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सुशांत सिंह राजपूत की मौत से शॉक्ड हुए करण जौहर, खुद को बताया दोषी

बॉलीवुड के दिग्गज कलाकार सुशांत सिंह राजपूत ने खुदखुशी कर ली है. इससे पूरा बॉलीवुड सदमें में हैं. उनका पार्थिव शरीर मुंबई के अस्पताल में पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया है. खबर के अनुसार बताया जा रहा है कि सुशांत पिछले 6 महीने से डिप्रेशन के शिकार थें.

हालांकि सुशांत के परिवार वालों ने अभी तक इस पर कोई जानकारी नहीं दी है. उनका कहना यह है कि सुशांत ऐसा कर ही नहीं सकता था. वह बेहद ही सुलझा हुआ समझदार लड़का था.

इसी बीच फिल्म निर्माता और निर्देशक करण जौहर मे अपनी बात कहते हुए खुद को दोषी ठहराया है. करण ने सुशांत की फोटो शेयर करते हुए लिखा है कि मैं तुम्हारा दोषी हूं जो तुम्हें किसी चीज की जरूरत थी और मैं तुम्हारे साथ नहीं था और तुमसे जानने की भी कोशिश नहीं कि.

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सुशांत के अचानक जाने से मुझे बहुत ज्यादा झटका लगा है. तुम्हारी प्यारी मुस्कान हमेशा याद रहेगी. करण जौहर से पहले बॉलीवुड के कई दिग्गज कलाकार ने जैसे शाहरुख खान, अजय देवगन, सलमान खान और भी कई हस्तियां ने उनके जाने पर दुख जताया है.

खबर के अनुसार सुशांत सिंह राजपूत का अंतिम संस्कार पटना में सोमवार को होगा. पूरा परिवार अभी भी सदमें में हैं. समझ नहीं आ रहा है कि कैसे खुद को संभाले.

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कोरोना वायरस के चलते सुशांत के अंतिम संस्कार में बहुत कम लोग शामिल होगे. उनके जानने वाले लोगों को विश्वास नहीं हो रहा है कि आखिर सुशांत ने ऐसा कदम उठाया क्यों. अगर कोई दिक्कत होती तो सभी लोगों से अपनी परेशानी शेयर करता.

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सुशांत खुद तो इस दुनिया को छोड़कर चले गए लेकिन अपने पीछे कई सारी खूबसूरत यादें छोड़कर गए हैं. वह कई सफल फिल्मों में भी काम कर चुके हैं. हाल ही में वह फिल्म छिछोरे में नजर आएं थे. जिसमें दर्शकों ने खूब पसंद किया था.

नीड़: हरिया माली की क्या गलती थी? भाग 2

धीरेधीरे स्वाति ने उन से बात करना कम कर दिया. वह उन से दूर ही छिटकी रहती. वे कुछ कहतीं तो उन की बातें एक कान से सुनती, दूसरे कान से निकाल देती. पोती के बाद उन का विरोध अपनी बहू से भी था. उसे सीधेसीधे टोकने के बजाय रमानंदजी से कहतीं, ‘बहुत सिर चढ़ा रखा है बहू ने स्वाति को. मुझे तो डर है, कहीं उस की वजह से इन दोनों की नाक न कट जाए.’ रमानंदजी चुपचाप पीतल के शोपीस चमकाते रहते. सिद्धेश्वरीजी का भाषण निरंतर जारी रहता, ‘बहू खुद भी तो सारा दिन घर से बाहर रहती है. तभी तो, न घर संभल पा रहा है न बच्चे. कहीं नौकरों के भरोसे भी गृहस्थी चलती है?’

‘बहू की नौकरी ही ऐसी है. दिन में 2 घंटे उसे घर से बाहर निकलना ही पड़ता है. अब काम चाहे 2 घंटे का हो या 4 घंटे का, आवाजाही में भी समय निकलता है.’

‘जरूरत क्या है नौकरी करने की? समीर अच्छा कमाता ही है.’

‘अब इस उम्र में बहू मनकों की माला तो फेरने से रही. पढ़ीलिखी है. अपनी प्रतिभा सिद्ध करने का अवसर मिलता है तो क्यों न करे. अच्छा पैसा कमाती है तो समीर को भी सहारा मिलता है. यह तो हमारे लिए गौरव की बात है.’ इधर, रमानंदजी ने अपनेआप को सब के अनुसार ढाल लिया था. मजे से पोतापोती के साथ बैठ कर कार्टून फिल्में देखते, उन के लिए पिज्जा तैयार कर देते. बच्चों के साथ बैठ कर पौप म्यूजिक सुनते. पासपड़ोस के लोगों से भी उन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. जब भी मन करता, उन के साथ ताश या शतरंज की बाजी खेल लेते थे.

बहू के साथ भी उन की खूब पटती थी. रमानंदजी के आने से वह पूरी तरह निश्चिंत हो गई थी. अनिरुद्ध को नियमित रूप से भौतिकी और रसायनशास्त्र रमानंदजी ही पढ़ाते थे. उस की प्रोजैक्ट रिपोर्ट भी उन्होंने ही तैयार करवाई थी. बच्चों को छोड़ कर शालिनी पति के साथ एकाध दिन दौरे पर भी चली जाती थी. रमानंदजी को तो कोई असुविधा नहीं होती थी पर सिद्धेश्वरीजी जलभुन जाती थीं. झल्ला कर कहतीं, ‘बहू को आप ने बहुत छूट दे रखी है.’

रमानंदजी चुप रहते, तो वे और चिढ़ जातीं, ‘अपने दिन याद हैं? अम्मा जब गांव से आती थीं तो हम दोनों का घूमनाफिरना तो दूर, साड़ी का पल्ला भी जरा सा सिर से सरकता तो वे रूठ जाती थीं.’

‘अपने दिन नहीं भूला हूं, तभी तो बेटेबहू का मन समझता हूं.’

‘क्या समझते हो?’

‘यही कि अभी इन के घूमनेफिरने के दिन हैं. घूम लें. और फिर बहू हमारे लिए पूरी व्यवस्था कर के जाती है. फिर क्या परेशानी है?’

‘परेशानी तुम्हें नहीं, मुझे है. बुढ़ापे में घर संभालना पड़ता है.’

‘जरा सोचो, बहू तुम्हारे पर विश्वास करती है, इसीलिए तो तुम्हारे भरोसे घर छोड़ कर जाती है.’

सिद्धेश्वरीजी को कोई जवाब नहीं सूझता था. उन्हें लगता, पति समेत सभी उन के खिलाफ हैं.

दरअसल, वे दिल की इतनी बुरी नहीं हैं. बस, अपने वर्चस्व को हमेशा बरकरार रखने की, अपना महत्त्व जतलाने की आदत से मजबूर थीं. उन की मरजी के बिना घर का पत्ता तक नहीं हिलता था. यहां तक कि रमानंदजी ने भी कभी उन से तर्क नहीं किया था. बेटे के यहां आ कर उन्होंने देखा, सभी अपनीअपनी दुनिया में मगन हैं, तो उन्हें थोड़ी सी कोफ्त हुई. उन्हें ऐसा महसूस होने लगा जैसे वे अब एक अस्तित्वविहीन सा जीवन जी रही हों. पिछले हफ्ते से एक और बात ने उन्हें परेशान कर रखा था. स्वाति को आजकल मार्शल आर्ट सीखने की धुन सवार हो गई थी. उन्होंने रोकने की कोशिश की तो वह उग्र स्वर में बोली, ‘बड़ी मां, आज के जमाने में अपनी सुरक्षा के लिए ये सब जरूरी है. सभी सीख रहे हैं.’

पोती की ढिठाई देख कर सिद्धेश्वरीजी सातवें आसमान से सीधी धरातल पर आ गिरीं. उस से भी अधिक गुस्सा आया अपने बहूबेटे पर, जो मूकदर्शक बने सारा तमाशा देख रहे थे. बेटी को एक बार टोका तक नहीं. और अब, इस हरिया माली की, गुलाब का फूल न तोड़ने की हिदायत ने आग में घी डालने जैसा काम किया था. एक बात का गुस्सा हमेशा दूसरी बात पर ही उतरता है, इसीलिए उन्होंने घर छोड़ कर जाने की घोषणा कर दी थी.

‘‘मां, हम बाहर जा रहे हैं. कुछ मंगाना तो नहीं है?’’

सिद्धेश्वरीजी मुंह फुला कर बोलीं, ‘‘इन्हें क्या मंगाना होगा? इन के लिए पान का जुगाड़ तो माली, नौकर यहां तक कि ड्राइवर भी कर देते हैं. हमें ही साबुन, क्रीम और तेल मंगाना था. पर कहें किस से? समीर भी आजकल दौरे पर रहता है. पिछले महीने जब आया था तो सब ले कर दे गया था. जिस ब्रैंड की क्रीम, पाउडर हम इस्तेमाल करते हैं वही ला देता है.’’

‘‘मां, हम आप की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखते हैं. फिर भी कुछ खास चाहिए तो बता क्यों नहीं देतीं? समीर से कहने की क्या जरूरत है?’’

बहू की आवाज में नाराजगी का पुट था. पैर पटकती वह घर से बाहर निकली, तो रमानंदजी का सारा आक्रोश, सारी झल्लाहट पत्नी पर उतरी, ‘‘सुन लिया जवाब. मिल गई संतुष्टि. कितनी बार कहा है, जहां रहो वहीं की बन कर रहो.  पिछली बार जब नेहा के पास मुंबई गई थीं तब भी कम तमाशे नहीं किए थे तुम ने. बेचारी नेहा, तुम्हारे और जमाई बाबू के बीच घुन की तरह पिस कर रह गई थी. हमेशा कोई न कोई ऐसा कांड जरूर करती हो कि वातावरण में सड़ी मच्छी सी गंध आने लगती है.’’ पछता तो सिद्धेश्वरीजी खुद भी रही थीं, सोच रही थीं, बहू के साथ बाजार जा कर कुछ खरीद लाएंगी. अगले हफ्ते मेरठ में उन के भतीजे का ब्याह है. कुछ ब्लाउज सिलवाने थे. जातीं तो बिंदी, चूडि़यां और पर्स भी ले आतीं. बहू बाजार घुमाने की शौकीन है. हमेशा उन्हें साथ ले जाती है. वापसी में गंगू चाट वाले के गोलगप्पे और चाटपापड़ी भी जरूर खिलाती है.

