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जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ाइए

हमारे देश में फसलों के अवशेषों का उचित प्रबंध करने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है. या कहें कि इस का उपयोग मिट्टी में जीवांश पदार्थ अथवा नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ाने के लिए नहीं किया जा रहा है, बल्कि इन का अधिकतर भाग या तो दूसरे घरेलू उपयोग में किया जाता है, या फिर इन्हें नष्ट कर दिया जाता है जैसे कि गेहूं, गन्ने की हरी पत्तियां, आलू, मूली की पत्तियां वगैरह पशुओं को खिलाने में उपयोग की जाती हैं या फिर फेंक दी जाती हैं. कपास, सनई, अरहर आदि के तने, गन्ने की सूखी पत्तियां, धान का पुआल आदि सभी अधिकतर जलाने के काम में उपयोग कर लिए जाते हैं.

पिछले कुछ वर्षों में एक समस्या मुख्य रूप से देखी जा रही है कि जहां हार्वेस्टर के द्वारा फसलों की कटाई की जाती है, उन क्षेत्रों में खेतों में फसल के तने के अधिकतर भाग खड़े रह जाते हैं और वहां के किसान खेत में फसल के अवशेषों को आग लगा कर जला देते हैं. अधिकतर रबी सीजन में गेहूं की कटाई के बाद विशेष रूप से ऐसा देखने को मिलता है कि किसान अपनी फसल काटने के बाद फसलों के अवशेष को उपयोग न कर के उन्हें जला कर नष्ट कर देते हैं. इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए प्रशासन द्वारा गेहूं की नरवाई जलाने पर रोक लगाई गई है और किसानों को शासन, कृषि विभाग व संबंधित संस्थाओं द्वारा इस बारे में समझाने के प्रयास किए जा रहे हैं कि किसान अपने खेतों में अवशेषों में आग न लगा कर उन का खेत के जीवांश पदार्थ को बढ़ाने में उपयोग करें.

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इस प्रकार गांवों में पशुओं के गोबर का अधिकतर भाग खाद बनाने के लिए प्रयोग न करते हुए इसे ईंधन के रूप में उपयोग किया जा रहा है, जबकि इसी गोबर को यदि गोबर गैस संयंत्र में उपयोग किया जाए, तो इस से बहुमूल्य और पोषक तत्त्वों से भरपूर गोबर की स्लरी प्राप्त कर खेत की उर्वराशक्ति बढ़ाने में उपयोग किया जा सकता है. साथ ही, गोबर गैस को घर में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. इस के लिए सरकार द्वारा अनुदान भी दिया जाता है, पर इस के बावजूद नतीजे अच्छे नहीं हैं, जबकि जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा निरंतर कम होने से उत्पादकता या तो घट रही है या स्थिर हो गई है.

समय रहते इस पर ध्यान दे कर जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ाने से ही कृषि की उत्पादकता बढ़ा पाना संभव हो सकता है, जो देश की बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए बहुत जरूरी है. हमारे देश में किसान फसल अवशेषों का उचित उपयोग न कर के इन का दुरुपयोग कर रहे हैं, जबकि यदि इन अवशेषों को सही ढंग से खेती में उपयोग करें, तो इन के द्वारा हम पोषक तत्त्वों के एक बहुत बड़े अंश को पूरा कर सकते हैं. दी गई तालिका को देख कर हम स्पष्ट रूप से अनुमान लगा सकते हैं कि कितनी अधिक मात्रा में हम अपने देश में मिट्टी के आवश्यक पोषक तत्त्वों की भरपाई कर सकते हैं. विदेशों में जहां अधिकतर मशीनों से खेती की जाती है अर्थात पशुओं पर निर्भरता नहीं?है, वहां पर फसल के अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिला दिया जाता है.

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वर्तमान में हमारे देश में भी इस काम के लिए रोटावेटर जैसी मशीन का प्रयोग शुरू हो गया है, जिस से खेत को तैयार करते समय एक बार में ही फसल अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिलाना काफी आसान हो गया है. जिन क्षेत्रों में नमी की कमी हो, वहां पर फसल अवशेषों को कंपोस्ट खाद तैयार कर खेत में डालना लाभप्रद होता है. आस्ट्रेलिया, रूस, जापान व इंगलैंड आदि विकसित देशों में इन अवशेषों को कंपोस्ट बना कर खेत में डालते हैं, या फिर इन्हें खेत में अच्छी प्रकार मिट्टी में मिला कर सड़ाने की क्रिया को सुचारु रूप से चलाने के लिए समयसमय पर जुताई करते रहते हैं. फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन करने के लिए आवश्यक है कि अवशेष जैसे गन्ने की पत्तियां, गेहूं के डंठलों को खेत में जलाने की अपेक्षा उन से कंपोस्ट तैयार कर खेत में प्रयोग करें.

उन क्षेत्रों में, जहां चारे की कमी नहीं होती, वहां मक्का की कड़वी व धान के पुआल को खेत में ढेर बना कर खुला छोड़ने के बजाय गड्ढों में कंपोस्ट बना कर उपयोग करना आवश्यक है. आलू और मूंगफली जैसी फसलों को खुदाई में बचे अवशेषों को खेत में जोत कर मिला देना चाहिए. मूंग व उड़द की फसल में फलियां तोड़ कर खेत में मिला देनी चाहिए. इसी प्रकार यदि केले की फसल के बचे अवशेषों से कंपोस्ट तैयार कर ली जाए, तो उस से 1.87 प्रतिशत नाइट्रोजन, 3.43 प्रतिशत फास्फोरस और 0.45 प्रतिशत पोटाश मिलता है. खेतों के अंदर सस्यावशेष प्रबंधन फसल की कटाई के बाद खेत में बचे अवशेष घासफूस, पत्तियां व ठूंठ आदि को सड़ाने के लिए किसान भाई फसल को काटने के पश्चात 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़क कर कल्टीवेटर या रोटावेटर से काट कर मिट्टी में मिला देना चाहिए.

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इस प्रकार अवशेष खेत में विघटित होना प्रारंभ कर देंगे और लगभग एक माह में स्वयं सड़ कर आगे बोई जाने वाली फसल को पोषक तत्त्व प्रदान कर देंगे, क्योंकि कटाई के पश्चात दी गई नाइट्रोजन अवशेषों में सड़ने की क्रिया को तेज कर देती है. अगर फसल अवशेष खेत में ही पड़े रहें, तो फसल बोने पर जब नई फसल के पौधे छोटे रहते हैं, तो वे पीले पड़ जाते हैं, क्योंकि उस समय अवशेषों के सड़ाव में जीवाणु भूमि की नाइट्रोजन का उपयोग कर लेते हैं और प्रारंभ में फसल पीली पड़ जाती है, इसलिए फसल अवशेषों का प्रबंधन करना बहुत आवश्यक है, तभी हम अपनी जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा में वृद्धि कर जमीन को खेती के योग्य सुरक्षित रख सकते हैं.

Mother’s Day 2023: मां की शादी- भाग 1

समीर और मैं ने, परिवारों के विरोध के बावजूद प्रेमविवाह किया था. एकदूसरे को पा कर हम बेहद खुश थे. समीर बैंक मैनेजर थे. बेहद हंसमुख एवं मिलनसार स्वभाव के थे. मेरे हर काम में दिलचस्पी तो लेते ही थे, हर संभव मदद भी करते थे, यहां तक कि मेरे कालेज संबंधी कामों में भी पूरी मदद करते थे. कई बार तो उन के उपयोगी टिप्स से मेरे लेक्चर में नई जान आ जाती थी. शादी के 4 वर्षों बाद मैं ने प्यारी सी बिटिया को जन्म दिया. उस के नामकरण के लिए मैं ने समीरा नाम सुझाया. समीर और मीरा की समीरा. समीर प्रफुल्लित होते हुए बोले, ‘‘यार, तुम ने तो बहुत बढि़या नामकरण कर दिया. जैसे यह हम दोनों का रूप है उसी तरह इस के नाम में हम दोनों का नाम भी समाहित है.’’

समीरा को प्यार से हम सोमू पुकारते, उस के जन्म के बाद मैं ने दोनों परिवारों में मेलमिलाप कराने का बहुत प्रयत्न किया किंतु असफल रही. दोनों तरफ से काफी अपशब्द सुनाए गए. समीर ने मुझे अपनी कसम देते हुए कहा, ‘‘मीरा, भविष्य में तुम इस बारे में प्रयास नहीं करोगी.’’ इस तरह दोनों परिवारों में मेलमिलाप होने की उम्मीद समाप्त हो गई.

सोमू के पालनपोषण में हम दोनों पूरी तरह व्यस्त हो गए. सोमू बचपन से ही मधुर स्वभाव एवं कुशाग्र बुद्धि की थी. समीर गर्व से कहते, ‘‘मीरा, हमारी सोमू जरूर कुशल इंजीनियर बनेगी, बड़ी तेज बुद्धि की है.’’

मैं कहती, ‘‘क्यों नहीं, जरूर बनेगी. उसे थोड़ा बड़ा होने दीजिए, तब समझ में आएगा कि उस की रुचि किस ओर है.’’

समीर बोले, ‘‘तुम ने सही कहा, यह जो बनना चाहेगी, हम उस में उस को पूरा सहयोग देंगे.’’ समीरा 9 वर्ष की ही हुई थी कि कार ऐक्सिडैंट में समीर की मृत्यु हो गई. मेरी तो मानो दुनिया ही उजड़ गई, उन्हीं से तो मेरी दुनिया गुलजार थी.

