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Allu Arjun को जेल, उधर तिरुपति मंदिर में भी भगदड़, दोषी कौन ?

Allu Arjun : एक तरह के हादसे पर कानून दो तरह से कैसे काम कर सकता है? क्या यह न्याय और संविधान दोनों का अपमान नहीं?

तिरुपति बालाजी मंदिर में टोकन लेने के दौरान हुई भगदड में 6 लोगों की मौत हो गई और दूसरे 25 लोग घायल हो गए. टोकन लेने के लिए 4 हजार से अधिक लोग यहां जुटे थे. तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) द्वारा 10 जनवरी से 19 जनवरी तक वैकुंठ एकादशी और वैकुंठ द्वार दर्शनम कार्यक्रम चलता है. 10 दिन तक चलने वाले इस विशेष दर्शन में लोगों को टोकन लेना पड़ता है. दर्शन करने के लिए हजारों की संख्या में लोग जाते हैं. इस को व्यवस्थित करने के लिए टोकन सिस्टम शुरू किया गया.
टोकन काउंटर सुबह 5 बजे से खुलता है. उसी दिन के दर्शन के लिए टोकन जारी किया जाता है. इस के जरिए कोई भी व्यक्ति 50 रुपए का टोकन ले कर दर्शन करने जा सकता है. टोकन सिस्टम में एक वीआईपी कैटेगरी सिस्टम भी है. जिस में 300 रुपए का टोकन लेना पड़ता है. इस से जल्दी दर्शन करने की संभावना भी बढ़ जाती है. टोकन के लिए कांउटर विश्नु निवासम तिरुपति रेलवे स्टेशन के सामने, श्रीनिवासम कौम्प्लेक्स तिरुपति मुख्य बस स्टेशन के सामने, गोविंदराज सतराम तिरुपति रेलवे स्टेशन के पीछे बने हैं.
दर्शन के लिए टोकन लेने के लिए आधार कार्ड आवश्यक है. एक बार टोकन लेने के बाद, अगला टाइम स्लौट दर्शन 30 दिनों के बाद ही लिया जा सकता है. 12 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए टोकन जारी नहीं किया जाता उन के लिए प्रवेश निशुल्क है. टोकन जारी करते समय भक्त की फोटो ली जाती है. जारी किए गए दर्शन टोकन दूसरों परिवार के सदस्यों सहित किसी को भी नहीं दे सकते. बुजुर्गों और विकलांगों के लिए स्पैशल दर्शन की व्यवस्था भी की गई है. मंदिर के पास एक अलग प्रवेश द्वार से रोज दो अलगअलग स्लौट में सुबह करीबन 9 बजे और दूसरे स्लौट में दोपहर 3 बजे एंट्री मिलती है.

घटना के दिन क्या हुआ ?

10 जनवरी से 19 जनवरी 2025 में दर्शन के लिए टोकन बांटने का काम 9 जनवरी से शुरू होना था. 8 जनवरी की शाम को ही टोकन लेने वालों की भीड़ लग गई. भीड़ बढ़ने से भभगदड़ मच गई. जिस में 6 की मौत और 25 घायल हो गए. रोज 40 हजार टोकन बांटने की व्यवस्था के अनुसार पहले 3 दिन में सवा लाख लोगों को टोकन बांटने थे. इस के लिए 9 केंद्रों पर 94 सेंटर बनाए गए थे. इन में श्रीनिवासम, विष्णु निवासम, रामचन्द्र पुष्करणी, अलीपीरी भूदेवी कौम्पलैक्स, एमार पल्ली जेडपी हाईस्कूल, बैरागी पटेठा रामनायडू हाई स्कूल, सत्यनारायण पुरम जेडपी हाईस्कूल और इंदिरा मैदान में टोकन जारी करने की व्यवस्था थी.
तिरुपति मंदिर के खास वैकुंठ द्वार दर्शनम के लिए टोकन लेने के बाद ही अंदर जा सकते हैं. वैकुंठ द्वार दर्शनम के लिए मंदिर परिसर में कुल 8 जगहों पर टोकन बांटे जाने थे. एक दिन पहले से ही टोकन के लिए श्रद्धालुओं की लंबी लाइन थी. दर्शन के लिए टोकन मिल जाए इस के लिए खूब चढ़ाऊपरी लगी थी. जैसे ही गेट खुला भक्त अपना धैर्य खो बैठे. पहले टोकन पाने के लिए वे आगे बढ़े और देखते ही देखते स्थिति बिगड़ गई. अचानक भगदड़ मची और देखते ही देखते लाशें बिछ गईं.
भगदड़ एमचीएम स्कूल के काउंटर पर पर मची. भगदड़ तब मची जब टोकन बांटना शुरू भी नहीं हुआ था. पुलिस उपाधीक्षक ने जैसे ही गेट खोले तुरंत ही सभी लोग आगे बढ़ने लगे. इस से भगदड़ मच गई. सोशल मीडिया पर दिखाई पड़ रहे वीडियो में भीड़ एकदूसरे पर धक्का मुक्की करती दिखाई दे रही थी. इस के बाद पुलिस, मंदिर प्रबंधन और नेताओं का आना जारी हो गया.

भगवान जिम्मेदार नहीं ?

तिरुपति में हुई घटना में सब से अलग बात यह दिखी कि पुलिस द्वारा किसी को दोषी नहीं ठहराया गया. घटना की वजह जिन भगवान की मूर्ति थी उन को जिम्मेदार क्यों नहीं माना गया ? सामान्य तौर पर इस तरह के हादसों के लिए पुलिस किसी न किसी को जिम्मेदार ठहरा कर जेल भेज देती है, भले ही वह इंसान वहां मौजूद भी न रहा हो. ताजा मामला फिल्म अभिनेता अल्लू अर्जुन का था.
हैदराबाद में 4 दिसंबर को संध्या थिएटर में ‘पुष्पा 2‘ की स्क्रीनिंग थी. फिल्म देखने के लिए पहले से ही वहां भारी भीड़ इकट्ठा हुई थी. इस बीच अभिनेता अल्लू अर्जुन भी वहां पहुंच गए थे. उन को देखने के लिए वहां भगदड़ मच गई. अल्लू अर्जुन की एक झलक पाने को दर्शक अंदर घुसने की कोशिश करने लगे. इस से लोगों को सांस लेने में परेशानी होने लगी. वहां भगदड़ मच गई. पुलिस ने भीड़ को काबू करने के लिए लाठीचार्ज भी किया.
इस में रेवती नाम की महिला की मौत हो गई, जिस की उम्र 39 साल थी. वह पति और दो बच्चों बेटी सान्विका और बेटे श्रीतेज के साथ ‘पुष्पा 2‘ देखने गई थी. अचानक हुई दर्शकों की धक्कामुक्की में रेवती और उन का बेटा दब गए. पुलिस ले अल्लू अर्जुन, उन की सिक्योरिटी एजेंसी और थिएटर के मालिक के खिलाफ धारा-105 (गैर-इरादतन हत्या) और 118(1) (जानबूझकर चोट पहुंचाना) के तहत मुकदमा कायम कर जेल भेज दिया.
हैदराबाद पुलिस ने अल्लू अर्जुन को महिला की मौत का आरोपी बनाया. उन के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का भी केस दर्ज किया. 13 दिसंबर को चिक्कड़पल्ली पुलिस ने अल्लू अर्जुन को उन के घर से हिरासत में लिया. इस के बाद उन्हें चिक्कड़पल्ली पुलिस स्टेशन ले गई. जहां उन से पूछताछ के बाद बयान दर्ज कर मेडिकल चेकअप के लिए उस्मानिया अस्पताल ले जाया गया. इस के बाद उन को 14 दिनों के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था.
अल्लू अर्जुन ने इस हादसे पर गहरा दुख जताया था और परिवार को 25 लाख रुपए की मदद का ऐलान किया था. अल्लू अर्जुन ने कहा था कि वह महिला की मौत से आहत हैं और उन के परिवार की मदद के लिए हमेशा खड़े हैं. इस के बाद भी पुलिस ने अल्लू अर्जुन सहित थिएटर के मालिक संदीप, थिएटर के मैनेजर नागराजू और बालकनी के सुपरवाइजर को भी हिरासत में लिया था. अल्लू अर्जुन को पुलिस ने जिस तरह से गिरफ्तार किया वह पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया था. गिरफ्तारी के समय वह घर में चाय पर रहे थे. उन को चाय खत्म नहीं करने दिया गया. पत्नी स्नेहा रेड्डी रोने लगीं.

बच जाते हैं नेता और भगवान

मंदिरों में भगवान के नाम पर दर्शकों की भीड़ को बुलाया जाता है. फिल्म देखने के लिए दर्शक अपने मन से टिकट लेकर आते हैं. जब अल्लू अर्जुन पर मुकदमा कायम हो सकता है तो तिरूपति में भगवान पर मुकदमा कायम क्यो नहीं हो सकता ? नेता और भगवान तो इस तरह के मामले मे बच जाते हैं. दूसरी तरफ ऐक्टर, सिनेमाघर का मालिक और मकान मालिक को जेल भेज दिया जाता है. नेता और भगवान बच जाते हैं.
13 जून 1997 को सन्नी देओल, सुनील शेट्टी की फिल्म बौर्डर रिलीज हुई थी. भारतपाकिस्तान युद्ध पर बनी इस फिल्म को देखने के लिए देशभर में थिएटर्स के दर्शकों की भीड़ जुट गई थी. साउथ दिल्ली के उपहार सिनेमाघर में 160 लोगों की क्षमता वाला हौल खचाखच भरा था. 3 बजे वाला शो था. कोई 4 बजे सिनेमाघर की पार्किंग में आग लगी, जिस का धुआं हौल में भर गया. लोगों के निकलने के लिए एक ही दरवाजा था, जो गेटकीपर बंद कर के कहीं निकल गया था क्योंकि शो छूटने में पूरे 2 घंटे बाकी थे. हौल में धुआं भरता गया, लोगों का दम घुटता गया. लोग निकलने की पुरजोर कोशिश करते रहे लेकिन बाहर नहीं जा पाए. एक के बाद एक 59 लोगों ने दम तोड़ दिया.
सिनेमा घर चलाने वाले सुशील अंसल और प्रणव अंसल पर गैर इरातन हत्या का मामला तो दर्ज हुआ कि सिनेमा घर को भी सीज कर दिया गया. कई सालों तक केस चला. जांचें हुईं. पूरा परिवार तबाह हो गया. देखें तो उन की कोई गलती नहीं थी. कोई भी मालिक अपनी संपत्ति जला कर किसी की हत्या करना चाहेगा क्या ? इस तरह की बहुत सारी घटनाओं में उन लोगों को जिम्मेदार माना जाता है जो उस के मालिक होते हैं. इस के विपरीत लखनऊ में साड़ी कांड हुआ था. जिस में 22 महिलाओं की भगदड़ में मौत हो गई. 12 अप्रैल को भाजपा नेता लालजी टंडन के जन्मदिन पर महानगर के चन्द्रशेखर आजाद पार्क में साड़ी वितरण कार्यक्रम रखा गया था. इस में भगदड मची. जिस में 22 औरतों की मौत हो गई कई अन्य घायल हो गई.
नेता के खिलाफ कोई मुकदमा कायम नहीं हुआ था. इसी तरह से 2013 में इलाहाबाद में आयोजित महाकुंभ में रेलवे स्टेषन पर रेलगाडी का प्लेटफौर्म बदले जाने के बाद इधर से उधर पहुंचने में भगदड़ मच गई. रेलवे के फुटबिज पर ही लोगों के गिरने से बड़ा हादसा हो गया था. जिस में 35 लोगों की मौत हो गई थी. इस के बाद भी उस समय के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और नगर मंत्री आजम खान पर कोई मुकदमा कायम नहीं हुआ. नेता और भगवान को बचा लिया जाता है. 2025 के कुंभ के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ निमंत्रण तो बांट रहे हैं पर क्या वह सुरक्षा की जिम्मेदारी भी ले रहे हैं ?
मंदिरों और मेले में हादसे कोई नई बात नहीं है. लोग मंदिर और मेले में अपनी खुशी के लिए प्रार्थना करने जाते हैं. यहां उन को जब मौत मिलती है तो इस के लिए मंदिर के भगवान और नेता को जिम्मदार नहीं माना जाता है. जबकि किसी कारखाने, सिनेमा, घर निर्माण के समय कोई हादसा हो जाता है तो उस के मालिक को जिम्मेदार मान लिया जाता है. सिनेमा घर में फिल्म देखने आई महिला के लिए अल्लू अर्जुन को जिम्मेदार मान लिया गया लेकिन तिरूपति में भगवान की मूर्ति को जिम्मेदार क्यों नहीं माना जा सकता ? उस जगह के वही तो मालिक हैं.

दरअसल, सुबह से ही हजारों श्रद्धालु वैकुंठद्वार दर्शन टोकन के लिए तिरुपति के विभिन्न टिकट केंद्रों पर कतार में खड़े थे. तभी श्रद्धालुओं को बैरागी पट्टीडा पार्क में कतार में लगने की अनुमति दी गई. वैकुंठद्वार दर्शन दस दिन के लिए खोले गए हैं, जिस के चलते टोकन के लिए हजारों की संख्या में लोग जुट रहे हैं. भगदड़ मचने से वहां अफरातफरी मच गई, जिस में 6 लोगों की मौत हो गई.
इस में मल्लिका नाम की एक महिला भी शामिल है. घटना के पश्चात हालात बिगड़ता देख स्थानीय पुलिस ने मोर्चा संभाला और स्थिति को नियंत्रित किया. बताया जा रहा है कि दर्शन के लिए टोकन की लाइन वैकुंठद्वार दर्शन के लिए 4000 लोग लाइन में खड़े थे. स्थिति को ले कर मंदिर समिति के चेयरमैन बीआर नायडू ने आपातकालीन बैठक की मगर बात वही ढाक के तीन पात है.
मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने भगदड़ में छह श्रद्धालुओं की मौत पर औपचारिक गहरा दुख जताया है. मुख्यमंत्री ने कहा- “वे इस घटना से बहुत दुखी हैं.” यह घटना उस समय हुई जब बड़ी संख्या में श्रद्धालु टोकन लेने के लिए एकत्र हुए थे. मुख्यमंत्री ने घटना में घायलों को दिए जा रहे उपचार के बारे में अधिकारियों से फोन पर बात की.
मुख्यमंत्री समयसमय पर जिला और टीटीडी अधिकारियों से बात कर के मौजूदा स्थिति से अवगत हैं. मुख्यमंत्री ने उच्च अधिकारियों को घटना स्थल पर जा कर राहत उपाय करने का आदेश दिया है, ताकि घायलों को बेहतर उपचार मिल सके. आप को बताते चलें कि तिरुपति बालाजी मंदिर में पहले भी कई भगदड़ की घटनाएं हुई हैं. यहां कुछ प्रमुख घटनाओं की जानकारी दी जा रही है:
1. 2013: तिरुपति बालाजी मंदिर में भगदड़ की घटना में 8 लोगों की मौत हुई थी और कई घायल हुए थे.
2. 2008: तिरुपति बालाजी मंदिर में भगदड़ की घटना में 2 लोगों की मौत हुई थी और कई घायल हुए थे.
3. 2005: तिरुपति बालाजी मंदिर में भगदड़ की घटना में 4 लोगों की मौत हुई थी और कई घायल हुए थे.
4. 1997: तिरुपति बालाजी मंदिर में भगदड़ की घटना में 10 लोगों की मौत हुई थी और कई घायल हुए थे.
इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि तिरुपति बालाजी मंदिर और अन्य मंदिरों में भगदड़ की घटनाएं पहले भी हुई हैं और अब इन्हें रोकने के लिए मंदिर प्रशासन और पुलिस को विशेष सावधानी बरतनी चाहिए.

मंदिरों, सभागृह में भगदड़ की घटनाएं कई कारणों से होती हैं

दरअसल कुछ प्रमुख तीर्थस्थल हैं, जहां हर साल लाखों श्रद्धालु आते हैं. भारी भीड़ के कारण भगदड़ की घटनाएं हो जाती हैं. मंदिर प्रशासन और पुलिस को सुरक्षा इंतजामों को बढ़ाना चाहिए, लेकिन कई बार यह इंतजाम पर्याप्त नहीं होते हैं.
कई श्रद्धालु भगदड़ की घटनाओं के लिए खुद जिम्मेदार होते हैं. वे भीड़ में शामिल होने के लिए जल्दबाजी करते हैं और सुरक्षा नियमों का पालन नहीं करते हैं. मंदिर की व्यवस्था में कमी के कारण भगदड़ की घटनाएं हो सकती हैं. मंदिर प्रशासन को भी व्यवस्था में सुधार के लिए सतर्क होना चाहिए.
इन कारणों को देखते हुए, यह कहा जा सकता है कि भगदड़ की घटनाओं के लिए एक ही व्यक्ति या संस्था जिम्मेदार नहीं है. इस के लिए मंदिर प्रशासन, पुलिस, श्रद्धालु और सरकार सभी जिम्मेदार हैं. इस समस्या का समाधान करने के लिए, मंदिर प्रशासन और पुलिस को सुरक्षा इंतजामों को बढ़ाना चाहिए, श्रद्धालुओं को सुरक्षा नियमों का पालन करना चाहिए और सरकार को मंदिर की व्यवस्था में सुधार करना चाहिए.
स्मरण रहे कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोग रहते हैं. लेकिन यहां धर्म, धार्मिकता और आस्था के बीच में अंधविश्वास भी बहुत ज्यादा है. यह अंधविश्वास कई बार लोगों को गलत दिशा में ले जाता है और समाज में कई समस्याएं पैदा करता है.
धर्म और धार्मिकता की बात करें तो भारत में बहुत सारे धर्म हैं और हर धर्म के अपने अनुयायी हैं. लेकिन यहां धर्म के नाम पर कई बार लोगों को गलत जानकारी दी जाती है और उन्हें अंधविश्वास की ओर धकेला जाता है.
आस्था की बात करें तो यह एक अच्छी चीज है, लेकिन जब आस्था अंधविश्वास में बदल जाती है तो यह समाज के लिए हानिकारक हो जाती है. भारत में बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो अंधविश्वास के कारण अपने जीवन को बर्बाद कर लेते हैं.

अंधविश्वास के कारण भारत में कई समस्याएं हैं जैसे कि:

– लोगों को गलत जानकारी दी जाती है और उन्हें अंधविश्वास की ओर धकेला जाता है.
– लोग अपने जीवन को बर्बाद कर लेते हैं और अपने परिवार को भी बर्बाद कर लेते हैं.
– समाज में कई समस्याएं पैदा होती हैं जैसे कि गरीबी, बेरोजगारी और शिक्षा की कमी.
– लोगों को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं होती है और वे अपने अधिकारों का उपयोग नहीं कर पाते हैं.
इस समस्या का समाधान करने के लिए, हमें अपने समाज में जागरूकता फैलानी चाहिए. हमें लोगों को अंधविश्वास के बारे में जानकारी देनी चाहिए और उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी देनी चाहिए. हमें अपने समाज में शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए ताकि लोगों को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी हो और वे अपने जीवन को बेहतर बना सकें.
मंदिरों में जमघट भीड़ लगने की अपेक्षा अपनेअपने गांव, शहर या घर में ही पूजा पाठ कर के भी ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है. यह एक अच्छा विकल्प हो सकता है क्योंकि मंदिरों में भीड़ के कारण कई बार लोगों को परेशानी होती है और वे अपनी पूजापाठ को शांति से नहीं कर पाते हैं.

 

लेखक : शैलेन्द्र सिंह, सुरेशचंद्र रोहरा 

OYO Hotels बना प्यार का दुश्मन, कुंवारों की एंट्री बंद

 OYO Hotels  : संविधान का अनुच्छेद 21 हर तरह की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात करता है. इसी कड़ी में अनुच्छेद 301 बहुत साफ करता है कि दो बालिगों को रजामंदी से देश में कहीं भी सैक्स करनी की आजादी है. कैसे Oyo कानून और संविधान का खुला उल्लंघन कर रहा है, आप भी जानिए –

शुरुआत मेरठ से हुई है, खात्मा कहां होगा कहा नहीं जा सकता क्योंकि इस मामले पर यह धार्मिक कहावत लागू नहीं होती कि ऊपर वाला एक दरवाजा बंद करता है तो दूसरे कई खोल भी देता है. यहां तो नीचे वाले ही प्यार पर पहरे बिठाने उतारू हो आए हैं जिस में उपर वाला भी कुछ नहीं कर सकता. करना तो अब प्रेमियों को ही पड़ेगा क्योंकि शुरुआत हो चुकी है दिल्ली और एनसीआर सहित कई दूसरे शहरों में भी मेरठ वाली धमक सुनाई देना शुरू हो गई है.

समझें बजरंग दल का मंसूबा और उसकी मंशा

बेंगुलुरु इस कहर या ज्यादती का अगला पड़ाव है वहां प्यार के शास्वत दुश्मन कट्टर संगठन बजरंगदल ने बीबीएमपी यानी बृहद बेंगुलुरु महानगर पालिका के कमिश्नर तुषार गिरिनाथ और बेंगुलुरु शहर के पुलिस आयुक्त बी दयानंद से एक्शन लेने कहा है. इस हिंदूवादी संगठन द्वारा दिए ज्ञापन में मांग की गई है कि बेंगलुरु शहर में भी मेरठ जैसा नियम लागू किया जाना चाहिए. अर्थात अविवाहित जोड़ों को होम स्टे, लाज, सर्विस अपार्टमेंट और अन्य होटलों में भी कमरे नहीं दिए जाने चाहिए. बजरंग दल के मंसूबे और मंशा तो इस से आगे भी कुछ और हैं लेकिन बात पहले मेरठ की जहां से सदाचार की क्रांति शुरू हुई जिस से उत्साहित तमाम छोटे बड़े शहरों में कट्टरवादी संगठन मुगले ए आजम के जिल्लेलाही के रोल में न दिखें तो बात हैरत वाली होगी.
मेरठ में होस्पिटेलिटी कम्पनी ओयो ने एलान किया है कि अब कुंवारे कपल्स को रूम नहीं दिए जाएंगे. ओयो होटल्स में रुकने वाले कपल्स को रिलेशनशिप सर्टिफिकेट देना होगा. इस फैसले के पीछे ओयो ने बड़ा सात्विक कारण यह बताया है कि मेरठ के लोगों ने अविवाहित कपल्स को कमरा न देने की अपील की थी. इस के अलावा देश भर के खिलाफ कई याचिकाएं भी दायर की गई हैं.

