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प्रौपर्टी टैक्स लेकिन क्यों

देशभर की कौर्पोरेशनों की बड़ी आय का स्रोत प्रौपर्टी टैक्स होता है जो हर कौर्पोरेशन अपने अनुसार लगाती है. मकान बनाते समय जो पैसे चाहो, बनाने वाला दे देता है. पर हर साल, साल दर साल, उन सपंत्तियों पर टैक्स देना जो कोई पैसा कमा कर नहीं दे रही, एक मुसीबत ही लगती है. हर कौर्पोरेशन के खाते में वर्षों के बकाएवसूली की मोटी रकम पड़ी रहती है. यह रकम उगाहने के लिए समयसमय पर नोटिस, कुर्की, सीलिंग जैसे ऐक्शन लिए जाते हैं. इन से वसूली तो कुछ हो जाती है पर कभी भी यह 100 प्रतिशत नहीं होती और जो होती है वह फूलप्रूफ भी नहीं होती.

सब से बड़ी समस्या यह होती है कि प्रौपर्टी टैक्स किस आधार पर दिया जाए. यह समस्या सदियों से है. इंगलैंड में एक बार घरों में खिड़कियों की गिनती और उन के साइज पर टैक्स लगने लगा था. बड़े मकानों ने बाहर की खिड़कियां बंद कर दीं या छोटी कर दी थीं. आज भी तरहतरह की दरें हैं और तरहतरह की छूटें हैं जो पूरे ढांचे को चरमरा देती हैं. कौर्पोरेशन के चुनावों में जो पार्टी सत्ता में नहीं होती वह किसी तरह की छूट देने का वादा करती है पर जीतने के बाद मुकर जाती है और उस से मुश्किल और बढ़ जाती है.

मकान मालिक अकसर सुविधाओं की कमी का रोना रोते हैं कि पानी का पाइप नहीं डाला, गलियां-सड़कें ठीक नहीं हैं, बिजली के खंबों पर बल्ब नहीं हैं तो प्रौपर्टी टैक्स किस बात का दें. मकान मालिक गिनती में बहुत होते हैं, इसलिए कोई बड़ा कदम उठाना भी आसान नहीं होता. सीलिंग इन में से सब से खतरनाक कदम होता है. जिस प्रौपर्टी में रह रहे हैं, उस में काम कर के रोजीरोटी कमा रहे हैं उसे अगर सील कर दिया जाए तो करदाता आखिर पैसा कहां से जुटाएगा, यह सीधी सी बात आम अफसरों को सम?ा नहीं आती. मकान की कुर्की में चूंकि हजार ?ां?ाट होते हैं, इसलिए कौर्पोरेशनों के अफसर सीलिंग की क्रिया को अपनाते हैं पर यह तो अंडा देने वाली मुरगी को दाना न देने की बात है या कि शायद भूखे रह कर वह ज्यादा अंडे दे देगी.

प्रौपर्टी पर टैक्स तभी दिया जा सकता है जब उस से लाभ दिख रहा हो. जीएसटी वसूला जाता है क्योंकि बेचने वाले को लगता है कि कौन सा अपनी जेब से जा रहा है और खरीदने वाला उसे चीज के दाम में जोड़ लेता है. सो, कोई ?ां?ाट नहीं. पर सीलिंग करने का मतलब है कि व्यापार, घर या किराया बंद तो टैक्स चुकाने के पैसे भला कहां से आएंगे? यह मराठे सरदारों का तरीका हुआ जो अपने युद्धों में किसानों से बीज के लिए रखा अनाज भी लूट ले जाते थे क्योंकि उन की अपनी सेना की सप्लाई चेन को लुटेरे बीच में लूट लेते थे.

प्रौपर्टी टैक्स शायद ही किसी शहरकसबे में सही ढंग से लागू किया जाता हो. हर जगह यह विभाग रातदिन ऊपरी वसूली में लगा रहता है. आमदनी कौर्पोरेशनों से ज्यादा अफसर और बाबुओं की बढ़ती है और मकान मालिकों को लगता है कि वे फैसला कर लेंगे. प्रौपर्टी टैक्स तभी सही ढंग से वसूल किया जा सकता है जब शहरी नागरिकों को लगे कि उन के दिए पैसे से उन्हें सही व पर्याप्त सुविधाए मिल रही हैं और पैसे का सदुपयोग हो रहा है. जब प्रौपर्टी टैक्स, चाहे दर कोई हो, देने के बाद भी सड़कें टूटी व गंद के ढेर, बदबू से भरी नालियां, नलों में पानी बंद, अंधेरी गलियां होंगी तो जनता पैसे देने में हिचकिचाएगी. कानूनी अधिकारी सीलिंग करें या नीलामी, उस पर खर्च करने से पैसा वसूल नहीं होगा.

 

सही सलामत घर वापसी: आखिर रिंकू नादान थी या चालक

दीपा बड़ी देर से अपनी भांजी रिंकू का इंतजार कर रही थी. पति सुशांत कंपनी के काम से चेन्नई गए हुए थे. रिंकू के मोबाइल पर उस ने बहुत बार ट्राई किया. रिंग पर रिंग जा रही थी पर रिंकू ने न फोन उठाया और न ही कौलबैक किया. उस के औफिस में भी कोई फोन नहीं उठ रहा था.

दीपा का मन आशंकाओं से घिरा जा रहा था. घर में 2 छोटे बच्चों को छोड़ कर इतने बड़े शहर में वह अपनी भांजी को ढूंढऩे आखिर कहां जाए. जवान भांजी के साथ कहीं कोई अनहोनी हो गई तो… इस शहर को रिंकू जानती ही कितना है. देवास जैसी छोटी जगह से चंद महीने पहले ही तो वह यहां पर रहने आई है. न तो दीपा सुशांत को फोन लगाना चाहती थी और न ही रिंकू के घर वालों को. दोनों ही दूसरे शहरों में बैठे हैं, बेवजह परेशान होंगे और इतनी दूर से कुछ कर भी नहीं पाएंगे.

दरअसल, आज रिंकू का बर्थडे भी था, इसलिए वह शाम को लकी बेकरी से उस का मनपसंद केक और एक सुंदर पर्स गिफ्ट के तौर पर ले कर आई थी. लेकिन अब साढ़े नौ बजने को थे. बच्चे भी अपना होमवर्क खत्म कर के केक कटने का इंतजार करतेकरते थक कर सो चुके थे. आखिरकार, हताश हो उस ने सुशांत को फोन लगाया. ‘‘अब बता रही हो मुझे?’’ छूटते ही सुशांत ने कहा.

‘‘क्या करती सुशांत, मुझे लगा वह आती ही होगी. मैं बेवजह तम्हें परेशान नहीं करना चाहती थी,’’ दीपा रोंआसी हो उठी.

‘‘चलो, परेशान मत हो, मैं उसे फोन लगाकर देखता हूं और दीदी से भी बात करता हूं,’’ कह कर सुशांत ने फोन रख दिया. बीतते हर पल के साथ दीपा की चिंता बढ़ती जा रही थी. लगता है रिंकू को अपने घर रख कर उस ने कोई गलत निर्णय ले लिया है.

उसे याद आया कि रिंकू की जौब दिल्ली में लगने पर कितनी खुशी हुर्ई थी उसे. जीजाजी ने जब रिंकू के लिए एक अच्छा होस्टल देखने को कहा तो उस ने नाराज होते हुए कहा था कि जब रिंकू के मामीमामा दिल्ली में रहते हैं तो वह होस्टल में क्यों रहेगी. उस के लिए जैसे उस के बच्चे, वैसी ही रिंकू. बड़ी ही प्रसन्नता से उस ने आगे बढ़ कर रिंकू की देखभाल व उस की पूरी जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली थी. पर उसे नहीं मालूम था कि कुछ ही महीनों में रिंकू पर शहर की चमकधमक का वह रंग चढ़ेगा कि उस की आंखें चौंधिया जाएंगी. उस के लिए औफिस के कलीग्स के आगे मामीमामा का प्यार और समझाइश गौण हो जाएगी.

कुछ दिनों तक तो रिंकू औफिस से सही वक्त पर घर आ जाती थी. फिर ‘काम का प्रैशर ज्यादा है मामी, मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी,’ कह कर वह थोड़ा लेट आने लगी. फिर भी साढ़े सातआठ बजे तक तो हर हालत में आ ही जाती थी. लेकिन आज तो लापरवाही की हद हो गई थी. आज वह जरूर उसे थोड़ी डांट लगाएगी, आखिर उसे भी तो समझ आए कि उस के कारण मुझे कितना परेशान होना पड़ा है. सोचती हुई दीपा उसे फिर से फोन लगाने को उद्यत हुई कि मोबाइल की घंटी घनघना उठी, ‘‘हैलो दीदी, चरणस्पर्श.’’ उस की ननद का फोन था.

‘‘खुश रहो दीपा, अभी रिंकू से बात हुई है मेरी, वह बस आधे घंटे में पहुंच रही है. तुम चिंता मत करना. दरअसल, उस के बर्थडे पर औफिस वालों ने एक पार्टी रखी थी तो वह उसी में बिजी थी.’’

‘‘ठीक है दीदी.’’ दीपा को बड़ा आश्चर्य हुआ. यह क्या तरीका है बर्थडे पार्टी मनाई जा रही है वह भी इतनी देर तक. और तो और, इस लडक़ी ने उसे बताना भी जरूरी नहीं समझा, जबकि उसे अच्छी तरह से मालूम है कि मामा बाहर गए हुए है. अकेली मामी कितनी परेशान होंगी, उस ने यह भी न सोचा, ऊपर से उस का फोन भी नहीं उठा रही है. और दीदी को देखो इतनी देररात लडक़ी घर से बाहर है, यह जान कर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा. अरे, अच्छी बात है कि आप लडक़ी को आजादी देने के पक्ष में हो. लेकिन यह क्या बात हुई कि जहां आप रह रहे हो उन्हें सूचित करना भी जरूरी नहीं समझते. दीपा की सोच से परे था यह सब.

