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Hindi Story : जन्मपत्री

Hindi Story : बूआ ने भरसक प्रयास किया कि रश्मि की शादी ऐसे लड़के से हो जिस की जन्मपत्री रश्मि की जन्मपत्री से मेल खाती हो और उन के 32 गुण मिलते हों. बूआ अपने प्रयास में जुटी रहीं पर अचानक कुछ ऐसा हुआ कि बूआ के सारे मनसूबों पर पानी फिर गया. पढि़ए, डा. प्रणव भारती की कहानी.

‘‘ये  लो और क्या चाहिए…पूरे

32 गुण मिल गए हैं,’’

गंगा बूआ ने बड़े गर्व से डाइनिंग टेबल पर नाश्ता करते हुए त्रिवेदी परिवार के सामने रश्मि की जन्मपत्री रख दी.

‘‘आप हांफ क्यों रही हैं? बैठिए तो सही…’’ चंद्रकांत त्रिवेदी ने खाली कुरसी की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘चंदर, तू तो बस बात ही मत कर. जाने कौन सा राजकुमार ढूंढ़ कर लाएगा बेटी के लिए. कितने रिश्ते ले कर आई हूं…एक भी पसंद नहीं आता. अरे, नाक पर मक्खी ही नहीं बैठने देते तुम लोग… बेटी को बुड्ढी करोगे क्या घर में बिठा कर…?’’ गोपू के हाथ से पानी का गिलास ले कर बूआ गटगट गटक गईं.

चंद्रकांत, रश्मि और उस का भाई विक्की यानी विकास मजे से कुरकुरे टोस्ट कुतरते रहे. मुसकराहट उन के चेहरों पर पसरी रही पर चंद्रकांत त्रिवेदी की पत्नी स्मिता की आंखें गीली हो आईं. आखिर 27 वर्ष की हो गई है उन की बेटी. पीएच.डी. कर चुकी है. डिगरी कालेज में लेक्चरर हो गई है. अब क्या…घर पर ही बैठी रहेगी?

चंद्रकांत ने तो जाने कितने लड़के बताए अपनी पत्नी को पर स्मिता जिद पर अड़ी ही रहीं कि जब तक लड़के के पूरे गुण नहीं मिलेंगे तब तक रश्मि के रिश्ते का सवाल ही नहीं उठता. जो कोई लड़का मिलता स्मिता को कोई न कोई कमी उस में दिखाई दे जाती. चंद्रकांत परेशान हो गए थे. वे शहर के जानेमाने उद्योगपति थे. स्टील की 4 फैक्टरियों के मालिक थे. उन की बेटी के लिए कितने ही रिश्ते लाइन में खड़े रहते पर पत्नी थीं कि हर रिश्ते में कोई न कोई अड़ंगा लगा देतीं और उन का साथ देतीं गंगा बूआ.

गंगा बूआ 80 साल से ऊपर की हो गई होंगी. चंद्रकांत ने तो अपने बचपन से उन्हें यहीं देखा था. उन के पिता शशिकांत त्रिवेदी की छोटी बहन हैं गंगा बूआ. बचपन में ही बूआ का ब्याह हो गया था. ब्याह हुआ और 15 वर्ष की उम्र में ही वह विधवा हो गई थीं. मातापिता तो पहले ही चल बसे थे, अत: अपने इकलौते भाई के पास ही वे अपना जीवन व्यतीत कर रही थीं.

घर में कोई कमी तो थी नहीं. अंगरेजों के जमाने से 2-3 गाडि़यां, महल सी कोठी, नौकरचाकर सबकुछ उन के पिता के पास था. फिर शशिकांत इतने प्रबुद्ध निकले कि जयपुर शहर के पहले आई.ए.एस. अफसर बने. उन के ही पुत्र चंद्रकांत हैं. चंद्रकांत की पत्नी स्मिता वैसे तो शिक्षित है, एम.ए. पास हैं पर न जाने उन के और गंगा बूआ के बीच क्या खिचड़ी पकती रहती है कि स्मिता की हंसी ही गायब हो गई है. उन्हें हर पल अपनी बेटी की ही चिंता सताती रहती है. चंद्रकांत ने अपनी बूआ के साथ अपनी पत्नी को हमेशा खुसरपुसर करते ही पाया है.

गंगा बूआ के मन में यह विश्वास पत्थर की लकीर सा बन गया है कि उन का वैधव्य उन की जन्मपत्री न मिलाने के कारण ही हुआ है. उन के पिता व भाई आर्यसमाजी विचारों के थे और कुंडली आदि मिलाने में उन का कोई विश्वास नहीं था. शशिकांत के बहुत करीबी दोस्त सेठ रतनलाल शर्मा ने अपने बेटे संयोग के लिए गंगा बूआ को मांग लिया था और फिर बिना किसी सामाजिक दिखावे के उन का विवाह संयोग से कर दिया गया था. शर्माजी का विचार था कि वे अपनी पुत्रवधू को बिटिया से भी अधिक स्नेह व ममता से सींचेंगे और उस को अच्छी से अच्छी शिक्षा देंगे, लेकिन विवाह के 8 दिन भी नहीं हुए थे कि कोठी के बड़े से बगीचे में नवविवाहित संयोग सांप के काटने से मर गया. जुड़वां भाई सुयोग चीखें मारमार कर अपने मरे भाई को झंझोड़ रहा था. पल भर में ही पूरा वातावरण भय और दुख का पर्याय बन गया था.

गंगोत्तरी ठीक से विवाह का मतलब भी कहां समझ पाई थी तबतक कि वैधव्य की कालिमा ने उसे निगल लिया. कुछ दिन तक वह ससुराल में रही. सेठ रतनलाल के परिवार के लोगों ने गंगोत्तरी का ध्यान रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी परंतु वहां वह बहुत भयभीत हो गई थी. मस्तिष्क पर इस दुर्घटना का इतना भयानक प्रभाव पड़ा था कि रात को सोतेसोते भी वह बहकीबहकी बातें करने लगी. थक कर इस शर्त पर उसे उस के मातापिता के पास भेज दिया गया कि वह उन की अमानत के रूप में वहां रहेगी.

गंगोत्तरी की पढ़ाई फिर शुरू करवा दी गई. कुछ सालों बाद शर्माजी ने संयोग के जुड़वां भाई सुयोग से उस का विवाह करने का प्रस्ताव रखा. कुछ समय तक सोचनेसमझने के बाद त्रिवेदी परिवार ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया परंतु गंगोत्तरी ने जो ‘न’ की हठ पकड़ी तो छोड़ने का नाम ही नहीं लिया.

बहुत समझाया गया उसे पर तबतक वह काफी समझदार हो चुकी थी और उसे विवाह व वैधव्य का अर्थ समझ में आने लगा था. उस का कहना था कि एक बार उस के साथ जो हुआ वही उस की नियति है, बस…अब वह पढ़ेगी और शिक्षिका बन कर जीवनयापन करेगी. फिर किसी ने उस से अधिक जिद नहीं की. इस प्रकार मातापिता की मृत्यु के बाद भी गंगोत्तरी इसी घर में रह गई. चंद्रकांत से ले कर उन के बच्चे, घर के नौकरचाकर, यहां तक कि पड़ोसी भी उन्हें प्यार से गंगा बूआ कह कर पुकारने लगे थे.

यद्यपि गंगा बूआ अब काफी बूढ़ी होे गई हैं, फिर भी घर की हर समस्या के साथ वे जुड़ी रहती हैं. उन्होंने स्मिता को अपना उदाहरण दे कर बड़े विस्तार से समझा दिया था कि घर की इकलौती लाड़ली रश्मि का विवाह बिना जन्मपत्री मिलाए न करे. बस, स्मिता के दिलोदिमाग पर गंगा बूआ की बात इतनी गहरी समा गई कि जब भी उन के पति किसी रिश्ते की बात करते वे गंगा बूआ की ओट में हो जातीं. उन्होंने ही गंगा बूआ को हरी झंडी दिखा रखी थी कि वे स्वयं जा कर पीढि़यों से चले आ रहे पंडितों के उस परिवार के श्रेष्ठ पंडित से जन्मपत्रियों का मिलान करवाएं जिसे बूआ शहर का श्रेष्ठ पंडित समझती हैं. वैसे स्मिता का विवाह भी तो बिना जन्मपत्री मिलाए हुआ था और वह बहुत सुखी थीं पर रश्मि के मामले में गंगा बूआ ने न जाने उन्हें क्या घुट्टी पिला दी थी कि बस…

आज गंगा बूआ सुबह ही नहाधो कर ड्राइवर को साथ ले कर निकल गई थीं. बूआ बेशक विधवा थीं, पर सदा ठसक से रहती थीं. ड्राइवर के बिना घर से बाहर न निकलतीं. उन के पहनावे इतने लकदक होते जो उन के व्यक्तित्व में चार चांद लगा देते थे. कहीं भी बिना जन्मपत्री मिलाए विवाह की बात होती तो वे अपना मंतव्य प्रकट किए बिना न रहतीं.

घर के सदस्य बेशक गंगा बूआ की इस बात से थोड़ा नाराज रहते पर कोई भी उन का अपमान नहीं कर सकता था. सब मन ही मन हंसते, बुदबुदाते रहते, ‘आज फिर गंगा बूआ रश्मि की जन्मपत्री किसी से मिलवा कर लाई होंगी…’ सब ने मन ही मन सोचा.

गोपू ने बूआ के सामने नाश्ते की प्लेट रख दी थी और टोस्टर में से टोस्ट निकाल कर मक्खन लगा रहा था, तभी बूआ बोलीं, ‘‘अरे, गोपू, मैं किस के दांतों से खाऊंगी ये कड़क टोस्ट, ला, मुझे बिना सिंकी ब्रेड और बटरबाउल उठा दे और हां, मेरा दलिया कहां है?’’

गोपू ने बूआ के सामने उन का नाश्ता ला कर रख दिया. आज बूआ कुछ अलग ही मूड में थीं.

‘‘क्यों स्मिता, तुम क्यों चुप हो और तुम्हारा चेहरा इतना फीका क्यों पड़ गया है?’’ बूआ ने एक चम्मच दलिया मुंह में रखते हुए स्मिता की ओर रुख किया.

स्मिता कुछ बोली तो नहीं…एक नजर बूआ पर डाल कर मानो उन से आंखों ही आंखों में कुछ कह डाला.

‘‘देखो चंदर, मैं ने इस लड़के के परिवार को शाम की चाय पर बुला लिया है…’’ उन्होंने अपने बैग से लड़के का फोटो निकाल कर चंद्रकांत की ओर बढ़ाया.

‘‘पर बूआ आप पहले रश्मि से तो पूछ लीजिए कि वह शाम को घर पर रहेगी भी या नहीं,’’ चंद्रकांत ने धीरे से बूआजी के सामने यह बात रख दी, ‘‘और हां, यह भी बूआजी कि उसे यह लड़का पसंद भी है या नहीं,’’

‘‘देखो चंदर, आज 3 साल से लड़के की तलाश हो रही है पर इस के लिए कोई अच्छे गुणों वाला लड़का ही नहीं मिलता. और ये बात तो तय है कि बिना कुंडली मिलाए न तो मैं राजी होऊंगी और न ही स्मिता, क्यों स्मिता?’’ एक बार फिर बूआ ने स्मिता की ओर नजर घुमाई.

स्मिता चुप थीं.

नाश्ता कर के सब उठ गए और अपनेअपने कमरों में जाने लगे.

‘‘मैं जरा आराम कर लूं…थक गई हूं,’’ इतना बोल कर बूआ ने भी अपना बैग समेटा, ‘‘स्मिता, बाद में मेरे कमरे में आना.’’ बूआजी का यह आदेश स्मिता को था.

तभी चंद्रकांत ने पत्नी की ओर देख कर कहा, ‘‘स्मिता, तुम जरा कमरे में चलो. तुम से कुछ जरूरी बात करनी है.’’

स्मिता आंखें नीची कर के बूआ की ओर देखती हुई पति के पीछे चल दीं. बूआ को लगा, कुछ तो गड़बड़ है. वातावरण की दबीदबी खामोशी और स्मिता की दबीदबी चुप्पी के पीछे मानो कोई गहरा राज झांक रहा था.

वे सुबह से उठ कर, नित्य कर्म से निवृत्त हो कर बाहर निकलने में ऐसी निढाल हो गई थीं कि कुछ अधिक सोचविचार किए बिना उन्होंने अपने कमरे में जा कर स्वयं को पलंग पर डाल दिया. आज वैसे भी रविवार था. सब घर पर ही रहने वाले थे. थोड़ा आराम कर के लंच पर बात करेंगी. शाम को आने का न्योता तो दे आई हैं पर ‘मीनूवीनू’ तो तय करना होगा न. बूआजी बड़ी चिंतित थीं.

गंगा बूआ पूरे जोशोखरोश में थीं. उत्साह उन के भीतर पंख फड़फड़ा रहा था पर थकान थी कि उम्र की हंसी उड़ाने लगी थी. पलंग पर पहुंचते ही न जाने कब उन की आंख लग गई. जब वे सो कर उठीं तो दोपहर के साढ़े 3 बजे थे.

‘कितना समय हो गया. मुझे किसी ने उठाया भी नहीं,’ बूआ बड़बड़ाती हुई कपड़े संभालती कमरे से बाहर निकलीं.

‘‘अरे, गोपू, कमली…कहां गए सब के सब…और आज खाने पर भी नहीं उठाया मुझे,’’ बूआ नौकरों को पुकारती हुई रसोईघर की ओर चल दीं. उन्हें गोपू दिखाई दिया, ‘‘गोपू, मुझे खाने के लिए भी नहीं उठाया. और सब लोग कहां हैं?’’

‘‘जी बूआ, आज किसी ने भी खाना नहीं खाया और सब बाहर गए हैं,’’ गोपू का उत्तर था.

‘बाहर गए हैं? मुझे बताया भी नहीं,’ बूआ अपने में ही बड़बड़ाने लगी थीं.

‘‘बूआजी, मैं महाराज को बोलता हूं आप का खाना लगाने के लिए. आप बैठें,’’ यह कहते हुए गोपू रसोईघर की ओर चला गया.

कुछ अनमने मन से बूआ वाशबेसिन पर गईं, मुंह व आंखों पर पानी के छींटे मारते हुए उन्होंने बेसिन पर लगे शीशे में अपना चेहरा देखा. थकावट अब भी उन के चेहरे पर विराजमान थी. नैपकिन से हाथ पोंछ कर वे मेज पर आ बैठीं. गोपू गरमागरम खाना ले आया था.

खाना खातेखाते उन्हें याद आया कि वे पंडितजी से कह आई थीं कि घर पर चर्चा कर के वे लड़के वालों को निमंत्रण देने के लिए चंदर से फोन करवा देंगी. आखिर लड़की का बाप है, फर्ज बनता है उस का कि वह फोन कर के लड़के वालों को घर आने का निमंत्रण दे. खाना खातेखाते बूआ सोचने लगीं कि न जाने कहां चले गए सब लोग…अभी तो उन्हें सब के साथ बैठ कर मेहमानों की आवभगत के लिए तैयारी करवानी थी.

‘खाना खा कर चंदर को फोन करूंगी,’ बूआ ने सोचा और जल्दीजल्दी खाना खा कर जैसे ही कुरसी से खड़ी हुईं कि उन की नजर ने ‘ड्राइंगरूम’ के मुख्यद्वार से परिवार के सारे सदस्यों  को घर में प्रवेश करते हुए देखा.

और…यह क्या, रश्मि ने दुलहन का लिबास पहन रखा है? उन्हें आश्चर्य हुआ और वे उन की ओर बढ़ गईं. स्मिता के अलावा परिवार के सभी सदस्यों के चेहरे पर हंसी थी और आंखों में चमक.

‘‘लो, बूआजी भी आ गईं,’’ चंद्रकांत ने एक लंबे, गोरेचिट्टे, सुदर्शन व्यक्तित्व के लड़के को बूआजी के सामने खड़ा कर दिया.

‘‘रश्मिज ग्रैंड मदर,’’ चंद्रकांत ने कहा तो युवक ने आगे बढ़ कर बूआ के चरणस्पर्श कर लिए.

गंगा बूआ हकबका सी गई थीं.

‘‘बूआजी, यह सैमसन जौन है. आज होटल ‘हैवन’ में इस की रश्मि से शादी है. चलिए, सब को वहां पहुंचना है.’’

‘‘पर…ये…वो जन्मपत्री…’’ बूआजी हकबका कर बोलीं, फिर स्मिता पर नजर डाली. उस का चेहरा उतरा हुआ था.

‘‘अरे, बूआजी, जन्मपत्री तो इन की ऊपर वाले ने मिला कर भेजी है. चिंता मत करिए. चलिए, जल्दी तैयार हो जाइए. सैमसन के मातापिता भी होटल में ठहरे हैं. उन से भी मिलना है. फिर वे लोग अमेरिका वापस लौट जाएंगे.’’

चंद्रकांत बड़े उत्साहित थे. फिर बोले, ‘‘देखिएगा, किस धूमधाम से भारतीय रिवाज के अनुसार शादी होगी.’’

बूआजी किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी रह गई थीं. उन की नजर में रश्मि की जन्मपत्री के टुकड़े हवा में तैर रहे थे.

Freedom vs Control : टीनएजर की शिकायत, पेरेंट्स हर बात में अपनी क्यों चलाते हैं

Freedom vs Control : टीनएजर को अक्सर अपने पेरेंट्स से यह शिकायत होती है कि वे जबरदस्ती अपने डिसिजन उन पर थोप रहे हैं या उन की ख्वाहिशें पूरी नही हो रहीं. ऐसे में ये बात समझ लें कि जो अपना पैसा खर्च रहा है उस की बात तो आप को सुननी ही पड़ेगी. जब आप कमाने लगें तब अपनी धौंस दिखा सकते हैं.

 

अरे यार, सपना कल पापा ने मुझे बाइक दिलाने से मना कर दिया. उन का कहना है अभी बजट नहीं है. लेकिन अभी मम्मी को दिवाली पर गोल्ड का सेट ले कर दिया तब उन का बजट था. वह हमेशा ही मेरी हर बात के लिए मना कर देते हैं. इस पर सपना ने कहा वरुण तुम सही कह रहे हो मेरे मम्मीपापा भी यही करते हैं तुम्हें पता ही है पिछले महीने उन्होंने मुझे कालेज टूर पर भी नहीं जाने दिया. इस का रीजन सुन कर तुम्हें हंसी आएगी. उन का कहना था तुम्हारे मार्क्स इस बार अच्छे नहीं आए इसलिए तुम इस बार कालेज टूर पर नहीं जा सकती. यार ये अच्छी दादागिरी है हमारे पेरेंट्स की. हम चाहें न चाहें लेकिन वे हर बात में अपनी मनमर्जी करते हैं.

उन की बातें सुन रहा आकाश बोला,  तुम सही कह रहे हो हर बात में चलाते अपनी हैं और फिर भी हर वक्त यही रोना रोते हैं कि हम ने तुम्हारे लिए ये किया वो किया. इतने सैक्रिफाइस किए हैं. कभी अपने बारे में नहीं सोचा…. बला….. बला …. और भी न जाने क्याक्या सुनाते हैं वह हमें.

जबकि सच यह है कि सैक्रिफाइस तो हम भी करते हैं उन के लिए हम अपनी पसंद का करियर तक नहीं चुन सकते, कपड़े भी अकसर उन की ही पसंद के पहनों, सेक्स भी तभी करें जब वो कहें कि अब कर सकते हो, गर्लफ्रेंड या लड़की भी उन की ही पसंद की चुनों. इट्स हौरिबल.

 

टीनएजर को अक्सर अपने पेरेंट्स से यह शिकायत होती है कि वे हर बात में अपनी चलाते हैं. लेकिन इस तस्वीर का एक दूसरा पहलू यह भी है कि टीनएजर जो अपनी इच्छाओं को मार रहें हैं वह सैक्रिफाइस नहीं है. बल्कि वो अपने पेरेंट्स की बात मानना है क्योंकि वो हमारे लिए बहुत करते हैं. हमारे अच्छेबुरे के लिए सोचते हैं, हम पर अपना पैसा खर्च रहे हैं, तो फैसला लेने का हक भी उन्हें ही मिलना चाहिए कि वह हमारे लिए कब और कितना कर सकते हैं और कितना करने की ख्वाहिश रखते हैं. हम उन्हें इस के लिए मजबूर नहीं कर सकते.

 

पैसा देने वाले के पास मना करने का हक है

 

कई टीनएजर को यह लगता है कि इतना पैसा होते हुए भी पेरेंट्स ने हमें इतनी सी चीज के लिए मना कर दिया. अब उन्होंने क्यों मना किया, उन की क्या सिचुएशन है उसे वे ही बेहतर जानते होंगे. लेकिन इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि जो पैसा दे रहा है उसे पूरा हक है कि वो दे या न दे ये उस की मर्जी है. इस बात के लिए उन से जबरदस्ती नहीं की जा सकती और न ही नाराजगी दिखाई जा सकती है. बल्कि ऐसे में अपने मन में यह सोच लेने की जरूरत होती है कि जल्द से जल्द मुझे कुछ बनना है ताकि किसी के आगे हाथ न फैलाने पड़ें एक दिन मैं ये चीज खुद अपने पैसों से खरीदूंगा.

 

बिल उन्हें पे करना है तो, पसंद भी उन्हीं की होगी

 

जो अपना पैसा खर्च रहा है उसे उस पैसे की कीमत पता है. उन्हें मालूम है कौन सी चीज लेना सही रहेगा और कौन सी नहीं. अगर वह कुछ कर रहें हैं तो उस में आपका भला ही होगा. अगर वह चीज आप की नजर में गलत भी है, तो भी आप उन्हें मजबूर नहीं कर सकते क्योंकि पैसा उन का है वह जहां चाहे जैसे खर्च करें.

 

पैसा खर्चने वाले को आप के लिए करियर चुनने का भी अधिकार है

 

अकसर टीनएजर कहते हैं कि हमें तो कुछ और करना था लेकिन पेरेंट्स ने अपने सपने पूरे करने के लिए हमारी बलि दे दी. जैसे कि मुदित पेंटर बनना चाहता था लेकिन पेरेंट्स ने उसे एमबीए में एडमिशन दिला दिया. उसे हमेशा इस बात का अफसोस होता है कि मुझे तो पेंटर बनना था. लेकिन वहीँ एक सच यह भी है कि पेरेंट्स को लगा कि पेंटर बन कर अच्छी जौब मिले न मिले. अभी तो पढ़ने के दिन हैं और हमारे पास अच्छे कालेज में एडमिशन करने के पैसे भी हैं, तो फिर क्यों न कराएं. एक डिग्री हो जाएगी.

 

उन का सोचना भी अपनी जगह सही था लेकिन अगर मुदित को इस से दिक्कत है तो एमबीए पूरा करने के बाद पार्ट टाइम में पेंटर का कोर्स कर सकता है. जौब के साथसाथ कोर्स करें और फिर पेंटर की अच्छी जौब मिल जाए तो एमबीए की जौब छोड़ कर पेंटर की लाइन में करियर बनाएं इस में क्या दिक्कत है.

