेरा तन और मन जलता है और जलता रहेगा. कब तक जलेगा, यह मैं नहीं बतला सकती हूं. जब भी मैं उस छोटे से, खूबसूरत बंगले के सामने से निकलती हूं, ऊपर से नीचे तक सुलग जाती हूं क्योंकि वह खूबसूरत छोटा सा बंगला मेरा है. जो बंगले के बाहर खड़ा है उस का वह बंगला है और जो लोग अंदर हैं व बिना अधिकार के रह रहे हैं, उन का नहीं. मेरी आंखों में खून उतर जाता है. बंगले के बाहर लौन के किनारे लगे फूलों के पौधे मुझे पहचानते हैं क्योंकि मैं ने ही उन्हें लगाया था बहुत प्यार से. बच्चों की तरह पाला और पोसा था. अगर इन फूलों की जबान होती तो ये पूछते कि वे गोरेगोरे हाथ अब कहां हैं, जिन्होंने हमें जिंदगी दी थी. बेचारे अब मेरे स्पर्श को तरस रहे होंगे. धीरेधीरे बोझिल कदमों से खून के आंसू बहाती मैं आगे बढ़ गई अपने किराए के मुरझाए से फ्लैट की ओर.

रास्ते में उमेशजी मिल गए, हमारे किराएदार, ‘‘कहिए, मायाजी, क्या हालचाल हैं?’’

‘‘आप हालचाल पूछ रहे हैं उमेशजी, अगर किराएनामे के अनुसार आप घर खाली कर देते तो मेरा हालचाल पूछ सकते थे. आप तो अब मकानमालिक बन बैठे हैं और हम लोग खानाबदोश हो कर रह गए हैं? क्या आप के लिए लिखापढ़ी, कानून वगैरा का कोई महत्त्व नहीं है? आप जैसे लोगों को मैं सिर्फ गद्दारों की श्रेणी में रख सकती हूं.’’

‘‘आप बहुत नाराज हैं. मैं आप से वादा करता हूं कि जैसे ही दूसरा घर मिलेगा, हम चले जाएंगे.’’

‘‘एक बात पूछूं उमेशजी, तारीखें आप किस तरकीब से बढ़वाते रहते हैं, क्याक्या हथकंडे इस्तेमाल करते हैं, मैं यह जानना चाहती हूं?’’

‘‘छोडि़ए मायाजी, आप नाराज हैं इसीलिए इस तरह की बातें कर रही हैं. मैं आप की परेशानी समझता हूं, पर मेरी अपनी भी परेशानियां हैं. बिना दूसरे घर के  इंतजाम हुए मैं कहां चला जाऊं?’’

‘‘एक तरकीब मैं बतलाती हूं उमेशजी, जिस फ्लैट में हम रह रहे हैं उस में आप आ जाइए और हम अपने बंगले में आ जाएं. सारी समस्याएं सुलझ जाएंगी.’’

‘‘मैं इस विषय पर सोचूंगा मायाजी. आप बिलकुल परेशान न हों,’’ कह कर उमेशजी आगे बढ़ गए. मन ही मन मैं ने उन को वे सब गालियां दे डालीं, जो बचपन से अब तक सीखी और सुनी थीं.

खाना खाने के बाद मैं ने पति से कहा, ‘‘कुछ तो करिए राजेश, वरना मैं पागल हो जाऊंगी.’’ और मैं रोने लगी.

‘‘मैं क्या करूं, तारीखों पर तारीखें पड़ती रहती हैं?’’

‘‘6 साल से तारीखें पड़ती चली आ रही हैं, पर मैं पूछती हूं क्यों? किरायानामा लिखा गया था जिस में 11 महीने के लिए बंगला किराए पर दिया गया था. नियम के मुताबिक, उन लोगों को समय पूरा हो जाने पर बंगला खाली कर देना चाहिए था.’’

‘‘पर उन लोगों ने खाली नहीं किया. मैं ने नोटिस दिया. रिमाइंडर दिया, कोर्ट में बेदखली की अपील की. अब मैं क्या करूं? वे लोग किसी तरह तारीखें आगे डलवाते रहते हैं और मुकदमा बिना फैसले के चालू रहता है और कब तक चालू रहेगा, यह भी मैं नहीं कह सकता.’’