उसे पड़ोसिन सेन भाभी की वह समझाइश याद आ रही थी जिस में उन्होंने साफ तौर पर उसे चेतावनी देते हुए कहा था कि दीपा, यह अच्छी बात है कि तुम अपनी भांजी को यहां रख कर अपने दीदीजीजाजी की मदद करना चाहती हो. परंतु यह काम इतना आसान नहीं. दूसरों के बच्चों को अपने पास रखना व उन की देखभाल करना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, जिस में यदि सबकुछ अच्छा रहा तो कोर्ई बात नहीं लेकिन अगर कोई चूक हुई तो लोग आप को बुरा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

उस वक्त उन की बातों को हलके में लेते हुए उस ने कहा था कि आप चिंता न करें भाभी, मैं सब संभाल लूंगी. मैं अपनी भांजी को इतने प्यार से रखूंगी की मामीभांजी का यह रिश्ता सब के लिए मिसाल बन जाएगा. आज उसे लग रहा था कि अपने अतिआत्मविश्वास के चलते भाभी की बात को अनसुनी कर के हंसी में उड़ा देना शायद एक भूल थी. क्योंकि बड़ों की तीक्ष्ण अनुभवी नजरें अधिक यथार्थवादी होती हैं.

वह जितना इस रिश्ते को सहेजने की कोशिश कर रही थी, यह उतना ही उलझता जा रहा था और आज हालात ये थे कि घर पर वह और बच्चे रिंकू का बर्थडे मनाने की तैयारी कर के बैठे थे और वह अपना बर्थडे औफिस वालों के साथ सैलिब्रेट करने में बिजी थी.

दीपा के मन में एक टीस उठी और गालों पर दो बूंद आंसुओं की टपक पड़ीं. रिंकू ने उस के घर को क्या होटल समझ रखा है जहां अपना लगेज रख कर इंसान सिर्फ खाने और आराम फरमाने ही आता है. समझदार सुशांत शायद इस स्थिति को पहले ही भांप चुके थे, तभी तो पहलेपहल वे उसे वहां रखने के पक्ष में नहीं थे. वे तो बाद में उस के काफी समझाने व जोर देने पर आखिरकार उन्हें इस निर्णय पर अपनी मूक सहमति दे दी थी.

वैसे तो 24 वर्षीय रिंकू बहुत भोली व प्यारी बच्ची थी. वह तो पहले भी उसे बहुत प्यार करती थी और बस, यह चाहती थी कि वह इतनी आसानी से किसी पर भी भरोसा न करे. अपने औफिस में भी थोड़ी सी होशियारी और समझदारी से चले ताकि कभी किसी परेशानी में न पड़े. क्योंकि आजकल किस के मन में क्या चल रहा है, यह समझ पाना थोड़ा मुश्किल होता जा रहा है. अच्छाई व अपनेपन का दिखावा कर के लोग बड़ी आसानी से मासूमों को अपना शिकार बना लेते हैं. लेकिन शायद रिंकू पर पैसों की चकाचौंध और स्टेटस सिंबल का जनून धीरेधीरे सवार होता जा रहा था. इसलिए मामीमामा की हर समझाइश अब उसे अपनी पर्सनल लाइफ में दखलंदाजी लगने लगी थी.

रिंकू को अपने घर पर अपनी जिम्मेदारी पर रखना दीपा के लिए कड़ी चुनौती बनता जा रहा था. लगभग हर हफ्ते छुट्टी वाले दिन उस के औफिस कलीग कहीं पिकनिक या फिल्म देखने का प्रोग्राम बना लेते थे और दसग्यारह बजे निकली रिंकू देररात घर आती थी. कभीकभार जब सुशांत कहीं जाने का प्रोग्राम बनाते थे तो रिंकू साफ तौर पर आनाकानी करती नजर आती, इस से सुशांत स्वाभाविक रूप से चिढ़ जाते. फिर भी वह लगातार इसी कोशिश में लगी रहती कि सुशांत और उन की प्यारी भांजी के बीच कोई मनमुटाव न हो.

पर अब रिंकू को समझ पाना और उसे समझाना दीपा के लिए टेढ़ी खीर होता जा रहा था. बड़े होने के नाते वे जिन खतरों को आसानी से सूंघ पा रहे थे, रिंकू के लिए वह उन की बेवजह की चिंता थी. एक बार तो ‘मयंक ब्लू वाटर पार्क’ गई रिंकू दोस्तों के कहने पर जींस पहने ही पानी में उतर गई और दिनभर गीली जींस में घूमती रही. शाम को जब दीपा ने यह देखा, तो उसे डांटा, ‘‘यह क्या तरीका है रिंकू, पूरे दिन गीली जींस से क्या तुम बीमार नहीं होगी.’’

‘‘अरे कुछ नहीं होगा मामी, आप बेकार ही परेशान होती हो,’’ रिंकू ने लापरवाही से जवाब दिया. दीपा मन ही मन कुढ़ कर रह गई. यह क्या बात हुई, अभी बीमार हो जाएगी तो डाक्टर के पास तो मुझे ही ले कर भागना पड़ेगा. रिंकू की मनमरजी के आगे दीपा बेबस हो चुकी थी. अगर ये सभी बातें दीदी को बताती है तो उन्हें लगेगा की वे उन की बेटी को रखना नहीं चाहते, इसलिए उस की चुगली कर रहे हैं और बाद में कुछ ऊंचनीच हुई तो उसे यही सुनना पड़ेगा कि हमें पहले क्यों नहीं बताया, हम ने तो उसे तुम्हारे भरोसे छोड़ रखा था. अत्यधिक खुशी और जल्दबाजी में लिया निर्णय अब उस के गले की फांस बनता जा रहा था.

अचानक दीपा के विचारों की श्रंखला टूटी, बाहर से कोई हौर्न पर हौर्न दिए जा रहा था. उस ने दीवालघड़ी पर नजर डाली, 11 बजने को थे. उफ्फ… उठ कर गेट का लौक खोला तो बाहर खड़ी कार से उतरी रिंकू ने अपने बौस से उस का परिचय करवाया. गाड़ी में पिछली सीट पर 2 लडक़े और बैठे हुए थे. इतनी देर से आने पर भी रिंकू के चेहरे पर अफसोस का कोई भाव न था और न ही होंठों पर सौरी. वह गुनगुनाती हुई आते ही वाशरूम में घुस गई. दीपा का मन कसैला हो गया. माना कि वह रिंकू की मामी है, दीदी जीजाजी उस के मान्य हैं और इस नाते अपने मान्यों का मान रखना उस का कर्तव्य है. पर इस रिश्ते को निभाने का सारा दारोमदार क्या उसी पर है. क्या दूसरी ओर से कोई सार्थक पहल नहीं की जानी चाहिए. ये कैसे रिश्ते हैं जिन में, बस, चुप हो कर अपनी ड्यूटी करते रहो, दूसरा सही हो या गलत आप के मुंह से उफ नहीं निकलनी चाहिए. इस तरह एकतरफा रिश्ता वह आखिर कब तक निभा पाएगी.

चलो, माना कि रिंकू नादान है, पर दीदी को तो उसे सही सलाह देनी चाहिए, न कि उस की गलतियों को बढ़ावा. ऐसे में कल को रिकू की बेवकूफियों का खमियाजा उसे या सुशांत को ही भुगतना होगा क्योंकि दीदी तो यह कह कर छूट जाएंगी कि तुम ने हमें बताया क्यों नहीं. और कुछ बताने चलो, तो अभी उन के पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा है.

2-3 महीने तक उसे उस ऊहापोह में रहना पड़ा पर फिर पता चला कि रिंकू को बेंगलुरु में एक और अच्छी नौकरी मिल गई. जब यह सूचना रिंकू ने दी तो दीपा जितनी खुश हुई वह महीनों तक सुशांत व रिंकू के मातापिता दोनों को समझ नहीं आया.

मणिपुर: न्याय नहीं तो वोट भी नहीं

एक साल से ज्यादा समय हो गया मणिपुर में आग लगी हुई है. विपक्ष कहता रहा है प्रधानमंत्री जी, कुछ बोलिए. मगर नरेंद्र मोदी मणिपुर के संदर्भ में मौन धारण किए हुए हैं. अब जबकि लोकसभा 2024 का आगाज हो गया है, पहले चरण का मतदान हो चुके हैं. लेकिन मणिपुर में ‘न्याय नहीं तो वोट नहीं’ की आवाज भी गूंजने लगी है. भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश को एक ऐसे चौराहे पर खड़ा कर चुकी है जो अनेक त्रासदी और दंश लिए हुए है. नरेंद्र मोदी के 10 साल का कार्यकाल सिर्फ हिंदूमुसलिम, रामरहीम और मैंमैं का बन कर इतिहास बन जाएगा. मणिपुर की जनता ने जो घाव सहे हैं जिस तरह मणिपुर जलता रहा है वह देशभर में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में चर्चा का सबब बन गया जिसे देख कर के भाजपा और उस के नेतृत्व की मोदी सरकार यही कहती रही कि यह हमारा आंतरिक मामला है.

भारतीय जनता पार्टी के साथ विसंगति यह है कि कब मामला भारत का आंतरिक और संप्रभुता का हो जाता है, कोई नहीं जानता. अपने हिसाब से हर समय की परिभाषा करने में भाजपाई महारत हासिल कर चुके हैं. मगर वे यह भूल जाते हैं. दूसरे देशों में जब कोई घटना घटित होती है तब प्रधानमंत्री और विदेश मंत्रालय सक्रिय हो जाता है और दुनिया में नेतागीरी झाड़ने लगता है. तब यह भूल जाते हैं कि उस देश वाले भी कह सकते हैं कि यह उन का आंतरिक मामला है. लाख टके की बात है कि जब आप अपने मणिपुर को नहीं संभाल सकते, वहां जा कर अपने लोगों के आंसू नहीं पोंछ सकते, वहां शांति कायम नहीं कर सकते तो दुनिया को सीख देने का आप को क्या अधिकार है.

वोट का बहिष्कार, एक संदेश है

मणिपुर में कुकी-जो समुदाय के कुछ संगठनों ने घोषणा की है कि वे संघर्ष प्रभावित राज्य में हिंसा की ताजा घटनाओं के बाद ‘न्याय नहीं तो वोट नहीं’ का आह्वान करते हुए आगामी लोकसभा चुनावों का बहिष्कार करेंगे. गौरतलब है कि विगत दिनों इंफाल पूर्वी जिले में 2 सशस्त्र समूहों के बीच हुई गोलीबारी में 2 लोगों की मौत हो गई, वहीं 12 अप्रैल, 2024 को तेंगनौपाल जिले में सशस्त्र ग्रामीण स्वयंसेवकों और अज्ञात लोगों के बीच हुई गोलीबारी में 3 लोग घायल हो गए.

