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Hindi Kahani : सुधा का सत्य – धीरेंद्र सच क्यों नहीं पचा पा रहा था

Hindi Kahani : ‘‘यह किस का प्रेमपत्र है?’’ सुधा ने धीरेंद्र के सामने गुलाबी रंग का लिफाफा रखते हुए कहा.

‘‘यह प्रेमपत्र है, तो जाहिर है कि किसी प्रेमिका का ही होगा,’’ सुधा ने जितना चिढ़ कर प्रश्न किया था धीरेंद्र ने उतनी ही लापरवाही से उत्तर दिया तो वह बुरी तरह बिफर गई.

‘‘कितने बेशर्म इनसान हो तुम. तुम ने अपने चेहरे पर इतने मुखौटे लगाए हुए हैं कि मैं आज तक तुम्हारे असली रूप को समझ नहीं सकी हूं. क्या मैं जान सकती हूं कि तुम्हारे जीवन में आने वाली प्रेमिकाओं में इस का क्रमांक क्या है?’’

सुधा ने आज जैसे लड़ने के लिए कमर कस ली थी, लेकिन धीरेंद्र ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. दफ्तर से लौट कर वह फिर से बाहर निकल जाने को तैयार हो रहा था.

कमीज पहनता हुआ बोला, ‘‘सुधा, तुम्हें मेरी ओर देखने की फुरसत ही कहां रहती है? तुम्हारे बच्चे, तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारी सहेलियां, रिश्तेदार इन सब की देखभाल और आवभगत के बाद अपने इस पति नाम के प्राणी के लिए तुम्हारे पास न तो समय बचता है और न ही शक्ति.

‘‘आखिर मैं भी इनसान हूं्. मेरी भी इच्छाएं हैं. मुझे भी लगता है कि कोई ऐसा हो जो मेरी, केवल मेरी बात सुने और माने, मेरी आवश्यकताएं समझे. अगर मुझे यह सब करने वाली कोई मिल गई है तो तुम्हें चिढ़ क्यों हो रही है? बल्कि तुम्हें तो खुशी होनी चाहिए कि अब तुम्हें मेरे लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है.’’

धीरेंद्र की बात पर सुधा का खून खौलने लगा, ‘‘क्या कहने आप के, अच्छा, यह बताओ जब बच्चे नहीं थे, मेरी पढ़ाई नहीं चल रही थी, सहेलियां, रिश्तेदार कोई भी नहीं था, मेरा सारा समय जब केवल तुम्हारे लिए ही था, तब इन देखभाल करने वालियों की तुम्हें क्यों जरूरत पड़ गई थी?’’ सुधा का इशारा ललिता वाली घटना की ओर था.

तब उन के विवाह को साल भर ही हुआ था. एक दिन भोलू की मां धुले कपड़े छत पर सुखा कर नीचे आई तो चौके में काम करती सुधा को देख कर चौंक गई, ‘अरे, बहूरानी, तुम यहां चौके में बैठी हो. ऊपर तुम्हारे कमरे में धीरेंद्र बाबू किसी लड़की से बतिया रहे हैं.’

भोलू की मां की बात को समझने में अम्मांजी को जरा भी देर नहीं लगी. वह झट अपने हाथ का काम छोड़ कर उठ खड़ी हुई थीं, ‘देखूं, धीरेंद्र किस से बात कर रहा है?’ कह कर वह छत की ओर जाने वाली सीढि़यों की ओर चल पड़ी थीं.

सुधा कुछ देर तक तो अनिश्चय की हालत में रुकी रही, पर जल्दी ही गैस बंद कर के वह भी उन के पीछे चल पड़ी थी.

ऊपर के दृश्य की शुरुआत तो सुधा नहीं देख सकी लेकिन जो कुछ भी उस ने देखा, उस से स्थिति का अंदाजा लगाने में उसे तनिक भी नहीं सोचना पड़ा. खुले दरवाजे पर अम्मांजी चंडी का रूप धरे खड़ी थीं. अंदर कमरे में सकपकाए से धीरेंद्र के पास ही सफेद फक चेहरे और कांपती काया में पड़ोस की ललिता खड़ी थी.

इस घटना का पता तो गिनेचुने लोगों के बीच ही सीमित रहा, लेकिन इस के परिणाम सभी की समझ में आए थे. पड़ोसिन सुमित्रा भाभी ने अपनी छोटी बहन ललिता को एक ही हफ्ते में पढ़ाई छुड़वा कर वापस भिजवा दिया था. उस के बाद दोनों घरों के बीच जो गहरे स्नेहिल संबंध थे, वे भी बिखर गए थे.

अभी सुधा ने उसी घटना को ले कर व्यंग्य किया था. धीरेंद्र इस पर खीज गया. बोला, ‘‘पुरानी बातें क्यों उखाड़ती हो? उस बात का इस से क्या संबंध है?’’

‘‘है क्यों नहीं? खूब संबंध है. वह भी तुम्हारी प्रेमिका थी और यह भी जैसा तुम कह रहे हो, तुम्हारी प्रेमिका है. बस, फर्क यही है कि वह तीसरी या चौथी प्रेमिका रही होगी और यह 5वीं या छठी प्रेमिका है,’’ सुधा चिल्लाई.

‘‘चुप करो, सुधा, तुम एक बार बोलना शुरू करती हो तो बोलती चली जाती हो. पल्लवी को तुम इस श्रेणी में नहीं रख सकतीं. तुम क्या जानो, वह मेरा कितना ध्यान रखती है.’’

‘‘सब जानती हूं. और यह भी जानती हूं कि अगर ये ध्यान रखने वालियां तुम्हारे जीवन में न आतीं तो भी तुम अच्छी तरह जिंदा रहते. तब कम से कम दुनिया के सामने दोहरी जिंदगी जीने की मजबूरी तो न होती.’’

सुधा को लगा कि वह अगर कुछ क्षण और वहां रुकी तो रो पड़ेगी. धीरेंद्र के सामने वह अब कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी. पहले भी जब कभी धीरेंद्र के प्रेमप्रसंग के भेद खुले थे, वह खूब रोईधोई थी, लेकिन धीरेंद्र पर इस का कोई विशेष असर कभी नहीं पड़ा था.

धीरेंद्र तो अपनी टाई ठीक कर के, जूतों को एक बार फिर ब्रश से चमका कर घर से निकल गया, लेकिन सुधा के मन में तूफान पैदा कर गया. अंदर कमरे में जा कर सुधा ने सारे ऊनी कपड़े और स्वेटर आदि फिर से अलमारी में भर दिए.

सर्दियां बीत चुकी थीं. अब गरमियों के दिनों की हलकीहलकी खुनक दोपहर की धूप में चढ़नी शुरू हो गई थी. आज सुधा ने सोचा था कि वह घर भर के सारे ऊनी कपड़े निकाल कर बाहर धूप में डाल देगी. 2 दिन अच्छी धूप दिखा कर ऊनी कपड़ों में नेप्थलीन की गोलियां डाल कर उन्हें बक्सों में वह हर साल बंद कर दिया करती थी.

आज भी धूप में डालने से पहले वह हर कपड़े की जेब टटोल कर खाली करती जा रही थी. तभी धीरेंद्र के स्लेटी रंग के सूट के कोट की अंदर की जेब में उसे यह गुलाबी लिफाफा मिला था.

बहुत साल पहले स्कूल के दिनों में सुधा ने एक प्रेमपत्र पढ़ा था, जो उस के बगल की सीट पर बैठने वाली लड़की ने उसे दिखाया था. यह पत्र उस लड़की को रोज स्कूल के फाटक पर मिलने वाले एक लड़के ने दिया था. उस पत्र की पहली पंक्ति सुधा को आज भी अच्छी तरह याद थी, ‘सेवा में निवेदन है कि आप मेरे दिल में बैठ चुकी हैं…’

धीरेंद्र के कोट की जेब से मिला पत्र भी कुछ इसी प्रकार से अंगरेजी में लिखा गया प्रेमपत्र था. बेहद बचकानी भावुकता में किसी लड़की ने धीरेंद्र को यह पत्र लिखा था. पत्र पढ़ कर सुधा के तनमन में आग सी लग गई थी.

पता नहीं ऐसा क्यों होता था. सुधा जब भी परेशान होती थी, उस के सिर में दर्द शुरू हो जाता था. इस समय भी वह हलकाहलका सिरदर्द महसूस कर रही थी. अभी वह अलमारी में कपड़े जैसेतैसे भर कर कमरे से बाहर ही आई थी कि पीछे से विनीत आ गया.

‘‘मां, मैं सारंग के घर खेलने जाऊं?’’ उस ने पूछा.

‘‘नहीं, तुम कहीं नहीं जाओगे. बैठ कर पढ़ो,’’ सुधा ने रूखेपन से कहा.

‘‘लेकिन मां, मैं अभी तो स्कूल से आया हूं. इस समय तो मैं रोज ही खेलने जाता हूं,’’ उस ने अपने पक्ष में दलील दी.

‘‘तो ठीक है, बाहर जा कर खेलो,’’ सुधा ने उसे टालना चाहा. वह इस समय कुछ देर अकेली रहना चाहती थी.

‘‘पर मां, मैं उसे कह चुका हूं कि आज मैं उस के घर आऊंगा,’’ विनीत अपनी बात पर अड़ गया.

‘‘मैं ने कहा न कि कहीं भी नहीं जाना है. अब मेरा सिर मत खाओ. जाओ यहां से,’’ सुधा झल्ला गई.

‘‘मां, बस एक बार, आज उस के घर चले जाने दो. उस के चाचाजी अमेरिका से बहुत अच्छे खिलौने लाए हैं. मैं ने उस से कहा है कि मैं आज देखने आऊंगा. मां, आज मुझे जाने दो न,’’ विनीत अनुनय पर उतर आया.

पर सुधा आज दूसरे ही मूड में थी. उस का गुस्सा एकदम भड़क उठा, ‘‘बेवकूफ, मैं इतनी देर से मना कर रही हूं, बात समझना ही नहीं चाहता. पीछे ही पड़ गया है. ठीक है, कहने से बात समझ में नहीं आ रही है न तो ले, तुझे दूसरे तरीके से समझाती हूं…’’

सुधा ने अपनी बात खत्म करने से पहले ही विनीत के गाल पर चटचट कई चांटे जड़ दिए. मां के इस रूप से अचंभित विनीत न तो कुछ बोला और न ही रोया, बस चुपचाप आंखें फाड़े मां को ताकता रहा.

चांटों से लाल पड़े गाल और विस्मय से फैली आंखों वाले विनीत को देख कर सुधा अपने होश में लौट आई. विनीत यदाकदा ही उस से पूछ कर सारंग के घर चला जाता था. आज सुधा को क्या हो गया था, जो उस ने अकारण ही अपने मासूम बेटे को पीट डाला था. सारा क्रोध धीरेंद्र के कारण था, पर उस पर तो बस चला नहीं, गुस्सा उतरा निर्दोष विनीत पर.

उस का सारा रोष निरीहता में बदल गया. वह दरवाजे की चौखट से माथा टिका कर रो दी.सुधा की यह व्यथा कोई आज की नई व्यथा नहीं थी. धीरेंद्र के शादी से पहले के प्रेमप्रसंगों को भी उस के साथियों ने मजाकमजाक में सुना डाला था. पर वे सब उस समय तक बीती बातें हो गई थीं, लेकिन ललिता वाली घटना ने तो सुधा को झकझोर कर रख दिया था. बाद में भी जब कभी धीरेंद्र के किसी प्रेमप्रसंग की चर्चा उस तक पहुंचती तो वह बिखर जाती थी. लेकिन ललिता वाली घटना से तो वह बहुत समय तक उबर नहीं पाई थी.

तब धीरेंद्र ने भी सुधा को मनाने के लिए क्या कुछ नहीं किया था, ‘बीती ताहि बिसार दे’ कह कर उस ने कान पकड़ कर कसमें तक खा डाली थीं, पर सुधा को अब धीरेंद्र की हर बात जहर सी लगती थी.

तभी एक दिन सुबहसुबह मनीष ने नाचनाच कर सारा घर सिर पर उठा लिया था, ‘‘भैया पास हो गए हैं. देखो, इस अखबार में उन का नाम छपा है.’’

धीरेंद्र ने एक प्रतियोगी परीक्षा दी थी. उस का परिणाम आ गया था. धीरेंद्र की इस सफलता ने सारे बिखराव को पल भर में समेट दिया था. अब तो धीरेंद्र का भविष्य ही बदल जाने वाला था. सारे घर के साथ सुधा भी धीरेंद्र की इस सफलता से उस के प्रति अपनी सारी कड़वाहट को भूल गई. उसे लगा कि यह उस के नए सुखी जीवन की शुरुआत की सूचना है, जो धीरेंद्र के परीक्षा परिणाम के रूप में आई है.

इस के बाद काफी समय व्यस्तता में ही निकल गया था. धीरेंद्र ने अपनी नई नौकरी का कार्यभार संभाल लिया था. नई जगह और नए सम्मान ने सुधा के जीवन में भी उमंग भर दी थी. उस के मन में धीरेंद्र के प्रति एक नए विश्वास और प्रेम ने जन्म ले लिया था. तभी उस ने निर्णय लिया था. वह धीरेंद्र के इस नए पद के अनुरूप ही अपनेआप को बना लेगी. वह अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करेगी.

सुधा के इस निर्णय पर धीरेंद्र ने अपनी सहमति ही जताई थी. अब घर के कामों के लिए उन्हें नौकर रखने की सुविधा हो गई थी. इसलिए सुधा की पढ़ाई शुरू करने की सुविधा जुटते देर नहीं लगी. वह बेफिक्र हो कर प्राइवेट बी.ए. करने की तैयारी में जुट गई.

कभी ऐसा भी होता है कि मन का सोचा आसानी से पूरा नहीं होता. सुधा के साथ यही हुआ. उस की सारी मेहनत, सुविधा एक ओर रखी रह गई. सुधा परीक्षा ही नहीं दे सकी. पर इस बाधा का बुरा मानने का न तो उस के पास समय था और न इच्छा ही थी. एक खूबसूरत स्वस्थ बेटे की मां बन कर एक तो क्या, वह कई बी.ए. की डिगरियों का मोह छोड़ने को तैयार थी.

विनीत 2 साल का ही हुआ था कि उस की बहन निधि आ गई और इन दोनों के बीच सुधा धीरेंद्र तक को भूल गई. उन के साथ वह ऐसी बंधी कि बाहर की दुनिया के उस के सारे संपर्क ही खत्म से हो गए.

घर और बच्चों के बीच उलझी सुधा तक धीरेंद्र की गतिविधियों की उड़ती खबर कभीकभी पहुंच जाती थी कि वह अपने दफ्तर की कुछ महिला कर्मचारियों पर अधिक ही मेहरबान रहता है. पिछले कुछ सालों के धीरेंद्र के व्यवहार से सुधा समझ बैठी थी कि अब उस में उम्र की गंभीरता आ गई है और वह पुराने वाला दिलफेंक धीरेंद्र नहीं रहा है. इसलिए उस ने इन अफवाहों को अधिक महत्त्व नहीं दिया.

एक दिन सुहास आया, तब धीरेंद्र घर पर नहीं था. उस ने सुधा को घंटे भर में ही सारी सूचनाएं दे डालीं और जातेजाते बोल गया, ‘‘दोस्त के साथ गद्दारी तो कर रहा हूं, लेकिन उस की भलाई के लिए कर रहा हूं. इसलिए मन में कोई मलाल तो नहीं है. बस, थोड़ा सा डर है कि यह बात पता लगने पर धीरेंद्र मुझे छोड़ेगा तो नहीं. शायद लड़ाई ही कर बैठे. लेकिन वह तो मैं भुगत लूंगा. अब भाभीजी, आगे आप उसे ठीक करने का उपाय करें.’’

उस दिन सुधा मन ही मन योजनाएं बनाती रही कि किस तरह वह धीरेंद्र को लाजवाब कर के माफी मंगवा कर रहेगी. लेकिन जब उस का धीरेंद्र से सामना हुआ तो शुरुआत ही गलत हो गई. धीरेंद्र ने उस के सभी आक्रमणों को काट कर बेकार करना शुरू कर दिया. अंत में जब कुछ नहीं सूझा तो सुधा का रोनाधोना शुरू हो गया. बात वहीं खत्म हो गई, लेकिन सुधा के मन में उन लड़कियों के नाम कांटे की तरह चुभते रहे थे. तब उन नामोें में पल्लवी का नाम नहीं था.

समय बीत रहा था, विनीत के साथ निधि ने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया तो एक बार फिर सुधा को अपनी छूटी  हुई पढ़ाई का ध्यान आया. इस बार वह सबकुछ भूल कर अपनी पढ़ाई में जुट गई. धीरेंद्र के साथ उस के संबंध फिर से सामान्य हो चले थे. अब की बार सुधा ने पूरी तैयारी के साथ परीक्षा दी और पास हो गई. सुधा को धीरेंद्र ने भी खुले दिल से बधाई दी.