 

इसी तरह रचना, एमबीबीएस करना चाहती थी लेकिन पेरेंट्स ने मना कर दिया कि हमारे पास इतने पैसे नहीं है और लोन ले कर करा भी दिया लेकिन बिना एमएस के अच्छी जौब नहीं मिलेगी फिर हम पढ़ाई का लोन उतारेंगे या बाकी बच्चों को सेट करेंगे. इस बात को ले कर रचना हमेशा अपने पेरेंट्स से नाराज रहती है. हालांकि उन्होंने उसे बायोकेमेस्ट्री का एक अच्छा कोर्स कराया जिस में वह लाखों की सैलेरी ले रही है लेकिन अगर फिर भी वह सेटिस्फाई नहीं है, तो जौब में कमाएं पैसों को जोड़ कर और लोन ले कर अपने बलबूते एमबीबीएस कर सकती है. इस में पेरेंट्स को गलत ठहराना सही नहीं है. उन से जितना बन पड़ा उन्होंने किया.

 

खुद कमाने लगो फिर अपने हिसाब से खर्च करना

 

जो अपना पैसा खर्च रहा है उस की बात तो आप को सुननी ही पड़ेगी फिर चाहे वह सही बोल रहा हो या फिर गलत ही क्यों न बोल रहे हों. जब आप कमाने लग जाएं तो बोलने का हक भी मिल जाएगा फिर अपने पैसे चाहे जहां और जैसे भी खर्च करें उस के जिम्मेवार आप खुद होंगे. लेकिन अभी जो खर्च कर रहा है उस की ही चलेगी.

 

जब पैसा कमाने लगो तो अपनी धौंस जमाओ

 

आप यह बात न भूलें कि जो पैसा वो आप पर खर्च रहे हैं उस में वो अपना यूरोप का ट्रिप भी कर सकते थे लेकिन आप की पढ़ाई और करियर के लिए वे अपना मन मार गए और न जाने कितनी बार मारते होंगे. इसलिए उन की तो सुननी ही पड़ेगी. जब आप कमाने लगें तब अपनी धौंस दिखाना. लेकिन किसी और के पैसों पर आप रौब नहीं दिखा सकते फिर भले ही वे आप के पेरेंट्स ही क्यों न हो.

अपनी योग्यता दिखानी पड़ेगी

 

अगर आप अपनी बात मनवाना चाहते हो अपनी पसंद का कुछ करना चाहते हो उसी तरह पढ़ाई करो और एग्जाम में अच्छे मार्क्स लाओ. जो टीनएजर 90 परसेंट से ऊपर मार्क्स लाता है उसे बोलने का हक है लेकिन जो 60 परसेंट वाला है उसे कुछ भी कहने का हक नहीं है. इसलिए खूब पढ़ें और अपनी योग्यता साबित कर के दिखाएं ताकि पेरेंट्स को भी लगे वाकई जो पैसा आप पर लगाया जा रहा है आप उस का दोगुना ही करेंगी और सफल हो कर दिखाएंगे.

 

इसलिए कम उम्र से ही मेहनतकश बनो

 

कम उम्र में भी मेहनत और लगन के जरिए कामयाबी की सीढ़ियों को चढ़ा जा सकता है. किसी भी क्षेत्र में कामयाब होने के लिए उम्र कभी बाधा नहीं होती. फेसबुक कंपनी के मालिक मार्क जुकरबर्ग को तो आप जानते ही होंगे. मार्क अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म मेटा के बल पर 23 साल की उम्र में अरबपति बन गए थे. टेक्नोलौजी के बादशाह माने जाने वाले बिल गेट्स अपनी कंपनी माइक्रोसौफ्ट की बदलौत महज 31 साल की उम्र में अरबपति बन गए थे. मशहूर सिंगर रिहाना भी अपनी गायिकी के बल पर सिर्फ 33 साल की उम्र में अरबपति बन गई थीं. गोल्फ की दुनिया के टाइगर माने जाने वाले टाइगर वुड्स सिर्फ 33 साल की उम्र में गोल्फ में मुकाम हासिल कर के गोल्फर बन गए थे. कम उम्र से ही खूब मेहनत करो और आगे बढ़ो.

Women’s Rights : कानूनों ने जो हक दिए उससे खुले में सांस ले रही हैं महिलाएं, स्थिति में आया बदलाव

Women’s Rights : आज हर जगह फिर चाहे वह घर परिवार हो या नौकरी लड़कियों को ज्यादा तवज्जों दी जा रही है. क्योंकि कानून ने महिलाओं को ये हक दिया है कि वे किसी से कम नहीं है. आज की नारी अबला नहीं है बल्कि वह आत्मविश्वास से भरी हुई वह नारी है जो कुछ भी कर सकती है. ये सब कुछ कानून की मदद से ही संभव हो पाया है. आइए जाने कैसे.

 

धरती के इस छोर से उस छोर तक

मुट्ठी भर सवाल लिए मैं

छोड़ती हांफती भागती

तलाश रही हूं सदियों से निरंतर

अपनी जमीन, अपना घर

अपने होने का अर्थ!

 

भारतीय समाज में नारी की स्थिति को बखूबी बयां करती निर्मला पुतुल की ये पंक्तियां पूरे समाज की व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती रही हैं.

लेकिन कांग्रेस के कार्यकाल में जो कानून पारित हुए उस ने महिलाओं की इस स्थिति को लगभग पूरी तरह बदलने का काम किया है. महिलाओं का उत्पीड़न रोकने और उन्हें हक दिलाने के लिए इन कानूनों ने बहुत कुछ ऐसा किया है जिस से महिलाएं भी आज पुरुषों से कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं.

 

इसी का नतीजा है अब लगभग हर घर में फिर चाहे वह अमीर हो या गरीब लड़कियों को लड़कों के बराबर प्यार और सम्मान दिया जाने लगा. जैसे कि अभी हाल ही में दिल्ली के पीतमपुरा में घटित हुई वह घटना जिस में एक नौजवान ने अपने मातापिता की एनिवर्सरी वाले दिन अपने पेरेंट्स और अपनी बहन की हत्या कर दी क्योंकि उसे लगता था कि मातापिता बेटी को ज्यादा प्यार करते हैं और उन्होंने बेटी को संपत्ति में हिस्सेदार बनाया हुआ था.

 

हालांकि जो हुआ वह बहुत गलत हुआ और ये बहस छिड़ गई कि अब वाकई लड़कियों के प्रति समाज का नजरिया बदल गया है. अब उन्हें भी घर परिवार में वो स्थान, वो प्यार, वो जगह मिल रही है जिस की हकदार वो हमेशा से थी. अब बेटियां मांबाप पर बोझ नहीं है बल्कि उन की लाडली हैं, वे भी अब बेटों की तरह मातापिता की देखभाल कर रही हैं.

 

लेकिन सवाल यह है कि लड़कियों की स्थिति में इतना बदलाव आखिर आया कैसे?

 

इस का जवाब एक ही है कि महिलाओं की सुरक्षा और उन के हक के लिए जो कानून बनाए गए उस से उन की स्थिति में काफी सुधार हुआ. आइए जानें कैसे-

 

  1. विवाह कानून 1956 और 2005

 

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में और 2005 में हुए संशोधन के बाद एक बेटी चाहे वह शादीशुदा हो या न हो, अपने पिता की संपत्ति को पाने का बराबरी का हक रखती है. अपने पिता और उस की पुश्तैनी संपत्ति में भी लड़कियों को अपने भाइयों और मां जितना हक मिलता है. अगर पिता ने कोई वसीयत नहीं की है तब भी उन्हें भाइयों के बराबर ही हक मिलेगा. यहां तक की अपनी शादी हो जाने के बाद भी यह अधिकार उन्हें मिलेगा.

 

इस कानून की वजह से किस तरह महिलाओं की स्थिति में बदलाव आया

 

हालांकि 1956 के हिंदू विवाह कानून ने बहुत सारे अधिकार महिलाओं को दिए. जिस में शादी का अधिकार तो था ही बाद में उत्तराधिकार का अधिकार भी मिला. लड़की पिता की प्रौपर्टी में हिस्सेदार तो थी लेकिन उसे बहुत इम्पोर्टेन्ट नहीं दिया गया था. फिर बाद में 2005 में इम्प्लीमेंट हुआ और उस में मान लिया कि यह बराबर की हिस्सेदार हैं. जितना हिस्सा भाई का है उतना ही हिस्सा बहन का भी है.

 

इस का नतीजा यह हुआ कि मायके में शादी के बाद महिलाओं की स्थिति काफी मजबूत हो गई. जहां पहले ये कहा जाता था कि महिलाओं का कोई घर नहीं है. अगर पतिपत्नी में झगड़ा हुआ, वो मायके आ नहीं सकती थी क्योंकि वो कहावत थी कि मायके से डोली जाएगी, अर्थी ससुराल से जाएगी. उसे ये कहावत पूरी जिंदगी निभानी होती थी. लेकिन अब ये परंपरा पूरी तरह खतम हो गई है. अब उस को कानून ने अधिकार दे दिया है.

 

अब उसे पता है कि अगर उस की शादी के कोई दिक्कत है तो उस का अपना घर है जहां वह लौट कर जा सकती है क्योंकि पिता के घर पर उस का भी कानूनन अधिकार है.

 

इस वजह से भाई भी अब बहनों से बना कर रखते है क्योंकि उन्हें पता है कि अगर कोई गड़बड़ कि तो बहन अपना हिस्सा मांग लेगी. इस तरह मायके और ससुराल दोनों जगह उस की इज्जत बढ़ी. ससुरालवालों को भी पता है कि अगर ज्यादा तंग किया तो बहू छोड़ कर चली जाएगी. अब वो पहले वाली अबला नारी नहीं है जिसे ये सिखाया जाता था कि डोली में बैठ कर ससुराल जाना है और अर्थी पर ही लौटना है.

 

पहले लड़कियों को कहा जाता था कि तुम अपनी जबान बंद रखों जो हो गया उसे भूल जाओं. ये मारपीट तो होती रहती है कौन सा पति नहीं मारता. समझा दिया जाता था लड़कियों को. लड़की पूरी जिंदगी ऐसे ही बिता देती थी क्योंकि उसे पता था कि हमारी शादी के बाद हमारे पेरेंट्स के पास हमारे लिए कुछ है नहीं. आज इस उत्तराधिकार कानून की वजह से अधिकार मिल गया कि अगर शादी के बाद मेरे साथ कुछ गलत होता है तो मैं अपने पिता के घर पर भी अधिकार के साथ रह सकती हूं.

 

पहले बेटी के घर का मातापिता पानी भी नहीं पीते थे लेकिन अब बेटों को जब संपत्ति में अधिकार है तो लड़की अपने मातापिता की देखभाल भी कर रही हैं. जब लड़कालड़की समान है, जब आप के अधिकार समान है, तो कर्तव्य भी तो समान हो जाएंगे. आप अगर अपने पेरेंट्स की प्रौपर्टी में हिस्सा ले रहे हो तो आप का ये भी तो अधिकार है कि अगर बाप बीमार हो गया तो आप को उस की देखरेख करनी है. अब वह अपने सासससुर के साथ मातापिता की भी देखरेख कर रही है.

 

  1. विवाह कानून 1955

 

1955 में पारित हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 पहला कानून था जिस ने हिंदू जोड़ों को तलाक लेने की अनुमति दी थी. इस कानून से पहले, हिंदू विवाह में तलाक के लिए कोई नियम नहीं थे. हिंदू विवाह अधिनियम उन शर्तों की व्याख्या करता है जिन के तहत पतिपत्नी कुछ कारण साबित करने के बाद तलाक मांग सकते हैं. जब तक कोर्ट इजाजत न दे तलाक नहीं हो सकता. हिंदू विवाह अधिनियम में न्यायिक अलगाव और तलाक के लिए अलगअलग समाधान हैं.

 

इस कानून की वजह से किस तरह महिलाओं की स्थिति में बदलाव आया

 

पहले हमारे यहां विवाह का कोई कानून नहीं था, तो आदमी 2 शादियां भी कर लेता था 3 भी कर लेता था. तलाक नहीं देना है, तो उसे कोई डर भी नहीं था. कईकई शादी कर के छोड़ दिया कोई पूछने वाला नहीं था. लेकिन जब ये कानून बन गया तब ये अधिकार मिला कि आप 1 से ज्यादा शादी नहीं कर सकते, पहली पत्नी है तो दूसरी शादी नहीं कर सकते. करते हैं, तो वह इललीगल है. अगर आप अपनी पत्नी को छोड़ते हैं, तो आप को गुजारा भत्ता और संपत्ति में अधिकार आदि सब देना पड़ेगा. ये सारे अधिकार हिंदू विवाह कानून 1955 ने महिलाओं को दिए हैं. इस वजह से महिलाओं की स्थिति में बहुत बदलाव आया. ससुराल में पति के साथ उन के रिश्ते में बदलाव आया. उन्हें भी एक इज्जत और मानसम्मान मिला जिस की वो हकदार थी.

 

 

  1. शिक्षा कानून

 

संविधान के 86वें संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा 21(A) के अनुसार 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा अनिवार्य होगी. इस अधिकार को व्यवहारिक रूप देने के लिए संसद में नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 पारित किया गया जो 1 अप्रैल 2010 से लागू हुआ. साल 2009 में, शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) में कहा गया कि न्यूनतम शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक बच्चे का अधिकार है. देश में बालिका शिक्षा आज परिवारों, समुदायों और समाज के लिए एक धुरी है. इस नियम के अनुसार लड़कियों को भी शिक्षा लेने का पूरा अधिकार है.

 

कानून की वजह कैसे महिलाओं की स्थिति में बदलाव आया

 

लड़कियां पहले भी पढ़ा करती थीं लेकिन कुछ परिवारों में ही ये अधिकार मिला हुआ था. अगर पढ़ती भी थीं तो कुछ क्लास करती थी या फिर स्कूल के बाद उन्हें घर के कामकाज में लगा दिया जाता था. लेकिन शिक्षा का प्रसार हुआ तो लड़कियों के पढ़ने पर भी ज्यादा जोर दिया जाने लगा.

 

पहले ये कहा जाता था कि लड़की को ज्यादा पढ़ाने की जरुरत ही क्या है. पढ़ने के बाद भी घर का चूल्हाचौका ही तो करना है. इस मानसिकता से लोग बाहर आएं. जब बेटियों को भी नौकरी आदि में समान अवसर मिलने लगें तो सोच भी बदलने लगी. अब बेटेबेटी में कोई अंतर नहीं रह गया. मातापिता को लगा अपनी बेटी को पढ़ा लिखा कर ही उस की शादी करेंगे. ग्रेजुएट हो जाएं फिर शादी करेंगे ज्यादा पढ़ कर भी क्या करना है कौन सी नौकरी करनी है. ये सोच भी धीरेधीरे बदलने लगी.

अब सोच ये है जैसे प्रोफेशनल डिग्री लड़का ले रहा है वैसे लड़की भी लें. अब तो यहां तक सोचने लगे हैं कि लड़की पहले पढ़ लें, एक दो साल नौकरी कर लें, अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं फिर शादी करेंगी. ये जो क्रमिक बदलाव हुआ ये इन कानूनों की वजह से ही हुआ है जिस ने महिलाओं को पुरुषों के बराबर ला कर खड़ा कर दिया.

 

  1. दहेज निषेध अधिनियम, 1961 

 

दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के तहत, एक महिला को यह अधिकार प्राप्त है कि अगर उस का पैतृक परिवार या उस के ससुराल के लोगों के बीच किसी भी तरह के दहेज का लेनदेन होता है, तो वह इस की शिकायत कर सकती है. आईपीसी के सेक्शन 304B और 498A, के तहत दहेज का आदानप्रदान और इस से जुड़े उत्पीड़न को गैरकानूनी व आपराधिक करार दिया गया है.

कानून के मुतबिक अगर शादी के सात सालों के अंदर किसी महिला की मौत जलने, शारीरिक चोट लगने या संदिग्ध परिस्थितियों में होती है और बाद में ये मालूम चले कि महिला की मौत का जिम्मेदार उस का पति, पति के रिश्तेदारों की तरफ से उत्पीड़न तो उसे ‘दहेज हत्या’ माना जाएगा.

भारतीय न्याय संहिता में धारा 79 में दहेज हत्या को परिभाषित किया गया है और सजा में कोई भी बदलाव नहीं हुआ है. यानी जिस तरह की सजा की व्यवस्था आईपीसी में थी ठीक वही सजा का प्रावधान नई भारतीय न्याय संहिता में भी है.

 

पहले लड़कियों का उत्पीड़न होता था उन के साथ मारपीट होती थी. उन्हें दहेज के लिए सताया जाता था. पहले लड़कियां सहती थी. कईयों की जिंदगी यूं ही गुजर जाती थी, वे ऐसे ही मर खप जाती थी किसी को पता ही नहीं चलता था. दहेज के लिए जाने कितनी लड़कियों को जला दिया जाता था. हालांकि यह सब अभी भी होता है लेकिन काफी कम होता है क्योंकि अब कानून का डर है.

 

आज उन पर कोई अत्याचार करता है तो वह कानून की मदद से अपने ऊपर हुए अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाती हैं. उन के लिए पुलिस है, कानून है. कानून में सजा का प्रावधान है जिस के चलते कोई बहुत जल्दी से अत्याचार नहीं कर पाता. हालांकि यह सब अभी भी होता है लेकिन काफी कम होता है क्योंकि अब कानून का डर है. दहेज का कानून ही है जिस की वजह से आज लड़कियां कालर खड़े कर के बात कर रही हैं उन्हें ये पता है कि न उन्हें कोई प्रोटेक्ट करेगा.

 

  1. घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005

 

घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के अंतर्गत एक महिला को यह अधिकार प्राप्त है कि अगर उस के साथ उस का पति या उस के ससुराल वाले शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, सैक्शुअल या आर्थिक रूप से अत्याचार या शोषण करते हैं तो वह उन के खिलाफ शिकायत दर्ज करवा सकती है.

 

इस कानून की वजह से किस तरह महिलाओं की स्थिति में बदलाव आया

 

पहले महिलाओं के साथ ससुराल में बहुत मारपीट होती थी. उन्हें अपनी हर नाजायज मांगें मनवाने के लिए मजबूर किया जाता था. लेकिन इस कानून की वजह से महिलाओं की स्थिति में बहुत बदलाव आया. आज वे अपने ऊपर हुए अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाती हैं, तो उस का पूरा मायका भी उस के साथ खड़ा हो जाता है क्योंकि उन्हें पता है कानून उन का साथ देगा.

 

यहां तक की लिवइन रिलेशन में रहने वाली महिला को घरेलू हिंसा कानून के तहत प्रोटेक्शन का हक मिला हुआ है. अगर उसे किसी भी तरह से प्रताड़ित किया जाता है तो वह उस के खिलाफ शिकायत कर सकती है. लिवइन में रहते हुए उसे राइटटूशेल्टर भी मिलता है. यानी जब तक यह रिलेशनशिप कायम है, तब तक उसे जबरन घर से नहीं निकाला जा सकता. लेकिन संबंध खत्म होने के बाद यह अधिकार खत्म हो जाता है.

 

  1. अबौर्शन कानून, मेडिकल टर्मिनेशन औफ प्रेग्नेंसी ऐक्ट, 1971

 

इस कानून ने महिलाओं को अधिकार दिया कि अगर किसी महिला की मर्जी के खिलाफ उस का अबौर्शन कराया जाता है, तो ऐसे में दोषी पाए जाने पर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है. यानि की अबौर्शन करना या न करना उन की मर्जी है. आप जबरदस्ती गर्भ में लड़की है और हमें नहीं चाहिए यह कह कर किसी महिला का बच्चा अबौर्ट नहीं करा सकते. अगर गर्भ के कारण महिला की जान खतरे में हो या फिर मानसिक और शारीरिक रूप से गंभीर परेशानी हो या गर्भ में पल रहा बच्चा विकलांगता का शिकार हो तो भी अबौर्शन कराया जा सकता है.

 

इस के अलावा, अगर महिला मानसिक या फिर शारीरिक तौर पर इस के लिए सक्षम न हो भी तो अबौर्शन कराया जा सकता है. अगर महिला के साथ बलात्कार हुआ हो और वह गर्भवती हो गई हो या फिर महिला के साथ ऐसे रिश्तेदार ने संबंध बनाए जो वर्जित संबंध में हों और महिला गर्भवती हो गई हो तो महिला का अबौर्शन कराया जा सकता है.

 

इस कानून की वजह से किस तरह महिलाओं की स्थिति में बदलाव आया

पहले अबौर्शन नहीं करा सकते थे, तो उस का प्रभाव तो लड़की पर ही पड़ता था. अब ये परमिशन है कि अगर बच्चा 6 वीक का है, तो भी आप अबोर्ट करा सकते हो. पहले परिवार में जब तक बेटे का जन्म न हो जाए तब तक महिला को बच्चा पैदा करते रहने के लिए मजबूर किया जाता था. आप बच्चे पैदा करते जा रहे हो, आप को बच्चे पैदा करने की मशीन बना दिया गया. गर्भ में लड़की हो तो उसे महिला की इच्छा के बिना ही मार दिया जाता था. लेकिन अब लड़की एतराज कर सकती है. इस से उस की स्थिति सही हुई है. यह शरीर उस का है और अपने शरीर के स्वास्थ्य का ख्याल रखना उस की जिम्मेवारी होती है. ऐसे में अब अगर उसे लगता है मैं बच्चा नहीं चाहती, तो कोई उसे ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता.

 

ये सारे जो बदलाव आए हैं, लड़कियों की सामाजिक स्थिति, शिक्षा बढ़ रही है, उन के स्वास्थ्य में सुधार हुआ है. उन की आर्थिक स्थिति बदली है, वो शादी के बाद जिस डर के माहौल में रह रही थी वो खतम हुआ है. ये सब कानून की मदद से ही संभव हुआ है. लेकिन शायद हम में से बहुत से लोगों को पता ही नहीं है कि पहले महिलाओं की आजादी और उन्हें बराबरी हक देने के लिए सरकारों ने काफी प्रयास किया. उसी का नतीजा हैं संपत्ति में अधिकार जैसे कानून. इन कानूनों ने महिलाओं को समाज में एक अलग स्थान दिलाया. इन अधिकारों के वजह से लड़कियों पर तवज्जों दी जाती है.

 

लेकिन 2014 के बाद औरतों के हक में कोई कानून नहीं बना. तीन तलाक कानून तो आया लेकिन वो सिर्फ मुसलिम महिलाओं के लिए था. लेकिन हिंदू महिलाओं के लिए कोई कानून नहीं बना. आगे उम्मीद की जा सकती है कि महिलाओं के लिए और भी अच्छे कानून बनेंगे क्योंकि वह भी आखिर देश की आधी आबादी होने का दर्जा रखती हैं.

