मोदी सरकार द्वारा किसानों पर जबरन थोपे जा रहे तीन ने कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आंदोलन अब सरकार के लिए गले की फांस बनता जा रहा है. 26 जनवरी को दिल्ली में किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान लालकिले पर सिखों के पवित्र चिन्ह ‘निशान साहेब’ को फहराने की घटना के बाद जब चारों ओर से आलोचना के स्वर उठे तो आंदोलन से जुड़े किसान गुटों के बीच भी कुछ तनातनी हुई. कुछ किसान नेताओं ने आंदोलन से अपने हाथ खींच लिए और कुछ किसान जो ट्रैक्टर रैली में शामिल होने आये थे वे भी अपने गांवों की ओर लौट गए.
इस दौरान सरकार के इशारे पर पुलिस ने कई किसान नेताओं और लालकिले में उपद्रव में शामिल किसानों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली. किसान नेताओं की गिरफ्तारी की आशंका बलवती होने लगी, जिससे दहशत का माहौल बना. दिल्ली की सीमाओं पर बैठे आंदोलनरत किसानों की संख्या कम हुई तो मौक़ा देख कर बचे हुए किसानों को खदेड़ने और भगाने के लिए पुलिस फ़ोर्स आ डटी. किसानों को गिरफ्तारी का डर दिखा कर भगाया जाने लगा. उनके तम्बू उखाड़ दिए गए. उनके चूल्हे तोड़ कर लंगर सेवा ठप्प कर दी गयी. नित्यक्रम के लिए बनाये गए अस्थाई निर्माण ध्वस्त कर दिए गए.
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बिजली, पानी, इंटरनेट सब बंद कर दिया. एक बारगी तो लगा कि अब यह आंदोलन इतिहास बनकर रह जाएगा, लेकिन तभी ऐसी घटना हुई कि किसान आंदोलन चौगुने वेग से फूटा और मोदी सरकार के हाथ-पाँव फूल गए. अगले चार दिनों में दिल्ली किले में तब्दील हो गयी. जबरदस्त किलेबंदी.
अभूतपूर्व किलेबंदी.
किसान कहीं दिल्ली में ना घुस आएं और यहाँ धरना देकर ना बैठ जाएँ इस आशंका के तहत केंद्र सरकार ने दिल्ली के सारे बॉर्डर इस तरह सील करवा दिए मानों दुश्मन सेना लाव-लश्कर के साथ दिल्ली पर चढ़ी आ रही हो. गाज़ीपुर बॉर्डर, सिंधु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर दिल्ली की हर सीमा पर लोहे के कंटीले तारों को कई-कई लेयर में बाँध दिया गया. सड़कों के बीच खाइयां खोद दी गयीं. उनके पीछे भारी भरकम कंक्रीट बैरियर लगा दिए गए, जिनके बीच सीमेंट भर-भर कर सड़कों पर लोहे की कीलें और नुकीली सरिया गाड़ दी गयीं. ताकि किसान ट्रैक्टर ले कर भीतर आना चाहें तो उनके ट्रैक्टर के टायर फट जाएँ. पतले-संकरे रास्तों पर भी दूर तक कंटीले तारों का जाल बिछा दिया गया.
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बैरिकेडिंग को लोहे के एंगल से फिक्स कर दिया गया. इस तरह नाकेबंदी करके दिल्ली को आने वाले तमाम हाइवे ही बंद नहीं किये गए, हाइवे से सटे गावों को जाने वाली छोटी कच्ची सड़कों को भी कंटीले तारों से बंद कर दिया गया. पुलिस, सीआरपीएफ और रैपिड एक्शन फ़ोर्स की टुकड़ियां मय हथियार के दिल्ली की सीमा पर ऐसे तैनात हो गयीं हैं जैसे युद्ध का बिगुल बजने वाला है. हैरतअंगेज़ किलेबंदी. अपने ही लोगों से दिल्ली की किलेबंदी. हमारी थालियों में रोटी रखने वालों से ऐसा खौफ! गौरतलब है कि ऐसी किलेबंदी अगर एलएसी पर की जाती तो शायद चीन की हिम्मत ना होती हमारी जमीन की तरफ देखने और वहां घुस कर गाँव बसा लेने की.
