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Hindi Story : ‘स’ से सावधान रहें महिलाएं

Hindi Story : महिलाएं ‘स’ से सावधान रहें.’ हमारी यह चेतावनी शायद महिलाएं समझ गई होंगी. ‘स’ अक्षर से शुरू होने वाले शब्द उन के जीवन के लिए ‘डेंजर प्वाइंट’ जो बने हुए हैं.

महिलाओं का समयसमय पर अनेक शत्रुओं से साबिका पड़ता रहता है. इस में उन के अनुसार पहला नाम उन की ‘सास’ का होता है, जो उन्हें सांस भी नहीं लेने देती पर वर्तमान में सास से भी खतरनाक शत्रु ‘सार्स’ आ गया है.

इस सार्स का जन्म भले ही चीन में हुआ हो पर चीनी यानी ‘शुगर’ की बीमारी भी महिलाओं की साथी है. सिरदर्द उन का बड़ा शत्रु है जो पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को अधिक चपेटे में लेता है. महिलाएं  शृंगारप्रेमी होने के कारण स्वर्ण आभूषणों का प्रयोग सर्वाधिक करती हैं तो ‘सोने’ के आभूषणों से उन में एक तरह का डर भी बना रहता है. इस से बच कर नए शत्रु का सामना यानी ‘सफर’ करती हैं तो भारतीय ‘सड़क’ एक और शत्रु के रूप में आ टपकती है क्योंकि इन्हीं सड़कों की सघन आलियों में से संभव है स्वर्ण आभूषण के लुटेरे भी आ धमकें.

महिलाओं को अपनी ‘सहेलियों’ से भी कम खतरा नहीं है. विवाह से पहले उन का सनम उन की सहेलियों की ओर आकर्षित न हो जाए इसलिए वे डरती हैं और जब सनम सहेलियों को कोई ‘सौगात’ देते हैं तो इसे वे खतरे की घंटी मानती हैं. इसी बीच ‘सगाई’ नामक एक अन्य शत्रु सामने आ धमकता है. इस के ‘संक्रमण’ से बेचारी अभी निकल भी नहीं पातीं कि ‘सुहागरात’ को क्या होगा इस का डर सताने लगता है. और इस डर से वे अपने शरीर की महान ‘सुस्ती’ को साथी बना लेती हैं.

इन खतरों से उबर भी नहीं पाईं कि तभी रोजरोज का साथी शत्रु के रूप में ‘साजन’ सामने आ जाता है. इस डर को भगाने के लिए वह हमेशा ‘सजती- संवरती’ रहती हैं. हालांकि  यह ‘सजना- संवरना’ भी एक खतरा है. इस से ‘संदेह’ रूपी एक खतरनाक बीमारी उस के पतिदेव को लग जाना भी संभव है. यदि ऐसा हुआ तो उस के पतिदेव दूसरा विवाह कर उस की ‘सौत’ को लाते हैं.

सौत के नाम से तो महिलाएं वैसे ही ‘सपने’ में डरती हैं. अगर इतना सबकुछ हो जाए तो समझिए उन को जो ‘सदमा’ लगता है उस से वे जिंदगी भर उबर नहीं पातीं.

‘समाज’ भी महिलाओं के लिए बड़ा खतरा है. इस में दिखावे के लिए ये क्याक्या नहीं करतीं. संयुक्त परिवार द्वारा एक दबाव अनुभव कर के भी वे इस में बनी रहती हैं. आधुनिक महिलाओं के लिए ‘सिनेमा’ एक आर्थिक खतरा है. इस में प्रदर्शित किए गए कपड़ों को खरीदने के चक्कर में वे घर के जरूरी सामान भी खरीदना भूल जाती हैं. इस के लिए वे ‘सरहद’ पार भी चली जाती हैं.

महिलाएं पुरुषों से अधिक भावुक होती हैं. वे ‘संकट’ में फंसे व्यक्तियों को ‘संकट’ से छुटकारे के लिए ‘समझाने’ लगती हैं. यही समझाना एक शत्रु बन जाता है तथा उसे घर में ‘सफाई’ देनी पड़ती है.

अत: हम कह सकते हैं कि महिलाओं को सब से खतरनाक शत्रु ‘स’ से संपूर्ण जीवन संभल कर शान से बिना संदेह के निबटना चाहिए.

लेखक : दीपांशु जिंदल 

Hindi Story : अपना अपना वनवास

Hindi Story : एक बड़े महानगर से दूसरे महानगर में स्थानांतरण होने के बाद मैं अपने कमरे में सामान जमा रही थी कि दरवाजे की घंटी बजी. ‘‘कौन है?’’ यह सवाल पूछते हुए मैं ने दरवाजा खोला तो सामने एक अल्ट्रा माडर्न महिला खड़ी थी. मुझे देख कर उस ने मुसकरा कर कहा, ‘‘गुड आफ्टर नून.’’ ‘‘कहिए?’’ मैं ने दरवाजे पर खड़ेखड़े ही उस से पूछा. ‘‘मेरा नाम बसंती है. मैं यहां ठेकेदारी का काम करती हूं,’’ उस ने मुझे बताया. लेकिन ठेकेदार से मेरा क्या रिश्ता…यहां क्यों आई है?

ऐसे कई सवाल मेरे दिमाग में आ रहे थे. मैं कुछ पूछती उस के पहले ही उस ने कहना जारी रखते हुए बताया, ‘‘आप को किसी काम वाली महिला की जरूरत हो तो मैं उसे भेज सकती हूं.’’ मैं ने सोचा चलो, अच्छा हुआ, बिना खोजे मुझे घर बैठे काम वाली मिल रही है. मैं ने कहा, ‘‘जरूरत तो है…’’ पर मेरा वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि वह कहने लगी, ‘‘बर्तन साफ करने के लिए, झाडू़ पोंछा करने के लिए, खाना बनाने के लिए, बच्चे संभालने के लिए…आप का जैसा काम होगा वैसी ही उस की पगार रहेगी.’’

मैं कुछ कहती उस से पहले ही उस ने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘उस की पगार पर मेरा 2 प्रतिशत कमीशन रहेगा.’’ ‘‘तुम्हारा कमीशन क्यों?’’ मैं ने पूछा. ‘‘हमारा रजिस्टे्रेशन है न मैडम, जिस काम वाली को हम आप के पास भेज रहे हैं उस के द्वारा कभी कोई नुकसान होगा या कोई घटनादुर्घटना होगी तो उस की जिम्मेदारी हमारी होगी,’’ उस ने मुझे 2 प्रतिशत कमीशन का स्पष्टीकरण देते हुए बताया. ‘‘यहां तो काम…’’ ‘‘बर्तन मांजने का होगा, आप यही कह रही हैं न,’’ उस ने मेरी बात सुने बिना पहले ही कह दिया,

‘‘मैडम, कितने लोगों के बर्तन साफ करने होंगे, बता दीजिए ताकि ऐसी काम वाली को मैं भेज सकूं.’’ ‘‘तुम ने अपना नाम बसंती बताया था न?’’ ‘‘जी, मैडम.’’ ‘‘तो सुनो बसंती, मेरे घर पर बर्तन मांजने, पोंछने वाली मशीन है.’’ ‘‘सौरी मैडम, कपड़े साफ करने होंगे? तो कितने लोगों के कपड़े होंगे? मुझे पता चले तो मैं वैसी ही काम वाली जल्दी से आप के लिए ले कर आऊं.’’ ‘‘बसंती, तुम गजब करती हो. मुझे मेरी बात तो पूरी करने दो,’’ मैं ने कहा. ‘‘कहिए, मैडमजी.’’ ‘‘मेरे घर पर वाशिंग मशीन है.’’

‘‘फिर आप को झाड़ ूपोंछा करने वाली बाई चाहिए…है न?’’ ‘‘बिलकुल नहीं.’’ उस ने यह सुना तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ. कहने लगी, ‘‘कपड़े धोने वाली नहीं, बर्तन मांजने वाली नहीं, झाड़ ूपोंछे वाली नहीं, तो फिर मैडमजी…’’ ‘‘क्योंकि मेरे घर पर वेक्यूम क्लीनर है, बसंती.’’ ‘‘फिर खाना बनाने के लिए?’’ उस ने हताशा से अंतिम आशा का तीर छोड़ते हुए पूछा. ‘‘नो, बसंती. खाना बनाने के लिए भी नहीं, क्योंकि मैं पैक फूड लेती हूं और आटा गूंथने से ले कर रोटी बनाने की मेरे पास मशीन है,’’ मैं ने विजयी मुसकान के साथ कहा. उस के चेहरे पर परेशानी झलकने लगी थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इस नए घर से उसे 2 प्रतिशत की आमदनी होने वाली थी उस का क्या होगा.

उस ने हताशा भरे स्वर में कहा, ‘‘मैडमजी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि जब सबकुछ की मशीन आप के पास है तो आखिर आप को काम वाली महिला क्यों चाहिए? उस का तो कोई उपयोग है ही नहीं.’’ मुझे भी हंसी आ गई थी. मुझे हंसता देख कर उस की उत्सुकता और बढ़ गई. उस ने बडे़ आदर के साथ पूछा, ‘‘मैडमजी, बताएं तो फिर वह यहां क्या काम करेगी?’’

कुछ देर चुप रही मैं. उस ने अंतिम उत्तर खोज कर फिर कहा, ‘‘समझ गई.’’ ‘‘क्या समझीं?’’ ‘‘घर की रखवाली के लिए चाहिए?’’ ‘‘नहीं.’’ ‘‘बच्चों की देखरेख के लिए?’’ ‘‘नो, बसंती. मैं ने अभी शादी भी नहीं की है.’’ ‘‘तो मैडमजी, फिर आप ही बता दें, आप को काम वाली क्यों चाहिए?’’ अब मैं ने उसे बताना उचित समझा.

मैं ने कहा, ‘‘बसंती, पिछले दिनों मैं दिल्ली में थी और आज नौकरी के चक्कर में बंगलौर में हूं. मुझे अच्छी पगार मिलती है. मेरा दिन सुबह 5 बजे से शुरू होता है और रात को 11 बजे तक चलता रहता है. मेरी सहेली कंप्यूटर है. मेरे रिश्तेदार सर्वे, डाटा, प्रोजेक्ट रिपोर्ट हैं. सब सिर्फ काम ही काम है. मेरे घर में सब मशीनें हैं. मुझे एक महिला की जरूरत है जो मेरे खाली समय में मुझ से बातचीत कर सके. मुझे इस बात का एहसास कराती रहे कि मैं भी इनसान हूं. मैं भी जिंदा हूं. मैं मशीन नहीं… समाज का अंग हूं.’’

मैं ने उसे विस्तार से अपनी पीड़ा बताई. मेरी बात सुन कर वह ठगी सी रह गई. उस ने आगे बढ़ कर मुझ से कहा, ‘‘मैडमजी, आप को ऐसी काम करने वाली महिला मैं भी नहीं दिला पाऊंगी,’’ कह कर वह कमरे से निकल गई. मुझे लगा कि सब को अपनेअपने एकांत का वनवास खुद ही भोगना होता है. मैं फिर अपने कमरे का सामान जमाने में लग गई.

Game Changer : रामचरण व शंकर का हिंदी क्षेत्र में ब्रांड दांव पर

Game Changer : रेटिंग : 1 स्टार

निर्माता : दिल राजू और शिरीष
लेखक : कार्तिक सुब्बाराज, विवेक वेलमुरुगन, साईं माधव बुर्रा और शंकर
निर्देशक : एस. शंकर
कलाकार : रामचरण, कियारा आडवाणी, एसजे सूर्या, अंजलि, श्रीकांत, सुनील और ब्रह्मानंदन आदि।
अवधि : 2 घंटे 44 मिनट

हिंदीभाषी क्षेत्रों में तेलुगु फिल्मों के निर्देषक शंकर और अभिनेता रामचरण की अपनी एक पहचान और एक ब्रैंड वैल्यू है, मगर ‘इंडियन’, ‘अन्नियन’ और ‘ऐंधिरन’ जैसी अति सफलतम फिल्मों के निर्देशक एस शंकर की कुछ माह पहले प्रदर्षित फिल्म ‘इंडियन 2’ बुरी तरह से असफल हो चुकी है. 10 जनवरी, 2025 को रिलीज हुई उन की दूसरी फिल्म ‘गेम चेंजर’ के भी बौक्स औफिस पर आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं.

यों तो फिल्म निर्देशक एस शंकर हमेशा एक समय में एक ही फिल्म निर्देशित करते रहे हैं, मगर फिल्म ‘इंडियन 2’ की शूटिंग के दौरान एक हादसा हो गया था, जिस के बाद एस शंकर ने ‘इंडियन 2’ की शूटिंग रोक कर रामचरण के साथ फिल्म ‘गेम चेंजर’ की शूटिंग शुरू कर दी थी. पर फिल्म ‘इंडियन 2’ की निर्माण कंपनी ‘लाइका प्रोडक्शन’ अदालत पहुंच गई थी। ऐसे में, एस शंकर ने ‘इंडियन 2’ और ‘गेम चेंजर’ दोेनों की शूटिंग एकसाथ की थी और एस शंकर भटक गए. वे दोनों फिल्मों पर से अपनी पकड़ खो बैठे.

