Download App

New Year 2025 : चरित्रहीन कौन

New Year 2025 :  आयुषी बैंक में नौकरी करती है और उमेश एलआईसी कार्यालय में है. उमेश तो घर से 10-11 बजे निकलता है, पर आयुषी को घर से जल्दी निकलना पड़ता है. उन के 2 बच्चे हैं- बेटी पावनी 11 साल की और बेटा सनी 7 साल का.

आयुषी दोनों बच्चों को स्कूल भेज उमेश का लंच पैक कर बाकी का काम बाई पर छोड़ तैयार हो कर बैंक निकल जाती. उसे हमेशा यही डर सताता है कि पता नहीं उस के पीछे उमेश और बाई कहीं कुछ…

कितनी बार आयुषी ने उमेश को अखबार की ओट से बाई को गंदी नजरों से घूरते देखा है. अब झाड़ूपोंछा लगाते वक्त किसी के भी कपड़े अस्तव्यस्त हो ही जाते हैं. इस का यह मतलब तो नहीं है कि कोई उसे गंदी नजरों से घूरे. ऐसे में कोई भी बाई असहज हो जाएगी. आयुषी ऐसे ही पति पर शक नहीं कर रही थी.

‘‘नंदा, मैं औफिस जा रही हूं. तुम काम खत्म कर के चली जाना… और हां फ्रिज में कुछ खाने का सामान रखा है उसे लेती जाना,’’ कह एक दिन आयुषी औफिस चली गई.

आयुषी थोड़ी दूर ही पहुंची थी कि उसे याद आया कि वह अपनी दराज की चाबी भूल आई. उस ने तुरंत स्कूटी घर की तरफ घुमाई. घर की दूसरी चाबी आयुषी के पास रहती थी. अत: वह दरवाजा खोल कर जैसे ही अंदर गई उस के पैर वहीं ठिठक गए. उमेश और नंदा दोनों आयुषी के बैड पर एकदूसरे से लिपटे थे.

आयुषी को अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हो रहा था. बाई तो भाग गई… उमेश हकलाते हुए कहने लगा, ‘‘आयुषी मैं नहीं वही जबरदस्ती करने…’’

आयुषी ने बिना उमेश की पूरी बात सुने एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर दे मारा और फिर कहने लगी, ‘‘शर्म नहीं आती तुम्हें झूठ बोलते हुए… बिना तुम्हारी मरजी के वह और तुम… छि… छि:…,’’ कह आयुषी अपने आंसू पोंछते हुए आगे बोली, ‘‘उस दिन को कोसती हूं मैं, जिस दिन मेरी तुम से शादी हुई थी.’’

आयुषी औफिस तो चली गई, पर अपनी तबीयत खराब होने का बहाना कर तुरंत घर आ गई. पूरा दिन और रात वह सिसकती रही. किसी से कुछ नहीं कहा. न ही अपने बच्चों को इस बारे में कुछ पता लगने दिया. वह सोचने लगी कि कभी बच्चों को अपने पापा की इन गंदी हरकतों का पता चला, तो दोनों नफरत करेंगे उन से… उमेश की तो अब हिम्मत ही नहीं थी कि वह आयुषी के सामने जाए.

आयुषी बच्चों को सुबह स्कूल भेज कर घर का सारा काम खत्म कर औफिस चली जाती थी. कोई भी कामवाली सुबह आने को तैयार नहीं थी. सब यही कहतीं कि 9 बजे के बाद ही आ सकती हैं. आयुषी का मन तो करता कि नौकरी छोड़ दे, पर बच्चों के स्कूल और पढ़ाई पर जो मोटा पैसा खर्च होता है वह कहां से आएगा. आसमान छूती महंगाई के युग में एक की कमाई से घर चलाना संभव नहीं था.

एक बाई आई भी, पर कुछ दिन काम कर के छोड़ गई. वही बात सुबह 8 बजे नहीं आ सकती. आयुषी की तो कमर जवाब देने लगी थी. आखिर वह घरबाहर कितना करेगी.

आयुषी ने अपनी सहेली वैशाली से बाई के बारे में पूछने के लिए फोन किया, तो उस ने बताया, ‘‘हां एक बाई आती तो है मेरे घर काम करने, पर वह थोड़ी बूढ़ी है. अगर तुम कहो तो भेज देती हूं.’’

वैशाली की बात सुन कर आयुषी खुश हो गई, उसे यही तो चाहिए था. वह मन ही मन मुसकराई कि उमेश अब बूढ़ी औरत को क्या घूरेगा.

कांता बाई दूसरे दिन से ही काम पर आने लगी. अब आयुषी को कोई फिक्र नहीं थी. सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा था.

कांता बाई 2-3 दिनों से नहीं आ रही थी, वैशाली से पता चला कि उस की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए कुछ दिनों बाद आएगी. सुन कर आयुषी के पसीने छूट गए.

कांता बाई एक रोज किसी और को ले कर आई और कहने लगी, ‘‘मैडमजी, यह मेरी बहू है रूपा. अब से यही आप के घर काम करेगी.’’

‘‘कांता बाई जब आप की तबीयत ठीक हो जाएगी तब तो आओगी न काम पर?’’ आयुषी ने पूछा.

‘‘मैडमजी अब मुझ से काम नहीं होता है… गठिया की शिकायत है मुझे. काम करती हूं तो दर्द और बढ़ जाता है. मगर आप चिंता न करो मेरी बहू मुझ से भी अच्छा काम करेगी,’’ कांता बाई ने कहा.

आयुषी ने हां तो कह दी पर फिर वही शर्त कि सुबह 8 बजे आना पड़ेगा. रूपा मान गई.

रूपा काम तो अच्छा करती थी, पर आयुषी को डर लगा रहता था कि उमेश की गंदी नजर कहीं रूपा पर भी न पड़ जाए. रूपा थी भी बहुत खूबसूरत और फिर उम्र भी ज्यादा नहीं थी. यही कोई 22-23 साल. आयुषी के सामने ही वह काम कर के चली जाती थी.

आयुषी रविवार के दिन रूपा से खाना बनाने में भी मदद ले लिया करती थी. रूपा का व्यवहार भी अच्छा था. आयुषी हमेशा उसे कुछ न कुछ दे देती थी. जैसे पुराने सलवारसूट, चूडि़यां, बिंदी, लिपस्टिक आदि. रूपा भी बहुत खुश रहती थी. आयुषी को वह अब मैडमजी नहीं, दीदी कह कर बुलाने लगी थी.

आयुषी ने जब एक दिन रूपा से पूछा कि तुम्हारा पति क्या करता है, तो बोली, ‘‘दीदी, मेरा मर्द मजदूरी करता है. हमारी शादी के अभी 2 साल ही हुए हैं.’’

रूपा अपने मायके, ससुराल, नातेरिश्तेदारों सब के बारे में बताती रहती थी. आयुषी अब रूपा पर भरोसा करने लगी थी, परंतु उसे अपने पति पर कतई भरोसा न था.

रूपा को आयुषी के घर काम करते हुए करीब 7 महीने हो चुके थे. अब तो रूपा कभीकभार लेट भी आती, तो आयुषी कुछ नहीं कहती थी. उसे लगता था कि अगर रूपा ठीक है, तो उमेश कुछ नहीं कर सकता है.

रूपा अब बड़े सलीके से सजधज कर रहने लगी थी. आयुषी ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘रूपा, आज तो तुम बहुत अच्छी लग रही हो और यह तुम्हारा सलवारसूट भी. कहां से खरीदा? बहुत ही सुंदर रंग है.’’

रूपा कहने लगी, ‘‘दीदी, मेरी मां ने दिया था.’’

रूपा का चेहरा कुछ दिनों से बड़ा ही खिलाखिला सा लगने लगा था. आयुषी ने पूछा भी, ‘‘रूपा आजकल बड़ी खुश नजर आ रही है… कोई बात है क्या?’’ तब रूपा ने मुसकरा कर कहा, ‘‘नहीं दीदी.’’

रूपा कुछ महीनों से काम करने लेट से आने लगी थी. पूछने पर कहने लगी ‘‘मेरी सास बीमार हैं, इस कारण देर हो जाती है,’’

आयुषी कुछ नहीं कहती, उस पर घर छोड़ कर औफिस चली जाती थी. आयुषी को इस बात की हैरानी होती थी कि उमेश इतना कैसे सुधर गया, रूपा उसे चाय देने भी जाती, तो नजर उठा कर भी नहीं देखता है. आयुषी को लगा कि शायद उसे उस दिन का थप्पड़ याद है और फिर मुसकरा उठी.

रूपा को काम पर न आए आज हफ्ता हो गया. आयुषी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, किस से पूछे कि रूपा क्यों नहीं आ रही है. फिर याद आया कि वैशाली से पूछती हूं.

वैशाली ने कहा कि उस के घर भी रूपा कई दिनों से नहीं आ रही है. उस ने यह भी कहा कि रूपा का घर आयुषी के घर से थोड़ी दूर पर ही है. जा कर पूछ ले. आयुषी को लगा कि वैशाली सच कह रही है. उसे जा कर देखना चाहिए कि क्यों नहीं आ रही है और वह काम पर आएगी भी या नहीं.

संकरी सी गली में 1 कमरे का घर, 1 खटिया पर कांता बाई लेटी थी. बाहर से ही सब दिख रहा था.

‘‘कांता बाई,’’ आयुषी की आवाज सुनते ही कांता बाई बाहर आ गई.

‘‘रूपा कई दिनों से नहीं आ रही है, तो देखने आ गई, तबीयत तो ठीक है न उस की? आयुषी ने कांता बाई से पूछा.

कांता बाई अपना सिर पीटते हुए कहने लगी, कर्मजली मर जाए तो अच्छा है.’’

‘‘कांता बाई ऐसा क्यों कह रही… कोईर् बात हो गई क्या?’’ आयुषी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैडमजी, तो और मैं क्या बोलूं?’’ पता नहीं ये कलमुंही कहां से अपना मुंह काला करवा कर आई है… किस का पाप अपने पेट में लिए घूम रही है… यह देखने से पहले मैं मर क्यों नहीं गई. अपने बेटे को क्या जवाब दूंगी. कांता बाई ने बिलखते हुए कहा.

‘‘आप को अपने बेटे को क्यों जवाब देना पड़ेगा… रूपा के पेट में तो आप के बेटे का ही बच्चा…’’

कांता बाई बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘मेरा बेटा तो साल भर से गुजरात में है. वहां कमाने गया है, तो उस का बच्चा कैसे हो सकता है मैडमजी?’’

आयुषी को जोर का झटका लगा. वह रूपा से मिले बिना ही घर आ गई. उस ने तो रूपा को एक अच्छी और सुलझी हुई औरत समझा था, पर वह तो चरित्रहीन निकली.

आयुषी को यह भी डर सताने लगा कि पता नहीं रूपा किस के बच्चे की मां बनने वाली है. कहीं मेरे पति? फिर अपने दिमाग को झटका देती हुई अपनेआप को ही समझाने लगी कि नहींनहीं ऐसा कैसे हो सकता है. रूपा तो मेरे सामने ही रोज काम कर के चली जाती थी. हां कुछ दिन लेट आई थी, पर उमेश तो उसे देखता भी नहीं था… फिर वह तो कितने घरों में काम करती है… कोई भी हो सकता है. मगर आयुषी को अंदर ही अंदर कोई अनजाना डर सताने लगा था.

आयुषी को यह भी समझ नहीं आ रहा था कि दूसरी बाई कहां से ढूंढ़ेगी और अगर मिल भी गई तो फिर वह कैसी होगी? ये सब सोचसोच कर ही आयुषी का दिमाग चकराने लगता था. उसे अब बाई के नाम से ही डर लगने लगा था.

आयुषी ने औफिस से कुछ दिनों की छुट्टी ले ली, क्योंकि घर और बाहर दोनों जगह काम करना उस के लिए मुश्किल हो गया था.

आयुषी को काम करते देख कर एक दिन उमेश ने कहा, ‘‘लगता है तुम्हारी बाई भाग गई.’’

आयुषी ने कहा, ‘‘उस की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए नहीं आ रही है.’’

‘‘अरे, यह तबीयत खराब तो एक बहाना है पैसे बढ़वाने का. जानती है कि तुम औरतों का उस के बिना काम नहीं चलने वाला, इसलिए नखरे दिखाती है,’’ एक कुटिल मुसकान के साथ उमेश ने कहा.

‘‘जब तुम्हें कुछ पता नहीं है, तो बकबक क्यों करते हो?’’ आयुषी ने उमेश को झिड़कते हुए कहा, लेकिन उमेश को टटोलना भी था कि कहीं रूपा की इस हालत का जिम्मेदार उमेश तो नहीं है.

‘‘कांता बाई कह रही थी कि रूपा पेट से है, पर ताज्जुब की बात है कि उस का पति साल भर से उस से दूर है… फिर वह पेट से कैसे रह गई? खैर, जो भी हो पर कांता बाई तो रोरो कर कह रही थी कि जिस ने भी उस की बहू के साथ यह कुकर्म किया, उसे वह छोड़ेगी नहीं… यह भी कह रही थी कि पुलिस को सच बता देगी,’’ आयुषी उमेश को देख कर बोल रही थी और उस का चेहरा भी पढ़ने की कोशिश कर रही थी.

‘‘तो तुम मुझे क्यों सुना रही हो?’’ हकलाते हुए उमेश ने कहा, ‘‘और वैसे भी आज मुझे जल्दी औफिस के लिए निकलना है, तो नाश्ता लगा दो,’’ उमेश अपनेआप को ऐसा दिखाने की कोशिश कर रहा था कि ये फालतू की बातों से उसे क्या लेनादेना. मगर आयुषी को उमेश पर शक होने लगा था.

आयुषी सोचने लगी कि रूपा ही बता सकती है कि कौन है वह इंसान, जिस ने उस के साथ ये सब किया. पर मैं क्यों पूछूं. कहीं उस ने उमेश पर ही झूठा इलजाम लगा दिया तो? आयुषी मन ही मन बड़बड़ा रही थी.

कांता बाई को अचानक अपने घर आए देख कर आयुषी डर गई. बोली, ‘‘क्या बात है कांता बाई?’’

‘‘मैडमजी, मैं ने अपनी बहू को बहुत मारापीटा कि बताओ कौन है इस का जिम्मेदार वरना तुझे तेरी मां के घर भेज दूंगी.’’

आयुषी के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. बोली, ‘‘तो मुझे क्यों सुना रही हो कांता बाई?’’ फिर एक सवालिया नजरों से वह कांता बाई को देखने लगी.

‘‘मैडमजी, मुझे माफ कीजिए पर रूपा ने आप के साहब का ही नाम बताया.’’

‘‘कांता बाई, पागल हो गई हो क्या, जो ऐसी बातें कर रही हो… और आप की बहू… उसे मैं ने क्या समझा था और क्या निकली… किसी और का पाप मेरे पति के सिर मढ़ने की कोशिश कर रही है,’’ आयुषी ने तैश में आते हुए कहा.

‘‘मैडमजी, मैं झूठ नहीं बोल रही हूं. रूपा ने जो कहा वही बता रही हूं और मैं उसे डाक्टर के पास भी ले कर गई थी गर्भपात करवाने, पर डाक्टर ने कहा कि अब गर्भपात नहीं हो सकता है. टाइम ज्यादा हो गया है. आप ही कुछ करो मैडमजी, नहीं तो मुझे सब को आप के पति की करतूत बतानी पड़ेगी,’’ एक तरह से कांता बाई ने धमकी देते हुएकहा. वह भी बेचारी क्या करती. जो उसे समझ आया कह कर चली गई.

कांता बाई तो चली गई, पर आयुषी को ढेरों टैंशन दे गई. अपने पति का चरित्र तो उसे पहले से पता था. बेशर्म कहीं का… सुधरने का ढोंग कर रहा था… और मेरे पीछे छि: अपना ही सिर पकड़ कर आयुषी चीखने लगी कि अब क्या करूं.

जब शाम को उमेश घर आया तो आयुषी ने उसे कांता बाई की कही सारी बातें बता दीं.

उमेश कहने लगा, ‘‘झूठ बोल रही है वह औरत. एक रोज मुझ से ही पैसा मांगने लगी कि मेरी सास बीमार है, डाक्टर को दिखाना है. मुझे दया आ गई तो दे दिए, फिर तो वह हमेशा पैसे की मांग करने लगी. तब मैं ने मना कर दिया. शायद इसलिए मुझ पर गंदा इलजाम लगा रही है,’’ सफाई देते हुए उमेश ने कहा, पर उस के चेहरे से झूठ साफ झलक रहा था.

‘‘कांता बाई तो अपनी बहू का गर्भपात भी कराने गई थी, लेकिन डाक्टर ने यह कह कर मना कर दिया कि समय ज्यादा हो गया है, जान को खतरा हो सकता है फिर अब तो एक जांच से पता चल जाता है कि बच्चे का बाप कौन है,’’ अपनी नजरें उमेश पर गड़ाते हुए आयुषी ने कहा.

‘‘मुझे ये सब क्यों सुना रही हो? मैं ने कहा न कि मैं ने कुछ भी नहीं किया… बारबार मुझे ये बातें न सुनाओ,’’ उमेश ने अपनी नजरें चुराते हुए कहा.