Online Hindi Story : मन्नो बड़ी हो गई है

Online Hindi Story : ‘‘भाभी, चाय पी लो,’’ नीचे से केतकी की चीखती आवाज से उस की आंख खुल गई. घड़ी देखी, सिर्फ 7 बजे थे और इतने गुस्सेभरी आवाज.

करण पास ही बेखबर सोया था. वह भी उठते हुए यही बोला, ‘‘अरे, 7 बज गए, उठोउठो. केतकी ने चाय बना ली है.’’

‘‘एक चाय ही तो बनाई है. बाकी घर के सारे काम मैं ही तो अकेले करती हूं.’’

‘‘सुबहसुबह तुम बहस क्यों करने लग जाती हो. तुम्हें उठा रहे हैं तो उठ जाओ,’’ करण उनींदी में बोला और फिर चादर तान कर सो गया.

अंदर तक सुलग गई मैं. जब रात में अपनी इच्छापूर्ति करनी होती है तब नहीं सोचते कि इसे सोने दूं, क्योंकि सुबह इसे उठना है. तब तो कहते हैं, अभी तो हमारी शादी को कुल 2 महीने ही हुए हैं. रात की बात सुबह जगाते समय कभी याद नहीं रहती. रोजाना की तरह नफरत दिल में लिए नाइटी संभाल कर मैं सीधा बाथरूम में घुस गई. बंदिशें इतनी कि बिना नहाएधोए, साफ सूट पहने बिना सास के पास नहीं जा सकती.

जल्दीजल्दी नहाधो कर नीचे पहुंची. सास के पांव छुए. वे ?बजाय आशीर्वाद देने के, घड़ी देखने लगीं. गुस्सा तो इतना आया कि घड़ी उखाड़ कर फेंक दूं या सास की गरदन मरोड़ दूं. शुरूशुरू में मायके में मेरी भाभी जब 8 बजे उठ कर नीचे आती थीं तो कभीकभार मम्मी कह देती थीं, ‘बेटा, थोड़ा जल्दी उठने की आदत डालो.’ इस पर भाभी का खिसियाया चेहरा देख कर, एक दिन मैं बोल पड़ी थी, ‘मम्मी, भाभी को गुस्सा आ रहा है. इन्हें कुछ मत कहो.’ भाभी हड़बड़ा गई थीं. तब मुझे भाभी पर व्यंग्य करने में मजा आया था और अपनी मम्मी की नरमी पर गुस्सा.

‘‘क्यों भाभी, मम्मी को इस तरह देख रही हो, मानो खा ही जाओगी,’’ मैं केतकी के व्यंग्य पर चौंकी. वह लगातार मेरा चेहरा ही देखे जा रही थी.

अचानक मेरी भाभी मुझ में आ गईं. मेरे शब्द गले में ही अटक गए. भाभी को भी ऐसी ही बेइज्जती महसूस होती रही होगी मेरे व्यंग्यों पर.

‘‘चाय पी लो, केतकी झाड़ू लगा चुकी है,’’ सास का स्वर शुष्क था. साथ ही, केतकी ने ठंडी चाय मेरे हाथ में पकड़ा दी. मैं चाय को तेजी से सुड़क कर उस के पीछे रसोई में लपकी. अगर मैं ऐसा नहीं करती तो सास बोलतीं, ‘देख, कैसे मजे लेले कर पी रही है, ताकि केतकी दोतीन काम और निबटा ले तथा इस महारानी को कोई काम न करना पड़े.’

केतकी परात में आटा छान रही थी. चाय का कप सिंक में रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘दीदी, तुम तैयार हो जाओ. मैं नाश्ता बनाती हूं,’’ मेरे शब्द मुंह से निकलते ही केतकी परात छोड़ कर रसोई से निकल गई, मानो मुझ पर एहसान कर दिया हो. मैं ने चाय पी या नहीं, यह पूछना तो दूर की बात है.

‘शुरू से ही सारा काम थमा दो. आदत पड़ जाएगी,’ ऐसी नसीहतें अकसर रिश्तेदार व पड़ोसिनें दे जाया करतीं. मेरी मम्मी को भी मिली थीं. पर मेरी मम्मी ने कभी अमल नहीं किया था. अगर थोड़ाबहुत अमल किया था, तो मैं ने. पर यहां तो शब्ददरशब्द अमल किया जा रहा है.

जितनी तेजी से मेरा दिमाग अतीत में घूम रहा था उतनी ही तेजी से मेरे हाथ वर्तमान में चल रहे थे. आटा गूंधा, आलू उबाले, चाय बनाई तथा दूध गरम किया. इतने में केतकी नहाधो कर तैयार हो गई थी.

सास बिस्तर पर बैठेबैठे ही चिल्लाने लगी थीं, ‘‘नाश्ता न मिले तो यों ही चले जाओ. देर मत करना. इस के घर में तो सोते रहने का रिवाज होगा. बता दो इस को कि यहां मायके का रिवाज नहीं चलेगा.’’

जल्दीजल्दी दूध गिलासों में डाला. आलू में मसाला डाल कर उन के परांठे बनाने लगी. दूध व परांठे ले कर जैसे ही कमरे में पहुंची, केतकी मुझे देखते ही पर्स उठा कर जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘दीदी, नाश्ता.’’

‘‘देर हो चुकी है.’’

एक तीखी निगाह मुझ पर डाल कर वह तेजी से निकल गई. मेरी निगाह अचानक घड़ी पर पड़ गई. आधा घंटा पहले ही?

‘‘घड़ी क्या देख रही है,’’ सास ने घूरती निगाहों से देखा. मेरा मन घबराने लगा कि अभी करण को पता चलते ही वह सब के सामने मुझ पर बरस पड़ेगा. मैं निकल गई. दूसरे कमरे में महेश खड़ा था. सास की बड़बड़ाहट जारी थी, ‘सुबह तक सोती रहती है. कितनी बार कहा है कि सवा 6 बजे तक नहाधो कर नीचे आ जाया कर. पड़ीपड़ी सोती रहती है महारानियों की तरह.’ सुबहसुबह सास के तीखे व्यंग्यबाणों को सुन कर दिमाग भन्ना गया.

‘‘भाभी, नाश्ता बना हो तो दे दो,’’ महेश के शांत स्वर से मुझे राहत मिली.

‘‘हांहां, लो न,’’ मैं ने केतकी वाली प्लेट उसे थमा दी.

‘‘केतकी ने नाश्ता नहीं…’’ मेरी उतरी शक्ल देख उस ने बात पलट दी, ‘‘छोड़ो, एक मिरची वाला परांठा बना दोगी, जल्दी से. पर, मां को मत बताना कि ज्यादा मिरची डाली है,’’ महेश हाथ में प्लेट लिए मुसकराता हुआ सास के पास चला गया.

‘‘अभी लाती हूं,’’ मैं खुश हो गई.

परांठा बना कर ले गई तो सास ने मेरी आहट सुनते ही बड़बड़ाना शुरू कर दिया, ‘देर नहीं हो रही है. जल्दी ठूंस और ठूंस के जा.’

‘‘नाश्ता तो आराम से करने दो, मम्मी. लाओ भाभी, धन्यवाद. बस, और मत बनाना.’’

मैं वापस जाने लगी तो सास के शब्द कानों में पड़े, ‘‘परांठे के लिए धन्यवाद बोल रहा है, पागल है क्या?’’ पर मुसकराते हुए महेश के नम्र शब्दों के आगे मेरे लिए सास के तीखे शब्दों के व्यंग्यबाण निरस्त हो गए थे. क्या घर के बाकी लोग भी ऐसे नहीं हो सकते थे?

मुझे याद है, जब एक दिन भाभी मम्मी को दवा दे कर हटीं तो मम्मी बोली थीं, ‘जाओ, जा कर सो जाओ. तुम थक गईर् होगी,’ मैं ने मम्मी से पूछा था, ‘दवा देने से वे थक कैसे जाती हैं? तुम इस तरह बोल कर भाभी को सिर चढ़ाती हो.’

मेरी नादानी पर मम्मी हंसी थीं. फिर बोलीं, ‘हम बूढ़े लोग तन से थकते हैं और तुम जवान लोग मन से थक जाते हो. प्यार के दो बोल मन नहीं थकने देते. जब तू बड़ी हो जाएगी, तेरी शादी हो जाएगी, तब अपनेआप समझ जाएगी.’ मम्मी की बातों पर मैं चिढ़ जाती थी कि वे मुझे बेवकूफ बना रही हैं.

पर नहीं, तब मम्मी ठीक ही कहती थीं. समझ शादी के बाद ही आती है. महेश के प्यारभरे दो शब्द सुन कर मेरे हाथ तेजी से चलने लगते हैं. वरना दिल करता है कि चकलाबेलन नाले में फेंक दूं. 10 मिनट खाना लेट हो जाए तो पेट क्या रोटी हजम करने से मना कर देता है? क्या सास को पता नहीं कि शादी के तुरंत बाद कितना कुछ बदल जाता है. उस में तालमेल बैठाने में वक्त तो चाहिए न. पर क्या बोलूं? बोली, तो कहेंगे कि अभी से जवाब देने लगी है. जातेजाते महेश शाम को ब्रैड रोल्स खाने की फरमाइश कर गया. मुसकरा कर उस का यह आग्रह करना अच्छा लगा था.

‘क्या करण ऐसा नहीं हो सकता?’ मन ही मन सोचते हुए मैं सास को नाश्ता देने गई. वहां पहुंची तो करण जमीन पर बैठे हुए पलंग पर बैठी सास के पांवों पर सिर रखे, अधलेटा बैठा था. देख कर मैं भीतर तक सुलग सी गई.

‘‘नाश्ता…’’ मैं नाश्ते की प्लेट सास के आगे रख कर चुपचाप वापस जाने लगी.

‘‘मैडमजी, एक तो केतकी को समय पर नाश्ता नहीं दिया, ऊपर से मुंह सुजा रखा है. देख कर मुसकराईं भी नहीं,’’ अपनी मां के साथ टेढ़ी नजर से देखते हुए करण ने कहा.

‘‘नहीं तो, ऐसा तो नहीं है. चाय पिएंगे आप?’’ जबरदस्ती मुसकराई थी मैं.

‘‘ले आओ,’’ करण वापस यों ही पड़ गया. मुसकराहट का आवरण ओढ़ना कितना भारी होता है, आज मैं ने महसूस किया. मैं वापस रसोई में आ गई. मुझे बरबस मां की नसीहत याद आने लगी.

मम्मी ने एक दिन भैया से कहा था कि सुबह की पहली चाय तुम दोनों अपने कमरे में ही मंगा कर पी लिया करो. मम्मी की बात सुन कर मैं झुंझलाई थी कि क्यों ऐसे पाठ उन्हें जबरदस्ती पढ़ाती हो. तब मां ने बताया था कि उठते ही मां के पास लेट जाने या बैठने से पत्नी को ऐसे लगता है कि मानो उस का पति रातभर अपनी पत्नी नहीं, मां के बारे में ही सोचता रहा हो. ऐसी सोच बिस्तर पर ही खत्म कर देनी चाहिए. तभी पत्नी पति की इज्जत कर सकती है. मां तो मां ही है. पत्नी लाख चाहे पर बेटे के दिल से मां की कीमत तो कम होगी नहीं. पर ऐसे में बहू के दिल में सास की इज्जत भी बढ़ती है.

करण को सास के पैरों पर लिपटा देख, मम्मी की बात सही लगने लगी. मुझे यही महसूस हुआ जैसे करण सास से कह रहा हो, ‘मां, बस, एक तुम्हीं मुझे इस से बचा सकती हो.’

करण के साथ जब मैं नाश्ता कर रही थी तो सास बोलीं, ‘‘अच्छी तरह खिला देना, वरना मायके में जा कर कहेगी कि खाने को नहीं पूछते.’’

करण अपनी मां की बातों को सुन कर हंसने लगा और मेरा चेहरा कठोर हो गया. खानापूर्ति कर के मैं पोंछा लगाने उठ गई. सारे कमरों में पोंछा लगा कर आई तो देखा करण सास के साथ ताश खेल रहा है. मैं हैरान रह गई. मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘काम पर नहीं जाना है?’’

‘‘मुझे नहीं पता है?’’ करण गुस्से से देख कर बोला. मैं समझ नहीं पाई कि आखिर मैं ने ऐसा क्या कह दिया था.

‘‘तुम्हें जलन हो रही है, हमें एकसाथ बैठे देख कर?’’

‘‘बेटा, तुम जाओ, यह तो हमें इकट्ठा बैठा नहीं देख सकती,’’ सास ताश फेंक कर बिस्तर पर पसर गईं.

करण ने सास को मनाने के प्रयास में मुझे बहुत डांटा. मैं खामोश ही बनी रही.

उस दिन भैया से भी भाभी ने पूछा था, ‘कहां चले गए थे. शादी में नहीं जाना क्या?’ तब मुझे गुस्सा आ गया था कि भैया मेरे काम से बाजार गए हैं, इसलिए भाभी इस तरह बोली हैं. भैया भी भाभी पर बिगड़े थे. मुझे अच्छा लगा था कि भैया ने मेरी तरफदारी की. कभी यह सोचा भी न था कि भाभी भी तो हम लोगों की तरह ही हैं. उन्हें भी तो बुरा लगता होगा. ऐसा उन्होंने क्या पूछ लिया, जिस का मैं ने बतंगड़ बना दिया था. आज महसूस हो रहा है कि तब मैं कितनी गलत थी.

करण दूसरे कमरे से झांकताझांकता मेरे पीछे स्नानघर में घुस गया.

‘‘तुम्हें बोलना जरूरी था. मम्मी को नाराज कर दिया. चुप नहीं रहा जाता,’’ करण जानबूझ कर चिल्लाने लगा ताकि उस की मां सुन लें. दिल चाहा कि करण का गिरेबान पकड़ कर पूछूं कि मां को खुश करने के लिए मुझे जलील करना जरूरी है क्या?

कुछ भी कह नहीं पाई. चुपचाप आंगन में झाड़ू लगाती रही. आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. करण ने देखा भी, पर एक बार भी नहीं पूछा कि रो क्यों रही हो. कमरे से किसी काम से निकली तो करण को सास के साथ हंसता देख कर मेरा दम घुटने लगा. मैं और परेशान हो गई. उठ कर रसोई में आ दोपहर का खाना बनाने लगी. बारबार मम्मी व भाभी की बातें याद आने लगीं. मम्मी कहती थीं कि जब घर में किसी का मूड ठीक न हो तो फालतू हंसा नहीं करते. नहीं तो उसे लगता है कि हम उस पर हंस रहे हैं. और भाभी, वे तो हमेशा मेरा मूड ठीक करने की कोशिश किया करतीं. तब कभी महसूस ही नहीं हुआ कि इन छोटीछोटी बातों का भी कोई अर्थ होता है.

ये लोग तो मूड बिगाड़ कर कहते हैं कि तुरंत चेहरा हंसता हुआ बना लो. मानो मेरे दिल ही न हो. इन से एक प्रश्न पूछो तो चुभ जाता है. मुझे जलील भी कर दें तो चाहते हैं कि मैं सोचूं भी नहीं. क्या मैं इंसान नहीं? मैं कोई इन का खरीदा हुआ सामान हूं?

दोपहर का खाना बनाया, खिलाया, फिर रसोई संभालतेसंभालते 3 बज गए. तभी ध्यान आया कि महेश को ब्रैड रोल्स देने हैं. सो, ब्रैड रोल्स बनाने की तैयारी शुरू कर दी. आलू उबालने को रख कर कपड़े धोने चली गई. कपड़े धो कर जब वापस आई तो करण व्यंग्य से बोला, ‘‘मैडमजी, कहां घूमने चली गई थीं. पता नहीं कुकर में क्या रख गईं कि गैस बंद करने के लिए मम्मीजी को उठना पड़ा.’’

हद हो गई. गैस बंद करना भी इन की मां के लिए भारी काम हो गया. और मेरी कोई परवा ही नहीं है. मैं रसोई में ही जमीन पर बैठ कर आलू छीलने लगी. तभी करण आ गया.

‘‘क्या कर रही हो? 2 मिनट मम्मी के पास बैठने का, उन का मन बहलाने का वक्त नहीं है तुम्हारे पास. जब देखो रसोई में ही पड़ी रहती हो.’’

खामोश रहना बेहतर समझ कर मैं खामोश ही रही.

‘‘जवाब नहीं दे सकतीं तुम?’’ करण झुंझलाया था.

‘‘काम खत्म होगा तो आ जाऊंगी,’’ मैं बिना देखे ही बोली.

‘काम का तो बहाना है. हमारी मम्मी ने तो जैसे कभी काम ही न किया हो,’ बड़बड़ाते हुए वह निकल गया.

कितना फर्क है मेरी मम्मी और सास में. मेरी मम्मी मुझ से कहती थीं कि भाभी का हाथ बंटा दे, खाना रख दे. बरतन उठा दे. फ्रिज में पानी की बोतल रख दे. सब को दूध पकड़ा दे. साफ बरतन संभाल दे. इन छोटेछोटे कामों से ही भाभी को इतना वक्त मिल जाता कि वे मम्मी के पास बैठ जातीं.

इन्हीं कामों के लिए भाभी कभी मेरी तारीफ करतीं तो मैं सोचती कि भाभी अपने को ऊंचा साबित करने की कोशिश कर रही हैं. पर नहीं, भाभी ठीक कहती थीं. यहां पर पानी का गिलास भी सब को बिस्तर पर लेटेलेटे पकड़ाओ. फिर नौकर की तरह खड़े रहो खाली गिलास ले जाने के लिए. अगर एक कप व एक बिस्कुट चाहिए तो नौकरों की तरह ट्रे में हाजिर करो. वरना बेशऊरी का खिताब मिलता है और मायके वालों को गालियां.

करण और सास को चाय व ब्रैड रोल्स दे कर हटी तो महेश आ गया. महेश को चाय दे कर हटी तो केतकी आ गई. वह आते ही सो गई. बिस्तर पर ही उसे चायपानी दिया. केतकी के तो औफिस में एक बौस होगा. यहां तो मेरे 4-4 बौस हैं. किसकिस की सेवा करूं. मैं रात का खाना बनाती, खिलाती रही. इन सब का ताश का दौर चलता रहा. रात साढ़े 10 बजे ठहाकों और खुशी से ताश का दौर रुका तो केतकी ने सास के लिए एक गिलास दूध देने का आदेश दिया और सास ने केतकी को देने का. मुझे किसी ने सुबह भी नहीं पूछा था कि दूध लिया या नहीं.

मेरी तो इतनी हिम्मत भी नहीं थी कि सवा 10 बजे सब को खाना खिला कर मैं बिस्तर पर सो सकती. सुनने को मिल जाता, ‘देखो तो, जरा भी ढंग नहीं है. मांबाप ने सिखाया नहीं है. हम तो यहां बैठे हैं, यह सोने चली गई.’

बिस्तर पर पहुंचतेपहुंचते 11 बज गए. बिस्तर पर लेटी तो पूरा बदन चीसें मार रहा था. तभी करण बोला, ‘‘जरा पीठ दबा दो. बैठेबैठे मेरी पीठ दुख गई,’’ और करण नंगी पीठ मेरी तरफ कर के सो गया.

मन किया कि करण की पीठ पर एक मुक्का दे मारूं या बोल दूं कि जिस मां का मन बहलाने के लिए पीठ दुखाई है, उसी मां से दबवा भी लेते.

बस, यही एक काम बचा था न मेरे लिए? मन ही मन मोटी सी भद्दी गाली दे दी. दिल भी किया कि तीखा जवाब दे दूं. पर याद आया कि कल मायके जाना है. अगर इस का मुंह सूज गया तो यह अपनी मां के आंचल में छिप जाएगा और मैं अपनी मम्मी का चेहरा देखने को भी तरस जाऊंगी. 15 दिनों से भी ज्यादा हो गए मम्मी को देखे हुए.

‘‘कल मायके ले जाओगे न?’’ मैं ने पीठ दबाते हुए कहा.

बड़ी देर के बाद करण के मुंह से निकला, ‘‘ठीक है, दोपहर का खाना जल्दी बना लेना. फिर वापस भी आना है.’’

मैं जलभुन गई यह उत्तर सुन कर. सिर्फ 4 घंटे में आनाजाना और मिलना भी. मजबूरी थी, समझौता कर लिया.

घर पहुंची तो जैसे मम्मी इंतजार कर रही थीं.

‘‘क्या बात है? यह तो जैसे हमें भूल ही गई,’’ भाभी ने प्यार से कहा.

‘‘होना भी चाहिए. आखिर वही घर तो इस का अपना है,’’ करण ने अकड़ कर कहा.

मम्मीभाभी के सामने आते ही आंसू आने लगे थे, मगर मैं रोक लगा गई.

‘‘क्या हुआ???,’’ दोनों हैरान रह गईं मेरी सूरत देख कर.

‘‘कुछ भी नहीं,’’ मैं अपनेआप को रोक रही थी. यहां के लोग मेरे चेहरे से मेरे मन के भाव पढ़ लेते हैं, ससुराल वाले क्यों नहीं पढ़ पाते?

सब ने बहुत आवभगत की. करण को बहुत मान दे रहे थे. मुझे लगा कि करण इन के मान के काबिल नहीं है. लेकिन मजबूरी, मैं कह भी नहीं सकती थी. वापस लौटते वक्त भाभीजी ने बताया कि अच्छा हुआ तुम आज आ गईं. कल वे भी 2 दिनों के लिए मायके जा रही हैं. इस पर करण बोला, ‘‘भाभीजी, शादी से पहले आप इतने साल मायके में ही थीं, फिर मायके क्यों जाती हैं बारबार? अब आप इस घर को ही अपना घर समझा करें.’’ भाभी का चेहरा उतर गया. पता नहीं क्यों, भाभी का उतरा चेहरा मेरे दिल में तीर की तरह वार कर गया.

‘‘आप इतने बड़े नहीं हो कि मेरी बड़ी भाभी को सलाह दे सको. ससुराल को अपना घर समझने का यह मतलब तो नहीं कि भाभी की मम्मी, मम्मी नहीं हैं? उन का अपनी मम्मी के पास बैठने का दिल नहीं करता? दिल सिर्फ लड़कों का ही करता है? लड़कों को हम लोगों की तरह अपना सबकुछ एकदम छोड़ना पड़े तो दर्द महसूस हो.’’

इस अप्रत्याशित जवाब से करण का चेहरा फक हो गया. मेरे भीतर जाने कब का सुलगता लावा बाहर आ गया था. खामोशी छा गई. भाभी मेरा चेहरा देखती रह गईं. मम्मी के चेहरे पर पहले हैरानगी, फिर तसल्ली के भाव आ गए.

बाहर आ कर करण स्कूटर स्टार्ट कर चुका था. मैं मम्मी के गले मिली तो लगा, मैं जाने कब से बिछुड़ी हुई हूं. ममता का एहसास होते ही मेरी आंखों से पानी बाहर आ गया.

