लेखक- –शैलेंद्र सिंह के साथ रोहित और शाहनवाज

अमेरिका में जिस तरह ‘क्यूएनन’ बड़ी तेजी से बढ़े उसी तरह भारत में कट्टर अंधभक्तों की संख्या में, 2014 के बाद, तेजी आई. और यह पूरी प्रक्रिया लगभग समानरूप से चलाई गई जिस में इंटरनैट और सोशल मीडिया का बहुत बड़ा हाथ रहा है. आज यह हाथ इतना बड़ा हो चुका है कि इस के फंदे में लोकतंत्र की गरदन फंसी पड़ी है. फौरीतौर पर थोड़ी राहत देने वाली इकलौती बात यह है कि भारत में सोशल मीडिया, लड़खड़ाते ही सही, कट्टरवाद का विरोध कर रहा है क्योंकि यहां का नियमित मीडिया अलोकतांत्रिक टूल बना हुआ है.

अमेरिकी प्रैसिडैंशियल इलैक्शन से ठीक 10 दिनों पहले 23 अक्तूबर, 2020 को वहां ऐक्टर सचा बैरन कोहेन की विवादित फिल्म ‘बोरत-2’ प्रदर्शित की गई. यह फिल्म मौजूदा अमेरिकी पौलिटिक्स और अमेरिकी लोगों के भीतर रूढि़वादी विचारधारा पर व्यंग्यात्मक कटाक्ष करती है. फिल्म में बोरत नाम का एक किरदार है जिस ने कजाकिस्तान और अमेरिका के संबंधों को अतीत में खराब किया था और अब उसे कजाकिस्तान सरकार से हुक्म मिला है कि वह वापस अमेरिका जा कर उन बिगड़े हुए संबंधों को फिर से ठीक करे. बोरत अमेरिका जाता है, कोरोना के चलते वहां लौकडाउन लग जाता है.

ये भी पढ़ें-किसान परेड और गणतंत्र दिवस

वह वहां पर एक घर में पनाह लेता है, जिस के सदस्य ट्रंप समर्थक होते हैं. बोरत खुद भी रूढि़वादी होता है, सो, घर के सदस्यों के साथ घुलमिल जाता है. इसी घर के भीतर एक दिलचस्प किस्सा बनता है जब बोरत उन से अमेरिका में लौकडाउन लगने का कारण पूछता है, जिस के जवाब में वे कहते हैं कि यहां एक वायरस फैला है जिसे डैमोक्रेटिक पार्टी की पूर्व प्रैसिडैंशियल कैंडिडेट हिलेरी क्ंिलटन ने फैलाया है जो बच्चों का गला चीर कर उन का खून पी जाता है, वह नरभक्षी है.

ये सब बातें उन्होंने कहीं से सुनीपढ़ी होती हैं. जवाब जारी रखते हुए ट्रंप समर्थक सभी डैमोक्रेट्स को शैतान बताते हैं. वहीं फिल्म के दृश्यों में आगे दिखता है, वे हर दिन इंटरनैट पर ‘क्यूएनन’ की स्टोरीज को स्क्रौल करते हैं और क्यूएनन के नजरिए से देश व दुनिया का हाल जान रहे होते हैं. अब सवाल है कि यह क्यूएनन आखिर है क्या और इस का जिक्र इस बीच कैसे आ गया? अमेरिकी कैपिटल हिल दंगा 6 जनवरी, 2021 अमेरिकी इतिहास में काला दिन के तौर पर दर्ज हुआ है. इस दिन हजारों ट्रंप समर्थक अमेरिकी पार्लियामैंट ‘कैपिटल हिल’ में घुस कर दंगा करने लगे. यह योजनाबद्ध तरीके से किया गया कृत्य था जिस की अगुआई, छिपे तौर पर खुद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कर रहे थे.

ये भी पढ़ें-गण की तंत्र को चुनौती

ट्रंप समर्थक ‘प्रो ट्रंप रैली’ के माध्यम से कैपिटल हिल पर धावा बोलने का फैसला उस आह्वान पर कर चुके थे जो 19 दिसंबर को ट्रंप ने ट्वीट के माध्यम से किया था. ट्वीट में ट्रंप ने कहा था, ‘वाशिंगटन डीसी पर बड़ा प्रदर्शन, बी देयर, बी वाइल्ड.’ जाहिर है यह ट्वीट अपनेआप में नफरत व गुस्से से भरा हुआ था. ट्रंप की अगुआई में ‘सेव अमेरिका रैली’ की शुरुआत ट्रंप के दोनों बेटों (एरिक और ट्रंप जूनियर) तथा उन के वकील रूडी गुइलियानी द्वारा की गई. दोपहर 12 बजे के करीब ट्रंप के एक घंटे के भाषण में दंगों को भड़काने का विवरण साफ देखा जा सकता था. वे अपने भाषण में वहां मौजूद अपने समर्थकों को कैपिटल हिल (संसद भवन) के अंदर घुसने को उत्तेजित कर रहे थे.

1 बजे जब कैपिटल हिल में वोटों की गिनती शुरू होनी थी उसी दौरान ट्रंप के ये दंगाई कैपिटल हिल की सीढि़यों पर पुलिस के साथ झड़प करते हुए भीतर घुस गए. वे दीवारों पर चढ़ने लगे. उन के हाथों में खतरनाक हथियार, जैसे पाइप बम, बंदूकें, लोहे की रौड, लाठियां इत्यादि थीं. ये सारी बातें इस बात की ओर सीधा इशारा कर रही थीं कि वे वहां किसी खतरनाक इरादे से घुसे थे. इस बीच डोनाल्ड ट्रंप लोगों को शांत करने के बजाय ट्वीट करने में व्यस्त रहे. माइक पेन्स (वाइस प्रैसिडैंट) को देश व संविधान की रक्षा के लिए जो करना था, उसे करने का उन में साहस नहीं दिखा. ऐसे में जब दंगाई कैपिटल हिल के भीतर घुस कर खिड़कियां, कुरसियां, दरवाजे, साइनबोर्ड इत्यादि तोड़ते हुए आपे से बाहर हो गए तब ट्रंप ट्वीट कर शांति बनाए रखने का नाटक करने लगे.

ये भी पढ़ें-किसान आंदोलन और सुप्रीम कोर्ट

यह पूरा घटनाक्रम और ट्रंप के सीधे ट्विटर के माध्यम से निर्देश सब तक पहुंच रहे थे. लगभग 12 घंटे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ने के बाद तब ट्विटर को ट्रंप के ट्वीट्स को डिलीट करने का मन बना. शुरुआत में ट्विटर ने उन के ट्वीट ही डिलीट किए लेकिन जैसेजैसे ट्विटर की आलोचना होनी शुरू हुई, तो उस ने पहले 12 घंटों के लिए ट्रंप का अकाउंट डिऐक्टिवेट किया और उस के कुछ समय बाद उन का ट्विटर अकाउंट हमेशा के लिए बैन कर दिया. सवाल यह कि ट्विटर को यह सुध पहले क्यों नहीं आई जब ट्रंप ट्विटर के माध्यम से दंगा लगातार भड़का रहे थे? इस पूरे घटनाक्रम में 5 लोगों की मौत हुई जिन में से एक पुलिस का जवान भी शामिल था.

