‘‘आईएएस की ट्रेनिंग के दौरान मु झे आदर्श मिले, जो सिर्फ नाम के ही नहीं विचारों के भी आदर्श हैं. आदर्श को जीवनसाथी में रूप की नहीं, गुणों की तलाश थी और हम परिणयसूत्र में बंध गए. ससुराल जाते हुए मैं बहुत आशंकित थी लेकिन मेरी सारी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं. ससुराल में सब ने मेरा खुलेमन से स्वागत किया. मेरा ससुराल सचमुच ‘घर’ था, जहां सब को एकदूसरे की भावनाओं का खयाल था. मेरी छोटीछोटी बातों की तारीफ होती. मैं किसी को रूमाल भी ला कर देती तो वे लोग एकदम खिल जाते. वे कहीं भी जाते तो मेरे लिए कुछ न कुछ जरूर लाते. तब मु झे अपने भाईबहन याद आते, जो सिर्फ अधिकार से लेना जानते हैं.’’
‘‘गरिमा, वे तुम से छोटे हैं,’’ मम्मी ने उन का पक्ष लेते हुए कहा.
‘‘मम्मी, आप ने हमेशा उन का पक्ष लिया है. इसीलिए वे जिद्दी हो गए हैं. मां होने का अर्थ हमेशा बच्चों की कमी पर परदा डालना नहीं होता बल्कि उन्हें सही राह दिखाना होता है. मम्मी, वे यदि छोटे हैं तो भैरवी भी तो छोटी ही है, लेकिन उस ने मु झे सही अर्थों में छोटी बहन का प्यार दिया. प्यार शब्द का अर्थ मैं ने इस परिवार में आ कर जाना है. प्यार में कोई लेनदेन नहीं होता, बस, प्यार होता है. बिना मेरी कमियों की तरफ इशारा किए भैरवी ने मेरे बालों की स्टाइल, मेरा पहनावा सब बदलवा दिया. मैं इस नई स्टाइल में काफी स्मार्ट लगने लगी जिस से मु झे मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास वापस मिला. मैं भैरवी की आभारी हूं. उस के लिए कुछ भी करने का मेरा मन करता है. जितना सामान मैं भैरवी को दे रही हूं, इस से कहीं ज्यादा ही वह बेटे के होने पर लाई थी और ग्लोरी के लिए मैं ने क्या नहीं किया और वह क्या लाई थी, आप से छिपा नहीं है,’’ मैं ने शिकायती अंदाज में कहा.
‘‘गरिमा…’’ मम्मी बोलीं.
‘‘नहीं मम्मी, मु झे गलत मत सम िझए. मैं नहीं चाहती कि ग्लोरी मु झे कुछ दे, लेकिन ग्लोरी को देना सिखाइए. उस की सुखी गृहस्थी के लिए यह जरूरी है,’’ मैं ने कहा.
‘‘मु झे आज पता चला तुम अपने दिल में अंदर ही अंदर इतना कुछ छिपाए हुए थीं. आज अचानक तुम्हारे दर्द की परतें खुलने लगीं तो मैं…’’ मम्मी बोलीं.
मम्मी की बात बीच में काटते हुए मैं बोली, ‘‘मेरा छोडि़ए, मम्मी, जो अकेला बीता, वह मेरा बचपन था और वह बीत चुका है. मेरा वर्तमान खुशियों से भरा है. मेरा दांपत्य बहुत सुखी है और आज आप को अपनी गृहस्थी में दखल देने से पहले ही रोक कर मैं ने बिखराव की पहली आहट पर ही विवेक का पहरा बिठा दिया है. ग्लोरी यही नहीं कर सकी है,’’ मैं ने कहा.
‘‘मतलब… गरिमा, साफसाफ कहो, क्या कहना चाह रही हो तुम. मु झे तुम्हारी बात सम झ में नहीं आई. मैं ग्लोरी के लिए बहुत चिंतित हूं,’’ मम्मी ने कहा.
मेरी छोटी बहन के प्रति उन की ममता उमड़ रही थी. ग्लोरी के लिए उन का चिंतित होना बहुत ही स्वाभाविक था. अब उन की आंखों में अपरिचित सा भाव दिखाई दे रहा था.
अतीत चलचित्र सा मेरे मानस पटल पर उभर रहा था. परिवार की सब से छोटी, सब की लाड़ली बेटी ग्लोरी का हित मम्मी के लिए सदैव सर्वोपरि रहा है.
पापा के गहरे मित्र ने अपने बड़े बेटे, अक्षय का रिश्ता मेरे लिए भेजा था. दहेज विरोधी इतना संपन्न परिवार, उस पर प्रोबेशनरी अफसर लड़का. बस, मम्मी की दुनियादारी का ज्ञान उन की कोमल भावनाओं पर हावी हो गया और मम्मी ने यह रिश्ता ग्लोरी के लिए तय कर लिया. पापा के अलावा और किसी ने कोई विरोध नहीं किया. हमेशा की तरह पापा झुक गए और बड़ी के कुंआरी रहते छोटी बेटी का ब्याह हो गया. ससुराल से लौटी ग्लोरी अपनी कुंआरी बड़ी बहन की भावनाओं को सम झे बिना अपने वैवाहिक जीवन के खट्टेमीठे अनुभव सुनाती रही.
ग्लोरी की कोई गलती नहीं थी. उस ने दूसरे की भावनाओं को सम झना सीखा ही नहीं था और न ही उसे सिखाया गया.
‘‘गरिमा, गरिमा, क्या कह रही थीं तुम? एकदम चुप क्यों हो गईं?’’ मम्मी के टोकने से मैं फिर वर्तमान में लौट आई.
‘‘मम्मी, दूसरे की भावना को सम झना हर ब्याही लड़की के लिए बहुत जरूरी होता है. हरेक को पापा जैसा सहनशील पति और परिवार नहीं मिलता. दूसरे की भावना को सम झे बिना ससुराल में कोई भी लड़की तालमेल नहीं बिठा सकती. अब से ही सही, ग्लोरी को सही राह दिखाइए,’’ मैं ने मम्मी से कहा.
मौन हुई मम्मी मेरी तरफ देख रही थीं. शायद वे मेरी बातों की सचाई तोल रही थीं.
‘‘मम्मी,’’ मैं फिर बोली.
‘‘हां,’’ मम्मी का स्वर बहुत धीमा था.
‘‘मम्मी, याद है आप को जब हम लोग पहली बार ग्लोरी के घर गए थे. कितना दौड़दौड़ कर वह सब काम कर रही थी और कितना खुश थी, लेकिन एकांत मिलते ही आप ने उसे सम झाया था… ‘ग्लोरी, सारा काम तुम ही करोगी क्या? अपनी ननद को भी करने दो. और साड़ी के पल्ले को पिन से बालों में क्यों रोक रखा है? अरे, पल्ला सिर से गिरता है तो गिरने दो. अभी से अपने पैर जमाना स्टार्ट करो. नहीं तो बहू के बजाय नौकरानी बन कर रह जाओगी, मैं ने मम्मी को याद दिलाते हुए कहा.