आयुषी रात भर करवटें बदलती रही. देखा तो उमेश भी नहीं सोया था. आयुषी को अपने दोनों बच्चों का भविष्य अंधकार में डूबता नजर आ रहा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे.

दोनों बच्चों को स्कूल भेज कर और उमेश के औफिस जाने के बाद आयुषी ने कांता बाई के घर का रुख किया.

‘‘कांता बाई, क्या मैं अंदर आ सकती हूं?’’ बाहर से ही आयुषी ने आवाज देते हुए कहा.

कांता बाई आयुषी को अंदर अपनी कोठरी में ले गई.

आयुषी ने कहा, ‘‘रूपा अगर तुम सब सचसच बताओगी, तो मैं तुम्हारी मदद करने को तैयार हूं.’’

‘‘दीदी, पहले तो आप मुझे माफ कर दो.’’

आयुषी ने कहा, ‘‘हां कर दिया. अब बोलो.’’

‘‘आप को याद होगा, जब मैं पहली बार आप के घर लेट आई थी… जैसे ही मेरा काम खत्म हो गया और मैं अपने घर जाने लगी, तो साहब ने कहा कि 1 कप चाय बना दो, फिर चली जाना. चाय दे कर मैं जाने लगी, तो वे बोले कि रूपा थोड़ी देर बैठो. फिर मेरी बनाई चाय की तारीफ करने लगे. फिर कहने लगे कि तुम्हारी दीदी (यानी आप) इतनी अच्छी चाय नहीं बना पाती है. चाय क्या उस के बनाए खाने में भी स्वाद नहीं होता है. फिर कहने लगे कि मैं आप को कुछ न बताऊं. वे अब रोज मेरी तारीफ करने लगे,’’  बोलतेबोलते रूपा चुप हो गई.

रूपा फिर कहने लगी, ‘‘साहब ने एक रोज मुझ से कहा कि तुम्हारा पति यहां नहीं है, तो तुम्हारा कभी मन नहीं करता है?’’

उन की नजरों और उन की कही बातों को मैं समझ गई.

फिर कहने लगे, ‘‘देखा रूपा, यह कोई शर्म की बात नहीं है. यह तो शरीर की जरूरत है और सभी को चाहिए ही… तुम्हारी दीदी तो मेरे साथ बैठना भी पसंद नहीं करती है.’’

‘‘साहब रोज मुझे पैसे पकड़ा देते थे… कहते थे कि अपनी दीदी को कुछ न बताना… कभी भी किसी चीज या पैसे की जरूरत हो तो मुझ से मांग लेना. बिलकुल संकोच मत करना… तुम जरा लेट ही काम करने आया करो… इसी बहाने तुम्हारे हाथों की बनी चाय पीने को मिल जाया करेगी…साहब की सारी बातें मुझे सच्ची लगने लगी थीं और रूपा की आंखों से आंसू बह निकले.

आयुषी ने कहा, ‘‘आगे क्या हुआ वह बताओ.’’

‘‘मैं साहब की चिकनीचुपड़ी बातों में आ गई और फिर… मुझे माफ कर दो दीदी, मुझे नहीं पता था कि इस का अंजाम ये सब होगा,’’ कह कर रूपा फफकफफक कर रो पड़ी.

‘बेचारी, अभी इस की उम्र ही क्या है?’ आयुषी सोचने लगी.

‘‘मैडमजी, कल साहब भी आए थे. माफी मांग रहे थे. कहने लगे कि वह एक डाक्टर को जानते हैं और फिर मुझे वहां ले गए. मगर डाक्टर ने गर्भपात करने से यह कह कर मना कर दिया कि मेरी जान को खतरा है. साहब उसे पैसों का लालच भी देने लगे कि डाक्टर आप आराम से सोचना, हम परसों फिर आएंगे.’’‘‘रूपा, तुम कल जाओ, मैं भी पीछे से आती हूं… साहब को मत बताना कि तुम ने मुझे कुछ बताया है,’’ रूपा को समझा कर आयुषी अपने घर वापस आ गई.

‘‘उमेश, सुबह औफिस की कह कर घर से जल्दी निकल गया. आयुषी तो इसी ताक में थी. उस ने उमेश का पीछा किया. देखा तो उमेश ने अपनी गाड़ी एक क्लीनिक के पास रोक दी. रूपा वहां पहले से खड़ी थी. जैसे ही दोनों क्लीनिक के अंदर गए, आयुषी भी उन के पीछे चल पड़ी.

‘‘मैं ने आप को पहले भी कहा था कि यह गर्भपात अब नहीं हो सकता है… इन की जान को खतरा है,’’ डाक्टर उमेश से कह रहा था.

आयुषी दंग थी कि उमेश पहले भी रूपा को यहां ले कर आ चुका है गर्भपात करवाने और मुझे बेवकूफ बना रहा था कि उस ने कुछ नहीं किया है.

‘‘डाक्टर, आप जितना पैसा कहेंगे दूंगा, पर आप को यह गर्भपात किसी भी तरह करना ही पड़ेगा,’’ उमेश गिडगिड़ाते हुए डाक्टर से कहे जा रहा था.

पैसा है ही ऐसी चीज कि पाप भी पुण्य लगने लगता है. अत: डाक्टर रूपा का गर्भपात करने के लिए तैयार हो गया. आयुषी अब अपनेआप को नहीं रोक पाई. नर्स रोकती रही, वह दनदनाते हुए क्लीनिक के अंदर चली गई.

आयुषी को देखते ही उमेश के पसीने छूटने लगे और डाक्टर कहने लगा, ‘‘कौन हैं आप? ऐसे बिना परमिशन के अंदर कैसे आ गईं?’’

‘‘जैसे आप बिना परमिशन के एक औरत का गर्भपात करने जा रहे हैं डाक्टर. क्या आप को पता है कि इस का अंजाम क्या होगा?’’ आयुषी ने गुस्से में कहा.

डाक्टर, तुरंत गिड़गिड़ाने लगा, ‘‘मुझे माफ कर दो मैडम… मैं तो कब से इस आदमी को यही समझाने की कोशिश कर रहा हूं, पर…’’

उमेश भी कहने लगा, ‘‘आयुषी, इस में मेरी कोई गलती नहीं है. यह चरित्रहीन औरत है. मैं तुम्हें बताने ही वाला था कि इस ने मुझे कैसे…?’’

उमेश की बात पूरी होने से पहले ही आयुषी ने एक जोरदार तमाचा उमेश के गाल पर जड़ दिया, ‘‘चुप एकदम चुप… अब और नहीं… छल, फरेब, धोखेबाजी सब कुछ तो तुम में भरा पड़ा है… चरित्रहीन रूपा नहीं तुम हो तुम. तुम ने इस की गरीबी का फायदा उठाया है… अब इस का अंजाम भी तुम्हीं भुगतोगे.’’

‘‘आयुषी, मुझे माफ कर दो. अब कभी ऐसी गलती नहीं करूंगा… अंतिम बार मेरा भरोसा कर लो,’’ उमेश ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘भरोसा और तुम्हारा? वह तो इस जन्म में नहीं होगा… अपनी गलती को सुधारने का एक ही उपाय है कि इस बच्चे को अपना नाम दे दो वरना उम्र भर सजा भुगतने के लिए तैयार हो जाओ,’’ आयुषी ने दोटूक शब्दों में कहा.

फिर वह थोड़ा रुक कर बोली, ‘‘अब मैं जो कह रही हूं वह करो. तुम इस बच्चे को अपना लो. यही एक रास्ता है तुम्हारे पास.’’

दोनों ने सहमति से तलाक लिया और उमेश रूपा को ले कर एक कमरे के मकान में रहने लगा. आयुषी को पता चला कि रूपा अब ठाट से रहती है और उमेश का सारा पैसा ऐंठ लेती है.

एक रोज सुबह दरवाजे पर खटखट हुई. देखा बढ़ी दाढ़ी, बिखरे बालों वाला एक आदमी खड़ा था.

‘‘आयुषी मैं उमेश, तुम्हारा गुनाहगार…’’

इस से पहले कि वह कुछ और कहता, आयुषी गरज उठी, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे दरवाजे पर आने की… चले जाओ यहां से. न मैं और न ही मेरे बच्चे तुम्हारी सूरत देखने को तैयार हैं.’’

उमेश गिड़गिड़ाया, ‘‘आयुषी रूपा गली के एक ड्राइवर के साथ भाग गई. वह मेरा पैसा भी ले गई. अब तुम्हीं मेरा आसरा हो. प्लीज मुझे माफ कर दो.’’

आयुषी ने बेरुखी से दरवाजा बंद कर दिया पर घंटे भर तक वह दरवाजे पर ही सिसकती रही. उमेश से कभी वह कितना प्यार करती थी. आज वह धोखेबाज गिड़गिड़ा रहा है. पुराने प्यार का हवाला दे रहा है पर वह कुछ नहीं कर सकी. बच्चों से भी नहीं कह सकती कि उन का पिता आया था. यह जहर तो उसे अकेले ही पीना होगा.

5 Special Stories : मीठा अहसास जगाने वाली स्‍टोरीज

5 Special Stories : मन में रिश्‍तों को लेकर मीठा अहसास कराती हैं ये कहानियां. आपके जीवन में होने वाले उतारचढ़ावों से मिलतीजुलती है ये कहानियां 5 New Year Special Stories.  इन कहानियों की खास बात यह है कि जिन रिश्‍तों की अहमियत को आज अपनी लाइफस्‍टाइल की वजह से लोग भूलते जा रहे हैं, वो हमारे लिए कितनी जरूरी हैं, पढ़ें 5 New Year Special Stories . नए साल पर सरिता की ओर से यह 5 New Year Special Stories का तोहफा !

1. अपनी खुशी के लिए: क्या जबरदस्ती की शादी से बच पाई नम्रता?

family-story-in-hindi

‘‘नंदिनी अच्छा हुआ कि तुम आ गईं. तुम बिलकुल सही समय पर आई हो,’’ नंदिनी को देखते ही तरंग की बांछें खिल गईं.

‘‘हम तो हमेशा सही समय पर ही आते हैं जीजाजी. पर यह तो बताइए कि अचानक ऐसा क्या काम आन पड़ा?’’

‘‘कल खुशी के स्कूल में बच्चों के मातापिता को आमंत्रित किया गया है. मैं तो जा नहीं सकता. कल मुख्यालय से पूरी टीम आ रही है निरीक्षण करने. अपनी दीदी नम्रता को तो तुम जानती ही हो. 2-4 लोगों को देखते ही घिग्घी बंध जाती है. यदि कल तुम खुशी के स्कूल चली जाओ तो बड़ी कृपा होगी,’’ तरंग ने बड़े ही नाटकीय स्वर में कहा.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

 

2. गर्ल टौक: आंचल खुद रोहिणी की कैसे बन गई दोस्त

family-story-in-hindi

एक दिन साहिल के सैलफोन की घंटी बजने पर जब आंचल ने उस के स्क्रीन पर रोहिणी का नाम देखा तो उस के माथे पर त्योरियां चढ़ गईं.

रोहिणी के महफिल में कदम रखते ही संगीसाथी जो अपने दोस्त साहिल की शादी में नाच रहे थे, के कदम वहीं के वहीं रुक गए. सभी रोहिणी के बदले रूप को देखने लगे.

‘‘रोहिणी… तू ही है न?’’ मोहन की आंखों के साथसाथ उस का मुंह भी खुला का खुला रह गया.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

3. एक साथी की तलाश: क्या श्यामला अपने पति मधुप के पास लौट पाई?

family-story-in-hindi

शाम गहरा रही थी. सर्दी बढ़ रही थी. पर मधुप बाहर कुरसी पर बैठे शून्य में टकटकी लगाए न जाने क्या सोच रहे थे. सूरज डूबने को था. डूबते सूरज की रक्तिम रश्मियों की लालिमा में रंगे बादलों के छितरे हुए टुकड़े नीले आकाश में तैर रहे थे. उन की स्मृति में भी अच्छीबुरी यादों के टुकड़े कुछ इसी प्रकार तैर रहे थे.

2 दिन पहले ही वे रिटायर हुए थे. 35 सालों की आपाधापी व भागदौड़ के बाद का आराम या विराम… पता नहीं…

‘‘पर, अब… अब क्या…’’ विदाई समारोह के बाद घर आते हुए वे यही सोच रहे थे. जीवन की धारा अब रास्ता बदल कर जिस रास्ते पर बहने वाली थी, उस में वे अकेले कैसे तैरेंगे.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

4. अपनी खुशी के लिए: क्या जबरदस्ती की शादी से बच पाई नम्रता?

family-story-in-hindi

‘‘नंदिनी अच्छा हुआ कि तुम आ गईं. तुम बिलकुल सही समय पर आई हो,’’ नंदिनी को देखते ही तरंग की बांछें खिल गईं.

‘‘हम तो हमेशा सही समय पर ही आते हैं जीजाजी. पर यह तो बताइए कि अचानक ऐसा क्या काम आन पड़ा?’’

‘‘कल खुशी के स्कूल में बच्चों के मातापिता को आमंत्रित किया गया है. मैं तो जा नहीं सकता. कल मुख्यालय से पूरी टीम आ रही है निरीक्षण करने. अपनी दीदी नम्रता को तो तुम जानती ही हो. 2-4 लोगों को देखते ही घिग्घी बंध जाती है. यदि कल तुम खुशी के स्कूल चली जाओ तो बड़ी कृपा होगी,’’ तरंग ने बड़े ही नाटकीय स्वर में कहा.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

5. कोरा कागज: आखिर कोरे कागज पर किस ने कब्जा किया

family-story-in-hindi

1996, अब से 25 साल पहले. सुबह के 9 बजने को थे. नाश्ते की मेज पर नवीन और पूनम मौजूद थे. नवीन अखबार पढ़ रहे थे और पूनम चाय बना रही थी, तभी राजन वहां पहुंचा और तेजी से कुरसी खींच कर उस पर जम गया.

“गुड मौर्निंग मम्मीपापा,” राजन ने कहा. “गुड मौर्निंग बेटा,” पूनम ने मुसकरा कर जवाब दिया और उस के लिए ब्रैड पर जैम लगाने लगी.

“मम्मी, सामने वाली कोठी में लोग आ गए क्या…? अभी मैं ने देखा कि लौन में एक अंकल कुरसीपर बैठे हैं.”

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

Love Story In Hindi : यह घर मेरा भी है

Love Story In Hindi :  मैं और मेरे पति समीर अपनी 8 वर्षीय बेटी के साथ एक रैस्टोरैंट में डिनर कर रहे थे, अचानक बेटी चीनू के हाथ के दबाव से चम्मच उस की प्लेट से छिटक कर उस के कपड़ों पर गिर गया और सब्जी छलक कर फैल गई.

यह देखते ही समीर ने आंखें तरेरते हुए उसे डांटते हुए कहा, ‘‘चीनू, तुम्हें कब अक्ल आएगी? कितनी बार समझाया है कि प्लेट को संभाल कर पकड़ा करो, लेकिन तुम्हें समझ ही नहीं आता… आखिर अपनी मां के गंवारपन के गुण तो तुम में आएंगे ही न.’’

यह सुनते ही मैं तमतमा कर बोली, ‘‘अभी बच्ची है… यदि प्लेट से सब्जी गिर भी गई तो कौन सी आफत आ गई है… तुम से क्या कभी कोई गलती नहीं होती और इस में गंवारपन वाली कौन सी बात है? बस तुम्हें मुझे नीचा दिखाने का कोई न कोई बहाना चाहिए.’’

‘‘सुमन, तुम्हें बीच में बोलने की जरूरत नहीं है… इसे टेबल मैनर्स आने चाहिए. मैं नहीं चाहता इस में तुम्हारे गुण आएं… मैं जो चाहूंगा, इसे सीखना पड़ेगा…’’

मैं ने रोष में आ कर उस की बात बीच में काटते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारे हाथ की कठपुतली नहीं है कि उसे जिस तरह चाहो नचा लो और फिर कभी तुम ने सोचा है कि इतनी सख्ती करने का इस नन्ही सी जान पर क्या असर होगा? वह तुम से दूर भागने लगेगी.’’

‘‘मुझे तुम्हारी बकवास नहीं सुननी,’’ कहते हुए समीर चम्मच प्लेट में पटक कर बड़बड़ाता हुआ रैस्टोरैंट के बाहर निकल गया और गाड़ी स्टार्ट कर घर लौट गया.

मेरी नजर चीनू पर पड़ी. वह चम्मच को हाथ में

पकड़े हमारी बातें मूक दर्शक बनी सुन रही थी. उस का चेहरा बुझ गया था, उस के हावभाव से लग रहा था, जैसे वह बहुत आहत है कि उस से ऐसी गलती हुई, जिस की वजह से हमारा झगड़ा हुआ. मैं ने उस का फ्रौक नैपकिन से साफ किया और फिर पुचकारते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, गलती तो किसी से भी हो सकती है. तुम अपना खाना खाओ.’’

‘‘नहीं ममा मुझे भूख नहीं है… मैं ने खा लिया,’’ कहते हुए वह उठ गई.