सुधा और धीरेंद्र के सामान्य गति से चलते जीवन में पल्लवी के पत्र से एक नया तूफान उठ खड़ा हुआ. एक दिन दुखी हो कर उस ने धीरेंद्र से पूछ ही लिया, ‘‘तुम कितनी बार मेरे धीरज की परीक्षा लोगे? क्यों बारबार मुझे इस तरह सलीब पर चढ़ाते हो? आखिर यह किस दोष के लिए सजा देते हो, मुझे पता तो चले…’’

‘‘क्या बेकार की बकवास करती हो. तुम्हें कौन फांसी पर चढ़ाए दे रहा है? मैं क्या करता हूं, क्या नहीं करता, इस से तुम्हारे घर में तो कोई कमी नहीं आ रही है. फिर क्यों हर समय अपना दुखड़ा रोती रहती हो? मैं तो तुम से कोई शिकायत नहीं करता, न तुम से कुछ चाहता ही हूं.’’

धीरेंद्र की यह बात सुधा समझ नहीं पाती थी. बोली, ‘‘मेरा रोनाधोना कुछ नहीं है. मैं तो बस, यही जानना चाहती हूं कि आखिर ऐसा क्या है जो तुम्हें घर में नहीं मिलता और उस के लिए तुम्हें बाहर भागना पड़ता है. आखिर मुझ में क्या कमी है? क्या मैं बदसूरत हूं, अनपढ़ हूं. बेशऊर हूं, जो तुम्हारे लायक नहीं हूं और इसलिए तुम्हें बाहर भागना पड़ता है. बताओ, आखिर कब तक यह बरदाश्त करती रहूंगी कि बाहर तुम से पहली बार मिलने वाला किसी सोना को, या रीना को, या पल्लवी को तुम्हारी पत्नी समझता रहे.’’

धीरेंद्र ने सुधा की इस बात का उत्तर नहीं दिया. इन दिनों धीरेंद्र के पास घर के लिए  कम ही समय होता था. उतने कम समय में भी उन के और सुधा के बीच बहुत ही सीमित बातों का आदानप्रदान होता था.

एक दिन धीरेंद्र जल्दी ही दफ्तर से घर आ गया. लेकिन जब वह अपनी अटैची में कुछ कपड़े भर कर बाहर जाने लगा तो सूचना देने भर को सुधा को बोलता गया था, ‘‘बाहर जा रहा हूं. एक हफ्ते में लौट आऊंगा.’’

लेकिन वह तीसरे दिन ही लौट आया. 2 दिन से वह गुमसुम बना घर में ही रह रहा था. सुधा ने धीरेंद्र को ऐसा तो कभी नहीं देखा था. उसे कारण जानने की उत्सुकता तो जरूर थी, लेकिन खुद बोल कर वह धीरेंद्र से कुछ पूछने में हिचकिचा रही थी.

उस दिन रात को खाना खा कर बच्चे सोने के लिए अपने कमरे में चले गए थे. धीरेंद्र सोफे पर बैठा कोई किताब पढ़ रहा था और सुधा क्रोशिया धागे में उलझी उंगलियां चलाती पता नहीं किस सोच में डूबी थी.

टनटन कर के घड़ी ने 10 बजाए तो धीरेंद्र ने अपने हाथ की किताब बंद कर के एक ओर रख दी. सुधा भी अपने हाथ के क्रोशिए और धागे को लपेट कर उठ खड़ी हुई. धीरेंद्र काफी समय से अपनी बात करने के लिए उपयुक्त अवसर का इंतजार कर रहा था. अभी जैसे उसे वह समय मिल गया. अपनी जगह से उठ कर जाने को तैयार सुधा को संबोधित कर के वह बोला, ‘‘तुम्हें जान कर खुशी होगी कि पल्लवी ने शादी कर ली है.’’

‘‘क्या…’’ आश्चर्य से सुधा जहां खड़ी थी वहीं रुक गई.

‘‘पल्लवी को अपना समझ कर मैं ने उस के लिए क्या कुछ नहीं किया था. उस की तरक्की के लिए कितनी कोशिश मैं ने की है, यह मैं ही जानता हूं. जैसे ही तरक्की पर तबादला हो कर वह यहां से गई, उस ने मुझ से संबंध ही तोड़ लिए. अब उस ने शादी भी कर ली है.

‘‘उसी से मिलने गया था. मुझे देख कर वह ऐसा नाटक करने लगी जैसे वह मुझे ठीक से जानती तक नहीं है. नाशुकरेपन की कहीं तो कोई हद होती है. लेकिन तुम्हें इन बातों से क्या मतलब? तुम तो सुन कर खुश ही होगी,’’ धीरेंद्र स्वगत भाषण सा कर रहा था.

जब वह अपना बोलना खत्म कर चुका तब सुधा बोली, ‘‘यह पल्लवी की कहानी बंद होना मेरे लिए कोई नई बात नहीं रह गई है. पहले भी कितनी ही ऐसी कहानियां बंद हो चुकी हैं और आगे भी न जाने कितनी ऐसी कहानियां शुरू होंगी और बंद होंगी. अब तो इन बातों से खुश या दुखी होने की स्थितियों से मैं काफी आगे आ चुकी हूं.

‘‘इस समय तो मैं एक ही बात सोच रही हूं, तुम्हारी ललिता, सोना, रीना, पल्लवी की तरह मैं भी स्त्री हूं. देखने- भालने में मैं उन से कम सुंदर नहीं रही हूं. पढ़ाई में भी अब मुझे शर्मिंदा हो कर मुंह छिपाने की जरूरत नहीं है. फिर क्या कारण है कि ये सब तो तुम्हारे प्यार के योग्य साबित हुईं और खूब सुखी रहीं, जबकि अपनी सारी एकनिष्ठता और अपने इस घर को बनाए रखने के सारे प्रयत्नों के बाद भी मुझे सिवा कुढ़न और जलन के कुछ नहीं मिला.

‘‘मैं तुम्हारी पत्नी हूं, लेकिन तुम्हारा कुछ भी मेरे लिए कभी नहीं रहा. वे तुम्हारी कुछ भी नहीं थीं, फिर भी तुम्हारा सबकुछ उन का था. सारी जिंदगी मैं तुम्हारी ओर इस आशा में ताकती रही कि कभी कुछ समय को ही सही तुम केवल मेरे ही बन कर रहोगे. लेकिन यह मेरी मृगतृष्णा है. जानती हूं, यह इच्छा इस जीवन में तो शायद कभी पूरी नहीं होगी.

‘‘पल्लवी ने शादी कर ली, तुम कहते हो कि मुझे खुशी होगी. लेकिन तुम्हारी इस पल्लवी की शादी ने मेरे सामने एक और ही सत्य उजागर किया है. मैं अभी यह सोच रही थी कि अपने जीवन के उन सालों में जब छोटेछोटे दुखसुख भी बहुत महसूस होते हैं तब मैं, बस तुम्हारी ही ओर आशा भरी निगाहों से क्यों ताकती रही? तुम्हारी तरह मैं ने भी अपने विवाह और अपने सुख को अलगअलग कर के क्यों नहीं देखा?

‘‘अगर पति जीवन में सुख और संतोष नहीं भर पा रहा तो खाली जीवन जीना कोई मजबूरी तो नहीं थी. जैसे तुम ललिता, सोना, रीना या पल्लवी में सुखसंतोष पाते रहे, वैसे मैं भी किसी अन्य व्यक्ति का सहारा ले कर क्यों नहीं सुखी बन गई? क्यों आदर्शों की वेदी पर अपनी बलि चढ़ाती रही?’’

सुधा की बातों को सुन कर धीरेंद्र का चेहरा सफेद पड़ गया. अचानक वह आगे बढ़ आया. सुधा को कंधों से पकड़ कर बोला, ‘‘क्या बकवास कर रही हो? तुम होश में तो हो कि तुम क्या कह रही हो?’’

‘‘मुझे मालूम है कि मैं क्या कह रही हूं. मैं पूरे होश में तो अब आई हूं. जीवन भर तुम मेरे सामने जो कुछ करते रहे, उस से सीख लेने की अक्ल मुझे पहले कभी क्यों नहीं आई. अब मैं यही सोच कर तो परेशान हो रही हूं.

‘‘पहले मेरी व्यथा का कारण तुम्हारे प्रेम प्रसंग ही थे. जब भी तुम्हारे साथ किसी का नाम सुनती थी, मेरे अंतर में कहीं कुछ टूटता सा चला जाता था. हर नए प्रसंग के साथ यह टूटना बढ़ता जाता था और उस टूटन को मेरे साथ मेरे बच्चे भी भुगतते थे.

‘‘अब तो मेरी व्यथा दोगुनी हो गई है. तुम्हीं बताओ, अगर मैं ने तुम्हारे जैसे रास्ते को पकड़ लिया होता तो क्या मैं भी पल्लवी की तरह सुखी न रहती? जब वह तुम्हारे साथ थी, तब तुम्हारा सबकुछ पल्लवी का था अब शादी कर के वह अपने घर में पहुंच गई है तो वहां भी सबकुछ उस का है. पल्लवी को प्रेमी भी मिला था और फिर अब पति भी मिल गया है, और मुझे क्या मिला? मुझे कुछ भी नहीं मिला…’’

सुधा इतनी बिलख कर पहले कभी नहीं रोई थी जितनी अपनी बात खत्म करने से पहले ही वह इस समय रो दी थी. Hindi Kahani

लेखिक : रमा प्रभाकर   

Bollywood : ‘‘अब मेकअप आर्टिस्ट की इज्जत पहले जैसी नहीं रही’’ – सय्यद मुसर्रत

Bollywood : फिल्म इंडस्ट्री में कुछ ऐसे नाम हैं जिन का चेहरा भले ही सक्रीन पर न दिखता हो मगर स्क्रीन पर दिखने वालों का चेहरा चमकाने में उन का हाथ होता है. ऐसे ही एक हैं सय्यद मुसर्रत, जिन्होंने बड़ेबड़े स्टार्स का मेकअप किया और उन के किरदारों को जीवंत बना दिया.

फिल्में देखते हुए लोग कलाकार की सुंदरता की तारीफ करते नहीं थकते. फिल्म में किसी भी किरदार में कलाकार को देख कर लोग उस के फैन बन जाते हैं पर लोगों का ध्यान इस बात पर नहीं जाता कि फिल्मी परदे पर वे जो कुछ देख रहे हैं, वह नकली है. कलाकार को सिनेमा के परदे पर सुंदर बनाने के पीछे सारा कमाल मेकअप आर्टिस्ट का होता है, जोकि इन का मेकअप करता है, इन के किरदार की मांग के अनुसार दाढ़ी, मूंछ व गेटअप बना कर इन्हें सजाता है.

ऐसे ही एक मेकअप आर्टिस्ट हैं सय्यद मुसर्रत, जिन्हें बौलीवुड में काम करते हुए 50 वर्ष पूरे हो गए हैं. मेकअप आर्टिस्ट के तौर पर काम करते हुए सय्यद मुसर्रत अब तक संजीव कुमार, रेखा, अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, नीतू सिंह, प्राण, के एन सिंह सहित कई दिग्गज कलाकारों को सजासंवार चुके हैं. उन से बातचीत करना बेहद दिलचस्प रहा.

सब से पहले उन से पूछा कि आप क्या मेकअप आर्टिस्ट बनने के लिए मुंबई आए थे तो उन्होंने जवाब दिया कि वे दूसरे युवाओं की तरह राजस्थान के कोटा शहर से फिल्म में हीरो बनने के लिए ही मुंबई आए थे.

स्वतंत्र रूप से बतौर मेकअप मैन आप के कैरियर की शुरुआत कब व कैसे हुई थी? इस सवाल के जवाब में सय्यद मुसर्रत ने बताया, ‘‘मैं ने शुरुआत में बतौर मेकअप आर्टिस्ट ‘बग्गा डाकू’, ‘संतो बंतो’ सहित दर्जनों बड़ीबड़ी पंजाबी फिल्में कीं. उस के बाद मुझे निर्देशक जे एस गौतम की हिंदी फिल्म ‘बेटी’ मिली, जिस में संगीता नायर के अलावा सुधीर पांडे थे.

‘‘हिंदी में यह मेरी पहली फिल्म थी. फिर मुझे फिल्में मिलती गईं. उस के बाद मैं निर्माता व निर्देशक मुजफ्फर अली के साथ जुड़ गया. उन के साथ मैं ने ‘दमन’, ‘आगमन’, ‘अंजुमन’, ‘उमराव जान’ सहित सभी फिल्में और करीबन 15 टीवी सीरियल किए.

‘‘उस के बाद हम ने नीतू सिंह के साथ 6 साल तक उन के निजी मेकअप मैन के रूप में काम किया. उन के साथ मैं ने ‘काला पत्थर’, ‘चोरनी’, ‘चोरों की बरात’, ‘याराना’, ‘युवराज’ सहित करीब 50 फिल्में कीं.’’

मैं ने जब उन से सवाल किया कि मुजफ्फर अली के साथ आप का संबंध इतना अच्छा क्यों था तो उन्होंने कुछ यों बताया, ‘‘जब हम ने उन के साथ पहली फिल्म ‘दमन’ की, तभी से उन के साथ हमारे अच्छे ताल्लुकात बन गए थे. उन्होंने देखा कि मैं अपने काम में परफैक्ट था. मुझ में कोई ऐब नहीं था. आज भी अगर वे कुछ भी काम करते हैं तो मुझे ही बुलाते हैं.’’

पहली बार मुजफ्फर अली के साथ काम करते हुए सैट पर ऐसी कोई घटना घटी थी जिस ने उन महान निर्देशक को प्रभावित किया? इस के प्रत्युत्तर में सय्यद मुसर्रत कहते हैं, ‘‘जी हां, सैट पर अचानक उन्हें एक कलाकार को मौलवी बनाना था. उन्होंने मुझ से पूछा, ‘दाढ़ी है क्या?’ उन्होंने पहले से मुझे बताया नहीं था. मैं ने कहा कि, ‘सर, आप ने बताया नहीं था.’ उन्होंने कहा कि पहले ऐसी जरूरत महसूस नहीं हुई थी. हम मेकअप मैन लोग अपने पास हमेशा बड़ेबड़े बाल रखते हैं.

‘‘मैं ने वही बड़ेबड़े बाल निकाल कर दाढ़ी बनाई. इस से वे प्रभावित हो गए थे. उन्होंने मुझ से कहा, ‘तुम तो हर काम में माहिर हो.’ इसी वजह से हमारे बीच आज भी अच्छे ताल्लुकात हैं.’’

आप ने मुजफ्फर अली के साथ 2 ऐतिहासिक सीरियल भी किए. एक ऐतिहासिक किरदार मसलन वाजिद अली शाह. ऐसे किरदार के मेकअप के लिए तो रिसर्च करना पड़ता होगा? इस सवाल पर मुसर्रत ने बताया, ‘‘मुझे रिसर्च करने की जरूरत नहीं पड़ती थी. मुजफ्फर अली स्वयं हमें हर किरदार का स्कैच बना कर देते थे कि किरदार के लिए किस तरह का गेटअप चाहिए. फिर हम उसी अनुरूप तैयारी करते थे.’’

आप ने संजीव कुमार का भी मेकअप किया था. उन से जुड़ी कोई घटना याद है? इस सवाल पर सय्यद मुसर्रत ने बताया, ‘‘1980 का एक मजेदार किस्सा सुनाता हूं. यह किस्सा निर्देशक रघुनाथ झलानी की फिल्म ‘बेरहम’ के सैट का है. उस फिल्म में संजीव कुमार और माला सिन्हा की जोड़ी थी. संजीव कुमार बड़े नेकदिल के, बहुते अच्छे इंसान थे. उन की बड़ी पतली मूंछें हुआ करती थीं. सैट पर उन की मूंछों को मैं ही संभालता था.

‘‘जब वे मूंछ लगाने के लिए कहते, तब मैं उन की मूंछ में गम लगा कर पकड़ाता था. वे मेरे हाथ से मूंछ ले कर खुद अपने चेहरे पर लगाया करते. फिर मुझ से कहते कि देखो ठीक है. एक दिन एक बंगले में शूटिंग हो रही थी. वहां अंधेरा काफी था. मैं ने उन की मूंछ पर उल्टी साइड यानी कि मूंछ के बालों में गम लगा दिया. जब संजीवजी ने कहा, ‘मूंछें दीजिए’ तो उन को दे दीं.

‘‘जैसे ही उन्होंने चेहरे पर मूंछ लगाने का प्रयास किया, उन्हें समझ में आ गया कि मैं ने बहुत बड़ी गलती कर दी है. वे बोले, ‘अरे बेटा, तुम ने तो उलटी मूंछ पर गम लगा दिया.’ मैं डर सा गया. फिर संजीव कुमार ने कहा, ‘कोई बात नहीं, कोई बात नहीं. एक काम करो, इस को जल्दी से धो कर गम साफ करो.’ मैं ने वैसा ही किया. फिर उसे पंखे में सुखाने की कोशिश कर सही ढंग से गम लगा कर उन्हें दी, तो उन्होंने मूंछ लगाई.