नन्हीं सोमू का रोरो कर बुरा हाल था, ‘‘मम्मा, मैं पापा को नहीं जाने दूंगी. पापा को क्या हो गया, वे जरूर ठीक हो जाएंगे.’’ मैं उसे अपने कलेजे से सटाए शांत करने का असफल प्रयास करती रही. अपनी सोमू के लिए मैं ने अपने दर्द को अंदर ही अंदर दबा लिया. जाहिर तौर पर मैं सामान्य रहने का प्रयास करने लगी. मैं ने स्वयं से प्रण किया कि मैं सोमू को उस के पापा की कमी महसूस नहीं होने दूंगी. आज समीर की बात याद करती हूं, उन्होंने अपनी सोमू के लिए कितना सही कहा था. आज वह सौफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में एक मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत है. उस के सहकर्मी सार्थक से मैं ने उस का विवाह पक्का कर, मंगनी की रस्म कर दी है. सार्थक एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में अमेरिका गया है. वहां से लौटने पर दोनों की शादी कर दी जाएगी. शनिवार व रविवार को सोमू की छुट्टी रहती है. किंतु शनिवार को मेरा कालेज रहता है. साधारणतया मैं 4 बजे तक कालेज से लौट आती हूं. एक शनिवार को कालेज से लौटने पर सोमू ने कौफीस्नैक्स के साथ अपने हाथों से बनाए स्वादिष्ठ उपमा के साथ  मेरा स्वागत करते हुए कहा, ‘‘मम्मा, साथसाथ कौफी पीने का मजा कई गुना बढ़ जाता है.’’

‘‘हंड्रैड पर्सैंट सही. लेकिन रोज तो मैं कालेज से लौट कर अकेले ही कौफीस्नैक्स लेती हूं.’’

‘‘मम्मा, कल संडे है, हम सैंट्रल मौल चलेंगे, वहां सभी चीजों पर सेल चल रही है.’’

‘‘ठीक है बेटा, मुझे ज्वैलर के पास भी जाना है. तेरे तो सारे गहने तैयार हो गए हैं, बस सार्थक के लिए चेन और ब्रेसलैट लेना है.’’

सैंट्रल मौल में सोमू ने मेरे लिए कुछ ड्रैसेस और साडि़यां पसंद कीं. मैं ने देखा सभी ब्राइट कलर्स की थीं. मैं ने इनकार करते हुए कहा, ‘‘बेटा, इतने ब्राइट कलर्स मुझ पर बड़े अटपटे लगेंगे.’’

‘‘ओह मम्मा, आप पहनती नहीं हैं, यदि पहनने लगेंगी तब आदत हो जाएगी, फिर अटपटे नहीं लगेंगे.’’

‘‘बेटा, मेरी वार्डरोब तो कपड़ों से भरी पड़ी है. उसी में से तू अपनी पसंद के निकाल देना. जब घर में इतने कपड़े हैं ही, तब और नए क्यों लेना.’’

‘‘मम्मा, अब मौल से खाली हाथ तो नहीं लौटेंगे, एकदो तो ले लीजिए,’’ उस ने आग्रह करते हुए कहा.

‘‘खाली हाथ भला क्यों लौटेंगे, अपनी सोमू के लिए जींस, टौप, सूट्स वगैरा ले लेंगे. तू शादी के बाद भी साड़ी तो कभीकभी ही पहनेगी.’’

उस ने इतराते हुए कहा, ‘‘मम्मा, अभी शादी में 4 महीने बाकी हैं. मैं तो कपड़े उसी समय लूंगी.’’

‘‘अच्छा तो लगेज सैक्शन में चल, वह सब अभी ले लेती हूं,’’ मैं उस का हाथ पकड़ कर ले चली.

कई सालों से मेरी वार्डरोब बंद पड़ी थी. अपनी बिटिया की जिद के कारण खोलनी पड़ी. वह मेरे कपड़ों के कलैक्शन से खुश हो कर बोली, ‘‘वाओ मम्मा, कितना बढि़या कलैक्शन है आप के पास. और आप एकदम सादे व सिंपल ही पहनती हैं.’’

‘‘हां बेटा, तेरे पापा को मेरे लिए कपड़े खरीदने का बेहद शौक था. किंतु उन के जाने के बाद मुझे ये सब पहनने का शौक नहीं रहा. सो, सब रखे हुए हैं.’’

‘‘नहीं मम्मा, अब आप वैसी ही रहेंगी जैसी पापा के सामने रहती थीं. मम्मा, मुझे आप की और पापा की कई प्यारभरी चुहलें याद हैं.’’

‘‘उस दिन आप पापा की पसंद की ड्रैस, हेयरस्टाइल, ज्वैलरी पहन कर तैयार हुई थीं. पापा दिल पर हाथ रख कर धम्म से सोफे पर बैठ गए थे. आप दौड़ कर पापा के पास आ कर पूछने लगी थीं, ‘क्या हुआ समीर, आप ठीक तो हैं?’

‘‘पापा ने कहा था, ‘यार, दिल इतना तेज धड़क रहा है कि उसे हाथों से थामना पड़ रहा है.’

‘‘मुझे उन की बात पर हंसी आ गई थी. उन्होंने मुझे अपने पास बैठाते हुए कहा था, ‘क्यों सोमू, मम्मा जंच रही हैं न?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘मम्मा तो हमेशा ही जंचती हैं. वैसे पापा, आप भी कोई कम नहीं हैं.’ उन्होंने मुझे यह कहते हुए गले से लगा लिया था, ‘वाह मेरी नन्हीं सोमू, तू तो खूब बातें बनाने लगी.’’’

‘‘हां बेटा, पापा हर बात, हर काम में पूरी रुचि लेते थे. वे माहौल एकदम खुशनुमा बनाए रखते थे.’’

समीरा ने बातों का रुख वर्तमान की तरफ करते हुए कहा, ‘‘वह सब तो ठीक है मम्मा, अब आप वैसे ही तैयार होंगी जैसी आप पापा के सामने तैयार होती थीं.’’

‘‘यह तो मुझ से न हो सकेगा बेटा.’’

‘‘क्यों मम्मा, आप अपनी बेटी का मन नहीं रखेंगी?’’

‘‘ओह, बेटा, यह बात है, तब मैं पूरी कोशिश करूंगी.’’

मुझे समीरा के आज के व्यवहार से अत्यधिक आश्चर्य हुआ. समीर के जाने के बाद मैं ने खुद ही सादगी से रहना पसंद किया था. समीर को मेरे साजशृंगार का विशेष शौक था.

उन्हें दिखानेरिझाने की इच्छा से, मैं सजतीसंवरती थी. अब वे ही नहीं रहे, इच्छा खुद ही विलुप्त हो गई. इस के अलावा समाज का भी खयाल करना पड़ता है, एक विधवा का निरीक्षणपरीक्षण समाज कुछ ज्यादा ही पैनी नजर से करता है.

औफिस से लौट कर, कौफी पीते हुए सोमू ने कहा, ‘‘मम्मा, कल शाम कोनी ने हमें अपने घर पर बुलाया है.’’

‘‘अरे, वह बंगालन कोनी, कितना मीठा बोलती है, एकदम रसगुल्ले की तरह.’’

‘‘मम्मा, आप की वह जबरदस्त फैन है, कहती है, भले ही आंटी कालेज में लेक्चरर हैं, किंतु देखने में एकदम कालेज गर्ल सी लगती हैं.’’

हम शाम को 6 बजे कोनी के घर पर पहुंच गए थे. उस के पापा भी थे. उन से मेरी पहली मुलाकात थी. कोनी ने अपने पापा से आग्रह करते हुए कहा, ‘‘पापा, मुझे और समीरा को थोड़ा औफिस का काम है, प्लीज, आप आंटी को घर एवं अपना टेरेस गार्डन दिखा दीजिए.’’ घर दिखाते हुए कोनी के पापा ने कहा, ‘‘मेरी बेटी, आप की बहुत बड़ी फैन है. वह आप के हाथ के खाने से ले कर आप के सारे तौरतरीकों की बहुत प्रशंसा करती है. आप की सुंदरता की प्रशंसा करते हुए तो वह कवयित्री ही बन जाती है.’’

घरेलू महिला कामगारों पर कोरोना की डबल मार

लेखक- रोहित

देश के असंगठित मजदूर इलाकों के इर्दगिर्द बसी झुग्गी बस्तियों में ऐसी असंख्य घरेलु कामगार महिलाएंहैं, जो अनौपचारिक तौर पर उद्योगों का काम परपीस रेट के हिसाब से अपने घरोंमें ही किया करती हैं. किन्तु पिछले एक वर्ष से कोरोना और फिर लौकडाउन के चलते मचे हाहाकार में उन का यह कामधंधा भी बुरी तरह सेचौपट हो चुका है. इन महिलाओं की पहले थोड़ी बहुत जो कमाई घर पर रह कर हो जायाकरती थी उस पर गहरी मार पड़ी है, उद्योग धंधे जर्जर हुए पड़े हैं, बाजारों से माल सप्लाई नहीं हो रहा है और घर के पुरुषों की नौकरियां छूटी हुई हैं.अब यह मजदूर परिवार पाईपाई को मुहताज हो चुकेहैं. पहले से बदहाल हुई स्थिति और भी बदहाल हो चुकी है. अधिकतर घरपरिवारों मेंआय का कोई साधन नहीं है. अपनी पुरानी बचत के आधार पर ही वह इस समय खर्चों को वहन कर रहे हैं. इसी को ले कर सरिता टीम ने दिल्ली के स्लम इलाकों में घरेलु कामगार महिलाओं से बात की.