इस सम्बन्ध में बसपा प्रमुख मायावती ने भी ट्वीट किया – ‘लाखों आन्दोलित किसान परिवारों में दहशत फैलाने के लिए दिल्ली की सीमाओं पर जो कंटीले तारों व कीलों आदि वाली जबर्दस्त बैरिकेडिंग की गई है, वह उचित नहीं है. इनकी बजाए यदि आतंकियों आदि को रोकने हेतु ऐसी कार्रवाई देश की सीमाओं पर हो तो यह बेहतर होगा.’ आखिर क्यों दिल्ली को किले में तब्दील किया गया? किस डर ने मोदी सरकार को घेर लिया है?
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टिकैत के आंसुओं का सैलाब
दरअसल लालकिले वाली घटना के बाद किसान आंदोलन बैकफुट पर आ गया था. किसान नेता खुद इस कृत्य के लिए शर्मसार थे और अफ़सोस जता रहे थे. दो किसान गुट तो आंदोलन से अलग भी हो गए. ट्रैक्टर रैली के बाद काफी किसान अपने गाँव की ओर रवाना हो गए थे. पुलिस ने मौक़ा अच्छा देखा और कुछ कथित ‘स्थानीय लोगों’ (जिनके बारे में बाद में यह सूचना आयी कि वे लोनी के भाजपा विधायक नंद किशोर गुर्जर के लोग थे) के साथ मिल कर सीमा पर बैठे आंदोलनरत किसानों को खदेड़ना शुरू कर दिया. इन लोगों ने वहां किसान विरोधी नारे लगाए. उन्हें उपद्रवी, देशद्रोही और खालिस्तानी कहा.
इस घटना से आहात होकर 28 जनवरी की रात गाज़ीपुर बॉर्डर पर मीडिया के कैमरों के सामने किसान नेता राकेश टिकैत ने रोते हुए किसानों से वापस लौटने की भावनात्मक अपील की और देखते ही देखते किसान आंदोलन ने पलटी मार दी. हज़ारों की संख्या में किसान अपने नेता का विलाप सुन कर रातोंरात बॉर्डर पर लौट आये. एक रात और टिकैत के आंसुओं का सैलाब, इसने न केवल किसान आंदोलन को दोबारा मंच प्रदान कर दिया, बल्कि इसके असर को देशव्यापी बना दिया.
उधर भाई के आंसुओं देख कर बड़े भाई नरेश टिकैत का दिल छलनी हुआ और उन्होंने केंद्र सरकार के इस कृत्य की भर्त्सना करते हुए उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में किसानों की महापंचायत बुला ली. इस महापंचायत में उमड़ें लाखों किसानों ने आंदोलन को ऐसी धार दी, कि सरकार के रोंगटे खड़े हो गए. महापंचायत में किसानों का ऐसा रेला देख कर मोदी सरकार ही नहीं, देश की हर राजनितिक पार्टी भौंचक्की रह गयी. एक ललकार पर इतना बड़ा जनसैलाब! इतनी बड़ी ताकत! इतना बड़ा वोटबैंक! आँखें फटी की फटी रह गयीं.
छह फरवरी की चुनौती
एक तरफ मुजफ्फरनगर में नरेश टिकैत के आह्वान पर महापंचायत में उमड़ पड़ी लाखों किसानों की भीड़ जो दिल्ली कूच की हुंकार भर रही थी तो दूसरी तरफ दिल्ली की सीमा पर राकेश टिकैत के नेतृत्व में बैठे आंदोलनरत किसान. मोदी सरकार डरी कि ये आफत अगर बॉर्डर छोड़ कर दिल्ली के भीतर घुस पड़ी तो क्या होगा? अगर किसान संसद भवन घेर कर बैठ गए तो क्या होगा? सरकार तो बड़ी मुसीबत में फंस जाएगी. बस फिर क्या था, इस डर के चलते देखते ही देखते दिल्ली को किले में तब्दील कर दिया गया.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने किसानों को दिल्ली आने से रोकने के लिए पुलिस द्वारा सीमेंट एवं कंटीले तार के अवरोधक बनाए जाने को लेकर केंद्र सरकार पर कटाक्ष किया और कहा कि उसे दीवार की बजाय पुल बनवाने चाहिए.