मुझे पता था कि अब वह नहीं खाएगी. सुबह वह कितनी खुश थी, जब उसे पता चला था कि आज हम बाहर डिनर पर जाएंगे. यह सोच कर मेरा मन रोंआसा हो गया कि मैं समीर की बात पर प्रतिक्रिया नहीं देती तो बात इतनी नहीं बढ़ती. मगर मैं भी क्या करती. आखिर कब तक बरदाश्त करती? मुझे नीचा दिखाने के लिए बातबात में चीनू को मेरा उदाहरण दे कर कि आपनी मां जैसी मत बन जाना, उसे डांटता रहता है. मेरी चिढ़ को उस पर निकालने की उस की आदत बनती जा रही थी.

हम दोनों कैब ले कर घर आए तो देखा समीर दरवाजा बंद कर के अपने कमरे में था. हम भी आ कर सो गए, लेकिन मेरा मन इतना अशांत था कि उस के कारण मेरी आंखों में नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी. मैं ने बगल में लेटी चीनू को भरपूर दृष्टि से देखा, कितनी मासूम लग रही थी वह. आखिर उस की क्या गलती थी कि वह हम दोनों के झगड़े में पिसे?

विवाह होते ही समीर का पैशाचिक व्यवहार मुझे खलने लगा था. मुझे हैरानी होती थी यह देख कर कि विवाह के पहले प्रेमी समीर के व्यवहार में पति बनते ही कितना अंतर आ गया. वह मेरे हर काम में मीनमेख निकाल कर यह जताना कभी नहीं चूकता कि मैं छोटे शहर में पली हूं. यहां तक कि वह किसी और की उपस्थिति का भी ध्यान नहीं रखता था.

इस से पहले कि मैं समीर को अच्छी तरह समझूं, चीनू मेरे गर्भ में आ गई. उस के बाद तो मेरा पूरा ध्यान ही आने वाले बच्चे की अगवानी की तैयारी में लग गया था. मैं ने सोचा कि बच्चा होने के बाद शायद उस का व्यवहार बदल जाएगा. मैं उस के पालनपोषण में इतनी व्यस्त हो गई कि अपने मानअपमान पर ध्यान देने का मुझे वक्त ही नहीं मिला. वैसे चीनू की भौतिक सुखसुविधा में वह कभी कोई कमी नहीं छोड़ता था.

वक्त मुट्ठी में रेत की तरह फिसलता गया और चीनू 3 साल की हो गई. इन सालों में मेरे प्रति समीर के व्यवहार में रत्तीभर परिवर्तन नहीं आया. खुद तो चीनू के लिए सुविधाओं को उपलब्ध करा कर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझता था, लेकिन उस के पालनपोषण में मेरी कमी निकाल कर वह मुझे नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ता था.

धीरेधीरे वह इस के लिए चीनू को अपना हथियार बनाने लगा कि वह भी

मेरी आदतें सीख रही है, जोकि मेरे लिए असहनीय होने लगा था. इस प्रकार का वादविवाद रोज का ही हिस्सा बन गया था और बढ़ता ही जा रहा था. मैं नहीं चाहती थी कि वह हमारे झगड़े के दलदल में चीनू को भी घसीटे. चीनू तो सहमी हुई मूकदर्शक बनी रहती थी और आज तो हद हो गई थी. वास्तविकता तो यह है कि समीर को इस बात का बड़ा घमंड है कि वह इतना कमाता है और उस ने सारी सुखसुविधाएं हमें दे रखी हैं और वह पैसे से सारे रिश्ते खरीद सकता है.

मैं सोच में पड़ गई कि स्त्री को हर अवस्था में पुरुष का सुरक्षा कवच चाहिए होता है. फिर चाहे वह सुरक्षाकवच स्त्री के लिए सोने के पिंजरे में कैद होने के समान ही क्यों न हो? इस कैद में रह कर स्त्री बाहरी दुनिया से तो सुरक्षित हो जाती है, लेकिन इस के अंदर की यातनाएं भी कम नहीं होतीं. पिछली पीढ़ी में स्त्रियां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होती थीं, इसलिए असहाय होने के कारण पति द्वारा दी गई यातनाओं को मनमार कर स्वीकार लेती थीं. उन्हें बचपन से ही घुट्टी पिला दी जाती थी कि उन के लिए विवाह करना आवश्यक है और पति के साथ रह कर ही वे सामाजिक मान्यता प्राप्त कर सकती हैं, इस के इतर उन का कोई वजूद ही नहीं है.

मगर अब स्त्रियां आत्मनिर्भर होने के साथसाथ अपने अधिकारों के लिए भी जागरूक हो गई हैं. फिर भी कितनी स्त्रियां हैं जो पुरुष के बिना रहने का निर्णय ले पा रही हैं? लेकिन मैं यह निर्णय ले कर समाज की सोच को झुठला कर रहूंगी. तलाक ले कर नहीं, बल्कि साथ रह कर. तलाक ही हर दुखद वैवाहिक रिश्ते का अंत नहीं होता. आखिर यह मेरा भी घर है, जिसे मैं ने तनमनधन से संवारा है. इसे छोड़ कर मैं क्यों जाऊं?

लड़कियों का विवाह हो जाता है तो उन का अपने मायके पर अधिकार नहीं रहता, विवाह के बाद पति से अलग रहने की सोचें तो वही उस घर को छोड़ कर जाती हैं, फिर उन का अपना घर कौन सा है, जिस पर वे अपना पूरा अधिकार जता सकें? अधिकार मांगने से नहीं मिलता, उसे छीनना पड़ता है. मैं ने मन ही मन एक निर्णय लिया और बेफिक्र हो कर सो गई.

सुबह उठी तो मन बड़ा भारी हो रहा था. समीर अभी भी सामान्य नहीं था. वह

औफिस के लिए तैयार हो रहा था तो मैं ने टेबल पर नाश्ता लगाया, लेकिन वह ‘मैं औफिस में नाश्ता कर लूंगा’ बड़बड़ाते हुए निकल गया. मैं ने भी उस की बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

चीनू आ कर मुझ से लिपट गई. बोली, ‘‘ममा, पापा को इतना गुस्सा क्यों आता है? मुझ से थोड़ी सब्जी ही तो गिरी थी…आप को याद है उन से भी चाय का कप लुढ़क गया था और आप ने उन से कहा था कि कोई बात नहीं, ऐसा हो जाता है. फिर तुरंत कपड़ा ला कर आप ने सफाई की थी. मेरी गलती पर पापा ऐसा क्यों नहीं कहते? मुझे पापा बिलकुल अच्छे नहीं लगते. जब वे औफिस चले जाते हैं, तब घर में कितना अच्छा लगता है.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा बेटा, तू परेशान मत हो… मैं हूं न,’’ कह कर मैं ने उसे अपनी छाती से लगा लिया और सोचने लगी कि इतनी प्यारी बच्ची पर कोई कैसे गुस्सा कर सकता है? यह समीर के व्यवहार का कितना अवलोकन करती है और इस के बालसुलभ मन पर उस का कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.

समीर और मुझ में बोलचाल बंद रही. कभीकभी वह औपचारिकतावश चीनू से पूछता कहीं जाने के लिए तो वह यह देख कर कि वह मुझ से बात नहीं करता है, उसे साफ मना कर देती थी. वह सोचता था कि कोई प्रलोभन दे कर वह चीनू को अपने पक्ष में कर लेगा, लेकिन वह सफल नहीं हुआ. समीर की बेरुखी दिनबदिन बढ़ती जा रही थी, मनमानी भी धीरेधीरे बढ़ रही थी. जबतब घर का खाना छोड़ कर बाहर खाने चला जाता, मैं भी उस के व्यवहार को अनदेखा कर के चीनू के साथ खुश रहती. यह स्थिति 15 दिन रही.

एक दिन मैं चीनू के साथ कहीं से लौटी तो देखा समीर औफिस से अप्रत्याशित जल्दी लौट कर घर में बैठा था. मुझे देखते ही गुस्से में बोला, ‘‘क्या बात है, आजकल कहां जाती हो बताने की भीजरूरत नहीं समझी जाती…’’ उस की बात बीच में काट कर मैं बोली, ‘‘तुम बताते हो कि तुम कहां जाते हो?’’

‘‘मेरी बात और है.’’

‘‘क्यों? तुम्हें गुलछर्रे उड़ाने की इजाजत है, क्योंकि तुम पुरुष हो, मुझे नहीं. क्योंकि…’’

‘‘लेकिन तुम्हें तकलीफ क्या है? तुम्हें किस चीज की कमी है? हर सुख घर में मौजूद है. पैसे की कोई कमी नहीं. जो चाहे कर सकती हो,’’ गुलछर्रे उड़ाने वाली बात सुन कर वह थोड़ा संयत हो कर मेरी बात को बीच में ही रोक कर बोला, क्योंकि उस के और उस की कुलीग सुमन के विवाहेतर संबंध से मैं अनभिज्ञ नहीं थी.

‘‘तुम्हें क्या लगता है, इन भौतिक सुखों के लिए ही स्त्री अपने पूर्व रिश्तों को विवाह की सप्तपदी लेते समय ही हवनकुंड में झोंक देती है और बदले में पुरुष उस के शरीर पर अपना प्रभुत्व समझ कर जब चाहे नोचखसोट कर अपनी मर्दानगी दिखाता है… स्त्री भी हाड़मांस की बनी होती है, उस के पास भी दिल होता है, उस का भी स्वाभिमान होता है, वह अपने पति से आर्थिक सुरक्षा के साथसाथ मानसिक और सामाजिक सुरक्षा की भी अपेक्षा करती है. तुम्हारे घर वाले तुम्हारे सामने मुझे कितना भी नीचा दिखा लें, लेकिन तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती. तुम मूकदर्शक बने खड़े देखते रहते हो… स्वयं हर समय मुझे नीचा दिखा कर मेरे मन को कितना आहत करते हो, यह कभी सोचा है?’’

‘‘ठीक है यदि तुम यहां खुश नहीं हो तो अपने मायके जा कर रहो, लेकिन चीनू तुम्हारे साथ नहीं जाएगी, वह मेरी बेटी है, उस की परवरिश में मैं कोई कमी नहीं रहने देना चाहता. मैं उस का पालनपोषण अपने तरीके से करूंगा… मैं नहीं चाहता कि वह तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारे स्तर की बने,’’ समीर के पास जवाब देने को कुछ नहीं बचा था, इसलिए अधिकतर पुरुषों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला अंतिम वार करते हुए चिल्ला कर बोला.

‘‘चिल्लाओ मत. सिर्फ पैदा करने से ही तुम चीनू के बाप बनने के अधिकारी नहीं हो सकते. वह तुम्हारे व्यवहार से आहत होती है. आजकल के बच्चे हमारे जमाने के बच्चे नहीं हैं कि उन पर अपने विचारों को थोपा जाए, हम उन को उस तरह नहीं पाल सकते जैसे हमें पाला गया है. इन के पैदा होने तक समय बहुत बदल गया है.

‘‘मैं उसे तुम्हारे शाश्नात्मक तरीके की परवरिश के दलदल में नहीं धंसने दूंगी…

मैं उस के लिए वह सब करूंगी जिस से कि वह अपने निर्णय स्वयं ले सके और मैं तुम्हारी पत्नी हूं, तुम्हारी संपत्ति नहीं. यह घर मेरा भी है. जाना है तो तुम जाओ. मैं क्यों जाऊं?

‘‘इस घर पर जितना तुम्हारा अधिकार है, उतना ही मेरा भी है. समाज के सामने मुझ से विवाह किया है. तुम्हारी रखैल नहीं हूं… जमाना बदल गया, लेकिन तुम पुरुषों की स्त्रियों के प्रति सोच नहीं बदली. सारी वर्जनाएं, सारे कर्तव्य स्त्रियों के लिए ही क्यों? उन की इच्छाओं, आकांक्षाओं का तुम पुरुषों की नजरों में कोई मूल्य नहीं है.

‘‘उन के वजूद का किसी को एहसास तक भी नहीं. लेकिन स्त्रियां भी क्यों उर्मिला की तरह अपने पति के निर्णय को ही अपनी नियत समझ कर स्वीकार लेती हैं? क्यों अपने सपनों का गला घोंट कर पुरुषों के दिखाए मार्ग पर आंख मूंद कर चल देती हैं? क्यों अपने जीवन के निर्णय स्वयं नहीं ले पातीं? क्यों औरों के सुख के लिए अपना बलिदान करती हैं? अभी तक मैं ने भी यही किया, लेकिन अब नहीं करूंगी. मैं इसी घर में स्वतंत्र हो कर अपनी इच्छानुसार रहूंगी,’’ समीर पहली बार मुझे भाषणात्मक तरीके से बोलते हुए देख कर अवाक रह गया.

‘‘पापा, मैं आप के पास नहीं रहूंगी, आप मुझे प्यार नहीं करते. हमेशा डांटते रहते हैं… मैं ममा के साथ रहूंगी और मैं उन की तरह ही बनना चाहती हूं… आई हेट यू पापा…’’ परदे के पीछे खड़ी चीनू, जोकि हमारी सारी बातें सुन रही थी, बाहर निकल कर रोष और खुशी के मिश्रित आंसू बहने लगी. मैं ने देखा कि समीर पहली बार चेहरे पर हारे हुए खिलाड़ी के से भाव लिए मूकदर्शक बना रह गया.

Happy New Year 2025 : फेसबुक वाला लव

Happy New Year 2025 : देर रात को फेसबुक खोलते ही रितु चैटिंग करने लगती. जैसे वह पहले से ही इंटरनैट पर बैठ कर विनोद का इंतजार कर रही हो. उस से चैटिंग करने में विनोद को भी बड़ा मजा मिलने लगा था. रितु से बातें कर के विनोद की दिनभर की थकान मिट जाती थी. स्कूल में बच्चों को पढ़ातेपढ़ाते थका हुआ उस का दिमाग व जिस्म रितु से चैटिंग कर तरोताजा हो जाता था.

पत्नी मायके चली गई थी, इसलिए घर में विनोद का अकेलापन कचोटता रहता था. ऐसी हालत में रितु से चैटिंग करना अच्छा लगता था. विनोद से चैटिंग करते हुए रितु एक हफ्ते में ही उस से घुलमिल सी गई थी. वह भी उस से चैटिंग करने के लिए बेताब रहने लगा था.

आज विनोद उस से चैटिंग कर ही रहा था कि उस का मोबाइल फोन घनघना उठा, ‘‘हैलो… कौन?’’ उधर से एक मीठी आवाज आई, ‘हैलो…विनोदजी, मैं रितु बोल रही हूं… अरे वही रितु, जिस से आप चैटिंग कर रहे हो.’

‘‘अरे…अरे, रितु आप. आप को मेरा नंबर कहां से मिल गया?’’ ‘‘लगन सच्ची हो और दिल में प्यार हो तो सबकुछ मिल जाता है.’’

फेसबुक पर चैटिंग करते समय विनोद कभीकभी अपना मोबाइल नंबर भी डाल देता था. शायद उस को वहीं से मिल गया हो. यह सोच कर वह चुप हो गया था. अब विनोद चैटिंग बंद कर उस से बातें करने लगा, ‘‘आप रहती कहां हैं?’’

‘वाराणसी में.’ ‘‘वाराणसी में कहां रहती हैं?’’

‘सिगरा.’ ‘‘करती क्या हैं?’’

‘एक नर्सिंग होम में नर्स हूं.’ ‘‘आप की शादी हो गई है कि नहीं?’’

‘हो गई है…और आप की?’ ‘‘हो तो मेरी भी गई है, पर…’’

‘पर, क्या…’ ‘‘कुछ नहीं, पत्नी मायके चली गई है, इसलिए उदासी छाई है.’’

‘ओह, मैं तो कोई अनहोनी समझ कर घबरा गई थी…’ ‘‘मुझ से इतना लगाव हो गया है एक हफ्ते में… आप की रातें तो रंगीन हो ही रही होंगी?’’

‘यही तो तकलीफ है विनोदजी… पति के रहते हुए भी मैं अकेली हूं,’ कहतेकहते रितु बहुत उदास हो गई. उस का दर्द सुन कर विनोद भी दुखी हो गया था. उस ने अपना फोटो चैट पर भेजा. रितु ने भी अपना फोटो भेज दिया था. वह बड़ी खूबसूरत थी. गोलमटोल चेहरा, कजरारी आंखें… पतले होंठ… लंबे घने बाल देख कर विनोद का मन उस की मोहिनी सूरत पर मटमिटा था. वह उस से बातें करने के लिए बेचैन रहने लगा. मोबाइल फोन से जो बात खुल कर न कह पाता, वह बात फेसबुक पर चैट कर के कह देता. रितु का पति मनोहर शराबी था. वह जुआ खेलता, शराबियों के साथ आवारागर्दी करता, नशे में झूमता हुआ वह रात में घर आ कर झगड़ा करता और गालीगलौज कर के सो जाता.