35 वर्षीय आशिया बानो सेन्ट्रल दिल्ली के आनंद पर्बत औद्योगिक इलाके के नजदीक बसे गुलशन चौक स्लम में रहती हैं. 1 कमरे का ईंटों का कच्चा मकान है, जो लगभग 20 गज का है.उन का यह घर नेहरु नगर की संकरी गलियों से हो कर उंचाई पर गुलशन चौक पर है. इस मकान को भी 2 साल पहले भारी कर्जा ले कर बनाया था जिस का भुगतान तो दूर अब ब्याज ही चुकाए नहीं बन रहा है. उसी मकान में आशिया अपने पति मो. असलम (40) और 5 बच्चों के साथ रहती हैं. मो. असलम रामा रोड, आनंद पर्बत, टेंक रोड, नारायणा इत्यादिइंडस्ट्रियल इलाकों में सामान लोडर का काम करते थे.जहां से 8-9 हजार महीना कमाई हो जाया करती थी, किन्तु उन का काम कोरोना के दूसरे फेज के चलते दिल्ली में लगे कर्फ्यू के चलते बंद हो गया है. बमुश्किल ही उन का खर्चा चल पा रहा है. घर पर बीड़ीतम्बाकू की छोटी सी दुकान तो है लेकिन वह भी खाली समय काटने भर की है.

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आशिया बानो घर पर पिछले 8 सालों से फोन चार्जर केट्रांसमीटर बोर्ड बनाने का काम करती हैं, किन्तु इस महामारी में यह काम भी बंद पड़ा है. काम बंद होने के चलते खर्चों में भारी कटोती आ गई है. चीजें नापतौल कर खरीदी जा रही हैं.आशिया कहती हैं, “मैं चार्जर के ट्रांसमीटरबनातीथी. जिसे गोल्डी (ठेकेदार) से लाती थी. हमें एक फौम मिलता था जिस पर 10 बोर्ड होते हैं. ठेकेदार हमें एक बार में 100 बोर्ड पकड़ा देता था. जिस में 1000 ट्रांसमीटर बोर्ड होते हैं. जिस का 300 रूपए बन जाता था.पूरा परिवार लग कर काम करता था तो 2 दिन में 1000 पीस निकाल लेते हैं.” सरल भाषा में यह कि आशिया बानो को 300 रूपए कमाने के लिए पूरे परिवार के साथ 15 घंटे काम करना पड़ता है. यानि अगर परिवार पुरे महीने समेत लग के काम किया तो ढाई से 3 हजार रूपए जुटा लेती थीं. लेकिन डूबते को तिनके का सहारा भी उन के पास नहीं है.

चार्जर बोर्ड में कई तरह की माइनर वायर, और हुक लगाने होते हैं, जो किसी भी लिहाज से बारीक तकनीकी काम में गिना जा सकता है. आशिया बानो के मुताबिक जिस गली में वह रहती हैं वहां खूब सारी महिलाएं इस काम को करती थी. वे सारी महिलाएं इस काम में इतनी कुशल हैं कि एक पीस भी खराब नहीं करती हैं क्योंकि अगर एक पीस भी खराब निकलेगा तो ठेकेदार पैसे देने में आनाकानी करने लगेगा. इस की कुशलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहां इस काम को करने वाले परिवारों में 8-8 साल के छोटेछोटे बच्चे तक यह काम बड़ी बारीकी से कर लेते हैं.

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दरअसल भारत का औद्योगिक ढांचा कई परतों में खुलता है और इस का स्तरीकरण इतना गहरा है कि बहुत बार देश के अर्थशास्त्रियों की पहुंच उस गहराई तक नहीं जा पाती है. टाटा, बिरला,अदानी, मित्तल, हौंडा, मारुती, जिंदलजैसे नामी पूंजीपतियों के बड़ेबड़े प्लांटों में बनने वाले उत्पादों का ना जाने कौन सा हिस्सा कैसे छोटे उद्योगों से होते हुए किसी मजदूर बस्ती में रहने वाली ज्योति या असीम बेगम के आठ बाई आठ के कमरे तक जा पहुंचा है यह पता लगाना देश की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण खोज का बिषय है. यह स्तरीकरण इतना परत दर परत है कि आला दर्जों के उद्योगपतियों को यह शायद ही एहसासहो कि उन के निजी मुनाफे और उस से पनपतेश्रम की लूट किस प्रकार देश के सब से निचले पायदान में रहने वाले गरीब मजदूरों पर असर डालती है.

स्थिति यह कि अतिरिक्त श्रम की लूट के बावजूद मजदूर घरों की महिलाएं पाईपाई जुटाने के लिए रातदिन यह काम करने को मजबूर रहती हैं. आशिया कहती हैं, “पेट पालने के लिए कुछ ना से तो कुछ हां सही होता है. जब यह काम था तो घर के छोटेमोटे खर्चे इस से निकल जाया करते थे. राशन पानी, कपड़ा लत्ता, साग सब्जी लाते थे. मुझे उन (असलम) से मांगने की जरुरत नहीं होती थी.अब वह भी कमाई नहीं हो पा रही है. लौकडाउन के चलते फक्ट्रियां बंद पड़ी हैं. जो थोड़ा बहुत माल आता था वह भी रुका हुआ है.”

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आशिया बानो के ठीक अगली गली में 44 वर्षीय संतोषी तिवारी रहती हैं.संतोषी के मकान के फ्रंट दीवार पर ‘आप’ पार्टी का बड़ा पोस्टर तो पहुंच गया है लेकिन मूलभूत सुविधा जैसे पानी, सीवर लाइन, सड़क वहां तक नहीं पहुंच पाई है. संतोषी फिलहाल एकाकी महिला का जीवन जी रही है. 10 साल पहले उन के पति उन्हें छोड़ पटेल नगर की तरफ किराए के कमरे में शिफ्ट हुए. शायद यही कारण भी रहा कि इस एकाकीपना और समाज के तानों ने संतोषी के व्यक्तित्व में दबंगपना भर दिया. वह दूसरों के लिए अक्खड़ हुई और तेजतर्रार भी.दुखद यह किपति के साथ सम्बन्ध ना रहने के बावजूद भी पति के साथ बंधे रहने कीमूल वहज पौराणिक तानेबाने की बनावट और झूठी संस्कृति बचाने की जिद है.वह अपनी जाति के बने नियमकानूनों को इस की वजह बताती हैं. उन का मानना है कि वह ब्राह्मण जाति से है तो विधवा या तलाकशुदा की तरह जीवन जीना उस की जाति की इज्जत के लिए ठीक नहीं.

संतोषी दूसरे फेज के कोरोना से पहले तक घरेलु महिलाओं को माल सप्लाई करने का काम करती थी. उन का काम जींस में ब्रांडेड टेग जैसे लिवाएस, प्यूमा, मुफ्ती इत्यादि को लगाना था. वह खुद ठेकेदार भी थीं और घरेलु कामगार भी. आनंद पर्बत के इंडस्ट्रियल बेल्ट में कई फैक्ट्रियां उन के संपर्क में थीं जो उन के घर पर जींस के गठ्ठे रख जाया करते थे. उन का काम उस में धागे काटने और ब्रांडेड टेग लगाने का था. वहीँ उन्ही के घर पर आ कर कई आसपास की महिलाएं उन से माल उठाती और अपने घर ले कर जाती.

संतोषी बताती हैं, “मुझे फैक्ट्री से 1000 जींस में टेग लगाने के 60 रूपए मिलते थे और मैं आगे महिलाओं को 50 रूपए देती थी. इस काम में मेरा 10 रूपए कमीशन बनता था. कुल मिलाकर मैं इस काम से महीना 6-7 हजार रूपए कमा लेती थी.” संतोषी इस काम को महिलाओं के लिए ठीक मानती हैं. लेकिन अपने काम के कम दाम से वह खासा नाराज भी थीं. उन्होंने कहा,“घर पर टेग बनाने से हम औरतों का खाली टाइम कट जाता है और दो पैसा भी जोड़ लेते हैं.लेकिन यकीन मानो फैक्ट्री मलिकों को इस से खूब फायदा होता है. घर में माल सप्लाई कर वे ढेर सारे लोगों को सस्ते में बांध लेते हैं. इस एक काम के लिए उन्हेंकम से कम 7 हजार महिना तनख्वाह में लेबर रखनापड़ता,परवे हम से सिर्फ1000-1500 रूपए में काम करवा रहेहैं.”

वह आगे कहती हैं, “जिस काम को हम कर रहे हैं, इसी की जगह उसे लेबर लगाने होते तो मालिक का कितना खर्च आता. उसे कई लेबर लगाने होते, उन्हें तनख्वाह देनी होती, उन पर सरकारी कानून (मजदूर कानून) चलता. लेकिन यहां चिल्लरों के भाव काम करवा रहा है.   दिक्कत यह है की हम कह नहीं पा रहे हैं कि दम कर है क्योंकि हम कहेंगे तो हमारे जैसे 365 घर और हैं जहां का चूल्हा नहीं जल पा रहा.”

भारत में नई आर्थिक व्यवस्था के बाद पूंजीवाद ने जिस तीव्र गति से अपने पैर फैलाए उस से मुठ्ठीभरपूंजीपतियों के हाथों एकाधिकार तो आया साथ ही इस एकाधिकार के साथ जो चीज बहुत तेजी से बदली वह बड़ी मात्रा में असंगठित औद्योगिक मजदूर क्षेत्रों का व्यवस्थित तौर परपनपना था.यह कहनाअति है कि इस व्यवस्था ने लोगों कोव्यापार के असीम अवसर प्रदान कर दिए बल्कि यह कहना ज्यादा उचित है किदेश में यही असंगठित क्षेत्र अप्रत्यक्ष तौर पर इन्ही बड़े पूंजीपतियों के परिचालक, प्रबंधक या संचालक बन करउभरे, जहां इन का स्वतंत्र वजूद तो रहा किन्तु इन्ही छोटे उद्योगों के माध्यम से बड़ेबड़े उद्योगों ने‘बससे ले कर मेट्रो’ तक के महीन से महीन और समय खर्चीलेवाले कामइन से सस्ते दामों पर बनवाए और मुनाफा कमाया.