सिर हिलाती हुई मम्मी बोलीं, ‘‘याद है, सब याद है, लेकिन लाख सम झाने पर भी ग्लोरी कहां कुछ कर पाई. रोजरोज की खिटखिट से बेचारी परेशान रहती है. सम झ में नहीं आता, उस के लिए क्या करूं. अक्षय है कि अलग रहने के लिए तैयार ही नहीं है,’’ मम्मी के स्वर में ग्लोरी के प्रति गहरी हमदर्दी थी.
‘‘मम्मी, आप की उस दिन की वह सलाह ग्लोरी के परिवार के बिखराब की पहली दस्तक थी, जिस की आहट ग्लोरी नहीं सुन सकी थी,’’ मैं ने कहा.
‘‘क्या…?’’ मम्मी फटीफटी आंखों से मेरी तरफ देख रही थीं.
‘‘मम्मी, जब किसी परिवार में कोई बाहरी व्यक्ति दखल देने लगता है तो उसी पल उस परिवार का बिखराव तय हो जाता है,’’ मैं ने मम्मी को सम झाते हुए कहा.
‘‘बाहरी? मैं, मैं ग्लोरी के लिए बाहरी व्यक्ति हो गई?’’ मम्मी चौंक कर बोलीं.
‘‘हां, मम्मी. यही कड़वी सचाई है, इसे स्वीकार कीजिए. देखिए, ग्लोरी का घरपरिवार वही है, ग्लोरी वहां रह रही है और वही बेहतर सम झ सकती है, उसे वहां कैसे रहना चाहिए. परंतु वह अपने विवेक से नहीं, आप के बताए रास्ते पर चलती है. इसीलिए अपनी शादी के 4 साल बाद भी वह अपने परिवार को पूरी तरह अपना नहीं पाई है.’’
कुछ पल के मौन के बाद मम्मी बोलीं तो उन की आंखें नम हो आई थीं, ‘‘ग्लोरी बहुत भोली है, वह कुछ सम झ नहीं पाती.’’
‘‘मम्मी, आप उस का भला चाहती हैं तो उसे उस के हाल पर छोड़ दीजिए. अक्षय हैं न उसे राह दिखाने के लिए. मम्मी, अक्षय अच्छा लड़का है और सब से बड़ी बात यह है कि वह ग्लोरी को बहुत प्यार करता है. एक बार उसे उस के हाल पर छोड़ कर देखिए.’’
‘‘शायद तुम ठीक कह रही हो. मैं तो उस का…’’ कहतेकहते गला भर आया था. उन की आंखों से गरम आंसू टपक पड़े.
‘‘मम्मी, मु झे माफ कर दीजिए, मैं बहुत ज्यादा बोल गई. मैं आप को दुखी नहीं करना चाहती थी,’’ कहते हुए मेरा भी गला भर आया था.
मम्मी ने आगे बढ़ कर मु झे सीने से लगा कर कहा, ‘‘नहीं गरिमा, आज तुम ने मु झे सही आईना दिखाया है. मैं ने कभी इस नजरिए से नहीं सोचा था.’’
जाने कब तक हम मांबेटी एकदूसरे से लिपटी आंसू बहाती रहीं. दिल के तार दिल से जुड़ते गए और उस खारे जल के साथ मन की परतों में छिपे सारे गिलेशिकवे बह गए.
अब मन का आईना धुल कर चांदी सा चमकने लगा था मानो नवप्रभात के आगमन की सूचना दे रहा हो. द्य
मैं ने मम्मी का हाथ अपने हाथ में ले लिया और धीरे से बोली, ‘‘मम्मी, मु झे मालूम है मेरी बात आप को ठेस पहुंचा रही है. इस विषय को मैं ने हमेशा टालना चाहा है.’’
‘‘क्या? ये सब, मतलब ये सारा सामान तुम भैरवी को देने के लिए लाई हो?’’ मम्मी की आंखें आश्चर्य से फटी रह गईं
‘‘हां, मम्मी, भैरवी की पहली संतान को आशीर्वाद देने जा रहे हैं हम लोग,’’ मैं ने कहा.
‘‘अरे, तू होश में तो है? इतने सारे कपड़े, 5 साडि़यां, रजाईगद्दा, चादर, खिलौने, क्या तू ने उस का पूरा ठेका ले रखा है? और, जरा सा बच्चा सोने की चेन का क्या करेगा?’’ फैली नजरों से मम्मी मु झे देख रही थीं.
‘‘मम्मी, कैसी बात कर रही हैं आप? भैरवी की यह पहली संतान है,’’ मैं ने कहा.
‘‘कैसा क्या? तेरे भले की बात कर रही हूं. पहला बच्चा है तो क्या, कोई अपना घर उजाड़ कर सामान देता है किसी को?’’ मम्मी ने कहा.
‘‘छोडि़ए मम्मी, जो आ गया सो आ गया,’’ कह कर मैं ने इस अप्रिय प्रसंग को खत्म करना चाहा.
‘‘छोडि़ए कैसे? तुम फुजूलखर्ची छोड़ो और ऐसा करो, बहुत मन है तो बच्चे के कपड़ों के साथ एक साड़ी और मिठाई दे दो, बाकी सब वापस रख दो. हो जाएगा शगुन,’’ कहते हुए मम्मी ने आदतन अपना हुक्म सुना दिया.
‘‘मम्मी, ग्लोरी के पहली बेटी होने पर लगभग इतना ही सामान भिजवाया था आप ने. तब मैं ट्रेनिंग में ही थी, पैसों की भी तंगी थी, परंतु उस समय आप को यह सब फुजूलखर्ची नहीं लगी थी,’’ मु झे अब गुस्सा आने लगा था.
‘‘ग्लोरी तेरी सगी बहन है, उसे दिया तो क्या, सभी को बांटती फिरोगी,’’ मम्मी बोलीं.
‘‘भैरवी कोई गैर नहीं, मेरी सगी ननद है. जैसी ग्लोरी वैसी भैरवी,’’ मैं ने कहा.
‘‘बहन और ननद में कोई फर्क नहीं है क्या?’’ मम्मी भी गुस्से में आ गई थीं.
‘‘नहीं, कोई फर्क नहीं है. एक को मेरी मां ने जन्म दिया है तो दूसरी को मेरी सासुमां ने. एक ही प्यार का नाता है,’’ मैं बोली.
‘‘तेरा तो दिमाग खराब हो गया है, कोई फर्क नहीं दिखता,’’ मम्मी खी झ उठी थीं.
‘‘वैसे, फर्क तो है, मम्मी,’’ कुछ सोचती हुई मैं बोल पड़ी.
‘‘चलो, तुम्हारी सम झ में आया तो,’’ मम्मी खुश हो गईं.
‘‘भावना और परवरिश में फर्क है…’’ अभी मैं ने अपनी बात स्पष्ट करनी शुरू ही की थी कि रामू अदब से सामने आ कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘मैडम, खाना लग गया है.’’