रितु जब तनख्वाह पाती तो वह छीनने लगता. न देने पर वह उसे मारतापीटता. मार से बचने के लिए वह अपनी सारी तनख्वाह उसे दे देती. रितु विनोद से अपनी कोईर् बात न छिपाती. वह अपनी रगरग की पीड़ा जब उसे बताती, तब दुखी हो कर वह भी कराह उठता. स्कूल में बच्चों को अब पढ़ाने का मन न करता. पत्नी घर पर होती तो बाहुपाश में उस को… उस की पीड़ा को वह भ्ूल जाता. पर अब तो रितु की याद उसे सोने ही न देती. चैट से मन न भरता तो वह मोबाइल फोन से बात करने लगता. ‘‘हैलो… क्या कर रही हो तुम?’’ ‘आप की याद में बेचैन हूं. आप से मिलने के लिए तड़प रही हूं… और आप?’

‘‘मेरा भी वही हाल है.’’ ‘तब तो मेरे पास आ जाओ न. आप वहां अकेले हो और मैं यहां अकेली. दोनों छटपटा रहे हैं. मैं आप को पत्नी का सारा सुख दूंगी.’

रितु की बात सुन कर विनोद के बदन में तरंगें उठने लगतीं. बेचैनी बढ़ जाती. तब वह जोश में उस से कहता, ‘‘मैं कैसे आऊं… तुम्हारा पति मनोहर जो है. हम दोनों का मिलना क्या उसे अच्छा लगेगा?’’ ‘आप आओ तो मैं कह दूंगी कि आप मेरे मौसेरे भाई हो. वैसे, वे कल अपने गांव जा रहे हैं. गांव से लौटने में उन को 2-4 दिन तो लग ही जाएंगे. परसों रविवार है. आप उस दिन आ जाओ न. ऐसा मौका जल्दी नहीं मिलेगा. मैं आप का इंतजार करूंगी,’ रितु का फोन कटा तो विनोद की बेचैनी बढ़ गई. वह रातभर करवटें बदलता रहा.

रविवार को विनोद उस से मिलने वाराणसी चल पड़ा. उस के बताए पते पर पहुंचने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई. मकान की दूसरी मंजिल पर रितु जिस फ्लैट में रहती थी, उस में 2 कमरे, रसोईघर, बरामदा था. उस ने अपना घर खूब सजा रखा था, जिसे देख कर विनोद का मन खिल उठा. खातिरदारी और बात करतेकरते दिन ढलने लगा तो विनोद ने कहा, ‘‘आप से बात कर के बड़ा मजा आया. वापस भी तो जाना है मुझे.’’

‘‘कहां वापस जाना है आज? आज रात तो मैं कम से कम आप के साथ रह लूं… फिर कब मिलना हो, क्या भरोसा?’’ रितु ने इतना कहा, तो विनोद की बांछें खिल उठीं. इतना कह कर वह उस के गले लग गया. रितु कुछ नहीं बोली. ‘‘मैं आप की बात भी तो नहीं टाल सकता… चलो, अब कमरे में चल कर बातें करें.’’

विनोद ने कमरे में रितु को डबल बैड पर लिटा दिया और उस के अंगों से खेलने लगा. इतने में पता नहीं कहां से मनोहर उस कमरे में आ घुसा और विनोद को डपटा, ‘‘तू कौन है रे, जो मेरे घर में आ कर मेरी पत्नी का रेप कर रहा है?’’

मनोहर को देख विनोद घबरा गया. उस का सारा नशा गायब हो गया. रितु अपनी साड़ी ओढ़ कर एक कोने में सिमट गई. मनोहर ने पहले तो विनोद को खूब लताड़ा, लातघूंसों से मारा, फिर पुलिस को फोन मिलाने लगा.

विनोद उस के पैर पकड़ कर पुलिस न बुलाने की भीख मांगता हुआ उस से बोला, ‘‘इस में मेरी कोई गलती नहीं है. रितु ने ही फेसबुक पर मुझ से दोस्ती कर के मुझे यहां बुलाया था.’’ ‘‘मैं कुछ नहीं जानता. फेसबुक पर दोस्ती कर के औरतों को अपने प्यार के जाल में फांस कर उन के साथ रंगरलियां मनाने वाले आज तेरी खैर नहीं है. जब पुलिस का डंडा पीठ पर पड़ेगा तब सारा नशा उतर जाएगा,’’ कह कर मनोहर फिर से पुलिस को फोन मिलाने लगा.

‘‘नहीं मनोहर बाबू, मुझे छोड़ दो. मेरा भी परिवार है. मेरी सरकारी नौकरी है. मुझे पुलिस के हवाले कर दोगे तो मैं बरबाद हो जाऊंगा,’’ कहता हुआ विनोद उस के पैरों पर अपना माथा रगड़ने लगा. काफी देर बाद हमदर्दी दिखाता हुआ मनोहर उस से बोला, ‘‘अपनी इज्जत और नौकरी बचाना चाहता है, तो 50 हजार रुपए अभी दे, नहीं तो मैं तुझे पुलिस के हवाले कर दूंगा,’’

इतना कहने के बाद मनोहर कमरे में लगा कैमरा हाथ में ले कर उसे दिखाता हुआ बोला, ‘‘तेरी सारी हरकत इस कैमरे में कैद है. जल्दी रुपए ला, नहीं तो…’’ ‘‘इतने रुपए मैं कहां से लाऊं भाई. मेरे पास तो अभी 10 हजार रुपए हैं,’’ कह कर विनोद ने 2-2 हजार के 5 नोट जेब से निकाल कर मनोहर के सामने रख दिए. गुस्से से लालपीला होता हुआ मनोहर बोला, ‘‘10 हजार रुपए…?

50 हजार रुपए से कम नहीं चाहिए, नहीं तो पुलिस को करता हूं फोन…’’ मनोहर की दहाड़ सुन कर विनोद रोने लगा. वह बोला, ‘‘आप मुझ पर दया कीजिए मनोहर बाबू. मैं घर जा कर बैंक से रुपए निकाल कर आप को दे दूंगा.’’

‘‘बहाना कर के भागना चाहता है तू. मुझे बेवकूफ समझता है. अभी जा और एटीएम से 15 हजार रुपए निकाल और कल 25 हजार रुपए ले कर आ, नहीं तो… कोई चाल तो नहीं चलेगा न. चलेगा तो जान से भी हाथ धो बैठेगा, क्योंकि तेरी सारी करतूत मेरे इस कैमरे में कैद है.’’ मनोहर की बात मानना विनोद की मजबूरी थी. वह बहेलिए के जाल में फंसे कबूतर की तरह फेसबुक की दोस्ती के जाल में फंस कर छटपटाने लगा था.

5 Best Hindi Stories : दिल की गहराइयों में उतरने वाली कहानियां

5 Best Hindi Stories  : हर कहानी कुछ कहती है, कुछ सिखा जाती है क्‍योंकि कहानी के रूप में यह जीवन के गहरी भावनाओं से जुड़ी होती है.  ऐसी ही सरिता की 5 Best Hindi Stories आपके लिए लेकर आए हैं. दिल की गहराइयों में उतर जाने वाली ये 5 Best Hindi Stories  से आपको  कई तरह की सीख मिलेगी. जो आपके दिल में हर किसी के लिए प्‍यार की भावनाओं को जगाएगी, पढ़ें ये  5 Best Hindi Stories. 

1. तुम कैसी हो : आशा के पति को क्या उसकी चिंता थी?

family-story-in-hindi

एक हफ्ते पहले ही शादी की सिल्वर जुबली मनाई है हम ने. इन सालों में मु झे कभी लगा ही नहीं या आप इसे यों कह सकते हैं कि मैं ने कभी इस सवाल को उतनी अहमियत नहीं दी. कमाल है. अब यह भी कोई पूछने जैसी बात है, वह भी पत्नी से कि तुम कैसी हो. बड़ा ही फुजूल सा प्रश्न लगता है मु झे यह. हंसी आती है. अब यह चोंचलेबाजी नहीं, तो और क्या है? मेरी इस सोच को आप मेरी मर्दानगी से कतई न जोड़ें. न ही इस में पुरुषत्व तलाशें.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

2. शिकायतनामा : कृष्णा क्यों करता था इतना अत्याचार ?

family-story-in-hindi

 

देर शाम अनुष्का का फोन आया. कामधाम से खाली होती तो अपने पिता विश्वनाथ को फोन कर अपना दुखसुख अवश्य साझा करती. शादी के 3 साल हो गए, यह क्रम आज भी बना हुआ था. पिता को बेटियेां से ज्यादा लगाव होता है, जबकि मां को बेटों से. इस नाते अनुष्का निसंकोच अपनी बात कह कर जी हलका कर लेती.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

3. रिश्तों की कसौटी : क्या हुआ था सुरभी को ?

family-story-in-hindi

‘‘अंकल, मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई क्या?’’ मां के कमरे से डाक्टर को निकलते देख सुरभी ने पूछा.

‘‘पापा से जल्दी ही लौट आने को कहो. मालतीजी को इस समय तुम सभी का साथ चाहिए,’’ डा. आशुतोष ने सुरभी की बातों को अनसुना करते हुए कहा.

डा. आशुतोष के जाने के बाद सुरभी थकीहारी सी लौन में पड़ी कुरसी पर बैठ गई.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

4. पति नहीं सिर्फ दोस्त : स्वाति का क्यों नहीं आया था फोन ?

family-story-in-hindi

3 दिन हो गए स्वाति का फोन नहीं आया तो मैं घबरा उठी. मन आशंकाओं से घिरने लगा. वह प्रतिदिन तो नहीं मगर हर दूसरे दिन फोन जरूर करती थी. मैं उसे फोन नहीं करती थी यह सोच कर कि शायद वह बिजी हो. कोई जरूरत होती तो मैसेज कर देती थी. मगर आज मुझ से नहीं रहा गया और शाम होतेहोते मैं ने स्वाति का नंबर डायल कर दिया. उधर से एक पुरुष स्वर सुन कर मैं चौंक गई. हालांकि फोन तुरंत स्वाति ने ले लिया मगर मैं उस से सवाल किए बिना नहीं रह सकी.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

5. भाभी : गीता को क्यों याद आ रहे थे पुराने दिन ?

family-story-in-hindi

अपनी सहेली के बेटे के विवाह में शामिल हो कर पटना से पुणे लौट रही थी कि रास्ते में बनारस में रहने वाली भाभी, चाची की बहू से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. बचपन की कुछ यादों से वे इतनी जुड़ी थीं जो कि भुलाए नहीं भूल सकती. सो, बिना किसी पूर्वयोजना के, पूर्वसूचना के रास्ते में ही उतर गई.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें…

Baba Bageshwar : हिंदू एकता का प्रपंच

Baba Bageshwar : यह देहाती कहावत थोड़ी पुरानी और फूहड़ है कि मल त्याग करने के बाद पीछे नहीं हटा जाता बल्कि आगे बढ़ा जाता है. आज की भाजपा और अब से कोई सौ सवा सौ साल पहले की कांग्रेस में कोई खास फर्क नहीं है. हिंदुत्व के पैमाने पर कौन से हिंदूवादी आगे बढ़ रहे हैं और कौन से पीछे हट रहे हैं, आइए इस को समझाने की कोशिश करते हैं.

हिंदुत्व के नए और लेटैस्ट पोस्टरबौय बागेश्वर बाबा उर्फ धीरेंद्र शास्त्री की हिंदू एकता यात्रा के आखिरी दिन बुंदेलखंड के छोटे से कसबे ओरछा में लाखों की तादाद में सवर्ण हिंदू भक्त देशभर से पहुंचे थे. इस 9 दिनी यात्रा का घोषित मकसद एक नारे की शक्ल में यह था कि जातपांत की करो विदाई, हम हिंदू हैं भाईभाई. अब यह बाबा भी शायद ही बता पाए कि आखिर यह हिंदू शब्द क्या बला है और जो थोड़ाबहुत है भी तो उस से यह साफ फिर भी नहीं होता कि क्या सभी हिंदू हैं, यानी दलित भी हिंदू हैं या सदियों पहले की तरह केवल सवर्ण ही हिंदू हैं और अगर वही हिंदू हैं तो उन में अद्भुत एकता है. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों में कोई आपसी मतभेद नहीं है क्योंकि उन में रोटीबेटी के संबंध हैं.

इस हिंदू या सनातन एकता यात्रा के संपन्न होने के बाद यकीन मानें, कोई सवर्ण किसी दलित के घर, अपनी बेटी तो दूर की बात है, बेटे का भी रिश्ता ले कर यह कहते नहीं गया कि आओ भाई, आज से हमतुम दोनों हिंदू हैं. अब समधी बन जाना शर्म की नहीं बल्कि फख्र की बात है. बागेश्वर बाबा ने हमें हिंदू होने के असल माने समझा दिए हैं तो जातपांत की विदाई की पहली डोली अपने ही आंगन से उठाते एकता की मिसाल कायम करते हैं. यह रिश्तेदारी कायम करना तो दूर की बात है, हिंदू एकता यात्रा के साक्षी बने सवर्णों ने रास्ते में किसी दलित के घर पानी भी नहीं पिया, फिर आग्रह कर खाना खाना तो दूर की बात है, जिसे राजनेता बतौर दिखाने, कभीकभी करते हैं.

असल में मुसलमानों का खौफ दिखाती और हर स्तर पर उन के बहिष्कार की अपील करती इस यात्रा में लगभग सभी सवर्ण थे. दलित न के बराबर भी नहीं थे. जातिगत एकता की बात और दुहाई कतई नई बात नहीं है. सब से पहले यह मुद्दा आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने उठाया था. बीती 6 अक्तूबर को राजस्थान के बारां में उन्होंने एक बार फिर कहा कि हिंदू समाज को अपनी सुरक्षा के लिए मतभेद भुला कर एकजुट हो जाना चाहिए.

हिंदू किस से असुरक्षित

अब न तो यह मोहन भागवत बताते और न ही कोई बागेश्वर बाबा बताता कि हिंदू असुरक्षित किस से है और हिंदुओं के ही अलावा उसे खतरा किस से है. इन दोनों किस्मों के लोग डर मुसलमानों और ईसाईयों का दिखाते हैं. देश का यह वह दौर है जिस में सवर्ण यानी पूजापाठी हिंदू लगातार कट्टर होता जा रहा है, जबकि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को इस तरह के नारों, भाषणों व यात्राओं से कोई सरोकार ही नहीं है, इसलिए नहीं कि वह पूजापाठी नहीं है बल्कि इसलिए कि वह इसलाम या ईसाईयत को खतरा नहीं मानता. उलटे, कई मानो में तो वह खुद को सवर्ण हिंदुओं के मुकाबले इन से ज्यादा नजदीकी महसूस करता है.

कभी किसी दलित नेता या दलित धर्मगुरु ने इस आशय की कोई बात नहीं कही और न ही इस नए नारे का समर्थन किया कि बंटेंगे तो कटेंगे. यह मांग और मुहिम सवर्णों की है जिसे आकार और आवाज ब्राह्मण दे रहे हैं. ये वही ब्राह्मण हैं जो सदियों से दलितों को धर्मग्रंथों की बिना पर लतियाते रहे हैं लेकिन आज उन्हें गले लगाने का ड्रामा कर रहे हैं जिसे दलित बखूबी सम?ा रहा है.

जाति व्यवस्था पर चुप्पी

बारीकी से देखें तो अंदरूनी तौर पर हालात एकदम उलट हैं. बात जातिगत भेदभाव मिटाने या खत्म करने की की जा रही है लेकिन वर्णव्यवस्था, जो इस फसाद की जड़ है, पर न बाबा बागेश्वर कुछ बोल रहे और न ही मोहन भागवत. फिर किसी भाजपा नेता से तो इस विषय पर कुछ सुनने की उम्मीद करना ही बेकार की बात है.

इस ड्रामे की पोल खोलते मध्य प्रदेश के प्रमुख दलित नेता और कांग्रेसी विधायक फूल सिंह बरैया कहते हैं कि भाजपाई और धर्मगुरु यात्राओं के जरिए नरेंद्र मोदी के इशारे पर गुंडागर्दी कर रहे हैं. ये लोग दलितों के हमदर्द न कभी पहले थे और न आज हैं. ये लोग असल मुद््दों से लोगों का ध्यान बंटा रहे हैं. ये दलितों को अगर मंदिर बुला रहे हैं तो उन का मकसद और मंशा दलितों से मंदिरों में झाड़ूबुहारी करवाना और अपने चप्पलजूतों की रखवाली करवाना है. दिक्कत तो यह भी है कि इस धार्मिक होहल्ले में कोई बेरोजगारी और महंगाई की बात नहीं करता. बरैया हिंदू शब्द पर भी सवाल उठाते कहते हैं कि आखिर हिंदू है कौन, किसी धर्मग्रंथ में हिंदू शब्द का उल्लेख नहीं है.

यह एक खूबसूरत तर्क हो सकता है लेकिन मौजूदा समस्याओं का हल इसे भी नहीं कहा जा सकता. अगर किसी धर्मग्रंथ में या पौराणिक साहित्य में हिंदू शब्द का उल्लेख होता तो क्या ये समस्याएं हल हो जातीं और दरअसल समस्याएं हैं क्या जो आम लोगों को बेचैन किए हुए हैं तो सम?ा आता है कि असल समस्या महंगाई या बेरोजगारी नहीं है बल्कि धर्म है, जाति है और उस से भी बड़ी है भारतीय दिलोदिमाग में पसरी वर्णव्यवस्था, धार्मिक भेदभाव और ऊंचनीच. दलित विचारकों या विद्वानों ने कभी हिंदू एकता की वकालत नहीं की. उलटे, वे वर्णव्यवस्था को खत्म करने की बात करते रहे. लेकिन आजकल के दलित नेता इस पर कुछ नहीं बोलते क्योंकि वे तमाम सिरे से संघ और भाजपा की धार्मिक तिजोरी में दलित हितों और अस्मिता को गिरवी रख सत्ता की मलाई चाट रहे हैं.

अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत में बसपा प्रमुख पानी पीपी कर वर्णव्यवस्था को कोसते कांशीराम का दिया यह नारा बुलंद करती रहती थीं कि, ‘तिलक तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार.’ जब वही मायावती यह कहने लगीं कि, ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश है, हाथी नहीं गणेश है’ तो दलितों ने उन्हें और बसपा को खारिज कर दिया. मायावती और बसपा दोनों अब सियासी दौड़ से बाहर हैं और खुद को ठगा सा महसूस कर रहे दलित समुदाय का बड़ा हिस्सा सचमुच में ब्रह्मा, विष्णु और महेश वालों की पार्टी को वोट देने को मजबूर हो गया.

संविधान है पर मुद्दे नहीं

संविधान हाथ में ले कर घूम रही कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को लोकसभा चुनाव में जरूर उस ने वोट दिया लेकिन पहले हरियाणा और फिर महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव नतीजों ने साफ कर दिया कि दलित समुदाय धार्मिक चकाचौंध और बाबाओं के फैलाए जाल में फंसता जा रहा है क्योंकि वह जातिगत भेदभाव दूर करने के नारे में छिपी वर्णव्यवस्था को नहीं देख पा रहा है जिसे दूर और खत्म करने के लिए कभी नामचीन दलित नेताओं ने हिंदू धर्म तक छोड़ दिया था. इन में संविधान निर्माता डाक्टर भीमराव अंबेडकर का नाम सब से ऊपर है.

उन्होंने कहा था, ‘जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था एकदूसरे से अलग नहीं हैं. वर्णव्यवस्था ने जातिव्यवस्था को वैधता प्रदान की और इस से दलित समुदाय पर अत्याचार हुए. ज्योतिराव फुले वर्णव्यवस्था को ब्राह्मण वर्ग द्वारा दलित और शूद्र समुदाय के शोषण का उपकरण मानते थे. दक्षिण भारत के दलित चिंतक और सुधारक ई वी रामास्वामी पेरियार भी मानते थे कि ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था दलितों व गैरब्राह्मणों के शोषण का आधार हैं. बी एस वेंकटराव की दलील यह थी कि वर्णव्यवस्था ने केवल सामाजिक अन्याय को ही नहीं बल्कि आर्थिक असमानता को भी जन्म दिया. दलितों को उन के श्रम और संसाधनों से वंचित कर उन्हें हमेशा निर्भर बनाए रखा.

दलितों की दोयम स्थिति

इन सभी ने इस रोग से छुटकारे की दवा शिक्षा को बताया था लेकिन दलित शिक्षा का हाल यह है कि आरक्षण नीति पर पुनर्विचार करने वाली एक याचिका पर अपना फैसला सुनाते सुप्रीम कोर्ट की बैंच के एक जस्टिस पंकज मित्तल ने कहा था कि सब से पिछड़े वर्गों के लगभग 50 फीसदी छात्र कक्षा 5 के पहले और 75 फीसदी कक्षा 8 के पहले स्कूल छोड़ देते हैं. हाईस्कूल लैवल पर तो यह आंकड़ा 95 फीसदी तक पहुंच जाता है. यानी एक फीसदी दलित भी स्नातक नहीं हो पाते. ऐसे में वे शायद ही बटेंगे तो कटेंगे जैसे नारों की हकीकत सम?ा पाएंगे. बकौल फूल सिंह बरैया, भाजपा हिंदू एकता यात्रा जैसी मुहिम से लोगों को वेबकूफ बना रही है जिस से लंबे समय तक राज किया जा सके.

किसी धर्मगुरु संघ प्रमुख या हिंदूवादी नेता की मंशा जाति या वर्णव्यवस्था को खत्म करने की नहीं है क्योंकि यही हिंदू, वैदिक या सनातन धर्म कुछ भी कह लें, की बुनियाद है जिस पर सत्ता के महल और मंदिर खड़े होते हैं. इन सब का मैसेज यह है कि दलित, पिछड़े और आदिवासी सवर्णों की बादशाहत स्वीकारते फिर से उन की गुलामी ढोएं, इस से ही उन के पाप धुलेंगे. यह पाप छोटी जाति और नीच योनि में पैदा होना है. ये वे भाजपाई हिंदू हैं जो पीछे हटने की कोशिश में वक्तीतौर पर आगे बढ़ते जा रहे हैं और कांग्रेसी हिंदू आगे बढ़ने की कोशिश के बाद भी पिछड़ते जा रहे हैं क्योंकि उन के पूर्वज लोकमान्य तिलक जैसे घोर मनुवादी नेता भी थे.

आज भी कांग्रेस में ऐसे नेताओं की भरमार है जिन्हें वर्णव्यवस्था से कोई एतराज नहीं. वे सिर्फ गांधीनेहरू परिवार के कंधों पर सवार हो कर सत्ता की मलाई चाट लेना चाहते हैं और वहां न मिले तो भाजपा के द्वार तो इन के लिए खुले ही हुए हैं.

ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और सुरेश पचोरी जैसे दर्जनों नेता अपने ब्राह्मण होने का गरूर टूटने से बचाने के लिए भाजपा की गोद में जा बैठे. दरअसल ये नेता तिलक के मनुवादी संस्कारों से ग्रस्त थे कि दलितों और औरतों को शिक्षा का अधिकार नहीं और जातिव्यवस्था व वर्णव्यवस्था उन के भले के लिए बनाई गई थीं.

 

 

 

Superstition : तेरहवीं के भोज के नाम पर लूटपाट

Superstition :  मौत के बाद, बजाए शरीर के ख़ाक होने के, व्यक्ति के साथ क्या होता है इस का कोई प्रमाण नहीं. बावजूद हिंदूओं में मृत्यपरांत धार्मिक कर्मकांड भरे पड़े हैं. इस के केंद्र में पंडे हैं जो दानदक्षिणा की धंधा चलाए रखना चाहते हैं.

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक पोस्ट दिखी जिस में एक इमेज थी. इमेज में मुंबई के ताजमहल होटल में 5-7 बजे एक शोक सभा का आयोजन किया गया था और जिस में लिखा था, ‘नो होम विजिट प्लीज’ यानी ‘कृपया घर पर न आएं.’ यह यूनीक तरीका था परिवार जन द्वारा शोक संदेश देने का.

पहले इस तरह के दुख की घड़ी में आसपास के पड़ोसी, दोस्तरिश्तेदारों का महीने तक परिवार को ढांढस देने के लिए घर पर आनाजाना लगा रहता था. लेकिन आजकल लोग लिखने लगे हैं कि कोई हमारे घर न आएं. न परिवार, न दोस्त, न पड़ोसी किसी को खुद के करीब आने नहीं देना चाहते.

एक बार तो आप भी हैरान हो रहे होंगे कि भला ये क्या बात हुई कि शोक की इस घड़ी में संवेदना देने वालों को घर पर आने से मना किया जा रहा है और शोक सभा एक होटल में आयोजित की जा रही है. लेकिन वास्तव में ध्यान से व्यवहारिक हो कर सोचेंगे तो आप को शोक सभा का यह आयोजन और “कृपया घर पर न आएं” संदेश का उद्देश्य समझ आएगा और उन का यह निर्णय सही लगेगा.

आइए जानते हैं कैसे –

हाल में मेरे किसी नजदीकी का देहांत हो गया और उन की मृत्यु के दिन से ले कर तेरहवीं और उस के बाद के कार्यक्रमों में मैं ने जो देखा और महसूस किया, मुझे मुंबई वाला शोक सभा का आयोजन बिल्कुल सही और व्यवहारिक लगा.

दरअसल हमारे समाज में जीवन से ले कर मौत में पंडों का बिजनेस चल रहा है. किसी जाने वाले के परिवार की मानसिक, आर्थिक स्थिति से उन्हें कोई लेनादेना नहीं है. मतलब मरने के बाद भी बिजनेस चल रहा है और पाखंड का अंत नहीं हो रहा.

एक तो जिस का कोई अपना चला गया वह उस दुख से दुखी है ऊपर से कभी भी, किसी भी समय पर घर पर, किसी का शोक प्रकट करने के लिए चले आना, किसी का मिलने आने का कोई निश्चित टाइम नहीं. कई जगहों पर तो लोग हर रोज मिलने, शोक प्रकट करने आ जाते हैं और बैठक रहती है यानी जबरन शोक मनाया जाता है, यह कहां तक सही है?

धर्म के नाम पर डराना

एक तो किसी का अपना दुनिया से चला गया ऊपर से चौथा, तेरहवीं, श्राद्ध, त्रिपिंडी, ब्राह्मणभोज जैसी रस्मों से ले कर नारायण बलि, रुद्राभिषेक, पूजा सामग्री और प्रसाद की व्यवस्था. इन कार्यक्रमों पर, डैकोरेशन, भजनमंडली, म्यूजिक सिस्टम, खानापीना इन सब के खर्चे जीतेजागते इंसान को मारने के लिए काफी हैं. समझ नहीं आता जो बेचारा अभी किसी अपने को बचाने के लिए अस्पताल का लाखों का बिल भर कर आ रहा है मृत्युपरांत उस पर पाखंड और आडंबर का बोझ क्यों डालना.

तेरहवीं में ब्राह्मणभोज और लंबीचौड़ी दानदक्षिणा के नाम पर मृतक के परिवार वालों को डराया जाता है. कहा जाता है ब्राह्मणों द्वारा यह सब क्रिया न कराई गई तो मृतक की आत्मा पर ब्राह्मणों का कर्ज चढ़ जाता है. भले ही ब्राह्मणों के इस कर्ज को उतारने के चक्कर में जीता जागता इंसान कर्ज के बोझ तले दुनिया से चला जाए.

मृत्यु भोज (तेरहवीं) भारतीय समाज में व्याप्त एक बुराई

मृत्यु भोज (तेरहवीं) भारतीय समाज में व्याप्त एक बुराई है. न चाहते हुए भी कई लोगों को ये करना पड़ता है. दरअसल, तेरहवीं संस्कार समाज के चंद पाखंडी, लालची और चालाक लोगों के दिमाग की उपज है.

किसी व्यक्ति की मृत्यु पर लजीज व्यंजनों को खा कर शोक मनाना क्या किसी ढोंग से कम नहीं? किसी घर में खुशी का मौका हो तो समझ आता है कि मिठाई बना कर खिला कर खुशी का इजहार किया जाए लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर मिठाइयां परोसा जाना क्या यह शर्मनाक परंपरा नहीं है?

शोक और जश्न में कोई अंतर नहीं

लोग क्या कहेंगे की बुनियाद पर टिके हैं ये आडंबर. घर के किसी सदस्य के दुनिया से चले जाने पर किसी को खुशी नहीं होती, फिर भी अधिकांश लोग धर्म के डर और लोकलाज के चक्कर में ये सब करते हैं. शादी समारोह की तरह लोग किसी अपने के चले जाने पर भी लाखों रुपए खर्च करने को मजबूर हैं. भले ही कर्जा उठा कर खर्च करना पड़े.

सभ्य और शिक्षित समाज में यह अजीबोगरीब लगता है कि शोक मनाने के लिए आने वाले परिचितों रिश्तेदारों को स्वादिष्ट व्यंजन परोसे जाते हैं. कई जगह तो शराब तक पिलाई जाती है. इतना ही नहीं, तेरहवीं पर नाचगाना होता है और बेटियों को कपड़ों के साथ सोनेचांदी के गिफ्ट तक दिए जाते हैं. कुछ जगह तो मृत्युभोज के साथसाथ भोज में आए लोगों को भी नकद रुपए, मिठाई का डिब्बा और गिफ्ट भी दिए जाते हैं. शोक और जश्न में कोई अंतर नजर नहीं आता.

कहीं पर यह संस्कार एक ही दिन में किया जाता है तो कहीं तीसरे दिन से शुरू हो कर बारहवेंतेरहवें दिन तक चलता है. कुछ लोग तो दिखावे और शान के लिए 500–1000 लोगों तक को मृत्युभोज करवाते हैं. यानी रिवाज के नाम पर एक और बेमतलब का ढोंग और मरने वाले के बाद परिवार पर जबरन खर्च करने का प्रेशर. तेरहवीं तक मृत्युभोज पर एक सामान्य परिवार का औसत खर्च दो लाख रुपए तक आता है.

कई बार तो यह भी सुनने में आता है कि मृतक बेहद गरीब परिवार से था, घर वालों के पास तेरहवीं के लिए पैसे नहीं थे लेकिन समाज और धर्म के डर से मृतक के परिवार ने कर्ज ले कर मृत्यु भोज कराया. पंडे और नातेरिश्तेदार तो तेरहवीं के कर्मकांड में आ कर चला जाते हैं और बाद में वह परिवार किस तरह अपना घर चला रहा है इस से किसी को मतलब नहीं होता.

कई बार गांवों में तो बिरादरी से निकाले जाने के भय से मृतक का पूरा परिवार इसलिए आत्महत्या तक कर लेता है क्योंकि उन के पास उन की पूरी बिरादरी को मृत्युभोज कराने का इंतजाम नहीं होता.

पहले ऐसा नहीं होता था

बुजुर्ग बताते हैं कि उन के जमाने में ऐसा नहीं था. मृत व्यक्ति के घर 12 दिन तक कोई भोजन नहीं बनता था. 13वें दिन कुछ सादे क्रियाकर्म होते थे और ब्राह्मणों एवं घरपरिवार के लोगों का खाना बनता था. शोक तोड़ दिया जाता था बस. किसी की मृत्यु होने पर समाज के लोग कपड़े, घर से अनाज, राशन, फल, सब्जियां इत्यादि ले कर मृतक के घर पहुंचते थे. लोगों द्वारा लाई गई सामग्री से ही भोजन बना कर लोगों को खिलाया जाता था.

पाखंड में एक और एडिशन भजनमंडली

आजकल एक नया आडंबर होने लगा है शोक सभा में धन खर्च कर भजनमंडली को बुलाना. यह संगीतमय कार्यक्रम करवाया जाता है. लोग इस दौरान फ्यूनरल आर्टिस्ट्स को भजनकीर्तन और शांतिपाठ के लिए भी बुलाते हैं. इन सब का खर्च अलग से होता है. इस सब का क्या औचित्य है? समझ नहीं आता भजन कर के क्यों लोगों को बोर करना, शोक सभा में भजन कार्यक्रम की आखिर क्या जरूरत है? आप को जान कर हैरानी होगी भजनमंडली का गायक जितना फेमस होगा वह उतना अधिक पैसा चार्ज करेगा, यानी यहां भी धर्म का धंधा और पैसे वालों की शो बाजी. मैं ने देखा शोकसभा के लिए हौल में डैकोरेशन कराने का चलन भी बढ़ रहा है जैसे यह कोई शादीब्याह जैसा खुशी का मौका हो.

व्यर्थ का आडंबर क्यों

मृत्युभोज बंद कर के शोक के दिन घटाए जाने चाहिए. परंपराओं की आड़ में आडंबर बंद होना चाहिए. घर के किसी सदस्य के दुनिया से चले जाने पर शादी से ज्यादा खर्च होने लगा है. ऐसे खर्चों से संपन्न लोगों को फर्क नहीं पड़ता, मगर उन का अनुसरण करते हुए गरीब लोग कर्ज उठा कर खर्च करते हैं. अपनों को खोने का दुख और ऊपर से भजन मंडली, हवन, पंडितों की दानदक्षिणा का भारी भरकम खर्च, यह किसी आम इंसान के गले की गड्डी से कम नहीं.

Suicide : हर 40 मिनट में एक युवा जान दे रहा है, कहां है सरकार

Suicide : यदि देश में सभी बच्चों के लिए समान शिक्षा व्यवस्था कायम हो. सबको समान अवसर उपलब्ध हों, सबको समान शैक्षिक संसाधन प्राप्त हों, तो उनका मानसिक दबाव बहुत हद तक कम हो जाएगा. गाँव के स्कूल से पढ़ कर आने वाले बच्चे की क्षमता वही होगी जो शहर के स्कूल में पढ़ कर निकले बच्चे की होगी. लेकिन ऐसी व्यवस्था बनाने की मंशा किसी सरकार की नहीं रही.