मम्मी प्यार से बोलीं, ‘‘मन्नो, बड़ी हो गई है न?’’

मुझे लगा, मैं ने वर्षों बाद अपना नाम सुना है.

भाभी ने भी आज पहली बार ममता भरे आलिंगन में मुझे भींच लिया और रो पड़ी थीं. उन के आंसू मेरे दिल को भिगो रहे थे. मेरे भैया और पापा की आंखों में भी प्रशंसा थी. मुझे उन की ममता और प्यार की ताकत मिल गई थी. स्कूटर पर बैठ कर भी अब मैं सिर्फ भाभी और मम्मी के आंसुओं के साथ थी. बच्चों के मुखसे हमारी 5 वर्षीय पोती अरबिया के सिर में जुएं थीं. उस के सिर से उस की मम्मा जुएं निकाल रही थी. पहली जूं निकालते ही उस ने पूछा, ‘‘यह क्या है मम्मा?’’ उस की मम्मा बोलीं, ‘‘जूं है.’’ दूसरी पर भी उस ने वही सवाल किया. उस की मम्मा ने वही जवाब दोहराया, ‘‘जूं है.’’ तीसरी पर जब उस ने पूछा, ‘‘यह क्या है?’’ तो उस की मम्मा बोलीं, ‘‘लीख है.’’

‘‘लीख क्या होती है?’’ भोलेपन से उस ने अपनी मम्मा से पूछा.

‘‘जूं की बेबी,’’ मम्मा के इस उत्तर पर अरबिया तपाक से पूछ बैठी, ‘‘मम्मा, जूं को बेबी हुई तो उस की मम्मा की डिलीवरी हुई होगी. डिलीवरी हुई तो डाक्टर भी होंगे. तो क्या मेरा सिर अस्पताल है?’’

उस की बात पर हम सब ठहाके मारमार कर हंसने से खुद को नहीं

रोक सके.   शब्बीर दाऊद (सर्वश्रेष्ठ)

मेरा 8 वर्षीय बेटा अर्चित काफी बातूनी है. वह जब भी बाथरूम में जाता तो वहां का दरवाजा बहुत अधिक टाइट होने के कारण उस से मुश्किल से ही बंद हो पाता था. ऐसे ही एक दिन एक बार फिर जब वह दरवाजा उस से ठीक से नहीं बंद हुआ तो कहने लगा, ‘‘मैं जब बड़ा हो कर अपना घर बनाऊंगा तो पूरे घर में स्क्रीन टच दरवाजे लगवाऊंगा ताकि वे बिना हाथ लगाए ही खुल जाएं.’’

उस की बात सुन कर हम सभी को बड़ी हंसी आई और उस की होशियारी अच्छी भी लगी. मेरी पत्नी नीता गैस्ट्रिक की वजह से कुछ अस्वस्थ व परेशान सी दिख रही थी. पूछने पर बोली, ‘‘गैस निकालने की कोशिश कर रही हूं जिस से पेट हलका हो कर सामान्य सा हो जाए.’’ यह सुन कर मेरा 3 वर्षीय बेटा हर्षित तपाक से बोला, ‘‘सिलैंडर कई दिनों से खाली पड़ा है, तो फिर आप उस में गैस भर दीजिए न.’’

दरअसल, उन दिनों गैस की काफी किल्लत हो रही थी. यह सुन कर हम लोग काफी देर तक हंसते रहे. फिर बाद में उसे समझाया.

Best Hindi Story : अफवाह के चक्कर में

Best Hindi Story : जैसे ही बड़े साहब के कमरे में छोटे साहब दाखिल हुए, बड़े साहब हत्थे से उखड़ पड़े, ‘‘इस दीवाली पर प्रदेश में 2 अरब की मिठाई बिक गई, आप लोगों ने व्यापार कर वसूलने की कोई व्यवस्था ही नहीं की. करोड़ों रुपए का राजस्व मारा गया और आप सोते ही रह गए. यह देखिए अखबार में क्या निकला?है? नुकसान हुआ सो हुआ ही, महकमे की बदनामी कितनी हुई? पता नहीं आप जैसे अफीमची अफसरों से इस मुल्क को कब छुटकारा मिलेगा?’’

बड़े साहब की दहाड़ सुन कर स्टेनो भी सहम गई. उस के हाथ टाइप करतेकरते एकाएक रुक गए. उस ने अपनी लटें संभालते हुए कनखियों से छोटे साहब के चेहरे की ओर देखा, वह पसीनेपसीने हुए जा रहे थे. बड़े साहब द्वारा फेंके गए अखबार को उठा कर बड़े सलीके से सहेजते हुए बोले, ‘‘वह…क्या है सर? हम लोग उस से बड़ी कमाई के चक्कर में पड़े हुए?थे…’’

उन की बात अभी आधी ही हुई थी कि बड़े साहब ने फिर जोरदार डांट पिलाई, ‘‘मुल्क चाहे अमेरिका की तरह पाताल में चला जाए. आप से कोई मतलब नहीं. आप को सिर्फ अपनी जेबें और अपने घर भरने से मतलब है. अरे, मैं पूछता हूं यह घूसखोरी आप को कहां तक ले जाएगी? जिस सरकार का नमक खाते हैं उस के प्रति आप का, कोई फर्ज बनता है कि नहीं?’’

यह कहतेकहते वह स्टेनो की तरफ मुखातिब हो गए, ‘‘अरे, मैडम, आप इधर क्या सुनने लगीं, आप रिपोर्ट टाइप कीजिए, आज वह शासन को जानी है.’’

वह सहमी हुई फिर टाइप शुरू करना ही चाहती थी कि बिजली गुल हो गई. छोटे साहब और स्टेनो दोनों ने ही अंधेरे का फायदा उठाते हुए राहत की कुछ सांसें ले डालीं. पर यह आराम बहुत छोटा सा ही निकला. बिजली वालों की गलती से इस बार बिजली तुरंत ही आ गई.

‘‘सर, बात ऐसी नहीं थी, जैसी आप सोच बैठे. बात यह थी…’’ छोटे साहब ने हकलाते हुए अपनी बात पूरी की.

‘‘फिर कैसी बात थी? बोलिए… बोलिए…’’ बड़े साहब ने गुस्से में आंखें मटकाईं. स्टेनो ने अपनी हंसी को रोकने के लिए दांतों से होंठ काट लिए, तब जा कर हंसी पर कंट्रोल कर पाई.

‘‘सर, हम लोग यह सोच रहे थे कि मिठाई की बिक्री तो 1-2 दिन की थी, जबकि फल और सब्जियों की बिक्री रोज होती है, पापी पेट भरने के लिए सब्जियां खरीदा जाना आम जनता की विवशता है. तो क्यों न उस पर…’’

इतना सुनना था कि बड़े साहब की आंखों में चमक आ गई, वह खुशी से उछल पडे़, ‘‘अरे, वाह, मेरे सोने के शेर. यह बात पहले क्यों नहीं बताई? अब आप बैठ जाइए, मेरी एक चाय पी कर ही यहां से जाएंगे,’’ कहतेकहते फिर स्टेनो की तरफ मुड़े, ‘‘मैडम, जो रिपोर्ट आप टाइप कर रही?थीं, उसे फाड़ दीजिए. अब नया डिक्टेशन देना पड़ेगा. ऐसा कीजिए, चाय का आर्डर दीजिए और आप भी हमारे साथ चाय पीएंगी.’’

अगले दिन से शहर में सब्जियों पर कर लगाने की सूचना घोषित कर दी गई और उस के अगले दिन से धड़ाधड़ छापे पड़ने लगे. अमुक के फ्रिज से 9 किलो टमाटर निकले, अमुक के यहां 5 किलो भिंडियां बरामद हुईं. एक महिला 7 किलो शिमलामिर्च के साथ पकड़ी गई?थी, पर 2 किलो के बदले में उसे छोड़ दिया. जब आईजी से इस बाबत बात की गई तो पता चला कि वह सब्जी बेचने वाली थी, उस ने लाइसेंस के लिए केंद्रीय कार्यालय में अरजी दी हुई है. शहर में सब्जी वालों के कोहराम के बावजूद अच्छा राजस्व आने लगा. बड़े साहब फूले नहीं समा रहे थे.

एक दिन बड़े साहब सपरिवार आउटिंग पर थे. आफिस में सूचना भेज दी थी कि कोई पूछे तो मीटिंग में जाने की बात कह दी जाए. छोटे साहब और स्टेनो, दोनों की तो जैसे लाटरी लग गई. उस दिन सिवा चायनाश्ते के कोई काम ही नहीं करना पड़ा. अभी हंसीमजाक शुरू ही हुआ था कि चपरासी ने उन्हें यह कह कर डिस्टर्ब कर दिया कि कोई मिलने आया है.

छोटे साहब ने कहा, ‘‘मैं देख कर आता हूं,’’ बाहर देखा तो एक नौजवान अच्छे सूट और टाई में सलाम मारता मिला. उसे कोई अधिकारी जान छोटे साहब ने अंदर आने का निमंत्रण दे डाला. उस ने हिचकिचाते हुए अपना परिचय दिया, ‘‘मैं छोटामोटा सब्जी का आढ़ती हूं. इधर से गुजर रहा था तो सोचा क्यों न सलाम करता चलूं,’’ यह कहते हुए वह स्टेनो की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘मैडम, यह 1 किलो सोयामेथी आप के लिए?है और ये 6 गोभी के फूल और 2 गड्डी धनिया, छोटे साहब आप के लिए.’’

छोटे साहब ने इधरउधर देखा और पूछा, ‘‘बड़े साहब के लिए?’’

उस ने दबी जबान से बताया, ‘‘एक पेटी टमाटर उन के घर पहुंचा आया हूं.’’

बड़े साहब की रिपोर्ट शासन से होती हुई जब अमेरिका पहुंची तो वहां के नए राष्ट्रपति ने ऐलान किया कि अगर लोग हिंदुस्तान की सब्जी मार्किट में इनवेस्ट करना शुरू कर दें तो वहां के स्टाक मार्किट में आए भूचाल को समाप्त किया जा सकता है.

एक अखबार ने हिंदुस्तान की फुजूलखर्ची पर अफसोस जताते हुए खबर छापी, ‘‘अगर चंद्रयान के प्रक्षेपण पर खर्च किए धन को सब्जी मार्किट में लगा दिया जाता तो उस के फायदे से लेहमैन जैसी 100 कंपनियां खरीदी जा सकती थीं.’’

जैसे आयकर के छापे पड़ने से बड़े लोगों के सम्मान में चार चांद लगते हैं, बड़ेबड़े घोटालों के संदर्भ में छापे पड़ने से राजनीतिबाज गर्व का अनुभव करते हैं, आपराधिक मुकदमों की संख्या देख कर चुनावी टिकट मिलने की संभावना बढ़ती है वैसे ही सब्जी के संदर्भ में छापे पड़ने से सदियों से त्रस्त हम अल्पआय वालों को भी सम्मान मिल सकता है, यह सोच कर मैं ने भी अपने महल्ले में अफवाह उड़ा दी कि मेरे घर में 5 किलो कद्दू है.

छापे के इंतजार में कई दिन तक कहीं बाहर नहीं निकला. अपनी गली से निकलने वाले हर पुलिस वाले को देख कर ललचाता रहा कि शायद कोई आए. मेरा नाम भी अखबारों में छपे. 15 दिन की प्रतीक्षा के बाद जब मैं यह सोचने को विवश हो चुका था कि कहीं कद्दू को बीपीएल (गरीबी रेखा के नीचे) में तो नहीं रख दिया गया? तभी एक पुलिस वाला आ धमका. मेरी आंखों में चमक आ गई. मैं ने बीवी को बुलाया, ‘‘सुनती हो, इन को कद्दू ला के दिखा दो.’’

बीवी मेरे द्वारा बताए गए दिशा- निर्देशों के अनुसार पूरे तौर पर सजसंवर कर…बड़े ही सलीके से 250 ग्राम कद्दू सामने रखती हुई बोली, ‘‘बाकी 15 दिन में खर्च हो गयाजी.’’

पुलिस वाले ने गौर से देखा कि न तो चायपानी की कोई व्यवस्था थी और न ही मेरी कोई मुट्ठी बंद थी. उस की मुद्रा बता रही थी कि वह मेरी बीवी के साजशृंगार और मेरे व्यवहार, दोनों ही से असंतुष्ट था. वह मेरी तरफ मुखातिब हो कर बोला, ‘‘आप को अफवाह फैलाने के अपराध में दरोगाजी ने थाने पर बुलवाया है.’’

Hindi Kahani : अकेले हम अकेले तुम

Hindi Kahani : कल शाम औफिस से आ कर हर्ष ने सूचना दी कि उस का ट्रांसफर दिल्ली से चंडीगढ़ कर दिया गया है. यह खबर सुनने के बाद से तान्या के आंसू रोके नहीं रुक रहे हैं. उस ने रोरो कर अपना हाल बुरा कर लिया है.

‘‘हर्ष मैं अकेले कैसे सबकुछ मैनेज कर पाऊंगी यहां… क्षितिज और सौम्या भी इतने बड़े नहीं हैं कि मेरी मदद कर पाएं… अब घर, बाहर, बच्चों की पढ़ाई सबकुछ अकेले मैं कैसे कर पाऊंगी, यही सोचसोच कर मेरा दिल बैठा जा रहा है,’’ तान्या बोली.

तान्या के मुंह से ऐसी बातें सुन कर हर्ष का मन और परेशान होने लगा. फिर बोला, ‘‘देखो तान्या हिम्मत तो तुम्हें करनी ही पड़ेगी. क्या करूं जब कंपनी भेज रही है तो जाना तो पड़ेगा ही… प्राइवेट नौकरी है. ज्यादा नानुकुर की तो नोटिस भी थमा सकती है हाथ में और फिर भेज रही है तो सैलरी भी तो बढ़ा रही है… आखिर हमारा भी तो फायदा हो रहा है जाने में. सैलरी बढ़ जाएगी तो घर का लोन चुकाने में थोड़ी आसानी हो जाएगी.’’

थोड़ी देर चुप रहने के बाद तान्या का तनाव थोड़ा और कम करने के लिए हर्ष फिर बोला, ‘‘देखो तान्या, महीने का राशन मैं खरीद कर रख ही जाऊंगा… सब्जी वाले रोज घर के सामने से जाते हैं. उन से ले लिया करना. अगर वक्तबेवक्त कोई और जरूरत पड़ती है तो आसपास के लोग हैं ही… इतना रिश्ता तो हम ने बना रखा ही है हरेक से कि एक फोन करने पर कोई भी आ खड़ा होगा.’’

मगर हर्ष के समझाने का तान्या पर सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ रहा था. दरअसल, 10 सालों के वैवाहिक जीवन में यह पहला अवसर आया था जब तान्या को हर्ष से अलग रहने की जरूरत आ पड़ी थी. पहले तो तान्या ने भी साथ ही चंडीगढ़ चलने की बात कही पर दिल्ली से चंडीगढ़ जाने का मतलब बच्चों का नए स्कूल में ऐडमिशन कराना, नई यूनीफौर्म खरीदना, वहां किराए का घर ले कर रहना और फिर उस का किराया देना और यहां लोन की किस्त चुकानी किसी भी तरह से संभव नहीं होगा.

फिर इस बात की भी तो कोई गारंटी नहीं थी कि वहां सारी व्यवस्था कर लेने के बाद 10-12 साल वहीं रहेंगे. क्या पता अगले ही साल फिर कंपनी दिल्ली वापस बुला ले तो कब तक बच्चों को ले कर ऐसे फिरते रहेंगे? इसलिए हर्ष ने तान्या को समझाते हुए कहा कि उस का अकेले जाना ही उचित होगा.

हर्ष को अगले ही सोमवार को चंडीगढ़ औफिस जौइन करना था, इसलिए वह बुझे मन से जाने की तैयारी करने लगा.

हर्ष भी पहली बार अकेला रहने जा रहा था, इसलिए मन ही मन घबराहट उसे भी बहुत हो रही थी. बचपन से आज तक अपने हाथ से

1 गिलास पानी तक ले कर नहीं पीया था उस ने. पहले मां और बहनें और फिर शादी के बाद तान्या उस के सारे काम कर दिया करती थी.

हर्ष मन ही मन सोच कर परेशान हो रहा था कि कैसे वह अपने कपड़े धोएगा, बैडशीट बदलेगा, कमरे की सफाई करेगा…? खाना, नाश्ता तो बाहर कर लेगा या टिफिन लगवा लेगा पर कभी चाय पीने का मन हुआ या बीच में भूख लगी तो क्या करेगा? मगर तान्या और बच्चों की चिंता में वह अपनी परेशानी के बारे में कोई चर्चा नहीं कर पा रहा था और न ही तान्या का ध्यान इस पर जा रहा था कि उस का पति उस के बिना अकेले कैसे रह पाएगा.

इतवार की सुबह से ही हर्ष की व्यस्तता बढ़ी हुई थी. अपने सामान की पैकिंग के साथसाथ वह इस बात का भी खयाल रख रहा था कि उस के जाने के बाद घर में किसी चीज की कमी न रह जाए जिस के लिए तान्या को बच्चों को ले कर बाजार के चक्कर लगाने पड़ें. राशन, सब्जी, फल, मिठाई आदि 1-1 चीज वह घर में ला कर रखता जा रहा था. शाम होतेहोते तान्या का उतरा चेहरा देख कर उस का दिल यह सोच कर घबराने लगा कि कहीं उस के जाने के बाद तान्या की तबीयत न खराब हो जाए.

‘‘तान्या कुछ दिनों के लिए मम्मी को आने के लिए कहूं क्या? तुम्हें देख कर मुझे चिंता हो रही है कि तुम अकेले रह पाओगी या नहीं?’’

‘‘हर्ष, सोच तो मैं भी रही थी कि मम्मीजी आ जातीं कुछ दिनों के लिए मेरे पास तो ठीक रहता, पर वहां भी तो रिंकी और पापाजी को परेशानी होगी उन के बिना. यही सोच कर मैं ने कुछ कहा नहीं.’’

‘‘हां वह तो है, फिर भी एक बार बात कर के देखता हूं. मम्मी से कहता हूं कि 4-5 दिनों के लिए आ जाएं. फिर शनिवार को मैं आ ही जाऊंगा. आगे की आगे देखेंगे.’’

हर्ष ने अपनी मां से बात की तो बेटेबहू की समस्या सुन कर विचलित हो गईं. बोलीं कि वे यहां की व्यवस्था समझा कर कल ही दिल्ली आ जाएंगी. रिंकी और उस के पापा मिल कर 1 सप्ताह गुजार लेंगे किसी तरह से.

मम्मीजी आ जाएंगी, यह सुन तान्या ने राहत की सांस ली और फिर उस ने हर्ष की बची तैयारी करा कर नम आंखों से दूसरे दिन उसे चंडीगढ़ के लिए विदा किया.

बात नौकरी और जीवनयापन की थी, इसलिए न आने का कोई विकल्प नहीं था हर्ष के पास पर सही माने में मन ही मन वह बहुत परेशान था. एक तरफ तान्या और बच्चों की चिंता तो दूसरी तरफ अपने बारे में सोचसोच कर परेशान हो रहा था कि बिना तान्या के कैसे रहेगा.

1 सप्ताह तक तो कंपनी के गैस्ट हाउस में रहना था तब तक तो खैर कोई समस्या नहीं होनी थी, पर इसी 1 सप्ताह में उसे अपने लिए किराए का घर ले कर रहने की पूरी व्यवस्था करनी होगी. दसियों झंझट होने थे उस में…घर खोजो, कामवाली खोजो, समय पर कपड़े धो कर प्रैस करने को दो. तान्या के होते ये सब काम इतने कठिन होते हैं उसे कभी एहसास ही नहीं हुआ था.

अपने घर में तो आज तक उस ने कभी कामवाली से बात  तक नहीं की थी. अब कैसे उस से बात करेगा. कौन से कपड़े गंदे हैं और कौन से साफ इस का फर्क तक आज तक नहीं कर पाया था वह. अब ये सारी चीजें खुद करनी पड़ेंगी, यह सोच कर पसीना छूट रहा था.

1 सप्ताह जैसेतैसे गुजार कर अगले शनिवार की रात को जब हर्ष एक दिन के लिए चंडीगढ़ से दिल्ली आया तो घर में त्योहार जैसा माहौल बन गया. बच्चे उस के इर्दगिर्द मंडराने लगे और तान्या के पास तो हर्ष को बताने के लिए इतनी सारी बातें इकट्ठी हो गई थीं मानो वह सालों बाद हर्ष से मिल रही हो. 1 सप्ताह तक हर्ष के बिना उस ने 1-1 पल कैसे बिताया इस का वर्णन खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था.

पर मम्मीजी की निगाह हर्ष के चेहरे पर अटक गईर् थी, ‘‘बेटा तू 1 ही सप्ताह में कितना दुबला हो गया है,’’ कहते हुए उन की आंखें भर आईं. उन का बस चलता तो वे एक ही दिन में हर्ष को अपने हाथों से उस के पसंद की सारी चीजें बना और खिला कर पूरे सप्ताह की कमी पूरी कर देतीं, लेकिन शाम को उन का वापस जाना भी जरूरी था, क्योंकि रिंकी के पेपर शुरू होने वाले थे. उन की अनुपस्थिति से उस की पढ़ाई बाधित हो रही थी.

मम्मीजी को शाम की ट्रेन में बैठा कर आने के बाद बच्चों ने जिद पकड़ ली पिज्जा खाने की. तान्या ने भी उन का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘जब से तुम गए हो तब से ही ये पिज्जा खाने की जिद कर रहे हैं. मैं ने समझा रखा था कि पापा के आने के बाद चलेंगे. अब चल कर खिला दो वरना तुम्हारे जाने के बाद फिर मुझे परेशान करेंगे.’’

हर्ष का मन न ही इस समय बाहर जाने का हो रहा था और न ही बाहर का कुछ खाने का. उस का दिल कर रहा था कि बचाखुचा समय वह सब के साथ सुकून से घर में बिताए और तान्या के हाथ का बना घर का गरमगरम खाना खाए, पर बच्चों और तान्या की बात न मान कर वह अपराधभावना से घिरना नहीं चाह रहा था. अत: बेमन से ही वह सब को साथ ले कर पिज्जा हट चला गया.

दूसरे दिन फिर सुबहसुबह ही वह चंडीगढ़ के लिए निकल गया. ट्रेन में बैठते ही हर्ष ने सोचना शुरू कर दिया कि कहीं कुछ ऐसा रह तो नहीं गया जिस की वजह से तान्या को परेशान होना पड़े. पर जब उसे ऐसी कोई बात याद नहीं आई तो उस ने सुकून के साथ सीट पर सिर टिका कर आंखें बंद कर लीं.

