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बंटवारा: शिखा के मामा घुमक्कड़ क्यों बन गए

आदर्श मलगूरिया

सिख होने के कारण ही मामाजी विवेक के साथ शिखा की शादी करने में आनाकानी कर रहे थे. लेकिन धर्म के आधार पर दिलों को नहीं बांटा जा सकता है, इस बात का आभास मामाजी को सरदार हुकम सिंह के घर नीरू को देख कर हुआ जो वर्षों पहले उठे धार्मिक उन्माद के तूफान में कहीं खो गई थी.

बचपन में वह मामाजी की गोद में चाकलेट, टाफी के लिए मचलती थी. वही उस की उंगली पकड़ कर पार्क में घुमाने ले जाते थे.सरकस, सिनेमा, खेलतमाशा, मेला दिखाने का जिम्मा भी उन्हीं का था. स्कूल की बस छूट जाती तो मां डांटने लगती थीं, पर यह मामाजी ही थे जो कार स्टार्ट कर पोर्च में ला कर हार्न बजाते और शिखा जान बचा कर भागतीहांफती कार में बैठ जाती थी.

‘बहुतबहुत धन्यवाद, मामाजी,’ कहते हुए वह मन की सारी कृतज्ञता, सारी खुशी उड़ेल देती थी. मामाजी का अपना घरपरिवार कहां था? न पत्नी, न बच्चे. शादी ही नहीं की थी उन्होंने. मस्ती से जीना और घुमक्कड़ी, यही उन का जीवन था.

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खानदानी जमींदार, शाही खर्च, खर्चीली आदतें. मन आता तो शिखा के यहां चले आते या मुंबई, दिल्ली, कोलकाता घूमने निकल जाते…धनी, कुंआरा, बांका युवक…लड़कियों वाले मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगते, पर जाने क्या जिद थी कि उन्होंने शादी के लिए कभी ‘हां’ न भरी.

मां समझातेसमझाते हार गईं. रोधो भी लीं, पर जाने कौन सी रंभा या उर्वशी  खुभी थी आंखों में कि कोई लड़की उन्हें पसंद ही न आती. फिर मांबाप भी नहीं रहे सिर पर. बस, छोटी बहन यानी शिखा की मां थी. उसी का परिवार अब उन का अपना परिवार था.

उम्र निकल गई तो रिश्ते आने भी बंद हो गए, पर बहन फिर भी जोड़तोड़ बिठाती रहती थी. सोचती थी कि किसी तलाकशुदा स्त्री से ही उन का विवाह हो जाए. पर मामाजी जाने कौन सी मिट्टी के घड़े थे. अब तो खैर बालों में चांदी भर गई थी. बच्चों की शादी का समय आ गया था.

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शिखा के पिता व्यापार के सिलसिले में घर से बाहर ही रहते थे. बच्चों की हारीबीमारी, रोनामचलना, जिदें सब मामाजी ही झेलते थे. टिंकू गणित में फेल हो गया तो मामाजी ही स्वयं बैठ कर उसे गणित के सवाल समझाते थे. बीनू के विज्ञान में कम अंक आए तो उन्होंने ही उसे वाणिज्य की महत्ता का पाठ पढ़ा कर ठेलठाल कर चार्टर्ड एकाउंटेंसी में दाखिल करवाया था. शिखा के स्कूल का कार्यक्रम रात 10 बजे समाप्त होता तो मामाजी की ही ड्यूटी रहती थी उसे वापस लाने की.

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धीरेधीरे स्नेह के इस मायाजाल में वह ऐसे फंसे कि अब होटल प्रवास लगभग समाप्त हो गया था. कारोबार तो खैर कारिंदे ही देखते थे. आज वही मामाजी शिखा के कारण मां पर बरस रहे थे, ‘‘लड़की को कुछ अक्ल का पाठ पढ़ाओ. दिमाग को पाला मार गया है. लड़का पसंद किया तो साधारण मास्टर का. इस तिमंजिली कोठी में रहने के बाद यह क्या उस खोली में रह पाएगी? फिल्में देखदेख कर दिमाग चल गया है शायद.’’

शिखा धीमेधीमे सुबक रही थी. मां के सामने तो अभिमान से कह दिया था कि विवेक के साथ वह झोंपड़ी में रह लेगी, पर बातबात पर दुलारने वाले गलतसही सब जिदें मानने वाले मामाजी की अवज्ञा वह कैसे करती? क्रोध का प्रतिकार किया जा सकता है, पर प्यार के आगे विद्रोह कभी टिकता है भला?

मामाजी ने ही शिखा व विवेक के प्रेम संबंधों की चर्चा सब से पहले सुनी थी. सीधे शिखा से कुछ न पूछा और विवेक के घरपरिवार के बारे में सब पता लगा लिया. बिजली का सामान बनाने वाली एक कंपनी का साधारण सा सेल्समैन, ऊपर से सिख परिवार का मोना (कटे बालों वाला) बेटा. करेला और नीम चढ़ा. बाप सरदार हुकमसिंह सरकारी स्कूल में साधारण मास्टर थे. भला क्या देखा शिखा ने उस लड़के में? उसी बात को ले कर घर में इतना बावेला मच रहा था. शिखा के पिता, भाईबहन (मां और मामाजी) पर बकनाझकना छोड़ कर तटस्थ दर्शक से सब सुन रहे थे.

‘‘आखिर बुराई क्या है उस लड़के में,’’ पिताजी पूछ ही बैठे.

‘‘अच्छाई भी क्या है? साधारण नौकरी, मामूली घरबार. फिर पिता सिख बेटा हिंदू, कभी सुनी है ऐसी बात?’’ मामाजी उफन ही तो पड़े.

‘‘शायद उन लोगों ने उसे गोद लिया हो या मन्नत मांगी हो. कई हिंदू भी तो लड़कों के केश रखते हैं,’’ मां ने सुझाया.

‘‘तो क्या यहांवहां पड़ा यतीम ही रह गया है शिखा के लिए?’’ मामाजी गरजे.

‘‘उन लोगों से मिल कर बातचीत करने में क्या हर्ज है?’’ पिताजी ने सुझाया.

‘‘आप भी हद करते हैं. पंजाब में आग लगी है. बसों से घसीट कर हिंदुओं को मारा जाता है. अब ऐसे घर में बात चलाएंगे? अपनी बेटी देंगे?’’

‘‘कुछ उग्रवादियों के लिए सारी जाति को दोष देना उचित नहीं है. सभी तो एक समान नहीं हैं,’’ मां ने कहा.

‘‘जो इच्छा आए करो,’’ मामाजी ने हथियार डाल दिए.

‘‘लड़के को खाने पर बुला लेते हैं. शिखा का भी मन रह जाएगा,’’ पिताजी ने कहा.

अगले दिन शिखा के निमंत्रण पर विवेक घर में आया. सब को अच्छा लगा, टिंकू व बीनू को भी. शायद उस के आकर्षक व्यक्तित्व का ही जादू था कि मामाजी की आंखों का भी अनमनापन कम हो गया. विवेक ने अगले सप्ताह सब को अपने घर आने को कहा.

परंतु अगले ही दिन शहर में कर्फ्यू लग गया. शहर के चौक में गोली चल गई थी. कुछ सिख आतंकवादी 2 हत्याएं कर के कहीं छिप गए थे. पुलिस के हाथ कुछ नहीं लगा तो शहर में कर्फ्यू लग गया. सड़कों पर केंद्रीय रिजर्व पुलिस की गश्तें लगने लगीं. जनजीवन अस्तव्यस्त हो कर भय व आतंक के घेरों में सिमट गया.

शहर की पुरानी बस्तियों वाले इलाकों में, जहां दैनिक सफाई, जमादारों पर निर्भर थी, गंदगी व सड़ांध का साम्राज्य हो गया. साधारण आय वाले घर, जहां महीने भर का राशन जमा नहीं रहता, अभावों में घिर गए. रोज मजदूरी कर के कमाने वालों के लिए तो भूखे मरने की नौबत आ गई.

8-10 दिन बाद कर्फ्यू में थोड़ी ढील दी गई. फिर धीरेधीरे कर्फ्यू उठा लिया गया.

मामाजी बड़बड़ाते रहे, ‘जिन लोगों के कारण इतना कुछ हो रहा है उन्हीं के घर में रिश्ता करने जा रहे हो?’

शिखा कहना चाहती थी, ‘नहीं, मामाजी, हथियार उठाने वाले लोग और ही हैं, राजनीतिक स्वार्थों से बंधे हुए. प्यार करने वाले तो इन बातों से कहीं ऊपर हैं,’ पर शरम के मारे कुछ कह नहीं पाती थी. आखिर कर्फ्यू हटा व जनजीवन सामान्य हो गया.

इस के बाद मामाजी विवेक के घर गए थे, तो अचानक ही उन का गुस्सा काफूर हो गया था और अनजाने उन के चिरकुमार रहने का रहस्य भी उजागर हो गया था.

विवेक के घर पहुंच कर मामाजी अचकचा से गए थे. सामने अधेड़ आयु की शालीन, सुसंस्कृत, मलमल की चादर से माथा ढके निरुपमाजी (विवेक की मां) खड़ी थीं. इस आयु में भी चेहरे पर तेज था.

‘‘नीरू, तुम…’’ मामाजी के मुख से निकला था, ‘‘आज इतने बरसों बाद मुलाकात होगी, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था. और फिर इन परिस्थितियों में…’’

निरुपमाजी भी ठगी सी खड़ी थीं.

‘‘आप शायद वही निरुपमा हैं न जो लाहौर में हमारे कालिज में पढ़ती थीं. मुझ से अगली कक्षा में थीं.’’

मां उन्हें पहचानने का यत्न कर रही थीं.

सब के लिए यह सुखद आश्चर्य था. घर के बड़े पहले से ही एकदूसरे से परिचित थे.