कोविंद कमेटी का गठन

सरकार वन नेशन वन इलेक्शन के लिए जान दिए दे रही है. इसके लिए बाकायदा कोविंद कमेटी का गठन किया गया. उस कमेटी के सुझावों पर फ़टाफ़ट बिल भी तैयार हो गया और सदन में प्रस्तुत भी कर दिया गया. अब बिल पास कराने के लिए दोनों सदनों में सिर फुटव्वल भी होगी और अंततः बिल पास करवा लिया जाएगा.
मगर लाखों छात्रों की मौतों और लगातार हो रही मौतों के बावजूद सरकार वन नेशन वन एजुकेशन की बात पर विचार नहीं करेगी क्योंकि पूरे देश में जिस तरह के शिक्षा तंत्र का जंजाल बिछाया गया है उसमें संतरी से लेकर मंत्री तक भ्रष्टाचार का पैसा निर्विघ्न पहुंच रहा है. लिहाजा इस सिस्टम को बदलने या सुधारने की मंशा किसी की नहीं है, भले देश के युवा अवसाद में डूब कर आत्महत्याएं करते रहें.

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार बीते 5 वर्षों में 59 हजार से ज्यादा छात्रों ने अपनी जान दी है. देश में हर दिन 35 से ज्यादा छात्र आत्महत्या कर रहे हैं. साल 2018 से 2022 तक देश में 59,153 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी. देश का हर समाचार पत्र और न्यूज़ चैनल्स हर दिन बच्चों की आत्महत्या की ख़बरों से रंगे रहते हैं. मगर सरकार आंखों पर पट्टी चढ़ाये हुए है.

झकझोरती Suicide की घटनाएं

9 सितंबर 2024 : गुवाहाटी के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी ) में कंप्यूटर साइंस के तृतीय वर्ष के छात्र ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. उत्तर प्रदेश के रहने वाले छात्र का शव ब्रह्मपुत्र हॉस्टल के उसके कमरे में मिला. वह कंप्यूटर साइंस में तीसरे वर्ष का छात्र था. वह मानसिक रूप से काफी दबाव में था.

10 अक्टूबर 2024 : आईआईटी कानपुर में पीएचडी छात्रा प्रगति ने हॉस्टल में आत्महत्या कर ली. 28 वर्षीय प्रगति अर्थ साइंस से पीएचडी फाइनल ईयर की पढ़ाई कर रही थी. चकेरी थाना क्षेत्र स्थित सनीगंवा सजारी में रहने वाले उसके पिता गोविंद खारया लाला पुरुषोत्तम दास ज्वेलर्स में स्टॉक मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं. अपनी होनहार बेटी से उन्हें बहुत उम्मीदें थीं. प्रगति बचपन से ही पढ़ाई में होशियार थी, उसने दिल्ली के हंसराज कॉलेज से बीएससी, झांसी के बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी से एमएससी की थी. इसके बाद वह आईआईटी कानपुर से पीएचडी कर रही थी.

23 अक्टूबर 2024 : आईआईटी दिल्ली में पढ़ रहे देवघर के होनहार छात्र का कमरे में पंखे से लटका शव मिला. दिल्ली के अरावली छात्रावास स्थित अपने कमरे में देर रात यश कुमार नामक छात्र ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. 21 वर्षीय यश एमएससी सेकंड ईयर का छात्र था. वह काफी समय से डिप्रेशन में था. यश के पिता अनिल कुमार झा देवघर उपायुक्त कार्यालय में विधि शाखा में लिपिक थे और 30 सितंबर को वे सेवानिवृत्त हुए थे.

24 अक्टूबर 2024 : रुदौली क्षेत्र के भेलसर गांव में 17 वर्षीय छात्र सक्षम ने पंखे से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. छात्र अयोध्या में अपनी बुआ के पास रहकर इंटरमीडिएट की पढ़ाई कर रहा था. घर के सभी सदस्य बाहर थे जब उसने यह आत्मघाती कदम उठाया.

26 अक्टूबर 2024 : दिल्ली के जामिया नगर थाना क्षेत्र के शाहीन बाग में एक छात्रा ने सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली. 17 वर्षीय छात्रा जेईई की तैयारी कर रही थी. इस परीक्षा में पास न होने के चलते उसने यह आत्मघाती कदम उठाया. छात्रा के पास एक सुसाइड नोट भी मिला है. जिसमें उसने लिखा है कि वह परिवार की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सकी. मृतका के पिता निजी कंपनी में नौकरी करते हैं और उसकी मां गृहिणी हैं.

Student Suicide – एन एपिडेमिक स्वीपिंग इंडिया के अनुसार

स्टूडेंट सुसाइड – एन एपिडेमिक स्वीपिंग इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में जहाँ हर साल 2 फीसदी की दर से आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं, वहीं छात्रों में आत्महत्या की दर 4 फीसदी प्रतिवर्ष के हिसाब से बढ़ रही है. यानी देश में आत्महत्या के जितने मामले हर साल आते हैं, उनमें छात्रों की संख्या सबसे ज्यादा होती है.

आंकड़े बताते हैं कि साल 2021 में 13,089 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी, जबकि, साल 2022 में 13,044 छात्रों ने आत्महत्या की. वहीं 2018 से 2020 के दौरान कुल 33,020 छात्रों ने आत्महत्या कर ली. छात्र आत्महत्या की घटनाएं जनसंख्या वृद्धि दर और कुल आत्महत्या ट्रेंड दोनों को पार करती जा रही हैं. पिछले दशक में, जबकि 0-24 साल की आयुवर्ग आबादी 58.2 करोड़ से घटकर 58.1 करोड़ हो गई, वहीं छात्र आत्महत्याओं की संख्या 6,654 से बढ़कर 13,044 हो गई.

भारत की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी युवा है लेकिन, अब इसी देश में हर 40 मिनट में एक युवा अपनी जान दे रहा है. स्टूडेंट सुसाइड – एन एपिडेमिक स्वीपिंग इंडिया ने अंतर्राष्ट्रीय करियर और कॉलेज परामर्श (आइसी3) की सालाना कॉन्फ्रेंस में अपनी रिपोर्ट साझा की है. इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है. बता दें कि आइसी3 एक नॉन-प्रॉफिट ऑर्गेनाइजेशन है जो पूरी दुनिया में शिक्षा के क्षेत्र में काम करता है.

Mental Health और Suicide

छात्रों की आत्महत्या के ज्यादातर मामलों में वजह मेंटल हेल्थ है. अवसाद, हताशा, चिंता, दबाव, निराशा, बेइज्जत होने का डर जैसे कारक छात्रों को ऐसी मानसिक स्थिति की तरफ धकेल रहे हैं जो अंततः उन्हें आत्महत्या के लिए प्रेरित करती है. यूनिसेफ की मेंटल हेल्थ सम्बंधी एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में 15 से 24 साल का हर 7 में से एक व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधी समस्या से जूझ रहा है
. यह मानसिक समस्या इसलिए है क्योंकि कम्पटीशन के दौर में हर छात्र पर यह दबाव है कि वह कुछ बन कर दिखाए. हर व्यक्ति एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में है. नहीं निकल पाया तो जीवन को व्यर्थ समझने की मानसिकता से ग्रस्त हो जाता है. इस नकारात्मक भाव से उबरने में उसके मातापिता, भाईबहन, दोस्त, समाज, स्कूल-कॉलेज के टीचर कोई भी उसकी मदद नहीं करते, उलटे ताने मार मार कर उसकी मानसिक स्थिति को और बदतर बना देते हैं.

जब भी किसी छात्र की आत्महत्या की कोई खबर आती है तो हम उसके माता पिता को दोष देने लगते हैं कि हो ना हो उन्होंने ही अपने बच्चे से बहुत अधिक अपेक्षाएं पाल रखी होंगी. आखिर माँ बाप बच्चों से अपेक्षाएं क्यों ना रखें?
एक बाप दिन रात हाड़तोड़ मेहनत करता है ताकि वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सके और उन्हें उच्च अधिकारी बना सके ताकि जो अभावग्रस्त जीवन उसने जिया है वह उसके बच्चों को ना जीना पड़े. वह कर्ज लेता है, बीवी के गहने बेचता है, मकान-जमीन गिरवी रख देता है ताकि अपने बच्चों की उच्च शिक्षा और कम्पटीशन में सफल होने के लिए अच्छी कोचिंग दिलवा सके.

आईएएस-आईपीएस बनने का सपना आँखों में लिए दिल्ली के मुखर्जी नगर, शादीपुर, आजादपुर, कालकाजी जैसे क्षेत्रों में किराए पर रह रहे छात्रों से बात करने पर पता चलता है, कि कभी कभी उनके पास खाने तक के पैसे नहीं होते हैं. दो जोड़ी कपड़ों में पूरा साल निकाल देते हैं. एक एक कमरे में चार चार, छह-छह लड़के एकसाथ रहते हैं.पिता ने जैसे तैसे करके उनकी महंगी ट्यूशन के लिए पैसे का जुगाड़ किया और दिल्ली भेजा, इस उम्मीद से कि आईएएस की कोचिंग करके वह कम्पटीशन निकाल लेगा और अधिकारी बन जाने पर बाप के सिर पर चढ़ा सारा कर्जा उतार देगा. तो यदि माँ बाप की अपेक्षाएं अपने बच्चे से हैं तो इसमें क्या गलत है?

गरीबी का नेगेटिव इंपैक्‍ट

जिसके पास भी कम पैसा है और उसी पैसे के सहारे उसे अपने बच्चे को कुछ बनाना है तो उसकी यही चाहत होगी कि पहले ही अटेम्प्ट में बच्चा निकल जाए. इसी लिए लड़के पर भी कम्पटीशन में सफल होने का जबरदस्त दबाव होता है. क्योंकि उसे मालूम है यदि वह असफल हुआ तो उसका खेत-मकान भी जाएगा, माँ के गहने भी जाएंगे और बाप के सिर पर कर्ज का ब्याज बढ़ता जाएगा.

यह दबाव अमीर छात्रों पर नहीं होता है. वे जानते हैं कि पहले अटेम्प्ट में सफल ना हुए तो आगे तीन और अटेम्प्ट और हैं. उनको कोचिंग के लिए पैसे की कमी भी नहीं है. यह दबाव उन छात्रों पर भी नहीं है जो अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल से पढ़ कर आये हैं. जिनको अच्छे शैक्षिक साधन मिले, अच्छे टीचर मिले. अच्छी शिक्षा मिली. जिनकी इंग्लिश स्पीकिंग अच्छी है. जिन्हें अपने ऊपर कॉन्फिडेंस है और जिन्होंने पहले भी काफी ट्यूशन की हैं.

मानसिक दबाव में वे छात्र होते हैं जो गरीब घरों से आते हैं, जिनकी स्कूली शिक्षा किसी सरकारी स्कूल से हुई जहां कभी टीचर आते हैं कभी नहीं, जिन्होंने कभी ट्यूशन का मुँह नहीं देखा. जिन्होंने अंग्रेजी कभी बोली ही नहीं. जिनके बाप के पास दूसरे अटेम्प्ट के लिए पैसे का कोई इंतजाम नहीं है. कुछ हद तक वे छात्र भी मानसिक दबाव में होते हैं जिनके पिता और अन्य परिवारीजन प्रशासनिक अधिकारी होते हैं और उनका पूरा प्रेशर इस बात पर होता है कि उनके बच्चे को भी आईएएस अधिकारी ही बनना है.

माता पिता, कोचिंग संस्थानों को लाखों रुपए की फीस देते हैं जिसका परोक्ष रूप से दबाव छात्र पर पड़ता है. परिवारवाले, रिश्तेदार व अन्य लोग केवल सफलता की उम्मीद करते हैं लेकिन किन्हीं परिस्थितियों की वजह से जब वह उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता है तो वह गहरी निराशा में डूब जाता है और आत्महत्या ही उसे एकमात्र उपाय नजर आता है.

यदि देश में सभी बच्चों के लिए समान शिक्षा व्यवस्था कायम हो. सबको समान अवसर उपलब्ध हों, सबको समान शैक्षिक संसाधन प्राप्त हों, तो उनका मानसिक दबाव बहुत हद तक कम हो जाएगा. गाँव के स्कूल से पढ़ कर आने वाले बच्चे की क्षमता वही होगी जो शहर के स्कूल में पढ़ कर निकले बच्चे की होगी. लेकिन ऐसी व्यवस्था बनाने की मंशा किसी सरकार की नहीं रही.

बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति की दोषी देश की सरकार ही है. देश में जिस तरह का शिक्षा तंत्र सरकार ने स्थापित कर रखा है वह बच्चों को सही ज्ञान देने और सही तरीके से शिक्षित करने में पूरी तरह अक्षम है. देश में शिक्षा के नाम पर विभिन्न तरीके के सिस्टम चल रहे हैं. एक ओर बड़े बड़े नामी पब्लिक स्कूल हैं. महंगे और शो-बाजी से भरे हुए. इनमें अमीरों के बच्चे पढ़ते हैं. फिर सरकारी स्कूल हैं. जहाँ ना टीचर ना पढाई. बेसिक स्कूल हैं जहाँ बच्चों के बैठने के लिए कमरे और फर्नीचर तक नहीं है. टीचर्स तो यदाकदा ही दिखाई देते हैं.

अलगअलग बोर्ड और कौम्‍पीटिशन का प्रेशर

इसके अलावा अनेक तरह के बोर्ड हैं. हर प्रदेश का अपना बोर्ड तो है ही, इसके अलावा केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE), इंडियन सर्टिफ़िकेट फ़ॉर सेकेंडरी एजुकेशन (ICSE), इंटरनेशनल बैकलॉरेट (IB), नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ ओपन स्कूलिंग (NIOS), इंटरनेशनल जनरल सर्टिफ़िकेट ऑफ़ सेकेंडरी एजुकेशन (IGCSE) और कैंब्रिज एसेसमेंट इंटरनेशनल एजुकेशन (CIE). हर बोर्ड का अपना पाठ्यक्रम, सीखने का अपना तरीका, मूल्यांकन मानदंड, और परीक्षा आयोजित करने का तरीका सब अलग अलग होता है.

अलग अलग माहौल में पढ़ कर आये हुए छात्र जब किसी कम्पटीशन में एक साथ बैठते हैं तो उसमें सफल छात्रों की संख्या बहुत कम होती है. उदाहरण के तौर यूपीएससी यानी सिविल सेवा की परीक्षा को ही लें जिसको पास करने के बाद छात्र आईएएस और आईपीएस अधिकारी बनता है. यूपीएससी की परीक्षा में 24 से 26 साल के युवाओं का चयन सबसे ज्यादा होता है.

यूपीएससी की परीक्षा में हर साल करीब 10 लाख छात्र शामिल होते हैं, लेकिन इनमें से सिर्फ़ 0.01 प्रतिशत से 0.2 प्रतिशत ही परीक्षा पास कर पाते हैं. साल 2022 में यूपीएससी परीक्षा के लिए 11,52,000 छात्रों ने आवेदन किया था, जिनमें से केवल 933 लोगों का चयन हुआ था. जो हार गए उनमें से कुछ तो अगले अटेम्प्ट की तैयारी में लग जाते हैं, जिनको पैसे की तंगी नहीं है. कुछ दूसरे काम करने लगते हैं मगर बहुतेरे बच्चे हताशा और निराशा में घिर जाते हैं. जिन्हें घर परिवार से ताने-उलाहने नहीं मिलते वे अवसाद में जाने से बच जाते हैं. मगर कुछ अभागे बच्चे डर और निराशा के अन्धकार में डूब कर मौत को गले लगा लेते हैं.

कोचिंग संस्थानों में छात्रों के तनाव, चिंता और असफलता से जुड़ी भावनात्मक समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है. छात्रों पर केवल अंकों और प्रतिस्पर्धा का बोझ डाला जाता है. कोचिंग संस्थानों में काउंसलर्स नहीं होते हैं. यदि होते हैं तो नाममात्र के ही होते हैं. छात्रों में जागरूकता की कमी है. छात्र खुलकर बात नहीं कर पाते हैं. परिवार और समाज भी मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से नहीं लेता है.

महाराष्ट्र, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश वो राज्य हैं, जहां छात्र सबसे ज्यादा आत्महत्या करते हैं. यहां जितने छात्र आत्महत्या करते हैं वह देश में होने वाली कुल आत्महत्याओं का एक तिहाई है, जबकि अपने उच्च शैक्षणिक वातावरण के लिए जानाजाने वाला राजस्थान 10वें स्थान पर है, जो कोटा जैसे कोचिंग केंद्रों से जुड़े गहन दबाव को दर्शाता है.

पेपर लीक की समस्‍या आम

सरकारी एजेंसियों में भ्रष्टाचार का दीमक इस कदर लगा हुआ है कि पेपर लीक की समस्या अब बहुत आम हो चुकी है. आईएएस या पीसीएस के अलावा अधिकांश प्रतिस्पर्धाओं के पेपर लीक हो जाते हैं. पेपर लीक होने से युवाओं को तैयारी का अमूल्य समय खराब हो जाता है. इससे उनका मनोबल टूट जाता है. जिससे वह गलत कदम उठाते हैं. पेपर लीक होने पर आमतौर पर एग्जाम कैंसिल हो जाता है. इस चक्कर में बहुतेरे छात्र ओवर एज हो जाते हैं. फिर उन्हें किसी छोटी मोटी नौकरी से काम चलाना पड़ता है. इससे हताशा पैदा होती है.