वहीं 68 लोगों की गिरफ्तारी हुई. लेकिन एक लोकतांत्रिक राज्य के लिए सब से बड़ी बात यह है कि पूरे विश्व के सामने अमेरिका की अस्मिता डूब रही थी, उसे छलनी किया जा रहा था. अमेरिका का भविष्य किस तरफ होगा, यह अलग बात है. इस घटना ने यह साबित जरूर कर दिया कि अमेरिका फिलहाल विश्व का नेतृत्व करने लायक बिलकुल भी नहीं रहा. ऐसे में सवाल बनता है, कौन हैं ये लोकतंत्र विरोधी लोग और कैसे इन के दिमाग में ऐसी मानसिकताएं बड़ी तेजी से जन्म ले रही हैं? क्यूएनन और क्यू इसे सम झने के लिए दंगे के बाद वायरल हो रही तसवीरों पर खास गौर करने की जरूरत है.

ये भी पढ़ें-किसान आंदोलन : उलट आरोपों से बदनाम कर राज की तरकीब

इन तसवीरों में दंगाई अलगअलग तरह के साइनबोर्ड और झंडों को अपने हाथों में लिए कूच करते दिखाई दे रहे थे. जिन में राजतंत्रशाही ईरानियन फ्लैग्स, कंफैडरेट फ्लैग्स, इसराईली फ्लैग इत्यादि नजर आ रहे थे. ये झंडे तानाशाही और संकीर्ण मानसिकता को दर्शाते हैं. कंफैडरेट फ्लैग उस गुलामी समर्थन का प्रतीक है जिस के तले नस्लवादी लोग व्हाइट सुप्रीमेसी के गौरवान्वित पलों को महसूस करते हैं. यह झंडा गृहयुद्ध को महिमामंडित करता है और गुलामी को नैतिक व न्यायोचित सम झे जाने का संकेत देता है. यह झंडा उस युग की बात करता है जब अमेरिका में नस्ल के आधार पर भेदभाव जोरों पर था.

दिलचस्प बात यह है कि दंगे के दौरान ‘क्यूएनन’ शब्द इंटरनैट की दुनिया से इतने बड़े स्तर पर बाहर निकल हिंसा की विचारधारा बना हुआ था. क्या है यह क्यूएनन अक्तूबर 2017 में 4 चैन नाम की एक औनलाइन वैबसाइट पर, ‘क्यू क्लीयरैंस पैट्रियट’ को नाम से डिस्कशन के लिए एक पोस्ट शेयर की गई जिस में एक यूजर ने ‘क्यू’ या ‘क्यू क्लीयरैंस’ को उच्च स्तरीय सिक्योरिटी न्यूक्लिअर वैपन विभाग का मैंबर बताया. इस पेज पर भेजे जाने वाले संदेश गुप्त थे जिन्हें ‘क्यू ड्रौप्स’ या ‘ब्रैडक्रम्ब्स’ कहा गया. दिलचस्प यह कि ये सभी गैरकानूनी व गुप्त कोड अथवा संदेश ‘प्रो ट्रंप रैली’ के दौरान स्लोगन्स, पोस्टर, प्लेकार्ड में दिखाई देते थे और दोहराए जाते थे. दिसंबर 2016 में वाशिंगटन डीसी में कौमेट पिंग पौंग नाम के एक रैस्टोरैंट में एक व्यक्ति (28 वर्षीय एडगर मैडिसन) भरी ‘असाल्ट राइफल’ ले कर घुस गया और फायर किया. वारदात के बाद पता चला कि वह आदमी कट्टर ट्रंप समर्थक और व्हाइट सुप्रीमिस्ट था, जिस ने उस वारदात को अंजाम देने से पहले सोशल मीडिया पर एक फौल्स कौंस्परेसी थ्योरी ( झूठी साजिश का सिद्धांत) गढ़ दी थी जो पिज्जा गेट के नाम से चर्चित हुई.

थ्योरी में एडगर डैमोक्रेट हिलेरी क्ंिलटन और जौन पोडेस्टा पर आरोप लगाया गया कि वे उस रैस्टोरैंट के बेसमैंट में चाइल्ड सैक्स रैकेट चलाते हैं. हालांकि यह बात सामने आई कि कौमेट पिंग पौंग में कोई बेसमैंट था ही नहीं. लेकिन इस के बावजूद ट्रंप समर्थक इस अफवाह को इंटरनैट और सोशल मीडिया पर धड़ाधड़ शेयर व पोस्ट कर रहे थे. इस शूटिंग (वारदात) को ‘क्यूएनन’ की शुरुआत की पहली वारदात माना जाता है. यह सम झ लेने की जरूरत है कि मौजूदा समय में ट्रंप के आगमन के बाद क्यूएनन एक दक्षिणपंथी विचार के तौर पर उभरा है, जिस की मानसिकता बेहद रूढि़वादी और धार्मिक है. इस दक्षिणपंथी विचार वालों का मानना है कि कोविड-19 एक ऐसा छल है जो यहूदियों ने ईसाईयों के खिलाफ किया. इन में से कुछ लोगों का मानना है कि 9/11 का आतंकी अटैक एलियन द्वारा किया गया था.

इस मानसिकता में इस प्रकार का ट्रैंड चल रहा है कि अमेरिका की सत्ता में डैमोके्रट्स नरभक्षी हैं और वे बच्चों का खून पीते हैं, जिन के खात्मे के लिए डोनाल्ड ट्रंप एक मसीहा के तौर पर अवतरित हुए हैं और अमेरिका का तथाकथित पुराना गौरवशाली इतिहास वापस लाना चाहते हैं. इस विचारधारा को लगातार इंटरनैट व सोशल मीडिया के माध्यम से हवा मिलती रही है. यह ठीक वही मानसिकता है जो फिल्म ‘बोरत-2’ के उस किस्से में है जिस में घर के सदस्य न सिर्फ ट्रंप समर्थक होते हैं बल्कि वे क्यूएनन मानसिकता से ग्रसित भी होते हैं. बेलगाम इंटरनैट और सोशल मीडिया कई विश्लेषणों से यह बात सामने आई कि सोशल मीडिया और इंटरनैट पर ‘क्यूएनन’ की लोकप्रियता दिनबदिन बढ़ती ही गई है. कोरोना के कारण अमेरिका में लौकडाउन के चलते लोग इंटरनैट पर ज्यादा समय गुजारने लगे.