‘‘ठीक है, चलिए मम्मी, खाना खाते हैं. आप तो सुबह की निकली होंगी,’’ मैं उठते हुए बोली. इस अप्रिय संवाद के खत्म होने से मैं ने चैन की सांस ली.
‘‘हां, सुबह 6 बजे ही हम लोग कानपुर से चल दिए थे. सीधे मेरठ पहुंचे. 2 घंटे वहां लगे. 11 बजे मेरठ से चले और सीधे झांसी,’’ कहते हुए मम्मी भी उठ खड़ी हुईं.
खाना खा कर हम दोनों पलंग पर लेट गईं. घरपरिवार का हालचाल बतातेबताते मम्मी अचानक बोल पड़ीं, ‘‘अरे गरिमा, जो सामान वापस करना है, अपने ड्राइवर को बोल दो, वापस कर आएगा, नहीं तो तुम लोग 3 दिन के लिए चले जाओगे. इस दौरान शौपकीपर का सामान क्या पता बिक ही जाए. जब लेना नहीं है तो बेचारे का नुकसान क्यों कराया जाए.’’
‘‘कौन सा सामान?’’ कुछ सम झ नहीं सकी, लिहाजा मैं बोल पड़ी.
‘‘अरे, वही जो तुम भैरवी के लिए उठा लाई थीं,’’ मम्मी ने कहा.
‘‘मम्मी, क्यों वही बात फिर से शुरू कर रही हैं?’’ मेरे लहजे में शिकायत थी.
‘‘मतलब, तुम सामान वापस नहीं कर रही हो?’’ मम्मी अविश्वास से मेरी तरफ देख रही थीं.
‘‘नहीं, मम्मी, आप भला नहीं कर रही हैं. आप हमें स्वार्थी बनाने का प्रयास कर रही हैं,’’ मैं स्पष्ट शब्दों में बोल उठी.
‘‘गरिमा?’’ गुस्से से मम्मी की आवाज कांप गई.
मैं ने मम्मी का हाथ अपने हाथ में ले लिया और धीरे से बोली, ‘‘मम्मी, मु झे मालूम है मेरी बात आप को ठेस पहुंचा रही है. इस विषय को मैं ने हमेशा टालना चाहा है. जब तक बात मेरे तक थी, मैं ने कोई विरोध नहीं किया, अपनेआप में सिमटती चली गई. लेकिन आप की दखल का असर अब हमारी गृहस्थी में भी होने लगा है. ग्लोरी का बिखरता दांपत्य आप की ऐसी सीखों का ही नतीजा है. अभी भी समय है मम्मी, खुद को रोक लीजिए. आप ने तो समाज सुधार का बीड़ा उठा रखा है. फिर अपनी बेटियों का घर क्यों…’’
मेरी बात बीच में काटती हुई मम्मी मेरा हाथ झटक कर बैठ गईं और गुस्से से बोलीं, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो? मेरी फूल जैसी ग्लोरी को वे लोग सुखी नहीं रख रहे हैं और उस के
लिए दोषी मैं हूं? मैं तुम लोगों को स्वार्थी बना रही हूं? मैं तुम लोगों का भला नहीं चाहती? और तेरे साथ मैं ने क्या किया जो तू चली गई? पढ़ालिखा कर प्रशासनिक अधिकारी बना दिया, यही न? आज सीडीओ बनी सब पर रोब झाड़ती घूम रही है. हमेशा की डरीसहमी रहने वाली लड़की, आज मां से ही जवाबसवाल कर रही है,’’ मम्मी की आंखें अंगारे बरसा रही थीं.
‘‘मम्मी, प्लीज, शांत हो कर मेरी बात सुनिए,’’ मैं ने नरम पड़ते हुए कहा.
‘‘अच्छा, अभी भी सुनने को कुछ रह गया है क्या?’’ मम्मी झल्लाईं.
‘‘प्लीज मम्मी, मु झे मालूम है आप हमारा बुरा नहीं चाहतीं. अपनी लाड़ली ग्लोरी का बुरा तो आप सोच भी नहीं सकतीं किंतु अनजाने में ही आप भले के चक्कर में ऐसा कुछ कर जाती हैं जो आप के न चाहते हुए भी आप की संतान का बुरा कर बैठता है. मेरे और ग्लोरी के सुखी भविष्य के लिए मेरी बात सुन लीजिए,’’ मैं ने उन्हें सम झाते हुए कहा.
शायद मेरी बात मम्मी को कुछ सम झ आ रही थी या फिर ग्लोरी की बिखरती गृहस्थी को संवारने की इच्छा से मम्मी मेरी बात सुनने को तैयार हो गई थीं, मैं सम झ नहीं पा रही थी कि उन नजरों में क्या था.
‘‘क्या कहना चाहती हो, बोलो,’’ मम्मी के सपाट शब्दों में कोई भाव नहीं था.
मैं दुविधा में थी. मम्मी अपलक मेरी ओर देख रही थीं. थोड़ी देर हमारे बीच खामोशी पसरी रही, फिर मैं ने बोलना शुरू किया, ‘‘मेरी बात का गलत अर्थ मत लगाइएगा, मम्मी.’’
‘‘हां, बोलो,’’ मम्मी की तटस्थता बरकरार थी.
‘‘मम्मी, अभी आप ने मु झे बहन और ननद में फर्क करने की सलाह दी थी जिसे मैं ने मानने से मना कर दिया, क्योंकि निश्च्छल और निस्वार्थ प्यार क्या होता है, मैं ने अपनी शादी के बाद ही जाना है. पति का प्यार ही नहीं, मां का प्यार, बहन का प्यार…’’ मैं कहती चली गई.
‘‘अरे, हम प्यार नहीं करते क्या?’’ मम्मी की तटस्थता टूटी. उन के स्वर में आश्चर्य था.
‘‘जरूर करती हैं, लेकिन ग्लोरी और भैया से कम. मैं बचपन से ही काली व मोटी जो रही हूं,’’ मैं ने कहा.
‘‘हां, लेकिन आप तीनों के व्यवहार से मेरी कुरुपता मु झ पर हावी होती गई. नतीजतन, मैं हीनभावना से घिरती गई. किसी से बात करने का आत्मविश्वास मु झ में नहीं रहा,’’ मैं ने मम्मी से अपने मन की हकीकत बयान की.
‘‘अरे, कैसी बात कर रही हो? ऐसा कुछ कभी नहीं हुआ,’’ मम्मी बोलीं.
लेकिन अतीत की कसैली यादें मु झ पर हावी थीं. मैं अपनी ही रौ में बोले जा रही थी, ‘‘मम्मी, याद है मैं जब हाईस्कूल में थी, स्कूल में हमारी फेयरवैल पार्टी थी. मैं बहुत उत्साहित थी. आप की एक साड़ी मैं ने उस खास मौके पर पहनने के लिए कई दिनों पहले से अलग निकाल रखी थी. उस दिन जब मैं ने उसे पहनने के लिए निकाला तो ग्लोरी ने टोका था, ‘दीदी, तुम दूसरी साड़ी पहन लो. यह साड़ी मैं परसों पिकनिक में पहन कर जाऊंगी.’