सटीक कटाक्ष, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर, जो कहते हैं कि कृषि मंत्री किसानों से बस एक फ़ोन कॉल की दूरी पर हैं. किसानों की ओर से छह फरवरी को देश भर में तीन घंटे के लिए चक्का जाम करने का ऐलान हो चुका है. इसके अलावा देश भर में ट्रैक्टर रैली भी निकाली जाएगी.
टिकैत का अक्खड़ मिजाज़
राकेश टिकैत की तुलना अब उनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत से की जा रही है. कहा जा रहा है कि उन्होंने पिता के समान ही अक्खड़ मिजाज़ पाया है, तभी तो जिस गाज़ीपुर बॉर्डर पर पुलिस ने धारा 144 लगा रखी है और वहां किसी के ना फटकने की सूचना लिखे बोर्ड टांग रखे हैं, 2 फ़रवरी को वहीँ लगे बैरिकेट्स और उस सूचना पट के ठीक नीचे ज़मीन पर बैठ कर राकेश टिकैत ने खाना खाया. उनके समर्थकों में से एक ने कहा भी कि ऊपर पुलिस की चेतावनी लिखी है, तो उन्होंने कहा इसीलिए तो यहीं बैठकर खाना है. ये उनकी पुलिस और केंद्र सरकार को चुनौती थी. सोशल मीडिया पर उनके इस अंदाज की काफी चर्चा है. लोग उनके इस अंदाज की उनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत के अक्खड़ मिजाज से तुलना कर रहे हैं.
उनकी इस हरकत के बाद सरकार को राकेश टिकैत और नरेश टिकैत के पिता महेंद्र सिंह टिकैत का 32 साल पहले वाला किसान आंदोलन ज़रूर याद आया होगा, जब उन्होंने दिल्ली में घुस कर दिल्ली को ठप्प कर दिया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को उनकी सारी मांगे मानने को मजबूर होना पड़ा था. महेंद्र सिंह टिकैत एक ऐसे किसान नेता थे जो कभी सरकार की चौखट पर नहीं जाते थे, बल्कि सरकार उसके दर पर आकर खड़ी हो जाती थी. पिता से मिली उसी किसान विरासत को लेकर आज राकेश टिकैत किसान आंदोलनों के अगुवा बन गए हैं.
राकेश टिकैत के अंदाज को देखकर बाबा टिकैत से उनकी तुलना यूं ही नहीं हो रही. महेंद्र सिंह टिकैत का व्यक्तित्व इससे भी कहीं ज्यादा बड़ा था. महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों को अपने हक के लिए लड़ना सिखाया था. उनके व्यक्तित्व का अंदाजा लगाने के लिए साल 1988 के किसान आंदोलन का उदाहरण ही काफी है. महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में पूरे देश से करीब 5 लाख किसानों ने विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक कब्जा कर लिया था. अपनी मांगों को लेकर इस किसान पंचायत में करीब 14 राज्यों के किसान आए थे. सात दिनों तक चले इस किसान आंदोलन का इतना व्यापक प्रभाव रहा कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार दबाव में आ गई थी. आखिरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को किसानों की सभी 35 मांगें माननी पड़ीं, तब जाकर किसानों ने अपना धरना खत्म किया था.