‘‘राजेश, ऐसा मत कहिए. आप जानते हैं कि बंगले का नक्शा मैं ने बनाया था. क्या चीज मुझे कहां चाहिए, उसी हिसाब से वह बना था. उस बंगले को बनवाने में आप को फंड से कर्ज लेना पड़ा. 40 लाख रुपए मैं ने दिए, जो मरते समय मां मेरे नाम कर गई थी. आप सीमेंट का फर्श लगवा रहे थे. मैं ने अपने जेवर बेच कर रुपया दिया ताकि मारबल का फर्श बन सके. कोई रिश्वत का रुपया तो हमारे पास था नहीं, इसलिए जेवर भी बेच दिए. क्या इसलिए कि हमारे बंगले में कोई दूसरा आ कर बस जाए? राजेश, मुझे मेरा बंगला दिलवा दीजिए.’’

‘‘बंगला हमारा है और हमें जरूर मिलेगा.’’

‘‘पर कब? हां, एक तरकीब है, सुनना चाहेंगे?’’

‘‘जरूर माया, तुम्हारी हर तरकीब सुनूंगा. अब तक मैं हरेक की इस बाबत कितनी ही तरीकीबें सुनता आया हूं.’’

‘‘तो सुनिए, क्यों न हम लोग कुछ लोगों को साथ ले कर अपने बंगले में दाखिल हो जाएं, क्योंकि घर तो हमारा ही है न.’’

‘‘ऐसा कर तो सकते हैं लेकिन किराएदार के साथ मारपीट भी हो सकती है और इस तरह पुलिस का केस भी बन सकता है और फिर मेरे ऊपर एक नया केस चालू हो जाएगा. मैं इस झगड़े में पड़ने को बिलकुल तैयार नहीं हूं.’’

‘‘क्या इस तरह के केसों से निबटने की कोई तरकीब नहीं है? यह सिर्फ हमारा ही झगड़ा तो है नहीं, हजारों लोगों का है.’’

‘‘होता यह है कि किराएदार मुकदमे के लिए तारीखों पर तारीखें पड़वाता रहता है, जिस से अंतिम फैसले में जितनी देर हो सके उतना ही अच्छा है और अगर न्यायाधीश का निर्णय उस के विरुद्घ हुआ तो वह उच्च अदालत में अपील कर देता है जिस से इस प्रकार और समय निकलता जाता है और उच्च अदालतों में न्यायाधीशों की और भी कमी है. हजारों केस वर्षों पड़े रहते हैं. तुम ने टीवी पर देखा नहीं, इस के चलते भारत के मुख्य न्यायाधीश उस दिन एक कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी के सामने भावुक हो गए.

‘‘कुछ तो उपाय होना ही चाहिए, यह सरासर अन्याय है.’’

‘‘उपाय जरूर है. ऐसा फैसला सरसरी तौर पर होना चाहिए. ऐसे मुकदमों के लिए अलग अदालतें बनाई जाएं और अलग न्यायाधीश हों, जो यही काम करें और अगर अंतिम निर्णय किराएदार के विरुद्घ हो तो दंडनीय किराया देना अनिवार्य हो. इस से फायदा यह होगा कि निर्णय को टालने की कोशिश बंद हो जाएगी और दंडनीय किराए का डर बना रहेगा तो किराएदार मकान स्वयं ही खाली कर देगा और इस तरह से एक बड़ी समस्या का समाधान हो जाएगा.’’

‘‘आप समस्याओं का समाधान निकालने में बहुत तेज हैं, पर कुछ करते क्यों नहीं हो?’’

‘‘माया, क्या तुम समझती हो मुझे अपना घर नहीं चाहिए.’’

‘‘अब तो मदन भी पूछने लगा है कि हम अपने बंगले में कब जाएंगे, यहां तो खेलने की जगह भी नहीं है.’’

सारी रात नींद नहीं आई. सवेरे दूध उबाल कर रखा तो उस में मक्खी गिर गई. सारा दूध फेंकना पड़ा. दिमाग बिलकुल खराब हो गया. मैं ने राजेश से कहा, ‘‘आज दूध नहीं मिलेगा क्योंकि उस में मक्खी गिर गई थी.’’

‘‘हम ने अपने घर में जाली लगवाई थी.’’

‘‘यहां तो है नहीं, फिर मैं क्या करूं?’’

‘‘कोई बात नहीं, आज दूध नहीं पिएंगे,’’ उन्होंने हंस कर कहा.

‘‘मैं ने आप से कहा था कि मैं मुंबई नहीं जाऊंगी, फिर आप ने मुझे चलने को क्यों मजबूर किया? आप को 3 साल के लिए ही तो मुंबई भेजा गया था. क्या

3 साल अकेले नहीं रह सकते थे?’’