रमानंदजी को तो ऐसा कोई शौक है नहीं. लेकिन अब तो सब उलटापुलटा हो गया. क्यों उन्होंने बहू का मूड उखाड़ दिया? न जाने किस घड़ी में उन की बुद्धि भ्रष्ट हो गई और घर छोड़ने की बात कह दी? सब से बड़ी बात, इस घर से निकल कर जाएंगी कहां? लखनऊ तो कब का छोड़ चुकीं. आज तक गांव में एक हफ्ते से ज्यादा कभी नहीं रहीं. फिर, पूरा जीवन कैसे काटेंगी? वह भी इस बुढ़ापे में, जब शरीर भी साथ नहीं देता है. शुरू से ही नौकरों से काम करवाने की आदी रही हैं. बेटेबहू के घर आ कर तो और भी हड्डियों में जंग लग गया है.

सभी चुपचाप थे. शालिनी रसोई में बाई के साथ मिल कर रात के खाने की तैयारी कर रही थी. और स्वाति, जिस की वजह से यह सारा झमेला हुआ, मजे से लैपटौप पर काम कर रही थी. सिद्धेश्वरीजी पति की तरफ मुखातिब हुईं और अपने गुस्से को जज्ब करते हुए बोलीं, ‘‘चलो, तुम भी सामान बांध लो.’’

‘‘किसलिए?’’ रमानंदजी सहज भाव से बोले. उन की नजरें अखबार की सुर्खियों पर अटकी थीं.

‘‘हम, आज शाम की गाड़ी से ही चले जाएंगे.’’

रमानंदजी ने पेपर मोड़ कर एक तरफ रखा और बोले, ‘‘तुम जा रही हो, मैं थोड़े ही जा रहा हूं.’’

‘‘मतलब, तुम नहीं जाओगे?’’

‘‘नहीं,’’ एकदम साफ और दोटूक स्वर में रमानंदजी ने कहा, तो सिद्धेश्वरीजी बुरी तरह चौंक गईं. उन्हें पति से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी. मन ही मन उन का आत्मबल गिरने लगा. गांव जा कर, बंद घर को खोलना, साफसफाई करना, चूल्हा सुलगाना, राशन भरना उन्हें चांद पर जाने और एवरेस्ट पर चढ़ने से अधिक कठिन और जोखिम भरा लग रहा था. पर क्या करतीं, बात तो मुंह से फिसल ही गई थी. पति के हृदयपरिवर्तन का उन्हें जरा भी आभास होता तो यों क्षणिक आवेश में घर छोड़ने का निर्णय कभी न लेतीं. हिम्मत कर के वे उठीं और अलमारी में से अपने कपड़े निकाल कर बैग में रख लिए. ड्राइवर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया. कार स्टार्ट होने ही वाली थी कि स्वाति बाहर निकल आई. ड्राइवर से उतरने को कह कर वह स्वयं ड्राइविंग सीट पर बैठ गई और सधे हाथों से स्टीयरिंग थाम कर कार स्टार्ट कर दी. सिद्धेश्वरीजी एक बार फिर जलभुन गईं. औरतों का ड्राइविंग करना उन्हें कदापि पसंद नहीं था. बेटा या पोता, कार ड्राइव करे तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी. वे यह मान कर चलती थीं कि ‘लड़कियों को लड़कियों की तरह ही रहना चाहिए. यही उन्हें शोभा देता है.’

इसी उधेड़बुन में रास्ता कट गया. कार स्टेशन पर आ कर रुकी तो सिद्धेश्वरीजी उतर गईं. तुरतफुरत अपना बैग उठाया और सड़क पार करने लगीं. उतावलेपन में पोती को साथ लेने का धैर्य भी उन में नहीं रहा. तभी अचानक एक कार…पीछे से किसी ने उन का हाथ पकड़ कर खींच लिया. और वे एकदम से दूर जा गिरीं. फिर उन्हीं हाथों ने सिद्धेश्वरीजी को सहारा दे कर कार में बिठाया. ऐसा लगा जैसे मृत्यु उन से ठीक सूत भर के फासले से छू कर निकल गई हो. यह सब कुछ दो पल में ही हो गया था. उन का हाथ थाम कर खड़ा करने और कार में बिठाने वाले हाथ स्वाति के थे. नीम बेहोशी की हालत से उबरीं तो देखा, वे अस्पताल के बिस्तर पर थीं. रमानंदजी उन के सिरहाने बैठे थे. समीर और शालिनी डाक्टरों से विचारविमर्श कर रहे थे. और स्वाति, दारोगा को रिपोर्ट लिखवा रही थी. साथ ही वह इनोवा कार वाले लड़के को बुरी तरह दुत्कारती भी जा रही थी. ‘‘दारोगा साहब, इस सिरफिरे बिगड़ैल लड़के को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाइएगा. कुछ दिन हवालात में रहेगा तो एहसास होगा कि कार सड़क पर चलाने के लिए होती है, किसी की जान लेने के लिए नहीं. अगर मेरी बड़ी मां को कुछ हो जाता तो…?’’

सिद्धेश्वरीजी के पैरों में मोच आई थी. प्राथमिक चिकित्सा के बाद उन्हें घर जाने की अनुमति मिल गई थी. उन के घर पहुंचने से पहले ही बहू और बेटे ने, उन की सुविधानुसार कमरे की व्यवस्था कर दी थी. समीर और शालिनी ने अपना बैडरूम उन्हें दे दिया था क्योंकि बाथरूम बैडरूम से जुड़ा था. वे दोनों किनारे वाले बैडरूम में शिफ्ट हो गए थे. सिरहाने रखे स्टूल पर बिस्कुट का डब्बा, इलैक्ट्रिक कैटल, मिल्क पाउडर और टी बैग्स रख दिए गए. चाय की शौकीन सिद्धेश्वरीजी जब चाहे चाय बना सकती थीं. उन्हें ज्यादा हिलनेडुलने की भी जरूरत नहीं थी. पलंग के नीचे समीर ने बैडस्विच लगवा दिया था. वे जैसे ही स्विच दबातीं, कोई न कोई उन की सेवा में उपस्थित हो जाता.

नीड़: हरिया माली की क्या गलती थी? भाग 1

सिद्धेश्वरीजी बड़बड़ाए जा रही थीं. जितनी तेजी से वे माथे पर हाथ फेर रही थीं उतनी ही तेजी से जबान भी चला रही थीं.

‘नहीं, अब एक क्षण भी इस घर में नहीं रहूंगी. इस घर का पानी तक नहीं पियूंगी. हद होती है किसी बात की. दो टके के माली की भी इतनी हिम्मत कि हम से मुंहजोरी करे. समझ क्या रखा है. अब हम लौट कर इस देहरी पर कभी आएंगे भी नहीं.’

रमानंदजी वहीं आरामकुरसी पर बैठे उन का बड़बड़ाना सुन रहे थे. आखिरकार वे बोले, ‘‘एक तो समस्या जैसी कोई बात नहीं, उस पर तुम्हारा यह बरताव, कैसे काम चलेगा? बोलो? कुल इतनी सी ही बात है न, कि हरिया माली ने तुम्हें गुलाब का फूल तोड़ने नहीं दिया. गेंदे या मोतिया का फूल तोड़ लेतीं. ये छोटीछोटी बातें हैं. तुम्हें इन सब के साथ समझौता करना चाहिए.’’

सिद्धेश्वरीजी पति को एकटक निहार रही थीं. मन उलझा हुआ था. जो बातें उन के लिए बहुत बड़ी होती हैं, रमानंदजी के पास जा कर छोटी क्यों हो जाती हैं?

क्रोध से उबलते हुए बोलीं, ‘‘एक गुलाब से क्या जाता. याद है, लखनऊ में कितना बड़ा बगीचा था हम लोगों का. सुबह सैर से लौट कर हरसिंगार और चमेली के फूल चुन कर हम डोलची में सजा कर रख लिया करते थे. पर यह माली, इस तरह अकड़ रहा था जैसे हम ने कभी फूल ही नहीं देखे हों.’’

बेचारा हरिया माली कोने में खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. घर के दूसरे लोग भी डरेसहमे खड़े थे. अपनी तरफ से सभी ने मनाने की कोशिश की किंतु व्यर्थ. सिद्धेश्वरीजी टस से मस नहीं हुईं.

‘‘जो कह दिया सो कह दिया. मेरी बात पत्थर की लकीर है. अब इसे कोई भी नहीं मिटा सकता. समझ गए न? यह सिद्धेश्वरी टूट जाएगी पर झुकेगी नहीं.’’

घर वाले उन की धमकियों के आदी थे. उन की बातचीत का तरीका ही ऐसा है, बातबात पर कसम खा लेना, बिना बात के ही ताल ठोंकना आदि. पहले ये बातें उन के अपने घर में होती थीं. अपना घर, यानी सरकार द्वारा आवंटित बंगला. सिद्धेश्वरीजी गरजतीं, बरसतीं फिर सामान्य हो जातीं. घर छोड़ कर जाने की नौबत कभी नहीं आई. हर बात में दखल रखना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थीं. सो, वे दूसरों को घर से निकल जाने को अकसर कहतीं. पर स्वयं पर यह बात कभी लागू नहीं होने देती थीं. आखिर वे घर की मालकिन जो थीं.

आज परिस्थिति दूसरी थी. यह घर, उन के बेटे समीर का था. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत सीनियर एग्जीक्यूटिव. राजधानी में अत्यधिक, सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ टैरेस वाला फ्लैट. बेटे के अत्यधिक आज्ञाकारी होने के बावजूद वे उस के घर को कभी अपना नहीं समझ पाईं क्योंकि वे उन महिलाओं में से थीं जो बेटे का विवाह होने के साथ ही उसे पराया समझने लगती हैं. अपनी हमउम्र औरतों के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए वे जब भी समीर और शालिनी से बात करतीं तो ताने या उलटवांसी के रूप में. बातबात में दोहों और मुहावरों का प्रयोग, भले ही मूलरूप के बजाय अपभ्रंश के रूप में, सिद्धेश्वरीजी करती अवश्य थीं, क्योंकि उन का मानना था कि अतिशय लाड़प्यार जतलाने से बहूबेटे का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाता है.