कुछ दिन पहले ही ट्रेवल पीडिया 2024 द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में बताया गया था कि अनमैरिड कपल्स ओयो के जरिये ज्यादा रूम बुक करते हैं. यह और बात है कि इतनी मामूली बात के लिए किसी सर्वे की जरूरत नहीं थी. हर किसी को यह सच मालूम था. ऐसा लगता है कि प्यार करने वालों से आजादी और सहूलियत छीनने एक आधार तैयार किया जा रहा है. नहीं तो कहा तो यह भी जा सकता था कि ओयो का सब से ज्यादा इस्तेमाल युवा करते हैं. रिपोर्ट में यह इशारा भी किया गया है कि होटल से आएदिन आपत्तिजनक वीडियो वायरल होते रहते हैं. ( गोया कि अब खत्म हो जाएंगे.)
ओयो के नए दिशानिर्देशों के मुताबिक विवाहित जोड़े रूम बुक करा सकते हैं लेकिन इस के लिए उन्हें औनलाइन या औफलाइन अपने पतिपत्नी होने का प्रमाण देना पड़ेगा. यानी असली पतिपत्नी के यह कह देने भर से काम नहीं चलेगा कि वे वाकई पतिपत्नी हैं. अब अपने पतिपत्नी होने का कौन सा सबूत वे पेश करेंगे यह भगवान जाने क्योंकि देश में 95 फीसदी शादियां परम्परागत तरीके से होती हैं जिस का मैरिज सर्टिफिकेट विदेश जाने के लिए पासपोर्ट जैसे दस्तावेज की जरूरत न हो तो नहीं बनवाया जाता. समाज और कानून उन के कहने भर से ही उन्हें पतिपत्नी मान लेते हैं हां कोई एक एतराज जताए या कोई विवाद हो तो जरुर शादी होने का सबूत पेश करना पड़ता है अब ओयो अपनी इमेज चमकाते बड़ी मासूमियत से कह रहा है कि इस से यानी चेक इन नियमों को बदलने से होटल में रूम लेने वाले परिवारों छात्रों और धार्मिक यात्रियों को सुरक्षित अनुभव मिलेगा.

ऐसा कतई नहीं था कि अब तक ओयो रूम लेने वाले अनमैरिड कपल्स जिन्हें और जिन के पवित्र प्यार को एक झटके में ओयो द्वारा पाप और नाजायज करार दे दिया गया है कोई गदर करते थे बल्कि वे तो चुपचाप कमरे में बंद हो कर अपने प्यार को परवान चढ़ा रहे होते थे जिस में किसी को डिस्टर्ब करने की बात की कोई गुंजाईश ही नहीं थी. उलटे उन का डर या मंशा तो यह रहती थी कि कोई उन्हें डिस्टर्ब न करे.
यह झमेला कैसे कानून और संविधान का खुला उल्लंघन कर रहा है इसे जानने से पहले थोड़ा सा ओयो के बारे में जान लें कि कैसे इस ने कानून और संविधान का ही सहारा ले कर अरबों का आर्थिक साम्राज्य खड़ा किया और अब यह सोचना बेमानी है कि वही इसे ध्वस्त कर रहा है बल्कि इस के पीछे ओयो के फाउंडर और मुखिया रीतेश अग्रवाल की मंशा और पैसा समेटने की है.

31 वर्षीय रीतेश ओडिशा के कटक के एक गांव में पैदा हुआ थे जिन के पिता की किराने की छोटी सी दुकान हुआ करती थी. रीतेश पढ़ाई के लिए कोटा होते हुए दिल्ली पहुंचे लेकिन मन न लगने या कमजोर होने के कारण बीटेक की पढ़ाई उन्होंने बीच में छोड़ दी और दिल्ली में सिम कार्ड बेचने लगे.
व्यवसायिक बुद्धि के धनी इस युवा ने 2013 में ओयो की स्थापना की और ऐप के जरिये कारोबार चलाया और फैलाया जो आज लगभग 800 करोड़ रु का है. इस बाबत उन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तारीफ प्रोत्साहन और पुरुस्कार तीनों मिले. देखते ही देखते ओयो के जरिये लोगों को सस्ते और किफायती रूम मिलने लगे. इन में हर तरह के लोग थे, छात्र, बिजनेसमेन धर्मिक यात्री, शौकीन घुमक्कड़, सैलानी और इन से भी ज्यादा और अहम ये कपल्स जिन्हें प्यार रोमांस और सैक्स के लिए एकांत सुरक्षित जगह की दरकार रहती थी.
देखते ही देखते ओयो की पहचान कुंवारे कपल्स से होने लगी जो बिना किसी डर से बेहद सस्ते में कमरा बुक कराते थे और अपने तन मन की जरूरत पूरी करने के बाद अपनेअपने ठिकानों या घर लौट जाते थे. यह कोई हर्ज की या गैरकानूनी बात नहीं थी बल्कि एक नया कांसैप्ट और व्यवस्था थी जिस में सब कुछ कानून के तहत चल रहा था इसलिए ओयो ने जम कर नोट छापे.
लेकिन अब खुलेआम कानून को धता रीतेश बता रहे हैं. कोई कानून उन्हें यह फैसला लेने या व्यवस्था करने की इजाजत नहीं देता कि अनमैरिड कपल्स को होटल में कमरा नहीं दिया जाएगा. यह ठीक वैसी ही बात है कि दलितों का मंदिर में प्रवेश वर्जित है जबकि कोई कानून इस की भी इजाजत नहीं देता.

ऐसा भी नहीं है कि रीतेश को एकाएक ही धर्म, संस्कृति और समाज का लिहाज हो आया हो बल्कि वे अब चाहते यह हैं कि कुंवारे कपल्स 2 रूम बुक कराएं जिस से ओयो की आमदनी दोगुनी हो. अगर ऐसा नहीं है तो सामाजिक संगठनों के अपील की दलील बेहद खोखली है क्योंकि कहीं कोई सार्वजनिक विरोध या प्रदर्शन ओयो के विरोध में नही हुआ था. छिटपुट जो हुआ वह कतई इतना असर डालने वाला नहीं था जितना कि मासूमियत से वे जाहिर कर रहे हैं.
अब प्यार करने वाले क्या करेंगे और कहां जाएंगे यह सवाल भी बेमानी है क्योंकि ओयो के पहले भी युवा प्यार कर रहे थे और सैक्स भी कर रहे थे. गांव देहातों में ओयो नहीं हैं लेकिन वहां के युवा झाड़ियों, खेत खलिहानों और मंदिरों, खंडहरों तक में प्यार की जगह और मौके ढूंढे लेते हैं.
हां इतना जरुर है कि इस में उन्हें कई दुश्वारियों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है. अब ओयो के इस फैसले के बाद शहरी युवाओं को भी दिक्कत होगी लेकिन वे खुद अपना रास्ता बना और ढूंढे लेंगे. हालांकि बेहतर विकल्प खुद ओयो अघोषित रूप से दे चुका है कि अब 2 कमरे बुक करो और हमें दोगुना पैसा दो

Emotional Story : रोबीली सास

Emotional Story :  मां के फोन वैसे तो संक्षिप्त ही होते थे पर इतना महत्त्वपूर्ण समाचार भी वह सिर्फ 2 मिनट में बता देंगी, मेरी कल्पना से परे ही था. ‘‘शुचिता की शादी तय हो गई है. 15 दिन बाद का मुहूर्त निकला है, तुम सब लोगों को आना है,’’ बस, इतना कह कर वह फोन रखने लगी थीं.

‘‘अरे, मां, कब रिश्ता तय किया है, कौन लोग हैं, कहां के हैं, लड़का क्या करता है?’’ मैं ने एकसाथ कई प्रश्न पूछ डाले थे. ‘‘सब ठीकठाक ही है, अब आ कर देख लेना.’’

मां और बातें करने के मूड में नहीं थीं और मैं कुछ और कहती तब तक उन्होंने फोन रख दिया था. लो, यह भी कोई बात हुई. अरे, शुचिता मेरी सगी छोटी बहन है, इतना सब जानने का हक तो मेरा बनता ही है कि कहां शादी तय हो रही है, कैसे लोग हैं. अरे, शुचि की जिंदगी का एक अहम फैसला होने जा रहा है और मुझे खबर तक नहीं. ठीक है, मां का स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं रहता है, फिर शुचिता की शादी को ले कर पिछले कई सालों से परेशान हो रही हैं. पिताजी के असमय निधन से और अकेली पड़ गई हैं. भाई कोई है नहीं, हम 3 बहनें ही हैं. मैं, नमिता और शुचिता. मेरी और नमिता की शादी हुए काफी अरसा हो गया है पर पता नहीं क्यों शुचिता का हर बार रिश्ता तय होतेहोते रह जाता था. शायद इसीलिए मां इतनी शीघ्रता से यह काम निबटाना चाह रही हों.

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जो भी हो, बात तो मां को पूरी बतानी थी. शाम को मैं ने फिर शुचिता से ही बात करनी चाही थी पर वह तो शुरू से वैसे भी मितभाषी ही रही है. अभी भी हां-हूं ही करती रही. ‘‘दीदी, मां ने बता तो दिया होगा सबकुछ…’’ स्वर भी उस का तटस्थ ही था.

‘‘अरे, पर तू तो पूरी बात बता न, तेरे स्वर में भी कोई खास उत्साह नहीं दिख रहा है,’’ मैं तो अब झल्ला ही पड़ी थी. ‘‘उत्साह क्या, सब ठीक ही है. मां इतने दिन से परेशान थीं, मैं स्वयं भी अब उन पर बोझ बन कर उन की परेशानी और नहीं बढ़ाना चाहती. अब यह रिश्ता तो जैसे एक तरह से अपनेआप ही तय हो गया है, तो अच्छा ही होगा,’’ शुचिता ने भी जैसेतैसे बात समाप्त ही कर दी थी.

राजीव तो अपने काम में इतने व्यस्त थे कि उन को छुट्टी मिलनी मुश्किल थी. मेरा और बच्चों का रिजर्वेशन करवा दिया. मैं चाह रही थी कि 4-5 दिन पहले पहुंचूं पर मैं और नमिता दोनों ही रिजर्वेशन के कारण ठीक शादी वाले दिन ही पहुंच पाए थे. मेरी तरह नमिता भी उतनी ही उत्सुक थी यह जानने के लिए कि शुचि का रिश्ता कहां तय हुआ और इतनी जल्दी कैसे सब तय हो गया पर जो कुछ जानकारी मिली उस ने तो जैसे हमारे उत्साह पर पानी ही फेर दिया था.

जौनपुर का कोई संयुक्त परिवार था. छोटामोटा बिजनेस था. लड़का भी वही पुश्तैनी काम संभाल रहा था. उन लोगों की कोई मांग नहीं थी. लड़के की बूआ खुद आ कर शुचिता को पसंद कर गई थीं और शगुन की अंगूठी व साड़ी भी दे गई थीं.

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‘‘मां,’’ मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘जब इतने समय से रिश्ते देख रहे हैं तो और देख लेते. आप को जल्दी क्या थी. ऐसी क्या शुचि बोझ बन गई थी? अब जौनपुर जैसा छोटा सा पुराना शहर, पुराने रीतिरिवाज के लोग, संयुक्त परिवार, शुचि कैसे निभेगी उस घर में.’’ ‘‘सब निभ जाएगी,’’ मां बोलीं, ‘‘अब मेरे इस बूढ़े शरीर में इतनी ताकत नहीं बची है कि घरघर रिश्ता ढूंढ़ती रहूं. इतने बरस तो हो गए, कहीं जन्मपत्री नहीं मिलती, कहीं दहेज का चक्कर… और तुम दोनों जो इतनी मीनमेख निकाल रही हो, खुद क्यों नहीं ढूंढ़ दिया कोई अच्छा घरबार अपनी बहन के लिए.’’

मां ने तो एक तरह से मुझे और नमिता दोनों को ही डपट दिया था. यह सच भी था, हम दोनों बहनें अपनेअपने परिवार में इतनी व्यस्त हो गई थीं कि जितने प्रयास करने चाहिए थे, चाह कर भी नहीं कर पाए.

खैर, सीधेसादे समारोह के साथ शुचिता ब्याह दी गई. मैं और नमिता दोनों कुछ दिन मां के पास रुक गए थे पर हम रोज ही यह सोचते कि पता नहीं कैसे हमारी यह भोलीभाली बहन उस संयुक्त परिवार में निभेगी. हम लोग ऐसे परिवारों में कभी रहे नहीं. न ही हमें घरेलू काम करने की अधिक आदत थी. पिताजी थे तब काफी नौकरचाकर थे और अभी भी मां ने 2 काम वाली बाई लगा रखी थीं और खाना भी उन्हीं से बनवा लेती थीं.

फिर शुचि का तो स्वभाव भी सरल सा है. तेजतर्रार सास, ननदें, जेठानी सब मिल कर दबा लेंगी उसे. जब चचेरा भाई रवि विदा कराने गया तब हम लोग यही सोच कर आशंकित थे कि पता नहीं शुचि आ कर क्या हालचाल सुनाए. पर उस समय तो उस की सास ने विदा भी नहीं किया. रवि से यह कह कर कि महीने भर बाद भेजेंगी, अभी किसी बच्चे का जन्मदिन है, उसे भेज दिया था.

उधर रवि कहता जा रहा था, ‘‘दीदी, शुचि दीदी को आप ने कैसे घर में भेज दिया, वह घर क्या उन के लायक है. छोटा सा पुराने जमाने का मकान, उस में इतने सारे लोग…अब आजकल कौन बहुओं से घूंघट निकलवाता है, पर शुचि दीदी से इतना परदा करवाया कि मेरे सामने ही मुश्किल से आ पाईं. ‘‘ऊपर से सास, ननदें सब तेजतर्रार. सास ने तो एक तरह से मुझे ही झिड़क दिया कि बहू से घर का कामकाज तो होता नहीं है, इतना नाजुक बना कर रख दिया है लड़की को कि वह चार जनों का खाना तक नहीं बना सकती, पर गलती तो इस की मां की है जो कुछ सिखाया नहीं. अब हम लोग सिखाएंगे.

‘‘सच दीदी, इतनी रोबीली सास तो मैं ने पहली बार देखी.’’ रवि कहता जा रहा है और मेरा कलेजा बैठता जा रहा था कि इतने सीधेसादे ढंग से शादी की है, कहीं लालची लोग हुए तो दहेज के कारण मेरी बहन को प्रताडि़त न करें. वैसे भी दहेज को ले कर इतने किस्से तो आएदिन होते रहते हैं.

शुचि से मिलना भी नहीं हो पाया. मां से भी इस बारे में अधिक बात नहीं कर पाई. वैसे भी हृदय रोग की मरीज हैं वे.

शुचि से फोन पर कभीकभार बात होती तो जैसा उस का स्वभाव था हांहूं में ही उत्तर देती. बीच में दशहरे की छुट्टियों में फिर मां के पास जाना हुआ था. सोचा कि शायद शुचि भी आए तो उस से भी मिलना हो जाएगा पर मां ने बताया कि शुचि की सास बीमार हैं…वह आ नहीं पाएगी.

‘‘मां, इतने लोग तो हैं उस घर में फिर शुचि तो नईनवेली बहू है, क्या अब वही बची है सास की सेवा को, जो चार दिन को भी नहीं आ सकती,’’ मैं कहे बिना नहीं रह पाई थी. मुझे पता था कि उस की ननदें, जेठानी सब इतनी तेज हैं तो शुचि दब कर रह गई होगी. उधर मां कहे जा रही थीं, ‘‘सास का इलाज होना था तो पैसे की जरूरत पड़ी. शुचि ने अपने कंगन उतार कर सास के हाथ पर धर दिए…सास तो गद्गद हो गईं.’’

मैं ने माथे पर हाथ मारा. हद हो गई बेवकूफी की भी. अरे, छोटीमोटी बीमारी का तो इलाज यों ही हो जाता है फिर पुश्तैनी व्यापार है, इतने लोग हैं घर में… और सास की चतुराई देखो, जो थोड़ा- बहुत जेवर शुचि मायके से ले कर गई है उस पर भी नजरें गड़ी हैं. उधर मां कहती जा रही थीं, ‘‘अच्छा है उस घर में रचबस गई है शुचि…’’

मां भी आजकल पता नहीं किस लोक में विचरण करने लगी हैं. सारी व्यावहारिकता भूल गई हैं. शुचि के पास कुछ गहनों के अलावा और है ही क्या. मेरा तो मन ही उचट गया था. घर आ कर भी मूड उखड़ाउखड़ा ही रहा. राजीव से यह सब कहा तो उन का तो वही चिरपरिचित उत्तर था.

‘‘तुम क्यों परेशान हो रही हो. सब का अपनाअपना भाग्य है. अब शुचि के भाग्य में जौनपुर के ये लोग ही थे तो इस में तुम क्या कर सकती हो और मां से क्या उम्मीद करती हो? उन्होंने तो जैसे भी हो अपना दायित्व पूरा कर दिया.’’ फोन पर पता चला कि शुचि बीमार है, पेट में पथरी है और आपरेशन होगा. दूसरी कोई शिकायत हो सकती है तो पहले सारे टेस्ट होंगे, बनारस के एक अस्पताल में भरती है.

‘‘तुम लोग देख आना, मेरा तो जाना हो नहीं पाएगा,’’ मां ने खबर दी थी. नमिता भी छुट्टी ले कर आ गई थी. वहीं अस्पताल के पास उस ने एक होटल में कमरा बुक करा लिया था.

‘‘रीता, मैं तो 2 दिन से ज्यादा रुक नहीं पाऊंगी, बड़ी मुश्किल से आफिस से छुट्टी मिली है,’’ उस ने मिलते ही कहा था. ‘‘मैं भी कहां रुक पाऊंगी, छोटू के इम्तहान चल रहे हैं, नौकर भी आजकल बाहर गया हुआ है. बस, दिन में ही शुचि के पास बैठ लेंगे, रात को तो जगना भी मुश्किल है मेरे लिए,’’ मैं ने भी अपनी परेशानी गिना दी थी.

सवाल यह था कि यहां रुक कर शुचि की देखभाल कौन करेगा? कम से कम 10 दिन तो उसे अस्पताल में ही रहना होगा. अभी तो सारे टेस्ट होने हैं. हम दोनों शुचि को देखने जब अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि उस की दोनों ननदें आई हुई हैं. बूढ़ी सास भी उसे संभालने आ गई हैं और उन लोगों ने काटेज वार्ड के पास ही कमरा ले लिया था.

दबंग सास बड़े प्यार से शुचि के सिर पर हाथ फेर रही थीं. ‘‘फिक्र मत कर बेटी, तू जल्दी ठीक हो जाएगी, मैं हूं न तेरे पास. तेरी दोनों ननदें भी अपनी ससुराल से आ गई हैं. सब बारीबारी से तेरे पास सो जाया करेंगे. तू अकेली थोड़े ही है.’’

उधर शुचि के पति चम्मच से उसे सूप पिला रहे थे, एक ननद मुंह पोंछने का नैपकिन लिए खड़ी थी. ‘‘दीदी, कैसी हो?’’ शुचि ने हमें देख कर पूछा था. मुझे लगा कि इतनी बीमारी के बाद भी शुचि के चेहरे पर एक चमक है. शायद घरपरिवार का इतना अपनत्व पा कर वह अपनी बीमारी भूल गई है. पर पता नहीं क्यों मेरे और नमिता के सिर कुछ झुक गए थे. कई बार इनसानों को समझने में कितनी भूल कर देते हैं हम. मैं ऐसा ही कुछ सोच रही थी.

लेखिका- डॉ कासमा चतुर्वेदी

Hindi Stories : पान खाए सैयां हमारो

Hindi Stories :  शाम के 6 बजे जब सब 1-1 कर घर जाने के लिए अपनाअपना बैग समेटने लगे तो सिया ने चोरी से एक नजर अनिल पर डाली. औफिस में नया आया सब से हैंडसम, स्मार्ट, खुशमिजाज अनिल उसे देखते ही पसंद आ गया था. वह मन ही मन उस के प्रति आकर्षित थी.

अनिल ने भी एक नजर उस पर डाली तो वह मुसकरा दी. दोनों अपनीअपनी चेयर से लगभग साथ ही उठे. लिफ्ट तक भी साथ ही गए. 2-3 लोग और भी उन के साथ बातें करते लिफ्ट में आए. आम सी बातों के दौरान सिया ने भी नोट किया कि अनिल भी उस पर चोरीचोरी नजर डाल रहा है.

बाहर निकल कर सिया रिकशे की तरफ जाने लगी तो अनिल ने कहा, ‘‘सिया, कहां जाना है आप को मैं छोड़ दूं?’’‘‘नो थैंक्स, मैं रिकशा ले लूंगी.’’‘‘अरे, आओ न, साथ चलते हैं.’’‘‘अच्छा, ठीक है.’’

अनिल ने अपनी बाइक स्टार्ट की, तो सिया उस के पीछे बैठ गई. अनिल से आती परफ्यूम की खुशबू सिया को भा रही थी. दोनों को एकदूसरे का स्पर्श रोमांचित कर गया. बनारस में इस औफिस में दोनों ही नए थे. सिया की नियुक्ति पहले हुई थी.

अचानक सड़क के किनारे होते हुए अनिल ने ब्रेक लगाए तो सिया चौंकी, ‘‘क्या हुआ?’’‘‘कुछ नहीं,’’ कहते हुए अनिल ने अपनी पैंट की जेब से गुटका निकाला और बड़े स्टाइल से मुंह में डालते हुए मुसकराया.‘‘यह क्या?’’ सिया को एक झटका सा लगा.‘‘मेरा फैवरिट पानमसाला.’’‘‘तुम्हें इस की आदत है?’’

‘‘हां, और यह मेरी स्टाइलिश आदत है, है न?’’ फिर सिया के माथे पर शिकन देख कर पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’‘‘तुम्हें इन सब चीजों का शौक है?’’‘‘हां, पर क्या हुआ?’’‘‘नहीं, कुछ नहीं,’’ कह कर वह चुप रही तो अनिल ने फिर बाइक स्टार्ट कर ली.धीरेधीरे यह रोज का क्रम बन गया. घर से आते हुए सिया रिकशे में आती, औफिस से वापस जाते समय अनिल उसे उस के घर से थोड़ी दूर उतार देता. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे से खुलते गए.