‘इंडियन 2’ की बौक्स औफिस पर बड़ी बुरी दुर्गति हुई थी, जबकि ‘गेम चेंजर’ देख कर एहसास हुआ कि यह फिल्म भी अच्छी नहीं बनी है. यहां पर एस शंकर के लिए लोग कह रहे हैं,”दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम…’’

10 जनवरी,2025 को प्रदर्षित हुई फिल्म ‘गेम चेंजर’ भी मूलतया तेलुगु फिल्म है, जिसे हिंदी व तमिल में डब कर के प्रदर्षित किया गया है. फिल्म ‘गेम चेंजर’ में अप्पा अन्ना और उन के बेटे व आईएएस औफिसर राम नंदन के दोहरे किरदार को निभाने वाले अभिनेता रामचरण ने कुछ दिन पहले मुंबई आगमन पर कहा था कि इस फिल्म से निर्देशक एस शंकर के साथ काम करने का उन का एक सपना पूरा हो गया, जबकि यह सौभाग्य अब तक उन के पिता व अभिनेता चिरंजीवी को नहीं मिल पाया है.

कहानी : यह कहानी विषाखापट्टनम, आंध्र प्रदेश के नवनियुक्त आईएएस अधिकारी राम नंदन और भ्रष्ट राजनीतिक वर्ग मोपादेवी (एसजे सूर्या) और माणिक्यम (जयराम) से टकराव की है. मगर फिल्म शुरू होती है उत्तर प्रदेश के गुटखा माफिया को तबाह करने वाले आईपीएस राम नंदन के आईएएस बन कर नई नियुक्ति पर विशाखापट्टनम जाते हुए जब गुटखा माफिया के गुंडे उन्हें रास्ते में ट्रेन रोक कर उन से मारामारी करते हैं, पर सब जेल पहुंच जाते हैं.

राम नंदन अपनी ईमानदारी और अपने काम के प्रति समर्पण के लिए प्रसिद्ध हैं. उन का विरोध करने वाली प्रमुख ताकत मुख्यमंत्री सत्यमूर्ति (श्रीकांत) के बेटे बोब्बिली मोपादेवी (एसजे सूर्या) हैं, जो अवैध गतिविधियों में शामिल हैं. जैसाकि अपेक्षित था, बोब्बिली मोपादेवी झूठे आरोपों के साथ राम नंदन को कमजोर करने की योजना बनाते हैं. तो वहीं मोपीदेवी अस्पताल में अपने पिता को मार कर मुख्यमंत्री पद हथियाते लेते हैं, पर पता चलता है कि मुख्यमंत्री सत्यमूर्ति राम नंदन को अपना वारिस घोषित कर गए हैं.

इंटरवल के बाद जब कहानी में फ्लैशबैक आता है। तब राम नंदन के पिता अप्पा अन्ना जोकि हकलाते हैं, खदान मालिकों के खिलाफ आंदोलन करते हैं. नेतागिरी चमक जाती है तो ‘अभ्यूदय’ नाम राजनीतिक पार्टी बनाते हैं. फिर अपने हकलाने की वजह से सार्वजनिक मंच पर पार्टी के एक आम कार्यकर्ता को भाषण देने के लिए आगे बढ़ाते हैं. वह उद्योगपतियों से चंदा न लेने की कसम खाते हैं. पार्टी के पोस्टर, बैनर और कटआउट के खिलाफ हैं. लेकिन, पार्टी के सत्ता तक पहुंचने के रास्ते में पार्टी कार्यकर्ता यानी कि मोपादेवी के पिता सत्यमूर्ति द्वारा उद्योगपतियों के हाथों बिक कर उस पार्टी को हथियाने व अपर्णा की हत्या करने तक की कहानी सामने आती है.

फिर राम नंदन और मोपादेवी द्वारा एकदूसरे को मात देने का खेल शुरू होता है. फिल्म का अंत राम नंदन के मुख्यमंत्री बनने और लोकलुभावन भाषण के साथ होता है.

समीक्षा : फिल्म ‘गेम चेंजर’ की शुरुआत बहुत ही ज्यादा कन्फ्यूजन पैदा करने वाली व कमजोर है. कहानी के स्तर पर कुछ भी नयापन नहीं है. वह राजनीतिक भ्रष्टाचार व अन्य भ्रष्टाचार के ही इर्दगिर्द अपनी फिल्मों की कहानियां बुनते आए हैं. ‘इंडियन’, ‘इंडियन 2’ के बाद अब ‘गेम चेंजर’ की भी कहानी कमोवेश वही है. ‘गेम चेंजर’ में संविधान व वर्तमान में चर्चित चुनाव आयोग को भी कहानी में पिरो दिया गया है. फिर फर्जी मतदान से ले कर मतपेटियों की तोड़फोड़ सबकुछ है. लेकिन इंटरवल से पहले कहानी बहुत ही ज्यादा कमजोर और बोरियत पैदा करने वाली है. फिल्म में आईएएस अफसर बन कर राम नंदन अपनी कुर्सी पर बैठने के पहले ही दिन जिस तरह से कदम उठाते हैं। उस से फिल्म ‘नायक’ के अनिल कपूर की याद आ जाती है और यह बहुत ही ज्यादा बचकाना भी लगता है.

एक ही दिन में भ्रष्ट अधिकारी को उस के पद से हटाने, पूरे शौपिंग मौल को जमींदोस्त करने से ले कर राशन की दुकानों के आसपास के भ्रष्टाचार को खत्म कर देते हैं.

यों भी एस शंकर की हर फिल्म में हीरो कभी भी किसी रौबिनहुड से कमतर नहीं रहा. अब वह राम चरण अभिनीत फिल्म ‘गेम चेंजर’ में भी राजनीतिक भ्रष्टाचार और मुख्यमंत्री की कुर्सी को ले कर हो रही खींचतान के साथ नायक को रौबिनहुड की तरह पेश करने में पीछे नहीं रहे. लेकिन इस फिल्म में अविश्वसनीय घटनाक्रमों की भरमार है, तो वहीं फिल्म देखते समय दर्शकों को अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ा गया आंदोलन से ले कर अरविंद केजरीवाल के दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने तक की सारी कहानी भी याद आ जाए, तो कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं होगी.

फिल्म का क्लाइमैक्स भी घटिया है. वास्तव में ‘इंडियन 2’ और ‘गेम चेंजर’ को निर्देशक एस शंकर ने एकसाथ फिल्माया है और दोनों फिल्मों का सब्जैक्ट भी लगभग एक जैसा ही है, इसलिए ‘गेम चेंजर’ के अंतिम 1 घंटे में वह पूरी तरह से भटके हुए नजर आते हैं. ऐसा लगता है जैसे कि वह अपनी फिल्म पर से नियंत्रण खो चुके हैं.

‘गेम चेंजर’ में मतदान करना अनिवार्य किए जाने की बात करते हुए मतदान करने के महत्त्व पर भी रोशनी डाली गई है.

इंटरवल के बाद घटनाक्रम तेजी से बदलने शुरू होते हैं. पर ज्यादातर दृश्य कपोलकल्पित ही हैं, जिन का वास्तविकता या लौजिक से कोई लेनादेना नहीं. कई बार ऐसा लगता है कि निर्देशक ने कुछ मुद्दों पर कुछ दृश्य फिल्मा लिए, फिर उन्हें ऐडिटिंग टेबल पर जुड़वा कर एक फिल्म की शक्ल दे डाली. बीचबीच में अनावश्यक रूप से गाने ठूंस दिए गए हैं जो कहानी को आगे बढ़ाने की बजाय व्यवधान पैदा करते हैं. राम नंदन और डाक्टर दीपिका की प्रेमकहानी भी ठीक से विकसित नहीं की गई. इतना ही नहीं, एक आईएसएस औफिसर व मुख्यमंत्री के बीच टकराव भ्रष्टाचारमुक्त समाज के लिए जरूरी है, मगर इस फिल्म में निर्देशक की अपनी कमजोरी के चलते यह टकराव निजी दुश्मनी जैसी प्रतीत होती है. कुछ एक्शन सीन दमदार हैं पर इस में कौमेडी वही पुराने अंदाज वाली है.

अभिनय : 2022 में प्रदर्शित मल्टीस्टारर फिल्म ‘आरआरआर’ में अभिनय कर रामचरण ने हिंदीभाषी दर्शकों के बीच अच्छी पैठ बनाई थी. अब वह ‘गेम चेंजर’ में सोलो हीरो बन कर हिंदीभाषी दर्शकों के बीच अपनी ‘पैन इंडिया’ स्टार की छवि को पुख्ता करना चाहते हैं, पर ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है. रामचरण में अभिनय को ले कर सीमित प्रतिभा है. दूसरी बात, उन्हें पटकथा से भी कोई मदद नहीं मिली. अधिकतर दृश्यों में उन के भाव एकसमान ही रहते हैं. डाक्टर दीपिका के किरदार में किआरा अडवाणी सिर्फ सुंदर नजर आई हैं. उन के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. निर्देशक शंकर का सारा फोकस तो रामचरण पर ही रहा. मोपा देवी के किरदार में अभिनेता एसजे सूर्या तारीफ बटोर ले जाते हैं. अंजलि ने अपनी भूमिका अच्छी तरह से निभाई है.

Hindi Story : सरकारी इनाम

Hindi Story : चौधरी हरचरन दास के बुलाने पर हरिया फौरन हाजिर हो गया. चौधरी साहब निवाड़ के पलंग पर बैठे हुक्का पी रहे थे. चौपाल पर दीनू, बीसे, बांके, बालकिसन और जगदंबा परसाद भी बैठे गप्पें हांक रहे थे. हरिया ने नीची निगाहों से चौधरी साहब को हाजिरी दी. चौधरी साहब ने हुक्के की नली दांतों से पकड़ी और दाईं आंख को कुछ ज्यादा खोल कर हरिया की ओर देखा. हरिया ने जुहार की तो चौधरी साहब के होंठ थोड़े फैल कर पुन: सिकुड़ गए.

‘‘हुकम करो मालिक,’’ हरिया ने बुलाने का कारण जानना चाहा.

‘‘हुकम तो तुम करोगे हरीप्रसादजी, हम तो तुम्हारे गुलाम हैं,’’ चौधरी साहब ने हुक्के को मुंह में ठूंसे हुए ही जवाब दिया.

‘‘आप माईबाप हैं…हम तो गुलाम हैं, हजूर. कोई कुसूर हो गया, मालिक?’’ हरिया ने पिचकते पेट को जरा और अंदर खींच कर पूछा.

‘‘नहीं रे, कुसूर तो हम से हुआ है. हम ने तुम्हें काम दिया था न, उसी का इनाम मिला है हमें. तुम्हें रोटीरोजी दे कर जो अधर्म किया है उस का प्रायश्चित्त करना है हम को. सरकार बड़ी दयालु है रे हरिया. वह तुम जैसे सीधेसच्चे गरीबों को ऊंचा उठाना चाहती है और हम जैसे पापी, नीच लोगों की अक्ल दुरुस्त करना चाहती है.’’

हरिया खड़ाखड़ा थूक निगल रहा था. उस की समझ में आ गया था कि  चौधरी साहब किसी बात पर गुस्सा हैं, लेकिन उस ने तो कुछ भी ऐसावैसा नहीं किया. कल दिन छिपने तक काम किया था. रामेसर के ससुरजी का सामान दिल्लीपुरा तक राजीखुशी पहुंचा दिया था. फिर क्या बात हो गई?

‘‘हरी प्रसादजी, तुम सोच रहे होगे कि चौधरी कैसी उलटीसीधी बक रहा है. अब असली बात सुनो. सरकारी आदेश आया है कि हरी प्रसाद वल्द गया प्रसाद, गांव छीछरपुर, तहसील न्यारा, जिला बदायूं, जो सरकारी योजना के अंतर्गत 320-ए 93 के अंतर्गत प्रार्थी है, के प्रार्थनापत्र को स्वीकार करते हुए उसे 7 बीघा जमीन दी जाती है. इस जमीन का पट्टा पटवारी, न्यारा तहसील के मारफत फाइल करने को भेजा गया है तथा गांव छीछरपुर के पश्चिम नाले के ऊपर 1981 बी के मद से बजरिये पटवारी 7 बीघा जमीन हरी प्रसाद को दी जाएगी,’’ चौधरी ने कागज पढ़ा और फिर संभाल कर जेब में रख लिया.

झुकी गरदन को थोड़ा उठा कर हरिया ने इस का मतलब जानना चाहा.

‘‘अरे बेवकूफ की दुम, सरकार ने 10 पुश्तों से चली आ रही हमारी जोत की धरती में से 7 बीघा जमीन तुम्हें दे दी है. पटवारी राम प्रकाश यह कागज पकड़ा गया है हमें. बोल, कब से संभाल रहा है अपनी जमीन?’’

‘‘मालिक, मैं कैसे संभालूंगा जमीन को? मुझ में ऐसी औकात कहां है?’’

‘‘क्यों? सरकारी दफ्तर में जा कर दरख्वास्त देने की औकात थी तेरी?’’

‘‘माईबाप, मैं ने नहीं दी थी दरख्वास्त. वह तो हरिद्वारीलाल ने अपने मन से लिखी थी.’’