विवाह से पहले समीर उन की आंखों का तारा था. उस से उन का पहला मनमुटाव तब हुआ जब उस ने विजातीय शालिनी से विवाह करने की अनुमति मांगी थी. रमानंदजी सरल स्वभाव के व्यक्ति थे. दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूंढ़ते थे. बेटे की खुशी को ध्यान में रख कर उन्होंने तुरंत हामी भर दी थी. पत्नी को भी समझाया था, ‘शालिनी सुंदर है, सुशिक्षित है, अच्छे खानदान से है.’ पर सिद्धेश्वरीजी अड़ी रहीं. इस के पीछे उन्हें अपने भोलेभाले बेटे का दिमाग कम, एमबीए शालिनी की सोच अधिक नजर आई थी. बेटे के सीनियर एग्जीक्यूटिव होने के बावजूद उन्हें उस के लिए डाक्टर या इंजीनियर लड़की के बजाय मात्र इंटर पास साधारण सी कन्या की तलाश थी, जो हर वक्त उन की सेवा में तत्पर रहे और घर की परंपरा को भी आगे कायम रखे.

रमानंदजी लाख समझाते रहे कि ब्याह समीर को करना है. अगर उस ने अपनी पसंद से शालिनी को चुना है तो हम क्यों बुरा मानें. दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं, पहचानते हैं और सब से बड़ी बात एकदूसरे को समझते भी हैं. सो, वे अच्छी तरह से निभा लेंगे. पर सिद्धेश्वरीजी के मन में बेटे का अपनी मनमरजी से विवाह करने का कांटा हमेशा चुभता रहा. उन्हें ऐसा लगता जैसे शालिनी के साथ विवाह कर के समीर ने बहुत बड़ा गुनाह किया है. खैर, किसी तरह से निभ रही थी और अच्छी ही निभ रही थी. रमानंदजी सिंचाई विभाग में अधिशासी अभियंता थे. हर 3 साल में उन का तबादला होता रहता था. इसी बहाने वे भी उत्तर प्रदेश के कई छोटेबड़े शहर घूमी थीं. बड़ेबड़े बंगलों का सुख भी खूब लूटा. नौकर, चपरासी सलाम ठोंकते. समीर और शालिनी दिल्ली में रहते थे. कभीकभार ही आनाजाना हो पाता. जितने दिन रहते, हंसतेखिलखिलाते समय निकल जाता था. स्वाति और अनिरुद्ध के जन्म के बाद तो जीवन में नए रंग भरने लगे थे. उन की धमाचौकडि़यों और खिलखिलाहटों में दिनरात कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता था.

देखते ही देखते रमानंदजी की रिटायरमैंट की उम्र भी आ पहुंची. लखनऊ में रिटायरमैंट से पहले उन्होंने अनूपशहर चल कर रहने का प्रस्ताव सिद्धेश्वरीजी के सामने रखा तो वे नाराज हो गईं.

‘हम नहीं रहेंगे वहां की घिचपिच में.’

‘तो फिर?’

‘इसीलिए हम हमेशा आप से कहते थे. एक छोटा सा मकान, बुढ़ापे के लिए बनवा लीजिए पर आप ने हमेशा मेरी बात को हवा में उछाल दिया.’

रमानंदजी मायूस हो गए थे. ‘सिद्धेश्वरी, तुम तो जानती हो, सरकारी नौकरी में कितना पैसा हाथ में मिलता है. घूस मैं ने कभी ली नहीं. मुट्ठीभर तनख्वाह में से क्या खाता, क्या बचाता? बाबूजी की बचपन में ही मृत्यु हो गई. भाईबहनों के दायित्व निभाए. तब तक समीर और नेहा बड़े हो गए थे. एक ही समय में दोनों बच्चों को इंजीनियरिंग और एमबीए की डिगरी दिलवाना, आसान तो नहीं था. उस के बाद जो बचा, वह शादियों में खर्च हो गया. यह अच्छी बात है कि दोनों बच्चे सुखी हैं.’

रमानंदजी भावुक हो उठे थे. आंखों की कोर भीग गई. स्वर आर्द्र हो उठा था, रिटायरमैंट के बाद रहने की समस्या जस की तस बनी रही. इस समस्या का निवारण कैसे होता?

फिलहाल, दौड़भाग कर रमानंदजी ने सरकारी बंगले में ही 6 महीने रहने की अनुमति हासिल कर ली. कुछ दिनों के लिए तो समस्या सुलझ गई थी लेकिन उस के बाद मार्केट रेंट पर बंगले में रहना, उन के लिए मुश्किल हो गया था. सो, लखनऊ के गोमती नगर में 2 कमरों का मकान उन्होंने किराए पर ले लिया था. जब भी मौका मिलता, समीर आ कर मिल जाता. शालिनी नहीं आ पाती थी. बच्चे बड़े हो रहे थे. स्वाति ने इंटर पास कर के डाक्टरी में दाखिला ले लिया था. अनिरुद्ध ने 10वीं में प्रवेश लिया था. बच्चों के बड़े होने के साथसाथ दादादादी की भी उम्र हो गई थी.

बुढ़ापे में कई तरह की परेशानियां बढ़ जाती हैं, यह सोच कर इस बार जब समीर और शालिनी लखनऊ आए तो, आग्रहसहित उन्हें अपने साथ रहने के लिए लिवा ले गए थे. सिद्धेश्वरीजी ने इस बार भी नानुकुर तो बहुतेरी की थी, पर समीर जिद पर अड़ गया था. ‘‘बुढ़ापे में आप दोनों का अकेले रहना ठीक नहीं है. और बारबार हमारा आना भी उतनी दूर से संभव नहीं है. बच्चों की पढ़ाई का नुकसान अलग से होता है.’’ सिद्धेश्वरीजी को मन मार कर हामी भरनी पड़ी. अपनी गृहस्थी तीनपांच कर यहां आ तो गई थीं पर बेटेबहू की गृहस्थी में तारतम्य बैठाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था उन के लिए. बेटाबहू उन की सुविधा का पूरा ध्यान रखते थे. उन्हें शिकायत का मौका नहीं देते थे. फिर भी, जब मौका मिलता, सिद्धेश्वरीजी रमानंदजी को उलाहना देने से बाज नहीं आती थीं, ‘अपना मकान होता तो बहूबेटे के साथ रहने की समस्या तो नहीं आती. अपनी सुविधा से घर बनवाते और रहते. यहां पड़े हैं दूसरों की गृहस्थी में.’

‘दूसरों की गृहस्थी में नहीं, अपने बहूबेटे के साथ रह रहे हैं सिद्धेश्वरी,’ वे हंस कर कहते.

‘तुम नहीं समझोगे,’ सिद्धेश्वरीजी टेढ़ा सा मुंह बिचका कर उठ खड़ी होतीं.

उन्हें बातबात में हस्तक्षेप करने की आदत थी. मसलन, स्वाति कोएड में क्यों पढ़ती है? स्कूटर चला कर कालेज अकेली क्यों जाती है? शाम ढलते ही घर क्यों नहीं लौट आती? देर रात तक लड़केलड़कियों के साथ बैठ कर कंप्यूटर पर काम क्यों करती है? लड़कियों के साथ तो फिर भी ठीक है, लड़कों के साथ क्यों बैठी रहती है? उन्होंने कहीं सुना था कि कंप्यूटर अच्छी चीज नहीं है. वे अनिरुद्ध को उन के बीच जा कर बैठने के लिए कहतीं कि कम से कम पता तो चले वहां हो क्या रहा है. तो अनिरुद्ध बिदक जाता. उधर, स्वाति को भी बुरा लगता. ऐसा लगता जैसे दादी उस के ऊपर पहरा बिठा रही हों. इतना ही नहीं, वह जींसटौप क्यों पहनती है? साड़ी क्यों नहीं पहनती? रसोई में काम क्यों नहीं करती आदि?

मेरी मां हमारे साथ रहती है वो जो भी काम करती हैं उससे गलती होती है तो मेरी पत्नी गुस्सा होती है, क्या करें?

सवाल

मेरी उम्र 41 वर्ष है. मेरी मां हमारे साथ ही रहती हैं. वे जो काम करती हैं उस में कुछ न कुछ गड़बड़ हो ही जाती है जिस पर मेरी पत्नी आगबबूला हो चिल्लाने लगती है. मां यह सब सुन काफी आहत हो जाती हैं और यदि मैं कुछ बीच में बोलता हूं तो पत्नी लड़नेझगड़ने पर उतारू हो जाती है. रोजरोज घर में यह ड्रामा भी नहीं देखा जाता और न ही मुझ में लड़ने की इतनी हिम्मत है. समझ नहीं आता क्या करूं.

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जवाब

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आप चाहे कितना ही खुद को इस स्थिति से बचाना चाहें लेकिन आप नहीं बच सकते. आप की मां वृद्ध हैं और वृद्धावस्था में व्यक्ति में कई प्रकार के बदलाव होते हैं जिन के चलते आप की मां भी सामान्य काम करने में दिक्कत महसूस करती होंगी. आप की पत्नी को इस तरह आप की मां पर नहीं चिल्लाना चाहिए. आप उन्हें आराम से समझाने की कोशिश कीजिए, जब वे झगड़ा करने लगें तब भी अपनी बात पर कायम रहें क्योंकि जो गलत है, सो गलत है. हो सके तो अपनी मां से कहिए कि वे ज्यादा काम करने की कोशिश न करें. न वे अधिक काम करेंगी और न उन से कोई गड़बड़ होगी. लड़ाई से दूर रहने की कोशिश सही है, वहीं अपनी मां को प्रताडि़त होने के लिए छोड़ देना सही नहीं है.

 

चिंता और विकार से भरा रोग ओसीडी

ओसीडी होने पर व्यक्ति को मालूम ही नहीं होता कि उस के दिमाग में जो विचार आ रहे हैं वे सही भी हैं या नहीं. इस दौरान वह एक ही कार्य को बारबार करने के लिए बाध्य हो जाता है. यह दिमागी बीमारी ठीक तो नहीं हो सकती लेकिन इलाज से लक्षणों को नियंत्रण में लाने में मदद मिल सकती है.

