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Best Hindi Story : आई लव यू रिमी – रेपिस्ट को सजा दिलाते युवती की कहानी

Best Hindi Story : सबकुछ कितना अच्छा चल रहा था. लोगों की नजरों में हमारी फैमिली परफैक्ट थी. आज उन्हीं लोगों की नजरों में हमारे लिए तिरस्कार था. ऐसा क्या हो गया था?

रिमी 22 साल की हो गई थी. उस की वर्षगांठ पर देने के लिए सुर्ख लाल रंग की जयपुरी प्रिंट की एक चूनर खरीदी थी मैं ने. मुझे पता था कि रिमी को रंगबिरंगे दुपट्टे बहुत पसंद थे और वह इन दुपट्टों को अपने एक कलैक्शन में बहुत सहेज कर रखती थी.

आज सब दोस्तों के बीच होटल प्रेम विलास में रिमी ने केक काटा तो सब से पहला टुकड़ा मुझे खिलाया. वैसे भी, सभी दोस्तों के बीच मेरे और रिमी के रिश्ते की बात छिपी नहीं थी और हम इसे छिपाना भी नहीं चाहते थे. मैं बीकौम के द्वितीय वर्ष में था और थर्ड ईयर के पूरा होते ही कोई जौब तलाश कर रिमी के घरवालों के सामने शादी का प्रस्ताव रख देने का विचार था मेरा.

रिमी केक काटने के बाद गिफ्ट खोल कर देखने लगी और मेरा लाया हुआ दुपट्टा देख व उसे ओढ़ते हुए बोली, ‘‘अरे वाह, यह तो बिलकुल किसी दुलहन के लाल जोड़े के दुपट्टे जैसा है.’’
‘‘हां, दुलहन ही तो हो तुम मेरी,’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा.
शरमा कर रह गई थी रिमी.

मेरे घर वालों को भी एक ऐसी बहू की तलाश थी जो सिर्फ साड़ी पहन कर घर में न बैठे बल्कि बाजार, हाट और बैंक आदि का काम भी बखूबी देख सके और मौका पड़ने पर अपनी व परिवार की सुरक्षा भी कर सके.

रिमी बिलकुल ऐसी ही थी. वह बातचीत में कुशल थी तो घर का कामकाज भी करना जानती थी और अपनी फिटनैस के लिए एक जिम में शाम को वर्कआउट भी करती थी. कुल मिला कर मेरे लिए एक परफैक्ट जीवनसाथी थी रिमी पर अभी तो मेरे बड़े भाई मोहनीश की शादी भी नहीं हुई थी. उन की शादी के बाद ही मैं अपनी शादी के बारे में सोच सकता था.

मोहनीश भैया की उम्र 32 साल, चेहरे का रंग गेहुआं और होंठों पर हमेशा एक चिपकी रहने वाली मुसकराहट उन के व्यक्तित्व का मुख्य हिस्सा थी. महल्ले वालों के बीच बड़े भैया की बहुत अच्छी छवि थी. अपने नाम के अनुसार वे लोगों के बीच अपनेआप को फिल्म ‘हम आप के हैं कौन’ के मोहनीश बहल की तरह एक निहायत ही शरीफ व्यक्ति की तरह प्रस्तुत भी करते थे.

मोहनीश भैया की कई खूबियों में एक खूबी यह भी थी कि वे किसी व्यक्ति की आवाज की नकल हूबहू उतार लेते थे. घर में अकसर वे मां और पापा को हंसाने के लिए अभिनेता दिलीप कुमार और मनोज कुमार की ऐक्टिंग करते और उन की आवाज की नकल करते हुए डायलौग सुनाते. उन के इस टेलैंट का हम सब खूब मजा लेते थे.

मोहनीश भैया हर किसी के काम के लिए सदा तत्पर रहते. भरी दोपहर या देररात किसी के फोन आने पर या किसी भी सहायता के लिए तुरंत जरूरतमंद व्यक्ति के पास पहुंच जाते.

हम 3 भाईबहनों में बड़े भैया मोहनीश के बाद रागिनी दीदी थीं जिन का 29वां जन्मदिन आने वाला था पर इस बार के जन्मदिन को ले कर वे बिलकुल भी उत्साहित नहीं थीं. लड़कियों की उम्र बढ़ने के साथसाथ अगर वे अविवाहित ही रहती हैं तो भला आता हुआ जन्मदिन किसे अच्छा लगेगा और इसीलिए रागिनी दीदी भी अपना जन्मदिन सैलिब्रेट करने के मूड में बिलकुल नहीं दिख रही थीं बल्कि आते दिनों के साथ उन की गंभीरता एक चिड़चिड़ेपन में बदलती जा रही थी.

मुझ में और मोहनीश भैया की उम्र में काफी अंतर था पर हम दोनों, भाई से ज्यादा दोस्त थे और हमारे रिश्ते में यह दोस्ताना लचीलापन बड़े भैया मोहनीश ने ही सिखाया था मुझे. ऐसी कोई बात नहीं थी जो वे मुझ से शेयर न करते थे और मैं भी अपनी सारी व्यक्तिगत बातें उन को बताया करता था.

हमारा रिश्ता इस कदर पारदर्शी था कि वे अपने जीवन में आई हुई महिला मित्रों के बारे में अकसर मुझे बताते और मैं उन के इस तरह से महिला मित्रों से लगातार हुए संबंध और विच्छेद के बारे में प्रश्न खड़ा करता तो वे एक तिरछी सी मुसकराहट के साथ मु?ो बताते कि जीवन का मजा तो उस को पूरी तरह से जी लेने में है. एक जगह रुका हुआ पानी तो सड़ जाता है, इसलिए सतत परिवर्तनशील रहो, ठीक किसी ?ारने की तरह. मोहनीश भैया की ये बातें मेरी समझ में तो न आतीं पर मैं भी ‘हूं’ और ‘हां’ में सिर जरूर हिला देता.

मम्मी और पापा अपने बुढ़ापे को ठीक से गुजारने का प्लान बनाना तो चाहते थे पर रागिनी दीदी की शादी का तय न हो पाना उन के मन में विषाद और दुख को बढ़ा देता था. मोहनीश भैया की शादी के लिए तो कई लड़की वालों के रिश्ते आ चुके थे पर वे हर बार लड़की न पसंद आने का बहाना बना देते थे. हालांकि मुझे पता था कि वे शादी ही नहीं करना चाहते थे. उन का मानना था कि वे किसी एक खूंटे से बंध कर रहने वालों में से नहीं हैं पर अपनी इस बात को उन्होंने मुझ तक ही सीमित रखा था.

पूरे महल्ले में हमारा परिवार एक हैप्पी परिवार दिखता था. लोगों को भला और चाहिए भी क्या. मेहताजी के 2 बेटे हैं और एक सुंदर सी बेटी और ये सब सुन कर मां बहुत खुश हो जातीं और उस दिन तो वे और भी खुश हो गईं जब रागिनी दीदी को देख कर गए लड़के वालों का फोन आया कि रागिनी दीदी उन्हें पसंद आ गई हैं और वे आती फरवरी में ही शादी करने को तैयार हैं.

‘‘पर इतनी सारी तैयारियां इतने कम समय में कैसे पूरी हो पाएंगी?’’ मां ने खुशीमिश्रित चिंता दिखाई तो मोहनीश ने विश्वास बंधाते हुए मां से चिंता न करने को कहा, ‘‘वक्त पर सब हो जाएगा मां. आप कोई चिंता मत करो.’’ जिस के बदले में मां ने मुसकराते हुए स्वीकृति में सिर हिलाया था.

मोहनीश भैया सब को मोटिवेट करने और दिलासा देने का काम बहुत अच्छे ढंग से कर लेते थे. सो, मैं ने अपनी और गर्लफ्रैंड रिमी की एक समस्या का हल मोहनीश भैया से जानना चाहा, ‘‘भैया, जैसा कि आप जानते हैं कि रिमी फिट रहने के लिए मेरे साथ जिम जाती है. लेकिन पिछले कुछ समय से उस का वर्कआउट करने का मोटिवेशन खत्म सा हो रहा है. इसी कारण वह जिम जाने से आनाकानी कर रही है.’’
मोहनीश भैया ने थोड़ा सोचते हुए कहा, ‘‘जरूरी नहीं कि खूबसूरत लोगों के पास जिम जाने की हिम्मत भी हो.’’

उन की यह बात सुन कर मैं थोड़ा चौंका तो वे अचकचा सा गए और इधरउधर की बातें करने लगे.

इतने में मेरे मोबाइल पर एक कौल आ गई और मैं फोन पर व्यस्त हो गया. जिम के मोटिवेशन वाली बात आईगई हो गई.

आज सुबह से ही रागिनी दीदी अपने फोन पर बात करते हुए दिख रही हैं. निश्चित ही अपने होने वाले पति से उन की हायहैलो हो रही है और इस बातचीत करने के चक्कर में आज भी उन्हें अपने औफिस जाने में देर हो जाएगी और आज ही मां और पापा को अपने ब्लडशुगर की नियमित होने वाली जांच के लिए अस्पताल भी जाना है.
‘‘बेटा, यूनिवर्सिटी जाते समय हमें रूमीगेट इलाके में डाक्टर गुप्ता के अस्पताल के पास छोड़ देना. वहां से हम दोनों टहलते हुए क्लीनिक पहुंच जाएंगे,’’ मां ने मु?ा से कहा तो मैं ने स्वीकृति में सिर हिला दिया और गाड़ी गैराज से बाहर निकाल कर उसे साफ करने लगा.

रागिनी दीदी, मैं और मांपापा घर से बाहर थे और घर में मोहनीश भैया ही रह गए थे जिस का मतलब साफ था कि दूध वाले के आने पर दूध उन को ही लेना होगा और उसे गरम कर के फ्रिज में रखना भी होगा.

मांपापा को अस्पताल छोड़ कर मैं यूनिवर्सिटी पहुंचा पर काफी देर तक इंतजार करने के बाद भी रिमी नहीं आई. रिमी ऐब्सैंट तो नहीं रहती है और यदि उसे नहीं आना होता तो मु?ो जरूर बताती, यह सोच कर मैं ने उस से बात करने के लिए मोबाइल निकालना चाहा पर यह क्या, मोबाइल तो शायद मैं घर पर ही भूल आया था.

आजकल हमें मोबाइल की इतनी आदत हो गई है और अगर कोई व्यक्ति अपना मोबाइल घर में भूल जाए तो उस का समूचा अस्तित्व ही डांवांडोल सा होता प्रतीत होता रहता है और वह अपनेआप को पूरे समाज से कटा हुआ महसूस करता है.

बड़े खीझे मन से मैं ने अपनी क्लासेज पूरी कीं और वापसी में रिमी का हालचाल लेने के लिए उस के घर की ओर रवाना हो गया.

अकसर ही रिमी के घर के दरवाजे पर उस की मां, पापा या रिमी का छोटा भाई मिल जाते थे पर आज तो यहां सन्नाटा छाया हुआ था. मकान का गेट और फिर कमरे का छोटा दरवाजा भी बंद था. मेरा मन किसी अनहोनी की आशंका से भर उठा था. कोई भी अनिष्ट सहज ही कोई एहसास सा देने लगता है. कई बार कौलबेल बजाने पर भी दरवाजा नहीं खुला. मेरा मन विचलित हो उठा था. जब कुछ समझ नहीं आया तो मैं दरवाजे के आगे वाली खिड़की के पास जा कर अंदर झांकने लगा और रिमी के नाम की आवाज लगाई.

कुछ देर बाद दरवाजा खुला. सामने रिमी का छोटा भाई खड़ा था. उस के चेहरे पर गुस्से के भाव देख कर कुछ समझ नहीं आया. मैं उसे साइड में हटा कर अंदर चला गया. सामने कोई भी नहीं नजर आ रहा था. मैं ने नजर घुमाई.

रिमी के कमरे से घुटीघुटी सी रोने की सी आवाज आ रही थी. मैं कमरे में प्रवेश कर गया. कमरे के अंदर का मंजर अजीब था. रिमी के बाल बिखरे हुए थे. उस के चेहरे पर चोट और खरोंच के निशान थे. वह लगातार रोए जा रही थी. उस की मां ने मु?ो घृणा से देखा और छाती पीट कर विलाप करने लगी.

‘‘क्या, क्या हुआ, रिमी?’’ बड़ी मुश्किल से अस्फुट स्वर में बोल सका मैं.

मेरे सवाल का जवाब किसी ने नहीं दिया. मैं ने फिर वही सवाल दोहराया तो रिमी के पापा, जो अब तक किसी उधेड़बुन में पड़े हुए थे, ने मेरे सीने पर हाथ मारते हुए कहा, ‘‘जैसे तुम्हें कुछ पता नहीं है कि उस के साथ क्या हुआ है?’’

यह सुन कर मेरे चेहरे पर कई प्रश्नचिह्न आतेजाते रहे पर कमरे का माहौल गमगीन और रुदन भरा था.

मैं भी इस तरह के अजीब व्यवहार से परेशान हो चुका था. रिमी के पापा से सख्ती पर धीमी आवाज में पूछा, ‘‘पर अंकल, बात है क्या आखिर?’’
‘‘हम लोगों ने रिमी को तुम्हारे निकट इसलिए आने दिया क्योंकि तुम उस से शादी करना चाहते थे पर हमें क्या पता था कि तुम उसे अपने घर बुला कर अपने भाई से रिमी का रेप करा दोगे,’’ इस से आगे वे बहुतकुछ और बोलना चाहते थे पर बोल न सके और फफक कर रोने लगे.

‘रेप’ शब्द ने मेरे अंदर एक भूचाल सा ला दिया. ये रिमी के पापा क्या कह रहे हैं? रिमी का मोहनीश भैया ने रेप किया, वे मोहनीश भैया जिन को मैं अपना आदर्श मानता था, वे मोहनीश भैया जो महल्ले में शराफत की मूर्ति माने जाते थे. नहीं, नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते, जरूर रिमी को कोई गलतफहमी हुई होगी पर रेप जैसे घृणित कृत्य में गलतफहमी कैसी? पर हां, पिछले दिनों उन की बातों से रिमी की खूबसूरती के प्रति आसक्ति भी ?ालक रही थी.

मोहनीश भैया की छवि मेरे सामने ध्वस्त होने लगी थी. हजारों जहर की सूइयां एकसाथ मेरे कलेजे में घोंप दी गई थीं. मेरी नजर रिमी के चेहरे पर गई. अब मुझे घर का सारा परिदृश्य समझ में आने लगा था.

रिमी से बात कर पाना तो मेरे लिए संभव न था और घर के सभी लोगों की नफरतभरी नजरों का सामना भी नहीं कर पा रहा था मैं, मुझे समझ में आ चुका था कि रिमी के साथ हुए कृत्य का जिम्मेदार ये लोग मुझे ही समझ रहे हैं पर मैं तो निर्दोष था पर इस समय मैं यहां रुकूं या जाऊं, कुछ समझ नहीं आया तो मैं ने रिमी के पास जा कर उस के कंधे पर हाथ रखा और उस की आंखों में झांकने की कोशिश की, पूछा, ‘‘कैसे क्या हुआ?’’

रिमी की आंखें अंगारों सी हो रही थीं. बहुत प्रयास करने के बाद हिचकीभरे स्वर में वह बोली, ‘‘मुझे अकेले घर बुला कर…?’’
आगे कुछ न कह सकी थी रिमी, स्वर हिचकियों में बंध गया था.

मैं हैरान था, आज तो रिमी से मेरी बात ही नहीं हुई. थोड़ी देर चुप रहने के बाद मैं ने कुछ सोच कर रिमी के मोबाइल की कौल डिटेल्स देखी. रिमी ने मुझे आज सुबह 10.30 पर कौल किया और कौल समरी दिखा रही थी कि मेरे मोबाइल से मेरे घर में किसी की बात भी हुई थी पर मैं तो अपना मोबाइल घर पर ही भूल गया था.

मैं सारे बिखरे तार जोड़ने लगा था. रिमी ने मुझे फोन किया तो क्या मोहनीश ने मेरे फोन से बात की है, मैं ने तुरंत कौल रिकौर्डिंग सुननी शुरू कर दी और जल्द ही मुझे पता लग गया कि मोहनीश भैया ने रिमी का नंबर देख कर उस से बात की है और वह भी मेरी आवाज की नकल कर के उन्होंने रिमी को घर पर आने को कहा और यह भी कहा कि रिमी के आते ही वे लोग यूनिवर्सिटी के लिए निकल लेंगे.

रिमी ने मोहनीश की आवाज को मेरी आवाज समझ कर भरोसा किया और घर चली आई होगी.

हालांकि मैं ने इस घटना की कडि़यां तो जोड़ ली थीं पर मोहनीश भैया, जिन्हें भैया कहने में मुझे घिन आ रही थी, मेरा मन कर रहा था कि मोहनीश के चेहरे पर जा कर थूक दूं, शराफत का झुठा चोला ओढ़ कर कितनी गंदगी भर रखी थी मोहनीश ने. निश्चित रूप से अंदर से उन की मानसिकता विकृत ही थी, तभी तो वे शादी नहीं करना चाह रहे थे पर ये सब बातें तो एक तरफ पर वे मेरी महिला मित्र के साथ ही रेप करेंगे, यह तो सोचा भी नहीं था.

उन्होंने ऐसा किया है तो उन को इस कृत्य की सजा मिलनी ही चाहिए पर सजा देने के लिए तो हमें कानून का सहारा लेना होगा और कानून हमारी मदद करे, इस के लिए सही सुबूत पुलिस को देने होंगे. कोई भी रेप पीडि़ता सब से पहले यही गलती करती है कि वह अपने साथ हुए कुकृत्य के कारण परेशान हो कर नहा लेती है या अपनेआप को धो डालती है जिस से उस के शरीर पर हिंसा और चोट के मौजूद सुबूत नष्ट हो जाते हैं.
‘‘हमें पुलिस बुलानी होगी,’’ यह कहते हुए मैं ने पूरे अधिकार और दृढ़ता के साथ पुलिस स्टेशन को फोन लगा दिया था.

पुलिस का रवैया ढुलमुल न रहे, इस के लिए मैं ने महिला अधिकार और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने वाली एक एनजीओ को भी फोन कर के बुला लिया था. मेरी यह सारी कार्यवाही देख कर रिमी के चेहरे पर लाचारी की जगह एक दृढ़ता ने ले ली थी जिस का मतलब साफ था कि वह पुलिसिया कार्यवाही से बिना घबराए मोहनीश के खिलाफ बयान देने के लिए तैयार है.

पुलिस ने आ कर रिमी से पूछताछ की और मेरे सम?ाए अनुसार रिमी ने बताया कि यह मोहनीश ही था जिस ने रिमी को मेरी आवाज निकाल कर उसे घर में बुला कर उस के साथ गलत काम किया.

पुलिस ने रिमी के बयान ले कर केस दर्ज करते हुए फौरन मोहनीश भैया को गिरफ्तार कर लिया.

पर मात्र गिरफ्तारी ही रिमी के दिल को ठंडक नहीं देने वाली थी. वह तो मोहनीश को सजा दिलाना चाहती थी पर अदालती कार्यवाही की प्रक्रिया लंबी चलती है, इसलिए रिमी को धैर्य रखना था.

एक रेपिस्ट के घृणित कृत्य के बाद उस के परिवार को क्याक्या भुगतना पड़ता है, यह हमें अब पता चल रहा था क्योंकि मेरे मांपापा से महल्ले वालों ने दूरी बना ली थी, रागिनी दीदी को यह कह कर नौकरी से निकाल दिया गया कि हम एक रेपिस्ट की बहन को काम पर नहीं रख सकते और फिर एक शाम को रागिनी दीदी के मोबाइल पर उन के होने वाले हसबैंड का फोन आया कि वे रागिनी दीदी से शादी नहीं कर सकते. बेचारी दीदी अवसाद में आ चुकी थीं.

मेरे दोस्त भी मुझ से कन्नी काटने लगे थे. मेरा ग्रेजुएशन पूरा नहीं हो सका और मैं ने पढ़ाई छोड़ कर एक कार के शोरूम में प्राइवेट नौकरी कर ली.

रिमी केस की हर तारीख पर कोर्ट जाती रही और बेबाकी से वकीलों के हर उलटेसीधे सवाल का जवाब देती रही, साथ ही, समाज की चुभती नजरों का सामना भी बखूबी किया रिमी ने. रिमी के रवैए ने समाज को एहसास कराया कि यदि उस के साथ रेप हुआ है तो इस में गलती रेपिस्ट की है, न कि रिमी की और इस बात की सजा भी रेपिस्ट को ही मिलनी चाहिए.

यह रिमी की साधना का ही परिणाम था कि पूरे 2 साल बाद मोहनीश को रेप के केस में कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी. रिमी के उदासीभरे चेहरे पर संतुष्टि का भाव तो जरूर था पर भला इन बीते 2 वर्षों में रिमी और उस के परिवार ने जो कुछ भी खोया था उस की भरपाई तो कोई भी नहीं कर सकता था. खोया तो मेरे परिवार ने भी बहुतकुछ था- मानसम्मान, रिश्तेनाते और दीदी की नौकरी भी तो मोहनीश के इस कृत्य के कारण ही गई थी.

उधर रिमी समाज के तानों से डरी नहीं, दबी नहीं और न ही उस ने आत्महत्या जैसा कोई कायराना कदम भी न उठाया. बस, यही उस की जीत थी. आज समाज और मोहनीश जैसे भेडि़यों का कद रिमी के सामने बौना हो गया था.

आज मैं रिमी के घर पहुंचा था. मैं ने खुद ही किचन में जा कर चाय बनाई और रिमी की तरफ बढ़ा दी, रिमी की मां और पापा ने चाय पीने के लिए पहले से ही मना कर दिया था, सो उन्हें
चाय नहीं औफर की और खुद चाय पीने लगा.

‘‘मोहनीश ने जो किया उस के लिए मैं बहुत शर्मिंदा हूं और आप सब से माफी मांगता हूं, देर से ही सही पर अब जबकि रिमी को इंसाफ मिल चुका है तो ऐसे में रिमी की शादी के लिए…?’’ आगे की बात मैं पूरी नहीं कर सका और चुप हो गया.
मेरे सवाल के बदले में कमरे में एक नीरवता छाई रही.
‘‘समाज, रिश्तेदार और महल्ले के लोगों ने तो हम से दूरी बना ली है और भला एक रेप पीडि़ता से कौन शादी करना चाहेगा?’’ यह रिमी के पापा की मुरझाई सी आवाज थी.
मैं ने अपने साथ लाई हुई जयपुरी प्रिंट की एक सुर्ख लाल रंग की चुनर रिमी के कंधे पर ओढ़ा दी.

रिमी ने चूनर देख कर आंखें बंद कर ली थीं, शायद यह रिमी की स्वीकृति थी. मु?ो लगा कि लाल चुनर के सुर्ख रंग से रिमी पूरी तरह खिल उठी है.
‘‘तुम ने ही तो कहा था कि यह चुनरी तो किसी दुलहन की लग रही है. देखो न, इसे मेरी होने वाली दुलहन ने ओढ़ रखा है,’’ यह कहते हुए मैं ने एक छोटा सा आईना रिमी के चेहरे के सामने
रख दिया.

जिस तरह रात के अंधेरे को चीर कर सुबह का सूरज उदय होता है, रिमी के चेहरे पर भी छिपे दर्द के बीच से एक मुसकराहट उभरती आ रही थी.

अपनी होने वाली पत्नी के लिए मेरी कसौटी अब बदल चुकी थी.

एक पत्नी भले सुंदर न हो, घरबाहर का काम भी न आता हो पर उसे अन्याय और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष करना आना चाहिए, आवाज उठानी आनी चाहिए, हक के लिए लड़ना आना चाहिए.

रिमी बिलकुल ऐसी ही तो थी.

आई लव यू, रिमी.

Artifical Intelligence का डर

Artifical Intelligence : साल 1949 में मशहूर इंग्लिश उपन्यासकार जोर्ज ओरवेल की एक उपन्यास ‘1984’ पब्लिश हुई. कहानी एक ऐसे यूटोपियन सोसाइटी की थी जहां निरंकुश सत्ता लोगों पर अपना नियंत्रण रखती है. नियंत्रण के लिए ‘थिंकपोल’ ईकाई होती है जिस का काम उन लोगों की पहचान करना होता है जो विरोधी विचारों के हैं. यहां तक कि सत्ता ‘न्यूस्पीक’ नाम की भाषा भी विकसित करती है, जिस में ऐसे शब्द हमेशा के लिए मिटा दिए जाते हैं जो सत्ता विरोधी हों या सरकार से मेल न खाते हों. इस के अलावा सरकार लोगों की निजी जिंदगी, सोचने के तरीके, भाषा और इतिहास को नियंत्रित करती है.

यह उपन्यास जब बाजार में आई तो लोकतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास करने वालों को चिंता में डाल गई. चिंता इसलिए, कि क्या हो अगर ये सब सच होने लगे? क्या हो जब उन की पलपल की हरकतों पर गोल्डस्टीन जैसे किसी शासक की नजर हो? क्या हो जब उन का पूरा डाटा सरकार के पास हो? और क्या हो कि जब उन की भाषा, उन के शब्द, उन के विचार सीमित हो जाएं?

सवाल 75 साल पुराने हैं मगर आज 21वीं सदी में आर्टिफिशियल इंटेलिजैंस के दौर में ज्यादा वाजिब बन पड़े हैं. वाजिब इसलिए कि लोगों की निर्भरता इस पर बढ़ती जा रही है. उन की अपनी राय, अपनी समझ और अपने विचार सिकुड़ते जा रहे हैं. लोग हर चीज एआई से पूछ रहे हैं. मानो एआई ‘सर्वज्ञ’ बन पड़ी हो.

कोई उपयोगकर्ता एक्स पर अपना ट्वीट एआई की मदद से करता है तो दूसरा कमेंट में फैक्ट चेकिंग के लिए एआई से ही पूछ रहा है. लोग अपना ईमेल, पत्र, डिजाइन, ट्रांसलेशन, जानकारी लेना, जो बन पड़ता है सब एआई से कर रहे हैं. एआई सवाल पैदा कर रहा है और उस सवाल का जवाब भी खुद ही दे रहा है. इस ने लोगों के विवेक और विश्लेषण पर हमले करने शुरू कर दिए हैं. एक तरह से लोगों को निष्क्रिय कर दिया है. यह उन की भाषा, शब्दों की सीमाओं, वाक्यों की फोरमेशन और सब से जरूरी विचारों तक को ओर्गनाइज करने लगा है. यानी सब व्यवस्थित तरीके से. यह व्यवस्थित तरीका ही पहला हमला है सोच पर.

समस्या यह कि एआई वही जानकारी लेता है जो वह इंटरनेट से ढूंढता है. उस का सहीगलत इंटरनेट के विवेक पर ही है. यानी इंटरनेट पर यदि कोई राय बदल दी जाए तो वह उसी राय को आम लोगों में बांटने लगेगा.

मगर इस की खतरनाक संभावना अभी बाकी है. संभावना उस समाज की जहां उपन्यास ‘1984’ का यूटोपिया समाज सामने बनते दिखता है. यानी सत्ता की भूमिका. सरकार या कुछ गिनेचुने टैक जाइंट्स, जो इस एआई को चला रहे हैं, उन के पास लोगों की क्या कुछ जानकारी नहीं है, यह सोच से भी बाहर है. वे सब जानते हैं. वे जानते हैं कि नंबर ‘1’ को कौन से रंग के जूते पसंद हैं, नंबर ‘2’ के फ्रीज में क्या पड़ा है, नंबर ‘3’ का किस से प्रेम संबंध है, नंबर ‘4’ के घर में किस तरह का लिटरेचर है और नंबर ‘5’ की विचारधारा क्या है.

आम लोग तो सिर्फ एआई के उपयोगकर्ता हैं, मगर जिन के पास इस का एक्सेस है, वे लोगों के जीवन में एक कुरसी पर बैठे बारीक नजर बना सकते हैं. वे उसी कुरसी से देश भर में लगाए गए लाखों सीसीटीवी कैमरे से सब कुछ देख सकते हैं और उसी कुरसी पर बैठे किसी भी देश में बम गिरा सकते हैं. एआई का डर इस का ‘गोल्डस्टीन’ बन जाना है.

Prenuptial Agreement : विवाहपूर्व अनुबंध यानी प्रीनप एग्रीमैंट

Prenuptial Agreement : देश में तेजी से तलाक के मामले बढ़ रहे हैं. अदालत से ले कर परिवार तक हर किसी की मंशा तलाक को बुरा साबित करने की होती है. जबकि बढ़ते तलाक बढ़ती जागरूकता की निशानी हैं. इस में प्रीनप यानी विवाहपूर्व अनुबंध कैसे सहायक हो सकता है, आइए, जानें.

मैं शोभित कुमार पुत्र श्री राजीव कुमार और अर्पिता कुमारी पुत्री श्री राजीव कुमार, उम्र वयस्क, निवासी भोपाल आज एक खास मकसद से यह अनुबंधपत्र साइन कर रहे हैं. हम दोनों एकदूसरे से बेहद प्यार करते हैं और जल्द ही शादी करने का फैसला ले चुके हैं. शादी के बाद भी हमारी जिंदगी इसी तरह हंसीखुशी और तनाव व विवाद रहित गुजरे, इस के लिए हम दोनों विवाहपूर्व इस अनुबंध की कुछ शर्तें संयुक्त रूप से जिन्हें वचन कहा जा सकता है, एकदूसरे को स्वस्थ मन से पूरे होशोहवास में बिना किसी दबाब के स्वीकार कर रहे हैं.यह अनुबंध इसलिए भी कि कल को हम दोनों के बीच ऐसे कोई विवाद या मतभेद होते हैं जो इन शर्तों का उल्लंघन करते हुए हों तो हम दोनों एकदूसरे को यह याद दिला सकें कि हम ने और तुम ने ऐसा कहा था या नहीं कहा था.

मैं शोभित कुमार पक्ष क्रमांक -1 और अर्पिता कुमारी पक्ष क्रमांक -2 पूरे आत्मविश्वास से घोषित कर अनुबंधित होते हैं कि-

1. हम कभी भी एकदूसरे की आजादी में दखल नहीं देंगे बशर्ते वह हमारे वैवाहिक जीवन को किसी भी रूप में बाधित न करती हो.

2. शादी के बाद पक्ष क्रमांक 1 शोभित, पक्ष क्रमांक 2 अर्पिता को बाध्य नहीं करेगा कि वह उस के पेरैंट्स के साथ उन के घर में ही रहे. लेकिन शुरू के 3 साल हम पेरैंट्स के घर में ही रहेंगे, ऐसा हम दोनों ने तय कर सहमति जताई है. इस दौरान पक्ष क्रमांक 2 साल में 2-3 बार मायके जाने को स्वतंत्र रहेगी. आनेजाने का पूरा खर्च वह अपनी सैलरी से उठाएगी.

3. घर पर हम दोनों का खर्च हम दोनों ही मिल कर उठाएंगे जोकि सैलरी का फिफ्टीफिफ्टी होगा न कि कुल खर्च का फिफ्टीफिफ्टी. अगर मेरी सैलरी 1 लाख रुपए है तो मैं उस में से 50 हजार दूंगा और अर्पिता की सैलरी अगर 80 हजार रुपए महीना है तो वह 40 हजार रुपए देगी. बाकी बचे पैसों में से हम दोनों जैसे चाहें अपनी मरजी से खर्च कर सकेंगे, फिर चाहें तो उस की सेविंग्स करें, कहीं इन्वैस्ट करें या फिर मौजमस्ती में उड़ा दें. इस पर दूसरा पक्ष एतराज नहीं जताएगा. हां, कुछ गलत लगे तो समझ जरूर सकता है लेकिन यह समझाइश बाध्यकारी नहीं होगी.

4. हम दोनों जो भी संपत्ति खरीदेंगे वह संयुक्त होगी जिस में दोनों बराबरी से अपनाअपना पैसा मिलाएंगे. संपत्ति दोनों की सहमति से ही खरीदी जाएगी. संपत्ति या वाहन के लिए लोन भी संयुक्त रूप से ही लिया जाएगा और संयुक्त रूप से ही चुकाया जाएगा.

5. शादी के 5 साल बाद तक हम बच्चा प्लान नहीं करेंगे. बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए हम एक संयुक्त बैंक अकाउंट अलग से खोलेंगे जिस में दोनों 10-10 हजार रुपए महीना डालेंगे. इस राशि को निकालने का अधिकार दोनों में से किसी एक को नहीं रहेगा. जरूरत पड़ी तो इसे निकालने के लिए दोनों की सहमति आवश्यक होगी.

6. अगर भविष्य में कभी हम दोनों के बीच किसी तरह का मनमुटाव या मतभेद होते हैं तो हम उन्हें आपसी बातचीत के जरिए सुलझने की कोशिश करेंगे. अगर नहीं सुलझते हैं तो हम बिना किसी हिचक के स्वस्थ मन से अलग हो जाएंगे और अगर तलाक लेने की नौबत आती है तो कोर्ट में एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप न लगा कर सहमति से हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 13 बी के तहत तलाक लेंगे. तलाक के बाद किस का क्या होगा और किस को क्या मिलेगा, यह सिर्फ हम दोनों तय करेंगे. अमूमन यह फिफ्टीफिफ्टी ही होगा.

7. पक्ष क्रमांक 2 अर्पिता तलाक के वक्त या बाद में भरणपोषण या गुजारा भत्ते का दावा नहीं करेगी क्योंकि वह खुद नौकरीपेशा है.

8. वैसे हम दोनों की पूरी कोशिश यह रहेगी कि तलाक न हो लेकिन अगर होता है, और बच्चे के जन्म के बाद होता है तो वह पक्ष क्रमांक 2 के पास रहेगा जो कभी पक्ष क्रमांक 1 को बच्चे से मिलने से रोकेगी नहीं. तलाक को हम दोनों बतौर दुश्मनी नहीं बल्कि बतौर दोस्त लेंगे. बच्चे का आधा खर्च पक्ष क्रमांक 1 वहन करेगा.
आज दिनांक ………… को हम दोनों ने अपनेअपने गवाहों के सामने दस्तखत किए ताकि सनद रहे और वक्तजरूरत काम आए. इस अनुबंध की एकएक प्रति हम दोनों ने अपने पास रखी है. हम दोनों ही अनुबंध की शर्तों का पूरी ईमानदारी से पालन करेंगे.
हस्ताक्षर पक्ष क्रमांक -1 हस्ताक्षर पक्ष क्रमांक -2.
गवाहों के हस्ताक्षर मय पूरा नाम, पता व मोबाइल नंबर सहित.
गवाह क्रमांक -1 गवाह क्रमांक -2

(अगर इस तरह का कोई अनुबंध इस शोभित और अर्पिता ने प्यार करने के दौरान किया होता तो क्या आज वे इतनी तकलीफें भुगत रहे होते जिन की उम्मीद भी उन्होंने नही की थी. इस तरह का अनुबंध जिसे प्रीनप या प्रीनप्शल एग्रीमैंट भी कहा जाता है भारत में कानूनी तौर पर मान्य नहीं है, इसलिए चलन में भी नहीं है. लेकिन यह अगर किया जाए तो पतिपत्नी कई दुश्वारियों से बच सकते हैं. वजह, यह एक नैतिक दबाब का काम तो करेगा. मुमकिन है अदालत भी इस पर गौर करे. खैर, आगे हम 2 मामले विस्तार से बता रहे हैं जिन में पतिपत्नी तलाक की कगार पर हैं)

25 साल का वह हट्टाकट्टा स्मार्ट नौजवान बिलकुल टूटा हुआ लग रहा था. सुर्ख गुलाबी रंगत वाले चेहरे पर बेतरतीब बढ़ी दाड़ी, सूखे होंठों पर बारबार जीभ फेरता वह शहर के नामी वकील के चैंबर की कुरसी में धंसा उन के सवालों का अटकअटक कर जवाब देते कई बार असहज हो जाता था, तब नजदीक की कुरसियों पर स्लेट सा चेहरा लिए बैठे उस के मम्मीपापा उसे हिम्मत बंधाते थे.

मामला एक और तलाक का था जिस की अपनी अलग कहानी थी. इस युवा नाम मान लें शोभित ने अब से कोई 6 साल पहले अर्पिता नाम की अपनी सहपाठी से शादी की थी. इस लव मैरिज की खास बात यह थी कि दोनों को फर्स्ट ईयर में ही प्यार हो गया था. ठीक वैसा ही जैसा ‘बौबी’ फिल्म में ऋषि कपूर को डिंपल कपाडि़या से और लव स्टोरी में कुमार गौरव और विजयेता पंडित को हुआ था.

दोनों की जातियां अलगअलग थीं. शोभित ठाकुर खानदान का था तो अर्पिता ब्राह्मण. दोनों के ही पेरैंट्स खासे इज्जतदार, पैसे वाले, दिखनेदिखाने में आधुनिक थे लेकिन हकीकत में एक हद तक परंपरावादी थे. लव मैरिज के खिलाफ थे या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता लेकिन दोनों ही युवाओं ने अपने मांबाप पर भरोसा नहीं किया था और गुपचुप कोर्ट में शादी कर ली थी.

दिलचस्प बात यह है कि दोनों को इतना ज्ञान तो मिल चुका था कि बाद की जिंदगी आसान नहीं रहेगी क्योंकि पैसों के लिए पेरैंट्स की मुहताजी थी. शादी कर शोभित अर्पिता को ले कर फिल्मी स्टाइल में घर पहुंचा तो कैब से उतरते वक्त उस के पैर कांप रहे थे. पता नहीं मम्मीपापा का रिऐक्शन क्या होगा, रखेंगे या घर से निकाल देंगे. हुआ वही जो आज के पेरैंट्स की मजबूरी होती है. थोड़े से सवालजवाबों और नाराजगी के बाद घर में एंट्री दे दी गई.

मांबाप दोनों हालांकि सदमे की सी हालत में थे लेकिन खुद को काबू में किए रहे थे क्योंकि अब कुछ नहीं हो सकता था और जो हो सकता था वह करने की उन में न हिम्मत थी और न ही इच्छा थी.

उन के सामने अपनी दुनिया और समाज थे जिसे मैनेज करने के लिए अगले सप्ताह ही एक नामी होटल में शानदार रिसैप्शन दे दिया गया. अर्पिता के पेरैंट्स और कुछ रिश्तेदार भी उस में शामिल हुए लेकिन साफ दिख रहा था कि राजीखुशी नहीं हुए थे. उन्होंने बेटी को भोपाल भेजा था पढ़ने के लिए पर वह शोभित पर कुछ ऐसे मरमिटी थी कि पढ़ाई, कैरियर वगैरह सब प्यार के हवनकुंड में स्वाहा हो गया था जिस में आहुति शोभित ने भी दी थी.

तमाम दुश्वारियों के बाद भी यह नया ताजा कपल सभी को पसंद आया था. हालांकि उन की मासूमियत और बौडी लैंग्वेज बता रही थी कि वे अपनी अपरिपक्वता और उस के नतीजों से अभी वाकिफ नहीं हैं. स्टेज पर दोनों एकदूसरे में खोए हुए, एकदूसरे से सटे हुए दीनदुनिया से बेखबर मेहमानों का आशीर्वाद और उपहार लिए जा रहे थे मानो उन्हें सबकुछ मिल गया हो.

शोभित को पेरैंट्स पर गर्व हो रहा था जिन्होंने उस से कहा था कि ठीक है जो हुआ सो हुआ लेकिन अब दोनों पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान दो. अर्पिता के पेरैंट्स और रिश्तेदार कुछ सस्तेमहंगे उपहार बेटीदामाद को दे कर चलते बने. उन्हें अपनी बेटी के भविष्य को ले कर बेफिक्री नहीं थी जिस ने हमेशा अपने मन की की थी, कभी किसी की नहीं सुनी थी और शादी की इतनी जल्दी थी कि अपने बालिग होने के दूसरे दिन ही शादी कर ली थी.

शोभित के पेरैंट्स ने बेमन से ही सही अर्पिता को अपना लिया था. बेटाबहू दोनों अब साथसाथ कार से कालेज जाते थे जिस का खर्च भी पढ़ाई की तरह वे ही उठा रहे थे लेकिन अर्पिता के खर्चे शाही थे. नौकरीपेशा औफिसर सास से जबतब शौपिंग के लिए पैसे मांग ले जाती थी. मौजमस्ती और दूसरे शौक भी उन्हीं की कमाई से पूरे होते थे.

शादी के दूसरे साल यानी सैकंड ईयर में ही अर्पिता प्रैंगनैंट हो गई. जल्द ही उस ने एक खूबसूरत बेटे को जन्म दिया. अब शोभित के पेरैंट्स पर एक नई जिम्मेदारी आ गई लेकिन वे खुश थे क्योंकि उम्मीद से कम वक्त में दादादादी बन गए थे. नए बच्चे में उन का सारा वक्त बीतने लगा.

क्या आप दोनों ने बच्चे की बाबत भी जल्दबाजी नहीं की, वकील साहब ने शोभित से सवाल किया तो वह फिर सकपका गया. सिंह दंपती को भी समझ नहीं आया कि इस सवाल से तलाक के मुकदमे का क्या संबंध हो सकता है.

विवाद बढ़ने के बाद अर्पिता बच्चे को साथ ले कर अलग रहने लगी थी. बच्चा होने के बाद की कहानी अलगाव और तलाक के आम किस्सों जैसी ही थी जिस में हुआ इतनाभर था कि अर्पिता जम कर कलह करने लगी थी. अलग रहने की जिद पर अड़ गई थी तो शोभित के पेरैंट्स ने उन्हें अलग फ्लैट खरीद कर दे दिया था ताकि रोजरोज की कलह से मुक्ति मिले.

पर कलह खत्म नहीं हुई क्योंकि डिग्री लेने के बाद भी शोभित को नौकरी नहीं मिली थी. लिहाजा, बातबात पर पैसा मम्मीपापा से ही लेना पड़ता था जो आमतौर वे दे देते थे. फ्लैट में शिफ्ट होने के बाद भी संबंध खत्म नहीं हुए थे. सिंह दंपती पोते का मोह नहीं छोड़ पा रहे थे, इसलिए जबतब फ्लैट पर पहुंच जाते थे, बच्चे के साथ खेलते थे और उसी के नाम पर पैसे भी दे आते थे.

बच्चा पैदा करना अर्पिता की जिद थी, शोभित बोला उस का कहना था कि इस से मम्मीपापा को खुशी मिलेगी और हमारे बीच बौंडिंग बढ़ेगी. जवाब सुन कर वकील साहब ने सिर सा पकड़ लिया और बोले, आप लोग शुरू से ही उस लड़की की चालाकी का शिकार होते रहे हैं. उस ने शादी के लिए जल्दबाजी की. फिर बच्चे के लिए की और अलग हो गई. इस से बौंडिंग बढ़ी या खत्म हुई.

अब इतना हो सकता है कि आप लोग बच्चे का मोह छोड़ें और लड़की के खिलाफ सबूत जुटाएं. इस हफ्ते मुकदमा दायर हो जाएगा, वकील साहब ने बात कुछ इस अंदाज में कही थी कि अब आप लोग बढ़ लो. मुकदमे का ड्राफ्ट तैयार होते ही आप लोगों को बुला लिया जाएगा.

अब याद करने से क्या फायदा

बुझे मन से शोभित मम्मीपापा के साथ घर आ गया और अपने कमरे में बंद हो गया. बिस्तर पर पड़ेपड़े वह याद कर रहा था कि शादी के पहले अर्पिता उस की हर शर्त और बात पर थोड़ी सी नानुकुर के बाद राजी हो जाती थी. मसलन यह कि हम लोग जिंदगीभर मम्मीपापा के पास ही रहेंगे, उन की सेवा करेंगे, अपने खर्चे के लिए उन से ज्यादा पैसे नहीं लेंगे यानी उन पर बोझ नहीं डालेंगे और अहम बात, बच्चा तभी प्लान करेंगे जब दोनों या दोनों में से कोई एक कमाने लगेगा.

अब उसे अपनी बेवकूफी और बेबसी पर खीझ हो रही थी कि कैसे वह अर्पिता की धूर्तता का शिकार होता रहा था. वह अव्वल दर्जे की चालाक निकली जो अब 50 लाख रुपए और फ्लैट अपने नाम चाह रही है. 2 बार थाने में घरेलू हिंसा और प्रताड़ना की रिपोर्ट लिखा चुकी है और अब मैंटिनैंस का भी मुकदमा ठोंक दिया है.

वकील लोग लाख हिम्मत बधाएं कि कुछ नहीं होगा, ऐसे मामलों में तो ये बातें आम हैं. हम तो दिनरात यही सब तमाशे देखते रहते हैं, तुम्हें या तुम्हारे पेरैंट्स को कोई गुजाराभत्ता नहीं देना पड़ेगा क्योंकि तुम्हारी कोई आमदनी या रोजगार नहीं है. हम सब संभाल लेंगे.

पर शोभित का दिल संभालने वाला कोई न था जिस के दिमाग में रहरह कर यह खयाल कौंध रहा था कि उसे शादी से पहले ही अर्पिता से वह सब लिखवा लेना चाहिए था जिस पर उस ने हामी भरी थी और अब सरासर मुकर रही है. उस कागज को वह वकील और जज को दिखाता तो एक झटके में उस की हकीकत सामने आ जाती और तलाक भी आसानी से मिल जाता.

हैरानपरेशान शोभित जो सोच रहा है वही वे लाखों लोग सोचते हैं जिन की वैवाहिक जिंदगी, वजह कुछ भी हो, टूटने की कगार पर है. साथी की वादाखिलाफी, बेवफाई और किसी भी किस्म की बेईमानी कैसे आदमी को तोड़मोड़ कर देती है, यह तो शोभित जैसे पीडि़त ही बता सकते हैं या फिर इंदौर की नेहा जैसी युवतियां जो बहुत परिपक्व और अच्छे जौब में हैं. नेहा ने अपने सहकर्मी रांची के असित से बेंगलुरु में शादी की थी. लेकिन दोनों ने पेरैंट्स की अनुमति और सहमति ले ली थी जो एक तरह की फौर्मेलिटी थी.

शुरू से अकेले रहने की आदी रही नेहा ने असित को 3 साल डेट किया था. इस दौरान दोनों समझ रहे थे कि उन्होंने एकदूसरे को इतना तो समझ लिया है कि शादी के बाद कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी. एकएक बात पर दोनों एकमत हुए थे, मसलन घर का किराया कौन देगा, किस की सैलरी में कितनी सेविंग अलगअलग और संयुक्त होगी, पैसा कहांकहां इन्वैस्ट किया जाएगा, रिश्तेदारी कितनी और कैसे निभाई जाएगी और बच्चा कब पैदा करेंगे वगैरहवगैरह.

असित अपने घर वालों को बहुत चाहता, इसलिए नेहा को शक था कि शादी के बाद कहीं वह अपनी विधवा मां को बेंगलुरु न ले आए. इसलिए उस ने एक नहीं बल्कि दर्जनों बार असित को बता दिया था कि वह किसी के साथ भी रहना अफोर्ड नहीं कर सकती.

इस से उसे असुविधा ही नहीं बल्कि कोफ्त भी होती है. तुम्हारी मां आए, साल में दोचार दिन साथ रहे, यहां तक तो मैं झेल लूंगी लेकिन इस से ज्यादा मैनेज नहीं कर पाऊंगी. इसलिए अच्छी तरह सोच लो, बाद में मुझे दोष मत देना.

असित को नेहा की यह बात यानी साफगोई भी अच्छी लगी थी और उस ने नेहा को आश्वस्त किया था कि ऐसा कुछ नहीं होगा. मां को यहां लाने का उस का कोई इरादा नहीं है और वे खुद भी रांची नहीं छोड़ने वाली. सबकुछ तय हो जाने के बाद शादी हो गई और दोनों अपनेअपने फ्लैट छोड़ कर नए फ्लैट में आ गए. शुरुआती दिन तो गृहस्थी जमाने और शौपिंग में बीत गए. हनीमून प्लान के मुताबिक मनाली में मनाया गया जिस में दोनों ने आधाआधा खर्च उठाया.

3 साल बेहद अच्छे गुजरे. दोनों खुश थे कि तभी असित की मां यों ही घूमनेफिरने के इरादे से बेंगलुरु आ गई. नेहा ने उन का यथासंभव ध्यान रखा क्योंकि वे वाकई में 8 दिनों के लिए आई थीं. लेकिन रांची वापस जाने के कुछ दिनों बाद उन्होंने स्थाई रूप से बेंगलुरु आने की इच्छा जताई तो असित घबरा उठा. मन में इच्छा थी कि अगर नेहा मान जाए तो कितना अच्छा रहेगा, मां का साथ मिल जाएगा जिन्होंने पापा की मौत के बाद उस की पढ़ाईलिखाई के लिए क्या नहीं किया. नानाजी से मिला जमीन का एक टुकड़ा था, वह भी बेच दिया था.

लेकिन नेहा नहीं मानी. उस ने याद दिलाया कि मैं ने इसलिए पहले ही कह दिया था. असित को याद था, इसलिए वह कसमसा कर रह गया. मां को हांहूं कर तरहतरह के बहाने बनाते टरकाता रहा. लेकिन ऐसा बहुत दिनों तक कर पाना मुमकिन नहीं था. हुआ वही जिस का डर था. एक दिन असित की मां अपना बोरियाबिस्तर बांध कर बेंगलुरु आ गईं.

इस के बाद जो हुआ उसे हरकोई समझ सकता है कि इस मामले में असल में गलती असित की थी जिसे मां को पहले ही बता देना चाहिए था. कुछ दिन नेहा उस के साथ रही, फिर समस्या का कोई हल न निकलते देख एक दिन खामोशी से अपना सामान समेट कर दूसरे फ्लैट में रहने चली गई.

अब असित 2 पाटों के बीच पिस रहा था क्योंकि मां सबकुछ जाननेसुनने के बाद भी अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं थीं और नेहा ने उसे वकील के जरिए तलाक का नोटिस भिजवा दिया था. मुकदमा अभी चल रहा है लेकिन ऐसा लग नहीं रहा कि नेहा को आसानी से तलाक मिल पाएगा.

उस के वकील ने उसे सुझाव दिया था कि अगर कुछ जोरदार और गंभीर आरोप लगाए जाएं तो सरलता से तलाक मिल सकता है वरना तो इस ग्राउंड में कोई खास दम नहीं है कि चूंकि सास रहने चली आई इसलिए तलाक चाहिए. दिक्कत यह है कि असित तलाक के लिए तैयार नहीं और अपनी बात वह अदालत में कहेगा भी. मुमकिन यह भी है कि वह अपना पक्ष मजबूत दिखाने के लिए नेहा को ही जिद्दी, गुस्सैल और झगड़ालू बताने लगे.

अगर नेहा ने विवाह पूर्व अनुबंध किया होता तो शायद असित पर ज्यादा दबाव पड़ता क्योंकि अब वह नेहा से कहता है कि शादी के पहले की गई ऐसी बातों के कोई माने नहीं होते. जब मैं ने हां की थी तब मां के परमानैंटली आने की कतई उम्मीद नहीं थी. अब क्या तुम्हारे लिए उन्हें भगा दूं और जिंदगीभर खुद से आखें न मिला पाऊं, मैं कोर्ट में भी नहीं मानूंगा कि कभी ऐसा कोई वादा मैं ने तुम से किया था.

मैं ने तो ऐसी कोई शर्त तुम पर नहीं थोपी थी. इस पर नेहा का जवाब भी ?ाठलाया नहीं जा सकता कि किसी के साथ रहने व न रहने की मेरी अपनी प्रौब्लम है, इसीलिए मैं ने तुम्हें एक नहीं बल्कि हजार बार आगाह किया था. यह तो सरासर प्रौमिस तोड़ने वाली बात हुई, फिर कैसा प्यार और कैसी शादी.

जानें क्या है प्रीनप या प्रीनप्शल एग्रीमैंट

ऊपर सब से शुरू में जो प्रोफार्मा दिया गया है वह शादी से पहले करार का है जिसे प्रीनप या प्रीनप्शल एग्रीमैंट भी कहते हैं. इस में कुछ भी खास नहीं है सिवा इस के कि शादी के पहले जो वादेइरादे और समझते मौखिक तौर पर किए जाते हैं उन का दस्तावेजीकरण कर दिया गया है.

इस तरह का अनुबंध भारत में चलन में नहीं है क्योंकि हम ने शादी को एक धार्मिक संस्कार मान रखा है जबकि है यह मूलतया एक अनुबंध या समझता ही. इसीलिए तलाक को हमारे समाज व देश में अच्छा नहीं माना जाता क्योंकि हर तलाक इस धार्मिक धारणा पर प्रहार होता है.

अब देश में तेजी से तलाक के मामले बढ़ रहे हैं जिन पर आएदिन हरकोई बेकार की चिंता जता रहा होता है. अदालत से ले कर परिवार तक हर किसी की मंशा तलाक को बुरा साबित करने की होती है. जबकि, बढ़ते तलाक बढ़ती जागरूकता की निशानी हैं. प्रीनप का रिवाज विकसित देशों में ज्यादा इसीलिए हैं कि वहां महिलाएं शिक्षित, जागरूक और कमाऊ हैं.

वे अपने अधिकार जानतीसमझती हैं, इसलिए तलाक पर हिचकिचातीं नहीं. कई यूरोपीय देशों बेल्जियम और नीदरलैंड सहित कनाडा व यूएसए आदि में कानूनन प्रीनप को मान्यता मिली हुई है.

भारत में आजादी से पहले तलाक चलन में ही नहीं था. लेकिन हिंदू मैरिज एक्ट 1956 में इस की व्यवस्था की गई तो लोगों, खासतौर से महिलाओं, को घुटनभरी जिंदगी से छुटकारा मिलने लगा क्योंकि वे हर तरह से शोषण का शिकार थीं.

अब हालात उलट हैं. 75 सालों में काफीकुछ बदलाव आए हैं पर पहली बड़ी उल?ान कानूनी प्रक्रिया की तरफ से है जिस ने तलाक की प्रक्रिया को जटिल बना दिया है. दूसरी उल?ान अभी भी यह मान बैठना है कि वैवाहिक जीवन ऊपर वाला चलाता है.

शादी के वक्त मंडप में अग्नि के सामने लिए गए सात फेरों और वचनों को नकारने की हिम्मत कपल्स आसानी से नहीं कर पाते. इसलिए लंबे समय तक वे तलाक से बचने की कोशिश करते रहते हैं और जब हिम्मत जुटा लेते हैं तो उन का सामना कानूनी दुश्वारियों से होता है. तब उन्हें फेरों में लिएदिए वचन याद आएं न आएं लेकिन डेट्स और औपचारिक मुलाकातों में किए वादेइरादे जरूर याद आते हैं जिन की कानून की नजर में कोई अहमियत नहीं होती. जबकि अधिकतर तलाक की बुनियाद इन्हीं पर रखी होती है कि शादी से पहले तुम ने इस बात पर हामी भरी थी, उस बात पर रजामंदी जताई थी. चूंकि यह लिखित में नहीं होती, इसलिए कोई मानसिक या नैतिक दबाव भी दोनों के ऊपर नहीं होता जिस का प्रीनप से होना संभव है.

असित कितनी आसानी और सहजता से अपने वादे से मुकर जाएगा, यह कोई कहने की बात नहीं, तिस पर दिक्कत यह कि वह नेहा व कुछ ?ाठे आरोप भी लगाएगा. नेहा इस से और तिलमिलाएगी और पति पर सास पर वह भी हिंसा और दहेज के आरोप लगा सकती है. शोभित खुद को ठगा महसूस कर रहा है क्योंकि उस के पास खुद को तसल्ली देने के लिए भी कोई लिखित सुबूत नहीं. अर्पिता इसी का फायदा उठा कर उसे व उस के पेरैंट्स को घेरती जा रही है.

अदालतों की बढ़ती दिलचस्पी

यह सब लिखित में होता तो जरूरी नहीं कि अप्रिय नौबत न आती और अदालत लिखे को संविधान की धारा या वेदों की ऋचाएं मान लेती. वह तो दोटूक कहती कि कागज के इस टुकड़े की कानूनन कोई अहमियत नहीं. लेकिन अगर होती या यह व्यवस्था कर दी जाए तो किसी के लिए भी मुकरना आसान नहीं रह जाएगा.

वैसी भी उन पर वही दबाव या गिल्ट रहता जो इन दिनों सोशल मीडिया पर फर्जी या झुठी पोस्ट किसी को भेजने के बाद भेजने वाले के मन में एक शक और डर रहता है कि कहीं कोई गड़बड़ या फसाद न हो जाए. यानी, दाढ़ी में तिनका तो रहता है. यह डर भी कपल्स को रहेगा कि अदालत के फैसले पर इस का फर्क पड़ सकता है.

भोपाल के एक नामी अधिवक्ता महेंद्र श्रीवास्तव की मानें तो कानूनी तौर पर विवाहपूर्व किए गए समझते लागू नहीं होते. लेकिन कोर्ट निश्चित रूप से इस पर विचार करेगा कि आखिर शादी करने से पहले किन मुद्दों पर पतिपत्नी ने सहमति या असहमति जताई थी. बकौल महेंद्र, यह संपन्न, पर्याप्त शिक्षित और अभिजात्य वर्ग में लोकप्रिय है क्योंकि उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और पैसों का खयाल रहता है. अदालत कुछ और करे न करे लेकिन यह सवाल कर सकती है कि आप क्यों विवाहपूर्व किए समझते या अनुबंध को नकारना चाहते हैं.

कई मुकदमों में अदालतों ने भी प्रीनप की जरूरत और अहमियत की तरफ इशारा किया है. मसलन, सुनीता देवेंद्र देशप्रभु बनाम सीतादेवी देशप्रभु 2016 में बौम्बे हाईकोर्ट ने विवाह पूर्व अनुबंध को संपत्ति के बंटवारे में गौर किया था. इस से लगता है कि अदालतें ऐसे अनुबंधों को हालात की बिना पर मान्यता दे सकती हैं. एक और मामले मोहम्मद खान बनाम शाहमल में जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट ने जायज माना था. इस मामले में पति ने खाना दामाद (एक तरह से घरजंवाई) बनने की शर्त पर निकाह किया था. अदालत ने इसे मुसलिम कानून के अनुरूप पाया था.

ज्यादा नहीं अब से 2 साल पहले मुंबई की एक फैमिली कोर्ट ने विवाहपूर्व अनुबंध को बाध्यकारी तो नहीं माना लेकिन इसे दोनों पक्षों की मंशा समझने के लिए विचार किया था. कोर्ट ने पति को क्रूरता के आधार पर तलाक दिया और अनुबंध को उन के इरादों की पुष्टि के रूप में देखा.

इस मामले में पति ने अदालत में प्रीनप पेश किया था जिस में उल्लेखित था कि दोनों पक्षकार किसी भी समस्या की स्थिति में आपसी आधार पर अलग होने के लिए सहमत हुए थे.

यानी, प्रीनप में ऐसी कोई शर्त है जो कानून का या सार्वजनिक नीति का उल्लंघन नहीं करती है तो अदालत उस पर गौर कर सकती है लेकिन ऐसा तभी होगा जब कपल्स प्रीनप की अहमियत समझते उस पर अमल शुरू करें. यह उन के भविष्य और सुकून के लिए बेहद जरूरी है.

Bollywood : भूलचूक माफ के निर्माता डाल रहे हैं नई परिपाटी

Bollywood : बौलीवुड के हालात सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. मई माह के चौथे सप्ताह यानी कि 23 मई को तीन फिल्में कंपकपी’, ‘केसरी वीर’ और निर्माता दिनेश विजन की फिल्म ‘भूलचूक माफ’ रिलीज हुई थी. इन में से ‘कंपकपी’ और ‘केसरी वीर’ पूरे 7 दिन के अंदर एक करोड़ रुपए भी इकट्ठा नहीं कर पाई थी. जबकि ‘भूलचूक माफ’ ने 44 करोड़ रुपए एकत्र कर लिए थे, तब दिनेश विजन पर आरोप लगा था कि उन्होंने गलत आंकड़ें पेश किए.

मई माह के पांचवें सप्ताह यानी कि 30 मई के दिन ‘भूलचूक माफ’ को एक सप्ताह के लिए सिनेमाघरों में लगे रहने दिया गया. इसी के साथ ‘चिड़िया’, ‘शुभचिंतक’, हौलीवुड फिल्म ‘द कराटे किड’ हिंदी में डब हो कर तथा ‘लव करूं या शादी’ रिलीज हुई, पर अफसोस इन में से किसी भी फिल्म ने बौक्स औफिस पर 7 दिन में 50 लाख रुपए भी नहीं एकत्र किए.

वहीं फिल्म ‘भूलचूक माफ’ की तरफ से दावा किया गया कि इस फिल्म ने दूसरे सप्ताह यानी कि 30 मई से 5 जून के बीच 22 करोड़ रुपए एकत्र कर दो सप्ताह के अंदर 66 करोड़ रुपए एकत्र किए. पर फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग यह मानने को तैयार नहीं है. इन का दावा है कि ‘भूलचूक माफ’ ने 15 दिन में केवल 10 करोड़ रुपए ही एकत्र किए, पर दिनेश विजन झूठ फैला रहे हैं. मजेदार बात यह है कि दिनेश विजन ने अब 6 जून को अपनी फिल्म ‘भूलचूक माफ’ को ओटीटी पर भी रिलीज कर दिया.

The Tribals : इंसानियत सीखनी हो तो जंगली लोगों से सीखिए

The Tribals : ब्राजील के फोटोग्राफर पिस्को डेल गेसो को इस फोटो के लिए 1993 में प्रतिष्ठित किंग औफ स्पेन इंटरनेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया था. इस कमाल की फोटो में अमेजन वर्षावन में “गुआजा जनजाति” की एक महिला को एक छोटे जंगली सुअर को स्तनपान कराते हुए दिखाया गया है . इस छोटे से सुअर की मां को शिकारियों ने गोली मार दी थी.

आज के मौडर्न युग में हमें आदिवासियों का नाम सुनने में कुछ अजीब लगता है. इंटरनेट के इस युग में हमें पूरी दुनिया बहुत छोटी लगने लगी है. हम अपने चारों ओर जैसे लोग देखते हैं दुनिया को भी वैसा ही समझने लगते हैं लेकिन आज भी विश्व में कई ऐसी आदिवासियों की जनजातियां हैं जो हमारी इस आधुनिक दुनिया से बिलकुल अलग हैं.

आदिवासियों की इस छुपी हुई दुनिया में महंगे कान्वेंट स्कूल नहीं फिर भी बच्चे जिंदगी के बहुत ही पेचीदा गुण सीख लेते हैं, वहां बिजली नहीं फिर भी उन की आंखों में एक अलग तरह की रोशनी है. आदिवासी समाज में आधुनिक माने जाने वाली दुनिया की संवेदनहीन भीड़भाड़ नहीं इसलिए वे एकदूसरे के दर्द को अच्छी तरह महसूस करते हैं.

वहां महंगी इलाज की दुकानें नहीं है फिर भी ये लोग अपने दर्द का इलाज जंगलों से ढूंढ लेते हैं. आदिवासियों की इस दुनिया में रुपया नहीं चलता बल्कि इन की इकोनौमी एकदूसरे के सहयोग पर आधारित होती है इसलिए यहां कभी जीडीपी गिरता उठता नहीं.

हमारी आधुनिक और सभ्य कहे जानी वाली दुनिया में रंगभेद है. अमीरी और गरीबी का फर्क है और तो और इंसान व इंसानों के बीच नफरतों की गहरी खाइयां भी हैं साथ ही सरहदों की बड़ी दीवारें भी खड़ी हैं लेकिन इन जंगली और जाहिल लोगों में इंसान से इंसान का कोई भेद नही बल्कि यहां तो इंसान और जानवर भी साथसाथ जीते हैं.

Vatican City : सब से शक्तिशाली नए धार्मिक गुरु पोप लियो XIV

Vatican City : दुनिया का सब से छोटा देश है वेटिकन, जिस का क्षेत्रफल है केवल 44 हेक्टेयर (108.7 एकड़). यह इटली की राजधानी रोम के अंदर बसा है. वेटिकन पृथ्वी का सब से छोटा मगर स्वतंत्र राज्य है. यह इतना छोटा है कि दिल्ली में 3 हजार से ज्यादा वेटिकन समा सकते हैं, मगर यह नन्हा सा देश दुनिया की 130 करोड़ कैथोलिक आबादी की आस्था का केंद्र है. दुनियाभर के कैथोलिक चर्च यहां के राजा पोप के द्वारा नियंत्रित होते हैं.

वेटिकन साम्राज्य और यहां के राजा पोप का क्या दर्जा और क्या ताकत है, यह पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा एआई से बनाई अपनी एक तसवीर को पोस्ट करने से समझ में आता है, जिस में उन्होंने पोप की तरह की वेशभूषा धारण कर रखी है. यानी उन की महत्त्वाकांक्षा उस दर्जे की ताकत हासिल करने की है जो ताकत पोप के पास है.

पोप दुनियाभर के कैथोलिक ईसाई समुदाय के धार्मिक नेता हैं. उन के वक्तव्य ईसाइयों के लिए पत्थर की लकीर होते हैं. गौरतलब है कि दुनिया में ईसाइयों की संख्या करीब 240 करोड़ है. इन में से करीब 130 करोड़ लोग कैथोलिक हैं और पोप के आदेशों के आगे नतमस्तक हैं.

पोप को सैंट पीटर का उत्तराधिकारी माना जाता है. सैंट पीटर को ईसा मसीह ने अपने अनुयायियों का नेतृत्व करने के लिए चुना था और ईसा मसीह के सूली चढ़ने के बाद सैंट पीटर ने उन की शिक्षाओं को पोप बन कर फैलाया. यानी कैथोलिक ईसाई समुदाय के लिए ईसा मसीह के बाद दूसरा स्थान पोप का है.

कहा जाता है कि रोम के सम्राट नीरो के शासनकाल में पोप सैंट पीटर की हत्या कर दी गई. उन की समाधि पर ही बाद में सैंट पीटर्स बेसिलिका (वेटिकन सिटी का चर्च) बना. यानी पोप का अस्तित्व जीसस क्राइस्ट (ईसा मसीह) के बाद से ही माना जाता है.

हाल ही में 21 अप्रैल, 2025 को वेटिकन के पोप फ्रांसिस की मृत्यु हो गई. वे 88 वर्ष के थे और लंबे समय से बीमार चल रहे थे. हृदय गति रुकने के कारण उन की मृत्यु हुई. पोप फ्रांसिस के बाद 69 वर्षीय लियो XIV को 267वां पोप चुना गया है.

पोप लियो XIV का असली नाम रौबर्ट फ्रांसिस प्रीवोस्ट है. वे शिकागो के रहने वाले हैं. उन्होंने करीब 12 साल कैथोलिक चर्च का नेतृत्व किया है. हालांकि वे विवादों में भी रहे. रूढि़वादी मानसिकता के कैथोलिक समाज से आने वाले पोप लियो एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के प्रति अपने संकुचित दृष्टिकोण को ले कर जांच के घेरे में हैं. डेली मेल द्वारा प्रसारित एक वीडियो में आरोप लगाया गया कि नए पोप ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान जानबू?ा कर प्राइड फ्लैग को नजरअंदाज किया.

पोप की शक्तियां

पोप फ्रांसिस भी कई मामलों में निष्पक्ष नहीं रहे, खासकर अनेक पादरियों द्वारा किए जा रहे अनैतिक कृत्यों की शिकायतें मिलने के बावजूद पोप फ्रांसिस उन पादरियों के खिलाफ ऐक्शन लेने से हिचकते रहे और उन्होंने अन्याय का साथ दिया. कई लोगों का आरोप है कि पोप फ्रांसिस ने बाल यौनशोषण के मामलों को ठीक से नहीं संभाला और ऐसे पादरियों की रक्षा की जो दुर्व्यवहार के लिए दोषी थे.

कुछ लोगों का आरोप है कि पोप फ्रांसिस ने अर्जेंटीना की सैन्य तानाशाही के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन में सहयोग किया. कहते हैं कि उस दौरान करीब 30,000 लोग मारे गए या गायब हो गए. फ्रांसिस उन हिंसक वर्षों के दौरान अर्जेंटीना के जेसुइट आदेश के प्रमुख थे.

तो ईसा मसीह के बाद सब से ज्यादा पूजे जाने वाले पोप मन, वचन, कर्म से पूरी तरह शुद्ध हों, ऐसा नहीं है. पोप बनने के बाद उन का मिशन ईसाइयों की संख्या बढ़ाते जाने का होता है और धर्मग्रंथों की कहानियों को बांच कर, ईश्वर का भय तारी कर, स्वर्ग और नरक की बातों से डरा कर वे आमजन को अपनी मुट्ठी में रखते हैं. यह बात सिर्फ किसी एक धर्म के धर्माचार्य के विषय में नहीं, बल्कि सभी धर्मों के धर्माचार्यों के विषय में है.

संकुचित दृष्टिकोण धर्माचार्यों का आस्था और विज्ञान 2 अलग वस्तुएं हैं, बल्कि यों कहें कि विपरीत चीजें हैं. धर्माचार्य लोगों को आस्था का गुलाम बना कर रखना चाहता है. वह नहीं चाहता कि जो कहानियां धर्मग्रंथों में लिखी हैं, लोग उस पर कोई प्रश्न उठाएं.

संकीर्ण दायरों में रहने वाले लोग समाज में सकारात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया को धीमा करते हैं. वे विज्ञान की खोजों की राह में रुकावट पैदा करते हैं और तर्क से मुंह चुराते हैं. जबकि विज्ञान आस्था के विपरीत हमेशा नए ज्ञान की तलाश में रहता है. वह हर बात के लिए क्या, क्यों, कब, कैसे का प्रश्न उठा कर चीजों को तर्क की कसौटी पर कसता है और उस के बाद भी संदेह की गुंजाइश छोड़ता है ताकि उस की खोज वहीं पर न रुक जाए.

धर्माचार्यों का संकुचित दृष्टिकोण मानवता के लिए ठीक नहीं है. मगर धर्म का झंडा उठाने वाले किसी भी धर्माचार्य (हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई) से तर्कशील बातों की आशा करना फुजूल है. वजह यह है कि उन की सोचनेसमझने की सीमा उन के धार्मिक ग्रंथ की जिल्दों के भीतर तक ही है.

उस से बाहर निकल कर कुछ ढूंढ़ना, कुछ नया ग्रहण करना उन की फितरत में नहीं होता. पोप का प्रमुख कार्य दुनिया के नेताओं से मिल कर धार्मिक संवाद करना और ईसाई धर्म के प्रचारप्रसार की नीतियां तय करना है. वे कार्डिनल (पोप के सलाहकारों का समूह), बिशप और चर्च के अन्य अधिकारियों की नियुक्ति करते हैं.

दुनियाभर में कैथोलिक समुदाय के लोगों से मिलते हैं और ईसाई धर्म को ज्यादा से ज्यादा फैलाने के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में काम करते हैं. वर्तमान समय में भले ही पोप धार्मिक, सामाजिक और शांति के मुद्दों पर अपने विचार रखते हैं, लेकिन कई दौर ऐसे रहे हैं जिस में पोप राजनीतिक मामलों में भी बहुत शक्तिशाली रहे.

राजाओं को बनाने और बिगाड़ने में पोप की मुख्य भूमिका रही. ईसाई धर्म में करीब 15वीं सदी तक पोप की भूमिका न सिर्फ धार्मिक मामलों को ले कर थी, बल्कि उन के पास राजनीतिक शक्तियां भी थीं, खासकर यूरोप की राजनीति में अलगअलग पोप ने अहम भूमिका निभाई.

दायरों में बांधने के तंत्र

यह बिलकुल वैसे ही है जैसे प्राचीन समय में भारत के अनेक राज्यों में सिंहासन पर तो क्षत्रिय राजा बैठा होता था मगर परदे के पीछे से उस के राज्य का पूरा संचालन, सारी राजनीति, कूटनीति, धार्मिक दंडधारक ब्राह्मण के हाथ में होती थी. यानी दुनिया के तमाम देशों, चाहे वह हिंदू बहुल देश हो, मुसलिम बहुल या हो ईसाई बहुल, का संचालन हमेशा धर्म ने अपने हाथों में रखा.

धर्म ने इंसान के चारों तरफ दायरे बनाए और कहा कि इन दायरों से बाहर मत निकलना. यदि निकले तो नरक में जाओगे. धर्म ने इंसान के कुछ नया सोचने और गतिशील रहने पर पाबंदी लगाई और अपनी घिसीपिटी मान्यताओं पर वह सदियों से इंसान को भेड़ों के ?ांड की तरह हांक रहा है. इन धार्मिक नेताओं के उकसाने पर ही दुनिया में बड़ेबड़े युद्ध हुए हैं. ईसाई समुदाय में भी पहला धर्मयुद्ध पोप के आह्वान पर ही लड़ा गया था.

यरूशलम ईसाइयों, मुसलमानों और यहूदियों का पवित्र स्थान माना जाता है. इसे मुसलमानों के नियंत्रण से हटाने के लिए साल 1096 में पोप अर्बन द्वितीय ने ईसाइयों से हथियार उठाने के लिए कहा था. तब इटली, जरमनी और फ्रांस के तमाम सैनिकों ने धर्मयुद्ध (क्रूसेड) लड़ा था.

पहले उन्होंने आतंकियों पर कब्जा किया और 1099 में यरूशलम पर अपना नियंत्रण स्थापित किया. इस से ईसाइयों और मुसलमानों के बीच धार्मिक विद्वेष बढ़ गया और इस के बाद कुल मिला कर 8 धर्मयुद्ध हुए.

पोप की शक्तियों का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 11वीं सदी में जरमनी के सम्राट हेनरी चतुर्थ ने जब अपनी इच्छा से कुछ नियुक्तियां करनी चाहीं तो पोप ग्रेगरी सप्तम उन से रुष्ट हो गए. बाद में जब सम्राट ने क्षमायाचना की तो उस को पोप ने बर्फ पर नंगे पांव खड़ा रहने के लिए मजबूर किया.

दरअसल 11वीं सदी में पोप ग्रेगरी सप्तम और जरमनी के सम्राट हेनरी चतुर्थ के बीच नियुक्ति को ले कर विवाद हुआ था. कहा जाता है कि हेनरी चतुर्थ चर्च के पदों पर अपने अनुसार नियुक्तियां करना चाहते थे, मगर पोप इस के खिलाफ थे. वे इसे चर्च के अधिकार में दखल मान रहे थे.

पोप ने बिशप की नियुक्ति और राजा को हटाने से संबंधित अधिकार चर्च के पास होने का आदेश दिया था, जिसे हेनरी चतुर्थ ने मानने से इनकार कर दिया. ऐसे में पोप ग्रेगरी सप्तम ने हेनरी चतुर्थ का बहिष्कार कर दिया. इस के बाद राजा की सत्ता कमजोर होने लगी. हेनरी चतुर्थ ने कैनोसा में पोप के किले पर बर्फ में 3 दिन तक नंगे पांव खड़े रह कर माफी मांगी तब जा कर पोप ने उन्हें माफी दी.

हालांकि इस के बाद हेनरी ने नया पोप नियुक्त कर दिया. इस से संघर्ष और बढ़ गया. बाद में वर्म्स में 1122 में पोप कालिक्स्टस द्वितीय और हेनरी पंचम के बीच वर्म्स की संधि हुई और इस में राज्य और चर्च की सीमाएं तय की गईं.

वहीं पोप जूलियस द्वितीय को तो योद्धा पोप के रूप में पहचान मिली हुई थी. उन्होंने 1503 से 1513 के बीच कई सैन्य अभियानों में अगुआई की. उस अवधि में उन्होंने मध्य इटली के कई इलाकों को दोबारा से चर्च के अंतर्गत लाने में सफलता पाई. उन्होंने फ्रांसीसी राजा लुई सोलहवां की वजह से चर्च के लिए पैदा हो रहे खतरों से निबटने के लिए रोमन साम्राज्य, स्पेन, वेनिस और इंगलैंड को मिला कर होली लीग गठबंधन बनाया ताकि इटली से फ्रांसीसी प्रभाव खत्म हो सके.

उन्होंने तत्कालीन स्वतंत्र राज्य बोलोग्ना (वर्तमान में इटली में) को जूलियस द्वितीय के नियंत्रण से छुड़ाया था. तब उन्होंने सैन्य भूमिका निभाई थी, इसलिए उन्हें वारियर पोप भी कहा जाता है. पोप की शक्तियां धार्मिक और नैतिक क्षेत्र में सब से अधिक प्रभावशाली हैं, जो वैश्विक कैथोलिक समुदाय और उस से परे समाज को प्रभावित करती हैं. प्रशासनिक रूप से वे वेटिकन और चर्च के सब से बड़े नेता होते हैं. राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से उन की शक्ति अप्रत्यक्ष लेकिन गहरी है, जो तथाकथित नैतिक नेतृत्व और वैश्विक कूटनीति से आती है.

चूंकि ईसाई समुदाय पोप को ईसा मसीह का उत्तराधिकारी मानता है, इसलिए पोप की सुरक्षा में वह कोई चूक नहीं छोड़ता है. पोप हमेशा बख्तरबंद वाहन में ही सफर करते हैं जिसे पोप मोबाइल कहा जाता है.

पोप अपने पैरों में हमेशा लाल रंग के जूते पहनते हैं, जोकि ईसा मसीह के लहू में लिथड़े पैरों का प्रतीक हैं, जब उन को सूली पर लटका कर उन के पैरों और हाथों में कीलें ठोंकी गई थीं और उन के पैर खून से लथपथ हो गए थे. ऐसी भावनात्मक चीजों से वे जनसमुदाय की आस्था को मजबूत करते हैं.

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अथाह है पोप की संपत्ति

पोप असल में एक बहुत बड़े साम्राज्य का सम्राट होता है. उस के पास अथाह संपत्ति दुनिया के लगभग सभी देशों में है. रोमन कैथोलिकों के चर्च, स्कूल, अस्पताल, रिसर्च संस्थाएं, यूनिवर्सिटियां हर देश में हैं और चर्च के पास दुनिया की सब से ज्यादा जमीन है. रोमन कैथोलिकों का मुख्य केंद्र वेटिकन शहर छोटा है पर दुनियाभर में फैले चर्चों, पैरिथों की संपत्ति पर अंतिम नियंत्रण पोप का ही होता है क्योंकि वह किसी भी कार्डिनल व बिशप से ले कर प्रीस्ट तक को बदल सकता है.

वेटिकन की अपनी 5,000 संपत्तियां विश्वभर में हैं. ये उन से अलग हैं जो चर्चों के पास हैं जिन का अंतिम निर्णय वेटिकन में रहने वाले पोप के हाथ में होता है. 136 करोड़ अनुयायियों वाले रोमन कैथोलिकों ने दान देदे कर रोमन कैथोलिक चर्च को दुनिया का सब से अमीर और प्रभावशाली सैंटर बना दिया है. 69 वर्षीय पोप लियो XIV कम से कम 2 दशकों तक इन संपत्तियों के मालिक रहेंगे क्योंकि पोप की एक बार नियुक्ति हो जाए तो वह मृत्यु तक बिना दोबारा चुनाव हुए इस पद पर बने रहते हैं.

एक समाचारपत्र ने 2018 में आस्ट्रेलिया के रोमन कैथोलिक चर्च की संपत्ति का अंदाजा लगाया था और उस के अनुसार कम से कम 25 अरब अमेरिकन डौलर के बराबर की संपत्ति अकेले आस्ट्रेलिया में है. जरमनी में संपत्ति का अंदाजा (2017 का) 33 अरब अमेरिकी डौलर है.

कैथोलिक चर्च के पास 2,77,000 वर्ग मील भूमि दुनियाभर में है. यह बहुत कमजोर सा अंदाजा है. दुनियाभर के सभी चर्च आम कर से मुक्त हैं. यह दुनिया की सब से अमीर संस्था है लेकिन फिर भी हर चर्च में एक नहीं, कईकई जगह दानपेटियां रखी होती हैं और चाहे भक्त हों, अनुयायी हों या सिर्फ सैलानी, किसी भी धर्म के, देखादेखी कुछ डौलर-यूरो इन चर्चों के दानपेटियों में डाल आते हैं, ठीक वैसे ही जैसे भारत के राममंदिर या तिरुपति मंदिर में होता है.
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पोप का चुनाव कैसे

खैर, बात करते हैं नए पोप को चुनने की विधि की. पोप के चुनाव को बड़े गोपनीय ढंग से अंजाम दिया जाता है. कैथोलिक रीतिरिवाज के अनुसार पपेल कौन्क्लेव में नए पोप का चुनाव होता है. नए पोप को दुनियाभर से आए कार्डिनल्स चुनते हैं.

कैथोलिक चर्च के सब से उच्च रैंक वाले पादरी को कार्डिनल्स कहा जाता है. ये कार्डिनल्स दुनियाभर के बिशप को नियंत्रित करते हैं. कार्डिनल्स को निजी तौर पर पोप द्वारा ही चुना जाता है. नए पोप को चुनने में फिर यही कार्डिनल्स मुख्य भूमिका निभाते हैं. नए पोप को चुनने के लिए कौन्क्लेव में कार्डिनल्स की कई बैठकें होती हैं.

पोप के चुनाव के लिए 80 वर्ष से कम उम्र के कार्डिनल्स वोट देने के अधिकारी हैं. यह वोटिंग प्रक्रिया पूरी तरह से गुप्त रखी जाती है. वोटिंग प्रक्रिया के दौरान कार्डिनल्स को बाहरी दुनिया से संपर्क करने की भी अनुमति नहीं होती है. चुनाव हो जाने के बाद पोप लियो सेंट पीटर्स बेसिलिका की सैंट्रल बालकनी में सिस्टिन चैपल की चिमनी से सफेद धुआं छोड़ा जाता है, जो दुनिया को यह संदेश देता है कि वेटिकन में नए पोप का चुनाव संपन्न हो गया है.

रोमन कैथोलिक चर्च ईसाई धर्म का सब से बड़ा संप्रदाय है. इस के अलावा प्रोटेस्टैंट और ईस्टर्न और्थोडौक्स ईसाई समुदाय के 2 अन्य प्रमुख संप्रदाय हैं. रोमन कैथोलिक चर्च ईसा मसीह की शिक्षाओं पर आधारित हैं. बाइबिल के साथसाथ चर्च परंपराओं को भी धर्म और आस्था का आधार मानता है. कैथोलिक चर्च जिन सिद्धांतों पर चलता है उस में पहला है एक ईश्वर, जो 3 स्वरूपों में अस्तित्व रखता है. ये 3 तत्त्व हैं-

पिता (गौड या फादर) – संपूर्ण ब्रह्मांड के सृजनकर्ता.
पुत्र (ईसा मसीह)- ईश्वर के पुत्र या अवतार.
पवित्र आत्मा (होली स्पिरिट) – ईश्वर की दिव्य शक्ति.

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पोप लड़ाई रुकवाते नहीं, करवाते रहे हैं

विश्व ने 2 विश्वयुद्ध 1914 से 1919 और 1940 से 1945 झेले जो ईसाई शासकों और ईसाई जनता के बीच में हुए. पोप रोमन कैथोलिकों के नेता थे पर किसी पोप की चली नहीं या किसी ने चलाई नहीं और युद्ध होने दिए जिन में करोड़ों लोग मारे गए, खरबों डौलरों का नुकसान हुआ. ईसा मसीह में विश्वास व शांति की बात करने वाले रोमन कैथोलिक हों या प्रोटैस्टैंट अनुयायी, सदियों से लड़ते रहे हैं और आज रूस और यूक्रेन रोमन कैथोलिकों जैसे और्थोडौक्स क्रिश्चियनों के बीच युद्ध हो रहा है और दोनों तरफ चर्चों के मुखिया, पहले के पोपों की तरह, अपनेअपने सैनिकों को ईश्वर की तरफ से आशीर्वाद दे रहे हैं. धर्म लड़वाता है, सुलह या शांति नहीं कराता.

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कैथोलिक चर्च ईसा मसीह की माता मैरी को भी विशेष सम्मान देता है. कैथोलिक प्रार्थनाओं में मदर मैरी को खास स्थान दिया गया है. उन के अनुसार, मदर मैरी शरीर सहित स्वर्ग में पहुंची थीं. हिंदू मान्यता के अनुसार, महाभारत की कथा में भी युधिष्ठिर को सशरीर स्वर्ग ले जाने की बात लिखी है. युधिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता था.

कहते हैं कि उन के चारों भाई और पत्नी द्र्रौपदी व अन्य सभी को स्वर्ग पहुंचने से पहले रास्ते में ही शरीर त्यागना पड़ा. मगर युधिष्ठिर के साथ उन के वफादार कुत्ते को सशरीर स्वर्ग जाने की अनुमति मिली थी. खैर, ऐसी कथाएं लगभग सभी धर्मों की किताबों में करीबकरीब एकजैसी ही होती हैं. इन अनेक कपोल कथाओं का विज्ञान से कोई लेनादेना नहीं होता. इन कथाओं की वैज्ञानिक तर्क के साथ व्याख्या करना कठिन है.

Hindi kahani : मौडर्न मिलन – कालिदास के मन में क्या उलझन चल रही थी?

Hindi kahani : यह कुदरती और वाकई अनोखी बात थी कि रूढि़वादी और धार्मिक मांबाप ने अपनी जिस लाड़ली बेटी का नाम विद्योत्तमा रखा था, उस के मंगेतर का नाम एक पुरोहित ने नामकरण के दिन कलुवा रख दिया था. लेकिन विद्योत्तमा के रिश्ते की बात जब कलुवा से चली तो उस चालाक पुरोहित ने मंगनी के समय झट कलुवा का नाम बदल कर उसे कालिदास बना दिया. विद्योत्तमा और कालिदास का विवाह भी कर दिया गया.

सुहागरात में प्रथम भेंट पर कालिदास को अपनी दुलहन का घूंघट उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ी. कशिश से भरी, बड़ीबड़ी मोहक अंखियों और तीखे नयननक्श वाली, बेजोड़ खूबसूरती की मलिका विद्योत्तमा ने मुसकराते हुए अपने मांग टीके पर अटके नाममात्र के घूंघट को खुद ही उलट कर अपनी गरदन पर लपेट लिया. फिर उस के एक छोर को अपने दाएं हाथ की पहली उंगली में फंसाए शरारती अदा के साथ अपने लाल रसीले होंठों और चमकदार दंतुलियों से जैसे काट खाया. फिर कालिदास के सीने से अपनी पीठ को सटाते उस ने गरदन घुमा कर तिरछी नजरें अपने दूल्हे राजा के हैरतअंगेज चेहरे पर चुभाईं. तब बोली, ‘‘हाय, डियर क्यूट. आई लव यू सो वैरी मच.’’

कालिदास के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं. प्रथम मिलन का ऐसा बेलिहाज नजारा तो शायद उस के बाप के बाप तक ने कभी सपने में भी नहीं देखा होगा. तभी लगभग हकलाता हुआ सा कलुआ बोल पड़ा, ‘‘जरा संभल कर ठीक से बैठो, प्रिये. चलो, कुछ देर प्यारभरी मीठीमीठी बातें हो जाएं. यह हमारे मधुर मिलन की पहली इकलौती घड़ी है, प्राणप्यारी.’’

‘‘मीठीमीठी बातें? ह्वाट नौनसेंस,’’ कहते हुए दुलहन बिदक कर दूर छिटक गई और बोली, ‘‘तुम्हें तो मुझ को देखते ही भूखे भेडि़ए की तरह झपटचिपट कर मेरे तनबदन को बेशुमार किसेज (चुंबनों) की झड़ी लगाते निहाल कर देना चाहिए था. अभी इतनी देर तक लबरलबर तो खूब करते रहे. क्या तुम मुझ को लव नहीं करते. डोंट यू लाइक मी? जो अभी भी मुझे अपनी बांहों में जकड़ने से हिचकते घबरा रहे हो.’’

बेचारा कालिदास सचमुच काफी घबरा गया था, लेकिन अब जल्दी ही वह अपने को हिम्मत के साथ संभालता हुआ बोला, ‘‘सुनो, मेरी प्यारी हंसिनी, मुझ को तो तुम अपने सामने एक बगले जैसा ही समझो क्योंकि मैं तो सिर्फ हाईस्कूल थर्ड डिविजन से पास हूं, जबकि तुम अंगरेजी साहित्य में फर्स्ट क्लास एम.ए. पास. मुझे ताज्जुब हो रहा है कि तुम ने मुझ जैसे चपरगट्टू भौंतर छोरे से शादी करने की बात भला कैसे मंजूर कर ली जबकि असल में मैं तुम्हारे काबिल और माफिक दूल्हा हूं ही नहीं. मैं…मैं…मैं तो…’’

दुलहन हंस पड़ी और बोली, ‘‘ओह, स्टौप आल दिस मैं मैं मिमियाना. अजी हुजूरेआला, तुम तो इन आल रिस्पेक्ट्स, हर हाल में मेरे ही काबिल हो. मैं आज भी उन ‘अधभरी गगरी’ जैसी छलकती छोकरियों में से नहीं हूं जो तितलियों की मानिंद इतराती अपने कालेज जाने में ही ऐसी अकड़ दिखाती हैं मानो वे पहले से ही डिगरीशुदा हों और अब सीधे कनवोकेशन में गाउन व हुड धारण करने की फौरमैलिटी निभाने जा रही हों. और जो आंखलड़ाऊ लव मैरिज के बाद अपने हसबैंड को लड़ाईझगड़े में सर्वेंट तक बोलने से नहीं चूकतीं.

‘‘डियर, मैं तो पहले से ही मान चुकी थी कि हम ‘मेड फौर ईच अदर’ यानी ‘इक दूजे के लिए ही बने’ हैं. तुम कम पढ़ेलिखे हो तो क्या, तुम नेक, खूबसूरत, तंदुरुस्त और उम्दा स्वभाव के नौजवान हो. फिर आजकल के योग्य लड़के तो भारीभरकम दहेज लिए बिना शादी को तैयार ही नहीं होते हैं जबकि तुम ने दहेज जैसे अशुभ नाम को अपनी जबान पर आने तक नहीं दिया. मैं तुम को उन दहेज के लालची लीचड़ों से सौगुना ज्यादा धनी मानती हूं.

‘‘तुम अपने हुनर में एक माहिर मोटर मेकैनिक हो और मुझ को पूरा यकीन है तुम बिगड़ती मोटरगाडि़यों की तरह अपने घरपरिवार रूपी गाड़ी की मेंटिनेंस में भी उस के ढीले पेचपुर्जों को सुधार कर उसे जिंदगी की खुशहाल राह पर कामयाबी के साथ दौड़ा सकते हो. तुम्हारे अंदर कोई बुरा व्यसन भी नहीं है, तो फिर यह नर्वसनेस क्यों? इनसान किताबें पढ़ कर और डिगरियां हासिल करने मात्र से विद्वान नहीं बन जाता. पढ़नेलिखने के साथ अगर इनसान उस से मिली नसीहतों को अपने जीवन में नहीं अपनाता तो वह किताबों के बोझ से लदे एक गधे जैसा ही होता है.’’

विद्योत्तमा के मुख से ऐसी बातें सुन कर कालिदास के मन में घिरे शकसंदेहों की सारी धुंध उड़नछू हो गई. वह बोला, ‘‘ओह डार्लिंग, मैं तो इस वजह से डरा हुआ था कि तुम्हारा नाम विद्योत्तमा और मेरा नाम भी कालिदास है तो कहीं तुम भी मुझे…’’

‘‘रिजेक्ट कर देती और लताड़ के साथ भगा देती. यही न?’’ खिलखिलाते हुए विद्योत्तमा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘माई डियर साजन, तुम यह क्यों भूल गए कि वह पुराने जमाने की अपने ज्ञान के घमंड में चूर विद्योत्तमा थी लेकिन मैं तो 21वीं सदी की मौडर्न नवयुवती हूं. यानी मैं वह विद्योत्तमा हूं जो अपने पति को पति होने के नाते अपना दास, मतलब जोरू का गुलाम बना कर भले ही रख दूं, पर गुजरे वक्त की वह विद्योत्तमा कतई नहीं हूं कि हनीमून में ही अपने पति को बेइज्जत कर के घर से खदेड़ कर खुद को बगैर मर्द की (विधवा) औरत बना कर रख दूं और तब उस के लंबे अरसे के बाद अधेड़ विद्वान कालिदास हो कर लौट आने तक पलपल घुटतीसिसकती रहूं.

‘‘जब तक वह कालिदास बन कर आएगा तब तक उस की जवानी का जोशीला पोटाश तो संस्कृत के श्लोकों को पढ़नेरटने में ही खत्म हो चुका होगा. आने के बाद भी वह बजाय लंबी जुदाई से बढ़ी बेताबी के तहत रातों को मुझ से चिपट पड़ने के, ग्रंथ लिखने की खातिर कलम घिसने में मशगूल हो जाएगा और मैं अपने चेहरे पर पड़ती झुर्रियों को दर्पण में निहारती, कभी ऊंघती तो कभी उस कवि लेखक के लिए चाय बनाती बाकी बची उम्र को काटतीगुजारती रहूं.

‘‘फिर नाम में क्या रखा है, डियर. आंख के अंधे नाम नयनसुख की तरह भिखारियों में क्या कई लक्ष्मियां और धनपति नाम के औरतमर्द नहीं होते? छोड़ो इन यूजलेस बातों को अब. लम्हालम्हा गहराती मदमाती रात के साथ अब क्यों न हम भी अपने प्यार के समंदर की गहराइयों में खो जाएं? सो कम औन माइ लव, माइ स्वीट लाइफपार्टनर,’’ कहते हुए विद्योत्तमा ने कालिदास को अपनी सुडौल गोरी बांहों में बांध लिया. तब कालिदास ने भी उमड़ते प्रेम आनंद के एहसास के साथ उसे अपने दिल से सटा दिया. लग रहा था, कवि कालिदास के मेघदूतम वाले बेदखल किए गए, इश्क में तड़पते, यक्ष का भी अपनी प्यारी दिलरुबा से एक बार फिर मौडर्न मिलन हो रहा हो.

Hindi Story : अदला-बदली – जीवन को मधुर बनाने की कला अलका कैसे सीख गई?

Hindi Story : मेरे पति राजीव के अच्छे स्वभाव की परिचित और रिश्तेदार सभी खूब तारीफ करते हैं. उन सब का कहना है कि राजीव बड़ी से बड़ी समस्या के सामने भी उलझन, चिढ़, गुस्से और परेशानी का शिकार नहीं बनते. उन की समझदारी और सहनशीलता के सब कायल हैं.

राजीव के स्वभाव की यह खूबी मेरा तो बहुत खून जलाती है. मैं अपनी विवाहित जिंदगी के 8 साल के अनुभवों के आधार पर उन्हें संवेदनशील, समझदार और परिपक्व कतई नहीं मानती.

शादी के 3 दिन बाद का एक किस्सा  है. हनीमून मनाने के लिए हम टैक्सी से स्टेशन पहुंचे. हमारे 2 सूटकेस कुली ने उठाए और 5 मिनट में प्लेटफार्म तक पहुंचा कर जब मजदूरी के पूरे 100 रुपए मांगे तो नईनवेली दुलहन होने के बावजूद मैं उस कुली से भिड़ गई.

मेरे शहंशाह पति ने कुछ मिनट तो हमें झगड़ने दिया फिर बड़ी दरियादिली से 100 का नोट उसे पकड़ाते हुए मुझे समझाया, ‘‘यार, अलका, केवल 100 रुपए के लिए अपना मूड खराब न करो. पैसों को हाथ के मैल जितना महत्त्व दोगी तो सुखी रहोगी. ’’

‘‘किसी चालाक आदमी के हाथों लुटने में क्या समझदारी है?’’ मैं ने चिढ़ कर पूछा था.

‘‘उसे चालाक न समझ कर गरीबी से मजबूर एक इनसान समझोगी तो तुम्हारे मन का गुस्सा फौरन उड़नछू हो जाएगा.’’

गाड़ी आ जाने के कारण मैं उस चर्चा को आगे नहीं बढ़ा पाई थी, पर गाड़ी में बैठने के बाद मैं ने उन्हें उस भिखारी का किस्सा जरूर सुना दिया जो कभी बहुत अमीर होता था.

एक स्मार्ट, स्वस्थ भिखारी से प्रभावित हो कर किसी सेठानी ने उसे अच्छा भोजन कराया, नए कपडे़ दिए और अंत में 100 का नोट पकड़ाते हुए बोली, ‘‘तुम शक्लसूरत और व्यवहार से तो अच्छे खानदान के लगते हो, फिर यह भीख मांगने की नौबत कैसे आ गई?’’

‘‘मेमसाहब, जैसे आप ने मुझ पर बिना बात इतना खर्चा किया है, वैसी ही मूर्खता वर्षों तक कर के मैं अमीर से भिखारी बन गया हूं.’’

भिखारी ने उस सेठानी का मजाक सा उड़ाया और 100 का नोट ले कर चलता बना था.

इस किस्से को सुना कर मैं ने उन पर व्यंग्य किया था, पर उन्हें समझाने का मेरा प्रयास पूरी तरह से बेकार गया.

‘‘मेरे पास उड़ाने के लिए दौलत है ही कहां?’’ राजीव बोले, ‘‘मैं तो कहता हूं कि तुम भी पैसों का मोह छोड़ो और जिंदगी का रस पीने की कला सीखो.’’

उसी दिन मुझे एहसास हो गया था कि इस इनसान के साथ जिंदगी गुजारना कभीकभी जी का जंजाल जरूर बना करेगा.

मेरा वह डर सही निकला. कितनी भी बड़ी बात हो जाए, कैसा भी नुकसान हो जाए, उन्हें चिंता और परेशानी छूते तक नहीं. आज की तेजतर्रार दुनिया में लोग उन्हें भोला और सरल इनसान बताते हैं पर मैं उन्हें अव्यावहारिक और असफल इनसान मानती हूं.

‘‘अरे, दुनिया की चालाकियों को समझो. अपने और बच्चों के भविष्य की फिक्र करना शुरू करो. आप की अक्ल काम नहीं करती तो मेरी सलाह पर चलने लगो. अगर यों ही ढीलेढाले इनसान बन कर जीते रहे तो इज्जत, दौलत, शोहरत जैसी बातें हमारे लिए सपना बन कर रह जाएंगी,’’ ऐसी सलाह दे कर मैं हजारों बार अपना गला बैठा चुकी हूं पर राजीव के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.

बेटा मोहित अब 7 साल का हो गया है और बेटी नेहा 4 साल की होने वाली है अपने ढीलेढाले पिता की छत्रछाया में ये दोनों भी बिगड़ने लगे हैं. मैं रातदिन चिल्लाती हूं पर मेरी बात न बच्चों के पापा सुनते हैं, न ही बच्चे.

राजीव की शह के कारण घर के खाने को देख कर दोनों बच्चे नाकभौं चढ़ाते हैं क्योंकि उन की चिप्स, चाकलेट और चाऊमीन जैसी बेकार चीजों को खाने की इच्छा पूरी करने के लिए उन के पापा सदा तैयार जो रहते हैं.

‘‘यार, कुछ नहीं होगा उन की सेहत को. दुनिया भर के बच्चे ऐसी ही चीजें खा कर खुश होते हैं. बच्चे मनमसोस कर जिएं, यह ठीक नहीं होगा उन के विकास के लिए,’’ उन की ऐसी दलीलें मेरे तनबदन में आग लगा देती हैं.

‘‘इन चीजों में विटामिन, मिनरल नहीं होते. बच्चे इन्हें खा कर बीमार पड़ जाएंगे. जिंदगी भर कमजोर रहेंगे.’’

‘‘देखो, जीवन देना और उसे चलाना प्रकृति की जिम्मेदारी है. तुम नाहक चिंता मत करो,’’ उन की इस तरह की दलीलें सुन कर मैं खुद पर झुंझला पड़ती.

राजीव को जिंदगी में ऊंचा उठ कर कुछ बनने, कुछ कर दिखाने की चाह बिलकुल नहीं है. अपनी प्राइवेट कंपनी में प्रमोशन के लिए वह जरा भी हाथपैर नहीं मारते.

‘‘बौस को खाने पर बुलाओ, उसे दीवाली पर महंगा उपहार दो, उस की चमचागीरी करो,’’ मेरे यों समझाने का इन पर कोई असर नहीं होता.

समझाने के एक्सपर्ट मेरे पतिदेव उलटा मुझे समझाने लगते हैं, ‘‘मन का संतोष और घर में हंसीखुशी का प्यार भरा माहौल सब से बड़ी पूंजी है. जो मेरे हिस्से में है, वह मुझ से कोई छीन नहीं सकता और लालच मैं करता नहीं.’’

‘‘लेकिन इनसान को तरक्की करने के लिए हाथपैर तो मारते रहना चाहिए.’’

‘‘अरे, इनसान के हाथपैर मारने से कहीं कुछ हासिल होता है. मेरा मानना है कि वक्त से पहले और पुरुषार्थ से ज्यादा कभी किसी को कुछ नहीं मिलता.’’

उन की इस तरह की दलीलों के आगे मेरी एक नहीं चलती. उन की ऐसी सोच के कारण मुझे नहीं लगता कि अपने घर में सुखसुविधा की सारी चीजें देखने का मेरा सपना कभी पूरा होगा जबकि घरगृहस्थी की जिम्मेदारियों को मैं बड़ी गंभीरता से लेती हूं. हर चीज अपनी जगह रखी हो, साफसफाई पूरी हो, कपडे़ सब साफ और प्रेस किए हों, सब लोग साफसुथरे व स्मार्ट नजर आएं जैसी बातों का मुझे बहुत खयाल रहता है. मैं घर आए मेहमान को नुक्स निकालने या हंसने का कोई मौका नहीं देना चाहती हूं.

अपनी लापरवाही व गलत आदतों के कारण बच्चे व राजीव मुझ से काफी डांट खाते हैं. राजीव की गलत प्रतिक्रिया के कारण मेरा बच्चों को कस कर रखना कमजोर पड़ता जा रहा है.

‘‘यार, क्यों रातदिन साफसफाई का रोना रोती हमारे पीछे पड़ी रहती हो? अरे, घर ‘रिलैक्स’ करने की जगह है. दूसरों की आंखों में सम्मान पाने के चक्कर में हमारा बैंड मत बजाओ, प्लीज.’’

बड़ीबड़ी लच्छेदार बातें कर के राजीव दुनिया वालों से कितनी भी वाहवाही लूट लें, पर मैं उन की डायलागबाजी से बेहद तंग आ चुकी हूं.

‘‘अलका, तुम तेरामेरा बहुत करती हो, जरा सोचो कि हम इस दुनिया में क्या लाए थे और क्या ले जाएंगे? मैं तो कहता हूं कि लोगों से प्यार का संबंध नुकसान उठा कर भी बनाओ. अपने अहं को छोड़ कर जीवनधारा में हंसीखुशी बहना सीखो,’’ राजीव के मुंह से ऐसे संवाद सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं, पर व्यावहारिक जिंदगी में इन के सहारे चलना नामुमकिन है.

बहुत तंग और दुखी हो कर कभीकभी मैं सोचती हूं कि भाड़ में जाएं ये तीनों और इन की गलत आदतें. मैं भी अपना खून जलाना बंद कर लापरवाही से जिऊंगी, लेकिन मैं अपनी आदत से मजबूर हूं. देख कर मरी मक्खी निगलना मुझ से कभी नहीं हो सकता. मैं शोर मचातेमचाते एक दिन मर जाऊंगी पर मेरे साहब आखिरी दिन तक मुझे समझाते रहेंगे, पर बदलेंगे रत्ती भर नहीं.

जीवन के अपने सिखाने के ढंग हैं. घटनाएं घटती हैं, परिस्थितियां बदलती हैं और इनसान की आंखों पर पडे़ परदे उठ जाते हैं. हमारी समझ से विकास का शायद यही मुख्य तरीका है.

कुछ दिन पहले मोहित को बुखार हुआ तो उसे दवा दिलाई, पर फायदा नहीं हुआ. अगले दिन उसे उलटियां होने लगीं तो हम उसे चाइल्ड स्पेशलिस्ट के पास ले गए.

‘‘इसे मैनिन्जाइटिस यानी दिमागी बुखार हुआ है. फौरन अच्छे अस्पताल में भरती कराना बेहद जरूरी है,’’ डाक्टर की चेतावनी सुन कर हम दोनों एकदम से घबरा उठे थे.

एक बडे़ अस्पताल के आई.सी.यू. में मोहित को भरती करा दिया. फौरन इलाज शुरू हो जाने के बावजूद उस की हालत बिगड़ती गई. उस पर गहरी बेहोशी छा गई और बुखार भी तेज हो गया.

‘‘आप के बेटे की जान को खतरा है. अभी हम कुछ नहीं कह सकते कि क्या होगा,’’ डाक्टर के इन शब्दों को सुन कर राजीव एकदम से टूट गए.

मैं ने अपने पति को पहली बार सुबकियां ले कर रोते देखा. चेहरा बुरी तरह मुरझा गया और आत्मविश्वास पूरी तरह खो गया.

‘‘मोहित को कुछ नहीं होना चाहिए अलका. उसे किसी भी तरह से बचा लो,’’ यही बात दोहराते हुए वह बारबार आंसू बहाने लगते.

मेरे लिए उन का हौसला बनाए रखना बहुत कठिन हो गया. मोहित की हालत में जब 48 घंटे बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ तो राजीव बातबेबात पर अस्पताल के कर्मचारियों, नर्सों व डाक्टरों से झगड़ने लगे.

‘‘हमारे बेटे की ठीक से देखभाल नहीं कर रहे हैं ये सब,’’ राजीव का पारा थोड़ीथोड़ी देर बाद चढ़ जाता, ‘‘सब बेफिक्री से चाय पीते, गप्पें मारते यों बैठे हैं मानो मेले में आएं हों. एकाध पिटेगा मेरे हाथ से, तो ही इन्हें अक्ल आएगी.’’

राजीव के गुस्से को नियंत्रण में रखने के लिए मुझे उन्हें बारबार समझाना पड़ता.

जब वह उदासी, निराशा और दुख के कुएं में डूबने लगते तो भी उन का मनोबल ऊंचा रखने के लिए मैं उन्हें लेक्चर देती. मैं भी बहुत परेशान व चिंतित थी पर उन के सामने मुझे हिम्मत दिखानी पड़ती.

एक रात अस्पताल की बेंच पर बैठे हुए मुझे अचानक एहसास हुआ कि मोहित की बीमारी में हम दोनों ने भूमिकाएं अदलबदल दी थीं. वह शोर मचाने वाले परेशान इनसान हो गए थे और मैं उन्हें समझाने व लेक्चर देने वाली टीचर बन गई थी.

मैं ये समझ कर बहुत हैरान हुई कि उन दिनों मैं बिलकुल राजीव के सुर में सुर मिला रही थी. मेरा सारा जोर इस बात पर होता कि किसी भी तरह से राजीव का गुस्सा, तनाव, चिढ़, निराशा या उदासी छंट जाए. ’’

4 दिन बाद जा कर मोहित की हालत में कुछ सुधार लगा और वह धीरेधीरे हमें व चीजों को पहचानने लगा था. बुखार भी धीरेधीरे कम हो रहा था.

मोहित के ठीक होने के साथ ही राजीव में उन के पुराने व्यक्तित्व की झलक उभरने लगी.

एक शाम जानबूझ कर मैं ने गुस्सा भरी आवाज में उन से कहा, ‘‘मोहित, ठीक तो हो रहा है पर मैं इस अस्पताल के डाक्टरों व दूसरे स्टाफ से खुश नहीं हूं. ये लोग लापरवाह हैं, बस, लंबाचौड़ा बिल बनाने में माहिर हैं.’’

‘‘यार, अलका, बेकार में गुस्सा मत हो. यह तो देखो कि इन पर काम का कितना जोर है. रही बात खर्चे की तो तुम फिक्र क्यों करती हो? पैसे को हाथ का मैल…’’

उन्हें पुराने सुर में बोलता देख मैं मुसकराए बिना नहीं रह सकी. मेरी प्रतिक्रिया गुस्से और चिढ़ से भरी नहीं है, यह नोट कर के मेरे मन का एक हिस्सा बड़ी सुखद हैरानी महसूस कर रहा था.

मोहित 15 दिन अस्पताल में रह कर घर लौटा तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं रहा. जल्दी ही सबकुछ पहले जैसा हो जाने वाला था पर मैं एक माने में बिलकुल बदल चुकी थी. कुछ महत्त्वपूर्ण बातें, जिन्हें मैं बिलकुल नहीं समझती थी, अब मेरी समझ का हिस्सा बन चुकी थीं.

मोहित की बीमारी के शुरुआती दिनों में राजीव ने मेरी और मैं ने राजीव की भूमिका बखूबी निभाई थी. मेरी समझ में आया कि जब जीवनसाथी आदतन शिकायत, नाराजगी, गुस्से जैसे नकारात्मक भावों का शिकार बना रहता हो तो दूसरा प्रतिक्रिया स्वरूप समझाने व लेक्चर देने लगता है.

घरगृहस्थी में संतुलन बनाए रखने के लिए ऐसा होना जरूरी भी है. दोनों एक सुर में बोलें तो यह संतुलन बिगड़ता है.

मोहित की बीमारी के कारण मैं भी बहुत परेशान थी. राजीव को संभालने के चक्कर में मैं उन्हें समझाती थी. और वैसा करते हुए मेरा आंतरिक तनाव, बेचैनी व दुख घटता था. इस तथ्य की खोज व समझ मेरे लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण साबित हुई.

आजकल मैं सचमुच बदल गई हूं और बहुत रिलेक्स व खुश हो कर घर की जिम्मेदारियां निभा रही हूं. राजीव व अपनी भूमिकाओं की अदलाबदली करने में मुझे महारत हासिल होती जा रही है और यह काम मैं बड़े हल्केफुल्के अंदाज में मन ही मन मुसकराते हुए करती हूं.

हर कोई अपने स्वभाव के अनुसार अपनेअपने ढंग से जीना चाहता है. अपने को बदलना ही बहुत कठिन है पर असंभव नहीं लेकिन दूसरे को बदलने की इच्छा से घर का माहौल बिगड़ता है और बदलाव आता भी नहीं अपने इस अनुभव के आधार पर इन बातों को मैं ने मन में बिठा लिया है और अब शोर मचा कर राजीव का लेक्चर सुनने के बजाय मैं प्यार भरे मीठे व्यवहार के बल पर नेहा, मोहित और उन से काम लेने की कला सीख गई हूं.

Family Story : रिश्तों की कसौटी – क्या हुआ था सुरभी को ?

Family Story : ‘‘अंकल, मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई क्या?’’ मां के कमरे से डाक्टर को निकलते देख सुरभी ने पूछा.

‘‘पापा से जल्दी ही लौट आने को कहो. मालतीजी को इस समय तुम सभी का साथ चाहिए,’’ डा. आशुतोष ने सुरभी की बातों को अनसुना करते हुए कहा.

डा. आशुतोष के जाने के बाद सुरभी थकीहारी सी लौन में पड़ी कुरसी पर बैठ गई.

2 साल पहले ही पता चला था कि मां को कैंसर है. डाक्टर ने एक तरह से उन के जीने की अवधि तय कर दी थी. पापा ने भी उन की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. मां को ले कर 3-4 बार अमेरिका भी हो आए थे और अब वहीं के डाक्टर के निर्देशानुसार मुंबई के जानेमाने कैंसर विशेषज्ञ डा. आशुतोष की देखरेख में उन का इलाज चल रहा था. अब तो मां ने कालेज जाना भी बंद कर दिया था.

‘‘दीदी, चाय,’’ कम्मो की आवाज से सुरभी अपने खयालों से वापस लौटी.

‘‘मम्मी के कमरे में चाय ले चलो. मैं वहीं आ रही हूं,’’ उस ने जवाब दिया और फिर आंखें मूंद लीं.

सुरभी इस समय एक अजीब सी परेशानी में फंस कर गहरे दुख में घिरी हुई थी. वह अपने पति शिवम को जरमनी के लिए विदा कर अपने सासससुर की आज्ञा ले कर मां के पास कुछ दिनों के लिए रहने आई थी.

2 दिन पहले स्टोर रूम की सफाई करवाते समय मां की एक पुरानी डायरी सुरभी के हाथ लगी थी, जिस के पन्नों ने उसे मां के दर्द से परिचित कराया.

‘‘ऊपर आ जाओ, दीदी,’’ कम्मो की आवाज ने उसे ज्यादा सोचने का मौका नहीं दिया.

सुरभी ने मां के साथ चाय पी और हर बार की तरह उन के साथ ढेरों बातें कीं. इस बार सुरभी के अंदर की उथलपुथल को मालती नहीं जान पाई थीं.

सुरभी चाय पीतेपीते मां के चेहरे को ध्यान से देख रही थी. उस निश्छल हंसी के पीछे वह दुख, जिसे सुरभी ने हमेशा ही मां की बीमारी का हिस्सा समझा था, उस का राज तो उसे 2 दिन पहले ही पता चला था.

थोड़ी देर बाद नर्स ने आ कर मां को इंजेक्शन लगाया और आराम करने को कहा तो सुरभी भी नीचे अपने कमरे में आ गई.

रहरह कर सुरभी का मन उसे कोस रहा था. कितना गर्व था उसे अपने व मातापिता के रिश्तों पर, जहां कुछ भी गोपनीय न था. सुरभी के बचपन से ले कर आज तक उस की सभी परेशानियों का हल उस की मां ने ही किया था. चाहे वह परीक्षाओं में पेपर की तैयारी करने की हो या किसी लड़के की दोस्ती की, सभी विषयों पर मालती ने एक अच्छे मित्र की तरह उस का मार्गदर्शन किया और जीवन को अपनी तरह से जीने की पूरी आजादी दी. उस की मित्रमंडली को उन मांबेटी के इस मैत्रिक रिश्ते से ईर्ष्या होती थी.

अपनी बीमारी का पता चलते ही मालती को सुरभी की शादी की जल्दी पड़ गई. परंतु उन्हें इस बात के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. परेश के व्यापारिक मित्र व जानेमाने उद्योगपति ईश्वरनाथ के बेटे शिवम का रिश्ता जब सुरभी के लिए आया तो मालती ने चट मंगनी पट ब्याह कर दिया. सुरभी ने शादी के बाद अपना जर्नलिज्म का कोर्स पूरा किया.

‘‘दीदी, मांजी खाने पर आप का इंतजार कर रही हैं,’’ कम्मो ने कमरे के अंदर झांकते हुए कहा.

खाना खाते समय भी सुरभी का मन मां से बारबार खुल कर बातें करने को कर रहा था, मगर वह चुप ही रही. मां को दवा दे कर सुरभी अपने कमरे में चली आई.

‘कितनी गलत थी मैं. कितना नाज था मुझे अपनी और मां की दोस्ती पर मगर दोस्ती तो हमेशा मां ने ही निभाई, मैं ने आज तक उन के लिए क्या किया? लेकिन इस में शायद थोड़ाबहुत कुसूर हमारी संस्कृति का भी है, जिस ने नवीनता की चादर ओढ़ते हुए समाज को इतनी आजादी तो दे दी थी कि मां चाहे तो अपने बच्चों की राजदार बन सकती है. मगर संतान हमेशा संतान ही रहेगी. उन्हें मातापिता के अतीत में झांकने का कोई हक नहीं है,’ आज सुरभी अपनेआप से ही सबकुछ कहसुन रही थी.

हमारी संस्कृति क्या किसी विवाहिता को यह इजाजत देती है कि वह अपनी पुरानी गोपनीय बातें या प्रेमप्रसंग की चर्चा अपने पति या बच्चों से करे. यदि ऐसा हुआ तो तुरंत ही उसे चरित्रहीन करार दे दिया जाएगा. हां, यह बात अलग है कि वह अपने पति के अतीत को जान कर भी चुप रह सकती है और बच्चों के बिगड़ते चालचलन को भी सब से छिपा कर रख सकती है. सुरभी का हृदय आज तर्क पर तर्क दे रहा था और उस का दिमाग खामोशी से सुन रहा था.

सुरभी सोचसोच कर जब बहुत परेशान हो गई तो उस ने कमरे की लाइट बंद कर दी.

मां की वह डायरी पढ़ कर सुरभी तड़प कर रह गई थी. यह सोच कर कि जिन्होंने अपनी सारी उम्र इस घर को, उस के जीवन को सजानेसंवारने में लगा दी, जो हमेशा एक अच्छी पत्नी, मां और उस से भी ऊपर एक मित्र बन कर उस के साथ रहीं, उस स्त्री के मन का एक कोना आज भी गहरे दुख और अपमान की आग में झुलस रहा था.

उस डायरी से ही सुरभी को पता चला कि उस की मां यानी मालती की एम.एससी. करते ही सगाई हो गई थी. मालती के पिता ने एक उद्योगपति घराने में बेटी का रिश्ता पक्का किया था. लड़के का नाम अमित साहनी था. ऊंची कद- काठी, गोरा रंग, रोबदार व्यक्तित्व का मालिक था अमित. मालती पहली ही नजर में अमित को दिल दे बैठी थीं. शादी अगले साल होनी थी. इसलिए मालती ने पीएच.डी. करने की सोची तो अमित ने भी हामी भर दी.

अमित का परिवार दिल्ली में था. फिर भी वह हर सप्ताह मालती से मिलने आगरा चला आता. मगर ठहरता गेस्ट हाउस में ही था. उन की इन मुलाकातों में परिवार की रजामंदी भी शामिल थी, इसलिए उन का प्यार परवान चढ़ने लगा. पर मालती ने इस प्यार को एक सीमा रेखा में बांधे रखा, जिसे अमित ने भी कभी तोड़ने की कोशिश नहीं की.

मालती की परवरिश उन के पिता, बूआ व दादाजी ने की थी. उन की मां तो 2 साल की उम्र में ही उन्हें छोड़ कर मुंबई चली गई थीं. उस के बाद किसी ने मां की खोजखबर नहीं ली. मालती को भी मां के बारे में कुछ भी पूछने की इजाजत नहीं थी. बूआजी के प्यार ने उन्हें कभी मां की याद नहीं आने दी.

बड़ी होने पर मालती ने स्वयं से जीवनभर एक अच्छी और आदर्श पत्नी व मां बन कर रहने का वादा किया था, जिसे उन्होंने बखूबी पूरा किया था.

उन की शादी से पहले की दीवाली आई. मालती के ससुराल वालों की ओर से ढेरों उपहार खुद अमित ले कर आया था. अमित ने अपनी तरफ से मालती को रत्नजडि़त सोने की अंगूठी दी थी. कितना इतरा रही थीं मालती अपनेआप पर. बदले में पिताजी ने भी अमित को अपने स्नेह और शगुन से सिर से पांव तक तौल दिया.

दोपहर के खाने के बाद बूआजी के साथ घर के सामने वाले बगीचे में अमित और मालती बैठे गपशप कर रहे थे. इतने में उन के चौकीदार ने एक बड़ा सा पैकेट और रसीद ला कर बूआजी को थमा दी.

रसीद पर नजर पड़ते ही बूआ खीजती हुई बोलीं, ‘2 महीने पहले कुछ पुराने अलबम दिए थे, अब जा कर स्टूडियो वालों को इन्हें चमका कर भेजने की याद आई है,’ और पैसे लेने वे घर के अंदर चली गईं.

‘लो अमित, तब तक हमारे घर की कुछ पुरानी यादों में तुम भी शामिल हो जाओ,’ कह कर मालती ने एक अलबम अमित की ओर बढ़ा दिया और एक खुद देखने लगीं.

संयोग से मालती के बचपन की फोटो वाला अलबम अमित के हाथ लगा था, जिस में हर एक तसवीर को देख कर वह मालती को चिढ़ाचिढ़ा कर मजे ले रहा था. अचानक एक तसवीर पर जा कर उस की नजर ठहर गई.

‘यह कौन है, मालती, जिस की गोद में तुम बैठी हो?’ अमित जैसे कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था.

‘यह मेरी मां हैं. तुम्हें तो पता ही है कि ये हमारे साथ नहीं रहतीं. पर तुम ऐसे क्यों पूछ रहे हो? क्या तुम इन्हें जानते हो?’ मालती ने उत्सुकता से पूछा.

‘नहीं, बस ऐसे ही पूछ लिया,’ अमित ने कहा.

‘ये हम सब को छोड़ कर वर्षों पहले ही मुंबई चली गई थीं,’ यह स्वर बूआजी का था.

बात वहीं खत्म हो गई थी. शाम को अमित सब से विदा ले कर दिल्ली चला गया.

इतना पढ़ने के बाद सुरभी ने देखा कि डायरी के कई पन्ने खाली थे. जैसे उदास हों.

फिर अचानक एक दिन अमित साहनी के पिता का माफी भरा फोन आया कि यह शादी नहीं हो सकती. सभी को जैसे सांप सूंघ गया. किसी की समझ में कुछ नहीं आया. अमित 2 सप्ताह के लिए बिजनेस का बहाना कर जापान चला गया. इधरउधर की खूब बातें हुईं पर बात वहीं की वहीं रही. एक तरफ अमित के घर वाले जहां शर्मिंदा थे वहीं दूसरी तरफ मालती के घर वाले क्रोधित व अपमानित. लाख चाह कर भी मालती अमित से संपर्क न बना पाईं और न ही इस धोखे का कारण जान पाईं.

जगहंसाई ने पिता को तोड़ डाला. 5 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहे, फिर चल बसे. मालती के लिए यह दूसरा बड़ा आघात था. उन की पढ़ाई बीच में छूट गई.

बूआजी ने फिर से मालती को अपने आंचल में समेट लिया. समय बीतता रहा. इस सदमे से उबरने में उसे 2 साल लग गए तो उन्होंने अपनी पीएच.डी. पूरी की. बूआजी ने उन्हें अपना वास्ता दे कर अमित साहनी जैसे ही मुंबई के जानेमाने उद्योगपति के बेटे परेश से उस का विवाह कर दिया.

अब मालती अपना अतीत अपने दिल के एक कोने में दबा कर वर्तमान में जीने लगीं. उन्होंने कालेज में पढ़ाना भी शुरू कर दिया. परेश ने उन्हें सबकुछ दिया. प्यार, सम्मान, धन और सुरभी.

सभी सुखों के साथ जीते हुए भी जबतब मालती अपनी उस पुरानी टीस को बूंदबूंद कर डायरी के पन्नों पर लिखती थीं. उन पन्नों में जहां अमित के लिए उस की नफरत साफ झलकती थी, वहीं परेश के लिए अपार स्नेह भी दिखता था. उन्हीं पन्नों में सुरभी ने अपना बचपन पढ़ा.

रात के 3 बजे अचानक सुरभी की आंखें खुल गईं. लेटेलेटे वे मां के बारे में सोच रही थीं. वे उन के उस दुख को बांटना चाहती थीं, पर हिचक रही थीं.

अचानक उस की नजर उस बड़ी सी पोस्टरनुमा तसवीर पर पड़ी जिस में वह अपने मम्मीपापा के साथ खड़ी थी. वह पलंग से उठ कर तसवीर के करीब आ गई. काफी देर तक मां का चेहरा यों ही निहारती रही. फिर थोड़ी देर बाद इत्मीनान से वह पलंग पर आ बैठी. उस ने एक फैसला कर लिया था.

सुबह 6 बजे ही उस ने पापा को फोन लगाया. सुन कर सुरभी आश्वस्त हो गई कि पापा के लौटने में सप्ताह भर बाकी है. वह पापा की गैरमौजूदगी में ही अपनी योजना को अंजाम देना चाहती थी.

उस दिन वह दिल्ली में रह रहे दूसरे पत्रकार मित्रों से फोन पर बातें करती रही. दोपहर तक उसे यह सूचना मिल गई कि अमित साहनी इस समय दिल्ली में अपने पुश्तैनी मकान में हैं.

शाम को मां को बताया कि दिल्ली में उस की एक पुरानी सहेली एक डाक्युमेंटरी फिल्म तैयार कर रही है और इस फिल्म निर्माण का अनुभव वह भी लेना चाहती है. मां ने हमेशा की तरह हामी भर दी. सुरभी नर्स और कम्मो को कुछ हिदायतें दे कर दिल्ली चली गई.

अब समस्या थी अमित साहनी जैसी बड़ी हस्ती से मुलाकात की. दोस्तों की मदद से उन तक पहुचंने का समय उस के पास नहीं था, इसलिए उस ने योजना के अनुसार अपने ससुर ईश्वरनाथ से अपनी ही एक दोस्त का नाम ले कर अमित साहनी से मुलाकात का समय फिक्स कराया. ईश्वरनाथ के लिए यह कोई बड़ी बात न थी.

अगले दिन सुबह 10 बजे का वक्त सुरभी को दिया गया. आज ऐसे वक्त में पत्रकारिता का कोर्स उस के काम आ रहा था.

खैर, मां की नफरत से मिलने के लिए उस ने खुद को पूरी तरह से तैयार कर लिया.

अगले दिन पूरी जांचपड़ताल के बाद सुरभी ठीक 10 बजे अमित साहनी के सामने थी. वे इस उम्र में भी बहुत तंदुरुस्त और आकर्षक थे. पोतापोती व पत्नी भी उन के साथ थे.

