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मुंबई एअरपोर्ट पहुंच कर बोर्डिंग पास लेते हुए अभिरूप ने राधिका से पूछा, ‘‘विंडो सीट पसंद करोगी न?’’ राधिका ने ‘हां’ में सिर हिला दिया. अभिरूप ने एक विंडो सीट के लिए कहा, दोनों ने अपना बोर्डिंग पास लिया. राधिका के पास बस अब हैंडबैग था. अभिरूप ने पूछा, ‘‘कौफी पिओगी?’’

‘‘लेकिन आप को तो कौफी अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘तो क्या हुआ, तुम्हें तो पसंद है न. तुम्हारा साथ दे दूंगा.’’

दोनों ने एकदूसरे को भावपूर्ण नजरों से देखा. दोनों की आंखों में बस अनुराग ही अनुराग था. दोनों ‘कैफे कौफी डे’ जा कर कुरसी पर बैठ गए. अभिरूप 2 कौफी ले आए. फ्लाइट के उड़ने में 1 घंटा था. राधिका ने कहा, ‘‘अब क्या करें, एअरपोर्ट आ कर इतनी देर बैठने से मुझे हमेशा कोफ्त होती है, यह समय काटना मुश्किल हो जाता है.’’

अभिरूप हंसे, ‘‘अच्छा, हो सकता है अब तुम्हें ऐसा न लगे. बंदा अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेगा कि तुम्हें बोरियत न हो.’’

अभिरूप के नाटकीय अंदाज पर राधिका हंस पड़ी. अभिरूप की नजर हंसती हुई राधिका पर टिक गई, बोले, ‘‘ऐसे ही हंसती रहना अब हमेशा, बहुत अच्छी लगती हो हंसते हुए.’’

राधिका शरमा गईं, मन में रोमांच की एक तेज लहर सी उठी. लगा, इस उम्र में भी ऐसी बात सुन कर शर्म आ सकती है. और फिर सचमुच अभिरूप के साथ समय कब कटा, पता ही न चला उन्हें. वे ध्यान से उन्हें देखती रही थीं, एकदम चुस्तदुरुस्त, हमेशा हंसतामुसकराता चेहरा, राजनीति, मौसम विज्ञान से ले कर मनोविज्ञान तक, हर विषय पर उन की इतनी अच्छी पकड़ थी कि किसी भी विषय पर वे घंटों बात कर सकते थे.

दोनों तय समय पर प्लेन में अपनी सीट पर जा कर बैठ गए. राधिका विंडो सीट पर बैठ गईं, बीच वाली सीट पर अभिरूप और तीसरी सीट पर एक लड़का आ कर बैठ गया. उड़ान भरते ही राधिका बाहर दिख रहे रूई के गोलों जैसे बादलों में खो गईं. थोड़ी देर में उन्होंने अभिरूप पर नजर डाली. उन की आंखें बंद थीं. बादलों में खोएखोए राधिका के मन में पिछले दिनों की घटनाएं चलचित्र की तरह घूमने लगीं.

55 साल की राधिका और 60 साल के अभिरूप पहली बार सोसायटी के सामने मार्केट में बनी लाइब्रेरी में मिले थे. राधिका ने जब भी उन्हें देखा, ऐसा ही लगा जैसे उम्र उन्हें बस छू कर निकल गई है.

अभिरूप के घर में उन का बेटा विनय, बहू अवनि और पोती रिमझिम थी. अभिरूप एक कंपनी में वाइस प्रैसीडैंट थे. शारीरिक और मानसिक रूप से अत्यधिक फिट होने के कारण वे आज भी कार्यरत थे. योग्यता के कारण उन्हें एक्सटेंशन मिलता जा रहा था.

उन की पत्नी नीला की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी थी जिस में वे बालबाल बचे थे.