ऐसे शख्स से मिल कर हम हैरान रह  जाते हैं जो बारबार हाथ धोते रहते हैं, दिन में कई बार स्नान करते हैं, अपनी चीजों को दूसरों द्वारा छूना पसंद नहीं करते व दिनभर घर की साफसफाई में जुटे रहते हैं. हम उन का मजाक भी उड़ाते हैं. हालांकि, वे एक प्रकार के मानसिक रोग से ग्रसित रहते हैं जिसे ओसीडी यानी औब्जैक्टिव कंपल्सिव डिस्और्डर कहते हैं.

एक आंटी बेहद सफाईपसंद थीं. वे चूल्हे पर खाना बनातीं तो लकडि़यों के पास पानी का बरतन भी रखती थीं. जैसे ही चूल्हे में जलती लकड़ी को खाना बनाते समय आगे बढ़ातीं, तुरंत अपने हाथ धोतीं, जब गेहूं धो कर सुखातीं तो अपने बेटे के हाथ धुलवा कर ही उसे गेहूं का थैला पकड़ाती हुई कहतीं, पहले हाथ धो कर आओ, फिर गेहूं पिसवाने चक्की पर ले जाना. उन की पीठपीछे सब हंसते थे, कहते थे, ‘अरे, चक्की वाला तो हाथ धो कर नहीं पीसेगा.’ हर समय पानी के संग रहने से उन के हाथ व पैर की उंगलियां सफेद और दरारयुक्त छिले आलू सी दिखने लगी थीं.

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एक ही परिवार की 2 बहनों को भी इस रोग से ग्रसित देखा है. बड़ी बहन के पति ने तो तंग आ कर अलगाव ही ले लिया, जबकि छोटी बहन के पति ने उन्हीं के अनुसार अपने को ढाल लिया. ऐसे कई उदाहरण हमें अपने आसपास देखने को मिलते हैं. जब इस विषय में चर्म रोग विशेषज्ञ डा. जे एल ममगाई से जानकारी प्राप्त की तो इस बीमारी के विषय में बेहद रोचक तथ्य मालूम हुए.

ओसीडी चिंता और वहम की एक बीमारी है इस में गैरजरूरी विचार या आदतें किसी इंसान के दिमाग में इस तरह जगह बना लेती हैं कि वह चाह कर भी उन पर काबू नहीं पा सकता. इस में उस व्यक्ति का दिमाग किसी एक बात को बारबार सोचता रहता है या वह बारबार एक ही काम को करता रहता है. ऐसे में उस की एंग्जाइटी भी बढ़ जाती है और जब तक वह उस कार्य को पूरा नहीं कर लेता, उसे चैन नहीं मिलता.

ओसीडी के लक्षण

हाथों को दिन में कई बार साबुन से रगड़ कर यह सोच कर धोना कि कहीं इस में जर्म (कीटाणु) चिपके हुए तो नहीं या हाथ गंदे तो नहीं हैं. यह चिंता और घबराहट हाथों को धो कर लाल कर देने के बावजूद बनी रहती है.

कुछ ऊटपटांग विचार या छवियां दिमाग में हमेशा बनी रहती हैं जिन पर वह चाह कर भी काबू नहीं रख पाता. फालतू सामान को घर में एकत्र करके रखना, जैसे खाने के खाली डब्बे, फटे कपड़े आदि. दूसरों से हमेशा पूछते रहना कि सब ठीकठाक है कि नहीं, या किसी एक ही बात को बारबार पूछना, पढ़नाया लिखना. दिन में कई बार स्नान, घर की लगातार सफाई और पैसों को कई बार गिनना वगैरह.

घर से बाहर जाते समय 5-6 बार ताले को चैक करना, कार के सैंट्रल लौक होने के बावजूद घूम कर चारों दरवाजे चैक करना.

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ओसीडी क्यों होता है

ओसीडी होने का मुख्य कारण मस्तिष्क में कुछ रसायनों के लैवल में गड़बड़ी होना है. जिस में मुख्य हैं सिरोटोनिन. यह रोग एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में भी आता है. अगर किसी के मातापिता को ओसीडी है तो उन के बच्चों को होने की संभावना बढ़ जाती है. अगर कोई इंसान साफसफाई में बहुत ध्यान देता है या हर काम निपुणता से करता है व ऊंचे नैतिक सिद्धांतों वाला है तो उसे भी ओसीडी होने की प्रबल संभावना रहती है.

ओसीडी की शुरुआत : ओसीडी किसी व्यक्ति को किसी भी उम्र में हो सकता है. लक्षण कभी भी आ या जा सकते हैं. इस बीमारी का पहला पड़ाव 10 से 12 साल के बच्चों का और दूसरा 20 से 25 साल में शुरू होता है. हर 50 में से एक व्यक्ति को यह हो सकता है.

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इलाज कब और कैसे

मामूली ओसीडी लक्षण वाले बहुत से लोग बिना इलाज के अपनेआप ठीक हो जाते हैं. मध्यम और तीव्रता के ओसीडी मरीज को इलाज की जरूरत पड़ती है. हालांकि, किसी समय उन के लक्षण कम या गायब होते दिखाई देते हैं लेकिन कुछ समय बाद फिर से दिखाई दे सकते हैं. तीव्र ओसीडी से पीडि़त व्यक्ति में तनाव, एंग्जाइटी या उदासी देखी जा सकती है. ऐसे में इलाज मददगार होगा. इस इलाज में जितना महत्त्व दवाइयों का है उतना ही महत्त्व मनोचिकित्सक का भी है, जिसे साइकोथेरैपी भी कहा जाता है.

विश्व के कुछ महान लोग जिन्होंने इस समस्या के बावजूद अपना नाम रोशन किया उन में सर अल्बर्ट आइंस्टीन, चार्ल्स डार्विन व माइकल जैक्सन के नाम शामिल हैं.

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हम सब जब भी किसी बीमारी के बारे में पढ़ते हैं, तो कई बार हमें ऐसा लगने लगता है कि ये सारे लक्षण हमारे अंदर भी मौजूद हैं. अगर इसे पढ़ कर आप भी ऐसा ही महसूस कर रहे हैं तो बी कूल, ये विचार कुछ समय बाद गायब हो जाएंगे. लेकिन अगर आप के कई लक्षण ओसीडी से गंभीर रूप से समानता दर्शा रहे हैं तो वास्तविकता का दृढ़ता से मुकाबला करें और इस बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकें.

ढेंचा की खेती से बढ़ाएं खेतों की उर्वराशक्ति 

लेखक- आरबी सिंह, डा. एसएन सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती

फसलों से ज्यादा उत्पादन प्राप्त करने के लिए रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग किया जाता है, जिस से मिट्टी में जीवाश्म की कमी हो जाती है और मिट्टी की सेहत लगातार नीचे गिर रही है. ऐसे हालात में किसानों को उत्पादन बढ़ाने के लिए ऐसे उर्वरक (खाद) का प्रयोग करना चाहिए, जिस से मिट्टी में जीवाणुओं की कमी न हो.

खेत में जीवाश्म की मात्रा को बढ़ाने व उर्वराशक्ति के विकास में जैविक व हरी खाद का प्रयोग काफी लाभदायक रहता है. हरी खाद के रूप में प्रयोग की जाने वाली ढेंचा की फसल से मिट्टी की उर्वराशक्ति बढ़ती है. इस से फसल उत्पादन बढ़ा कर लागत कम की जा सकती है.

ढेंचा की फसल बोने के 55-60 दिनों के बाद खेत में पलटाई कर दी जाती है. इस के बाद खेत में पानी भर दिया जाता है, जिस से ढेंचा खेत में अच्छी तरह सड़ जाए.

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ढेंचा से हरी खाद को लगभग 75-80 किग्रा नाइटोजन और 200-250 किग्रा कार्बनिक पदार्थ प्राप्त होता है, जिस से खेतों में पोषक तत्त्वों का संरक्षण होता है. मृदा में नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के साथ मृदा की क्षारीय व लवणीय शक्ति बढ़ती है. ढेंचा के अन्य हरी खादों के मुकाबले नाइट्रोजन की ज्यादा मात्रा मिलती है.

ढेंचा की उन्नत किस्में

वर्तमान में ढेंचा की अनेक उन्नत किस्में हैं, जैसे पंजाबी ढेंचा-1, सीएसडी-137, हिसाब ढेंचा-1, पंत ढेंचा-1 आदि.

अनुकूल मृदा

वैसे तो हरी खाद के लिए ढेंचा की बोआई किसी भी तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन जलमग्न, क्षारीय व लवणीय व सामान्य मिट्टियों में ढेंचा की फसल लगाने से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद मिलती है.

बोआई का समय व बीज की मात्रा

ढेंचा की बोआई से पहले खेत की एक बार जुताई कर लेनी चाहिए इस के बाद

50 किग्रा प्रति हेक्टेयर बीज की बोआई अप्रैल के अंतिम सप्ताह से ले कर जून के अंतिम सप्ताह तक करनी चाहिए. जब फसल 20 दिनों की हो जाए तो 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से यूरिया का छिड़काव करें. इस से फसल में नाइट्रोजन की मात्रा बनती है.

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सिंचाई

इन के पौधों के अंकुरण के बाद सिंचाई की जरूरत कम होती है, परंतु अधिक उत्पादन के लिए 4-5 सिंचाई करनी चाहिए.

फसल के रोग व रोकथाम

ढेंचा की फसल में कम ही रोग देखने को मिलते हैं. लेकिन कीट की सूंडि़यों के आक्रमण से पौधों की पैदावार कम होती है. इस के पौधे पर लार्वा इस की पत्तियों व कोमल शाखाओं को खा कर पौधे का विकास रोक देती है, जिस के कारण पौधों की बढ़वार रुक जाती है और पैदावार गिर जाती है.

रोग व कीट की रोकथाम के लिए पौधे पर नीम औयल 5 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी के घोल के साथ छिड़काव करना चाहिए.