अनिल का सिया के प्रति आकर्षण बढ़ता गया. मौडर्न, सुंदर, स्मार्ट सिया को वह अपने भावी जीवनसाथी के रूप में देखने लगा था. कुछ ऐसा ही सिया भी सोचने लगी थी. दोनों को विश्वास था कि उन के घर वाले उन की पसंद को पसंद करेंगे.

अनिल तो सिया के साथ अपना जीवन आगे बढ़ाने के लिए शतप्रतिशत तय कर चुका था पर सिया एक पौइंट पर आ कर रुक जाती थी. अनिल की लगातार मुंह में गुटका दबाए रखने की आदत पर वह जलभुन जाती थी. कई बार उस ने इस से होने वाली बीमारियों के बारे में चेतावनी भी दी तो अनिल ने बात हंसी में उड़ा दी, ‘‘यह क्या तुम बुजुर्गों की तरह उपदेश देने लगती हो. अरे, मेरे घर में सब खाते हैं, मेरे मम्मीपापा को भी आदत है, तुम खाती नहीं न, इसलिए डरती हो. 2-3 बार खाओगी तो स्वाद अपनेआप अच्छा लगने लगेगा. पहले मेरी मम्मी भी पापा को मना करती थीं. फिर धीरेधीरे वे गुस्से में खुद खाने लगीं और अब तो उन्हें भी मजा आने लगा है, इसलिए अब कोई किसी को नहीं टोकता.’’

सिया के दिल में क्रोध की एक लहर सी उठी पर अपने भावों को नियंत्रण में रखते हुए बोली, ‘‘पर अनिल, तुम इतने पढ़ेलिखे हो, तुम्हें खुद भी यह बुरी आदत छोड़नी चाहिए और अपने मम्मीपापा को भी समझाना चाहिए.’’

‘‘उफ सिया. छोड़ो यार, आजकल तुम घूमफिर कर इसी बात पर आ जाती हो. हमारे मिलने का आधा समय तो तुम इसी बात पर बिता देती हो. अरे, तुम ने वह गाना नहीं सुना, ‘पान खाए सैयां हमारो…’ फिर हंसा, ‘‘तुम्हें तो यह गाना गाना चाहिए, देखा नहीं कभी क्या कि वहीदा रहमान यह गाना गाते हुए कितनी खुश होती हैं.’’‘‘वे फिल्मों की बातें हैं. उन्हें रहने दो.’’

अनिल उसे फिर हंसाता रहा पर वह उस की इस आदत पर काफी चिंतित थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह अनिल की इस आदत को कैसे छुड़ाए.एक दिन सिया अपने मम्मीपापा और बड़े भाई राहुल से मिलवाने अनिल को घर ले गई. अनिल का व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि देखने वाला तुरंत प्रभावित होता था. सब अनिल के साथ घुलमिल गए. बातें करतेकरते जब ऐक्सक्यूज मी कह कर अनिल ने अपनी जेब से पानमसाला निकाल कर अपने मुंह में डाला, तो सब उस की इस आदत पर हैरान से चुप बैठे रह गए.

अनिल के जाने के बाद वही हुआ जिस की उसे आशा थी. सिया की मम्मी सुधा ने कहा, ‘‘अनिल अच्छा लगा पर उस की यह आदत …’’ सिया ने बीच में ही कहा, ‘‘हां मम्मी, मुझे भी उस की यह आदत बिलकुल पसंद नहीं है. क्या करूं समझ नहीं आ रहा है.’’

थोड़े दिन बाद ही अनिल सिया को अपने परिवार से मिलवाने ले गया. अनिल के पापा श्याम और मम्मी मंजू अनिल की छोटी बहन मिनी सब सिया से बहुत प्यार से पेश आए. सिया को भी सब से मिल कर बहुत अच्छा लगा. मंजू ने तो उसे डिनर के लिए ही रोक लिया. सिया भी सब से घुलमिल गई. फिर वह किचन में ही मंजू का हाथ बंटाने आ गई. सिया ने देखा, फ्रिज में एक शैल्फ पान के बीड़ों से भरी हुई थी.

‘‘आंटी, इतने पान?’’ वह हैरान हुई.‘‘अरे हां,’’ मंजू मुसकराईं, ‘‘हम सब को आदत है न. तुम तो जानती ही हो, बनारस के पान तो मशहूर हैं.’’‘‘पर आंटी, हैल्थ के लिए…’’‘‘अरे छोड़ो, देखा जाएगा,’’ सिया के अपनी बात पूरी करने से पहले ही मंजू बोलीं.किचन में ही एक तरफ शराब की बोतलों का ढेर था. वह वौशरूम में गई तो वहां उसे जैसे उलटी आने को हो गई. बाहर से घर इतना सुंदर और वौशरूम में खाली गुटके यहांवहां पड़े थे. टाइल्स पर पड़े पान के छींटों के निशान देखते ही उसे उलटी आ गई. सभ्य, सुसंस्कृत दिखने वाले परिवार की असलियत घर के कोनेकोने में दिखाई दे रही थी. ‘अगर वह इस घर में बहू बन कर आ गई तो उस का बाकी जीवन तो इन गुटकों, इन बदरंग निशानों को साफ करते ही बीत जाएगा,’ उस ने इन विचारों में डूबेडूबे ही सब के साथ डिनर किया.

डिनर के बाद अनिल सिया को घर छोड़ आया. घर आने के बाद सिया के मन में कई विचार आ जा रहे थे. अनिल एक अच्छा जीवनसाथी सिद्ध हो सकता है, उस के घर वाले भी उस से प्यार से पेश आए पर सब की ये बुरी आदतें पानमसाला, शराब, सिगरेट के ढेर वह अपनी आंखों से देख आई थी. घर आ कर उस ने अपने मन की बात किसी को नहीं बताई पर बहुत कुछ सोचती रही. 2-3 दिन उस ने अनिल से एक दूरी बनाए रखी. सिया के इस रवैए से परेशान अनिल बहुत कुछ सोचने लगा कि क्या हुआ होगा पर उसे जरा भी अंदाजा नहीं हुआ तो शाम को घर जाने के समय वह सिया का हाथ पकड़ कर जबरदस्ती कैंटीन में ले गया, वहां बैठ कर उदास स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ है, बताओ तो मुझे?’’

सिया को जैसे इसी पल का इंतजार था. अत: उस ने गंभीर, संयत स्वर में कहना शुरू किया, ‘‘अनिल, मैं तुम्हें बहुत पसंद करती हूं, पर हम इस रिश्ते को आगे नहीं बढ़ा पाएंगे.’’अनिल हैरानी से चीख ही पड़ा, ‘‘क्यों?’’

‘‘तुम्हें और तुम्हारे परिवार को जो ये कुछ बुरी आदतें हैं, मुझ से सहन नहीं होंगी, तुम एजुकेटेड हो, तुम्हें इन आदतों का भविष्य तो पता ही होगा. भले ही तुम इन आदतों के परिणामों को नजरअंदाज करते रहो पर जानते तो हो ही न? मैं ऐसे परिवार की बहू कैसे बनूं जो इन बुरी आदतों से घिरा है? आई एम सौरी, अनिल, मैं सब जानतेसमझते ऐसे परिवार का हिस्सा नहीं बनना चाहूंगी.’’

अनिल का चेहरा मुरझा चुका था. बड़ी मुश्किल से उस की आवाज निकली, ‘‘सिया, मैं तो तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता.’’‘‘हां अनिल, मैं भी तुम से दूर नहीं होना चाहती पर क्या करूं, इन व्यसनों का हश्र जानती हूं मैं. सौरी अनिल,’’ कह उठ खड़ी हुई.अनिल ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘अगर मैं यह सब छोड़ने की कोशिश करूं तो? अपने मम्मीपापा को भी समझांऊ तो?’’

‘‘तो फिर मैं इस कोशिश में तुम्हारे साथ हूं,’’ मुसकराते हुए सिया ने कहा, ‘‘पर इस में काफी समय लगेगा,’’ कह सिया चल दी.आत्मविश्वास से सधे सिया के कदमों को देखता अनिल बैठा रह गया.आदतन हाथ जेब तक पहुंचा, फिर सिर पकड़ कर बैठा रह गया.

Online Hindi Story : दो चेहरे वाले लोग

Online Hindi Story :  रश्मि जीजाजी का दोगलापन देख हैरान रह गई थी. बेटों जैसी पलीबढ़ी बेटी पर तो उन्हें फख्र था परंतु बहू को आजादी देने के पक्ष में वे न थे. दो चेहरों वाले इस इंसान का कौन सा चेहरा असली था, कौन सा नकली, क्या कोई जान सका? वैसे, जीजी मेरी सगी बहन तो नहीं, लेकिन अम्मा और आपा ने उन्हें हमेशा अपनी बेटी के समान ही माना. इसलिए जब मेरे पति ने मुंबई की नौकरी छोड़ कर हैदराबाद में काम करने का निश्चय किया,

तब आपा ने नागपुर से चिट्ठी में लिखा, ‘अच्छा है, हमारे कुछ पास आओगे तुम लोग. और हां, जीजी के हैदराबाद में होते हुए फिर हमें चिंता कैसी.’ जीजी बड़ी सीधीसादी, मीठे स्वभाव की हैं. दूसरों के बारे में सोचतेसोचते अपने बारे में सबकुछ भूल जाने वाले लोगों में वे सब से आगे गिनी जा सकती हैं. अपने मातापिता, भाईबहन, कोई न होने पर भी केवल निस्वार्थ प्रेम के बल पर उन्होंने सैकड़ों अपने जोड़े हैं. ‘लेकिन, तुम्हारे जीजाजी को वे जीत नहीं पाई हैं,’ मुकुंद मेरे पति ने 2-3 बार टिप्पणी की थी. ‘जीजाजी कितना प्यार करते हैं जीजी से,’ मैं ने विरोध करते हुए कहा था, ‘घर उन के नाम पर, गाड़ी उन के लिए, साडि़यां, गहने…

सबकुछ.’ मुकुंद ने हर बार मेरी तरफ ऐसे देखा था जैसे कह रहे हों, ‘बच्ची हो, तुम क्या सम?ागी.’ हैदराबाद आने के बाद मेरा जीजाजी के घर आनाजाना शुरू हुआ. घरों में फासला था पर मैं या जीजी समय निकाल कर सप्ताह में एक बार तो मिल ही लेतीं. अब तक मैं ने जीजी को मायके में ही देखा था. अब ससुराल में जिम्मदारियों के बो?ा से दबी, लोगों की अकारण उठती उंगलियों से अपने भावनाशील मन को बचाने की कोशिश करती जीजी मु?ो दिखाई दीं, कुछ असुरक्षित सी, कुछ घबराई सी और मैं केवल उन्हें देख ही सकती थी. जीजी की बेटी शिवानी कंप्यूटर इंजीनियर थी. वह मैनेजमैंट का कोर्स करने के बाद अब एक प्रतिष्ठित फर्म में अच्छे पद पर काम कर रही थी. जीजाजी उस के लिए योग्य वर की तलाश में थे. मैं ने कुछ अच्छे रिश्ते सु?ाए भी पर जीजाजी ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘क्या तुम भी रश्मि, शिवानी की योग्यता का कोई लड़का बताओ तो जानें.’’

‘‘लेकिन जीजाजी, उमेश बहुत अच्छा लड़का है. होशियार, सुदर्शन, स्वस्थ, अच्छा कमाता है. कोई बुरी आदत नहीं है.’’ ‘‘पर, उस पर अपनी 2 छोटी बहनों के विवाह की जिम्मेदारी है और उस का अपना कोई मकान भी नहीं,’’ जीजाजी ने एकएक उंगली मोड़ कर गिनाना चाहा. ‘‘यह तो दोनों मिल कर आराम से कर सकते हैं. शिवानी भी तो कमाती है,’’ मैं ने उन की बातों को काटते हुए कहा. ‘‘देखो रश्मि, मैं ने अपनी बेटी को बेटे की तरह पाला है. उसे उस की काबिलीयत का पैसा मिल रहा है. इतने सालों की उस की कड़ी मेहनत, मेरा मार्गदर्शन अब जा कर रंग लाया है. वह सब किसी दूसरे के लिए क्यों फूजूल में फेंक दिया जाए?’’ मैं स्तब्ध रह गई, जीजी की कितनी ही चीजें जीजाजी की बहनें मांग कर ले जाती थीं. हम लोगों की तरफ से दिए गए उपहार ‘उफ’ तक मुंह से न निकालते हुए जीजी ने अपने देवरों को उन के मांगने पर दे दिए थे. मां कभी पूछतीं, ‘‘आरती,

वह पेन कहां गया जो तुम्हें पिछली दीवाली में भैया ने दिया था.’’ जीजी बेहद विनम्रता के साथ कहतीं, ‘‘रमन भैया ने परीक्षा के लिए लिया था, पसंद आ गया तो पूछा कि मैं रख लूं, भाभी. मैं मना कैसे करती, मां.’’ एक बार भैया दीदी के लिए भैयादूज पर एक बढि़या धानी साड़ी लाए थे. तब जीजी की सहेली अरुणा दीदी भी उन से मिलने के लिए आई थीं. उन्होंने छूटते ही कहा, ‘‘मत दो इस पगली को कुछ भी. साड़ी भी ननद ने मांग ली तो दे देगी.’’ तब जीजी ने अपनी मुसकान बिखेरते हुए कहा था, ‘‘वे भी तो मेरे अपने हैं. जैसे मेरे भैया, मेरी रश्मि, मेरी अरुणा.’’ अब उसी जीजी की बेटी को पिता से क्या सीख मिल रही थी. मैं ने जीजा की ओर देखा. वह काम में मगन थे.

जैसे उन्होंने सुना ही न हो. मुकुंद कहते हैं, ‘‘मैं कुछ ज्यादा ही आशावादी हूं, दीवार से सिर टकराने के बाद भी दरवाजे की टोह लेती रहती हूं.’’ जीजी के बारे में मैं कुछ ज्यादा भावुक भी तो हूं. शिवानी, हालांकि कुछ नकचढ़ी है, फिर भी बचपन से उसे देखने के कारण उस से लगाव भी तो हो गया है. इसलिए बारबार प्रस्ताव ले कर आती हूं. ‘‘क्या रश्मि, तुम ने बताया था न पता. वहां चिट्ठी भेजी थी,’’ एक दिन जीजाजी बोले, ‘‘कौन, वह बेंगलुरु वाला.’’ मैं कुछ उत्साहित हो गई. ‘‘हां, वही महाशय, उन की यह लंबीचौड़ी चिट्ठी आईर् है. मैं इसे पढ़ कर तुम्हें सुना देता पर ऐसी मूर्खताभरी बातों का मैं फिर से उच्चारण नहीं करना चाहता.’’ ‘‘इस में उन की क्या गलती है,’’ जीजी ने पहली बार चर्चा में भाग लिया, ‘‘वे लोग चाहते हैं कि उन की बहू को गाना आना चाहिए. वे सब गाते हैं.’’

‘‘तुम चुप रहो, आरती,’’ जीजाजी की आवाज में कड़वाहट थी, ‘‘शिवानी को गाना ही सीखना होता तो कंप्यूटर इंजीनियर क्यों बनती. अरे, घंटेभर के गाने के लिए 1,000-1,200 रुपए दे कर वह जब चाहे 10-12 गाने वालों का गाना सुनवा सकती है. तुम भी आरती…’’ ‘‘लेकिन जीजाजी, उन्होंने तो अपनी अपेक्षाएं आप को बता दी हैं. वह भी आप ने संपर्क किया तब,’’ मैं ने कहा. ‘‘तुम दोनों बहनें पूरी गंवार मनोवृत्ति वाली बन रही हो,’’ शिवानी ने कहा, ‘‘लड़की है, इसलिए उसे रंगोली बनाना, गाना गाना, खाना बनाना आदि आना ही चाहिए. यह सब विचार कितने दकियानूसी भरे हैं. अब हम लड़कियां बैंक, औफिस आदि हर जगह मर्दों की तरह कुशलता से सबकुछ संभालती हैं तो सिलाईबुनाई अब मर्द क्यों नहीं सीखते.’’ ‘‘शिवानी, अगर तुम्हें कोई लड़का पसंद नहीं है तो मना कर दो पर किसी की अपेक्षाओं की खिल्ली उड़ाना कहां तक उचित है,’’ जीजी का स्वर जरा ऊंचा था. ‘‘तुम मेरी बेटी पर किसी तरह का दबाव नहीं डालोगी,’’ जीजाजी ने एकएक शब्द अलग करते हुए सख्त आवाज में कहा, ‘‘मैं ने देखा है, रश्मि साथ होती है तब तुम्हें कुछ ज्यादा ही शब्द सू?ाते हैं.’’ मैं दंग रह गई और जीजी चुप.

हम क्या शिवानी की या जीजी के ससुराल वालों की दुश्मन थीं, जो दोनों साथ मिल कर शब्दयुद्ध छेड़तीं. मुकुंद को मैं ने यह सब बताया ही नहीं. शायद वह जीजी के घर से संबंध कम करने के लिए कहते. जीजी की दुनिया में मैं शीतल छाया बन कर रहना चाहती थी. कितना कुछ ?ोला होगा जीजी ने आज तक. जीजाजी के सभ्य, सुसंस्कृत चेहरे के पीछे इतना जिद्दी, इतना स्वकेंद्रित व्यक्ति होगा, यह किसे पता था. मेरी जीजी से सारे परिवार के लिए स्वेटर बुनवाने वाले जीजाजी अपनी बेटी के बारे में इतना अलग दृष्टिकोण क्यों अपनाते होंगे. आएदिन अपने दोस्तों के लिए मेहमाननवाजी के बहाने जीजी को रसोई में व्यस्त रखते थे, जीजाजी. क्या खाना बनाना सुशिक्षित लड़कियों के लिए ‘बिलो डिग्निटी’ है. जीजी भी तो पढ़ीलिखी हैं. पढ़ाने की क्षमता रखती हैं.

अपने बच्चों की पढ़ाई में कई सालों तक सहायता करती रहती हैं. बाहर की दुनिया में कदम रखते ही अगर औरत ही घर को भुला देगी तो घर सिर्फ ईंटों का, लोहे का, सीमेंट का एक ढांचा ही तो रहेगा. उस का घरपन कैसे टिक पाएगा? करीब 2 साल के बाद शिवानी का विवाह हो गया. ससुराल के लोग बड़े अच्छे हैं. दामाद तो हीरा है पर अमेरिका में नौकरी कर रहा है, जहां शिवानी को खाना भी बनाना पड़ता है. ?ाड़ू, बरतन, कपड़े सबकुछ करती है वह. उस से अधिक पढ़ेलिखे, अधिक कमाने वाले जमाई राजा भी उस का हाथ बंटाते हैं. सुखी दांपत्य के लिए पतिपत्नी को एकदूसरे के कामों में हाथ तो बंटाना ही पड़ता है. जीजाजी जा कर सबकुछ देख आए हैं. मैं ने एक दिन नौकरों के बारे में पूछ ही लिया. ‘‘क्या पागलों जैसे सवाल करती हो रश्मि,’’ उन्होंने डांटा, ‘‘वहां नौकर नहीं मिलते.

हर व्यक्ति को अपना काम स्वयं करना पड़ता है. भई, अपना काम खुद करने में वहां के लोग संकोच नहीं करते. उन का मानना है कि व्यक्ति को आत्मनिर्भर होना चाहिए. फिर मेरे दामाद मदद भी तो करते हैं, अमेरिका में महिलाओं की बड़ी इज्जत है.’’ मैं ने चुप रहना ही उचित सम?ा. अमेरिका में महिलाओं की इज्जत किस प्रकार होती है, इस बारे में कौन क्या कह सकता है. काम में हाथ बंटा कर, वक्त आने पर पत्नियों को मारने वाले, पत्नी को छोड़ कर दूसरी स्त्री के साथ जाने वाले या छोटे से कारण से तलाक देने वाले अमेरिकी पतियों की संख्या के बारे में कौन नहीं जानता है. फिर उन की संस्कृति की प्रशंसा करने वाले जीजाजी अपने घर में एक गिलास पानी भी खुद हाथों से ले कर नहीं पीते, यह क्या मैं ने देखा नहीं. खैर, दो चेहरे वाले लोगों के ?ां?ाट में कौन सिर खपाए.

‘‘अविनाश के लिए अब ढेरों रिश्ते आ रहे हैं,’’ चाय पीते हुए जीजाजी बोले, ‘‘लड़की वालों को पता है कि ऐसा अच्छा घरवर और कहीं तो बड़ी मुश्किल से मिलेगा.’’ उन्होंने गर्व से जीजी की तरफ देखा. जीजी प्लेट में बिस्कुट सजाने में मगन थीं. ‘‘आप की बात सौ फीसदी सच है, जीजाजी,’’ मैं ने कहा, ‘‘रूप, गुण, शिक्षा, वैभव क्या कुछ नहीं है हमारे अविनाश के पास और जीजी जैसी ममतामयी सास,’’ इतना कह कर मैं ने प्यार से जीजी के गले में अपनी बांहें डाल दीं. ‘‘क्या चाहिए, रश्मि,’’ जीजा ने पूछा, ‘‘इतना मस्का क्यों लगा रही हो जीजी को.’’ ‘‘अविनाश की तसवीर और बायोडाटा दे दो. तुम्हारे लिए 2-4 अच्छी बहुएं लाऊंगी, जिन में से शायद एक तुम्हें पसंद भी आ जाए.’’ ‘‘जरा देखपरख के लाना रिश्ते,’’ जीजाजी ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘‘आजकल की लड़कियां बहुत तेजतर्रार हो गई हैं.’’ ‘‘मतलब…’’ ‘‘अरे, 4 दिनों पहले एक लड़की के मातापिता मिलने आए थे.

वैसे तो वे हैदराबाद किसी की शादी में आए थे, लेकिन जब अविनाश के बारे में उन्हें पता चला तो अपनी बेटी के लिए रिश्ता ले कर मिलने आ गए.’’ ‘‘अच्छी थी लड़की?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा. ‘‘फोटो लाए नहीं, पर हां, जानकारी तो प्रभावित करने वाली थी,’’ जीजाजी ने बताया, ‘‘उन की बेटी ने एमबीए किया है और पिछ?ले 6 सालों से पुणे में नौकरी कर रही है. अगर अविनाश पुणे में कोई नौकरी कर ले तो काम हो सकता है.’’ ‘‘अच्छा, और अविनाश का यहां का काम.’’ ‘‘वही तो मैं कह रहा हूं. आजकल तो लड़की वालों के बातविचार ही सम?ा में नहीं आते. उन की लड़की एक एमबीए डिगरी को छोड़ कर और किसी चीज में निपुण नहीं है और 8 साल से यहां काम जमा कर बैठा हुआ मेरा बेटा शहर छोड़ कर वहां जाए.’’ ‘‘मना कर देते आप,’’ जीजी ने धीरे से कहा. ‘‘वही तो किया. लेकिन आरती, इन इंजीनियर, डाक्टर लड़कियों के मातापिता सोचते हैं कि उन्होंने जैसे आकाश छू लिया है.