चंडीगढ़ जाने के साथ ही हर्ष की जिंदगी से आराम और सुकून शब्द गायब हो गए. अब तक शनिवार की शाम से ले कर सोमवार की सुबह तक जो सुकून के पल हुआ करते थे अब तो वही पल सब से ज्यादा भागदौड़ वाले बन गए. औफिस से छूटते ही वह स्टेशन की ओर भागता फिर ट्रेन से उतर कर औटो पकड़ कर घर पहुंचता. तब तक बच्चे तो सो चुके होते थे, इसलिए बच्चों के साथ वक्त बिताने की खुशी में वह सुबह जल्दी उठ जाता. फिर सारा दिन साप्ताहिक खरीदारी या बच्चों को घुमानेफिराने में निकल जाता. फिर सोमवार की सुबह शताब्दी पकड़ने के लिए सुबह 5 बजे ही नहाधो कर तैयार हो कर उसे घर से निकलना पड़ता था.

तान्या अकेली है यह सोच कर बीचबीच में उस के सासससुर चक्कर लगा जाते थे, पर चूंकि वे भी अभी नौकरी करते थे, इसलिए ज्यादा दिन रुकना संभव नहीं हो पाता था.

एक शनिवार जब हर्ष घर आया तो घर पर तान्या की मां सारिकाजी उस के साथ रहने के लिए आई हुई थीं. तान्या के मुंह से उस की परेशानी सुन कर वे कुछ दिनों के लिए उस के पास रहने को आ गई थीं.

हर्ष को देखते ही उन के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं, ‘‘हर्ष बेटा आप का स्वास्थ्य इतना गिर कैसे गया है? चेहरे से रौनक ही गायब हो गई है. अभी 2 महीने पहले जब आप से मिली थी तब तो आप ऐसे नहीं थे? क्या खानेपीने का सही इंतजाम नहीं है वहां पर?’’

‘‘नहीं मम्मीजी खानापीना तो सब ठीक है वहां पर बस घर से दूर हूं तो बच्चों की याद सताती रहती है. बस इसी वजह से आप को ऐसा लग रहा होगा. अब आज घर आया हूं तो कल देखिएगा मेरा चेहरा भी चमकने लगेगा.’’

दूसरे दिन सुबह से ही हर्ष फिर घर की व्यवस्था और बच्चों की फरमाइशें पूरी करने में जुट गया. डिनर के लिए जब फिर सब ने बाहर का प्रोग्राम बनाया तो सारिकाजी ने रोकते हुए कहा कि कल सुबह ही हर्ष को निकलना है तो इस समय सब घर पर ही रहो, घर पर ही बनाओखाओ.

मगर बच्चे नहीं माने तो सारिकाजी ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम सब जाओ मैं नहीं जाऊंगी. मैं अपने लिए यहीं कुछ बना लूंगी.’’

निकलतेनिकलते हर्ष ने कहा, ‘‘मम्मीजी, आप अपने लिए जो भी बनाइएगा उस में 2 रोटियां मेरी भी बना दीजिएगा. मैं भी घर आ कर ही खा लूंगा, बाहर का खाना खाखा कर मन भर गया है मेरा.’’

सारिकाजी ने उस समय तो कुछ नहीं कहा, लेकिन दूसरे दिन हर्ष के जाने के बाद तान्या को आड़े हाथों लिया, ‘‘तान्या, तुझे क्या लगता है हर्ष की पोस्टिंग दूसरे शहर में हो गई है तो उस में उस का कोई गुनाह है? तुझे यहां अकेले रहना पड़ रहा है तो इस में उस का कोई कुसूर है? क्या सोचती है तू? क्या अकेले रहने से परेशानियों का सामना केवल तुझे ही करना पड़ रहा है? हर्ष बड़ा ऐश कर रहा है वहां पर? कैसी बीबी है तू कि तुझे उस का खराब हो रहा स्वास्थ्य और ढलता जा रहा चेहरा नहीं दिख रहा है? देख रही हूं एक दिन के लिए इतनी दूर से बेचारा भागाभागा बीवीबच्चों के पास रहने के लिए आया और सारा दिन तुम लोगों की जरूरतें और फरमाइशें पूरी करने में लगा रहा. 1 पल भी चैन से नहीं बैठ पाया. क्या उस के शरीर को आराम की जरूरत नहीं है?’’

‘‘पर मां मैं ने ऐसा क्या कर दिया जो आप इतना नाराज हो रही हैं मुझ पर? आप को ऐसा क्यों लगने लगा कि मुझे हर्ष की चिंता नहीं है? ऐसा क्या देख लिया आप ने जो मुझे इतना डांट रही हैं?’’

‘‘देख तान्या जब से हर्ष चंडीगढ़ गया है तब से मैं तेरे मुंह से बस यही सुनती आ रही हूं कि मैं अकेले कैसे रह रही हूं यह मैं ही जानती हूं. मुझे कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है कि क्या बताऊं? यह बात तू अपने मायके, ससुराल के 1-1 इंसान को बता चुकी है… अकेले रहने की वजह से तुझे कितनी तरह की परेशानियां हो रही हैं… पर एक बार भी मैं ने तुम्हें हर्ष की चिंता करते नहीं सुना. एक बार भी मैं ने तेरे मुंह से यह नहीं सुना कि हर्ष वहां क्या खाता होगा? पता नहीं मनपसंद खाना मिलता भी होगा उसे या नहीं… उस के कपड़े कैसे धुलते और प्रैस होते होंगे? शाम को थकाहारा घर आता होगा तो 1 कप चाय की जरूरत होती होगी तो क्या करता होगा?

‘‘बेचारा एक दिन के लिए घर आता है और उस एक दिन भी तू उसे एक पल भी आराम से बैठने नहीं देती. सारा दिन किसी न किसी काम के लिए दौड़ाए रहती है उसे… क्या इतनी पढ़ीलिखी होने के बावजूद तू हर्ष के बिना घरगृहस्थी के अपने छोटेबड़े काम नहीं कर सकती?’’

‘‘मां मैं कर तो लेती पर आप तो देख ही रही हैं कि क्षितिज और सौम्या इतने छोटे हैं कि इन्हें ले कर बाजार जाना खतरे से खाली नहीं है… और बाहर खाना और घूमनाघुमाना तो बच्चों की फरमाइश पर करना पड़ता है… मैं थोड़े ही कहती हूं जाने को,’’ तान्या ने रोंआसे होते हुए कहा.

इस पर सारिकाजी ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटा, मैं समझ रही हूं कि हर्ष के जाने की वजह से तुझे परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है पर तू केवल अपनी ही परेशानियों के बारे में क्यों सोचती रहती है? क्या यह खुदगर्जी नहीं है तेरी? मेरी नजर में तो तुझ से ज्यादा परेशानी हर्ष को उठानी पड़ रही है. तुझ से तो केवल हर्ष दूर गया है पर हर्ष से तो घर, बीवीबच्चे, घर का खाना, घर का सुकून सबकुछ छिन गया है. एक दिन के लिए आता भी है तो तुम सब के लिए ऐसे परेशान होता है जैसे कोई गुनाह कर के लौटा है.

‘‘तू पढ़ीलिखी और समझदार है. तुझे चाहिए कि बच्चों को स्कूल भेजने के बाद बाजार जा कर सारा सामान ला कर रख ले ताकि कम से कम रविवार को तो दिनभर हर्ष आराम से रह सके… और तुझे शुरू से पता है कि हर्ष को तेरे हाथ का बना खाना ही पसंद है बाहर के खाने से वह कतराता है. फिर भी तू रविवार को भी उसे बजाय अपने हाथों से बना कर खिलाने के बाहर ले जाती है. बच्चों को पिज्जाबर्गर खाना हो तो तू ही ले जा कर खिला आया कर.’’

मां की बात सुन कर तान्या को एहसास हुआ कि सचमुच वह बहुत बड़ी गलती कर रही

थी कि हर्ष के जाने से समस्या केवल उसे हो रही है. हर्ष की परेशानियों के बारे में न सोच कर वह इतनी खुदगर्ज कैसे बन गई उसे खुद ही समझ में नहीं आ रहा था.

अगले शुक्रवार को बच्चों को स्कूल भेज कर घर के सारे छोटेबड़े कामों की लिस्ट बना कर तान्या घर से निकल गई. उस ने तय कर लिया था कि अब आगे से हर्ष के आने पर उसे किसी काम के लिए बाहर नहीं भेजेगी, बल्कि अब पूरा रविवार वे सब हर्ष के साथ घर पर ही बिताएंगे ताकि उसे शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से आराम मिल सके.

बाजार की तरफ जाते समय अचानक तान्या की नजर सड़क के किनारे छोलेचावल के ठेले के पास खड़े एक युवक पर पड़ी जो जल्दीजल्दी छोलेचावल खा रहा था. उसे देखते ही न जाने क्यों तान्या की आंखों से आंसू गिरने लगे. वह सोचने लगी कि हर्ष भी तो आखिर भूख लगने पर ऐसे ही जहां कहीं भी जो कुछ भी मिल जाता होगा खा कर अपना पेट भर लेता होगा. मनपसंद चीजों की फरमाइश कर के बनवाना और खाना तो भूल ही गया होगा हर्ष.

अपने आंसू पोंछतेपोंछते तान्या जल्दीजल्दी घर चली जा रही थी, साथ ही सोचती भी जा रही थी कि अपने परिवार वालों को भरपेट भोजन देने और उन के लिए सुखसुविधा जुटाने के लिए घर से दूर रह कर दिनरात खटने वाले हमारे पतियों को भूख लगने पर मनपसंद भोजन तक मुहैया नहीं होता और हम पत्नियां यही जताती रह जाती हैं कि हम ही उन के बिना बड़ी कठिनाइयों का सामना कर रही हैं.

Emotional Hindi Story : क्यों दूर चले गए

Emotional Hindi Story : सामाजिक मान्यताएं, संस्कार और परंपराएं व्यक्ति को अपने मकड़जाल में उलझाए रखती हैं. ऐसे में या तो वह विद्रोह कर के सब का कोपभाजन बने या फिर परिस्थितियों से समझौता कर के खुद को नियति के हाल पर छोड़ दे. किंतु यह जरूरी नहीं कि वह सुखी रह सके.

मैं भी जीवन के एक ऐसे दोराहे पर उस मकड़जाल में फंस गया कि जिस से निकलना शायद मेरे लिए संभव नहीं था. कोई मेरी मजबूरी नहीं समझना चाहता था. बस, अपनाअपना स्वार्थ भरा आदेश और निर्णय वे थोपते रहे और मैं अपने ही दिल के हाथों मजबूरी का पर्याय बन चुका था.

मैं जानता हूं कि पिछले कई दिनों से खुशी मेरे फोन का इंतजार कर रही थी. उस ने कई बार मेरा फैसला सुनने के लिए फोन भी किया था मगर मेरे पास वह साहस नहीं था कि उस का फोन उठा सकूं. वैसे हमारे बीच कोई अनबन नहीं थी और न ही कोई मतभेद था फिर भी मैं उस का फोन सुनने का साहस नहीं जुटा सका.

मैं ने कई बार यह कोशिश की कि खुशी को फोन पर सबकुछ साफसाफ बता दूं पर मेरा फोन पर हाथ जातेजाते रुक जाता और दिल तेजी से धड़कने लगता. मैं घबरा कर फोन रख देता.

खुशी मेरी प्रेमिका थी, मेरी जान थी, मेरी मंजिल थी. थोडे़ में कहूं तो वह मेरी सबकुछ थी. पिछले 4 सालों में हमारे बीच संबंध इतने गहरे बनते चले गए कि हम ने एकदूसरे की जिंदगी में आने का फैसला कर लिया था और आज जो समाचार मैं उसे देने जा रहा था वह किसी भी तरह से मनोनुकूल नहीं था. न मेरे लिए, न उस के लिए. फिर भी उसे बताना तो था ही.

मैं आफिस में बैठा घड़ी की तरफ देख रहा था. जैसे ही 2 बजेंगे वह फिर फोन करेगी क्योंकि इसी समय हम दोनों बातें किया करते थे. मैं भी अपने काम से फ्री हो जाता और वह भी. बाकी आफिस के लोग लंच में व्यस्त हो जाते.

मैं ने हिम्मत जुटा कर फोन किया, ‘‘खुशी.’’

‘‘अरे, कहां हो तुम? इतने दिन हो गए, न कोई फोन न कोई एसएमएस. मैं ने तुम्हें कितने फोेन किए, क्या बात है सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, ठीक ही है. बस, तुम से मिलना चाहता हूं,’’ मैं ने बडे़ अनमने मन से कहा.

‘‘क्या बात है, तुम ऐसे क्यों बोल रहे हो? न डार्लिंग कहा, न जानू बोले. बस, सीधेसीधे औपचारिकता निभाने लग गए. घर पर कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘हां, हुई तो थी पर फोन पर नहीं बता सकता. तुम मिलो तो सारी बात बताऊंगा.’’

‘‘देखो, कुछ ऐसीवैसी बात मत बताना. मैं सह नहीं पाऊंगी,’’ वह एकदम घबरा कर बोली, ‘‘डार्लिंग, आई लव यू. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगी.’’

‘‘आई लव यू टू, पर खुशी, लगता है हम इस जन्म में नहीं मिल पाएंगे.’’

‘‘यही खुशखबरी देने के लिए तुम मुझ से मिलना चाहते थे,’’ खुशी एकदम असंयत हो उठी, ‘‘तुम ने जरा भी नहीं सोचा कि मुझ पर क्या बीतेगी. क्या सोचेंगे वे लोग जो हमें हमेशा एकसाथ देखते थे. यही है तुम्हारा प्यार. तुम्हारे कहने पर ही मैं ने मम्मीपापा को अपने रिश्ते के बारे में बताया था. आज क्या कहूंगी कि सब झूठ है,’’ इतना कहतेकहते खुशी रो पड़ी और फोन काट दिया.

इस के बाद मैं ने कितनी ही बार उसे फोन किया पर हर बार वह काट देती और अंत में उस ने फोन ही बंद कर दिया.

मैं एकदम परेशान हो गया. कहता भी तो किस से.

खुशी का मुझ से गुस्सा होना स्वाभाविक था. मैं ने ही उस से झूठेसच्चे वादे किए थे. मैं ने उस को एक सुनहरे भविष्य का सपना दिखाया था. अपना सुखदुख उस से बांटा था. उस ने हर समय मुझे एक रास्ता दिखाया था. मेरे बीमार होने पर वह बुरी तरह परेशान हो जाती थी और बिना कहे कई दवाइयां सीधे मेरे आफिस भिजवा देती और मेरे चपरासी को फोन कर के ढेर सारी हिदायतें भी देती. वह जानती थी कि मैं अपने प्रति बेहद लापरवाह हूं. आज मैं ने उस के सारे सपने पल भर में ही तोड़ दिए.

शाम को उदास मन और भरे दिल से मैं घर पहुंचा. मुझे देखते ही भाभी ने पूछा, ‘‘क्या बात है, तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कहते हुए मैं रोंआसा सा हो गया. मुझे लगा कि वहां कुछ देर और खड़ा रहा तो आंसू न आ जाएं, इसलिए खुद को संभालता हुआ चुपचाप अपने कमरे में चला गया. बिस्तर पर गिरते ही मेरा सारा अवसाद आंखों के रास्ते बह निकला. रोतेरोते आंसू तो सूख गए पर भीतर का मन शांत न हो सका. थोड़ी देर में भाभी ने खाने के लिए पूछा. मैं ने कह दिया कि खा कर आ रहा हूं, भूख नहीं है पर खाया कब था, मैं अपने विचारों से जितना बचना चाहता था वे मुझे उतना ही सताने लगे.

खुशी से मेरी मुलाकात 4 साल पहले आफिस के बाहर वाले बस स्टैंड पर हुई थी. उजला वर्ण, तीखी नाक, लंबा कद और सधी हुई देहयष्टि. ऊपर से कपडे़ पहनने का ढंग इतना निराला था कि मैं उसे देखे बिना नहीं रह सका और पहली ही नजर में वह आंखों के रास्ते दिल में उतर गई. हमारी चार्टर्ड बस और आफिस के छूटने का लगभग एक ही समय था. मैं 5 मिनट पहले ही बस स्टैंड पर पहुंच जाता. पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता था कि उस की आंखें निरंतर मुझे ही तलाशती रहती हैं. धीरेधीरे वह भी आतेजाते मुझे देख कर हंस देती. इस तरह हम एकदूसरे के करीब आ गए. उस के पिता नेवी में उच्च पद पर थे तथा मेरे पिता मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर थे.

बीतते दिनों के साथ खुशी से मेरा प्रेम भी परवान चढ़ता गया. हमारी मुलाकातों की संख्या और समय दोनों बढ़ते रहे. इस दौरान मुझे सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली एक बड़़ी कंपनी में बहुत अच्छा औफर मिला और मैं ने उसे स्वीकार कर लिया. अब दोनों के दफ्तरों में कई किलोमीटर का फासला हो गया था. इस के बावजूद भी हम कोई न कोई बहाना ढूंढ़ कर मिलते रहे. हम दोनों कभी फिल्में देखते तो कभी बिना मकसद बांहों में बांहें डाल कर इधरउधर घूमते.

एक दिन खुशी ने मेरे कंधे पर अपना सिर रख कर कहा, ‘अब बहुत हो चुकी है चुहलमस्ती. सीधीसीधी बात बताओ, कब मिला रहे हो मुझे अपनी मम्मी से.’

‘अरे, तुम तो दिल के रास्ते सीधा घर पर कब्जा करने की सोच रही हो,’ मैं ने मजाक के लहजे में कहा.

‘मेरे पापा अब रिटायर होने वाले हैं. वह चाहते हैं कि मेरी जल्दी से शादी हो जाए ताकि नौकरी में रहते हुए वह अपनी तमाम सुविधाओं का उपयोग कर सकें. रिटायरमेंट के बाद तो हम सिविलियन हो जाएंगे. फिर कहां ये सुविधाएं मिलेंगी.’

‘तो कोर्ट मैरिज कर लेंगे,’ मैं ने चुटकी लेते हुए कहा और उस के माथे पर घिर आई लटों को पीछे करने के बहाने उसे अपने अंक में भींच लिया. उस ने बिना कोई प्रतिवाद किए अपना सिर मेरे कंधों पर टिका दिया.

‘सच कहूं तो मुझे इन मजबूत कंधों की बहुत जरूरत है. प्लीज, मेरी बात को सीरियसली लेना, नहीं तो तुम्हारी खुशी तुम्हारे हाथ से निकल जाएगी,’ कहतेकहते वह रोंआसी हो गई.

मैं ने उस की भर आई आंखों के कोरों से बहने वाले आंसू के कतरे को अपनी उंगलियों से पोंछा, ‘तुम तो बेहद संजीदा हो गई हो.’

‘हां, बात ही कुछ ऐसी है. इन दिनों मेरे रिश्ते की बातें चल रही हैं. तुम एक बार अपने घर पर बात कर लेते तो मैं भी कम से कम उन्हें बता देती.’

‘कौन सी बात? मैं ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘क्या कहोगी मेरे बारे में?’

‘यही कि तुम बेवकूफ हो, बुद्धू हो, एकदम बेकार और गुस्से वाले हो, पर तुम मेरे हो,’ कह कर पुन: खुशी ने मेरी गोद में सिर रख दिया. देर तक हम यों ही भविष्य के सपने संजोते रहे. मैं ने उस का हाथ अपने हाथों में रखा और उसे जल्दी ही बात करने का आश्वासन दिया. हम दोनों ही वहां से विदा हो गए.

घर पर मैं अपनी बात को इस ढंग से पेश करना चाहता था कि इनकार की कोई गुंजाइश ही न रहे और इस के लिए उचित अवसर तलाशता रहा.

भैया की शादी को 2 वर्ष हो चुके थे और उन का 8 माह का एक बेटा भी था. हमारे घर का माहौल बेहद सौहार्दपूर्ण था पर घर के सभी लोग एकसाथ नहीं मिल पाते थे.

मैं सपनों में जीने लगा था. एक दिन मैं आफिस में बैठा कोई काम कर रहा था कि तभी मेरे मोबाइल पर पापा का फोन आया. पता चला कि भैया का एक्सीडेंट हो गया और उन्हें काफी गंभीर चोटें आई हैं. वह जीवन नर्सिंगहोम में हैं. इस से पहले कि मैं वहां पहुंचता, भैया की निर्जीव देह को लोग एंबुलेंस में डाल कर घर ले जा रहे थे.

घर पर मरघट का सा सन्नाटा पसरा था. सभी एकदम स्तब्ध रह गए थे. भाभी तो जैसे पत्थर ही बन गईं और मम्मीपापा का रोरो कर बुरा हाल था. 2-3 दिनों तक घर का माहौल बेहद गमगीन रहा.

समय अपनी गति से चलता रहा. घर का माहौल धीरेधीरे संभलने लगा. खुशी मेरी विवशता समझती थी और दिल का हाल भी. जितनी बार भी समय निकाल कर मैं ने उस से संपर्क किया, बेहद नरम आवाज में वह संवेदना व्यक्त करती और मेरे घर पर आने की जिद करती. वह चाहती थी कि मैं अपने और उस के बारे में घर पर सबकुछ बता दूं मगर मैं ऐसा कर नहीं पा रहा था.

मम्मी भाभी को ले कर बेहद चिंतित और दुखी थीं. एक तो उन का बड़ा बेटा गुजर गया था, दूसरा जवान बहू का गम. उन्हें इस बात की बेहद चिंता थी कि बहू बाकी की तमाम उम्र इस घर में कैसे बिताएगी.

एक दिन खुशी और मैं पार्क में बैठे थे. वह भरे स्वर

में कहने लगी, ‘देखो, अब तक मैं पापा को जैसेतैसे टालती रही हूं पर अब और उन्हें टाल नहीं पाऊंगी. आज भी उन्होंने मुझे कई लड़कों के फोटो दिखाए हैं. तुम ने यदि अब तक अपने घर पर बात की होती तो मैं कम से कम तुम्हारे बारे में कुछ तो कह सकती. उन का इस तरह रोजरोज बात करना तो रुक जाता. मम्मी अकेले में कई बार मुझ से मेरी पसंद की तरफ भी इशारा करती हैं.’

‘तो फिर इंतजार किस बात का है,’ मैं ने खुशी से कहा, ‘तुम मेरे बारे में सबकुछ बता दो और मेरी मजबूरी भी उन्हें बता दो कि जैसे ही मुझे मौका मिला, मैं उन से मिलने आऊंगा.’

‘सच,’ उस ने अविश्वास भरे स्वर में ऐसे पूछा जैसे उसे मुझ पर शक हो.

‘तुम ऐसे अविश्वास से मुझे क्यों देख रही हो. तुम तो जानती हो कि मैं घर पर बात करने जा ही रहा था कि ऐसा हादसा हो गया,’ मैं ने कहा.

‘ओह डार्लिंग, पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लग रहा था कि तुम इस बात को संजीदगी से नहीं ले रहे हो.’

‘मैं भी तुम्हारे बिना रह सकता हूं क्या?’ कह कर मैं ने उस के गालों पर एक प्यारा सा चुंबन जड़ दिया तो शर्म से खुशी ने अपनी पलकें झुका लीं और कस कर मुझ से लिपट गई.