किन्तु बात यहां इन्ही से जन्मे उस अनौपचारिक हिस्से की है जिन का नाम कहीं किसी दर्ज उद्योग में दर्ज नहीं हो पाता है. जो काम बड़े से ले कर छोटे उद्योगों के लिए करते हैं. बड़े उद्योगों से छोटे उद्योगों को मिले ठेके और फिर छोटेछोटे उद्योगों से घरघर में पहुंचाए काम इस के दायरे में आते हैं. बड़ेबड़े शौपिंग मौल में बिकने वाले चिप्सकुरकुरे के भीतर डाले गए छोटे लुभाऊ खिलौने, जींस की काज व टैग, चार्जर का बोर्ड जैक पौइंट, बाइक केक्लच रबर, क्लैम्प, क्लिप,हेयर रबर, कोल्ड्रिंक बोतल के ढक्कन के भीतर लगे फोम, मोमबत्ती, लिफाफेबनाने का काम इत्यदि इन्ही मजदूर घरों के भीतर बन कर तैयार हो रहे हैं.

दिल्ली के नेपाली बस्ती में रहने वाली 32 वर्षीय ज्योति 2014 में दिल्ली आ गई थीं. वह 1 कमरे के किराए के मकान में अपने पति संतोष चौधरी और 3 बच्चों संग रह रही है. पिछले साल से 3000 रूपए किराए का कमरा जेब पर भारी पड़ने लगा है. संतोष चौधरी ध्याड़ी पर काम करते हैं तो कमाई का कभी कोई हिसाब लग नहीं पाता. बच्चे हैं जो अभी छोटी कक्षाओं में पढ़ाई कर रहे हैं. इतनी कम उम्र के बावजूदतंगहाली और गरीबी से ज्योति के चेहरे का नूर मानो छिन सा गया हो.

ज्योति दिल्ली कर्फ्यू से पहले दीवारों में लगने वाली ‘क्लैम्प’ बनाने का काम घर पर किया करती थी. जिस में बहुत बार क्लैम्प की कील अंगूठे में धंस जाती थी. ज्योति रामा रोड के औद्योगिक इलाके में भी काम करती थीं जो पिछले साल के लौकडाउन के बाद ही छूट गया था,उस दौरान उस की तनख्वाह5600 रूपए थी. शाम को फैक्ट्री से काम कर वह देर रात तक बच्चों के साथ माल बनाने का काम करती, जिस पर उसे 1000 से 1500 रूपए तक कमाई होती. किन्तु पीछे दिनों से बढ़ते कोरोना के चलते उस का यह काम धंधा भी उजड़ा गया है. फीस केपैसे ना होने के चलते बच्चों की पढ़ाई भी छूट गई है.

वह कहती हैं, “महंगाई दुनिया भर की है. खाएंगे क्या?सरकार ने कुछ किया ही नहीं. ना हमारे पास राशन कार्ड है, मजदूर कार्ड. हमें कोई लाभ किसी से नहीं मिल रहा. सरकार जो कागजों में सुविधा की बात कर रही है वह हमारे को नहीं मिल रहा.पिछली बार हम गांव निकल गए थे लेकिन इस बार निकलने तक के पैसे नहीं है. जैसे ही जुगाड़ हो गया तो हम भी बिहारसीतामणिनिकल लेंगे.”

इसी प्रकार उन के ठीक सामने सायनाज बेगम भी यही क्लैम्प लगाने का काम कर रही थी. पिछले वर्ष लौकडाउन में उन के पति, जो दरजी हैं, परिवार से दूर गांव में फंस गए. जिस के चलते सायनाज बच्चों के साथ दिल्ली में अकेली रही. उस समय मरकज का मामला चलने के बावजूद पूरे महल्ले वालों ने सायनाज की मदद की. उस के राशन पानी का बन्दोबस्त किया. सायनाज का मानना है किघर में इस तरह के काम करने में अधिक फायदा नहीं होता. ऊपर से एक बार इसे घर ले आओ तो बच्चों को भी इस में लगाना पड़ता है. चाहे वे खेलना चाह रहे हो उस समय जोरजबरदस्ती कर उन से भी काम निकलवाना पड़ जाता है, जो मुझे ठीक नहीं लगता. वह कहती हैं,“इस काम में फायदा कुछ नहीं है. क्लैम्प में कील डालना होता था जिस के लिए 100 में 22 रूपए देते थे. कील उंगलियों में घुस जाती थी, एक बार मेरी बेटी के लग गई तो हम ने काम छोड़ दिया. फिर कुछ और शुरू किया जैसे रिब्बन से फूल बनाना, पैकिंग, टौर्च में सेल डालना लेकिन कमाई इतनी कम की छोड़ना पड़ा.अब पड़ोस के घरों में चली जाती हूं तो साथ साथ में ऐसे ही बना लेती हूं उन की मदद के लिए और मेरा टाइम पास भी हो जाता है.” उन का मानना है कि सरकार को लौकडाउन नहीं लगाना चाहिए था. इस के कारण कई लोगों पर भूखे मरने की नौबत आ पड़ी है.

आज देश में स्थिति इतनी गंभीर है कि लोगों के सामने आगे कुआं पीछे खाई वाली बात है. अगर वे बाहर काम के लिए निकलते हैं तो कोरोना का खतरा है और अगर घर पर रुकते हैं तो भूख से मरने का खतरा. यह खतरा सब से अधिक मजदूर व गरीब परिवारों पर आ पड़ी है. जिस के लिए दोनों ही तरफ मौत साजोसामान ले कर तैयार बैठी है. इस दौरान ज्यादातर घरों के भीतर काम करने वाली महिलाएं यही सोच रही हैं कि अगर घर में बैठ कर माल बनाने का काम फिर से नसीब हो पाए तो घर का थोडा बहुत खर्च चल सके.

बहुरूपिये कोरोना से वैज्ञानिक हतप्रभ

नासा ने भारत के वायुमंडल की दो तस्वीरें जारी की हैं. पहली तस्वीर 27 मार्च 2021 की है और दूसरी 27 अप्रैल 2021 की. दोनों तस्वीरों में भारत के ऊपर के वायुमंडल में बहुत अंतर है. उत्तर भारत का जो हिस्सा तस्वीर में दिख रहा है वह बताता है कि इस एक महीने में थर्मल एक्टिविटी जबरदस्त तरीके से बढ़ी है. वातावरण में इस वक़्त इतना धुंआ है जितना देश के विभिन्न हिस्सों में पराली जलाने के वक़्त होता है.

राजधानी दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स 300 के पार हो गया है. यानी दिल्ली और एनसीआर की हवा इस वक्त बेहद जहरीली है. ये धुंआं उन श्मशानों से निकल रहा है, जहाँ बड़ी संख्या में शव जलाये जा रहे हैं. कोरोना पीड़ितों के शव, जिनकी लाइन हर श्मशान के बाहर लगी नज़र आ रही है. दिन रात शव जल रहे हैं. मगर सरकारी आंकड़ों में महज़ चौथाई हिस्सा बताया जा रहा है. कोरोना का नया स्ट्रेन आने के बाद से मौतों का आंकड़ा बड़ी तेजी से बढ़ा है. श्मशानों में भीड़ लगी है. चिताओं की भी और जिंदा लोगों की भी. माहौल में हर तरफ जहरीला धुआं घुलता जा रहा है.

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जरा सोचिए पिछले साल जब कोरोना वायरस फैला था, तो दुनिया भर में लॉक डाउन लगने के बाद आसमान नीला हो गया था. नदियां साफ हो गई थीं. हवा में ताजगी थी. लेकिन इस बार मामला बिल्कुल उलट है. इस समय हवा में जहरीला धुआं पसरा है. पूरे देश में भयावह हालात हैं. यह जहरीली हवा आपके फेफड़ों तक सीधे पहुंच रही है, यानी हवा में कोरोना वायरस का खतरा भी है और धुएं से आ रहे कार्बन के जहरीले कणों का डर भी. जो लोग चले गए, वो राख और धुआं बन कर मानों चेतावनी दे रहे हैं कि लोग अब भी संभल जाएं. अपनी सुरक्षा रखने में लापरवाही ना करें. डबल मास्क लगाएं. भीड़ जमा करके वायरस को म्युटेशन का मौक़ा ना दें. अक्सर वायरस म्युटेट हो कर कमजोर होते हैं, मगर कोरोना वायरस जितनी बार अपना रंग बदल रहा है, वह और मजबूत और खतरनाक होता जा रहा है.