अगर लड़की उन्नीस है तो लड़का भी तो बीस या इक्कीस वाला ही ढूंढ़ेंगे न? फिर इतनी शर्तें, इतना घमंड क्यों.’’ जीजी बोलीं, ‘‘आजकल लोग लड़कालड़की की परवरिश में फर्क नहीं करते. उन्हें भी अपनी अपेक्षाएं बताने का हक है.’’ ‘‘अरे भई, शिक्षादीक्षा, खानापीना, लाड़प्यार सभी में लड़केलड़की बराबर होंगे तब भी फर्क तो रहेगा न,’’ जीजाजी बोले, ‘‘बहू इस घर में आएगी, अविनाश उस घर को नहीं जाने वाला.’’ बातों से लगा कि जीजाजी अब चिढ़ गए हैं. ‘‘लेकिन जीजाजी, आजकल दोनों की कमाई में फर्क नहीं है. समान अधिकार हैं स्त्रीपुरुष के.’’ ‘‘देखो रश्मि, हम लोगों को बहू चाहिए, नौकरी नहीं. इस घर को एक कुशल गृहिणी की जरूरत है, अफसर की नहीं. अगर लड़की होशियार है, कोई काम कर रही है तो इस घर से उसे पूरा सहयोग मिलेगा, लेकिन अगर वह घर से ज्यादा महत्त्व अपने कैरियर को देना चाहती है तो उसे शादी नहीं करनी चाहिए.’’ ‘‘जीजाजी, आप ने मेरे सामने यह अभिप्राय बता दिया तो ठीक है, लेकिन किसी आधुनिक विचारों वाली लड़की के सामने मत बोलिएगा.

?ागड़ा हो जाएगा.’’ ‘‘होने दो, लेकिन अपने अनुभव की बातें बताने से मु?ो कोई नहीं रोक पाएगा,’’ जीजाजी की आवाज कुछ ऊंची उठ गई, ‘‘उस दिन एक महाशय पत्नी के साथ आए थे. कहने लगे कि उन की बेटी को विदेश जाने का मौका मिलने वाला है तो क्या अविनाश उस के साथ अपने खर्च से जा पाएगा?’’ ‘‘फिर…’’ ‘‘मैं ने कह दिया कि महाशय, मेरे बेटे को विदेश जाने का मौका मिलता तो पत्नी का खर्चा वह खुद देता और उसे साथ ले जाता. उन की बेटी भी तो मेरे बेटे का टिकट खरीद सकती है. दोनों की कमाई में फर्क नहीं. अधिकार समान है, फिर यह दोहरा मानदंड क्यों?’’ मैं चुप्पी लगा गई. अगर कहती कि जीजाजी, दोहरे मानदंड वाले तो आप हैं. शिवानी की शादी के समय आप के विचार कुछ अलग थे और आज बेटे की शादी के समय में कुछ अलग हैं. जीजी ने कितनाकुछ खो कर घरपरिवार को, संस्कृति के मूल्यों को बरकरार रखा था. जीजाजी सम?ादार होते तो जीजी अपने व्यक्तित्व को गरिमामय रख कर भी वह सबकुछ कर सकती थीं. कोई काम भी कर सकती थीं.

जीजी को खरोंचने का काम अकेले जीजाजी करते थे. बेटी और बहू में फर्क करने वाली सास पर अनेक धारावाहिक देखने और दिखाने वाले समाज में जीजाजी जैसे कई पुरुष भी हैं जो पत्नी और बेटी के सम्मान में जमीनआसमान का अंतर रखते हैं. मैं जब सीधीसादी पर सम?ादार नंदिनी का रिश्ता ले कर गई, तब मु?ो जीजाजी की पसंद पर कोई खास भरोसा नहीं था. मेरे मन में जीजी के लिए एक अच्छी, प्यार और सम्मान देने वाली बहू लाने की इच्छा इतनी प्रबल न होती तो मैं जीजाजी के सामने इतने सारे प्रस्ताव न रखती. मु?ो पता था कि अविनाश को नंदिनी पसंद आएगी, क्योंकि वह मां के संस्कारों के सांचे में ढला था. मैं यह भी जानती थी कि शिवानी की मुंहफट बातों को स्मार्टनैस सम?ाने वाले जीजाजी को कम बोलने वाली नंदिनी कैसे पसंद आएगी.

घर संभाल कर अनुवाद और लेखन करने वाली लड़की किसी डाक्टर या इंजीनियर लड़की जितनी बोल्ड कैसे हो सकती है. शिवानी बिजली है. उस के सामने नंदिनी एक दीपक की छोटी सी लौ की तरह मंद, आलोकहीन लगेगी. लेकिन मेरी सोच गलत साबित हुई. अपनी मधुरता से नंदिनी ने सब को मोह लिया. विवाह हो गया. बहुत खुश है अविनाश. जीजी को मेरी तरह एक शीतल छाया मिल गई है. जब मैं जीजाजी को बड़े शौक से खाना खाते और नंदिनी को कोई खास बनाई गई चीज परोसते हुए देखती हूं, तब मेरे मन में संदेह जागता है कि मैं ने नंदिनी के साथ अन्याय तो नहीं किया. शायद जीजाजी को जीजी जैसी स्नेहिल, घर को प्यार करने वाली ही बहू चाहिए थी ताकि उन का,

उन के बेटे का घर अक्षुण्ण रहे. उन के चैन और आराम बने रहें. लेकिन मेरा मन खुद से प्रश्न करता है, दो चेहरे वाले इंसानों की असलियत कौन जान सकता है. क्या पता अविनाश भी कुछ सालों बाद जीजाजी की तरह… मैं राह देख रही हूं जीजी के पोतेपोतियों की. पोती आएगी, तभी पता चलेगा कि जीजाजी का दूसरा चेहरा सचमुच उतर चुका है या मौका मिलते ही वह फिर उन के आजकल के चेहरे को ढ?कने आ पहुंचेगा. मेरा आशावादी मन कल्पना में देख रहा है, उस उतरे हुए चेहरे की धज्जियां और अब चढ़े हुए चेहरे पर ?ालकती तंदुरुस्ती की गुलाबी चमक. द्य इन्हें आजमाइए ? अपने घर के लिए कुछ खरीदें तो स्पेसिफिक जगह को दिमाग में रखें. ड्राइंगरूम का कारपेट रूम के साइज के अनुसार होना चाहिए. अगर अपने बैडरूम में कपल फोटो लगाना है तो वौल का साइज चेंज कर के ही फ्रेम का साइज चुनें क्योंकि चीजें स्पेस के अनुसार जंचती हैं. ? प्रैग्नैंसी के दौरान आप का उठना,

बैठना और सोना ये तीनों चीजें आप के पेट में पल रहे शिशु पर असर डाल सकती हैं. इसलिए अपने शरीर की पोजीशन का हमेशा ध्यान रखें. सही तरीके से उठें, बैठें और सोएं ताकि शिशु पर किसी तरह का कोई प्रभाव न पड़े. ? वजन कम करने के चक्कर में बाहर के पैकेट प्रौडक्ट्स का सेवन ज्यादा करने लगते हैं जो सेहत के लिए काफी हानिकारक होता है. वजन को कम करने के लिए घर का बना खाना खाएं, जो हैल्दी और प्रिजर्वेटिव फ्री होता है. ? महिलाएं इसे नजरअंदाज करती हैं, लेकिन सही ब्रैस्ट शेप के लिए सही ब्रा बहुत जरूरी है. अगर आप अपनी ब्रा को ले कर श्योर नहीं हैं तो एक बार एक्स्पर्ट से बात जरूर कर लें. ? यदि आप जिम से वर्कआउट करने के बाद प्रोटीन पाउडर लेते हैं तो यह आप को एनर्जी देने वाला तथा आप की मसल्स में ग्रोथ करने वाला साबित होगा.

Hindi Kahani 2025 : महिला अफसर की जीत

 Hindi Kahani 2025 : विद्युत विभाग में जूनियर इंजीनियर प्रियंका जब विभागीय प्रमोशन के बाद पहली बार अधिकारी की कुरसी पर बैठी तो लगा मानो सारे विभाग की पावर उस के हाथों में आ गई. एक नई ऊर्जा, नए जोश और ईमानदार सोच के साथ जब उस ने 7 साल पहले जूनियर इंजीनियर के रूप में जौइन किया था तो कुछ ही दिनों में विभाग में फैले भ्रष्टाचार व कर्मचारियों में फैली कामचोरी की आदत ने उस के कोमल मन को बेहद आहत कर दिया था.

जूनियर होने के नाते उस के पास अपने फैसले लेने के अधिकार नहीं थे और नई होने या फिर शायद महिला होने के नाते भी उसे अधिक जिम्मेदारी वाले काम भी नहीं दिए जाते थे, इसलिए भी वह मन मसोस कर रह जाती थी. उन्हीं दिनों उस ने ठान लिया था कि जिस दिन उस के पास अधिकार और फैसले लेने की पावर आ जाएगी उसी दिन से वह आम लोगों में अति भ्रष्ट विभाग की छवि के नाम से कुख्यात इस विभाग की कालिख को धोने का प्रयास करेगी.

7 साल के लंबे इंतजार के बाद उसे यह प्रमोशन मिला है और सीट भी वह जिसे विभागीय भाषा में मलाईदार कहा जाता है. जाहिर सी बात है कि घर में खुशी का माहौल था. पति शेखर ने अपने खास दोस्तों और नजदीकी रिश्तेदारों के लिए एक छोटी सी पार्टी का आयोजन किया. सभी यारदोस्त बधाइयों के साथसाथ विद्युत विभाग में अटके अपने काम करवाने के लिए सिफारिश भी कर रहे थे. साथ ही साथ, विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों व कर्मचारियों को भी कोस रहे थे.

रात को शेखर ने प्रियंका को बाहों में भरते हुए कहा, ‘‘तो भई, हम भी अफसर बीवी के पति हो गए अब. हमारा भी कुछ तो रुतबा बढ़ा ही होगा. आप को मलाई मिलेगी तो कुछ खुरचन हमारे भी हिस्से में आएगी ही.’’

पति की महत्त्वाकांक्षा और ऊंचे सपने देख कर प्रियंका सोच में पड़ गई, ‘लगता है युद्ध की शुरुआत घर से ही करनी पड़ेगी.’ यह सोचतेसोचते उसे नींद आ? गई.

सुबह साढ़े 9 बजे तक औफिस की गाड़ी नहीं आई तो प्रियंका ने ड्राइवर को फोन लगाया तो ड्राइवर बोला, ‘‘बस मैडम, रास्ते में ही हूं. अभी पहुंच रहा हूं.’’

‘पूरे कुएं में ही भांग घुली हुई है,’ ड्राइवर का उत्तर सुन कर प्रियंका खीझ उठी. लगभग 10 बजे ड्राइवर गाड़ी ले कर आया तो प्रियंका ने सख्ती से कहा, ‘‘विभाग ने यह गाड़ी 24 घंटे के लिए अनुबंधित की है. मुझे 9 बजे गाड़ी घर के सामने चाहिए, याद रहे, वरना सिर्फ एक नोटिस पर गाड़ी हटा दूंगी.’’

औफिस में, जैसा कि वह शुरू के दिनों से देखती आई थी, अभी तक कोई कर्मचारी नहीं पहुंचा था. मगर तब उस के पास अधिकार नहीं था उन पर सख्ती करने का. आज वक्त बदल चुका था. उस ने चपरासी से हाजिरी रजिस्टर अपने पास मंगवा लिया. 11 बजतेबजते कर्मचारियों का एकएक कर आना शुरू हुआ. जब सब आ चुके तो उस ने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी, ‘‘चूंकि आज मेरे साथ आप का पहला दिन है इसलिए समझा रही हूं. कल से जिसे औफिस टाइम में अगर कोई पर्सनल काम हो तो कैजुअल लीव ले कर आराम से अपने काम करे और जिसे ड्यूटी करनी है वह समय से औफिस आ जाए.’’

अब तक सरकारी कार्यालय को आरामगाह समझते आए कर्मचारियों के लिए यह 440 वोल्ट का झटका था. कुछ वरिष्ठ कर्मचारी तो यह भी हजम नहीं कर पा रहे थे कि इतनी कम उम्र की बौस और वह भी एक महिला. सभी तिलमिला गए. रोष में भरे कामचोर कर्मचारी प्रियंका के खिलाफ गुटबाजी करने लगे. ऐसा नहीं था कि सभी लोग भ्रष्ट और कामचोर थे, कुछ ईमानदार लोग भी थे मगर उन्हें दूसरे कर्मचारी ‘विभाग का चमचा’ कह कर पथभ्रष्ट करने की कोशिश करते थे, उन्हें चिढ़ाते थे. उन्होंने प्रियंका की निष्ठा और लगन का सम्मान किया. शायद, वे बरसों से ऐसे ही किसी अधिकारी की तलाश कर रहे थे जिस के साथ काम कर के वे अपने जमीर को जवाब दे सकें, मन की संतुष्टि पा सकें.

प्रियंका के औफिस का तकनीकी सहायक राकेश भी उन्हीं में से एक था. तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त राकेश अपने काम में बेहद होशियार था. यही नहीं, औफिस के अन्य रूटीन काम भी वह बखूबी कर लेता था. एक सौम्य मुसकान हमेशा उस के चेहरे पर रहती थी. उस के पास काम करने के कई तरीके होते थे, न करने का कोई बहाना नहीं. जल्दी ही प्रियंका का भरोसा जीत लिया था उस ने.

धीरेधीरे सारा स्टाफ 2 खेमों में बंट गया. एक काम करने वालों का और एक काम को अटकाने वालों का. मगर राकेश का साथ मिलने से प्रियंका का हौसला मजबूत होता गया और काम न करने वालों को अकसर मुंह की खानी पड़ती.

एक दिन प्रियंका के पास एक फोन आया. उस व्यक्ति ने अपनी परेशानी बताते हुए कहा, ‘‘मैडम, पिछले एक महीने से आप के कर्मचारी मेरी फैक्टरी को विद्युत कनैक्शन नहीं दे रहे. मैं रिश्वत नहीं देता, इसलिए वे फाइल पर बारबार औब्जैक्शन लगा कर वापस भेज देते हैं. अगर मैं रिश्वत नहीं दूंगा तो क्या मेरा काम नहीं होगा?’’

‘‘आप कल सुबह अपनी फाइल ले कर मेरे औफिस आइए,’’ प्रियंका ने संयत स्वर में कहा.

प्रियंका ने पूरी फाइल को ध्यान से पढ़ा और उस में जो औपचारिक कमियां थीं वे उसे समझाईं. साथ ही, कहा कि इन्हें दूर कर के फाइल मेरे पास लाइए. आप का काम हो जाएगा.

2 दिनों बाद वह व्यक्ति फाइल कंपलीट कर के हाजिर हुआ. प्रियंका ने स्टाफ को कनैक्शन जारी करने के आदेश दिए मगर चूंकि स्टाफ पहले भी इस तरह के काम के लिए रिश्वत लेता रहा है इसलिए बिना पैसे काम करना उन्हें बहुत अखर रहा था. एक तरह से उस व्यक्ति के सामने वे अपनेआप को बेइज्जत सा महसूस कर रहे थे. स्टाफ में किसी ने तबीयत खराब होने का बहाना बनाया तो किसी ने जरूरी काम का बहाना बना कर आधे दिन की छुट्टी ले ली. प्रियंका परेशान हो गई. तभी राकेश ने कहा, ‘‘आप फिक्र न करें, मैं हूं न. मैं करवा दूंगा.’’

‘‘मगर तुम अकेले कैसे करोगे? जानते हो न कि कितना रिस्की काम है. बिजली किसी की दोस्त नहीं होती, जरा सी चूक जान पर भारी पड़ सकती है,’’ प्रियंका ने कहा.

‘‘मैं पूरी सेफ्टी के साथ काम करूंगा,’’ राकेश ने उसे आश्वस्त किया.

पता नहीं क्यों जब तक राकेश का फोन नहीं आया कि काम हो गया है तब तक उस की सांसें अटकी रहीं. जैसे ही राकेश का फोन आया, उस ने राहत की सांस ली. काम होने के बाद प्रार्थी ने प्रियंका को धन्यवाद देते हुए फोन किया और कहा, ‘‘मैं ने इस विभाग में पहली बार ऐसा अफसर देखा है. आप अपनी यह सोच बनाए रखें.’’ सुन कर प्रियंका मुसकरा दी.

ऐसे न जाने कितने ही नाजुक मौकों पर राकेश प्रियंका के विश्वास पर खरा उतरा था. प्रियंका उसे थैंक्यू कहती और राकेश बस मुसकरा देता. एक बेनाम से रिश्ते की कोंपलें फूट रही थीं दोनों के दिलों में.

नया काम, नई जिम्मेदारियां, औफिस का पहले से बिगड़ा हुआ ढर्रा और स्टाफ के असहयोगात्मक रवैये से प्रियंका परेशान हो जाती थी. घर पहुंचते ही बच्चों की फरमाइशें और फिर रात में पति की इच्छाएं. सबकुछ इतना थका देने वाला होता था कि कभीकभी सोचने लगती, ‘प्रमोशन के नाम पर अच्छी मुसीबत गले पड़ गई. इस से तो जूनियर ही ठीक थी. कम से कम दिल का सुकून तो था.’ मगर अगले ही दिन फिर उसी जोश और हिम्मत के साथ काम पर जुट जाती.

औफिस में काफीकुछ व्यवस्थित हो चला था. हर रिकौर्ड, हर फाइल अपडेट हो गई थी. सिर्फ एक कर्मचारी रामदेव के अलावा सब अपनाअपना काम भी जिम्मेदारी से करने लगे थे. कुल मिला कर प्रियंका को संतोषजनक लग रहा था.

दीवाली का त्योहार नजदीक आ गया. सभी विद्युत लाइनों और ट्रांसफौर्मरों की सालाना मेंटेनैंस करवानी थी. दिनभर शहर में घूमतेघूमते प्रियंका थक जाती थी.

एक दिन वह अपनी टीम को साइट पर भेज कर खुद औफिस के आवश्यक कागजात निबटा रही थी. अपनी मदद के लिए उस ने राकेश को भी रोक लिया था. काम निबटातेनिबटाते बाहर अंधेरा सा हो गया. वह अपने चैंबर में थी और राकेश अपनी सीट पर. तभी राकेश

2 कप कौफी ले आया. उसे सचमुच इस की बहुत जरूरत थी. राकेश ने कहा, ‘‘आप इतना टैंशन न लिया करें. सरकारी कामकाज ऐसे ही चलते रहते हैं. यों बेवजह परेशान होती रहीं तो कोई बीमारी पाल लेंगी. अगर आप को मुझ पर भरोसा हो तो बाहर के काम आप मुझे सौंप सकती हैं.’’

अचानक राकेश उठा और स्नेह से उस के कंधे पर हाथ रख कर बोला, ‘‘आप घर जाइए, सुबह आप को ये सारे कागजात तैयार मिलेंगे.’’ न जाने क्या था उन आंखों में कि प्रियंका ने अपना सिर उस भरोसेमंद हाथ पर टिका दिया.

दीवाली वाले दिन सुबहसुबह ही शिकायत मिली कि वाल्मीकि बस्ती में ट्रांसफौर्मर जल गया. प्रियंका इस इमरजैंसी को अटैंड कर के घर लौटी तो डाइनिंग टेबल पर ढेर सारे पटाखे, मिठाइयां और कई गिफ्ट देख कर चौंक गई. शेखर ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘भई, इतने दिनों में आज पहली बार लग रहा है कि सरकारी अफसर के अलग ही ठाठ होते हैं. तुम्हारे जाते ही ठेकेदारों की लाइन लग गई. और देखो, घर गिफ्ट से भर गया.’’

‘‘हमें इस में से कुछ भी नहीं रखना है,’’ कहते हुए प्रियंका ने एकएक कर सारे ठेकेदारों को फोन कर के सारा सामान वापस ले जाने की सख्त हिदायत दे दी. शेखर को पत्नी से ऐसी उम्मीद न थी. उस ने उसे काफी भलाबुरा सुना दिया. बच्चों के मुंह उतर गए, सो अलग. त्योहार का सारा मजा किरकिरा हो गया. बच्चे तो खैर थोड़ी देर में सबकुछ भूल गए मगर शेखर ने अगले कई दिनों तक उस से सीधेमुंह बात नहीं की.

दीवाली निबटते ही मौजूदा वित्तीय वर्ष के बकाया टारगेट पूरे करने का प्रैशर बनने लगता है. प्रियंका को भी स्पैशल विजिलैंस चैकिंग के टारगेट दिए गए. राकेश भी उस के साथ ही होता था. एक दिन चैकिंग करतेकरते शहर से बाहर बने एक बड़े से फार्महाउस के बाहर उन्होंने गाड़ी रोकी. साफसाफ बिजली चोरी का केस था. प्रियंका ने विजिलैंस शीट भर कर 5 लाख रुपए का जुर्माना लगा दिया. फार्महाउस का मालिक शहर के विधायक का रिश्तेदार था. विधायक ने फोन पर प्रियंका को मामला

रफादफा करने के लिए दबाव डाला. प्रियंका ने इनकार कर दिया. बात उच्च अधिकारियों तक पहुंची तो उन्होंने भी प्रियंका को समझाया कि पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर ठीक नहीं. शेखर ने भी डराया कि कहीं दूरदराज ट्रांसफर न हो जाए. मगर उस पर तो ईमानदारी का जनून सवार था.विधायक के रिश्तेदार ने पैनल्टी जमा नहीं करवाई तो प्रियंका ने फार्महाउस का कनैक्शन काटने का आदेश जारी कर दिया. कर्मचारियों ने विधायक के डर से वहां जाने से मना कर दिया तो राकेश के साथ पुलिस प्रोटैक्शन ले कर प्रियंका स्वयं गई. वहां मौजूद विधायक के आदमियों ने प्रियंका से बदतमीजी करने की कोशिश की. पुलिस चुपचाप खड़ी उन की आपसी बहस देख रही थी. तभी एक गुंडाटाइप आदमी आगे बढ़ा और प्रियंका के दुपट्टे की तरफ हाथ बढ़ाया. राकेश ने उसे प्रियंका तक पहुंचने से पहले ही मजबूती से पकड़ लिया. प्रियंका को जीप में बैठने का इशारा किया और ड्राइवर के साथ गाड़ी रवाना कर दी. प्रियंका की आंखें छलछला उठीं मगर उन आंसुओं में राकेश के प्रति अनुराग भी शामिल था.