कुकी समुदाय के लोगों ने घोषणा की है कि वे बहिष्कार के रूप में ‘संसदीय चुनाव’ में कोई उम्मीदवार नहीं उतार रहे. वैश्विक कुकी जोमी-हमार महिला समुदाय ने पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार को पत्र लिख कर चुनाव का बहिष्कार करने के फैसले की जानकारी दी थी. यह महिलाओं का एक समूह है जिस में सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, अखबारों के लेखक, बाहरी मणिपुर के पूर्व सांसद किम गांगटे और दिल्ली में कुकी जीमी-हमार महिला मंचों के नेता शामिल हैं.

अब कुकी नैशनल असैंबली और कुकी इन्पी नामक संगठन ने भी संसदीय चुनाव के बहिष्कार करने की घोषणा कर दी है. कुकी नैशनल असैंबली के मांगबोई हाओकिप ने कहा, “हम अपने नेताओं के प्रति अपना असंतोष व्यक्त करते हैं. यह निराशाजनक है कि भारतीय सेनाएं, जो चीन और पाकिस्तान के खतरों को रोकने व उन का मुकाबला करने में सक्षम हैं, वे निर्दोष नागरिकों को आतंकवादियों से बचाने में विफल रही हैं. इस से भारतीय संविधान और देश के इस दावे पर से विश्वास उठ गया है कि यह दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र है.”

उन्होंने आगे कहा, “हम भारतीय नेतृत्व के प्रति अपना क्षोभ प्रकट करने के लिए लोकसभा चुनाव में मतदान से दूरी बनाने को बाध्य हैं. अगर भारत में परेशानियों को ही हमारा अधिकार समझा जाता है तो हम चुनाव में भाग लेना नहीं चाहते. यह बहिष्कार भारत और दुनिया में हमारे दुख और पीड़ा को जताने का तरीका है.”

दूसरी तरफ, कांग्रेस ने देश के गृहमंत्री अमित शाह के मणिपुर दौरे से पहले 15 अप्रैल, 2024 को आरोप लगाया कि पूर्वोत्तर के इस राज्य में कानूनव्यवस्था की स्थिति ध्वस्त होने के बावजूद मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को बरखास्त क्यों नहीं किया गया? पार्टी महासचिव जयराम रमेश ने मणिपुर के संदर्भ में मोरचा संभालते हुए कहा, “प्रधानमंत्री मोदी मणिपुर के मुख्यमंत्री को क्यों बचा रहे हैं? गृहमंत्री अमित शाह ने आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उम्मीदवारों के समर्थन में मणिपुर में प्रचार किया.” यह सारा देश जानता है कि चुनावों के हर चरण में प्रधानमंत्री मोदी हर स्टेट में पहुंच जाते हैं मगर वे मणिपुर क्यों नहीं जा रहे हैं, यह सवाल आज हवाओं में गूंज रहा है.

 

आईएएस की तैयारी करें जरूर मगरऔप्शन रख कर

17 अप्रैल की रात को 29 साल की एक यूट्यूबर स्वाति ने आत्महत्या कर ली. स्वाति ने अपने पीजी के सैकंडफ्लोर से कूद कर जान दी. वह पिछले 10 सालों से दिल्ली के मुखर्जी नगर में रह रही थी और यूपीएससी की तैयारी कर रही थी लेकिन एग्जाम में क्वालीफाई नहीं कर पाई थी. स्वाति ने कई सालों तक एसएससी की भी तैयारी की लेकिन उस में भी सफलता नहीं मिली. वह बारबार फेल हो रही थी. वैसे, खुदकुशी की स्पष्ट वजह का अभी पता नहीं चल पाया है. हां, यह बात सामने आ रही है कि एग्जाम क्लियर न कर पाने की वजह से वह काफी समय से परेशान चल रही थी.

इसी तरह झांसी में रहने वाला मयूर बीटैक पास था और यूपीएससी की तैयारी कर रहा था. वह पढ़ने में काफी होशियार था. उस ने 2019 में सोनीपत के एक इंस्टिट्यूट से फूड टैक्नोलौजी में बीटैक पास की थी. उस के बाद दिल्ली जा कर यूपीएससी की तैयारी करने लगा. मयूर लगातार 3 बार से यूपीएससी की परीक्षा में असफल हो रहा था. बारबार वह एकदो नंबरों से रह जाता था जिस कारण काफी मायूस रहता था. 14 जनवरी की रात को उस ने पहले स्कूटी में पैट्रोल भरवाया, फिर खुद को आग लगाई और चौथी मंजिल से नीचे कूद गया. तुरंत ही उस की मौत हो गई.

इस तरह की घटनाएं आएदिन सुनने को मिलती रहती हैं. युवा पूरी मेहनत से कईकई साल आईएएस की तैयारी में लगाते हैं, अफसर बनने का सपना देखते हैं मगर बारबार असफल होने पर हिम्मत खो बैठते हैं.

दरअसल, संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) परीक्षा को भारत की सब से कठिन परीक्षाओं में से माना जाता है. इस एग्जाम को पास करने के बाद आईएएस, आईपीएस, आईआरएस या आईएफएस अधिकारी बनने का मौका मिलता है. इन सरकारी अफसरों का अलग ही रुतबा होता है. इस रुतबे को हासिल करने के लिए ही हर साल लाखों युवा यूपीएससी परीक्षा देते हैं. हालांकि, उन में से कुछ ही परीक्षा पास कर पाते हैं.

इस बार के घोषित यूपीएससी परिणामों पर नज़र डालें तो;

यूपीएससी 23-24 के लिए करीब 13 लाख छात्रों ने आवेदन किया था. कुल मिला कर 14,624 यूपीएससी मेन्स के लिए योग्य हुए और 2,916 को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया. लेकिन केवल 1,016 छात्रों को शौर्टलिस्ट किया गया और प्लेसमैंट के लिए अनुशंसित किया गया.

यूपीएससी के नियमानुसार, सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों को परीक्षा में 6 प्रयास या 32 वर्ष का होने तक बैठने की अनुमति है. ओबीसी के लिए यह 9 प्रयास या उम्र 35 वर्ष है. एससी/एसटी के लिए यह 37 वर्ष है और प्रयासों की कोई सीमा नहीं है. इतने सारे प्रयासों की अनुमति देने का मतलब है कि कई छात्र अपनी जिंदगी के प्रमुख वर्ष परीक्षा की तैयारी और उसे क्रैक करने की कोशिश में लगा देते हैं. उन में से कई लोग इन परीक्षाओं की तैयारी के अलावा कुछ नहीं करते. हर राज्य में ऐसे उम्मीदवारों के लिए कोचिंग हब भी हैं.

साल 2020 से 2023 (4 वर्ष) में परीक्षार्थियों की संख्या

2020 से 2023 (4 वर्ष) तक कुल 46.03 लाख छात्रों ने यूपीएससी सिविल के लिए आवेदन किया था. उन में से कुल 48,214 छात्र मुख्य परीक्षा के लिए उत्तीर्ण हुए. इस के बाद अगले पड़ाव में करीब 10,000 छात्र चयनित हुए और उन्हें साक्षात्कार के लिए बुलाया गया. इन 4 सालों में कुल रिक्तियां 3,823 थीं. यानी, 2020-23 के बीच 1,204 छात्र एक रिक्त पद के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे थे.

पिछले करीब 15 वर्षों में सिविल सेवक बनने के लिए प्रतिस्पर्धा 1:365 से बढ़ कर 1:1,204 हो गई. यानी, प्रतिस्पर्धा 3.3 गुना बढ़ चुकी है.

क्या यह प्रतिभा की भारी बरबादी नहीं है? जिन का सिलैक्शन नहीं होता है उन में योग्यता की कोई खास कमी नहीं होती वरना वे मेंस तक कैसे पहुंचते. रिक्तियां कम हैं, इसलिए बहुत से छात्रों को न चाहते हुए भी रेस से हटाना पड़ता है.

परीक्षा प्रक्रिया में सुधार जरूरी

हमें इस बात पर पुनर्विचार करना चाहिए कि क्या हम अपने युवाओं को 6 साल (ओबीसी के लिए 9) तक यूपीएससी पद के लिए तैयारी और प्रयास करते रहने दें. क्या कुछ ऐसा नियम नहीं होना चाहिए कि एक न्यूनतम अंक से कम लाने वाले परीक्षार्थियों को दोबारा बैठने न दिया जाए यानी उन उम्मीदवारों को बाहर करना शुरू किया जाए ताकि वे अपने प्रमुख वर्षों को उस परीक्षा की तैयारी में बरबाद न करें जिस में उन के सिलैक्शन की कोई संभावना नहीं है. इस के साथ ही किसी भी कैटेगरी का छात्र हो, 4 या 5 से अधिक अटैम्प्ट की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए. वैसे ही, इस की तैयारी छात्र कालेज के दिनों में ही शुरू कर देते हैं.

इस एग्जाम के सिस्टम में भी कुछ सुधार की जरूरत है. कहीं न कहीं इस के पेपर कठिन तो होते ही हैं, साथ ही, पूरी प्रक्रिया भी टाइम टेकिंग है. आप पूरे एक साल तक और कुछ नहीं कर पाते. बस, इसी में लगे रहते हैं क्योंकि आप को पहले प्रीलिम्स देना होता है, फिर मेंस देना होता है और फिर इंटरव्यू की तैयारी करनी होती है. इस सिस्टम को चेंज करना चाहिए. कहीं न कहीं इस के पूरे प्रोसीजर को थोड़ा छोटा बनाना चाहिए.

छात्रों को औप्शन रखना चाहिए

आप इस की तैयारी कर रहे हैं, तो ठीक है दोतीन साल पूरी मेहनत से एग्जाम दीजिए. लेकिन सफलता हासिल न हो तो अपने पास एक औप्शन रखें. आप जिस भी फील्ड के हैं उस फील्ड में काम शुरू कीजिए, ताकि आप उस में थोड़ा व्यवस्थित हो सकें और फिर साथसाथ इस की तैयारी करें. ऐसा न करें कि 8 -10 साल तक आप ने और कुछ नहीं किया और अंत तक आप को सफलता नहीं मिली. और तब, आप के पास करने के लिए कुछ खास न हो क्योंकि आप की उम्र निकल गई हो या आप के अंदर की ऊर्जा व उत्साह खत्म हो चुका हो.