‘‘अगर आजकल का कोई आर्टिस्ट होता तो वह हंगामा कर डालता. फिर शायद मेरी छुट्टी कर दी जाती.

‘‘आज भी कुछ कलाकार ऐसे हैं जो प्यार रखते हैं. संजीव कुमार उन कलाकारों में से नहीं थे जोकि चिल्लपों करें. आजकल के आर्टिस्ट ऐसे हैं कि अगर गलती हम से हो जाए तो तूफान खड़ा कर देंगे. मेकअप मैन ने ऐसा कर दिया, आप ने ऐसा क्यों कर दिया? यह मेकअप खराब कर दिया वगैरहवगैरह जबकि संजीव कुमारजी ऐसे नहीं थे.’’

आप ने मुजफ्फर अली की फिल्म ‘उमराव जान’ में रेखा का मेकअप किया था? इस के बारे में सय्यद मुसर्रत बताते हैं, ‘‘मैं तो रेखाजी का पर्सनल मेकअप आर्टिस्ट हुआ करता था. सैट पर उन से हमारी काफी बातचीत होती थी. मुझे एक घटना याद है. मुजफ्फर अली साहब ने कहा था कि वे रेखाजी यानी नूरजहां को नकली गहने नहीं पहनाएंगे तो रेखा के जो गहने थे, वे सारे ओरिजिनल थे. मुजफ्फर अली साहब उन के लिए अपने खानदानी जेवर ले कर आए थे.

‘‘हीरेजवाहरात अंगूठी वगैरह सबकुछ उन्होंने ओरिजिनल पहनाई थी. जब रेखाजी ये ओरिजिनल जेवरात आदि पहनने के बाद उतारती थीं तो मेरे हाथ में ही देती थीं, कीमती जो थे ये. मुजफ्फर अली ने ये सारे महंगे हीरेजवाहरात के गहने सैट पर पहले दिन मेरे हाथ में देते हुए कहा था कि अब आप संभालें. उस के बाद कभी भी उन्होंने यह नहीं देखा सही से कि मैं ने उन को वापस किया भी या नहीं.’’

रेखाजी ने आप से कभी कुछ कहा? इस सवाल पर उन्होंने कहा, ‘‘रेखाजी एक ही बात कहती थीं कि फिल्म बहुत अच्छी बन रही है. इस से उन्हें भी बहुत बड़ी कामयाबी मिलेगी और वह फिल्म अच्छी बनी भी. फिल्म ‘उमराव जान’ तो सही माने में अमर रही. मुजफ्फर साहब की पहचान है. यों तो मुजफ्फर अली ने ‘दमन’ व ‘आगमन’ सहित 2 दर्जन फिल्में बनाईं लेकिन ‘उमराव जान’ उन की पहचान है. वे बहुत अच्छे और क्रिएटिव इंसान हैं. उन से बेहतरीन ऐतिहासिक फिल्में कोई दूसरा नहीं बना सकता. वे बड़े शांत आदमी हैं. मैं तो पिछले 45 वर्षों से उन के साथ जुड़ा हुआ हूं पर मैं ने उन को गुस्सा होते हुए नहीं देखा और न कभी हायहाय करते देखा.’’

अमिताभ बच्चन के साथ आप ने कौनकौन सी फिल्में कीं? ‘‘उन के साथ मैं ने ‘कसमे वादे’, ‘याराना’, ‘काला पत्थर’ सहित कई फिल्में कीं. अमिताभ बच्चन बहुत ही अच्छे इंसान थे. वक्त के पाबंद वे तब भी थे, अब भी हैं. हम से पहले वे सैट पर पहुंच जाया करते थे. अपने काम से मतलब रखते थे. सच तो यही है कि पुराने सभी आर्टिस्ट काम और समय को बहुत महत्त्व देते थे. अब तो समय की कोई कीमत ही नहीं है. जितने भी पुराने आर्टिस्ट थे, वे टाइम पर आ जाते थे और टाइम से जाते थे.’’

कभी सैट पर अमिताभ बच्चन के साथ आप की बातचीत हुई? इस पर मुसर्रत कहते हैं, ‘‘बातचीत तो काफी हुई है. फिल्म ‘याराना’ की शूटिंग के लिए हम लोग कोलकाता गए थे. वहां हमारी अकसर बातचीत हुआ करती थी. तब वे अपने परिवार के बारे में बताते थे. वे कोलकता में रहे भी हैं तो उस वक्त की यादें बयां करते थे.

‘‘वह कभी अपनी तारीफ नहीं करते. वरना आजकल तो ऐसे कलाकारों की भरमार हो गई है, जिन की आप ने तारीफ नहीं की तो वे नाराज हो जाते हैं. कुछ तो खुल कर कहते हैं, ‘हमारी तारीफ नहीं की. हम तो इतने बड़े आर्टिस्ट हैं.’’

आप ने पर्सनल मेकअप मैन के रूप में काम करना कब से शुरू किया था? इस पर सय्यद मुसर्रत कहते हैं, ‘‘इत्तफाक से मेरी मुलाकात अभिनेत्री नीतू सिंहजी से हुई और मैं उन का पर्सनल मेकअप मैन बना. वे बहुत अच्छी औरत हैं. उन के साथ काम करने के दिन इतने अच्छे गुजरे कि वे मुझे आज भी याद आते हैं. उन के साथ मैं ने कई फिल्में कीं. उन के साथ बहुत आउटडोर घूमा.

‘‘उन्होंने कभी भी मेरे साथ बदतमीजी से बात नहीं की. वे मेरे साथ भाई जैसा व्यवहार करती थीं साथ में खाना खाना. मुझे हमेशा अपने साथ गाड़ी में लाना ले जाना, घर छोड़ना आदि. मैं ने उन के साथ जो इज्जत और मोहब्बत पाई है, वह और किसी के साथ नहीं मिली. आज भी हमारी बातचीत होती है.’’

कमाल अमरोही के साथ काम करने के आप के अनुभव क्या थे? इस सवाल पर मुसर्रत कहते हैं, ‘‘कमाल अमरोही अच्छे व बड़े सुकून वाले इंसान थे. वे सैट पर बड़े आराम व सुकून से शूटिंग करने में यकीन रखते थे. दिनभर में 2 सीन फिल्माए गए तो बहुत बड़ी बात होती थी. उन को परफैक्शन चाहिए होता था. वे हर कलाकार के कौस्ट्यूम, कौस्ट्यूम की सिलाई से ले कर मेकअप आदि खुद चैक करते थे. सब से बड़ी बात तो यह कि सैट पर पहुंचते ही दिलीप कुमार से कहते थे, ‘यूसुफ भाई, मेकअप हो गया?’ फिर चैक करते थे. एक बार मैं तिल लगाना भूल गया था. उन्होंने पकड़ लिया और कहा कि अरे भाई, तिल कहां चला गया. मैं ने कहा कि सर, वह सैट पर लगाऊंगा तो कहा कि नहीं, अभी लगाओ वरना आप भूल जाओगे.

‘‘कमाल अमरोही की आंखें कमाल की थीं. वे कलाकार का मेकअप देखते ही समझ जाते थे कि कल और आज के मेकअप में कितना फर्क है. एक दिन एक कलाकार की दाढ़ी का पौइंट थोड़ा हट गया था. बीच का जो पौइंट होता है, वह थोड़ा सा हिल गया था. कमाल साहब आए, उसे देखा और तुरंत बोले, ‘अरे भाई, आज इन का मेकअप किस ने किया है?’ मैं तो उन के साथ खड़ा था. मैं ने कहा, ‘सर, क्या समस्या हो गई?’ तो वे बोले, ‘देखा करो, आज दाढ़ी गड़बड़ लगी है.’ फिर उसे ठीक करवाने के बाद ही वे वहां से हटे.’’

और किनकिन कलाकारों के साथ आप ने काम किया? इस सवाल पर वे बताते हां, ‘‘हम ने तो अक्षय कुमार के साथ भी काम किया. अक्षय कुमार पहले डांसर और बौक्सर था. तब वह मुझ से पूछता था, ‘मैं आर्टिस्ट बन पाऊंगा या नहीं,’ एक दिन उस ने मेरी बीवी से पूछ लिया तो मेरी बीवी ने अक्षय कुमार से कहा था, ‘तुम तो ऐसे ही बहुत बड़े आर्टिस्ट हो. एक दिन और बड़े आर्टिस्ट बन जाओगे’.’’

स्टार बनते ही अक्षय कुमार का बिहेवियर बदल गया? इस पर वे कहते हैं, ‘‘वक्त के साथसाथ हर चीज बदलती है. हर सदी के अंदर बदलाव होता है. कलाकार जब इंडस्ट्री में आता है तो खुद को खड़ा करने के लिए हर किसी की मदद लेने के लिए बड़ी विनम्रता से पेश आता है. उन्हें खड़ा करने के लिए हम ने अपना काम किया. वे अपने स्वभाव के अनुरूप काम कर रहे हैं. सफलता के साथ हर इंसान का स्वभाव, व्यवहार, चालढाल, एटीट्यूड बदलता ही है. यह सिर्फ अक्षय कुमार के साथ ही नहीं है, सभी के साथ ऐसा है. वक्त के साथसाथ हर इंसान बदलता है.’’

आप के 50 साल के मेकअप आर्टिस्ट के कैरियर में कभी पछतावा भी हुआ होगा कि आप ने किसी कलाकार के बारे में क्या सोचा था और वह क्या निकला? इस सवाल पर मुसर्रत ने कहा, ‘‘ऐसा कभी नहीं हुआ. मैं ने धर्मेंद्रजी के साथ भी काम किया. लोग कहते थे कि धर्मेंद्रजी बहुत गुस्सैल कलाकार हैं. मैं ने धर्मेंद्र के साथ 2-3 फिल्में कीं. वे मुझ पर कभी गुस्सा नहीं हुए. वे बहुत बड़े प्यारे व हंसमुख इंसान हैं. मेरा मानना है कि अगर आप अच्छे हैं, आप का काम अच्छा है तो सभी अच्छे हैं. अगर आप अच्छे नहीं हैं, आप का काम अच्छा नहीं है तो कुछ नहीं हो सकता.’’

आप को नहीं लगता कि पहले कलाकार कला को महत्त्व दिया करते थे लेकिन अब धन को? इस पर उन्होंने कहा, ‘‘आप ने एकदम सही फरमाया. अब हर कलाकार का स्वभाव व व्यवहार दोनों बहुत बदल गए हैं. पहले कलाकार कला को महत्त्व देते थे. अपने काम को एक तरह से वे आदर्श मानते थे. तब कलाकार सैट पर लगन के साथ तब तक काम करते थे जब तक सारा काम खत्म न हो जाए पर आजकल तो फटाफट भागने वाली बात है.

हम ने तो बड़ेबड़े आर्टिस्टों के साथ काम किया है. प्रेम चोपड़ा, के एन सिंह, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, संजीव कुमार. इन्हें शूटिंग करते देख ऐसा लगता था कि जैसे वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हों. उस वक्त कलाकार, निर्देशक से कोई बहस नहीं करता था, कोई चिकचिक नहीं, कोई शिकायत नहीं. उस वक्त के कलाकार ईमानदार, मेहनती व प्यार से काम करने वाले हुआ करते थे. अभी भी कुछ आर्टिस्ट अच्छे, दिल के अच्छे हैं. इस में कोई शक नहीं है.’’

50 वर्ष के मेकअप आर्टिस्ट के आप के कैरियर में आप को प्रशंसा मिली होगी. अवार्ड मिले होंगे? इस पर वे कहते हैं, ‘‘मेरे काम की तारीफ तो बहुत होती रही है. मुझे लाइफटाइम अचीवमैंट अवार्ड मिला है.’’

आजकल आप क्या कर रहे हैं? इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘‘डाकू मलखान सिंह की बायोपिक फिल्म करने वाला हूं. इस फिल्म की तैयारी चल रही है.’’

50 साल में मेकअप मैन इंडस्ट्री के अंदर आए बदलावों को ले कर उन का मानना है कि पहले जो मोहब्बत थी, प्यार था, वह अब कम हो गया है. पहले मेकअप मैन की बहुत इज्जत होती थी. अब नहीं रही.

हर कलाकार को पता होता है कि उस के चेहरे का कौन सा भाग खराब है. ऐसे में यह बात कलाकार खुद ही आप को बताता होगा कि क्या करना है? इस सवाल पर वे थोड़ा हंसे, फिर बोले, ‘‘यों तो कलाकार को देखते ही हम खुद समझ जाते हैं. लेकिन कई बार कलाकार भी बता देता है कि देखो, मेरी नाक इस जगह से मोटी है तो उस को सही कर देना. इस जगह से मेरे कान ऐसे हैं तो उस को ठीक कर देना. वैसे, हर मेकअप आर्टिस्ट समझ जाता है कि उस को कहां क्याक्या ठीक करना है. कई बार लोग कहते हैं कि मेरी आंख बहुत छोटी है तो हम क्या करते हैं कि उस की आंखों को बड़ा करने के लिए थोड़ा काजल अच्छे से लगा देते हैं.’’

आजकल कलाकार प्लास्टिक सर्जरी करवाते हैं. ऐसे में चेहरा कितना बदलता है. मेकअप के समय कितनी समस्याएं आती हैं? इस पर वे कहते हैं, ‘‘यह तो मैं नहीं समझ पाता हूं कि चेहरा कितना बदलता है लेकिन अब लोग प्लास्टिक सर्जरी काफी करवा रहे हैं. मेरे सामने आज तक तो मैं ने ऐसा कोई देखा नहीं जो ऐसा आया हो. हां, मुझे पता है बड़ेबड़े लोग करवा लेते हैं पर यह भी सच है कि प्लास्टिक सर्जरी करने के बाद भी उन का मेकअप तो करना ही पड़ता है.

‘‘अगर प्लास्टिक सर्जरी करवा ली है तो इस का मतलब यह नहीं है कि उन्हें मेकअप करने की जरूरत नहीं है. फिर भी उन्हें मेकअप तो करवाना ही पड़ेगा. कैमरे के सामने आने के पहले आप को मेकअप तो करवाना ही पड़ेगा. जो आप के अंदर खामियां हैं, कमियां हैं उन को छिपाना तो पड़ेगा.

‘‘मेकअप का मतलब है पौलिश. अगर आप किसी चीज को चमकाओगे नहीं तो वह आप को खुदराखुदरा लगेगा. खराब लगेगा. लोग पसंद नहीं करेंगे पर वहीं अगर आप किसी चीज को चमका कर व सजा कर पेश करोगे तो लोग बोलेंगे अरे वाह, क्या बात है. लोग उस की तारीफ करेंगे.’’

आप एक मेकअप मैन को क्या संदेश देंगे? इस पर वे अपनी राय देते हुए कहते हैं, ‘‘मैं सभी से एक ही बात कहता हूं कि आप समय के पाबंद रहें. अपने काम को सही समय पर पूरा करें. सभी के साथ प्यारमोहब्बत से रहें. प्यारमोहब्बत ऐसी चीज है जो इंसान को आगे बढ़ाने में

मदद करती है. अगर आप के अंदर प्यारमोहब्बत नहीं है, अपनापन नहीं है तो लोग आप को पसंद नहीं करेंगे. समय पर काम करने की आदत के साथ अपने काम में परफैक्ट भी होना चाहिए.’’

आप के परिवार में कौनकौन हैं? इस निजी सवाल पर वे थोड़ा मुसकराए, बोले, ‘‘मेरे 2 बेटे हैं. दोनों बाहर काम करते हैं. 2 बहुएं हैं. मेरा एक पोता है. दोनों बेटे बहुत बड़ी कंपनी के अंदर बड़ेबड़े पदों पर हैं. एक बेटा एक कंपनी में सीईओ है. बड़ा बेटा मुजफ्फर बहुत अच्छा गाना गाता था. उस ने 1-2 फिल्मों में गाना भी गाया. लेकिन उस ने इंजीनियरिंग की है और उसे उस में अच्छी नौकरी मिली है. दोनों बेटे अच्छा कमा रहे हैं. बहुत खुश हैं.

‘‘मैं 50 साल बाद भी काम कर रहा हूं. 2 दिन पहले ही एक फिल्म की शूटिंग कर के आया हूं. हम मानते हैं कि काम छोटा या बड़ा नहीं होता. काम तो काम ही होता है. आखिर में बस, इतना ही कहूंगा कि इंडस्ट्री बहुत अच्छी है अगर आप अच्छे हैं तो.’’