तब फेसबुक पर कई गु्रपों ‘क्यूएनन न्यूज एंड अपडेट्स, ‘इंटेल ड्रौप्स’, ‘ब्रैडक्रम्ब्स’, ‘द वार अगेंस्ट केबल’ इत्यादि की सदस्यता संख्या में 1 जनवरी, 2020 से 1 अगस्त, 2020 तक 10 गुना इजाफा हो चुका था. लेकिन ये ही अकेले ग्रुप नहीं थे बल्कि ऐसे न जाने कितने ही गु्रप फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे बड़ेबड़े सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर बन रहे व फलफूल रहे थे. फेसबुक ने पिछले साल अक्तूबर की शुरुआत में ही यह कहा था कि वह क्यूएनन से संबंध रखने वाले इस तरह के गु्रप्स और पेज को अपने प्लेटफौर्म से हटाएगा. कंपनी ने कुछ तरह के क्यूएनन संबंधी ग्रुप्स को बैन भी किया था लेकिन अपनी नई पौलिसी के तहत व्यक्तिगत लोगों, जो क्यूएनन से संबंधित पोस्ट शेयर करते हैं, पर किसी तरह का प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया. पिछले ही साल अक्तूबर मध्य तक यूट्यूब ने भी हिंसा भड़काने वाले क्यूएनन संबंधी वीडियोज को बैन किया था.

उस ने तब कहा, ‘‘हम ऐसी सामग्री पर प्रतिबंध लगा रहे हैं जो किसी व्यक्ति या समूह के षड्यंत्र का उपयोग कर दुनिया में हिंसा भड़काने के लिए पोस्ट की जाती है.’’ 21 जुलाई, 2020 को ट्विटर ने भी अपने सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर से 7,000 से अधिक ऐसे क्यूएनन संबंधी अकाउंट्स को बैन किया था जो कि पूरी दुनिया के लगभग 15 लाख लोगों तक अपनी पहुंच बनाते थे. इस पर ट्विटर ने कहा, ‘‘हम उन पोस्टों, सु झावों और पिक्चर्स को हाईलाइट करने से बचेंगे जो ‘क्यूएनन’ संबंधी होंगे.’’ इसी तरह टिकटौक ने भी अक्तूबर में क्यूएनन संबंधी कंटैंट को अपने प्लेटफौर्म से हटाया था.

लेकिन सब से बड़ी समस्या यह कि यह प्रक्रिया इतनी देर में और आधीअधूरी चली कि इस तरह की मानसिकता रखने वाले लोगों द्वारा समाज पर व्यापक स्तर पर क्षति पहुंचाई जा चुकी थी. इसे ले कर बीबीसी की दुष्प्रचार विशेषज्ञ मैरिआना स्ंिप्रग कहती हैं, ‘‘कैपिटल हिल में भाग ले रहे दंगाई इस कृत्य के लिए पहले से उत्साहित थे. वे औनलाइन फैल रहे झूठे दावों (कौंस्परेसी थ्योरी) पर वास्तव में विश्वास रखते थे.’’ वे कहती हैं कि इस दंगे की आहट राष्ट्रपति चुनाव से काफी पहले देखी जा सकती थी. इसी प्रकार किंग्स कालेज लंदन की रिसर्चर डाक्टर अलैक्सी ड्रियू कहती हैं, ‘‘जब वे (क्यूएनन) फेसबुक और ट्विटर पर बैन होने लगे, तब दूसरे गुप्त व गैरकानूनी एक्सट्रीमिस्ट प्लेटफौर्म, जैसे ‘पार्लर’ की तरफ जुड़ने लगे थे.’’ ड्रियू का मानना है कि इस घटना के बाद तमाम बड़े सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर बने इस तरह के ग्रुप्स, जो खतरनाक और जानलेवा झूठ फैलाते हैं, पर अब प्रतिबंध नहीं लगाए जाने का उन (कंपनियों) के पास कोई बहाना नहीं बचा है. वे कहती हैं,

‘‘फेसबुक खुद लोगों को गु्रप्स जौइन करने के लिए प्रोत्साहित करता है. उस का ढांचा ही ऐसा है कि जिस तरह की चीजें लोग देखना पसंद करते हैं उन के सजेशन फेसबुक देता है. और यही सिमिलर चीजें ट्विटर और इंस्टाग्राम पर भी देखी जा सकती हैं.’’ उन का मानना है कि फेसबुक पर ये गु्रप बने थे, इसलिए फेसबुक को उन्हें कंट्रोल करना चाहिए था, लेकिन ऐसा समय पर नहीं किया गया और स्थिति खराब हुई. भारत के संदर्भ में विश्व पटल पर जहां सब से पुराने लोकतंत्र के तौर पर अमेरिका को देखा जाता है, वहीं सब से बड़े लोकतंत्र के तौर पर भारत का नाम लिया जाता है. लेकिन मौजूदा समय में दोनों देश एकदूसरे के सामने ‘मिरर इमेज’ के तौर पर खड़े दिखाई दे रहे हैं. अमेरिका में ट्रंप के आने के बाद जिस तरह से मीडिया, इंटरनैट, सोशल मीडिया पर ट्रंप का महिमामंडन किया गया और उसे कथित ऐतिहासिक धरोहर को वापस लाने का मसीहा माना गया,

जिस ने क्यूएननवादी मानसिकता को जन्म दिया, ठीक उसी प्रकार भारत में 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद लगातार इन माध्यमों ने कट्टर अंधभक्ति को जन्म दिया, जिस में मोदी को हिंदू राष्ट्र वापस लाने का मसीहा माना गया. उन में कथित मुगलों की संतानों से देश को मुक्त करने के तौर पर झांका गया. यही कारण है कि देश में कई मुसलिम शासकों के नाम वाली जगहों का नाम बदला गया. अंधभक्तों के लिए मोदी भारत में अपनेआप में एक राष्ट्र सम झे गए, वहीं कुछ उजाड़ अंधभक्त मोदी को भगवान के रूप में मानने लगे. ये ठीक अमेरिकी क्यूएननवादी जैसे हैं, इन्हें मोदी के फौलोअर्स कहा जाता है. दरअसल ये धर्मभीरु हैं, अंधभक्त हैं. ट्रंप और मोदी की दोस्ती या यों कहें उन के बीच आपसी वैचारिक तालमेल किसी से छिपा नहीं है.

इन दोनों देशों के नेता एकदूसरे को सत्ता में बनाए रखने के लिए एकदूसरे का साथ देते हुए दिखाई देते रहे हैं. 2019 में जहां मोदी को जिताने के लिए ट्रंप ने भारतीय मूल के ‘हाउडी मोदी’ का आयोजन और्गेनाइज किया वहीं 2020 में दोस्ती का फर्ज निभाते नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रंप’ का आयोजन किया. यह सम झा जा सकता है कि इन दोनों का आपसी तालमेल और खुद को प्रचारितप्रसारित करने का तरीका लगभग समान है. कई मानो में मोदी और ट्रंप दोनों की राजनीतिक नीतियां लगभग बराबर ही हैं. दोनों ही नेता उकसाने वाले राष्ट्रवाद, बहुसंख्यवाद, भय व धु्रवीकरण की राजनीति को बढ़ावा देते हैं. जहां एक तरफ ट्रंप अघोषित प्रवासियों को ‘लुटेरा’ व ‘जानवर’ कह कर पुकारते हैं, मैक्सिकन्स को ‘क्रिमिनल’ और ‘रेपिस्ट’ बताते हैं, वहीं भारत में प्रधानमंत्री मोदी अल्पसंख्यकों को ‘उन के कपड़ों से पहचानने’ की बात करते हैं.