तो ऐसा नहीं है कि अगर किसी व्यक्ति को पहले कोरोना हो चुका है तो वह दोबारा इसकी चपेट में नहीं आएगा. ये भी ना सोचें कि आपने वैक्सीन लगवा ली है तो अब आप इससे बचे रहेंगे. कोरोना वायरस बहुत बड़ा बहरूपिया है. ये कितने रंग कितने रूप बदल बदल कर हमला करेगा ये गुत्थी कोई डॉक्टर कोई वैज्ञानिक नहीं सुलझा पा रहा है. चिकित्सा विज्ञान कोरोना वायरस के सामने हतप्रभ और निरुपाय-सा है. कोरोना के लक्षण दिन प्रतिदिन बदलते जा रहे हैं. अस्पतालों में कई मरीज़ों को यह कह कर एडमिट नहीं किया जा रहा है कि उनकी कोरोना रिपोर्ट नेगेटिव है. यानी टेस्ट के मुताबिक उनको कोरोना नहीं है, फिर भी ऐसे लोग अस्पतालों के गेट पर एम्बुलेंस में पड़े हांफते हुए दम तोड़ रहे हैं. साफ़ है कि आपकी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव है तो आपको कोरोना है, मगर पॉजिटिव नहीं है तो भी आपको कोरोना हो सकता है. आप वायरस के ‘साइलेंट कैरियर’ भी हो सकते हैं. ऐसे ना जाने कितने ‘साइलेंट कैरियर’ हमारे आस पास घूम रहे हैं, जिन्हे खुद इस बात की खबर नहीं है.

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कोरोना खुद अस्तित्व में बने रहने के लिए हर पल अपने आपको बदल रहा है. जब पिछले साल इसकी पहली लहर शुरू हुई थी तब कहा जा रहा था कि जो बुज़ुर्ग हैं या जिन्हे शुगर या अन्य प्रकार की गंभीर बीमारियां हैं उनके लिए ये जानलेवा है. लेकिन अब तो बिलकुल जवान और स्वस्थ लोगों के फेफड़ों को भी यह वायरस संक्रमित कर रहा है और उन्हें अकाल मौत के मुँह में धकेल रहा है. डॉक्टर इस वायरस के स्पष्ट और निश्चित लक्षणों को बता ही नहीं पा रहे हैं. आपका आर टी पी सी आर टेस्ट रिपोर्ट निगेटिव है, तो भी आपको कोरोना हो सकता है. तब उसे ‘फ़ाल्स निगेटिव’ कहेंगे. अगर आर टी पी सी आर टेस्ट रिपोर्ट पॉजिटिव है, तो भी ज़रूरी नहीं कि कोरोना हो. तब उसे ‘फ़ाल्स पॉजिटिव’ कहेंगे.

आपको बुख़ार आ रहा है, गले में दर्द है और खाँसी जैसे लक्षण हैं, तो उनके सातवें-आठवें दिन से साँस लेने में तकलीफ़ हो सकती है और ऑक्सीजन लेवल गिर सकता है. इनमें से एक भी लक्षण नज़र नहीं आ रहे हैं तो भी ऑक्सीजन लेवल गिर सकता है. तब उसे हैप्पी हाइपोक्सिया या साइलेंट हाइपोक्सिमिया कहेंगे. ऐसे में आपको पता भी नहीं चलेगा कि आप कब मौत के दरवाज़े पर पहुंच गए.

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देखने में आ रहा है कि कुछ मरीज़ों में अस्पताल में भर्ती होने के समय ऑक्सीजन सैचुरेशन 90 और HRCT 2 था, लेकिन अगले ही दिन HRCT 12 हो गया. मतलब फेफड़े ज़्यादा डैमेज हो गए. HRCT यानी हाई रेजोल्यूशन कम्प्यूटेड टोमोग्राफी. देशभर में कोरोना के तेजी से बढ़ते मामलों के बीच RT-PCR टेस्ट की गलत रिपोर्ट्स चिंता का कारण बनी हुई है. गंभीर लक्षण होने के बावजूद लोगों की कोरोना रिपोर्ट नेगेटिव आ रही है. ऐसा माना जा रहा कि ये म्यूटेट वायरस बड़ी आसानी से PCR टेस्ट को चकमा दे सकता है. इसलिए दोबारा टेस्ट कराने की बजाए मरीजों को हाई रेजोल्यूशन कम्प्यूटेड टोमोग्राफी कराने की सलाह दी जा रही है.

इन सब परस्पर-विरोधी निष्कर्षों के जमावड़े से डॉक्टर और जीव विज्ञानी परेशान और हतप्रभ हैं. वह कोरोना के हर नये हमले के बरअक्स सिर्फ़ प्रतिक्रिया ही कर पा रहे हैं? न पूरा सच उनकी समझ में आ रहा है और ना ही कोरोना के सटीक लक्षणों की जानकारी उसके पास है.

लॉकडाउन में दूल्हा बनें Yehh jaddu hai jin का फेम विक्रम चौहान, फोटोज हुईं वायरल

कोरोना काल में बहुत से टीवी स्टार्स शादी के बंधन में बंध रहे हैं. ऐसे में उनकी शादियों में बहुत कम लोग ही पहुंच पा रहे हैं. कुछ ऐसा ही देखऩे को मिला स्टार प्लस के मशहूर सीरियल ये जादू है जीन्न के फेम स्टार  विक्रम सिंह चौहान के साथ भी.

विक्रम सिंह चौहान सुपरहिट सीरियल ये जादू है जिन्न का में नजर आ चुके हैं जहां उन्हें अपने दर्शकों से खूब सारा प्यार मिला है. उन्होंने भी इस लॉकडाउन मे शादी रचाई है. इस बात की जानकारी खुद विक्रम ने अपने सोशल मीडिया पर दी है.

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उन्होंने अपनी शादी की तस्वीर  सोशल मीडिया पर शेयर किया है. इस तस्वीर में उनकी गर्लफ्रेंड से पत्नी बनी स्नेहा बहुत प्यारी लग रही हैं. तस्वीर में दुल्हा दुल्हन बने विक्रम और स्नेहा काफी ज्यादा जच रहे हैं.

 

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तस्वीर देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि स्नेहा और विक्रम एक-दूसरे केलिए ही बने है. दोनों की खुशी सातवें आसमान पर नजर आ रही है. फोटो शेयर करते हुए विक्रम ने लिखा है कि हमदोनों ने कुछ देर पहले शादी कि है . शादी के दौरान हमने भगवान और माता -पिता का आशीर्वाद लिए हैं.

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आगे उन्होंने लिखा है कि स्नेहा और मैं जिंदगी के नए सफर की शुरुआत करने जा रहे हैं. कोरोना वायरस की वजह से हमने एक छोटे से समारोह में फेरा लिया है. हालात को देखने के बाद हमने फैसला लिया है कि शादी का कोई ग्रैंड सेलिब्रेशन नहीं होगा. ऐसे में हमने कुछ खास रिश्तेदारों और परिवार वालों के बीच अपनी शादी रचाई है.

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इस खास मौके पर हमने अपने दोस्तों को बहुत ज्यादा मिस किया है. ये हमारे लिए बहुत खास दिन है हमें बहुत ज्यादा प्यार देने के लिए शुक्रिया.

 

Randhir Kapoor ने इस वजह से लिया पुश्तैनी घर RK हाउस को बेचने का फैसला

बॉलीवुड के जानें माने अभिनेता रणधीर कपूर इन दिनों लगातार सुर्खियों में बने हुए हैं. कुछ दिनों पहले ही यह खबर आई थी कि रणधीर कपूर को कोरोना हो गया है. 74 साल केरणधीर कपूर की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटीव निकली है.

कोरोना हने के बाद रणधीर कपूर को आईसीयू में भर्ती करवाया गया है. जहां पर उनका इलाज चल रहा है. रणधीर कपूर कि हालत पहले से बेहतर बताई जा रही है. इसी बीच एक और खबर आई है कि रणधार कपूर अपनी पैतृक घर आरके हाउस को बेचना चाहते हैं. इस घर को बेचने के बाद वह अपने बांद्रा वाले घर में शिफ्ट हो जाएंगे.

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रणधीर कपूर का बांद्रा वाला घर बनकर पूरी तरह से तैयार हो चुका है. कोरोना मामले में आ रही तेजी को देखते हुए रणधीर कपूर ने यह फैसला लिया है. इस बारे में बात करते हुए रणधीर कपूर ने कहा कि राजीव कपूर के मौत के बाद से इस घर में मेरा मन नहीं लगता है. मैं और राजीव कई सालों तक इस घर में रहे हैं. अब मेरा मन बिल्कुल नहीं लगता है , मैं बांद्रा वाले घर में शिफ्ट होना चाहता हूं वहां मैं करिश्मा करीना और बबीता के करीब आ जाउंगा.

 

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घर के बारे में बात करते हुए रणधीर कपूर ने कहा कि मेरे माता-पिता ने कहा था कि आप जबतक चाहें अपने पैतृक हाउस में रहना उसके बाद अपने सबी भाई बहनों के अनुमति के साथ इस घर को बेचना.

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रणधीर कपूर के दिवंगत भाई राजीव कपूर के कोई बच्चे नहीं थे इसलिए प्रॉपर्टी का मामला कोर्ट में जा पहुंचा है लेकिन उम्मीद है कि यह जल्द खत्म हो जाएगा. रणधीर कपूर अपने भाई ऋषि कपूर और राजीव कपूर को बहुत ज्यादा मिस करते हैं.

मदर्स डे स्पेशल : ममता पर कुरबान करियर

किसी छायादार पेड़ की तरह मां की ममता बच्चे को शीतल छाया देने के साथसाथ उसे जीवन की कठिनाइयों से लड़ने की ताकत भी देती है. बच्चे की पहली शिक्षक और पहली दोस्त मां ही होती है. मां के हाथ के खाने की बात ही कुछ और होती है. मां से भावनात्मक लगाव बच्चे को नया सीखने व व्यक्तित्व निखारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. सफल व्यक्ति से उस की सफलता का राज पूछिए, कहेंगे, मां की सीख और उन की परवरिश के नतीजे में वे सफल हो सके.वहीं बच्चे को अच्छी परवरिश देने के लिए ममता के साथ पैसों की भी जरूरत होती है. ऐसे में जब बात कैरियर की हो तो मां के लिए क्या ज्यादा महत्त्वपूर्ण होना चाहिए? आज की कामकाजी, कैरियर ओरिएंटेड महिला को अपने कैरियर और बच्चे के शुरुआती दौर की देखभाल में किसे प्राथमिकता देनी चाहिए? आइए, इस पर चर्चा करते हैं.