‘नहीं, आज तो मैं यही साड़ी पहनूंगी. इतने दिनों से मैं ने इसे तैयार कर के रखा है. तुम्हें पहनना है तो तुम भी पहन लेना. मैं इसे गंदा नहीं करूंगी,’ मैं ने भी जिद की थी.
‘दीदी, तुम जो कुछ भी पहनती हो, कोई भी रंग तुम्हारे ऊपर खिलता तो है नहीं, बेकार की जिद मत करो,’ कहते हुए ग्लोरी ने साड़ी मेरे हाथ से ले ली थी. मैं खड़ी की खड़ी रह गई थी.
‘‘मम्मी, आप के सामने ग्लोरी मु झे इस तरह अप्रिय शब्दों में अपमानित कर के चली गई और आप कुछ नहीं बोली थीं.’’
‘‘अरे, तुम इतनी छोटी सी बात अब तक दिल से लगाए बैठी हो, गरिमा?’’ मम्मी अचंभित सी मु झे देख रही थीं.
‘‘यह आप के लिए छोटी घटना होगी मम्मी, लेकिन उस दिन के बाद से मैं ने कभी भी ग्लोरी और भैया की बराबरी नहीं की. मैं सब से कटती चली गई. अपने रंगरूप के कारण जो आत्मविश्वास मैं ने खो दिया था वह मु झे वापस मिला अपनी शादी के बाद.
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लघु फिल्म “खीसा (पॉकेट )”की कहानी महाराष्ट्र के एक गांव में रहने वाले लड़के की हैं ,जो एक दिन तय करता है कि वह उसके स्कुल की शर्ट में एक बड़ा पॉकेट/जेब/खीसा बनाएगा ,जिसमे वह अपनी कीमती और प्यारी वस्तुएँ जैसे सिक्के , फूलों की पत्तियाँ , कंचे आदि सुरक्षित रख सकेगा. यह एक ऐसा खिसा होगा, जिस पर हमेशा उसे गर्व रहे. इस खीसा के चलते वह खास बन जाता है. उससे उम्र में बड़ो से भी ख़ास बना देता हैं क्योंकि बाकी लोगो का खीसा छोटा , साधारण और एक जैसा दिखने वाला हैं. खीसा (पॉकेट ) के छोटे बड़े होने से समाज में फैले प्रतीकात्मक राजनीति छोटे से बच्चे के समझ के परे हैं जल्द ही पुरे गाँव में यह खीसा एक विवाद का केंद्र बन जाता हैं.
राज प्रीतम मोरे ने फिल्म खीसा (पॉकेट ) के साथ निर्देशन की शुरुवात की हैं और उनकी इस पहली लघु फिल्म को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में कई नामांकन , पुरस्कार और दर्शकों का प्रतिसाद मिला हैं. निर्देशक राज प्रीतम मोरे कहते हैं-“फिल्म ‘खिसाा’ आज के पीढ़ी के बच्चों की मासूमियत की कहानी हैं. यह एक बहुत ही दुःख की बात है लेकिन यह आज सच्चाई हैं खीसा (पॉकेट ) एक लड़के की दिल को छूने वाली कहानी है जो निश्चित रूप से दर्शकों को जीवन के प्रति एक अलग दृष्टिकोण देगी. आज मराठी फिल्में हर दिन नई ऊँचाइयों पर पहुंच रही हैं. मराठी कंटेंट न केवल देश में बल्कि पूरी दुनिया में अपनी पहचान बना रहा है. 15 मिनट अवधि की यह फिल्म सभी के दिल में जगह बनाएगी.”
9 जनवरी 2021 को जब यह घोषणा की जा रही थी कि 16 जनवरी 2021 से देशभर में कोरोना की रोकथाम के लिए वैक्सीनेशन का पहला चरण शुरु होगा, ठीक उसी समय कहीं से ये खबरें तो नहीं आयी कि किसी इंसान में बर्ड फ्लू या एच5एन1 एविएन इंफ्लूंजा के लक्षण पाये गये हैं, लेकिन यह गौर करने वाली और चिंताजनक बात है कि पिछले एक सप्ताह में हर दिन बर्ड फ्लू का शिकार होकर मरने वाले पक्षियों में आज सबसे ज्यादा संख्या रही. राजस्थान से 2000 से ज्यादा कौओं के फिर से मरने की खबर आयी, दिल्ली के भी कई इलाकों से करीब 200 से ज्यादा पक्षियों के मरने की खबरें आयीं जिनमें से ज्यादातर कौव्वे रहे और हिमाचल जहां बर्ड फ्लू की आशंकाओं को देखते हुए तमाम पोल्ट्री प्रोडक्ट पर बैन लगा दिया गया है, वहां 3700 से ज्यादा प्रवासी पक्षियों के एक ही दिन में मरने से हड़कंप मच गया है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि बर्ड फ्लू से दुनिया सैकड़ों साल से परिचित है और यह भी सच है कि पहले बर्ड फ्लू से इंसानों की मौत नहीं होती थी और आज भी आमतौर पर नहीं होती. लेकिन हमें 2013 और 1997 के वे भौंचक कर देने वाले मामले नहीं भूलने चाहिए, जब बर्ड फ्लू से न केवल इंसानों की मरने की पुष्टि हुई बल्कि इसका म्यूटेशन वर्जन एच7एन9 को एक पिता से उसकी बेटी में फैलते पाया गया. इसलिए जरूरी है कि हम कोरोना के विरूद्ध अपनी लड़ाई को जारी रखते हुए बर्ड फ्लू से भी सतर्क रहें.
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गौरतलब है कि दिसंबर 2020 के आखिरी दिनों में बर्ड फ्लू फैलने की पहली खबर हिमाचल प्रदेश से आयी, जहां सैकड़ों की तादाद में जंगली गीज मरे पाये गये. इसके दो दिन बाद ही राजस्थान और मध्य प्रदेश के कौओं के, केरल से बत्तखों के और हरियाणा से मुर्गियों के, रहस्यमय ढंग से मरने की खबरें आयीं. पक्षियों के मरने की इन खबरों से भारत ही नहीं दुनिया के कई दूसरे देश भी दहल गये हैं. इसका कारण यह है कि 8 साल पहले जब पेइचिंग में बर्ड फ्लू के चलते 43 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी. यही नहीं हांगकांग में भी उन्हीं दिनों बर्ड फ्लू को पक्षियों से इंसानों में फैलते पाया गया था. वास्तव में साल 2013 में ही पहली बार एक 32 साल की महिला की बर्ड फ्लू से मौत हो गई थी जबकि वह पक्षियों के संपर्क में नहीं आयी थी बल्कि उसके पिता आये थे, लेकिन महिला के शरीर में भी एविएन इंफ्लूंजा का वायरस एच7एन9 पाया गया था. इस मौत से हड़कंप मचना स्वभाविक था, क्योंकि जब पुष्टि हो गई कि बर्ड फ्लू इंसानों से इंसानों में भी फैल सकता है. उसी साल चीन में 43 लोगों की मौत इस वायरस के चलते हुई थी. हालांकि अभी दुनियाभर के डाॅक्टर इस बात पर एकमत नहीं हैं कि बर्ड फ्लू इंसानों से इंसानों में फैलता है. लेकिन इन तथ्यों के चलते इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता.