गोधरा में हुई हिंसा के बाद शेल्टर होम में मौजूद पीडि़तों को वे ‘बच्चे पैदा करने की फैक्ट्री’ बताते हैं. दोनों की नीतियां डिटैंशन कैंप बनाए जाने का समर्थन करती हैं. यही कारण है कि जहां अमेरिका में क्यूएनन बड़ी तेजी से बढ़े उसी तरह भारत में 2014 के बाद कट्टर अंधभक्तों की संख्या में तेजी आई और यह पूरी प्रक्रिया लगभग समानरूप से चलाई गई. इंटरनैट बना खुल्ला सांड दोनों की समानताएं सिर्फ नीतियों और विचारधारा में ही नहीं, बल्कि उन्हें अंजाम दिए जाने को ले कर भी हैं. ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, हाल ही में न्यूयौर्क से प्रकाशित दैनिक ‘द वाल स्ट्रीट जर्नल’ में एक लेख छपा, जिस का हड़कंप भारत में मचा. लेख फेसबुक पर आरोप लगाते हुए कहता है, ‘भाजपा नेताओं के नफरतभरे और हिंसाभरे पोस्ट फेसबुक से इसलिए नहीं हटाए जाते क्योंकि इस से उस के बिजनैस पर फर्क पड़ता है. गौर करने वाली बात यह है कि फेसबुक ने जियो में 43,574 करोड़ रुपए का निवेश किया है और भाजपा की अंबानी व फेसबुक के साथ आपसी मित्रता छिपी नहीं है.

हालांकि इस लेख के पहले भी फेसबुक और भाजपा के आपसी संबंधों का जिक्र आ चुका है कि किस प्रकार 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में फेसबुक ने परिणाम को भाजपा के पक्ष में करने में कितना अधिक प्रभाव डाला. बजरंग दल, जो कि एक कट्टरवादी हिंदू संगठन है, को फेसबुक ‘डैंजरस कैटेगरी’ में डालने व उस पर प्रतिबंध लगाने के सोचविचार में था, लगातार उस संगठन द्वारा भड़काऊ व नफरती कंटैंट डालने के बावजूद उसे अभी तक प्रतिबंधित नहीं किया गया है. यही हाल रागिनी तिवारी के मामले में भी होता हुआ दिखता है. रागिनी भड़काऊ और दंगा भड़काने वाली बात सोशल मीडिया पर लाइव कर कहती है लेकिन उस पर कोई ऐक्शन नहीं लिया जाता.

वहीं, दिल्ली दंगों से पहले फेसबुक पर वायरल हो रहे कपिल मिश्रा के भड़काऊ भाषण को रोकने में भी फेसबुक नाकाम रहा. ठीक उसी प्रकार, ट्विटर पर लगातार अल्पसंख्यक विरोधी और अपराधियों के पक्ष में ट्वीट ट्रैंड किए जाते रहे हैं, जिन पर अधिकतर समय ट्विटर चुप्पी साध लेता है. गौरतलब है कि नफरत फैलाने वाले ऐसे कई ट्विटर हैंडल हैं जो लगातार दलित और अल्पसंख्यक विरोधी ट्वीट करते रहते हैं. हैरानी वाली बात यह है कि उन लोगों को भारत के जिम्मेदार पदाधिकारी और नेता फौलो करते हैं. इन में खुद प्रधानमंत्री मोदी, पीयूष गोयल इत्यादि शामिल हैं. 5 दिसंबर का हालिया मामला है जिस में भाजपा आईटी सैल के प्रमुख अमित मालवीय का किसानों को ले कर किए गए झूठी खबर वाले ट्वीट को ट्विटर ने ‘मैन्युपुलेटेड और मिसलीड मीडिया’ कहते हुए टैग कर दिया. लेकिन हैरानी यह है कि अमित मालवीय खुद ही झूठ की फैक्ट्री है.

उस के असंख्य ट्वीट यहांवहां तैर रहे हैं. ऐसे में उस के सेलैक्टिव ट्वीट को डिलीट करने के बजाय कलैक्टिवली अकाउंट को ही बैन करने की जरूरत थी. जवाबदेही जरूरी है ऐसे ही इंटरनैट पर ढेरों वैबसाइट्स हैं जो लगातार फेक न्यूज को फैलाने का काम कर रही हैं. ये वैबसाइट्स भड़काऊ, नफरती व झूठी खबरें चलाती हैं. ये ठीक उसी प्रकार का खादपानी लोगों के दिमाग में डाल रही हैं जैसे अमेरिका में गुप्त वैबसाइट्स द्वारा क्यूएननवादियों के दिमाग में लगातार एक ही प्रकार का डर, गुस्सा व नफरत डाला जा रहा है. आज सोशल मीडिया ने सामाजिक शर्म का वह परदा उठा दिया है जिस से फिल्टर हो कर जानकारियां गुजरती थीं.

ऐसे में इंटरनैट और सोशल मीडिया इस समय ऐसा खुल्ला सांड बना हुआ है जो किसी के भी नियंत्रण में नहीं है. सरकारों की या सत्तारूढ़ दलों की अपनीअपनी आईटी सैल हैं जो या तो लचर हैं या फिर मैन्युपुलेटेड हैं. जिस समय सोशल मीडिया और इंटरनैट का दौर नहीं था उस दौरान खबरें एक प्रक्रिया से हो कर गुजरती थीं. उस प्रक्रिया में तमाम अखबार, पत्रिकाएं और न्यूज चैनल होते थे जिन की प्रत्यक्ष जिम्मेदारी संपादक की होती थी. ऐसे में अगर किसी नेता को अपनी बात पब्लिक को पहुंचानी होती थी तो वह इन माध्यमों का सहारा लेता था. लेकिन आज ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक, व्हाट्सऐप व दूसरे तमाम सोशल मीडिया बेलगाम माध्यम बने हुए हैं जिन की अकाउंटेबिलिटी तय नहीं है. इन का कोई संपादक नहीं है. इन को कोई क्रौस चैक करने वाला नहीं है, कोई एडिट करने वाला नहीं है. जितनी देर में चीजें आपत्तिजनक मालूम पड़ती हैं तब तक काफी देर हो चुकी होती है.

अमेरिका का कैपिटल हिल दंगा और भारत का दिल्ली दंगा इस का ताजा उदाहरण हैं. आज के समय में इंटरनैट पूरी तरह से बेलगाम हो चुका है और भ्रम की दुनिया बनता जा रहा है. इस के अंदर जहर है, नफरत है, झूठ है, फरेब है, गुस्सा है, गालीगलौच है, जिस की कोई जवाबदेही नहीं है. इन के मालिक या तो सक्षम नहीं हैं या वे मैन्युपुलेटेड हैं जिस कारण इन चीजों पर रोक लगाया जाना इन के बूते के बाहर है. अब यह जरूरी हो चुका है कि विश्व में शांतिव्यवस्था को बनाए रखने की कसम खाने वाले यूनाइटेड नेशन को 21वीं सदी की इस त्रासदी को अपने संज्ञान में लेना होगा. और जिस प्रकार इंटरनैशनल पोस्टल यूनियन को संयुक्त राष्ट्र नियंत्रित व संचालित करता है, ठीक उसी प्रकार वर्ल्डवाइड इंटरनैट भी संयुक्त राष्ट्र संघ की संपत्ति हो जिसे यूएन अपने अधीन रख संचालित व नियंत्रित करे.