इसलिए बेहतर यह होगा कि आप पहले किसी भी फील्ड में अपना एक मुकाम बना लें. आप इंजीनियरिंग की फील्ड में जाना चाहते हैं या डाक्टरी की फील्ड में, लौयर बनना चाहते हैं या सीए- जो भी बनना चाहते हैं, किसी एक फील्ड को चुन कर उस में आगे बढ़ें और कुछ नहीं तो बिजनैस शुरू कीजिए. आईएएस में सफल न होने पर आप एसएससी या दूसरे गवर्नमैंट या प्राइवेट एग्जाम दे सकते हैं या फिर आप मीडिया या एजुकेशन की फील्ड में आ सकते हैं. औप्शन रहेगा, तो आप बेफिक्र हो कर कई साल तक भी एग्जाम की तैयारी कर सकेंगे. यानी, जब तक एग्जाम देने हैं, देते रहिए मगर पूरी तरह खुद को इस के लिए झोंक देना उचित नहीं है.

एक स्टूडैंट को समझना होगा कि 8-10 साल उस की जिंदगी के सब से खूबसूरत होते हैं, शरीर में सब से ज्यादा एनर्जी है और कुछ कर गुजरने की सोच है. यही वह समय है जब इंसान अपना कैरियर बनाता है, जब एक जीवनसाथी की कल्पना उस के मन में उमड़ती है, जब वह शादी करता है और उस का मन उत्साह से भरा होता है. लेकिन यही 10 साल सिर्फ एग्जाम कंपीट करने की कोशिश और फ्रस्ट्रेशन में निकल जाएं तो इंसान चाह कर भी अपनी जिंदगी को इतनी खूबसूरती से नहीं जी सकता जितना वह जी सकता था अगर वह इस तैयारी में अपना समय बरबाद न करता. आप ऊंचे सपने जरूर देखें. कुछ बड़ा बनने के सपने भी जरूर देखें. मगर इस तरह देखें कि आप की लाइफ में केवल वही न रह जाए. आप पैरेलल में कुछ और काम या बिजनैस करते रहिए ताकि आप किसी एक फील्ड में तो व्यवस्थित हो सकें और आगे अगर सिलैक्शन न हो, तो भी अच्छे से जी सकें.

इतनी एनर्जी कहीं और लगाई जाए तो हालात जुदा होंगे

अधिकतर युवा इस परीक्षा को पास करने के लिए विभिन्न शहरों में कोचिंग लेते हैं और मोटी धनराशि भी ख़र्च करते हैं. यही नहीं, इतने साल जो वे बिना रोजगार के रहते हैं तो वह संभावित सैलरी की राशि, जो उन की हो सकती थी, वह भी खर्च में ही शामिल की जाएगी. वे सालों रातदिन एक कर के करीब 17-18 घंटे रोज की पढ़ाई करते हैं. लेकिन इतनी मेहनत और खर्च के बावजूद पास होने वाली युवाओं की संख्या बेहद सीमित है. लगभग एक फीसदी ही सफलता प्राप्त करते हैं. सीट हजार में होती हैं उम्मीदवार लाखों में होते हैं. बाकी के युवा फ़्रस्ट्रेशन और स्ट्रैस का शिकार बनते हैं. इसी समस्या को ले कर अभी हाल ही में ‘12वीं फेल’ फिल्म आई थी जिस में इस परीक्षा को ले कर युवाओं की कोशिशों, उन के तनाव और आर्थिक हालात का चित्रण करने की कोशिश की गई.

इन परीक्षाओं को पास करने के लिए युवा जितनी एनर्जी खर्च कर रहे है अगर उसे किसी और क्षेत्र में लगाया जाए तो परिणाम अलग ही मिलेगा. लाखों लोग एक परीक्षा पास करने की कोशिश में अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल निकाल देते हैं. जबकि, वास्तव में वहां कुछ हजार लोगों की छोटी संख्या की ही जरूरत है. अगर युवा अपनी ऊर्जा को कुछ और करने में लगाते हैं तो हम ज्यादा ओलिंपिक गोल्ड मैडल जीतेंगे. बेहतर फिल्में बनते देखेंगे. बेहतर डाक्टर देखेंगे. ज्यादा उद्यमी और वैज्ञानिक सामने आएंगे.

पहला चरण में फंसती दिखी भाजपा, राहुल अखिलेश का एकता संदेश क्या काम आया?

एक पुराने नगर में एक सेठ रहता था. उस के 5 बेटे थे. पांचों की अलग सोच थी. ऐसे में सेठ के विरोधी हावी होते जा रहे थे. पांचों बेटे आपस में ही लड़ रहे थे. सेठ और उन के बेटे चर्चा कर रहे थे कि किस तरह से अपने विरोधियों का मुकाबला करें. सेठ ने 5 लकड़ी के टुकडे लिए और पांचों बेटों को दिया. सब से लकड़ी तोड़ने के लिए कहा. सभी बेटों ने अपने अपने टुकड़े तोड़ दिए. अब सेठ ने पांचों लकड़ी को ले कर एक रस्सी से बांध दिया. अब वह पांचों लकड़ी एकएक बेटे से तोड़ने के लिए दी. कोई भी बेटा उस को तोड़ नहीं पाया. पिता ने कहा अगर अपने विरोधियों को हराना है तो एकजुट हो कर लड़ना पड़ेगा. एकता का यही संदेश काम करता है. यह संदेश पुराना है लेकिन कारगर है.

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राजनीति में भी एकता का संदेश चुनावी लड़ाई में हार को जीत में बदल देता है. लोकसभा 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 400 पार का नारा दिया. अब चर्चा इस बात की होने लगी कि भाजपा और उस के सहयोगी 400 पार या भाजपा अपने बल पर 370 सीटें जीत लेगी. प्रधानमंत्री को लग रहा था कि उन के नारे के आगे विपक्ष एकजुट नहीं हो पाएगा. जो एकजुट होने का प्रयास करेगा उस को तोड़ दिया जाएगा. जैसे ‘इंडिया ब्लौक’ के संस्थापक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ हुआ. भाजपा ने उन को अपने साथ मिला लिया. ‘इंडिया ब्लौक’ के एक और सहयोगी आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जेल जाना पड़ गया.

इस के बाद भी इंडिया ब्लौक चुनावी लड़ाई से पीछे नहीं हटा. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हर विरोध और बाधा को पार कर आपसी सहयोग बना कर भाजपा का विरोध करते रहे. उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी ने बहुत सारे अंर्तविरोध के बाद भी समाजवादी पार्टी का न केवल साथ बल्कि सपा के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ साझा प्रैस काफ्रेंस की. आगे चुनाव में साथसाथ रैलियां भी कर रहे हैं.

प्रियंका गांधी भी अपनी अलग रैली कर के यह दिखा रही है कि कितना भी प्रयास मोदी सरकार कर ले इंडिया ब्लौक पीछे हटने वाला नहीं है.

भीड़ बढ़ा रही हौसला

सहारानपुर में प्रियंका गांधी के पहुंचते ही लोगों के उत्साह का कोई ठिकाना न रहा और लोगों ने प्रियंका गांधी और इमरान मसूद के समर्थन में जोरदार नारे लगाए. हर कोई प्रियंका गांधी की गाड़ी के पास खड़े हो कर सेल्फी लेने के लिए उतावला दिख रहा था. रोड शो के मार्ग में दोनों और जहां बड़ी संख्या में नागरिक ने खड़े हो कर प्रियंका गांधी का स्वागत किया, तो वहीं महिलाओं और बच्चों ने छतों से ही गुलाब व अन्य पुष्प पंखुड़ियों की वर्षा कर जोरदार स्वागत किया पूरे रोड शो के दौरान प्रियंका गांधी ने हाथ हिला कर, हाथ जोड़ कर सभी का अभिवादन और स्वागत स्वीकार किया.

प्रियंका गांधी ने रामायण की चौपाई ’रावण रथी विरथ रघुबीरा..’ का उच्चारण करते हुए कहा कि युद्ध में रथ, सत्ता, महल, सोने की लंका रावण के पास थी, लेकिन उस की लड़ाई असत्य पर आधारित थी, इसलिए रावण को हार का सामना करना पड़ा, जबकि राम एक वनवासी की तरह बिना रथ और सत्ता के युद्ध लड़े और इसलिए विजयी हुए क्योंकि भगवान राम ने युद्ध सत्य के लिए लड़ा.
भाजपा सरकार औद्योगिक घरानों का 16 लाख करोड़ का कर्ज और ब्याज तो माफ कर सकती है, लेकिन किसानों को एमएसपी, ऋण माफी की गारंटी तो दूर उन के गन्ने का भुगतान भी सही समय पर नहीं करती. भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ने का दावा करने वाली मोदी सरकार पर उन्होंने भ्रष्टाचार में डूबे होने का आरोप लगाते हुए पूछा कि इलैक्टोरल बांड जिसे माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अवैधानिक घोषित किया, क्या मनी लौन्ड्रिंग का एक जरिया नहीं है ? उन्होंने युवाओं के लिए 30 लाख रोजगार और महिलाओं की सुरक्षा व सरकारी नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण, किसानों को एमएसपी आदि सहित कांग्रेस के 5 न्याय और 25 गारंटीयों का भी जिक्र किया.

150 सीटें मिलेंगी भाजपा को

एक तरफ जहां भाजपा 370 और 400 सीटों की बात कर रही राहुल गांधी और अखिलेश यादव की प्रैस काफ्रेंस में राहुल गांधी ने भाजपा के लिए 150 सीटें पाने की बात कही. पहले राहुल गांधी और ममता बनर्जी भाजपा को 200 सीटें दे रहे थे. गाजियाबाद में हुई प्रेस काफ्रेंस में अखिलेश यादव ने कहा कि जनता बदलाव चाहती है. इंडिया ब्लौक केंद्र में सरकार बनाने जा रहा है. राहुल और अखिलेश की जोड़ी उत्तर प्रदेश में आगे बढ़ कर बदलाव करने की तैयारी कर रही है.