‘‘यहां कैसे आईं? दंगों से कैसे बच कर निकलीं?’’ मां ने पूछा.

‘‘आप लोग तो शायद धर्मशाला चले गए थे न?’’ निरुपमाजी ने पूछा.

‘‘हां, हमें पिताजी ने पहले ही भेज दिया था. पर भैया वहीं रह गए थे,’’ मां ने बताया.

‘‘मुझे मालूम है.’’

मां, मामाजी तथा निरुपमाजी सभी जैसे अतीत में लौट गए थे.

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‘‘नीरू, मैं ने तुम लोगों से कितना कहा था कि हमारी कोठी में आ जाओ. वह इलाका फिर भी थोड़ा सुरक्षित था,’’ मामाजी की आवाज जैसे कुएं से आ रही थी.

‘‘जिस दिन तुम ने यह बात कही थी और हमारे न मानने पर नाराज हो कर चले गए थे, उसी रात हमारी गली में हमला हुआ. आग, मारकाट, खून. मैं छत पर सो रही थी. उठ कर पिछली सीढि़यां फलांग कर भागी. गुंडों के हाथ से इन्हीं सरदारजी ने मुझे उस रात बचाया था. फिर कैंपों, काफिलों की भटकन. इसी बीच सारे परिवार की मौत की खबर मिली. उस समय इन्हीं ने मुझे सहारा दिया था.’’

अतीत के कांटों भरे पथ को निरुपमाजी आंसुओं से धो रही थीं. ‘‘मैं ने तुम्हें कितना ढूंढ़ा. कर्फ्यू हटा तो तुम्हारी गली में भी गया. पर वहां राख व धुएं के सिवा कुछ भी न मिला,’’ मामाजी धीरेधीरे कह रहे थे. उन का स्वर भारी हो चला था. सभी चुपचाप बैठे थे. मां मामाजी को गहरी नजरों से देख रही थीं.

सरदार हुकमसिंह ने सन्नाटा तोड़ा, ‘‘मैं ने विवेक को सिख बनाने की कभी जिद नहीं की. धर्म की आड़ में स्वार्थ का नंगा नाच हम लोग एक बार देख चुके हैं. इसलिए धर्म पर मेरा विश्वास नहीं रहा. हमारा धर्म तो केवल इनसानियत है. विवेक को भी हम केवल एक अच्छा इनसान बनाना चाहते हैं.’’

‘‘मैं आप का आभारी हूं कि आप ने सिख धर्म का अनुयायी होते हुए वर्षों पहले एक हिंदू लड़की की रक्षा की. काश, आज सभी इनसान आप जैसे होते तो घृणा की आग स्वयं ही बुझ जाती,’’ मामाजी ने भावविह्वल हो कर सरदारजी के हाथ माथे से लगा लिए.

‘‘तो भाई, क्या कहते हो, शगुन अभी दे दें?’’ शिखा के पिताजी ने पूछा.

‘‘हां…हां, क्यों नहीं. एक बार देश के टुकड़े हुए थे. उस के नासूर अभी तक रिस रहे हैं. अब फिर अगर धर्म के आधार पर दिलों का बंटवारा करेंगे तो घाव ताजे न हो जाएंगे?’’ कहते हुए मामाजी ने उंगली में पड़ी हीरे की अंगूठी उतार कर विवेक को पहना दी.

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आदर्श मलगूरिया

अर्पण-भाग 3 : अदिति आईने से बात करते हुए किसके ख्याल में खो जाती

‘‘परंतु मुझे यह नौकरी नहीं करनी है,’’ अदिति ने यह बात थोड़ी ऊंची आवाज में कही. आंखों के आंसू गालों पर पहुंचने के लिए पलकों पर लटक आए थे.

डा. हिमांशु ने मुंह फेर कर कहा, ‘‘अदिति, अब तुम्हारे लिए यहां काम नहीं है.’’

‘‘सचमुच?’’ अदिति ने उन के एकदम नजदीक जा कर पूछा.

‘‘हां, सचमुच,’’ अदिति की ओर देखे बगैर बड़ी ही मृदु और धीमी आवाज में डा. हिमांशु ने कहा, ‘‘अदिति, वहां वेतन बहुत अच्छा मिलेगा.’’

‘‘मैं वेतन के लिए नौकरी नहीं करती,’’ अदिति और भी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘सर, आप ने मुझे कभी समझा ही नहीं.’’

वे कुछ कहते, उस के पहले ही अदिति उन के एकदम करीब पहुंच गई. दोनों के बीच अब नाममात्र की दूरी रह गई थी. उस ने डा. हिमांशु की आंखों में आंखें डाल कर कहा, ‘‘सर, मैं जानती हूं, आप सबकुछ जानतेसमझते हैं. प्लीज, इनकार मत कीजिएगा.’’

अदिति के आंसू आंखों से निकल कर कपोलों को भिगोते हुए नीचे तक बह गए थे. वह कांपते स्वर में बोली, ‘‘आप के यहां काम नहीं है? इस अधूरी पुस्तक को कौन पूरी करेगा? जरा बताइए तो, चार्ली चैपलिन की आत्मकथा कहां रखी है? बायर की कविताएं कहां हैं? विष्णु प्रभाकर या अमरकांत की नई किताबें कहां रखी हैं…?’’

डा. हिमांशु चुपचाप अदिति की बातें सुन रहे थे. उन्होंने दोनों हाथ बढ़ा कर अदिति के गालों के आंसू पोंछे और एक लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘तुम्हारे आने के पहले मैं किताबें ही खोज रहा था. तुम नहीं रहोगी तो भी मैं किताबें ढूंढ़ लूंगा.’’

अदिति को लगा कि उन की आवाज यह कहने में कांप रही थी.

डा. हिमांशु ने आगे कहा, ‘‘इंसान पूरी जिंदगी ढूंढ़ता रहे तो भी शायद उसे न मिले और यदि मिले भी तो इंसान ढूंढ़ता रहे. उसे फिर भी प्राप्त न हो सके, ऐसा भी हो सकता है.’’

‘‘जो अपना हो उस का तिरस्कार कर के,’’ इतना कह कर अदिति दो कदम पीछे हटी और चेहरे को दोनों हाथों में छिपा कर रोने लगी. फिर लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘क्यों?’’

डा. हिमांशु ने अदिति को थोड़ी देर तक रोने दिया. फिर उस के नजदीक जा कर कालेज में पहली बार जिस सहानुभूति से उस के कंधे पर हाथ रखा था उसी तरह उस के कंधे पर हाथ रखा. अदिति को फिर एक बार लगा कि हिमालय के शिखरों की ठंडक उस के सीने में समा गई है. कानों में मधुर घंटियां बजने लगीं. उस ने स्नेहिल नजरों से डा. हिमांशु को देखा. फिर आगे बढ़ कर अपनी दोनों हथेलियों में उन के चेहरे को भर कर चूम लिया. फिर वह उन से लिपट गई. वह इंतजार करती रही कि डा. हिमांशु की बांहें उस के इर्दगिर्द लिपटेंगी परंतु ऐसा नहीं हुआ. वे चुपचाप बिना किसी प्रतिभाव के आंखें फाड़े उसे ताक रहे थे. उन का चेहरा शांत, स्थितप्रज्ञ और निर्विकार था.

‘‘आप मुझ से प्यार नहीं करते?’’

डा. हिमांशु उसे देखते रहे.

‘‘मैं आप के लायक नहीं हूं?’’

डा. हिमांशु के होंठ कांपे, पर शब्द नहीं निकले.

‘‘मैं अंतिम बार पूछती हूं,’’ अदिति की आवाज के साथ उस का शरीर भी कांप रहा था. स्त्री हो कर स्वयं को समर्पित कर देने के बाद भी पुरुष के इस तिरस्कार ने उस के पूरे अस्तित्व को हिला कर रख दिया था. आंखों से आंसुओं की जलधारा बह रही थी. एक लंबी सांस ले कर वह बोली, ‘‘मैं पूछती हूं, आप मुझे प्यार करते हैं या नहीं? या फिर मैं आप के लिए केवल एक तेजस्विनी विद्यार्थिनी से  अधिक कुछ नहीं हूं?’’ फिर डा. हिमांशु का कौलर पकड़ कर झकझोरते हुए बोली, ‘‘सर, मुझे अपनी बातों का जवाब चाहिए.’’

डा. हिमांशु उसी तरह जड़ बने खड़े थे. अदिति ने लगभग धक्का मार कर उन्हें छोड़ दिया. रोते हुए वह उन्हें अपलक ताक रही थी. उस ने दोनों हाथों से आंसू पोंछे. पलभर में ही उस का हावभाव बदल गया. उस का चेहरा सख्त हो गया. उस की आंखों में घायल बाघिन का जनून आ गया था. उस ने चीखते हुए कहा, ‘‘मुझे इस बात का हमेशा पश्चात्ताप रहेगा कि मैं ने एक ऐसे आदमी से प्यार किया जिस में प्यार को स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है. मैं तो समझती थी कि आप मेरे आदर्श हैं, सामर्थ्यवान हैं. परंतु आप में एक स्त्री को सम्मान के साथ स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं है. जीवन में यदि कभी समझ में आए कि मैं ने आप को क्या दिया है, तो उसे स्वीकार कर लेना. जिस तरह हो सके, उस तरह. आज के आप के तिरस्कार ने मुझे छिन्नभिन्न कर दिया है. जो टीस आप ने मुझे दी है, हो सके तो उसे दूर कर देना क्योंकि इस टीस के साथ जिया नहीं जा सकता.’’

इतना कह कर अदिति तेजी से पलटी और बाहर निकल गई. उस ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा. फिर भी उस ने उसी कालेज में आवेदन कर दिया जिस में डा. हिमांशु ने नौकरी की बात कर रखी थी. 2-3 माह में वह कालेज भी जाने लगी पर डा. हिमांशु से कोई संपर्क नहीं किया. कुछ दिन बाद अदिति अखबार पढ़ रही थी, तो अखबार में छपी एक सूचना पर उस की नजर अटक गई. सूचना थी-‘प्रसिद्ध साहित्यकार, यूनिवर्सिटी के हैड औफ द डिपार्टमैंट डा. हिमांशु की हृदयगति रुकने से मृत्यु हो गई है. उन का…’

अदिति ने इतना पढ़ कर पन्ना पलट दिया. रोने का मन तो हुआ, लेकिन जी कड़ा कर के उसे रोक दिया. अगले दिन अखबार में डा. हिमांशु के बारे में 2-4 लेख छपे थे. अदिति ने उन्हें पढ़े बगैर ही उस पन्ने को पलट दिया था. इस के 4 दिन बाद औफिस में अदिति को पाठ्यपुस्तक मंडल की ओर से ब्राउनपेपर में लिपटा एक पार्सल मिला. भेजने वाले का नाम उस पर नहीं था. अदिति ने जल्दीजल्दी उस पैकेट को खोला. उस पैकेट में वही पुस्तक थी जिसे वह अधूरी छोड़ आई थी. अदिति ने प्यार से उस पुस्तक पर हाथ फेरा. लेखक का नाम पढ़ा. उस ने पहला पन्ना खोला, किताब के नाम आदि की जानकारी थी. दूसरा पन्ना खोला, लिखा था :

‘अर्पण

मेरे जीवन की एकमात्र स्त्री को, जिसे मैं ने हृदय से चाहा, फिर भी उसे कुछ दे न सका. यदि वह मेरी एक पल की कमजोरी को माफ कर सके, तो इस पुस्तक को अवश्य स्वीकार कर ले.’

उस किताब को सीने से लगाने के साथ ही अदिति एकदम से फफकफफक कर रो पड़ी. पूरा औफिस एकदम से चौंक पड़ा. सभी उठ कर उस के पास आ गए. हर कोई एक ही बात पूछ रहा था, ‘‘क्या हुआ अदिति? क्या हुआ?’’

रोते हुए अदिति मात्र गरदन हिला रही थी. उसे खुद ही पता नहीं था कि उसे क्या हुआ है.

किसान आंदोलन : उलट आरोपों से बदनाम कर राज की तरकीब

लेखक-रोहित और शाहनवाज

सरकार ने अपने पुराने हथियार को निकाल कर किसान आंदोलन में माओवादियों, देशद्रोहियों के शामिल होने का हल्ला मचाना शुरू किया तो कितने ही हिंदी, अंगरेजी चैनलों व अखबारों ने इस हल्ले को सरकार की फेंकी हड्डी सम झ कर लपकने में देर न लगाई रातदिन एक कर दिए. दिल्ली हरियाणा के सिंघु बौर्डर पर हम किसान आंदोलन कवर करने गए थे. आंदोलन में ‘जय जवान, जय किसान’ के नारों की आवाज वहां तक पहुंच रही थी जहां दूर मीडिया की गाडि़यों के खड़े होने की जगह थी. उत्सुकता बढ़ी तो तेज कदमों से धरनास्थल पर पैर दौड़ पड़े.

वहां पुलिस के लगाए 2 लेयर बैरिकेडों के बीचोंबीच जा कर हम फंस गए. हमें बैरीकेड पार कर के किसानों की तरफ बढ़ना था. लेकिन अंदर जाने का रास्ता ब्लौक था. रास्ता खोज ही रहे थे कि तभी एक आवाज सुनाई दी, ‘भाइयो, रास्ता इधर है. इस रास्ते से आ जाओ, ‘‘मु झे तो लगा कि एक 27 वर्षीय युवा (तेजिंदर सिंह) बैरीकेड के ठीक पीछे कुरसी पर दिल्ली की तरफ मुंह कर के खड़ा था. उस के हाथ में सफेद रंग की तख्ती (प्लेकार्ड) थी. तख्ती पर लिखा था, ‘‘गोदी मीडिया गो बैक.’’ वहीं उस की बगल में खड़े दूसरे आंदोलनकारी की तख्ती पर कुछ मीडिया चैनलों के नाम के साथ ‘मुर्दाबाद’ के नारे लिखे हुए थे. अब यह दिलचस्प था कि किसान आंदोलन में सरकार की नीतियों के साथसाथ मुख्यधारा की मीडिया की मुखालफत देखने को मिली. हम जानने के लिए उन की तरफ बढ़े. हायहैलो की, फौरमैलिटी छोड़ कर सीधा प्रश्न पूछा, ‘‘इन तख्तियों का क्या मतलब है?’’ तेजिंदर ने जवाब दिया, ‘‘हम किसानों का यह संघर्ष 2 मोरचों पर है. एक, तीनों कानून वापस करवाने आए हैं.

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दूसरा, हमारा संघर्ष सरकार के तलवे चाटने वाली गोदी मीडिया के खिलाफ भी है. हम इन के आगे चाहे कितनी भी सफाई दे दें, जो भी सचाई रख दें, ये लोग वही दिखाएंगे जो सरकार इन से कहेगी. आज ये दोनों मिल कर हमें खालिस्तानी कह रहे हैं, कल को कुछ और भी कह सकते हैं. मीडिया एक बार भी इन कानूनों को ले कर सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत नहीं कर सकती.’’ तभी दूसरा युवक भी बातों में कूद पड़ा. उस ने कहा, ‘‘ये (मीडिया) बस आंदोलन को किसी भी तरह से बदनाम करना चाहती है. जो भी आवाज सरकारी नीतियों के खिलाफ उठती है, उस आवाज को सब से पहले यही मीडिया दबाती है. इस का किसानों पर क्या असर पड़ेगा, उन्हें इस से कोई मतलब नहीं.

इन्हें तो मोटी मलाई मिल ही जाती है. हम यहां खड़े ही इसीलिए हैं ताकि उन्हें उन की बिकी हुई हकीकत दिखा सकें.’’ आंदोलन में सरकार के साथसाथ मीडिया को ले कर प्रदर्शनकारियों में असंतोष का यह पहला उदाहरण नहीं था, बल्कि वहां देखने में आया कि किसान इन बातों को ले कर इतना सचेत थे कि अपनी बात रखने से पहले वे यह अच्छी तरह टटोल लेते कि फलां कौन सा चैनल है, रात के प्राइम टाइम में क्या चलाएगा और हमें इन से कैसे बात करनी है. मीडिया और सरकार को ले कर किसान प्रदर्शनकारियों का विश्वास पूरी तरह खत्म हो चुका है. आंदोलन के शुरू से इन दोनों के रवैये को किसान सम झ चुके थे. इस का कारण यह कि भाजपाई नेता लगातार आंदोलन पर कोई हड्डी हवा में उछालता तो यह मीडिया लपक कर उस के ऊपर दौड़ पड़ता.

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मीडिया-सत्ता का गठजोड़ जून में विवादित कृषि संबंधित अध्यादेश आने के बाद से ही देशभर में किसान तरहतरह से अपने स्तर पर प्रदर्शन कर रहे थे. भारत में दुनिया के सब से सख्त लौकडाउन लगने के कारण इन अध्यादेशों के खिलाफ पंजाब व अन्य राज्यों में लोग अपने घरों की छतों पर इकट्ठे हो कर ही इन कानूनों का विरोध कर रहे थे. समय के साथसाथ लोगों की छतों और आंगन में होने वाले धरने सड़कों पर उतर आए. एक समय के बाद किसानों ने अपनी यूनियन के साथ इकट्ठे हो कर पंजाब में ‘रेल रोको आंदोलन’ किया. और जब किसानों की मांग को सरकार ने अनदेखा कर दिया तो किसान अपनी मांग ले कर देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के बौर्डर पर तैनात हो आए.

यह आंदोलन समय के साथसाथ बड़ा हुआ और किसान अपनी बात, अपनी मांगें जनता तक पहुंचाने में एक तरह से सफल भी हुए. लेकिन किसानों के इस आंदोलन को सरकारी नुमाइंदों और सत्ता की गोद में बैठी मीडिया, जिसे गोदी मीडिया कहा जाता है, ने बदनाम करने का एक भी मौका हाथ से जाने नहीं दिया. भाजपाई नेता और उस की आईटी सैल जो भी आरोप आंदोलन के खिलाफ गढ़ते, उन्हें मुख्यधारा की मीडिया सरकारी भोंपू की तरह दिनरात बजबजाती. भाजपाई नेता और मीडिया द्वारा खालिस्तानी, देशद्रोही, टुकड़ेटुकड़े गैंग, आतंकवादी कनैक्शन, चीनपाक कनैक्शन इत्यादि शब्दों से आंदोलन पर कई सवालिया निशान खड़े किए जाते रहे, यह इसलिए ताकि आमजन को पूरा मसला सम झ में आए उस से पहले ही उन्हें भ्रम की दीवार के पीछे धकेल दिया जाए.

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आंदोलन के खिलाफ नकारात्मक रिपोर्ट से सनी आज की मीडिया ने अपना चरित्र साफ दिखा दिया, जिसे किसान भी बखूबी सम झे. यह मीडिया की ही कड़वी सचाई है कि उस ने पिछले 3 महीने से लगातार चले आ रहे इस आंदोलन में- किसानों की मांग क्या है, यह कानून क्या है, आखिर वे आंदोलन करने को मजबूर क्यों हैं, इसे स्पष्टतौर से सम झाने की जगह बस, सरकारी आरोपों का भोंपू बजाया. सरकार की दमनकारी नीति तो दूर, इस बात को भी बड़े स्मार्ट तरीके से छिपाया गया कि किसानों का यह आंदोलन आडानीअंबानी और चंद दूसरे कौर्पोरेट घरानों के खिलाफ भी है जिन के पैट्रोलपंपों, नैटवर्क, मौल्स को किसानों द्वारा लगातार बायकौट किया जा रहा है. यह सोचने वाली बात है, जब तक किसान अपने प्रदेश में, राज्य स्तर पर प्रदर्शन कर रहे थे, तब तक सरकार इन पर ध्यान देना भी जरूरी नहीं सम झ रही थी. लेकिन वही किसान अब जब अपनी मांगों को ले कर दिल्ली के बौर्डरों पर जमे तो उन पर तरहतरह का टैग लगा कर उन के आंदोलन को बदनाम किया जाता रहा. किसानों को दिल्ली के सिंघु बौर्डर पर आए 2 ही दिन हुए थे कि 30 नवंबर को बीजेपी के सोशल मीडिया अकाउंट, खासकर ट्विटर और फेसबुक, से प्रदर्शन करने आए किसानों पर ‘खालिस्तानी’ होने का टैग लगाया गया.

वैसे तो यह सब टैगिंग का काम भाजपा के अंधभक्त पहले से ही कर रहे थे, लेकिन आधिकारिक रूप से भाजपा ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट से ट्वीट कर किसानों के आंदोलन को खालिस्तानी होने की बात कही. सिर्फ सोशल मीडिया हैंडल ही नहीं, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर तो यह तक कह गए, ‘‘अगर ये लोग इंदिरा गांधी को कर (मार) सकते हैं तो ये मोदी को क्यों नहीं कर सकते.’’ इस के साथ ही खट्टर ने इन किसानों पर ‘प्रो-खालिस्तान’ और ‘प्रो-पाकिस्तान’ होने का भी टैग लगा दिया था. ठीक उसी दिन उत्तराखंड भाजपा के नेता दुष्यंत कुमार गौतम ने कहा था, ‘‘इन किसानों का इस प्रोटैस्ट से कोई लेनादेना नहीं है. इसे आतंकवादियों और राष्ट्रविरोधी ताकतों द्वारा अपहरण कर लिया गया है. प्रोटैस्ट में आए कुछ लोग महंगी कारों और अच्छे कपड़ों में देखे गए, वे किसान नहीं हो सकते.’’ कुछ इसी तरह का बयान केंद्रीय मंत्री वी के सिंह ने भी दिया. उन्होंने कहा कि कपड़ों से ये लोग किसान नहीं लगते हैं. लोगों को गुमराह करने में महारत हासिल करने वाले भाजपा के सोशल मीडिया चीफ अमित मालवीय ने 2 दिसंबर को इंटरनैट पर वायरल हो रहे एक वीडियो का अधूरा हिस्सा दिखा कर ट्वीट किया कि पुलिस वालों ने किसी किसान पर लाठियों से हमला नहीं किया.

जिस के जवाब में किसी राजनीतिक पार्टी ने नहीं, बल्कि ट्विटर की कंपनी ने ही उस ट्वीट पर ‘मैनीपुलेटेड मीडिया’ (गुमराह करने) का टैग लगा दिया. भारत में ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी व्यक्ति के ट्वीट को ट्विटर ने ‘मैनीपुलेटेड मीडिया’ का टैग दिया हो. 3 दिसंबर के दिन भाजपा के सांसद मनोज तिवारी ने किसान आंदोलन को ‘टुकड़ेटुकड़े गैंग’ द्वारा संचालित करने का आरोप लगाया. इस आंदोलन को उन्होंने ‘सुनियोजित साजिश’ करार दिया और कहा कि यह गैंग इस प्रोटैस्ट को शाहीनबाग जैसा बनाना चाहता है. उन्होंने यह भी कहा कि इसे शाहीनबाग 2.0 बनाने की पूरी तैयारी है.’’ 6 दिसंबर को भाजपा के जनरल सैक्रेटरी बी एल संतोष ने किसान आंदोलन आयोजित कर रही किसान यूनियनों पर ‘दोगला’ होने का आरोप लगाया. किसान आंदोलन की मांगों का समर्थन कर रहे ऊंचे अवार्ड और पदकों से सम्मानित खिलाडि़यों के अवार्ड वापस करने को ले कर मध्य प्रदेश भाजपा के नेता कमल पटेल का अजीबोगरीब बयान सामने आया. उन्होंने कहा, ‘‘अवार्ड वापसी करने वाले सभी लोगों ने भारत माता को गाली दी है और देश के टुकड़े करने की कसम खाई है.

अवार्ड वापसी करने वाला कोई भी देशभक्त नहीं है.’’ 9 दिसंबर को केंद्रीय मंत्री राओसाहेब दानवे ने यह दावा किया कि इस प्रोटैस्ट के पीछे चीन और पाकिस्तान के हाथ हैं. उन के अनुसार, चीन और पाकिस्तान इस प्रोटैस्ट की फंडिंग कर रहे हैं. यहां तक कि अगर कोई मुसलिम व्यक्ति आंदोलन में दिख जाए तो उस का ऐसा एंगल दिखाया जाता है मानो वह संदिग्ध हो, उस ने वहां जा कर कोई गुनाह कर दिया हो. ऐसे में सवाल यह बनता है कि देश में क्या कोई मुसलिम समुदाय से आने वाला व्यक्ति किसान नहीं हो सकता? और अगर कोई मुसलिम समुदाय का व्यक्ति आंदोलन में शामिल हो भी गया तो इस में क्या कोई गुनाह है? इस के बाद 11 दिसंबर ‘ह्यूमन राइट्स डे’ के दिन सिंधु बौर्डर पर भारतीय किसान यूनियन (उग्रहन) के किसानों ने देश की जेलों में कैद उन लोगों को रिहा करने की मांग भी उठाई जो सरकार की तीखी आलोचना करते थे और जिन पर अभी तक कोई आरोप सिद्ध नहीं किया जा सका है.

जिन में वरवरा राव, शर्जील इमाम, उमर खालिद, फादर स्टेन, सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा और भी कई ऐसे नाम हैं जिन्हें सरकार द्वारा यूएपीए कानून के तहत काफी लंबे समय से जेल में बंद किया गया है. और इस लिस्ट में कई नाम ऐसे भी हैं जो किसानों के अधिकारों को ले कर लंबे समय से संघर्ष कर रहे थे. हैरानी वाली बात यह भी है कि सरकार इन में से किसी के खिलाफ अभी तक पुख्ता सुबूत नहीं जुटा पाई है. माओवादी और देशद्रोह कनैक्शन का होहल्ला तमाम आरोपों के बाद सरकार ने इन दिनों आंदोलन को बदनाम करने के लिए कुछ और आरोपों को इन में शामिल कर दिया. अब जाहिर सी बात है, ‘खालिस्तान’ की पीपरी, यूपी, बिहार और हरियाणा में बैठे किसान परिवार के सम झ के परे था तो सरकार को ऐसे सिंबल की जरूरत थी जो उन के आरोपों को सार्थक कर सके. यही कारण था कि माओवादी, देशद्रोही, टुकड़ेटुकड़े गैंग की हवा फिर से बनाने की पूरी कवायद चली. जिस के लिए सरकार ‘सरकारी सूत्रों’ (केंद्रीय खुफिया ब्यूरो) का हवाला देते हुए यह खबर खूब जोरशोर से चलवा दी कि किसानों के इस आंदोलन को अल्ट्रा लेफ्ट, प्रो लेफ्ट विंग, एक्सटी्रमिस्ट एलिमैंट और माओवादियों ने हाईजैक कर लिया है. पंजाब के संगरूर जिले से मंजीत सिंह से जब इन आरोपों के बारे में पूछा गया तो वे बताते हैं,

‘‘ये सब झूठे आरोप लगा कर सरकार हमारे आंदोलन को बदनाम करना चाहती है और इस आग में घी डालने का काम गोदी मीडिया कर रहा है. इस देश को गर्त में ले जाने का काम जितना देश की सरकार ने किया है उस से कहीं बड़ा योगदान दलाल मीडिया का है. हम सीधेसाधे किसान हैं जो अपने हक मांगने सरकार के पास आए हैं.’’ वे आगे बताते हैं, ‘‘सरकार इन कानूनों को वापस लेने से डरती है, क्योंकि इस से उन के चंद कौर्पोरेट दोस्तों के हित जुड़े हुए हैं. यही कारण है कि वह हम पर बदलबदल कर आरोप लगा रही है. खालिस्तानी, आतंकवादी चल नहीं पाया तो माओवादी कहना शुरू कर दिया है. सरकार बौखलाई हुई है, क्योंकि वह नैतिक दबाव में फंस गई है. इसलिए वह हमारे आंदोलन को अनैतिक दिखाने की कोशिश कर रही है. यही कारण है कि वह हम पर झूठे आरोप लगा रही है.’’ इसी मसले पर सिंघु बौर्डर पर आए करमजीत ने फोन पर बात करते हुए बताया, ‘‘अगर सरकार को पता है कि आंदोलन में खालिस्तानी, आतंकवादी, माओवादी, देशद्रोही वगैरहवगैरह हैं तो वह आए उन्हें गिरफ्तार करे.

चुप क्यों बैठी है. चुप बैठ कर तो वह अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही है, साथ ही, राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ कर रही है. इस पर सरकार की खामोशी यह दिखाती है कि वह बस कीचड़ उछालना चाहती है.’’ करमजीत मानते हैं कि भाजपा ने इन 6 सालों में अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए कुछ तरह के नए सिंबल गढ़े हैं या पुराने सिंबल को जोरशोर से इस्तेमाल किया है, जिस में मीडिया के बड़े हिस्से ने उन का साथ दिया. सिंबल के इर्दगिर्द राजनीति किसी भी तरफ की राजनीति में ‘पहचान’, ‘टैग’ व ‘सिंबल’ अहम चीज होती है. फिर चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक. इन ‘सिंबल’ को स्थापित करना किसी भी राजनेता के लिए राजनीतिक विजय के समान होता है. ये वही पहचान होते हैं जो राजनेता को राजनीतिक फायदा व नुकसान पहुंचाते हैं.

यही कारण है कि सब से पहले राजनेता इन्हीं को गढ़ने की कोशिश करता है. आज भाजपा इतनी ताकतवर है कि उस ने अपने विरोधियों के खिलाफ ऐसे कई टैग गढ़ दिए हैं जिस से उन को सिर्फ कुछ शब्दों के इर्दगिर्द बदनाम किया जा सके. ऐसे में, बस, इस तरह के सिंबल उछाल दो, बाकी का काम मीडिया, अंधभक्त खुदबखुद कर ही देंगे. 2014 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में काबिज हो रहे थे, उस से पहले वे खुद के लिए योजनाबद्ध तरीके से ‘हिंदू हृदय सम्राट’, ‘साधूसंत’, ‘संन्यासी’, ‘फकीर’, ‘विकासपुरुष’, ‘ईमानदार’ जैसे शब्द स्थापित करवा चुके थे. वहीं, उस समय के विपक्षी नेता उम्मीदवार राहुल गांधी के लिए ‘शहजादा’, ‘पप्पू’, ‘नौसिखिया’, ‘मां का लाड़ला’ जैसी पहचान घरघर तक पहुंचा चुके थे. जिस से आमजन में प्रधानमंत्री के चेहरे के लिए एक स्पष्टता बनी. यह इमेज को बनाने और बिगाड़ने का खेल राजनीति की प्रमुख पहचान है. राजनीति में ये सिंबल न सिर्फ किसी की हस्ती को बनानेडुबोने के काम आते हैं बल्कि सत्ता में बैठे सत्ताधारियों के उन के खिलाफ उठ रहे विरोधों को कुचलने के भी काम आते हैं. मौजूदा समय की बात की जाए तो भाजपा इन सिंबल व अपने प्रचारतंत्र के सहारे कई आंदोलनों का दमन कर चुकी है.

यही कारण था, जुलाई 2015 में दलित छात्र स्कौलर रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद उठ रहे विरोधों को खत्म करने के लिए देश में आंदोलित छात्रों पर सब से पहले हमला किया गया. उन्हें कथित ‘टुकड़ेटुकड़े गैंग’ सिंबल दिया गया, जो आज तक छात्र आंदोलन के लिए नासूर बना हुआ है. इस शब्द के बड़े राजनीतिक माने रहे हैं. इस के जरिए समाज में एक अलग तरह का डिस्कोर्स खड़ा किया गया. देशभक्त बनाम देशद्रोह की बहस छेड़ी गई. बाजार में दालचावल की बढ़ी कीमतों से परेशान आम व्यक्ति के लिए भी ‘फलानी यूनिवर्सिटी’ में कुछ नौसिखियों छात्रों द्वारा चली बहस प्राथमिकता बन गई और पूरा मामला भाजपा के लिए अंधभक्ति फैलाने के नजरिए से मील का पत्थर बन गया. ठीक इसी तरह की ‘सिंबल’ की राजनीति मोदी सरकार के खिलाफ उठे उन तमाम विरोधों, आपत्तियों और असहमतियों के विरुद्ध भाजपाइयों द्वारा की गई, जहां बुद्धिजीवियों को ‘अरबन नक्सल,’ असहमति में अवार्ड लौटाने वालों को ‘अवार्ड वापसी गैंग’ इत्यादि टैग दिए गए. इसी कड़ी में सीएए-एनआरसी आंदोलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने झारखंड के दुमका से आगजनी करने वालों को ‘कपड़ों से पहचानने’ की सलाह दे दी. वैसे तो यह तय है कि तमाम मीडिया और सरकारी तंत्र ने आज अल्पसंख्यक समुदाय को संदिग्ध की कैटेगरी में डाल ही दिया है, फिर चाहे वह मौबलिंचिंग के समय हो या सीएए-एनआरसी के समय.

इसे सम झने के लिए कोरोनाकाल में तबलीगी जमात वाले प्रकरण को याद किया जा सकता है. लेकिन इस के साथ जो भी सरकार की आंख में किरकिरी पैदा करता है उसे यह सरकार सिंबल के माध्यम से बदनाम करवाती है, जैसे लौकडाउन के समय मजदूरों को कहा जा रहा था कि वे ‘कोरोना वाहक’ हैं. जिस से उन्हें निरंकुश और तानाशाह की तरह पीटे जाने का लाइसैंस सरकार ने अपने हाथ में ले लिया था. किसानों के आंदोलन में भी यही देखने को मिला, जहां कानूनों पर चर्चा से ज्यादा सरकार और मीडिया नए सिंबल गढ़ने का या तो प्रयास कर रही है या पुराने सिंबलों के जरिए आंदोलन को कठघरे में खड़ा कर रही है. बस, इस बीच जो नहीं हो पा रहा वह किसानों को इन कानूनों से होने वाली समस्या और कानूनों के फायदेनुकसान पर सिलसिलेवार चर्चा का होना है.

अर्पण-भाग 2 : अदिति आईने से बात करते हुए किसके ख्याल में खो जाती

‘सर,’ अदिति ने हिचकी लेते हुए कहा, ‘मैं पढ़ना चाहती हूं, इसीलिए तो नौकरी करती हूं.’

उन्होंने ‘आई एम सौरी, मुझे पता नहीं था,’ अदिति के सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘इट्स ओके, सर.’

‘क्या काम करती हो?’

‘एक वकील के औफिस में मैं टाइपिस्ट हूं.’

‘मैं नई किताब लिख रहा हूं. मेरी रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करोगी?’

अदिति ने आंसू पोंछते हुए ‘हां’ में गरदन हिला दी.

उसी दिन से अदिति डा. हिमांशु की रिसर्च असिस्टैंट के रूप में काम करने लगी. इस बात को आज 2 साल हो गए हैं. अदिति ग्रेजुएट हो गई है. वह फर्स्ट क्लास आई थी यूनिवर्सिटी में. डा. हिमांशु एक किताब खत्म होते ही अगली पर काम शुरू कर देते. इस तरह अदिति का काम चलता रहा. अदिति ने एमए में ऐडमिशन ले लिया था. अकसर उस से कहते, ‘अदिति, तुम्हें पीएचडी करनी है. मैं तुम्हारे नाम के आगे डाक्टर लिखा देखना चाहता हूं.’

फिर तो कभीकभी अदिति बैठी पढ़ रही होती, तो  कागज पर प्रोफैसर के साथ अपना नाम जोड़ कर लिखती फिर शरमा कर उस कागज पर इतनी लाइनें खींचती कि वह नाम पढ़ने में न आता. परंतु बारबार कागज पर लिखने की वजह से यह नाम अदिति के हृदय में इस तरह रचबस गया कि वह एक भी दिन उन को न देखती तो उस का समय काटना मुश्किल हो जाता.

पिछले 2 सालों में अदिति प्रोफैसर के घर का एक हिस्सा बन गई थी. सुबह घंटे डेढ़ घंटे उन के घर काम कर के वह साथ में यूनिवर्सिटी जाती. फिर 5 बजे साथ ही उन के घर आती, तो उसे अपने घर जाने में अकसर रात के 8 बज जाते. कभीकभी तो 10 भी बज जाते. डा. हिमांशु मूड के हिसाब से काम करते थे. अदिति को भी कभी घर जाने की जल्दी नहीं होती थी. वह तो उन के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का बहाना ढूंढ़ती रहती थी.

इन 2 सालों में अदिति ने देखा था कि प्रोफैसर को जानने वाले तमाम लोग थे. उन से मिलने भी तमाम लोग आते थे. अपना काम कराने और सलाह लेने वालों की भी कमी नहीं थी. फिर भी एकदम अकेले थे. घर से यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी से घर, यही उन की दिनचर्या थी. वे कहीं बाहर आनाजाना या किसी गोष्ठी में भाग लेना पसंद नहीं करते थे. बड़ी मजबूरी में ही वे किसी समारोह में भाग लेने जाते थे. अदिति को यह सब बड़ा आश्चर्यजनक लगता था. वे पढ़ाई के अलावा किसी से भी कोई फालतू बात नहीं करते थे. अदिति उन के साथ लगभग रोज ही गाड़ी से आतीजाती थी. परंतु इस आनेजाने में शायद ही कभी उन्होंने उस से कुछ कहा हो. दिन के इतने घंटे साथ बिताने के बावजूद उन्होंने काम के अलावा कोई भी बात अदिति से नहीं की थी. अदिति कुछ कहती तो वे चुपचाप सुन लेते. मुसकराते हुए उस की ओर देख कर उसे यह आभास करा देते कि उन्होंने उस की बात सुन ली है.

किसी बड़े समारोह या कहीं से डा. हिमांशु वापस आते तो अदिति बड़े ही अहोभाव से उन्हें देखती रहती. उन की शौल ठीक करने के बहाने, फूल या किताब लेने के बहाने, अदिति उन्हें स्पर्श कर लेती. टेबल के सामने डा. हिमांशु बैठ कर लिख रहे होते तो अदिति उन के पैर पर अपना पैर स्पर्श करा कर संवेदना जगाने का प्रयास करती. वे उस की नजरों और हावभाव से उस के मन की बात जान गए थे. फिर भी उन्होंने अदिति से कुछ नहीं कहा. अब तक अदिति का एमए हो गया था. डा. हिमांशु के अंडर में ही वह रिसर्च कर रही थी. उस की थिसिस भी अलग से तैयार ही थी.

अदिति को आभास हो गया था कि डा. हिमांशु उस के मन की बात जान गए हैं. फिर भी वे ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो. उन के प्रति अदिति का आकर्षण धीरेधीरे बढ़ता ही जा रहा था. आईने के सामने खड़ी स्वयं को निहार रहीअदिति ने तय कर लिया था कि आज वह डा. हिमांशु से अपने मन की बात अवश्य कह देगी. फिर वह मन ही मन बड़बड़ाई, ‘प्रेम करना कोई अपराध नहीं है. प्रेम की कोई उम्र नहीं होती.’

इसी निश्चय के साथ अदिति डा. हिमांशु के घर पहुंची. वे लाइब्रेरी में बैठे थे. अदिति उन के सामने रखे रैक से टिक कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से आंसू बरसने की तैयारी में थे. उन्होंने अदिति को देखते ही कहा, ‘‘अदिति, बुरा मत मानना, डिपार्टमैंट में प्रवक्ता की जगह खाली है. सरकारी नौकरी है. मैं ने कमेटी के सभी सदस्यों से बात कर ली है. तुम अपनी तैयारी कर लो. तुम्हारा इंटरव्यू फौर्मल ही होगा.’’

अर्पण-भाग 1: अदिति आईने से बात करते हुए किसके ख्याल में खो जाती

आदमकद आईने के सामने खड़ी अदिति खुद के ही प्रतिबिंब को मुग्धभाव से निहार रही थी. उस ने कान में पहने डायमंड के इयररिंग को उंगली से हिला कर देखा. खिड़की से आ रही साढ़े 7 बजे की धूप इयररिंग से रिफ्लैक्ट हो कर उस के गाल पर पड़ रही थी, जिस से वहां इंद्रधनुष चमक रहा था. अदिति ने आईने में दिखाई देने वाले अपने प्रतिबिंब पर स्नेह से हाथ फेरा, फिर वह अचानक शरमा सी गई. इसी के साथ वह बड़बड़ाई, ‘वाऊ, आज तो हिमांशु मुझे जरूर कौंपलीमैंट देगा.’

फिर उस के मन में आया, यदि यह बात मां सुन लेतीं तो कहतीं, ‘हिमांशु कहती है? वह तेरा प्रोफैसर है.’

‘सो व्हाट?’ अदिति ने कंधे उचकाए और आईने में स्वयं को देख कर एक बार फिर मुसकराई.

अदिति शायद कुछ देर तक स्वयं को इसी तरह आईने में देखती रहती लेकिन तभी उस की मां की आवाज उस के कानों में पड़ी, ‘‘अदिति, खाना तैयार है.’’

‘‘आई, मम्मी,’’ अदिति बाल ठीक करते हुए डाइनिंग टेबल की ओर भागी.

अदिति का यह लगभग रोज का कार्यक्रम था. प्रोफैसर साहब के यहां जाने से पहले आईने के सामने ही वह अपना अधिक से अधिक समय स्वयं को निहारते हुए बिताती थी. शायद आईने को यह सब अच्छा लगने लगा था, इसलिए वह भी अदिति को थोड़ी देर बांधे रखना चाहता था. इसीलिए तो उस का इतना सुंदर प्रतिबिंब दिखाता था कि अदिति स्वयं पर ही मुग्ध हो कर निहारती रहती. आईना ही क्यों अदिति को तो जो भी देखता, देखता ही रह जाता. वह थी ही इतनी सुंदर. छरहरी, गोरी काया, मछली जैसी काली आंखें, घने काले रेशम जैसे बाल. वह हंसती तो सुंदरता में चारचांद लगाने के लिए गालों में गड्ढे पड़ जाते थे. अदिति की मम्मी उस से अकसर कहती थीं, ‘तू एकदम अपने पापा जैसी लगती है. एकदम उन की कार्बनकौपी.’ इतना कहतेकहते अदिति की मम्मी की आंखें भर आतीं और वे दीवार पर लटक रही अदिति के पापा की तसवीर को देखने लगतीं.

अदिति जब ढाई साल की थी, तभी उस के पापा का देहांत हो गया था. अदिति को तो अपने पापा का चेहरा भी ठीक से याद नहीं था. उस की मम्मी जिस स्कूल में नौकरी करती थीं उसी स्कूल में अदिति की पढ़ाई हुई थी. अदिति स्कूल की ड्राइंगबुक में जब भी अपने परिवार का चित्र बनाती, उस में नानानानी और मम्मी के साथ वह स्वयं होती थी. अदिति के लिए उस का इतना ही परिवार था.

अदिति के लिए पापा घर की दीवार पर लटकती तसवीर से अधिक कुछ नहीं थे. कभी मम्मी की वह आंखों से बहते आंसुओं में पापा की छवि महसूस करती तो कभी अलबम की ब्लैक ऐंड ह्वाइट तसवीर में वह स्वयं को जिस पुरुष की गोद में पाती वह ही तो उस के पापा थे. अदिति की क्लासमेट अकसर अपनेअपने पापा के बारे में बातें करतीं. टैलीविजन के विज्ञापनों में पापा के बारे में देख कर अदिति शुरूशुरू में कच्ची उम्र में पापा को मिस करती थी. परंतु धीरेधीरे उस ने मान लिया कि उस के घर में 2 स्त्रियां वह और उस की मम्मी रहती हैं और आगे भी वही दोनों रहेंगी.

बिना बाप की छत्रछात्रा में पलीबढ़ी अदिति कालेज की अपनी पढ़ाई पूरी कर के कब कमाने लगी, उसे पता  ही नहीं चला. वह ग्रेजुएशन के फाइनल ईयर में पढ़ रही थी, तभी वह अपने एक प्रोफैसर हिमांशु के यहां पार्टटाइम नौकरी करने लगी थी. डा. हिमांशु जानेमाने साहित्यकार थे. यूनिवर्सिटी में हैड औफ द डिपार्टमैंट. अदिति इकोनौमिक्स ले कर बीए करना चाहती थी परंतु डा. हिमांशु का लैक्चर सुनने के बाद उस ने हिंदी को अपना मुख्य विषय चुना था.

डा. हिमांशु अदिति में व्यक्तिगत रुचि लेने लगे थे. उसे नईनई पुस्तकें सजैस्ट करते, किसी पत्रिका में कुछ छपा होता तो पेज नंबर सहित रैफरेंस देते. यूनिवर्सिटी की ओर से. प्रमोट कर के 2 सेमिनारों में भी अदिति को भेजा. अदिति डा. हिमांशु की हर परीक्षा में प्रथम आने के लिए कटिबद्ध रहती थी. इसी लिए वे अदिति से हमेशा कहते थे कि वे उस में बहुतकुछ देख रहे हैं. वह जीवन में जरूर कुछ बनेगी.

वे जब भी अदिति से यह कहते, तो कुछ बनने की लालसा अदिति में जोर मारने लगती. उन्होंने अदिति को अपनी लाइब्रेरी में पार्टटाइम नौकरी दे रखी थी. वे जानेमाने नाट्यकार, उपन्यासकार और कहानीकार थे. उन की हिंदी की तमाम पुस्तकें पाठ्यक्रम में लगी हुई थीं. उन का लैक्चर सुनने और उन से मिलने वालों की भीड़ लगी रहती थी. नवोदित लेखकों से ले कर नाट्य जगत, साहित्य जगत और फिल्मी दुनिया के लोग भी उन से मिलने आते थे.

अदिति यूनिवर्सिटी में डा. हिमांशु को मात्र अपने प्रोफैसर के रूप में जानती थी. वे पूरे क्लास को मंत्रमुग्ध कर देते हैं, यह भी उसे पता था. उसी क्लास में अदिति भी तो थी. अदिति उन की क्लास कभी नहीं छोड़ती थी. पहली बैंच पर बैठ कर उन्हें सुनना अदिति को बहुत अच्छा लगता था. लंबे, स्मार्ट, सुदृढ़ शरीर वाले डा. हिमांशु की आंखों में एक अजीब सा तेज था. सामान्य रूप से हल्के रंग की शर्ट और ब्लू डेनिम पहनने वाले डा. हिमांशु पढ़ने के लिए सुनहरे फ्रेमवाला चश्मा पहनते, तो अदिति मुग्ध हो कर उन्हें देखती ही रह जाती. जब वे अदिति के नोट्स या पेपर्स की तारीफ करते, तो उस दिन अदिति हवा में उड़ने लगती.

फाइनल ईयर में जब डा. हिमांशु की क्लास खत्म होने वाली थी तो एक दिन उन्होंने मिलने के लिए उसे डिपार्टमैंट में बुलाया. अदिति उन के कक्ष में पहुंची तो उन्होंने कहा, ‘अदिति, मैं देख रहा हूं कि इधर तुम्हारा ध्यान पढ़ाई में नहीं लग रहा है. तुम अकसर मेरी क्लास में नहीं रहती हो. पहले 2 सालों में तुम फर्स्ट आई हो. यदि तुम्हारा यही हाल रहा तो इस साल तुम पिछले दोनों सालों की मेहनत पर पानी फेर दोगी.’

डा. हिमांशु अपनी कुरसी से उठ कर अदिति के पास आ कर खड़े हो गए. उन्होंने अपना हाथ अदिति के कंधे पर रख दिया. उन के हाथ रखते ही अदिति को लगा, जैसे वह हिमाच्छादित शिखर के सामने खड़ी है. उस के कानों में घंटियों की मधुर आवाज गूंजने लगी थीं.

‘तुम्हें किसी से प्रेम हो गया है क्या?’ उन्होंने पूछा.

अदिति ने रोतेरोते गरदन हिला कर इनकार कर दिया.

‘तो फिर?’

‘सर, मैं नौकरी करती हूं, इसलिए पढ़ने के लिए समय कम मिलता है.’

‘क्यों? डा. हिमांशु ने आश्चर्य से कहा, ‘शायद तुम्हें शिक्षा का महत्त्व पता नहीं है. शिक्षा केवल कमाई का साधन ही नहीं है. शिक्षा संस्कार, जीवनशैली और हमारी परंपरा है. कमाने के चक्कर में तुम्हारी पढ़ाई में रुचि खत्म हो गई है. इस तरह मैं ने तमाम विद्यार्थियों की जिंदगी बरबाद होते देखी है.’

म्यूचुअल फंड: निवेश का अच्छा विकल्प

आप कम जोखिम में अच्छा मुनाफा चाहते हैं? कुछ पैसा कम समय के टारगेट के लिए और कुछ लंबे समय के लिए रखना चाहते हैं? यदि हां तो म्यूचुअल फंड में निवेश करना आप के लिए एक अच्छा औप्शन है. जानें कि क्या है म्यूचुअल फंड और इस में निवेश कैसे करें. म्यूचुअल फंड में कई निवेशकों का पैसा एक जगह जमा किया जाता है और इस फंड में से फिर बाजार में निवेश किया जाता है.

यानी, यह बहुत सारे लोगों के पैसों का एक फंड होता है जिस में लगाया गया पैसा अलगअलग जगह निवेश करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है और कोशिश की जाती है कि निवेशक को उस के निवेश पर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा दिया जाए. म्यूचुअल फंड को एसेट मैनेजमैंट कंपनियों (एएमसी) द्वारा मैनेज किया जाता है. जो लोग ज्यादा प्रौफिट के लिए रिस्क लेना चाहते हैं पर शेयर बाजार में निवेश के बारे में ज्यादा नहीं जानते, उन के लिए म्यूचुअल फंड निवेश का अच्छा विकल्प है.

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फायदे सुविधाजनक निवेश : म्यूचुअल फंड किसी भी दिन खरीदे या बेचे जा सकते हैं जबकि बैंक के एफडीए, पीपीएफ या बीमा आदि सरकारी छुट्टी या रविवार के दिन खरीदेबेचे नहीं जा सकते. विकल्प अधिक : म्यूचुअल फंड आप को कई तरह के स्टौक और बौंड लेने की सुविधा देता है. आप जिस म्यूचुअल फंड में निवेश करते हैं उस फंड में से किसी एक जगह पैसा नहीं लगाया जाता है बल्कि अलगअलग जगह निवेश किया जाता है.

इस से किसी एक क्षेत्र में मंदी आने से भी अन्य क्षेत्र से आप को लाभ मिलने की उम्मीद बनी रहती है. ज्यादा पारदर्शिता : म्यूचुअल फंड सिक्योरिटी एक्सचेंज बोर्ड औफ इंडिया द्वारा रैगुलेट किए जाते हैं और उन के नैट एसेट वैल्यू या कीमत की घोषणा प्रतिदिन के आधार पर की जाती है. उन के पोर्टफोलियो की घोषणा भी हर महीने की जाती है. इन के बारे में जनता को हर तरह की जानकारी दी जाती है. इस तरह यह काफी पारदर्शी निवेश औप्शन है.

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म्यूचुअल फंड के प्रकार  इक्विटी म्यूचुअल फंड द्य डेट म्यूचुअल फंड द्य हाइब्रिड म्यूचुअल फंड द्य सौल्यूशन ओरिएंटेड म्यूचुअल फंड इक्विटी म्यूचुअल फंड : इस में निवेश का अधिकतर भाग कंपनियों के शेयरों में लगाया जाता है. छोटी अवधि में यह स्कीम जोखिमभरी हो सकती है लेकिन लंबी अवधि में बेहतरीन रिटर्न कमाने में मदद मिलती है.

डेट म्यूचुअल फंड स्कीम्स : ये म्यूचुअल फंड स्कीम्स डेट सिक्योरिटीज में निवेश करती हैं. छोटी अवधि के लिए निवेशक इन में निवेश कर सकते हैं. 5 साल से कम अवधि के लिए इन में निवेश करना ठीक है. ये म्यूचुअल फंड स्कीम शेयरों की तुलना में कम जोखिम वाली होती हैं और बैंक के फिक्स्ड डिपौजिट की तुलना में बेहतर रिटर्न देती हैं.

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हाइब्रिड म्यूचुअल फंड स्कीम्स : ये म्यूचुअल फंड स्कीम्स इक्विटी और डेट दोनों में निवेश करती हैं. सौल्यूशन ओरिएंटेड म्यूचुअल फंड स्कीम्स : ये म्यूचुअल फंड स्कीम्स किसी खास लक्ष्य के हिसाब से बनी होती हैं. इन में रिटायरमैंट स्कीम या बच्चे की शिक्षा जैसे लक्ष्य हो सकते हैं. इन में कम से कम 5 सालों के लिए निवेश करना होता है. म्यूचुअल फंड कैसे चुनें आप को पहले यह तय करना होगा कि आप किस प्रकार के फंड में निवेश करना चाहते हैं. इक्विटी फंड तभी चुने जाने चाहिए जब आप ज्यादा जोखिम उठाने को तैयार हों. यह एक लौंग टर्म निवेश है जिस में 3 साल का लौकइन पीरियड होता है. अगर आप मध्यम जोखिम उठा सकते हैं तो हाइब्रिड फंड में निवेश करें. कम जोखिम के लिए आप को डेट फंड में निवेश करना चाहिए. कोई भी फंड चुनने के लिए एक समयसीमा के अंदर उस का प्रदर्शन देखें. इस के अलावा यह भी ध्यान दें कि फंड मैनेजर कौन है, उस का अनुभव कितना व किन कंपनियों में रहा है और उस का ट्रैक रिकौर्ड क्या है.

म्यूचुअल फंड का पोर्टफोलियो भी देखें. वह कहां और किनकिन कंपनियों में निवेश कर रहा है. आप को यह भी देखना चाहिए कि वह म्यूचुअल फंड किसी एक क्षेत्र में अपना पैसा लगा रहा है या अलगअलग में. यह भी देखें कि कितना पैसा इक्विटी में लगाया गया है और कितना डेट में. म्यूचुअल फंड स्कीम्स में होने वाले सभी खर्च को एक्सपैंस रेश्यो कहते हैं. एक्सपैंस रेश्यो से आप को यह पता लगता है कि किसी म्यूचुअल फंड के प्रबंधन में प्रतियूनिट क्या खर्च आता है. आमतौर पर एक्सपैंस रेश्यो किसी म्यूचुअल फंड स्कीम के साप्ताहिक नैट एसेट के औसत का 1.5-2.5 प्रतिशत होता है.

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ज्यादा एक्सपैंस रेश्यो से आप जितना लाभ कमाते हैं उस का एक बड़ा हिस्सा उस के लिए दे देते हैं और इस तरह आप का लाभ घट जाता है. एक्सपैंस रेश्यो कम हो तो आप का फायदा ज्यादा होगा. निवेश की प्रक्रिया आप को सब से पहले केवाईसी करानी होगी. इस के लिए पैन कार्ड और एक पहचानपत्र की जरूरत पड़ती है. केवाईसी की प्रक्रिया औनलाइन भी की जा सकती है. केवाईसी की प्रक्रिया पूरी होने पर आप को अपनी पसंद के म्यूचुअल फंड में निवेश करने के लिए आवेदन करना होता है. आप यह प्रक्रिया औनलाइन भी कर सकते हैं. म्यूचुअल फंड में कोई भी व्यक्ति निवेश कर सकता है.

आप भारतीय नागरिक हों या एनआरआई, दोनों ही म्यूचुअल फंड में निवेश कर सकते हैं. पर एनआरआई के लिए कुछ कंडीशंस होती हैं. आप म्यूचुअल फंड में न्यूनतम 500 रुपए तक का निवेश कर सकते हैं. अपने जीवनसाथी या बच्चों के नाम पर भी निवेश किया जा सकता है. यदि आप का बच्चा नाबालिग है तो उस के नाम पर निवेश करते समय बच्चे के साथसाथ अभिभावक की जानकारी दी जाती है. बच्चे के पास पैन कार्ड होना भी जरूरी है. आप किसी म्यूचुअल फंड की वैबसाइट से सीधे निवेश कर सकते हैं. अगर आप चाहें तो किसी म्यूचुअल फंड एडवाइजर की सेवा भी ले सकते हैं. अगर आप सीधे निवेश करते हैं तो आप म्यूचुअल फंड स्कीम के डायरैक्ट प्लान में निवेश कर सकते हैं.

अगर आप किसी एडवाइजर की मदद से निवेश कर रहे हैं तो आप स्कीम के रैगुलर प्लान में निवेश करते हैं. म्यूचुअल फंड के किसी डायरैक्ट प्लान में निवेश करने का फायदा यह है कि आप को कमीशन नहीं देना पड़ता है. इसलिए लंबी अवधि के निवेश में आप का रिटर्न बहुत बढ़ जाता है. इस तरीके से म्यूचुअल फंड में निवेश करने में एक दिक्कत यह है कि आप को खुद रिसर्च करनी पड़ती है.

