Artifical Intelligence : साल 1949 में मशहूर इंग्लिश उपन्यासकार जोर्ज ओरवेल की एक उपन्यास ‘1984’ पब्लिश हुई. कहानी एक ऐसे यूटोपियन सोसाइटी की थी जहां निरंकुश सत्ता लोगों पर अपना नियंत्रण रखती है. नियंत्रण के लिए ‘थिंकपोल’ ईकाई होती है जिस का काम उन लोगों की पहचान करना होता है जो विरोधी विचारों के हैं. यहां तक कि सत्ता ‘न्यूस्पीक’ नाम की भाषा भी विकसित करती है, जिस में ऐसे शब्द हमेशा के लिए मिटा दिए जाते हैं जो सत्ता विरोधी हों या सरकार से मेल न खाते हों. इस के अलावा सरकार लोगों की निजी जिंदगी, सोचने के तरीके, भाषा और इतिहास को नियंत्रित करती है.
यह उपन्यास जब बाजार में आई तो लोकतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास करने वालों को चिंता में डाल गई. चिंता इसलिए, कि क्या हो अगर ये सब सच होने लगे? क्या हो जब उन की पलपल की हरकतों पर गोल्डस्टीन जैसे किसी शासक की नजर हो? क्या हो जब उन का पूरा डाटा सरकार के पास हो? और क्या हो कि जब उन की भाषा, उन के शब्द, उन के विचार सीमित हो जाएं?
सवाल 75 साल पुराने हैं मगर आज 21वीं सदी में आर्टिफिशियल इंटेलिजैंस के दौर में ज्यादा वाजिब बन पड़े हैं. वाजिब इसलिए कि लोगों की निर्भरता इस पर बढ़ती जा रही है. उन की अपनी राय, अपनी समझ और अपने विचार सिकुड़ते जा रहे हैं. लोग हर चीज एआई से पूछ रहे हैं. मानो एआई ‘सर्वज्ञ’ बन पड़ी हो.
कोई उपयोगकर्ता एक्स पर अपना ट्वीट एआई की मदद से करता है तो दूसरा कमेंट में फैक्ट चेकिंग के लिए एआई से ही पूछ रहा है. लोग अपना ईमेल, पत्र, डिजाइन, ट्रांसलेशन, जानकारी लेना, जो बन पड़ता है सब एआई से कर रहे हैं. एआई सवाल पैदा कर रहा है और उस सवाल का जवाब भी खुद ही दे रहा है. इस ने लोगों के विवेक और विश्लेषण पर हमले करने शुरू कर दिए हैं. एक तरह से लोगों को निष्क्रिय कर दिया है. यह उन की भाषा, शब्दों की सीमाओं, वाक्यों की फोरमेशन और सब से जरूरी विचारों तक को ओर्गनाइज करने लगा है. यानी सब व्यवस्थित तरीके से. यह व्यवस्थित तरीका ही पहला हमला है सोच पर.
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