अकसर अभिरूप और राधिका मिल ही जाते थे, कभी लाइब्रेरी में तो कभी सैर करते हुए. राधिका अकेली रहती थीं. एक ही बेटा था अनुज, जो अमेरिका में अपनी विदेशी पत्नी कैरेन और बेटे अमन के साथ रहता था. राधिका शुरू में तो साल दो साल में अमेरिका गईं लेकिन उन्हें वहां अच्छा नहीं लगता था. उन का मन यहीं अपने घर में लगता था. अब अनुज ही चक्कर लगा लेता था. शाम को राधिका कुछ साउथ इंडियन बच्चों को हिंदी की ट्यूशंस पढ़ाती थीं. सैर पर जाना उन की दिनचर्या का हिस्सा था. पुस्तकें पढ़ती थीं, वक्तजरूरत या कभी तबीयत खराब होने पर साफसफाई करने वाली मेड लता थी ही.

राधिका के पति विनोद का निधन तो सालों पहले हो गया था. विनोद जो पैसा छोड़ गए थे वह और जो विनय भी जबरदस्ती भेजता रहता था, उन के लिए काफी था.

अभिरूप शनिवार और रविवार को ही राधिका को सैर करते दिखते थे. पता नहीं चला, कब बात होने लगी, वे घर भी आए, दिल खुले, अंतरंगता बढ़ी. दोनों बाहर भी साथ आनेजाने लगे थे. सबकुछ अपनेआप होता चला गया था. दोनों ही बच्चों की परवा, लोगों की बातों से विचलित नहीं हुए. अपनी उम्र के लोगों से बात कर के एक अजीब सा सुकून मिलता है. एक जैसी समस्याएं, एक जैसी खुशियां, सबकुछ शेयर करना बहुत अच्छा लगने लगा. राधिका को ऐसा लगा, वे अकेली नहीं हैं, दोनों एकदूसरे के दर्द को आसानी से समझ सकते हैं. सामने वाले के पास हमारी बात सुनने का समय है, वह हमें गंभीरता से ले रहा है, इस उम्र में यह एहसास ही खासा सुकून देने वाला होता है.

राधिका कुछ अपनी कहतीं, कुछ उन की सुनतीं. मरते पौधों को पानीखाद मिले, अच्छी देखभाल हो तो वे भी जी उठते हैं. इन 2 अकेले प्राणियों को एकदूसरे की सहानुभूति मिली, अपनापन मिला तो दोनों के जीवन में जान आने लगी थी.और एक दिन अभिरूप ने जब राधिका के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो वे बुरी तरह चौंक गई थीं. बस, मुंह से यही निकला था, ‘क्या, इस उम्र में?’

‘क्यों, उम्र को क्या हुआ है तुम्हारी? अगर हम साथ हो जाएं तो जो जीवन हम काट रहे हैं उसे एक अर्थ, एक उद्देश्य दे सकते हैं.’

वे चुप रही थीं, सोचने के लिए समय मांगा था. बहुत सोचा था, लगा था यह भी सही है अकेलापन सहा नहीं जाता, काटने को दौड़ता है, घड़ी की सूइयां ठहरी हुई सी लगती हैं. सब से बड़ी बात तो यह है कि कई बातें ऐसी होती हैं, कुछ दुखदर्द ऐसे होते

हैं जिन्हें जीवनसाथी के साथ ही बांटा जा सकता है. बड़े बच्चों की मां के पुनर्विवाह की बात न तो समाज सोचता है न तो स्वयं, कोई विवेकानंद या दयानंद पैदा नहीं होता इस समाज में. बस, यादों के सहारे ही विधवा जीवन निकालना होता है.

राधिका रातदिन पता नहीं कितने विचारों में डूबतीउतराती रहीं. वे सोचतीं, अपने एकाकी मन का क्या करें जो रहरह कर किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़ रहा था जिस के सामने फूट पड़ें, अंदर का सबकुछ बहा डालें किसी झरने की तरह. सभी चाहतें, उमंगें, केवल बच्चों और जवानों के लिए ही होती हैं क्या? उन की उम्र के लोगों की जीवन जीने की कोई साध नहीं होती? सच पूछा जाए तो उन्हें लग रहा था कि जीवन का यही सब से सुंदर, सब से रोमांचकारी समय था. जीवन की संध्या में ही सही. अंतरात्मा का शून्य भरने कोई आया तो था. वे विमुग्ध थीं, अपनेआप पर, अभिरूप पर, अपनी नियति पर.

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