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उपरोक्त बिंदुओं पर ध्यान रखते हुए हरी खाद के लिए ढेंचा की खेती उपयुक्त होती है.  ठ्ठ

नोट : बस्ती जनपद के समस्त राजकीय बीज भंडार पर ढेंचा का बीज उपलब्ध है.

Crime Story: अपनी जिद में स्वाह

मां-बाप अगर शुरू से ही जिद्दी बच्चों पर निगाह रखें और उन की गैरवाजिब बातों को न मानें तो बच्चों का स्वभाव बदल सकता है. अगर रोशनी के साथ ऐसा किया जाता तो स्थिति यहां तक न पहुंचती. बेटा हो या बेटी, कोई भी पिता ऐसा नहीं चाहता कि… श विजय सोनी  मांडू का नाम तो जरूर सुना होगा. वही मांडू जहां की रानी रूपमती थीं, बाजबहादुर थे. उन की प्रेमकहानी है.

आज भी वहां की मिट्टी में सैकड़ों साल पहले की गंध है. इसी गंध के लिए फरवरी, खासकर वैलेंटाइन डे पर तमाम प्रेमी जोड़े मांडू पहुंचते हैं. संभव है, इसीलिए मांडू की धरा की मिट्टी से रसीली गंध फूटती हो. मांडू मध्य प्रदेश के जिला धार में आता है. लेकिन धार उतना प्रसिद्ध नहीं है,

जितना मांडू. बात इसी मांडू की है. 6 फरवरी, 2020 को तिर्वा के रहने वाले अजय सिंह पाटीदार ने फोन पर थाना मांडू के प्रभारी जयराज सोलंकी को फोन पर बताया कि सातघाट पुलिया के पास एक किशोरी की लाश पड़ी है, जिस का सिर कुचला हुआ है.

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उस वक्त शाम के 5 बजने को थे. सूचना मिलते ही टीआई जयराज सोलंकी पुलिस टीम ले कर घटनास्थल पर पहुंच गए. वहां सातघाट पुलिया के पास सूखी नदी के किनारे, पत्थरों के बीच 17-18 साल की एक किशोरी का शव पड़ा था, जिस का सिर कुचल दिया गया था. मृतका ने स्कूल ड्रैस पहन रखी थी. साथ ही वह ठंड से बचने के लिए ट्रैकसूट पहने थी.

टीआई सोलंकी ने अनुमान लगाया कि मृतका आसपास के किसी स्कूल में पढ़ती होगी. हत्या एक युवती की हुई थी, इसलिए हत्या के साथ बलात्कार की आशंका भी थी. अंधेरा घिरने में ज्यादा देर नहीं थी.

थानाप्रभारी ने आसपास के क्षेत्रों के लोगों को बुला कर लाश दिखाई. लेकिन कोई भी उसे पहचान नहीं सका. इस पर अजय सिंह सोलंकी ने लाश पोस्टमार्टम के लिए धार के जिला अस्पताल भेज दी. साथ ही इस मामले की सूचना एसपी आदित्य प्रताप सिंह को भी दे दी.

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एसपी के निर्देश पर वायरलैस से धार जिले के सभी थानों को स्कूल गर्ल का शव मिलने की सूचना दे दी गई. हाल ही में पदस्थ बीएसएफ के एक कांस्टेबल ने थाने आ कर थानाप्रभारी सोलंकी को बताया कि 6 फरवरी, 2020 की रात लगभग 7 साढ़े 7 बजे जब वह बागड़ी फांटा के पास स्थित पैट्रोल पंप पर अपनी मोटरसाइकिल में पैट्रोल डलवा रहा था, तभी वहां एक इनोवा गाड़ी आई, जिस में से युवक उतरा. उस ने पैट्रोल भरने वाले को 1000 रुपए दे कर कार में डीजल डालने को कहा.

इसी बीच कार में एक युवती की ‘बचाओ बचाओ’ की आवाज सुनाई दी. इस पर डीजल भरवाने के लिए उतरा युवक बिना डीजल डलवाए ही चला गया. उस ने पैट्रोल भरने वाले से हजार रुपए भी वापस नहीं लिए.

बीएसएफ के कांस्टेबल ने यह भी बताया कि उस ने कार के बारे में पूछा था, लेकिन कोई जानकारी नहीं मिली. युवती का शव मांडू नालछा मार्ग पर मिला था. अजय सिंह सोलंकी ने पैट्रोल पंप पर लगे सीसीटीवी कैमरे की फुटेज देखी, जिस में संदिग्ध कार तो दिखी पर कार के नंबर को नहीं पढ़ा जा सका.नहीं हो पाई पहचान  दूसरे दिन जिला अस्पताल में पोस्टमार्टम से पहले एफएसएल अधिकारी पिंकी मेहरडे ने शव की जांच की. पता चला कि हत्या के समय मृतका का मासिक धर्म चल रहा था, इसलिए बलात्कार की बात पोस्टमार्टम से ही साफ हो सकती थी.

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एफएसएल अधिकारी ने यह शंका जरूर जाहिर की कि चूंकि शव के नाखून नीले पड़ गए हैं, इसलिए उस का सिर कुचलने से पहले उसे जहर दिए जाने की आशंका है. जबकि घटनास्थल की जांच में करीब 16 फीट की दूरी तक खून फैला मिला था. इस से अनुमान लगाया गया कि मृतका की हत्या वहीं की गई थी.

दूसरे दिन जिला अस्पताल में युवती के शव का पोस्टमार्टम किया गया, जिस से पता चला कि हत्या से पहले उस के साथ बलात्कार नहीं हुआ था.

पोस्टमार्टम तो हो गया, लेकिन हत्यारों तक पहुंचने के लिए उस की पहचान होना जरूरी था. क्योंकि बिना शिनाख्त के जांच की दिशा तय नहीं की जा सकती थी. चूंकि मृतका स्कूल ड्रैस में थी, इसलिए जिले के अलावा आसपास के जिलों के स्कूलों से भी किसी छात्रा के लापता होने की जानकारी जुटाई जाने लगी.

इसी दौरान खरगोन के गोगांव का रहने वाला एक दंपति शव की पहचान के लिए मांडू आया. उन की बेटी पिछले 4-5 दिनों से लापता थी. इस से पुलिस को शिनाख्त की उम्मीद बंधी, लेकिन शव देख कर उन्होंने साफ कह दिया कि शव उन की बेटी का नहीं है.

इस के 4 दिन बाद एसपी धार आदित्य प्रताप सिंह ने इस केस की जांच की जिम्मेदारी एसडीओपी (बदनावर) जयंत राठौर को सौंप दी. साथ ही उन का साथ देने के लिए एक टीम भी बना दी, जिस में एसडीओपी (धामनोद) एन.के. कसौटिया, टीआई (मांडू) जयराज सिंह सोलंकी, टीआई (कानवन) कमल सिंह, एएसआई त्रिलोक बौरासी, प्रधान आरक्षक रविंद्र चौधरी, संजय जगताप, राजेंद्र गिरि, रामेश्वर गावड़, सखाराम, आरक्षक राजपाल सिंह, प्रशांत लोकेश व वीरेंद्र को शामिल किया गया.

5 दिन बीत जाने के बाद भी शव की शिनाख्त नहीं हो सकी, जो पहली जरूरत थी. इस पर एसडीओपी जयंत राठौर और एन.के. कसौटिया ने उस संदिग्ध कार को खोजने में पूरी ताकत लगा दी, जो घटना से एक रात पहले बागड़ी फांटा के पैट्रोल पंप पर देखी गई थी.

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सीसीटीवी फुटेज में कार का नंबर साफ नहीं दिख रहा था. पुलिस ने चारों तरफ 2 सौ किलोमीटर के दायरे में स्थित टोलनाकों के सीसीटीवी फुटेज खंगालनी शुरू कर दीं. लेकिन संदिग्ध इनोवा कार के नंबर की पहचान इस से भी नहीं हो सकी. हां, पुलिस को इतना सुराग जरूर मिल गया कि कार के नंबर के पीछे के 2 अंक 77 हैं और उस के सामने वाले विंडस्क्रीन पर काली पट्टी बनी है.

पुलिस के पास इस के अलावा कोई सुराग  नहीं था. एसडीओपी जयंत राठौर के निर्देश पर उन की पूरी टीम जिले भर में ऐसी कारों की खोज में जुट गई, जिस के रजिस्ट्रेशन नंबर में अंतिम 2 अंक 77 हों और उस की सामने वाली विंडस्क्रीन पर काली पट्टी बनी हो.  इस कवायद में 460 इनोवा कारों की पहचान हुई. इन सभी के मालिकों से संपर्क किया गया. अंतत: इंदौर के मांगीलाल की इनोवा संदिग्ध कार के रूप में पहचानी गई, मांगीलाल ने बताया कि कुछ दिन पहले उन की कार उन के बेटे ऋषभ का दोस्त मुकेश, जो गांव पटेलियापुरा का रहने वाला है, मांग कर ले गया था.

मुकेश को कार चलाना नहीं आता था, इसलिए वह अपने एक दोस्त पृथ्वीराज सिंह को भी साथ लाया था. मांगीलाल से मुकेश और पृथ्वीराज के मोबाइल नंबर भी मिल गए. लेकिन दोनों के मोबाइल स्विच्ड औफ थे.

पटेलियापुरा मांडू इलाके का ही छोटा सा गांव है. इसलिए एसडीओपी जयंत राठौर समझ गए कि उन की जांच सही दिशा में आगे बढ़ रही है. शक को और पुख्ता करने के लिए उन्होंने साइबर सेल के आरक्षक प्रशांत की मदद से मुकेश और पृथ्वीराज सिंह के मोबाइल की लोकेशन निकलवाई. घटना वाली रात उन की लोकेशन उसी स्थान की मिली, जहां दूसरे दिन सुबह युवती की लाश मिली थी.

सही दिशा में जांच

इस से यह साफ हो गया कि अज्ञात युवती की लाश का कुछ न कुछ संबंध मुकेश और पृथ्वीराज सिंह से रहा होगा, जिस के चलते जयंत राठौर ने गांव में अपने मुखबिर लगा दिए. जल्द ही पता चल गया कि मुकेश के चचेरे भाई ईश्वर पटेल की बेटी रोशनी 7 फरवरी से लापता है. उस ने बेटी के गायब होने की सूचना भी पुलिस को नहीं दी थी. पता चला रोशनी नालछा के उत्कृष्ट विद्यालय में 12वीं में पढ़ती थी.

