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राजनीति की भेंट चढ़ती सौर ऊर्जा नीति

सौर ऊर्जा भविष्य में ऊर्जा संकट को हल करने में सब से कारगर तरीका हो सकता है. यही वजह है कि तमाम देश सौर ऊर्जा को अपनी विभिन्न आर्थिक नीतियों व महत्त्वपूर्ण योजनाओं में प्रमुखता दे रहे हैं जबकि भारत में सौर ऊर्जा मिशन सियासत और कमजोर विदेश नीतियों के चलते सफेद हाथी बन कर रह गया है. कैसे, बता रहे हैं कपिल अग्रवाल.

प्रकृति ने हमें सबकुछ प्रचुर मात्रा में दिया है. जरूरत है उस का सही दोहन करने की. लेकिन हमारे यहां हर क्षेत्र में राजनीति इस कदर हावी है कि हम कुछ कर ही नहीं पाते. हालत ऐसी है कि एक रुपए के काम के लिए लाख रुपए खर्च करने के बावजूद नतीजा शून्य ही रहता है.

सौर ऊर्जा ऐसा ही एक क्षेत्र है जो काफी कम लागत पर देश की 60 फीसदी ऊर्जा की जरूरतें पूरी कर सकता है. पर जैसी कि हमारे नेताओं की आदत है, हर बात के लिए विदेशों का मुंह ताकना और रियायती मदद प्राप्त कर मददगारों की मनमरजी के मुताबिक चलना, इस के चलते अन्य क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र का भी बेड़ा गर्क हो कर रह गया है. अरबों रुपए स्वाहा होने के बावजूद स्थिति बेहद शोचनीय है.

जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय सौर अभियान 2012-13 का पहला चरण समाप्त हो चुका है. दूसरे चरण की घोषणा हो गई है. करीब 2 हजार मेगावाट वाली ग्रिड आधारित सौर ऊर्जा विकसित करने के लक्ष्य के विपरीत केवल 300 मेगावाट का लक्ष्य ही हासिल हो पाया है. कारण, वही पुराना. अमेरिकी बैंक से सस्ता ऋण और बेहद महंगी व अनुपयुक्त तकनीक के उपयोग की बाध्यता व समस्त खरीद अमेरिका की दिवालिया होती कंपनियों से ही करने की अनिवार्यता. हालत यह हो गई है कि हमारी प्रति यूनिट लागत जहां लगभग 11 रुपए आ रही है वहीं वैश्विक स्तर पर यह घट कर 3-4 रुपए प्रति यूनिट (प्रति किलोवाट प्रतिघंटा) तक आ गई है. अपने देश में जहां बिजली की किल्लत के चलते हायतोबा मची है और बगैर पर्याप्त बिजली हासिल किए भारीभरकम बिलों से जनता परेशान है वहीं विश्व के अधिकांश देशों में यह कोई समस्या ही नहीं है.

गत वर्ष की तीसरी तिमाही में कनाडा के एक नागरिक ने चीन से मात्र 2,264 अमेरिकी डौलर की एक मिनी सौर यूनिट खरीद कर अपने यहां लगाई और अपने उपयोग के बाद बची बिजली आसपास के 4 घरों को देना शुरू कर दिया. अब उस की घर बैठे अच्छीखासी आमदनी हो रही है. अधिकांश क्षेत्रों की तरह चीन भी इस क्षेत्र में अग्रणी है. वहां सामान्य नागरिक अपनी जरूरतों के लिए जहां सौर ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं वहीं बड़ेबड़े उद्यमों के लिए उच्च क्षमता वाले विद्युत प्लांट लगे हैं.

दरअसल, हमारे यहां इस क्षेत्र की शुरुआत ही बहुत गलत तरीके से की गई. हम ने प्रारंभ से ही अमेरिका का दामन थाम लिया, जिस से उसे दोहरा लाभ हुआ और हम बरबाद होते चले गए. शुरुआत में अमेरिका की तमाम बड़ी कंपनियों ने उस समय उपलब्ध फोटोवोल्टाइक सेल की बाबत महंगी जटिल आयातित थिन फिल्म तकनीक को अपनाया पर अत्यधिक लागत के चलते वे दिवालिया हो गईं. अब उन्हीं कंपनियों को जीवनदान के लिए भारत के सामने एक्जिम बैंक के माध्यम से

6 फीसदी पर रियायती ऋण देने का प्रस्ताव रखा गया. साथ ही, शर्त यह थी कि समस्त संबंधित खरीद इन्हीं दिवालिया अमेरिकी कंपनियों से ही की जाएगी. अमेरिका को इस से जहां दोहरा लाभ हुआ वहीं भारत को तिहरा घाटा. जलवायु परिवर्तन समझौते के तहत अमीर देश विकासशील मुल्कों को तीव्र व तत्काल वित्तीय मदद मुहैया कराने के लिए तैयार हुए थे. इसीलिए अमेरिका ने सारी व्यवस्था कर के सभी रियायती मदद, जलवायु परिवर्तन के लिए दी जाने वाली राशि संबंधी खाते से संबद्ध कर दी. यानी एक तरफ वह जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में शामिल हो गया, दूसरी तरफ उस का दिवालिया हो रहा घरेलू उद्योग फिर से पनप उठा.

भारत को इस से पहला नुकसान यह हुआ कि इस की संपूर्ण योजना बुरी तरह असफल हो गई और कीमती समय व धन मिट्टी में मिल गया. दूसरा घाटा यह हुआ कि घरेलू उद्योग व सौर प्रोजैक्टों को दी गई भारीभरकम सब्सिडी बिलकुल व्यर्थ सिद्ध हुई. तीसरा देसी उद्योग बरबाद हो गया व आम जनता का इस तकनीक से विश्वास उठ गया. हम ने ग्रिड पर आधारित सौर ऊर्जा को अपनाया, जिस का वास्तविक लाभ केवल रसूखदारों को मिला और आम जनता इस से वंचित रह गई.

आज हालत यह है कि चीन के सस्ते आयातित उपकरण दुनियाभर में छा गए हैं और हमारी घरेलू 90 फीसदी सौर ऊर्जा इकाइयां या तो बंद हैं या कर्ज पुनर्गठन की राह तक रही हैं. बहरहाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल व गुजरात में कुछ एनजीओ ने चीन के सस्ते आयातित उपकरण व संयंत्र ग्रामीण इलाकों और नई विकसित कालोनियों में लगाने शुरू किए हैं, जिस से जनता को भारी राहत मिली है. आर्थिक स्थिति में सुधार के अलावा बेहद छोटीछोटी खुदरा दुकानों को इस से भारी लाभ हुआ है.

तमिलनाडु के कुंडूवला क्षेत्र में 3 गांवों की सौर ऊर्जा ने रातोंरात काया पलट दी. एक एनजीओ ने चीन से मात्र साढ़े 6 लाख रुपए में आयात किए गए सौर पैनल संयंत्र लगाए हैं जिन से उन की रोजमर्रा की घरेलू जरूरतें पूरी हो गईं व छोटेमोटे कामधंधे चल निकले. सब से बड़ी बात यह है कि 24 घंटे, सातों दिन भरीपूरी बिजली खपाने के बावजूद किसी को एक पैसे का भी बिल नहीं अदा करना पड़ता. केवल सौर पैनलों की मैंटिनैंस का मामूली खर्चा तीनों गांवों के लोग मिल कर उठाते हैं. इसी प्रकार केरल, तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश के 100 से भी ज्यादा पिछड़े इलाकों में सौर लालटेन, सौर चूल्हा, सौर प्रैस, सौर गीजर आदि तमाम घरेलू व वाणिज्यिक उपयोग के उपकरण एनजीओ द्वारा वितरित किए गए हैं. इस से यहां के लोगों की परेशानियां कम हुई हैं व जीवन स्तर सुधरा है.

यानी अमेरिका से कर्जे ले कर व अरबों रुपए स्वाहा कर जो काम सरकार का राष्ट्रीय सौर अभियान नहीं कर पाया वह बगैर ज्यादा लागत के तमाम एनजीओ बड़ी कुशलता से सफलतापूर्वक कर रहे हैं. सरकार को इस से सबक लेना चाहिए.

इस के उलट सरकार ने बगैर अपनी नीति में परिवर्तन किए सौर ऊर्जा अभियान का दूसरा दौर शुरू कर दिया है. 2017 तक चलने वाले इस अभियान के बाबत सरकार के पास कोई धनराशि उपलब्ध नहीं है. एक बार फिर इस के लिए विदेशी मदद लिए जाने की योजना है. स्वच्छ व ज्यादा शक्ति वाली सौर ऊर्जा को पर्यावरण प्रदूषण उत्पन्न कर बनने वाली कोयले जनित बिजली से मिला कर ग्रिड में समाहित कर दिया जाएगा. इस प्रकार इस का 65 फीसदी भाग बगैर उपयोग ही बरबाद हो जाता है. विश्व में कई देश बेहद स्वच्छ व उन्नत सौर ऊर्जा विकसित कर उस का सीधा उपयोग कर रहे हैं जो बहुत ही किफायती है.

भारत सरकार यदि अमेरिकी शिकंजे से मुक्त हो कर अपने बाजार व घरेलू उद्योग को पूरी तरह स्वतंत्र कर दे तो देश में व्याप्त कई समस्याएं स्वयमेव समाप्त हो जाएंगी. उदाहरण के तौर पर सौर चूल्हे के उपयोग को बढ़ावा देने से न केवल कुकिंग गैस की समस्या हल होगी बल्कि सरकार का सब्सिडी संबंधी बिल भी कम होगा. इसी प्रकार मात्र एक ट्यूबलाइट की रोशनी से ऊर्जा ग्रहण करने वाले घरेलू सौर पैनलों का निर्माण चीन में शुरू हो चुका है, जिस से एक टैलीविजन, कंप्यूटर या एक पंखा आराम से चल सकता है. सौर ऊर्जा से चलने वाले एअरकंडीशनर भी आने लगे हैं जो न केवल अधिक ठंडक देते हैं बल्कि ऊर्जा की खपत भी कम करते हैं. यदि हम आम जनता की घरेलू ऊर्जा की जरूरत को ग्रिड की निर्भरता से मुक्त कर दें और आम जनता को छोटेछोटे सौर उपकरणों के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित करें तभी हमारी सौर नीति का दूसरा चरण सही माने में सफल माना जाएगा.

हमारे देश में केवल गुजरात ने कुछ इसी तरह का मौडल अपनाया है और उस का 1,932 करोड़ रुपए के घाटे वाला ऊर्जा निगम मार्च 2012 तक 642 करोड़ रुपए का मुनाफा दर्ज कर चुका है. भारत विश्व के उन चुनिंदा देशों में है जहां लगभग पूरे साल भरपूर सौर ऊर्जा उपलब्ध रहती है. आम जनता की छोटीमोटी जरूरतों के लिए हम इस का भरपूर उपयोग कर सकते हैं. अगर सौर नीति सही ढंग से क्रियान्वित की जाए तो देश की विद्युत संबंधी समस्या हमेशाहमेशा के लिए समाप्त हो सकती है.

भगवान की सुरक्षा इंसानों के हाथ

धर्मशास्त्रों, धर्मगुरुओं व पंडेपुजारियों के प्रवचनों में यही बखान किया जाता है कि भगवान अपने भक्तों की हमेशा रक्षा करते हैं. पर उन के दावे तब खोखले साबित होते हैं जब मंदिरों में सुरक्षा की चौकसी बढ़ानी पड़ती है. जो भगवान खुद की रक्षा नहीं कर सकता वह भला अपने भक्तों की रक्षा कैसे करेगा? पढि़ए जगदीश पंवार का लेख.

देशभर में इन दिनों औरतों की सुरक्षा को ले कर बवाल मचा हुआ है. लोग सरकार, पुलिस, नौकरशाही को कोस रहे हैं. सब परेशान हैं लेकिन जब इस भारतभूमि के सर्वशक्तिमान भगवान खुद ही असुरक्षित हों तो औरत, आम जनता, सरकार और पुलिस की क्या बिसात. भगवान द्वारा भक्तों की रक्षा किए जाने के दावे धर्म की किताबों से ले कर धर्मगुरुओं व पंडों के प्रवचनों में बढ़चढ़ कर किए जाते हैं पर वे सब के सब खोखले साबित हो रहे हैं. यहां, भक्तों को अभयदान देने वाले भगवानों की बेचारगी जगजाहिर हो रही है.

गौरतलब है कि कुछ दिनों पहले वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर की मंगला आरती में शामिल होने हेतु टिकट के लिए लोगों को पहचान बताने की बात कही गई. इस के  लिए आधार कार्ड, मतदाता पहचानपत्र, ड्राइविंग लाइसैंस जैसे आईडी प्रूफ मान्य होंगे. जब भी इस तरह की बात होती है तो यही तर्क दिया जाता है कि यह कदम धर्मस्थलों पर बढ़ते खतरों को देखते हुए उठाया जा रहा है.

काशी विश्वनाथ मंदिर में पहचानपत्र दिखाने की व्यवस्था शायद इसलिए की जा रही होगी ताकि कोई भगवान को, मंदिर को और उन के भक्तों को नुकसान न पहुंचा सके.

यह बात कुछ हजम नहीं हो पा रही. भगवान के मंदिरों में कोई घुस कर उन्हें और उन के भक्तों को कैसे नुकसान पहुंचा सकता है? पढ़ते, सुनते तो यही आए हैं कि भगवान और उन के दूत यानी पंडेपुरोहित, साधुसंत अंतर्यामी, त्रिकालदर्शी होते हैं. वे दिव्यदृष्टा होते हैं. उन्हें धरती, आकाश, पाताल तीनों लोकों में क्या हो रहा है, सबकुछ अपनी दिव्यदृष्टि से पता चल जाता है.

इस मंदिर में लोग लंबी आयु, आकस्मिक मृत्यु से बचने, सुखसमृद्धि के लिए हर साल लाखों की तादाद में आते हैं और भगवान के अलावा वे पंडों, साधुसंतों, गुरुओं से आशीर्वाद भी मांगते हैं.

फिर काशी के विश्वनाथ भगवान तो स्वयं काल, महाकाल हैं. उन के पास तो तीसरा नेत्र भी है. क्या उत्तर प्रदेश सरकार को भगवान शिव की ताकत का एहसास नहीं है जो उन के घर की सुरक्षा के लिए पहचानपत्र जैसी तुच्छ चीज पेश करने का आदेश दे रही है?

सरकार द्वारा मंदिर में मंगला आरती में आने वाले भक्तों से पहचानपत्र मांगना निरर्थक है. यह सुरक्षा तो मंत्रों, टोनेटोटकों द्वारा हो सकती है. सरकार पंडों, साधुसंतों, ज्योतिषियों, तांत्रिकों की सेवाएं क्यों नहीं लेती?

भक्तों की हर तरह की सुरक्षा, मनोकामना के लिए महामंत्र, हवनयज्ञ, पूजापाठ, स्नानदान जैसे अचूक औजार हैं. साधुसंतों, गुरुओं का आशीर्वाद भी है. इन सब के होते हुए भला किस बात का भय?

मंत्रों में महामृत्युंजय मंत्र सर्व- शक्तिशाली है और यह वाराणसी वाले भगवान को ही समर्पित है-

ॐ त्र्यंबकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम्, उवीरूकमिव बंधनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्.

अर्थात, समस्त संसार के पालनहार 3 नेत्रों वाले शिव की हम आराधना करते हैं. विश्व में सुरभि फैलाने वाले भगवान शिव मृत्यु न कि मोक्ष से हमें मुक्ति दिलाएं. यह मंत्र मोक्ष दिलाने के लिए है या मृत्यु से बचाने के लिए? मोक्ष दिलाने के लिए है तो फिर काशी विश्वनाथ मंदिर में सुरक्षा की जरूरत ही क्या है. मोक्ष मिल ही जाएगा.

किस की मजाल जो इस मंत्र जाप के बाद किसी का बाल भी बांका कर सके. मंदिर की सुरक्षा के लिए पंडों को महामृत्युंजय जाप के लिए लगा देना चाहिए. सुरक्षा के लिए हनुमान चालीसा का पाठ है. मंदिर के मुख्य दरवाजे पर एक नीबू, 7 हरीमिर्च बांधने से भी आने वाली विपदाएं दूर हो जाती हैं. इस के अलावा इस देश में ऐसेऐसे तांत्रिक हैं जो अभिमंत्रित लोहे की कीलें, राई के दानों से भी सुरक्षा करने का दावा करते हैं. अभिमंत्रित राई को काशी विश्वनाथ मंदिर के चारों ओर डाल देना चाहिए. मंदिर के अंदर किसी पहुंचे हुए तांत्रिक को बुला कर कीलें गाड़ देनी चाहिए. धर्म के ठेकेदारों के पास इतने सारे उपाय हैं, फिर सुरक्षा के लिए परेशानी क्यों?

इन सब के बावजूद सरकारें मंदिरों की सुरक्षा के लिए तरहतरह के उपाय करने में जुटी नजर आती हैं. पिछले साल यहां सुरक्षा के लिए 150 सुरक्षा कर्मचारी तैनात किए गए थे.

मंदिर आज से नहीं, सदियों से असुरक्षित रहे हैं. छोटेमोटे चोरउचक्के ही नहीं, विदेशी हमलावर भी भारत के उन भगवानों के मंदिरों को लूटतेखसोटते, नष्टभ्रष्ट करते रहे हैं जिन पर इस देश के धर्मांध भक्त भरोसा रखते हैं. फिर भी इन भगवानों के भक्तों का धैर्य देखिए कि वे वहां दर्शन, पूजापाठ, तीर्थयात्रा, हवनयज्ञ जैसे कर्मकांडों का लोभ छोड़ नहीं पा रहे हैं.

आएदिन मंदिरों से भगवान की मूर्तियां, उन के सोनेचांदी, हीरे के आभूषण और नकदी चुराए जाने की खबरें आती रहती हैं.

ऐसा क्यों होता है? क्या भगवान खुद अपनी और अपने कीमती सामान की रक्षा नहीं कर सकते?

यहां तो सदियों से भगवान भयभीत रहे हैं. उन के घरों को तोड़ाफोड़ा जाता रहा. महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर को कई बार लूटा. मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि पुलिस छावनी दिखती है.

शिरडी में साईं बाबा मंदिर पर हमले के डर से शासनप्रशासन कांपता रहता है. गुजरात में अक्षरधाम मंदिर में आतंकी घुस कर खूनी खेल खेल जाते हैं. भगवान कुछ नहीं कर पाते.

अयोध्या वाले भगवान खुद अपना मंदिर बनने की दशकों से प्रतीक्षा कर रहे हैं. उन की सुरक्षा के लिए सैकड़ों सुरक्षाकर्मी तैनात हैं.

उज्जैन के महाकालेश्वर में खतरा मंडराता रहा है. पुरी के जगन्नाथ मंदिर में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम रहते हैं. सवाल बाबरी मसजिद का भी है. वह टूटी क्यों? खुदा कहां था?

मोक्ष और मनोकामना पूर्ति के लिए वाराणसी आने वाले भक्तों को शायद इस मंदिर के इतिहास का पता नहीं है. औरों को अभयदान देने वाले भगवान विश्वनाथ युद्धकाल में शिवलिंग के रूप में कुएं में कूद गए थे. तब से अभी तक छिप कर वहीं रह रहे हैं, यह बात विकिपीडिया भी बता रहा है.

इतिहास बताता है कि काशी विश्वनाथ मंदिर ईसवी सन 419 में बना था. 11वीं सदी में राजा हरिश्चंद्र ने यहां एक मंदिर का निर्माण कराया. 1194 में मुहम्मद गोरी ने वाराणसी के कई मंदिरों के साथ काशी विश्वनाथ मंदिर को भी तोड़ डाला था. तत्पश्चात तोड़े गए मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया गया. बाद में पहुंचा कुतुबुद्दीन ऐबक. उस ने भी इस मंदिर को नष्ट किया. ऐबक की मृत्यु के बाद कई हिंदू राजाओं ने मंदिर का फिर से निर्माण कराया.

1351 में मंदिर के भगवान न जाने कहां थे जब फिरोजशाह तुगलक आया और उस ने इसे नष्ट किया, फिर 1585 में अकबर के दरबार में राजस्व मंत्री टोडरमल ने पुनर्निर्माण कराया. 1669 में औरंगजेब ने इसे नष्टभ्रष्ट करने का हुक्म दिया और यहां ज्ञानवापी मसजिद बनवा दी जो मंदिर परिसर में ही मौजूद है.

इस तरह यह मंदिर देसी हिंदू राजाओं और विदेशी आक्रांताओं के बीच खिलौना बना रहा. तोड़नेबनाने के खेल चलते रहे.

यह किस्सा तो बड़ा दिलचस्प है कि युद्ध के समय विदेशी आक्रमणकारियों से बचने के लिए शिवलिंग कुएं के अंदर कूद गया था. वाह, ब्रह्मांड के शासक इस धरती के मुहम्मद गोरी, कुतुबुद्दीन ऐबक, फिरोजशाह तुगलक जैसे इंसानी हमलावरों के भय से ऐसे जा छिपे जैसे वे सर्व- शक्तिमान भगवान नहीं, कोई डरपोक चूहे से भी गएबीते हों. माना जाता है कि असली शिवलिंग आज भी इस कुएं में ही है. इस मंदिर को बनाने, पुनर्निर्माण कराने और संचालन में कई हिंदू राजाओं और उन के परिवारों ने योगदान दिया. मौजूदा मंदिर मालवा की रानी अहल्या बाई होल्कर ने 1780 में बनवाया था.

1983 से उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से मंदिर का प्रबंधन किया जा रहा है. लिहाजा सुरक्षा का जिम्मा राज्य सरकार का है. सैकड़ों पुलिस वाले लगे रहते हैं.

आस्था का आलम यह है कि सचाई के बावजूद हर साल वहां लाखों अंधभक्तों का जमावड़ा लगता है, खुल कर दानदक्षिणा लुटाई जाती है पर यह सवाल किसी के मन में नहीं उठता कि जो भगवान खुद को नहीं बचा पाता, वह भक्तों की रक्षा कैसे कर सकता है.    

असल में यह सारा खेल पैसों का है. झूठे चमत्कारों, मनोकामनापूर्ति, मोक्ष के दावे कर के सदियों से लोगों को बहकाया जाता रहा है. चालाकीभरी तरकीबों से ख्वाब दिखाए जाते हैं और लोग हैं कि बिना बुद्धि लगाए, तर्कवितर्क किए भेड़ों की तरह उमड़ पड़ते हैं. वे चतुर, स्वार्थी लोगों द्वारा जिधर चाहे उधर हांके जा रहे हैं. एक भेड़ कुएं में गिर रही है तो बाकी भी उस के पीछे एक के बाद एक गिरती जा रही हैं, कुछ ऐसा ही माजरा है.  यह अंधी आस्था, पागलपन है. पता नहीं लोगों की बुद्धि पर पड़ा ताला कब खुलेगा.

एंजेलिना की हिम्मत

बीमारी से पहले सर्जरी करा लेना कि कहीं बीमारी न हो जाए, आमतौर पर सुना नहीं जाता पर हौलीवुड की अभिनेत्री एंजेलिना जोली ने अपने स्तन ही कटवा दिए और अब खुल्लमखुल्ला इस बात को जगजाहिर कर दिया. उन की मां को ओवरी कैंसर हो गया था जिस के कारण 56 वर्ष की आयु में ही उन की मृत्यु हो गई थी और एंजेलिना जोली को बै्रस्ट कैंसर होने के 87 प्रतिशत चांस?थे और ओवरी में कैंसर होने के 50 प्रतिशत, क्योंकि उन के स्तनों में बीआरसीए जीन मौजूद था.

यह फैसला हिम्मत का था क्योंकि एक फिल्म अभिनेत्री की सब से बड़ी पूंजी उस का शरीर होता है और अभिनेत्रियों को फिल्म में अकसर अपने?स्तन तक दिखाने होते हैं. प्लास्टिक रिकंस्ट्रक्टिव सर्जरी के कारण एक छोटे से स्कार के अलावा उन को कोई नुकसान नहीं हुआ है.

बड़ी बात यह है कि एंजेलिना जोली जैसी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति ने अपने शरीर में इस तरह का जोखिम लेने की हिम्मत की. आमतौर पर ब्रैस्ट कैंसर की पीडि़त औरतें महीनों नहीं वर्षों तक इस फैसले को टालती हैं कि स्तन कटने के बाद वे अधूरी रह जाएंगी और उन्हें न पति का प्यार मिलेगा, न समाज उन्हें इज्जत देगा. एंजेलिना जोली ने इस सोच को तोड़ कर साहस का उदाहरण पेश किया है.

3 अपने बच्चों और 3 गोद लिए बच्चों की मां के लिए इस तरह का फैसला लेना, खासतौर पर तब जब हर रोज अखबारों की सुर्खियां बनती हों, एक उदाहरण है. स्तन औरत की शान हैं पर कैंसर से तिलतिल कर मरने से अच्छा है कि उस अंग को कटवा दिया जाए जिस में कैंसर होने का खतरा हो.

यह खतरा पारिवारिक इतिहास पर निर्भर करता है. यदि मां, नानी, दादी, बहन आदि को इस तरह का कैंसर हो तो एंजेलिना जोली का संदेश है कि जांच करवाओ, अगर कैंसर का थोड़ा सा भी अंदेशा हो और डाक्टर कहे कि स्तन कटवाएं तो उस की बात मान लें. स्तन औरत का सौंदर्य है पर जीवन नहीं.

हो सकता है कि भविष्य बताए कि एंजेलिना जोली ने नाहक यह कदम उठाया, पर फिर भी इस तरह का डर दूर करने का हर यत्न करना फर्ज है. केवल सुंदर दिखते रहने के लिए डरना ठीक नहीं और अब तो पता भी नहीं चलता कि एंजेलिना जोली ने स्तन नकली बनवाए हैं.

कानून और नौकरशाही

देश की सरकार चाहे कितना कहे कि कानूनों का आदर हो और अदालतें कितना ही कानून के सम्मान की बात करें, असल में देश में कानून केवल अफसरों, नेताओं, अमीरों और पहुंच वालों का गुलाम है. कानून तोड़ कर अपराधी बनना तो एक बात है, यहां कानून तोड़ कर कानून बदलवाना और किसी को अपराधी बताने के लिए कानून का बदलना बाएं हाथ का खेल है. नागरिक कानूनों की अवहेलना कर अपना काम निकालने की जुगत भिड़ाते हैं, जबकि अफसर और नेता कानूनों के नाम पर आम नागरिकों को परेशान कर लूटते हैं.

दिल्ली में शहरी मकानों के बारे में बहुत से कानून अरसे से बने हैं जब दिल्ली एक बड़ा गांव  सी थी. ये कानून दिल्ली को साफसुथरा रखने के लिए जरूरी थे. हर व्यक्ति को भरोसा था कि कानून ऐसा है जिस से हरेक को लाभ होता है. पर धीरेधीरे लोगों की जरूरतें बढ़ने लगीं. ज्यादा लोग उसी जगह में छिपने की कोशिश करने लगे. बजाय कानूनों को सभी के लिए सामयिक व सहायक बनाने के, अफसरों और नेताओं ने पुराने कानूनों को सोने की खान समझ कर उन्हीं को मनचाहे ढंग से थोपना शुरू कर दिया.

कानून का जोर से उल्लंघन हुआ. नेताओं और अफसरों ने अनुमतियां देने या अवैध निर्माण की ओर से नजर हटाने के एवज में अरबों नहीं शायद खरबों कमाए. जब बहुत हल्ला हुआ तो अदालतों ने कानूनों का पालन करने पर जोर दिया पर न जाने क्यों, कानूनों को सरल बनाने की सिफारिश नहीं की. जब तोड़फोड़ की जाने लगी तो सभी अपराधों और अपराधियों को माफी देने वाला कानून बना डाला. पहले वाले कानून का कचरा हो गया.

वर्षों से बनी शहरभर की उन बस्तियों को अब अवैध से वैध किया जा रहा है जो उन जमीनों पर बनी हैं जिन्हें सरकार द्वारा कानूनों के अंतर्गत मामूली मुआवजे पर किसानों से छीना गया था पर चूंकि वर्षों खाली पड़ी रहीं, लोगों ने कब्जा कर मकान बना डाले. कुछ किसानों के अपने खेत थे जो उन्होंने फार्म हाउस बनाने के लिए बेचे, धीरेधीरे वहां बस्ती बन गई.

अवैध काम को कानूनी करना वैसा ही है जैसे संजय दत्त को 20 साल पहले के गुनाह के लिए माफ करना है. पर जैसे संजय दत्त के मामले में सरकार की गलती है कि उस ने सजा 20 साल पहले क्यों नहीं दिलाई, वैसी ही इस मामले में सरकार की है कि 20-25 साल पहले क्यों नहीं रोका गया, ये काम ऐसे नहीं कि रातोंरात हो रहे हैं.

असल में कानूनों की अवहेलना किए जाने में सरकारी अफसरों को बहुत पैसा मिलता है. वे कानून बनाते ही इसलिए हैं कि उन्हें तोड़ा जाए. ये वे कानून हैं जिन के टूटने से समाज को सीधा नुकसान नहीं होता. इसीलिए तो जब सड़क के किनारे पटरी पर पहली दुकान लगती है, लोग उस से खरीदारी कर उसे मान्यता देते हैं. बाद में वह हक बन जाती है. कानून का आदर सिर्फ चंद?रुपयों तक रह जाता है.

पाकिस्तान में नई सरकार

पाकिस्तान में नई सरकार बन गई है और 2 बार पहले प्रधानमंत्री रह चुके नवाज शरीफ ने अपनी शेर वाली पार्टी पाकिस्तान मुसलिम लीग को

जिता कर पहली बार शांतिपूर्वक सत्ता हस्तांतरण कर लिया है. पर पाकिस्तान में कुछ बदला है, उस के आसार नहीं दिख रहे हैं. 63 वर्षीय नवाज शरीफ अभी भी मुख्यत: केवल पंजाब के नेता हैं जबकि पाकिस्तान की समस्याएं सिंध, बलूचिस्तान आदि में हैं जहां नवाज शरीफ की नहीं चलती.

पाकिस्तान में बड़ा शक्ति केंद्र सेना है और सेना ने नागरिक सत्ता के आगे घुटने टेकने का कोई वादा नहीं किया है. सेना अपने द्वंद्वों में फंसी है क्योंकि तालिबान उस पर हावी हो रहे हैं और अमेरिका व चीन को उस की अब जरूरत नहीं है. पाकिस्तानी सेना की ब्लैकमेल की ताकत कम हो गई है पर वह कभी भी इस्लामाबाद में टैंक भेज कर चुनावों के परिणामों को मटियामेट कर सकती है.

दूसरे देशों की तरह पाकिस्तान की युवा जनता अब अपना जोर दिखाने लगी है. इस बार ज्यादा मतदान हुआ, उस का कारण यही था कि युवाओं ने ज्यादा रुचि ली. ये वही युवा हैं जो 10 साल पहले मसजिदों की सुनते थे. अब ये इंटरनैट, फेसबुक, एसएमएस की भाषा के दीवाने होने लगे हैं और दुनिया के युवाओं के साथ कदम मिलाने को तैयार हैं.

आज कोई भी देश अपनेआप में द्वीप नहीं है. धर्म, जाति, भूगोल के नाम पर आज जनता को बहकाना मुश्किल होता जा रहा है. हर युवा अपने लिए एक मोबाइल, एक कंप्यूटर, कई जोड़े जींस या टीशर्टें चाहता है और वह धार्मिक व पारंपरिक पोशाक पहन कर अपनी सोच पर ताला नहीं लगाना चाहता. धर्म के दुकानदार अब दोगुनी मेहनत कर के उन्हें पुरानी पट्टी पढ़ा रहे हैं पर भेड़ों के झुंडों में से बहुत सी हाथ से निकलने लगी हैं, पाकिस्तान के चुनावों ने यह साबित किया है.

नवाज शरीफ के बाद पाकिस्तान में कोई अंतर आएगा या भारत और पाकिस्तान के संबंध सुधरेंगे, इस की कोई गारंटी नहीं. कैमरों के सामने तो चिकनीचुपड़ी बातें होंगी, पर फैसले निजी मतलब के हिसाब से ही लिए जाएंगे. पाकिस्तानी जनता के लिए कश्मीर अभी भी अफीम की गोली की तरह है जिसे खिला कर मनचाहा काम कराया जा सकता है और सेना इसे कब इस्तेमाल कर ले, कब दूसरा कारगिल हो जाए, कोई गारंटी नहीं.

फिलहाल, सिर्फ इतना संतोष काफी है कि पाकिस्तान एक कदम तो आगे बढ़ेगा. उम्मीद यही करें कि हम भारत में पाकिस्तान को उकसाने वाला कोई काम न करें. नरेंद्र मोदी के पिछले बयानों को सुनें तो लगता है कि वे किसी भी कीमत पर पाकिस्तान से मोरचा खोलना चाहेंगे और अगर ऐसा हुआ तो इन शांतिपूर्वक चुनावों की कब्र खुदते देर न लगेगी.

नक्सलियों की हरकत

लोकतंत्र में नक्सली आंदोलन की कोई जगह नहीं है और जिस तरह से नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ की झीरम घाटी में परिवर्तन यात्रा पर जा रहे कांग्रेसी नेताओं को चुनचुन कर मारा उस की तो कोई भी वजह सही नहीं हो सकती. पश्चिम बंगाल से ले कर आंध्र प्रदेश तक की पहाडि़यों में फैले नक्सलियों की शिकायतें जो?भी हों, वे राजनीति में बंदूक नीति को थोप नहीं सकते.

नक्सली चाहे अब खुश हो लें कि उन्होंने नक्सल विरोधी सलवा जुडूम के संचालक महेंद्र कर्मा को मार डाला है और अपने हजारों साथियों की मौत का बदला लिया है. पर सच यह है कि यह हमला उन पर भारी पड़ेगा क्योंकि जो सहानुभूति उन्हें अब तक मीडिया, विचारकों व अदालतों से मिलती भी थी, वह अब गायब हो जाएगी और नक्सलवाद का हाल अलकायदा का सा हो जाएगा.

इस में संदेह नहीं कि पिछले 50-60 सालों में पहाड़ी क्षेत्रों के आदिवासियों को शहरियों ने जम कर लूटा है. उन्हें अछूत तो माना ही गया, उन की जमीनों, गांवों, जंगलों पर कब्जा कर के शहर, सड़कें, फैक्ट्रियां भी बना डाली गईं और खानों से अरबोंखरबों का खनिज निकाल लिया गया. अब जब वे मुखर होने लगे तो कानूनों का हवाला दे कर उन का मुंह बंद करने की कोशिश की गई. बहाना बनाया गया विकास के लिए यह जरूरी था, पर किस के विकास के लिए? विकास हुआ तो शहरियों का, अफसरों का, नेताओं का, ठेकेदारों का और अमीरों का.

राजनीति और लोकतंत्र भी उन्हें बहुमत होने के बावजूद मुक्त न कर सके क्योंकि सरकार शहरियों की बनती और आदिवासियों के चुने लोगों को खरीद कर पालतू बना लिया जाता. 2-3 दशक तक तो आदिवासी चुपचाप देखते रहे, पर बाद में उन में से मुखर लोगों ने हिंसात्मक रुख अपना कर प्रतिशोध लेना शुरू किया. बदले में सरकार ने और अधिक शक्ति का प्रयोग किया. नतीजा यह है कि कल तक के डरपोक आदिवासी आज अपनी सेनाएं बना कर हमले कर रहे हैं.

परेशानी यह है कि सरकार और समाज पूरे मामले को अपने नजरिए से देखते हैं. आदिवासियों को दोवक्त का खाना दे दिया, थोड़ीबहुत पढ़ाई दे दी, कुछ चिकित्सा सुविधा दे दी, क्या काफी नहीं है? जब शहरी शान हर रोज बढ़ रही हो तो इन दबेकुचलों का सम्मान भी बढ़ना चाहिए, पर उस के बदले इन्हें पुलिस और बंदूक को सहना पड़ रहा है.

आदिवासी यह मान कर चल रहे हैं कि सफेदपोश उन्हें कभी न्याय न देंगे और उन्हें जो मिलेगा, लड़ कर मिलेगा, चाहे इस के लिए कितनी जानें जाएं. इन में निर्दोष भी मरेंगे और नीतिनिर्धारक भी.

उन के ताजा हमले के बाद सरकार और ज्यादा क्रूर होगी. अब हैलीकौप्टर ही नहीं, ड्रोन भी इस्तेमाल होंगे. चप्पाचप्पा सैटेलाइटों से देखा जा सकेगा. आदिवासी नक्सल नई तकनीक के आगे भला कितनी देर टिक सकेंगे. उन्हें जो लोकतंत्र दे सकता था, वह भी उन के हाथों से छिन जाएगा. जो नक्सली पक्ष को समझते हैं वे भी उन के इन गुनाहों को अब माफ न कर पाएंगे.

देहदान : परिजनों की आपत्ति पर सरकार सख्त

कोलकाता के जानेमाने कवि सुभाष मुखोपाध्याय और कथाकार व कवि सुनील गंगोपाध्याय जैसे और भी कई विशिष्ट जन से ले कर आमजन भी मरणोपरांत देहदान के लिए वचनबद्ध हुए और इस के लिए कागजी खानापूर्ति भी की. लेकिन ज्यादातर मामलों में पाया गया कि वचनबद्धता के बावजूद पारिवारिक आपत्ति के कारण आखिरकार देहदान नहीं हुआ.

सख्त कानून की तैयारी

साल 2013 में तमिलनाडु सरकार ने मरणोपरांत देहदान संबंधी कानून में संशोधन किया है. गणदर्पण नामक संस्था के अध्यक्ष ब्रज राय का कहना है कि ज्यादातर मामलों में देखा जाता है कि देहदान व अंगदान की वचनबद्धता के बावजूद परिवार की ओर से मृत्यु की खबर संस्था को दी ही नहीं जाती. अकसर ऐसा भी होता है कि खबर देने के बावजूद अंतिम समय में परिवार के सदस्य देहदान से पीछे हट जाते हैं.

अब पश्चिम बंगाल के प्रस्तावित कानून के ड्राफ्ट में इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि अंग व देहदान कर देने के बाद करीबी रिश्तेदारों की आपत्ति को तूल न दिया जा सके. इस के लिए देह व अंगदान के इच्छापत्र के साथ ही संबंधित करीबी रिश्तेदारों को सम्मतिसूचक हलफनामा देना आवश्यक कर दिया जाएगा.

मनोज चौधुरी का कहना है कि जिस तरह तमिलनाडु में कानून संशोधित कर मरणोपरांत देह व अंगदान के रास्ते में आने वाली अड़चन को रोका जा सकता है, हमारी राज्य सरकार भी उसी रास्ते पर चलने की तैयारी में है. अब तक कानून के होते हुए भी मानवीय कारणों से पारिवारिक आपत्ति को मान लिया जाता रहा है पर अब ऐसा नहीं होगा.

क्या कहते हैं आंकड़े

गणदर्पण के अध्यक्ष ब्रज राय का कहना है कि बंगाल में लगभग 3 दशक पहले दकियानूसी विचारों को त्यागते हुए काफी लोगों ने मरणोपरांत नेत्रदान व देहदान करना शुरू किया. राज्य में इस चलन का श्रेय गणदर्पण और उदयेर पथे जैसी स्वयंसेवी संस्थाओं को जाता है. पिछले 3 दशकों में पश्चिम बंगाल में 10 लाख से ज्यादा लोगों ने विभिन्न संस्थानों के जरिए अंगदान व देहदान के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है.

राज्य में अब तक 7 हजार से भी अधिक लोगों ने अंगदान किया है. इस में 3 किडनी दान और 1 लिवर के अलावा शेष नेत्रदान के मामले हैं. 2 हजार मामले मरणोपरांत देहदान के हैं. लेकिन अब तक लगभग 5 हजार से अधिक मामलों में करीबी सगेसंबंधियों की आपत्ति के कारण अंगदान व देहदान नहीं हुआ. इस फेहरिस्त में आम लोगों के साथ विशिष्टजन भी शामिल हैं.

वामपंथी बुद्धिजीवी चिन्मोहन सेहानविश ने देहदान किया था. लेकिन उन की मृत्यु के बाद उन की पत्नी उमा सेहानविश की आपत्ति के कारण चिन्मोहन सेहानविश का श्मशान में अंतिम संस्कार कर दिया गया. इसी तरह 2003 में पश्चिम बंगाल के प्रख्यात वामपंथी कवि सुभाष मुखोपाध्याय की मृत्यु के बाद उन की पत्नी गीता मुखोपाध्याय भी देहदान के लिए तैयार नहीं हुईं और सुभाष मुखोपाध्याय का भी अंतिम संस्कार कर दिया गया.  दिसंबर 2012 में कथाकार व कवि सुनील गंगोपाध्याय की पत्नी स्वाति और पुत्र शौभिक गंगोपाध्याय ने भी यही किया.

देहदान की पृष्ठभूमि

पश्चिम बंगाल में यह धारणा बन चुकी है कि मरने के बाद देह का दाहसंस्कार कर देने या कब्र में सुला देने से कहीं अच्छा है कि वह किसी के काम आ जाए. यानी मृत परिजन का अंग अन्य किसी के शरीर में जीवित रहे. इस की पृष्ठभूमि में जो कारण है उस के पीछे मानवता की महती भावना ही रही है. अंगदान के अलावा देहदान की जरूरत शोध के लिए भी है.

दरअसल, राज्य में 7 सरकारी अस्पताल हैं. इन अस्पतालों के एनाटोमी विभाग में हर साल लगभग 150 मृतदेह की जरूरत पड़ती है. लावारिस लाशों से कुछ जरूरत भले ही पूरी हो जाती है पर वे नाकाफी हैं. यही जरूरत राज्य के देहदान आंदोलन की पृष्ठभूमि बनी. 1990 में राज्य में पहला देहदान हुआ. तब से ले कर अब तक यह संख्या लाखों में पहुंच गई है.

वहीं, जहां तक देश में अंगदान या नेत्रदान का सवाल है तो अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन ने नेत्रदान कर देशवासियों के लिए एक मिसाल कायम की है.

अंग प्रतिस्थापन

विज्ञान की यह बड़ी सफलता ही है कि  मानव शरीर का लगभग हर अंग व हरेक हिस्से का प्रतिस्थापन किया जा सकता है. ऐसे मामले में धनी और रसूख वाले लोगों की जरूरत तो पूरी हो भी जाती है लेकिन गरीब वंचित रह जाता है. उधर, अमीरों के लिए तो तमाम सरकारी व गैरसरकारी अस्पतालों में बाकायदा रैकेट भी चल रहे हैं. गांव के गरीब व भोलेभाले लोगों को बहलाफुसला कर शहर लाया जा रहा है और यहां उन की किडनी झटक ली जाती है.

राह का रोड़ा

देहदान व अंगदान में सब से पहली अड़चन धार्मिक कुसंस्कार है. इस के चलते दान की प्रतिबद्धता के बावजूद मृतक के परिजन इस से पीछे हट जाते हैं. धार्मिक कुसंस्कारों के अलावा जिन परिवारों की ओर से मृत व्यक्ति के देहदान पर आपत्ति की गई है, उन का अपना एक अलग पक्ष है. एक मुखर्जी परिवार का कहना है कि अकसर सुनने में आता है कि दान किए गए अंग समय पर काम में न लाए जाने से लावारिस की तरह पड़ेपड़े नष्ट हो जाते हैं, जो परिजनों के लिए तकलीफदेह बात है. मृतक की देह की दुर्गति के भय से परिजन आखिरकार अंत्येष्टि करने का फैसला करते हैं. खड़दह की पारुलबाला के परिजनों के साथ ऐसा ही हुआ.