बदलते समय के साथ समाज की मान्यताएं भी बदल रही हैं. लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं, उच्च पदों पर आसीन हैं. विवाह की जो उम्र कुछ समय पहले 22 से 26 वर्ष मानी जाती थी वह कैरियर में सफलता की चाह में बदल कर 30 से 33 वर्ष पहुंच गई है. समाजशास्त्री इस बदलाव की वजह महिला का अपनी व्यावसायिक व पारिवारिक जिंदगी में बैलेंस न बना पाने की अक्षमता को मान रहे हैं. साथ ही, वे सचेत भी कर रहे हैं कि कैरियर जहां भी विवाह व परिवार पर हावी हुआ वहां समाज के लिए खतरा होगा. इस से बच्चों की प्रजनन दर में गिरावट आएगी, दो पीढि़यों के बीच अंतर बढ़ेगा, जो पूरी सामाजिक संरचना के लिए अहितकर होगा.

जिम्मेदारी मां की

समाज का चलन व परिवेश भले ही बदल जाए लेकिन कैरियर की खातिर पारिवारिक जिम्मेदारियों से भागना, रिश्तों की अनदेखी करना समाज के लिए स्वास्थ्यकर नहीं होगा. जिम्मेदारी का अर्थ केवल विवाह कर के परिवार का भरणपोषण करना ही नहीं, एक पत्नी व मां की यह जिम्मेदारी भी है कि वह प्रेम व विश्वास के साथ परिवार को खुशियां दे.

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8-10 घंटे की नौकरी के बाद घरपरिवार व बच्चों में बैलेंस बनाने की जद्दोजहद से अच्छा है कि कैरियर से कुछ समय के लिए बे्रक ले लिया जाए. जो मजा परिवार व बच्चों के साथ वक्त गुजारने में है वह किसी अन्य चीज में नहीं. भले ही आप कितने ही उच्च पद पर हों लेकिन अगर बच्चों की अनदेखी हो रही है, उन्हें मेड, क्रैच के सहारे छोड़ना पड़ रहा है तो वह सफलता अधूरी व खाली है. कुछ महिलाएं जो कैरियर में सफलता की चाह में परिवार को कैरियर में बैरियर मान कर उस की अनदेखी करती हैं, वे बाद में पछताती हैं कि उन्होंने समय रहते मातृत्व सुख प्राप्त क्यों नहीं किया.

मातृत्व सुख सब से बड़ा सुख

मातृत्व सुख किसी भी महिला के लिए सब से बड़ा सुख होता है, फिर चाहे वह फिल्म जगत की प्रसिद्ध अभिनेत्री हो या आम कामकाजी महिला. मां बनने की खुशी और अपने बच्चों को दिन ब दिन बढ़ते देखने की खुशी किसी भी मां को सब से ज्यादा संतुष्टि प्रदान करती है. लेकिन इस के लिए कैरियर की कुरबानी देनी होगी, उस से कुछ समय के लिए ब्रेक लेना होगा. जैसा ग्लैमर जगत की चकाचौंध से लैस बौलीवुड की सैक्सी व सफल अभिनेत्रियों ने किया. क्योंकि इन अभिनेत्रियों को ग्लैमर जगत की चमक से ज्यादा प्यारी है मां बनने की खुशी. और इस खुशी के आगे वे स्टारडम को कोई वैल्यू नहीं देतीं और घर व व्यावसायिकता में से घर, परिवार व बच्चों को चुनती हैं.

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बौलीवुड मौम्स

हमारे सामने अनेक ऐसे उदाहरण हैं जहां बौलीवुड की ग्लैमरस हीरोइनों ने कैरियर की अपेक्षा मां की गरिमा और ममता को अधिक महत्त्व दिया. ‘मदर इंडिया’ की नरगिस दत्त से ले कर, जया बच्चन, शर्मिला टैगोर सभी ने निजी जिंदगी में मां का रोल बखूबी निभाया. घरपरिवार के लिए कैरियर को साइडलाइन करने वाली आधुनिक बालाओं की बात की जाए तो धकधक गर्ल माधुरी दीक्षित ने भी फिल्मों को अलविदा कह कर यूएस के डाक्टर श्रीराम नेने से शादी रचा ली और 2 बेटों को जन्म दिया व उन की परवरिश को प्राथमिकता दी. बौलीवुड मदर्स में रवीना टंडन ने भी कैरियर व ग्लैमर के बजाय अपनी फैमिली को ज्यादा महत्त्व दिया. इसी तरह करिश्मा कपूर, महिमा चौधरी, जूही चावला, शिल्पा शेट्टी सब ने मां बनने की खुशी को, संतान के सुख को बड़ा माना. ऐश्वर्या राय ने भी ग्लैमर को अनदेखा कर के कैरियर से ब्रेक लिया और पारिवारिक जिम्मेदारी को महत्त्व दिया.

इन सभी बौलीवुड बालाओं ने अपने बच्चों व परिवार को समय देने के बाद, उस समय को पूरी तरह एंजौय किया और फिर स्क्रीन पर शानदार वापसी भी की. ‘कभी खुशी कभी गम’ की सफलता के बाद काजोल ने 5 साल का बे्रक लिया और ‘माई नेम इज खान’ से शानदार वापसी की. शिल्पा शेट्टी को अपनी सैक्सी फिगर के कारण यम्मी मम्मी के खिताब से नवाजा गया है क्योंकि अपने बेटे विवान के जन्म के बाद उन्होंने अपनी फिटनैस से सब का दिल जीत लिया और दर्शकों के दिलों पर राज कर रही हैं. दुनिया की सब से खूबसूरत महिलाओं में से एक सुष्मिता सेन 2 बच्चों की सिंगल पेरैंट हैं और उन की खुशहाल जिंदगी हर किसी के लिए उदाहरण है. सुष्मिता मानती हैं कि बच्चे के लिए बिना शर्त का प्यार माने रखता है. इस से मतलब नहीं कि वह आप के पेट से निकला है या दिल से.

अमेरिका की फर्स्ट लेडी मिशेल ओबामा भी पेरैंटिंग और ममता की मिसाल हैं. अपनी दोनों बेटियों, मालिया व साशा को वे अपनी पहली प्राथमिकता मानती हैं और अपनी पब्लिक व पर्सनल जिम्मेदारियों के बीच उन्होंने बखूबी बैलेंस बनाया हुआ है. मिशेल का मानना है कि जब बच्चे खुश रहते हैं तो मुश्किल घडि़यों में भी उन्हें चैन की नींद आती है. उपरोक्त सभी उदाहरण एक मिसाल हैं कि मां के सान ध्य में बच्चा जो भावनात्मक सुरक्षा पाता है वह उसे और कोई नहीं दे सकता. चढ़ते ग्लैमरस कैरियर को अलविदा कर के बच्चों को समय दे कर अभिनेत्रियां साबित कर रही हैं कि मां बनना वाकई एक बड़ी जिम्मेदारी है जिस में हर महिला को कैरियर व घर के बीच सही बैलेंस बना कर चलना चाहिए.

प्यारभरी देखभाल

चिकित्सकों ने यह बात साबित की है कि बच्चे को जन्म से प्यारभरी देखभाल की जरूरत होती है. इस में उसे प्यार से सहलाना व मां व बच्चे के बीच शारीरिक संपर्क होना भी जरूरी है क्योंकि 1 से डेढ़ साल के दौरान बच्चे को अपनी देखभाल करने वाले से सब से अधिक लगाव होता है जो बच्चे को मां से होना चाहिए. क्योंकि जब बच्चे को मां से प्यार मिलता है तो वह प्यार का जवाब प्यार से देता है. बच्चा मां के साए में स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है. वहीं मां से दूरी उसे बीमार, असुरक्षित व एकाकीपन का शिकार बना देती है. जीवन के शुरुआती दौर में जब बच्चे को मां की सख्त जरूरत होती है तब आप उसे क्रैच में छोड़ कर अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकतीं, जिम्मेदारी से नहीं भाग सकतीं.

एक महिला को जो संतोष बच्चे की परवरिश में मिलता है, उसे दिनोंदिन बढ़ते देखने में मिलता है वह किसी दूसरी चीज में नहीं मिल सकता. यह एक अनूठा रोमांचक अनुभव होता है जिस के लिए कुछ त्याग तो करने ही पड़ते हैं. 35 वर्षीय रुचिका कहती हैं, ‘‘30 वर्ष में मेरी शादी हुई. तब मैं एक मीडिया कंपनी में कार्यरत थी. मेरा कैरियर विकास की ओर अग्रसर था लेकिन मैं ने कैरियर को प्राथमिकता न दे कर अपने परिवार को बढ़ाने की ओर ध्यान दिया और 1 वर्ष बाद अपने बेटे को जन्म दिया. उस की परवरिश पर पूरा ध्यान दिया. आज मेरा बेटा 5 साल का है. मुझे अपने कैरियर से बे्रक लेने का कोई दुख नहीं है. मैं खुश हूं कि मैं ने अपने बेटे के साथ जरूरी समय व्यतीत किया और अब 5 साल बाद मैं दोबारा अपने कैरियर की शुरुआत कर रही हूं. जो मजा बच्चों व परिवार के साथ आया वह मेरी जमापूंजी है.’’ शैमरौक गु्रप औफ प्री स्कूल की डायरैक्टर मीनल अरोड़ा मानती हैं कि स्वयं और बच्चे में से बच्चे को चुनें. अगर आज आप अपने बच्चे को समय नहीं देंगी तो आगे चल कर वह आप को समय व महत्त्व नहीं देगा और आप के व आप के बच्चे के बीच बौंडिंग नहीं होगी. बच्चों के लिए त्याग करें, परिवार को भी समय दें. यह एक मां का सब से बड़ा गुण है.

