अगले दिन तक नेहा और जमाई बाबू भी पहुंच गए. घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. उन के आने से समीर और शालिनी को भी काफी राहत मिल गई थी. कुछ समय के लिए दोनों दफ्तर हो आते. नेहा मां के पास बैठती तो स्वाति अस्पताल हो आती थी. इन दिनों उस की इन्टर्नशिप चल रही थी. अस्पताल जाना उस के लिए निहायत जरूरी था. शाम को सभी उन के कमरे में एकत्रित होते. कभी ताश, कभी किस्सेकहानियों के दौर चलते तो घंटों का समय मिनटों में बदल जाता. वे मंदमंद मुसकराती अपनी हरीभरी बगिया का आनंद उठाती रहतीं. सिद्धेश्वरीजी एक दिन चाय पी कर लेटीं तो उन का ध्यान सामने खिड़की पर बैठे कबूतर की तरफ चला गया. खिड़की के जाली के किवाड़ बंद थे, जबकि शीशे के खुले थे. मुश्किल से 5 इंच की जगह रही होगी जिस पर वह पक्षी बड़े आराम से बैठा था. तभी नेहा और शालिनी कमरे में आ गईं, बोलीं, ‘‘मां, इस कबूतर को यहां से उड़ाना होगा. यहां बैठा रहा तो गंदगी फैलाएगा.’’
‘‘न, न. इसे उड़ाने की कोशिश भी मत करना. अब तो चैत का महीना आने वाला है. पक्षी जगह ढूंढ़ कर घोंसला बनाते हैं.’’
उन की बात सच निकली. देखा, एक दूसरा कबूतर न जाने कहां से तिनके, घास वगैरह ला कर इकट्ठे करने लगा. वह नर व मादा का जोड़ा था. मादा गर्भवती थी. नर ही उस के लिए दाना लाता था और चोंच से उसे खिलाता था. सिद्धेश्वरीजी मंत्रमुग्ध हो कर उन्हें देखतीं. पक्षियों को नीड़ बनाते देख उन्हें अपनी गृहस्थी जोड़ना याद आ जाता. उन्होंने भी अपनी गृहस्थी इसी तरह बनाई थी. रमानंदजी कमा कर लाते, वे बड़ी ही समझदारी से उन पैसों को खर्चतीं. 2 देवर, 2 ननदें ब्याहीं. मायके से जो भी मिला, वह ननदों के ब्याह में चढ़ गया. लोहे के 2 बड़े संदूकों को ले कर अपने नीड़ का निर्माण किया. बच्चे पढ़ाए. उन के ब्याह करवाए. जन्मदिन, मुंडन-क्या नहीं निभाया. खैर, अब तो सब निबट गया. बच्चे अपनेअपने घर में सुख से रह रहे हैं. उन्हें भी मानसम्मान देते हैं. हां, एक कसक जरूर रह गई. अपने मकान की. वही नहीं बन पाया. बड़ा चाव था उन्हें अपने मकान का. मनपसंद रसोई, बड़ा सा लौन, पीछे आंगन, तुलसीचौरा, सूरज की धूप की रोशनी, खिड़की से छन कर आती चांदनी और खिड़की के नीचे बनी क्यारी व उस क्यारी में लगी मधुमालती की बेल.
वे बैठेबैठे बोर होतीं. करने को कुछ था नहीं. एक दिन उन्होंने कबूतरी की आवाज देर तक सुनी. वह एक ही जगह बैठी रहती. अनिरुद्ध उन के कमरे में आया तो अतिउत्साहित, अति उत्तेजित स्वर में बोला, ‘‘बड़ी मां, कबूतरी ने घोंसले में अंडा दिया है.’’
‘‘इसे छूना मत. कबूतरी अंडे को तब तक सहेजती रहेगी जब तक उस में से बच्चे बाहर नहीं आ जाते.’’