इस में कोई चमत्कार जैसी बात नहीं है. 2004 के लोकसभा चुनाव में केंद्र की अटल सरकार मजबूत सरकार मानी जा रही थी. कांग्रेस बिखरी हुई थी. इस से पहले कांग्रेस ने कभी गठबंधन की सरकार नहीं बनाई थी. कांग्रेस में गठबंधन का कोई अनुभव नहीं था. सोनियां गांधी ने कुछ इस तरह से चुनावी बिसात बिछाई की इंडिया शाइनिंग का नारा देेने वाली अटल सरकार धराशाई हो गई. कांग्रेस ने यूपीए गठबंधन की सरकार पूरे 10 साल चलाई.

1977 में यही हाल कांग्रेस का था. इंदिरा गांधी जैसी मजबूत प्रधानमंत्री के खिलाफ विपक्ष एकजुट हो गया. इमरजैंसी लगाने के बाद भी इंदिरा गांधी चुनाव हार गई. उन को हराने वाले तब छोटेछोेटे दलों ने मिल कर जनता पार्टी बनाई थी. उन के पास कोई चेहरा नहीं था. न कोई नेता था. भले ही वह सरकार ज्यादा दिन नहीं चली पर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया था. असल में उस समय भी जनता पार्टी को केवल टूल थी असल लड़ाई देश की जनता ही लड़ रही थी.

इंडिया ब्लौक भले ही मोदी के खिलाफ बड़ा न दिख रहा हो लेकिन जैसेजैसे चुनाव आगे बढ़ रहे हैं यह ताकत दिख रही है. जनता देख रही है कि एक तरफ सुविधाओं से युक्त भाजपा है तो दूसरी तरफ संघर्ष कर रहा इंडिया ब्लौक.

आज भी जनता अपने मंहगाई, बेरोजगारी के मुद्दे को ले कर लड़ाई कर रही है. मोदी सरकार के पास धर्म के मुद्दे के अलावा कोई मुददा नहीं रह गया है. काठ की हांडी 2014 और 2019 में चढ़ गई अब जनता की रूचि इस में नहीं रह गई है.

2024 के लोकसभा चुनाव में पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल को है. इस चरण में 21 राज्यों की कुल 102 सीटों पर वोटिंग है. पहले चरण में कुल 1625 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं. 2019 में पहले चरण में कुल 91 सीटों के लिए मतदान कराए गए थे. इन में से 31 सीटें भाजपा के खाते में गई थीं. वहीं, कांग्रेस के महज 9 उम्मीदवार जीतने में सफल रहे थे. इस के अलावा 51 सीटों पर अन्य दलों ने कब्जा जमाया था. 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा पहले चरण के चुनाव में ही फंसी नजर आ रही है. इस चरण में सब से अधिक सीटें दक्षिण भारत की है. जहां भाजपा के लिए गढ़ भेदना कठिन काम है. उत्तर भारत में भाजपा की ठाकुर बिरादरी उस का खेल बिगाड़ रही है.

उत्तर प्रदेश के पश्चिम में 8 लोकसभा सीटों पर कांटे की टक्कर हुई है. उत्तर प्रदेश जैसे मजबूत किले में इंडिया गठबंधन की ताकत बढ़ने से भाजपा कमजोर पड़ गई है. मोदी सरकार नेताओं के नहीं पीएमओ के बल पर चलती रही है. ऐसे में अब भाजपा के नेता भी बहुत रूचि नहीं दिखा रहे हैं. पहले चरण के चुनाव में भाजपा के रथ का पहिया युद्व के मैदान में फंस गया दिखता है. ऐसे में विरोधी हमलावर हैं और वह बचाव भी नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में वह बारबार राम की शरण में पहुंच जा रहे हैं.

भाजपा आखिर क्यों अंबेडकर शरणम गच्छामि

अंबेडकर जयंती के अवसर पर 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता को संबोधित करते हुए कहा- कांग्रेस ने हमेशा डा.. बाबासाहेब अंबेडकर का अपमान किया, हम ने उन का सम्मान किया है. डा. बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा दिए गए संविधान के कारण ही आज एक आदिवासी महिला भारत की राष्ट्रपति बन सकी. जहां तक संविधान का सवाल है, आज बाबासाहेब अंबेडकर खुद भी आ जाएं तो वे भी संविधान खत्म नहीं कर सकते हैं. संविधान हमारी सरकार के लिए गीता, रामायण, बाइबिल और कुरान है.

लोकसभा चुनाव के दौरान पूरा विपक्ष संविधान को ले कर भाजपा पर हमलावर है. हिंदू राष्ट्र का राग अलापने वाली भाजपा के पास धर्म और राम मंदिर के अलावा कोई मुद्दा नहीं है. हिंदू धर्म संकट में है. राम मंदिर बनने और प्राणप्रतिष्ठा के बाद अब उस के नेता रामराज लाने का विलाप करते नज़र आ रहे हैं. महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार को ले कर मोदी-शाह सहित उन के किसी नेता की जबान से एक शब्द नहीं फूट रहा है. मुद्दे की बातें सिर्फ विपक्ष, ख़ासकर इंडिया गठबंधन, कर रहा है.

इलैक्टोरल बौंड को ले कर भाजपा की काफी फजीहत हो चुकी है. इस मामले में वह बैकफुट पर है. सफाई देतेदेते हालत पस्त है. भाजपा नेता चाहे टीवी चैनलों की डिबेट में बैठे हों या मंच से पब्लिक को संबोधित कर रहे हों, इलैक्टोरल बौंड के बारे में सिर्फ एक बात कहते दिख रहे हैं कि चंदा तो दूसरी पार्टियों ने भी लिया है. दरअसल, भाजपा नेता जनता को मूर्ख समझते हैं. क्या जनता नहीं समझ रही कि वास्तविक चंदा तो सचमुच अन्य पार्टियों को ही मिला है जो सत्ता में नहीं हैं और जो चंदे की एवज में देने वाले को कोई फायदा नहीं पहुंचा सकतीं, भाजपा ने तो बड़ीबड़ी कंपनियों से खुली धनउगाही की है, ईडी, सीबीआई और आयकर के छापे का डर पैदा कर के. कंपनियों ने उन को चंदा नहीं, रिश्वत दी है वह भी 6 हज़ार करोड़ रुपए से ऊपर.

ईवीएम से वोटिंग के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हालत पतली कर दी है. इलैक्ट्रौनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम के वोटों और वोटर वैरिफिएबल पेपर औडिट ट्रेल (VVPAT) परचियों की 100 फीसदी क्रौसचैकिंग की मांग को ले कर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई है और फैसला सुरक्षित रखा गया है. निष्पक्ष चुनाव हो, इस के लिए कोर्ट का वीवीपैट पर पूरा जोर है. इस को ले कर भी अब भाजपा खेमे की धुकधुकी बढ़ गई है.

अब तक होने वाले चुनावों में भाजपा सांप्रदायिकता पर खुल कर खेलती रही. ध्रुवीकरण के जरिए हिंदूमुसलिम कर के वह हिंदू वोटबैंक को अपने काबू में किए रही. मगर इस बार ध्रुवीकरण की नीति फेल हो गई. कोशिश तो बहुत हुई कि धार्मिक उन्माद पैदा किया जा सके मगर मुसलमानों की खामोशी ने देश में दंगे नहीं भड़कने दिए. मुसलमानों को भाजपा से जोड़ने की कोशिश भी नाकाम ही रही. उधर देशभर का किसान कमर कस कर बैठा है सबक सिखाने को. कई जगहों पर तो भाजपा नेताओं को गांवोंकसबों में लोग प्रचार के लिए घुसने ही नहीं दे रहे.

ऐसे में अंबेडकर जयंती के बहाने संविधान को गीता, कुरआन, बाइबिल से ऊपर बता कर प्रधानमंत्री ने न सिर्फ दलित को लुभाने की कोशिश की है बल्कि यह कह कर कि अंबेडकर के संविधान की बदौलत ही एक आदिवासी महिला को देश के सर्वोच्च पद पर बैठने का गौरव हासिल हुआ, उन्होंने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भी अपने चुनावी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है. संघ और भाजपा की विचारधारा, जो मनु की वर्णव्यवस्था पर आधारित है, संविधान की सोच के बिलकुल विपरीत है. ऐसे में मोदी द्वारा संविधान का महिमामंडन क्या मनु की वर्णव्यवस्था को ख़त्म करने की दिशा में उठाया जाने वाला कदम नहीं है. और यदि सचमुच ऐसा है तो यह देशहित में उठाया गया बड़ा कदम है. क्या मोदी संघ के खिलाफ हुए जा रहे हैं? या ये बड़ीबड़ी बातें सिर्फ दलितों को लुभाने मात्र के लिए हैं?

तो कुल जमा यह कि भाजपा इस वक्त आक्रामक नहीं बल्कि रक्षात्मक मोड में है. ‘अब की बार चार सौ पार’ का नारा कमजोर पड़ता नज़र आ रहा है. लिहाजा, अब दलितों का सहारा तलाशा जा रहा है.

विपक्षी पार्टियों का मानना है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में अगर भाजपा को जीत हासिल होती है तो सब से पहले संविधान को ख़त्म किया जाएगा और देश तानाशाही के अधीन होगा. विपक्ष के इसी हमले का ही जवाब था 14 अप्रैल को मोदी का वह भाषण. अंबेडकर जयंती पर प्रधानमंत्री का दीक्षा भूमि, नागपुर जाने का कार्यक्रम भी था, जो अंतिम समय में स्थगित हो गया.

भारतीय जनता पार्टी का संकल्प पत्र और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संबोधन, वह भी अंबेडकर जयंती पर, इसे राजनीतिक नज़रिए से देखना तब महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब विपक्ष का सब से बड़ा आरोप यही है कि अगर प्रधानमंत्री को 400 सांसदों का समर्थन हासिल हो गया तो वे अंबेडकर के बनाए संविधान को बदल देंगे.

हालांकि, इन आरोपों का खंडन भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सरकार की ओर से कई बार किया जा चुका है. मोदी कह चुके हैं, “संविधान हमारे लिए गीता, बाइबिल, कुरान और सबकुछ है. संविधान को कोई नहीं बदल सकता. बाबासाहेब आ भी जाएं तो अब संविधान नहीं बदला जा सकता.”