एक दिन शाम को मैं घर आया. भाभी के मम्मीपापा आए हुए थे. मैं ने उन के चरण स्पर्श किए और बाथरूम में फ्रेश होने चला गया. मेरे आने पर भाभी चाय बना कर ले आईं. घर का माहौल बेहद गमगीन और घुटा हुआ था. खामोशी तोड़ने के लिए मम्मी ने पहल की थी.

‘बहनजी, अब तो मेरे बेटे को गुजरे हुए 3 महीने हो चुके हैं. किंतु बहू की ऐसी हालत मुझ से देखी नहीं जाती. मैं जब भी इसे देखती हूं कलेजा मुंह को आता है. क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता. आप ही कुछ बताइए न.’

‘मैं क्या कहूं, मैं ने तो अपनी बेटी आप को दी है. आप जैसा उचित समझें, करें,’ वह बेहद भावुक हो कर बोलीं.

‘आप इसे कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले जाइए. वहां थोड़ा इस का मन तो बहल जाएगा,’ मम्मी ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘नहीं, मम्मीजी, मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी. मैं इस घर में बहू बन कर आई थी और यहीं से मेरी अंतिम विदाई भी होगी,’ भाभी धीरे से बोलीं.

‘तुम्हें यहां से कौन भेज रहा है बहू. मैं तो कह रही हूं कि कुछ दिनों के लिए मायके चली जाओ. वैसे तुम इस बात को भी ध्यान से सोचना कि तुम्हारे सामने सारी उम्र पड़ी है. तुम पहाड़ जैसा जीवन किस के सहारे काटोगी.’

‘मुन्ना है न, उसी में मैं उन का रूप देखती हूं,’ कहतेकहते भाभी की आंखें भर आईं.

‘बेटी, मुझे अपने बेटे के खोने से ज्यादा गम तुम्हारा है, क्योंकि मुझे तुम से हमदर्दी भी है और आत्मीयता भी. हम भला कब तक तुम्हारा साथ देंगे. एकल परिवारों की अपनी जन्मजात मुश्किलें हैं. कल अंकित की शादी होगी. उस की अपनी गृहस्थी बनेगी. हमारे जाने के बाद कौन कैसा व्यवहार करेगा…’

‘बहनजी, वैसे तो यह आप का पारिवारिक मामला है पर यदि अंकित की कहीं और बात नहीं चली हो तो संगीता भी तो…घर की बात घर में ही बन जाएगी और आप भी चिंतामुक्त हो जाएंगी. आप सोच लीजिए…’

उन के यह शब्द सुन कर मैं एकदम सकते में आ गया. मुझे लगा यदि मैं ने कोई कदम फौरन नहीं उठाया तो शायद किसी परेशानी में न फंस जाऊं.

‘आंटी, यह आप क्या कह रही हैं? मैं अपनी ही भाभी से…’ मैं ने कहा.

‘बेटा, जब भाई ही नहीं रहा तो यह रिश्ता कैसा,’ मम्मी ने कहा. जैसे वह भी इस रिश्ते को स्वीकार कर के बैठी थीं.

‘लेकिन मम्मी…’ मैं ने चौंक कर कहा.

‘ठीक है, तो सोच कर बता देना,’ मम्मी बोलीं, ‘हम ने तो बिना झिझक एक बात कही है. बाकी तुम जैसा उचित समझो, बता देना.’

मेरे लिए अब वहां का माहौल बेहद बोझिल होता जा रहा था. मुझ से और देर तक वहां बैठा नहीं गया और मैं उठ कर चला गया.

मेरे लिए अब बेहद जरूरी हो गया था कि मैं घर पर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूं, पर भाभी की उपस्थिति में मैं कोई बात नहीं करना चाहता था. इधर मुझ पर लगातार खुशी का दबाव बढ़ता जा रहा था.

एक दिन भाभी किसी काम से बाजार गई हुई थीं. मम्मीपापा बाहर बरामदे में बैठे थे. उचित अवसर देख कर मैं ने बिना कोई भूमिका बांधे कहा, ‘मम्मी, मैं एक लड़की को पसंद करता हूं. पिछले कई सालों से मेरा उस के साथ परिचय है और हम शादी करना चाहते हैं.’

‘ये प्रेमप्यार सब बेकार की बातें हैं. तुम जिसे प्रेम कहते हो वह महज कुछ ही दिनों का बुखार होता है,’ पापा ने एक तरह से मेरा प्रस्ताव ठुकरा दिया.

‘नहीं, यह बात नहीं है,’ मैं ने मजबूती से कहा.

‘बेटा, हम तुम्हारा कोई बुरा थोड़े ही चाहेंगे,’ मम्मी ने गरमाए माहौल की तीव्रता को कम करने की कोशिश की, ‘संगीता को इस घर में रहते हुए लगभग 2 साल हो चुके हैं. अब वह हम सब को अच्छी तरह जान चुकी है और हम उसे. नई लड़की इस घर में कैसे एडजेस्ट करेगी, यह कौन जानता है. इस हादसे के बाद तो वह इस घर में पूरी तरह समर्पित रहेगी. संगीता और तुम हमउम्र हो. तुम ने दुनियादारी को अभी ठीक से जाना नहीं है. आज जिसे तुम अपनी पत्नी बना कर लाना चाहते हो, क्या पता वह संगीता के साथ कैसा व्यवहार करे और तुम्हारा संगीता से मिलना उसे कितना उचित लगे. ऐसा नहीं है कि संगीता के मातापिता के कहने के बाद हम ने ऐसा निर्णय लिया है. सोच तो हम लोग पहले से रहे थे पर यह सब कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. अब अगर उस के घर वालों की भी ऐसी इच्छा है तो हमें कोई एतराज नहीं है.’

‘लेकिन मम्मी, मैं जिसे भाभी मानता आया हूं उसे पत्नी बनाने के बारे में कैसे सोच सकता हूं. यह शादी आप की नजरों में नैतिक हो सकती है पर युक्तिसंगत नहीं. मेरे भी अपने कुछ अरमान हैं, फिर मेरे उस लड़की के प्रति वादे और कसमें…’

‘अरे, बेटा, यह प्रेमप्यार कुछ दिनों का बुखार होता है. वह अपने घर में एडजेस्ट हो जाएगी और तुम अपने घर में,’ पापा ने अपनी बात फिर से दोहराई.

मैं ने उन्हें लाख समझाने की कोशिश की पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा.

मेरे पास अब 2 ही विकल्प बचे थे. मैं या तो संगीता भाभी से विवाह करूं या इस घर को छोड़ कर अपनी इच्छानुसार गृहस्थी बसा लूं. भैया की मौत के बाद अब मैं ही उन का सहारा था. मुझ से अब उन की सारी आशाएं बंधी थीं. हर हाल में वज्रपात मुझ पर ही होना था. यह तो सच था कि इस विवाह से न तो मैं सुखी रह सकता, न संगीता भाभी को खुश रख सकता और न ही खुशी ही सुखी रहती.

परिस्थितियां धीरेधीरे ऐसी बनती गईं कि मैं घर में तटस्थ होता चला गया और अंतर्मुखी भी.

हार कर इस घर की भलाई और मातापिता के फर्ज को निभाने के लिए मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पडे़. मुझे नहीं पता था कि नियति मेरे साथ ही ऐसा खेल क्यों खेल रही है. कहने को सब अपने थे पर अपनापन किसी में नहीं था.

मैं ने खुशी को कई बार फोन करने की कोशिश की मगर हर बार नाकामयाबी हाथ लगी. मैं उस की हालत भी अच्छी तरह जानता था. मैं ने उसे सचमुच कहीं का नहीं छोड़ा था. उस का गम मेरे गम से काफी गहरा था. आज मुझे उस की और उसे मेरी सख्त जरूरत थी पर वह मुझ से बहुत दूर जा चुकी थी. मैं ने भी समझ लिया कि मुझ पर अब जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती. मेरे सारे सपने पलकों में ही लरज कर रह गए और सारी हसरतें सीने में ही दफन हो कर रह गईं.

अचानक घर से संगीता भाभी का फोन आया तो मैं चाैंक पड़ा. मैं सपनों की जिस दुनिया में घूम रहा था, उस से बाहर निकल कर मोबाइल को कान से लगा लिया.

‘‘सौरी, मैं ने तुम्हें इस समय फोन किया. क्या तुम अभी घर पर आ सकते हो?’’

मैं एकदम घबरा गया. मुझे लगा मेरे लिए एक और आघात प्रतीक्षा कर रहा है. मैं ने पूछा, ‘‘क्या बात है. सब ठीक तो है?’’

‘‘सब ठीक नहीं है. बस, तुम घर आ जाओ,’’ इस बार भाभी का निवेदन आदेश में बदल गया.

‘‘बात क्या है?’’ मैं ने फिर पूछा.

‘‘सच बात तो यह है कि मैं ठीक से जानना चाहती हूं कि तुम इस विवाह से खुश हो या नहीं. मैं चाहती हूं कि तुम इसी समय घर पर आ जाओ. मम्मीपापा घर पर नहीं हैं. ऐसे में तसल्ली से बैठ कर बात हो सकेगी ताकि हम कोई निर्णय ले सकें.’’

मुझे लगा शायद यही ठीक होगा. जो औरत मेरी जिंदगी का हिस्सा बनना चाहती है उसे मैं सबकुछ बता दूंगा पर खुशी की बात को छिपा जाऊंगा ताकि उस के भविष्य में कोई बाधा न पहुंचे.

मैं ने जैसे ही घर में कदम रखा, सामने खुशी बैठी थी. मेरा तनबदन एकदम सिहर उठा. पता नहीं, खुशी क्या कह चुकी होगी.

‘‘इसे पहचानते हैं, इस का नाम खुशी है,’’ भाभी ने भेद भरी नजरों से मुझे देखा, ‘‘मैं ने ही इसे यहां बुलाया है. मुझे इतना कमजोर और स्वार्थी मत समझना. तुम्हारे हावभाव से मैं समझ चुकी थी कि तुम किसी को बहुत चाहते हो. मुझे लगा, ऐसे घुटघुट कर जीने से क्या फायदा. जिंदगी जीने और काटने में बड़ा फर्क होता है अंकित, और तुम्हारी जिंदगी तो खुशी है, फिर परिस्थितियों से डट कर मुकाबला क्यों नहीं कर सकते. जब किसी से कोई सच्चा प्यार करता है तो उस के दिल में हमेशा वही बसा रहता है, फिर तुम मुझे कैसे खुश रख सकोगे?

‘‘मैं ने बड़ी मुश्किल से इस का नंबर तुम्हारे मोबाइल से ढूंढ़ा था. अपनी इस गलती के लिए मैं तुम से माफी मांगती हूं. जब मैं ने तुम्हारी सारी स्थिति खुशी के सामने रखी तो इस ने फौरन मुझ से मिलने की इच्छा जाहिर की.’’

‘‘मम्मीपापा मानेंगे क्या?’’ मैं ने अपनी शंका रखी.

‘‘जानते हो, वे दोनों खुशी के घर ही गए हैं इस का हाथ मांगने और यह पूरी की पूरी तुम्हारे सामने खड़ी है,’’ कहतेकहते भाभी की आंखें भर आईं और वह भीतर चली गईं.

मैं ने खुशी को कस कर अंक में भींच लिया. खुशी मुझ से अलग होते हुए बोली, ‘‘तुम मेरा सबकुछ ले कर क्यों दूर चले गए थे.’’

‘‘तुम ने भी तो जल्दी हार मान ली थी,’’ कहतेकहते मैं रो पड़ा.

तब तक भाभी मेरे लिए पानी ले कर आ गईं. मैं ने पूछा, ‘‘लेकिन भाभी, आप ने अपने बारे में क्या सोचा है?’’

Hindi Story : बनारसी साड़ी

Hindi Story : आज सुबह सुबह ही प्रशांत भैया का फोन आया. ‘‘छुटकी,’’ उन्होंने आंसुओं से भीगे स्वर में कहा, ‘‘राधा नहीं रही. अभी कुछ देर पहले वह हमें छोड़ गई.’’

मेरा जी धक से रह गया. वैसे मैं जानती थी कि कभी न कभी यह दुखद समाचार भैया मुझे देने वाले हैं. जब से उन्होंने बताया था कि भाभी को फेफड़ों का कैंसर हुआ है, मेरे मन में डर बैठ गया था. मैं मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि भाभी को और थोड़े दिनों की मोहलत मिल जाए पर ऐसा न हुआ. भला 40 साल की उम्र भी कोई उम्र होती है, मैं ने आह भर कर सोचा. भाभी ने अभी दुनिया में देखा ही क्या था. उन के नन्हेनन्हे बच्चों की बात सोच कर कलेजा मुंह को आने लगा. कंठ में रुलाई उमड़ने लगी. मैं ने भारी मन से अपना सामान पैक किया. अलमारी के कपड़े निकालते समय मेरी नजर सफेद मलमल में लिपटी बनारसी साड़ी पर जा टिकी. उसे देखते ही मुझे बीते दिन याद आ गए. कितने चाव से भाभी ने यह साड़ी खरीदी थी. भैया को दफ्तर के काम से बनारस जाना था. ‘‘चाहो तो तुम भी चलो,’’ उन्होंने भाभी से कहा था, ‘‘पटना से बनारस ज्यादा दूर नहीं है और फिर 2 ही दिन की बात है. बच्चों को मां देख लेंगी.’’

‘‘भैया मैं भी चलूंगी,’’ मैं ने मचल कर कहा था.

‘‘ठीक है तू भी चल,’’ उन्होंने हंस कर कहा था.

हम तीनों खूब घूमफिरे. फिर हम एक बनारसी साड़ी की दुकान में घुसे.

‘‘बनारस आओ और बनारसी साड़ी न खरीदो, यह हो ही नहीं सकता,’’ भैया बोले. भाभी ने काफी साडि़यां देख डालीं. फिर एक गुलाबी रंग की साड़ी पर उन की नजर गई, तो उन की आंखें चमक उठीं, लेकिन कीमत देख कर उन्होंने साड़ी परे सरका दी.

‘‘क्यों क्या हुआ?’’ भैया ने पूछा, ‘‘यह साड़ी तुम्हें पसंद है तो ले लो न.’’

‘‘नहीं, कोई हलके दाम वाली ले लेते हैं. यह बहुत महंगी है.’’

‘‘तुम्हें दाम के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं,’’ कह कर उन्होंने फौरन वह साड़ी बंधवाई और हम दुकान से बाहर निकले.

‘‘शशि के लिए भी कुछ ले लेते हैं,’’ भाभी बोलीं.

‘‘शशि तो अभी साड़ी पहनती नहीं. जब पहनने लगेगी तो ले लेंगे. अभी इस के लिए एक सलवारकमीज का कपड़ा ले लो.’’ मेरा बहुत मन था कि भैया मेरे लिए भी एक साड़ी खरीद देते. मेरी आंखों के सामने रंगबिरंगी साडि़यों का समां बंधा था. जैसे ही हम घर लौटे मैं ने मां से शिकायत जड़ दी. मां को बताना बारूद के पलीते में आग लगाने जैसा था. मां एकदम भड़क उठीं, ‘‘अरे इस प्रशांत के लिए मैं क्या कहूं,’’ उन्होंने कड़क कर कहा, ‘‘बीवी के लिए 8 हजार रुपए खर्च कर दिए. अरे साथ में तेरी बिन ब्याही बहन भी तो थी. उस के लिए भी एक साड़ी खरीद देता तो तेरा क्या बिगड़ जाता? इस बेचारी का पिता जिंदा होता तो यह तेरा मुंह क्यों जोहती?’’

‘‘मां, इस के लिए भी खरीद देता पर यह अभी 14 साल की ही तो है. इस की साड़ी पहनने की उम्र थोड़े ही है.’’

‘‘तो क्या हुआ? अभी नहीं तो एकाध साल बाद ही पहन लेती. बीवी के ऊपर पैसा फूंकने को हरदम तैयार. हम लोगों के खर्च का बहुत हिसाबकिताब करते हो.’’ भैया चुप लगा गए. मां बहुत देर तक बकतीझकती रहीं. भाभी ने साड़ी मां के सामने रखते हुए कहा, ‘‘मांजी, यह साड़ी शशि के लिए रख लीजिए. यह रंग उस पर बहुत खिलेगा.’’ मां ने साड़ी को पैर से खिसकाते हुए कहा, ‘‘रहने दे बहू, हम साड़ी के भूखे नहीं हैं. देना होता तो पहले ही खरीदवा देतीं. अब क्यों यह ढोंग कर रही हो? तुम्हारी साड़ी तुम्हें ही मुबारक हो.’’ फिर वे रोने लगीं, ‘‘प्रशांत के बापू जीवित थे तो हम ने बहुत कुछ ओढ़ा और पहना. वे मुझे रानी की तरह रखते थे. अब तो तुम्हारे आसरे हैं. जैसे रखोगी वैसे रहेंगे. जो दोगी सो खाएंगे.’’ साड़ी उपेक्षित सी बहुत देर तक जमीन पर पड़ी रही. फिर भाभी ने उसे उठा कर अलमारी में रख दिया.

मुझे याद है कुछ महीने बाद भैया के सहकर्मी की शादी थी और घर भर को निमंत्रित किया गया था.

‘‘वह बनारसी साड़ी पहनो न,’’ भैया ने भाभी से आग्रह किया, ‘‘खरीदने के बाद एक बार भी तुम्हें उसे पहने नहीं देखा.’’

‘‘भाभी साड़ी पहन कर आईं तो उन पर नजर नहीं टिकती थी. बहुत सुंदर दिख रही थीं वे. भैया मंत्रमुग्ध से उन्हें एकटक देखते रहे.’’

‘‘चलो सब जन गाड़ी में बैठो,’’ उन्होंने कहा. मां की नजर भैया पर पड़ी तो वे बोलीं, ‘‘अरे, तू यही कपड़े पहन कर शादी में जाएगा?’’

‘‘क्यों क्या हुआ ठीक तो है?’’

‘‘खाक ठीक है. कमीज की बांह तो फटी हुई है.’’

‘‘ओह जरा सी सीवन उधड़ गई है. मैं ने ध्यान नहीं दिया.’’ ‘‘अब यही फटी कमीज पहन कर शादी में जाओगे? जोरू पहने बनारसी साड़ी और तुम पहनो फटे कपड़े. तुम्हें अपनी मानमर्यादा का तनिक भी खयाल नहीं है. लोग देखेंगे तो हंसी नहीं उड़ाएंगे?’’

‘‘मैं अभी कमीज बदल कर आता हूं.’’

‘‘लाइए मैं 1 मिनट में कमीज सी देती हूं,’’ भाभी बोलीं, ‘‘उतारिए जल्दी.’’

थोड़ी देर में भाभी बाहर आईं, तो उन्होंने अपनी साड़ी बदल कर एक सादी फूलदार रेशमी साड़ी पहन ली थी.

‘‘यह क्या?’’ भैया ने आहत भाव से पूछा,’’ तुम पर कितनी फब रही थी साड़ी. बदलने की क्या जरूरत थी?

‘‘मुझे लगा साड़ी जरा भड़कीली है. दुलहन से भी ज्यादा बनसंवर कर जाऊं यह कुछ ठीक नहीं लगता.’’ भैया चुप लगा गए. उस दिन के बाद भाभी ने वह साड़ी कभी नहीं पहनी. हर साल साड़ी को धूप दिखा कर जतन से तह कर रख देतीं थीं. मैं जानती थी कि भाभी को मां की बात लग गई है. मां असमय पति को खो कर अत्यंत चिड़चिड़ी हो गई थीं. भाभी के प्रति तो वे बहुत ही असहिष्णु थीं. और इधर मैं भी यदाकदा मां से चुगली जड़ कर कलह का वातावरण उत्पन्न कर देती थी. घर में सब से छोटी होने के कारण मैं अत्यधिक लाडली थी. भैया भी जीजान से कोशिश करते कि मुझे पिता की कमी महसूस न हो और उन पर आश्रित होने की वजह से मुझ में हीन भाव न पनपे. इधर मां भी पलपल उन्हें कोंचती रहती थीं कि प्रशांत अब गृहस्थी की बागडोर तेरे हाथ में है. तू ही घर का कर्ताधर्ता है. तेरा कर्तव्य है कि तू सब को संभाले, सब को खुश रखे. लेकिन क्या यह काम इतना आसान था? सम्मिलित परिवार में हर सदस्य को खुश रखना कठिन था.

भैया प्रशासन आधिकारी थे. आय अधिक न थी पर शहर में दबदबा था. लेकिन महीना खत्म होतेहोते पैसे चुक जाते और कई चीजों में कटौती करनी पड़ती. मुझे याद है एक बार दीवाली पर भैया का हाथ बिलकुल तंग था. उन्होंने मां से सलाह की और तय किया कि इस बार दीवाली पर पटाखे और मिठाई पर थोड़ेबहुत पैसे खर्च किए जाएंगे और किसी के लिए नए कपड़े नहीं लिए जाएंगे. ‘‘लेकिन छुटकी के लिए एक साड़ी जरूर ले लेना. अब तो वह साड़ी पहनने लगी है. उस का मन दुखेगा अगर उसे नए कपड़े न मिले तो. अब कितने दिन हमारे घर रहने वाली है? पराया धन, बेटी की जात.’’

‘‘ठीक है,’’ भैया ने सिर हिलाया.

मैं नए कपड़े पहन कर घर में मटकती फिरी. बाकी सब ने पुराने धुले हुए कपड़े पहने हुए थे. लेकिन भाभी के चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं आई. जहां तक मुझे याद है शायद ही ऐसा कोई दिन गुजरा हो जब घर में किसी बात को ले कर खटपट न हुई हो. भैया के दफ्तर से लौटते ही मां उन के पास शिकायत की पोटली ले कर बैठ जातीं. भैयाभाभी कहीं घूमने जाते तो मां का चेहरा फूल जाता. फिर जैसे ही वे घर लौटते वे कहतीं, ‘‘प्रशांत बेटा, घर में बिन ब्याही बहन बैठी है. पहले उस को ठिकाने लगा. फिर तुम मियांबीवी जो चाहे करना. चाहे अभिसार करना चाहे रास रचाना. मैं कुछ नहीं बोलूंगी.’’ कभी भाभी को सजतेसंवरते देखतीं तो ताने देतीं, ‘‘अरी बहू, सारा समय शृंगार में लगाओगी, तो इन बालगोपालों को कौन देखेगा?’’ कभी भाभी को बनठन कर बाहर जाते देख मुंह बिचकातीं और कहतीं, ‘‘उंह, 3 बच्चों की मां हो गईं पर अभी भी साजशृंगार का इतना शौक.’’