खड़दह से कोलकाता और फिर कोलकाता में एक सरकारी अस्पताल से दूसरे अस्पताल के चक्कर काटने और अस्पतालों में कर्मचारियों के दुर्व्यवहार से तंग आ कर पारुलबाला के बेटे ने उन का अंतिम संस्कार कर दिया. शिकायत यह है कि पहले ही परिजन की मृत्यु से टूट चुके परिवार के सदस्यों को देहदान व अंगदान के लिए अस्पताल में दरदर भटकना पड़ता है. गुप्ता परिवार का कहना है कि सरकारी अस्पताल के कर्मचारियों के आचरण से क्षुब्ध हो कर परिजन श्मशान का रास्ता देखने को मजबूर होते हैं.

गौरतलब है कि 2001 में राज्य स्वास्थ्य विभाग की ओर से तमाम सरकारी अस्पतालों को स्पष्ट निर्देश भेजा गया था कि अस्पताल में बौडी ले कर आए परिजनों को किसी तरह की परेशानी नहीं होनी चाहिए. निर्देश में साफसाफ कहा गया कि अगर उस समय अस्पताल खुला न हो तो बौडी स्वीकार करने संबंधी कार्यवाही की जिम्मेदारी मैडिकल कालेज के सुपर की बनती है. मैडिकल कालेज के सुपर की अनुपस्थिति में इस की जिम्मेदारी कनिष्ठ अधिकारी की होगी.

बारी के इंतजार में बाट जोहते लोगों की कतार बहुत लंबी है. यह बात अकेले बंगाल की नहीं, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी कमोबेश ऐसे ही हालात हैं. कुल मिला कर कागजी खानापूर्ति के बाद भले ही लगे कि हम ने कोई बड़ा ही महान काम किया है पर इस अंगदान जैसे महादान को जो सम्मान मिलना चाहिए वह फिलहाल तो नहीं मिल पा रहा है.

यह भी खूब रही

एक बार मैं और मेरे पति नेपाल के गौड़ शहर से बिहार के बैरगिनिया आ रहे थे. हम लोग बैरगिनिया में प्रवेश कर रहे थे कि सीमा सुरक्षा बल के जवानों द्वारा रुकने का इशारा किया गया. जवानों ने कुछ सवाल पूछने के बाद बाइक के कागजात मांगे. इन्होंने कागज घर पर छोड़ आने की बात कही. एक जवान ने मेरी तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘जिस को घर पर छोड़ आना चाहिए उस को साथ ले कर घूम रहे हो और जिस को साथ ले कर चलना चाहिए उस को घर पर छोड़ आए हो.’’ उन की बातें सुन कर हम लोग हंस कर चल दिए.

पारुल देवी, मुजफ्फरपुर (बिहार)

 

हमारे घर के पिछवाडे़ बने कमरे में पापा के औफिस का चपरासी रहता था. एक दिन वह हैंडपंप पर नहा रहा था. उस ने अपनी शर्ट, अहाते में लगे पेड़ की टहनी पर टांग दी थी.

अचानक एक कौआ उड़ता हुआ आया और कमीज की जेब से रुमाल में बंधी नोटों की गड्डी, चोंच में दबा कर उड़ गया और एक अन्य पेड़ पर बैठ गया. उस ने कौए को डराया ताकि वह गड्डी छोड़ दे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अब वह घर से कुछ दूर दूसरे पेड़ पर जा बैठा. चपरासी लकड़ी ले कर उस पेड़ की तरफ दौड़ा. काफी देर बाद कौए की चोंच से नोटों की गड्डी गिरी तो उस ने राहत की सांस ली.

शशि कटियार, कानपुर (उ.प्र.)

 

मेरे एक दोस्त आईआईटी में प्रोफैसर हैं. उन का बेटा प्रत्यूष शंकर पढ़ने में बहुत तेज है. खेल की तरफ भी उस का बहुत रु झान है. एक दिन उस के पापाजी ने कहा कि बेटा, तुम्हारी परीक्षाएं पास आ रहीं हैं. थोड़ी पढ़ाई कर लो.

पापा की बात सुन कर वह कहने लगा, ‘‘पापाजी, हमें समय नहीं है. आप हमारा कोर्स पढ़ लीजिए. हम आप से संक्षेप में सम झ लेंगे.’’ तब प्रोफैसर का मुंह देखने लायक था.

कांति जैन, कानपुर (उ.प्र.)

 

नयानया फेसबुक अकाउंट खोल कर हम दोनों पतिपत्नी बहुत उत्साहित थे. फुरसत पाते ही फेसबुक पर नएनए मित्र बनाने और अन्य जानकारियों को देखने में लगे रहते. बिटिया 10वीं में पढ़ती थी. वह अकसर अपनी पढ़ाई के बारे में पूछती रहती. एक दिन हम कंप्यूटर पर फेसबुक अकाउंट देख रहे थे. बेटी सृष्टि ने 3-4 बार कुछ पूछा पर हम ने अनसुना कर दिया. परेशान हो कर उस ने एकदम से कहा, ‘‘मेरे मम्मीपापा बिगड़ गए.’’

तभी बेटे ने कहा, ‘‘यह भी खूब रही, अब बड़े भी बिगड़ने लगे.’’              

निर्मला राजेंद्र मिश्रा, त्र्यंबक नगर (महा.)

सियासत के सयाने

जाल बिछाना जरूरी है

यहां कांटे से कांटा निकलना जरूरी है

इसलिए जागो यारो

नए दौर में नए तरीके अपनाना जरूरी है

 

चूहों को पकड़ने के लिए

बिल्ली के साथ जाल बिछाना जरूरी है

सियासत के सयाने

अपाहिज, गरीबों को कब्र में दबा जाएंगे

 

शांतिशांति चिल्लाने वाले

बस हाथ मलते रह जाएंगे

इसलिए जागो यारो

जाल बिछाना जरूरी है.

-मंगला रस्तोगी

 

सियासत के सयाने

जाल बिछाना जरूरी है

यहां कांटे से कांटा निकलना जरूरी है

इसलिए जागो यारो

नए दौर में नए तरीके अपनाना जरूरी है

 

चूहों को पकड़ने के लिए

बिल्ली के साथ जाल बिछाना जरूरी है

सियासत के सयाने

अपाहिज, गरीबों को कब्र में दबा जाएंगे

 

शांतिशांति चिल्लाने वाले

बस हाथ मलते रह जाएंगे

इसलिए जागो यारो

जाल बिछाना जरूरी है.

-मंगला रस्तोगी

 

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