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यही वजह है कि बर्ड फ्लू आज की तारीख में कई गुना ज्यादा खतरनाक लगने लगा है. कोरोना वायरस में तो फिर भी भारत में मरने वालों की संख्या अब बहुत कम रही है. सर्दी, जुकाम से होने वाले तमाम मौसमी संक्रमणों से ज्यादा घातक इसका संक्रमण भी नहीं दिखा. लेकिन बर्ड फ्लू इन दोनो ही मामलों में ज्यादा खतरनाक दिख रहा है. सबसे पहली बात तो यह कि बर्ड फ्लू के लक्षण प्रकट होने के बाद बिजली की रफ्तार से बढ़ते या फैलते हैं और इतना जल्दी शरीर के संचालन तंत्र को प्रभावित करते हैं कि इंसान चाहकर भी लंबा संघर्ष नहीं कर पाता. लब्बोलुआब यह कि यह कोरोना से कई ज्यादा घातक है. कई लोगों को यह सोचकर हैरानी होती है कि भारत में जबकि लोग मुर्गियों या दूसरे ऐसे पक्षियों के नजदीक उस तरह से नहीं रहते जैसे दूसरे देशों में रहते हैं, सवाल है फिर भारत में हमेशा बर्ड फ्लू क्यों जल्द से जल्द फैल जाता है? इस साल तो अभी तक दूसरे देशों में इसकी कोई वैसी खबर ही नहीं है, जैसे हमारे यहां है.
दरअसल इसका कारण यह है कि भारत अपनी गर्म जलवायु के कारण दुनियाभर के प्रवासी पक्षियों को अपनी तरफ आकर्षित करता है. ये प्रवासी पक्षी दुनिया के हर देश से भारत की तरफ आते रहते हैं, चूंकि ये पक्षी पूरे देश के आसमान से उड़ते हुए अलग अलग पानी के ठिकानों तक पहुंचते हैं, तो एक तो पानी के ठिकानों के आसपास मौजूद दूसरे पक्षियों को संक्रमित कर देते हैं, इससे भी बड़ी यह है कि जब ये प्रवासी पक्षी आसमान के रास्ते से देश के एक कोने से दूसरे कोने तक दाना पानी की चाह में उड़ते हैं, तो उड़ते हुए ये जो मल करते हैं, वह मल तमाम पक्षियों को बीमार कर देता है. इन बीमार पक्षियों के नजदीक आने पर इंसान भी बीमार हो जाता है. हालांकि अभी तक यह माना जाता था कि अगर कोई इंसान बर्ड फ्लू की चपेट में आकर बीमार हो जाता है या उसकी मौत भी हो जाती है तो भी वह दूसरे इंसानों के लिए खतरा नहीं होता, क्योंकि बर्ड फ्लू का वायरस एक इंसान से दूसरे इंसान में नहीं फैलता.
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मगर अब वैज्ञानिकों को लग रहा है कि इंसानों में पहुंचने के बाद बर्ड फ्लू ने अपने कई स्ट्रेन डेवलप कर लिये हैं, जिस कारण यह खुद को म्यूटेट करने लगा है. जब एक बार कोई वायरस खुद को म्यूटेट करने लगता है तो वह बहुत खतरनाक हो जाता है. क्योंकि म्यूटेट वायरस में खंडित जीनोम होता है, जो किसी दूसरे इंसान को आसानी से अपनी चपेट में ले सकता है. क्योंकि इससे इसका आकार छोटा हो जाता है और यह इंसानी सेल या कोशिका को झट से कब्जे में कर लेता है. विस्तार से इस खतरे को यहां पर उल्लेख किये जाने का मतलब यही है कि अभी हम कोरोना वायरस से पूरी तरह से उबरे नहीं हैं. ऐसे में अगर बर्ड फ्लू से निपटने में लापरवाही बरती तो यह लापरवाही बहुत खतरनाक हो सकती है.
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क्योंकि कोरोना के चलते पहले से ही बड़े पैमाने में लोग दहशत में हैं, जिस कारण ज्यादातर लोगों में उनकी स्वाभाविक इम्यूनिटी भी इन दिनों कमजोर है. इसलिए बहुत ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है. बर्ड फ्लू से सावधानी बरतने के लिए इन दिनों पोल्ट्री प्रोडक्ट यानी मुर्गा, मुर्गी और अंडे खाने से जितना बच सके, उतना बचना चाहिए. यही सर्तकता तमाम दूसरे पक्षियों का गोश्त खाते हुए भी बरतनी चाहिए. अगर खाना ही हो तो उसे बहुत पकाकर खाना चाहिए और गर्म गर्म ही खाना चाहिए. कच्चा अंडा खाना इन दिनों जानलेवा हो सकता है, इसलिए भूलकर भी कच्चा अंडा नहीं खाना चाहिए. जहां तक इसके लक्षणों की बात है तो बर्ड फ्लू के संक्रमण के वही सब लक्षण होते हैं जो किसी भी इंफ्लूंजा के चलते देखे जाते हैं. मसलन तेज बुखार आना, पेट में जबरदस्त मरोड़ उठना और लगातार पेट के नीचे दर्द होना, मांसपेशियों मंे जबरदस्त टूटन महसूसना, कई जगहों पर यह आंखों की बीमारी कंजेक्टिववाइटिस के रूप में भी दिखा है. सिरदर्द, मितली आना, तो इसके लक्षणों में प्रमुख तो है ही. लेकिन इन सब लक्षणों के अलावा भी यह वायरस कई ऐसे लक्षणों के जरिये सामने आ सकता है जिसकी कल्पना ही नहीं की गई हो. मतलब जाने पहचाने लक्षणों से इतर भी शरीर में कोई परेशान करने वाले लक्षण दिखें तो तुरंत डाॅक्टर से मिलना चाहिए.
भारत सरकार आजकल एक मुख्य नीति पर काम करती है. वह आम जनता से कहती है कि तुम काम किए जाओ पर किंचित भी फलों की अपेक्षा न करो. फल तो हमारे लिए, सृष्टि चलाने वालों के लिए हैं. सो, सबकुछ हमारा है. हम तुम्हें जो दे दें, उसी में खुश रहो.भारत सरकार के गीता पढ़ने वाले कर्ताधर्ता यह देख कर अचंभित हो गए कि फल न मिलने के डर से 24 मार्च, 2020 को लौकडाउन घोषित होने पर कैसे मजदूर कर्म छोड़ कर अपने गांवों की ओर चल दिए. वैसे ही लाखों किसान खेतीकिसानी छोड़ दिल्ली की सीमाओं पर फल पाने के लिए स्वयंभू ‘मैं’ के खिलाफ मोरचा खोले डटे हैं.