इन चीजों को रोकने के लिए यूनाइटेड नेशन हार्ड पौलिसी का निर्माण करे ताकि उस के भीतर आने वाले तमाम देश उस का अनुसरण कर सकें. वरना आने वाला समय सभी देशों के लिए घातक सिद्ध होगा. अमेरिका में जिस तरह हालिया घटना घटी, वह पूरी दुनिया के लिए सबक है, खासकर भारत के लिए जो यदाकदा इंटरनैट व सोशल मीडिया के ट्रैप में फंसते हुए उसी मुहाने पर कहीं न कहीं खड़ा है. पौराणिक कथाओं में भस्मासुर ऐसा राक्षस था जिस ने उन को जलाने या भस्म करने की योजना बनाई जिन्होंने उस को वरदान दिया था. कुछ ऐसा ही सोशल मीडिया के साथ हो रहा है. विश्वभर के नेताओं ने मुख्यधारा की मीडिया के आगे सोशल मीडिया की ताकत को बढ़ा दिया और आज वही सोशल मीडिया इन नेताओं को आईना दिखाने का काम कर रही है.

सोशल मीडिया का प्रयोग भारत में सब से पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर शुरू हुआ था. सुनियोजित तरीके से युवाओं को सोशल मीडिया पर कमैंट करने के लिए तैयार किया गया. उन युवाओं को अपने किए गए कमैंट्स को ले कर अपना पूरा डेटा लिखने के लिए एक्सेल शीट बनानी होती थी. उस में खबर का विवरण, उस का शीर्षक और वैबसाइट का विवरण लिखना होता था. हर कमैंट पर युवाओं को एक रुपए की दर से भुगतान भी किया जाता था. वैसे तो चुनाव लड़ रही दोनों पार्टियां कांग्रेस और भाजपा ने इस का उपयोग किया पर धीरेधीरे भाजपा इस में आगे बढ़ती गई और कांग्रेस पिछड़ गई.

2014 के लोकसभा चुनाव में जीत का बड़ा श्रेय सोशल मीडिया को दिया गया था. भाजपा नेता नरेंद्र मोदी की छवि बनाने में सोशल मीडिया का बड़ा हाथ माना गया था. सोशल मीडिया का प्रयोग करने के लिए भाजपा ने पार्टी में मीडिया सैल का गठन किया था. 2014 में मोदी ने अपनी आधी लड़ाई सोशल मीडिया पर ही जीत ली थी. सोशल मीडिया पर भाजपा ने बेहद आक्रामक रणनीति अपनाई थी. उस समय की कांग्रेस सरकार, उस के प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह और नेता राहुल गांधी ही नहीं, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को ले कर ऐसेऐसे पोस्ट, वीडियो वायरल किए गए कि पूरे देश ने इसी बात को सच मान लिया. राहुल गांधी का नाम ‘पप्पू’ दिया गया तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘मौनी बाबा.‘ उसी दौर में अन्ना आंदोलन से अपनी छवि बनाने वाले अरविंद केजरीवाल का ‘मफलर’ और उन की खांसी का मजाक बनाया गया.

यह भाजपा की सोशल मीडिया टीम का कमाल था. उस समय मुख्यधारा की मीडिया भाजपा के साथ खुल कर नहीं थी. ऐसे में भाजपा ने सोशल मीडिया का सहारा लिया था. उसी दौर में अमेरिका के चुनाव में भी सोशल मीडिया चुनावप्रचार का सब से बड़ा जरिया बन कर उभरी थी. सोशल मीडिया पर डोनाल्ड ट्रंप के साथ उन की पत्नी मिलेनिया ट्रंप और बेटी इवांका ट्रंप भी चर्चा में थीं. यह प्रचार किया गया कि इवांका ट्रंप ने अपने पिता डोनाल्ड ट्रंप का चुनावप्रचार करने के लिए अपने कपड़े बेचे और अपने पिता का चुनावप्रचार किया. सोशल मीडिया पर यह बात कुछ उस तरह से ही ट्रैंड हो रही थी जैसे भारत के चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने कहा था कि उन्होंने बचपन में चाय बेची थी.

रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप की जीत में भारतीय मूल के 34 लाख अमीर कट्टरपंथी और जातिव्यवस्था के घोर समर्थक वोटर्स के समर्थन को बेहद खास माना गया था. इस का कारण यह था कि डोनाल्ड ट्रंप और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच के रिश्ते बेहद करीबी बन गए थे. सोशल मीडिया का प्रभाव इन नेताओं पर इस कद्र रचबस गया था कि ये दोनों ही नेता अपनी पार्टी से भी ऊंचे कद के हो गए. दोनों ही नेताओं के बारे में यह कहा जाने लगा कि अब इन का विकल्प नहीं है. अमेरिका में 2020 में जो चुनाव हुए उस में डोनाल्ड ट्रंप को सोशल मीडिया पर अपने से कम लोकप्रिय और अधिक उम्र के जो बाइडन से हार का सामना करना पड़ा.

भारत में मोदी भले ही 2019 के चुनाव में जीत हासिल करने में सफल रहे हों पर भारतीय जनता पार्टी को मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में हार का सामना करना पड़ा. जिस सोशल मीडिया ने अमेरिका और भारत दोनों जगह डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी को सब से मजबूत नेता बताया था वही सोशल मीडिया अब इन दोनों को आईना दिखाने का काम कर रही है. नरेंद्र मोदी के जन्मदिन 17 सितंबर को बेरोजगारों ने ‘बेरोजगार दिवस’ के रूप में मनाया. सोशल मीडिया पर 17 सितंबर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस से अधिक बेरोजगार दिवस के रूप में ट्रैंड हुआ. सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री की तारीफ करते हुए आजकल एक मैसेज बेहद वायरल हो रहा है कि मुख्यधारा की मीडिया की तमाम बड़ी हस्तियों को मोदी प्रभाव ने वहां से बाहर कर दिया.

ऐसे लोग ‘यूट्यूबर’ (यूट्यूब चैनल पर पत्रकारिता करने वाले) बन कर पत्रकारिता कर के अपना जीवन गुजार रहे हैं. किसान आंदोलन के समय जब मुख्यधारा की मीडिया सरकार के पक्ष में खड़ी है तब सोशल मीडिया पर ही किसानों की बात सामने आ सकी. आज के दौर में यूट्यूब चैनल पर पत्रकारिता करने वाले जनता में बेहद लोकप्रिय तो हैं ही, वे सरकार की नीतियों का खुल कर पोस्टमार्टम भी कर रहे हैं और जनता में लोकप्रिय होते जा रहे हैं. जिस सोशल मीडिया के प्रभाव से डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी जैसे नेता लोकप्रियता के शिखर छू रहे थे वही सोशल मीडिया अब ऐसे नेताओं के लिए भस्मासुर बन गई है.