परिवार द्वारा अंतहीन अपेक्षाएं, समाज में सफलता के अप्राप्य मानदंड ,बड़े शहरों का ऐसा अकेलापन जो जीवन का रस समाप्त कर देता है, कोचिंग की अंधी होड़ और निराधार आश्वासन, ये सभी कारण विद्यार्थियों के जीवन की सरसता को संघर्ष में बदल चुके हैं, जिससे असफलता का भय मृत्यु से अधिक हो चुका है. उपभोक्तावादी संस्कृति, भविष्य की चिंता एवं पारिवारिक परेशानियों के चलते युवा अत्यधिक दबाव में रहते हैं. फीस का दबाव, प्रतिस्पर्धा एवं अनुकूल माहौल ना मिलने के कारण वे तनावग्रस्त हो जाते हैं और आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं.

Satire : धर्म, शादी, चंदा और जीवन

Satire : महल्ले के मध्य में घर और आनेजाने के लिए चार तरफ से रास्ते. चारों रास्तों पर बीच वाले घर में शादी होने से शादी का शामियाना तान दिया गया है. अब वे लोग कहां से निकलें जिन का घर इन रास्तों के बाद आता है. उन से कहा गया कि भाई, आगे हमारा घर है, हमें जाना है. आप रास्ता न रोकें. उन का उत्तर था, ‘‘तो क्या हम शादी न करें. हमारी खुशी आप से बरदाश्त नहीं हो रही है. दूसरे रास्ते भी तो हैं.’’

‘‘लेकिन दूसरे रास्तों में भी तंबू तने हुए हैं. कुरसियां लगी हुई हैं. वे भी यही कर रहे हैं.’’

वे गुस्से से बोले, ‘‘हम भी यही कह रहे हैं. शादी तो हो कर रहेगी.’’

हम ने कहा, ‘‘आप शादी करें. मेरी तरफ से बधाई भी स्वीकारें किंतु घर जाने का रास्ता तो खोलें.’’ वे फिर गुस्से में बोले, ‘‘आप के घर का रास्ता मेरे घर के आगे से जाता है तो इस में मेरा क्या कुसूर. इतनी ही तकलीफ है तो किसी और कालोनी में मकान लेना था.’’

 अब हमें भी गुस्सा आ गया, ‘‘आप को शादी का इतना शौक है तो कोई लौन बुक कराना था. रास्ता घेर कर क्यों बैठ गए. यह कोई तरीका है. आप ने आनेजाने वालों के बारे में जरा भी नहीं सोचा.’’ उन्होंने कहा, ‘‘देखिए साहब, शादी वाला घर है. सौ टैंशन होती हैं दिमाग में.

आप व्यर्थ में बहस मत करिए. इतना रुपया नहीं है कि महंगे लौन को किराए पर लें. हमारे तो सारे कार्यक्रम घर के सामने वाले रास्ते पर ही होते हैं. घर हमारा है तो सामने का रास्ता भी हमारा है. हम अपने रास्तों का उपयोग भी न करें? क्या आप एकदो दिन तकलीफ नहीं सह सकते इंसानियत के नाते?’’

हम ने कहा, ‘‘तकलीफ होती है. सह लेता हूं. अभी आप सारी रात लाउडस्पीकर, डीजे बजा कर हमारी रातें खराब करेंगे. ब्लडप्रैशर वाला बेचैन रहेगा. छोटे बच्चे सो नहीं पाएंगे. आप पटाखों के धमाके करेंगे. बच्चेबूढ़े परेशान हो जाएंगे. रातभर का शोरशराबा. बचा हुआ खाना, प्लास्टिक के सामान जिन में आप खाना परोसेंगे, उन का कचरा आप नाली में फेंकेंगे. नाली जाम होगी.

सड़े भोजन की दुर्गंध फैलेगी. रोड पर टैंट गाड़ने से सड़क पर गड्ढे होंगे. फिर ऐक्सिडैंट होंगे. ये सब तो हम सभी को झेलना ही है किंतु रात को घर जाना जरूरी है. हम निकलें कैसे? आप को हमारा भी तो कुछ खयाल करना होगा? क्या अब हमें अपने ही शहर में लौज में कमरा किराए पर लेना होगा?’  मेरी बात सुन कर उन्होंने जोर की आवाज लगाई, ‘‘बब्बू, गोलू, मोनू, सोनू…’’

किशोर उम्र के लड़के हाथों में लाठीडंडे लिए आ खड़े हुए.

‘‘क्या हुआ, मौसाजी?’’ चारों एकसाथ बोले. उन्होंने कहा, ‘‘इन जनाब को तकलीफ हो रही है. इन्हें समझाओ. मेरे पास ढेरों काम हैं,’’ इतना कह कर वे चले गए. और चारों लट्ठधारी लड़कों ने हमें घेर लिया. उन में से एक ने कहा, ‘‘अंकलजी, बात समझ में नहीं आ रही है, समझाएं?’’ मैं घबरा गया. मैं भावी हमले के डर से भयभीत हो गया. मैं ने कहा, ‘‘भाइयो, मुझे कोई तकलीफ नहीं हो रही. बस, मेरा घर उस पार है. मां बीमार हैं. दवा ले कर जाना जरूरी है.’’ तभी महल्ले के पार्षद ने स्थिति भांप ली और वे तेजी से मेरे पास आ कर बोले, ‘‘यार मिश्राजी, आप कोऔपरेट नहीं करते. कल आप के घर में भी किसी की शादी होगी. परिवार वाले हो. आप को समझना चाहिए. थोड़ा घूम कर दूसरा रास्ता पकड़ लो.’’ मैं ने उन्हें बताया कि सारे रास्तों पर तंबू गड़े हैं. मैं तो घर जाना चाहता हूं. मैं आप के साथ हूं. इस घर की शादी मेरे घर की शादी जैसी है. लेकिन आप बताएं कि घर कैसे जाएं? वे गंभीर हो कर बोले, ‘‘हां, यह तो विकट समस्या है. आप ऐसा करिए, अपनी मोटरसाइकिल यहीं खड़ी कर दीजिए, मंदिर के पास. इतनी भीड़भड़क्कन में किसी चोर की हिम्मत भी न होगी. अब रही आप की बात, तो यह जो नाला है, इस में पानी बहुत कम है. कोशिश करिए निकलने की. कामयाब हो जाएं तो निकल जाइए. बाकी आप ही जानें.’’

कोई रास्ता नहीं था. इस से पहले कि मेरे जैसे आम आदमी के साथ फौजदारी हो जाए, अस्पताल की शरण में जाना पड़े, अच्छा है कि रिस्क लिया जाए. पुलिस के पास जाने का कोई लाभ नहीं था. एक बार शिकायत की थी पिछले साल ऐसी ही समस्या आने पर तो थानेदार ने कहा था कि हम क्या किसी की शादी रुकवाने के लिए बैठे हैं. जाइए, हमें और भी काम हैं. फिर जब भी घर के सामने से निकलते, कभी गाली देते, कभी पत्थर फेंकते, कभी झूठी रिपोर्ट दर्ज करा कर अंदर करा देने की धमकी देते रहते. थक कर मैं ने गलती की माफी मांग ली, तो उन्होंने कहा, ‘‘चलो आप को अपनी गलती का एहसास तो हुआ. अन्यथा हम तो आप को स्त्री से छेड़छाड़ के आरोप में अंदर करवाने की सोच रहे थे. एससी एसटी ऐक्ट अलग से लगता. जाओ, माफ किया.’’ 

तब से थाने का खयाल दिल से यों निकल गया जैसे बेवफा प्रेमिका का खयाल दिल से निकल जाता है. हां अपनेआप होने की टीस जरूर रही, जैसे बेवफाई से आहत रहता है दिल. तो हम डरतेडरते नाले में प्रवेश कर गए. जान बचाने के लिए महामृत्युंजय का जाप भी करते रहे. नाले पर चढ़ने के चक्कर में बैलेंस बिगड़ा, फिर गंदे पानी में गिरे. चीखे, डरे, फिर पैरों को साध कर आगे बढ़े. हिम्मत की और फूलती सांस नाले के गंदे पानी से सराबोर शरीर पर चोटों के निशान के साथ किसी तरह घर पहुंचे. 

ऐसी ही स्थिति तब आती है जब प्रत्येक गली के बेरोजगार गुंडे टाइप लड़के अपनीअपनी गली को अलग महल्ला सिद्ध कर के गणेश व दुर्गा की स्थापना कर वातावरण को धर्ममय करते हैं. चारों तरफ चंदा दो. हर वर्ष चंदे की रकम बढ़ाई जाती है. यह कह कर कि मूर्ति महंगी है. लाइटिंग, डीजे सब के रेट बढ़ गए हैं. फिर हम पीछे नहीं रहना चाहते. दूसरे महल्ले वालों ने ज्यादा महंगी मूर्ति ली है. हम अपनी नाक नीची नहीं होने देंगे, उन से बड़ी मूर्ति रखेंगे. इस बार 501 रुपए से काम नहीं चलेगा. 1,100 रुपए चाहिए. चंदा यों मांगा जाता जैसे हफ्तावसूली की जा रही हो. न देने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. होली के हुड़दंग में घर पर कचरा, मैला, गोबर फेंका जाता है. घर की स्त्रियों पर भद्दे कमैंट्स और घर से निकलना मुश्किल हो जाता है.

तो हम दूध वाले, राशन वाले का पेमैंट और घर के जरूरी सामान रोक कर चंदा देते हैं. देना पड़ता है. फिर चारों ओर कानफोडू संगीत, जिस में शीला की… मुन्नी बदनाम…जैसे गाने चौबीसों घंटे बजते हैं. धर्म की बात है. पंडे टाइप के लोग इन मुस्टंडों को यह कहते रहते हैं, ‘‘अरे धर्म का काम है, कुछ दे दोगे तो पुण्य मिलेगा, स्वर्ग में जगह मिलेगी.’’

फिर एक जुमला सुनने को मिलेगा, ‘‘देखते नहीं शुक्रवार को कैसे गलियां, सड़कें भर जाती हैं, तब तो आप कुछ नहीं कहते. यह तो हम हिंदुओं की कमजोरी है कि आप विरोध कर पा रहे हैं.’’ यानी छिपे शब्दों में पूरी धमकी. अब आप टोक कर जान जोखिम में कैसे डाल सकते हैं? फिर ऐसे समय में हमें अपना वाहन कहीं अन्यत्र खड़ा करना पड़ता है और किसी तरह पैदल घर जाते हैं. पत्नी, बेटी का तो उतने समय घर से बाहर निकलना बंद रहता है. स्कूल जाना भी. क्योंकि ये सारे लड़के शराब, गांजे के नशे में चूर रह कर अपने को श्रेष्ठ साबित करने में लगे रहते हैं. चंदे के पैसों से ही इन का नशा कार्यक्रम चलता है और जब तक कि ये धार्मिक आयोजन या वैवाहिक कार्यक्रम संपन्न नहीं हो जाते, हमारी आफत रहती है. यदि इन के कार्यक्रम में टोकाटाकी करें तो हमारे क्रियाकर्म की संभावना भी बन सकती है.

जबजब हम अपना दोपहिया वाहन घर तक न पहुंच पाने के कारण दूसरी जगह खड़ा करते हैं भगवान भरोसे. दूसरे दिन हमें हमारी बाइक से पैट्रोल गायब मिलता है. बाइक से ट्यूब नदारद रहते हैं. वाहन की बैटरी गायब रहती है. ऐसे में आप सोचिए, हम किसी मैकेनिक के पास अपने वाहन को किसी हाथठेले, रिकशे में लाद कर ले जाते हैं. जेब के साथसाथ दिलदिमाग को तकलीफ अलग. एक बार तो गाड़ी चोरी हो गई. लाख पूछताछ की, रिपोर्ट की लेकिन सब ने कहा, ‘‘थोड़ी देर पहले तक तो यहीं थी.

पता नहीं. पुलिस वाले कहते हैं, रिपोर्ट लिख ली है. तलाश जारी है. लेकिन चोरी की गई चीज उस आतंकवादी की तरह होती है जो पड़ोसी मुल्क में छिपा होता है. मिल भी गई तो हजार कानूनी झमेले हैं. अच्छा है कि आप दूसरी गाड़ी किस्तों में खरीद लें. फिर हम ने भी मन मार कर सैकंडहैंड मोटरसाइकिल खरीद ली.
लेकिन महल्ले का अभी भी यही आलम है. किसी की शादी हो या देवीदेवताओं की बैठक, रास्ते बंद हो ही जाते हैं. कहते हैं कि जब सारे रास्ते बंद हो जाएं तो भगवान कोई न कोई रास्ता खोलता ही है. 
लेकिन जब रास्ता भगवान के कारण ही बंद हो तब तो कोई रास्ता खुलने का सवाल ही पैदा नहीं होता. तो अब हमें जैसे पता चलता है कि किसी के घर शादी होने वाली है या दुर्गाजीगणेशजी बैठने वाले हैं, उतने दिन के लिए हम गाड़ी घर में रख कर पैदल ही चलते हैं. कभी नाले में से, कभी कोई दीवार फांद कर, कभीकभी तो अवकाश ही ले लेते हैं और घर में बैठे रहते हैं.

चंदा देना तो जरूरी ही होता है चैन से जीने के लिए. फिर चंदा देना न केवल धर्म का काज है बल्कि सुरक्षा का भी. सुरक्षा धर्म से नहीं, महल्ले के उन गुंडों से जो हर शादी, हर जागरण के बाद 4 दिनों तक चौराहे पर बोतलें खोले रात के 2 बजे तक पीते रहते हैं और शुभ कार्यों को अंतिम अंजाम देते रहते हैं.

Onlinne Hindi Story 2025 : इडली सांभर

Onlinne Hindi Story 2025 : पहली मुलाकात के बाद जिस तरह पुरवा और सुहास का प्यार परवान चढ़ा उसे देखते हुए पुरवा सुहास में एक बेहतर जीवनसाथी होने के सारे गुण ढूंढ़ने लगी, लेकिन क्या सुहास उस की उम्मीदों पर खरा उतर पाया?

उस दिन बस में बहुत भीड़ थी. कालिज पहुंचने की जल्दी न होती तो पुरवा वह बस जरूर छोड़ देती. उस ने एक हाथ में बैग पकड़ रखा था और दूसरे में पर्स. भीड़ इतनी थी कि टिकट के लिए पर्स से पैसे निकालना कठिन लग रहा था. वह अगले स्टाप पर बस रुकने की प्रतीक्षा करने लगी ताकि पर्स से रुपए निकाल कर टिकट ले सके.   बस स्टाप जैसे ही निकट आया कि अचानक किसी ने पुरवा का पर्स खींचा और चलती बस से कूद गया. पुरवा जोरजोर से चिल्ला पड़ी, ‘‘मेरा पर्स, अरे, मेरा पर्स ले गया. कोई पकड़ो उसे,’’ उस के स्वर में बेचैनी भरी चीख थी.

पुरवा की चीख के साथ ही बस झटके से रुक गई और लोगों ने देखा कि तुरंत एक युवक बस से कूद कर चोर के पीछे भागा.

‘‘लगता है यह भी उसी चोर का साथी है,’’ बस में एकसाथ कई स्वर गूंज उठे.

बस रुकी हुई थी. लोगों की टिप्पणी बस में संवेदना जता रही थी. एक यात्री ने कहा, ‘‘क्या पता साहब, इन की पूरी टोली साथ चलती है.’’

तभी नीचे हंगामा सा मच गया. बस से कूद कर जो युवक चोर के पीछे भागा था वह काफी फुर्तीला था. उस ने भागते हुए चोर को पकड़ लिया और उस की पिटाई करते हुए बस के निकट ले आया.

‘‘अरे, बेटे, इसे छोड़ना मत,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पुलिस में देना, तब पता चलेगा कि मार खाना किसे कहते हैं.’’

उधर कुछ यात्री जोश में आ कर अपनेअपने हाथों का जोर भी चोर पर आजमाने लगे.

पुरवा परेशान खड़ी थी. एक तो पर्स छिनने के बाद से अब तक उस का दिल धकधक कर रहा था, दूसरे, कालिज पहुंचने में देर पर देर हो रही थी. बस कंडेक्टर ने उस चोर को डराधमका कर उस की पूरी जेब खाली करवा ली और फिर कभी बस में सूरत न दिखाने की हिदायत दे कर बस स्टार्ट करवा दी.

सभी यात्री महज उस बात से खुश थे कि चलो, जल्दी जान छूट गई, वरना पुलिस थाने में जाने कितना समय खराब होता.

युवक ने पुरवा को पर्स देते हुए कहा, ‘‘देख लीजिए, पर्स में पैसे पूरे हैं कि नहीं.’’

उस युवक के इस साहसिक कदम से गद्गद पुरवा ने पर्स लेते हुए कहा, ‘‘धन्यवाद, आप ने तो कमाल कर दिया.’’

‘‘नहीं जी, कमाल कैसा. इतने सारे यात्री देखते रहते हैं और एक व्यक्ति अपना हाथ साफ कर भाग जाता है, यह तो सरासर कायरता है,’’ उस युवक ने सारे यात्रियों की तरफ देख कर कहा तो कुछ दूरी पर बैठे एक वृद्ध व्यक्ति धीरे से बोल पड़े, ‘‘जवान लड़की देख कर हीरो बनने के लिए बस से कूद लिया था. हम बूढ़ों का पर्स जाता तो खड़ाखड़ा मुंह देखता रहता.’’