किशोर बेटी घर से गायब हो और पिता हाथ पर हाथ रख कर बैठा रहे, ऐसा तभी होता है जब पिता को बेटी का कोई कृत्य नश्तर की तरह चुभ रहा हो. बहरहाल, मृतका की शिनाख्त ईश्वर पटेल की बेटी रोशनी के रूप में हो गई.

एसडीओपी जयंत राठौर और एन.के. कसौटिया के निर्देश पर टीआई (मांडू) जयराज सोलंकी, टीआई (कानवन) गहलोत की टीम ने गांव से ईश्वर और उस की पत्नी को पूछताछ के लिए उठा लिया. जबकि ईश्वर का चचेरा भाई संदिग्ध मुकेश और उस का दोस्त पृथ्वीराज सिंह अपने घरों से लापता थे.

संदिग्ध के तौर पर ईश्वर पटेल को पुलिस द्वारा उठा लिए जाने से गांव के लोग आक्रोशित हो गए. उन का कहना था कि ईश्वर ऐसा काम नहीं कर सकता. गांव के लोग इस बात से भी नाराज थे कि पुलिस द्वारा पिता को हिरासत में ले लिए जाने की वजह से रोशनी का अंतिम संस्कार नहीं हो पा रहा है.

एसडीओपी जयंत राठौर को अभी मुकेश और पृथ्वीराज सिंह की तलाश थी, जो घटना के बाद गुजरात भाग गए थे. दोनों की तलाश में मुखबिर लगे हुए थे, जिन से 14 फरवरी को दोनों के गुजरात से वापस लौटने की खबर मिली. पुलिस ने घेरेबंदी कर दोनों को बामनपुरी चौराहे पर घेर कर पकड़ लिया.

थाने में पूछताछ के दौरान सभी आरोपी रोशनी की हत्या के बारे में कुछ भी जानने से इनकार करते रहे, लेकिन ईश्वर के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि जवान बेटी के लापता हो जाने के बाद उस ने पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं दर्ज करवाई. उसे खोजने के बजाय वह घर में क्यों बैठा रहा.

अंतत: थोड़ी सी नानुकुर के बाद वह टूट गया. उस ने स्वीकार कर लिया कि रोशनी अपने प्रेमी करण के साथ भागने की तैयारी कर रही थी. उसे इस बात की जानकारी लग चुकी थी, इसलिए अपनी इज्जत बचाने के लिए उस ने चचेरे भाई मुकेश से बात की. मुकेश ने अपने दोस्त के साथ मिल कर रोशनी की हत्या कर दी.

आरोपियों द्वारा पूरी कहानी बता देने के बाद पुलिस ने तीनों को अदालत में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया. किशोरी रोशनी की हत्या के पीछे जो कहानी पता चली, वह कुछ इस तरह थी.

गांव पटेलियापुरा में रहने वाले ईश्वर पटेल की 19 वर्षीय बेटी रोशनी की खूबसूरती तभी चर्चा का विषय बन गई थी, जब उस ने किशोरावस्था में प्रवेश किया था. चंचल स्वभाव और पढ़नेलिखने में तेज रोशनी स्वभाव से काफी तेज थी.

अगर पढ़ाई-लिखाई में तेज होने के साथसाथ दिलदिमाग और चेहरामोहरा खूबसूरत हो तो ऐसी लड़की को पसंद करने वालों की कमी नहीं रहती. पिता ईश्वर पटेल बेटी की इन खूबियों से परिचित था, इसलिए उस ने नौंवी क्लास के बाद आगे पढ़ने के लिए उस का दाखिला नालछा के उत्कृष्ट विद्यालय में करा दिया था.

इंसान की हर उम्र की अपनी एक मांग होती है. रोशनी ने जब किशोरावस्था से यौवन में प्रवेश करने के लिए कदम बढ़ाए तो उसे किसी करीबी मित्र की जरूरत महसूस हुई. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब दिल किसी को ढूंढने लगे तो सब से पहले आसपास ही नजर जाती है, खासकर लड़कियों के मामले में.

रोशनी के साथ भी यही हुआ. उसे करण मन भा गया. करण रोशनी के पिता के दोस्त का बेटा था. पारिवारिक दोस्ती के कारण रोशनी के हमउम्र करण का उस के घर में आनाजाना था.

सच तो यह है कि करण रोशनी का तभी से दीवाना था, जब से उस ने अपना पहला पांव किशोरावस्था में रखा था. लेकिन रोशनी के तीखे तेवरों के कारण उस ने आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं की थी.

करण से हो गया प्यार

करण के साथ रोशनी की अच्छी पटती थी. लेकिन उस ने करण की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया था. लेकिन जब उस के दिल में प्यार की चाहत जागी तो सब से पहले करण पर ही निगाहें पड़ीं.

मन में कुछ हुआ तो वह करण का विशेष ध्यान रखने लगी. जब यह बात करण की समझ में आई तो उस ने भी हिम्मत कर के रोशनी की तरफ कदम बढ़ाने की कोशिश की. एक दिन मौका पा कर उस ने रोशनी को फोन लगा कर उस से अपने दिल की बात कह दी.

रोशनी मन ही मन करण से प्यार करने लगी थी, इसलिए उस ने करण का प्यार स्वीकारने में जरा भी देर नहीं लगाई. इस के बाद दोनों घर वालों से नजरें बचा कर मिलने लगे.

रोशनी बचपन से ही जिद्दी और तेजतर्रार थी. यही वजह थी कि जब उस के सिर पर करण की दीवानगी का भूत चढ़ा तो उस ने मन ही मन फैसला कर लिया कि वह करण से ही शादी करेगी. इसी सोच के चलते वह करण पर खुल कर प्यार लुटाने लगी.

इतना ही नहीं, छोटे से गांव में वह करण से चोरीछिपे मिलने से भी नहीं डरती थी. जब भी उस का मन होता, गांव के किसी सुनसान खेत में करण को मिलने के लिए बुला लेती. नतीजा यह हुआ कि एक रोज गांव के कुछ लोगों ने दोनों को सुनसान खेत में एकदूसरे का आलिंगन करते देख लिया. फिर क्या था, यह खबर जल्द ही रोशनी के पिता ईश्वर तक पहुंच गई.

ईश्वर को पहले तो इस बात पर भरोसा नहीं हुआ, लेकिन जब उस ने रोशनी और करण पर नजर रखना शुरू किया तो जल्द ही सच्चाई सामनेआ गई. ईश्वर पटेल यह बात जानता था कि रोशनी जिद्दी है, इसलिए उस ने उसे कुछ कहने के बजाय कुछ और ही फैसला कर लिया.

उस ने रोशनी की शादी करने की ठान ली. रोशनी को बिना बताए उस ने बेटी के लिए वर की तलाश शुरू कर दी.रोशनी के सौंदर्य और गुणों की चर्चा रिश्तेदारों और बिरादरी में थी. उस के लिए एक से बढ़ कर एक रिश्ते मिलने लगे. लेकिन रोशनी करण के साथ शादी करने का फैसला कर चुकी थी, इसलिए पिता द्वारा पसंद किए गए हर लड़के को वह नकारने लगी. इस से ईश्वर पटेल परेशान हो गया.

इसी बीच कत्ल से कुछ दिन पहले रोशनी के लिए एक अच्छा रिश्ता आया. इतना अच्छा कि इस से अच्छा वर वह बेटी के लिए नहीं खोज सकता था. इसलिए उस ने रोशनी पर दबाव डाला कि वह इस रिश्ते के लिए राजी हो जाए. लेकिन रोशनी टस से मस नहीं हुई.

बेटी का हठ देख कर ईश्वर समझ गया कि रोशनी उस की नाक कटवाने पर तुली है. ईश्वर ने रोशनी पर नजर रखनी शुरू कर दी. इस से उस का अपने प्रेमी से मिलनाजुलना मुश्किल हो गया. यह देख कर रोशनी ने विद्रोह करने की ठान ली.

उस ने वैलेंटाइन डे पर करण के साथ भाग कर शादी करने की योजना बना ली. चूंकि ईश्वर उस के ऊपर गहरी नजर रख रहा था, इसलिए उसे इस बात की जानकारी मिल गई.

कातिल ईश्वर

जब कोई दूसरा रास्ता नहीं मिला तो उस ने अपनी इज्जत बचाने के लिए रोशनी को कत्ल करने की सोच ली. इस के लिए उस ने गांव में ही रहने वाले अपने चचेरे भाई मुकेश से बात की तो वह इस काम के लिए राजी हो गया. मुकेश को कार चलानी नहीं आती थी, इसलिए उस ने अपने एक दोस्त पृथ्वीराज सिंह पटेल को अपनी योजना में शामिल कर लिया.

5 फरवरी, 2020 को मुकेश अपने दोस्त ऋषभ से उस की इनोवा कार मांग कर ले आया और दोनों रोशनी के स्कूल पहुंच गए. दोनों ने मांडू घुमाने के नाम पर रोशनी और उस की एक सहेली पिंकी को कार में बैठा लिया. मुकेश और पृथ्वी दोनों को ले कर दिन भर मांडू में घूमते रहे. इस बीच उन्होंने रोशनी को धामनोद ले जा कर नर्मदा पुल से फेंकने की योजना बनाई, लेकिन उस की फ्रैंड के साथ होने की वजह से उन्हें अपना इरादा बदलना पड़ा.

शाम होने पर उन्होंने रोशनी की फ्रेंड पिंकी को सोड़पुर में उतार दिया. उस के बाद वे रोशनी को अज्ञात जगह की ओर ले कर जाने लगे. यह देख कर रोशनी ने अपने चाचा मुकेश से घर छोड़ने को कहा तो मुकेश बोला, ‘‘क्यों करण के संग मुंह काला करना है क्या?’’

चाचा के मुंह से ऐसी बात सुन कर वह डर गई. वह समझ गई कि मुकेश अब उसे जिंदा नहीं छोड़ेगा. इसलिए उस ने अपने पिता को फोन कर जान की भीख मांगी. लेकिन ईश्वर ने उस की एक नहीं सुनी.

