एक लंबे प्रवास के बाद मैं वापस अपने घर जा रही थी। रास्तेभर मेरा मन 8 माह से छोड़े हुए अव्यवस्थित घर को व्यवस्थित करने में उलझा हुआ था। घर पहुंचने से पहले ही मैं ने कामवाली से संपर्क साधने का प्रयास किया पर नहीं हो सका। घर पहुंच कर झाड़ूपोंछा करने वाली राधिका तो मिल गई, पर बरतन साफ करने वाली रानी न मिल पाई। उस की जगह मीना काम पर लग गई।
तभी एक दिन रानी मिलने आ गई।आते ही बोली, "आंटीजी, अंकलजी अब ठीक हैं न? यहां से तो अंकल ठीकठाक गए थे, फिर वहां जा कर क्या हो गया कि औपरेशन तक करवाना पड़ा?" उस ने बड़ी सहानुभूति से पूछा।
"तुम्हें अंकलजी के बारे में किस ने बताया है?" मैं ने उत्सुकतावश पूछा।
"सामने वाली आंटी कल बाजार में मिली थीं। मैं तो बस उन्हीं का हालचाल जानने आई हूं," उस ने बड़ी आत्मीयता से कहा।
उस के मुंह से सहानुभूतिपूर्ण, आत्मीय शब्द सुन कर आश्चर्य भी हुआ और अच्छा भी लगा। अपनी व्यस्त दिनचर्या में से समय निकाल कर मात्र कुशलक्षेम जानने के लिए आना उस के आंतरिक लगाव का प्रतीक था, नहीं तो आजकल व्यस्तताएं इतनी बढ़ गई हैं कि सगेसंबंधी तक औपचारिकताएं निभाने से कतराने लगे हैं। मन अंदर तक भीग गया।
"काम करोगी?" मैं ने पूछा।
"आंटीजी, मेरे पास काम बहुत है। काम खत्म कर के घर वापस जातेजाते दोपहर के 3 बज जाते हैं।तब तक बच्चे भी स्कूल से वापस आ जाते हैं। वैसे, आप ने करवाना क्या है?" उस ने जानना चाहा।
"बरतन, साफसफाई और कपड़े आदि के सब कामों का इंतजाम हो गया है। मैं चाहती हूं कि सुबह रसोई में तुम घंटा भर मेरी मदद कर दिया करो। सुबह नाश्ता तुम यहीं कर लिया करो।"