मदर्स डे स्पेशल: आंचल की छांव भाग 3

‘प्यारी आंटी,

होश संभाला है तब से मार खाती आ रही हूं. क्या जिन की मां मर जाती हैं उन का इस दुनिया में कोई नहीं होता? मेरी मां ने मुझे जन्म दे कर क्यों छोड़ दिया इस हाल में? पापा तो मेरे अपने हैं फिर वह भी मुझ से क्यों इतनी नफरत करते हैं, क्या उन के दिल में मेरे प्रति प्यार नहीं है?

खैर, छोडि़ए, शायद मेरा नसीब ही ऐसा है. पापा का ट्रांसफर हो गया है. अब हम लोग यहां से कुछ ही दिनों में चले जाएंगे. फिर किस से कहूंगी अपना दर्द. आप की बहुत याद आएगी. काश, आंटी, आप मेरी मां होतीं, कितना प्यार करतीं मुझ को. तबीयत ठीक नहीं है…अब ज्यादा लिख नहीं पा रही हूं.’

समय धीरेधीरे बीतने लगा. अकसर कंचन के बारे में अपने पति शरद से बातें करती तो वह गंभीर हो जाया करते थे. इसी कारण मैं इस बात को कभी आगे नहीं बढ़ा पाई. कंचन को ले कर मैं काफी ऊहापोह में रहती थी किंतु समय के साथसाथ उस की याद धुंधली पड़ने लगी. अचानक कंचन का एक पत्र आया. फिर तो यदाकदा उस के पत्र आते रहे किंतु एक अज्ञात भय से मैं कभी उसे पत्र नहीं लिख पाई और न ही सहानुभूति दर्शा पाई.

अचानक कटोरी गिरने की आवाज से मैं अतीत की यादों से बाहर निकल आई. देखा, कंचन सामने बैठी है. उस के हाथ कंपकंपा रहे थे. शायद इसी वजह से कटोरी गिरी थी.

मैं ने प्यार से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, बेटा,’’ फिर उसे अंदर वाले कमरे में ले जा कर अपनी साड़ी पहनने को दी. बसंती रंग की साड़ी उस पर खूब फब रही थी. उस के बाल संवारे तो अच्छी लगने लगी. बिस्तर पर लेटेलेटे हम काफी देर तक इधरउधर की बातें करते रहे. इसी बीच कब उसे नींद आ गई पता नहीं चला.

कंचन तो सो गई पर मेरे मन में एक अंतर्द्वंद्व चलता रहा. एक तरफ तो कंचन को अपनाने का पर दूसरी तरफ इस विचार से सिहर उठती कि इस बात को ले कर शरद की प्रतिक्रिया क्या होगी. शायद उन को अच्छा न लगे कंचन का यहां आना. इसी उधेड़बुन में शाम के 7 बज गए.

दरवाजे की घंटी बजी तो जा कर दरवाजा खोला. शरद आफिस से आ चुके थे. पूरे घर में अंधेरा छाया देख पूछ बैठे, ‘‘क्यों, आज तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

कंचन को ले कर मैं इस तरह उलझ गई थी कि घर की बत्तियां जलाना भी भूल गई.

घर की बत्तियां जला कर रोशनी की और रसोई में आ कर शरद के लिए चाय बनाने लगी. विचारों का क्रम लगातार जारी था. बारबार यही सोच रही थी कि कंचन के यहां आने की बात शरद को कैसे बताई जाए. क्या शरद कंचन को स्वीकार कर पाएंगे. सोचसोच कर मेरे हाथपैर ढीले पड़ते जा रहे थे.

शरद मेरी इस मनोदशा को शायद भांप रहे थे. तभी बारबार पूछ रहे थे, ‘‘आज तुम इतनी परेशान क्यों दिख रही हो? इतनी व्यग्र एवं परेशान तो तुम्हें पहले कभी नहीं देखा. क्या बात है, मुझे नहीं बताओगी?’’

मैं शायद इसी पल का इंतजार कर रही थी. उचित मौका देख मैं ने बड़े ही सधे शब्दों में कहा, ‘‘कंचन आई है.’’

मेरा इतना कहना था कि शरद गंभीर हो उठे. घर में एक मौन पसर गया. रात का खाना तीनों ने एकसाथ खाया. कंचन को अलग कमरे में सुला कर मैं अपने कमरे में आ गई. शरद दूसरी तरफ करवट लिए लेटे थे. मैं भी एक ओर लेट गई. दोनों बिस्तर पर दो जिंदा लाशों की तरह लेटे रहे. शरद काफी देर तक करवट बदलते रहे. विचारों की आंधी में नींद दोनों को ही नहीं आ रही थी.

बहुत देर बाद शरद की आवाज ने मेरी विचारशृंखला पर विराम लगाया. बोले, ‘‘देखो, मैं कंचन को उस की मां तो नहीं दे सकता हूं पर सासूमां तो दे ही सकता हूं. मैं कंचन को इस तरह नहीं बल्कि अपने घर में बहू बना कर रखूंगा. तब यह दुनिया और समाज कुछ भी न कह पाएगा, अन्यथा एक पराई लड़की को इस घर में पनाह देंगे तो हमारे सामने अनेक सवाल उठेंगे.’’

शरद ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली थी. कभी सोचा ही नहीं था कि वे इस तरह अपना फैसला सुनाएंगे. मैं चिपक गई शरद के विशाल हृदय से और रो पड़ी. मुझे गर्व महसूस हो रहा था कि मैं कितनी खुशनसीब हूं जो इतने विशाल हृदय वाले इनसान की पत्नी हूं.

जैसा मैं सोच रही थी वैसा ही शरद भी सोच रहे थे कि हमारे इस फैसले को क्या राहुल स्वीकार करेगा?

राहुल समझदार और संस्कारवान तो है पर शादी के बारे में अपना फैसला उस पर थोपना कहीं ज्यादती तो नहीं होगी. आखिर डाक्टर बन गया है, कहीं उस के जीवन में अपना कोई हमसफर तो नहीं? उस की क्या पसंद है? कभी पूछा ही नहीं. एक ओर जहां मन में आशंका के बादल घुमड़ रहे थे वहीं दूसरी ओर दृढ़ विश्वास भी था कि वह कभी हम लोगों की बात टालेगा नहीं.

कई बार मन में विचार आया कि फोन पर बेटे से पूछ लूं पर फिर यह सोच कर कि फोन पर बात करना ठीक नहीं होगा, अत: उस के आने का हम इंतजार करने लगे. इधर जैसेजैसे दिन व्यतीत होते गए कंचन की सेहत सुधरने लगी. रंगत पर निखार आने लगा. सूखी त्वचा स्निग्ध और कांतिमयी हो कर सोने सी दमकने लगी. आंखों में नमी आ गई.

मेरे आंचल की छांव पा कर कंचन में एक नई जान सी आ गई. उसे देख कर लगा जैसे ग्रीष्मऋतु की भीषण गरमी के बाद वर्षा की पहली फुहार पड़ने पर पौधे हरेभरे हो उठते हैं. अब वह पहले से कहीं अधिक स्वस्थ एवं ऊर्जावान दिखाई देने लगी थी. उस ने इस बीच कंप्यूटर और कुकिंग कोर्स भी ज्वाइन कर लिए थे.

और वह दिन भी आ गया जब राहुल दिल्ली से वापस आ गया. बेटे के आने की जितनी खुशी थी उतनी ही खुशी उस का फैसला सुनने की भी थी. 1-2 दिन बीतने के बाद मैं ने अनुभव किया कि वह भी कंचन से प्रभावित है तो अपनी बात उस के सामने रख दी. राहुल सहर्ष तैयार हो गया. मेरी तो मनमांगी मुराद पूरी हो गई. मैं तेजी से दोनों के ब्याह की तैयारी में जुट गई और साथ ही कंचन के पिता को भी इस बात की सूचना भेज दी.

कंचन और राहुल की शादी बड़ी  धूमधाम से संपन्न हो गई. शादी में न तो सुधा आई और न ही कंचन के पिता. कंचन को बहुत इंतजार रहा कि पापा जरूर आएंगे किंतु उन्होंने न आ कर कंचन की रहीसही उम्मीदें भी तोड़ दीं.

अपने नवजीवन में प्रवेश कर कंचन बहुत खुश थी. एक नया घरौंदा जो मिल गया था और उस घरौंदे में मां के आंचल की ठंडी छांव थी.

मदर्स डे स्पेशल: आंचल की छांव- भाग 2

सुधा का खुद की पिटाई से जब जी नहीं भरता तो वह उस के पिता से कंचन की शिकायत करती. पहले तो वह इस ओर ध्यान नहीं देते थे पर रोजरोज पत्नी द्वारा कान भरे जाने से तंग आ कर वह भी बड़ी बेरहमी से कंचन को मारते. सच ही तो है, जब मां दूसरी हो तो बाप पहले ही तीसरा हो जाता है.