Travelogue : कनाडा भ्रमण के दौरान व्हेलों से मुलाकात

Travelogue : बचपन में सब ने पढ़ा होगा कि व्हेल बड़े विचित्र जीव होते हैं, उन का मल अत्यंत सुगंधित होता है. व्हेल के बारे में और भी ऐसी जानकारियों के लिए दिल मचल रहा था. इसलिए निकल पड़े ऐसी यात्रा पर जहां बहुत सारे व्हेलों से रूबरू होने का मौका मिला.

व्हेल दुनिया का सब से बड़ा जीव माना जाता है. ये दुनिया के सभी महासागरों में घूमते हैं. इन का विशाल आकार हमें आश्चर्यचकित करता है. पूर्ण वयस्क ब्लू व्हेल की लंबाई लगभग 100 फुट और वजन लगभग 200 टन होता है, जो लगभग 33 हाथियों के बराबर होता है. पानी में रहने के बावजूद व्हेल मछली नहीं है. यह मनुष्य की तरह गरम खून वाला स्तनधारी जीव है, जो पानी की सतह पर आ कर हवा में सांस लेता है. इन की त्वचा पर ब्लबर नामक वसा की एक मोटी परत इन्हें ठंडे समुद्री पानी से बचाती है.

बचपन में मैं ने पढ़ा था कि व्हेल बड़ा विचित्र जीव है. इन का मल (पौटी) अत्यंत सुगंधित होता है. फ्रांस में बने बेशकीमती सैंट में व्हेलों के मल का उपयोग किया जाता है, सो व्हेल के मल का मूल्य लाखों में होता है. मुझे एक मित्र ने बताया था कि अंडमान प्रवास के दौरान उसे पता चला था कि समुद्र में मछुआरे बड़ी तत्परता से व्हेल की उलटी (एम्बरग्रीस) खोजते हैं.

अगर किसी मछुआरे को समुद्र में तैरती हुई व्हेल की उलटी मिल गई तो वह मालामाल हो जाता है, क्योंकि व्हेलों की उलटी सुगंध और औषधि बनाने के काम में आती है और बेशकीमती होती है. सो, बचपन से ही मुझे इस विशालकाय जीव के बारे में और ज्यादा जानने की जिज्ञासा थी.

पुराने जमाने से ही मनुष्य इन के स्वादिष्ठ मांस और त्वचा पर वर्तमान ब्लबर (जिस से औद्योगिक तेल बनाया जाता है) के लिए सारे विश्व में हारपून द्वारा व्हेलों का शिकार करते हैं जिसे व्हेलिंग कहते हैं. भारी संख्या में व्हेलिंग के कारण व्हेलों की कुछ प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई थीं, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 1980 से व्हेलिंग पर पाबंदी लगा दी गई है.

व्हेल की आयु 70 से 100 साल तक होती है. व्हेल बड़ा विचित्र जीव है. कहते हैं कि स्वाभाविक मृत्यु से पहले व्हेल को उस की मृत्यु का आभास हो जाता है. वे समुद्र के बिलकुल नीचे चले जाते हैं, जहां सांस रुकने से उन की मृत्यु हो जाती है. उन के विशालकाय शरीर के मांस और अन्य अवशेष को समुद्री जीव वर्षों तक खा कर जिंदा रहते हैं.

मैं ने देशविदेश में कई समुद्र देखे हैं. समुद्र में 24-24 घंटे यात्रा भी की है. समुद्री क्रूज में रात भी बिताई है परंतु कभी इस विशालकाय जीव का दर्शन नहीं हुआ था. अभी हाल में मैं कनाडा गया था. वहां मुझे यह जान कर खुशी हुई कि गरम मौसम में क्यूबेक प्रांत के सैंट लौरेंस नदी के मुहाने में लोगों को व्हेलों के दर्शन करवाए जाते हैं और यह जगह विश्व के व्हेल दर्शन के सर्वश्रेष्ठ जगहों में से एक है.

अद्भुत सफर

वर्ष 2024 के अगस्त महीने में मैं सपरिवार व्हेलों के दर्शनार्थ क्यूबेक शहर से लगभग 200 किलोमीटर दूर टेडूसेक नामक स्थान पर सैंट लौरेंस मैरिन पार्क में दिन के लगभग 12 बजे पहुंच गया. यहां क्रोईसिरस नामक कंपनी अपनी जोडिएक (मोटरबोट) द्वारा दर्शकों को व्हेलों के दर्शनार्थ सैंट लौरेंस नदी के मुहाने पर ले जाती है. हम लोगों ने अपनी यात्रा के टिकट प्रति व्यक्ति कनाडाई डौलर 350 पहले से ही औनलाइन बुक करवा लिए थे.

क्रोईसिरस कंपनी के स्टाफ ने हमारा स्वागत किया. एक जोखिम फौर्म भरवाया. सभी लोगों को लाल रंग का एक पौलिथीन का पतलून, जैकेट और टोपी दी जिन्हें हम ने अपने कपड़ों के ऊपर पहन लिया ताकि यात्रा के दौरान हमारे कपड़े गीले न हों. क्रोईसिरस कंपनी के पीले रंग के जोडिएक में हम लोग लगभग 50 दर्शक सवार हो कर बैठ गए.

लाल परिधान में जोडिएक के कप्तान (पायलट) और फ्रैंच वयस्क महिला गाइड ने हमारा अभिवादन किया. सैंट लौरेंस नदी के तट से हमारी यात्रा लगभग 1 बजे दिन को शुरू हुई.

कनाडा के क्यूबेक प्रांत के अधिकतर निवासी फ्रैंच हैं. यह फ्रैंच प्रभुत्व वाला प्रांत है. यहां अधिकतर लोग फ्रैंच भाषा में बात करते हैं, इंग्लिश नहीं समझते हैं. जोडिएक में सवार अधिकतर दर्शनार्थी फ्रैंच थे. हमारी तरह कुछ लोग इंग्लिश समझने वाले थे. हमारी हंसमुख महिला गाइड दुभाषीय थी. उस ने पहले हमें फ्रैंच में, फिर इंग्लिश में संबोधित किया.

सैंट लौरेंस नदी के तट से काफी दूर मुहाने की ओर जाते हुए हमारे गाइड ने बताया कि व्हेल का दर्शन रोमांच की बात है. हमें 1 या 2 या 4 या 10 व्हेल दिख सकते हैं या व्हेल के दर्शन नहीं भी हो सकते हैं. उन्होंने हमें बताया कि एक व्हेल दिन में लगभग 500 किलो खाना (छोटी मछली, समुद्री जीव इत्यादि) खाती है और सैंट लौरेंस के मुहाने पर भोजन की कमी नहीं है, इसलिए गरम मौसम में व्हेलों के समूह हजारों किलोमीटर दूर समुद्र से माइग्रैट कर इस मुहाने में आते हैं और प्रजनन कर के अपने बच्चों के साथ सर्दी में वापस चले जाते हैं.

सैंट लौरेंस नदी के मीठे पानी का संगम यहां से लगभग 1,000 किलोमीटर दूर अटलांटिक महासागर के खारे पानी के साथ होता है. इसलिए सैंट लौरेंस के मुहाने का पानी हलका खारा है, परंतु मुहाना नदी के जैसा है, समुद्री लहरें नहीं हैं. लगभग 1 घंटे की यात्रा के बाद हम लोगों को पहला व्हेल का दर्शन हुआ. पहले उस का सिर (सांस लेने के लिए व्हेल पानी की सतह पर आया), फिर उस का विशाल काला शरीर, फिर पूंछ दिखाई पड़ी.

दर्शकों का मन आनंद से प्रफुल्लित हो उठा. सारे दर्शक व्हेल को देखने के लिए खड़े हो गए और हाथ हिला कर, सीटी बजा कर उसे प्रोत्साहित करने लगे. थोड़ी देर बाद 2 व्हेल तैरते हुए हमारे जोडिएक के बाईं तरफ बिलकुल करीब आ गए. गाइड ने हमें बताया कि ये मध्यम आकार वाले लगभग 15 फुट लंबे बेलुगा व्हेल हैं. अगर ये दोनों व्हेल हमारे जोडिएक को जोर से धक्का मार देते तो हमारा जोडिएक उलट जाता.

मेरे पूछने पर गाइड ने मुसकराते हुए बताया कि सैंट लौरेंस मुहाने के व्हेल बड़े शांत प्रकृति के होते हैं. वह 30 वर्षों से इस मुहाने में काम कर रही है, कभी किसी व्हेल ने किसी मनुष्य को या किसी नाव को नुकसान नहीं पहुंचाया. थोड़ी देर के बाद ये दोनों व्हेल हमारे जोडिएक के सामने दिखाई पड़े. कंपनी के यात्रियों से भरे हुए अन्य 5 जोडिएक भी हमारे जोडिएक के नजदीक आ कर व्हेलों को आनंद से देखने लगे.

कुछ दूरी पर एक तीनमंजिले क्रूज में सवार यात्रियों ने भी व्हेलों के दर्शन किए. गाइड ने हमें बताया कि सैंट लौरेंस का मुहाना इन बेलुगा व्हेलों को इतना पसंद है कि बहुत सारे बेलुगा व्हेल यहां स्थायी रूप से रहने लगे हैं. लगभग आधे घंटे की यात्रा के बाद हमें 2 मध्यम आकार के भूरे रंग के मिन्क व्हेल दिखाई पड़े. ये दोनों व्हेल सांस ले कर शोर करते हुए अपने नथुनों से पानी का लगभग 10 फुट ऊंचा फौआरा छोड़ रहे थे. यह देख कर हमें मजा आ गया.

थोड़ी देर बाद ये दोनों मिन्क व्हेल शोर कर के पानी का फौआरा छोड़ते हुए दोबारा दिखाई पड़े. मुझे ऐसा लगा कि हमें देख कर व्हेल भी खुश हुए हैं और हमारा स्वागत कर रहे हैं. गाइड ने बताया कि मुहाने में, जहां व्हेल साधारणतया रहते हैं और सांस लेने के लिए सतह पर आते हैं, वहां की गहराई लगभग 170 मीटर और पानी का तापमान लगभग 4 डिग्री है. वहां पानी काफी ठंडा है जबकि सैंट लौरेंस नदी के तट पर पानी गरम है, वहां का तापमान 20 डिग्री है.

हमारी वापसी की यात्रा लगभग 4 बजे शुरू हुई. वापसी के दौरान जोडिएक बहुत तेजी से चल रहा था. ठंडी हवा के साथसाथ मुहाने के हलके नमकीन पानी के झोंकों ने हमें भिगो दिया. वापसी के दौरान हमें एक काले रंग का हम्पबेक व्हेल दिखाई पड़ा जिस की काली पूंछ पर सफेद सुंदर चिह्न थे.

गाइड ने हमें बताया कि जो व्हेल हमें आज दिखाई पड़े उन को क्रोईसिरस कंपनी के स्टाफ पहचानते हैं क्योंकि वे हर साल यहां आते हैं और क्रोईसिरस कंपनी के स्टाफ ने प्यार से उन का अलगअलग नाम दे रखा है. तट के करीब आने पर पत्थरों के बीच हमें बहुत से छोटेछोटे भूरेसफेद रंग के समद्र्री सील धूप सेंकते हुए दिखाई पड़े.

पूरी यात्रा के दौरान आकाश में सूर्य चमक रहा था जो व्हेल के दर्शन में सहायक हुआ. हमारी गाइड ने बताया कि हम लोगों के लिए यह खुशी का समय है क्योंकि इस मौसम में पहली बार इतने सारे व्हेल एकसाथ दिखाई पड़े. लगभग 5 बजे शाम को तट पर आ कर हम लोगों ने जोडिएक के कप्तान और गाइड को धन्यवाद दिया और जोडिएक से उतर कर भीगे हुए पौलिथीन के कपड़ों को यथास्थान रख वापस चले आए. इस प्रकार हमारी व्हेल दर्शन की अभिलाषा बहुत आनंद और संतोषपूर्वक पूर्ण हुई.

Future Concerns : मैं अपने भविष्य को ले कर चिंतित हूं, मेरी उम्र 47 वर्ष है

Future Concerns : सिंगल पेरैंट हूं. 2 छोटे बच्चे हैं, जिन की देखभाल मां करती है क्योंकि पत्नी की एक ऐक्सिडैंट में मृत्यु हो गई. हाल ही में मेरी एक महिला मित्र से गहरी दोस्ती हुई है. हम मिलते हैं, अपनी फीलिंग्स शेयर करते हैं. मैंटली, फिजिकली हम एकदूसरे से जुड़ गए हैं. वह सिंगल मदर है. उस की अपनी फैमिली है. अभी तो सब ठीक चल रहा है लेकिन कभीकभी मैं परेशान हो जाता हूं कि हमारा भविष्य क्या होगा? आप मुझे इस असमंजस की स्थिति से उबारें?

जवाब : आप और आप की महिला मित्र दोनों के बीच एक सहज और समझदारी भरा रिश्ता है. आप एकदूसरे के साथ भावनात्मक व शारीरिक रूप से जुड़े हैं. यह रिश्ता आप को सुख और सहारा देता है.

आप इस रिश्ते से खुश हैं, लेकिन भविष्य की अनिश्चितता आप को परेशान कर रही है. अपनी महिला मित्र के साथ इस रिश्ते के भविष्य के बारे में खुल कर बात करें, पूछें कि वे इस रिश्ते को कैसे देखती हैं. क्या यह केवल दोस्ती और सहारा है या वे भी इसे और गंभीरता से लेना चाहती हैं? यह बातचीत बिना किसी दबाव के, ईमानदारी और सम्मान के साथ होनी चाहिए. उदाहरण के लिए, आप कह सकते हैं, ‘हम दोनों एकदूसरे के साथ बहुत अच्छा समय बिताते हैं और मैं इस रिश्ते को बहुत महत्त्व देता हूं. मैं बस यह समझना चाहता हूं कि तुम इसे भविष्य में कैसे देखती हो.’ उन की अपेक्षाएं, डर और इच्छाएं समझने से आप को स्पष्टता मिलेगी.

आप के बच्चे छोटे हैं और आप की पत्नी के देहांत के बाद आप उन की सब से बड़ी ताकत हैं. कोई भी निर्णय लेने से पहले विचार करें कि यह उन के जीवन, भावनाओं और भविष्य पर क्या प्रभाव डालेगा. अगर यह रिश्ता गंभीर दिशा में जाता है (जैसे कि विवाह या साथ रहना), तो आप दोनों सिंगल पेरैंट्स हैं. आप दोनों की प्राथमिक जिम्मेदारी अपने बच्चों की है. बच्चों की परवरिश, उन की भावनाएं और उन की जरूरतें आप के निर्णयों को प्रभावित करेंगी.

बच्चों को धीरेधीरे इस बदलाव के लिए तैयार करना होगा. उन की भावनाएं और सहमति महत्त्वपूर्ण होगी. आप की महिला मित्र के बच्चे भी इस समीकरण का हिस्सा हैं. दोनों परिवारों के बच्चों के बीच तालमेल और स्वीकार्यता पर ध्यान देना होगा. अपनेआप से पूछें कि आप इस रिश्ते से क्या चाहते हैं. क्या आप केवल एक साथी की तलाश में हैं जो आप को भावनात्मक और शारीरिक सहारा दे या आप एक दीर्घकालिक रिश्ते (जैसे विवाह) की ओर बढ़ना चाहते हैं? अगर आप केवल दोस्ती और सहारे से खुश हैं तो इसे वैसे ही स्वीकार करें और भविष्य की चिंता को कम करें.

लेकिन सुनिश्चित करें कि आप दोनों की अपेक्षाएं एकजैसी हों, ताकि बाद में कोई गलतफहमी न हो. आप दोनों सिंगल पेरैंट्स हैं और आप की जिम्मेदारियां बहुत हैं. हो सकता है कि आप का रिश्ता पारंपरिक विवाह की तरह न हो जो ठीक भी है. अगर आप दोनों एकदूसरे के साथ खुश हैं और आप की जिम्मेदारियां पूरी हो रही हैं तो इसे जटिल बनाने की जरूरत नहीं है. भविष्य की अनिश्चितता को पूरी तरह खत्म करना संभव नहीं है. इसलिए वर्तमान में खुश रहने पर ध्यान दें.

अगर आप को लगता है कि यह रिश्ता आप के भविष्य के लिए उपयुक्त नहीं है या यह आप के बच्चों के लिए जटिलताएं पैदा कर सकता है तो आप इसे केवल दोस्ती तक सीमित कर सकते हैं.

यह रिश्ता आप को सहारा दे रहा है, लेकिन आप इस रिश्ते पर पूरी तरह निर्भर न हों. अपनी खुशी के लिए अन्य रास्ते भी तलाशें, जैसे दोस्तों के साथ समय बिताना, शौक पूरे करना या बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम बिताना. अगर आप बहुत ज्यादा असमंजस में हैं तो किसी विश्वसनीय दोस्त, परिवार के सदस्य या काउंसलर से बात करें.