परिवार सहित उन की कुछ तसवीरें लेने के बाद सुरभी ने उन से कुछ औपचारिक प्रश्न पूछे पर असल मुद्दे पर न आ सकी, क्योंकि उन की पत्नी भी कुछ दूरी पर बैठी थीं. सुरभी इस के लिए भी तैयार हो कर आई थी. उस ने अपनी आटोग्राफ बुक अमित साहनी की ओर बढ़ा दी.

अमित साहनी ने जैसे ही चश्मा लगा कर पेन पकड़ा, उन की नजर मालती की पुरानी तसवीर पर पड़ी. उस के नीचे लिखा था, ‘‘मैं मालतीजी की बेटी हूं और मेरा आप से मिलना बहुत जरूरी है.’’

पढ़ते ही अमित का हाथ रुक गया. उन्होंने प्यार भरी एक भरपूर नजर सुरभी पर डाली और बुक में कुछ लिख कर बुक सुरभी की ओर बढ़ा दी. फिर चश्मा उतार कर पत्नी से आंख बचा कर अपनी नम आंखों को पोंछा.

सुरभी ने पढ़ा, लिखा था : ‘जीती रहो, अपना नंबर दे जाओ.’

पढ़ते ही सुरभी ने पर्स में से अपना कार्ड उन्हें थमा दिया और चली गई.

फोन से उस का पता मालूम कर तड़के साढ़े 5 बजे ही अमित साहनी सिर पर मफलर डाले सुरभी के सामने थे.

‘‘सुबह की सैर का यही 1 घंटा है जब मैं नितांत अकेला रहता हूं,’’ उन्होंने अंदर आते हुए कहा.

सुरभी उन्हें इस तरह देख आश्चर्य में तो जरूर थी, पर जल्दी ही खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘सर, समय बहुत कम है. इसलिए सीधी बात करना चाहती हूं.’’

‘‘मुझे भी तुम से यही कहना है,’’ अमित भी उसी लहजे में बोले.

तब तक वेटर चाय रख गया.

‘‘मेरी मम्मी आप की ही जबान से कुछ जानना चाहती हैं,’’ गंभीरता से सुरभी ने कहा.

सुन कर अमित साहनी की नजरें झुक गईं.

‘‘आप मेरे साथ कब चल रहे हैं मां से मिलने?’’ बिना कुछ सोचे सुरभी ने अगला प्रश्न किया.

‘‘अगर मैं तुम्हारे साथ चलने से मना कर दूं तो?’’ अमित साहनी ने सख्ती से पूछा.

‘‘मैं इस से ज्यादा आप से उम्मीद भी नहीं करती, मगर इनसानियत के नाते ही सही, अगर आप उन का जरा सा भी सम्मान करते हैं तो उन से जरूर मिलिएगा. वे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं,’’ कहतेकहते नफरत और दुख से सुरभी की आंखें भर आईं.

‘‘क्या हुआ मालती को?’’ चाय का कप मेज पर रख कर चौंकते हुए अमित ने पूछा.

‘‘उन्हें कैंसर है और पता नहीं अब कितने दिन की हैं…’’ सुरभी भरे गले से बोल गई.

‘‘ओह, सौरी बेटा, तुम जाओ, मैं जल्दी ही मुंबई आऊंगा,’’ अमित साहनी धीरे से बोले और सुरभी से उस के घर का पता ले कर चले गए.

दोपहर को सुरभी मां के पास पहुंच गई.

‘‘कैसी रही तेरी फिल्म?’’ मां ने पूछा.

‘‘अभी पूरी नहीं हुई मम्मी, पर वहां अच्छा लगा,’’ कह कर सुरभी मां के गले लग गई.

‘‘दीदी, कल रात मांजी खुद उठ कर अपने स्टोर रूम में गई थीं. लग रहा था जैसे कुछ ढूंढ़ रही हों. काफी परेशान लग रही थीं,’’ कम्मो ने सीढि़यां उतरते हुए कहा.

थोड़ी देर बाद मां से आंख बचा कर उस ने उन की डायरी स्टोर रूम में ही रख दी.

उसी रात सुरभी को अमित साहनी का फोन आया कि वह कल साढ़े 11 बजे की फ्लाइट से मुंबई आ रहे हैं. सुरभी को मां की डायरी का हर वह पन्ना याद आ रहा था जिस में लिखा था कि काश, मृत्यु से पहले एक बार अमित उस के सवालों के जवाब दे जाता. कल का दिन मां की जिंदगी का अहम दिन बनने जा रहा था. यही सोचते हुए सुरभी की आंख लग गई.

अगले दिन उस ने नर्स से दवा आदि के बारे में समझ कर उसे भी रात को आने को बोल दिया.

करीब 1 बजे अमित साहनी उन के घर पहुंचे. सुरभी ने हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया तो उन्होंने ढेरोें आशीर्वाद दे डाले.

‘‘आप यहीं बैठिए, मैं मां को बता कर आती हूं. एक विनती है, हमारी मुलाकात का मां को पता न चले. शायद बेटी के आगे वे कमजोर पड़ जाएं,’’ सुरभी ने कहा और ऊपर चली गई.

‘‘मम्मी, आप से कोई मिलने आया है,’’ उस ने अनजान बनते हुए कहा.

‘‘कौन है?’’ मां ने सूप का बाउल कम्मो को पकड़ाते हुए पूछा.

‘‘कोई मिस्टर अमित साहनी नाम के सज्जन हैं. कह रहे हैं, दिल्ली से आए हैं,’’ सुरभी वैसे ही अनजान बनी रही.

‘‘क…क…कौन आया है?’’ मां के शब्दों में एक शक्ति सी आ गई थी.

‘‘ऐसा करती हूं आप यहीं रहिए. उन्हें ही ऊपर बुला लेते हैं,’’ मां के चेहरे पर आए भाव सुरभी से देखे नहीं जा रहे थे. वह जल्दी से कह कर बाहर आ गई.

मालती कुछ भी सोचने की हालत में नहीं थीं. यह वह मुलाकात थी जिस के बारे में उन्होंने हर दिन सोचा था.

थोड़ी देर में सुरभी के पीछेपीछे अमित साहनी कमरे में दाखिल हुए, मालती के पसंदीदा पीले गुलाबों के बुके के साथ. मालती का पूरा अस्तित्व कांप रहा था. फिर भी उन्होंने अमित का अभिवादन किया.

सुरभी इस समय की मां की मानसिक अवस्था को अच्छी तरह समझ रही थी. वह आज मां को खुल कर बात करने का मौका देना चाहती थी, इसलिए डा. आशुतोष के पास उन की कुछ रिपोर्ट्स लेने के बहाने वह घर से बाहर चली गई.

‘‘कितने बेशर्म हो तुम जो इस तरह से मेरे सामने आ गए?’’ न चाहते हुए भी मालती क्रोध से चीख उठीं.

‘‘कैसी हो, मालती?’’ उस की बातों पर ध्यान न देते हुए अमित ने पूछा और पास के सोफे पर बैठ गए.

‘‘अभी तक जिंदा हूं,’’ मालती का क्रोध उफान पर था. उन का मन तो कर रहा था कि जा कर अमित का मुंह नोच लें.

इस के विपरीत अमित शांत बैठे थे. शायद वे भी चाहते थे कि मालती के अंदर का भरा क्रोध आज पूरी तरह से निकल जाए.

‘‘होटल ताज में ईश्वरनाथजी से मुलाकात हुई थी. उन्हीं से तुम्हारे बारे में पता चला. तभी से मन बारबार तुम से मिलने को कर रहा था,’’ अमित ने सुरभी के सिखाए शब्द दोहरा दिए. परंतु यह स्वयं उस के दिल की बात भी थी.

‘‘मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया, अमित?’’ अपलक अमित को देख रही मालती ने उन की बातों को अनसुना कर अपनी बात रखी.

इतने में कम्मो चाय और नाश्ता रख गई.

‘‘तुम्हें याद है वह दोपहरी जब मैं ने एक तसवीर के विषय में तुम से पूछा था और तुम ने उन्हें अपनी मां बताया था?’’ अमित ने मालती को पुरानी बातें याद दिलाईं.

मालती यों ही खामोश बैठी रहीं तो अमित ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘उस तसवीर को मैं तुम सब से छिपा कर एक शक दूर करने के लिए अपने साथ दिल्ली ले गया था. मेरा शक सही निकला था. यह वृंदा यानी तुम्हारी मां वही औरत थी जो दिल्ली में अपने पार्टनर के साथ एक मशहूर ब्यूटीपार्लर और मसाज सेंटर चलाती थी. इस से पहले वह यहीं मुंबई में मौडलिंग करती थी. उस का नया नाम वैंडी था.’’

इस के बाद अमित ने अपनी चाय बनाई और मालती की भी.

उस ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘उस मसाज सेंटर की आड़ में ड्रग्स की बिक्री, वेश्यावृत्ति जैसे धंधे होते थे और समाज के उच्च तबके के लोग वहां के ग्राहक थे.’’

‘‘ओह, तो यह बात थी. पर इस में मेरी क्या गलती थी?’’ रोते हुए मालती ने पूछा.

‘‘जब मैं ने एम.बी.ए. में नयानया दाखिला लिया था तब मेरे दोस्तों में से कुछ लड़के भी वहां के ग्राहक थे. एक बार हम दोस्तों ने दक्षिण भारत घूमने का 7 दिन का कार्यक्रम बनाया और हम सभी इस बात से बहुत रोमांचित थे कि उस मसाज सेंटर से हम लोगों ने जो 2 टौप की काल गर्ल्स बुक कराई थीं उन में से एक वैंडी भी थी जिसे हाई प्रोफाइल ग्राहकों के बीच ‘पुरानी शराब’ कह कर बुलाया जाता था. उस की उम्र उस के व्यापार के आड़े नहीं आई थी,’’ अमित ने अपनी बात जारी रखी. उसे अब मालती के सवाल भी सुनाई नहीं दे रहे थे.

चाय का कप मेज पर रखते हुए अमित ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘मेरी परवरिश ने मेरे कदम जरूर बहका दिए थे मालती, पर मैं इतना भी नीचे नहीं गिरा था कि जिस स्त्री के साथ 7 दिन बिताए थे, उसी की मासूम और अनजान बेटी को पत्नी बना कर उस के साथ जिंदगी बिताता? मेरा विश्वास करो मालती, यह घटना तुम्हारे मिलने से पहले की है. मैं तुम से बहुत प्यार करता था. मुझे अपने परिवार की बदनामी का भी डर था, इसलिए तुम से बिना कुछ कहेसुने दूर हो गया,’’ कह कर अमित ने अपना सिर सोफे पर टिका दिया.

आज बरसों का बोझ उन के मन से हट गया था. मालती भी अब लेट गई थीं. वे अभी भी खामोश थीं.

थोड़ी देर बाद अमित चले गए. उन के जाने के बाद मालती बहुत देर तक रोती रहीं.

रात के खाने पर जब सुरभी ने अमित के बारे में पूछा तो उन्होंने उसे पुराना पारिवारिक मित्र बताया. लगभग 3 महीने बाद मालती चल बसीं. परंतु इतने समय उन के अंदर की खुशी को सभी ने महसूस किया था. उन के मृत चेहरे पर भी सुरभी ने गहरी संतुष्टि भरी मुसकान देखी थी.

मां की तेरहवीं वाले दिन अचानक सुरभी को उस डायरी की याद आई. उस में लिखा था : मुझे क्षमा कर देना अमित, तुम ने अपने साथसाथ मेरे परिवार की इज्जत भी रख ली थी. मैं पूर्ण रूप से तृप्त हूं. मेरी सारी प्यास बुझ गई.

पढ़ते ही सुरभी ने डायरी सीने से लगा ली. उस में उसे मां की गरमाहट महसूस हुई थी. आज उसे स्वयं पर गर्व था क्योंकि उस ने सही माने में मां के प्रति अपनी दोस्ती का फर्ज जो अदा किया था.

Romantic Story : पसंद अपनी अपनी – सुंदरता की परिभाषा क्या है?

Romantic Story : आजकल लड़कियों की कदकाठी, रूपरंग, चेहरे की बनावट, आंखों का आकारप्रकार, बालों की लंबाई व चमक आदि को ले कर चर्चाएं होती हैं. लड़कियां सोचती हैं कि अधिक से अधिक सुंदर दिखना आज उन की जरूरत बन गई है.

इसलिए लड़कियां अधिक से अधिक खूबसूरत दिखने के लिए ऐसे विज्ञापनों और सौंदर्य प्रसाधनों की ओर भागती रहती हैं जो कुछ ही सप्ताह में सांवला रंग गोरा करने का दावा करते हैं.

खासकर, उत्तर भारत में गोरे रंग को काफी मान्यता मिल गईर् है. शादी के लिए लड़की का गोरा होना आज पहली शर्त है. वैवाहिक विज्ञापनों के अनुसार सभी लड़कों को गोरी लड़कियां ही चाहिए. मैं तो उन विज्ञापनों की हमेशा तलाश में रहती हूं जिन में गोरे, काले, सांवले, गेहुंए का सवाल न हो.

मेरी मां सांवली थीं और पापा गोरे थे. मैं मम्मी पर गई थी और सोमेश दादा पापा पर. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि सांवली मम्मी की शादी गोरे पापा से कैसे हो गई. मैं अकसर यह सवाल पापा से कर बैठती थी कि उन्होंने सांवली मम्मी के साथ शादी कैसे कर ली.

एक दिन मेरी बात सुन कर पापा खिलखिला कर हंस पडे़ थे.

‘‘उस समय लड़की देखने का रिवाज नहीं था, सब कुछ मांबाप ही तय करते थे. लड़के तो सुहागरात में ही पत्नी का दीदार कर पाते थे, वह भी दीपक के प्रकाश में. जिस लड़के की शादी तय हो जाती थी वह इतना खुश हो जाता था जैसे पहली बार थियेटर देखने जा रहा हो.’’

‘‘आप भी उसी तरह खुश हुए थे, पापा?’’

उत्तर में पापा की तेज हंसी से पूरा घर गूंज उठा था, जिस में मेरा सवाल डूब गया था. पापा ने बात बदल कर कहा, ‘‘देखना तेरी शादी गोरे लड़के से ही होगी…’’

पापा जब एक बार बोलना शुरू करते थे तो अपनी वाणी को विराम देना ही भूल जाते थे. अभी मैं ने विज्ञान विषय में इंटर ही किया था कि पापा ने मेरे लिए लड़के की तलाश शुरू कर दी थी. पर मेरा गहरा सांवला रंग देख कर लड़के बिदक जाते थे.

अब तक पापा के खोजे 10 लड़के मुंह बिचका कर जा चुके थे. मैं अपनी पढ़ाई में लगी रही. मम्मी, पापा से कहतीं, ‘‘अगर क्षमा की शादी नहीं हो पा रही है तो आप सोमेश की शादी क्यों नहीं कर देते?’’

22 साल की होतेहोते मैं ने एम.बी.बी.एस. कर लिया था. सोमेश दादा एल.एल.एम. कर के एक डिगरी कालिज में लेक्चरर हो गए थे. पापा मेरे लिए लड़के की तलाश अब भी कर रहे थे.

एक दिन पापा जब कालिज से पढ़ा कर लौटे तो बहुत खुश थे. आते ही उन्होंने घर में घोषणा कर दी, ‘‘क्षमा के लिए लड़के की तलाश पूरी हो गई है. लड़का चार्टर्ड एकाउंटेंट है. कल ही वह अपने मातापिता के साथ क्षमा को देखने आ रहा है. किसी प्रकार के तकल्लुफ की जरूरत नहीं है.’’

दूसरे दिन लड़का अपने मम्मीपापा के साथ मुझे देखने आया. गोराचिट्टा, 6 फुट लंबा, 15 मिनट के साक्षात्कार में मुझे पसंद कर लिया गया. मैं अविश्वासों से घिर गई थी. सोचने लगी, जरूर कोई खास बात होगी, या तो उस में कोई कमी होगी या उस के दिमाग का कोई स्क्रू ढीला होगा.

खैर, मेरी शादी हो गई. पापा के लिए तो लड़का सर्वगुण संपन्न था ही. आशंकाएं तो सिर्फ मुझे थीं. नाना प्रकार की आशंकाओं में घिरी मैं अपनी ससुराल पहुंची. घर के  सभी लोगों ने मुझे पलकों पर बैठा लिया. उस से मेरी आशंकाएं और बढ़ गईं. सुहागसेज पर मैं ने रवि से पूछा, ‘‘आप ने मुझ जैसी लड़की को कैसे पसंद किया?’’

रवि ने मुसकरा कर मेरी ओर देखा. बड़ी देख तक वह मुझे निहारते रहे. फिर कहने लगे, ‘‘दरअसल, क्षमा, गोरी लड़कियां मुझे अच्छी नहीं लगतीं. ज्यादातर गोरी लड़कियों के चेहरों की बनावट अच्छी नहीं होती. दांत तो खासतौर पर अच्छे नहीं होते. इसीलिए मुझे तुम्हारी जैसी लड़की की तलाश थी. दूसरी बात यह कि पतिपत्नी के रूपरंग में भिन्नता होनी चाहिए. जानती हो, यह सारी प्रकृति भिन्नता के आधार पर निर्मित हुई है इसीलिए इस में इतना आकर्षण है. भिन्नता इसलिए भी जरूरी है ताकि पतिपत्नी का व्यक्तित्व अलग दिखे. एकरूपता में सौंदर्य उतना नहीं झलकता जितना भिन्नता में,’’ कह कर रवि ने बत्ती बुझा दी.

मैं ने पहली बार नारीपुरुष का भेद समझा था. सुबह काफी देर से आंख खुली. मैँ ने देखा कि रवि बेड पर नहीं हैं. मैं अलसाई आंखों से इधरउधर उन्हें ढूंढ़ने लगी थी. इतने में कमरे का परदा हिला. उसी के साथ रवि एक छोटी सी टे्र में चाय के 2 प्यालों के साथ कमरे में दाखिल हुए.

‘‘आप…’’ मैं अचकचा कर बोली.

‘‘मैं ने निश्चय किया था कि पहली चाय मैं ही बना कर तुम्हें पिलाऊंगा.’’

मुझे कोई उत्तर नहीं सूझा था. मैं रवि को निहारती रह गई थी.

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