‘‘तेरे दस्तख्त नहीं थे उस पर?’’

‘‘अंगूठा चिपकवाया था हरिद्वारी ने. कहा था कि सरकार सहायता करेगी.’’

‘‘अच्छा, तो सरकारी जमीन दिल्ली से बन के आती और तुम जहां कहते वहां बिछा दी जाती, क्यों?’’

हरिया किसी पेड़ की तरह जड़ हो रहा था. वह जानता था कि चौधरी को गुस्सा आ गया तो जमीन जिंदा गड़वा देंगे, ‘‘अब हम क्या करें मालिक?’’ उस ने झिझकते हुए कहा.

‘‘अरे करेगा क्या? पीली पगड़ी बांध, मिठाई खिला सब को. हम ने तो पटवारी से कह दिया कि तुम जानो तुम्हारा काम जाने. हम हटा लेते हैं अपने हलबैल वहां से. कोई और हमारी धरती की तरफ देखता भी तो आंखें निकाल लेते, लेकिन सरकारी मामला है.

‘‘क्या मैं समझ नहीं रहा हूं कि यह सब तमाशा घनश्याम चौधरी करवा रहा है? पिछले चुनाव की सारी कसर निकाल लेना चाहता है. खैर, अपनीअपनी तूबड़ी है, आज तू बजा ले, कल हम बजाएंगे. अच्छा तो भैया, हरीप्रसादजी, आज से तुम भी जमींदार हो गए. हमारी जमात में आ गए. अब हमारे यहां से तुम्हारी छुट्टी. अब नौकर बन कर नहीं, मालिक बन कर रहो. जाओ भैया, जा कर देख आओ अपनी जमीन. अगले महीने तहसील में मुख्यमंत्रीजी आएंगे. वहां बड़े समारोह में तिलक लगा कर तुम्हें धरती का राज सौंपेंगे. बड़े भाग्यवान हो, हरी प्रसाद. जाओ भैया, जाओ.’’

हरिया चौपाल से निकला. उस के जैसे पंख निकल आए थे. वह उड़ान भरता हुआ अपने नीड़ पर आ पहुंचा. झोंपड़ी में उस की पत्नी नत्थी 4 बच्चों को समेटे पड़ी थी. रात को चूल्हा जलने की उम्मीद में दिन कट ही जाता था. दिन भर मां बच्चों को लोरियां सुनाती और बच्चे कहानी सुनतेसुनते सो जाते.

झोंपड़ी में घुस कर उस ने बड़े प्यार से नत्थी की कमर पर एक लात जमाई. ‘‘अरे उठ री, देख नहीं रही कि हरी प्रसादजी आए हैं?’’

नत्थी ने अपना मैला घाघरा समेटा और बैठ गई. सामने हरिया तन कर खड़ा था. उस के पिचके गालों में हवा भरी थी और बुझीबुझी आंखों में फुलझड़ी सी जल रही थी. उस का होहल्ला सुन कर और तेवर देख कर नत्थी ने समझा कि आज जरूर इस पर बड़े पीपल वाला जिन्न सवार हो गया है. उस ने परीक्षा करनी चाही.

‘‘कौन है रे तू?’’

‘‘मैं जमींदार हरी प्रसाद हूं.’’

‘‘कहां से आया है?’’

‘‘हवेली से आया हूं.’’

नत्थी ने लपक कर कोने में पड़ा डंडा उठा लिया. फिर बिफर कर बोली, ‘‘तेरा सत्यानास हो जमींदार के बच्चे. इस दरिद्र की कोठरी में क्या झख मारने आया है? अरे नासपीटे, यहां तो चूहे भी व्रत रखते हैं. यहां क्या अपनी ऐसीतैसी कराएगा?’’

हरिया समझ गया कि ज्यादा नाटक दिखाया तो अभी पूजा हो जाएगी. वह धम से बैठ गया, फिर अपनी प्यारी हृदयेश्वरी नत्थी को सीने से लगाता हुआ बोला, ‘‘हमारे भाग खुल गए हैं रे नथनिया!’’

नत्थी ने आंखें खोल कर अपने मर्द को देखा, ‘‘लाटरी खुली है, नथनी. सरकार ने 7 बीघा जमीन का मालिक बनाया है तेरे हरी प्रसाद भुक्खड़ को.’’

नत्थी अभी भी उसे टुकुरटुकुर देख रही थी. धीरेधीरे हरिया ने सारी रामकहानी सुना दी. नत्थी का पोरपोर खुशी से भीग उठा था. अपना कालाकलूटा हरिया सचमुच किसी राजकुमार की तरह सुंदर लग रहा था उसे. सारी रात आगामी योजना पर विचार होता रहा.

सुबह उठ कर हरिया को चिंताओं ने आ घेरा. हलबैल कहां से आएगा? बीज के लिए पैसा, कटाई, खलियान, गोदाम…यह सब कहां से होगा?

वह चौधरी साहब के दरवाजे जा पहुंचा. चौधरी साहब के हाथ में पीतल की कटोरी थी. वह सवेरेसवेरे कच्चा दूध पीते थे.

‘‘पां लागन, मालिक.’’

‘‘जै राम जी की. हरिया, क्या हुआ रे? रात को नींद तो आई न?’’

‘‘हां मालिक, एक बात पूछनी थी. मुझे हलबैल और बीज, पानी की मदद तो करेंगे न?’’

‘‘अरे, क्यों नहीं, बस तुम्हें 2-4 कागजों पर अंगूठा मारना होगा. हम सबकुछ कर देंगे. चाहो तो कल से ही जोत लो जमीन. पट्टा तो मिल ही जाएगा. सरकार का कानून तो मानना ही होगा न.’’

हरिया ने अपनी धरती पर जीजान लगा दी. नाले से लगी वह धरती वर्षों से अछूती पड़ी थी. 2 महीने में ही धरती चमेली के फूल सी खिल उठी.

एक दिन चौधरी साहब ने उसे बुला कर बताया कि कल तहसील में मंत्रीजी पधार रहे हैं. सभी लोगों को उन के पट्टों के कागज दिए जाएंगे. उसे भी उन के साथ तहसील चलना होगा.

अगले दिन सुबह पगड़ी कस कर, मूंछों पर असली घी का हाथ फेर कर वह मेले के लिए तैयार हुआ. चौधरी साहब उसे अपने साथ बैलगाड़ी पर बैठा कर ही ले गए.

मेले में बड़ा मजा आया. मंत्रीजी ने ढेर सारे गरीब लोगों को जमीन के पट्टे बांटे. उस की बारी आई तो वह तन कर खड़ा हो गया. मंत्रीजी ने उस से पूछा कि जमीन का क्या करेगा, तो उस ने बताया कि जमीन तो उसे पहले ही सौंप दी गई है और चौधरी साहब ने हलबैल दे कर उस की पूरी मदद की है.

मंत्रीजी ने चौधरी हरचरनजी को मंच पर बुलवाया. सभा को संबोधित करते हुए कहा कि चौधरी साहब महान देशभक्त हैं. देश को उन जैसे महान व्यक्ति पर गर्व होना चाहिए जिन्होंने हरिया जैसे सर्वहारा और गरीब मजदूर को अपनी जमीन खुशीखुशी दी और जुताई- बोआई में भी उस की सहायता की.

मंत्रीजी ने अपने गले से उतार कर फूलों का हार चौधरी साहब के गले में डाल दिया. चारों ओर ‘चौधरी साहब जिंदाबाद’ के नारे लगने लगे.

दूसरे दिन हरिया जब चौधरी साहब के यहां बैल लेने गया तो परभू काका ने बैल देने से इनकार कर दिया. कहा कि चौधरी साहब का हुक्म नहीं है.

वह दौड़ादौड़ा हवेली में गया.  हरिया को देख कर उन्होंने भौंहें चढ़ा लीं. जब हरिया ने परभू काका की शिकायत की तो चौधरी साहब बही हाथ में ले कर पलंग पर बैठ गए. हरिया हाथ जोड़ कर जमीन पर उकडूं बैठ गया.

‘‘देख बच्चू, तेरा खाता अब ज्यादा हो गया है. तुझे जमीन का पट्टा आज मिला है और तू 3 महीने से हमारी जमीन पर कब्जा किए है. 1 हजार रुपया माहवार किराए के हिसाब से 3 हजार तेरे खाते में जमा है. हलबैल का किराया 5 रुपया रोज के हिसाब से 450 रुपए और ट्यूबवैल के पानी के 300 रुपए. कुल मिला कर 4 हजार रुपए तुझ पर कर्ज हैं. इस के एवज में हम तेरी 7 बीघा जमीन रेहन रख लेते हैं.

‘‘2 रुपए की दर से 80 रुपए का ब्याज तुझे देना है. कल से हमारे खेत पर काम कर के अपना रुपया भर देना. हम तेरी तनख्वाह बढ़ा कर पूरे 100 रुपए कर देते हैं. अब 80 रुपए काट कर 20 रुपए तुझे नगद मिलेंगे. कुछ चनाचबैना भी दे देंगे. जब भी तेरे पास हो मूल रकम का हिसाब कर देना.

‘‘चल, आज से ही हमारे खेत पर काम करना चालू कर दे. और हां, देख, ज्यादा समझदार बनने की कोशिश मत करना. दिल्ली वाले सरकारी आफिसर खाली नहीं बैठे. मंत्रीजी के माथे सौ काम हैं. सरकार को रोजरोज छीछरपुर आने की फुरसत नहीं है. ज्यादा ऊंचा उछलेगा तो हलदीचूना भी उधार न मिलेगा.’’

‘‘लेकिन मालिक, वह पट्टा तो मेरे नाम है,’’ हरिया बड़ी मुश्किल से इतना ही बोल सका.

‘‘भूल जा बच्चू, भूल जा. सबकुछ भूल जा. तू ने ढेर सारे अंगूठे छापछाप कर सब काम सही कर दिए हैं. वे सब फिर हमारे नाम हो जाएंगे. फिर तू इस की परवाह क्यों करता है? तू फौरन अपने काम पर लग जा.’’

हरिया के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह गरदन झुका कर चुपचाप खेत पर चला गया.

कुछ दिनों बाद हरिया एकाएक गायब हो गया. नीचे के तबके में कानाफूसी हुई कि शायद सरकार के पास गया है, न्याय ले कर आएगा.

4 दिन बाद 3 कोस दूर, हरी बाबा के अखाड़े के पीछे वाले नाले में उस की सड़ी हुई लाश दीनू चरवाहे ने देखी थी. सब ने जाना, लेकिन किसी ने कुछ भी नहीं कहा.

लेकिन कर्ज तो पूरा होना ही है. इसलिए अब नत्थी चौधरी साहब के घर की टहल करती है और उस के 2 बच्चे खेत में पसीना बहाते हैं. सुना है वह फिर एक बच्चे को जन्म देने वाली है.

Trending Debate : 90 घंटे काम तो कब आराम ?

Trending Debate : लार्सन एंड टूब्रो कंपनी के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यम के वर्कप्लेस पर हफ्ते में 90 घंटे काम करने वाले बयान पर गरमागरम बहस छिड़ी हुई है. कोई सुब्रह्मण्यम को गरिया रहा है तो कोई उन का समर्थन कर रहा है.

दिल्ली स्थित एक पोस्ट औफिस में शाम 4.45 पर लता एक जरूरी पत्र स्पीड पोस्ट करवाने पहुंची. काउंटर पर बैठी महिला ने उन से कहा, “आप को जल्दी आना चाहिए. अब तो स्पीड पोस्ट नहीं हो रही है.”

लता ने कहा, “अभी तो 5 बजने में पूरे 15 मिनट बाकी हैं. अभी से कैसे बंद हो गया? मैं सुबह जब साढ़े दस बजे आई थी तब आप की सीट खाली पड़ी थे. पता चला आप देर से आती हैं. 10 मिनट इंतजार कर के मैं अपने औफिस चली गई. अब भी मैं समय से आई हूं तो आप कह रही हैं कि जल्दी आना चाहिए?

“मैडम आप कल आइएगा. मैं सारे पैसे काउंट कर के भीतर जमा कर आई हूं. आज का हिसाब पूरा हो गया है. आप की वजह से मुझे फिर से हिसाब कर के भीतर जमा करना पड़ेगा.”

“तो आप को 5 बजे के बाद हिसाब करना चाहिए. पोस्ट औफिस तो 5 बजे बंद होता है. आपने पहले क्यों कर दिया?”

जब काउंटर पर बैठी महिला कर्मचारी ने स्पीड पोस्ट करने से साफ मना कर दिया तब लता ने पोस्ट औफिस के मैनेजर से लिखित में उस की शिकायत कर दी. यही नहीं उन्होंने फेसबुक पर भी यह बात वायरल कर दी. अगले दिन उस महिला कर्मचारी को उस काउंटर से हटा दिया गया. हालांकि इस से उस की कामचोरी की आदत नहीं जाएगी. वह जिस सीट पर होगी वहां समय से पहले ही काम बंद कर देगी.