Parenting Tips : मैं शादी के 13 साल बाद मां बनी हूं, बच्चा 2 महीने का है

Parenting Tips : मैं उसे ले कर हमेशा डरी रहती हूं कि कहीं उसे कुछ हो न जाए. रूटीन इंजैक्शन के बाद उसे बुखार भी आ जाता है तो भी चिंतित रहती हूं. उस को किसी को देते हुए घबराती हूं. पति समझते हैं मैं ज्यादा पजेसिव हो रही हूं बच्चे को ले कर. लेकिन मैं अपनेआप को समझ नहीं पा रही. क्या करूं?

जवाब : 13 साल के लंबे इंतजार के बाद मां बनने से बच्चे के प्रति बेइंतहा प्यार होने के साथ आप का चिंतित होना स्वाभाविक है लेकिन एक हद तक. आप को अपने मन को शांत और स्थिति को बेहतर बनाने की जरूरत है ताकि आप सब एक संतुलित और खुशहाल जीवन जी सकें.

अपने पति या परिवार के अन्य सदस्यों को बच्चे की देखभाल में शामिल करें. शुरू में 10-15 मिनट के लिए, फिर धीरेधीरे समय बढ़ाएं. इस से आप को थोड़ा आराम मिलेगा और आप का डर भी कम होगा कि केवल आप ही बच्चे की जिम्मेदारी ले सकती हैं. इस दौरान खुद को किसी और काम में व्यस्त रखें.

बच्चे को लगने वाले इंजैक्शन लगवाते वक्त डाक्टर से बात करें कि किन स्थितियों में चिंता करनी चाहिए और किन में नहीं.

अगर संभव हो तो अपनी जैसी मदर्स से मिलें. उन के अनुभव सुनने से आप को लगेगा कि आप अकेली नहीं हैं जो ऐसी भावनाओं से गुजर रही हैं. बच्चे की देखभाल में पति का साथ लें. पति की समझ और सहयोग से आप का आत्मविश्वास बढ़ेगा.

इस बात को समझें कि बच्चे को भी आप की खुशी और मानसिक शांति की जरूरत है. अपने डाक्टर से भी इस बारे में बात कर सकती हैं, सही दिशा में मार्गदर्शन मिल सकता है.

अपनी समस्‍याओं को इस नंबर पर 8588843415 लिख कर भेजें, हम उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे.

Online Hindi story : मेरे बेटे की गर्लफ्रैंड – राहुल को हर समय क्यों रहती थी स्वाति की चिंता?

Online Hindi story : बेटे राहुल के स्वभाव में मुझे कुछ बदलाव साफ दिखाई दे रहे थे, ये बदलाव तो प्राकृतिक थे इसलिए इस में कुछ हैरानी की बात नहीं थी और जब राहुल के 14वें जन्मदिन पर मैं ने घर पर उस के दोस्तों के लिए पार्टी रखी तो उस के ग्रुप में पहली बार 2-3 लड़कियां आईं. विजय मेरे कान में फुसफुसाए, ‘अरे वाह, बधाई हो, तुम्हारा लड़का जवान हो गया है.’ मैं ने उन्हें घूरा फिर मुसकरा दी. मुझे उन लड़कियों को देख कर अच्छा लगा. छोटी सी बच्चियां कोने में बैठ गईं, मैं ने उन्हें दिल से अटैंड किया. लड़के- लड़कियां आजकल साथ पढ़ते हैं, साथ खेलते हैं, मैं उन की दोस्ती को बुरा भी नहीं मानती.

उन तीनों में से 1 लड़की स्वाति कुछ ज्यादा ही संकोच में बैठी थी. बाकी 2 मुझे देख कर मुसकराती रहीं, दोचार बातें भी कीं, लेकिन स्वाति ने मुझ से नजरें भी नहीं मिलाईं तो मुझे बहुत अजीब सा लगा. मैं ने अपनी 17 वर्षीया बेटी स्नेहा से कहा भी, ‘‘यह लड़की इतना शरमा क्यों रही है?’’

स्नेहा बोली, ‘‘अरे मम्मी, छोड़ो भी, इतने बच्चों में 1 लड़की के व्यवहार पर इतना क्यों सोच रही हैं?’’ मेरी तसल्ली नहीं हुई. मैं ने विजय से कहा, ‘‘वह लड़की तो कुछ भी नहीं खा रही है, बहुत संकोच कर रही है, सब बच्चों को देखो, कितनी मस्ती कर रहे हैं.’’

विजय ने कहा, ‘‘हां, कुछ ज्यादा ही चुप है. खैर, छोड़ो, बाकी बच्चे तो मस्त हैं न.’’

राहुल ने केक काटा तो हमें खिलाने के बाद उस की नजरें सीधे स्वाति पर गईं तो मैं ने राहुल की मुसकराहट में एक पल के लिए कुछ नई सी बात नोट की, मां हूं उस की लेकिन किसी से कुछ कहने की बात नहीं थी. खैर, कुछ गेम्स फिर डिनर के बाद बच्चे खुशीखुशी अपने घर चले गए. मैं ने बाद में राहुल से पूछा, ‘‘सिया और रश्मि तो सब से अच्छी तरह बात कर रही थीं, यह स्वाति क्यों इतना शरमा रही थी?’’

राहुल मुसकराया, ‘‘हां, उसे शरम आ रही थी.’’

‘‘क्यों? शरमाने की क्या बात थी?’’

‘‘अरे मम्मी, हमारे सब दोस्त हम दोनों का साथ नाम ले कर खूब चिढ़ाते हैं न.’’

मैं चौंकी, ‘‘क्या? क्यों चिढ़ाते हैं?’’

‘‘अरे, आप को भी न हर बात समझा कर बतानी पड़ती है मम्मी. सब दोस्त एकदूसरे को किसी न किसी लड़की का नाम ले कर छेड़ते हैं.’’ मैं अपने युवा होते बेटे के समझाने के इतने स्पष्ट ढंग पर कुछ हैरान सी हुई, फिर मैं ने कहा, ‘‘यह कोई उम्र है इन मजाकों की, पढ़नेलिखने, खेलने की उम्र है.’’

‘‘लीव इट, मम्मी, आप हर बात को इतना सीरियसली क्यों लेती हैं…सभी ऐसी बातें करते हैं.’’

फिर मैं ने आने वाले दिनों में नोट किया कि राहुल का फोन पर बात करना बढ़ गया है. कई बार मैं उठाती तो फोन काट दिया जाता था, फिर राहुल के उठाने पर बात होती रहती थी. मेरे पूछने पर राहुल साफ बताता कि स्वाति का फोन है. मैं कहती, ‘‘इतनी क्या बात करनी होती है तुम दोनों को.’’

राहुल नाराज हो जाता, ‘‘मेरी फ्रैंड है, क्या मैं उस से बात नहीं कर सकता?’’ धीरेधीरे यह सब बढ़ता ही जा रहा था.

स्वाति हमारी ही सोसायटी में रहती थी. उस के मम्मीपापा दोनों नौकरीपेशा थे. मैं उन से कभी नहीं मिली थी. राहुल और स्वाति एक ही स्कूल में थे, एक ही बस में जाते थे. दोनों के शौक भी एक जैसे थे. राहुल अपने स्कूल की फुटबाल टीम का बहुत अच्छा प्लेयर था और स्वाति उस के हर मैच में उस का साहस बढ़ाने के लिए उपस्थित रहती. मैं विजय से कहती, ‘‘कुछ ज्यादा ही हो रहा है दोनों का.’’ विजय कहते, ‘‘तुम यह सब नहीं रोक पाओगी. अब तो उस की ऐसी उम्र भी नहीं है कि ज्यादा डांटडपट की जाए.’’

अब तक हमेशा 90 प्रतिशत से ऊपर अंक लाने वाला मेरा बेटा कहीं पढ़ाई में न पिछड़ जाए, इस बात की मुझे ज्यादा चिंता रहती. मैं रातदिन अब राहुल की हरकतों पर नजर रखती और महसूस करती कि मैं किसी भी तरह राहुल और स्वाति को एकदूसरे से मिलने से रोक ही नहीं सकती, सारा दिन तो साथ रहते थे दोनों. कुछ और समय बीता. राहुल और स्वाति दोनों ने 10वीं की बोर्ड की परीक्षाओं में 85 प्रतिशत अंक प्राप्त किए तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा.

विजय कहते, ‘‘देखा? इतने दिन तुम अपना खून जलाती रहीं, पढ़ाई तो दोनों ने अच्छी की.’’

मैं कुछ कह नहीं पाई. राहुल को हम ने गिफ्ट में एक मोबाइल फोन ले दिया तो वह बहुत खुश हुआ, कई दिनों से कह रहा था कि उसे फोन चाहिए. फिर मैं ने ही धीरेधीरे अपने मन को समझा लिया कि स्वाति राहुल की गर्लफ्रैंड है और मैं उसे कुछ नहीं कह सकती. सांवली सी, पतलीदुबली स्वाति महाराष्ट्रियन थी, हम उत्तर भारतीय कायस्थ. वह मुझ से अब भी कतराती थी. एक ही सोसायटी थी, कई बार सामना होता तो वह नजरें चुरा लेती. मुझे गुस्सा आता. राहुल से कहती, ‘‘और भी तो लड़कियां हैं, सब हायहलो करती हैं और इस लड़की को इतनी भी तमीज नहीं कि कभी विश कर दे.’’

राहुल तुरंत उस की साइड लेता, ‘‘वह आप से डरती है, मम्मी.’’

‘‘क्यों? क्या मैं उसे कुछ कहती हूं?’’

‘‘नहीं, मैं ने उसे बताया है कि आप को उस की और मेरी दोस्ती के बारे में पता है और आप को यह सब बिलकुल पसंद नहीं है.’’

मैं कहती, ‘‘दोस्ती को मैं थोड़े ही बुरा समझती हूं लेकिन हद से बाहर कुछ दिखता है तो गुस्सा तो आता ही है. सब खबर है मुझे.’’

राहुल पैर पटकता चला जाता. कुछ समय और बीता, दोनों की 12वीं भी हो गई. इस बार राहुल के 91 प्रतिशत और स्वाति के 93 प्रतिशत अंक आए. हम सब बहुत खुश थे. अब राहुल ने कौमर्स ली, स्वाति ने साइंस. अब तो कई मेरी करीबी सहेलियां सोसायटी के गार्डन में सैर करते हुए स्वाति को आतेजाते देख कर मुझे कोहनी मारतीं, ‘‘देख, तेरे बेटे की गर्लफैं्रड जा रही है.’’ मैं ऊपर से मुसकरा देती और दिल ही दिल में सोचती, इस का मतलब अच्छे- खासे मशहूर हैं दोनों. मुझे अच्छी तरह पता चल गया था कि दोनों एकदूसरे को बहुत सीरियसली लेते हैं. अब मैं ही विजय से कहती, ‘‘बचपन से ये दोनों साथ हैं, मुझे तो लगता है अपने पैरों पर खड़ा होने पर ये विवाह भी करेंगे.’’

विजय मेरी इतनी गंभीरता से कही गई बात को हलकेफुलके ढंग से लेते और हंस कर कहते, ‘‘वाह, क्या हमारे घर में महाराष्ट्रियन बहू आ रही है? क्या बुराई है?’’ अब तो मैं भी मानसिक रूप से उसे बहू के रूप में देखने के लिए तैयार हो गई थी. मन ही मन कई बातें उस के बारे में सोचती रहती. स्नेहा कभी अपनी टिप्पणी देती, कभी चुपचाप हमारी बात सुनती. वह भी हमें राहुल और स्वाति की कई बातें बताती रहती.

वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. राहुल का यहीं मुंबई में ऐडमिशन हुआ, स्वाति का कोटा में. मैं सोचती अब तो बस फोन ही माध्यम होगा इन की बातचीत का. स्वाति कोटा चली गई. राहुल कई दिन चुप व गंभीर सा रहा. फोन पर बात कर रहा होता तो मैं समझ जाती उधर कौन है. वह कई बार फोन पर दोस्तों से बात करता लेकिन जब वह स्वाति से बात करता तो उस के बिना बताए मैं उस के चेहरे के भावों से समझ जाती कि उधर स्वाति है फोन पर.

अब राहुल बीकौम के साथसाथ सीए भी कर रहा था. मैं ने आश्चर्यजनक रूप से एक बड़ा परिवर्तन महसूस किया. अब किसी अवनि के फोन आने लगे थे. राहुल की बातों से पता चला कि उस की क्लासफैलो अवनि उस की खास दोस्त है. 1-2 बार वह उसे किसी प्रोजैक्ट की तैयारी के लिए 2-3 दोस्तों के साथ घर भी लाया. उन की दोस्ती साधारण दोस्ती से हट कर लगी. अवनि ने मुझ से पूरे कौन्फिडैंस से बात की, किचन में मेरा हाथ बंटाने भी आ गई. वह साउथइंडियन थी, स्मार्ट थी. जब तक घर में रही, राहुलराहुल करती रही. मैं चुपचाप उस की भावभंगिमाओं का निरीक्षण करती रही और इस नतीजे पर पहुंची कि जो संबंध अब तक राहुल का स्वाति से था, वही आज अवनि से है.

मुझे मन ही मन राहुल पर गुस्सा आने लगा कि यह क्या तमाशा है, कभी किसी लड़की से इतनी दोस्ती तो कभी किसी और से. वह अवनि के साथ फोन पर गप्पें मारता रहता. मैं ने 1-2 बार पूछ ही लिया, ‘‘स्वाति कैसी है?’’‘‘ठीक है, क्यों?’’‘‘उस से बात तो होती रहती होगी?’’‘‘हां, कभी फ्री होता हूं तो बात हो जाती है, वह भी बिजी है, मैं भी.’’मैं ने मन ही मन सोचा, ‘हां, मुझे पता है तुम कहां बिजी हो.’मैं ने इतना ही कहा, ‘‘तुम्हारी तो वह अच्छी फ्रैंड है न, उस के लिए तो टाइम मिल ही जाता होगा.’’

वह झुंझला गया, ‘‘तो क्या उस से रोज बात करता रहूं? और रोजरोज कोई क्या बात करे.’’मैं हैरान उस का मुंह देखती रह गई और वह पैर पटकता वहां से चला गया.अब राहुल पर मुझे हर समय गुस्सा आता रहता. अवनि कभी भी उस के दोस्तों के साथ आ जाती, लंच करती, हम सब से खूब बातें करती. रात को बैडरूम में विजय को देखते ही मेरे मन का गुबार निकलना शुरू हो जाता, ‘‘हुंह, पुरुष है न, किसी लड़की की भावनाओं से खेलना अपना हक समझता है, बचपन से जिस के साथ घूम रहा है, जिस के साथ सोसायटी में अच्छेखासे चर्चे हैं, अब इतने आराम से उसे भूल कर किसी और लड़की से दोस्ती कर ली है, आवारा कहीं का.’’

विजय कहते, ‘‘प्रीति, तुम क्यों बच्चों की बातों में अपना दिमाग खराब करती रहती हो. यह उम्र ही ऐसी है, ज्यादा ध्यान मत दिया करो.’’मैं चिढ़ जाती, ‘‘हां, आप तो उसी की साइड लेंगे, खुद भी तो एक पुरुष हो न.’’‘‘अरे, हम तो हमेशा से आप के गुलाम हैं, कभी शिकायत का मौका दिया है,’’ विजय नाटकीय स्वर में कहते तो भी मैं चुप रहती.

मेरा ध्यान स्वाति में रहता. मैं उसी के बारे में सोचती. कोई भी काम करते हुए मुझे उस का ध्यान आ जाता कि बेचारी को राहुल का व्यवहार कितना खलता होगा, उसे राहुल का बचपन का साथ याद आता होगा.

काफी समय बीतता चला गया. स्नेहा एमबीए कर रही थी, राहुल का भी सीए पूरा होने वाला था. यह पूरा समय मुझे स्वाति का ध्यान आता रहा था. राहुल के किसी फोन से मुझे अब यह न लगता कि वह स्वाति के संपर्क में भी है. अवनि से उस की घनिष्ठता बढ़ गई थी. एक दिन मुझे शौपिंग के लिए जाना था, विजय ने कहा, ‘‘तुम शाम को 6 बजे कैफे कौफी डे पहुंच जाना, वहीं कुछ खापी कर शौपिंग करने चलेंगे.’’

मैं वहां पहुंची, एक कार्नर में बैठ गई. विजय को फोन कर के पूछा कि कितनी देर में आ रहे हो. उन्होंने कहा, ‘‘तुम और्डर दे दो, मैं भी पहुंच ही रहा हूं.’’