देश की मौजूदा कट्टर धर्मवादी भाजपाई सरकार की नजर में तो यह हिंदू संस्कृति के विरुद्ध है और जो गीता के कर्मवाद के सिद्धांत को नहीं मानता उसे न हिंदू कहलाने का हक है न भारतीय. वह तो देशद्रोही है, धर्मद्रोही है, नक्सली है, माओवादी है, खालिस्तानी है.कई हजार वर्षों से गीता का पाठ पढ़ापढ़ा कर लूटने वाले खुद भी इस बात के कायल हैं कि जहां ज्यादा नागरिकों को बिना फल की आशा के कर्म करना चाहिए वहीं ‘कुछ को’ बिना कर्म के फल पाने का मौलिक अधिकार है. भाजपाई नेता, सरकारी अफसर, सांसद, मंत्री, पंडेपुजारी, इन के व्यापारी भक्त, धर्म व्यापारों को फैलाने में लगे वास्तुचार्य, आयुर्वेदाचार्य, योगाचार्य और विश्वविद्यालयों से प्राथमिक कक्षा तक के अध्यापक पठनपाठन कर के फल पाने के अधिकारी हैं.
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जबकि, कर्म करने वालों को बिना सोचेसमझे, बिना अर्जुन की तरह प्रश्न किए, गीतापाठ का अनुसरण करते रहना चाहिए और सेवा करने में जुटे रहना चाहिए.यदि खोजी, वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर, मैडिकल हैल्प देने वाले, मजदूर, सफाईकर्मी और औरतें भी किसानों की तरह अपने फल की मांग करने लगें तो हिंदू धर्म पर काला साया फिर पड़ सकता है. बड़ी मुश्किल से 2,500 वर्षों बाद आधे भारत पर (पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान को निकाल कर) पौराणिक व गीता राज स्थापित हुआ है. इसे कैसे हाथ से निकलने दें. किसानों के आंदोलन की जो चिंता नहीं की जा रही है उस का कारण यही है कि सेवकोंसेविकाओं का मर्म तो धर्म की घुट्टी पिए हुए है.
फिर अगर कुछ विवाद है तो यह सिरफिरों का है, कुछ समय ही तो रहेगा.पुराण और गीतापाठी यह नहीं समझ सकते कि अर्जुन के सवाल महाभारत के युद्ध के पहले दिन बिलकुल सही थे. उस ने जितनी आपत्तियां उठाईं वे सब ठीक थीं और उन के कृष्ण द्वारा दिए गए उत्तर झूठे व भ्रामक थे. 18 दिनों बाद उस का परिणाम आ गया था जब सिर्फ कौरव और पांडु परिवार में सिर्फ 5 पांडव बचे थे.भारत में इस पौराणिकवाद की वजह से 5-6 उद्योगपति और ढेर सारे ऋषिमुनि बचेंगे. देश की बागडोर विदेशी कंपनियों के हाथों में होगी. आजकल शेयर बाजार तेजी से ऊंचा जा रहा है क्योंकि विदेशी, जो हमारी गीता का पाठ ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं, भारतीयों की कंपनियों को खरीद रहे हैं. अंबानी, अडानी, टाटा, बिड़ला खुद भी विदेशियों के हाथों बिके हुए हैं.
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उन की कंपनियां विदेशी पैसे पर और विदेशी तकनीक पर टिकी हैं. उन को भी गीतापाठ में बड़ा भरोसा है, पर वे कृष्ण की तरह पाने वालों में से हैं, अर्जुन की तरह खोने वालों में से नहीं.सरकारों का स्वार्थ आज ही नहीं, लोग सदियों से भ्रामक व असत्य उपदेशों, तथ्यों, ज्ञानअज्ञान के शिकार रहे हैं. मानव को जितनी मुश्किलें इस बहकावे से झेलनी पड़ी हैं उतनी राजाओं के हमलों, प्रकृति की मार, बीमारियों, खाने की कमी, विवादों से नहीं झेलनी पड़ीं. धर्म की नींव ही कपोलकल्पित कहानियों पर डाली गई है. पृथ्वी व मानव के जन्म की झूठी कहानियां गढ़ कर लगभग सभी मानवों को एकदूसरे का शत्रु बनाया गया और समाज के गठन के अद्भुत आविष्कार को बुरी तरह बारबार निष्क्रिय करने की कोशिश की गई है.
यह उन थोड़े से लोगों का कमाल है जिन्होंने बुरी तरह फैले विस्मृत करते अज्ञान के बावजूद तकनीक का विकास किया और नएनए प्रयोग किए ताकि मानव सुरक्षित रह सके. आज की वैज्ञानिक व तकनीकी उपलब्धियां उसी की देन हैं. पर एक बार फिर सूचना के आदानप्रदान की कला का भरपूर दुरुपयोग हो रहा है.इंटरनैट, जिसे दुनिया को जोड़ना था, आज पड़ोसियों को अलगथलग करने में इस्तेमाल हो रहा है, नागरिकों को नियंत्रित करने में इस्तेमाल हो रहा है, घृणा फैलाने में इस्तेमाल हो रहा है आदि.दुनियाभर की सरकारों ने इस बारे में पहल की है. हर चीज को औनलाइन करने की बाध्यता कर के हरेक पर पूरी तरह या घंटों नजर रखने की कोशिश की जा रही है ताकि सरकारविरोधी कोई भी कदम न उठ सके. आज भारत में ही नहीं, दुनिया के कितने ही देशों में लोगों ने सरकार के खिलाफ कुछ पढ़ालिखा या कुछ लिखे को अपने लोगों में शेयर किया, लेकिन सरकारों ने इसे देशद्रोह माना.