अनिरुद्ध पीछे हट गया था. उन्हें इस परिवार से लगाव सा हो गया था. जैसे मां अपने बच्चे के प्रति हर समय आशंकित सी रहती है कि कहीं उस के बच्चे को चोट न लग जाए, वैसे ही उन्हें भी हर पल लगता कि इन कबूतरों के उठनेबैठने से यह अंडा मात्र 4 इंच की जगह से नीचे न गिर जाए. एक दिन उस अंडे से एक बच्चा बाहर आया. सिर्फ उस की चोंच, आंखें और पंजे दिखाई दे रहे थे. अब कबूतर का काम और बढ़ गया था. वह उड़ता हुआ जाता और दाना ले आता. कबूतरी, एकएक दाना कर के उस बच्चे को खिलाती जाती. सिद्धेश्वरीजी ने अनिरुद्ध से कह कर उन कबूतरों के लिए वहीं खिड़की पर, 2 सकोरों में दाने और पानी की व्यवस्था करा दी थी. अब कबूतर का काम थोड़ा आसान हो गया था.
सिद्धेश्वरीजी अनजाने ही उस कबूतर जोड़े की तुलना खुद से करने लगी थीं. ये पक्षी भी हम इंसानों की तरह ही अपने बच्चों के प्रति समर्पित होते हैं. फर्क यह है कि हमारे सपने हमारे बच्चों के जन्म के साथ ही पंख पसारने लगते हैं. हमारी अपेक्षाएं और उम्मीदें भी हमारे स्वार्थीमन में छिपी रहती हैं. इंसान का बच्चा जब पहला शब्द मुंह से निकालता है तो हर रिश्ता यह उम्मीद करता है कि उस प्रथम उच्चारण में वह हो. जैसे, मां चाहती है बच्चा ‘मां’ बोले, पापा चाहते हैं बच्चा ‘पापा’ बोले, बूआ चाहती हैं ‘बूआ’ और बाबा चाहते हैं कि उन के कुलदीपक की जबान पर सब से पहले ‘बाबा’ शब्द ही आए. हम उस के हर कदम में अपना बचपन ढूंढ़ते हैं. अपनी पसंद के स्कूल में उस का ऐडमिशन कराते हैं.
यह हमारा प्रेम तो है पर कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ भी है. उस का भविष्य बनाने के लिए किसी अच्छे व्यावसायिक संस्थान में उसे पढ़ाते हैं. उस की तरक्की से खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं. समाज में हमारी प्रतिष्ठा बढ़ती है. हम अपनी मरजी से उस का विवाह करवाना चाहते हैं. यदि बच्चे अपना जीवनसाथी स्वयं चुनते हैं तो हमारा उन से मनमुटाव शुरू हो जाता है, हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा को बट्टा जो लग जाता है. हमारी संवेदनाओं को ठेस पहुंचती है. बच्चे बड़े हो जाते हैं, हमारी अपेक्षाएं वही रहती हैं कि वे हमारे बुढ़ापे का सहारा बनें. हमारे उत्तरदायित्व पूरे करें. हमारे प्रेम, हमारी कर्तव्यपरायणता के मूल में कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ निहित है. कुछ दिन बाद उस बच्चे के छोटे पंख दिखाई देने लगे. फिर पंख थोड़े और बड़े हुए. अब उस ने स्वयं दाना चुगना शुरू कर दिया था. फिर एक दिन उस के मातापिता उसे साथ ले कर उड़ने लगे. तीनों विहंग छोटा सा चक्कर लगाते और फिर लौट आते वापस अपने नीड़ में.
धीरेधीरे सिद्धेश्वरीजी की तबीयत सुधरने लगी. अब वे घर में चलफिर लेती थीं. अपना काम भी स्वयं कर लेती थीं. रमानंदजी को नाश्ता भी बना देती थीं. घर के कामों में शालिनी की सहायता भी कर देती थीं. अब यह घर उन्हें अपना सा लगने लगा था. दिन स्वाति उन्हें अस्पताल ले गई. मोच तो ठीक हो गई थी. फिजियोथेरैपी करवाने के लिए डाक्टर ने कहा था, सो प्रतिदिन स्वाति ही उन्हें ले जाती. वापसी में समीर अपनी गाड़ी भेज देता. अब ये सब भला लगता था उन्हें.