मैं ने और्डर दे कर यों ही नजरें इधरउधर दौड़ाईं तो मैं चौंक पड़ी, स्वाति एक टेबल पर एक लड़के के साथ बैठी थी और दोनों चहकते हुए आसपास के माहौल से बेखबर अपनी बातों में व्यस्त थे. मैं गौर से स्वाति को देखती रही, वह काफी खुश लग रही थी. मेरी नजरें स्वाति से हट नहीं रही थीं, शायद उसे भी किसी की घूरती निगाहों का एहसास हुआ हो, उस ने इधरउधर देखा, चौंक कर उस लड़के को कुछ कहा, फिर उठ कर आई, मेरी टेबल के पास खड़ी हुई, मुझे नमस्ते की. मैं ने उसे बैठने का इशारा करते हुए उस के हालचाल पूछे.

वह बैठी तो नहीं लेकिन आज पहली बार वह मुझ से बात कर रही थी. मैं ने उस की पढ़ाई के बारे में पूछा. उस से बात करतेकरते मेरी नजर उस के पीछे आ कर खड़े हुए लड़के पर पड़ी. स्वाति ने उस से परिचय करवाया, ‘‘आंटी, यह आकाश है, कोटा में मेरे कालेज में ही है. यहीं मुंबई में ही रहता है.’’ मैं ने दोनों से कुछ हलकीफुलकी बात की, फिर वे दोनों ‘बाय आंटी’ कह कर चले गए.

मैं स्वाति को हंसतेमुसकराते जाते देखती रही. मैं सोच रही थी, यह लड़की कभी नहीं जान पाएगी कि यह कितने दिनों से मेरे दिमाग पर छाई थी. मैं ने मन ही मन पता नहीं क्या रिश्ता बना लिया था इस से, पता नहीं इस की कितनी भावनाओं से मेरा मन जुड़ गया था, लेकिन आज मैं स्वाति को खुश देख कर बेहद खुश थी.

Romantic Story : राजकुमार लाओगी न – योगिताजी की जिद्द ने क्या से क्या कर डाला

Romantic Story : ‘‘चेष्टा, पापा के लिए चाय बना देना. हो सके तो सैंडविच भी बना देना? मैं जा रही हूं, मुझे योगा के लिए देर हो रही है,’’ कहती हुई योगिताजी स्कूटी स्टार्ट कर चली गईं. उन्होंने पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा, न उन्होंने चेष्टा के उत्तर की प्रतीक्षा की.

योगिताजी मध्यम- वर्गीय सांवले रंग की महिला हैं. पति योगेश बैंक में क्लर्क हैं, अच्छीखासी तनख्वाह है. उन का एक बेटा है. उस का नाम युग है. घर में किसी चीज की कमी नहीं है.

जैसा कि  सामान्य परिवारों में होता है घर पर योगिताजी का राज था. योगेशजी उन्हीं के इशारों पर नाचने वाले थे. बेटा युग भी बैंक में अधिकारी हो गया था. बेटी चेष्टा एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका बन गई थी.

कालेज के दिनों में ही युग की दोस्ती अपने साथ पढ़ने वाली उत्तरा से हो गई. उत्तरा साधारण परिवार से थी. उस के पिता बैंक में चपरासी थे, इसलिए जीवन स्तर सामान्य था. उत्तरा की मां छोटेछोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के साथ ही कुछ सिलाई का काम कर के पैसे कमा लेती थीं.

उत्तरा के मातापिता ईमानदार और चरित्रवान थे इसलिए वह भी गुणवती थी. पढ़ने में काफी तेज थी. उत्तरा का व्यक्तित्व आकर्षक था. दुबलीपतली, सांवली उत्तरा सदा हंसती रहती थी. वह गाती भी अच्छा थी. कालेज के सभी सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उद्घोषणा का कार्य वही करती थी. उस की बड़ीबड़ी कजरारी आंखों में गजब का आकर्षण था. उस की हंसी में युग ऐसा बंधा कि उस की मां के तमाम विरोध के आगे उस के पैर नहीं डगमगाए और वह उत्तरा के प्यार में मांबाप को भी छोड़ने को तैयार हो गया.

योगिताजी को मजबूरी में युग को शादी की इजाजत देनी पड़ी. कोर्टमैरिज कर चुके युग और उत्तरा के विवाह को समाज की स्वीकृति दिलाने के लिए योगिताजी ने एक भव्य पार्टी का आयोजन किया. समाज को दिखाने के लिए बेटे की जिद के आगे योगिताजी झुक तो गईं लेकिन दिल में बड़ी गांठ थी कि उत्तरा एक चपरासी की बेटी है.

दहेज में मिलने वाली नोटों की भारी गड्डियां और ट्रक भरे सामान के अरमान मन में ही रह गए. अपनी कुंठा के कारण वे उत्तरा को तरहतरह से सतातीं. उस के मातापिता के बारे में उलटासीधा बोलती रहतीं. उत्तरा के हर काम में मीनमेख निकालना उन का नित्य का काम था.

उत्तरा भी बैंक में नौकरी करती थी. सुबह पापा की चायब्रेड, फिर दोबारा मम्मी की चाय, फिर युग और चेष्टा को नाश्ता देने के बाद वह सब का लंच बना कर अलगअलग पैक करती. मम्मी का खाना डाइनिंग टेबल पर रखने के बाद ही वह घर से बाहर निकलती थी. इस भागदौड़ में उसे अपने मुंह में अन्न का दाना भी डालने को समय न मिलता था.

यद्यपि युग उस से अकसर कहता कि क्यों तुम इतना काम करती हो, लेकिन वह हमेशा हंस कर कहती, ‘‘काम ही कितना है, काम करने से मैं फिट रहती हूं.’’

योगिताजी के अलावा सभी लोग उत्तरा से बहुत खुश थे. योगेशजी तो उत्तरा की तारीफ करते नहीं अघाते. सभी से कहते, ‘‘बहू हो तो उत्तरा जैसी. मेरे बेटे युग ने बहुत अच्छी लड़की चुनी है. हमारे तो भाग्य ही जग गए जो उत्तरा जैसी लड़की हमारे घर आई है.’’

चेष्टा भी अपनी भाभी से घुलमिल गई थी. वह और उत्तरा अकसर खुसरफुसर करती रहती थीं. दोनों एकदूसरे से घंटों बातें करती रहतीं. सुबह उत्तरा को अकेले काम करते देख चेष्टा उस की मदद करने पहुंच जाती. उत्तरा को बहुत अच्छा लगता, ननदभावज दोनों मिल कर सब काम जल्दी निबटा लेतीं. उत्तरा बैंक चली जाती और चेष्टा स्कूल.

योगिताजी बेटी को बहू के साथ हंसहंस कर काम करते देखतीं तो कुढ़ कर रह जातीं…फौरन चेष्टा को आवाज दे कर बुला लेतीं. यही नहीं, बेटी को तरहतरह से भाभी के प्रति भड़कातीं और उलटीसीधी पट्टी पढ़ातीं.

उत्तरा की दृष्टि से कुछ छिपा नहीं था लेकिन वह सोचती थी कि कुछ दिन बाद सब सामान्य हो जाएगा. कभी तो मम्मीजी के मन में मेरे प्रति प्यार का पौधा पनपेगा. वह यथासंभव अच्छी तरह कार्य करने का प्रयास करती, लेकिन योगिताजी को खुश करना बहुत कठिन था. रोज किसी न किसी बात पर उन का नाराज होना आवश्यक था. कभी सब्जी में मसाला तेज तो कभी रोटी कड़ी, कभी दाल में घी ज्यादा तो कभी चाय ठंडी है, दूसरी ला आदि.

युग इन बातों से अनजान नहीं था. वह मां के हर अत्याचार को नित्य देखता रहता था. पर उत्तरा की जिद थी कि मैं मम्मीजी का प्यार पाने में एक न एक दिन अवश्य सफल हो जाऊंगी. और वे उसे अपना लेंगी.

योगिताजी को घर के कामों से कोई मतलब नहीं रह गया था, क्योंकि उत्तरा ने पूरे काम को संभाल लिया था, इसलिए वह कई सभासंगठनों से जुड़ कर समाजसेवा के नाम पर यहांवहां घूमती रहती थीं.

योगिताजी चेष्टा की शादी को ले कर परेशान रहती थीं, लेकिन उन के ख्वाब बहुत ऊंचे थे. कोई भी लड़का उन्हें अपने स्तर का नहीं लगता था. उन्होंने कई जगह शादी के लिए प्रयास किए लेकिन कहीं चेष्टा का सांवला रंग, कहीं दहेज का मामला…बात नहीं बन पाई.

योगिताजी के ऊंचेऊंचे सपने चेष्टा की शादी में आड़े आ रहे थे. धीरेधीरे चेष्टा के मन में कुंठा जन्म लेने लगी. उत्तरा और युग को हंसते देख कर उसे ईर्ष्या होने लगी थी. चेष्टा अकसर झुंझला उठती. उस के मन में भी अपनी शादी की इच्छा उठती थी. उस को भी सजनेसंवरने की इच्छा होती थी. चेष्टा के तैयार होते ही योगिताजी की आंखें टेढ़ी होने लगतीं. कहतीं, ‘‘शादी के बाद सजना. कुंआरी लड़कियों का सजना- धजना ठीक नहीं.’’

चेष्टा यह सुन कर क्रोध से उबल पड़ती लेकिन कुछ बोल न पाती. योगिताजी के कड़े अनुशासन की जंजीरों में जकड़ी रहती. योगिताजी उस के पलपल का हिसाब रखतीं. पूछतीं, ‘‘स्कूल से आने में देर क्यों हुई? कहां गई थी और किस से मिली थी?’’

योगिताजी के  मन में हर क्षण संशय का कांटा चुभता रहता था. उस कुंठा को जाहिर करते हुए वे उत्तरा को अनापशनाप बकने लग जाती थीं. उन की चीख- चिल्लाहट से घर गुलजार रहता. वे हर क्षण उत्तरा पर यही लांछन लगातीं कि यदि तू अपने साथ दहेज लाती तो में वही दहेज दे कर बेटी के लिए अच्छा सा घरवर ढूंढ़ सकती थी.

योगिताजी के 2 चेहरे थे. घर में उन का व्यक्तित्व अलग था लेकिन समाज में वह अत्यंत मृदुभाषी थीं. सब के सुखदुख में खड़ी होती थीं. यदि कोई बेटीबहू के बारे में पूछता था तो बिलकुल चुप हो जाती थीं. इसलिए उन की पारिवारिक स्थिति के बारे में कोई नहीं जानता था. योगिताजी के बारे में समाज में लोगों की अलगअलग धारणा थी. कोई उन्हें सहृदय तो कोई घाघ कहता.

एक दिन योगिताजी शाम को अपने चिरपरिचित अंदाज में उत्तरा पर नाराज हो रही थीं, उसे चपरासी की बेटी कह कर अपमानित कर रही थीं तभी युग क्रोधित हो उठा, ‘‘चलो उत्तरा, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकता.’’

घर में कोहराम मच गया. चेष्टा रोए जा रही थी. योगेशजी बेटे को समझाने का प्रयास कर रहे थे. परंतु युग रोजरोज की चिकचिक से तंग हो चुका था. उस ने किसी की न सुनी. दोचार कपड़े अटैची में डाले और उत्तरा का हाथ पकड़ कर घर से निकल गया.

योगिताजी के तो हाथों के तोते उड़ गए. वे स्तब्ध रह गईं…कुछ कहनेसुनने को बचा ही नहीं था. युग उत्तरा को ले कर जा चुका था. योगेशजी पत्नी की ओर देख कर बोले, ‘‘अच्छा हुआ, उन्हें इस नरक से छुटकारा तो मिला.’’

योगिताजी अनर्गल प्रलाप करती रहीं. सब रोतेधोते सो गए.

सुबह हुई. योगेशजी ने खुद चाय बनाई, बेटी और पत्नी को देने के बाद घर से निकल गए. चेष्टा ने जैसेतैसे अपना लंच बाक्स बंद किया और दौड़तीभागती स्कूल पहुंची.

घर में सन्नाटा पसर गया था. आपस में सभी एकदूसरे से मुंह चुराते. चेष्टा सुबहशाम रसोई में लगी रहती. घर के कामों का मोर्चा उस ने संभाल लिया था, इसलिए योगिताजी की दिनचर्या में कोई खास असर नहीं पड़ा था. वे वैसे भी सामाजिक कार्यों में ज्यादा व्यस्त रहती थीं. घर की परवा ही उन्हें कहां थी.

योगेशजी से जब भी योगिताजी की बातचीत होती चेष्टा की शादी के बारे में बहस हो जाती. उन का मापदंड था कि मेरी एक ही बेटी है, इसलिए दामाद इंजीनियर, डाक्टर या सी.ए. हो. उस का बड़ा सा घर हो. लड़का राजकुमार सा सुंदर हो, परिवार छोटा हो आदि, पर तमाम शर्तें पूरी होती नहीं दिखती थीं.

चेष्टा की उम्र 30 से ऊपर हो चुकी थी. उस का सांवला रंग अब काला पड़ता जा रहा था. तनाव के कारण चेहरे पर अजीब सा रूखापन झलकने लगा था. चिड़चिड़ेपन के कारण उम्र भी ज्यादा दिखने लगी थी.

उत्तरा के जाने के बाद चेष्टा गुमसुम हो गई थी. घर में उस से कोई बात करने वाला नहीं था. कभीकभी टेलीविजन देखती थी लेकिन मन ही मन मां के प्रति क्रोध की आग में झुलसती रहती थी. तभी उस को चैतन्य मिला जिस की स्कूल के पास ही एक किताबकापी की दुकान थी. आतेजाते चेष्टा और उस की आंखें चार होती थीं. चेष्टा के कदम अनायास ही वहां थम से जाते. कभी वहां वह मोबाइल रिचार्ज करवाती तो कभी पेन खरीदती. उस की और चैतन्य की दोस्ती बढ़ने लगी. आंखोंआंखों में प्यार पनपने लगा. वह मन ही मन चैतन्य के लिए सपने बुनने लगी थी. दोनों चुपकेचुपके मिलने लगे. कभीकभी शाम भी साथ ही गुजारते. चेष्टा चैतन्य के प्यार में खो गई. यद्यपि चैतन्य भी चेष्टा को प्यार करता था परंतु उस में इतनी हिम्मत न थी कि वह अपने प्यार का इजहार कर सके.

चेष्टा मां से कुछ बताती इस के पहले ही योगिताजी को चेष्टा और चैतन्य के बीच प्यार होने का समाचार नमकमिर्च के साथ मिल गया. योगिताजी तिलमिला उठीं. अपनी बहू उत्तरा के कारण पहले ही उन की बहुत हेठी हो चुकी थी, अब बेटी भी एक छोटे दुकानदार के साथ प्यार की पींगें बढ़ा रही है. यह सुनते ही वे अपना आपा खो बैठीं और चेष्टा पर लातघूंसों की बौछार कर दी.

क्रोध से तड़प कर चेष्टा बोली, ‘‘आप कुछ भी करो, मैं तो चैतन्य से मिलूंगी और जो मेरा मन होगा वही करूंगी.’’

योगिताजी ने मामला बिगड़ता देख कूटनीति से काम लिया. वे बेटी से प्यार से बोलीं, ‘‘मैं तो तेरे लिए राजकुमार ढूंढ़ रही थी. ठीक है, तुझे वह पसंद है तो मैं उस से मिलूंगी.’’

चेष्टा मां के बदले रुख से पहले तो हैरान हुई फिर मन ही मन अपनी जीत पर खुश हो गई. चेष्टा योगिताजी के छल को नहीं समझ पाई.

अगले दिन योगिताजी चैतन्य के पास गईं और उस को धमकी दी, ‘‘यदि तुम ने मेरी बेटी चेष्टा की ओर दोबारा देखा तो तुम्हारी व तुम्हारे परिवार की जो दशा होगी, उस के बारे में तुम कभी सोच भी नहीं सकते.’’

इस धमकी से सीधासादा चैतन्य डर गया. वह चेष्टा से नजरें चुराने लगा. चेष्टा के बारबार पूछने पर भी उस ने कुछ नहीं बताया बल्कि यह बोला कि तुम्हारी जैसी लड़कियों का क्या ठिकाना, आज मुझ में रुचि है कल किसी और में होगी.

चेष्टा समझ नहीं पाई कि आखिर चैतन्य को क्या हो गया. वह क्यों बदल गया है. चैतन्य ने तो सीधा उस के चरित्र पर ही लांछन लगाया है. वह टूट गई. घंटों रोती रही. अकेलेपन के कारण विक्षिप्त सी रहने लगी. इस मानसिक आघात से वह उबर नहीं पा रही थी. मन ही मन अकेले प्रलाप करती रहती थी. चैतन्य से सामना न हो, इस कारण स्कूल जाना भी बंद कर दिया.

योगिताजी बेटी की दशा देख कर चिंतित हुईं. उस को समझाती हुई बोलीं कि मैं अपनी बेटी के लिए राजकुमार लाऊंगी. फिर उसे डाक्टर के पास ले गईं. डाक्टर बोला, ‘‘आप की लड़की डिप्रेशन की मरीज है,’’ डाक्टर ने कुछ दवाएं दीं और कहा, ‘‘मैडमजी, इस का खास ध्यान रखें. अकेला न छोड़ें. हो सके तो विवाह कर दें.’’