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अकसर देशों की सरकारें चाहती हैं कि इस तकनीक का इस्तेमाल केवल सरकार के प्रति अंधभक्ति फैलाने व गलत कामों को भी सही ठहराने की प्रवृत्ति में किया जाए.जितना झूठ आज सरकारें दुनियाभर में इंटरनैट के माध्यम से फैला रही हैं, उतना व्हाट्सऐप या फेसबुक पर से नहीं फैल रहा. कुछ लोग या समूह, व्हाट्सऐप और फेसबुक यदि घृणा व दुष्प्रचार कर रहे हैं तो इसलिए कि उन्हें उक्त देशों की सरकारों का मूक समर्थन मिला हुआ है. जैसे ही किसी देश में जनता बेचैन हो कर इंटरनैट के इन तरीकों का इस्तेमाल अपने गुस्से के लिए करना शुरू कर देती है, वैसे ही वहां की सरकारें फेसबुक, गूगल, इंस्टाग्राम आदि पर चढ़ बैठती हैं और उन्हें बंद करा देती हैं या उन का बिजनैस ठप कराने के तरीके ढूंढ़ने लगती हैं.इंटरनैट के ये टूल्स मुफ्त में नहीं चलते. गूगल हो या फेसबुक, इन के पीछे अरबोंखरबों डौलरों की पूंजी लगी है. आप यदि सोचें कि ये मुफ्त हैं तो ऐसा नहीं है. ये सब ज्यादा से ज्यादा पैसा वसूलते हैं. इन में विज्ञापन तो होते ही हैं, आप कौन हैं, कहां के हैं, क्या कमियां हैं, क्या खरीदते हैं ये सब जानकारियों भी होती हैं जो बेची जाती हैं. यह पूंजी ग्राहकों से ही अपरोक्ष रूप से वसूली गई है. सरकारी दखल के कारण ये प्लेटफौर्म्स आज खतरे में हैं क्योंकि ये प्लेटफौर्म्स अब सरकारें बदलने में भी लग गए हैं. इंटरनैट के नारों पर सरकारों का कंट्रोल है, इसलिए जहां सरकार को लगता है कि फलां प्लेटफौर्म सत्ता पर काबिज लोगों के खिलाफ जा रहा है वहां कंट्रोल की बात शुरू हो जाती है.
इंटरनैट की तकनीक पेड़ों से उतर कर गांव बसा लेने जैसी तकनीक थी. पहले हर पेड़ का मानव अकेला था. गांव में वह एक समूह में रह कर प्रकृति का मुकाबला करने को सक्षम हुआ था. इंटरनैट ने दुनिया के लोगों को एकसाथ जोड़ा. पर अब सरकारों के इशारों पर जोड़ने की जगह इंटरनैट का इस्तेमाल आपस में विरोध पैदा करने के लिए किया जा रहा है. सरकारें इस के जरिए अपनी जनता को बांट रही हैं और दूसरे देशों के नागरिकों को भी दुश्मन की श्रेणी में लाने के लिए कर रही हैं. सरकार अपनी ही जनता को बांट कर अन्याय के सहारे ही राज कर लेती है. आम जनता को लड़ाया जा रहा है. एकदूसरे के प्रति संदेह पैदा किया जा रहा है. धर्म और बिग बिजनैस इसे बनाए रखना चाहते हैं.यह एक असामान्य स्थिति है. पर लगता नहीं कि इस से छुटकारा मिलने वाला है. धर्म और राजनीतिक दल चाहते हैं कि हर समय लोग दुश्मन बने रहें ताकि वे इस बहाने जनता का मुंह बंद रख सकें. आम जनता अगर इस तकनीक पर निर्भर हो रही है तो वह यह न भूले कि यह तकनीक विकास के साथ आने वाले प्रदूषण की तरह जहर भी दिमाग में घोल रही है.उम्मीद की किरणभयंकर मंदी के दिनों में भी अक्तूबरनवंबर में छोटी गाडि़यों, बाइकों की ब्रिकी कुछ बढ़ी है.
इस से औटो निर्माताओं के माथे की शिकनें कुछ कम हुई हैं. इस की वजह, एक्सपर्ट्स के अनुसार, कोविड ही है क्योंकि लोगों को अब पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जाना खतरनाक लगता है. अब शहरों ही नहीं, गांवों में भी दूरियां इतनी हैं कि साइकिल का सवाल ही नहीं उठता. सो, सुरक्षा की दृष्टि से परिवारों ने पुरानी बचत को गाड़ी खरीदने में खर्च करने का फैसला किया है क्योंकि परिवार के एक सदस्य के बीमार होने पर उस के इलाज में गाड़ी पर लगाई गई पूंजी से कहीं ज्यादा का नुकसान हो सकता है.अपना वाहन होना आजकल शहरों के लिए अनिवार्य होने लगा है, चाहे इस की वजह से कितनी ही दिक्कतें हों. कारों की तो छोडि़ए, अब बाइकों को खड़ा करने की जगह भी नहीं मिल रही है, न घर के आसपास न काम की जगह पर. वाहनों से होने वाले ऐक्सिडैंट बढ़ते जा रहे हैं और 50 फीसदी से ज्यादा वाहन मालिक इंश्योरैंस रिन्यू नहीं कराते. इंश्योरैंस इनफौर्मेशन ब्यूरो के अनुसार, लगभग 75 फीसदी दोपहिया वाहनों का इंश्योरैंस नहीं है. ऐसे में उन से होने वाली दुर्घटनाओं में कोई मुआवजा नहीं मिल पाता.दिक्कत यह है कि हमारे शहरों का विकास सही तरह से नहीं हो रहा है.
मकान बनते हैं पर न सीवर होता है, न पार्किंग, न खुले मैदान, न स्कूल. हर काम कल पर टाला जाता है. निकायों के जिम्मेदार लोग राजनीति में ज्यादा लगे रहते हैं बजाय शहरों के रखरखाव करने के. नतीजा यह है कि लोगों को काम मिलता है मीलों दूर. स्कूल होते हैं तो मीलों दूर, रिश्तेदार भी मीलों दूर रहते हैं. उन से मिलना हो तो क्या करें? पब्लिक ट्रांसपोर्ट दरवाजे तक तो नहीं ले जाएगा न.अपने यानी निजी वाहनों की खरीद इसीलिए बढ़ी और इसीलिए भारत में वाहन दुर्घटनाओं के हादसे बढ़ रहे हैं व मौतें भी बढ़ रही हैं. भारत में एक लाख वाहनों पर 130 मौतें होती हैं जबकि अमेरिका में मात्र 14, इंग्लैंड में 6, सिंगापुर में 20, श्रीलंका में 70, फिनलैंड में 5, जापान में 6 और स्विट्जरलैंड में सिर्फ 3. सो, अपने वाहन खरीद कर लोग कोविड से तो बच रहे हैं पर मौतों से नहीं.हमारे देश में सड़क को गरीब की जोरू सब की भाभी माना जाता है जिस पर गाएं मनमरजी घूमती रहती हैं, पटरी पर दुकानें लगी होती हैं, लोग बिना देखे सड़क पार करते हैं और लालबत्तियां अकसर खराब रहती हैं. पुलिस तो केवल चालान करने के लिए मुस्तैद रहती है.देश की उन्नति में निजी वाहनों का योग रहता है क्योंकि इन्हें खरीदने के लिए लोग खासी मेहनत करते हैं. यह अकसर आर्थिक विकास की पहली चाबी माना जाता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि देश की गाड़ी 2 या 4 पहियों पर सवार हो कर ही पटरी पर आ जाए, हालांकि, ऐसा फिलहाल दिखता नहीं है.