यह केस अभी लोगों में चर्चा का विषय बना ही हुआ था कि अचानक जैसे प्रियंका की जिंदगी में तूफान आ गया. उस का कर्मचारी रामदेव एक ठेकेदार की टैंडर फाइल पास करने के एवज में रिश्वत लेते हुए रंगेहाथों पकड़ा गया. पुलिस को दिए अपने बयान में उस ने कहा कि यह काम वह प्रियंका मैडम के लिए करता है. उस के बयान के आधार पर प्रियंका को भी गिरफ्तार कर लिया गया. विभागीय नियमानुसार उसे निलंबित कर दिया गया. अखबारों ने सुर्खियों में इस खबर को प्रकाशित किया. महल्ले वाले कनखियों से देखदेख कर मुसकराते. सामने तो सहानुभूति दिखाते मगर पीठपीछे कई तरह की बातें करते. कोई कहता, ‘बड़ी ईमानदार बनती थी, आ गई न असलियत सामने.’ किसी ने कहा, ‘जितना रिश्वत ले कर कमाया था, सारा कोर्टकचहरी की भेंट चढ़ जाएगा, बदनामी हुई सो अलग.’ जितने मुंह उतनी बातें. कहते हैं न कि ‘मारने वाले का हाथ पकड़ा जा सकता है मगर बोलने वाले की जबान नहीं.’

बच्चों के दोस्त उन्हें स्कूल में चिढ़ाते. शेखर के औफिस में भी सब चटकारे लेले कर बातें करते. प्रियंका बुरी तरह से आहत थी. तन से भी और मन से भी. कुल मिला कर अब वह खुद भी इसे अपनी ईमानदारी और काम के प्रति निष्ठा की सजा मानने लगी थी. शेखर को भी सारा दोष उसी में दिखाई देता था. आएदिन उसे ताना देता था कि क्या जरूरत थी हरिशचंद्र की औलाद बनने की. अच्छीभली घर में आती कमाई का अपमान किया. यह उसी का नतीजा है. आपसी नाराजगी के चलते शेखर और उस के रिश्ते में भी ठंडापन आ गया था. आजकल उन में आपस में भी बहुत कम बात होती थी.

दम तोड़ती हुई मछली सी प्रियंका के लिए राकेश जैसे पानी की बूंद बन कर आया. शेखर के लाख मना करने के बावजूद, एक बड़े वकील से मिल कर उस ने प्रियंका से उस के निलंबन के खिलाफ कोर्ट में याचिका दाखिल करवाई. व्यक्तिगत प्रयास कर के उन तमाम उपभोक्ताओं और ठेकेदारों से प्रियंका के पक्ष में गवाही दिलवाई जिन के अटके हुए काम और लटके हुए बिलों का भुगतान प्रियंका ने बिना रिश्वत लिए करवाए थे. उसी के समझाने पर स्टाफ में भी कई लोगों ने अपनी अधिकारी के पक्ष में बयान दिए.

उन्हीं बयानों में यह बात भी निकल कर सामने आई कि रामदेव आदतन इस तरह की हरकतें करता है. वह अकसर मैडम के खिलाफ साजिशें रचता रहता था. यही नहीं, प्रियंका से पहले भी वह कई अधिकारियों को परेशान कर चुका था. स्वयं रामदेव अदालत में प्रियंका के खिलाफ सुबूत नहीं पेश कर सका. काफी लंबी कानूनी लड़ाई चली. सभी गवाहों को सुनने और सुबूतों को देखने के बाद कोर्ट की कार्यवाही तो पूरी हो गई थी मगर कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.

आज प्रियंका की याचिका पर फैसले का दिन है. राकेश ने उसे कोर्ट जाने के लिए मना कर दिया क्योंकि वह जानता था कि अगर कोर्ट का फैसला प्रियंका के हक में नहीं आया तो वह बिखर जाएगी. सचाई और ईमानदारी पर से उस का विश्वास उठ जाएगा. राकेश वकील के साथ कोर्ट गया.

दोपहर के लगभग 3 बजे दरवाजे की घंटी बजने पर प्रियंका ने सेफ्टीहोल से झांक कर देखा. राकेश का उतरा हुआ चेहरा देख कर उस के पांव वहीं जम गए. दोबारा घंटी बजने पर उस ने बुझे मन से दरवाजा खोला. राकेश चुपचाप खड़ा था. उस ने कोर्ट का फैसला उसे थमा दिया. प्रियंका ने कांपते हाथों में पकड़ कर डबडबाई आंखों से उसे पढ़ा. यह क्या, कोर्ट ने मुझे बेकुसूर मानते हुए बाइज्जत बरी कर दिया. पढ़तेपढ़ते प्रियंका फूटफूट कर रो पड़ी. राकेश ने उसे बांहों में थाम लिया. प्रियंका ने भी आज अपनेआप को रोका नहीं. न जाने कितना दर्द, कितना लावा था जिसे आज बहना था. आज जीत हुई थी, सचाई की, विश्वास की, ईमानदारी की, दोस्ती की.

Short Stories : अपने तो अपने होते हैं

Short Stories : ‘‘आखिर ऐसा कितने दिन चलेगा? तुम्हारी इस आमदनी में तो जिंदगी पार होने से रही. मैं ने डाक्टरी इसलिए तो नहीं पढ़ी थी, न इसलिए तुम से शादी की थी कि यहां बैठ कर किचन संभालूं,’’ रानी ने दूसरे कमरे से कहा तो कुछ आवाज आनंद तक भी पहुंची. सच तो यह था कि उस ने कुछ ही शब्द सुने थे लेकिन उन का पूरा अर्थ अपनेआप ही समझ गया था. आनंद और रानी दोनों ने ही अच्छे व संपन्न माहौल में रह कर पढ़ाई पूरी की थी. परेशानी क्या होती है, दोनों में से किसी को पता ही नहीं था. इस के बावजूद आनंद व्यावहारिक आदमी था. वह जानता था कि व्यक्ति की जिंदगी में सभी तरह के दिन आते हैं. दूसरी ओर रानी किसी भी तरह ये दिन बिताने को तैयार नहीं थी. वह बातबात में बिगड़ती, आनंद को ताने देती और जोर देती कि वह विदेश चले. यहां कुछ भी तो नहीं धरा है.

आनंद को शायद ये दिन कभी न देखने पड़ते, पर जब उस ने रानी से शादी की तो अचानक उसे अपने मातापिता से अलग हो कर घर बसाना पड़ा. दोनों के घर वालों ने इस संबंध में उन की कोई मदद तो क्या करनी थी, हां, दोनों को तुरंत अपने से दूर हो जाने का आदेश अवश्य दे दिया था. फिर आनंद अपने कुछ दोस्तों के साथ रानी को ब्याह लाया था. तब वह रानी नहीं, आयशा थी, शुरूशुरू में तो आयशा के ब्याह को हिंदूमुसलिम रंग देने की कोशिश हुई थी, पर कुछ डरानेधमकाने के बाद बात आईगई हो गई. फिर भी उन की जिंदगी में अकेलापन पैठ चुका था और दोनों हर तरह से खुश रहने की कोशिशों के बावजूद कभी न कभी, कहीं न कहीं निकटवर्तियों का, संपन्नता का और निश्ंिचतता का अभाव महसूस कर रहे थे.

आनंद जानता था कि घर का यह दमघोंटू माहौल रानी को अच्छा नहीं लगता. ऊपर से घरगृहस्थी की एकसाथ आई परेशानियों ने रानी को और भी चिड़चिड़ा बना दिया था. अभी कुछ माह पहले तक वह तितली सी सहेलियों के बीच इतराया करती थी. कभी कोईर् टोकता भी तो रानी कह देती, ‘‘अपनी फिक्र करो, मुझे कौन यहां रहना है. मास्टर औफ सर्जरी (एमएस) किया और यह चिडि़या फुर्र…’’ फिर वह सचमुच चिडि़यों की तरह फुदक उठती और सारी सहेलियां हंसी में खो जातीं. यहां तक कि वह आनंद को भी अकसर चिढ़ाया करती. आनंद की जिंदगी में इस से पहले कभी कोई लड़की नहीं आई थी. वह उन क्षणों में पूरी तरह डूब जाता और रानी के प्यार, सुंदरता और कहकहों को एकसाथ ही महसूस करने की कोशिश करने लगता था.

आनंद मास्टर औफ मैडिसिन (एमडी) करने के बाद जब सरकारी नौकरी में लगा, तब भी उन दोनों को शादी की जल्दी नहीं थी. अचानक कुछ ऐसी परिस्थितियां आईं कि शादी करना जरूरी हो गया. रानी के पिता उस के लिए कहीं और लड़का देख आए थे. अगर दोनों समय पर यह कदम न उठाते तो निश्चित था कि रानी एक दिन किसी और की हो जाती.

फिर वही हुआ, जिस का दोनों बरसों से सपना देख रहे थे. दोनों एकदूसरे की जिंदगी में डूब गए. शादी के बाद भी इस में कोई फर्क नहीं आया. फिर भी क्षणक्षण की जिंदगी में ऐसे जीना संभव नहीं था और रानी की बड़बड़ाहट भी इसी की प्रतिक्रिया थी.

आनंद ने यह सब सुना और रानी की बातें उस के मन में कहीं गहरे उतरती गईं. रानी के अलावा अब उस का इतने निकट था ही कौन? हर दुखदर्द की वह अकेली साथी थी. वह सोचने लगा, ‘चाहे जैसे भी हो, विदेश निकलना जरूरी है. जो यहां बरसों नहीं कमा सकूंगा, वहां एक साल में ही कमा लूंगा. ऊपर से रानी भी खुश हो जाएगी.’ आखिर वह दिन भी आया जब आनंद का विदेश जाना लगभग तय हो गया. डाक्टर के रूप में उस की नियुक्ति इंगलैंड में हो गई थी और अब उन के निकलने में केवल उतने ही दिन बाकी थे जितने दिन उन की तैयारी के लिए जरूरी थे. जाने कितने दिन वहां लग जाएं? जाने कब लौटना हो? हो भी या नहीं? तैयारी के छोटे से छोटे काम से ले कर मिलनेजुलने वालों को अलविदा कहने तक, सभी काम उन्हें इस समय में निबटाने थे.

रानी की कड़वाहट अब गायब हो चुकी थी. आनंद अब देर से लौटता तो भी वह कुछ न कहती, जबकि कुछ महीनों पहले आनंद के देर से लौटने पर वह उस की खूब खिंचाई करती थी. अब रात को सोने से पहले अधिकतर समय इंगलैंड की चर्चा में ही बीतता, कैसा होगा इंगलैंड? चर्चा करतेकरते दोनों की आंखों में एकदूसरे के चेहरे की जगह ढेर सारे पैसे और उस से जुड़े वैभव की चमक तैरने लगती और फिर न जाने दोनों कब सो जाते.

चाहे आनंद के मित्र हों या रानी की सहेलियां, सभी उन का अभाव अभी से महसूस करने लगे थे. एक ऐसा अभाव, जो उन के दूर जाने की कल्पना से जुड़ा हुआ था. आनंद का तो अजीब हाल था. आनंद को घर के फाटक पर बैठा रहने वाला चौकीदार तक गहरा नजदीकी लगता. नुक्कड़ पर बैठने वाली कुंजडि़न लाख झगड़ने के बावजूद कल्पना में अकसर उसे याद दिलाती, ‘लड़ लो, जितना चाहे लड़ लो. अब यह साथ कुछ ही दिनों का है.’ और फिर वह दिन भी आया जब उन्हें अपना महल्ला, अपना शहर, अपना देश छोड़ना था. जैसेजैसे दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़ने का समय नजदीक आ रहा था, आनंद की तो जैसे जान ही निकली जा रही थी. किसी तरह से उस ने दिल को कड़ा किया और फिर वह अपने महल्ले, शहर और देश को एक के बाद एक छोड़ता हुआ उस धरती पर जा पहुंचा जो बरसों से रानी के लिए ही सही, उस के जीने का लक्ष्य बनी हुई थी.

लंदन का हीथ्रो हवाईअड्डा, यांत्रिक जिंदगी का दूर से परिचय देता विशाल शहर. जिंदगी कुछ इस कदर तेज कि हर 2 मिनट बाद कोई हवाईजहाज फुर्र से उड़ जाता. चारों ओर चकमदमक, उसी के मुकाबले लोगों के उतरे या फिर कृत्रिम मुसकराहटभरे चेहरे. जहाज से उतरते ही आनंद को लगा कि उस ने बाहर का कुछ पाया जरूर है, पर साथ ही अंदर का कुछ ऐसा अपनापन खो दिया है, जो जीने की पहली शर्त हुआ करती है. रानी उस से बेखबर इंगलैंड की धरती पर अपने कदमों को तोलती हुई सी लग रही थी और उस की खुशी का ठिकाना न था. कई बार चहक कर उस ने आनंद का भी ध्यान बंटाना चाहा, पर फिर उस के चेहरे को देख अकेले ही उस नई जिंदगी को महसूस करने में खो जाती.

अब उन्हें इंगलैंड आए एक महीने से ऊपर हो रहा था. दिनभर जानवरों की सी भागदौड़. हर जगह बनावटी संबंध. कोई भी ऐसा नहीं, जिस से दो पल बैठ कर वे अपना दुखदर्द बांट सकें. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी, पर अपनेपन का काफी अभाव था. यहां तक कि वे भारतीय भी दोएक बार लंच पर बुलाने के अलावा अधिक नहीं मिलतेजुलते जिन के ऐड्रैस वह अपने साथ लाया था. जब भारतीयों की यह हालत थी, तो अंगरेजों से क्या अपेक्षा की जा सकती थी. ये भारतीय भी अंगरेजों की ही तरह हो रहे थे. सारे व्यवहार में वे उन्हीं की नकल करते. ऐसे में आनंद अपने शहर की उन गलियों की कल्पना करता जहां कहकहों के बीच घडि़यों का अस्तित्व खत्म हो जाया करता था. वे लंबीचौड़ी बहसें अब उसे काल्पनिक सी लगतीं. यहां तो सबकुछ बंधाबंधा सा था. ठहाकों का सवाल ही नहीं, हंसना भी हौले से होता, गोया उस की भी राशनिंग हो. बातबात में अंगरेजी शिष्टाचार हावी. आनंद लगातार इस से आजिज आता जा रहा था. रानी कुछ पलों को तो यह महसूस करती, पर थोड़ी देर बाद ही अंगरेजी चमकदमक में खो जाती. आखिर जो इतनी मुश्किल से मिला है, उस में रुचि न लेने का उसे कोई कारण ही समझ में न आता.

कुछ दिनों से वह भी परेशान थी. बंटी यहां आने के कुछ दिनों बाद तक चौकीदार के लड़के रामू को याद कर के काफी परेशान रहा था. यहां नए बच्चों से उस की दोस्ती आगे नहीं बढ़ सकी थी. बंटी कुछ कहता तो वे कुछ कहते और फिर वे एकदूसरे का मुंह ताकते. फिर बंटी अकेला और गुमसुम रहने लगा था. रानी ने उस के लिए कई तरह के खिलौने ला दिए, लेकिन वे भी उसे अच्छे न लगते. आखिर बंटी कितनी देर उन से मन बहलाता.

और आज तो बंटी बुखार में तप रहा था. आनंद अभी तक अस्पताल से नहीं लौटा था. आसपास याद करने से रानी को कोई ऐसा नजर नहीं आया, जिसे वह बुला ले और जो उसे ढाढ़स बंधाए. अचानक इस सूनेपन में उसे लखनऊ में फाटक पर बैठने वाले रग्घू चौकीदार की याद आई, जो कई बार ऐसे मौकों पर डाक्टर को बुला लाता था. उसे ताज्जुब हुआ कि उसे उस की याद क्यों आई. उसे कुंजडि़न की याद भी आई, जो अकसर आनंद के न होने पर घर में सब्जी पहुंचा जाती थी. उसे उन पड़ोसियों की भी याद आई जो ऐसे अवसरों पर चारपाई घेरे बैठे रहते थे और इस तरह उदास हो उठते थे जैसे उन का ही अपना सगासंबंधी हो. आज पहली बार रानी को उन की कमी अखरी. पहली बार उसे लगा कि वह यहां हजारों आदमियों के होने के बावजूद किसी जंगल में पहुंच गई है, जहां कोई भी उन्हें पूछने वाला नहीं है. आनंद अभी तक नहीं लौटा था. उसे रोना आ गया.

तभी बाहर कार का हौर्न बजा. रानी ने नजर उठा कर देखा, आनंद ही था. वह लगभग दौड़ सी पड़ी, बिना कुछ कहे आनंद से जा चिपटी और फफक पड़ी. तभी उस ने सुबकते हुए कहा, ‘‘कितने अकेले हैं हम लोग यहां, मर भी जाएं तो कोई पूछने वाला नहीं. बंटी की तबीयत ठीक नहीं है और एकएक पल मुझे काटने को दौड़ रहा था.’’

आनंद ने धीरे से बिना कुछ कहे उसे अलग किया और अंदर के कमरे की ओर बढ़ा, जहां बंटी आंखें बंद किए लेटा था. उस ने उस के माथे पर हाथ रखा, वह तप रहा था. उस ने कुछ दवाएं बंटी को पिलाईं. बंटी थोड़ा आराम पा कर सो गया. थका हुआ आनंद एक सोफे पर लुढ़क गया. दूसरी ओर, आरामकुरसी पर रानी निढाल पड़ी थी. आनंद ने देखा, उस की आंखों में एक गलती का एहसास था, गोया वह कह रही हो, ‘यहां सबकुछ तो है पर लखनऊ जैसा, अपने देश जैसा अपनापन नहीं है. चाहे वस्तुएं हों या आदमी, यहां केवल ऊपरी चमक है. कार, टैलीविजन और बंगले की चमक मुझे नहीं चाहिए.’

तभी रानी थके कदमों से उठी. एक बार फिर बंटी को देखा. उस का बुखार कुछ कम हो गया था. आनंद वैसे ही आंखें बंद किए हजारों मील पीछे छूट गए अपने लोगों की याद में खोया हुआ था. रानी निकट आई और चुपचाप उस के कंधों पर अपना सिर टिका दिया, जैसे अपनी गलती स्वीकार रही हो.

 

  Emotional Hindi Story : आप की बेटी को एड्स है

Emotional Hindi Story : उस दिन मैं टेलीविजन के सामने बैठी अपनी 14 साल की बेटी के फ्राक में बटन लगा रही थी. पति एक हाथ में चाय का गिलास लिए अपना मनपसंद धारावाहिक देखने में व्यस्त थे. तभी दरवाजे पर घंटी बजी और मैं उठ कर बाहर आ गई.

दरवाजा खोला तो सामने मकानमालिक वर्माजी खड़े थे. मैं ने बड़े आदर से उन्हें भीतर बुलाया और अपने पति को आवाज दे कर ड्राइंगरूम में बुला लिया और बड़े विनम्र स्वर में बोली, ‘‘अच्छा, क्या लेंगे आप. चाय या ठंडा?’’

‘‘नहीं, इन सब की तकलीफ मत कीजिए. बस, आप बैठिए, एक जरूरी बात करनी है,’’ वर्माजी बेरुखी से बोले.

मैं अपने पति के साथ जा कर बैठ गई. थोड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी सुबहसुबह कैसे आना हुआ. फिर अपने विचारों को विराम दे कर चेहरे पर बनावटी मुसकान ला कर उन्हें देखने लगी.

‘‘मुझे इस मकान की जरूरत है. आप कहीं और मकान ढूंढ़ लीजिए,’’ उन्होंने एकदम सपाट स्वर में कहा.

‘‘क्या?’’ मेरे पति के मुंह से निकला, ‘‘पर मैं ने तो 11 महीने की लीज पर आप से मकान लिया है. आप इस तरह बीच में छोड़ने के लिए कैसे कह सकते हैं.’’

‘‘सर, मेरी मजबूरी है इसलिए कह रहा हूं. और फिर यह मेरा हक है कि मैं जब चाहे आप से मकान खाली करवा सकता हूं.’’

दोनों के बीच विवाद को बढ़ता देख कर मैं ने बेहद विनम्र स्वर में कहा, ‘‘पर ऐसा क्या कारण है भाई साहब जो आप को अचानक इस मकान की जरूरत पड़ गई. हम ने तो हमेशा समय पर किराया दिया है. फिर आप का तो और भी एक मकान है. आप उसे क्यों नहीं खाली करवा लेते.’’

‘‘कारण आप भी जानती हैं. मुझे पहले से पता होता तो आप को कभी भी यह मकान न देता. मेरा 1 महीने का कमीशन और सफेदी कराने में जो पैसा खर्च हुआ, सो अलग.’’

‘‘पर ऐसा क्या किया है हम ने?’’ मैं चौंक गई.

‘‘कारण आप की बेटी है और उस की बीमारी है. पिछले मकान से भी आप को इसलिए निकाला गया क्योंकि आप की बेटी को एड्स है और ऐसी घातक बीमारी के मरीज को मैं अपने घर में नहीं रख सकता. फिर कालोनी के कई लोगों को भी एतराज है.’’

‘‘भाई साहब, यह बीमारी कोई संक्रामक रोग तो है नहीं और न ही छुआछूत से फैलती है. यह तो हर जगह साबित हो चुका है और फिर हम दोनों में से यह किसी को भी नहीं है.’’

‘‘यह सब न मैं सुनना चाहता हूं और  न ही पासपड़ोस के लोग. अधिक पैसा कमाने की होड़ में आप लोग जरा भी नहीं समझते कि बच्चे किस तरफ जा रहे हैं. किन से मिलते हैं. बाहर क्याक्या गुल खिलाते हैं.’’

‘‘वर्माजी,’’ मेरे पति चीख पड़े, ‘‘आप के मुंह में जो आए कहते चले जा रहे हैं. आप को मकान खाली चाहिए मिल जाएगा पर इस तरह के अपशब्द और लांछन मुंह से मत निकालिए.’’