थोड़े दिनों तक तो योगिताजी बेटी के खानेपीने का ध्यान रखती रहीं. चेष्टा जैसे ही थोड़ी ठीक हुई योगिताजी अपनी दुनिया में मस्त हो गईं. जीवन से निराश चेष्टा मन ही मन घुटती रही. एक दिन उस पर डिप्रेशन का दौरा पड़ा, उस ने अपने कमरे का सब सामान तोड़ डाला. योगिताजी ने कमरे की दशा देखी तो आव देखा न ताव, चेष्टा को पकड़ कर थप्पड़ जड़ती हुई बोलीं, ‘‘क्या हुआ…चैतन्य ने मना किया है तो क्या हुआ, मैं तुम्हारे लिए राजकुमार जैसा वर लाऊंगी.’’

यह सुनते ही चेष्टा समझ गई कि यह सब इन्हीं का कियाधरा है. कुंठा, तनाव, क्रोध और प्रतिशोध में जलती हुई चेष्टा में जाने कहां की ताकत आ गई. योगिताजी को तो अनुमान ही न था कि ऐसा भी कुछ हो सकता है. चेष्टा ने योगिताजी की गरदन पकड़ ली और उसे दबाती हुई बोली, ‘‘अच्छा…आप ने ही चैतन्य को भड़काया है…’’

उसे खुद नहीं पता था कि वह क्या कर रही है. उस के क्रोध ने अनहोनी कर दी. योगिताजी की आंखें आकाश में टंग गईं. चेष्टा विक्षिप्त हो कर चिल्लाती जा रही थी, ‘‘मेरे लिए राजकुमार लाओगी न…’’

Hindi Kahani : दीवार बोली – किशोर के कानों में अचानक कौन सी आवाज सुनाई देने लगी थी?

Hindi Kahani : वह किशोर भी आम किशोरों जैसा ही था. सारे काम वह भी वैसे ही करता था जैसे उस की उम्र के होशियार किशोर करते हैं, लेकिन वह हर काम थोड़ा जरूरत से ज्यादा कर दिया करता था. यदि अन्य किशोर नहाने में 7 से 10 मिनट लगाते तो वह 14 से 20 मिनट लगाता. शाम को स्कूल से आने के बाद 2 घंटे पढ़ने के लिए कहा जाए तो वह 4 घंटे से पहले उठने का नाम नहीं लेता. फुटबौल 1 घंटा खेलने के बजाय वह 2 घंटे तक खेलने का कायल था. मतलब यह कि हर काम जरूरत से ज्यादा किया करता था.

जब वह लिखने बैठता तो पूरी कौपी थोड़ी ही देर में भर डालता. अब खाली कौपियां इतनी ज्यादा तो होती नहीं थीं कि बस, कौपी पर कौपी मिलती जाए और वह उसे भरता चला जाए. आखिर हर चीज की कोई हद होती है, तो फिर वह करता क्या? घर की दीवारों, फर्श, स्कूल की दीवारों, कमरे के परदों, गरज यह कि जो कुछ भी उसे सामने दिखता उसी पर लिखना शुरू कर देता. कभीकभी अगर कोई चीज उसे लिखने के लिए नजर नहीं आती तो वह अपने हाथपैरों पर ही कुछ न कुछ लिखना शुरू कर देता. सब को उस की जो बात सब से बुरी लगती, वह थी कोयले से लिखलिख कर दीवारों को खराब करना. आखिर दीवारों की सफेदी इस तरह खराब होते देख कौन बरदाश्त करेगा, लेकिन वह किशोर क्योंकि पढ़नेलिखने और खेलने में भी होशियार था, इसलिए ये अच्छाइयां दीवारों पर लिखने की उस की बुरी आदत को दबा देती थीं. आप ने यह तो सुना ही होगा कि दूध देने वाले पशु की लात भी सहनी पड़ती है. यही बात उस किशोर के साथ भी थी.

एक दिन वह किशोर वक्त से पहले ही स्कूल पहुंच गया. उस ने सोचा कि कुछ करना चाहिए. वहीं नीचे जमीन पर कोयले के छोटेछोटे टुकड़े पड़े थे. बस, उस ने फौरन नीचे से कोयले का एक छोटा टुकड़ा उठाया और स्कूल की बड़ी दीवार पर एक आदमी का चित्र बनाना शुरू कर दिया. चित्र जैसे ही पूरा हुआ, वह आदमी सचमुच का आदमी बन गया. यह देख वह किशोर डर गया. वह उसे देख कर भागने लगा, लेकिन उस आदमी ने उसे दौड़ कर पकड़ लिया. पकड़ने के साथ ही किशोर के होश उड़ गए, वह बेहोश हो गया. जब उसे होश आया तो उस ने देखा कि वह एक बड़े से सजेधजे कमरे में सुर्ख रंग के मखमली कालीन पर लेटा हुआ है. उस के आसपास उस के जैसे ही कई छोटेछोटे किशोर लेटे हुए हैं. उस ने उठने की कोशिश की मगर उस से उठा नहीं गया. वह बोलना चाहता था, ताकि अपने आसपास लेटे बच्चों से बात कर सके और पूछे कि वे कौन हैं और यहां कैसे आए? उसे ऐसा महसूस हुआ कि वह बोल नहीं सकता है. उस की जबान तालू से इस तरह चिपक गई है कि वह कुछ बोल ही नहीं पा रहा. उस ने इधरउधर नजर दौड़ा कर उस आदमी को देखना चाहा, जिस ने उसे पकड़ लिया था, लेकिन वह उसे कहीं नजर नहीं आया. वह बड़ा परेशान हुआ कि आखिर वह है कहां? वह काफी देर तक इसी तरह लेटा रहा और फिर रोने लगा, लेकिन उसे लगा कि रोते वक्त जो आवाज निकलनी चाहिए थी वह नहीं निकल रही है. उस ने हाथ उठा कर अपने आंसू पोंछने चाहे लेकिन उस का हाथ भी नहीं उठा. वह कराहने लगा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि उसे किस जुर्म में यह सजा दी जा रही है और उस का सारा बदन इस तरह क्यों जकड़ गया है, जबान से आवाज क्यों नहीं निकलती, ये सब क्या हो रहा है?

वह अभी यह सोच ही रहा था कि एक अजीब सी गड़गड़ाहट की आवाज उस के कानों में पड़ी. इस आवाज के साथ ही कमरे में मौजूद सारे किशोर खुदबखुद उठ कर खड़े हुए, लेकिन अब भी उन की जबान बंद थी. उस ने देखा कि ठीक सामने कमरे की सफेद दीवार है, जो बिलकुल साफ है. उसे वह आदमी कमरे में आता दिखाई दिया जो उसे वहां ले आया था. उस के एक हाथ में कोयले का एक छोटा सा टुकड़ा था. उस ने कमरे की सफेद दीवार को कोयले से खराब करना शुरू कर दिया. किशोर को यह देख कर बड़ा ताज्जुब हुआ कि वह आदमी भी हूबहू वैसे ही चित्र दीवार पर बना रहा था जैसे वह खुद बनाया करता था. उसे दीवार खराब करने वाला वह आदमी अच्छा नहीं लगा. वह सोचने लगा, ‘इतनी सफेद दीवार को वह क्यों खराब कर रहा है?’ उसे उस आदमी पर बड़ा क्रोध आया. उस की इच्छा हुई कि दौड़ कर जाए और उस के हाथ से कोयले का टुकड़ा छीन ले, लेकिन फिर उसे खयाल आया कि वह खुद भी तो इसी तरह दीवारें, परदे, अलमारियों के शीशे वगैरा खराब करता रहा है. उसे आत्मग्लानि का अनुभव हुआ.

इधर वह आदमी दीवार खराब करता चला जा रहा था. कमरे में खड़े सभी किशोर उसे इस तरह दीवार खराब करते हुए देख रहे थे. एकाएक उस किशोर को न जाने क्या हुआ, न जाने उस में इतनी ताकत कहां से आ गई कि उस ने तेजी से आगे बढ़ कर उस आदमी के हाथ से कोयला छीन लिया और कहा, ‘‘इतनी अच्छी दीवार को आप इस तरह क्यों खराब कर रहे हैं?’’

‘‘लेकिन तुम भी तो अभी तक यही करते रहे हो. जो काम तुम खुद करते रहे हो, उसे करने से दूसरे को क्यों मना करते हो?’’ उस आदमी ने कहा और फिर दीवार खराब करने लग गया. किशोर को उस आदमी की इस बात पर बड़ा गुस्सा आया. उस ने कहा, ‘‘मैं अब कभी दीवारें और दूसरी चीजें खराब नहीं करूंगा. आप भी इसी वक्त इसे बंद कर दें.’’ इतना कहने के साथ ही वह दीवार की तरफ आगे बढ़ा और उस पर कोयले से बनाए चित्रों को अपने हाथ से मिटाने लगा, क्योंकि इस से सफेद दीवार की शोभा जाती रही थी. दीवार पर बने चित्र को हाथ लगाते ही कमरे की दीवार अचानक कुछ अजीब तरह से हिलने लगी, मानो कोई जलजला आ गया हो. वह किशोर बड़े गौर से वहां खड़ा यह सब देखता रहा. उस ने अपने आसपास खड़े बच्चों की तरफ नजर दौड़ाई. उसे सब परिचित चेहरे वहां खड़े हुए नजर आए. वे सभी उस के स्कूल के साथी थे.

उसे यह देख कर और भी ताज्जुब हुआ कि वह खड़ी दीवार किसी अनजान कमरे की दीवार नहीं, बल्कि उस के अपने स्कूल की ही दीवार है. वह अपनी इस करतूत पर मन ही मन शरमा गया और स्कूल की दीवार पर कोयले से बनाया हुआ चित्र मिटाने लगा. उसे लगा, जैसे दीवार कह रही हो, ‘‘मुझे आप इस तरह न बिगाड़ो.’’ कुछ देर बाद स्कूल की घंटी बजी और वह अपने दूसरे साथियों के साथ अपनी कक्षा में चला गया. यह तो बताने की जरूरत ही नहीं कि उस दिन के बाद उस ने कभी दीवार या फर्श खराब नहीं किया.

Hindi Story : दोस्ती – करोड़पति बनने के बाद सौम्या के जीवन में क्या बदलाव आया?

Hindi Story : आज जब सौम्या  झील के उस पार बने बड़े से बंगले में पहली बार प्रवेश कर रही थी तो जो बात उस के दिमाग में सब से ऊपर थी वह यह कि उस ने अपने जीवन में जो सपना देखा था क्या वह पूरा हुआ?

छोटे से शहर के साधारण परिवार की साधारण सी दिखने वाली एक आम लड़की जिस की आंखों में थे चंद सपने और मन में कुछ चाहतें. बचपन से आज तक उस ने कोई ऐसी प्रतिभा का परिचय नहीं दिया था जिस के आधार पर उस से कुछ खास कर गुजरने की उम्मीदें की जा सकें, बल्कि एक आम मध्यवर्गीय भारतीय परिवार की औसत लड़की की ही माफिक उस ने पहले उलटनापलटना, फिर 4 पैरों पर चलना और उस के बाद तुतलाती जबान में कुछ बोलना सीखा.

सभी घरों की तरह उस के घर में भी जब पहली बार उस की आवाज में मां… मां… शब्द उस के कंठ से फूट कर निकले तो एकसाथ सब लोगों की बांछें खिल गईं. कई दिनों तक घर में चर्चा चलती रही कि पहले सौम्या ने बोलना शुरू किया था या उस से 2 साल बड़ी बहन संगीता ने.

दरअसल परिवार में सौम्या दूसरी लड़की के रूप में आई थी. उस के पिता की पहली संतान थी संगीता. जब सौम्या होने वाली थी तो उस की मां ने उम्मीदें लगा रखी थीं कि इस बार बेटा होगा. इन मामलों की अच्छी सम  झ रखने वाले तथा कुछ परिचित ज्योतिषियों ने भी 100 प्रतिशत दावा किया था कि लड़का ही होगा. आखिर सारे लक्षण जो लड़के के ही दिख रहे थे, लेकिन हुआ अंत में वही जो कुदरती होना था. मांबाप तथा परिवार के बड़ेबुजुर्गों ने मन मार कर उस तोहफे को स्वीकार लिया जिस का कई दिनों की जद्दोजेहद तथा विचारविमर्श के बाद नाम पड़ा सौम्या. सौम्या यानी आकर्षक, प्रिय तथा मनोहारी.

समय के साथ पंख लगाए सौम्या पहले किंडरगार्टन गई, फिर स्कूल और उस के बाद कालेज, कालेज तक न तो उस ने कोई ऐसा काम किया और न ही कोई ऐसी उपलब्धि हासिल की थी जिसे किसी भी तरह से विशिष्ट कहा जा सके या फिर जिस के आधार पर उस से कोई खास उम्मीद की जा सके. आखिर देखनेसुनने में सपाट, पहनावेओढ़ावे में साधारण, पढ़ाईलिखाई में औसत और बाहरी गतिविधियों से बेखबर इस लड़की से कैसे यह उम्मीद की जा सकती थी कि वह आसमान से तारे तोड़ लाएगी?

जब वह बीए के फाइनल में पहुंची थी तो उस के पिता ने मन ही मन तय कर लिया था कि अब जल्दी से जल्दी कोई लायक लड़का खोज कर उस की शादी कर देंगे. पिछले ही साल सौम्या की बड़ी बहन का उन्होंने विवाह किया था. जिस बैंक में वे काम करते थे, वहीं उन्हें एक लड़का मिल गया था जिस के पिता भी हाल ही में उसी बैंक से रिटायर हुए थे.

लड़का देखने में काफी सुंदर था और साथ ही उन का पक्का भक्त भी. आखिर उन्होंने ही उसे बड़े जतन और स्नेह से नौकरी के सारे दांवपेंच सिखाए थे. इत्तेफाकन लड़के के पिता भी उन के पुराने परिचित निकल गए थे जिन के साथ उन्होंने कई साल पहले राजस्थान के सुदूर जैसलमेर जिले के छोटे से कसबे में बैंक की शाखा में काम किया था, इसीलिए विवाह तय करने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई थी.

जिस तरह की शादी संगीता की हुई थी, कुछ वैसा ही रिश्ता सौम्या की खातिर भी ढूंढ़ा जा रहा था. योजना थी कि सालदोसाल में कुछ रुपएपैसे जमा भी हो जाएंगे जो शादी में काम आएंगे. 1-2 लड़के दिमाग में भी थे, कोई म्युनिसिपलिटी का बाबू, कोई वन विभाग में रेंजर तो कोई सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर, लेकिन आजकल के लड़कों का दिमाग नौकरी पाते ही जैसे खराब हो जाता है वैसे ही इन लोगों का भी था. न जाने लड़की के रूप में क्या चाहते थे, ‘जन्नत की हूर या आसमान की कोई परी या कोई हीरोइन.’ ऊपर से पैसा बेशुमार और नखरे तो पूछो ही मत.

इधर सौम्या के पिता इन चिंताओं में घुले जा रहे थे उधर सौम्या की जिंदगी में एक नया तूफान उठ रहा था. वह आया तो इतने चुपके से कि आहट तक नहीं हुई लेकिन न जाने कब, देखते ही देखते वह सौम्या की हस्ती पर इस कदर छा गया कि सौम्या को उस के अलावा कोई और नजर ही नहीं आता था.

यह कोई नहीं जानता कि उस ने सौम्या में क्या देख लिया क्योंकि जहां तक सौम्या जानती थी और जो काफी हद तक सचाई भी थी, उस में कोई ऐसा विशेष आकर्षण नहीं था जिस से एक करोड़पति घर का एकलौता शहजादा उस पर लट्टू हो जाता. न तो सूरत ही ऐसी और न सीरत ही, लेकिन पवन को उस बड़े से कालेज में यदि कोई लड़की पसंद आई, किसी को देख कर उस का दिल धड़का, किसी का दीदार करने की लालसा जागी और किसी से गुफ्तगू करने का मन हुआ तो सिर्फ उसी लड़की से जो न केवल दूसरों की निगाहों में अतिसामान्य थी बल्कि जो खुद भी इसी खयालात की थी.

बहुत दिन बाद एक बार पवन ने यों ही बस, बातोंबातों में उस से कहा था कि उस की आंखों में एक अजीब सी मनमोहक कशिश है जो इंसान को अपनी ओर इस तरह खींच लेती है जैसे चुंबक लोहे को. उस दिन के बाद से सौम्या ने अपनी आंखों का खासा खयाल रखना शुरू कर दिया था और घंटों आईने के सामने अकेली बैठ कर उन्हें निहारती रहती.