दरअसल एमएसपी पर सरकार जो टालमटोल कर रही है, उसके पीछे खाद्य सुरक्षा कानून है. इस कानून के चलते देश में जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम लागू है, उसे सरकार अब ज्यादा दिनों तक नहीं चलाना चाहती. क्योंकि डब्ल्यूटीओ का सरकार पर इसे जल्द से जल्द बंद करने का दबाव है. गौरतलब है कि खाद्य सुरक्षा कानून के चलते सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जो अनाज वितरित किया जाता है, उससे 80.55 करोड़ लोगों का पेट भरता है. साल 2014-15 में सरकार ने इसके लिए 1.13 लाख करोड़ रुपये खर्च किये थे. साल 2015-16 में यह बढ़कर 1.35 लाख करोड़ रुपये हो गये. लेकिन साल 2016-17 मंे जब सरकार पर डब्ल्यूटीओ ने भारी भरकम दबाव डाला तो इसे घटाकर 1.05 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया. जो कि 2014-15 की सब्सिडी से भी 8 हजार करोड़ रुपये कम था. जबकि 2016-17 में खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में पूरा देश आ गया था और 2014-15 में करीब 80 फीसदी देश ही शामिल था.
सवाल है यह कैसे संभव हुआ? इसके लिए सरकार ने चुपके से एक कदम उठाया. चंडीगढ़ और पुड्डुचेरी जो कि दोनो ही केंद्रशासित प्रदेश हैं, यहां पीडीएस के तहत खाद्य वितरण बंद कर दिया गया और इसके लाभार्थियों को उनके खाते में नगद पैसे दे दिये गये. अब सरकार डब्ल्यूटीओ के दबाव में यही तरीका पूरे देश में अपनाना चाहती है और जो पैसा खाद्य सुरक्षा में खर्च होता है, उस पैसे को लोगों के सीधे एकाउंट में भेजना चाहती है. क्योंकि डब्ल्यूटीओ सब्सिडी का विरोधी नहीं है, वह सिर्फ यह चाहता है कि खाद्य सब्सिडी बंद की जाये और ग्रीन बाॅक्स सब्सिडी बढ़ायी जाए यानी लोगों को सीधे नगद पैसा दिया जाए. यही नहीं डब्ल्यूटीओ के नियमों के मुताबिक कोई भी देश अपने कुल खाद्यान्न उत्पादों के कुल मूल्य का महज 10 फीसदी खाद्य सब्सिडी के रूप में खर्च कर सकता है. लेकिन यहां पर भी एक झोल है. डब्ल्यूटीओ साल 1986-88 के मूल्यों को लेकर गणना करता है.
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दिसंबर 2017 में इसके संबंध में विश्व व्यापार संगठन का 11वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन अर्जेंटीना के शहर ब्यूनसआयर्स मंे हुआ था. उस समय के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री सुरेश प्रभु ने न सिर्फ भारत के सामाजिक सरोकार के मुद्दे को इस बैठक में जोरदार ढंग से उठाया था बल्कि उन्हें जी-33 समूह के देशों का भरपूर सहयोग भी मिला था. मालूम हो कि जी-33 के देशों में, जी-8 और जी-20 से इतर भारत जैसी अर्थव्यवस्था वाले दूसरे विकासशील देश भी शामिल हैं, जिनके यहां किसानी महज कारोबार नहीं जीवनयापन का पेशा है. सुरेश प्रभु ने तब जोरदार ढंग से यही बात कही थी जिससे विश्व व्यापार संगठन के महानिदेशक राॅबर्ट एजवेडो न सिर्फ बुरी तरह से नाराज हो गये थे बल्कि उनकी इस नाराजगी के चलते अंततः यह बैठक ही असफल हो गई थी. भारत का साथ दूसरे विकासशील देशांे ने भी पूरी दृढ़ता से दिया था. जबकि अमरीका जिसने पहले खाद्य सुरक्षा के मसले पर स्थायी समाधान ढूंढ़े जाने तक ऐसे कार्यक्रमों को समर्थन देने की बात कही थी, वह अपने वायदे से मुकर गया, जिससे 164 देशों के इस संगठन का 11वां सम्मेलन बिना किसी नतीजे के खत्म हो गया.
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इसके पहले भारत ने दिसंबर 2013 में बाली (इंडोनेशिया) में और दिसंबर 2015 में नैरोबी (केन्या) में भी जोरदार ढंग से कहा था कि भारत जैसे विकासशील कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं में कृषि जीवन का माध्यम है, जहां खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और गरीबी हटाने के लिए कृषि क्षेत्र में विकास और राजकीय मदद की जरूरत है. अतः डब्ल्यूटीओ को इस नजरिये का सम्मान करना चाहिए. लेकिन लगातार कृषि सब्सिडी को कम करने और खत्म करने पर अड़ा डब्ल्यूटीओ तो अपनी बात से नहीं हटा, लेकिन भारत के पैर धीरे धीरे उखड़ने लगे हैं. तभी तो साल 2017-18 में चुपके से चंडीगढ़ और पुड्डुचेरी के 8.57 लाख पीडीएस हितग्राहियों को खाद्यान्न देने की बजाय चुपचाप उनके खातों में पैसे दिये जाने शुरु कर दिये गये और अब पूरे देश में नगद राशि हस्तांतरण करने की योजना बनायी जा रही है; क्योंकि डब्ल्यूटीओ ऐसा ही चाहता है.
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आप सोच रहे होंगे तो इसमें नुकसान क्या है? इसमें बड़ा नुकसान यह है कि जो पैसा लाभार्थियों को नगद दिया जाता है, वह पैसा उस मद में पूरा खर्च नहीं होता, जिस मद के लिए दिया गया होता है. जब अनाज के बदले लोगों को नगद पैसा दिया जायेगा, तो वह महज 40-50 प्रतिशत ही अनाज खरीदने में खर्च होगा बाकी गैर खाद्य जरूरतों पर खर्च होगा. आप फिर सवाल कर सकते हैं तो इसमें भी क्या गलत है? अगर लोगों को खाद्य की जरूरत होगी तो वह खरीदेंगे. नहीं ऐसा देखा गया है कि जब नगद पैसा मुखिया के एकाउंट में आता है तो वह मुखिया की प्राथमिकताओं के हिसाब से खर्च होता है. इसमें उन छोटे बच्चों और महिलाओं की प्राथमिकताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता, जो मुखिया के निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखते. इसे सिर्फ इस खाद्य सुरक्षा से ही न देखें देश में अब तक हुए कई पुनर्वास कार्यक्रमों में भी देखा जा सकता है. सरदार सरोवर बांध बनाने के चलते विस्थापित हुए लोगों को जो नगद सहायता राशि मिली, वह पुनर्बसाहट से कहीं ज्यादा मोटरसाइकिलें खरीदने में और शराब पीने में खर्च हुई. इसलिए खाद्य सुरक्षा की जगह नगद पैसे देना सामाजिक विकृति को बढ़ाना है, लेकिन इसमें बाजार का फायदा होता है और डब्ल्यूटीओ बाजार का हित संरक्षक है तो वह चाहता है कि ज्यादा से ज्यादा सहायताएं नगद दी जाएं तो लोग उन्हें बाजार में खरीदारी के लिए खर्च करें. वास्तव में सरकार पर यही दबाव है जिसके चलते वह एमएसपी पर कोई कानूनी गारंटी नहीं देना चाहती.