जले मन पर मानो नमक छिड़क दिया पारुल ने. तिलमिला कर कहने जा रही थी कि बहुत काम रहता है प्रशांत को… इतना बड़ा बिजनैस हैंडल करना आसान नहीं है. पीयूष की तरह फुरसतिया नहीं हैं कि चौबीसों घंटे मोबाइल पर बीवी से बातें या मैसेज करते रहें. लेकिन हड़बड़ा कर झूठ ही बोल गई, ‘‘सुबह ही तो तेरे आने से पहले बहुत देर तक बातें हुई थीं. फिर रात में भी बहुत देर तक बातें करते रहे. आखिर मैं ने ही कहा कि अब सो जाओ तब बड़ी मुश्किल से फोन काटा,’’ कहते हुए पल्लवी पारुल से आंखें नहीं मिला पाई. नाश्ता परोसने के बहाने आंखें यहांवहां घुमाती रही.
मोबाइल को हाथ में पकड़े पल्लवी घूर रही थी. सुबह के 10 बज गए हैं. क्या अब तक प्रशांत सो कर नहीं उठे होंगे? क्या उन्होंने मेरी मिस कौल नहीं देखी होंगी? क्या एक बार भी वे फोन नहीं लगा सकते? पता नहीं क्यों अचानक पल्लवी का मन तेजी से यह इच्छा करने लगा कि काश प्रशांत का फोन आ जाए. हमेशा से इस अकेलेपन को आजादी मानने वाली पल्लवी आज पारुल के सामने बैठ कर अचानक ही क्यों इस अकेलेपन से ऊब उठी है? क्यों किसी से कोने में जा कर बात करने को उस का मन लालायित हो उठा.
अपनेआप के साथ रह कर, जो अकेलापन कभी अकेलापन नहीं लगा वही पारुल के साथ होने पर भी क्यों आज इतने बरसों बाद काट खाने को दौड़ रहा है? शायद इसलिए कि पारुल उस के साथ, उस के सामने होते हुए भी लगातार पीयूष से जुड़ी हुई है, उस के साथ और जुड़ाव का एहसास ही पल्लवी के अकेलेपन को लगातार बढ़ाता जा रहा था.
पल्लवी ने फिर प्रशांत को फोन लगाया. लेकिन अब की बार उस का फोन स्विच औफ मिला. झुंझला कर पल्लवी ने प्रशांत के औफिस में फोन लगाया. उस की पी.ए. को तो कम से कम पता ही होगा कि प्रशांत कहां हैं, किस होटल में ठहरे हैं. औफिस में जिस ने भी फोन उठाया झिझकते हुए बताया कि सर की पी.ए. तो सर के साथ ही मुंबई गई है.
पल्लवी सन्न रह गई. तो इसलिए प्रशांत फोन नहीं उठा रहे थे. रात में और सुबह से ही फोन का स्विच औफ होने का कारण भी यही है. मुंबई के बाद बैंगलुरु फिर हैदराबाद. एक से एक आलीशान होटल और… पल्लवी हर बार कहती कि घर में बच्चे तो हैं नहीं, मैं भी साथ चलती हूं तो प्रशांत बहाना बना देते कि मैं तो दिन भर काम में रहूंगा. रात में भी देर तक मीटिंग चलती रहेगी. तुम कहां तक मेरे पीछे दौड़ोगी? बेकार होटल के कमरे में बैठेबैठे बोर हो जाओगी.
सच ही तो है बीवी की जरूरत ही नहीं है. पी.ए. को साथ ले जाने में ही ज्यादा सुविधा है. दिन भर काम में मदद और रात में बिस्तर में सहूलत. अचानक पल्लवी की आंखों के सामने आपस में हंसीचुहल करते हुए खाना बनाते और काम करते पीयूष और पारुल के चित्र घूम गए. पहले जिस बात को सुन कर पल्लवी तुच्छता से हंस दी थी आज उसी चित्र की कल्पना कर के उसे ईर्ष्या हो रही थी.
ईर्ष्या, क्षोभ, प्रशांत द्वारा दिया जा रहा धोखा और अपमान सब पल्लवी की आंखों से बहने लगे. क्यों बुलाया पारुल को उस ने? आराम से इस ऐश्वर्य और पैसे से खरीदे गए सुखसाधनों से, अपनेआप को संपन्न, सुखी मान कर सुख से बैठी थी कि पारुल ने आ कर उस के सुख को चूरचूर कर दिया. जीवन में पहली बार पारुल का सुख और चेहरे की चमक देख कर पल्लवी को लगा कि पैसा ही सुख का पर्याय नहीं है.
पारुल के चेहरे को घूरघूर कर पल्लवी दुख की लकीर ढूंढ़ना चाह रही थी. आज उसी चेहरे की चमक देख कर उस के अपने चेहरे पर मायूसी के बादल छा रहे हैं. अब वह पारुल के चेहरे पर नजर डालने की ही इच्छा नहीं कर पा रही है, डर रही है. उस के चेहरे की रोशनी से खुद के मन का अंधेरा और घना न हो जाए.
दोपहर के खाने के बाद दोनों बातें करने बैठीं.