पत्रकारों का बढ़ता हुजूम सोशल मीडिया पर पत्रकारों का हुजूम तेजी से बढ़ता जा रहा है. मुख्यधारा की ज्यादातर मीडिया के ‘गोदी मीडिया’ बनने के बाद जनता के बीच सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकारों को बड़ा समर्थन मिल रहा है. केवल पत्रकार ही नहीं, कवि, गायक और दूसरे वर्ग के जो भी लोग जनता का सच बोलने की ताकत रख रहे हैं उन को समाज स्वीकार कर रहा है. सरकार के समर्थन में खड़ी मुख्यधारा की मीडिया जनता के निशाने पर आ गई. सोशल मीडिया पर ऐसे पत्रकार और गैरपत्रकार सक्रिय हो गए हैं. जो पत्रकार सरकार के निशाने पर थे वे भी सोशल मीडिया की ताकत का प्रयोग कर के जनता की बात सामने रख रहे हैं. सोशल मीडिया पर पत्रकारों का ऐसा हुजूम चर्चा में है.

सोशल मीडिया का मतलब वैबसाइट, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और यूट्यूब होता है. बिहार विधानसभा चुनाव के समय सोशल मीडिया की ताकत दिखाई दी. एक अनाम सी लोक गायिका नेहा सिंह राठौर ने बिहार सरकार के खिलाफ मोरचा खोल दिया. उस ने सोशल मीडिया पर ‘धरोहर’ नाम से यूट्यूब पर चैनल खोला, जिस में वह बिहार की सचाई बयान करने लगी. उस का गाना ‘बिहार में का बा’ सब से ज्यादा मशहूर हुआ. नेहा बिहार के कैमूर जिले की रहने वाली है. ‘बिहार में का बा’ गीत सब से अधिक पंसद किया गया. रातोंरात नेहा सोशल मीडिया पर मशहूर हो गई. उस के चैनल ‘धरोहर’ के 1 लाख 53 हजार फौलोअर्स हो गए. कई मीडिया चैनलों ने नेहा को अपने कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए बुलाया. नेहा ने अपने गानों में बिहार की बेरोजगारी और लाचारी सब का जिक्र किया था.

चुनाव खत्म होने के बाद भी नेहा मशहूर है. नेहा के गानों में बिहार के रोतेकलपते मजदूरों के दर्द को बताया गया था. नेहा कहती है, ‘‘हम ने बिहार के सच को लोगों तक पहुंचाने का काम किया. सोशल मीडिया के आने से सब की आवाज सुनी जाने लगी है. पहले केवल मीडिया जिस मुद्दे को उठाता था वही लोग सुनते थे. अब सोशल मीडिया पर हर किसी के सच की आवाज को लोग सुन रहे हैं. हमारी बात को लोगों ने दबाने की कोशिश भी की पर सोशल मीडिया की ताकत के आगे सब फेल हो गया. हम ने अपने गीतों के माध्यम से सरकार से सवाल पूछा था. यह सवाल आगे भी पूछेंगे. सवाल पूछना जनता का हक है. सोशल मीडिया पर हर रोज हमारे फौलोअर्स बढ़ रहे हैं. यही हमारी ताकत है.’’

सोशल मीडिया बना सहारा तालाबंदी और किसान आंदोलन के दौर में सोशल मीडिया ने मुख्यधारा की मीडिया के मुकाबले जनता के मुद्दों को अधिक संवेदना के साथ उठाया. मुख्यधारा की मीडिया से बाहर होने के बाद सोशल मीडिया पर सक्रिय हुए पुण्य प्रसून वाजपेई ने अपने नाम से ही अपना यूट्यूब चैनल शुरू किया. सरकार की योजनाओं के सच को सामने लाने का काम किया तो जनता ने भी उन का साथ दिया. यूट्यूब पर उन के फौलोअर्स की संख्या 12 लाख 60 हजार हो गई. 20 से 25 मिनट के वीडियो में पुण्य प्रसून वाजपेई सरकार की गलतियों को जनता के सामने लाने का काम करते हैं. उन के कार्यक्रम को खूब पसंद किया जा रहा है. वहीं आशुतोष पहले पत्रकार रहे, फिर आम आदमी पार्टी में गए और अब वापस सोशल मीडिया के जरिए अपना यूट्यूब चैनल बना कर काम कर रहे हैं.

आशुतोष ने अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर ‘सत्य हिंदी डौट कौम’ नाम से यूट्यूब पर चैनल बनाया. वे अपने चैनल पर अपील करते हैं कि ‘स्वतंत्र पत्रकारिता को जिंदा रखने के लिए लोग मदद करें.’ सोशल मीडिया पर लोगों ने ‘सत्य हिंदी डौट कौम’ को पंसद किया. इस के 8 लाख 84 हजार सब्सक्राइबर हो गए. इस में दिखाए जाने वाले शो को देखने वालों की संख्या लाखों में होती है. इस में सब से अधिक कार्यक्रम ‘आशुतोष की बात’ को पसंद किया जा रहा है. वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम भी मुख्यधारा की मीडिया से दूर सोशल मीडिया पर चर्चा में हैं. बिहार चुनाव के बाद उन की हनक सोशल मीडिया पर बढ़ी.

इस के बाद अजीत अंजुम के 9 लाख 48 हजार सब्सक्राइबर हो गए. किसान आंदोलन के समय अजीत अंजुम सब से अधिक चर्चा में रहे हैं. वे मुख्यधारा की मीडिया पर हावी दिखे. सोशल मीडिया पर जिस तरह से अजीत अंजुम अपनी बात रख रहे हैं उस से किसानों के बीच वे काफी पसंद किए जा रहे हैं. मुख्यधारा के एक और पत्रकार अभिसार शर्मा भी सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय हैं. जनता ने शुरू किया बायकाट एक तरफ मुख्यधारा के पत्रकार टीवी स्टूडियो में बैठ कर सरकार के समर्थन वाली खबरें प्लांट कर रहे थे तो दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकार किसानों के साथ सड़क पर खड़े उन की बात जनता तक पहुंचाते नजर आए. किसानों के मुद्दों को ले कर सब से सक्रिय रिपोर्टिंग सोशल मीडिया के पत्रकारों ने की.

जब मुख्यधारा की मीडिया वाले किसानों के आंदोलन को खालिस्तानी, पाकिस्तानी, चीन समर्थक बताने लगे, किसानों के रहनसहन और खानपान को मुद्दा बना कर सरकार का पक्ष लेना शुरू किया तो सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकारों ने किसानों का पक्ष लेना शुरू किया. जिस की वजह से किसान आंदोलन मजबूत हो सका. जनता ने इस को पंसद भी किया. जनता ने श्वेता सिंह, अंजना ओम कश्यप, सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया जैसे कुछ समाचार एंकरों का नाम लेना शुरू किया.