यह हाल एक पोस्ट औफिस का नहीं, बल्कि अधिकांश सरकारी दफ्तरों का है. कर्मचारी न तो समय से अपनी सीट पर पहुंचते हैं, न ही पूरे वक़्त काम करते हैं. 5 बजने से पहले ही सीट से उठ कर चलते बनते हैं. जाड़ों के दिनों में तो अधिकांश दफ्तरों के कर्मचारी दोपहर की धूप खाने के लिए घंटों अपनी सीट से गायब रहते हैं. कुछ दफ्तर के बाहर मूंगफली खाते या चाय पीते नजर आते हैं.

भारत की धरती को धर्म की धरती कहा जाता है. यहां सदियों से ऋषिमुनियों, साधुसंतों को बहुत मान सम्मान दिया जाता है. उन्हें सिरमाथे पर बिठाया जाता है. पर ज़रा गंभीरता से सोचें तो क्या इन लोगों की देश के विकास में कोई भूमिका है? क्या वे किसी प्रकार का श्रम करते हैं? क्या वे अपनी मेहनत का खाते हैं? नहीं. ये निठल्ले लोग हैं, मेहनत मशक्कत और जिम्मेदारियों से दूर भागे लोग हैं. ये सिर्फ दूसरों की मेहनत की कमाई खाते हैं और हम इन्हें सिरमाथे पर बिठाते हैं. हमारे देश में न काम करने वालों को सिर पर चढ़ा कर रखा जाता है.

हम बेटी के लिए रिश्ता ढूंढते हैं तो चाहते हैं कि लड़का सरकारी नौकरी वाला मिल जाए. क्यों? क्योंकि वहां फुर्सत ज़्यादा है. पैसा अधिक है. ऊपरी कमाई है. हम मेहनती और काम में व्यस्त रहने वाले लड़के की जगह एक निठल्ला और कामचोर दामाद चाहते हैं. यह हम भारतीयों की मानसिकता है जो धर्म से प्रेरित है. हम आरामतलब लोग हैं और इसीलिए विकास के मार्ग पर कछुआ चाल चल रहे हैं.

प्राइवेट नौकरियों वाले समय के अभाव का रोना रोते हैं परन्तु देश अगर कुछ तरक्की कर रहा है तो उस का श्रेय प्राइवेट सैक्टर को ही जाता है. सरकार भी जानती है कि उस के कर्मचारी जो काम 100 दिन में करेंगे, प्राइवेट आदमी दो दिन में कर देगा. यही वजह है कि अधिकांश सैक्टर चाहे रेलवे हो, विद्युत या इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट सब प्राइवेट हाथों में चले गए हैं. वहां कम्पटीशन ज्यादा है. इसलिए कर्मचारियों के लिए काम के घंटे ज्यादा हैं.

मुंबई की लोकल ट्रेनों में औफिस से घर लौटने वाली महिलाओं को अपनी सीट पर बैठ कर सब्जी काटते हुए भी देखा जाता है क्योंकि घर पहुंचतेपहुंचते उन्हें इतनी देर हो जाती है कि परिवार के लिए खाना बनाने का थोड़ा सा समय बचता है. कई कर्मचारी तो रोड साइड पर बने ढाबों से पकी हुई सब्जी दाल खरीद कर ले जाते हैं ताकि घर पहुंच कर सिर्फ रोटी ही बनानी पड़े. इन कर्मचारियों के पास इतना समय ही नहीं बचता कि वे अपने बच्चों के साथ कुछ क्वालिटी टाइम बिता सकें. उन के साथ शाम को कहीं घूमने जा सकें. या उन की पढ़ाई के विषय में ही कुछ पूछ सकें.

रेखा एक रियल एस्टेट कंपनी में काम करती है. उस का औफिस सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक है. आएदिन औफिस के बाद मीटिंग्स होती हैं या उस को क्लाइंट वगैरह से मिलने जाना होता है. जिस के चलते घर लौटते लौटते कई बार तो 10 बज जाते हैं. घर लौट कर भी रेखा अपने लैपटौप पर लगी रहती हैं. उस की पगार अच्छी है. पति से तलाक हो चुका है क्योंकि इतनी अच्छी पगार छोड़ कर वह घर संभालने का काम नहीं करना चाहती थी. उस के काम के घंटे तय नहीं हैं. मगर पगार अच्छी होने के कारण उस को अपना काम बोझ नहीं लगता. वह विभिन्न लोगों से मिलती है, औफिस की पार्टियां एन्जोय करती है. क्योंकि उस ने अपने ऊपर घर गृहस्थी की कोई जिम्मेदारी नहीं ओढ़ी है. वह अपने फ्लैट में अकेली रहती है. इसलिए देर रात लौटने पर उस के सामने किसी की सवालिया आंखें नहीं होतीं.

शरबती गोरखपुर चौरीचौरा की निवासी है. वह पति के साथ खेतों पर काम करती है. सुबह 5 बजे से उस की दिनचर्या शुरू होती है. भैसों को दुहना, उन को चारापानी देना, सब के लिए खाना बनाना, फिर खेतों में जा कर पति और देवर के साथ शाम तक काम करना, लौट कर खाना बनाना, सब को खिलाना, बर्तन मांजना, सास की सेवा करना ऐसे बहुत सारे काम वह प्रतिदिन करती है. शरबती को बमुश्किल 5 घंटे का वक़्त ही आराम करने का मिल पाता है. यानी 19 घंटे वह काम करती है, जिस का उस को कोई भुगतान नहीं मिलता. कुछ कमीबेशी हो जाए तो पति की गालियां अलग से खाती है.

देश में भले श्रम कानून बना हो मगर आम भारतीय गृहणी सुबह 4 बजे से रात 11 बजे तक निरंतर कोई न कोई काम करती रहती है. उस के लिए काम के घंटे तय नहीं हैं. किसानों के लिए काम के घंटे तय नहीं हैं. वह साल भर खेतों में हाड़तोड़ मेहनत करता है. पुलिस वालों की ड्यूटी 24 घंटों की होती है. युद्ध का मौक़ा आता है तो सेना रात दिन लड़ती है. वहां कोई श्रम कानून काम नहीं करता. अभी अमेरिका के लौस एंजेलिस में आग लगी तो फायरमैन 36-36 घंटे लगे रहे हैं.

भारत में काम और कर्मचारियों के विभिन्न प्रकार हैं. कुछ लोगों से बहुत ज्यादा काम लिया जाता है और कुछ लोगों से कम, कुछ ऐसे भी हैं जो बिलकुल निठल्ले हैं. कुछ लोग वह काम करते हैं जो उन्हें पसंद होता है. इसलिए उस में कितना भी वक्त दें उन्हें अखरता नहीं है. और अगर उस में पेमेंट भी अच्छा हो तो सोने पर सुहागा. मगर अधिकांश लोग अपने परिवार के भरण पोषण के लिए काम करते हैं. यह काम उन की मजबूरी है. पेमेंट ठीक है तो उस काम का वह अच्छा आउटपुट भी देते हैं. अगर पेमेंट ठीक नहीं है तो मजबूरी में किए जा रहे ऐसे काम का आउटपुट भी कुछ ख़ास नहीं होता है. फिर चाहे वह कितने ही घंटे उस काम को देदे. कुछ लोगों को उन के 10 से 12 घंटे के काम का भी बहुत थोड़ा भुगतान होता है. इन में मजदूर वर्ग और गृहणियां शामिल हैं.

काम के घंटों को ले कर यह विभिन्न प्रकार का विवरण इसलिए है क्योंकि हाल ही में लार्सन एंड टूब्रो कंपनी के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यम ने अपने कर्मचारियों को सम्बोधित करते हुए कहा, “मुझे अफ़सोस है कि मैं आप को रविवार को भी काम पर नहीं बुला पा रहा हूं. अगर मैं आप से रविवार को भी काम करा सकता, तो मुझे ज्यादा ख़ुशी होती क्योंकि मैं रविवार को काम करता हूं. आप को सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए. अपने घर में बैठ कर आप क्या करते हैं? आप अपनी पत्नी को कितनी देर निहार सकते हैं और पत्नी अपने पति को कितनी देर निहार सकती है?”

उन्होंने यह बात इस सवाल के जवाब में कही थी कि कंपनी ने शनिवार को काम पर आना अनिवार्य क्यों कर दिया?

एसएन सुब्रह्मण्यम के इस वक्तव्य के बाद सोशल मीडिया, अख़बारों और टीवी स्क्रीन पर काम के घंटों को ले कर एक गरमागरम बहस छिड़ी हुई है. कोई सुब्रह्मण्यम को गरिया रहा है तो कोई उन का समर्थन कर रहा है. बड़ेबड़े दिग्गज काम के घंटों पर अपनी राय पेश कर रहे हैं. इस में फ़िल्मी सितारों से ले कर उद्योगपति तक शामिल हैं. यह मामला अब इतना तूल पकड़ चुका है कि बिहार में काराकट से सीपीआई-एमएल सांसद राजा राम सिंह ने बाकायदा श्रम मंत्री मनसुख मांडविया को पत्र लिख कर सुब्रह्मण्यम के बयान को श्रम कानूनों के उल्लंघन का मामला करार दे दिया है.

लेबर, टेक्सटाइल पर संसद की स्थाई समिति के सदस्य और बिहार में काराकाट से सीपीआई-एमएल सांसद राजा राम सिंह ने श्रम मंत्री मनसुख मांडविया को पत्र लिख कर कहा है, “एलएंडटी के चेयरमैन ने हाल में बयान दिए हैं कि कर्मचारियों को हफ्ते में 90 घंटे काम करना चाहिए. कुछ समय पहले इन्फ़ोसिस के कोफाउंडर नारायण मूर्ती ने कहा था कि युवाओं को हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहिए. लम्बे वर्क आवर से प्रोडक्टिविटी बढ़ती नहीं घट जाती है. श्रम कानूनों का उल्लंघन न होने देना सरकार की जिम्मेदारी है. सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि वर्कर्स को हफ्ते में 48 घंटे की कानूनी सीमा से ज्यादा काम के लिए मजबूर न किया जाए.”

सुब्रह्मण्यम के बयान पर बड़ी आपत्ति महिलाएं भी जता रही हैं क्योंकि एसएन सुब्रह्मण्यम ने अपने वक्तव्य में कहा कि आप घर में बैठ कर कितनी देर अपनी पत्नी को निहारेंगे?

शशि कहती हैं, “घर पर कौन सा पति दिन भर पत्नी को निहारता है? एक संडे का दिन हमें मिलता है साथ रहने का. बच्चे भी पिता का साथ चाहते हैं. पूरे हफ्ते इंतज़ार करते हैं. मैं अपने कुछ कामों में उन की हेल्प चाहती हूं. कभी रिश्तेदारी में जाना होता है. कभी डाक्टर के पास किसी जांच के लिए जाना होता है. हमारे रिश्तेदार भी संडे के दिन ही मिलने आते हैं. अब संडे भी औफिस बुला लो तो फिर घरपरिवार की जरूरत क्या है? इन को वहीं रख लो औफिस में. सुब्रह्मण्यम साहब की पत्नी उन को भाव न देती होंगी इसलिए वे अपना संडे भी औफिस में बिताते हैं. सब की पत्नियां उन की पत्नी की तरह थोड़ी हैं.”

वर्क लाइफ बैलेंस को ले कर छिड़ी बहस के बीच उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने भी अपनी राय रखी है. विकसित भारत यंग लीडर्स डायलोग 2025 कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा, “मेरी पत्नी वंडरफुल है, मुझे उसे निहारना अच्छा लगता है.”

आनंद महिंद्रा ने कहा कि वह काम के घंटों की जगह काम की गुणवत्ता में विश्वास करते हैं. यही नहीं, इंटरनेट मीडिया पर बहुत एक्टिव रहने से जुड़े एक सवाल पर उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा, “मैं उस प्लेटफौर्म पर इतना एक्टिव हूं तो इस का मतलब यह नहीं कि मैं अकेला हूं. इंटरनेट मीडिया अमेजिंग बिज़नेस टूल है. मुझे इस पर 11 मिलियन लोगों का फीडबैक प्राप्त होता है. मैं घर और औफिस के कामों में बैलेंस रखता हूं. मेरी पत्नी बहुत प्यारी है, मुझे उसे निहारते रहना अच्छा लगता है.”

आनंद महिंद्रा ने कहा कि मौजूदा बहस गलत है, क्योंकि यह काम घंटों पर जोर देती है. उन्होंने युवाओं से कहा, “मैं नारायण मूर्ति और अन्य लोगों का बहुत सम्मान करता हूं. इसलिए मैं इसे गलत नहीं समझूंगा, लेकिन मुझे लगता है कि यह बहस गलत दिशा में जा रही है. मेरा मानना है कि हमें काम की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए, काम के घंटों पर नहीं. इसलिए यह 40, 70 या 90 घंटे की बात नहीं है. यह काम के आउटपुट पर निर्भर करता है. अगर 10 घंटे काम कर के अच्छा आउटपुट दे रहे हैं तो आप दुनिया बदल सकते हैं. मेरा मानना है कि किसी कंपनी में ऐसे लीडर होने चाहिए जो समझदारी से निर्णय लें, समझदारी से चुनाव करें.”

परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताने की जरूरत पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि अगर आप घर पर समय नहीं बिता रहे हैं, अगर आप दोस्तों के साथ समय नहीं बिता रहे हैं, अगर आप पढ़ नहीं रहे हैं, अगर आप के पास सोचनेसमझने का समय नहीं है, तो आप फैसला लेने में सही इनपुट कैसे लाएंगे? एक व्यक्ति तभी बेहतर निर्णय ले सकता है जब उस की जिंदगी का संतुलन सही हो.

बता दें कि अभी कुछ वक्त पहले इनफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ती ने भी सप्ताह में 70 घंटे काम करने की सलाह दी थी. उन के बाद लार्सन एंड टूब्रो (एलएंडटी) के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यम ने अपने कर्मचारियों को सप्ताह में 90 घंटे काम करने का सुझाव देते हुए कहा कि पत्नी को कितना निहारोगे? रविवार को भी काम करो.

गौरतलब है कि वर्क लाइफ बैलेंस पर यह बहस ऐसे समय छिड़ी है जब कई देशों में 4 दिन के वर्क वीक का प्रयोग चल रहा है. ओयो के सह संस्थापक और सीईओ रितेश अग्रवाल का कहना है कि काम के घंटों की अवधारणा सही नहीं है. उन्होंने कहा, “काम के लिए सही अवधारणा यह है कि आप को पूरे मन से काम करना चाहिए. हर कोई विकसित भारत मिशन के लिए पूरे मन से काम कर रहा है. कुछ लोग दिन में केवल 4 घंटे में प्रोडक्टिव हो सकते हैं, जबकि कुछ लोगों को 8 घंटे लग सकते हैं. हर किसी का काम करने का अपना तरीका और रास्ता हो सकता है.”

यह सच है कि भारत में प्रोडक्टिविटी अन्य देशों के मुकाबले कम है मगर यहां वर्कर्स का वेतन भी बहुत कम है. दूसरी तरफ सरकारी महकमों ने काम न करने की ऐसी मानसिकता फैला रखी है कि लोग आलसी और कामचोर ज्यादा हो गए हैं. वे अपने आराम के आगे देश के विकास की बात सोच ही नहीं पाते. ऐसे में जब नारायण मूर्ति या सुब्रह्मण्यम जैसे लोग काम के घंटे बढ़ाने की बात करते हैं तो आलोचना का बाजार गर्म हो जाता है.

दरअसल चीजें प्राइवेट और सरकारी दोनों जगहों पर समान रूप में लागू किए जाने की आवश्यकता है. देश के विकास में दोनों ही सेक्टर महत्वपूर्ण हैं. प्राइवेट सेक्टर वालों का खून चूस लो और सरकारी महकमे के लोग अय्याशियां करते रहें, इस से देश का विकास नहीं होगा.

प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के लिए वर्कर्स में उत्साह जागृत करने की जरूरत है. उत्साह तभी जागृत होगा जब वेतन बढ़िया होगा. इस के लिए कामकाजी माहौल भी बेहतर होने चाहिए. वर्कर्स की स्किल बढ़ाने के लिए तकनीक में अधिक से अधिक निवेश की जरूरत है. अच्छी मशीनरी लगाईं जाए. मौसम के हिसाब से वर्क फ्लोर पर सुविधाएं हों, जो कई देशों में होती हैं. वर्क एनवायरनमेंट बेहतर होगा तो 90 घंटे का काम कम समय में भी हो सकता है और उस की क्वालिटी भी अच्छी होगी.

चीन में हफ्ते में 40 घंटे काम का समय तय है. लेबर लौ औफ चाइना के अनुसार, चीन के लोग रोजाना 8 घंटे और सप्ताह में 40 घंटे काम करते हैं. यहां के लोग सप्ताह में 5 दिन ही काम करते हैं. इसलिए पूरे सप्ताह में यहां के लोग 40 घंटे ही काम करते हैं. हालांकि, चीन के विशेष क्षेत्रों में 996 वर्क कल्चर भी प्रभावी है. इस का मतलब यह है कि टैक्नोलौजी और वित्त क्षेत्र में कर्मचारियों से सप्ताह में 6 दिन, सुबह 9 से रात 9 बजे तक काम लिया जाता है, लेकिन यह सप्ताह में 72 घंटे ही होता है. हालांकि, चीन की सरकार ने हाल के वर्षों में 996 वर्क कल्चर और अनियमित कामकाजी घंटे को नियंत्रित करने के लिए कदम भी उठाए हैं.

चीन में सप्ताह में 40 घंटे का कामकाजी समय संतुलित और कुशलता से कार्य को बढ़ावा देता है. कर्मचारियों को आराम का समय मिलता है, जिस से उन की उत्पादकता में बढ़ोतरी होती है. नियमित कामकाजी घंटे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में मदद करते हैं. तनाव और बर्नआउट कम होता है. लंबे घंटों यानी 996 वर्क कल्चर के विपरीत 40 घंटे की सीमा कर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाती है.

जापान में भी श्रम मानक अधिनियम लागू है. इस का मकसद, काम करने की ऐसी स्थितियां सुनिश्चित करना है जो श्रमिकों की जरूरतों को पूरा करें. जापान में, एक सामान्य कार्य सप्ताह में प्रतिदिन 8 घंटे और पूर्णकालिक कर्मचारियों के लिए प्रति सप्ताह 40 घंटे के वैधानिक कार्य घंटे हैं. ओवरटाइम की सीमा महीने में 45 घंटे और साल में 360 घंटे है. इन सीमाओं का उल्लंघन करने पर कंपनी को जुर्माना और जेल हो सकती है.

जापान में श्रम मानक कानून के तहत मजदूरी और अन्य प्राथमिक कार्य स्थितियों के लिए न्यूनतम मानक तय किए गए हैं. जापान में कर्मचारियों को कई तरह के अवैतनिक अवकाश भी मिलते हैं, जैसे कि मातृत्व अवकाश, शिशु देखभाल अवकाश, परिवार देखभाल अवकाश और नर्सिंग अवकाश. जापान में, नियोक्ता को कर्मचारियों के साथ ईमानदारी से परामर्श करना होता है. जापान में, नियोक्ता को कर्मचारियों के साथ प्रतिकूल व्यवहार करना मना है.

अमेरिका में तो परिवार और चिकित्सा अवकाश अधिनियम (एफएमएलए) 50 या उस से ज्यादा कर्मचारियों वाले नियोक्ताओं को कर्मचारियों को सालाना 12 हफ्ते तक का अवैतनिक अवकाश देने की बाध्यता देता है.

भारत में सरकारी कर्मचारियों और प्राइवेट कर्मचारियों के काम के घंटे, काम के तरीके और आउटपुट में जमीन आसमान का अंतर है. सरकारी कर्मचारी जहां 7 – 8 घंटे की ड्यूटी में आधा वक़्त गप्पे मारने, घूमने, खाने और चाय पीने में व्यतीत करते हैं वहीं प्राइवेट जौब वाला 9 – 10 घंटे अपनी सीट पर बैठ कर भी कभीकभी अच्छा आउटपुट नहीं दे पाता क्योंकि वह थक चुका होता है. जब किसी मजबूरीवश वह ऐसी नौकरी में आता है जहां काम के घंटे बहुत अधिक हैं और वेतन कम है तो उस के लिए ऐसी नौकरी एक उबाऊ चीज हो जाती है. आप उस को 10 की जगह 14 घंटे बिठा लीजिए, आउटपुट जीरो ही रहेगा.

इस के विपरीत यदि नौकरी पसंद की हो, उत्साहित करने वाली हो, वेतन ज्यादा हो, नियोक्ता अपने कर्मचारी के ओवरटाइम और अवकाश का ख्याल रखता हो, वहां कर्मचारी चाहे 4 घंटे काम करे या 10 घंटे, उस का आउटपुट बहुत अच्छा होगा. वह कम समय में भी अच्छा रिजल्ट देगा.

इस बात पर भी चिंतन जरूरी है कि कोई भी व्यक्ति नौकरी इसलिए करता है ताकि वह अपने परिवार का भरण पोषण कर सके और उन के साथ जिंदगी को एंजोय कर सके. उस के लिए परिवार प्रथम है. यदि उस से हफ्ते के सातों दिन काम करवाया जाए और उस को अपने परिवार के साथ हंसनेबोलने, घूमनेफिरने का वक़्त ही न मिले तो ऐसा काम न सिर्फ उस के लिए भार बन जाएगा, उस काम में उस का इंटरेस्ट ख़त्म हो जाएगा, उस का आउटपुट बेकार होगा, बल्कि उस की सेहत भी खराब होती चली जाएगी. वह डिप्रेशन, तनाव और बीपी का मरीज बन जाएगा.

विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि वयस्कों को रात में 7 से 9 घंटे सोना चाहिए. जो वयस्क रात में 7 घंटे से कम सोते हैं, उन में 7 या उस से अधिक घंटे सोने वालों की तुलना में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं अधिक होती हैं. वह समय से पहले बूढ़ा हो जाता है. उस की कार्यक्षमता घट जाती है. यदि वह अपनी समस्याएं और अपने काम के तनाव को किसी के साथ शेयर नहीं कर पाता, तो जल्दी ही उस का मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाएगा. ऐसे व्यक्ति से अच्छे काम की उम्मीद करना ही व्यर्थ है.

दुनिया भर में औसतन वीकली वर्क औवर 40-50 घंटे के बीच हैं. कई देशों में तो हफ़्ते में सिर्फ 4 दिन ही काम लिया जाता है. भारत में भी मजदूरों और दफ्तरों में वर्कर्स के लिए श्रम कानून के तहत काम के घंटे तय हैं. अधिनियम के अनुसार, 6 दिनों में प्रति सप्ताह अधिकतम 48 घंटे काम करना अनिवार्य है, तथा किसी भी कर्मचारी को प्रतिदिन 9 घंटे या सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम करने की अनुमति नहीं है.

कारखाना अधिनियम, 1948 और दुकानें एवं प्रतिष्ठान अधिनियम (एसईए) के मुताबिक, मजदूरों को रोजाना 9 घंटे या हफ्ते में 48 घंटे से ज्यादा काम नहीं कराया जा सकता. इस में एक घंटे का आराम या भोजन अवकाश शामिल है. अगर कोई मजदूर सामान्य काम के घंटों से ज्यादा काम करता है, तो उसे ओवरटाइम वेतन का हक मिलता है. नाबालिग मजदूरों को रोजाना साढ़े 4 घंटे से ज्यादा काम नहीं कराया जा सकता. नाबालिग मजदूरों को रात में काम करने की अनुमति नहीं है. लड़कियों को सिर्फ़ सुबह 8 बजे से शाम 7 बजे के बीच काम करने की अनुमति है.

भारत में काम के घंटों को ले कर कई कानून हैं, जिन में से एक न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948 भी है. इस अधिनियम के तहत, कामकाजी हफ़्ते को 40 घंटे या रोजाना 9 घंटे तक सीमित किया गया है.

दफ्तरों में वर्कर्स के लिए काम के घंटे को ले कर कई कानून हैं. न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948 के मुताबिक, कामकाजी सप्ताह 40 घंटे या प्रतिदिन 9 घंटे तक सीमित है. कारखाना अधिनियम 1948 और दुकानें एवं प्रतिष्ठान अधिनियम (एसआई) के मुताबिक, काम के लिए हर दिन 9 घंटे और हर सप्ताह 48 घंटे का समय तय है.

श्रम संहिता-2020 के तहत, काम के घंटों को बढ़ा कर प्रतिदिन 12 करने का प्रावधान है, लेकिन सप्ताह में यह अधिकतम घंटे 48 तक सीमित रहे. अगर कोई कर्मचारी अपने तय वक्त से ज्यादा काम करता है, तो उसे ओवरटाइम का पैसा मिलना चाहिए. ओवरटाइम वेतन की गणना सामान्य मजदूरी की नियमित दर से दोगुनी दर पर कराई जाती है. हर 5 घंटे काम के बाद 30 मिनट का ब्रेक देना होगा.

भारत में श्रम कानूनों, श्रमिकों के वेतन, निवेश, तकनीक और सुविधा आदि पर गहन मंथन की जरूरत है. सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में जो जमीन आसमान का अंतर है उस में कोई बीच का रास्ता तलाश करना होगा. एक व्यक्ति हफ्ते में 48 घंटे काम करे और दूसरा व्यक्ति 90 घंटे काम करे तो ऐसी व्यवस्था में तो समाज और देश में तनाव ही बढ़ेगा.

Hindi Story : भाभी! आप ना मत कहना

Hindi Story : चाय की ट्रे हाथों में थामें समीरा ने कमरे में जैसे ही प्रवेश किया उसकी नज़रें सुवित से मिलीं जिसे देखते ही धड़कनें बेतहाशा धड़कने लगीं. एक क्षण के लिए दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया. नीरजा ने कहा था कि उसके ब्वॉयफ्रेंड से मिलकर होश उड़ जाएंगे मगर यह सब सचमुच होगा इस बात का ज़रा भी इल्म न था.

“मेरे होश उड़ाने वाला शख़्स इस संसार से कूच कर चुका है” उस वक़्त उसे ख़ामोश कर दिया था मगर उसका अतीत इस तरह से सामने आ टपकेगा ये कहाँ जानती थी. फटाफट रसोई में आ गई. कहीं उसके चेहरे की सफ़ेदी उसका हाल-ए-दिल बयां न कर दे.