इस बीच दोनों कार में डीजल डलवाने के लिए बागड़ी फांटे के पैट्रोल पंप पर रुके, जहां रोशनी के चिल्लाने पर एक पुलिस वाले को अपना पीछा करते देख वे वहां से डर कर भाग निकले.

इस के बाद दोनों ने एक सुनसान इलाके में कार रोकी और रोशनी को जबरन जहर पिला दिया. फिर सातघाट पुलिया के पास ले जा कर उस का गला चाकू से रेतने के बाद पहचान छिपाने के लिए उस का चेहरा भी पत्थर से कुचल दिया.

आरोपियों ने सोचा था कि लाश की पहचान न हो पाने से पुलिस उन तक कभी पहुंच नहीं सकती, लेकिन एसडीओपी जयंत राठौर और एन.के. कसौटिया की टीम ने सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर उन्हें कानून की ताकत का अहसास करवा दिया.

आखिर किस वजह से सुसाइड करने पर मजबूर हुए सुशांत सिंह राजपूत?

मशहूर टीवी व फिल्म कलाकार सुशांत सिंह राजपूत ने आज सुबह मुंबई में बांदरा के हिल रोड स्थित माउंट ब्लैंक के डुपलेक्स फ्लैट में अपने बेडरूम में हरे रंग के कपड़े का फंदा लगाकर आत्महत्या कर ली.उस वक्त उन्होने काले रंग की टीषर्ट पहन रखी थी.इस खबर से हर कोई सदमें है.पुलिस सूत्रों के अनुसार कल रात सुशांत सिंह राजपूत के घर पर उनके कुछ दोस्त आए थे. उसके बाद रात एक बजे सुशांत सिंह राजपूत ने अभिनेता महेश कृष्ण षेट्टी को फोन लगाया था,मगर रात ज्यादा हो गयी थी,इसलिए शायद महेश ने उनका फोन नहीं उठाया.उसके बाद वह सोने के लिए चले गए थे.सूत्र बता रहे हैं कि सुबह दस बजे सुशंात सिंह राजपूत अपने कमरे से बाहर निकले थे,एक गिलास अनार का जूस पीने के बाद वह पुनः अपने कमरे में बंद हो गए थे. काफी देर तक इंतजार करने के बाद घर में मौजूद चार सदस्यों (घर का नौकर दीपेश सावंत, नीरज सिंह,सिद्धार्थ पठानिया)ने उनका दरवाजा ठोका,तो आवाज नही आयी. उसके बाद एक चाभी वाले को बुलाकर दरवाजा तुड़वाया,तो सुशांत सिंह राजपूत पंखे से लटके पाए गए.तीन लोगों ने मिलकर उन्हे उतारकर बेड पर लिटाया और पुलिस को फोन किया गया.दोपहर में करीब ढाई बजे पुलिस उनके घर पहुंची.

पुलिस को सुशांत सिंह राजपूत के घर से जो दस्तावेज और मेडिकल फाइल मिली है,उसके अनुसार सुशांत सिंह राजपूत पिछले छह माह से डिप्रेशन का शिकार थे. डिप्रेशन में इंसान आत्महत्या करने जैसा कदम उठा सकता है. मगर आश्चर्य की बात यह है कि  सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या करने से पहले कोई सुसाइड नोट/आत्महत्या करने की वजह वाला पत्र भी लिखकर नहीं छोड़ा है. जबकि सुशात सिंह राजपूत ने आत्महत्या करने के लिए हरे रंग का फांसी का फंदा खुद ही तैयार किया. इतना ही नही बीती रात सुशांत सिंह राजपूत के घर आने वाले उनके दोस्तो के नाम अभी तक सामने नहीं आए हैं.इसलिए भी कुछ कहना मुष्किल है.

 

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उधर पटना से सुशांत सिंह राजपूत के मामा ने न्यायिक जांच की मांग करते हुए कहा है कि सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या नही कर सकता.उधर पुलिस अपनी जांच को आगे बढ़ाने के लिए सुशांत सिंह राजपूत के घर से काफी सामान अपने साथ लेकर गयी है.पुलिस का मानना है कि वह पोस्ट मार्टम रिपोर्ट आने के बाद ही कुछ कह सकेगी,पर अभी तक उन्हे कुछ भी संदेहास्पद नहीं मिला.इसलिए अभी तो यह आत्महत्या का मामला ही लग रहा है.

मगर रात होते होते मामला गड़बड़ा गया.रात दस बजे पुलिस की क्राइम ब्रांच के कुछ सिपाहीं पुनः सुशांतसिंह राजपूत के घर पहुंचे, फोरेंसिक विभाग ने भी अपनी जांच कर सबूत जुटाए.करीब रात ग्यारह बजे पुलिस सुशांत सिंह राजपूत के घर से काफी सामान लेकर बाहर निकली.
मूलतः पटना निवासी सुशंात सिंह राजपूत की मां का 2002 में निधन हो गया था.कुछ वर्ष पहले उनकी एक बहन की मौत हो गयी थी.उनकी एक बहन उनके साथ रहती थी और दो बहने तथा पिता पटना में रहते हैं.
आत्महत्या या डिप्रेशन की वजहें क्या हो सकती हैं?
अभी तक पुलिस के अनुसार सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या की और वह पिछले छह माह से डिप्रेशन में चल रहे थे.मगर लोग सवाल उठा रहे हैं कि सुशांत सिंह राजपूत डिपे्रशन क्यों जाएंगे? आत्महत्या क्यों करेंगे?
निजी जीवन के रिश्तेः
सुशात सिंह राजपूत को नजदीक से जानने वालों की माने तो सुशांत सिंह राजपूत की अपनी निजी जिंदगी बहुत सहज तरीके से आगे नहीं बढ़ रही थी.उनकी निजी जिदंगी में कई तरह की मुसीबतें थी.टीवी सीरियल‘‘पवित्र रिश्ता’’से अंकिता लोखंडे और सुशांत सिंह राजपूत दोनों को सफलता मिली.इसी सीरियल में रोमांटिक जोड़ी के रूप में उभरे और अभिनय करने के दौरान दोनों के बीच एक रिश्ता कायम हो गया थ,जिसे बाद में दोनो ने स्वीकार भी किया था.लगभग 7-8 वर्षो तक दोनों एक साथ रहे. अंकिता लोखंडे के साथ रिश्ता खत्म होने तक सुशांतसिंह राजपूत उनके घर में ही रहा करते थे.अंकिता लोखंडे के साथ संबंध खत्म होने के बाद कुछ अभिनेत्रियों से उनके रिश्ते के जुड़ने की खबरे भी आयी थी,पर यह कुछ माह में ही खत्म हो गए थे.फिल्म‘राब्टा’’के बाद से कृति सैनन के साथ उनके रिश्ते चर्चा में रहे,पर जल्द ही इस पर विराम लग गया.पिछले एक वर्ष से अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती के साथ उनके रिश्तों की चर्चा रही है.यह एक अलग बात है कि सुशांत सिंह राजपूत या रिया चक्रवर्ती ने कभी भी रिश्ते की बात कबूल नही की.अब सुशांत के रिश्तेदार दावा कर रहे हैं कि सुशांत सिंह नवंबर माह में विवाह करने वाले थे. किससे यह किसी को नही पता.पर चर्चाएं हैं कि पिछले दो माह से रिया के साथ कुछ अनबन चल रही थी.तो 34 वर्ष की उम्र में भी  निजी जीवन में स्थिरता ना होने की वजह से भी उनके डिपे्रशन में जाने की बातें कही जा रही है.

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आर्थिक हालातः
इसके अलावा डिपे्रशन की दूसरी वजह उनके आर्थिक हालात हो सकते हैं.2013 में फिल्म‘‘कई पो छे’’से उन्होने फिल्मों में कदम रखा था.मगर टीवी से फिल्मों में कदम रखने वाले कलाकारों को फिल्मों में उस तरह की पहचान नही मिलती है, जिस तरह की पहचान की अक्सर उन्हें उम्मीद होती है.क्योंकि टीवी पर वह स्टारडम का स्वाद चख चुके होते हैं.
इसके अलावा उपरी स्तर पर हम सभी देख रहे थे कि सुषात सिंह राजपूत फिल्मों में सफल हो गए हैं.उनका कैरियर अच्छा चल रहा है.मगर हमें यह नही भूलना चाहिए बॉलीवुड जैसे ग्लैमर की दुनिया में एक कलाकार को अपना स्टेटस मेनटेन करने के लिए काफी पैसे खर्च करने पड़ते हैं.फिल्मों में आने के साथ ही इंसान की जीवन शैली पूरी तरह से बदल जाती है.उपर से सफल और खुशहाल नजर आने वाला कलाकार अंदर से किस तरह के आर्थिक हालात से गुजर रहा है,इसकी भनक किसी को नही लगती.हर कलाकार के पास घरेलू नौकर के अलावा ड्रायवर, पी आर मैनेजर, बिजनेस मैनेजर, सेके्रटरी सहित एक लंबी चैड़ी फौज रहती है,जिसके लिए हर माह पैसे खर्च करने पड़ते हैं.हमें याद रखना चाहिए कि फिल्म कलाकार को मासिक वेतन नही मिलता हैं.उनको प्रति फिल्म पारिश्रमिक राशि मिलती है.उनकी पिछली फिल्म‘‘छिछोरे’’नौ माह पहले रिलीज हुई थी,तो मान कर चलें कि इसकी पारिश्रमिक राषि उन्हें एक साल पहले मिल गयी होगी.उनकी नयी फिल्म ‘दिल बेचारा’ की शूटिंग भी उससे पहले पूरी हो गयी थी.मुकेश छाबड़ा निर्देशित फिल्म‘‘दिल बेचारा’’पहले 29 नवंबर 2019 को रिलीज होने वाली थी.पर नहीं हो पायी थी.फिर 8 मई को रिलीज होने वाली थी,मगर लॉक डाउन व सिनेमाघर बंद होने के चलते नही हो पायी.अब इसे‘हॉट स्टार डिजनी’पर रिलीज करने की तैयारी थी.इस बात की घोषणा मंगलवार,16 जून को ट्वीट कर सुशांत सिंह राजपूत करनं वाले थे,मगर उससे पहले ही वह इस संसार को अलविदा कह कर चले गए.कुल मिलाकर पिछले एक वर्ष से सुशंातसिंह राजपूत के पास काम नही था.‘कोरोना’के चलते पिछले तीन माह से सब कुछ बंद चल रहा था.किसी को कोई पैसे नही मिल रहे थे.तो स्वाभाविक सी बात है कि सुशांत सिंह राजपूत के पास भी पैसे नही आएं होंगे.जबकि एक कलाकार होने के नाते उनके खर्चो में कोई कटौती नहीं आयी होगी.क्योकि ग्लैमर की इस दुनिया में हर किसी को दिखावा तो करना ही पड़ता है.
इतना ही नही कुछ समय पहले ही सुशांत सिंह राजपूत ने मुंबई के बांदरा इलाके में आलीशान डुपलेक्स खरीदा था,सूत्र दावा कर रहे हैं. कि इसके लिए उन्होंने बीस करोड़ों रूपए चुकाए थे.अब यदि इसके लिए बैक से कर्ज लिया होगा,तो उसका संकट भी हो सकता है.पर हमें सच नही पता.बॉलीवुड में किसी कलाकार को देखकर उसकी आर्थिक हालात का अंदाजा लगाना सही नही होता.कोई भी कलाकार इस संबंध में अपने करीबी दोस्तों से भी बात नही करता है.