आलोचना के कई तरह के वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल किए गए. लखनऊ में ‘4 पीएम’ नामक शाम का अखबार और अपना यूट्यूब चैनल चलाने वाले संजय शर्मा को लखनऊ में सरकार से सवाल पूछने वाला पत्रकार माना जाता है. उन के चैनल के एक लाख से अधिक सब्सक्राइबर हैं. वे कहते हैं कि सरकार से सवाल करने वालों की ताकत सोशल मीडिया बन गई है. लोगों को लगता है कि इस आवाज को सरकार दबा नहीं सकती है. लखनऊ में ‘भारत समाचार’ को भी इसी बेबाकी के रूप में देखा जा रहा है. जनता का सब से अधिक गुस्सा टीवी के पत्रकारों को ले कर है.

किसान आंदोलन में यह बात साफ दिखाई दी. सोशल मीडिया बनाम मुख्यधारा मीडिया सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकार मुख्यधारा की मीडिया के लिए खतरा हैं. सोशल मीडिया को सरकार भले ही मीडिया नहीं मानती पर जनता ने उस को मीडिया मान लिया है. चुनाव के समय जिस तरह से फेसबुक की सरकार के साथ तरफदारी पर सवाल उठे थे उस से यह खतरा भी है कि सोशल मीडिया को भी आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है. सोशल मीडिया पर पत्रकारों का हुजूम जिस तरह से बढ़ रहा है उस का सही लाभ समाज को मिलता नहीं दिख रहा. सरकार सोशल मीडिया को मीडिया का दर्जा नहीं दे रही और उस की आवाज को दबाने को अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा भी नहीं मानती. मुख्यधारा की मीडिया के मुकाबले सोशल मीडिया पर भरोसा फिलहाल कम है.

पत्रकारिता अब केवल समाचारपत्र और पत्रिकाओं तक सीमित नहीं रह गई है. इलैक्ट्रौनिक चैनलों से शुरू हुए बदलाव के बाद सोशल मीडिया एक क्रांति बन कर दिख रही है. बदलते दौर में जहां मुख्यधारा की पत्रकारिता मानी जाने वाले समाचारपत्र, पत्रिकाएं और न्यूज चैनलों में से ज्यादातर एकतरफा खबरों को दिखाने में लगे हैं वहां सोशल मीडिया जनसरोकार की खबरों को दिखा रहा है. एक बड़े वर्ग तक पहुंचने वाली सोशल मीडिया की खास बात यह है कि यहां खबरों के लिखने और दिखाने के कई आयाम हैं. सोशल मीडिया की सब से बड़ी खासीयत यह है कि यहां हर किसी को अपनी बात कहने की आजादी है.

कम से कम लागत में ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात को पहुंचाया जा सकता है. ट्रंप और मोदी समर्थक इस का दुरुपयोग कर रहे हैं तो लोकतंत्र समर्थक इसी का इस्तेमाल जहर को काटने में कर रहे हैं. जनता के बीच तेजी से पहुंचने के कारण सरकार पर भी इन का प्रभाव व दबाव पड़ता है. कई बार सरकार और प्रशासन इन के दबाव में फैसले भी लेते हैं. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की एक घटना है. सड़क के किनारे एक गरीब आदमी टाइप मशीन रख कर टाइप करने का रोजगार करता था.

एक दिन पुलिस के दारोगा ने लात मार कर उस की मशीन तोड़ दी और उसे भगा दिया. पुलिस का कहना था कि वह सड़क पर अतिक्रमण कर के अपनी दुकान लगाए हुए था. यह बात सोशल मीडिया पर वायरल हुई. अखबारों में खबर छपी तो पुलिस प्रशासन ने न केवल माफी मांगी बल्कि टाइप मशीन भी नई दी. तालाबंदी और किसान आंदोलन में दिखी ताकत तालाबंदी के दौरान तमाम तरह की दिक्कतों को केवल सोशल मीडिया पर ही दिखाया जा सका. दिल्ली में एक बूढ़े दुकानदार के खानेपीने की दुकान का प्रचार करते हुए यूट्यूब पर ‘बाबा का ढाबा’ नाम से उस का प्रचार हुआ तो सैकड़ों लोग उस की मदद को आगे आ गए. दिल्ली सीमा पर किसानों ने कृषि कानूनों के खिलाफ जब आंदोलन शुरू किया तो मुख्यधारा की मीडिया ने किसानों को हतोत्साहित करने व उन को बदनाम करने का काम शुरू किया.

वहीं, सोशल मीडिया पर किसानों की खबरों को वैबसाइट न्यूज, फेसबुक लाइव, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और ट्विटर पर दिखाया जाने लगा. नतीजतन, सरकार दबाव में आई और किसानों से बातचीत शुरू की. किसानों को सोशल मीडिया का साथ नहीं मिला होता, तो सरकार और मुख्यधारा की मीडिया उन को बदनाम कर के धरना छोड़ कर भागने को मजबूर कर देती. किसान भी इस बात को सम झ चुके थे. उन्होंने मुख्यधारा की मीडिया खासकर टीवी चैनलों के बहिष्कार करने का काम शुरू किया. आजतक और जी न्यूज जैसे तमाम टीवी चैनलों के रिपोर्टरों को अपनी ‘माइक आईडी’ छिपा कर वहां जाना पड़ा. जबकि, अपने मोबाइल के जरिए सोशल मीडिया के लिए वीडियो और रिपोर्ट बना रहे पत्रकारों की तादाद बढ़ने लगी. शुरुआत में यह लोगों को सम झ नहीं आ रहा था. जैसेजैसे किसान आंदोलन लंबा चलने लगा, सोशल मीडिया की भूमिका लोगों की सम झ आने लगी.

यही नहीं, इन को देखने वालों की संख्या में भी तेजी से वृद्धि होने लगी. आज समाचारपत्र और टीवी चैनल दर्शकों व पाठकों के लिए तरस रहे हैं जबकि सोशल मीडिया पर पत्रकारों और दर्शकों दोनों की होड़ लगी है. इन पत्रकारों से सरकार परेशान हो गई है. वह इन पर अपना नियंत्रण करने की योजना बना रही है. प्रभाव कम करने में जुटी सरकार सोशल मीडिया सरकार के नियंत्रण में नहीं है. यह उस के लिए परेशानी वाली बात है. सोशल मीडिया पर खबरों के प्रभाव को कम करने के लिए सरकार ने सोशल मीडिया से जुड़े पत्रकारों को पत्रकार मानने से ही इनकार कर दिया है. कई ऐसे पत्रकारों के खिलाफ मुकदमे भी कायम कराए जाने लगे हैं. उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में एक पत्रकार ने सोशल मीडिया पर स्कूल में मिलने वाले मिडडे मील का वीडियो बना कर पोस्ट किया.