इधर भैया भाभी को सजतेसवंरते देखते तो उन का चेहरा खिल उठता. शायद यही बात मां को अखरती थी. उन्हें लगता था कि भाभी ने भैया पर कोई जादू कर दिया है तभी वे हर वक्त उन का ही दम भरते रहते हैं. जबकि भाभी के सौम्य स्वभाव के कारण ही भैया उन्हें इतना चाहते थे. मैं ने कभी किसी बात पर उन्हें झगड़ते नहीं देखा था. कभीकभी मुझे ताज्जुब होता था कि भाभी जाने किस मिट्टी की बनी हैं. इतनी सहनशील थीं वे कि मां के तमाम तानों के बावजूद उन का चेहरा कभी उदास नहीं हुआ. हां, एकाध बार मैं ने उन्हें फूटफूट कर रोते हुए देखा था. भाभी के 2 छोटे भाई थे जो अभी स्कूल में पढ़ रहे थे. वे जब भी भाभी से मिलने आते तो भाभी खुशी से फूली न समातीं. वे बड़े उत्साह से उन के लिए पकवान बनातीं. उस समय मां का गुस्सा चरम पर पहुंच जाता, ‘‘ओह आज तो बड़ा जोश चढ़ा है. चलो भाइयों के बहाने आज सारे घर को अच्छा खाना मिलेगा. लेकिन रानीजी मैं पूछूं, तुम्हारे भाई हमेशा खाली हाथ झुलाते हुए क्यों आते हैं? इन को सूझता नहीं कि बहन से मिलने जा रहे हैं, तो एकाध गिफ्ट ले कर चलें. बालबच्चों वाला घर है आखिर.’’

‘‘मांजी, अभी पढ़ रहे हैं दोनों. इन के पास इतने पैसे ही कहां होते हैं कि गिफ्ट वगैरह खरीदें.’’

‘‘अरे इतने भी गएगुजरे नहीं हैं कि 2-4 रुपए की मिठाई भी न खरीद सकें. आखिर कंगलों के घर से है न. ये सब तौरतरीके कहां से जानेंगे.’’ भाभी को यह बात चुभ गई. वे चुपचाप आंसू बहाने लगीं. कुछ वर्ष बाद मेरी शादी तय हो गई. मेरे ससुराल वाले बड़े भले लोग थे. उन्होंने दहेज लेने से इनकार कर दिया. जब मैं विदा हो रही थी तो भाभी ने वह बनारसी साड़ी मेरे बक्से में रखते हुए कहा, ‘‘छुटकी, यह मेरी तरफ से एक तुच्छ भेंट है.’’

‘‘अरे, यह तो तुम्हारी बहुत ही प्रिय साड़ी है.’’

‘‘हां, पर इस को पहनने का अवसर ही कहां मिलता है. जब भी इसे पहनोगी तुम्हें मेरी याद आएगी.’’

‘हां भाभी’ मैं ने मन ही मन कहा, ‘इस साड़ी को देखूंगी तो तुम्हें याद करूंगी. तुम्हारे जैसी स्त्रियां इस संसार में कम होती हैं. इतनी सहिष्णु, इतनी उदार. कभी अपने लिए कुछ मांगा नहीं, कुछ चाहा नहीं हमेशा दूसरों के लिए खटती रहीं, बिना किसी प्रकार की अपेक्षा किए.’ मुझे उन की महानता का तब एहसास होता था जब वे अपने प्रति होते अन्याय को नजरअंदाज कर जातीं. मेरी ससुराल में भरापूरा परिवार था. 2 ननदें, 1 लाड़ला देवर, सासससुर. हर नए ब्याहे जोड़े की तरह मैं और मेरे पति भी एकदूसरे के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की कोशिश करते. शाम को जब मेरे पति दफ्तर से लौटते तो हम कहीं बाहर जाने का प्रोग्राम बनाते. जब मैं बनठन का तैयार होती, तो मेरी नजर अपनी ननद पर पड़ती जो अकसर मेरे कमरे में ही पड़ी रहती और टकटकी बांधे मेरी ओर देखती रहती. वह मुझ से हजार सवाल करती. कौन सी साड़ी पहन रही हो? कौन सी लिपस्टिक लगाओगी? मैचिंग चप्पल निकाल दूं क्या? इत्यादि. बाहर की ओर बढ़ते मेरे कदम थम जाते. ‘‘सुनो जी,’’ मैं अपने पति से फुसफुसा कर कहती, ‘‘सीमा को भी साथ ले चलते हैं. ये बेचारी कहीं बाहर निकल नहीं पाती और घर में बैठी बोर होती रहती है.

‘‘अच्छी बात है,’’ ये बेमन से कहते, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो.’’ मेरी सास के कानों में यह बात पड़ती तो वे बीच ही में टोक देतीं,

‘‘सीमा नहीं जाएगी तुम लोगों के साथ. उसे स्कूल का ढेर सारा होमवर्क करना है और उस को ले जाने का मतलब है टैक्सी करना, क्योंकि मोटरसाइकिल पर 3 सवारियां नहीं जा सकतीं.’’ सीमा भुनभनाती, मुंह फुलाती, अपनी मां से हुज्जत करती पर सास का फरमान कोई टाल नहीं सकता था. मैं मन ही मन जानती थी कि मेरी सास जानबूझ कर सीमा को हमारे साथ नहीं भेजती थीं और उसे घर के किसी काम में उलझाए रखती थीं. मैं मन ही मन उन का आभार मानती. एक बार मेरे भैया मुझ से मिलने आए थे. मां ने अपने सामर्थ्य भर कुछ सौगात भेजी थीं. मेरी सास ने उन वस्तुओं की बहुत तारीफ की और घर भर को दिखाया. फिर उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘बहू, बहुत दिनों बाद तुम्हारे भाई तुम से मिलने आए हैं. तुम अपनी निगरानी में आज का खाना बनवाओ और उन की पसंद की चीजें बनवा कर उन्हें खिलाओ.’’ मेरा मन खुशी से नाच उठा. उन के प्रति मेरा मन आदर से झुक गया. कितना फर्क था मेरी मां और मेरी सास के बरताव में, मैं ने सोचा. मुझे याद है जब भी मेरी भाभी का कोई रिश्तेदार उन से मिलने आता तो मेरी मां की भृकुटी तन जाती. वे किचन में जा कर जोरजोर से बरतन पटकतीं ताकि घर भर को उन की अप्रसन्नता का भान हो जाए.

मुझे याद आया कि जब मेरी शादी हुई तो मेरी मां ने मुझे बुला कर हिदायत दी थी, ‘‘देख छुटकी, तेरा दूल्हा बड़ा सलोना है. तू उस के मुकाबले में कुछ भी नहीं है. मैं तुझे चेताए देती हूं कि तू हमेशा उन के सामने बनठन कर रहना. तभी तू उन का मन जीत पाएगी.’’ मुझ से कहे बिना नहीं रहा गया, ‘‘लेकिन भाभी को तो तुम हमेशा बननेसंवरने पर टोका करती थीं.’’

‘‘वह और बात है. तेरी भाभी कोई नईनवेली दुलहन थोड़े न है. बालबच्चों वाली है,’’ मां मुझ से बोलीं. इस के विपरीत मेरी ससुराल में जब भी कोई त्योहार आता तो मेरी सास आग्रह कर के मुझे नई साड़ी पहनातीं और अपने गहनों से सजातीं. वे सब से कहती फिरतीं, ‘‘मेरी बहू तो लाखों में एक है.’’

इधर मेरी मां थीं जिन्होंने भाभी को तिलतिल जलाया था. उन की भावनाओं की अवहेलना कर के उन के जीवन में जहर घोल दिया था. ऐसा क्यों किया था उन्होंने? ऐसा कर के न केवल उन्होंने मेरे भाई की सुखशांति भंग कर दी थी बल्कि भाभी के व्यक्तित्व को भी पंगु बना दिया था. मुझे लगता है भाभी अपने प्रति बहुत ही लापरवाह हो गई थीं. उन में जीने की इच्छा ही मर गई थी. यहां तक कि जब कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी ने उन्हें धर दबोचा तब भी उन्होंने अपनी परवाह न की, न घर में किसी को बताया कि उन्हें इतनी प्राणघातक बीमारी है. जब भैया को भनक लगी तब तक बहुत देर हो चुकी थी. जब मैं घर पहुंची तो भाभी की अर्थी उठने वाली थी. मैं ने अपने बक्से से बनारसी साड़ी निकाली और भाभी को पहना दी.

‘‘ये क्या कर रही है छुटकी,’’ मां ने कहा, ‘‘थोड़ी देर में तो सब राख होने वाला है.’’

‘‘होने दो,’’ मैं ने रुक्षता से कहा.

मुझे भाभी की वह छवि याद आई जब वे वधू के रूप में घर के द्वार पर खड़ी थीं. उन के माथे पर गोल बिंदी सूरज की तरह दमक रही थी. उन के होंठों पर सलज्ज मुसकान थी. उन की आंखों में हजार सपने थे. भाभी की अर्थी उठ रही थी. मां का रुदन सब से ऊंचा था. वे गला फाड़फाड़ कर विलाप कर रही थीं. भैया एकदम काठ हो गए थे. उन के दोनों बेटे रो रहे थे पर छोटी बेटी नेहा जो अभी 4 साल की ही थी चारों ओर अबोध भाव से टुकुरटुकुर देख रही थी. मैं ने उस बच्ची को गोद में उठा लिया और भैया से कहा, ‘‘लड़के बड़े हैं. कुछ दिनों में बोर्डिंग में पढ़ने चले जाएंगे. पर यह नन्ही सी जान है जिसे कोई देखने वाला नहीं है. इस को तुम मुझे दे दो. मैं इसे पाल लूंगी और जब कहोगे वापस लौटा दूंगी.’’

‘‘अरी ये क्या कर रही है?’’ मां फुसफुफसाईं ‘‘तू क्यों इस जंजाल को मोल ले रही है. तुझे नाहक परेशानी होगी.’’

‘‘नहीं मां मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. उलटे अगर बच्ची यहां रहेगी तो तुम उसे संभाल न सकोगी.’’ ‘‘लेकिन तेरी सास की मरजी भी तो जाननी होगी. तू अपनी भतीजी को गोद में लिए पहुंचेगी तो पता नहीं वे क्या कहेंगी.’’

‘‘मैं अपनी सास को अच्छी तरह जानती हूं. वे मेरे निर्णय की प्रशंसा ही करेंगी,’’ मैं ने दृढ़ शब्दों में कहा. मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे भाभी अंतरिक्ष से मुझे देख रही हैं और हलकेहलके मुसकारा रही हैं. ‘भाभी,’ मैं ने मन ही मन कहा, ‘मैं तुम्हारी थाती लिए जा रही हूं. मुझे पक्का विश्वास है कि इस में तुम्हारे संस्कार भरे हैं. इसे अपने हृदय से लगा कर तुम्हारी याद ताजा कर लिया करूंगी.

Romantic Story : चुनाव मेरा है

Romantic Story : सर्जिकल वार्ड में शाम का राउंड लगाने के बाद डा. प्रशांत और सिस्टर अंजलि ड्यूटी रूम में आ बैठे. एक जूनियर सिस्टर उन दोनों के सामने चाय का कप रख गई.

‘‘आज का डिनर मेरे साथ करोगी?’’ प्रशांत ने रोमांटिक अंदाज में अंजलि की आंखों में झांका.

‘‘मेरे साथ डिनर करने के बाद घर देर से पहुंचोगे तो रीना मैडम को क्या सफाई दोगे?’’ अंजलि की आंखों में शरारत भरी चमक उभरी.

‘‘कह दूंगा कि एक इमरजेंसी आपरेशन कर के आ रहा हूं.’’

‘‘पत्नी से झूठ बोलोगे?’’

‘‘झूठ क्यों बोलूंगा?’’ प्रशांत मेज के नीचे अपने दाएं पैर के पंजे से अंजलि की पिंडली सहलाते हुए बोला, ‘‘डिनर के बाद तुम्हारे रूम पर चल कर ‘इमरजेंसी’ आपरेशन करूंगा न मैं.’’

‘‘बीमारी डाक्टर को हो और आपरेशन कोई और कराए, ऐसा इलाज मेरी समझ में नहीं आता,’’ और अपने इस मजाक पर अंजलि खिलखिला कर हंसी तो उस के व्यक्तित्व का आकर्षण प्रशांत की नजरों में और बढ़ गया.

अविवाहित अंजलि करीब 30 साल की थी. रंगरूप व नैननक्श खूबसूरत होने के साथसाथ उस में गजब की सेक्स अपील थी. उस के चाहने वालों की सूची में बडे़छोटे डाक्टरों के नाम आएदिन जुड़ते रहते थे. अपनी जिम्मे- दारियों को निभाते समय उस की कुशलता भी देखते बनती थी.

प्रशांत के मोबाइल की घंटी बजने से उन के बीच चल रहा हंसीमजाक थम गया. उस ने कौल करने वाले का नंबर देख कर बुरा सा मुंह बनाया और अंजलि से बोला, ‘‘कबाब में हड्डी बनाने वाली छठी इंद्री कुदरत ने सब पत्नियों को क्यों दी हुई है?’’

‘‘पत्नी के साथ बेईमानी करते हो और ऊपर से उसे ही भलाबुरा कह रहे हो. यह गलत बात है जनाब, चलो, प्यारीप्यारी बातें कर के रीना मैडम को खुश करो,’’ अंजलि बिलकुल सामान्य व सहज बनी रही.

‘‘तुम मेरी गर्लफ्रैंड हो कर मेरी पत्नी से ईर्ष्याभाव नहीं रखती हो क्या?’’

‘‘जिस पर हंसने की उस के पति ने ही ठान रखी हो, उस से क्या जलना?’’ यह जवाब दे कर अंजलि एक बार और खिलखिला कर हंसी और फिर अपने काम में जुट गई.

अपनी पत्नी रीना से प्रशांत ने 5-7 मिनट बातें कीं, फिर अपना मोबाइल चार्जर पर लगाने के बाद वह अंजलि से गपशप करने लग गया.

‘‘सोचती हूं तुम्हारे साथ डिनर पर चली ही चलूं,’’ अंजलि शरारत भरे अंदाज में मुसकराई, ‘‘बोलो, कहां ले चलोगे?’’

‘‘जहन्नुम में,’’ प्रशांत भन्ना उठा, ‘‘तुम ने सुन लिया न कि रीना ने रात वाले शो के टिकट ले कर आने की बात अभीअभी फोन पर मुझ से की है. मुझे किलसाने को तुम अब डिनर पर चलने की बात नहीं करोगी तो कब करोगी?’’

‘‘यों क्यों गुस्सा हो रहे हो जानेमन,’’ अंजलि ने प्रशांत की आवाज की बढि़या नकल उतारी, ‘‘आज रात बीवी को खुश करो और कल प्रेमिका का नंबर लगाना. कितने लकी हो तुम. पांचों उंगलियां घी में हैं तुम्हारी.’’

‘‘हां, ठीक कह रही हो,’’ प्रशांत बोला, ‘‘जिस दिन रीना को इस चक्कर का पता लगेगा, उसी दिन मेरा सिर कड़ाही में भी होगा.’’

‘‘देखो रोमियो, तुम क्या समझते हो कि मैडम को इस बारे में पता नहीं है. अरे, ऐसे चक्करों की खबर दुनिया वाले फटाफट पत्नी तक पहुंचा देते हैं. मैडम जिस तरह से मुझे मुलाकात होने पर पहली बार देखती हैं, उन नजरों में समाए कठोरता और चिढ़ के क्षणिक भावों को मैं खूब पहचानती हूं.’’

‘‘पर मैं ने तो तुम दोनों को सदा आपस में खूब हंसहंस कर बातें करते ही देखा है.’’

‘‘वह हंसना झूठा है, जानेमन.’’

‘‘किसी दिन वह तुम से लड़ पड़ी तो क्या होगा?’’

‘‘वैसा कुछ नहीं होगा क्योंकि जिंदगी के प्रति मेरा जो नजरिया है… जो मेरी फिलौसफी है वह मैं ने उन्हें कई बार समझाई है.’’

‘‘मुझे भी बताओ न जो तुम ने रीना से कहा है.’’

‘‘फिलहाल मेरी उस फिलौसफी को तुम नहीं समझोगे…और न ही उसे तुम्हें समझाने का सही समय अभी आया है,’’ रहस्यमयी अंदाज में अंजलि मुसकराई और फिर दोनों का ध्यान एक मरीज के तीमारदार की तरफ चला गया जो उन से कुछ कहना चाहता था.

प्रशांत को उस व्यक्ति के साथ एक मरीज को देखने जाना पड़ा. उस की गैरमौजूदगी में उस के मोबाइल की घंटी बज उठी और जो नंबर उस में नजर आ रहा था उसे अंजलि ने पहचाना. उस की आंखों में पहले सोचविचार के भाव उभरे और फिर उस की मुखमुद्रा कठोर होती चली गई.

प्रशांत के लौटने तक उस ने खुद को पूरी तरह सहज बना लिया था. उस ने आ कर ‘मिस्ड’ कौल का नंबर पढ़ा और फिर बाहर कोरिडोर में चला गया.

वहां उस ने 10 मिनट किसी से फोन पर बातें कीं. अंजलि को वह इधर से उधर घूमता ड्यूटी रूम से साफ नजर आ रहा था.

‘यू बास्टर्ड,’ अंजलि होंठों ही होंठों में हिंसक लहजे में बुदबुदाई, ‘‘अगर मेरे साथ ज्यादा चालाकी दिखाने की कोशिश की तो वह सबक सिखाऊंगी कि जिंदगी भर याद रखोगे.’

प्रशांत के वापस लौटने तक अंजलि  ने अपनी भावनाओं पर पूरी तरह नियंत्रण कर के उस से मुसकराते हुए पूछा, ‘‘किस से यों हंसहंस कर बातें कर रहे थे?’’

‘‘एक पुराने दोस्त के साथ,’’ प्रशांत ने टालने वाले अंदाज में जवाब दिया.

‘‘रीना मैडम से मेरे सामने बात करते हो तो इस पुराने दोस्त से बातें करने बाहर क्यों गए?’’

‘‘यों ही कुछ व्यक्तिगत बातें करनी थीं,’’ प्रशांत हड़बड़ाया सा नजर आने लगा.

‘‘सौरी, जानेमन.’’

‘‘सौरी क्यों कह रही हो? तुम सोचती हो कि मैं किसी दोस्त से नहीं बल्कि किसी सुंदर लड़की से बातें कर रहा था? उस पर लाइन मार रहा था?’’ प्रशांत अचानक ही चिढ़ा सा नजर आने लगा.

‘‘अरे, मैं ऐसा कुछ नहीं सोच रही हूं क्योंकि मुझ जैसी सुंदर प्रेमिका के होते हुए तुम किसी दूसरी लड़की पर लाइन मारने की बेवकूफी भला क्यों करोगे?’’ अपना चेहरा उस के चेहरे के काफी पास ला कर अंजलि ने कहा और फिर रात वाली सिस्टर को चार्ज देने के काम में व्यस्त हो गई.

कुछ देर बाद ड्यूटी समाप्त कर के प्रशांत चला गया. अंजलि जानती थी कि उसे घर पहुंचने में आधे घंटे से कम  समय लगेगा.

आधे घंटे के बाद उस ने प्रशांत के घर फोन किया. उस की पत्नी रीना ने उखड़े मूड़ में उसे खबर दी कि प्रशांत घर पर नहीं है. इमरजेंसी आपरेशन आ जाने के कारण वह देर तक आपरेशन थिएटर में रुकेगा.

यह खबर सुनते ही अंजलि की आंखों में गुस्से और नाराजगी के भाव एकदम से बढ़ गए. वह अस्पताल से बाहर आई और रिकशा कर के शास्त्री नगर पहुंची.

उस का शक सही निकला था.

डा. प्रशांत की लाल मारुति कार सिस्टर सीमा के घर के सामने खड़ी थी. उस के मोबाइल पर उस ने सीमा के घर के फोन का नंबर शाम को पढ़ लिया था.

उस ने रिकशे वाले को अपने घर की तरफ चलने की हिदायत दी. सारे रास्ते वह क्रोध व ईर्ष्या की आग में सुलगती रही.

सीमा और वह कभी अच्छी सहेलियां हुआ करती थीं. दोनों बेइंतहा खूबसूरत थीं. उन की जोड़ी को साथ चलते देख कर लोग अपनी राह से भटक जाते थे.

सीमा का बौयफ्रैंड उन दिनों रवि होता था और उस के साथ जरा खुल कर हंसनेबोलने के कारण सीमा को शक हो गया और वह अंजलि से एक दिन बुरी तरह से लड़ी थी.

तब से उन के बीच कभी सीधे मुंह बातें नहीं हुईं. दोनों डाक्टरों के बीच बराबर की लोक प्रियता रखती थीं. यह भी सच था कि जो व्यक्ति एक के करीब होता वह दूसरी को फूटी आंख न भाता.

‘‘कमीनी, जान- बूझ कर मेरा दिल दुखाने के लिए प्रशांत पर जाल फेंक रही है. इस बेवकूफ डाक्टर को जल्दी ही मैं ने तगड़ा सबक नहीं सिखाया तो मेरा नाम अंजलि नहीं.’’

घर पहुंचने तक अंजलि का पारा सातवें आसमान तक पहुंच गया था.

अगली सुबह अपने असली मनोभावों को छिपा कर उस ने प्रशांत से मुसकराते हुए पूछा, ‘‘कैसी थी कल की फिल्म?’’

पहले प्रशांत उलझन का शिकार बना और फिर जल्दी से बोला, ‘‘कोई खास नहीं… बस, ठीक ही थी.’’

‘‘गुड,’’ अंजलि दवाओं की अलमारी की तरफ चल पड़ी.

‘‘सुनो, आज शाम डिनर पर चल रही हो?’’

‘‘सोचूंगी,’’ लापरवाह अंदाज में जवाब दे कर वह अपने काम में व्यस्त हो गई.

उस दिन उस ने डा. प्रशांत से सिर्फ काम की बातें बड़ी औपचारिक सी मुसकान होंठों पर सजा कर कीं. शाम तक वह समझ गया कि उस की प्रेमिका उस से नाराज है.

प्रशांत के कई बार पूछने पर भी अंजलि ने अपने खराब मूड का कारण उसे नहीं बताया. ड्यूटी समाप्त करने के समय तक प्रशांत का मूड भी पूरी तरह से बिगड़ चुका था.

अगले दिन भी जब अंजलि ने अजीब सी दूरी उस से बनाए रखी तब प्रशांत गुस्सा हो उठा.

‘‘तुम्हारी प्राबलम क्या है? क्यों मुंह फुला रखा है तुम ने कल से?’’ और अंजलि का हाथ पकड़ कर प्रशांत ने उसे अपने सामने खड़ा कर लिया.

‘‘मेरे व्यवहार से तुम्हें तकलीफ हो रही है, मेरे हीरो?’’ भौंहें ऊपर चढ़ा कर  अंजलि ने नाटकीय स्वर में पूछा.

‘‘बिलकुल हो रही है.’’

‘‘और तुम्हें मेरे बदले व्यवहार का कारण भी समझ में नहीं आ रहा है?’’

‘‘कतई समझ में नहीं आ रहा है,’’ प्रशांत कुछ बेचैन हो उठा.