उधर जिस तरह की बातें छनकर सामने आ रही हैं,उसके अनुसार तीन दिन पहले सुशांत सिंह ने एक नौकर से कहा था कि उन्होने सभी का कर्ज चुका दिया.पर वह नौकरों को वेतन दे पाएंगे या नही,उन्हे पता नही.अब इसके क्या अर्थ निकाले जाएं.वैसे अब सूत्रों के अनुसार पुलिस भी उनके बैक खाते की जांच कर रही है.

कैरियर में उतार चढ़ाव
मुंबई पहुंचने पर सुशांत सिंह राजपूत ने अपने कैरियर की शुरूआत टीवी से की थी.2008 में उन्होने पहला सीरियल‘‘किस देश में है मेरा दिल’में अभिनय किया था.फिर एकता कपूर निर्मित सीरियल‘‘पवित्र रिश्ता’’में उन्होने मानव देशमुख का किरदार निभाया,जिसमें अंकिता लोखंडे के साथ उनकी रोमांटिक जोड़ी थी.
सुशांत सिंह राजपूत की 2013 में आयी पहली फिल्म ‘कई पो छे’में सारे नए कलाकार थे.कम बजट की फिल्म थी.तो स्वाभाविक तौर पर डन्हें बहुत अधिक पैसे भी नही मिले होंगे.इसके बाद उनकी दूसरी फिल्म‘‘शुद्ध देशी रोमांस’’थी,जो कि बुरी तरह से असफल हो गयी थी.फिर वह आमिर खान व अनुष्का शर्मा के साथ फिल्म ‘‘पीके’’में एक छोटे से किरदार में नजर आए थे.इस फिल्म से सारी षोहरत आमिर खान और अनुष्का बटोर ले गए थे.इसके बाद वह फिल्म वह ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्षी’में नजर आए थे.यह फिल्म कलात्मक फिल्म थी,लेकिन बाक्स आफिस में इसे बहुत ज्यादा सफलता नही मिली थी.इसके बाद ‘एम एस धोनी’ने जरूर उन्हें षोहरत दिलायी.इसके बाद 2017 में फिल्म ‘‘राब्टा’’ आयी, जिसमें कृति सैनन के साथ उनके काफी गर्मागर्म सीन भी थे.इसी फिल्म के दौरान कृति सैनन व सुशंात सिंह राजपूत के बीच निजी जिंदगी में भी एक रिष्ता पनपा,जिसे दोनो ने कभी भी खुलकर स्वीकार नहीं किया.मगर इस फिल्म से निर्माता को नुकसान हुआ था.45 करोड़ की लागत से बनी यह फिल्म बाक्स आफिस पर महज 37 करोड़ ही कमा सकी थी.2018 में ‘वेलकम टू न्यूयॉर्क’ने पानी नही मांगा.‘केदारनाथ’ठीक ठाक चली थी. 2019 में ‘सोनचिरैया’, ‘छिछोरे’और ‘ड्राइव’ आयी.‘ ड्राइव’एक ऐसी फिल्म थी,जो कई वर्षो से बनकर तैयार थी,लेकिन उसे खरीददार नही मिल रहा था.  अंततः यह फिल्म ओटीटी प्लेटफार्म पर दे दी गयी.फिल्म‘छिछोरे’सफल हुई. इसका कॉसेप्ट भी अच्छा था.पर इसका सारा श्रेय निर्देषक नितेष तिवारी ले गए,सुशांत सिंह राजपूत को जो षोहरत मिलनी चाहिए थी, वह न मिल सकी.और यदि पुलिस सूत्रो पर यकीन किया जाए,तो लगभग उसके बाद से ही सुशांत सिंह राजपूत डिप्रेशन में चल रहे थे.यहां तक कि उनके कैरियर की अंतिम फिल्म‘‘दिल बेचारा’’भी ओटीटी प्लेटफार्म पर जा रही थी.

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यूं तो लोगों की नजर में सुषांत सिंह राजपूत का ‘औरा’बहुत बड़ा था,पर हकीकत में ऐसा नही था.शायद इस बात को सुशांत सिंह राजपूत भी समझते थे कि लोगों को मेरा ‘औरा’जिस तरह का नजर आ रहा है,वहां तक तो मैं पहुंच ही नही पाया.शायद इसके चलते भी वह डिप्रेशन का शिकार हुए होंगे.
पूर्व सेक्रेटरी की आत्महत्याः
इसके अलावा यदि हम मनोवैज्ञानिकों की  बात माने तो पांच दिन पहले उनकी पूर्व सेके्रटरी दिशा सालियान ने अपने घर की चैदहवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या की घटना ने भी सुशांत सिंह राजपूत के दिमाग पर असर किया होगा. मनौवैज्ञानिक डॉक्टरों के अनुसार इंसान के नजदीकी लोगों के साथ जुड़ी घटना इंसान के दिमाग में असर करती हैं.षायद दिशा सालियान की आत्महत्या की खबर से भी से वह विचलित हुए होंगे और इस घटनाक्रम ने उनके डिपे्रशन को बढ़ाया  होगा.

अब देखना है कि पुलिस की रपट और समय के साथ क्या सच सामने आता है.

 

फादर्स डे स्पेशल: मेरे पापा -6

मैं राजस्थान में पाली जिले के छोटे से गांव वरकाणा का मूल निवासी हूं. 4 वर्ष की उम्र में पढ़ाई के लिए 3 किलोमीटर दूर मुझे पड़ोस के गांव में पैदल जाना पड़ता था. जब मैं 7वीं कक्षा में पढ़ रहा था, तब एक दिन जोधपुर शहर देखने की इच्छा हुई, जोकि गांव से करीब 150 किलोमीटर की दूरी पर है. एक दिन पापा को बताए बिना मैं गांव से 7 किलोमीटर दूर रानी स्टेशन जा पहुंचा तभी गांव में किसी ने मेरे पापा को मेरे कार्यक्रम की सूचना दे दी. वे भागते हुए आए और मुझे घर वापस ले गए और कहा कि पढ़ाई खूब मन लगा कर करोगे तभी मैं तुम्हें जोधपुर भेजूंगा.

मेरे 12वीं पास करने के बाद पिताजी ने मुझे जोधपुर इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला दिला दिया. मैं अपने अनपढ़ पापा के मार्गदर्शन से अधिशासी अभियंता, राज्य विद्युत मंडल से अब जोधपुर शहर में सेवानिवृत्त हुआ हूं. मेरे पापा का देहावसान 1994 में हो चुका है. मेरे पापा को मेरा शतशत नमन.

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ताराचंद, जोधपुर (राज.)

*मेरे पापा, मम्मी से अकसर कहते, उन्हें पहली संतान बेटी ही चाहिए. जब मेरा जन्म हुआ तो पापा बहुत खुश हुए और उन्होंने अस्पताल में मिठाइयां बांटीं. शाम को औफिस से आ कर मेरे साथ खेलना और प्यार करना उन का पहला काम होता. हर महीने वे मेरे लिए अपनी पसंद की नई ड्रैस लाते, जो मुझ पर खूब फबती. लोग मेरी तारीफ करते तो पापा बहुत खुश होते. 5 वर्ष की उम्र में दिल्ली पब्लिक स्कूल में एडमिशन के लिए मेरे इंटरव्यू पास करने पर पापा ने बड़ी पार्टी दी. पापा खुद ही मुझे पढ़ाते. जब मुझे बैस्ट  ‘स्कौलर बैज’ मिला तो पापा ने सैलिब्रेट किया. पापा की हार्दिक इच्छा मुझे इंजीनियरिंग में प्रवेश दिलाने की थी. मेरा जन्मदिन पापा धूमधाम से मनाते थे.

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पापा के अत्यधिक लाड़प्यार से मेरा वजन काफी बढ़ गया. इसलिए अब वे मेरे लिए अपनी पसंद की ड्रैस नहीं ला पाते थे. अत: उन्होंने मेरे लिए खुद व्यायाम और डाइट चार्ट बनाया. उन की सुबह मेरे नाम से ही शुरू होती, और रात सोने तक होंठों पर मेरा ही नाम होता. अब उन के 2 सपने थे, मेरा वजन कम कराना और अपनी तरह इंजीनियर बनाना. तब मेरे लिए पापा के पास वक्त ही वक्त था. पापा कहते, ‘बेटियां बहुत प्यारी होती हैं. उन्हें सिर्फ प्यार और खुशी देनी चाहिए. उन का भविष्य किस ने देखा है?’ आज मैं जो कुछ भी हूं पापा की वजह से हूं पर मेरी इन उपलब्धियों पर फक्र करने वाले मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं हैं. पापा के बगैर मुझे अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता.

बुलबुल, मायापुरी (न.दि.)

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