मोदी सरकार भी अब इस आंदोलन के विशाल रूप को देख कर काँप रही है. उसको डर है कि कहीं इतिहास फिर ना दोहरा दिया जाए इसीलिए वह दिल्ली की किलेबंदी में लगी है. लेकिन किसानों से बातचीत कर रास्ता निकालने की बजाय किलेबंदी करके वह सिर्फ आम नागरिकों को परेशान कर रही है.
बीते दो महीने से किसान दिल्ली की सीमा पर बैठा है मगर आवाजाही में कोई रुकावट नहीं आयी लेकिन मोदी सरकार ने सड़कों पर कील कांटे गड़वा कर रोज काम के लिए दिल्ली आने वालों को भी रोक दिया है. सामान के ट्रक, दूध की सप्लाई हर चीज़ प्रभावित हो रही है.
बढ़ता जा रहा है आंदोलन का दायरा
अभी तक जिस किसान आंदोलन को महज पंजाब और हरियाणा तक सीमित करके देखा जा रहा था और सिख बिरादरी को ही इसमें प्रमुखता दी जा रही थी, नरेश टिकैत के आह्वान पर मुजफ्फरनगर में हुई महापंचायत के बाद यह दायरा टूट चुका है. अब इस आंदोलन में हर धर्म और जाति का किसान एकजुट है. 3 फरवरी को हरियाणा के जींद में हुई महापंचायत में भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत भी शामिल हुए. इन महापंचायतों ने पूरे देश के किसानों को आंदोलित कर दिया है.
विपक्षी दलों की आशा बने टिकैत
राकेश टिकैत के आंसुओं का पंजाब और हरियाणा के किसानों पर हुए व्यापक असर के बाद नरेश टिकैत द्वारा मुजफ्फरनगर में बुलाई गयी महापंचायत में उमड़े लाखो किसानों के सैलाब को देख कर केंद्र सरकार ही चिंतित नहीं है बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार खिसकने की आशंका को लेकर योगी आदित्यनाथ भी भारी टेंशन में हैं. अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं, ऐसे में किसान आंदोलन के चलते वहां भाजपा की जमीन खिसक सकती है. उधर बिखरे हुए विपक्ष को टिकैत के सहारे अपनी राजनितिक जमीन एक बार फिर पाने की उम्मीद बंध गयी है. यही वजह है कि रोज़-ब-रोज किसी ना किसी दल का नेता राकेश टिकैत और नरेश टिकैत से मुलाक़ात करने पहुंच रहा है.
29 जनवरी को गाजीपुर धरना स्थल पर किसानों के उमड़ते सैलाब को देख कर रालोद नेता जयंत चौधरी सबसे पहले टिकैत के पास जाकर बैठ गए. जयंत और आप सांसद संजय सिंह, राकेश के बड़े भाई नरेश टिकैत द्वारा मुजफ्फरनगर में आयोजित किसान महापंचायत में भी पहुंचे. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी फोन कर राकेश टिकैत का हालचाल पूछा. इससे पहले उसी रात को कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने भी अपने ट्वीट के जरिए राकेश टिकैत को समर्थन की घोषणा की. उसके बाद उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू भी टिकैत की बगल में जा बैठे.
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पुत्र एवं राज्यसभा सांसद दीपेंद्र हुड्डा भी राकेश टिकैत के मंच पर पहुंचे. दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी पीछे नहीं रहे. वे भी टिकैत से मिलने के लिए गाजीपुर चले गए. किसान आंदोलन के कुछ प्रमुख साथी जैसे योगेंद्र यादव और दर्शनपाल ने भी धरना स्थल पर पहुंचकर संघर्ष की नई रणनीति का खुलासा किया. आम आदमी पार्टी के कई नेताओं ने गाजीपुर बॉर्डर पहुंच भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत से मुलाकात की. भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने भी टिकैत से मुलाकात की तो समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव एवं बसपा प्रमुख मायावती ने भी किसान आंदोलन को अपनी पार्टी का समर्थन दिया.