एक दिन उन्होंने देखा, कबूतर उड़ गया था. वह जगह खाली थी. अब वह नीड़ नहीं मात्र तिनकों का ढेर था. क्योंकि नीड़ तो तब था जब उस में रहने वाले थे. मन में अनेक सवाल उठने लगे, क्या वह बच्चा हमेशा उन के साथ रहेगा? क्या वह बड़ा हो कर मातापिता के लिए दाना लाएगा? उन की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाएगा? इसी बीच उन के मस्तिष्क में एक ऋषि और राजा संवाद की कुछ पंक्तियां याद आ गई थीं. ऋषि ने राजा से कहा था, ‘‘हे राजा, हम मनुष्य अपने बच्चों का भरणपोषण करते हैं, परंतु योग माया द्वारा भ्रमित होने के कारण, उन बच्चों से अपेक्षाएं रखते हैं. पक्षी भी अपने बच्चों को पालते हैं पर वे कोई अपेक्षा नहीं रखते क्योंकि वे बुद्धिजीवी नहीं हैं और न ही माया में बंधे हैं.’’
उन्होंने खिड़की खोल कर वहां सफाई की और घोंसला हटा दिया. धीरेधीरे तेज हवाएं चलने लगीं. उन्होंने खिड़की बंद कर दी. कुछ दिन बाद कबूतर का एक जोड़ा फिर से वहां आ गया. अपना नीड़ बनाने. वे मन ही मन सुकून महसूस कर रही थीं. अब फिर घोंसला बनेगा, कबूतरी अंडे देगी, उन्हें सेना शुरू करेगी, अंडे में से चूजा निकलेगा, फिर पर निकलेंगे और फिर कबूतर उड़ जाएगा और कपोत का जोड़ा टुकुरटुकुर उस नीड़ को निहारता रह जाएगा, उदास मन से. ठंड बढ़ने के साथसाथ मोच वाले स्थान पर हलकी सी टीस एक बार फिर से उभरने लगी थी. परिवार में उन की हालत सब के लिए चिंता का विषय बनी हुई थी. रमानंदजी आयुर्वेद के तेल से उन के टखनों की मालिश कर रहे थे. स्वाति ने एक अन्य डाक्टर से उन के लिए अपौइंटमैंट ले लिया था. सिद्धेश्वरीजी ने उसे रोकने की कोशिश की, तो वह उन्हें चिढ़ाते हुए बोली, ‘‘बड़ी मां, टांग का दर्द ठीक होगा तभी तो गांव जाएंगी न.’’
स्वाति समेत सभी खिलखिला कर हंसने लगे थे. नौकर गरम पानी की थैली दे गया तो सिद्धेश्वरीजी पलंग पर लेट कर सोचने लगीं, ‘सही कहते हैं बड़ेबुजुर्ग, घर चारदीवारी से नहीं बनता, उस में रहने वाले लोगों से बनता है.’ घोंसला अवश्य उन का अस्थायी रहा पर वे तो भरीपूरी हैं. बेटेबहू, पोतेपोती से खुश, संतप्त भाव से एक नजर उन्होंने रमानंदजी की दुर्बल काया पर डाली, फिर दुलार से हाथ फेरती हुई बुदबुदाईं, ‘उन का जीवनसाथी तो उन के साथ है ही, उन के बच्चे भी उन के साथ हैं. अब उन्हें किसी नीड़ की चाह नहीं. जहां हैं सुख से हैं, संतुष्ट और संतप्त.’ उन्होंने कामवाली बाई से कह कर बक्से में से सामान निकलवाया और अलमारी में रखवा दिया. और फिर मीठी नींद के आगोश में समा गईं.