‘‘10 दिन बाद मकान की चाबियां लेने आऊंगा,’’ कह कर वर्माजी उठ कर चले गए.

उन के जाते ही मैं निढाल हो कर सोफे पर पसर गई. तभी भीतर से चारू आई और मुझ से आ कर लता की तरह लिपट कर रोने लगी. मेरे पति मेरे पास आ कर बैठ गए. कुछ कहतेकहते उन की  आवाज टूट गई, चेहरा पीला पड़ गया मानो वही दोषी हों.

अतीत चलचित्र सा मानसपटल पर तैरने लगा और एक के बाद एक कितनी ही घटनाएं उभरती चली गईं, जिन्हें मैं हमेशा के लिए भूल जाना चाहती थी.

मैं उस दिन किटी पार्टी से लौटी ही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. फोन चारू के स्कूल से उस की क्लास टीचर का था. मेरे फोन उठाते ही वह हांफती हुई बोलीं, ‘आप चारू की मम्मी बोल रही हैं.’

मेरे ‘हां’ कहने पर वह बिना रुके बोलती चली गईं, ‘कहां थीं आप अब तक. मैं तो काफी समय से आप को फोन मिला रही हूं. आप के पति भी अपने आफिस में नहीं हैं.’

‘क्यों, क्या हुआ?’ मैं थोड़ा घबरा गई.

‘चारू सीढि़यों से फिसल कर नीचे गिर गई थी. काफी खून बह गया है. हम ने फौरन उसे फर्स्ट एड दे दी है. अब वह ठीक है. आप उसे यहां से ले जाइए,’ वह एक ही सांस में बोल गईं.

मैं ने बिना देर किए आटो किया और चारू के स्कूल पहुंच गई. वह मेडिकल रूम में लेटी थी और मुझे देख कर थोड़ा सुबकने लगी. मैं ने झट से उसे सीने से लगाया. तब तक वहां पर बैठी एक टीचर ने बताया कि आज हमारी नर्स छुट्टी पर थी. इसलिए पास के क्लीनिक से उस को मरहमपट्टी करवा दी है तथा एक पेनकिलर इंजेक्शन भी दिया है. मैं उसे थोड़ा सहारा दे कर घर ले आई. 1-2 दिन में चारू पूरी तरह ठीक हो गई और स्कूल जाने लगी.

इस बात को कई महीने हो गए. एक दिन सुबहसुबह मेरे पति ने बताया कि प्रगति मैदान में पुस्तक मेला चल रहा है. मैं भी जाने को तैयार हो गई पर चारू थोड़ा मुंह बनाने लगी.

‘ममा, वहां बहुत चलना पड़ता है. मैं घर पर ही ठीक हूं.’

‘क्यों बेटा, वहां तो तुम्हारी रुचि की कई पुस्तकें होंगी. तुम्हें तो किताबों से काफी लगाव है. खुद चल कर अपनी पसंद की पुस्तकें ले लो,’ मेरे पति बोले.

‘नहीं पापा, मेरा मन नहीं है,’ कह कर वह बैठ गई, ‘अच्छा, आप मेरे लिए कामिक्स ले आना और इंगलिश हैंडराइटिंग की कापी भी. टीचर कहती हैं मेरी हैंडराइटिंग आजकल इतनी साफ नहीं है.’

‘क्यों तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ मैं ने उस को अलग कमरे में ले जा कर पूछा. मुझे लगा कहीं उस के पीरियड्स न होने वाले हों, शायद इसीलिए वह थोड़ा जाने के लिए आनाकानी कर रही हो.

पति ने थोड़ा जोर से कहा, ‘नहीं बेटा, तुम को साथ ही चलना पड़ेगा. मैं ऐसे तुम को घर पर अकेला नहीं छोड़ सकता.’

वह अनमने मन से तैयार हो गई. पर मैं ने महसूस किया कि वह मेले में जल्दी ही बैठने की जिद करने लगती. फिर उसे एक तरफ बिठा कर हम लोग घूमने चले गए.

घर आतेआते वह फिर से एकदम निढाल हो गई. अगले दिन स्कूल की छुट्टी थी. मैं उसे ले कर डाक्टर के पास गई. उस ने थोड़े से टेस्ट लिख दिए जो 1-2 दिन में कराने थे. 2 दिन बाद फिर से ब्लड टेस्ट के लिए खून लिया चारू का.

अगले दिन सुबहसुबह डाक्टर का फोन आ गया और मुझे फौरन अस्पताल में बुलाया. पति तब आफिस जाने वाले थे. उन की कोई जरूरी मीटिंग थी. मैं ने कहा कि 12 बजे के बाद मैं आ कर मिल लेती हूं. पर वह बड़े सख्त लहजे में बोलीं कि आप दोनों ही फौरन अभी मिलिए. मैं थोड़़ा बिफर सी गई कि ऐसा भी क्या है कि अभी मिलना पड़ेगा पर वह नहीं मानीं.

हमारे पहुंचते ही डाक्टर बोलीं, ‘मुझे आप दोनों का ब्लड टेस्ट करना पड़ेगा.’

‘हम दोनों का?’ मैं एकदम मुंह बना कर बोली.

‘मैं ने आप की बेटी का 2 बार ब्लड टेस्ट किया है. मुझे बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि उसे एड्स है.’

‘क्या?’ हम दोनों ही चौंक गए. मेरी सांसें तेज होती गईं और छाती जोरजोर से धड़कने लगी. मैं ने अविश्वास से डाक्टर की तरफ देख कर कहा, ‘आप ने सब टेस्ट ठीक से तो देखे हैं, ऐसा कैसे हो सकता है?’

‘ऐसा ही है. अब देखना यह है कि यह बीमारी कहीं आप दोनों में तो नहीं है.’

मेरे तो प्राण ही सूख गए. मुझे स्वयं पर भरोसा था और अपने पति पर भी. फिर भी एक बार के लिए मेरा विश्वास डोल गया. यह सब कैसे हो गया था. हमारा ब्लड ले लिया गया. लगा जैसे सबकुछ खत्म हो गया है. मेरे पति उस दिन आफिस नहीं गए और न ही मेरा मन किसी काम में लगा.

दूसरे दिन हम दोनों की रिपोर्ट आ गई और रिपोर्ट निगेटिव थी. मैं ने डाक्टर को चारू के बारे में सबकुछ बताया और आश्वासन दिलाया कि उस के साथ कहीं कोई दुर्व्यवहार नहीं हुआ.

बातोंबातों में डाक्टर ने एकएक कर के बहुत सारे प्रश्न पूछे. तभी अचानक मुझे याद आया कि जब वह स्कूल में सीढि़यों से नीचे गिरी थी तो बाहर से एक इंजेक्शन लगवाया था. डाक्टर की आंखें फैल गईं.

‘आप के पास उस के ट्रीटमेंट और इंजेक्शन की परची है?’

‘ऐसा तो मुझे स्कूल वालों ने कुछ नहीं दिया पर एक टीचर कह रही थी कि उसे इंजेक्शन दिया था और इस बात की पुष्टि चारू ने भी की थी.’

हम लोग उसी क्षण स्कूल में जा कर प्रिंसिपल से मिले और अपनी सारी व्यथा सुनाई.

प्रिंसिपल पहले तो बड़े मनोयोग से सारी बातें सुनती रहीं फिर थोड़ी देर के लिए उठ कर चली गईं. उन के वापस आते ही मेरे पति ने कहा कि यदि आप उस टीचर को किसी तरह बुला दें जो चारू को क्लीनिक में ले कर गई थी तो हमें कारण ढूंढ़ने में आसानी होगी. कम से कम हम उस पर कोई कानूनी काररवाई तो कर सकते हैं.

‘क्या आप को उस का नाम मालूम है?’ वह बड़े ही रूखे स्वर में बोलीं.

चारू उस समय हमारी साथ थी पर वह इस बात का कोई ठीक से उत्तर नहीं दे सकी. इस पर प्रिंसिपल ने बड़ी लापरवाही से उत्तर दिया कि मैं मामले की छानबीन कर के आप को बता दूंगी.

मेरे पति आपे से बाहर हो गए. उन की खीज बढ़ती गई और धैर्य चुकता गया.

‘हमारे साथ इतना बड़ा हादसा हो गया और हम किस मानसिक दौर से गुजर रहे हैं, इस बात का अंदाजा है आप को. एक तो आप के स्कूल में उस दिन नर्स नहीं थी, उस पर जो उपचार बच्ची को दिया गया उस का भी आप के पास ब्योरा नहीं है. आप सबकुछ कर सकती हैं पर आप कुछ करना नहीं चाहती हैं. इसीलिए कि आप का स्कूल बदनाम न हो जाए. मैं एकएक को देख लूंगा.’

‘आप को जो करना है कीजिए, पर इस तरह चिल्ला कर स्कूल की शांति भंग मत कीजिए,’ वह लगभग खड़े होते हुए बोलीं.

दोषियों को दंड दिलवाने की इच्छा भी बेकार साबित हुई. चारू की रिपोर्ट से हम ने थोड़ेबहुत हाथपैर मारे पर सुबूतों के अभाव में दोषी डाक्टर एवं उस का स्टाफ बिना किसी बाधा के साफ बच कर निकल गया और जो हमारी बदनामी हुई, वह अलग.

हां, यदि प्रिंसिपल चाहती तो उन को सजा हो सकती थी पर वह क्लीनिक तो चलता ही प्रिंसिपल के इशारे पर था. स्कूल में प्रवेश से पहले सभी विद्यार्थियों को एक सामान्य हेल्थ चेकअप एवं सर्टिफिकेट की जरूरत होती थी जो वहीं से मिल सकता था.

चारू को एड्स होने की बात दावानल की भांति शहर भर में फैल गई. हम लोगों को हेय नजरों से देखा जाने लगा. चारू की स्कूल में भी हालत लगभग ऐसी ही थी.

सरकार के सारे बयान कि एड्स कोई छुआछूत की बीमारी नहीं है व छूने से एड्स नहीं फैलता, लगभग खोखले हो चुके थे. मेरे घर पर भी कालोनी वालों का आना लगभग न के बराबर हो गया. किटी पार्टी छूट गई. बरतन मांजने वाली भी काम से किनारा कर गई. हम लोग उपेक्षित एवं दयनीय से हो कर रह गए थे. हम सुबह से शाम तक 20 बार जीते 20 बार मरते.

यह जानते हुए भी कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है फिर भी अपने मन को समझाने के लिए जिस ने जो बताया मैं ने कर डाला. जिस का असर मेरे तनमन पर यह पड़ा कि मैं खुद को बीमार जैसा अनुभव करने लगी थी. यह जिंदगी तो मौत से भी कहीं ज्यादा कष्ट- दायक थी.

एक दिन चारू रोती हुई स्कूल से आई और कहने लगी कि क्लास टीचर ने उसे सब से अलग और पीछे बैठने के लिए कह दिया है. कहा ही नहीं, अलग से इस बात की व्यवस्था भी कर दी है. मेरा दिल भीतर तक दहल गया. इस छोटे से दिल के टुकड़े को जीतेजी अलग कैसे कर दूं. वह बिलखती रही और मैं चुपचाप तिलतिल सुलगती रही.

मैं ने वह स्कूल और घर छोड़ दिया तथा इस नई कालोनी में घर ले लिया और पास ही के स्कूल में चारू को एडमिशन दिलवा दिया, यही सोच कर कि जब तक यह स्कूल जा सकती है जाए. उस का मन लगा रहेगा. पर यहां भी हम से पहले हमारा अतीत पहुंच गया.

अचानक पति के कहे शब्दों से मेरी तंद्रा टूटी और मैं वर्तमान में आ गई. हमें 10 दिन के भीतर मकान खाली करना है यह सोच कर हम फिर से परेशान हो उठे. जैसेजैसे समय बीतता जा रहा था हमारी चिंता और बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी.

एक दिन सुबहसुबह दरवाजे की घंटी बजी तो मैं परेशान हो उठी. मुझे दरवाजे और टेलीफोन की घंटियों से अब डर लगने लगा था. मैं ने दरवाजा खोला. सामने एक बेहद स्मार्ट सा व्यक्ति खड़ा था. उस ने मेरे पति से मिलने की इच्छा जाहिर की. मैं बड़े सत्कार से उसे भीतर ले आई. मेरे पति के आते ही वह खड़ा हो गया. फिर बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘मैं डा. चौहान हूं, चाइल्ड स्पेशलिस्ट. आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं.’’

‘‘मैं आप को कैसे भूल सकता हूं,’’ सकते में खड़े मेरे पति बोले, ‘‘आप की वजह से तो मेरी यह हालत हुई है. आप के क्लीनिक के इंजेक्शन की वजह से तो मेरी बच्ची को एड्स हो गया. अदालत से भी आप साफ छूट गए. अब क्या लेने आए हैं यहां? एक मेहरबानी हम पर और कीजिए कि हम तीनों को जहर दे दीजिए.’’

‘‘सर, आप मेरी बात तो सुनिए. आप जितनी चाहे बददुआएं मुझे दीजिए, मैं इसी का हकदार हूं. जो गलती मेरे क्लीनिक से हुई है उस के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं. मेरी ही लापरवाही से यह सबकुछ हुआ है. कोर्ट ने मुझे बेशक छोड़ दिया पर आप का असली गुनहगार मैं हूं. और यह एक बोझ ले कर मैं हर पल जी रहा हूं,’’ और हाथ जोड़ कर वह मेरी ओर देखने लगा. स्वर पछतावे से भरा प्रतीत हुआ.

‘‘मैं ने इस शहर को छोड़ कर पास के शहर में अपना नया क्लीनिक खोल लिया है. इनसान दुनिया से तो भाग सकता है पर अपनेआप से नहीं. मैं मानता हूं कि मेरा अपराध अक्षम्य है पर फिर भी मुझे प्रायश्चित्त करने का मौका दीजिए.

‘‘मैं अपने सूत्रों से हमेशा आप के परिवार पर नजर तो रखता रहा पर यहां तक आने और माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा सका. अभी कल ही मुझे पता चला कि आप पर फिर से मकान का संकट आ पड़ा है तो मैं यहां तक आने की हिम्मत कर सका हूं.

‘‘मैं जहां रहता हूं वहीं नीचे मेरा क्लीनिक है. मैं चाहता हूं कि आप लोग मेरे साथ चल कर मेरे मकान में रहिए. मुझे आप से कोई किराया नहीं चाहिए बल्कि आप की चारू का उपचार मेरी देखरेख में चलता रहेगा. मुझे एक बड़ी खुशी यह होगी कि मेरे लिए आप लोगों की सेवा का मौका मिलेगा,’’ कहतेकहते वह मेरे चरणों में गिर पड़ा. उस का स्वर जरूरत से ज्यादा कोमल एवं सहानुभूति भरा था.

मुझे समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूं. उस का स्वर भारी और आंखें नम थीं. उस के यह क्षण मुझे कहीं भीतर तक छू गए. अचानक मां के स्वर याद आ गए, ‘अतीत कड़वा हो या मीठा, उसे भुलाने में ही हित है.’

‘‘मुझे सोचने के लिए समय चाहिए. मैं कल तक आप को उत्तर दूंगी.’’

‘‘मैं कल आप का उत्तर सुनने नहीं बल्कि आप को लेने आ रहा हूं. मेरा आप का कोई खून का रिश्ता तो नहीं पर अपना अपराधी समझ कर ही मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लीजिए,’’ कहते- कहते उस का गला भर गया और आंसू छलक आए.

उस के इन शब्दों में आत्मीयता और अधिकार के भाव थे. आंखें क्षमायाचना कर रही थीं.

Story 2025 : रूपदिवाना

Story 2025 :  ‘‘मैं अपनी दुलिया की छादी लानी के टुड्डे से कलूंदी. लानी मेरी पक्की छहेली है,’’ रश्मि तुतलाई.

मां ने रश्मि को मनाने का असफल प्रयास किया, ‘‘पर, रानी का गुड्डा मोटा है. कद्दू कहीं का.’’

पापा ने विकल्प प्रस्तुत किया, “मम्मी का कहना मान ले. प्रिया के गुड्डे से कर ले. वह तो छरहरा है. रंग भी धूप सा उजला है.”

मां ने फिर से नाकभौंहें सिकोड़ी, “न बाबा न. हम अपनी बिटिया की गुड़िया की शादी प्रिया के चपटी नाक और बटन सी छोटी आंखों वाले गुड्डे से भी नहीं करेंगे. किसी राजकुमार से ही करेंगे प्यारी सी रश्मि की प्यारी सी डौली की शादी.”

पापा झल्ला उठे. ‘‘अगर उस से भी नहीं तो जिस में तेरी मम्मी के सींग समाएं उसी से कर. मैं नहीं पड़ता तेरी सहेलियों के गुड्डेगुड़ियों के चक्कर में. चाहें अपनी डल्लो को चरिकुमारी बना या कुएं में धकेल,’’ कह कर पापा अपनी फाइलों में डूब गए.

आज मां को रश्मि के लिए कोई लड़का पसंद नहीं आ रहा था. भैया और पापा रातदिन परेशान थे. जहां भी कोई रिश्त बताता, पापा और भैया जाते. रश्मि की फोटो और बायोडेटा दे कर आते. रश्मि थी ही ऐसी परीरूप कि उस की फोटो तुरंत पसंद कर ली जाती. पापा लड़के का फोटो और बायोडेटा मां को दिखाते, पर मां हर फोटो में कोर्ई न कोई नुक्स निकाल देती. बायोडेटा पढ़नेसुनने की नौबत ही नहीं आती. भैयापापा सिर पकड़ कर बैठ जाते. बड़े भैयाभाभी ने तो बीच में पड़ना ही छोड़ दिया था. हां, छोटे भैया निराश हो कर फिर उठते और बुझे मन से नए रिश्ते की तलाश में लग जाते. पापा एक बार तो फट ही पड़े, ‘‘इस आसमान की परी के लिए कोई ऊपर से ही उतरेगा अब. उसे जा कर हवाईजहाज में ढूंढ़ो.’’

हुआ भी यही. छोटे भैया सुशांत और मां दीपाली बूआ के यहां भात दे कर हवाईजहाज से मुंबई से लौट रहे थे. उन का सहयात्री किसी राजकुमार से कम नहीं लग रहा था. ब्लेजर में उस का रंग और भी दमक रहा था. उस का अखबार सुशांत के पैरों के पास गिरा तो उस ने सौरी कह कर अखबार उठा लिया. बस फिर तो दोनों में लंबी बातचीत का पहाड़ी रास्ता खुलता गया. रश्मि का ध्यान आते ही अम्मां के मन में विचार आया, ‘‘काश, ये अविवाहित हो. इस की सुंदरता में तो मैं कहीं से भी नंबर नहीं काट सकूंगी. लाखों में अलग ही दिखेगा.’’

सहयात्री का रंग हलका गुलाबी था. गहरी काली आंखों पर घनी पलकों की चिकें पड़ी थी. ऊंची नाक शुक नासिका को सार्थक कर रही थी. गुलाबी पतले होंठ गुलाब की पंखुड़ियों का आभास दे रहे थे. खनकती हंसी के बीच धवल दांतों की पंक्तियां अनार के दानों की भांति जड़ी प्रतीत हो रही थीं. सहयात्री में लड़़कियों सा सौंदर्य समाया था. काले घुंघराले बाल उस की सुंदरता को द्विगुणित कर रहे थे. सुशांत ने मन ही मन उस के साथ रश्मि को खड़ा किया तो उस के मुंह से अनायास निकल पड़ा, ‘‘वाह, क्या जोड़ी है.’’

सहयात्री ने चौंक कर सुशांत की ओर देखा और पूछा, ‘‘किस की?’’

उतरते जहाज से बाहर झांकते हुए सुशांत ने उड़ती फाख्ता की जोड़ी की ओर संकेत किया, ‘‘इन की.’’

सहयात्री सरल सा मुसकरा दिया. अम्मां के संकेत पर सुशांत ने उस से विजिटिंग कार्ड का आदानप्रदान कर लिया. वह दवाओं की कंपनी में सेल्स एक्जीक्यूटिव था. नाम था सृजन शर्मा. बातचीत में अम्मां ने जान लिया कि वह अविवाहित है.

मां को आज एयरपोर्ट से घर की दूरी द्रोपदी के चीर सी अंतहीन लग रही थी. रास्तेभर वह बस यही सोचती रहीं कि अब घर आए और कब वह रश्मि को बताएं कि मेरी खोज को आज विराम लग गया. रश्मि ठुनकेगी, ‘‘मम्मा, आप तो बस हर बार यही कहती हो. पर मेरा जवाब आज तक इस दुनिया में पैदा ही नहीं हुआ. आप ही तो कहती हो कि हंस बस मोती चुगता है.’’ बस, तब मैं सब को धीरेधीरे सृजन के बारे में बताऊंगी कि आज से तीस साल पहले रश्मि का जवाब इस धरती पर उतर चुका है. सब आश्चर्य से पूछेंगे, ‘‘क्या वाकई?’’ इसी उहापोह में टैक्सी घर के आगे रुकी. तब मां की विचारधारा को झटका लगा.

रश्मि सुबह से ही पूजा की शादी में गई हुर्ई थी. पूजा रश्मि से पूरे 6 साल जूनियर थी. पूजा की बड़ी बहन अपाला का विवाह साधारण रूपरंग के चार्टेड एकाउंटेंट अजस्र से सात वर्ष पूर्व हो चुका था. अपाला और रश्मि दांतकाटी रोटी थी. अपाला के रिसेप्शन से लौट कर मां ने मुंह बनाया था, ‘‘अपाला के मम्मीपापा ने क्या देखा? और ये मिट्टी की माधो अपाला मान कैसे गई उस बजरबट्टू अजस्र को?” डिनर पर बुलाया, तो पापा ने मां को झिड़का, ‘‘उस दिन तुम अजस्र को बजरबट्टू बता रही थी. बिलकुल रामसीता की जोड़ी है दोनों की. अजस्र सांवला है तो क्या हुआ? सीए है.’’

मां का मुंह फिर बिचका, ‘‘उलटा नहीं तो सीधा तवा कहीं का. सुनोजी, तुम ने उस की टांगें नहीं देखी क्या. बिलकुल सींकसलाई. ताड़ का पेड़ कहीं का.’’

पापा ने फिर समझाया, ‘‘क्या सूरत ही सबकुछ है? पोस्ट और घर कुछ नहीं. अपाला की ससुराल पर लक्ष्मी बरसती है.’’