 

इस घटना के बाद तो अकसर दोनों बस में टकराने लगे. पुरवा किसी के साथ बैठी होती तो उसे देखते ही मुसकरा देती. यदि वह किसी के साथ बैठा होता तो पुरवा को देखते ही थोड़ा आगे खिसक जाता और उस से भी बैठ जाने का आग्रह करता. जब पहली बार दोनों साथ बैठे थे तो पुरवा ने कहा था, ‘‘मैं ने अपने मम्मीपापा को आप के साहस के बारे में बताया था.’’

‘‘अच्छा,’’ युवक हंस दिया, ‘‘आप को लगता है कि वह बहुत साहसिक कार्य था तो मैं भी मान लेता हूं पर मैं ने तो उस समय अपना कर्तव्य समझा और चोर के पीछे भाग लिया.’’

‘‘आप क्या करते हैं?’’ पुरवा ने पूछ लिया.

‘‘अभी तो फिलहाल इस दफ्तर से उस दफ्तर तक एक अदद नौकरी के लिए सिर्फ टक्करें मार रहा हूं.’’

‘‘आप तो बहुत साहसी हैं. धैर्य रखिए, एक न एक दिन आप अपने मकसद में जरूर कामयाब होंगे,’’ पुरवा को लगा, युवक को सांत्वना देना उस का कर्तव्य बनता है.

पुरवा के उतरने का समय आया तो वह हड़बड़ा कर बोली, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘कुछ भी पुकार लीजिए,’’ युवक मुसकरा कर बोला, ‘‘लोग मुझे सुहास के नाम से जानते हैं.’’

अगली बार एकसाथ बैठते ही सुहास ने पूछ लिया, ‘‘आप ने इतने दिनों में अपने बारे में कुछ बताया ही नहीं.’’

‘‘क्या जानना चाहते हैं? मैं एक छात्रा हूं. एम.ए. का अंतिम वर्ष है और मैं अंधमहाविद्यालय में संगीत  भी सिखाती हूं.’’

फिर बहुत देर तक दोनों अपनीअपनी पढ़ाई पर चर्चा करते रहे. विदा होते समय सुहास को याद आया, वह बोला, ‘‘आप का नाम पूछना तो मैं रोज ही भूल जाता हूं.’’

पुरवा मुसकरा दी और बोली, ‘‘पुरवा है मेरा नाम,’’ और चहकती सी बस से उतर गई.

एक दिन सुहास भी  उसी बस स्टाप पर उतर गया जहां पुरवा रोज उतरती थी तो वह चहक कर बोली, ‘‘आज आप यहां कैसे…’’

‘‘बस, तुम्हारे साथ एक कप चाय पीने को मन हो आया,’’ सुहास के स्वर में भी उल्लास था. फिर सुहास को लगा जैसे कुछ गलत हुआ है अत: अपनी भूल सुधारते हुए बोला, ‘‘देखिए, आप के लिए मेरे मुंह से तुम शब्द निकल गया है. आप को बुरा तो नहीं लगा.’’

पुरवा हंस दी. मन में कुछ मधुर सा गुनगुनाने लगा था. धीरे से बोली, ‘‘यह आज्ञा तो मैं भी चाहती हूं. हम दोनों मित्र हैं तो यह आप की औपचारिकता क्यों?’’

‘‘यही तो…’’ सुहास ने झट से उस की हथेली पर अपने सीधे हाथ का पंजा थपक कर ताली सी बजा दी, ‘‘फिर हम चलें किसी कैंटीन में एकसाथ चाय पीने के लिए?’’ सुहास ने आग्रह करते हुए कहा.

चाय पीते समय दोनों ने देखा कि कुछ लड़के इन दोनों को घूर रहे थे. सुहास का पौरुष फिर जाग उठा. उस ने पुरवा से कहा, ‘‘लगता है इन्हें सबक सिखाना पड़ेगा.’’

‘‘जाने दो, सुहास. समझ लो कुत्ते भौंक रहे हैं. सुबहसुबह उलझना ठीक नहीं है.’’

चाय पी कर दोनों फिर सड़क पर आ गए.

‘‘सुनो, सुहास,’’ पुरवा ने उसे स्नेह से देखा, ‘‘तुम्हें इतना गुस्सा क्यों आ रहा था कि उन की मरम्मत करने को उतावले हो उठे.’’

‘‘देख नहीं रही थीं, वे सब कैसे तुम्हें घूर रहे थे,’’ सुहास का क्रोध अभी तक शांत नहीं हुआ था.

‘‘मेरे लिए किसकिस से झगड़ा करोगे,’’ पुरवा ने उसे समझाने की चेष्टा की, लेकिन उस के मन में एक मीठी सी गुदगुदी हुई कि इसे मेरी कितनी चिंता है, मेरी मर्यादा के लिए मरनेमारने को तत्पर हो उठा.

धीरेधीरे कैंटीन में बैठ कर एकसाथ चाय पीने का सिलसिला बढ़ गया. अब दोनों के ड्राइंगरूम के फोन भी घनघनाने लगे थे. देरदेर तक बातें करते हुए दोनों अपनेअपने फोन का बिल बढ़ाने लगे.

दोनों जब कभी एकसाथ चलते तो उन की चाल में विचित्र तरह की इतराहट बढ़ने लगी थी, जैसे पैरों के नीचे जमीन नहीं थी और वे प्यार के आकाश में बिना पंख के उड़े चले जा रहे थे.

 

एक उच्च सरकारी पद से रिटायर हुए मकरंद वर्मा के 3 बेटे और एक बेटी थी. बेटी श्वेता इकलौती होने के कारण बहुत दुलारी थी. एक बार जो कह दिया वह पूरा होना ही चाहिए.

उन के लिए तो सभी बच्चे लाडले ही थे. उन का बड़ा बेटा निशांत डाक्टर और दूसरा बेटा आकाश इंजीनियर था. सब से छोटा बेटा सुहास अभी नौकरी की तलाश में था.

पढ़ाई में अपने दोनों बड़े भाइयों से अलग सुहास किसी तरह बी. काम. पास कर सका था. बस, तभी से वह लगातार नौकरी के लिए आवेदन भेज रहा है. कभीकभी साक्षात्कार के लिए बुलावा आ जाता है तो आंखों में सपने ही सपने तैरने लगते हैं.

मकरंद वर्मा की बूढ़ी आंखों में भी उत्साह जागता है. सोचते हैं कि शायद अब की बार यह अपने पैरों पर खड़ा हो जाए पर दोनों में से किसी का भी सपना पूरा नहीं होता.

सुहास खाली समय घर वालों का भाषण सुनने के बजाय बाहर वालों की सेवा करने में अधिक खुश रहता है. उस सेवा में मित्रों के घर उन के मातापिता को अस्पताल ले जाने से ले कर बस में चोरउचक्कों को पकड़ना भी शामिल है.

सुहास अपनी बहन श्वेता को कुछ अधिक ही प्यारदुलार करता है. श्वेता भी भाई का हर समय साथ देती है. मम्मी रजनी बाला अपनी लाडली बेटी को जेब खर्च के लिए जो रुपए देती हैं उन में से बहन अपने भाई को भी दान देती रहती है क्योंकि उसे पता है कि भाई बेकार है. अपने दोनों बड़े भाइयों की तरह जीवन में सफल नहीं है इसलिए उस की तरफ लोग कम ध्यान देते हैं. लेकिन श्वेता को पता है कि सुहास कितना अच्छा है जो उस का हर काम करने को तत्पर रहता है. बाकी दोनों भाई तो विवाह कर के अपनीअपनी बीवियों में ही मगन हैं. इसीलिए उसे सुहास ही अधिक निकट महसूस होता है.

 

मकरंद वर्मा को अपने दोनों छोटे बच्चों, श्वेता व सुहास के भविष्य की बेहद चिंता थी पर चिंता करने से समस्या कहां दूर होती है. श्वेता के लिए कई लड़के देखे, पर उसे सब में कुछ न कुछ दोष दिखाई दे जाता है. श्वेता रजनी से कहती है, ‘‘मम्मा, ये मोटी नाक और चश्मे वाला लड़का ही आप को पसंद करना था.’’

रजनी उसे प्यार से पुचकारतीं, ‘‘बेटी, लड़कों का रूपरंग नहीं उन का घरपरिवार और पदप्रतिष्ठा देखी जाती है.’’

इस तरह 1 से 2 और 2 से 3 लड़के उस की आलोचना के शिकार होते गए.

श्वेता को सहेलियों के साथ घूमना जितना अच्छा लगता था उस से कहीं अधिक मजा उसे अपने भाई सुहास को चिढ़ाने में आता था.

उस दिन रविवार था. शाम को श्वेता को किसी सहेली के विवाह में जाना था. कारीडोर में बैठ कर वह अपने लंबे नाखूनों की नेलपालिश उतार रही थी. तभी उस ने सुहास को तैयार हो कर कहीं जाते देखा तो झट से टोक दिया, ‘‘भैयाजी, आज छुट्टी का दिन है और आप कहां नौकरी ढूंढ़ने जा रहे हैं?’’

‘‘बस, घर से निकलो नहीं कि टोक देती है,’’ फिर श्वेता के निकट आ कर हथेली खींचते हुए बोला, ‘‘ये नाखून किस खुशी में इतने लंबे कर रखे हैं?’’

‘‘सभी तो करती हैं,’’ श्वेता ने हाथ वापस खींच लिया.

‘‘सभी गंदगी करेंगे तो तुम भी करोगी,’’ सुहास झुंझला गया.

‘‘कुछ कामधाम तो है नहीं आप को, बस, यही सब टोकाटाकी करते रहते हैं,’’ श्वेता ने सीधे उस के अहं पर चोट कर दी तो वह क्रोध पी कर बाहर दरवाजे की ओर बढ़ गया.

‘‘सुहास,’’ रजनी के स्वर कानों में पड़ते ही वह पलट कर बोला, ‘‘जी, मम्मी.’’

‘‘बिना नाश्ता किए सुबहसुबह कहां चल दिए?’’

‘‘मम्मी, एक दोस्त ने चाय पर बुलाया है. जल्दी आ जाऊंगा.’’

‘‘दोस्त से फुरसत मिले तो शाम को जल्दी चले आइएगा,’’ श्वेता बोली, ‘‘एक सहेली की शादी में जाना है. वहीं आप की जोड़ीदार भी खोज लेंगे.’’

‘‘मेहरबानी रखो महारानी. अपना जोड़ीदार खोज लेना, हमारा ढूंढ़ा तो पसंद नहीं आएगा न,’’ सुहास ने भी तीर छोड़ा और आगे बढ़ गया.

 

पुरवा जल्दीजल्दी तैयार हो रही थी तभी उस की मम्मी ने उसे टोका, ‘‘छुट्टी के दिन क्यों इतनी तेजी से तैयार हो रही है? आज तुझे कहीं जाना है क्या?’’

‘‘अरे मम्मा, तुम्हें याद नहीं, मुझे अंधमहाविद्यालय भी तो जाना है.’’

‘‘लेकिन आज, छुट्टी वाले दिन?’’ मम्मी ने उस के बिस्तर की चादर झाड़ते हुए कहा, ‘‘कम से कम छुट्टी के दिन तो अपना कमरा ठीक कर लिया कर.’’

‘‘वापस आ कर कर लूंगी, मम्मी. वहां बच्चों को नाटक की रिहर्सल करवानी है,’’ पुरवा ने चहकते हुए कहा और अपना पर्स उठा कर चल दी.

‘‘कम से कम नाश्ता तो कर ले,’’ मम्मी तकियों के गिलाफ सही करती हुई बोलीं.

‘‘कैंटीन में खा लूंगी, मम्मी,’’ पुरवा रुकी नहीं और तीव्रता से चली गई.

सुहास निश्चित स्थान पर पुरवा की प्रतीक्षा कर रहा था.

‘‘हाय, पुरवा,’’ पुरवा को देखते ही उल्लसित हो सुहास बोला.

‘‘देर तो नहीं हुई?’’ पुरवा ने उस की बढ़ी हुई हथेली थाम ली.

‘‘मैं भी अभी कुछ देर पहले ही आया था.’’

दोनों के चेहरे पर एक अनोखी चमक थी. पुरवा के साथसाथ चलते हुए सुहास ने कहा, ‘‘घर वालों से झूठ बोल कर प्यार करने में कितना अनोखा आनंद है.’’

‘‘क्या कहा, प्यार…’’ पुरवा चौंक कर ठहर गई.

‘‘हां, प्यार,’’ सुहास ने हंस कर कहा.

‘‘लेकिन तुम ने अभी तक प्यार का इजहार तो किया ही नहीं है,’’ पुरवा ने कुछ शरारत से कहा.

‘‘तो अब कर रहा हूं न,’’ सुहास ने भी आंखों में चंचलता भर कर कहा.

‘‘चलो तो इसी खुशी में कौफी हो जाए,’’ पुरवा ने मुसकरा कर कहा.

रेस्तरां की ओर बढ़ते हुए दोनों एकदूसरे के परिवार का इतिहास पूछने लगे. जैसे प्यार जाहिर कर देने के बाद पारिवारिक पृष्ठभूमि की जानकारी जरूरी हो.

‘‘सबकुछ है न घर में,’’ सुहास कौफी का आर्डर देते हुए हंस कर बोला, ‘‘मम्मीपापा हैं, 2 भाईभाभी, एक लाडली सी बहन, भाभियों का तो यही कहना है कि मम्मीपापा ने मुझे लाड़ में बिगाड़ रखा है लेकिन मैं किसी तरफ से तुम्हें बिगड़ा हुआ लगता हूं क्या?’’

पुरवा ने आगेपीछे से उसे देखा और गरदन हिला दी, ‘‘लगते तो ठीकठाक हो,’’ उस ने शरारत से कहा, ‘‘नाक भी ठीक है, कान भी ठीक जगह फिट हैं और मूंछें…तौबातौबा, वह तो गायब ही हैं.’’

‘‘ठीक है, मैडम, अब जरा आप अपनी प्रशंसा में दो शब्द कहेंगी,’’ सुहास ने भी उसे छेड़ने के अंदाज में कहा.

‘‘क्यों नहीं, महाशय,’’ पुरवा इतरा उठी, ‘‘मेरी एक प्यारी सी मम्मी हैं जो मेरी बिखरी वस्तुएं समेटती रहती हैं. पापा का छोटा सा व्यापार है. बड़े भाई विदेश में हैं. एक छोटा भाई था जिस की पिछले साल मृत्यु हो गई.’’

‘‘ओह,’’ सुहास ने दुखी स्वर में कहा.

 

इस के बाद दोनों गंभीर हो गए थे. थोड़ी देर के लिए दोनों की चहक शांत हो गई थी.

कौफी का घूंट भरते हुए सुहास ने पूछा, ‘‘क्या खाओगी?’’

‘‘जो तुम्हें पसंद हो,’’ पुरवा ने कहा.

‘‘यहां सुबहसुबह इडलीचटनी गरम सांभर के साथ बहुत अच्छी मिलती है.’’

‘‘ठीक है, फिर वही मंगवा लो,’’ पुरवा निश्ंिचत सी कौफी पीने लगी. मन में अचानक कई विचार उठने लगे. मम्मी से झूठ बोल कर आना क्या ठीक हुआ, आज तक जो कार्य नहीं किया वह सुहास की संगत पाने के लिए क्यों किया? यह ठीक है कि उसे अंधमहाविद्यालय के लिए नाटक की रिहर्सल करवानी पड़ती है, पर आज तो नहीं थी. उस ने सुहास की ओर देखा. इतने बड़े घर का बेटा है, पर दूसरों के दुख को अपना समझ कर कैसे सहायता करने को तड़प उठता है. उस के इसी व्यक्तित्व ने तो पुरवा का मन जीत लिया है.

इडलीसांभर आ चुका था. पुरवा ने अपनी प्लेट सरकाते हुए कहा, ‘‘मम्मी ने बड़े प्यार से हलवा तैयार किया था, पर मैं बिना नाश्ता किए ही भाग आई.’’

‘‘हाथ मिलाओ यार,’’ सुहास ने तपाक से हथेली बढ़ा दी, ‘‘मेरी मम्मा भी नाश्ते के लिए रोकती ही रह गईं, पर देर हो रही थी न, सो मैं भी भाग आया.’’

‘‘अरे वाह,’’ कहते हुए पुरवा ने पट से उस की हथेली पर अपनी कोमल हथेली रख दी तो उस का संपूर्ण शरीर अनायास ही रोमांचित हो उठा. यह कैसा विचित्र सा कंपन है, पुरवा ने सोचा. क्या किसी पराए व्यक्ति के स्पर्श में इतना रोमांच होता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. उस के मन ने तर्क किया. यह तो एक सद्पुरुष के प्यार भरे स्पर्श का ही रोमांच होगा. कितनी विचित्र बात है कि एक छोटी सी घटना जीवन को एक खेल की तरह अपनी डगर पर मोड़ती चली गई और आज दोनों को एकदूसरे की अब इतनी जरूरत महसूस होती है. शायद इसे ही प्यार कहते हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें