पहले तो सुरेश यही सोचता था कि घर वापस आने के बाद वह उस घटना को भूल जाएगा मगर ऐसा नहीं हो सका था. अपने में आए इस बदलाव पर खुद सुरेश का भी वश नहीं रहा था. एक छोटी सी घटना भी इनसान के जीवन को कैसे बदल सकती है, इस को वह अब महसूस कर रहा था. सुरेश अपनी ही सोच का कैदी हो अपने ही घर में, अपनों के बीच बेगाना और अजनबी बन गया था.

सुनंदा उस में आए बदलाव को पिछले कुछ दिनों से खामोश देख रही थी. आदमी के व्यवहार में अगर तनिक भी बदलाव आए तो सब से पहले उस की पत्नी को ही इस बात का एहसास होता है.

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सुनंदा शायद अभी कुछ दिन और चुप रह कर उस में आए बदलाव का कारण खोजती लेकिन आहत मासूम मानसी की पीड़ा ने उस के सब्र के पैमाने को एकाएक ही छलका दिया.

अपनी बेटी के साथ सुरेश का बेरुखा व्यवहार सुनंदा कब तक चुपचाप देख सकती थी. वह भी उस बेटी के साथ जिस में हमेशा एक पिता के रूप में सुरेश की सारी खुशियां सिमटी रहती थीं.

रविवार की सुबह सुरेश ने मानसी के साथ जरूरत से ज्यादा रूखा और कठोर व्यवहार कर डाला था. वह भी तब जब मानसी ने लाड़ से भर कर अपने पापा से लिपटने की कोशिश की थी.

बेटी का शारीरिक स्पर्श सुरेश को एक दंश जैसा लगा था. उस ने बड़ी बेरुखी से बेटी को यह कहते हुए कि मानसी, तुम अब बड़ी हो गई हो, तुम्हारा यह बचपना अब अच्छा नहीं लगता, अपने से अलग कर दिया था. सुरेश ने बेटी को झिड़कते हुए जिस अंदाज से यह कहा था उस से मानसी सहम गई थी. उस की आंखों में आंसू आ गए थे. साफ लगता था कि सुरेश के व्यवहार से उस को गहरी चोट लगी थी. वह तुरंत ही वहां से चली गई थी.

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