संविधान में अपनी अटूट आस्था दिखाने के लिए ही प्रधानमंत्री मोदी ने डा. अंबेडकर के नाम का जिक्र किया.

गौरतलब है कि कभी भाजपा सरकार में मंत्री रहे अरुण शौरी ने ‘वर्शिपिंग फौल्स गौड्स’ नाम की किताब लिख कर बाबासाहेब की काफी आलोचना की थी. उस समय पार्टी ने उन के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की थी. संघ और भाजपा के तमाम बड़े नाम अंबेडकर और संविधान को गालियां देते रहे हैं. आज उसी पार्टी के नेता बाबासाहेब का नाम लेते नज़र आ रहे हैं. यह अंतर मुख्य रूप से पिछले कुछ सालों की राजनीति में देखने को मिल रहा है.

नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी से पहले लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे जिसे भारतीय जनता पार्टी अपना मूल संगठन मानती है. राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों के विद्वानों के मुताबिक मोदी की विचारधारा और डा.
अंबेडकर की विचारधारा को एकसाथ नहीं रखा जा सकता. दोनों एकदूसरे के बिलकुल विपरीत हैं. मगर 2024 की चुनावी वैतरणी पार करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अंबेडकर के विचारों को ‘समायोजित’ करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है. मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत अकसर अंबेडकर की प्रशंसा करते दिख रहे हैं, कहते सुने जा रहे हैं कि संघ के विचार अंबेडकर के विचारों के समान ही हैं. क्या सचमुच?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और डा. अंबेडकर के विचारों को ले कर जब भी बहस होती है कि ये एकजैसे हैं या नहीं हैं, तो सब से पहले जो शब्द दिमाग़ में आते हैं, वो हैं- ‘समता’ और ‘समरसता’.

इन दोनों अवधारणाओं के अर्थ में बारीक़ अंतर है. इंग्लिश में समता का अर्थ है इक्विलिटी यानी समानता जबकि समरसता का इंग्लिश में अर्थ है हारमनी. यही सूक्ष्म अंतर अंबेडकर और संघ के विचारों में भी दिखता है. बाबासाहेब हमेशा समानता पर ज़ोर देते हैं, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजकल सद्भाव पर ज़ोर दे रहा है. संघ वर्चस्व के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमेशा ही सद्भाव की अवधारणा का उपयोग करता रहा है, जबकि बाबासाहेब समानता की अवधारणा का उपयोग आज़ादी के लिए करते रहे हैं.

डा. भीमराव अंबेडकर के राजनीतिक जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था महाड़ सत्याग्रह. 20 मार्च,1927 को अंबेडकर और उन के अनुयायियों ने महाराष्ट्र के कोलाबा ज़िले के महाड़ में स्थित चावदार तालाब तक एक जुलूस निकाला था. वो लोग छुआछूत के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे.

हज़ारों की संख्या में अछूत कहे जाने वाले लोगों ने अंबेडकर की अगुआई में चावदार के एक सार्वजनिक तालाब से पानी पिया. सब से पहले डाक्टर अंबेडकर ने चुल्लू से पानी पिया और फिर उन का अनुकरण करते हुए उन के हज़ारों अनुयायियों ने पानी पिया.

उस समय अंबेडकर ने वहां मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए कहा था, ‘क्या हम इसलिए यहां आए हैं कि हमें पीने के लिए पानी नहीं मिलता है? क्या हम यहां इसलिए आए हैं कि यहां के ज़ायक़ेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं? बिलकुल नहीं. हम यहां इसलिए आए हैं कि हम इंसान होने का अपना हक़ जता सकें.’

यह एक प्रतीकात्मक विरोध था जिस के ज़रिए हज़ारों साल पुरानी सवर्ण और सामंती सत्ता को चुनौती दी गई थी जो सामाजिक पायदान के सब से निचले स्तर के लोगों को वो हक़ भी देने के लिए तैयार नहीं थी जो जानवरों तक को हासिल था.

हाल में प्रकाशित अंबेडकर की जीवनी ‘अ पार्ट अपार्ट द लाइफ़ एंड थौट्स औफ़ बी आर अंबेडकर’ में अशोक गोपाल लिखते हैं, “महाड़ सत्याग्रह के समय सवर्ण हिंदुओं ने दलित बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को बुरी तरह से पीटा. यही नहीं, अंबेडकर के इस विरोध के एक दिन बाद 21 मार्च, 1927 को सनातनी हिंदुओं ने चावदार तालाब के पानी का ‘शुद्धीकरण’ किया था.”

मनु की वर्णव्यवस्था को निरंतर पुख्ता करने वाला संघ यही चाहता है कि दलितों और सवर्णो में जो अंतर है, वह बना रहे मगर सद्भावना के जरिए उन्हें अपने साथ मिलाए रखो. उन से दरियां तो बिछवाओ मगर कभी कुरसी मत दो.

इतिहास के शोधकर्ता और विचारक डा. उमेश बागड़े भी मानते हैं कि समानता और सद्भाव की 2 अवधारणाओं के बीच अंतर है, इसलिए डा. बाबासाहेब अंबेडकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिकाएं अलगअलग हैं.

वे कहते हैं, “बाबासाहेब ने 3 क्षेत्रों में असमानता देखी, जन्म से असमानता (जाति, धर्म आदि), विरासत से असमानता (धन, ज्ञान आदि) और उपलब्धि से असमानता. उन का स्पष्ट मत था कि उपलब्धि के कारण होने वाली असमानता के बजाय पहली 2 असमानताएं, यानी कि जन्म और विरासत की असमानताएं समाप्त होनी चाहिए. ऐसा लगता है कि उन की सारी कोशिशें इसी बात के लिए हैं. वहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख रहे माधव सदाशिव गोलवलकर पहली 2 असमानताओं को ‘प्राकृतिक’ बताते थे.”

जब बाबासाहेब ने ‘समता’ के मूल्य या अवधारणा को इस स्तर पर देखा, तो वे इस असमानता को सुलझाने के लिए कैसे तैयार हो सकते थे? इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता कि बाबासाहेब और संघ का समानता और सद्भाव का लक्ष्य एक ही था. दोनों विपरीत ध्रुव हैं. मोदी खेमे की चुनावी मजबूरी अगर दोनों को साथ लाने की कोशिश कर रही है, तो दलितों को इस धोखे में आने से बचना होगा.

Loksabha Election 2024: हेमा मालिनी से ले कर अनुप्रिया पटेल तक, पढ़ें 10 महिला उम्मीदवारों की राजनीतिक छवि का लेखाजोखा

Loksabha Election 2024: हमेशा की तरह इस बार के चुनाव में भी महिला महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया गया है. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के संस्थापक दिग्गज नेता शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले बारामती लोकसभा क्षेत्र से एक बार फिर चुनाव लड़ने जा रही हैं. वह इस सीट का साल 2009 से प्रतिनिधित्व कर रही हैं. बारामती पवार परिवार का गढ़ है. शरद पवार इस सीट से 1996 से 2009 तक सांसद रहे थे. सुप्रिया सुले भी यहां से लगातार 3 बार से सांसद हैं. इसी तरह भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन की तरफ से उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर लोकसभा सीट से अनुप्रिया पटेल चुनाव लड़ रही हैं. वह अपना दल सोनेलाल गुट की अध्यक्ष है. 2012 के विधानसभा चुनाव में वह विधायक चुनी गई थीं.  आइए आज आपको इस आर्टिकल में कुछ महिला उम्मीदवारों  की राजनीतिक छवि का लेखाजोखा बताते हैं.

 

1. तृणमूल कांग्रेस की तेजतर्रार नेत्री महुआ मोइत्रा

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महुआ मोइत्रा

5 फुट 6 इंच लंबी महुआ मोइत्रा की पहचान एक स्मार्ट और तेजतर्रार नेता के तौर पर होती है जो हमेशा ही लोकसभा में सरकार को घेरती रहती हैं. सदन में दिए जाने वाले उन के भाषण हमेशा ही वायरल होते रहते हैं. महुआ को एक कुशल वक्ता और बेहतरीन नेता के तौर पर जाना जाता है.

महुआ काफी पढ़ीलिखी हैं. उन का जन्म असम के कछार जिले में साल 1974 में हुआ. उन्होंने अपनी पढ़ाई राजधानी कोलकाता से की है. शुरुआती शिक्षा हासिल करने के बाद महुआ को उन के परिवार ने आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका भेज दिया. उन्होंने मैसाचुसेट्स के माउंट होलिओक कालेज से गणित और अर्थशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त की है. बहुत ही कम लोगों को मालूम है कि महुआ राजनीति में आने से पहले एक सफल बैंकर हुआ करती थीं और अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निवेश बैंक जे पी मौर्गन में काम करती थीं. वहां वे करोड़ों रुपए की सैलरी पर काम कर रही थीं.

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2.कौन है बसपा प्रत्याशी डा. इंदु चौधरी, जिन्हें बचपन से ही जातिवादी भेदभाव का सामना करना पड़ा

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डा. इंदु चौधरी

उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 80 उम्मीदवारों में 7 महिलाएं हैं. बहुजन समाज पार्टी ने इस बार डा. इंदु चौधरी पर दांव लगाया है. उत्तर प्रदेश के आंबेडकरनगर में एक दलित परिवार में जन्मी इंदु को बचपन से ही अपनी जाति की वजह से भेदभाव का सामना करना पड़ा. कई बार उन्हें जान से मारने की धमकियां मिलीं, लेकिन न वे कभी डरीं, न रुकीं. न्याय के लिए संघर्ष करती रहीं और यह संघर्ष आज भी जारी है.

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3. हेमामालिनी एक बार फिर मथुरा से चुनाव लड़ेंगी, अब तीसरी बार जीत की गारंटी संदेह में

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जानेअनजाने या जोशखरोश में कांग्रेस अकसर कैसे अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारती रही है, इस का एक और उदाहरण कुरुक्षेत्र से बीती एक अप्रैल को देखने में आया जब रणजीत सिंह सुरजेवाला के हेमा मालिनी को ले कर दिए एक बयान ने खासा तहलका मचा दिया. इस बार अपनी जीत को ले कर जो दिग्गज भाजपाई डरे हुए हैं, 75 वर्षीया बुजुर्ग फिल्म ऐक्ट्रैस हेमा मालिनी उन में से एक हैं.