‘‘तुम ने अपनी क्या हालत बना रखी है दीदी? बच्चे होस्टल में, जीजाजी इतनेइतने दिन टूअर पर… पहाड़ सा दिन अकेले कैसे काटती हो?’’ पारुल के चेहरे पर पल्लवी के लिए सचमुच की हमदर्दी थी.
शाम को दोनों फिर घूमने निकल गईं. पल्लवी पारुल को शहर के सब से महंगे बुटीक में ले गई.
‘‘अपने लिए कोई सूट पसंद कर ले,’’ पल्लवी ने कहा.
‘‘बाप रे, यहां तो सारे सूट बहुत महंगे और चमकदमक वाले हैं. मैं ऐसे सूट पहन कर कहां जाऊंगी दीदी. इतनी चमकदमक मेरे प्रोफैशन को सूट नहीं करती,’’ पारुल के स्वर में चमकदमक के लिए तिरस्कार और अपने प्रोफैशन के प्रति स्वाभाविक गर्व का आभास था.
चोट मानो पल्लवी पर ही हुई थी. तब भी पल्लवी ने बहुत कहा पर पारुल मुख्यतया पैसों पर ही अड़ी रही. कहती रही कि यह फुजूलखर्ची है.
‘‘अरी, शादी के बाद पहली बार आई है. पैसों की चिंता मत कर. मैं उपहार दे रही हूं,’’ पल्लवी बोली.
‘‘बात पैसों की नहीं है दीदी. तुम दो या मैं दूं. बात वस्तु के उपयोग की है. बेकार अलमारी में बंद पड़ा रहेगा. अब मैं तुम्हारी तरह हाईफाई बिजनैस पार्टियों में तो जाती नहीं हूं,’’ कह कर पारुल बुटीक से बाहर आ गई.
रात खाना दोनों बाहर ही खा कर आईं. घर लौटते ही पीयूष का फोन आया. सेमिनार खत्म हो चुका है. वह सुबह की फ्लाइट पकड़ कर आ रहा है. उस ने पारुल से भी कहा कि कल ही फ्लाइट से वापस आ जाओ.
‘‘पर तेरा तो परसों रात का रिजर्वेशन है न?’’ पल्लवी ने पूछा.
‘‘उसे मैं कल सुबह कैंसल करवा आऊंगी. 11 बजे की फ्लाइट है. टिकट तो मिल ही जाएगा. एअरपोर्ट पहुंच कर ही ले लूंगी. 2 बजे तक पहुंच जाऊंगी,’’ पारुल के चेहरे की चमक और खुशी दोनों जैसे कई गुना बढ़ गई थीं.
‘‘इतने सालों बाद आई है. ठीक से बात भी नहीं कर पाई और 2 ही दिन में वापस जा रही है. ऐसा भी क्या है कि पीयूष 2 दिन भी नहीं छोड़ सकता तुझे,’’ पल्लवी नाराजगी वाले स्वर में बोली.
‘‘फिर कभी आ जाऊंगी दीदी. बल्कि तुम ही क्यों नहीं आ जाया करतीं. बच्चे दोनों घर पर नहीं हैं और जीजाजी इतनेइतने दिन टूअर पर… उफ, कैसे रहती हो तुम,’’ पारुल के स्वर में सहजता थी. लेकिन पल्लवी को लगा पारुल कटाक्ष कर रही है.
सच ही तो है. ऐसी दीवानगी है एकदूसरे के लिए जैसी पल्लवी ने अपने लिए 4 दिन भी नहीं देखी. दीवानगी नहीं देखी यह बात नहीं है, लेकिन अपने लिए नहीं देखी, देखी है पैसे के लिए. पैसे से खरीदी जा सकने वाली हर चीज के लिए. एक पल्लवी में भी तो दीवानगी बस पैसे के लिए ही रही है. और किसी के लिए भी जीवन में दीवाना हुआ जा सकता है, यह तो पारुल को देख कर पता चला. जो पारुल महज पैसों की खातिर महंगा सूट नहीं खरीद रही थी वह और पीयूष से 2 दिन जल्दी मिमने की खातिर प्लेन से वापस जाने को तैयार हो गई. जो पल्लवी से मिलने व साधारण स्लीपर क्लास में आई थी. यानी पैसा है, लेकिन मनुष्य के लिए पैसा है, पैसे के लिए मनुष्य नहीं है.
जिस शानदार पलंग पर पल्लवी पैर पसार कर निश्चिंत सोती थी, आज उसी पलंग पर मानों वह अंगारों की जलन महसूस कर रही थी. वह यहां अकेली है और वहां प्रशांत के साथ… पैसे से हर सुख नहीं खरीदा जा सकता, कम से कम औरतों के बारे में तो यह बात लागू होती ही है.
उठ कर पल्लवी पता नहीं किस अनजाने आकर्षण में बंध कर पारुल के कमरे की तरफ गई. देखा पलंग के सिरहाने की तरफ रोशनी झिलमिला रही है. अपने पलंग पर औंधी पड़ कर पल्लवी सुबकने लगी. उस का गरूर टूट कर आंखों के रास्ते बहने लगा.