बस पापा की इन्हीं बातों पर मां का मूड उखड़ जाता था. पापा चलतेचलते कह गए. पर अपाला अजस्र की पोस्ट, योग्यता और घर की स्थिति देख कितनी खुश है.

रश्मि के लिए जितने भी वर देखे गए, अम्मां का इनकार रश्मि पर उम्र की परतें चढ़ाता गया. रिश्तेदारी में भी रश्मि से छोटी उम्र की लड़कियों की शादी एकएक कर के होती जा रही थी. पापा दुखी हो कर कहते, ‘‘न जाने रश्मि के हाथ कब पीले होंगे? छोटे की धरोहर की भी शादी हो गई. रश्मि से पूरे चार बरस छोटी है. सुंदरता के चक्कर में एक से एक आला रिश्ते पानी की तरह हाथ से फिसलते जा रहे हैं. रश्मि उनतीस की हो गई है. तुम्हें सुंदरता को योग्यता से कम आंकना चाहिए. रश्मि के लिए लड़के की उम्र कम से कम तीसइकतीस होनी चाहिए. अब इस उम्र तलक कौन भीष्म पितामह बना बैठा होगा. चलो, मैं अब योग्य वर ढूंढ़ भी दूं तो क्या तुम चंद्रमा को पाने का अपना सपना छोड़ दोगी? किस कंदरा से लाऊं कामदेव तुम्हारी रति रानी के लिए?’’

रश्मि पूजा की शादी से लौटी, तो मां उस की प्रतीक्षा में जाग रही थीं. रश्मि सदैव की तरह लाड़ से इठलाई, ‘‘मां अब आईं. आईं तो क्या लाईं. नहीं लाईं तो क्यों आईं? अपनी इकलौती, लाड़ली, डार्लिंग बेटी के लिए.’’

मां के मन की हंसी चेहरे पर उतर आई, ‘‘देख, मैं न कहती थी कि कोई आसमान से ही उतरेगा अपनी हूर की परी के लिए. मेरी भविष्यवाणी सोलहों आने सच हुई. वह पूरा गंधर्व कुमार है.’’

रश्मि ने शंका व्यक्त की, ‘‘वह तो हर बार आप ही फेल कर देती हो. पर लगता है कि आप ने अब की बार पीतल और कंचन में भेद कर लिया है. मैं तो समझी थी कि मुंबई से आप मेरे लिए लेटेस्ट फैशन की ड्रेस नहीं, लेटेस्ट डिजाइन का मैच ले कर लौटी हो मेरे लिए.’’

‘‘देख, कल तेरे पापा भाईदूज का टीका कराने सल्लो बूआ के यहां जा रहे हैं. तेरी बड़ी भाभी और औकाधरा की कल किट्टी है. और तेरे बड़े भैया भी कल डबल शिफ्ट में ड्यूटी है,” मां बोली.

अम्मां के कहने पर अगले दिन सुशांत ने औफिस से सृजन को फोन कर के घर आने का निमंत्रण दे दिया. सृजन ने शाम को आने का वायदा कर लिया.

शाम को सृजन कुछ पहले ही आ गया. दरवाजा रश्मि ने खोला. सौंदर्य का अथाह सागर देख कर रश्मि ठगी सी रह गई. सृजन भी रूप की राशि रश्मि को देख कर अंदर आना भूल गया.

रश्मि ने संभल कर सृजन को अंदर आने को कहा. सृजन सकपकाते हुए बोला, ‘‘मि. सुशांत ने मुझे बुलाया है. क्या मिस्टर सुशांत घर पर हैं?’’

रश्मि ने सृजन को ड्राइंगरूम में बैठा दिया.

अंदर आ कर रश्मि का हृदय तेजी से धडक़ने लगा. ‘‘अम्मा ने सच ही कहा था. सारी सहेलियां जल उठेंगी. सब्र का फल मीठा होता है.’’

सृजन और सुशांत के बीच हो रही बातचीत भी रश्मि की विचार श्रृंखला को छोड़ नहीं सका. सुशांत ने मां से चाय भेजने को कहा, तो उन्होंने फिर से रश्मि को सृजन के सम्मुख प्रस्तुत करने के उद्देश्य से नौकर से चाय न भेज कर रश्मि से चाय ले जाने को कहा.

चाय मेज पर रखते हुए एक बार फिर से रश्मि का मन लुब्ध भ्रमर की भांति उस रूप लावण्य का दृष्टिपान करने की लालसा से सृजन की ओर नीची दृष्टि से देखने लगा. सृजन भी उसे अपलक देख रहा था. सुशांत ने दोनों की नजरें चार होते हुए देखा तो रश्मि लगातार अंदर चली गई. सृजन तो बातचीत का बिंदु ही भूल गया.

सृजन ने चलते समय सुशांत को घर आने का निमंत्रण दिया, तो सुशांत को अनायास ही मुंहमांगी मुराद मिल गई. सुशांत बोला, ‘‘मिस्टर सृजन, मैं आप के घर अब से चौबीस घंटे बाद यानी कल शाम पांच बजे आऊंगा. पर आप से नहीं, आप के पिताजी से मिलने. मेरे साथ मेरी मदर भी आप की माताजी से मिलने आएंगी. आप को कोई एतराज तो नहीं?’’ सुन कर सृजन मुसकराया. अचानक उस के मुंह से प्रथम कवि सा निकला. ‘‘नहीं भैया, मुझे तो प्रसन्नता ही होगी.’’

सुशांत ने जब मां को सृजन के निमंत्रण के बारे में बताया, तो मां ने ‘शुभस्य शीघ्रम’ के अनुसार अगले ही दिन सृजन के घर जाने का मन बना लिया.

अगले दिन सुशांत मां को साथ ले कर सृजन के घर पहुंचा. रास्ते में सुशांत ने मां का मन टटोला, ‘‘मां, आप आईएएस, आईपीएस तक को ठुकरा चुकी हैं, क्योंकि मैं आप की जिद जानता हूं. आप रूपदिवानी हैं. हमें आप से समझौता कर लेना चाहिए,’’ कह कर सुशांत ने मुंह पर ताला लगा लिया.

सृजन ने उन्हें हाथोंहाथ लिया. घर के अन्य सदस्य भी बहुत सौहार्द से मिले.

रश्मि का विवाह सृजन के साथ धूमधाम से हो  गया. सब अम्मां की प्रसन्नता में प्रसन्न थे. स्वयं रश्मि की भी प्रसन्नता का कोई ओरछोर नहीं था. शादी का एक बरस, खुशियों का एकएक पल बन कर बीत गया. रश्मि मां बनने वाली थी.

धीरेधीरे सृजन कंपनी के काम में इतना उलझता चला गया कि उसे रश्मि की ओर ध्यान देने का अवसर कम ही मिल पाता. रश्मि उस का सानिध्य अधिक से अधिक चाहती, पर सृजन को उस के लिए समय निकालना असंभव होता जा रहा था. रात को सृजन के खाने की प्रतीक्षा में रश्मि खाने की मेज पर सिर रख कर सो जाती. सृजन आता और चुपचाप कपड़े बदल कर सो जाता. रश्मि की नींद खुलती, तो सृजन को सोया पाती. मेज पर खाना ज्यों का त्यों रखा देख रश्मि अपराधबोध से ग्रस्त हो स्वयं को उलाहना देती,

‘‘कितना थक जाते हैं सृजन. और मैं उन की प्रतीक्षा जाग कर नहीं कर सकी. कितना चाहते हैं मुझे. सोया देख कर जगाया तक नहीं और खाना भी नहीं खाया.’’

सुबह उठ कर सृजन बस जल्दीजल्दी की रट लगा देता. रश्मि को उसे नाश्ता तक कराना भारी हो जाता. एक दिन इसी जल्दीजल्दी के रट में रश्मि गिर ही गई होती, यदि बाथरूम का दरवाजा उस के हाथ में न आ गया होता. तब सास रुक्मिणी ने उसे टोका, ‘‘ऐसे दिन हैं तेरे रेशू. जरा संभल कर चला कर. सिरजू को नाश्ता मैं करा दिया करूंगी.’’

रश्मि सास की बात पर चुप रही, पर मन ही मन कहा, ‘‘सृजन को सामने बैठा कर खिलाने में मुझे जो सुख मिलता है, फिर कैसे मिलेगा. इसी बहाने पल दो पल उन के साथ बैठ लेती हूं, वरना सारे दिन भागते सृजन पानी की तरह हाथ से फिसलफिसल जाते हैं.’’

रश्मि सृजन से पूछती, ‘‘पास्ता, कट्लेट्स कैसे बने हैं?’’ सृजन रश्मि की पाककला की प्रशंसा ढंग से नहीं कर पाता. बहुत टेस्टफुल कह कर न जाने किन विचारों की भूलभुलैया में खो जाता. रश्मि उसे सृजन की व्यस्तता मान लेती.रक्षाबंधन पर भाइयों को राखी बांधने जाने से पूर्व रश्मि ने सृजन का मन टटोलने का प्रयत्न किया, ‘‘अम्मां के पास रहने के लिए इस बार अम्मांजी से लंबी छुट्टी सेंक्शन करा दीजिए.’’

सृजन को जैसे संबल मिल गया, ‘‘अम्मां का सेक्रेटरी मैं जो बैठा हूं, तुम्हारी छुट्टियां स्वीकृत करने के लिए बड़े वाले सूटकेस में कपड़े ले जाना.’’

सृजन का उत्तर सुन कर रश्मि का मुंह उतर गया. सृजन से दूर रहना उस के लिए मुश्किल था, पर सृजन ने अनजान बनते हुए सरलता से ‘हां’ कह दिया था.

 

औफिस जाते समय सृजन रश्मि को मां के घर छोड़ता गया. बड़े सूटकेस के साथ रश्मि को देख कर छोटी भाभी ने तंज कसा, ‘‘जीजाजी बड़ी खुशी हुई कि इस बार आप भी दीदी के साथ यहां रहेंगे, वरना दीदी के कपड़े तो ब्रीफकेस में ही आ जाते थे. आप दीदी से शादी वाले गठजोड़ अभी तक बांधे हुए हैं,” सुन कर सृजन हंसता हुआ नीचे उतर गया.

कभी रश्मि औफिस में सृजन को फोन कर के आने को कहती, तो सृजन औफिस से लौटते में बस 10-15 मिनट को आ जाता. भूल कर भी रश्मि से घर चलने को नहीं कहता.

एक बार रश्मि ने ही पूछा, ‘‘अम्मांजी भी क्या सोचेंगी? मैं जैसे यहां आ कर जामवंत के पैर सी जम ही गई.’’

सृजन ने रश्मि की दलील को हथेली पर जमी धूल सा उड़ा दिया, ‘‘तुम्हें डाक्टर ने रेस्ट बताया है. वहां गृहस्थी की चकल्लस में सांस लेने तक की फुरसत नहीं मिलती तुम्हें. यहां सब तुम्हारी सेवा में लगे रहते हैं. तुम्हें यहां छोड़ कर मैं बेफिक्र हूं.’’

सृजन के इस अपनेपन से रश्मि भीतर तक भीग गई.

एक दिन रश्मि की सहेली अपाला की छोटी बहन उर्वशी अपनी सहेली सोनल के साथ रश्मि से मिलने आई. दोनों ने खाना वहीं खाया. रश्मि के पड़ोस में उर्वशी की ननद रिक्ति रहती थी. उर्वशी उस से मिलने चली गई. रश्मि सोनल को अम्मां के कमरे में आराम से बातचीत करने के लिए ले गई. वहां सृजन की फोटो देख कर सोनल ठिठकी. कुछ देर बाद उस ने रश्मि से पूछा, ‘‘ये महाशय कौन हैं दीदी? मैं इन्हें पिछले 3 सालों से जानती हूं. नई तितलियों पर मंडराने वाले भ्रमर हैं जनाब.’’

सुन कर रश्मि जड़ हो गई. उस के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. रश्मि उस से सृृजन का असली परिचय छुपा गई. संभल कर बोली, ‘‘अम्मां के लाड़ले भांजे हैं. अम्मां इन पर बेटों से भी ज्यादा ममता लुटाती हैं. पर तुम ये सब क्यों पूछ रही हो? कहीं धोखा तो नहीं हुआ तुम्हें? अम्मा के तो श्रवण कुमार हैं ये.’’

सोनल बेपरवाही से उत्तरायी होंगे घर के भ्रवण कुमार. पर बाहर तो पूरे रोमियो बने रहते हैं. मुझे कोई धोखा नहीं हुआ है. मेरी फ्रैंड अनुजा इन के प्रेमजाल में बुरी तरह से फंसी हुई है. हर समय इन के नाम की माला जपती रहती है. कुछ महीने पहले अचानक अनुजा के कालेज पहुंच गए. बताया कि वापस पोस्टिंग यहीं करा ली है. अनुजा ने इन महोदय के कंधे से लग कर रोरो कर अपना बुरा हाल कर लिया. तब से रोज सुबहशाम उस से मिलते हैं. मैं ने अन्य तितलियों को भी इन की चपेट में आते देख कर अनुजा को सावधान किया. पर अनुजा पर इन का रंग गहरा चढ़ चुका है और वह मेरे देखने को मेरा दृष्टिभ्रम मानती है. यह महाशय हैं ही ऐसे मोहक विष्णुरूप कि इन के मकडज़ाल में कोई भी फंस जाता है. नाम भी तो मोहन कुमार है.’’

सोनल का एकएक शब्द रश्मि को बिच्छू के डंक सा काटता गया. उस ने होंठ काट लिए, ‘‘सोनल तू ने झूठ नहीं कहा. अम्मां भी तो इन की रूप की मोहिनी में ही तो फंस गई थीं. वे इन के बारे में और कुछ जानना ही नहीं चाहती थीं. पर अम्मां को तो इन की हर रट लग गई थी. पिताजी और बड़े भैया ने कितना समझाया था उन को. फिर अम्मां की जिद और मेरी बढ़ती उम्र के कारण पिताजी और बड़े भैया को घुटने टेकने पड़ गए थे. अब पीएं अम्मां धोधो कर इन का रूप. सृजन ने अपना नाम तक बदल लिया.’’

उर्वशी के आते ही दोनों की बातचीत पर विराम लग गया. काफी देर हो चुकी थी, अत: उर्वशी और सोनल ने जाना चाहा. रश्मि ने और अधिक जानने की गरज से सोनल से कहा, “उर्वशी तो अब गृहस्थिन बन गई है. सोनल तू अभी इन झंझटों से दूर है. परसों सनडे में आना. मेरी बोरियत कुछ तो कम हो.’’

सोनल भी रश्मि से और अधिक बात करना चाहती थी. अत: वह इतवार की सुबह 10 बजे ही अनुजा को ले कर रश्मि के घर आ गई. रश्मि ने जानबूझ कर दोनों को अम्मां के कमरे में बैठाया. अनुजा की दृष्टि सृजन की फोटो से हटती ही नहीं थी. गहरी सांस ले कर सोनल बोली, ‘‘पता नहीं, क्यों अनुजा इन के पीछे पागल है? ये किसी एक के हो कर रह नहीं सकते.’’

रश्मि बोली, ‘‘अम्मां के भांजे का खयाल छोड़ दे अनुजा. यह अपनी पत्नी को बेहद चाहता है.’’

पत्नी के नाम पर दोनों चौंक कर खड़ी हो गईं, और ‘‘बाजार से जरूरी सामान खरीदना है,’’ का बहाना बना कर चली गईं.

शाम को रश्मि ने सास को फोन किया, ‘‘अम्मांजी, आप तो मुझे भूल ही गई हैं. कब बुला रही हैं?’’

सास रुक्मिणी जैसे आसमान से गिरीं, ‘‘मैं तो रोज ही सृजन से तुम्हें ले आने को कहती हूं, पर वह कहता है कि तुम जी भर के रहना चाहती हो. क्या जी भर गया तुम्हारा?’’

शाम को ससुर आ कर रश्मि को ले गए. सृजन रात को तकरीबन 10 बजे आया. रश्मि को देख कर वह चौंक गया.

दिनप्रतिदिन सृजन का रवैया रश्मि के प्रति उपेक्षापूर्ण होता जा रहा था. एक दिन रश्मि ने सास से कहा, ‘‘मां, ये घर में सब से छोटे हैं. आप में से कोई इन से क्यों नहीं पूछता कि इतनी रात गए तक कहां रहते हो?’’

रुक्मिणी गहरी सांस ले कर उतराई, ‘‘रश्मि से सृजन का सौभाग्य है कि उसे तुम जैसी सहनशील पत्नी मिली. वह एक खूंटे से बंधने वाला कभी न था. तुम्हारी हां सुन कर हमें तसल्ली हुई कि उस ने भी तुम्हारे लिए हां कर दी, पर वह अनुमान हमें भी न था कि वह अपने पुराने ढर्रे पर लौट आएगा. अब पानी सिर से ऊपर आता जा रहा है,’’ कह कर वह चिंतित सी होती चली गईं.

रश्मि का स्वास्थ्य दिनप्रतिदिन गिरता जा रहा था. मांपिताजी के पूछने पर रश्मि सृजन की उपेक्षा छुपा जाती. भैयाभाभी की चिंता रश्मि हंस कर टाल जाती. पर अंदर ही अंदर रश्मि को चिंता का घुन खाए जा रहा था.

एक दिन छोटी भाभी धरा घबराई सी रश्मि से मिलने आई. धरा हिम्मत बटोर कर बोली, ‘‘रश्मि कान से सुना झूठा हो सकता है, पर आंखों से देखा कैसा झुठला दूं? मेरा दिल सच में ही बैठा जा रहा है.’’

धरा रश्मि को भाभी कम सहेली अधिक लगती थी. धरा भी मन के प्रत्येक बोझ को रश्मि से कह कर हलका कर लेती थी. रश्मि भी शादी से पूर्व शकुंतला की ढीली अंगूठी सी शादी की फिसलती उम्र की वेदना धरा को बता देती थी. परंतु सृजन की निष्ठुरता को रश्मि फिर भी धरा के सामने मुंह पर नहीं ला पाई थी.

धरा की बात सुन कर रश्मि का हृदय अनजानी आशंका से धड़क उठा. उस ने छोटी भाभी की ओर प्रश्नवाची दृष्टि उठाई और कहा, ‘‘भाभी कहो, कुछ मत छुपाओ.’’

इधरउधर देख कर धरा बोली, ‘‘रश्मि कोई और कहता तो कभी न मानती. पर मेरी आंखों ने धोखा नहीं खाया है. कल मैं ने सृजन को एक लड़की के साथ पिक्चर हाल में देखा. वह लड़की सृजन से बिलकुल सट कर बैठी थी. बस मेरी पिक्चर उन दोनों की गतिविधियां बन गईं. वह  दोनों बारबार सटसट जाते थे. आपस में बातबात पर खिलखिलाते थे. पिक्चर तो एक बहाना था. वहां तो उन की अपनी ही पिक्चर चल रही थी.’’

रश्मि ने धरा को रोकते हुए अधीरता से कहा, ‘‘भाभी आगे कुछ मत कहो. सुदर्शन रूपकारी सृजन के रूप पर अम्मां ऐसी मोहित हो गईं कि वे उस के कलंक को नहीं देख सकीं और ना ही आप में से कोई जान पाया कि वह केवल कंचन की काया वाला मन से कांच का टुकड़ा निकला.

“सृजन जैसा रूपवान लड़का हाथ से न निकल जाए के डर से अम्मां ने पापाभैया को उस के बारे में कहीं कोई पूछताछ भी नहीं करने दी. सृजन के रूप का जादू अम्मां के सिर पर चढ़ कर बोल रहा था.’’

थोड़ी देर बाद धरा चली गई. रश्मि अनमनी सी पलंग पर पड़ गई. रश्मि की आंख खुली, तो संध्या का सुरमई रंग रात्रि की कालिमा में बदल रहा था. आज सूर्य पश्चिम से कैसे निकल आया. रश्मि को आश्चर्य हुआ. सृजन आज 7 बजे ही घर आ गया था. बड़ी भाभी वृंदा l ने सृजन को औफिस से तुरंत घर आने के लिए फोन किया था. वृंदा सहित घर के सब सदस्य बरामदे में बैठे थे. सृजन भी सीधा वहीं पर आया. अम्मां वृंदा को दिलासा दे रही थीं.

सृजन को देखते ही भतीजी पल्लवी सुबकते हुए बोली, ‘‘चाचू हमें अभी की अभी नानू के पास कानपुर ले चलिए. अजस्र मामा का फोन आया था कि नानू सब को बुला रहे हैं. हैलेट  अस्पताल की इमर्जेंसी में नानू एडमिट हैं. मैं ने अपना और मम्मा का सूटकेस लगा लिया है.’’

बड़े भैया कंपनी की मीटिंग में यूएसए गए हुए थे. रश्मि से सूटकेस लगाने को कह सृजन फ्रैश होने के लिए बाथरूम में घुस गया. ड्राइवर ने कार निकाल ली थी. स्टेशन पहुंचते ही सृजन ने देखा कि लेट होने की वजह से कानपुर की ट्रेन छूटने में 10 मिनट थे. तत्काल में सीट मिल गई. उन के ट्रेन में बैठते ही गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ दिया. एकदो स्टेशन निकलने पर अपने औफिस को सूचित करने के लिए सृृजन ने अपना मोबाइल तलाशा, पर मोबाइल कहीं नहीं मिला. उस ने वृंदा से कहा, ‘‘भाभी जरा अपना मोबाइल दीजिए. मेरा मोबाइल या तो औफिस में छूट गया या घर पर हड़बड़ी में रह गया.’’

वृंदा के मोबाइल में सृजन के औफिस का नंबर था. उस ने औफिस में सूचना दे दी, ‘‘भाभी के साथ मैं कानपुर जा रहा हूं. चार दिन भी लग सकते हैं.’’

इधर रुक्मिणी ने देखा कि सृजन का मोबाइल उतारे हुए कपड़ों के नीचे पड़ा था. अगले दिन दोपहर में जब रश्मि आराम करने अपने कमरे में चली गई, तब रुक्मिणी ने सृजन का मोबाइल निकाला. उस में पांच लड़कियों के नंबर फीड थे. उन्होंने उन पांचों को मैसेज कर दिया, ‘‘आज शाम को 5 बजे मां ने घर पर मेरी बर्थडे की पार्टी रखी है. इसी पार्टी में मां मेरे जीवनसाथी के रूप में तुम्हारे नाम की घोषणा करेंगी. तुम मेरी पसंद हो. मैं ने मां को अपने और तुुम्हारे बारे में सबकुछ बता दिया है.’’