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4. बिहार की पतवार संभालने की कोशिश में लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती

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मीसा भारती

इस लोकसभा चुनाव के मद्देनजर लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी ने बिहार में 6 महिला उम्मीदवार उतारे हैं जबकि भाजपा ने बिहार में एक भी महिला को अवसर नहीं दिया. राजद की लिस्ट में बिहार की कुल 22 सीटों पर जिन 6 महिला उम्मीदवारों के नामों का ऐलान किया गया है उन में लालू यादव की दोनों बेटियों के नाम भी शामिल हैं. इस में रोहिणी आचार्य को सारण से तो मीसा भारती को पाटलिपुत्र से उम्मीदवार बनाया गया है. बीजेपी ने मीसा के खिलाफ पाटलिपुत्र से राम कृपाल यादव को उम्मीदवार बनाया है जो पिछली दफा मीसा को शिकस्त दे चुके हैं.

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5. जानिए सुषमा स्वराज की बेटी बांसुरी के बारे में, जिन्हें भाजपा ने नई दिल्ली सीट से प्रत्याशी बनाया है

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बांसुरी
कभी राजनीति में परिवारवाद का विरोध करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने अब परिवारवाद का विरोध छोड़ कर वंशवाद का विरोध करना शुरू कर दिया है. भाजपा का गठन 80 के दशक में हुआ था. 1980 का लोकसभा चुनाव जनवरी माह में हुआ था. भाजपा का गठन अप्रैल में हुआ था. भाजपा ने गठन के बाद पहला चुनाव 1984 का लड़ा था. उस समय पार्टी में कोई प्रमुख नेता नहीं था. अटल बिहारी वाजपेयी का ही नाम चर्चा में रहता था. जब भाजपा में पहचान वाले नेता ही नहीं थे तो उन के परिवार के लोग होने का सवाल ही नहीं था. ऐसे में भाजपा के लिए परिवारवाद का विरोध करने में दिक्कत नहीं थी.
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6. सुप्रिया सुले और सुनेत्रा पवार: ननद भौजाई के बीच चुनावी लड़ाई

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सुप्रिया सुले और सुनेत्रा पवार

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के संस्थापक दिग्गज नेता शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले बारामती लोकसभा क्षेत्र से एक बार फिर चुनाव लड़ने जा रही हैं. वह इस सीट का साल 2009 से प्रतिनिधित्व कर रही हैं. बारामती पवार परिवार का गढ़ है. शरद पवार इस सीट से 1996 से 2009 तक सांसद रहे थे. सुप्रिया सुले भी यहां से लगातार 3 बार से सांसद हैं.

हालांकि यह चुनाव पिछले चुनावों से अलग है. अब शरद पवार की एनसीपी विभाजित हो गई है. इस के एक गुट की बागडोर 80 साल के शरद पवार के हाथ में है और दूसरे गुट का नेतृत्व उन के भतीजे अजित पवार कर रहे हैं. अजित पवार बीजेपी और शिवसेना के साथ गठबंधन कर के महाराष्ट्र सरकार का हिस्सा बन चुके हैं. सुप्रिया सुले अब एनसीपी (शरद पवार) की उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ेंगी.

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7. श्रेया वर्मा: समाजवादी पार्टी में तीसरी पीढ़ी का दखल

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श्रेया वर्मा

श्रेया वर्मा समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक बेनी प्रसाद वर्मा की पोती हैं. इस से एक बात और साफ होती है कि चुनाव लड़ना अब सामान्य परिवार और खासकर महिलाओं के लिए सरल नहीं है.

समाजवादी पार्टी यानी सपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की गोंडा सीट से श्रेया वर्मा को अपना उम्मीदवार बनाया है. 31 साल की श्रेया वर्मा बेनी प्रसाद वर्मा की पोती और राकेश वर्मा की बेटी हैं. बेनी प्रसाद वर्मा सपा के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे हैं. मुलायम सिंह यादव के बेहद करीबी रहे बेनी प्रसाद को मुलायम सिंह यादव के बाद सपा में नंबर 2 का नेता माना जाता था.

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8. बीजेपी की ऐक्टिव और स्ट्रौंग महिला नेता हैं कमलजीत सहरावत

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कमलजीत सहरावत

लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने बहुत से मौजूदा सांसदों की जगह नए चेहरों को मैदान में उतारा है. पूर्व मेयर कमलजीत सहरावत एक ऐसा ही चेहरा हैं. दिल्ली में बीजेपी ने पश्चिमी दिल्ली के मौजूदा सांसद प्रवेश वर्मा का टिकट काट कर कमलजीत सहरावत को मौका दिया है.

कमलजीत दिल्ली बीजेपी की महासचिव हैं. वे एसडीएमसी की मेयर रह चुकी हैं. वर्तमान में वे वार्ड संख्या-120 (द्वारका बी) से पार्षद हैं. वे एमसीडी की स्टैंडिंग कमेटी की सदस्य भी हैं. कमलजीत सोशल मीडिया पर ऐक्टिव रहती हैं. एक्स पर उन के 48 हजार से ज्यादा फौलोअर्स हैं. वहीं फेसबुक पर उन्हें 2 लाख से ज्यादा लोग फौलो करते हैं. पार्टी गतिविधियों में वे बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती हैं.

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9. सीता सोरेन :पहचान बनाने के चक्कर में पहचान खो रहीं

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सीता सोरेन
विचारधारा का संकट आदिवासी बाहुल्य राज्य झारखंड में भी दस्तक दे चुका है. सियासी तौर पर देखा जाए तो 49 वर्षीया सीता सोरेन के झारखंड मुक्ति मोरचा छोड कर भाजपा जौइन कर लेने से कोई हाहाकार नहीं मच गया है लेकिन सामाजिक तौर पर इस घटना के अपने अलग माने हैं जो आदिवासी समुदाय की अपनी पहचान को ले कर उलझन को बयां करते हुए हैं. आजादी के बाद इस राज्य का इतना ही विकास हुआ है कि लोग राम और रामायण को जानने लगे हैं. इस का यह मतलब भी नहीं कि घरघर में रामायण या रामचरितमानस पढ़ी जाने लगी हो बल्कि यह है कि आदिवासियों, जो खुद को मूल निवासी कहते हैं, ने हिम्मत हारते एक समझौता सा कर लिया है कि अब राम ही उन की नैया पार लगाएगा. धर्म के इस प्रपंच से हमेशा ही आदिवासी समुदाय जिल्लत की जिंदगी जीता रहा है.

यह राम है कौन और कहां रहता है, यह इन्हें भाजपाई बता रहे हैं कि जल, जंगल और जमीन की लड़ाई मिथ्या है, तुम लोग नाहक ही भटक रहे हो और इस भटकाव से मुक्ति चाहते हो तो राम की शरण में आ जाओ जिस ने शबरी के झूठे बेर खा कर ही उस का उद्धार कर दिया था. सीता सोरेन के भगवा गैंग में चले जाने की दास्तां भी कुछकुछ ऐसी ही है कि वे सियासी मोक्ष की चाहत में रामदरबार की सब से पिछली कतार में कतारबद्ध हो कर जा बैठी हैं. अपने ससुर, देवर और परिवार से बगावत करने के एवज में उन्हें भाजपा से दुमका सीट से टिकट मिला है.

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10. अनुप्रिया पटेल: विरासत की राजनीति में न पार्टी बची न परिवार

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अनुप्रिया पटेल

भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन की तरफ से उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर लोकसभा सीट से अनुप्रिया पटेल चुनाव लड़ रही हैं. वह अपना दल सोनेलाल गुट की अध्यक्ष है. 2012 के विधानसभा चुनाव में वह विधायक चुनी गई थीं. इस के बाद वह 2014 के लोकसभा चुनाव जीत कर सांसद और मोदी मंत्रिमंडल में केन्द्रीय मंत्री बनीं. अनुप्रिया पटेल डाक्टर सोने लाल पटेल की बेटी हैं.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में डाक्टर सोने लाल पटेल को कमजोर वर्ग का प्रभावी नेता माना जाता है. उन का राजनीतिक कैरियर बहुजन समाज पार्टी से शुरू हुआ. वह कांशीराम के बेहद करीबी और बसपा के संस्थापक सदस्यों में से थे. डाक्टर सोनेलाल पटेल ने हमेशा जातिवाद का डट कर विरोध किया और सामाजिक असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़ी. शुरूआती दौर में वह भाजपा और उस के मनुवाद के प्रबल विरोधी थे. सोने लाल पटेल का जन्म कन्नौज जिले के बगुलिहाई गांव में एक कुर्मी हिंदू परिवार में हुआ था.

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आरोही : अविरल की बेरुखी की क्या वजह थी?

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हीनता और वितृष्णा का प्रतीक पादुका पूजन

भारत में  गुरु तो गुरु, उन की पादुकाएं तक पैसा कमाती हैं. इसे चमत्कार कहें या बेवकूफी, यह अपने देश में ही होना संभव है. धर्मगुरुओं ने प्रवचनों के जरिए लोगों में आज कूटकूट कर इतनी हीनता भर दी है कि वे मानसिक तौर पर अपाहिज हो कर रह गए हैं. धर्म के कारोबारी नहीं चाहते कि उन के अनुयायी कभी तर्क करें, इसलिए प्रवचनों और धार्मिक किस्सेकहानियों के जरिए उन्हें आस्था की घुट्टी पिलाई जाती है. हमारे धर्मप्रधान भारत देश में धर्मगुरुओं की भरमार है. हरेक नागरिक ने अपनी पसंद और रुचि के अनुसार गुरु बना रखा है.

इन धर्मगुरुओं की बादशाहत और ठाटबाट न तो पहले किसी सुबूत के मुहताज थे, न अब हैं. आम आदमी के मुकाबले औसतन हजारोंगुना ज्यादा संपन्न और सुविधाभोगी धर्मगुरु, हैरत की बात है, कोई उद्यम नहीं करते, न ही सांसारिक लोगों की तरह उन्हें परेशानियां ?ोलनी पड़ती हैं. त्याग, वैराग्य और तपस्या का चोला ओढ़े यह वर्ग सदियों से कंबल ओढ़ कर घी पी रहा है.