सुवित नीरजा का रिश्ता लेकर आया था. इस बात पर पूरा परिवार बहुत खुश था. एनआरआई डॉक्टर स्वयं चलकर घर तक आया था. बिना किसी दान-दहेज़ की मांग के सामने से आया रिश्ता भला कौन छोड़ता. परिवार में बस दो भाई हैं सुवित और सक्षम. नीरजा व सक्षम फैशन टेक्नोलॉजी कर एक ही ऑफिस में साथ काम कर रहे हैं.

नीरजा ने सुबह ऑफिस जाने के पहले बस इतना ही बताया कि लड़के वाले रिश्ता लेकर आएंगे और अब दोनों ही परिवार आमने-सामने थे. जब सबको रिश्ता इतना ही पसंद था तो तय तो होना ही था इसमें समीरा भला क्या कर लेती मगर सुवित इस घर का दामाद बना तो वह अपने दिल को कैसे संभालेगी यही सब सोचती कचौरियाँ तले जा रही थी कि सुवित की आवाज़ ने चौंका दिया.

“वाशरूम किधर है?”

“इस ओर…… ”

“जाना किसे है.. तुमसे बात करनी है…तुम कैसी हो?”

“ये सही वक़्त नहीं….. ”

“सही वक़्त तो कभी न था तुम्हारे पास…. तब मायके में कचौरियाँ तलती थीं अब यहाँ……. ”

“कहना क्या चाहते हो?”

“शादी करना चाहता हूँ…”

“विधवा से?”

“अपने प्यार से…”

“और नीरजा का क्या होगा?”

“तुम अब भी वही हो…बिना जाने समझे कुछ भी सोच लेने की आदत गई नहीं….!”

हाँ वह पहले भी सुवित को अपनी सहेली के साथ बातें करते देख गलतफहमी का शिकार हो गई थी जबकि दोनो उसके जन्मदिन की पार्टी प्लान कर रहे थे. वह वाक़या याद आते ही सकुचा गई तो समीर आगे बढ़ा.

“बेवकूफ! वो मेरे छोटे भाई ‘सक्षम’ की गर्लफ्रैंड है…हम नीरजा के लिए सक्षम का रिश्ता लेकर आये हैं।”

“ओह!”

समीरा को गुलाबी पड़ते देख समीर की शरारत जाग गई.

“वैसे लगे हाथ अपनी बात भी कर लें…”

यह सुनते ही उसके कपोल गर्म हो गए. घबड़ा कर इधर-उधर देखने लगी. क्या कहती.. उसके पास कहने -सुनने के लिए कुछ रह ही नहीं गया था. आदित्य के जाने के बाद उसने खुद को ससुरालवालों की सेवा में झोंक दिया था. रात दिन बस यही सोचती कि भले ही उसने अपना पति खोया पर उन्होंने अपना बेटा और नीरजा ने भाई खोया है. आदित्य से जुड़े लोग और उनके प्रति फ़र्ज़ ही मानो उसके जीने का मक़सद बन गए थे. सुबह शाम नीरजा की भाई बन जाती और उसके ऑफिस जाने के बाद सास ससुर का बेटा. वह भी नीरजा पर खूब स्नेह लुटाते. उसे कभी नाम से नहीं बल्कि बेटा ही कहकर पुकारते. कहना अतिशयोक्ति न होगी समीरा अपने ससुराल की ही होकर रह गई थी कि उसकी तपस्या भंग करने सुवित आ पहुँचा. उसे इस गुस्ताख़ी से बात करते देख जैसे जम गई हो. उसकी मन: स्थिति महसूस कर सुवित वापस लिविंग रूम में आकर बैठ गया.

“आपकी बेटी नीरजा लाखों में एक है..सक्षम और वह एक-दूसरे से प्यार करते हैं…एक- दूसरे को अच्छी तरह जानते- समझते हैं पर यहाँ मैं आपकी बहू समीरा के लिए अपने बड़े बेटे ‘सुवित’ का रिश्ता लेकर आया हूँ. मैं पहले समीरा के घर गया था पर उन लोगों का कहना है कि समीरा के जीवन के सभी फैसले उसके ससुराल वालों पर निर्भर करते हैं. उसने बड़े दुःख देखे हैं, शादी के एक वर्ष के भीतर ही कार एक्सीडेंट में पति को खोने के बाद स्वयं को सबसे दूर कर लिया है. जबकि उसकी उम्र ही क्या है? अगर आपकी व समीरा की ‘हाँ’ है तो एक ही मंडप में दोनों शादियाँ निपटा लें? आप इस विषय में क्या सोचते हैं? मैं आपके जवाब की प्रतीक्षा करूँगा.” सुवित के पिताजी यह कह कर चले गए।

समीरा कहाँ तैयार थी? शादी उसके लिए जितना ही सुखद था उतना ही दुखद भी. बस ननद नीरजा ने ही उसे संभाला था. जाने क्या था ननद में कि उसमें उसकी जान बसती थी. तुरंत उसे फ़ोन मिलाया. जबकि वह लगातार हँसे जा रही थी.

“भाभी जान! देखा! होश ग़ुम हो गए न मिलकर? हम साथ- साथ हैं..साथ जियेंगे-साथ मरेंगे!” समीरा को छेड़ते हुए बोली.

“अच्छा.. ये सब आपको पता था तो पहले क्यों न बताया?”

“कम ऑन भाभी..पहले बताती तो क्या आप सुवित भैया को घर बुलाते? आप सभी के इंकार शुरू हो जाते. घरवालों से भी सारे डिटेल्स इसलिए ही छुपाए.

सुवित भैया और आप एक -दूसरे को जानते हैं,ये बात सक्षम ने ही मुझे बताया. जब सुवित भाई ने मेरे फ़ेसबुक पर हम दोनों की साथ की फोटोज देखीं तो उन्होंने पूरी कहानी सक्षम को बताई कि आपकी मर्ज़ी जाने बिना आपकी शादी कर दी गई तो वह भी USMLE देकर अमेरिका में सेटल हो गए मगर दूरियाँ भी दूरियाँ न ला सकीं. आपके लिए उनकी चाहत अभी भी वैसे ही बरक़रार है यह जानने के बाद ही हमने यह योजना बनाई. सक्षम की बात सुनते ही वह फ़ौरन इंडिया आ गए. आपकी मर्ज़ी जाने बिना रिश्ता करना उन्हें मुनासिब नहीं लगा. अब तो सारे शंकाओं का समाधान हो गया न भाभी! अब प्लीज़ आप न मत कहना!”

समीरा निशब्द थी. उसकी ननद,उसकी सच्ची सहेली बन गई थी और सास -ससुर माता-पिता. उन्होंने भी इस रिश्ते को सहर्ष स्वीकार कर लिया क्योंकि उनके बाद समीरा अकेली न पड़ जाए यही चिंता उन्हें भी खाए जा रही थी.

फिर क्या था? शुभ मुहूर्त देख कर दोनों जोड़े ब्याहे गए. ससुर के हाथों कन्यादान होता देख सबकी आँखे भर आईं. एक और हाथ आशीर्वाद दे रहे थे जिसे बस समीरा महसूस कर रही थी और मन ही मन आदित्य को धन्यवाद दे रही थी.

लेखिका – आर्या झा 

Hindi Story : हवस

Hindi Story : कार्तिक पूरी तरह से टूट चुका था. हवस की आग ने उसे जला दिया था. अब उस की जिंदगी के अगले कई साल जेल की सलाखों के पीछे गुजरेंगे. हवस की इस आग में उस के सपने, मांबाप के अरमान सब भस्म हो गए. उस का दिल बारबार बस यही सोचता कि काश, वह अपने मन को हवस के दलदल में न फंसने देता और अपनी पढ़ाईलिखाई पर ध्यान देता…

6 महीने पहले की ही तो बात है. कल्पना गुमला से रांची आई थी. कार्तिक की उस से कालेज में जानपहचान हुई थी जो धीरेधीरे दोस्ती में बदल गई थी.

कार्तिक कल्पना के साथ कभी फिल्म देखने जाता तो कभी पार्क में घूमने. कल्पना हर बात में, हर काम में उस का साथ देती थी.

गांव से आई कल्पना भोलीभाली लड़की थी. कार्तिक उस की हर इच्छा पूरी करता था. मोटरसाइकिल से घुमाना, सिनेमा दिखाना, होटल में खिलाना, गिफ्ट देना सबकुछ, पर उस के मन में कभी भी कल्पना के प्रति प्यार नहीं था. वह तो उस के गदराए बदन का मजा लेना चाहता था. पर शायद कल्पना इसे प्यार समझने लगी थी.

जब कार्तिक को लगा कि कल्पना उस के प्रेमजाल में फंस चुकी है तो उस ने धीरेधीरे अपने पर फैलाने शुरू किए. पहले हाथों से छूना, फिर चूमना, गले लगाना और धीरेधीरे सबकुछ. यहां तक कि पार्क के कोने में उस ने कल्पना के साथ हर तरह का शारीरिक सुख भोग लिया था. इसी तरह कभी सिनेमाघर में, तो कभी किसी होटल में वह अपनी ख्वाहिश को पूरा करता रहता था.

कार्तिक कल्पना के शरीर के बदले उस पर खर्च करता था और उस की नजर में हिसाब बराबर हो रहा था. पर कल्पना की बात अलग थी. वह कार्तिक को अपना प्रेमी मानती थी और उस से शादी करना चाहती थी.

एक बार कल्पना को महसूस हुआ कि कार्तिक के साथ जिस्मानी रिश्ता बनाने से वह पेट से हो गई है. उस ने उसे बताया था, ‘कार्तिक, मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं.’

यह सुन कर कार्तिक चौंका था, पर जल्दी ही सहज हो कर उस ने कहा था, ‘अभी हम दोनों को पढ़ाई पूरी करनी है. किसी लेडी डाक्टर से मिल कर इस समस्या से छुटकारा पा लेते हैं.’

‘मुझे कोई एतराज नहीं, पर आगे चल कर हमें शादी करनी ही है तो अगर हम अभी शादी कर बच्चे को आने दें तो इस में क्या हर्ज है?’ कल्पना ने प्रस्ताव रखा था.

‘शादी…’ कार्तिक चौंका था, पर यह सोच कर कि कहीं कल्पना का शरीर दोबारा न मिले इसलिए बोला था, ‘अभी पढ़ाई, फिर कैरियर, उस के बाद शादी.’

कल्पना ने इसे शादी की रजामंदी मान कर लेडी डाक्टर से मिल कर बच्चा गिरवा दिया था. कार्तिक और कल्पना पहले की तरह मजे से रहने लगे थे. पर अब कार्तिक सावधान था. बच्चा न ठहरे, इस के लिए वह उपाय कर लेता था.

इसी बीच कल्पना को भनक लग गई कि कार्तिक उस से नहीं बल्कि उस के शरीर से प्यार करता है. उस की शादी की बात कहीं और चल रही है. उस ने फोन कर कार्तिक को रेलवे स्टेशन बुलाया.

रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूरी पर एक सुनसान जगह थी जहां वे पहले भी कई बार मिले थे. कार्तिक ने वहां झाडि़यों के पीछे उस के साथ जिस्मानी रिश्ते भी बनाए थे. कार्तिक मन में जिस्मानी सुख पाने की उमंग लिए वहां जा पहुंचा.

कल्पना के चेहरे पर तनाव देख कर वह हंस कर बोला, ‘क्या हुआ, फिर लेडी डाक्टर के पास चलना पड़ेगा क्या? पर अब तो हम काफी संभल कर चल रहे हैं.’

‘सीरियस हो जाओ कार्तिक. तुम मुझ से शादी करोगे न?’ कल्पना ने उदास हो कर पूछा था.

‘पागल हो रही हो. अभी शादी की बात कैसे सोच सकते हैं हम?’ कार्तिक जोश में आ कर बोला था.

कहां वह जिस्मानी मजा लेने की बात सोच कर आया था, कहां कल्पना उसे दूसरी बातों में उलझाए हुए थी.

‘मैं अभी की बात नहीं कर रही…4 साल बाद ही सही, पर शादी तुम मुझ से ही करोगे. मैं ने तुम्हें अपना सबकुछ इसीलिए सौंपा है,’ कल्पना बोली थी.

‘दोस्ती अलग चीज है, शादी अलग चीज है. मैं तुम्हारी दोस्ती की कीमत अदा करता रहा हूं. शादी की बात तो सोचो ही मत,’ कार्तिक ने बेरुखी से कहा था. उस का मन उचाट हो आया था. सारा जोश जाता रहा था.

‘मैं अपना सबकुछ तुम्हें तुम्हारी कीमत के चलते नहीं प्यार के चलते सौंपती रही, लेकिन मुझे नहीं पता था कि तुम मेरे प्यार को पैसे से तोल रहे हो. पर अगर तुम प्यार को पैसे से खरीद रहे थे तो मैं भी अपने प्यार को ताकत के बल पर पा लूंगी. मेरे चाचा और मामा नक्सली हैं. जब चाहें तुम्हें और तुम्हारे परिवार को मिटा सकते हैं,’ कहते हुए कल्पना को गुस्सा आ गया था.