जिस में बच्चों को नमकरोटी खाने को दी गई थी. उत्तर प्रदेश सरकार ने उस पत्रकार को वीडियो बनाने के जुर्म में मुकदमा कायम कर के जेल भेज दिया. असल में सरकार चाहती है कि सोशल मीडिया के पत्रकारों और खबरों को फेक या झूठी बता कर उन को हाशिए पर डाल दिया जाए जिस से जनता उन पर यकीन ही न करे. सोशल मीडिया की पत्रकारिता को पत्रकारिता ही न माना जाए. सरकार के इस प्रयास का उस को यह लाभ होगा कि जब भी किसी ऐसे पत्रकार के खिलाफ सरकार मुकदमा करेगी तो वह पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की आजादी को ले कर सवालों के घेरे में न आएगी. यही सरकार जब अपने पक्ष में प्रचार करना हो तो सोशल मीडिया की खबरों को संज्ञान में लेती है और इस का प्रचार भी करती है. पिछले कुछ महीनों में देखा गया कि ट्विटर पर आने वाले कमैंट पर मंत्रीजी ने ऐक्शन ले लिया. इस को मुख्यधारा की मीडिया में इस तरह से प्रचार किया गया जैसे मंत्री हर शिकायत को ले कर कितना सजग है.

बड़े समूह में कैद सोशल मीडिया मीडिया के लिए लिखने के साथ ही साथ जरूरी होता है उस का प्रसार होना. पाठकों के बीच ज्यादा से ज्यादा पहुंचना. सोशल मीडिया आज इसलिए प्रभावी दिख रही है क्योंकि मोबाइल के जरिए वह हर आदमी की पहुंच में है. इस को देखने और पढ़ने के लिए अलग से पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं होती. इस को लेने बाजार में जाने की जरूरत नहीं होती. इस का दूसरा पक्ष यह है कि पूरा सोशल मीडिया नैटवर्क साइट पर निर्भर है. चुनाव के समय भारत और अमेरिका दोनों ही जगहों पर यह आरोप खुल कर लगा कि ये सरकार के पक्ष में काम कर रहे थे. सोशल मीडिया पर यह खतरा अधिक है. सरकार ने अगर सोशल मीडिया के लिए जगह देने वाली कंपनी को अपने दबाव में ले लिया तो सभी सरकार के पक्ष में खड़े दिखने लगेंगे. यह मुख्यधारा की मीडिया को अपने कब्जे में लेने से भी सरल काम है.

कंगना रनौत बनाम रिया चक्रवर्ती 2 धड़ों में बंटी मीडिया कंगना रनौत और रिया चक्रवर्ती को ले कर मीडिया 2 धड़ों में बंटी नजर आने लगी थी. अर्णव गोस्वामी जैसे मुख्यधारा के पत्रकार रिया चक्रवर्ती को निशाने पर ले कर सुशांत की आत्महत्या को हत्या बताने में लगे रहे. कई मामलों में यह होने लगा कि मुख्यधारा की मीडिया सरकार के साथ खड़ी नजर आने लगी. सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता प्रशांत भूषण की कोर्ट अवमानना की बात हो या स्टैंडअप कौमेडियन कुणाल कामरा द्वारा आलोचना की, मुख्यधारा की मीडिया सरकार के पक्ष में ही खड़ी दिखी. इस कारण से सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकारों को जनता का समर्थन मिलने लगा. कंगना रनौत विवाद के बाद सोशल मीडिया पर उस के फौलोअर्स की संख्या 30 लाख से अधिक हो गई. कंगना केवल ट्विटर का प्रयोग ही करती हैं. उन के फौलोअर्स की संख्या अब भी बढ़ती जा रही है. कंगना को केंद्र सरकार के समर्थक सब से अधिक फौलो करते हैं जबकि महाराष्ट्र सरकार के समर्थक मानते हैं कि कंगना का प्रयोग महाराष्ट्र सरकार को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है. सोशल मीडिया के जाल में ट्रंप पहले डिक्टेटर जमीन की चाह में बड़ीबड़ी फौजें जमा करते थे.

उन तानाशाह हमलावरों की नजर जमीन पर नहीं, जमीन पर काम करने वालों की मेहनत का फायदा उठाने पर थी. आज यही काम इंटरनैट के माध्यम से हो रहा है और नई जमीन मिट्टी या पत्थर की नहीं बल्कि तारों, सैटेलाइटों, वाईफाई, इंटरनैट की है. गूगल और फेसबुक आज 2 बड़े समुद्र हैं जिन की जमीन पर एमेजौन जैसी कंपनियां फलफूल रही हैं. अब फेसबुक के मालिक व्हाट्सऐप और फेसबुक को आपस में जोड़ कर इन दोनों को इस्तेमाल करने वालों को अपनी मरजी से जानकारी देने, अपनी मरजी से उन के राज जानने, अपनी मरजी से उन्हें विज्ञापन पहुंचाने की नईनई चेष्टाएं कर रहे हैं. ध्येय यह है कि लोगों को इस तरह सहीगलत जानकारी दे कर भ्रमित रखा जाए कि जो इन के मालिकों को खुश रखे, वह इन लोगों से संपर्क कर सके, बाकी को अंधेरे में रखा जाए. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने जो उत्पात मचाया और लोगों को राजधानी पर कब्जा करने के लिए उकसाया, वह ट्विटर के जरिए किया था. इस घटना से घबरा कर ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम और स्नैपचैट ने अमेरिका के राष्ट्रपति के अकाउंट कुछ समय के लिए बंद कर दिए. एक तरह से इन कंपनियों ने अमेरिका के शक्तिशाली राष्ट्रपति का मुंह बंद कर दिया, उन्हें नजरबंद कर दिया, उन को खुली जेल में डाल दिया.

यह माना जा सकता है कि डोनाल्ड ट्रंप अति कर रहे थे, वे लोकतंत्र की जड़ें खोद रहे थे पर ये सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स उन के सब से बड़े टैंक व मिसाइल थे. उन का अकाउंट बंद करना यानी उन को इग्नोर करना सोशल मीडिया प्लेटफौर्मों की ताकत का एहसास कराता है. जब ये अमेरिकी राष्ट्रपति का मुंह बंद कर सकते हैं तो आम आदमी क्या है? एकदूसरे से संपर्क रखने की चाहत ने आज लोगों को खुशीखुशी उन जंजीरों को पहनने को बाध्य कर दिया है जो उन की जानकारी, उन के प्लान, उन की बात को 24 घंटे कंट्रोल कर सकती हैं. ऐसा प्रभाव कभी भी पुस्तकों, पत्रिकाओं, समाचारपत्रों या टीवी का नहीं था. सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स अब एकदो हाथों में सिकुड़ रहे हैं. इस का अर्थ है कि अब रूसी, चीनी, अमेरिकी साम्राज्य नहीं चलेंगे, सोशल मीडिया दिग्गजों की चलेगी. जब ये अमेरिकी राष्ट्रपति को बंद कर सकते हैं तो दूसरे किस खेत की मूली हैं. जो देश इन पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें जल्दी दिखेगा कि उन के यहां के मुखर विरोधियों की आवाज ही कट गई है. व्हाट्सऐप और फेसबुक का एक होना मार्क जुकरबर्ग के लिए सेना की जौइंट कमांड बनाने जैसा है, बस.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...