यही नहीं महाराष्ट्र से शिवसेना के नेता संजय राउत भी मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के सन्देश के साथ टिकैत से मिलने पहुंचे. कुल जमा यह कि महज सात-आठ घंटे में ही राकेश टिकैत को लेकर कई राजनीतिक दलों की समझ बदल गयी और वो टिकैत के पीछे लाइन लगा कर खड़े हो गए. जिस तरह से गाजीपुर में टिकैत के मंच पर विभिन्न पार्टियों के नेताओं का जमावड़ा लगा, उसने इस कहावत को चरितार्थ किया कि – हाथी के पांव में सबका पांव.
मुख्य बात यह है कि टिकैत बंधु अब सिर्फ तीन ने कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर मंच पर नहीं हैं, बल्कि भाजपा को उखाड़ फेंकने का ऐलान करते भी सुने जा रहे हैं. मुजफ्फरनगर की महापंचायत में लाखों किसानो के सामने भारतीय किसान यूनियन के नेता नरेश टिकैत ने भाजपा के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली. उन्होंने कहा कि – ‘भाजपा पर भरोसा करना उनकी बड़ी गलती थी और वह आगे यह गलती नहीं दोहराएंगे.’ टिकैत ने यह भी कहा कि – ‘राष्ट्रीय लोकदल के नेता अजित सिंह को हराना उनकी सबसे बड़ी भूल थी.’ महापंचायत में किसान यूनियन और अजित सिंह के बीच घटती दूरी के संकेत से प्रदेश भाजपा का चिंतित होना लाजिमी है.
जेएनयू में समाजशास्त्र विभाग के पूर्व प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक डॉ. आनंद कुमार कहते हैं – ‘मौजूदा हालात में विरोधी दलों के पास ताकत नहीं रही. न्यायपालिका पर सवाल उठने लगे हैं. ऐसे में अब आंदोलन की राह ही दिखती है. भाजपा को अहसास तो हो गया है कि इस आंदोलन को समर्थन दे कर भविष्य में विपक्षी दलों के बीच की दूरी घट सकती है.
जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है, वहां विभिन्न राजनीतिक पार्टियों पर निर्भर करेगा कि वे किसान आंदोलन का सार्थक लाभ उठा सकती हैं या नहीं. इसमें पार्टियों का आचरण एक बड़ी भूमिका अदा करेगा. देखने वाली बात होगी कि वे पार्टियां जरूरत के तौर पर किसानों की तरफ आ रही हैं, या पार्टनर बनकर उनके साथ चलेंगी. इसका बहुत ध्यान रखना होगा. किसानों का मन बहुत साफ है. राजनितिक दलों को भी अगर ये किसान आंदोलन भाजपा के खिलाफ एकजुट करता है तो राजनितिक दलों को धर्म या जातिगत समीकरणों से दूरी बनानी होगी. आज सवाल धर्म या संस्कृति का नहीं है.
सवाल जीवन का है, रोटी का है. ये नहीं है तो बाकी चीजें कहां काम आएंगी. वे तभी काम आ सकती हैं, जब जीवन बचेगा. उत्तर प्रदेश में विपक्षी दल टिकैत की मार्फत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के किले को भी घेरने के लिए नए समीकरण बनाने में जुटे हुए हैं. बशर्ते वे अनुशासन और साफ मन से किसानों की मदद करें. किसानों के पास मंच का अभाव है, जबकि राजनीतिक दलों के पास लोगों के भरोसे और विश्वास का. अगर इन नए समीकरणों पर प्रभावी तरीके से काम हो जाता है, तो 2022 में भाजपा के फायर ब्रांड मुख्यमंत्री ‘योगी’ को कड़ी टक्कर दी जा सकती है. टिकैत का भाजपा से नाराज होना निश्चिततौर पर भाजपा के जाट वोट बैंक पर बुरा असर डालेगा. आज राकेश टिकैत कई राजनीतिक दलों के लिए ‘डूबते को तिनके का सहारा’ बन गए हैं. दूसरी बात ये कि संघर्ष जितना कठिन होगा, जीत उतनी ही शानदार होगी.