धर्म के व्यवसाय का हिसाबकिताब बेहद सरल है. श्रद्धालु जो पैसा चढ़ाते हैं, धर्मगुरु उसे बटोरते हैं. गुरुपूर्णिमा सरीखे पर्व पर तो यह धंधा अरबों का आंकड़ा पार कर जाता है. करोड़ों लोग पागलों की तरह गुरुपूजन में जुट जाते हैं. चूंकि यह एक धार्मिक परंपरा है इसलिए इसे बगैर किसी तर्क के निभाया जाता है. अपने प्रवचनों में तमाम छोटेबड़े धर्मगुरु यह जताने से नहीं चूकते कि बगैर गुरु के जीवन व्यर्थ है. वजह, गुरु रहित व्यक्ति को न तो ज्ञान मिलता, न ईश्वर, न मोक्ष, न मुक्ति और न ही संसाररूपी नरक से वह तर पाता है?.

लोगों का विश्वास, जो मूलतया भ्रम है, बना रहे, इस के लिए हर बार ये गुरु दोहराते हैं कि गुरु होने के नाते हम ईश्वर से भी बड़े हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं. थोड़ी सी दक्षिणा के बदले तुम्हारे कष्ट और विपत्तियां अपने ऊपर ले लेते हैं और यह उपकार महज इसलिए करते हैं कि तुम हमारे शिष्य हो.

ये बड़े खतरनाक और नुकसानदेह शब्द हैं, जो दहशत पैदा करते हैं. औसत आदमी इतने खौफ में आ जाता है कि जेब ढीली करने में ही भलाई सम?ाता है. इस के पीछे मानसिकता यह रहती है कि तकलीफें और परेशानियां और न बढ़ें. अगर गुरुजी आभूषण, वस्त्र और नकदी के एवज में काल्पनिक विपत्तियां अपने ऊपर ले रहे हैं तो सौदा घाटे का नहीं. पैसे का क्या है, वह तो आताजाता रहता है. आता है तो गुरुकृपा से ही है, जाता है तो गुरु की नाराजगी से. लोग हीनता से भरे रहें, इसलिए गुरु पादुका पूजन का विधान भी हर कहीं देखा जा सकता है. पादुका यानी बोलचाल की भाषा में जूता, जिसे एक खास जाति के लोग परंपरागत रूप से बना कर पेट पालते रहे हैं. इन बहिष्कृत और अछूतों का बनाया जूता धर्मगुरु के पांव में जाते ही करोड़ों का हो जाता है, लोग इसे पूजते हैं, कई तो चूमते भी हैं, माथा नवाना तो अनिवार्यता है.

धर्मशास्त्रों में जो लिखा है वह तो मूर्खतापूर्ण, काल्पनिक और ठगी से भरपूर सामग्री है ही मगर जो नहीं लिखा वह धर्म के कारोबारियों के खुराफाती दिमाग की वहशी और पैसाकमाऊ उपज है. पादुका पूजन का उल्लेख या विधान किसी धर्मग्रंथ में नहीं है लेकिन क्षेत्रवार शिष्यों के बढ़ जाने से धर्मगुरुओं ने यह रिवाज फैलाया. वजह, हर जगह तो वे खुद जा नहीं सकते थे, इसलिए जूता नाम की गुल्लक भेजना शुरू कर दी.

दोतरफा ठगी का धंधा

गुरु तो गुरु, उस के जूते भी पैसा कमा सकते हैं. यह चमत्कार या बेवकूफी जो भी कह लें अपने देश में ही होना संभव है. इसे संभव बनाने वाले लोगों में धर्मगुरुओं ने हीनता इतनी कूटकूट कर प्रवचनों के जरिए भर दी है कि वे मानसिक तौर पर अपाहिज हो कर रह गए हैं. किसी आदमी के जूते थाल में सजा कर रखना, उन पर फूल चढ़ाना, दीपक जलाना, अगरबत्ती जलाना लोगों की घटिया मानसिकता ही बताते हैं.

देशभर में यह ‘जूतापूजन’ परंपरा बड़ी भव्यता से संपन्न होती है. करने वाले आस्थावान होते हैं. इसलिए उन की बुद्धि या विवेक तर्क को नहीं स्वीकारती कि यह न केवल ठगी का एक जरिया है बल्कि हास्यास्पद और वितृष्णा पैदा करने वाला कार्य भी है. गुरु को ईश्वर से भी बड़ा मानना या बताना दोतरफा ठगी का धंधा है. ईश्वर चूंकि अस्तित्वहीन है, किसी ने उसे देखा नहीं, इसलिए साक्षात गुरु में उसे देखने की मनोवृत्ति व्यक्तिपूजा फैला कर लोगों से उन का स्वाभिमान छीन रही है.

लोग गुरुओं का जूता पूज रहे हैं, उसे माथे से लगा रहे हैं. चूम रहे हैं. इस से ज्यादा शर्मनाक और तरस खाने काबिल बात शायद ही दूसरी हो. 40-50 रुपए के कीमत की पादुका गुरु के ब्रैंडनेम के मुताबिक हजारोंलाखों रुपए कमा कर दे देती है. देने वाले धन्य हो जाते हैं कि हम ने अपना धार्मिक उत्तरदायित्व निभाया. गुरुपूजन नहीं कर पाए तो क्या, गुरु का पादुका पूजन कर पापों से मुक्त हो गए. मानव योनि में पैदा होने से बड़ा पाप कोई नहीं, ऐसा गुरुजी कहते हैं मगर खुद किन पापों के चलते इस योनि में आए, यह नहीं बता पाते वे.

एक बड़े गुरु की कोई दर्जनभर पादुकाएं अलगअलग हिस्सों में पुजवा कर खासा पैसा इकट्ठा कर लेती हैं. इन पैसों के बारे में कोई सवाल करने की जुर्रत नहीं कर सकता कि यह कहां जाता है. जहां पैसों से पाप धोने अर्थात और पाप करने की छूट हो वहां यह सवाल कोई पूछेगा भी नहीं. इसलिए गुरुद्रोह और गुरुनिंदा नर्क भुगतने वाले अपराध बारबार बताए जाते हैं.

इसी माया से वातानुकूलित आश्रम बनते हैं. शानदार मठमंदिर बनते हैं. महंगी विदेशी कारें आती हैं और अहम बात, गुरु की ब्रैंडिंग होती है जिसे देख दूसरे लोग भी उसे गुरु बनाने को टूट पड़ते हैं. धर्मगुरुओं का पैसों के मामले में दोहरा चरित्र और मानदंड शायद ही लोग कभी सम?ा पाएं. वजह, अपने इर्दगिर्द इन लोगों ने वाकई एक भव्य मायाजाल फैला रखा है जिसे देख मामूली आदमी की आंखें चौंधिया जाती हैं और इसी ऐश्वर्य के स्वामी को वह ईश्वर मान बैठता है.

अब तो उन के पास बड़ेबड़े राजनेता भी आते हैं क्योंकि पूरी राजनीति ही धर्म पर टिकी है. भारतीय जनता पार्टी की खासीयत तो यही है कि वह इन पादुका पुजवाने वाले गुरुओं को असली मार्गदर्शक मानती है. दरअसल, इस ठगी की तह में चमत्कारों के ?ाठे और गढ़े हुए किस्सेकहानी होते हैं जिन का बड़े पैमाने पर लिखित और मौखिक प्रचार गुरु गिरोह के सदस्य करते हैं. किसी को गुरु सपने में आते हैं तो किसी को साक्षात दर्शन दे जाते हैं. किसी की विपत्ति हजारों किलोमीटर दूर अपने आश्रम में बैठे गुरु ने हर ली थी तो किसी को विपत्ति से आगाह किया था. धंधे में फायदा गुरुमंत्र से हुआ था तो नौकरी गुरुकृपा से बची थी. गुरुकृपा से संतान तो आदिकाल से होती चली आ रही है.

इस तरह का प्रायोजित प्रचार कइयों को विक्षिप्त बना कर मनोचिकित्सकों की शरण लेने पर मजबूर कर चुका है. अब इस दिमागी हालत को भी लोग आस्था की अति और गुरुकृपा बताएं तो हालात सुधरने की उम्मीद करना बेवकूफी होगी. हकीकत में पादुका पूजन जातिवाद बनाए रखने के लिए ऊंची जाति के धर्मगुरुओं की नई सांचे में ढली सोच है कि हमें शूद्र स्पर्श न कर पाएं. सामंतवाद की बू भी इस में से आती है. राजेरजवाड़ों के जमाने में छोटी जाति वाले दबंगों के जूते छू कर ही बगैर पिटे आगे बढ़ पाते थे. अब इस प्रथा का स्वरूप बदल गया है- जूते पूजो भी और उस का शुल्क भी दो.

इतना ही नहीं, बड़े पैमाने पर देखें तो पादुका पूजन चलतेफिरते व्यवसाय का रूप भी धारण कर चुके हैं. नामीगिरामी संतों, जिन में शिर्डी के साईंबाबा भी शामिल हैं, की पादुकाएं देशभर में घुमाई जाती हैं, जिस से खासी आमदनी होती है. अभी कुछ माह पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने 2 पीठों के शंकराचार्य के रामपुर में पहुंचने पर सपरिवार पादुका पूजन कर आशीर्वाद लिया और राज्य की समृद्धि का आश्वासन भी लिया. एक तरह से सरकार की डोर पादुकाओं में अर्पित करना ही है.

इसी तरह कुछ माह पहले मध्य प्रदेश के गृह मंत्री ताऊध्वज साहू ने शिवगंगा आश्रम में पहुंच कर भंडारे का प्रसाद लिया और शंकराचार्य का पादुका पूजन भी किया. गुरुपूर्णिमा के दिन पादुका पूजन की हर छात्र को पट्टी पढ़ाई जाती है और फिर दक्षिणा देने को भी कहा जाता है. बड़े भी यह करते हैं. उन्हें फिर मिठाई, नैवेद्य, वस्त्र, दक्षिणा भी दी जाती है. बावजूद इन बेहूदगियों के, देश अगर तरक्की कर रहा है तो उस के अपराधी उद्योगपति, वैज्ञानिक, सैनिक और निर्भीक आलोचक हैं जो यह सम?ाते हैं कि जूतापूजन जैसे रिवाज लोगों को मानसिक गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं दे सकते.

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