अभी 5 बजने में 2 घंटे शेष थे. रुक्मिणी ने रश्मि को बुलाया और ड्राइंगरूम में लगे सब फोटो दिखा कर वहां पर रश्मि और सृजन की शादी के फोटो लगवा दिए. उन की शादी की एलबम भी ड्राइंगरूम की बीच वाली मेज पर रख दी. रश्मि बारबार पूछ रही थी, ‘‘मां, आप ये सब क्यों कर रही हो?”

रुक्मिणी ने रश्मि से शादी वाली कैसेट भी लाने को कहा और बोलीं,’’ अपनी शादी की कैसेट टीवी पर लगा दे. भागदौड़ में मैं तुम्हारी शादी की सारी रस्में नहीं देख पाई थी. रतजगे के कारण मैं बरात में भी नहीं जा पाई थी. आज मैं और तुम घर में अकेले हैं. मेरी सहेलियों की बेटियां भी सृजन भैया की शादी की कैसेट देखने को व्यग्र हैं. वे लोग भी 5 बजे तक आ जाएंगी. समय अच्छा कट जाएगा.’’

5 बजते ही वे पांचों भी बुके ले कर आ गईं. उन की निगाहें सृजन को तलाश रही थीं. रुक्मिणी ने उन्हें पहले बरामदे में बैठाया. फिर रश्मि से कहा, ‘‘रेशू बिटिया, टीवी पर जरा वो वाली कैसेट लगवा देना.’’

रश्मि ने तुरंत अपनी शादी वाली कैसेट लगा दी और उन पांचों को ड्राइंगरूम में ले आई, ‘‘पार्टी जैसी तो कोई तैयारी लग नहीं रही है.’’ उन्होंने सोचा कि शायद दूसरे रूम में हो. फिर उन्होंने रश्मि से पूछा, ‘‘भाभीजी किस की शादी हमें दिखा रही हो?’’

रश्मि इठलाते हुए बोली, ‘‘अपनी और आप के भैया की शादी और किस की?’’

उन्होंने देखा कि रश्मि के साथ शादी की हर रस्म में सृजन उस के साथ में है. जैसेजैसे कैसेट आगे बढ़ रही थी, रश्मि और रुक्मिणी का उल्लास बढ़ता जा रहा था और उन पांचों के चेहरे फीके पड़ते जा रहे थे. अचानक रुक्मिणी बोली, ‘‘और कब तक न करती अपने सरजू की शादी? तीस का हो गया था, पर रश्मि को देखते ही उस पर लट्टू हो गया.’’ पांचों के मुंह से एकसाथ निकला, ‘‘तीस के…? बताते तो हैं अपने को… कह कर उन्होंने अपनी जीभ काट ली. बात संभालते हुए बोलीं, “लगते तो चौबीस के भी नहीं.’’

उन्होंने एलबम उठाई, तो हर फोटो में रश्मि और सृजन साथसाथ थे. ड्राइंगरूम की दीवारों पर निगाहें दौड़ाईं, तो ‘मुगलेआजम’ के शीशमहल के सेट की तरह सृजन के साथ रश्मि ही रश्मि नजर आ रही थी.

पांचों एकसाथ झटके से उठ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘‘आंटीजी, हम चलते हैं. जरूरी काम है,” कह कर वे खटाखट सीढ़ियां उतरती चली गईं. रुक्मिणी पीछे से उन्हें आवाज देती रह गईं, “बर्थड़े का केक तो खाती जाओ. चाय तो पीती जाओ.’’

रश्मि खुशी से रुक्मिणी के गले लग गई. रुक्मिणी ने रश्मि से कहा, ‘‘अब ये मोबाइल सरजू को नजर नहीं आना चाहिए. आजकल के लड़कों को किसी के मोबाइल नंबर याद नहीं रहते.’’

Story 2025 : प्रेम की दो मिसाल

Story 2025 :आरुषि ने अपनी जुड़वां बहन सुरुचि से हमदर्दी जताते कहा कि तुम इतने सालों से इस नरक में अपनी जिंदगी कैसे गुजार रही हो? पापा ने तुम्हारी सहायता नहीं की, तो इस गंद के खिलाफ तुम्हें ही आवाज उठानी चाहिए थी. जब तुम ने अपने लिए कुछ नहीं किया तो किसी और से उम्मीद कैसे कर सकती हो? और हां…

जिंदगी में हर कहानी के समानांतर एक कहानी चलती है, जिस का लेखक उस कहानी से जुड़ा मुख्य किरदार स्वयं होता है. उसी के व्यवहार और क्रियाकलाप के अनुसार कहानी अपने रंग बदलती है. इन दोनों कहानियों के इर्दगिर्द ढेरों किरदार अपनीअपनी भूमिका जीवंत करने में जुटे रहते हैं. उन किरदारों का व्यवहार और नजरिया समानांतर चल रहे उन दोनों कथानकों के मुख्य किरदार के प्रति मौके और मतलब के अनुसार बदलते रहते हैं.

अपने इर्दगिर्द चल रहे उन किरदारों के बदलते रवैए को आरुषि और सुरुचि मौसी की जिंदगी ने बखूबी समझा. ये दोनों मम्मी की सहेलियां थीं, जुड़वा बहनें. जमींदार परिवार की आनबान मानी जाती हैं बेटियां, क्योंकि शान माने जाने का अधिकार तो बेटों के ही पास रहा.

मम्मी अकसर उन की चर्चा किया करती थी, ‘आरुषि के परिवार में बेटियों की शादी में पैसे, सोनेचांदी के अलावा ढेरों गाय, बैल, भैंस, घोड़े देने की परंपरा सालों से चलती आ रही थी. उन के घर में बेटियों पर दिल खोल कर खर्च किया जाता था सिवा उन की पढ़ाई के.’

आरुषि की शादी तय हो चुकी थी, मेहमान आ चुके थे. सारा घर मेहमानों से भरा था. शादी के 2 दिनों पहले काफी देर होने पर जब आरुषि ने कमरे का दरवाजा नहीं खोला तो उस की छोटी चाची ने जा कर दरवाजा खटखटाया. दरवाजा अंदर से बंद नहीं था, इसलिए खुल गया. भीतर जाने पर पता चला कि आरुषि कमरे में नहीं है.

यह खबर पूरे घर में बिजली की भांति कौंध गई. जांचपड़ताल करने पर पता चला कि आरुषि के पिता रघुवीर चाचा के एक दोस्त कनक बाबू का बेटा हेमांग भी गायब है. वे लोग बोकारो से इसी शादी में शामिल होने आए थे. इसी गांव के थे और रघुवीर चाचा से उन की पुरानी दोस्ती थी सालों पहले उन का परिवार बोकारो में बस गया था. लेकिन संबंध अभी भी उसी तरह कायम था. इन लोगों का एकदो साल में आनाजाना और मिलना हो जाता था. जब भी वे लोग गांव आते थे तो रघुवीर चाचा के घर पर ही रुकते थे क्योंकि उन का अपना पुश्तैनी घर सालों से बंद था. इतने भरेपूरे परिवार में कभी किसी को यह शक नहीं हुआ कि आरुषि का हेमांग से कोई संबंध है.

अगर दोनों बच्चों ने यह बात अपने परिवार वालों को बताई होती तो शायद वे अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलने के लिए तैयार भी हो जाते लेकिन उस वक्त कोई मातापिता बच्चों को इतना हक देते कहां थे कि वे अपनी पसंद और शादी की बात उन से कर सकें.

आरुषि के पिता दबंग किस्म के इंसान थे. उन की सोच में घर की औरतें पैरों में पहनी जाने वाली खुबसूरत मोजरी के समान हुआ करती हैं. उन तक आरुषि के गायब होने की खबर पहुंचते ही वे सीधे आंगन में आए और बिना कुछ बोले चाची को कमरे में ले गए. दरवाजा बंद हुआ और अंदर से तब तक चीखनेचिल्लाने की आवाजें आती रहीं जब तक वे पीटते हुए थक नहीं गए.

पति के सामने हमेशा चुप रहने वाली चाची भी आज रोते हुए चिल्ला रही थीं, “मार डालो मुझे, कम से कम आज मेरी एक बेटी तो इस कैद से आजाद हो गई. 2 दिनों बाद इस कैद से आजाद हो कर तुम्हारी ही तरह किसी और भेड़िए के हाथों की कठपुतली बन कर रह जाती.” थोड़ी देर बाद दरवाजा खुला और चाचा दनदनाते हुए बाहर चले गए.

कुछ देर बाद आरुषि के छोटे चाचा ने आ कर घर के मालिक का फरमान सुनाया, “आरुषि की जगह अब सुरुचि की शादी की तैयारी शुरू करो.”

सुरुचि शादी के लिए तैयार थी या नहीं, किसी ने उस से पूछना जरूरी नहीं समझा. अकेले में चाची ने उसे जा कर समझाया, “बेटा, मेरी जिंदगी तो बीत गई. तुम्हारे सामने तुम्हारी पूरी जिंदगी पड़ी है. अभी बस तुम इस घर से चली जाओ. आगे जैसी तुम्हारी मरजी. अपने फैसले अगर खुद ले सको तो जरूर लेना. अपनी खुशियां हासिल करने का हक हर किसी को है. मेरी तरह घुटन में अपनी जिंदगी बरबाद मत करना. मेरा आशीर्वाद हर कदम पर तुम्हारे साथ रहेगा.”

धूमधाम से शादी संपन्न हो गई. सुरुचि उस घर की छोटी दुलहन और मधुर की पत्नी के रूप में ससुराल पहुंच गई.

विदाई के अगले ही दिन एक सुसाइड नोट लिख कर सुरुचि की मां ने फांसी लगा ली. ‘मैं अब तक अपने पति की ज्यादती बरदाश्त करती रही, बिना रीढ़ की हड्डी वाली अपनी जिंदगी व्यतीत करती रही पर अब और बरदाश्त नहीं होता. मेरी बेटियां अब इस घर से चली गई हैं. अब मैं अपनी वजूदहीन जिंदगी के बोझ को और बरदाश्त नहीं कर सकती. मैं अपनी मरजी से आत्महत्या कर रही हूं, इस के लिए किसी और को जिम्मेदार न माना जाए.’

बिना पुलिस को इस की खबर किए आननफानन चाची का अंतिम संस्कार कर दिया गया.

उधर आरुषि कनक बाबू के बेटे हेमांग के साथ बोकारो नहीं जा कर कहीं और चली गई. हेमांग के परिवार वालों ने पता लगाने की कोशिश की, लेकिन कुछ पता नहीं चलने पर वे लोग भी शांत बैठ गए.

करीब 10 वर्षों बाद हेमांग और आरुषि अचानक से बोकारो आए, साथ में अपने 9 साल के जुड़वां बच्चों हृदयंश और हिमांगी को ले कर. परिवार वालों ने हेमांग और आरुषि को कुछ यों अपनाया, जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो.

पता चला कि वे दोनों घर छोड़ने के बाद सीधे बड़ौदा गए जहां कुछ दिन हेमांग अपने एक दोस्त के घर पर ठहरा. उसी की मदद से एक प्राइवेट फर्म में नौकरी की शुरुआत की और कुछ दिन बाद उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली. 2 साल बाद हेमांग ने अपने अनुभव के आधार पर कैमिकल लाइन में अपनी नई शुरुआत की.

मेहनत और लगन के योगदान से काम अच्छा चला और दोनों को समय ने मनचाही खुशियां दीं. पूरी तरह स्थापित होने के बाद अब उन दोनों ने घरवालों से मिलने का यह प्रोग्राम बनाया था.

कहते हैं सफलता और पैसा गुनाहों पर भी परदा डालने में सफल होता है, फिर ये दोनों तो बस अपनी खुशियां तलाशने निकले थे. और साथ ले कर आए थे रिश्तेदारों के लिए ढ़ेर सारी उम्मीदें. इन की अच्छीखासी संपत्ति के माध्यम से उन की चाहत पूरी हो सकती थी.

हेमांग के परिवार वाले आरुषि, हृदयंश और हिमांगी को ले कर रघुवीर चाचा के घर पहुंचे. कुछ देर की की चुप्पी के बाद चाचा बोले, “अब तो जो होना था हो चुका, अब पहले की तरह सामान्य हो कर तुम लोग अपना जीवन जियो.”

आंसूभरी आंखों से बस इतना ही बोल पाई आरुषि, “सबकुछ पहले की तरह सामान्य कैसे, क्या मां अब वापस आ पाएंगी?” यह कहतेकहते उस की आवाज भर्रा गई. हेमांग ने उसे थाम लिया और आरुषि फूटफूट कर रो पड़ी.

सुरुचि भी अपने हिस्से की जिंदगी को सहेजने की चाहत में उसे काटे जा रही थी. ससुराल आने के कुछ ही दिनों बाद उसे पता चला कि उस का पति मधुर अपनी विधवा भाभी के प्रेम में बुरी तरह जकड़ा हुआ है. इसे प्रेम कहना भी प्रेम का अपमान होगा क्योंकि अगर प्रेम होता तो मधुर ने उन के संग शादी की हिम्मत दिखाई होती. किसी लड़की की जिंदगी बरबाद करने बरात ले कर न जाता.

शुरूशुरू में सुरुचि अपने अंदर की उम्मीदों को सिंचित करती रही. उसे लगता था कि वह अपने व्यवहार से मधुर को सही रास्ते पर ले आएगी. जब तक सासससुर जिंदा थे, मधुर भाभी के कमरे में मौका देख कर जाता था. थोड़ा लिहाज बाकी था उस में. मातापिता को सब जानकारी थी, पर हर मांबाप की तरह वे भी किसी और की बेटी को अपने बिगड़ैल बेटे को सुधारने का मोह संवरण नहीं कर पाए थे.

उन्होंने एक लड़की की जिंदगी नरक में धकेलने के गुनाह की भरपाई की चाहत में अपनी आधी संपत्ति अपनी उस बहू के नाम पर कर दी जिस ने कभी पति का सुख पाया ही नहीं.

मायके वाले तो शादी कर के अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री मान बैठे थे. एक बार मायके जाने पर सुरुचि के उतरे चेहरे को देख कर उस की चाची ने उस के दांपत्य जीवन की खोजबीन की थी. जब सुरुचि ने उन्हें हकीकत बताई तो उन्होंने एक संस्कारी महिला की तरह नसीहत दे डाली कि लड़की की डोली ससुराल जाती है और अर्थी ही वहां से बाहर निकलती है. इस के बाद नियति मान कर सुरुचि अपनी जिंदगी काटती जा रही थी.

मातापिता के निधन के बाद मधुर ने अपनी बचीखुची लोकलाज भी बेच खाई. अब वह दिन में भी भाभी वंदना के कमरे में जाने लगा था. सुरुचि की हैसियत अब उस घर की बस एक नौकरानी के समान रह गई थी.

अपने मायके वालों से मिलने के बाद आरुषि अपनी जुड़वां छोटी बहन से मिलने उस की ससुराल आई. जिस वक्त वह वहां पहुंची, मधुर घर पर नहीं था.

सुरुचि के उतरे चेहरे को देख कर जब उस ने उस से पूछा तो सुरुचि ने उसे सारी आपबीती बयां कर दी.

“तुम इतने सालों से इस नरक में अपनी जिंदगी कैसे गुजार रही हो? पापा ने तुम्हारी सहायता नहीं की, फिर भी इस गंद के खिलाफ तुम्हें आवाज उठानी चाहिए थी. जब तुम ने अपने लिए कुछ नहीं किया तो किसी और से उम्मीद कैसे कर सकती हो? चलो मेरे साथ, जो होगा देखा जाएगा और हां, यहां जो जमीन तुम्हारे नाम की गई है, उसे किसी को सौंपने का ख़याल भी मत लाना. उस पर तुम्हारे सासससुर ने बस तुम्हारा हक सौंपा है.”

आरुषि की बातों से हेमांग के चेहरे पर सहमति के भाव परिलक्षित हो रहे थे.

मधुर बाहर से आ कर सीधे अपनी भाभी वंदना के कमरे में गया. वहां उसे पता चला कि सुरुचि की बहन आई हुई है.

आरुषि ने सुरुचि से उस के बैग संभालने को कह कर उस से अपने साथ चलने को कहा.

वे लोग निकलने ही वाले थे कि सामने से मधुर आता हुआ दिखा, बेशर्म की तरह दांत निपोरते हुए बोला, “जितना ज्यादा दिन हो सके, अपनी इस बहन के साथ ही रहना. कुछ दिन मैं भी अपनी जिंदगी सुकून से जी सकूंगा. और हां, साली साहिबा, मेरा समय अच्छा था कि आप शादी के पहले ही साढ़ू जी के साथ भाग गईं. थोड़ीबहुत जिंदगी जो मैं जी रहा हूं, उस का मजा भी किरकिरा हो जाता क्योंकि आप की खुबसूरती देख मैं खुद को 2 नावों में सवार होने से नहीं रोक पाता और मैं एकसाथ 2 नावों पर पैर रख कर गिरने का खतरा मोल नहीं लेना चाहता.”

हेमांग गुस्से में मुट्ठी भींच कर मधुर की तरफ बढ़ा. मगर आरुषि ने उस के हाथ पकड़ लिए और जातेजाते यह कह कर गई, “सुरुचि अब तुम्हें जल्दी ही पूरी तरह आजाद कर देगी, जा कर तलाक के कागजात भिजवाती हूं. बस, उस संपत्ति की उम्मीद मत करना जो तुम्हारे पेरैंट्स ने सुरुचि के नाम किया है.”

समय अपनी निर्बाध गति से बढ़ता रहा. सुरुचि और मधुर का तलाक हो गया. कुछ वर्षों बाद ही हेमांग का एक विधुर दोस्त धवल ने सुरुचि के सामने शादी का प्रस्ताव रखा. धवल एक सुलझा हुआ इंसान था. सुरुचि ने इस शादी के लिए हामी भर दी और अपनी बची जिंदगी के लिए खुशियों के कुछ कतरे सहेजने में जुट गई. 2 साल बाद बेटी आन्या ने उन की जिंदगी में आ कर उसे और भी खुबसूरत बना दिया.

समय बीतता रहा. बच्चे बड़े हो गए. हृदयंश और हिमांगी ने हेमांग के बिजनैस में अपना सहयोग देते हुए उसे और बढ़ाया. दोनों ने मातापिता का आशीर्वाद ले कर अपनी पसंद की जीवनसाथी चुना और कुछ समय बाद अपनाअपना घर ले कर एक ही शहर में रिश्ते की मिठास को सहेजे खुशहाल जिंदगी का आनंद लेने लगे.

वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता, करवट लेना उस का स्वभाव है. 2020 में पूरे विश्व में कोरोना का प्रकोप फैला. लौकडाउन लगा. तमाम बंदिशों के बीच पता नहीं कैसे हेमांग, आरुषि और उन के 2 नौकर कोविड पौजिटिव पाए गए.

कोरेंटाइन और फिर हौस्पिटल के तमाम इंतजामों के बावजूद हेमांग को बचाया नहीं जा सका. दोनों बच्चों और सुरुचि के परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. उस की जिंदगी को सहेजने वाला हेमांगरूपी एक खंभा धराशायी हो चुका था और दूसरा खंभा जिंदगी और मौत के बीच जंग लड़ रहा था. आरुषि की हालत के मद्देनजर डाक्टर ने उसे हेमांग के बारे में बताने को मना किया था. बारबार वह हेमांग की हालत के बारे में पूछती, “कैसे हैं हेमांग?”

“ठीक हैं, सुधार हो रहा है,” कह कर उस की बात को टाल दिया जाता. ऐसा कहते वक्त परिवार का वह सदस्य किस मानसिक जद्दोजहेद को झेल रहा होता, इस का सही से शाब्दिक बयान कर पाना किसी के वश का नहीं.

आरुषि कहती, “हम दोनों को एक ही कमरे में क्यों नहीं रखवा देते?”

जवाब मिलता, “डाक्टर ने कहा है कि 2 बीमार एक कमरे में नहीं रह सकते.”

अपनी जंग में आरुषि भी वैंटिलेटर पर आ गई. 5 दिन वह वैंटिलेटर पर रही. इन्फैक्शन लिवर तक पहुंच गया था. आखिरकार एक और जिंदगी हार गई, मौत जीत गई.

हेमांग को गुजरे 11 दिन हो चुके थे. अगले दिन उन की बारहवीं थी. देररात आरुषि की तबीयत ज्यादा बिगड़ने लगी और सुबह 4 बजे उस ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया, बिना यह जाने कि अब उस का सुहाग भी इस दुनिया में नहीं है. आरुषि के चले जाने से हेमांग की बारहवीं भी उस दिन नहीं हो पाई. उन दोनों के बारहवीं की रस्म आरुषि के जाने के बारह दिनों बाद एकसाथ ही की गई.

कहते हैं, रिश्ता ऊपर से बन कर आता है पर इन दोनों ने अपना रिश्ता खुद बनाया, सामाजिक नियमों और परंपराओं के परे जा कर अपनी हिम्मत और कर्मों से निर्धारित किया. इस दुनिया को अलविदा कहते हुए अपने पीछे छोड़ गए अपने बच्चों के लिए गहरा दर्द और सामाजिक उसूलों व संस्कारों की दुहाई देने वाले लोगों के लिए ये वाक्य- ‘हेमांग और आरुषि एकदूसरे के लिए ही बने थे. हेमांग के बिना आरुषि जिंदा नहीं रह पाती. उस के जाने की खबर बरदाश्त नहीं कर पाती. इसलिए हेमांग अपने साथ आरुषि को भी ले गए.’

साथसाथ जिंदगी जीने के बाद इन दोनों ने अपनी मौत भी ऊपर वाले से एकसाथ ही मांग ली थी. जो लोग इन के घर छोड़ कर जाने से नाराज थे उन लोगों के लिए इन का प्रेम अब एक मिसाल बन चुका था, जो जिंदगी के साथ भी और जिंदगी के बाद भी एकदूसरे के ही बन कर रहेंगे. यह प्रेम लोगों के लिए एक शाब्दिक मिसाल बन चुका था, जो कुछ समय बाद उन की सोच में सामान्य हो जाएगा. लेकिन इन के अपने बच्चों और सुरुचि के परिवार पर इन के जाने का सचमुच फर्क पड़ा था और बहुत फर्क पड़ा था, जिस से उबरने में उन्हें काफी समय लगेगा. समानांतर चलती दोनों कहानियां अपनाअपना समय ले कर आई थीं.

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