‘‘नहीं माया, नहीं रह सकता था. मैं तुम्हारे बिना एक दिन भी रहने को तैयार नहीं हूं.’’

‘‘नतीजा देख लिया, हम बेघरबार हो गए. मैं 3 साल अपने घर में रहती, आप कभीकभी आते रहते, यही बहुत होता. ठीक है, अगर हम मुंबई चले भी गए तो आप ने बंगला किराए पर क्यों दे दिया?’’

‘‘सोचा था, 11 महीने का किराया मिल जाएगा और हम अपने कमरे में एयरकंडीशनर लगवा लेंगे. और आखिर में तुम भी तो तैयार हो गई थी.’’

‘‘आप की हर बात मानने का ही तो नतीजा भुगत रही हूं.’’

‘‘माया, अब बंद कर दो इन बातों को, थोड़ा धैर्य और रखो, बंगला तुम्हें अवश्य मिल जाएगा.’’

‘‘पर कब? अब तो 6 साल से भी ज्यादा समय हो चुका है.’’

सारी रात मुझे नींद नहीं आई. मुंबई मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगा. भीड़ इतनी कि सड़क पर चलने से ही चक्कर आने लगे. सड़क पार करते समय तो मेरी सांस ही रुक जाती थी कि अगर मैं सड़क के बीच में हुई और कारों की लाइन शुरू हो गई तब? बसों के लिए लंबीलंबी लाइनों में खड़े हुए थके शरीर और मुरझाए चेहरों वाले लोग. ऊंचीऊंची इमारतें और बड़ेबड़े होटल, जहां जा कर एक साधारण हैसियत का आदमी एक प्याला चाय का भी नहीं पी सकता. मुंबई सिर्फ बड़ेबड़े सेठों और धनिकों के लिए है. वहां की रंगीन रातें उन्हीं लोगों के लिए हैं. दूरदूर से रोजीरोटी के लिए आए लोग तो जिंदा रहते हैं कीड़ेमकोड़ों की तरह. एक दिन सड़क के किनारे एक

आदमी को पड़े हुए देखा, पांव वहीं रुक गए. इसे कुछ हो गया है, ‘इस के मुंह पर पानी का छींटा डालना चाहिए, शायद गरमी के कारण बेहोश हो गया है.’ मेरे पति और उन के दोस्त ने मुझे खींच लिया, ‘पड़ा रहने दीजिए, भाभीजी, अगर पुलिस आ गई और हम लोग खड़े मिले तो दुनियाभर के सवालों का जवाब देना होगा. यह मत भूलिए कि यह मुंबई है.’ ‘क्या मुंबई के लोगों की इंसानियत मर चुकी है? क्या यहां जज्बातों की कोई कीमत नहीं है? एक लड़की बस में चढ़ने जा रही थी. एक पांव बस के पायदान पर था और दूसरा हवा में, तभी बस चल दी और वह लड़की धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ी. कोई भीड़ जमा नहीं हुई, लोग वैसे ही आगेपीछे बढ़ते रहे. रुक कर मैं ने तो सहारा दे कर उसे खड़ा कर दिया क्योंकि मैं मुंबई की रहने वाली नहीं हूं. 2 बसें भरी हुई निकल चुकी थीं. उस दिन सब्जियों और राशन के थैले लटकाए मैं बेहद थक चुकी थी.

मुझे अपना इलाहाबाद याद आ रहा था और वह अपना छोटा सा बंगला. यह मुंबई अच्छेखासे लोगों का सत्यानाश कर देता है. इसी बीच बारिश शुरू हो गई. भीग जाने से सब्जियों के थैले और भारी हो गए. मैं घर से छतरी ले कर भी नहीं चली थी. मैं पास के ही बंगले के मोटरगैरेज में जा कर खड़ी हो गई. सब्जियों और राशन का थैला एक ओर टिका दिया, फिर बालों का जूड़ा खोल कर बालों से पानी निचोड़ने लगी. तभी आवाज सुनी, ‘माया, तुम?’ कार के पास खड़ा पुरुष मेरी ओर बढ़ा, ‘इतने सालों के बाद देखा है, बिलकुल वैसी ही लगती हो, उतनी ही हसीन.’

‘सुधाकर तुम? बदल गए हो, पहले जैसे बिलकुल नहीं लगते हो.’