कार्तिक कल्पना की बात सुन कर डर गया था. वह जानता था कि कल्पना जहां से आई है, वहां नक्सलियों का अड्डा है. वह आएदिन नक्सली वारदातों की खबरें अखबार में पढ़ता था.

कुछ दिन पहले ही कार्तिक के परिवार वालों ने किसी लड़की से उस की शादी की बात भी चला रखी थी. उसे लगा, अगर कल्पना जिंदा रहेगी तो रंग में भंग डालेगी. उस ने झपट कर कल्पना की गरदन पकड़ ली और उस पर तब तक दबाव बनाता गया जब तक कि उस ने शरीर ढीला नहीं छोड़ दिया.

कार्तिक को अभी भी यकीन नहीं हुआ कि कल्पना ने दम तोड़ दिया है तो उस ने अपनी बैल्ट से फिर उस का गला दबा दिया व चुपचाप अपने घर आ गया.

कार्तिक मन ही मन घबराया हुआ था पर जिस जगह पर उस ने कल्पना की लाश छोड़ी थी उधर किसी का आनाजाना न के बराबर होता था. कौएकुत्ते उसे नोंच कर खा जाएंगे यही सोच कर वह अपने मन को संतोष देता था. पर 2 दिनों के बाद एकाएक पुलिस ने उसे दबोच लिया. शायद किसी ने लाश की सूचना पुलिस को दे दी थी और पुलिस उस तक पहुंच गई.

Sonu Sood : कमजोर पटकथा और बिना सिरपैर की कहानी, हॉलीवुड फिल्म की नकल है ‘फतेह’

Sonu Sood : रेटिंग:: एक स्टार
निर्माता : सोनल सूद, जी स्टूडियो और शक्ति सागर प्रोडक्शन
लेखक : सोनू सूद व अंकुर पजनी
निर्देशक : सोनू सूद
कलाकार : सोनू सूद, जैकलीन फर्नांडीस, नसीरूद्दीन शाह, विजय राज, दिव्येंदु भट्टाचार्य, प्रकाश बेलावड़ी, शिव ज्योति राजपूत, सूरज जुमान
अवधिः 2 घंटे 10 मिनट

51 वर्षीय सोनू सूद ने अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत 1999 में तमिल फिल्म में अभिनय करते हुए की थी. 2001 तक वह तमिल, तेलुगु फिल्में ही करते रहे. 2002 में उन्होंने फिल्म ‘जिंदगी खूबसूरत’ से हिंदी फिल्मों में कदम रखा था. 2009 तक सोनू सूद ने 29 हिंदी फिल्मों में अभिनय कर लिया पर उन की कोई खास पहचान नहीं बनी. 2010 में सोनू सूद ने सलमान खान के साथ फिल्म ‘दबंग’ में विलेन छेदी सिंह का किरदार निभाया और स्टार बन गए. उस के बाद वह बतौर विलेन दक्षिण की ही फिल्मों में ज्यादा व्यस्त हो गए. आज भी वह दक्षिण की ही फिल्में कर रहे हैं.

सोनू सूद ने कोविड के दौरान लोगों की मदद कर निजी जीवन में एक मददगार इंसान की इमेज के साथ उभरे. लेकिन शायद सोनू सूद अभिनय भूल गए हैं, इस का संकेत उन्होंने 2022 की असफल फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज’ में अभिनय कर दे चुके थे. पर अब लगभग 3 साल बाद वे सिर्फ अभिनेता ही नहीं बल्कि बतौर लेखक, निर्देशक, निर्माता फिल्म ‘फतेह’ ले कर आए हैं जोकि एक नहीं कई बौलीवुड और हौलीवुड फिल्मों का मिश्रण है.

जिन लोगों ने हौलीवुड फिल्म ‘द इक्वलाइजर’ देखी है, उन्हें एहसास होगा कि यह तो 90% हौलीवुड फिल्म की ही नकल है जबकि फिल्म ‘फतेह’ के ट्रेलर लांच ईवेंट में जोर दे कर दावा किया गया था कि इस फिल्म की कहानी, स्क्रिप्ट और इस का एकएक दृश्य उन के अपने दिमाग की उपज है, जिस पर उन्होेंने 2 साल से ज्यादा मेहनत की है.

लेकिन ‘फतेह’ देखने के बाद एहसास हुआ कि वह उस दिन मीडिया से सफेद झूठ बोल रहे थे.

कहानी : एक पूर्व विशेष औपरेशन अधिकारी फतेह सिंह (सोनू सूद) पंजाब के मोंगा गांव में बहुत शांतपूर्ण जीवन जीता है. वह एक डेरी फौर्म में बैठता है जबकि उस का अतीत अंधकारमय है. उस की पड़ोसिन निमृत कौर (शिव ज्योति राजपूत) एक लोन देने वाले एप की कंपनी में काम करती है और खतरनाक साइबर अपराध सिंडिकेट का शिकार बन जाती है. निमृत कौर की तलाश में फतेह सिंह दिल्ली पहुंचता है और एक एथिकल हैकर खुशी शर्मा (जैकलीन फर्नाडिस) से मुलाकात होती है. यह खोज अंततः उसे साइबर अपराध सिंडिकेट के स्वामी रजा (नसीरुद्दीन शाह) तक ले जाती है. लेकिन वास्तव में फतेह कौन है? जब तक वह खुशी शर्मा को अपनी अतीत की कहानी नहीं बताता, वह कुछ समय पहले भंग हुई एक गुप्त इकाई का सदस्य था. इसी ईकाई के सदस्य रजा भी थे. खैर,अंततः फतेह राष्ट्रव्यापी धोखे के जाल को उजागर करने और न्याय के लिए लड़ने के लिए अपने संयुक्त कौशल का उपयोग करता है.

समीक्षा : फिल्म ‘फतेह’ साइबर अपराध माफिया के खिलाफ युद्ध के साथ नए जमाने की ऐक्शन थ्रिलर फिल्म होने का वादा करती है. मगर अफसोस यह फिल्म कई फिल्मों की नकल करते हुए महज अति रंजित हिंसा और खूनखराब ही परोसती है. एक ऐसी हिंसा या यों कहें कि फिल्म का ऐक्शन सिरदर्द के अलावा कुछ नहीं देता. माना कि ऐक्शन में नयापन है, मगर यह ऐक्शन पूरी तरह से मशीनी लगता है. इस तरह की फिल्म तो बच्चे वीडियोगेम के रूप में खेलने में ही आनंद लेते हैं. पर इस फिल्म से बच्चे दूर ही रहें, क्योंकि इसे सेंसर बोर्ड ने ‘ए’ प्रमाणपत्र दिया है.

10 जनवरी, 2025 को सिनेमाघरों में रिलीज हुई 2 घंटे 10 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘फतेह’ कमजोर दिल वालों को देखने से दूर ही रहना चाहिए. अति कमजोर पटकथा वाली इस फिल्म में कहानी का कोई सिरपैर ही नहीं है. साइबर क्राइम को ले कर हर आम इंसान व गांव के गरीबों तक के मन में बहुत बड़ा डर पैदा करने के अलावा यह फिल्म कुछ नहीं करती.

सोनू सूद की फिल्म की कहानी का केंद्र पंजाब का एक गांव है। शायद सोनू सूद को पता ही नहीं है कि साइबर क्राइम के शिकार शहरवासी ज्यादा आसानी से हो रहे हैं. लेकिन सोनू सूद भी उन्हीे में से हैं, जिन्हें खुद कहानी कहने की खुजली है, पर उस कहानी या विषय पर शोधकार्य करना गंवारा नही. साइबर अपराध माफिया के खिलाफ युद्ध को छोड़ कर, सोनू सूद की ‘फतेह’ में कुछ भी नया नहीं है, लेकिन अफसोस वह इस पर भी ठीक से बात नहीं कर पाए. सच तो यह है कि फिल्म ‘फतेह’ में ‘जय हो’, ‘पठान’, ‘एनीमल’,‘मार्को’ ,‘किल’ व हौलीवुड फिल्म ‘द इक्वलाइजर’,मार्टिन स्कौर्सेस की फिल्म ‘आइरिशमैन’, कियानू रीव्स की ‘जौन विक’ और जैसन स्टेथम की आधा दर्जन फिल्मों का अति घटिया नकल ही है. फिल्म ‘फतेह’ के ऐक्शन दृश्य 2014 में प्रदर्षित हौलीवुड फिल्म ‘द इक्वलाइजर’ की याद दिलाते हैं. इतना ही नहीं ‘फतेह’ देखते वक्त बीचबीच में सलमान खान की फिल्म ‘जय हो’, शाहरुख खान की ‘पठान’ तक की याद आ जाती है.

याद रखने वाली बात तो यह है कि फिल्म ‘एनिमल’ का एक मैराथन ऐक्शन दृश्य 2003 में प्रदर्षित कोरियाई फिल्म ‘ओल्डबौय’ से प्रेरित था.

सोनू सूद ही लेखक, निर्देशक अभिनेता हैं,तो उन्होंने सब कुछ अपने ही इर्दगिर्द रखते हुए फिल्म का गुड़गोबर कर डाला. सोनू सूद का सारा ध्यान खुद को परदे पर बनाए रखने व इंटरनेशनल स्तर का ऐक्शन परोसने में ही रहा. मगर वह यह भूल गए कि ऐक्शन के साथ कहानी में इमोशंस, मानवीय संवेदनाएं भी चाहिए. पर इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है. फिल्म में कहानी तो छोड़िए, किरदार भी ठीक से परिभाषित नहीं किए गए. सोनू सूद उर्फ फतेह दोनों हाथ में बंदूक से गोली चलाए जा रहे हैं। सैकड़ों लोग मर रहे हैं, मरते समय इंसान के जो भाव होते हैं, जो आह निकलती है, वैसा कुछ भी नहीं है. घायल इंसान भी चुप रहता है. सब कुछ मशीन जैसा नजर आता है.

पूरी फिल्म में दर्शक को परेशान कर देने वाली भयंकर हिंसा व खून ही खून है.फिल्म का वीएफएक्स भी बहुत खराब है. सिर्फ लेखक ही नहीं निर्देशक के तौर पर भी सोनू सूद बुरी तरह से मात खा गए हैं.

अभिनय : 51 साल की उम्र में सोनू सूद ने शुरुआत में बेहतरीन ऐक्शन दृश्य अंजाम दिए हैं. पर फिर वह पस्त नजर आने लगते हैं और ऐसा तब से होता है, जब उन के सिर से हौलीवुड फिल्म ‘द इक्वलाइजर’ का खुमार उतर जाता है. फतेह सिंह के किरदार में सोनू सूद का अभिनय कुछ ठीकठाक है। कई दृश्य ऐसे हैं जहां सोनू सूद का चेहरा एकदम सपाट भावशून्य नजर आता है. कई दृश्यों मे तो वह वाशिंगटन के बहुत अधिक प्रखर अभिनेता रौबर्ट मैक्कल के एक हलके देसी संस्करण बन कर रह गए. जैकलीन के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. वैसे भी जैकलीन फर्नाडिस को अभिनय नहीं आता. अपनी सुंदरता के बल पर फिल्में पा जाती हैं. नई लड़की शिव ज्योति राजपूत छोटे किरदार में अपनी अभिनय की छाप छोड़ जाती हैं. दिव्येंदु भट्टाचार्य, विजय राज, नसिरूद्दीन शाह जैसे कलाकारों की प्रतिभा को जाया किया गया है.

New Trend : अलग बिस्तर पर सोना कहीं स्लीप डिवोर्स की वजह तो नहीं

New Trend : हाल के दिनों में शादी टूटने के मामले बढ़ रहे हैं. इस में स्लीप डिवोर्स का ट्रैंड आग में घी का काम कर रहा है. जानते हैं क्या है यह कान्सैप्ट और कैसे यह पति पत्नी के रिश्ते में दूरियां लाने का काम कर रहा है.

“पति की गैरमौजूदगी में पत्नी मोबाइल पर करती थी. मायके में बात, टूटने की कगार पर पहुंचा रिश्ता”, “पति-पत्नी के बीच ‘कबाब में हड्डी’ बना डॉगी, विदेशी नस्ल के पालतू के लिए शादीशुदा घर टूटने की कगार पर”

हाल के दिनों में शादी टूटने के मामले बढ़ रहे हैं और सात जन्मों का बंधन माने जाने वाला यह रिश्ता अलगाव की कगार पर है. जो पतिपत्नी हमेशा एकदूसरे के साथ रहने की कसम खाते हैं, छोटी-छोटी वजहों से अपनी शादी को अलविदा कह रहे हैं.

ऐसे में हाल ही में प्रचलित स्लीप डिवोर्स का ट्रैंड आग में घी का काम कर रहा है. ‘स्लीप डिवोर्स’ जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि ये ‘नींद के लिए आपसी अलगाव’ का एक कान्सेप्ट है. इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अच्छी नींद पाने के लिए पति-पत्नी अलग कमरों, अलग बिस्तर पर या फिर अलगअलग समय पर सोते हैं. पार्टनर के खर्राटे की आवाज, एसी के तापमान, पंखे की गति या कुछ और चीजों को लेकर पार्टनर्स में बहस उन की नींद को प्रभावित न करे इसलिए भारत समेत कई अन्य देशों में भी ये चलन तेजी से बढ़ता हुआ देखा जा रहा है.

रिलेशनशिप एक्स्पर्ट्स के अनुसार लेकिन अगर लंबे वक्त तक इसी रूटीन को फौलो किया जाए, तो इस का खामियाजा आपसी रिश्तों को उठाना पड़ सकता है. इस रूटीन से न केवल कपल्स के बीच की रोमांटिक लाइफ खत्म होती है पार्टनर के साथ इमोशनल अटैचमेंट में भी कमी आती है.

आम बोलचाल की भाषा में ‘साथ सोना’ का मतलब सैक्सुअल रिश्ते से लगाया जाता है लेकिन रिश्ते और प्यार की साइकोलौजी में साथ सोना सिर्फ सैक्सुअल एक्टिविटी तक सीमित नहीं है. पतिपत्नी के रिश्ते में , मन मिलाने इमोशनल अटैचमेंट के लिए कडलिंग, साथ सोना भी बेहद जरूरी है.

मनोविज्ञान के क्षेत्र में प्रतिष्ठित जर्नल ‘Current Directions in Psychological Science’ की एक रिपोर्ट बताती है कि बिना सैक्सुअल रिलेशन भी कपल्स साथ सोएं तो उन का रिश्ता काफी मजबूत होता है. वे इमोशनली एकदूसरे के करीब आते हैं और उन की बौन्डिंग मजबूत होती जाती है. अगर किसी शख्स के साथ उस का पार्टनर बेफिक्र हो कर, यानी घोड़े बेच कर सोए तो इस का मनोवैज्ञानिक मतलब है कि पार्टनर उस की मौजूदगी में सेफ और कंफर्टेबल महसूस कर रहा है, रिश्ते की यह पहली शर्त है.

इस रिसर्च की को-औथर एमिली इंपेट के अनुससर “ जब पार्टनर एक-दूसरे के फिजिकल टच में आते हैं तो हैप्पी हौर्मोन रिलीज होता है. पार्टनर्स को खुशी महसूस होती है. उन का दिमाग संकेत करता है कि पार्टनर की मौजूदगी अच्छी और खुशी देने वाली है. दोनों में प्यार अपने आप गहरा हो जाता है.” ध्यान रहे कि फिजिकल टच का मतलब सिर्फ सैक्सुअल रिलेशन नहीं है.

मनोविज्ञान की रिसर्च और रिश्ते की स्टडी के अनुसार कपल्स का साथ सोना उन के रिश्ते की मजबूती के लिए बेहद जरूरी है. बिस्तर अलग होते ही कपल्स के रिश्ते में भी एक दीवार-सी खिंच जाती है.

स्लीप डिवोर्स के साइड इफैक्ट्स –

इमोशनल कनेक्शन का ब्रेकअप

दिनभर की दौड़ भाग के बाद रात को सोते समय कपल्स एकदूसरे के साथ अपनी दिनचर्या को शेयर करते हैं लेकिन स्लीप डिवोर्स के चलते अकेले सोने से कपल्स उन सभी चीजों से वंचित रह जाते हैं. जब आप का पार्टनर, आप को सुनने वाला व्यक्ति आप के आसपास नहीं रहता है तो दो लोगों के बीच बनने वाला इमोशनल कनैक्शन भी खत्म होने लगता है.

इंटिमेसी की कमी

टचिंग, किसिंग, कडलिंग और स्पूनिंग पार्टनर के साथ रिश्ते को मज़बूत बनाते हैं. स्लीप डिवोर्स के दौरान व्यक्ति शुरुआत में अपने पार्टनर को मिस करने लगता है और फिर उसी रूटीन को फौलो करने लगता है. इस से सैक्सुअल लाइफ प्रभावित होती है, जिस से कपल्स के बीच इंटिमेसी की कमी होने लगती है.

अकेलापन का एहसास

स्लीप क्वालिटी को बढ़ाने की चाहत में स्लीप डिवोर्स को अपनाने वाले कपल्स दूरदूर सोने से खुद को अकेला महसूस करने लगते हैं. इस से संबधों में दूरियां बढ़ने लगती हैं और ये उन के बीच मिसअंडरस्टैंडिग का कारण भी बन जाता है और वे खुद को इनसिक्योर समझने लगते हैं.

रिश्ते में फिजिकल टच इंप्रूव करने के तरीके

पतिपत्नी के रिश्ते में मजबूती के लिए दोनों पार्टनर का एक छत के नीचे रहते हुए एकदूसरे की मौजूदगी और भावनात्मक लगाव का एहसास कराना बेहद जरूरी है.

• गले लगाना, हाथ मिलाना, लिपट कर सोना, साथ बैठ कर भी रिश्ते में फिजिकल टच को इंप्रूव किया जा सकता है.
• बात करते हुए या कहीं घूमते पार्टनर का हाथ अपने हाथों में थाम कर भी रिश्ते में इमोशनल अटैचमेंट को बढ़ाया जा सकता है.
• अगर पूरी रात साथ नहीं सोया जा सकता तो कम से कम कुछ घंटों की नींद पार्टनर के साथ कडलिंग करते हुए जरूर ली जा सकती है.
• खुशी हो या गम, पार्टनर को गले लगा कर, साथ में बैठ कर टीवी देख कर, कुछ साथ में पढ़ते हुए फिजिकल टच को बढ़ाया जा सकता है.

साथ सोना कल्चरली और इमोशनली कपल्स के रिश्ते में बेहद जरूरी है. ऐसे में किसी भी कारण से अगर रोमांटिक पार्टनर्स अलगअलग सोएं तो उन के रिश्ते में दूरियां आना स्वाभाविक है.

Kolkata Rape case : “बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ”के साथ बेटी को न्याय भी दिलाओ

Kolkata Rape case : कोलकाता के एक मैडिकल कालेज के कैंपस के अंदर ड्यूटी कर रही एक महिला डाक्टर की रेप कर के उन की हत्या कर दी गई. मारी गई डाक्टर की गरदन की हड्डी टूटी हुई थी, दोनों आंखों, मुंह और हाथों पर चोट के निशान थे. अंदरूनी अंगों में गंभीर चोट पाई गई थी.

पर लगता है कि सरकार को कोई फर्क नही पड़ता है. सब अपनी-अपनी राजनीति कर रहे हैं, क्योंकि नेताओं के साथ रेप जैसी वारदात नहीं होती है न, बल्कि बहुत से तो खुद इस में लिप्त पाए जाते हैं.

तो फिर क्यों बनेंगे सख्त कानून, जब रखवाले ही गलत नीयत रखते हैं. दुष्कर्म की सजा काट रहे बाबाओं को आसानी से पैरोल मिल जाती है. ‘एनिमल’ जैसी फिल्म, जिस में औरत को पीटा जाता है, उस से यौन हिंसा की जाती है, को अवार्ड दिया जाता है.

आज भी जब पूरा देश किसी न किसी रेप कांड के खिलाफ कैंडल मार्च कर रहा होता है, तब भी कोई न कोई दरिंदा देश के किसी न किसी कोने में खुलेआम रेप कर रहा होता है.

यह सरकार की आधी आबादी के खिलाफ साजिश सी लगती है. लड़कियों को घर में बंद रखने और न पढ़नेलिखने देने की साजिश लगती है. दरअसल, लड़कियां और औरतें घर में बंद हो जाएं, ये रात को अकेली बाहर न निकलें , उन नौकरियों में न जाएं, जहां रात को काम करना पड़े, भले ही वे कितनी ही पढ़ीलिखी और काबिल क्यों न हों.

‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ तो सरकार ने बताया है, लेकिन पढ़ने के बाद बेटी बच पाएगी इस की कोई गारंटी है, यह सरकार ने नहीं बताया.

दरअसल, सरकार चाहती है कि लड़कियां घर बैठ कर सिर्फ पूजापाठ, व्रतउपवास कर के भूखी रहें. साल के 365 दिन कोई न कोई व्रत करें, धर्म का पालन करें , सिर्फ पति की सेवा करें, पति को परमेश्वर मानें. वे शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से कमजोर और खोखली हो जाएं.

वैसे, जो अपराध लड़कियों के साथ हो सकते हैं, वे लड़कों के साथ भी हो सकते हैं, फिर लड़कों को देर रात घर से बाहर न निकलने की ताकीद क्यों नहीं की जाती?

साल 2014 के बाद औरतों की सिक्योरिटी के लिए कोई कानून नहीं बने हैं. आज भी उन्हें मर्दों के मुकाबले केवल दोतिहाई कानूनी अधिकार हासिल हैं, जो साफतौर पर उन के प्रति सरकार की उदासीनता को दिखाता है.

देशभर में रात्रि जागरण हो सकते हैं, देर रात गरबा, डांडिया के कार्यक्रम हो सकते हैं, पर वहां भी लड़कियों और औरतों के साथ अपराध होते हैं, फिर उन पर रोक क्यों नहीं लगाई जाती?

आखिर सरकार यह लैंगिक असमानता क्यों कर रही है? औरतों के साथ आखिर यह भेदभाव क्यों? अगर धर्मग्रंथों में भी देखा जाए तो अहल्या हो या सीता… औरतों के साथ वहां भी मर्दों द्वारा छलकपट, नाइंसाफी और शोषण किया गया है.

दुख की बात तो यह है कि कभी लेडी पुलिस के साथ, कभी महिला शिक्षक के साथ, कभी महिला अधिकारी के साथ, कभी महिला कर्मचारी के साथ तो कभी महिला डाक्टर के साथ बलात्कार और शोषण की खबरें आती ही रहती हैं.

वे कहीं भी महफूज नहीं हैं. न मां की कोख में, न किसी अस्पताल में, न चलती बस में, न स्कूल की वैन में, न स्कूल के किसी कमरे में, न औफिस से ड्यूटी करते देर रात, न कैब के इंजतार में, न हाल में, न मौल के बाथरूम में, न अपने भविष्य के सपनों को पूरा करने के लिए लंबी दूरी की ट्रेन में, न घर में, न आसपड़ोस में, न पार्क में, न मेट्रो में, न आसमान के ऊपर उड़ते हुए हवाईजहाज में, न पढ़लिख कर इंजीनियरिंग करने का सपना देखते हुए देश के टौप आईआईटी संस्थान में, न पिता के घर में, न पति के घर में, न अनाथालय में, न बालिका सुधारगृह में, न किसी बाबा के आश्रम में, न मीडिया के संस्थान में, न मेले में, न खेल के अखाड़े में.

इस के अलावा वे किसी भी दिन महफूज नहीं हैं. न आजादी के उत्सव के दिन, न दीवाली और होली के दिन, न दुर्गापूजा के दिन, न नवरात्र के दिन, न गंगा किनारे, न मंदिर के द्वारे. आज देश की बेटियों की अस्मत हर जगह हर दिन लूटी जा रही है.

सोशल मीडिया पर, ओटीटी पर बेहूदगी की हद को पार करती अनगिनत फिल्में, सीरियल, म्यूजिक वीडियो, रील्स, जहां आसानी से किसी भी बच्चे, नौजवान और अधेड़ के दिमाग में यौन हिंसा करने के लिए फ्री का कंटैंट भरा जा रहा है.

आजकल की पीढ़ी को मांबहन की गाली देना, रेव पार्टी करना, ड्रग्स लेना, पूल पार्टी करना, यौन अपराध करना नौर्मल और कूल लगता है. फ्री की बस, फ्री का राशन, फ्री की दवा… नतीजा जिन हाथों को मजदूरी या कोई दूसरा काम कर के अपने परिवार का पेट भर कर थकहार कर घर आ कर चैन से सोना था, वे हाथ आज निठल्ले बैठे फेसबुक, इंस्टा पर अश्लील रील और पोर्न फिल्मों को देख रहे हैं और नतीजा यह है कि आज के समाज में बेटियों पर बुरी नजर रखने वाले लोग हर जगह मौजूद हैं. लड़कियों को मांबहन की गाली देने वाला एल्विश यादव आजकल की युवा पीढ़ी का फेवरेट बना हुआ है.

एक ऐसे समाज की रचना हो चुकी है जहां हम इन सब खबरों के इतने आदी हो चुके हैं कि अब हमें ऐसी घटनाये ज्यादा विचलित नहीं करती हैं, जो बेहद दुखद है.

आखिर सरकार द्वारा बलात्कार के बाद पीड़ित के साथ क्रूरतम अमानवीय व्यवहार कर के बलात्कारियों का मनोबल क्यों बढ़ाया जा रहा है? बलात्कारियों के समर्थन में रैलियां निकाल कर महिमामंडन किया जा रहा है. जब से बलात्कारियों को छद्म तरीके से कोर्ट को अंधेरे में रख कर रिहाई कराई जा रही है, तब से इन बलात्कारी दरिंदों के जोश सातवें आसमान पर हैं.

जब से किसी बलात्कारी को जेल से रिहा होने पर फूल माला पहनाते हुए तिलक टीका लगा कर और मिठाई खिलाकर स्वागत किया जाने लगा है, तब से ये बलात्कारी बिलकुल ही निश्चिंत हो गए हैं कि कोई न कोई तो बचा ही लेगा. यह सब सरकार का सिखाया हुआ महसूस होता है.

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