‘‘इस बारे में रात को बात करें?’’

‘‘इस का मतलब तुम डिनर पर चल रही हो मेरे साथ,’’ प्रशांत खुश हो गया.

‘‘डिनर मेरे फ्लैट में हो तो चलेगा?’’

‘‘चलेगा नहीं दौड़ेगा,’’ प्रशांत ने उस का हाथ जोशीले अंदाज में दबा कर छोड़ दिया.

ड्यूटी समाप्त करने के बाद दोनों साथसाथ प्रशांत की कार में अंजलि के फ्लैट में पहुंचे.

अंदर प्रवेश करते ही प्रशांत ने उसे अपनी बांहों के घेरे में ले कर चूमना शुरू किया. अंजलि के खूबसूरत जिस्म से उठने वाली मादक महक उस के अंगअंग में उत्तेजना भर रही थी.

अंजलि ने उसे जबरदस्ती अपने से अलग किया और संजीदा लहजे में बोली, ‘‘मैं तुम्हें अपने बारे में कुछ बताने के लिए आज यहां लाई हूं. शांति से बैठ कर पहले मेरी बात सुनो, रोमियो.’’

‘‘बातें क्या हम बाद में नहीं कर सकते हैं?’’

‘‘बाद में तुम कुछ सुनने की स्थिति में कभी रहते हो?’’

‘‘देखो, मैं ज्यादा देर बातें कहनेसुनने के मूड में नहीं हूं, इस का ध्यान रखना,’’ प्रशांत पैर फैला कर सोफे पर बैठ गया.

कुछ पलों तक अंजलि ने प्रशांत के चेहरे को ध्यान से देखा और फिर बोली, ‘‘तुम्हें 3 महीने पुरानी वह रात याद है जब मैं अपनेआप बिना किसी काम के तुम से मिलने डाक्टरों के आराम करने वाले कमरे में पहुंची थी?’’

‘‘जिस दिन किसी इनसान की लाटरी खुले उस दिन को वह भला कैसे भूल सकता है?’’

‘‘अपने प्रेमी के रूप में तुम्हें चुनने के बाद उस रात तुम्हारे साथ सोने का फैसला मैं ने अपनी खुशी व इच्छा को ध्यान में रख कर लिया था और अब तक सैकड़ों पुरुषों ने मुझ से शादी करने की इच्छा जाहिर की है पर

कभी शादी न करने का चुनाव भी मेरा अपना है.’’

‘‘ऐसा कठिन फैसला क्यों किया है तुम ने?’’

‘‘अपने स्वभाव को ध्यान में रख कर. मैं उन औरतों में से नहीं हूं जो किसी एक पुरुष की हो कर सारा जीवन गुजार दें. मेरी जिंदगी में प्रेमी सदा रहेगा. पति कभी नहीं.’’

‘‘तुम्हारी विशेष ढंग की सोच ही शायद तुम्हें और औरतों से अलग कर तुम्हारी खास पहचान बनाती है, जानेमन. मैं तुम्हारी जैसी आकर्षक स्त्री के संपर्क में पहले कभी नहीं आया हूं. प्रशांत की आंखों में उस के लिए प्रशंसा के भाव उभरे.’’

‘‘शायद कभी आओगे भी नहीं,’’ अंजलि उठ कर उस के पास आ बैठी, ‘‘क्योंकि अपने व्यक्तित्व को पुरुषों की नजरों में गजब का आकर्षक बनाने के लिए मैं ने खासी मेहनत की है. अपने प्रेमी के शरीर, दिल और दिमाग तीनों को सुख देने की कला मुझे आती है न?’’

अंजलि ने झुक कर प्रशांत का कान हलके से काटा तो उस के पूरे बदन में करंट सा दौड़ गया. अंजलि ने उसे अपने होंठों का भरपूर चुंबन लेने दिया. प्रशांत की सांसें फिर से उखड़ गईं.

प्रशांत के आवारा हाथों को अपनी गिरफ्त में ले कर अंजलि ने आगे कहा, ‘‘अपने प्रेमी मैं बदलती आई हूं और बदलती रहूंगी, फिर भी मैं खुद को बदचलन नहीं समझती हूं क्योंकि एक वक्त में मेरा सिर्फ एक प्रेमी होता है जिस के प्रति मैं पूरी तरह से वफादार रहती हूं. और ऐसी ही आशा मुझे अपने प्रेमी से भी रहती है.’’

‘‘तब यह बताओ कि मेरे जैसे शादीशुदा प्रेमी की पत्नी से तुम्हें चिढ़ नहीं होती है, ऐसा क्यों, अंजलि? तुम्हें उस पत्नी की अपने प्रेमी के जीवन में मौजूदगी क्यों स्वीकार है? वफादारी महत्त्वपूर्ण है तो तुम अविवाहित पुरुषों को ही अपना प्रेमी क्यों नहीं चुनती

हो?’’ अंजलि के मनोभावों को समझने की उत्सुकता प्रशांत के मन में बढ़ गई.

‘‘प्रेमी चुनते हुए मैं विवाहित- अविवाहित के झंझट में न पड़ कर सिर्फ अपने मन की पसंद को ध्यान में रखती

हूं. जनाब, जो विवाहित पुरुष मेरा होने को तैयार है वह अपनी पत्नी के प्रति बेवफा या उस से ऊबा हुआ तो साबित हो ही गया. जो पत्नी अपने पति को अपने आकर्षण में बांध कर रखने में अक्षम है, उस से मुझे भला

क्यों ईर्ष्या होगी. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’ प्रशांत ने साफ देखा कि अंजलि की आंखों में कठोरता के भाव पैदा हो गए थे.

‘‘लेकिन मैं अपने वर्तमान प्रेमी के प्रति सदा वफादार रहती हूं, इसलिए उस का पत्नी के अलावा कहीं इधरउधर मुंह मारना भी मुझे पसंद नहीं. मैं ने आज तक किसी पुरुष के सामने उस के प्रेम को पाने के लिए हाथ नहीं फैलाए हैं. अपने प्रेम संबंधों को शुरू भी मैं करती हूं और उन का अंत भी.

‘‘अपनी जीवनशैली मैं ने खुद चुनी है. पापपुण्य, सहीगलत व नैतिकअनैतिक को नहीं बल्कि अपनी खुशियों को मैं ने अपने जीवन का आधार बनाया है और अपने जीवन से मैं पूरी तरह से संतुष्ट व सुखी हूं,’’ आवेश भरे अंदाज में बोलते हुए अंजलि का मुंह लाल हो उठा.

‘‘यों तनावग्रस्त हो कर तुम यह सब बातें मुझे क्यों सुना रही हो?’’ प्रशांत ने माथे पर बल डाल कर पूछा.

‘‘तुम्हें यह एहसास कराने के लिए कि तुम कितने खुशकिस्मत हो,’’ अंजलि की आवाज और सख्त हो गई, ‘‘मैं तुम्हें खुश रखने में एक्सपर्ट हूं, डाक्टर प्रशांत. मेरा रूप और जिस्म अनूठा है. तुम्हारे मन को समझ कर उसे सुखी रखने की कला मुझे बखूबी आती है. लोग तुम से इस कारण ईर्ष्या करते हैं कि मैं तुम्हारी प्रेमिका हूं…चाहे मुंह से वह मुझे चरित्रहीन कहें पर दिल से वे भी मुझ पर लट्टू हुए रहते हैं. इतना सबकुछ पा कर भी तुम ने सिस्टर सीमा के प्रेमजाल में फंसने की मूर्खतापूर्ण इच्छा को अपने मन में क्यों पनपने दिया?’’

‘‘तुम्हें जबरदस्त गलतफहमी…’’

‘‘डा. प्रशांत, अगर तुम इस वक्त झूठ बोलोगे, तो तुम्हारी मुझ से जुडे़ रहने की सारी संभावना समाप्त हो जाएगी,’’ अंजलि ने साफ शब्दों में उसे धमकी दी.

‘‘सीमा के साथ थोड़ाबहुत हंसी- मजाक करने का यों बुरा मत मानो जानेमन. तुम चाहोगी तो मैं उस से बिलकुल बात करना छोड़ दूंगा,’’ अंजलि  का गुस्सा कम करने के लिए प्रशांत ने फौरन सुलह का प्रयास शुरू किया.

कुछ देर गंभीरता से उस का चेहरा निहारने के बाद अंजलि ने उसे चेतावनी दी, ‘‘आज पहली और आखिरी वार्निंग मैं तुम्हें दे रही हूं. मुझे ‘डबलक्रौस’ करने की कोशिश कभी की तो फिर मुझे सदा के लिए भूल जाना. अपनी पत्नी से जितनी खुशियां पा सकते हो पा लेना लेकिन किसी सीमा जैसी की तरफ आंख उठा कर देखा तो पछताओगे.’’

‘‘मैं तुम्हारी बात समझ गया और अब तुम ये किस्सा समाप्त भी करो,’’ प्रशांत ने पास आ कर उसे अपनी बांहों में भर लिया.

अंजलि का मूड फौरन बदला. उस ने गर्मजोशी के साथ प्रशांत की इस पहल का स्वागत किया.

चंद मिनटों का आनंद देने के बाद अंजलि ने उसे कठिनाई से अलग कर के हलकेहलके अंदाज में कहा, ‘‘टे्रलर यहीं खत्म होता है जानेमन. पूरी फिल्म कल रात पर छोड़ो.’’

‘‘क्या मतलब?’’ प्रशांत चौंका.

‘‘मतलब यह कि अब तुम रीना मैडम के पास अपने घर चले जाओ.’’

‘‘पर क्यों?’’

‘‘क्योंकि मैं तुम्हें सोचने का समय दे रही हूं. अगर कल मेरे आगोश में लौटने की इच्छा तुम्हारे मन में हो तो मेरी शर्तों को ध्यान रखना नहीं तो गुडबाय.’’

अंजलि की बात सुन कर एक बार तो प्रशांत की आंखों में तेज गुस्सा झलका लेकिन जब अपने दिल को टटोला तो पाया कि जादूगरनी अंजलि से दूर वह नहीं रह सकता.

‘‘कम से कम एक कप चाय तो पिला कर विदा करो,’’ प्रशांत की बेमन वाली मुसकान में उस की हार छिपी थी और अपनी जीत पर अंजलि दिल खोल कर हंसने लगी.

Hindi Story : गठबंधन संस्कार

Hindi Story : गुलाबचंद ने पास बैठी अपनी श्रीमतीजी से पूछा, ‘‘यह न्योता किस का है?’’

श्रीमतीजी बोलीं, ‘‘आप के बचपन के लंगोटिया यार मंत्रीजी आज ही दे गए हैं. उन के लाड़ले की शादी अपने इलाके के सांसदजी की बेटी से चट मंगनी पट ब्याह वाली तर्ज पर तय हो गई है. आप को बरात में चलने के लिए कह गए हैं.’’

खुशी और हैरानी से न्योते के कार्ड को जैसे ही उठाया, लिफाफे पर लिखी गई इबारत पर नजर पड़ते ही गुलाबचंद के दिमाग में अजीब सी हलचल मच गई. उन के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘छपाई में इतनी बड़ी गलती हो गई और मंत्रीजी का इस पर ध्यान ही नहीं गया…’’

श्रीमतीजी भी कुछ चौंक कर बोलीं, ‘‘क्या गलती हो गई? मैं ने तो इसे अभी तक छुआ भी नहीं है. आप के आने के तकरीबन घंटाभर पहले ही तो दे गए हैं मंत्रीजी.’’

गुलाबचंद ने वह कार्ड श्रीमतीजी को थमा दिया. देखते ही वे भी हैरानी से सन्न रह गईं.

बात थी ही कुछ ऐसी. लिफाफे के बाहर और भीतर ‘पाणिग्रहण संस्कार’ की जगह ‘गठबंधन संस्कार’ छपा था.

इस कमबख्त एक शब्द के चलते गुलाबचंद महीनेभर की थकान भूल से गए और उन्होंने श्रीमतीजी से कहा, ‘‘मंत्रीजी को फोन मिलाओ.’’

श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘अभीअभी थकेमांदे इतने दिनों बाद आए हो… पहले फ्रैश हो कर कुछ चायनाश्ता कर लो, बाद में आराम से मंत्रीजी से बात करना.’’

श्रीमतीजी की बात को तरजीह देते हुए गुलाबचंद फ्रैश होने चल दिए, लेकिन ‘गठबंधन संस्कार’ दिमाग से निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था. उन्होंने मंत्रीजी को मोबाइल फोन से नंबर मिला ही डाला.

फोन पर मंत्रीजी का छोटा सा वाक्य कानों में पड़ा, ‘गुलाबचंदजी, इस समय पार्टी की एक जरूरी मीटिंग चल रही है,

जो देर रात तक चलने की उम्मीद है. सुबह मुलाकात होगी…’

दूसरे दिन सुबह जब गुलाबचंद नाश्ता कर ही रहे थे कि मंत्रीजी का फोन आ गया, ‘हैलो गुलाबचंदजी, मैं आप का बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं… जल्दी आ जाओ.’

मंत्रीजी का फोन सुन कर गुलाबचंद ने जल्दबाजी में नाश्ता किया और जैसेतैसे गरमगरम चाय पी. बड़े ही उतावलेपन के साथ, बिना कपड़े बदले, जिस हालत में थे, उसी हालत में वे मंत्रीजी के घर की ओर चल पड़े.

‘गठबंधन संस्कार’ शब्द उन्हें अब भी दुखी कर रहा था. ‘सोलह संस्कारों’ के बाद यह ‘सत्रहवां गठबंधन संस्कार’ कब से, कहां से आ गया है? जैसे नए जमाने के फिल्म वाले पुराने फिल्मी गीतों को ‘रीमिक्स’ कर के उन्हें मौडर्न बना रहे हैं, उसी तरह ‘सोलह संस्कारों’ को रीमिक्स कर के मौडर्न तो नहीं बनाया जा रहा है?

इसी उधेड़बुन में गुलाबचंद मंत्रीजी के दरवाजे पर पहुंचे. देखा कि मंत्रीजी दरवाजे पर ही खड़ेखड़े अपनी पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं से बतिया रहे थे. गुलाबचंद को देखते ही मंत्रीजी कार्यकर्ताओं से विदा लेते हुए उन्हें घर के अंदर ले गए.

उन्होंने मंत्रानी को आवाज लगाई, ‘‘देखो, आज घर पर कौन पधारा है?’’

मंत्रानी ने रसोई से निकलते हुए जैसे ही गुलाबचंद को देखा, बड़ी खुश हो कर बोलीं, ‘‘इतने दिनों तक कहां रहे गुलाबचंदजी? हम लोग बड़ी बेसब्री से आप का इंतजार कर रहे थे…’

मंत्रानी कुछ और कहने जा रही थीं कि गुलाबचंद बीच में बोल पड़े, ‘‘भाभीजी, मुझे तो भाई साहब से कुछ दूसरी ही शिकायत है और इतनी बड़ी है कि घर आ कर जैसे ही शादी के कार्ड पर नजर पड़ी…’’

‘‘रहने दो गुलाबचंदजी…’’ मंत्रीजी ने उन की बात को काटते हुए कहा, ‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हें किसकिस बात को ले कर मुझ से शिकायत है…’’

इसी बीच भाभीजी यानी मंत्रानी जलपान ले कर आ गईं.

जलपान करते हुए मंत्रीजी ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘पहली बड़ी शिकायत तो यह है कि शादी के कार्ड को देखते ही तुम गुस्से में आपे से बाहर हो गए होंगे… और दूसरी शिकायत जिस में तुम उलझे हुए हो कि लड़की वाले विपक्षी पार्टी में होने के साथसाथ मेरे घोर राजनीतिक विरोधी ही नहीं, दुश्मन भी हैं. मेरा उन से हमेशा छत्तीस का ही आंकड़ा रहा है. क्यों, है न यही बात?

‘‘बात यह थी कि एक दिन हमारे भावी समधी सांसदजी ने अपने एक भरोसेमंद हमराज द्वारा बातोंबातों में राजनीतिक स्टाइल की चाशनी में मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि अगर मैं सांसदजी की बेटी से अपने एकलौते लाड़ले की सगाई कर दूं तो सांसदजी अपने खास विधायकों से बिना शर्त मेरी पार्टी को समर्थन दिलवा देंगे. बाद में सही मौका आने पर वे अपनी पार्टी का मेरी पार्टी में विलय भी कर लेंगे.

‘‘तुम तो जानते ही हो कि मेरी पार्टी अल्पमत में रहते हुए कितनी मुश्किलों से सरकार चला रही है. मेरी सरकार की कुरसी के गठबंधन में इतनी बेमेल गांठें हैं कि अगर एक गांठ भी खुल जाए तो सबकुछ इस कदर बिखर जाएगा कि भविष्य में दोबारा कुरसी पर बैठने की शायद ही नौबत आए.

‘‘ऐसी मजबूर हालत में अगर समधी सांसदजी हमें समर्थन दे रहे हैं और वे अपनी पार्टी का मेरी पार्टी में विलय कर लेते हैं तो हमारी हालत ऐसी हो जाएगी कि गठबंधन की अगर 2-4 गांठें खुल भी जाएं, टूट जाएं तब भी सरकार चलाने में मेरी पार्टी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

‘‘और एक राज की बात तुम्हें चुपके से कह रहा हूं… मौका आने पर अपनी ही पार्टी में जोड़तोड़ करवा कर मैं खुद ही मुख्यमंत्री बनने के चक्कर में लग गया हूं. इन्हीं सब राजनीतिक पैतरों को ध्यान में रखते हुए उन का ‘औफर’ आते ही मैं ने तुरंत हां कर दी और शादी का मुहूर्त निकलवा लिया.

‘‘गठबंधन संस्कार… यही शब्द तुम्हें दुखी कर रहा है न? चूंकि यह शादी राजनीति की बिसात पर हो रही है, जहां हर वक्त अपने फायदे के लिए मौके की तलाश रहती है, आज का दोस्त कल का दुश्मन और आज का विरोधी, कल का समर्थक बन जाता है, इसी माहौल में यह रिश्ता तय हुआ है.

‘‘इन बातों के ध्यान में आते ही मेरे दिमाग में ‘पाणिग्रहण संस्कार’ की जगह ‘गठबंधन संस्कार’ का जन्म हुआ.

‘‘भावी समधी सांसदजी ने भी यह रिश्ता राजनीति की बिसात पर तय किया है और नेता का क्या भरोसा? काम सधने के बाद कब पलटी मार जाए? कौनसी नई शर्त थोप दे? इन्हीं सब बातों को ध्यान में रख कर ही मैं ने ‘गठबंधन संस्कार’ शब्द का इस्तेमाल किया है.

‘‘सांसदजी ने शर्त रखी थी कि अगर मैं उन की लड़की की सगाई अपने लड़के से कर दूं तो पहले वे अपने विधायकों का बिना शर्त समर्थन मेरी पार्टी को देंगे और मौका आने पर वे अपनी पार्टी का विलय मेरी पार्टी में करेंगे. अगर उन्हें सामान्य रूप में यह रिश्ता तय करना होता तो वे सीधेसीधे मुझ से कह सकते थे. राजनीति अपनी जगह, रिश्ता अपनी जगह. रिश्तों को तो राजनीति से संबंध रखना ही नहीं चाहिए. सामान्य रूप में मैं इस रिश्ते को नकार भी सकता था, लेकिन उन की इस बात पर मेरे नकारने की गुंजाइश ही न रही.

‘‘रही रिश्तों की राजनीति की बात. मान लो कि शादी हो जाने के बाद वे ऊपर से समर्थन तो करते रहते लेकिन विलय वाली बात को यह कह कर नकारते रहते कि अभी सही समय नहीं आया या विलय तभी करेंगे जब मैं मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने करीबियों की बलि दे कर उन के विधायकों को मलाईदार पदों पर बैठा दूं. अगर मैं ऐसा मजबूरन कर भी दूं तब भी वे मुझे चैन से नहीं रहने देंगे. हमेशा समर्थन वापसी का डर दिखाते हुए एक न एक नई शर्त मुझ से मनवाते रहेंगे.

‘‘इन हालात में मैं क्या करता? इन्हीं सब पैतरों की काट करने के लिए मैं ने ‘गठबंधन संस्कार’ लिखवाया है.

‘‘हिंदू धर्म में ‘पाणिग्रहण संस्कार’ होने के बाद आसानी के साथ रिश्ता तोड़ा नहीं जा सकता. भविष्य में सांसदजी के अडि़यलपन पर अगर रिश्ता तोड़ने के बारे में विचार करता तो दहेज के नाम पर सताने की तलवार आसानी से मेरा गला काट सकती है. मन मसोस कर समधीजी की ऊलजुलूल शर्त

मुझे माननी पड़ती, लेकिन ‘गठबंधन संस्कार’ में ऐसा हरगिज नहीं हो सकता.

‘‘राजनीति में अलगअलग पार्टी की बेमेल गांठों का बंधन कब बंधे, कब खुले या टूटे, कहा नहीं जा सकता और इस जुड़ने, खुलने या टूटने में हमारा संविधान चुप है, कानून लाचार है…

‘‘इस समय हमारी पार्टी सरकार चला रही है, कल सुबह के अखबार में आप हैडिंग पढ़ सकते हैं कि कल की फलां विपक्षी पार्टी ने आज सत्ता हथिया ली है.

‘‘अब अगर राजनीति में इस ‘गठबंधन’ शब्द का इस्तेमाल न होता तो सत्ता का जोड़तोड़ भी इतनी आसानी से न होता. कानून इजाजत ही नहीं देता.

‘‘ठीक यही बात ‘गठबंधन संस्कार’ में है. ‘गठबंधन संस्कार’ कब तक दांपत्य जीवन में जुड़ा रहे और कब यह संस्कार दांपत्य जीवन से अलग हो जाए… इस पर कानून या समाज या फिर सरकार का कोई बंधन नहीं है, जबकि ‘पाणिग्रहण संस्कार’ में बंधन ही बंधन हैं. धर्म, समाज, कानून सब ‘पाणिग्रहण संस्कार’ को जकड़े हुए हैं.

‘‘अब अगर समधी सांसदजी पार्टी का समर्थन वापसी का जरा सा भी तेवर भविष्य में दिखाएंगे तो उन के तेवर

को उन्हीं के ऊपर साधते हुए मैं भी ‘गठबंधन संस्कार’ को भंग करने, तोड़ देने की चेतावनी दूंगा. यह एक

ऐसा हथियार होगा जिस के बलबूते मैं समधी सांसदजी को जब तक जीवन में राजनीति रहेगी, तब तक उन पर ताने रहूंगा और वे बेबस बने रहेंगे, चुप रह कर समर्थन देते रहेंगे.

‘‘मुख्यमंत्री बनने के बाद मैं ‘गठबंधन संस्कार’ को सदन में एक

नया विधेयक पास करा कर कानूनी जामा पहना दूंगा.’’

अपने नेता दोस्त के ऐसे विचार सुन कर गुलाबचंद सन्न रह गए और उलटे पैर घर लौट गए.

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