पवन के पिता शहर के नामीगिरामी वकीलों में थे. उस के दादा भी वकील थे और दादा के पिता भी और उन के पिता भी. सभी हाईकोर्ट में और सभी सर्विस मैटर के. हिंदुस्तान के सब से बड़े मुकदमेबाज यहां के सरकारी सेवक होते हैं. यह राज पवन के दादा के दादा ही सम  झ गए थे. उन्होंने न सिर्फ खुद यह क्षेत्र चुना बल्कि अपनी औलादों को भी इसी क्षेत्र में लगाया.

वह अकसर कहा करते थे कि चूंकि यहां के सरकारी नुमाइंदों को एक तो न काम करने की मोटी तनख्वाह मिलती है ऊपर से काम करने की कीमत अलग से हराम के रूप में मिलती है. लिहाजा यह संभव ही नहीं कि कोई भी सरकारी नौकर कम से कम एक बार कानून के इस दंगल में नहीं कूदेगा. साथ ही उन्होंने यह भी चेतावनी दी थी कि जब तक उन के खानदान के लोग वकालत के इस क्षेत्रविशेष को पकड़े रहेंगे तब तक तो परिवार की निरंतर तरक्की होगी और जिस दिन यह छोड़ दिया तभी से परिवार का गिरना शुरू हो जाएगा.

उन की बात को पत्थर की लकीर मानते हुए वह परिवार आज तक अपना परचम लहरा रहा था और न जाने कितने ही हाईकोर्ट तथा कुछेक सुप्रीम कोर्ट के जज तक दे चुके थे. इसी परंपरा का पालन करते हुए पवन भी कानून की पढ़ाई कर रहा था.

पवन और सौम्या की पहली कुछ मुलाकातें बेहद औपचारिक और  ि झ  झक भरी थीं. बस, परिचय प्राप्ति कह सकते हैं उसे. क्या नाम है, कहां के हैं, कहां, किस विषय में दाखिला है, जैसे सामान्य प्रश्न जिन में भावों तथा स्नेहबंधन की गहराई ऊपर से बिलकुल न दिखे. लेकिन कोई भी तजरबेकार यह आसानी से देख सकता कि मामला उतना सतही नहीं है जितना प्रश्नों और उत्तरों के सुनने से लगता है. यहां महत्त्व भाषा का नहीं, भाव का था और इन मुलाकातों में अंदरूनी छिपा भाव कहीं गहरा और असरदार था.

बातों से मुलाकातों और मुलाकातों से तादात्म्य और तादात्म्य से आत्मीयता और आत्मीयता से अंतरंगता और अंतरंगता से उन्माद और उन्माद से निर्णय, फिर विरोध. पवन के परिवार का भी और सौम्या के परिवार में भी. तर्कवितर्क, वादप्रतिवाद, नाराजगी, गुस्सा, अंतर्कलह, उठापटक, सामदामदंडभेद, धमकियां, देश, समाज और नातेरिश्तेदारों की गुहार. फिर बड़ेबुजुर्गों की हार. परस्पर सम  झौता और फिर विजातीय विवाह और कुछ ही सालों के अंदर दोनों परिवारों के बीच हर तरह के सामाजिक संबंधों तथा सरोकारों की पूरी तरह स्थापना.

आज सौम्या को वह दिन भी याद आ रहा था जब वह पहली बार पवन से मिली थी और वह दिन भी जब उस ने पहली बार लाल जोड़े में सज कर शर्मीली दुलहन के रूप में अपनी ससुराल में प्रवेश किया था. साथ ही वह दिन भी याद आ रहा था जब पवन ने उसे पहली बार सतीश से मिलाया था और वह दिन भी जब सतीश ने पहली बार मौका पा कर अकेले में उस के कान में मिश्री घोली थी.

वह दिन भी जब सतीश ने उस का हाथ हौले से पकड़ा था फिसलने से रोकने के बहाने, अब यह बात दूसरी है कि तब सौम्या सम  झ भी नहीं पाई थी कि वह संभलने के बजाय फिसल रही है किसी गहरी अंधेरी खाई में. अंत में वह दिन भी जब उस ने फिर कदम रखा था. खैर, वह तो कल ही की बात थी.

सतीश पवन का बहुत ही अजीज दोस्त था, कम से कम पवन तो यही सम  झता था. हालांकि दोनों की जानपहचान ज्यादा पुरानी नहीं थी लेकिन जिस तरह बहुत तेजी से कुछ ही दिनों में सौम्या उस के जीवन का हिस्सा बन गई थी, उसी तेजी से सतीश ने भी पवन के जीवन में प्रवेश कर के उस पर एक तरह का वर्चस्व हासिल कर लिया था. देखने में बहुत सुंदर, भोलीभाली सांवली सूरत वाला हंसमुख जवान, जबान में मानो शहद घुली हो. हमदर्द इतना कि चारों पहर एक पांव पर खड़ा. पवन की मां की बीमारी के समय रातभर अस्पताल में जाग कर रात गुजारी थी उस ने. साथ ही यारों का यार.

पवन और सौम्या की शादी के बाद जितनी बड़ी पार्टी खुद उस के परिवार वालों ने नहीं दी थी उस से बड़ी और भव्य पार्टी सतीश ने दी थी, शानोशौकत और मुहब्बत से. स्वाभाविक था कि ऐसे में आपसी सौहार्द और प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता. यह नहीं था कि सतीश अकेले पवन की पसंद हो या फिर सिर्फ उस का साथी, वह तो पूरे परिवार का हमदम भी था. हमदर्द भी और दोस्त भी.

और सौम्या का, उस का तो सबसे खास, करीबी, अपना, फिक्रमंद, लाजवाब देवर था जो हर मौके के लिए, हर काम के लिए, हर आदेश पर, हर समय उस के सामने सिर  झुकाए मौजूद रहता.

हां, साथ ही वह सौम्या को उस की कुछ छिपी हुई अच्छाइयों और खूबियों के बारे में भी बताता जिन का स्वयं सौम्या को भी एहसास नहीं था लेकिन जो उसे सतीश के मुंह से सुन कर बहुत अच्छा लगता, उसे लगता मानो उसे सही अर्थों में सम  झनेबू  झने वाला कोई मिल गया है.

फिर एक दिन सौम्या ने उस की मौजूदगी में एक गाना सुनाया. गाने के बोल उसे आज तक बखूबी याद हैं, ‘मोरा गोरा रंग लई ले…’ साथ ही उसे यह भी याद है कि गाना खत्म होने के बाद भी सतीश न जाने कितनी देर तक तालियां बजा कर बधाई देता रहा था. रात में खाने की टेबल पर भी वह लगातार सौम्या की ही तारीफ करता रहा था और पहली बार पवन के चेहरे पर अजीब से खिंचाव और तनाव के भाव उभरे थे.

उस रोज के बाद से जहां पवन ने सतीश से मिलनाजुलना कम करना शुरू कर दिया था वहीं सौम्या और सतीश की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता ही चला गया था. सतीश ने ही सौम्या को बताया था कि मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में कई संगीतकार और गायकगायिका उस की मित्रमंडली में हैं. उसी ने सौम्या को फिल्मों में गाना गाने की भी सलाह दी थी इस टिप्पणी के साथ कि उस जैसी प्रतिभाशाली महिला का अपने गुणों को दबाए रखना कुदरत का अपमान करने के समान था.

लेकिन जब उस रोज रात को सौम्या ने यह बात पवन को बताई थी तो खुश होने के बजाय वह अचानक बिफर गया और गुस्से की हालत में न जाने क्याक्या अनापशनाप बकने लगा था. वैसे तो वह कई दिनों से कुछ खिंचाखिंचा सा रहता था पर उस दिन तो वास्तव में ही सारी हदें लांघ गया था.

सौम्या उस रात तो चुप रह गई लेकिन अलगाव की शुरुआत बखूबी हो चुकी थी. कुछ ही दिन बाद घर की हालत ऐसी हो गई मानो वह श्मशान हो तथा पवन और सौम्या उस में पड़ी 2 लाशें जिन का आपस में कोई वास्ता न हो.

इधर सौम्या और सतीश दिनोंदिन नजदीक आते ही गए. फिर जब पवन का व्यवहार बद से बदतर होने लगा, सतीश की निकटता बढ़ती गईर् और सौम्या की महत्त्वाकांक्षा पंख लगा कर उड़ने लगी तो एक दिन ऐसा आ ही गया जिस का वे दोनों शायद काफी दिनों से इंतजार कर रहे थे. काफी लड़ाई  झगड़े, आरोपप्रत्यारोप और गड़े मुरदे उखाड़ने के बाद सौम्या ने यह कहते हुए वह घर छोड़ दिया कि अब वह जीतेजी पवन का मुंह नहीं देखेगी और पवन ने भी लगभग वैसे ही शब्दों में उस का जवाब दिया.

घर छोड़ कर सौम्या सीधे सतीश के पास आई थी और उसे सारी बात बताई. सतीश ने भी उस की हिम्मत बढ़ाई और एक बार फिर मुंबई चलने की बात दोहराई, लेकिन यह भी साथ में जोड़ दिया कि जाने से पहले उसे अपने सारे गहने और जरूरत भर रुपए घर से लेने चाहिए. सौम्या के लाख सम  झाने पर भी कि अब वह उस घर में दोबारा कभी नहीं जाएगी, सतीश नहीं मान रहा था, इस बीच के समय के लिए ही सतीश उसे   झील के पार बने इस बड़े से खूबसूरत बंगले में ले आया था.

यह कुदरत का करिश्मा ही कहा जाए या सौम्या की नियति कि उस बंगले में घुसते ही उस की बुद्धि अचानक इस तरह जाग्रत हो गई जैसे उसे बिजली का तेज   झटका लगा हो. उस की अंतरात्मा चीखचीख कर उसे धिक्कारने लगी और वह आगे की सारी योजना समाप्त करते हुए चुपचाप तुरंत घर लौटने का आदेश देने लगी.

उसी आदेश में इतना तेज, इतनी ताकत और इतना अधिकारबोध था कि सौम्या चुपचाप, गूंगी गुडि़या की तरह उस का पालन करती हुई वहां से उठी और बंगले से निकल कर उस के कदम खुदबखुद अपने घर की ओर मुड़ गए.

घर आने पर पवन ने काफी कुछ कहा. उलाहना दिया. ताने दिए लेकिन सौम्या ने जवाब में एक शब्द भी नहीं कहा, मानो उस पर तो कोई दूसरी ही ताकत सवार थी. उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था. 2-4 दिनों में सबकुछ सामान्य होने लगा. सौम्या और पवन एकदूसरे से पहले सा व्यवहार करने लगे और महीना बीततेबीतते ऐसा लगने लगा मानो कभी कुछ हुआ ही न हो.

इस घटना के करीब ढाई साल बाद जब पवन और सौम्या घूमने शिमला गए थे तो उन्हें जानेपहचाने 2 चेहरे दिखाई दिए. थोड़ा गौर से देखने पर मालूम हुआ कि उन में से एक उन के करीबी साथी हरीश की बीवी संजना थी और दूसरा उस का पुराना दोस्त सतीश. दोनों बांहों में बांहें डाले ऐसे चले जा रहे थे मानो नवब्याहता हों.

यह देख कर पवन और सौम्या एकसाथ मुसकरा दिए और एकदूसरे का हाथ पकड़ कर अपनी मंजिल की ओर बढ़ गए.

Love Story : करवाचौथ – व्रत न रखने की अनुज की सलाह को क्या निशा मान गई

Love Story : ‘‘कितनी बार समझाया है तुम्हें इन सब झमेलों से दूर रहने को? तुम्हारी समझ में नहीं आता है क्या?’’ अनुज ने गुस्से से कहा.

‘‘गुस्सा क्यों करते हो? तुम्हारी लंबी उम्र के लिए ही तो रखती हूं यह व्रत. इस में मेरा कौन सा स्वार्थ है?’’ निशा बोली.

‘‘मां भी तो रखती थीं न यह व्रत हर साल. फिर पापा की अचानक क्यों मौत हो गई थी? क्यों नहीं व्रत का प्रभाव उन्हें बचा पाया? मैं ने तो उन्हें अपना खून तक दिया था,’’ अनुज ने अपनी बात समझानी चाही.

‘‘तुम्हें तो हर वक्त झगड़ने का बहाना चाहिए. ऐसा इनसान नहीं देखा जो परंपराएं निभाना भी नहीं जानता,’’ निशा बड़बड़ाती रही.

अनुज ने निशा की आंखों में आंखें डालते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे भूखा रहने से ही मेरी उम्र बढ़ेगी, ऐसा ग्रंथों में लिखा है तो क्या सच ही है? ग्रंथों में तो न जाने क्या अनापशनाप लिखा हुआ है. सब मानोगी तो मुंह दिखाने लायक न रहोगी.’’

निशा बुरा सा मुंह बना कर बोली, ‘‘आप तो बस रहने दो. आप को तो बस मौका चाहिए मुझ पर किसी न किसी बात को ले कर उंगली उठाने का… मौका मिला नहीं तो जाएंगे शुरू सुनाने के लिए.’’

‘‘बात मौके की नहीं अंधविश्वास पर टिकी आस्था की है. ब्राह्मणों द्वारा विभिन्न प्रकार की धार्मिक रूढियों के जरीए स्त्री को ब्राह्मणवादी पित्रसत्ता के अधीन बनाए रखने की है.’’

‘‘बसबस आप तो चुप ही करो. क्यों किसी के लिए अपशब्द कहते हो. इस में ब्राह्मणों का क्या कुसुर… बचपन से सभी औरतों को यह व्रत करते हुए देख रही हूं. हमारे घर में मेरी मां भी यह व्रत करती हैं… यह तो पीढ़ी दर पीढ़ी चल रहा है.’’

अनुज अपने गुस्से को काबू करते हुए बोला, ‘‘व्रत, पूजापाठ ये सब ब्राह्मणों ने ही बनाए ताकि ज्यादा से ज्यादा आम लोगों को ईश्वर और भाग्य का भय दिखा कर अपना उल्लू सीधा कर सकें. उन्हें शारीरिक बल से कमजोर कर उन पर पूरी तरह से कंट्रोल कर के मानसिक बेडि़यां पहनाई जा सकें. तुम तो नहीं मानती थीं ये सब… क्या हो गया शादी के बाद तुम्हारी मानसिकता को? इतना पढ़ने के बाद भी इन दकियानूसी बातों पर विश्वास?’’ यह आस्था, अंधविश्वास सिर्फ इसलिए ही तो है ताकि आस्था में कैद महिलाओं को किसी भी अनहोनी का भय दिखा कर ये ब्राह्मण, ये समाज के ठेकेदार हजारों वर्षों तक इन्हीं रीतिरिवाजों के जरीए गुलाम बनाए रख सकें. यही तो कहती थीं न तुम?’’

‘‘मैं ने करवाचौथ का व्रत आप से प्रेम की वजह से रखा है… आप की लंबी आयु के लिए.’’

‘‘तुम मेरे जीवन में मेरे संग हो यही काफी है. तुम्हें अपना प्यार साबित करने की कोई जरूरत नहीं. हम हमेशा हर तकलीफ में साथ हैं. यह एक दिन का उपवास कुछ साबित नहीं करेगा. वैसे भी तुम्हारे लिए भूखा रहना सही नहीं.’’

मुझे आप से कोई बहस नहीं करनी. हम जिस समाज में रहते हैं उस के सब कायदेकानून मानने होते हैं. आप जल में रह कर मगर से बैर करने के लिए मत कहो… कल को कोई ऐसीवैसी बात हो गई तो मैं अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी. आप चुपचाप घर जल्दी आ जाओ… मैं एक दिन भूखी रहने से मरने वाली नहीं हूं,’’ निशा रोंआसे स्वर में बोली.पत्नी की जिद्द और करवाचौथ के दिन को महाभारत में बदल जाने की विकट स्थिति के बीच अनुज ने चुप हो जाना ही बेहतर समझा.

तभी मां ने आवाज लगाई, ‘‘क्यों बेकार की बहस कर रहा है निशा से… औफिस जा.’’

‘‘अनुज नाराजगी से चला गया. उसे निशा से ऐसी बेवकूफी की आशा नहीं थी पर उस से भी ज्यादा गुस्सा उसे अपनी मां पर आ रहा था, जो इस बेवकूफी में निशा का साथ दे रही थीं. कम से कम उन्हें तो यह समझना चाहिए था. वे खुद 32 साल की उम्र से वैधव्य का जीवन जी रही हैं. सिर्फ 2 साल का ही तो था जब अचानक बाप का साया सिर से उठ गया.

अनुज को आज महसूस हो रहा था कि स्त्री मुक्ति पर कही, लिखी जाने वाली बातों का तब तक कोई औचित्य नहीं जब तक कि वे खुद इस आस्था और अंधविश्वास के मायाजाल से न निकलें. सही कह रहा था संचित (दोस्त) कि शुरुआत अपने घर से करो. गर एक की भी सोच बदल सको तो समझ लेना बदलाव है.

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