अब तो उस नन्ही सी जान को मार खाने की आदत सी हो गई थी. मार खाते समय उस के मुंह से उफ तक नहीं निकलती थी. निकलती थीं तो बस, सिसकियां. वह मासूम बच्ची तो खुल कर रो भी नहीं सकती थी क्योंकि वह रोती तो मार और अधिक पड़ती.

खाने को मिलता बहनों का जूठन. कंचन बहनों को जब दूध पीते या फल खाते देखती तो उस का मन ललचा उठता. लेकिन उसे मिलता कभीकभार बहनों द्वारा छोड़ा हुआ दूध और फल. कई बार तो कंचन जब जूठे गिलास धोने को ले जाती तो उसी में थोड़ा सा पानी डाल कर उसे ही पी लेती. गजब का धैर्य और संतोष था उस में.

शुरू में कंचन मेरे घर आ जाया करती थी किंतु अब सुधा ने उसे मेरे यहां आने पर भी प्रतिबंध लगा दिया. कंचन के साथ इतनी निर्दयता देख दिल कराह उठता था कि आखिर इस मासूम बच्ची का क्या दोष.

उस दिन तो सुधा ने हद ही कर दी, जब कंचन का बिस्तर और सामान बगल में बने गैराज में लगा दिया. मेरी छत से उन का गैराज स्पष्ट दिखाई देता था.

जाड़ों का मौसम था. मैं अपनी छत पर कुरसी डाल कर धूप में बैठी स्वेटर बुन रही थी. तभी देखा कंचन एक थाली में भाईबहन द्वारा छोड़ा गया खाना ले कर अपने गैराज की तरफ जा रही थी. मेरी नजर उस पर पड़ी तो वह शरम के मारे दौड़ पड़ी. दौड़ने से उस के पैर में पत्थर द्वारा ठोकर लग गई और खाने की थाली गिर पड़ी. आवाज सुन कर सुधा दौड़ीदौड़ी बाहर आई और आव देखा न ताव चटाचट कंचन के भोले चेहरे पर कई तमाचे जड़ दिए.

‘कुलटा कहीं की, मर क्यों नहीं गई? जब मां मरी थी तो तुझे क्यों नहीं ले गई अपने साथ. छोड़ गई है मेरे खातिर जी का जंजाल. अरे, चलते नहीं बनता क्या? मोटाई चढ़ी है. जहर खा कर मर जा, अब और खाना नहीं है. भूखी मर.’ आवाज के साथसाथ सुधा के हाथ भी तेजी से चल रहे थे.

उस दिन का वह नजारा देख कर तो मैं अवाक् रह गई. काफी सोचविचार के बाद एक दिन मैं ने हिम्मत जुटाई और कंचन को इशारे से बाहर बुला कर पूछा, ‘क्या वह खाना खाएगी?’

पहले तो वह मेरे इशारे को नहीं समझ पाई किंतु शीघ्र ही उस ने इशारे में ही खाने की स्वीकृति दे दी. मैं रसोई में गई और बाकी बचे खाने को पालिथीन में भर एक रस्सी में बांध कर नीचे लटका दिया. कंचन ने बिना किसी औपचारिकता के थैली खोल ली और गैराज में चली गई, वहां बैठ कर खाने लगी.

धीरेधीरे यह एक क्रम सा बन गया कि घर में जो कुछ भी बनता, मैं कंचन के लिए अवश्य रख देती और मौका देख कर उसे दे देती. उसे खिलाने में मुझे एक आत्मसुख सा मिलता था. कुछ ही दिनों में उस से मेरा लगाव बढ़ता गया और एक अजीब बंधन में जकड़ते गए हम दोनों.

मेरे भाई की शादी थी. मैं 10 दिन के लिए मायके चली आई लेकिन कंचन की याद मुझे जबतब परेशान करती. खासकर तब और अधिक उस की याद आती जब मैं खाना खाने बैठती. यद्यपि हमारे बीच कभी कोई बातचीत नहीं होती थी पर इशारों में ही वह सारी बातें कह देती एवं समझ लेती थी.

भाई की शादी से जब वापस घर लौटी तो सीधे छत पर गई. वहां देखा कि ढेर सारे कागज पत्थर में लिपटे हुए पड़े थे. हर कागज पर लिखा था, ‘आंटी आप कहां चली गई हो? कब आओगी? मुझे बहुत तेज भूख लगी है. प्लीज, जल्दी आओ न.’

एक कागज खोला तो उस पर लिखा था, ‘मैं ने कल मां से अच्छा खाना मांगा तो मुझे गरम चिमटे से मारा. मेरा  हाथ जल गया है. अब तो उस में घाव हो गया है.’

मैं कागज के टुकड़ों को उठाउठा कर पढ़ रही थी और आंखों से आंसू बह रहे थे. नीचे झांक कर देखा तो कंचन अपनी कुरसीमेज पर दुबकी सी बैठी पढ़ रही थी. दौड़ कर नीचे गई और मायके से लाई कुछ मिठाइयां और पूरियां ले कर ऊपर आ गई और कंचन को इशारा किया. मुझे देख उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

मैं ने खाने का सामान रस्सी से नीचे उतार दिया. कंचन ने झट से डब्बा खोला और बैठ कर खाने लगी, तभी उस की छोटी बहन निधि वहां आ गई और कंचन को मिठाइयां खाते देख जोर से चिल्लाने ही वाली थी कि कंचन ने उस के मुंह पर हाथ रख कर चुप कराया और उस से कहा, ‘तू भी मिठाई खा ले.’

निधि ने मिठाई तो खा ली पर अंदर जा कर अपनी मां को इस बारे में बता दिया. सुधा झट से बाहर आई और कंचन के हाथ से डब्बा छीन कर फेंक दिया. बोली, ‘अरे, भूखी मर रही थी क्या? घर पर खाने को नहीं है जो पड़ोस से भीख मांगती है? चल जा, अंदर बरतन पड़े हैं, उन्हें मांजधो ले. बड़ी आई मिठाई खाने वाली,’ कंचन के साथसाथ सुधा मुझे भी भलाबुरा कहते हुए अंदर चली गई.

इस घटना के बाद कंचन मुझे दिखाई नहीं दी. मैं ने सोचा शायद वह कहीं चली गई है. पर एक दिन जब चने की दाल सुखाने छत पर गई तो एक कागज पत्थर में लिपटा पड़ा था. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि यह कंचन ने ही फेंका होगा. दाल को नीचे रख कागज खोल कर पढ़ने लगी. उस में लिखा था :

डेरी पशुओं में ऊष्मीय तनाव एवं उचित प्रबंधन

लेखक- डा. सिद्धार्थ साहा, प्रधान वैज्ञानिक

जब भी बहुत ज्यादा गरम नम या गरम शुष्क वातावरण होता है, तब पशु सामान्यतौर पर जीभ बाहर निकाल कर और अधिक से अधिक पसीना निकाल कर अपनी ऊर्जा को खर्च करते हैं, जिस से उन के शरीर का तापमान नियंत्रित रहता है. यह पशुओं के लिए जो एक स्वाभाविक और प्राकृतिक क्रिया है, लेकिन कभीकभी पशुओं के शरीर ऊष्मा बाहर निकालने की क्षमता, पसीना निकालना, जीभ बाहर निकलना जैसी प्राकृतिक क्रियाओं से भी शारीरिक तापमान नियंत्रित नहीं हो पाता, जिसे ऊष्मीय तनाव कहा जाता है.

तापमान, जिस के ऊपर ऊष्मीय तनाव हो सकता है : संकर और विदेशी नस्ल की गायों में : 26० सैंटीग्रेड से ऊपर. देशी नस्ल की गायों में 33० सैंटीग्रेड से ऊपर. भैंसों में 36० सैंटीग्रेड से ऊपर. ऊष्मीय तनाव से पशुपालकों को कई प्रकार से माली नुकसान हो सकता है, जैसे :

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* दूध उत्पादन में कमी.

* कम प्रजनन दक्षता.

* मंदहीनता.

* गर्भधारण दर में कमी. संवेदनशील पशु देशी नस्ल की गायों की अपेक्षा संकर और विदेशी नस्ल की गाय ऊष्मीय तनाव के प्रति ज्यादा संवेदनशील होती हैं. भैंसों की मोटी व काली चमड़ी होने और गायों की तुलना में कम पसीना ग्रंथि होने के कारण भैंस ऊष्मा का खर्च ठीक प्रकार से नहीं कर पाती, जिस से उन में ऊष्मीय तनाव का ज्यादा बुरा असर होता है. ऊष्मीय तनाव को कम करने के लिए उचित प्रबंधन इस प्रकार है :

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* पशुशाला की ऊंचाई बीच से 15 फुट और आसपास से 10 फुट होनी चाहिए. उस की लंबी तरफ पूर्वपश्चिम दिशा की ओर होनी चाहिए.

* पशुशाला की बाहरी छत की पुताई सफेद सीमेंट से करने से सूरज की किरणें परावर्तित होंगी व पशुशाला में ठंडक बनी रहेगी.

* पशुशाला के आसपास पेड़पौधे लगाना.

* पशुशाला की दीवारों पर घूमने वाले पंखे लगाना.

* फव्वारे लगाना.

* पंखों के आसपास एक गोले के रूप में फव्वारे लगाना.

* पशुओं को दोपहर में नहलाना.

* कट्टे के परदे लगाना व उन पर पानी का छिड़काव करना.

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* ठंडे व स्वच्छ पीने योग्य पानी की पर्याप्त व्यवस्था करना.

* पशुओं के नहाने के लिए टैंक की व्यवस्था करना.

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