फिल्म ‘ मास्टर’ को मिले इतने स्टार्स

फिल्म समीक्षा:

“मास्टर: खोदा पहाड़ निकली चुहिया”
रेटिंग: दो स्टार
निर्माता :झेवियर ब्रिटो
निर्देशक व लेखक: लोकेश कनगराज
कलाकार: थलापति विजय, विजय सेटुपति, मालविका मोहनन ,अर्जुन दास, अंडे्जा जेरेमियाह, शांतनु भरद्वाज, नासर, रम्या, धीना ,संजीव व अन्य
अवधि :3 घंटे
परिस्थिति वश अपराध करने वाले बच्चों को बाल सुधार गृह में भेजकर यह उम्मीद की जाती है कि यह बच्चे अच्छे नागिन बनकर बाल सुधार गृह से बाहर आएंगे, मगर बाल सुधार गृह से यह बच्चे बहुत बड़े अपराधी बन कर बाहर आते हैं, यह वास्तव में चिंता का विषय है. इसी विषय पर तमिल फिल्मों के मशहूर फिल्मकार लोकेश कनागराज तमिल और हिंदी भाषा में  एक्शन व रोमांचक फिल्म’ मास्टर’ लेकर आए हैं. अफसोस की बात यह है कि तमिल में ‘मानागरम’ और ‘कैथी’ जैसी सुपर डुपर हिट फिल्में दे चुके लोकेश कनागराज इस बार पूरी तरह से चूक गए हैं.
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कहानी:
फिल्म की कहानी शुरू होती है 3 दबंग लोगों द्वारा एक मकान को जलाए जाने से. पता चलता है कि इस जले हुए मकान के अंदर ट्रांसपोर्ट यूनियन के चेयरमैन को भी जिंदा जला दिया गया है. उसके बाद यह तीनों दबंग भवानी से कबूल करवाते हैं कि सिलेंडर फटने से घर में आग लगी. इसके अलावा भवानी पर चोरी का इल्जाम लगाकर बाल सुधार गृह में भिजवा देते हैं. तीनों दबंगों के कहने पर बाल सुधार गृह के वार्डन , भवानी को तरह-तरह की यातनाएं देते हैं.
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उधर भवानी(विजय सेटुपति )इस बाल सुधार गृह से एक बहुत बड़ा अपराधी बन कर बाहर निकलता है और अपने पिता के तीनों हत्यारों को जाकर धमकी देता है. भवानी बाल सुधार गृह के बच्चों को गांजा ,चरस, अफीम, शराब, सिगरेट सब कुछ मुफ्त में मुहैया  कराता है. भवानी जितने भी अपराध करता है, जितनी हत्याएं करता है ,उसका श्रेय किसी न किसी बालक को ही लेना पड़ता है . फिर बालक बाल सुधार गृह में पहुंचकर ऐश की जिंदगी जीता है.इस बार सुधार गृह में कोई भी शिक्षक एक या 2 दिन से ज्यादा टिक नहीं पाता है. उधर एक मशहूर कॉलेज में साइकोलॉजी के प्रोफेसर जेडी(थलापति विजय) से सभी परेशान हैं. प्रिंसिपल भी परेशान हैं.
क्योंकि जेडी शाम 6 बजे के बाद शराब में डूबे रहते हैं पर वह कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए बहुत कुछ अच्छा काम कर रहे हैं जिसके चलते सारे विद्यार्थी उनके इशारों पर कुछ भी करने को तैयार है. एक दिन कॉलेज के प्रिंसिपल जीतू को बताते हैं कि अंकित 3 माह की छुट्टी कबूल कर ली गई है और अब उन्हें बाल सुधार गृह में बच्चों को पढ़ाने जाना है. बाद में पता चलता है कि ऐसा कॉलेज की चारू(मालिका मोहनन) नामक शिक्षिका की करतूत के कारण हुआ है. चारु कभी  एनजीओ के साथ मिलकर बाल सुधार गृह में काम करते हुए सच देख चुकी थी और उन्हें लगा कि इस बाल सुधार गृह के बच्चों को केवल जेडी ही सुधार सकता है.
 बाल सुधार गृह में पहुंचने के बाद कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अब जेडी तथा भवानी आमने-सामने हो जाते हैं. अंततः जे डी के हाथों भवानी की हत्या हो जाती है और जेडी को सजा हो जाती है.
लेखन व निर्देशन:
फिल्म मास्टर देखने के बाद यह एहसास करना मुश्किल हो जाता है कि इस फिल्म के निर्देशक पहले मानागरम और कैथी जैसी फ़िल्मों का लेखन व निर्देशन कर चुके हैं.इसकी कहानी और पटकथा काफी कमजोर है. कहानी को बेवजह रबड़ की तरह तीन घंटे में खींचा गया है .
फिल्म का एक्शन भी अच्छा नहीं बना है. अफसोस की बात यह है कि क्लाइमेक्स से पहले निर्देशक लोकेश ने अपनी पुरानी फिल्म ‘कैथी’ के एक्शन दृश्य की अति घटिया नकल की है . फिल्म का बीएफ एक्स भी बहुत खराब है. फिल्म 3 घंटे लंबी है, लेकिन जेडी का किरदार  सही ढंग से लिखा नहीं  गया जेडी क्यों शराबी बना, इसके पीछे की क्या कहानी है ? इसका कहीं कोई जिक्र नहीं है. चारु यानी कि मालविका मोहनन के किरदार को भी सही ढंग से विकसित नहीं किया गया.
अभिनय:
थलापति विजय और विजय सेटुपति दोनों ने अपने अपने किरदारों को पूरी तरह से जीवंतता के साथ जिया है ,मगर अफसोस पूरी फिल्म इतनी घटिया बनी है कि थालापति विजय और विजय सेटुपति दोनों का उत्कृष्ट अभिनय भी इस फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर सफलता नहीं दिला सकता.

बिग बॉस 14: राहुल से शादी को लेकर लोगों ने किया दिशा परमार को ट्रोल तो मिला ऐसा रिएक्शन

बिग बॉस 14 कंटेस्टेंट राहुल वैद्या और उनकी गर्लफ्रेंड दिशा परमार लगातार सुर्खियों में छाए हुए हैं. इस सीजन के शुरुआत से ही दिशा परमार और राहुल वैद्य की स्टोरी चर्चा में बनी हुई है.

राहुल वैद्य नेशनल टीवी पर सभी के सामने दिशा परमार को प्रपोज किया था. जिसके बाद फैंस के बीच राहुल की टीआरपी और भी ज्यादा बढ़ गई.

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वहीं राहुल और दिशा के फैंस उनके शादी का इंतजार कर रहे हैं. तो दूसरी तरफ राहुल वैद्या बहुत अच्छा गेम खेल रहे हैं. दिशा परमार लगातार राहुल वैद्या को कमेंट कर सपोर्ट कर रही हैं. इसके साथ ही दिशा परमार ने सोशल मीडिया पर एक बेहतर तस्वीर शेयर कि है जिसके बाद यूजर ने राहुल वैद्या की गर्लफ्रेंड को ट्रोल करना शुरू कर दिया है.

 

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इसके बाद दिशा परमार ने जवाब देते हुए लिखा कि तुम्हे क्या लगता है जो इस बात पर कमेंट कर रहे हो मुझे क्या करना चाहिए या नहीं, जिसके बाद सभी ट्रोलर्स की बोलती बंद हो गई.

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दिशा परमार कि इस फोटो को देखने के बाद कई लोगों ने दिशा परमार का समर्थन भी किया है. बता दें कि दिशा और राहुल परमार काफी लंबे समय से एक –दूसरे के साथ रिलेशन में हैं. रिपोर्ट की माने तो बिग बॉस 14 के घर से बाहर आते ही राहुल और दिशा जल्द एक- दूसरे के साथ शादी कर सकते हैं.

हालांकि अभी तक राहुल वैद्या ने इस पर खुलकर अपनी बातों को नहीं रखा है. अब देखना है कि क्या वाकई राहुल और दिशा परमार शादी के बंद में बंधेंगे.

कॉमेडियन डेनियल फर्नाडिस ने सुशांत सिंह राजपूत की मौत का बनाया मजाक तो फैंस ने ऐसे लगाई क्लास

गुरुवार को यानि 14 जनवरी को सुशांत सिंह राजपूत के मौत को पूरे 7 महीने पूरे हो गए है. इस दिन को याद करके फैंस बहुत ज्यादा भावुक हो गए हैं. इसी बीच कॉमेडियन डेनियल फर्नाडिस ने सुशांत और रिया को लेकर स्टैंडअप कॉमेडि के जरिए माजाक बनाया है.

मामला इतना ज्यादा बढ़ गया कि डेनियल को माफी मांगी पड़ी. 11 जनवरी को डेनियल ने एक शो किया था जिसमें उन्होंने हंसाने के लिए सुशांत सिंह राजपूत और रिया का नाम लिया था जिसके बाद से लोगों ने इतना ज्यादा विरोध किया कि उन्हें मांफी मांगनी पड़ी.

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सुशांत सिंह राजपूत के फैंस ने डेनियल पर गुस्सा दिखाते हुए कहा था कि वह अपनी हद से आगे बढ़ रहे हैं. जिसके बाद डेनियल ने एक पोस्ट शेयर करते हुए लिखा था कि मैं एक कॉमेडिय हूं मेरा काम हंसाना है हालांकि हो सकता है कि मुझसे कोई गलती हो गई हो.

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उन्होंने गलती से रिया का नाम बरी के नाम पर ले लिया था जबकी रिया रिहा हुई थीं, जिसके बाद सभी उन्हें खरी खोटी सुनाने लगे थें. मालूम हो कि सुशांत सिंह राजपूत ने 14 जून 2020 को अपने घर के अंदर फांसी लगाकर मर गए थें, जिसके बाद आज तक किसी को पता नहीं चल पाया कि आखिर सुशांत सिंह राजपूत ने ऐसा कदम क्यों उठाया था.

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सुशांत सिंह राजपूत को लेकर देश भर में कई तरह के प्रोटेस्ट हुए थें जिसके बाद से सुशांत सिंह राजपूत के फैंस ने रिया चक्रवर्ती को दोषी बताया था. रिया कुछ दिनों तक सलाखों के पीछे भी रही जिसके कुछ वक्त बाद उन्हें जेल से रिहा किया गया.

हालांकि अभी भी सुशांत सिंह राजपूत की मौत एक पहेली है किसी को सच्चाई का पता नहीं चल पाया है. सभी हैरान है कि कब मिलेगा सुशांत सिंह को न्याय.

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