‘माया, बहुत सोचा था कि तुम्हारे पास आ कर सबकुछ बतला दूं, पर तुम और तुम्हारे डैडी का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाया. तुम्हें किस तरह बतलाऊं कि वह सब कैसे हो गया. मैं इतना मजबूर कर दिया गया था कि कुछ भी मेरे वश में नहीं रहा.’

‘क्या मैं ने तुम से कुछ कहा है, जो सफाई दे रहे हो? याचक बन कर तुम्हीं ने मेरे डैडी के सामने हाथ फैलाया था. कहां है वह तुम्हारा बूढ़ा लालची बाप जिस ने मेरे डैडी से आ कर कहा था, पुरानी दोस्ती के नाते समझा रहा हूं, मित्र, नारेबाजी की बात जाने दो, गरीब और अमीर का फर्क हमेशा रहेगा. मैं अपने बेवकूफ लड़के को समझा लूंगा.’

‘उन की मृत्यु हो चुकी है. मरते समय वे करीबकरीब दिवालिया हो चुके थे और उन के ऊपर इतना कर्ज था कि मेरे पास उन की बात को मानने के सिवा दूसरा उपाय नहीं था. मैं ने सेठ करोड़ीमल की लड़की से शादी कर ली. मैं खून के आंसू रोया हूं, माया.’

‘शादी मत कहो. यह कहो कि तुम बिके  थे, सुधाकर,’ कह कर मैं हंसने लगी.

‘छोड़ो इन बातों को, तुम लोग मुंबई घूमने आए हो या काम से?’

‘मेरे पति को कुछ काम है, कुछ समय तक यहीं रहना होगा.’

‘फ्लैट वगैरा मिल गया है या नहीं? मेरा एक फ्लैट खाली है, जो मैं अपने मेहमानों के लिए खाली रखता हूं, वह मैं तुम्हें दे सकता हूं. घूमनेफिरने के लिए कार भी मिल जाएगी. मुझे कुछ मेहमानदारी करने का ही मौका दो, माया.’

‘फ्लैट के लिए कितनी पगड़ी लोगे, कितना किराया लोगे? आखिर हो तो व्यवसायी न? क्या तुम्हारी टैक्सियां भी चलती हैं?’

‘नहीं, माया, ऐसा मत कहो.’

‘फिर इतना सब मुफ्त में क्यों दोगे?’

‘मेरा एक ख्वाब था, जिसे मैं भूला नहीं हूं,’ अपना चेहरा मेरे करीब ला कर उस ने कहा, ‘तुम्हें बांहों में लेने का ख्वाब.’

‘ओह, बकवास बंद करो. अच्छा हुआ, तुम्हारे जैसे लालची और व्यभिचारी आदमी से मेरी शादी नहीं हुई.’ तभी एक बेहद काली और मोटी औरत हमारी ओर आती दिखाई दी. सुधाकर ने कहा, ‘वह मेरी पत्नी है.’

‘बहुत ठोस माल है. तुम्हारी कीमत कम नहीं लगी. जायदाद कर ठीक से देते हो या नहीं?’ कह कर हंसते हुए मैं ने अपने थैले उठा लिए.

‘देखो, माया, पानी बरस रहा है, मैं कार से तुम्हें छोड़ आता हूं.’

‘रहने दो, मैं चली जाऊंगी,’ कह कर मैं बाहर निकल आई.

अचानक मेरे पति की आवाज मुझे वर्तमान में घसीट लाई, ‘‘क्या नींद नहीं आ रही है? तुम अपने बंगले को ले कर बहुत परेशान रहने लगी हो?’’

‘‘परेशान होने की ही बात है. मेरे बंगले में कोई दूसरा रहता है और इस फ्लैट में मेरा दम घुटता है, पर इस समय मैं मुंबई की बाबत सोच रही थी.’’

‘‘सुधाकर के बारे में?’’

‘‘सुधाकर के बारे में सोचने को कुछ भी नहीं है. मेरी शादी के लिए डैडी के पास जितने भी रिश्ते आए थे, उन में सुधाकर ही सब से बेकार का था.’’

‘‘वैसे भी एक पतिव्रता स्त्री को दूसरे पुरुष की बाबत नहीं सोचना चाहिए. बुजुर्गों ने कहा है कि सपने में भी नहीं.’’

‘‘कल आप घर देर से सोए थे, लगता है पूरी रात टीवी पर फिल्म देखी है.’’

हम दोनों इस पर खूब हंसे. कुछ देर के लिए अपना घर भी भूल गए. पर मैं जानती हूं कि कल सवेरे ही बंगले को ले कर फिर रोना शुरू हो जाएगा.

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